विभिन्नता : पाश्चात्य सार्वभौमिकता को भारतीय चुनौती / Vibhinnata: Paschatay Sarvbhomikta Ko Bhartiya Chunauti (Being Different: An Indian Challenge to Western Universalism) 9789351160175

Synopsis India is more than a nation state. It is also a unique civilization with philosophies and cosmologies that are

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Hindi Pages 478 [440] Year 2013

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विभिन्नता : पाश्चात्य सार्वभौमिकता को भारतीय चुनौती / Vibhinnata: Paschatay Sarvbhomikta Ko Bhartiya Chunauti (Being Different: An Indian Challenge to Western Universalism)
 9789351160175

Table of contents :
कवर पेज
मुखपृष्ठ
विषय-सूची
प्राक्कथन
सन्निहित ज्ञान बनाम इतिहास-केन्द्रिकता
सन्नहित एकता बनाम कृत्रिम एकता
अराजकता के प्रति व्यग्रता बनाम जटिलता — अस्पष्टता से सहजता से निपटना
संस्कृतियों का पाचन बनाम अनुवाद-अयोग्य संस्कृत शब्द
1. दुस्साहस भिन्नता का
विचारों में विविधता (Pluralism) के ढोंग को भेदना
भिन्नता-जनित व्यग्रता अथवा परस्पर सम्मान?
हड़पना और आत्मसात करना
व्यग्रता का असत्यपूर्ण समाधान
पूर्वपक्ष: विपरीत/प्रतिलोम अवलोकन
2. योग — इतिहास से मुक्ति
परमेश्वर को समझने (जानने) के दो मार्ग
धार्मिक परम्पराएँ
यहूदी-ईसाई पन्थ
पश्चिमी श्रोताओं के लिए धर्म की व्याख्या
पश्चिमी लोगों के लिए उत्तेजक प्रश्न
धर्म और प्रत्यक्ष अनुभव
इतिहास वास्तव में इतिहास (History) एवं मिथक के साथ और भी बहुत कुछ है
इतिहास बनाम मिथक
सन्निहित (स्वानुभूत) ज्ञान की साधना-पद्धति
इतिहास-केन्द्रिक ढाँचा कैसे काम करता है
3. कृत्रिम एकता एवं समग्र एकता
समग्र एकता एवं कृत्रिम एकता की व्याख्या
वैश्विक तत्वों की तुलना
इन्द्र-जाल
‘बन्धु’-समरूपता का सिद्धान्त
काल, नित्य परिवर्तन एवं अ-रेखीय चक्रीय कार्य-कारण
परिदृश्य एवं सापेक्ष ज्ञान
स्वतन्त्रता एवं बहुलता
पश्चिम की कृत्रिम एकता
पश्चिम को गढ़ने हेतु टेम्पलटन योजना
पश्चिमी मतों का उदय—निहित समस्याएँ
ईसाई हठधर्मिता एवं यूनानी दलीलें—एक विसंगति
पश्चिम के पाँच कृत्रिम आन्दोलन
4. व्यवस्था और अव्यवस्था
भारतीय ‘अव्यवस्था’ और पश्चिमी चिन्ताएँ
अराजकता के साथ भारतीयों का धैर्य
पवित्र आख्यान
सन्दर्भगत नैतिकता
सौन्दर्यबोध, नैतिकता एवं सत्य
धार्मिक वन तथा यहूदी-ईसाई मरुस्थल
पश्चिमी जोकर एवं भारतीय विदूषक
5. अरूपान्तरणीय संस्कृत शब्द बनाम पश्चिमी पाचन
कम्पनशील अभिन्न एकता
प्रत्यक्ष अनुभव और परम्पराएँ
ध्वनि, उसके अर्थ एवं विषय-वस्तु की एकात्मता
मन्त्र
संस्कृत की खोज
संस्कृति ही भारतीय धार्मिक सभ्यता
भारतीय संस्कृति एवं अखिल एशियाई सभ्यताएँ
अरूपान्तरणीय श्रेणियाँ
6. पश्चिमी सार्वभौमिकता से मुकाबला
पाश्चात्य पाचन एवं संश्लेषण विषय के अध्ययन में जर्मनी का स्थान
हेगेल का पश्चिमी मिथक
पश्चिमी सार्वभौमिकता पर सामान्य प्रतिक्रियाएँ
पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता—ईसाइयत की दोहरी नीति
भारतीय नकली-धर्मनिरपेक्षता
उत्तर-औपनिवेशिक समीक्षा
आध्यात्मिक समानता का भोलापन
निष्कर्ष—पूर्वपक्ष और भविष्य की राह
पूर्वपक्ष एवं सापेक्ष धर्म
अपेक्षित पश्चिमी प्रतिक्रियाएँ
कट्टरपन्थी विरोध
इतिहास-केन्द्रिकता की सीमाओं में ही उदारता
धर्म के गम्भीर खोजकर्ता
धार्मिक गुरुओं को चुनौती
गाँधी जी का ‘स्व-धर्म’ और ‘पूर्वपक्ष’
परिशिष्ट क : धर्म की अभिन्न एकता
हिन्दू धर्म की ‘ईश्वर-ब्रह्माण्ड-मानव’ सम्बन्धी अभिन्न एकता
श्री अरविन्द का प्रत्यावर्तन और क्रमिक विकास का सिद्धान्त
‘अभिन्न एकता’ के प्रति बौद्ध धर्म का दृष्टिकोण
दो सत्य और सन्दर्भ
हिन्दू और बौद्ध धर्म में अस्मिता की अवधारणाएँ
जैन धर्म—परस्पर सम्मान के विविध दृष्टिकोण
परिशिष्ट ख : धार्मिक एवं इब्राहमी परम्पराओं की पद्धतियों का प्रणालीय ढाँचा
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व भ ता पा ा य सावभौ मकता को भारतीय चुनौती      

राजीव म हो ा

देवे

    अनुवादक

सं ह, ह दी यू .एस.ए. सुरेश चपलू नकर       मु य नरी क

जगदीश चं प त  

हापरकॉ लं स प लशस इं डया

वषय-सू ची ा थन स

हत ान बनाम इ तहास-के

कता

स हत एकता बनाम कृ म एकता अराजकता के

त य ता बनाम ज टलता — अ प ता से सहजता से नपटना

सं कृ तयों का पाचन बनाम अनुवाद-अयो य सं कृत श द 1. द ु साहस भ ता का वचारों मे ं व वधता (Pluralism) के ढोंग को भेदना भ ता-ज नत य ता अथवा पर पर स मान? हड़पना और आ मसात करना य ता का अस यपू ण समाधान पू वप : वपरीत/ तलोम अवलोकन 2. योग — इ तहास से मु परमे र को समझने (जानने) के दो माग धा मक पर पराएँ यहू दी-ईसाई प थ प मी ोताओं के लए धम क प मी लोगों के लए उ ज े क धम और



या या न

अनुभव ें











इ तहास वा तव मे ं इ तहास (History) एवं मथक के साथ और भी बहुत कुछ है इ तहास बनाम मथक स

हत ( वानुभूत) ान क साधना-प त

इ तहास-के

क ढाँचा कैसे काम करता है

3. कृ म एकता एवं सम एकता सम एकता एवं कृ म एकता क

या या

वै क त वों क तुलना इ -जाल ‘ब धु’-सम पता का स ा त काल, न य पिरवतन एवं अ-रेखीय च पिरदृ य एवं सापे

य काय-कारण

ान

वत ता एवं बहुलता प म क कृ म एकता प म को गढ़ने हेत ु टे पलटन योजना प मी मतों का उदय— न हत सम याएँ ं एक वसं ग त ईसाई हठध मता एवं यू नानी दलीले— प म के पाँच कृ म आ दोलन 4. यव था और अ यव था भारतीय ‘अ यव था’ और प मी च ताएँ अराजकता के साथ भारतीयों का धैय

प व आ यान स दभगत नै तकता सौ दयबोध, नै तकता एवं स य धा मक वन तथा यहू दी-ईसाई म

थल

प मी जोकर एवं भारतीय वदू षक 5. अ पा तरणीय सं कृत श द बनाम प मी पाचन क पनशील अ भ एकता य

अनुभव और पर पराएँ

व न, उसके अथ एवं वषय-व तु क एका मता म सं कृत क खोज सं कृ त ही भारतीय धा मक स यता भारतीय सं कृ त एवं अ खल ए शयाई स यताएँ अ पा तरणीय े णयाँ 6. प मी सावभौ मकता से मुकाबला पा ा य पाचन एवं सं लेषण वषय के अ ययन मे ं जमनी का थान हेगल े का प मी मथक प मी सावभौ मकता पर सामा य त याएँ प मी धम नरपे ता—ईसाइयत क दोहरी नी त भारतीय नकली-धम नरपे ता उ र-औप नवे शक समी ा

आ या मक समानता का भोलापन न कष—पू वप पू वप अपे

और भ व य क राह

एवं सापे

धम

त प मी त याएँ क रप थी वरोध इ तहास-के

कता क सीमाओं मे ं ही उदारता

धम के ग भीर खोजकता धा मक गु ओं को चुनौती गाँधी जी का ‘ व-धम’ और ‘पू वप ’ पिर श क : धम क अ भ एकता ह दू धम क ‘ई री अर व द का

ा ड-मानव’ स ब धी अ भ एकता

यावतन और

‘अ भ एकता’ के

मक वकास का स ा त

त बौ धम का दृ कोण

दो स य और स दभ ह दू और बौ धम मे ं अ मता क अवधारणाएँ जैन धम—पर पर स मान के व वध दृ कोण ँ ा पिर श ख : धा मक एवं इ ाहमी पर पराओं क प तयों का णालीय ढाच

लेखक क बात

मैं इस पु तक के अं ज़ े ी सं करण को मले अ य त मह व और सहयोग के लए आभारी हू ,ँ जसके कारण पु तक को अ य भारतीय भाषाओं मे ं का शत करने क रे णा मली। ी देवे सं ह एक असाधारण य हैं और यह मेरा सौभा य था क उ होंने पु तक के ह दी सं करण को अनुवाद कर का शत करवाना अपनी सव ाथ मकता बनाया। उ होंने अपने अथक पिर म से बना उ साह खोये हुए इस बहुत ही ज टल और बड़ी पिरयोजना मे ं आ अन गनत सम याओं को हल कया। उनक तब ता और दृढ़- न य से इस पिरयोजना को ल बे समय तक फू त मलती रही। मैं उनक पू री टीम का भी आभारी हू ,ँ वशेष प से ी जे.सी. प त का, जनक सम पत मेहनत ने इस सपने को वा त वकता का प दया। मुझे आशा है क जो च इस पु तक के अं ज़ े ी सं करण मे ं उठाये गये मु ों और व लेषणों ने उ प क है, ह दी सं करण उसे और आगे बढ़ायेगा। अ त मे ं मैं हापरकॉ लं स (Harpercollins) को भी ध यवाद देता हू ँ ज होंने इस ह दी सं करण के काशन मे ं त काल च दखाई और इसे समय पर का शत करने के लए ाथ मकता नधािरत क । जो पाठक इस पु तक मे ं दये गये वषयों पर चचा करना चाहते हैं मैं उनको अपने न न ल खत ऑनलाइन चचा समू ह मे ं स म लत होने के लए भी आम त करता हू ।ँ http://beingdifferentbook.com/discuss/ राजीव म हो ा जू न 2013



य पाठकों

सन् 2011 मे ं यू जस मे ं थत ं सटन व व ालय मे ं ी राजीव म हो ा जी क “Breaking India” नामक पु तक पर एक वमश गो ी थी। गो ी सफल रही और एक ल बे अ तराल के बाद राजीव जी से मलने का अवसर मला। मैं वहाँ से उनक “Breaking India” और “Being Different” पु तकें पढ़ने के लए ले आया। मैनं े जब “Being Different” पढ़नी ार भ क तो उसे एक पल के लए भी छोड़ने का मन नहीं करता था। यू ँ तो मैं ी राजीव म हो ा जी को लगभग 15 वष से जानता हू ,ँ पर तु इस पु तक ने मेरे दय मे ं उनके स मान को कई गुना बढ़ा दया। मैनं े अपने जीवन मे ं ं ड़ों पु तकें पढ़ी है,ं पर तु इस पु तक ने मुझे जतना भा वत कया है उतना सैक कसी दू सरी पु तक ने नहीं कया। यह पु तक राजीव जी क एक ल बे समय क तप या का फल है। भारतीय सं कृ त और स यता को सही प मे ं तुत करने के लए उ होंने जो शै णक व आ या मक शोध काय और सु श त शा ाथ कये है,ं उसी म थन के पिरणाम व प यह अमृत के समान उपयोगी पु तक हम सब को उपल ध हो पाई है। मैं राजीव म हो ा जी को 21वीं शता दी का ववेकान द मानता हू ।ँ इनका ‘सादा जीवन उ वचार’ का दृ कोण उनके जीवन और लेखनी मे ं प झलकता है। जो य 44 वष क अव था मे ं अपने सफल यवसाय से थायी अवकाश ले कर अपना पू रा समय अपनी स यता को दू सरी स यताओं के साथ त पधा कर ऊँचा उठाने के य न मे ं लगाता है, उसके जीवन का येय उ कृ ही होगा। ँ ाना चाहता था और जब राजीव जी ने मुझ से मैं इस पु तक को जन-जन तक पहुच ‘‘Being Different’’ पु तक का अनुवाद ह दी मे ं करने के लए पू छा तो मैं सहष तैयार हो गया। मैं अपनी प नी और लगभग 350 कायकताओं के साथ मल कर अमरीका क सबसे बड़ी ह दी सं था, ह दी यू .एस.ए. का सं चालन करता हू ।ँ चू ँ क मैं ह दी के चार- सार एवं लगभग 4,000 युवा व ा थयों को ह दी पढ़ाने मे ं अपना योगदान दे रहा हू ँ तो मेरे लए यह सहज था क Being Different के ह दी सं करण के अनुवाद एवं काशन मे ं मैं अपना सहयोग दू ।ँ मैं राजीव जी का कृत हू ँ क उ होंने मुझे Being Different ( व भ ता) पु तक का ह दी अनुवाद करने का अवसर दया। आज सारे व और वशेषकर भारत मे ं वै ीकरण के नाम पर पा ा य स यता को चारों ओर फैलाने का जो घृ णत यास हो रहा है और उसके जो दु पिरणाम हमारी वतमान पीढ़ी झेल रही है वह हमारे सामने है।ं इस पु तक को वयं पढ़ कर तथा ों







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दू सरों को पढ़ने के लए िे रत करके हम भारतीय समाज मे ं एक नई ा त और अपनी सं कृ त और स यता के त स मान और गौरव क भावना ला सकते है।ं इस पु तक को पढ़ने से आपको पा ा य स यता के बारे मे ं सही जानकारी तो मलेगी ही और साथ ही अपनी भारतीय स यता का यायसं गत और सकारा मक व प भी आपके सामने आयेगा। हमे ं अपनी सं कृ त को बचाने के लए अपनी भ ता पर ज़ोर यों देना है, यह आपको पु तक पढ़ कर एकदम प हो जायेगा। दू सरी स यताओं से हम भ कैसे है,ं यह समझे बना हम अपनी स यता का बचाव भावशाली प से नहीं कर सकते। आ या मक ान ा करने क हमारी स हत प त प म क इ तहासके कता से े यों है अथवा हमारी प त से उ प हुई अ भ एकता प म क कृ म एकता से अ धक गुणकारी कैसे है, इन नों का खुलासा राजीव म हो ा जी ने बहुत ही कुशलतापू वक कया है। इनके अ तिर पाठक भारतीय जीवन- णाली ं े और अपनी भाषा, वशेषकर सं कृत के दृ कोण को उ चत पिर े य मे ं समझ पायेग ं ।े के श दों का गलत अनुवाद और योग करने से बचेग मैं देहरादू न नवासी ी जगदीश चं प त, जो पं डत ीराम शमा आचाय जी के श य रहे है,ं का आभारी हू ँ ज होंने अनुवाद का बहुत ही बारीक से अ ययन करके उसमे ं सटीक सुधार कये। ी सुरेश चपलू नकर ने भी आर भक अनुवाद करके एक क ठन काय का ी गणेश कया। इसके अ तिर ी सुशील अ वाल, ी पं कज स सेना, ी सुरें ग भीर, ी अ भनव शु ल, ी नरेश शां ड य और ी रतन शारदा ने अनुवाद के नरी ण और सुधार मे ं योगदान दया। ं सटन व व ालय के छा पाथ सं ह पिरहार ने पु तक के रेखा च ों को बनाने मे ं सहायता क । अ त मे ं मैं ह दी यू .एस.ए. का आभारी हू ँ जसने मुझे इस पु तक को आप तक ँ ाने मे ं स म बनाया। मुझे पू ण व ास है क इस पु तक को खरीदने और पढ़ने पहुच का आपका नणय पू ण प से यथो चत होगा और भारतीय सं कृ त और स यता को उ चत काश मे ं उजागर करने मे ं सहायक होगा। देवे सं ह, अनुवादक यू जस , जू न 2013

ा थन

‘मैं केवल भारतीय धा मक पिरदृ य का उपयोग करते हुए उस व लेषणा मक अवलोकन को उलट देना चाहता हू ँ जो ाय: प म से पू व क ओर के त होता है, और अनजाने मे ं प म को वशेषा धकार दान करता है। इसे उलटने से प मी सम याओं का मू यां कन एक व श तरीके से स भव हुआ है, जसके ारा उसके कुछ अनदेखे पहलू उजागर हुए है।ं इससे यह देखने मे ं आया है क भारतीय धा मक सं कृ तयाँ कई सम याओं को, जनका सामना आज व कर रहा है, सुलझाने और कम करने मे ं कैसे योगदान दे सकती है।ं भारत को केवल ाचीन और नवीन के एक पु ल दे क तरह नहीं देखा जा सकता, जसे अ या शत और असहज प से बना कसी ाकृ तक एकता के कृ म प से जोड़ दया गया हो। न तो भारत प मी आधु नक जीवनशैली के कुछ ँ ीवादी ह सों का केवल एक व च सं ह मा है, और न ही यह वै क पू ज यव था मे ं एक क न भागीदार। भारत वयं अपनी एक व श एवं एक कृत स यता है, जसक गहन मतभेदों का समाधान करने, व भ सं कृ तयों, स दायों और दशनों के साथ रचना मक स ब ध था पत करने तथा मानवता क कई व वध धाराओं को शा तपू वक समा हत करने क मता स हो चुक है। ये मू य देव व, ा ड और मानवता वषयक वचारों पर आधािरत है,ं जो प मी स यता क मौ लक अवधारणाओं के वपरीत है।ं यह पु तक उन स ा तों और अवधारणाओं क खोज करती है। ‘‘मैं चाहता हू ँ क व क सभी सं कृ तयाँ मु प से मेरे घर के आस-पास वा हत हों, पर तु मैं कसी के भी ारा उड़ा लए जाने से इं कार करता हू ।ँ ’’ ँ ी —गाध यह पु तक ‘भारत प म से भ है’ के बारे मे ं है। इसका अ भ ाय कुछ चहेती अवधारणाओं, जैसे ‘प मी तमान सावभौ मक है’ं क पू वधारणा और भारतीय धा मक पर पराएँ भी ‘वही श ा देती है,ं ’ जैसी क यहू दी और ईसाई पर पराएँ, को ँ ने के चुनौती देना है। जहाँ एक ओर वेद यह कहते हैं क ‘‘स य एक है, उस तक पहुच ँ ा क भारतीय माग अनेक,’’ पर तु उन माग मे ं अ तर नग य नहीं है।ं मैं यह तक दू ग धा मक पर पराएँ भले ही सवाग पिरपू ण न भी मानी जाये,ं पर तु वे ईमानदारी से सही अथ मे ं बहुलतावादी सामा जक यव था लाने हेत ु पिरदृ य एवं तकनीक तथा व भ मतों के बीच पू ण एक करण क सु वधा दान करती है,ं जनमे ं ना तकता और व ान भी स म लत है।ं वे पू रे ाणी जगत हेत ु पयावरण क नर तरता और श ा के नमू ने दान करती है जो हमारे आने वाले कल के लए बहुमू य है।ं आशा क जाती है क यह पु तक भारतीय धा मक एवं प मी स यताओं के बीच एक गहरे तथा सु वचािरत अ तस ब धों क भू मका था पत करेगी। ो े े ौ ि ओं ी

इन तक को तुत करने के दौरान मुझ पर यापक पिरभाषाओं, सामा यीकरण एवं चरम वरोधाभासों के उपयोग का आरोप लग सकता है। जब मैं ‘‘प म बनाम भारत’’ अथवा ‘‘यहू दी-ईसाई प थ बनाम भारतीय धा मक पर पराओं’’ क बात क ँ गा तो मुझे अ छ तरह पता है क मैं उस तरह के अ नवायतावाद मे ं ल होता ँ ा जसे उ र-आधु नक वचारकों ने सही चुनौती दी है। मैं इस बात से भी दखाई दू ग अवगत हू ँ क इस कार का वृहद वग करण व वध पर पराएँ स म लत कये हुए है जो एक-दू सरे से भ और ाय: वरोधाभासी भी है।ं 1 मैं इन ववरणों को पािरवािरक समानताओं और मागदशक के प मे ं देखता हू ,ँ न क मू त या अपिरवतनीय इकाईयों क तरह। इसके अ तिर अ धकां श लोग इ हे ं व श आ या मक और ा डीय झुकाव वाली वा त वक इकाईयों क तरह समझते है,ं भले ही उ हे ं एक-दू सरे के वरोधाभासी प मे ं ही पिरभा षत यों न कया जाये। अत: हमारी समझ क गहराई को बढ़ाने के लए इन ववरणों को वाद- ववाद आर भ करने और दोनों प ों के बीच अ तर प करने के लए योग कया जा सकता है। और प कहा जाये तो इस पु तक मे ं ‘प म’ श द के उपयोग ारा उन सं कृ तयों और स यताओं को स द भत कया गया है, जो ाचीन इजराइल क बाइबल-आधािरत तथा यू नान और रोम क ाचीन पर पराओं के जबरन मेल से उ प हुई है।ं यहाँ मेरा यान अमरीक इ तहास और सं कृ त पर रहेगा, यों क आज वे ही ‘‘प मी पहचान’’ के सबसे बड़े अगुआ है।ं मैं यू रोपीय इ तहास क जाँच मु य प से प म क भारत के त सोच एवं उनक वयं क समझ क जड़ों को उजागर करने के लए करता हू ,ँ और मैं भारतीय धम के त प मी दृ कोण को आकार देने मे ं जमनी क भू मका पर वशेष यान देता हू ।ँ यहाँ ‘‘भारत’’ से आशय एक आधु नक रा एवं जस स यता से वह उभरा, दोनों से है। उन कारणों क वजह से, जनक चचा व तार से आगे क जायेगी, मैं भारतीय पहचान को उसके अवयवों मे ं वख डत करने के च लत चलन का अनुसरण नहीं करता, अथात ‘भारत को तोड़ना’ (◌ँBreaking India) क या जसका वणन मैनं े अपनी इसी शीषक वाली पछली पु तक मे ं व तार से कया है। जहाँ तक ‘‘यहू दी-ईसाई’’ श द का स ब ध है, यह एक कार का वणसं कर है, जो कुछ यहू दयों और ईसाइयों को बेचन ै भी करता है, यों क यह अ य धक भ और ाय: प वरोधी प थों को एक साथ दखाता है। जहाँ इनक भ पहचान मह व रखती है, वहाँ मैं इस म ण का उपयोग टालता हू ।ँ फर भी दोनों के समान प थक तमानों का उ ख े करने मे ं यह श द उपयोगी है, वशेषकर ऐ तहा सक रह यो घाटन को दये गये वशेष मह व के त। (यह तमान एक अ य प मे ं इ लाम मे ं भी पाया जाता है, पर तु इस पु तक मे ं मैं इ लाम पर चचा नहीं कर रहा हू )ँ । ो



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‘‘धम’’ को भारतीय आ या मक पर पराओं के पिरवार से उ प हुए श द क तरह इं गत कया जाता है, जो आज ह दू , बौ , जैन और सख धम के प मे ं अ भ य है।ं मैं यह दखाऊँगा क धम के व भ पिरदृ य और च लत साधनाएँ आ या मक तर पर अ त न हत अ भ एकता को द शत करते हैं जो उनमे ं व मान खुलप े न और ग़ैर-आ ामकता को सुदढ़ ृ करती है और उनका आधार भी है। ‘‘धम’’ को पिरभा षत करना आसान नहीं है और इस पु तक का यथे भाग इसके कुछ पहलुओ ं को समझाने के लए सम पत कया गया है। ‘‘धम’’ को ाय: ‘‘िरलीजन’’ (religion), ‘‘प थ’’ (path), ‘‘ नयम’’ (law) अथवा ‘‘नी त’’ (ethics) के प मे ं अनुवा दत कया जाता है। ये सभी अथ धम के मू ल प को समझाने मे ं असमथ है।ं यह कहना पया होगा क पार पिरक सं कृत श दाव लयों मे ं उपल ध धम के स ा तों एवं दशन-पर पराओं का अं ज े ी मे ं कोई खरा अनुवाद नहीं है; धम मे ं व वध जीवन शै लयाँ और वचारधाराएँ स म लत हैं जो कई स दयों के दौरान वक सत हुई है।ं जैसा क मैनं े अभी उ ख े कया, प मी मू लभू त अवधारणाएँ और मू य एक ोत से नहीं ब क दो से उ प हुए हैं — पैग़ बरों और मसीहाओं ारा अ भ य यहू दीईसाई ऐ तहा सक रह यो घाटन और अर तू वादी तक (Aristotelian logic) और ँ ा क इसके अनुभवज य ान पर आधािरत ीक तकशा । मैं व तार से तक दू ग पिरणाम व प वह सां कृ तक रचना जसे ‘‘प म’’ कहते है,ं एक अ भ एक कृत इकाई नहीं ब क कृ म एकता पर आधािरत है। यह ग तशील तो है पर तु मू ल प से अ थर भी, जसके पिरणाम व प बेचन ै , व तारवादी और बहुधा आ ामक ऐ तहा सक पिरयोजनाएँ ज म लेती हैं और साथ ही य ता एवं आ तिरक हलचल भी। इस अ थरता का वनाशकारी भाव न केवल ग़ैर-प मी लोगों पर ब क वयं प मी लोगों पर भी पड़ा। इसके वपरीत भारत क सां कृ तक सं रचनाएँ अपे ाकृत अ धक थर, लचीली तथा कम व तारवादी है।ं इसके अ तिर धम का आधार (जो तनाव और योगों के बना नहीं रहा है) प म के ऐ तहा सक रह यो घाटनों के दावों तथा व ान बनाम धम के सं घष से दू र रहा है। जैसा क प होगा, इन दो भ वै क दृ कोणों क मेरी खोज कसी तट थ, उदासीन थ त से नहीं उपजी है (जो क वैसे भी अस भव होता), ब क प प से धा मक दृ कोण से उपजी है। हालाँ क मैं यह नहीं सुझा रहा हू ँ क हमे ं उसी ाचीन का प नक सुनहरे अतीत क ओर वापस लौट जाना चा हए जसक वकालत ाय: इसी तरह क जाती है। मैं केवल भारतीय धा मक पिरदृ य का उपयोग करते हुए उस व लेषणा मक अवलोकन को उलटना चाहता हू ँ जो ाय: प म से पू व क ओर के त होता है और अनजाने मे ं प म को वशेषा धकार दान करता है। इसे उलटने से प मी सम याओं का मू यां कन स भव हुआ है जसके ारा उसके कुछ अनदेखे पहलू उजागर हुए है।ं इससे यह देखने मे ं आया क भारतीय धा मक सं कृ तयाँ कई ओं





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सम याओं को, जनका सामना आज व कर रहा है, कैसे कम करने और सुलझाने मे ं योगदान दे सकती है।ं भारत को केवल ाचीन और नवीन के एक पु ल दे क तरह नहीं देखा जा सकता जसे अ या शत और असहज प से बना कसी ाकृ तक एकता के कृ म प से जोड़ दया गया हो। न तो भारत प मी आधु नक जीवनशैली के कुछ ह सों का ँ ीवादी यव था मे ं एक केवल एक व च सं ह मा है और न ही यह वै क पू ज क न भागीदार है। भारत वयं अपनी एक व श एवं एक कृत स यता है जसक गहन मतभेदों का समाधान करने, व भ सं कृ तयों, स दायों और दशनों के साथ रचना मक स ब ध था पत करने तथा मानवता क कई व वध धाराओं को शा तपू वक समा हत करने क मता स हो चुक है। ये मू य द यता, ा ड और मानवता वषयक वचारों पर आधािरत हैं जो प मी स यता क मौ लक अवधारणाओं के वपरीत है।ं यह पु तक उन स ा तों और अवधारणाओं क खोज करती है। इस व लेषण के कुछ ह से अ य धक आलोचना मक हैं और स भवत: न ं े जो प मी सं कृ त केवल प मी लोगों ब क उन भारतीयों के भी कान खड़े करेग ं े क प मी सं कृ त क से लगाव रखते हैं (जो वयं मैं भी रखता हू )ँ । वे ज़ोर देग आ म-आलोचना करने क वृ त इसक वशेषता और तौर-तरीका है। हालाँ क ऐसी आलोचना सदैव प मी े णयों एवं उनके ानो पादन के सं थानों क सीमाओं मे ं ही होती है जसके पिरणाम व प वे अपनी बहुत-सी क मयों के त बेख़बर है।ं भारतीय धम क प म से तुलना करने मे ं मैं दो चरम छोरों से बचना चाहता हू ।ँ एक ओर, भारतीय धा मक ान और उसके दृ ा तों पर अ य धक बल देने से उ रा ीयता के पनपने मे ं ( जससे उसी कार क कुछ सम याएँ उ प हो सकती हैं जो प म के अहं कार मे ं है)ं और पिरणाम व प अलगाववाद और वै क तर पर काय क वफलता मे ं भी। दू सरी ओर, य द धम को केवल पृथक वचारों के एक उदार सं ह के प मे ं ही तुत कया जाये तो पिरवतनकारी श के प मे ं काय करने हेत ु इसके अ दर आव यक सामं ज य का अभाव रहेगा। इन च ताओं को यान मे ं रखते हुए मैं भारतीय धा मक एवं यहू दी-ईसाई पर पराओं के बीच मुख अ तरों को चार े ों के प मे ं तुत करता हू ।ँ 1) स हत ान बनाम इ तहास-के कता 2) अ भ एकता बनाम कृ म एकता 3) अराजकता के त य ता बनाम ज टलता एवं अ प ता से सहजता से नपटना 4) सं कृ तयों का पाचन बनाम अनुवाद-अयो य सं कृत श द ो



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इन वरोधाभासी े ों को सं प े मे ं न नानुसार अ यायों मे ं इन पर व तार से चचा क गयी है।



हत ान बनाम इ तहास-के

तुत कया गया है, एवं बाद के

कता

भारतीय धा मक और यहू दी-ईसाई पर पराएँ ई र को समझने के अपने दृ कोणों मे ं मू लत: भ है।ं धम पिरवार ( जसमे ह दू , बौ , सख और जैन धम स म लत है)ं ने देव व और चेतना क उ थ तयाँ ा करने के लए ‘आ या म- व ा’ स ब धी ृ ला वक सत क आ तिरक व ान एवं अनुभवा मक तकनीकों क एक व तृत ं ख है। ‘‘आ या म व ा’’ ान और तकनीकों का वह सं ह है जसे स साधकों क स दयों से चल रही चेतना क कृ त क अनुभवज य खोज के पिरणाम व प चुना गया और उ त साधकों ारा अ यास मे ं लाया जाता रहा। इन ववरणों और उन स ों को जो इन खोजों मे ं रत रहे है,ं त ा तो ा है पर तु उ हे ं कानू नों, मसीहाओं, या वश ण े ी के अ वचल स ा तों मे ं नहीं बाँधा गया। वे न तो नयम-सं हताएँ हैं और न ही पू व रह यो घाटनों का क तपय इ तहास, ब क वे गहन अनुभू तयों और उनक पिरवतनकारी श यों के पुन: अनुभव और पुन: स ष े ण के मागदशक है।ं उनके स य को येक साधक ारा फर से खोजना तथा य अनुभव कया जाना होता है। मैनं े सु वधा के लए इस आ तिरक व ान और आ या म- व ा का ‘‘स हत ान’’ के नाम से नामकरण कया है। इसके वपरीत यहू दी-ईसाई पर पराएँ पैग़ बरों के ऐ तहा सक रह यो घाटनों पर नभर हैं जो मानव के सामू हक भा य क बात करते है।ं इसके अनुसार मानव के हालात अव ा के कृ य अथवा ‘‘पाप’’ से उ प होते आ रहे है,ं जो आदम और ह वा (पू री मानवता के पू वज) ारा कये गये ‘‘मू लभू त पाप’’ (original sin) से ार भ हुए। इन मा यताओं के अनुसार येक य का ज म ‘‘पापी’’ के प मे ं होता है। इस लए ई र से मलने मे ं मानव असमथ है (कम-से-कम भारतीय धा मक अथ मे ं तो नहीं); यहाँ आ या मक ल य मु (Salvation) है जसे केवल God क आ ा के पालन से ही ा कया जा सकता है और जसे व श पैग़ बरों और ऐ तहा सक घटनाओं ारा ही समझा जा सकता है। इस लए उस दैवी ह त प े के ऐ तहा सक द तावेज को सँभाल कर रखना आव यक है और उसके स य को आगे बढ़ाना और आ ामक तरीके से दू सरों पर थोपना भी अ नवाय है। इस द तावेज का ल य य यों को सामू हक प से एक व श ‘ नयम’ का पालन करवाना है। इस इ तहास को सावभौ मक माना जायेगा भले ही इसके त न ध ( य गत और सामू हक दोनों) कतने ही व श एवं दोष यु यों न हों। मानवता के सामू हक भा य का नधारण और याय व के अ तम दन (End of time) कया जायेगा। इ तहास क ऐसी अ वचल थ त य गत आ या मक खोजों के भाव को कमजोर करती है (इस लए इन पर पराओं मे ं रह यवा दयों को स देह क दृ से ै औ े े ों ी ै

देखा गया है) और स य के त पध दावों का आधार बनती है जनका समाधान नहीं कया जा सकता। इसके अ तिर इस पिरभाषा के अनुसार ज हे ं ये ऐ तहा सक रह यो घाटन सुलभ नहीं है,ं उनको अँधरे े मे ं रहते हुए God से स पक करवाने वाले मौ लक साधनों से वं चत रहना पड़े गा। मैनं े इ तहास के दौरान खुलासा हुए ई रीय स य के व श असं गत दावों से आस को स द भत करने के लए ‘‘इ तहासके कता’’ श द का नामकरण कया है। मैं इस इ तहास के त आस को भारतीय धा मक और यहू दी-ईसाई माग के बीच सबसे मुख अ तर मानता हू ँ और इसे एक सम या क तरह देखता हू ँ जो अ या शत मनोवै ा नक, धा मक और सामा जक सं घष पैदा कर सकती है।

स हत एकता बनाम कृ म एकता भारतीय धा मक पर पराओं मे ं अ त न हत एकता क सोच यहू दी-ईसाई पर पराओं मे ं एकता क समझ से बलकुल भ है। सभी भारतीय धा मक स दाय ऐसा मानते हैं क अ तत: ा ड एक एक कृत इकाई है जसमे ं परम स य और उसक सापे य अ भ य याँ गहराई से जुड़ी हुई है।ं इसके वपरीत प मी दृ कोण एक ओर तो यहू दी-ईसाई ऐ तहा सक रह यो घाटनों क चरम थ त तथा दू सरी ओर अ य धक ैतवादी एवं अणुवादी यू नानी त वमीमां सा और अर तू के -आधारी तक (Aristotelian binary logic) से नकले हुए ान के बीच आपसी तनाव ारा गढ़े गये है।ं पिरणाम व प, प मी एकता क अवधारणा गहन प से सं कट मे ं है। पहली सम या, रह यो घाटन एवं तक के बीच वभाजन के कारण (यहू दी और यू नानी के बीच, जैसा इस वभाजन को कहीं-कहीं व णत कया जाता है) और दू सरी, इस तक का अ त न हत बखरा हुआ गुण और उससे उ प का प नक यू नानी सोच के कारण उ प हुई है। मैं अ याय 3 मे ं चचा क ँ गा क भारतीय धा मक पर पराएँ कस तरह अ भ एकता क भावना से पो षत होती है,ं जब क यहू दी-ईसाई पर पराएँ व भ कार क कृ म एकताओं पर अवल बत हो कर अ त न हत प से अ थर एवं सम या त है।ं व भ भारतीय धा मक स दाय भले ही स ा तों और साधनाओं मे ं कुछ गहन भ ताएँ लये हुए हों, पर सभी एक कार क अ भ एकता द शत करते है।ं हालाँ क सामा य लोगों को इसक अनुभू त क ठनाई से होती है, पर इसका अनुभव पाने के सं साधन व वध आ या मक साधनाओं मे ं अ त न हत है।ं यहाँ आधारभू त एकता क भावना मजबू त है और इस अनुभव को समझने के लए बहुत कुछ नया करने क छूट भी रहती है। पिरणाम व प, यहाँ बना कसी अ यव था के डर के साधनाओं व दाश नक समझ क अ य धक व वधता दखाई देती है। प मी वै क दृ कोण, चाहे वह धा मक हो या धम नरपे , एक अलग भू मका से आर भ होते है,ं जनके अनुसार ा ड अ त न हत प से अवयवों या अलग ँ ै ों ों ीं ै ेऔ ों

त वों का एक जमावड़ा है। यहाँ बहस इन बातों पर नहीं क व वधता कैसे और यों उभरती है, ब क इस पर है क व वधता से एकता कैसे उभर सकती है। ऐसी एकता ँ कर यायो चत ठहराना पड़ता है और वाभा वक नहीं, ब क इसे बार-बार ढू ढ पिरणामत: सं योग सदैव अ थर ही होता है। यहू दी-ईसाई मत ई र को (कुछ सं शोधनों के साथ) गहन प से अलग तथा मानव और व से बहुत दू र देखते हुए आर भ होते है,ं जहाँ हर वभा जत प एक-दू सरे से पू णतया भ है। पार पिरक प मी दशन और उससे उपजा व ान ( फर से कुछ सं शोधनों के साथ) इस भू मका से ार भ होते हैं क ा ड आ वक इकाईयों या अलग मू लभू त ख डों से बना है। व ान और प थ दोनों मे ं ही एकता क खोज अथवा आ व कार क आव यकता महसू स हो रही है, जसे वे कुछ य ता और क ठनाई से पा भी लेते है।ं इसके अ तिर प मी मत और व ान के ार भक एवं नणायक ब दुओ ं मे ं अ य धक आपसी तनाव और वरोधाभास है जो प मी स यता को अ नवाय प से असं गत मू लभू त इकाईयों का असुर त और अ थायी जोड़ बना देता है। अ याय 3 मे ं इस भ ता का व तार से व लेषण कया गया है।

अराजकता के नपटना

त य ता बनाम ज टलता — अ प ता से सहजता से

प म क तुलना मे ं भारतीय धा मक स यताएँ व वधता और अ प ता के त अ धक सहज एवं आ त है।ं अराजकता को रचना मकता एवं ग तशीलता के ोत के प मे ं देखा जाता है। चू ँ क परम स य एक अ भ एक कृत सामं ज य क अव था है, इस लए अराजकता एक सापे य त य है जो ा ड क अ त न हत स ब ता मे ं ख़तरा या अवरोध पैदा नहीं कर सकता। बीसवीं सदी के महान भारतीय योगी और दाश नक ी अर व द ने कहा है, ‘चू ँ क भारतीय धा मक पर पराओं मे ं एकता अपनेपन क भावना मे ं था पत है, इस लए यहाँ वघटन और अराजकता मे ं बखरने के भय के बना अ य धक व वधता हो सकती है’। वे आगे कहते हैं क कृ त असीम भ ता वहन कर सकती है, यों क अन त क अ त न हत अपिरवतनीयता सदैव अ व च लत रहती है। प म मे ं अराजकता को मनोवै ा नक और सामा जक दोनों पों मे ं एक अ तहीन ख़तरे क तरह देखा जाता है, जसे नय ण अथवा उ मू लन ारा दबाया जाना है। मनोवै ा नक प मे ं यह अहम् को सवश मान और नय णकारी बनने क ओर िे रत करता है। सामा जक तौर पर यह उन के त आ धप य द शत करता है जो प मी लोगों से भ है।ं कृ म और असहज एकता पर आधािरत ा डीय व ान य ताओं से ल है। इस लए सं कृ त, न ल, लं ग, ी-पु ष स ब ध इ या द क भ ताओं का सामना करने के लए आदेश थोपना आव यक है। े

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अपने मू लाधार शा ों, महाका यों, आदश और मू यों के पिरणाम व प भारतीय धा मक पर पराएँ ‘‘ यव था’’ और ‘‘अराजकता’’ को एक ही पिरवार से स ब धत दशाती हैं तथा इनक सहकारी त ं ता के वचार के इद- गद व वध ववरण उपल ध है।ं ‘‘समु -म थन’’ क लोक य कथा, जो ीरसागर को मथने के बारे मे ं है, इस अवधारणा को द शत करती है, जैसा क हम अ याय 4 मे ं देखग े ं ।े

सं कृ तयों का पाचन बनाम अनुवाद-अयो य सं कृत श द सनातन धा मक अवधारणाओं तथा दृ कोणों को प मी व ान और पा ा य रं ग मे ं रं गे भारतीय प मी सं रचना मे ं ही पिरव तत और च त करने के आदी हैं और वे उसी प मी ‘मेज़बान’ सं कृ त को, जसमे ं वे मल चुके है,ं समृ और स भवत: उसका नवीनीकरण भी करते है।ं अ याय 5 तक देगा क यह दृ कोण अ य धक सम या त है। कोई शेर के शकार के बारे मे ं यह नहीं कह सकता क शेर और उसके शकार दोनों मे ं इस पाचन से अ छा बदलाव आया है, अथवा दो कार के जानवरों ने एक-दू सरे मे ं वा हत हो कर एक बेहतर जानवर को ज म दया है। ब क शेर का शकार उसके शरीर का ह सा बन जाता है और इस या मे ं पचाया गया शकार टुकड़े -टुकड़े हो कर ख़ म हो जाता है। भारतीय धा मक पर पराएँ और ान जब धम को सही तरीके से तुत करने मे ं सवथा अ म प मी समतु यों से त था पत कर दये जाते हैं तो वे वकृत हो जाते हैं और यहाँ तक क ख़ म ही हो जाते है।ं य प यह सम या उन सभी अ तस यता सं घष मे ं एक सं कट है, जहाँ राजनै तक स ा का स तुलन असमान है, पर तु यह उस थ त मे ं और भी अ धक ग भीर हो जाती है जब सं कृत मे ं लखी गई धा मक अवधारणाओं का अनुवाद प मी भाषाओं मे ं कया जाता है। सभी भाषाओं क तरह सं कृत भी न केवल वशेष और अ तीय सां कृ तक अनुभवों और ल णों का सं केतीकरण करती है, ब क इस व श भाषा के न हत व प, व न तथा अ भ य के भावों को उनके वैचािरक अथ से अलग नहीं कया जा सकता। द य व नयों, जो सं कृत भाषा के अ तरं ग भाग है,ं को ाचीन भारतीय ऋ षयों ारा उनके आतं िरक व ान से खोजा गया था। ये व नयाँ मनमानी धारणाएँ नहीं है,ं ब क आ या मक साधना ारा स क गई वा त वकताओं के वे य अनुभव हैं जनसे वे जुड़ी हुई है।ं इन व नयों के साथ योग करते हुए बहुत-सी यान णा लयाँ वक सत हु और इस कार उस आ तिरक व ान का वकास हुआ जो ँ ने मे ं स म बनाता है। सं कृत साधक को चेतना से एकता क मू ल अव था तक पहुच ँ ने के लए एक अनुभवा मक माग दान करती है। यह अपने मू ल ोत तक पहुच केवल एक सं चार मा यम ही नहीं है, ब क स हत ान क सं वाहक भी है। सं कृत कई शता दयों तक भारत, द ण-पू व ए शया और पू व ए शया के ं ओं े ें ो ो ी ी

आ या मक गु ओं ारा भाषा के प मे ं योग होती रही। इस लए यह सां कृ तक णा लयों व अनुभवों के एक व श पिर े य को य करने का मा यम बनी। ‘‘सं कृ त’’ इसी सां कृ तक आवरण के लए बना एक पािरभा षक श द है। यह दशन, कला, वा तुकला, लोक य गीत, शा ीय सं गीत, नृ य, रं गमं च, मू तकला, च कारी, सा ह य, तीथया ा, कम-का ड और धा मक आ यानों का भ डार है, जो समू ची अ खल भारतीय सां कृ तक वशेषताओं को साकार करती है। यह ाकृ तक व ान एवं तकनीक क सभी शाखाओं को स म लत करती है, जैसे च क सा (पशु च क सा भी), वन प त शा , ग णत, अ भया क , वा तुकला तथा आहार- व ा इ या द। य प यहू दी-ईसाई प थों क अपनी प व भाषाएँ है,ं जैसे ह ू और लै टन और हालाँ क उनके लए कये गये दावे कभी-कभी सं कृत के समान ही रहे है,ं पर तु ये भाषाएँ सही अथ मे ं क हीं एक कृत स यताओं का आधार नहीं बनी है।ं यह अ तर अ याय 5 मे ं और प हो जायेगा। इसके अ तिर ईसाई प थ ार भ से ही कसी प व भाषा के ारा नहीं ब क एक देशी भाषा के मा यम से े षत कया गया — पहले अरामैक (Aramaic) ारा जसे यीशु बोलते थे और फर भू -म यसागर इलाके क रोज़मरा क कोइने (koine) ीक भाषा ारा। नव वधान (New Testament) अपने बहुत से अनुवादों ारा परमा मा के साथ य अनुभव को मा णत नहीं करते, ब क उस ह त प े के शुभ-समाचार (gospel) को चािरत करते है।ं यहाँ आ ह श दों के अथ तथा उनके ऐ तहा सक वणन पर है, न क उनक व न, अनुक पन अथवा उनके ारा अनुभूत स हत त या पर। ईसाई प थ मे ं म ों जैसी आ या मक पर परा नहीं है। इसक ‘‘ ाथना’’ एक बाहरी देवता के सम या चका, वातालाप या कृत ता ापन भर है जहाँ व न अथवा साधक पर रोज़ अनुभवज य भावों क अपे ा उसके वैचािरक अथ पर अ धक मह व दया जाता है। सं कृत क अनुवाद-अयो य कृ त और उसके तमाम स दभ प म ारा भारतीय धा मक पर पराओं और सं कृ त के पाचन से वकृत होते आ रहे है।ं इस पाचन से मह वपू ण व श ताएँ और ान लु हो रहे है,ं मह वपू ण अनुभवज य अनुभू तयाँ अव हो रही हैं तथा भारतीय धा मक पर पराओं के अ य धक उवर, उपयोगी और दू रदश आयाम न हो कर ाचीन काल के अवशेष भर बनते जा रहे है।ं

अ याय 1

दु साहस भ ता का

‘ भ ता-ज नत य ता से नपटने का एक तरीका वशेष प से ख़तरनाक है, यों क कसी हद तक यह ाय: दखाई नहीं देता... मैं एक सं कृ त ारा दू सरी के पचाए जाने को, उसे अपने मे ं मलाए जाने, उसक भ ता को कम करने और समानता के दावे क गुहार लगा कर कम बल सं कृ त को व था पत करने जैसा देखता हू ।ँ लोक य सं कृ त क सतह पर भारत और प म बराबर दखाई दे सकते है,ं ले कन गहरे तरों पर जहाँ कसी स यता क मू ल अवधारणाएँ नवास करती है,ं वहाँ काये एक ओर झुका हुआ है। सं कृ त को अपने मे ं मलाया जाना समान होने का एक झू ठा दखावा भर है।’ भारतीय धा मक स यताओं का सां कृ तक एवं आ या मक पिरवेश वल ण है। यह प म से पू णतया भ है। पर तु आज इस वल णता का अ त व सं कट मे ं है। यह सं कट मा धमहीन एवं अ थायी वकास के कारण ही नहीं है, अ पतु प म ारा हमारी धा मक सं कृ त को ख ड-ख ड करके उन ख डों को अपने साँचे मे ं ढालने तथा उसे अपने मे ं वलीन कर लेने जैसे दुरा ही उ े यों से भी है। वै ीकरण के ामक नाम से इस छल को बल दान कया जा रहा है। समा हत करने क यह या अ छे उ े यों के लए भी हो सकती है और उन लोगों के सहयोग से भी जो वयं भारतीय धम पर पराओं के त ा रखते है।ं वे ं धा मक सं कृ त प म मे ं स म लत यों न हो? या हम सभी वा तव तक देते है— ं इस वै क दृ कोण मे ं गलत या है? या भारतीय कला, मे ं ‘एक समान’ नहीं है? च तन, व ान, उपचार प त, यावसा यक स ा तों तथा श दों का बड़े पैमाने पर प मी सं कृ त मे ं आ मसात होना या पचाया जाना एक अ छ बात नहीं है? या हम एक ऐसे व मे ं नहीं रह रहे जो उप नवेशवाद, न ल भेद, तथा रं गभेद को पीछे छोड़ चुका है? या यह एक शं सनीय बात नहीं है क आज लाखों अमरीक और यू रोपवासी योगा यास कर रहे है,ं और भारतीय खान-पान व यापी हो गया है? आज या इस आदान- दान मे ं प म भारत को वै ा नक उ त, सामा जक याय, यापािरक और राजनै तक ान के े मे ं कुछ दे नहीं सकता? इन सभी नों का सीधा उ र तो ‘‘हाँ’’ ही तीत होता है। अभी तक प म पर जो प प से भारतीय भाव दखता है वह वा तव मे ं एक ऐसी या है जो भारतीय धम के ोत को ीण कर के न कर रही है। वै क सं कृ त और सवमा यता क चचा एक ऐसी उजली छ व खड़ी करती है जससे तीत होता है क इस धा मक और पा ा य स यताओं का मेल हमेशा अ छा ही होता है। यह धारणा न केवल पा ा य सं कृ त ारा जान-बू झ कर क गयी बहुत-सी ों औ



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वकृ तयों और बना आभार य कये अपने मे ं समा व करने क चे ा है, ब क ँ ीवादी व तारवाद एवं यह अ य त व वं सक ढ़वादी ईसाइयत, मा सवाद, पू ज अदू रदश या सं क ण धम- नरपे ता को भी अनदेखा कर देती है। यह स य है क वै क सं कृ त ने व भ रा ीयताओं, जा तयों, जा तयों एवं ँ ला कर दया है। आज मतों को समीप ला कर उनक सीमा रेखा को धुध उपभो ावाद पू रे व के त वों का म ण कर के हमारी चयों को और जीवन ँ ी क बढ़ती हुई शैली को पुन: पिरभा षत कर रहा है। लोगों, व तुओ ं और पू ज ग तशीलता ने हमे ं एक ऐसे व के कगार पर ला खड़ा कया है जहाँ गुणव ा पर आधािरत समाज स भव है। इसे थॉमस ाईडमैन (Thomas Friedman) ने लैट व ड1 अथात चपटे व क सं ा दी है। यह एक करण उन थानीय ढाँचों को व त कर रहा है जो इस मे ं बाधा उ प करते है।ं युवा पीढ़ी तो ख़ासकर इस नई कार क वै क पहचान को अपनी मू ल पर पराओं क क मत पर भी शी ता से अपनाती है। इसके साथ ही भारतीय खानपान, शा ीय सं गीत, नृ य और बॉलीवुड इ या द के कारण भारतीय सं कृ त के बहुरंगी, आकषक एवं नवीन पों के त व का झान बढ़ रहा है। नरोगी काया एवं व थ जीवन क इ छा के कारण भारतीय आ या म न ध का आज व पटल पर एक वशेष थान है। इसका माण है अपने वभ पों मे ं योग, यान एवं आयुवद क बढ़ती हुई लोक यता। इसमे ं कुछ वशेष योग-गु ओं के भाव का भी योगदान है। स य तो यह है क आज बहुत से अमरीक एक बहुत बड़ी धनरा श भारतीय मू ल क आ या म एवं वैक पक च क सा प तयों पर यय कर रहे है।ं इन सब बातों से बहुत-से लोग यह न कष नकाल लेते हैं क सं कृ तयों मे ं पर पर मू लभू त भ ता का अब कोई मह व नहीं रह गया है। कई या त- ा आलोचकों का यह आरोप है क आज जो हं सा तथा वख डता व मे ं अ थरता पैदा कर रही है, उसका कारण धा मक, सा दा यक, सां कृ तक, जातीय एवं रा ीय वभाजन है। इनके अनुसार पहचान क व श ता एक सं क ण सोच है जो एक जा त समू ह के त लगाव दशाती है, इस लए ऐसी भ ता को घटाना चा हए और जो सीमारेखा इ हे ं पिरभा षत करती है उ हे ं मटाना चा हए।2 इस कार के तक क सभी पृथक सं कृ तयों का कसी एक वै क सं कृ त मे ं वलय हो जाना चा हए, कई मतों अथवा स ा तों मे ं दये गये है।ं ये आधु नक समाज को ‘उ र आधु नक,’ ‘न ल भेद र हत,’ ‘धम र हत’ और ‘रा र हत’ देखना चाहते है।ं ये लौ कक मत ऐसी घोषणा करते तीत होते हैं मानो एक ऐसा प थ- नरपे अथात लैट व बन गया है जहाँ कसी सं हत इ तहास, पहचान एवं धा मक वचारों का कोई भेदभाव नहीं है। गत शता दी का ‘आधु नकता वरोधी आ दोलन’ (anti-modernity movement) ऐसा ही एक मत था जसका सव ल य था प मी आ ामकता का ब ह कार जो क उप नवेशवाद, दो व यु ों, नाजीवाद, नरसं हार ं ो ी े ों े

एवं सा यवाद का मू ल कारण था। इस आधु नकता वरोधी मत के समथकों के पास ऐसा कोई वक प नहीं था जसके अ तगत सकारा मक प से अपनी भ ता को था पत कया जा सके और न ही इतनी समझ थी क सं सार मे ं व वधता का रहना भी कतना मू यवान है। चपटे व क पिरक पना बड़ी ामक है। सतही प से देखने पर ऐसा तीत होता है क व क सं कृ तयों के मेल से एक साझ व सं कृ त का नमाण हो गया है। क तु वा त वकता कुछ और है। वे चालाक सं थान जो कुछ वशेष गुटों को श एवं वशेषा धकार दान करते है,ं पहले से भी कहीं अ धक श शाली हो गये है।ं वै ीकरण को सामा यत: उ हीं सं रचनाओं एवं धारणाओं मे ं तुत कया जाता है जो गत 500 वष के प मी भु व क उपज है।ं ये धारणाएँ उन जीवन मू यों पर आधािरत हैं जो यू रोप के मू ल नवा सयों के ऐ तहा सक एवं सा दा यक अनुभवों का पिरणाम है।ं उ र आधु नकतावाद (post modernism) जैसे रं गीन शीषक अथवा ‘सब एक है’ं और ‘मू ल प से हम सब एक से ही है’ं जैसी अ प और अपिरभा षत सोच के अ तगत जब हम सभी सामू हक पहचानों का याग कर देते हैं तथा सभी सीमाओं को चुनौती देते हुए व क क पना करते है,ं तो जो पिरणाम उभरता है वह एक ऐसे व का नहीं है जहाँ कसी क भुता नहीं है, ब क यह एक ऐसा व है जसमे ं सबसे श शाली पहचान और उस से जुड़ी ऐ तहा सक मा यताएँ और जीवन ं ।े मू य ही चलन मे ं रह जायेग ‘वै ीकरण का पयाय पा ा यीकरण ही है,’ इस ु टपू ण तक का ख डन आधु नक चीन ने अपने उदाहरण से कया है। उसने अपनी भ ता को दृढ़तापू वक था पत कया है और व के साथ अपने मानद डों और अपनी शत पर यवहार कया है। (यहाँ मैं चीन का अ धानुकरण करने का समथन नहीं कर रहा हू ,ँ ब क एक उदाहरण दे रहा हू ँ क कस कार एक ग़ैर-प मी सं कृ त ने वयं को वै क सं वाद मे ं सफलतापू वक और पू ण वाय ता से था पत कया है)। हावड व व ालय (Harvard University) के ा यापक वेइ मं ग तू (Professor Weiming Tu) मानते हैं क चीनी स यता के आधु नकता एवं वै ीकरण को ले कर अपने पृथक तमान हैं और इसमे ं चीन को प मीकरण पर नभर होने क आव यकता नहीं है। वा तव मे ं चीन मे ं तो महान चीनी दाश नक क यु शअन (Confucian) नी त पर आधािरत ‘क यु शयन आधु नकता’ का एक बड़ा आ दोलन-सा चल रहा है। चीनी वचारक ऐसे बहुत से वचारों को मै स वेबर (Max ं नै तकता (Protestant Ethic) पर टक आधु नक Weber) ारा था पत ोटे टेट प मी वचारधारा के वक प के प मे ं तुत कर रहे है।ं 3 इस कार चीन वयं को तथा अपनी ाचीन स यता को प म के समक तुत करता है। चीन का उदाहरण यह स करता है क अपनी भ ता को दशाने का अथ यह नहीं है क हम वयं को व से वलग कर ले ं या नराशाजनक ढं ग से ी ें ँ ें ी औ

कसी पुरातन युग मे ं फँ स जाये।ं चीन का यह दावा कतना और कब तक कायम रहेगा यह तो समय ही तय करेगा, क तु वतमान मे ं वह अपने लए जस स मान क आशा कर रहा है वह उसे सभी पा ा य मानद डों को माने बना अपनी ही शत पर ा हो रहा है। चीन का उदाहरण यह भी स करता है क प म से भ होने का अथ केवल अपने आदश अतीत का मज़ा लेना ही नहीं है। हाल ही मे ं हुए एक स मेलन मे ं जब अपनी वाता मे ं मैनं े भारत क भ ता के वषय मे ं बात क तो प म के एक मुख व ान ने मेरी आलोचना करते हुए कहा क ऐसी कसी भ ता को दृढ़ता से कहने का पिरणाम यह होगा क भारत अकेला पड़ जायेगा। इसका भारत के वै क तथा आधु नक करण पर तकूल भाव पड़े गा। मैनं े इसके यु र मे ं कहा क भ ता का अथ पृथकतावादी होना नहीं है। उदाहरण के लए जापान ने अपने सां कृ तक आदश और पहचान को जी वत रखा है और साथ ही व क मुख अथ यव था वाला देश भी बना हुआ है; इसी कार ां स ने अपनी भाषा पर आधािरत भ ता को सदा गव से दृढ़तापू वक तुत कया है। अरब रा ों ने भी अपनी भ स यता को अ धकारपू वक जताया है और आज वे व पटल पर एक अहम भू मका भी नभा रहे है।ं मेरा सुझाव था क उनक यह वै क सोच यू रोप-के त है, जसके अनुसार केवल प मी मापद ड ही वै कता क राह दखलाने वाले हो सकते है।ं वड बना यह है क यही व ान प मी श ा सं थानों मे ं बौ मत का सकारा मक चार करता है। इस लए मैनं े उनका यान आकृ कया क बौ मत का सार भारत से हुआ है और इसके लए न तो कहीं थानीय स यताओं अथवा रा ों को उप नवेश बनाने क आव यकता हुई और न ही कसी पुरातन इ तहास मे ं जाने क ।4

वचारों मे ं व वधता (Pluralism) के ढोंग को भेदना अ तसा दा यक सं वाद (interfaith dialogue) एक ऐसा मुख मं च है जहाँ ँ ला कर दया जाता है। मैं ‘सभी एक से है’ं कह कर मह वपू ण भ ताओं को धुध अपने अनुभव से कुछ उदाहरण यहाँ तुत क ँ गा जो यह दशाते हैं क जन सम याओं का उ ख े मैं कर रहा हू ँ उनका कारण मू लभू त सा दा यक अवधारणाओं और उनसे जुड़ी वै क सोच मे ं छपा है। 1990 के दशक के अ तम वष मे ं ो. कारेन जो टोरेसन ने (Karen Jo Torjesen), जो लेअम ट ातक व व ालय (Claremont Graduate University) मे ं धा मक श ा क वभागा य है,ं मुझे अपने व व ालय मे ं होने वाले एक मुख अ तसा दा यक स मेलन के उ घाटन पर आम त कया। लेअम ट ने नणय लया क इस काय म मे ं व के येक मुख स दाय अथवा धम के अनुया ययों के साधक- त न धयों को आम त कया जायेगा। और साथ ही यहाँ अ तधा मक सं वादों और वचारों को बढ़ावा दया जायेगा जससे व के ों े ी ों े े े

व भ मतों के बीच मधुर स ब धों का सार कया जा सके। मुझे ह दू धम के ऊपर बोलने के लए नम त कया गया था और मुझे इस नये उप म क सलाहकार स म त मे ं भी योगदान देना था। अ य धम के अनुया ययों के साथ मल कर काय करने के उ साह मे ं मैनं े यह नम ण वीकार कर लया। उ घाटन काय म अपने आप मे ं एक भ य समारोह था जसमे ं व व ालय के मुख अ धकािरयों तथा व भ धम और थानीय समुदायों के पदा धकािरयों ने भाग लया। एक व श बात यह थी क सभी त न धयों ने अ तधा मक तनावों को दू र करने तथा व भ मतों के बीच आपसी तालमेल बढ़ाने के लए य न के ल खत ववरण का सावज नक अनुमोदन कया। सभी त न धयों ने उस सं क प का अनुमोदन कया जसके अनुसार धा मक सहनशीलता (religious tolerance) को बढ़ावा देने क घोषणा थी। जब मेरे उ बोधन का समय आया तो मैनं े सलाह दी क इस सं क प मे ं ‘सहनशीलता’ के थान पर ‘पर पर स मान’ (mutual respect) लखा जाना चा हए। मेरी इस ट पणी पर वैसी ही सराहना हुई जैसी अ य सभी व ाओं के उ बोधन पर हुई थी। त प ात मैनं े इसके मह व को स व तार बताया क कस कार यह केवल औपचािरकता या श दों का हेर-फेर मा नहीं है। मैनं े उ ख े कया क हम सहन उ हे ं करते हैं जो हमारे अनुसार ‘हीन’ होते है,ं पर तु हम उनका स मान नहीं करते। ‘सहन करने’ का अथ है क जो हमारे अनुसार यवहार नहीं करते हम उ हे ं वे सभी अ धकार और वशेषा धकार दान करने के थान पर कुछ अ धकार दे कर उन पर नय ण रख रहे है।ं एक ऐसा धम जसमे ं ‘नकली भगवानों’ क पू जा क जाती है और जसके अनुया ययों को ‘हीथन’ (heathens), मू तपू जक या का फ़र कहा जाता है, को सहन तो कया जा सकता है क तु उसे स मान नहीं दया जा सकता। ‘सहन करना’ एक कार से कृपा करना है जब क स मान देने का अथ है उ हे ं भी समान प से वैध मानना—जो क कुछ प थ सामा यतया अ य स दायों/धम को नहीं मानते, ब क उ हे ं ‘का फ़र,’ ‘मू तपू जक’ इ या द कह कर स बो धत करते है।ं मैनं े अपनी आशं का य क क या कुछ समय उपरा त कये जाने वाले ी तभोज मे ं कसी को यह सुनना ी तकर लगेगा क उसे वहाँ ‘सहन’ कया जा रहा है। कोई प त अथवा प नी यह सुन कर स नहीं हो सकती क उसक घर मे ं उप थ त केवल ‘सहन’ क जा रही है। कोई भी वा भमानी कायकता अपने सहक मयों क ऐसी सोच को वीकार नहीं करेगा। मैनं े इं गत कया है क सहनशीलता क यह अवधारणा उन स दायों क उपज है जो केवल अपने को व श तथा अ य धम-पर पराओं को छ /झू ठ मानते है।ं इस लए अपने व श व व का अवमू यन कये बना वे अ धक से अ धक उ हे ं ‘सहन’ कर सकते है।ं यू रोप मे ं शता दयों तक ईसाई स दाय के व भ गुटों मे ं चले धा मक यु ों के उपरा त सा दा यक ‘सहनशीलता’ क वकालत होने लगी थी। कई यू रोपीय देशों मे ं े ी

चच का धा मक एका धकार था जसके अनुसार मा कसी ‘गलत’ धम का पालन करना अपराध माना जाता था। ईसाई मतों क पर पर सा दा यक हं सा, जो यू रोप मे ं स दयों तक या रही, को देखते हुए ‘सहनशीलता’ एक सकारा मक यास था, क तु इसने कोई ऐसा स ा आधार दान नहीं कया जससे क एकता और सहयोग वा त वक एवं थायी हो सकें। इस लए यह एकता ख डत होती रही है।5 मेरी बातों का ोताओं ने अ छा समथन कया, क तु मैनं े पाया क जन व ाओं ने ‘सहनशीलता’ क दलील दी थी वे त नक उदासीन से हो गये थे। कैरन जो टोरेसन ने नजी प से यह कहते हुए मेरी सराहना क क ‘मैनं े एक मह वपू ण वषय को उठाया है जो क इस स ा त वषयक वातावरण के उपयु है’। अगले दन कारेन ने उ साहपू वक मेरा आभार य कया और कहा क मैनं े एक ‘सनसनी’ को ज म दया है और यह भी कहा क ‘हालाँ क सभी इस महान वचार से सहमत नहीं थे’ पर तु वह वयं इससे पू णतया सहमत थीं। तब मुझे आभास हुआ क स भवत: मैनं े यहू दी-ईसाई स दाय के त न धयों क कसी दुखती रग को छू दया है। मैनं े नणय कया क मैं अपने आगामी उ बोधनों एवं वाताओं मे ं इस बहुच चत ‘सहनशीलता’ के ँ ा। थान पर ‘पर पर स मान’ करने के वचार का परी ण करके देखूग 1990 के दशक के अ त मे ं जब कॉनल व व ालय (Cornell University) के धा मक श ा वभाग क अ य ा ा या पका जेन मेरी लॉ (Jane Marie Law) ने धा मक हं सा का समाधान करने के लए मेरी सं था से एक व तरीय स मेलन को ायो जत करने के लए स पक कया तो यह मेरे लए पर पर स मान का प रखने के लए दू सरा मुख अवसर था। येक धम का त न ध व उस मत के मुख य को करना था, जैसे बौ मत का त न ध व दलाई लामा ारा तथा व भ ईसाई स दायों के मुख अ धकािरयों को अपने-अपने स दाय का त न ध व करना था। स मेलन के कायकारी ा प के अनुसार स मेलन का योजन था धा मक हं सा क सामू हक एवं कड़े श दों मे ं आलोचना करना और इस हं सा से उ प होने वाले तनावों को मटाने का य न करना। (ऐसी मह वाकां ाएँ अ तधा मक बैठकों मे ं एक साधारण वषय है) जब मैनं े इस ा प मे ं अं कत धा मक तनाव के व भ उदाहरणों को देखा तो मुझे तीत हुआ क शायद ‘पी ड़त’ तथा ‘दोषी’ स दायों क जो सू ची बनायी गयी है वह या एकां गी है। मैनं े पाया क इ लाम को एक रा मे ं पी ड़त दशाया गया है, क तु कहीं भी उसे आ ा ता नहीं दशाया गया। इसी कार ईसाई स दाय के अनुया ययों ने अ य मतों के व पू व तमोर जैसे थानों पर अपना शोषण होते हुए दखलाया है, क तु जहाँ ईसाइयत ने आ ामक अ भयान चला रखा है उनके त वे चुप है।ं त प ात मुझे आभास हुआ क इस कार के वषम तुतीकरण के उदाहरण शै णक सं थानों मे ं कोई असामा य घटना नहीं है। मैनं े ो. लॉ को ताव दया क हमे ं धा मक हं सा के मू लभू त कारणों को समझने के लए स मेलन से पहले कुछ पू व ै

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तैयारी और अनुस धान करना चा हए। मेरी धारणा थी क सभी धा मक वचारधाराओं क न प प से जाँच-पड़ताल होनी चा हए। मेरी सं था ने ऐसी एक-वष य पिरयोजना को ायो जत करने का ताव दया जसमे ं कोनल व व ालय के ातक व ाथ सभी मुख स दायों एवं धम क ं ।े वे उन सभी वा यों अथवा व यों को मु य पु तकों का सू मता से नरी ण करेग ं े जो उस मत मे ं व ास न करने वालों के साथ-साथ म हलाओं, च ां कत करेग गुलामों, वदे शयों इ या द के लए न दा सू चक, घृणा सू चक अथवा असहनशील श दों का योग करते है।ं स मेलन मे ं इन अपमानजनक और स देहा पद वा यों क गणना का यास करने के बाद उनके व एक ताव तुत कया जायेगा, यों क धा मक हं सा का मू ल ोत इ हीं घृणा सू चक अं शों मे ं है। ये वा य उस साम ी मे ं स म लत हैं जनको स दाय के अनुयायी स माननीय मानते है।ं उदाहरणाथ, ह दू पु तकों मे ं जहाँ भी ‘ न न वण’ के लए अपमानजनक श द हैं उ हे ं इस सू ची मे ं स म लत कया जायेगा। इस समू ची या मे ं येक धम के त न ध म डल को अपने सुझाव, वचार, ट प णयाँ तथा असहम त क थ त मे ं सुधार का अवसर दान कया जायेगा। मेरा व ास था क सा दा यक हं सा क रोकथाम के लए यह एक ऐ तहा सक अवसर होगा, य द व भ धम इन अपमानजनक नदशों को रोकने पर सहमत हो जाते है।ं ो. लॉ मेरे इस ताव से सहमत तो थीं क तु आशं कत थीं क अ य धा मक ं ।े उनक त या जानने के लए उ होंने सभी से समू ह इस पर या त या करेग वाता ार भ क । कुछ स ाह प ात उ होंने मुझे बताया क कुछ धा मक मुख ( जनका नाम उ होंने मुझे नहीं बताया) तो मा मेरे इस सुझाव पर ही ोध से भड़क गये। वे कसी बाहरी लोगों ारा उनके धा मक मू ल थों मे ं ह त प े के वचार को ‘सहन’ नहीं कर पा रहे थे। ये मू ल थ आ खरकार कभी भी बदले नहीं जा सकते या कसी भी तरह अमा य घो षत नहीं कये जा सकते, यों क ये तो उनके ‘गॉड’ के श द है।ं मुझे इस पिरयोजना के क जाने से नराशा हुई और मैनं े ो. लॉ को एक वक प सुझाया क य द उन अं शों का हटाना एक कार का ह त प े तीत होता है तो हम ं े क इ हे ं हटाया न जाये, क तु सभी केवल यह घोषणा त न धयों से आ ह करेग ं ।े इस करे ं क वे वयं और उनके अनुयायी इनका उपदेश और चार ब द कर देग कार कसी के धम थों मे ं कोई ह त प े भी नहीं होगा और स दाय क श ा का एक कम नकारा मक और अ धक गिरमामय प तुत होगा। न त प से ‘गॉड’ भी नहीं चाहता क उसके श द कसी हं सा का कारण बने।ं ो. लॉ ने इं गत कया क धा मक मुखों को यह भी अ वीकाय है, वशेषत: अ ाहमी प थों के मुखों को, यों क उनके अनुसार मू ल पाठ का पुन: या यान ों े







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थों के समथन क सुदढ़ ृ ता के लए तो कया जा सकता है, क तु उनमे ं कोई ु ट नकालने के लए नहीं कया जा सकता। ता पय यह था क यह मं च उन राजनै तक वा पटु प ों का वच व कायम रखने वाला था जो अपनी ववादा पद मा यताओं पर तो कोई बहस और पिरचचा नहीं चाहते, क तु दू सरों पर उँ ग लयाँ उठाने के इ छु क थे। मैनं े इस स मेलन से अपने हाथ खींच लए यों क मेरे वचार से यहाँ सभी के लए समान अवसर नहीं थे। अ तत: वह स मेलन हुआ ही नहीं। इसी बीच अमरीका मे ं जहाँ भी मेरे भाषण थे, मैनं े ‘सहनशीलता’ के थान पर ‘पर पर स मान’ और घृणा सू चक श ाओं को म द करने के अपने यासों क चचा आर भ क । शी ही कई ह दू आ या मक मुखों ने अ तसा दा यक स मेलनों मे ं सहनशीलता के थान पर पर पर स मान क चचा ार भ कर दी। मुझे अपने इस दृ कोण को परखने का अवसर सन् 2000 के सं य ु रा के ‘सह ा दी धा मक शखर स मेलन’ (UN Millennium Religion Summit) मे ं मला। ं ड़ों मुख भाग लेने वाले इस मुख अवसर पर यू यॉक नगर मे ं व भ धम के सैक थे। इसका चार एक ऐसे नणायक स मेलन के प मे ं कया गया था क यह आने वाली सह ा दी मे ं सभी स दायों मे ं पर पर सौहाद का सू चक होगा। अपने इस ल य क आं शक पू त के लए यहाँ इस वषय पर एक ताव पािरत कया जाना था। सब कुछ ठ क लग रहा था, क तु एक दन यू यॉक टाइ स (New York Times) मे ं एक समाचार का शत हुआ क पािरत कये जाने वाले ताव क नणायक भाषा को ले कर गहन मतभेद उठ खड़े हुए है।ं कुछ दनों बाद जब ऐसा तीत होने लगा क शखर स मेलन कसी ताव के अभाव मे ं व त होने क कगार पर है तो सं य ु रा के शीष अ धकािरयों ने ग तरोध को टालने के लए म य थता क । ह दू धम-आचाय सभा के मुख, वामी दयान द सर वती ने, जो ह दू त न ध-म डल का नेत ृ व कर रहे थे, बलपू वक आ ह कया क इस ताव मे ं ‘सहनशीलता’ के थान पर ‘पर पर स मान’ लखा जाये। क तु वै टकन के त न ध का डनल जोजफ रैट ज़ं गर (Cardinal Joseph Ratzinger), जो हाल ही मे ं पोप बेने ड ट (Pope Benedict) पद से सेवा नवृ हुए है,ं इस वा यां श के वरोध मे ं अड़े हुए थे। य द उन धम को ही आ धकािरक प से स मान दे दया जाये ज हे ं ‘मू तपू जक’ कहा जाता है तो उनके अनुया ययों को ईसाई बनाने का औ च व ही न हो जायेगा। इससे चच एवं ईसाइयत का अपने आप को व श कहने का दावा ही समा हो जायेगा जो क चच के बड़े पैमाने पर कये जा रहे धमातरण अ भयान का औ च य है। े



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ँ गया था। मी डया ने रह यो घाटन स मेलन का वषय सं कटपू ण अव था मे ं पहुच कया क दो प ों मे ं ताव क पृथक श दावली को ले कर घमासान यु छड़ गया है। वामी दयान द सर वती पर दबाव पड़ने लगा और उ हे ं चेताया गया क उनके हठ के कारण यह उ तरीय स मेलन व त हो सकता है। उ होंने बलपू वक अपना प रखा क समय आ गया है क यहू दी-ईसाई स दाय, ज हे ं ‘अहले कताब’ अथवा ‘पु तक य स दाय’ (तीन अ ाहमी स दाय) कहा जाता है, अ य मतों एवं धम को सहन करने क अपे ा बराबरी जैसा आदर दान करे।ं अ तत: वै टकन ने इसे वीकार कर लया। का डनल रैट ज़ं गर ने भी उस ताव को वीकार कया जसके अनुसार सभी धम एक दू सरे को स मान देने के लए सहमत है।ं यह पिरवतन अपने आप मे ं बहुत बड़ा समाचार था और सभी ग़ैर-अ ाहमी मतों ने इसका बड़े तर पर चार कया। पर तु बात यहीं समा नहीं हुई। सह ा दी शखर स मेलन के प ात् एक माह के भीतर ही स भवत: सं य ु रा से स ब ताव का आ तिरक व लेषण और उसके पिरणामों पर वचार करने के प ात वै टकन ने अक मात् एक घोषणा कर दी जसे सुन कर उदारवादी कैथो लक मत के वशेष भी त ध रह गये। वै टकन का जो कायालय कैथो लक स दाय के आ धकािरक स ातों को तपा दत एवं नयमों मे ं ढालने के लए उ रदायी है, वह है कों ग े श े न फ़ॉर द डॉक ाइन ऑफ़ द फ़ेथ — Congragation for the Doctrine of the Faith (यह वही कायालय है जसे इ कुइ जशन कहा जाता था)। इस कायालय ने धा मक व वधता के त अपनी नई नी त क घोषणा क । डॉ मनस जीसस नामक यह नी त-प चच के वशेषा धकार और पू वका लक मशन और स ा त का समथन करता है।6 इस नी तप का अनु छे द 4 कहता है क ‘सापे क य वचारधाराएँ जो धा मक व वधता को उ चत ठहराने मे ं लगी है,ं चच के लए ख़तरनाक है’ं । अनु छे द 22 इस अवधारणा को नकारता है क कोई एक धम दू सरे के समक हो सकता है। इसके अनुसार ‘अ य मतों के अनुयायी दैवी अनु ह के पा तो हो सकते हैं ले कन न प ता से वचारने पर यह भी न त है क पू ण मु के स दभ मे ं उनक थ त अ य त हीन है, यों क इसके स पू ण साधन केवल चच मे ं न हत है’ं । कई मत- वशेष ों ने, जनमे ं कई व वधता के प धर उदारवादी ईसाई भी स म लत है,ं इस नी त क न दा यह कहते हुए क है क यह धा मक तालमेल को बढ़ाने क मेहनत के वपरीत उठाया गया कदम है। अपने पर पर स मान के योगों मे ं मैनं े उदारवादी मुसलमानों को भी स म लत कया है। 11 सत बर 2001 क घटना के प ात अमरीका मे ं भारतीय उपमहा ीप के ह दू और मुसलमान अमरी कयों मे ं सौहाद-भावना मे ं वृ हुई थी। जब मैं डलास (Dallas) मे ं एक या ा पर था तो मुझे एक रे डयो पर सा ा हक काय म चलाने वाले पा क तानी ने सा ा कार के लए आम त कया। मैनं े इस अवसर का सदुपयोग े ें ें ी

करते हुए बताया क धम मे ं ‘पर पर स मान’ वतमान मे ं च लत ‘सहनशीलता’ का बेहतर वक प है। मेरे व य के प ात ोताओं को फ़ोन पर न पू छने के लए आम त कया गया। फ़ोन करने वालों मे ं एक पा क तानी म हला थी जसने मुझे बधाई दी और मेरे वचारों से सहम त जताते हुए कहा ‘राजीव जी, हम मुसलमान इससे पू णतया सहमत हैं और आप जस पर पर स मान क बात कर रहे हैं उससे हमे ं हष और स मान का अनुभव हो रहा है।’ मुझे यह सुन कर हष हुआ क तु मैं आ त होना चाहता था क वह केवल औपचािरकतावश तो नहीं कह रही थी, इस लए मैनं े उसे स व तार अपने धम क मा यताओं और री तयों के वषय मे ं बतलाया ज हे ं उसने सहष स मान देना वीकार कया था। मैनं े उसे बताया क ह दू धम मे ं देव आराधना के लए मू त-पू जा का कोई नषेध नहीं है ( जसे इ ाहमी स दाय अनु चत प से ‘idolatry’ अथवा ‘बुत पर ती’ कह कर न दा करते है)ं । सच तो यह है क मैं वयं अपनी आ या मक या मे ं मू तयों का उपयोग करता हू ँ और ह षत हू ँ क उसने इसे स मान देने मे ं सहम त जताई है। मैनं े उस म हला को बताया क यह णाली कसी पर थोपी नहीं जाती है। पर पर स मान का अथ है क मैं अपनी मा यताओं के लए स मा नत हू ँ और कसी अ य को इसका अनुसरण करने क अथवा अपनाने क आव यकता नहीं है। यही नहीं, एक ह दू क मा यता के अनुसार दैवीय व प ी लं ग भी हो सकता है और मृ यु के उपरा त पुनज म होता है, न क कसी वग अथवा नरक मे ं अन त काल के लए रहना पड़ता है। इस कार मैं उसे प कर रहा था क जसे उसने पर पर स मान के प मे ं वीकारो दी है उसका आशय या है। उसने फ़ोन काट दया। मैनं े यह पाया है क जो लोग यहू दी-ईसाई मतों का त न ध व करते हैं वे भी ाय: पर पर स मान के स ा त को सावज नक प से नकारने मे ं कतराते है,ं क तु जब उ हे ं ग़ैर-यहू दी-ईसाई धम के स दभ मे ं प ता से बताया जाता है तो वे असहज हो जाते है,ं यों क अ तमन मे ं कहीं वे जानते हैं क उनका स दाय न केवल वध मयों मे ं च लत इस कार क पू जा-प तयों को अ वीकार करता है ब क उ हे ं पू णतया न करने मे ं भी व ास रखता है। 2007 के आर भ मे ं मुझे द ी मे ं एक काय म मे ं आम त कया गया जहाँ अमरीका के एमोरी व व ालय (Emory University) से आया एक त न ध म डल अपने नवग ठत अ तधा मक सभा का चार कर रहा था।7 यह एक सु यव थत तथा यावसा यक तुतीकरण था जसमे ं बहु च लत सकारा मक श दावली का भरपू र उपयोग कया गया था क कस कार यह मं च धा मक तालमेल लाने मे ं सहायक होगा। ऐमरी से आये ये लोग यकर, मै ीपू ण और अ छ मं शा वाले तीत होते थे। सभा मे ं आये ोताओं एवं तभा गयों ने वचारों का ऐसा कोई योगदान नहीं दया जससे क वाता मे ं राजनै तक औपचािरकता से बढ़ कर ं े ैं े ों े ी ो े े ों

कुछ गहनता आ सके, इस लए मैनं े उन वषयों पर चचा छे ड़ी जो इस मं च के उ े यों का के ब दु थे। मेरा पहला न था क ऐमरी के गरजाघर और सा दा यक जीवन क अ य ा, सू जन हेनरी- ो (Dean, Susan Henry-Crowe) जो वयं एक लुथरे न स दाय क चुनी हुई पादरी है,ं 8 यह घोषणा कैसे कर सकती हैं क ‘धम मे ं पर पर कोई अ तर नहीं है’। या इस धारणा का कारण च लत धा मक मतभेदों के समाधान को ले कर उनके मन क य ता है? मैं जानना चाहता था क या एक-प ीय समानता क वकालत वह ोताओं मे ं उप थत ह दुओ ं के लए कर रही थीं, ता क वे अपने धम को सामा य/वै क पिर े य मे ं देखे ं अथवा यह समानता पार पिरक है जो अ य ा के अपने लुथरे न मत के लए भी मा य होगी। मैनं े उनसे पू छा क या इस अ तधा मक सभा मे ं उनका काय उनके ारा एक लुथरे न पादरी के प मे ं दी जाने वाली श ा के अनुकूल है। अ य ा ने व ास से इसके उ र के प मे ं हामी भरी। इस पर मैनं े अपना न और प प से पू छा—‘ या लुथरे न स ा त अ य स दायों को ‘सहन’ करने का है अथवा उ हे ं ‘स मान’ देने का है और यहाँ स मान से मेरा अ भ ाय उ हे ं भी ई र ा के वैध माग के अनुयायी मानने से है?’ उसने उ र दया क यह एक ‘मह वपू ण न है,’ एक ऐसा न जसके वषय मे ं वे ‘सोचती रही है,ं ’ क तु जसका कोई ‘सरल उ र’ नहीं है। दू सरे श दों मे,ं उनक दबी हुई य ता को य कराने के मेरे सतत् यासों के बावजू द भी वे वा त वक वषय को टालती रहीं। इस गो ी मे ं भाग लेने के लए मैनं े जो तैयारी क थी उसके अ तगत मैनं े लुथरे न चच क आ धकािरक नी त का अनुस धान कया था। यों क यह तो स भव नहीं था क अ छ मं शा होते हुए वे चच मे ं कुछ और श ा देती हों और भारतवा सयों मे ं उसके वपरीत चार कर रही हों! मैनं े पाया क लुथरे न मत के अनुया ययों के लए यह अ नवाय है क वे इस पर व ास करे ं क बाइबल ही सारे दैवीय ान का ोत है और व ास तथा नी तयों के स दभ मे ं केवल बाइबल (sola scriptura) ही नणायक थ है। इतना ही नहीं, सभी लुथरे न पादिरयों के लए यह अ नवाय है क वे यह वचन दे ं क आ था एवं पू जा- था के लए केवल बाइबल ही एकमा व सनीय मागदशक है। लुथरे न स दाय का सद य होने के लए अ नवाय है क आदम और ह वा क कहानी पर व ास कया जाये और इस पर भी क आदम और ह वा ने भगवान के आदेश क अवहेलना क थी जसके पिरणाम व प सभी य इस ‘ओिर जनल सन’ अथात मू ल-पाप का बोझ ढो रहे है।ं इस लए व के सभी य ज म से ही पापी हैं और उनमे ं इतनी यो यता नहीं है क वे पापमय काय से बच सकें। लुथरे नों का मत है क यही ‘ओिर जनल सन’ मु य पाप है और सभी वा त वक पापों क जड़ है। यह श ा सन 1577 के फ़ॉमू ला ऑफ़ कोंकोड — Formula of Concord मे ं अं कत है जसे आज तक लुथरे न मत का आ धकािरक व य माना जाता है। लुथरे न मत के अनुसार कोई भी य भगवान क कृपा न होने पर ऐसे शुभ े े



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कम करने के यो य नहीं है जो भगवान क यायया के अनु प हो, यों क वह जो भी कर ले, ओिर जनल सन के कारण, उसके वचार और कम सदा पाप और ं ।े इस कारण स पू ण मानव जा त सदा के लए नरक क पापमय मं शा से दू षत ही रहेग पा है—केवल उ हे ं छोड़ कर ज हे ं यीशु ारा बचा लया गया है। लुथरे न मानते हैं क मानव का बचाव अथवा उसक मु का स भव होना केवल यीशु के ज म, जीवन, क , मृ यु और मृ यु के प ात पुन थान मे ं न हत भगवान क कृपा से ही स भव है।9 इससे प है क चच मे ं च लत श ाओं के चलते अ य ा के लए ह दू धम को स मान देना अस भव था। मैं आ यच कत था क कस कार अपने आपको धा मक तालमेल के लए शू रवीर बताने वाली ह े शील अ य ा ईसाइयत मे ं न हत एकमा ता के वषय को, जो क धा मक वैमन य के मु य कारणों मे ं से एक है, कतनी सरलता से मु कुराते हुए टाल रही थीं। एक ओर तो यह वचारधारा क ईसाइयत ही मु का एकमा माग है और दू सरी ओर तथाक थत ‘झू ठे ’ मतों से सामं ज य बैठाने क इ छा या सचमुच मे ं स भव है, अ य ा ऐसी ही दु वधा से सत दखीं। अ तधा मक थ तयों मे ं इन अ त न हत एवं आधारभू त अ त वरोधों के नदान का एकमा उपाय है क ईसाइयत क इन मू ल भ ताओं को प प से तुत कया जाये। प थ- श ा स ब धत इन वषयों का अ धकां श ह दुओ ं को या तो ान नहीं होता अथवा वे इतने भी होते हैं क इन पर न नहीं उठाते। इस लए वे ‘सभी धम समान है’ं के तक से आसानी से भा वत हो जाते है।ं हो सकता है क लुथरे न त न ध म डल का उ े य छल-कपट से पू ण न हो, क तु यह भी स य है क भारत मे ं बहुत से कपटी पादरी समानता के इस आड बर क चाल चल कर पहले तो लोगों से समीपता बढ़ाते हैं और फर उनका धम पिरवतन करते है।ं मैं उनसे अपने न पू छता रहा—‘‘एक लुथरे न पादरी के प मे ं आप ह दू मू तयों के वषय मे ं या अथ लगाती है,ं ज हे ं चच ‘idols’ (मू तयाँ) कहती है और या आपके आ धकािरक आदेश मे ं इन का नषेध नहीं कया गया है’’ ‘ या आप ी कृ ण तथा शव को भी भगवान मानती हैं या उ हे ं बाइबल मे ं न दत ‘झू ठे गॉड’ ं ’ ‘‘आपका ह दू दे वयों के स ब ध मे ं या मत है, यों क चच का कहना मानती है? है क भगवान एक नर है?’’ ‘‘चच क मा यता है क येक य एक ‘ गरा हुआ पापी है’। इसको यान मे ं रखते हुए आप का इस ह दू मा यता क आ मा ‘सत्- चत्आन द’ प है, या कहना है?’’ ऐमरी व व ालय के त न ध म डल ने इन 10 सभी नों से चतुरता-पू वक क ी काट ली। स दायों के युगों पुराने एवं ज टल मतभेद एवं असामं ज यों का हल ऐसे ं े (य द समाधान इतना सरल होता तो बहुत पहले सावज नक मं च कभी नहीं कर पायेग खोज लया गया होता), क तु हम इनमे ं भाग लेने वालों से, जो क स भवत: ग भीर वचारक है,ं इतनी माँग तो करे ं क वे भ ता को छपाने का आड बर न करके मू ल ों ी ें ै औ ि औ ई

कारणों का सीधा सामना करे।ं आज राजनै तक औपचािरकता, अ ान और कई थानों पर कपटता के कारण एक पू रा आ दोलन इस तथाक थत समानता क धारणा पर न मत है। हमे ं इनमे ं से अ धकतम अ तस दायी वाताओं के मुखौटों के पीछे छपे वा त वक कारणों को सुलझाना चा हए। समानता एक-प ीय नहीं हो सकती— य द ‘क’ ‘ख’ के समान है तो ‘ख’ भी तो ‘क’ के समान ही होना चा हए। पर तु कतने चच ी कृ ण और शव क आराधना उसी सव यापी भगवान के प मे ं करने के लए तैयार हैं जसका ववरण बाइबल मे ं कया गया है? इससे हमे ं हर अव था मे ं समानता के दावे को परखने का यावहािरक तरीका मल जायेगा। ऐमरी ारा द ी मे ं दी जा रही इस तु त मे ं उप थत भारतीयों क त या ऐसी सभी सभाओं मे ं उप थत ोताओं जैसी थी—ग भीर मामलों के परी ण मे ं अ च, जो बोलने का साहस करे उसके उ े य पर स देह और अ तसा दा यक एकता के प धरों का अ ध समथन। इस तथा इस जैसी अ य अ तसा दा यक बैठकों मे,ं जहाँ मैनं े भाग लया है, यही सम या होती है। सभी व ा औपचािरकतावश ‘पर पर स मान’ और ‘मू लभू त समानता’ का दखावटी म े तुत करते है,ं जब क या तो वे समझ ही नहीं पाते अथवा यह समझने से मना कर देते हैं क उनक अपनी आ था एवं व ास पर इन वचारों का या पिरणाम हो सकता है। पिरणाम व प बहुत से ह दू धमगु सरलता से इस झाँसे मे ं आ जाते हैं क वा त वक स मान और एकता का वचार- वमश स भव है (एक ऐसा ताव जसे वे ठु करा नहीं सकते)। जब कभी अ तपथीय वातालाप मे ं य प से ईसाई समानता क चचा नहीं कर रहे होते तो भी वे ह दू व ाओं को ो सा हत करते हैं क वे समानता क सरल धारणा के आधार पर ह सा ले।ं वे कभी भी उन वचारों को उजागर नहीं करते जो ववादपू ण होते है।ं वे व मे ं बढ़ती सं घषरत पिर थ तयों मे ं ( वशेषकर इ ाहमी स दायों मे)ं ईसाई सा दा यक पर पराओं मे ं तालमेल और सहनशीलता क आव यकता को तो वीकार करने लगे है,ं चाहे व क याण को बढ़ाने क अपनी तब ता क ामा णकता स करने के लए ही सही। पर तु यह वृ त अ धकतर ऐसे स दायों के धम-पिरवतन के उ े य के साथ-साथ चलती है, वशेष प से जब कसी वग- वशेष को अपने मै ीपू ण यवहार क सहायता से धमातरण के लए नह था कर दया गया हो। ऐसे ईसाइयों क सं या बहुत कम है जो पर पर स मान को पू णतया समझते हुए इसके प धर है।ं उनमे ं से एक है जेनट े हाग (Janet Haag) जो क से े ड जन (Sacred Journey) नामक एक प का क स पा दका है।ं यह प का ं सटन (Princeton) थत एक ऐसी सं था ारा सं चा लत है जो ाथना ारा व भ स दायों के एक करण क इ छु क है। 2008 मे ं जब एक अ तसा दा यक आयोजन के लए जेनट े ने मेरा सहयोग माँगा तो मैनं े अपना य न पू छा—‘धम क व वधता को ले कर आपक या नी त है’—उ होंने पू वानुमा नत उ र दया : ‘हम ैं ी ों े ी े

सभी मतों के त सहनशील है’ं । त प ात इसके थान पर पर पर स मान क आव यकता के वषय मे ं चचा क गई। बना टाल-मटोल या र ा मक हुए जेनट े ने सं केत दया क यह वचार उनके काय को एक मह वपू ण आयाम दे सकता है। हमारा यह सं वाद उनक प का के अगले अं क के स पादक य का मू ल वषय बना। उ होंने लखा : ‘हमारे अ तसा दा यक स भाव को भावी बनाने के उ े य पर चल रही चचा मे ं उ होंने (राजीव म हो ा) इं गत कया क जब हम पर पर स मान के थान पर सहनशीलता तक ही सी मत रहते हैं तब हम वा त वक शा त और सहम त के यासों मे ं कमजोर पड़ जाते है।ं उनक इस ट पणी ने मुझे सहनशीलता और स मान के व श अ तर और इनमे ं छपे जीवन-मू यों के अथ पर सोचने के लए ववश कर दया। जेनट े ने स व तार बताया क ‘सहनशीलता’ का लै टन उ गम बदा त करने क ओर इं गत करता है जो क भले ही एक शं सनीय धारणा है क तु यह पर पर समथन अथवा सहयोग क ओर सं केत नहीं करता। अ य प से यह पर पर स ब धों मे ं श के अस तुलन को बतलाता है जसमे ं एक प ऐसी थ त मे ं तीत होता है मानो वह दू सरे प को अपनी इ छानुसार वीकृ त दे या न दे। उ होंने आगे बताया क स मान का अथ है दू सरे को आदर से देखना और यह श द इं गत करता है क हम स मान के बराबर हकदार है।ं पर पर स मान मे ं द भ और अन यता के लए कोई थान नहीं है। जो मैनं े उनसे कहा था, उ होंने उसे सं प े मे ं 11 बता कर उसक पु क ।

भ ता-ज नत य ता अथवा पर पर स मान? भारतीय और प मी लोग दोनों ही भ ता को वाँछनीय और सकारा मक दृ कोण से सम ता से देखने के सुझाव के त ाय: उदासीन रहते है।ं मैं इस उदासीनता को ‘ भ ता-ज नत य ता’ क सं ा देता हू ।ँ इस ववरण का ल य वह मान सक बेचन ै ी है जो भ ता के य ान और इस भ ता को छपाने, मटाने अथवा कम करने क इ छा से उपजती है। भ ता क यह य ता सा दा यक और सां कृ तक स दभ मे ं ाय: देखने को मलती है। इस तरह क य ता सामा य समाज मे ं वचारों, मतों और पहचान आ द मे ं सापे क समानता का आ ासन खोजती है। यह य ता ाकृ तक जगत क उस भ ता के तकूल है जो ा ड मे ं हम कसी भी तर पर देखे ं तो यह भ ता एवं व वधता वाभा वक प से पशुओ,ं पौधों, ऋतुओ,ं च ानों अथवा फूलों मे ं प प से दखाई देती है। मैं तक क ँ गा क हमे ं भ ता को स मान क दृ से देखना चा हए और उसक सराहना करनी चा हए, न क उसे मटाने का यास करना चा हए। क तु ऐसा करने से पहले उसे वीकारना और पिरभा षत करना होगा। े





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भ ता का समाधान करने क जो प मी शैली है, वह है अ य स यताओं के अवयवों को पृथक करके उनक अपनी बनाई हुई वैचािरक े णयों के अनुसार उ हे ं वभा जत करना — जैसे ‘ईसाइयों,’ ‘गोरों’ अथवा तथाक थत न ल ारा तपा दत े णयों के अनुसार। यह पुन: वग करण प मी दृ कोण को वत: ही वशेषा धकार देता है और इसे व यापी आदश के प मे ं दू सरों को अनुकरण करने के लए समथ घो षत करता है। इस कार प मी दृ कोण को वै क दृ कोण घो षत कर दया जाता है। यह प मी जगत क नय ण रखने क था पत णाली है। दू सरी ओर, भारत के बहुत से लोग जो धा मक वचारधारा मे ं पले बढ़े है,ं उ हे ं अपने ‘गोरे,’ ‘प मी,’ ‘ईसाई’ न होने जैसी कई हीनता क य ताएँ बुरी तरह भा वत करती है।ं वे अपनी पहचान को उप नवेशकों के बनाए पिर े य मे ं देखने मे ं ही गव का अनुभव करते है।ं जस पल कोई अपने आप को उप नवेशकों के पिर े य मे ं ‘वै क इ तहास,’ ‘वै क वचार,’ भाषा, कथानकों और सौ दय-शा आ द के मापद डों के अनुसार आँकने लगता है, उसी पल वह मान सक प से दासता वीकार कर लेता है। उ ता के दृ कोण से भ ता को व श प से दशाने क न तो आव यकता है और न ही यह वाँछनीय है। यह चलन पृथकतावादी होना ही नहीं चा हए। यह सरलतापू वक, ताल-मेल और सृजना मक वकास के आधार को बचाते हुए एक-दू सरे से सीखने का एक तरीका होना चा हए। एक स यता के दू सरी मे ं समा जाने से कहीं उ म है उनमे ं पर पर दीघकालीन आदान- दान। भारतीय स यता का मौ लक वचार है क व वधता एवं भ ता कोई सम या नहीं है जसे सुलझाने क आव यकता हो, यों क भ ता के साथ पर पर स मान इसमे ं न हत है। धा मक दृ कोण के अनुसार सं शय, अ यव था और अन गनत ज टलताएँ जीवन के वभा वक अं ग हैं और यों क भ ता कृ त का व प है इस लए धा मक वचारधाराएँ इसे सहजता से वीकार करती है।ं जब भ ता-ज नत य ता कसी अ धकार के दृ कोण से कट होती है तो श शाली स यता के लए अपने से कम श शाली स यता पर भु व जमाने, उसे हड़पने अथवा न करने के लए वह एक रे क का काय करती है। जहाँ यह य ता हीनता से कट होती है वहाँ पर भावशाली स यता क नकल करने का मनोवै ा नक दबाव पड़ता है और अपने आप को भावशाली स यता क ण े ी मे ं देखने क चे ा आर भ हो जाती है।

भ ता-ज नत य ता : ‘द भ’ से प म का इ तहास ऐसी घटनाओं से भरा पड़ा है जनमे ं उसने अपनी स दाय, न ल अथवा अथ-आधािरत े ता को स करने का यास कया है। भु व के त इस सनक के बीज और कारण छपे हैं उसके यहू दी-ईसाई मतों मे ं और उस यापक औ



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य ता और खालीपन मे ं जो पा ा य स यता मे ं स दयों से या है। सबसे पहले मैं यह दशाना चाहता हू ँ क जब-जब प म क इस भुता का तरोध हुआ है तब-तब उसक त या उसके लए अ य त लेशमयी रही है। यह लेशमयी त या इतनी ती होती है क यह ग़ैर-प मी लोगों के त हर कार के अनै तक और धू ततापू ण यवहारों को ो साहन देती है। यह लेश अथवा य ता मु यत: तीन कार से कट होती है : अ य स यताओं का बे हचक हं सा अथवा बलपू वक धम-पिरवतन से वनाश। अ यों को मु य धारा से अलग कर देना ता क वे अब और कोई सम या उ प न कर सकें। अ य स यताओं मे ं घुसपैठ करके उनक वाभा वक सहज भ ता को शनै: शनै: इ छानुसार टुकड़ों मे ं तोड़ कर एक के बाद दू सरी पीढ़ी मे ं ीण करना और अ तत: उ हे ं अपने मे ं हड़प लेना। ईसाई मत का के ब दु यह दावा करता है क बाइबल मे ं अं कत व भ पैग़ बरों के स देश व श हैं और ‘गॉड’ ारा भेजे गये हैं तथा यीशु का य व वश प से देव-तु य है। इन स देशों को काल मानुसार एक पु तक मे ं अं कत कये जाने का पिरणाम है एक मा य पु तक और एक ही बचाने वाला (मसीहा)। वह ‘अ यों’ क तुलना मे ं ‘हम े है’ं क सोच को मह व और बढ़ावा देता है। इस सोच क उपज है एक ऐसी नदशा मक था पत काय णाली क यव था, जहाँ व ासों और मतों क या या और कायावयन एक श शाली चच करती है, ारा क जाती है। इस ईसाई पिरयोजना को, जसका उ े य स पू ण व मे ं सा दा यक सम पता लाना है, एक ऐसे वशेषा धकार के प मे ं देखा जाता है जसका आदेश वयं ‘गॉड’ ने दया हो। भ ता-ज नत इस वशाल तर क य ता प मी समाज को सभी दू सरी स यताओं के समू ल वनाश करने क ओर ले जाती रही है।12 क तु यह वनाश तो भ ता के त इस य ता क एक नाटक य और य अभ य है जो भारत के पिर े य से सीधा सरोकार नहीं रखता। इस य ता क अ य अ भ य याँ अ धक धू ततापू ण है।ं उदाहरण के प मे ं अलगाव, जसमे ं य त: तो प मी य सहनशीलता दशाते हैं अथवा उसे स मान देने का ढोंग भी करते है,ं क तु उससे कसी भी कार का स पक रखने से इं कार कर देते है।ं इस कार जीते-जागते और याशील लोगों और स यताओं को व च , पुरातन या साधारण क उपा ध दे कर तर कृत कर दया जाता है। इन स यताओं को, जो वै क स यता को समृ बना सकती है,ं कसी सं हालय क दशनी के लए ही उपयु माना जाता है। े

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इस भ ता क य ता का एक वशेष उदाहरण हमे ं अमरीक दाश नक िरचड रोट —Richard Rorty (1931-2007) के आचार- वचार मे ं मलता है। रोट जो क ‘उ र आधु नकतावाद’ के एक मुख त न ध थे, एक वशेष कार के जा तवाद और दू सरों को नीचा दखाने क वृ त के एक वल त उदाहरण हैं जो मेरे मतानुसार भ ता के त दबी हुई य ता से उ प होती है। रोट के अनुसार भारत और उसक धा मक वचारधारा से उपजी पर परा तथा आ या मक समी ा प मी वचारों से मौ लक प मे ं इतनी भ है क वह कसी प मी य क समझ से परे है (और इस कारण सभी ग भीर दाश नकों और आधु नक वै ा नकों क समझ से भी परे है)।13 भारतीय दाश नक अ न दता ब लेव (Anindita Balslev) ने अपनी पु तक ‘क चरल अदरनेस : कॉरे पोंडेंस वद िरचड रोट ’ (Cultural Otherness: Correspondence with Richard Rorty)14 मे ं रोट से व भ सं कृ तयों के वषय पर वातालाप करने क सतत् चे ा क है। अ न दता क धारणा है क भारतीय सं कृ त प म से भ भी है और प म के समक भी। क तु रोट इस मत से असहमत है।ं उनके अनुसार भारतीय वचारों का अ ययन प म के लए यथ है। वे अपनी इस धारणा को ‘ यवहािरक’ ठहराते हुए कहते हैं क इस कार का अ ययन ‘ यथ है, यों क हम या करते हैं इस पर ऐसे अ ययन का कोई भाव नहीं पड़ता’।15 रोट के अनुसार ग़ैर-प म वचारधाराओं का दृ कोण प म से इतना पृथक है क प म उनको समझ ही नहीं सकता। इस लए भारत के वे प जो उसक भ ता को दशाते है,ं उनक उपे ा कर देनी चा हए। भारत और प म के बीच कसी भी कार का वैचािरक आदान- दान दोषपू ण होगा, यों क इनके सोचने के ढाँचे पार पिरक प से अलग हैं और एक व सनीय वातालाप के लए उनके वचारों का कोई एक समान वग करण भी नहीं हो सकता। इसी वातालाप मे ं रोट का सुझाव है क इस भ ता से ‘दू री बना कर’ इसे सहन करना चा हए। यह यवहार प मी वचारधारा को ही व - यापक एका धकार दान करने क चे ा है (इसक चचा इसी पु तक मे ं आगे क ँ गा)। यह एक ऐसी थ त है जो क भारतीय वचारों क व तरीय े ता क उपे ा करती है। रोट के ं )े है, जब क ‘ईसाई-वै ा नकअनुसार भारतीय दशन ‘ सं ग सापे ’ (आगे चचा करेग तकनीक वचारधारा’ (अपने आप मे ं एक शं का पद म ण) वै क है। रोट का कथन है क प मी दाश नक भारतीय दशन को ग भीरता से नहीं ले सकते, यों क ‘ईसाई-वै ा नक-तकनीकयु प म’ के पास आव यक प से वैसी यो यता वाले य नहीं है,ं अथात ‘ऐसे य ज हे ं उन सामा जक यव थाओं का ान हो जनमे ं इन दशन- थों क रचना क गयी थी...’। ऐसे वचार केवल रोट के ही हों ऐसा कतई नहीं है, पर स भवत: वह इस वषय मे ं दू सरों से अ धक प वादी है। इस नीचा दखाने वाली प प मी वृ त ने ी





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भारतीय स यता को श ण सं थानों मे ं ‘द ण ए शयाई अ ययन’ (South Asian Studies) जैसे वग मे ं रखा है, जसमे ं सामा यत: उपे त समू हों को रखा जाता है।16 ऐसा करते समय रोट ये भू ल जाते हैं क बहुत से इन तथाक थत प मी वचारों का मू ल ोत भारतीय है। उदाहरण के प मे ं आधु नक ग णत के बहुत से अं श जनका प मी व ान मे ं उपयोग होता है।17 यह एक अ छ तरह से समझ गई भारतीय व ा है जसे प म ने आ मसात कर लया है। भारतीय ग णत क ृ ला जैसे स ा तों को यू रोप मे ं एक अन तता, अ तसू मता तथा अं कों क अन त ं ख सदी से भी अ धक समय तक तब धत रखा गया था, यों क ये अ ामा णक और बाइबल के सी मत और नय त व के लए ख़तरा थे। भारतीय स यता के अवयवों को चुन-चुन कर प मी स यता ारा हड़प लए जाने के ऐसे अनेक उदाहरण हैं जनमे ं जब कसी स यता का पाचन पू रा हो जाता है तो एक के बाद एक आने वाले प मी बु जीवी इनके मू ल भारतीय ोत को भुला देते है।ं जब रोट को यह बताया गया तो उसने केवल इतना कहा क जो आधार- ब दु सभी स यताओं मे ं समान है,ं वे इतने साधारण हैं क उनके उ ख े का कोई योजन नहीं है। जब क सै ा तक प से रोट यह वीकार करते हैं क अ य स यताओं से वातालाप होना चा हए, तब भी वह इस तरह के सं वाद क उपयो गता पर न उठा देते है।ं 18 रोट क परेशानी यह है क वे भारतीय अवयवों को प मी वै कता मे ं समा हत करने मे ं असमथ हैं और वा तव मे ं ऐसा तीत होता है क न मट पाने वाला यह अ तर ही उनक इस याकुलता का कारण है। उनक धारणा है क प मी दशन तो वै क है ले कन भारतीय धा मक वचारधारा केवल कुछ व च और असं गत य यों तक ही सी मत है, जस कारण वा तव मे ं उनसे वातालाप स भव नहीं है। भारतीय स यता को समझ के बाहर घो षत करने क उनक चाल यह है क वे भारतीयों क भ ता के स दभ मे ं सं वाद को टाल दे।ं ऐसा लगता है मानो वे कह रहे हों—‘‘मुझे तु हारी भाषा और लहजा अथवा दृ कोण समझ नहीं आ रहा, इस लए मैं तु हारी उपे ा ही क ँ गा।’’ रोट उस ण े ी के य यों का प उदाहरण हैं जो भ ता पर चलने वाले वचार व नमय को ही याग देते है।ं इस तरह क बहस मे ं भावशाली प का दू सरों के साथ बात करने से मना करने का अघो षत एका धकार हो जाता है। ऐसा कोई अ धकार उन लोगों को उपल ध नहीं है ज हे ं प मी वै कता के दावे को वीकारने के लए कहा जाता है। उ हे ं प म ारा था पत बहस क शत को वीकार करना ही होता है, अ यथा उ हे ं उपे त कया जाता है। भ ता से नपटने का एक इससे भी धू तता-पू ण तरीका योग मे ं लाया जाता है। इसमे ं जो अ धक श शाली प है वह ऐसा आड बर करता है क वह दू सरे प के तौर-तरीके व शैली को अपना रहा है, क तु इसका योजन केवल दू सरे को नह था करके झुकाना और अपनी इ छानुसार चलाना होता है। जीत और दू सरे के धमातरण ै े ी ो ई ई े ें े

के लए इस कूटनी त का उपयोग ईसाई मत के इ तहास मे ं अनेक बार कया गया है। वेतन टोडोरोव (Tzvetan Todorov) अपनी पु तक द कोंकुए ट ऑफ अमेिरका (The Conquest of America) मे ं ववरण देते हैं क कस कार अ भयान पर भेजा गया हनान कोतज़ (Hernan Cortes) मू ल नवा सयों क भ ता को न करने के लए उन का अ ययन करता था— योजना के अनुसार इस यवहार के दो चरण है।ं थम, उनसे कोई समानुभू त और अ थायी पहचान जता कर उनमे ं च दखाई जाती थी। कोतज उ हीं जैसा वेश अपना लेता था...इस कार वह उनक भाषा और राजनै तक सं रचना क सटीक सू झ-बू झ ा कर लेता था... क तु ऐसा करते समय वह कभी भी अपनी े ता के आभास को नहीं छोड़ता था; ब क दू सरों को समझने क उसक मता उसके इस वचार को और सुदढ़ ृ करती थी। इसके प ात दू सरा चरण आर भ होता था, जसमे ं वह न केवल अपनी पहचान को दृढ़तापू वक रखता था (जो उसने कभी यागी ही नहीं थी) ब क मू ल नवा सयों को अपने अनु प आ मसात भी कर लेता था।19 इस कार के उदाहरणों मे ं सतही प से त यों का अ तर हो सकता है, क तु सभी के मू ल मे ं भ ता-ज नत य ता ही छपी रहती है। इस या का एक थोड़ा-सा भ क तु अ धक वक सत और आधु नक प मे ं योग रोमन कैथो लक चच ारा ‘इ क चरेशन’ (Inculturation) के नाम से कया जाता है। इस श द का सव थम उपयोग तब कया गया था जब जे सलेम-रोम क सीमा के बाहर धमातरण के अ भयान को च त कया गया था। एक जीवन शैली को दू सरी से बदलने का ख़तरा मोल लेने के बदले मशनिरयों ने चालाक से थानीय लोगों क सां कृ तक पहचान और पर पराओं को यों का यों रहने दया, क तु उनके इ देवी देवताओं के थान पर यीशु को था पत करना ार भ कर दया और साथ ही यह दावा कया क आ या म स ब धी वषयों मे ं चच का अ धकार सव पिर है। कैथो लक पर परा मे ं ग़ैर-प मी थानों मे ं ईसाई मत क थापना के लए इ क चरेशन को एक चाल के प मे ं मा यता ा है। इसके अ तगत थानीय पर पराओं को केवल ईसाइयत के चार के लए ही वीकृत कया जाता है, न क उनक भ ता के त कसी स े स मान के कारण। कैथो लक चच इस या का योग लै टन अमरीका मे ं मू ल नवा सयों का मत बदलने के लए करती रही है और उसने इसका उपयोग अ का और भारत मे ं भी सफलतापू वक कया है।20 यह भ ता को ‘सहन’ करने का कट प मे ं एक ऐसा ढं ग है जो बाद मे ं धमातरण के ारा इस भ ता को समू ल न करने का माग श त कर देता है। स दयों से चच के वशेष ों और अ धकािरयों ने उ साही मशनिरयों ारा लै टन ं ड़ों करणों का अमरीका, अ का तथा ए शया मे ं व श इ क चरेशन के सैक औ













अ ययन और उन पर बहस और नरी ण करके फैसला सुनाया है। इसके प ात उ होंने यह नधािरत कया क इनमे ं से कन पर तब ध लगाया जाये और क हे ं चलने दया जाये। ये नणय आ धकािरक प से लए गये और समझने के लए मह वपू ण हैं क कस कार ईसाई स दाय अपनी चाल मे ं मक सुधार कर अथवा पिर थ त के अनुसार अ धक से अ धक ‘मा कट शेयर’ अथवा भागीदारी के लए पर पर त ं ता करते है।ं 21 इ क चरेशन क यह णाली कई चरणों मे ं काय करती है। थम चरण मे ं मशनरी ारा मू ल अथवा थानीय स यता का स मान कया जाता है। थानीय पर परा के कुछ च ों का स मान करके उ हे ं सतही प मे ं अपनाया जाता है, जससे उ हे ं गव होने लगे क उनक स यता का स मान हो रहा है। इसका ता का लक उ े य होता है क ईसाइयत पू णतया वदेशी न तीत हो और वह मू ल नवा सयों को आकषक लगने लगे। इसका दीघका लक पिरणाम हालाँ क यह होता है क धीरे-धीरे थानीय नवा सयों को उनके मू ल धम के मु य त वों से दू र कर दया जाता है। उनक पर परागत पहचान धीरे-धीरे ीण हो जाती है, उन मे ं न हत मू य ईसाइयत क छ व मे ं पिरव तत होने लगते है।ं जब नया सद य इस अ प अथवा दोगले स दाय मे ं फँ स जाता है तो वह चच पर नभर हो कर अपनी मू ल पर परा से स ब ध- व छे द कर लेता है। मुहावरे मे ं कहा जाये तो ‘घोंपा हुआ छु रा घुमा दया जाता है’। य द करण ह दू धम से स ब हो तो ह दू प के मह व को कम कर दया जाता है और ईसाई प को मुख बना दया जाता है। यह अ य त सावधानीपू वक कया जाता है और करने से पू व सु न त कर लया जाता है क ह दू धम से उनका स ब ध पया सीमा तक ीण हो चुका है और वे मशनिरयों पर आ त हो गये है।ं इस चरण मे ं ह दू धम क खुले तौर पर आलोचना नहीं क जाती, ब क इसे जा तवाद, दहेज था, म हलाओं क दुदशा और ‘ पछड़े पन’ के अ य उदाहरणों के पिर े य मे ं पिरभा षत कया जाता है। अ तम चरण मे ं ह दू धम क खुले तौर पर आलोचना क जाती है और य को एक दृढ़ ईसाई बना दया जाता है। इस तरह का धोखा तभी काश मे ं आता है जब इस पा तरण के तरीकों के दीघकालीन ता पय का व लेषण कया जाता है। ट कन (Tuscan) से आये जेसइु ट मशनरी रॉबट ड नो बली — Robert de Nobili(1577-1656) को इ क चरेशन का अ णी और मह वपू ण उदाहरण माना जाता है जो 1608 मे ं द ण भारत मे ं आया था। वह गव से लखता है क उसने अपने आप को एक साधु के प मे ं तुत कया, क तु जब उसे आभास हुआ क इस वाँग से वह लोगों के घर पर उ मु हो कर नहीं जा सकता तो उसने लोगों का व ास अ जत करने के लए अपने आप को य के प मे ं अं गीकृत करा लया। कई कार के छ वेश धारण करने के उपरा त उसने अपने लए सबसे उ चत समझ कर एक ा ण का वाँग धारण कया। इसके लए उसने जनेऊ भी धारण कया औ





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और इसके तीन धागों को वह ईसाइयत क मू त (trinity)बताने लगा! उसने पिर म से सं कृत और त मल का अ ययन कया, ा ण सं यासी क भाँ त पिरशु एवं सरल जीवन शैली अपनाई और ईसाई श ा (gospel) का उपदेश देने लगा। इसके लए वह ईसाइयत से मलते-जुलते ह दू श दों का उपयोग करता था। पिरणाम व प वह कई ह दुओ ं का धमातरण करने मे ं सफल रहा जसमे ं कई उ वण के श त य भी स म लत थे। उसके इन यासों को वशु ईसाइयत के व मान कर वै टकन ने नो बली के जीवनकाल मे ं उसका समथन नहीं कया और उसके याकलापों पर अपनी पैनी दृ रखी। क तु आज उसके काय को चच के ारा इ क चरेशन के आदश के प मे ं तुत कया जाता है, जब क उसमे ं प प 22 से कपट स म लत था। ह दुओ ं के मन मे ं सरलता से घर करने के लए उसने ा णों क भाँ त सर मुं डा कर चोटी रख ली, चम के जू ते याग कर खड़ाऊँ धारण कर लए, शाकाहारी बन गया और लोटे का उपयोग करने लगा। जब वह ‘रोमन ा ण’ के प मे ं स हो गया तो उसने अपनी एक झू ठ वं शावली भी बे हचक बना डाली, जसके अनुसार उसने वयं को सीधे ा का वं शज कहना आर भ कर दया! यहाँ तक क उसने एक आ धकािरक पाँचवाँ वेद भी बना डाला जसमे ं उसके अनुसार ईसाइयत के स य थे। इस कार ह दू धम के ईसाईकरण को उसने उप नवेशकों क तथाक थत बेहतर स यता से जोड़ कर यह जताने का यास कया क मानो वे अपनी थानीय पर पराओं का एक सं शो धत या बेहतर प अपना रहे हों। आज द ण भारत मे,ं वशेषत: त मलनाडू और आ देश मे,ं कैथो लक जो ह दू नामों एवं श दावली का योग कर रहे है,ं उसका य े रॉबट ड नो बली को ही जाता है। उसने चच को को वल (म दर), क यु नयन (communion) को सादम, कैथो लक फ़ादरों को अई यर (शैव ा ण), बाइबल को वेदम् (वेद), मास (Mass) को पू जा का नाम दे दया। यीशु के बारह मुख श यों (एपो लों) का अनुकरण करते हुए उसने कहना ार भ कर दया क उसने बारह मुख ा णों को अपना श य बना लया है। अ तत: केवल एक ही बाधा रह गयी थी, वह थी उसका गोरा रं ग।23 समय के साथ-साथ कैथो लक चच ने अपनी इ क चरेशन क वधा को बढ़ा कर न केवल ग़ैर-ईसाई स यता के च ों को समायो जत करना आर भ कर दया, ब क उनके धा मक वचारों का भी समायोजन होने लगा। दृ ा त के प मे ं 1939 मे ं कई समय से चली आ रही पू वजों को पू जने क चीनी-ईसाई पर परा से नषेधा ा हटाते हुए पोप पाइ स (Pope Pius) XII ने घो षत कया क यह अ ध व ास नहीं है, अ पतु अपने पू वजों के मरण का एक स मानजनक ढं ग है। इस कार का इ क चरेशन अ य आ थाओं को स मान देने का छल करती है, जब क यह उ हे ं धमातरण के लए तैयार करने क भू मका मा होती है। ी



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तीय वै टकन सभा (1962-65) मे ं अपनी इ क चरेशन क नी त को सं शो धत करते हुए भारतीय ईसाइयों को ो सा हत कया गया क वे थानीय आ थाओं और व ास के त न ा का ढोंग करे ं और ‘ छपे हुए यीशु’ क घोषणा ऐसे समय करे ं जब मू तपू जक (‘हीथन’) धमातरण के लए त पर दखे।ं यहाँ तक क इस इ क चरेशन क व ध के फल व प ह दू म दर जैसी दखने वाली चच का नमाण कया गया और उनमे ं ह दू च ों और व तुओ ं का उपयोग कया गया। ईसाई पादरी भारतीय साधुओ ं के वेश मे ं घू मते दखाई पड़ते थे। जब साठ और स र के दशकों मे ं प मी देशों मे ं भारतीय धम का भाव या होने लगा तो कुछ क रप थी अमरी कयों का मत था (जो आज भी है) क योग और यान ईसाई मत के व है,ं क तु कुछ ईसाइयों क त या अ धक अवसरवादी थी। इनका उ े य था क थानीय अमरीक ‘माकट’ के लए उन त वों को अपने मे ं समा हत करके हड़प लया जाये जो ईसाइयत क उदारवादी छ व को बढ़ावा दे सकें, जसका वा त वक अथ था क भारतीय आ या म को बाइबल से उपजे स दायों के मान च मे ं दशा दया जाये। यह मू तपू जकों को पालतू बनाने क व ध है ता क वे एक ख़तरा न बन जाये।ं रोमन कैथो लक चच ारा 2008 मे ं का शत ‘इं डयन बाइबल’ मे ं कम-से-कम सौ उ याँ वेदों, योग सू ों और उप नषदों मे ं से ली गयी है।ं 24 क भोगते हुए यीशु को न दखाते हुए इस भारतीय यीशु को कृ ण भगवान क भं गी मु ा मे ं मुरली बजाते हुए दशाया गया है। उस के मुख पर वेदना नहीं है अ पतु वह आन द और उ ास है जो ी कृ ण, चैत य महा भु अथवा नटराज के मुख पर देखा जाता है। यीशु के चारों ओर वे वा य हैं जनका योग भजनों मे ं कया जाता है और उसके पैरों के समीप तबला और मजीरा पड़े है।ं सामने के पृ पर लखा है ‘वह आन द से झू म रहा है’। इस कार का न पण भारतीय ईसाइयों मे ं अपनायी हुई स यता के त गव क भावना उ प करता है। यवहािरक तर पर देखे ं तो यह उ हे ं अपने ह दू म ों, यजनों और पड़ो सयों के साथ स ब धों को एक नर तरता भी दान करता है। इस ईसाई इ क चरेशन क भारत मे ं एक मुख सम या यह है क यह ह दू धम से उन गुणों को वलग करना चाहती है जसे यह अपने लए एक बाधा समझती है। पिरणामत: हमारी पहचान को धम नरपे (से युलर) बनाना चाहती है। यह दृ कोण इस त य को नहीं समझता क ह दू धम मे ं ऐसे बहुत से चलन, थाएँ, आकृ तयाँ, च , अनु ान और अ भवृ याँ हैं ज हे ं उनके मू ल आ या मक स ा तों के काश मे ं ही समझा जा सकता है। इस वलगावकारी वृ का एक अ य त पीड़ा-कारक उदाहरण भरतना म को उसक मू ल ह दू पहचान से वलग करने के लए कये जा रहे यव थत यासों मे ं देखा जा सकता है। इसके पीछे मं शा है क भरतना म के अ त वक सत सं केता मक सौंदय शा को ईसाई धमातरण के लए यु कया 25 जा सके।





भ ता-ज नत य ता : ‘हीनता’ से ऐसा नहीं है क सामा जक अथवा राजनै तक यवहार मे ं भ ता के त यह य ता केवल भावी प मे ं ही पायी जाती हो। कम श शाली समू ह के सद य ज हे ं जाने अनजाने ऐसा तीत होता है क उनक सामा जक छ व इस लए हीन है क वे अपे ाकृत कम भावशाली स यता के सद य है।ं वे अपने आप को कम अनोखा, कम हीन दखाने का या ‘ भावी प के मापद डों के अनु प’ दखने का हर स भव यास करते है।ं इसके लए वे अपनी भ ता के सभी सू चकों को मटाने का यास करते है।ं इस कार के कुछ यवहार लगभग सभी समाजों मे ं समान हैं और भारत मे ं तो यह य ता यापक प से दखती है। उदाहरण के लए कायालयों मे ं न न तर के कमचारी अपने से ऊपर वालों क यवहार शैली और पहनावे का अनुकरण करने का यास करते है,ं पर तु यह आचरण कभी उ टी ओर नहीं होता। गाँव से नगर मे ं वास कर रहा घरेलू नौकर वयं को म यम वग क भाषा, यवहार और बातचीत से भ देख कर य ता से सत हो जाता है और अपने मा लक का अनुकरण करने लगता है। नगर से गाँव जाने पर मा लक क थ त ऐसी नहीं होती है। जब भारतीय उ वग अवकाश के लए गाँव मे ं जाता है तो वह अपनी पहचान और े ता क छ व मे ं सुर त होता है और केवल एक अ पका लक अनुभव के लए जाता है। उ हे ं देहाती बनने क कोई य ता नहीं सताती। स दाय स ब धी भ ता से उपजी य ता का भाव अ य मतभेदों मे ं भी देखा जा सकता है। उदाहरणाथ, जनका ईसाई मता तरण हो चुका होता है या जो इसके लए सरल शकार है,ं वे पा ा य स यता क शैली के त अ धक आस हो जाते है।ं पिरणामत: कई भारतीय इसमे ं गव अनुभव करते हैं क वे प मी पिरवेश मे ं सहजता से समा जाते है।ं वे गोरे समाज मे ं ऊपर उठने के लए उसक नकल कर के अपनी भ ता को मटा देते है।ं अमरीका मे ं लुइ ज़आना (Louisiana) ा त के रा यपाल बॉबी ज दल (वा त वक ह दू नाम पीयू ष ज दल) और द ण कैरोलीना (South Carolina) क नक हेली - Nikki Haley (वा त वक सख नाम न ता रं धावा) उन मुख भारतीय अमरी कयों के उदाहरण हैं जो ईसाई बन गये है।ं इससे उ होंने मु य धारा के गोरे समाज (और मतदाताओं) से अपनी भ ता को कम कर लया है, जसका उ हे ं वां छत लाभ मला है। इससे एक स देश जाता है क य द अमरीक राजनी त मे ं आगे बढ़ना है तो यही एक रा ता है। अमरीका मे ं बहुत से भारतीयों ने अपनी भ ता को ीण कर दया है, ता क वे प मी समाज मे ं कम अनोखे लगे।ं यह भु व-स प वग से समानता दशाने क इ छा, गहरे और सतही दोनों तरों पर काम करती है—भाषा, बोलचाल और अपनी व श ता तुत करने मे,ं वशेष प से यापार जगत मे ं इस अ तर को मटाने का यास और राजनै तक, सां कृ तक एवं शै क े मे ं पा ा य शैली मे ं सोचने, लखने, और बोलते समय ै े े ी े ों ो ें ी ी े

प देखा जाता है। इस ण े ी के य यों को इस पु तक मे ं क गयी समी ा परेशान कर सकती है, यों क यह कदा चत उनक भ ता-ज नत य ता अथवा सामा जक हीन भावना को उजागर करेगी।26 भारत भर मे ं खुल रहे ‘मॉड लं ग कूल’ इसी य ता का एक उदाहरण है,ं जो छोटे नगरों क लड़ कयों को बना भारतीय उ ारण के अं ज़ े ी बोलने तथा वेशभू षा और अय या कलापों मे ं कम भारतीय लगने का श ण दे रहे है।ं इस श ण के व ापनों का आशय होता है क इससे उनके ववाह और आजी वका स ब धी अवसरों मे ं वृ होगी। भारतीय समाचार-प ों के ववाह स ब धी व ापनों के ववरण मे ं अ सर ‘गोरा रं ग’ अथवा ‘गेहआ ु ’ रं ग पढ़ने को मलता है। ‘ यू टी म’ ं र’ अपने कमचािरयों को प मी गोरेपन के दावे पर बेची जाती है।ं भारतीय ‘कॉल सेट नाम रखने और भारतीय लहजे, नाम और पहचान छपाने का वशेष श ण देते है।ं कुछ को तो अमरीक च को हण करने के नदश भी दये जाते है,ं जैसे उ हे ं सखलाया जाता है क वो वयं को ‘डै लास’ (Dallas) क फु टबॉल टीम का ‘फैन’ बतलाये।ं अ धकतर लोग इससे सहमत होंगे क यवहार से न सही तो अपनी सोच से व भ स यताओं के बीच सौंदय- वषयक तनाव कसी आ तिरक या पू ण े ता पर आधािरत नहीं होता है, ब क इसका नणय त कालीन समाज मे ं या श के स तुलन ारा नधािरत होता है। अज ता क गुफाओं के भ च ों मे ं त े वण य और याम वण य लोगों को एक साथ दशाया गया है और उनमे ं कोई वरीयता अथवा े ता/ यू नता का आभास नहीं होता। इनमे ं न हत स देश है क सौंदय के कोई नणायक मापद ड नहीं है।ं इसी कार यू रोप के म ययुगीन च ों मे ं भरे और का तहीन शरीर वाली म हलाओं को च त कया गया है। वे आज के चलन के अनु प छरहरे शरीर ( ज हे ं सफलता का ोतक माना जाता है) क म हलाओं जतनी आकषक नहीं लगतीं। प मी समाज मे ं एक भारतीय अपने हाथों से भोजन करते हुए य ता का अनुभव कर सकता है, क तु कोई प मी य भारतीय पिरवेश मे ं छु री काँटे का योग करते हुए उतनी य ता का अनुभव नहीं करेगा। इसी कार गले मे ं टाई लगाने का उ चत ढं ग या है अथवा कस कार महँगे भोजनालय मे ं वेटर को खाने का ‘आडर’ देना है, यह सब बाते ं प मी पिरदृ य से अपिर चत एक भारतीय को य कर सकती है,ं क तु आ म व ास से भरा प मी य भारतीय पर परागत पिरदृ य मे ं अपे ाकृत कम य ता का अनुभव करेगा। कसी प मी य का भारतीयों के बीच भ होना कसी असहजता को ज म नहीं देता (यह भी स भव है क उसक भ ता उसे कुछ वशेषा धकार दान कर दे), क तु य द कोई भारतीय कसी प मी पिरदृ य मे ं भ दखता है या यवहार करता है तो यह उसके लए गहन य ता का कारण हो सकता है। थ त को सहज या अनौपचािरक बनाने क पहल य द कोई ी े ो ी ो ें े ी ीं

प मी य ं ।े करेग

ं े क तु कभी पहल नहीं करेगा तो भारतीय उसका अनुकरण तो कर लेग

हीनता से उठने वाली य ता का एक उदाहरण हमे ं ह दू धम गु ओं मे ं देखने को मलता है जो ाय: नकल करके अपनी पर परागत शैली को ीण करते हुए ‘वै क’ हो गये हैं जससे वे यापक प मे ं आकषक बन जाये।ं वे यह कहने लगे हैं क सभी मत एक से है,ं जब क कहना यह चा हए क सभी मत समक तो हैं क तु भ है।ं वशेष प से इस यहू दी-ईसाइयत क काय- णाली का अनुकरण करने क वृ का ज म तब हुआ था जब हम परत थे। उस समय यू रोपीय भावनाओं को यान मे ं रखते हुए ह दू नेताओं ने अपनी पर पराओं को वकृत और पिरव तत कर ईसाईयहू दी पर परा का अनुसरण करना आर भ कर दया था। इस पर आगे व तार से ं ।े चचा करेग वे त े अमरीक जो अपने आप को ह दू कहते है,ं उ हे ं भ ता से ज मी दोहरी य ता का सामना करना पड़ता है। दुभा य से भारतीय ह दू उ हे ं अनोखा समझते है,ं जब क इनमे ं से अ धकाँश अपने यासों मे ं ग भीर होते हैं और ह दू धम को बड़े तर पर समझाने मे ं सहायक स हो सकते है।ं इ हे ं इनके अपने साथी भी व च समझते हैं यों क उ हे ं लगता है क वे ‘देसी’ बन गये है।ं इस कार वे अपने जैसों से घरे हुए आ म से बाहर नकलते ही भ ता क य ता का अनुभव करने लगते है।ं इन य ताओं का पिरणाम होता है क उ हे ं लगने लगता है क अपनी यहू दी-ईसाई पहचान मे ं लौट जाना चा हए। ऐसा होने पर न केवल उनका अपने अनुभवों के लए ह दू ोतों के त आभार अ प हो जाता है, ब क यह अनुभव या तो नकारा जाता है या फर धू मल हो जाता है। हम देखते हैं क बहुत से वदेशी भारतीय पिरधान पहनते हैं और भारतीय भोजन का आन द भी लेते है,ं क तु ऐसा करने मे ं उनक अपनी स यता क पहचान के त हीन भावना नहीं होती और न ही वे इससे अपनी सामा जक थ त को उठाने का यास कर रहे होते है।ं जब अमरीक युवाओं ने मोहॉक टाइल (दोनों ओर के बाल काट कर म य के बालों को खड़ा करना) अपनाया था तो वह केवल एक ‘फैशन’ था। वह मोहॉक स यता क कसी हीन भावना का समाधान करने से िे रत नहीं था। और न ही उसका उ े य कसी मोहॉक को भा वत करके नौकरी, वीजा या आ थक सहायता ा करना था। अमरीक खेलों क टीम जब अपना नाम कसी मू ल ं अमरीक स यता के नाम से रखती है (जैसे वा शं गटन रेड कन अथवा लीवलैड इं डयन) तो इसमे ं उस स यता के त कोई म े अथवा स मान नहीं होता ब क उ हे ं एक आभू षण या अलं कार के प मे ं योग कया जा रहा होता है। इसे ठ क से समझने के लए हम एक पिरदृ य क क पना करते हैं जसमे ं चीन एक आ थक और सामा जक महाश बन चुका है। अब क पना करे ं क प मी स यता के लोग भ ता क य ता के चलते न केवल चीनी भाषा सीखने लगते है,ं ं े ी ें े ैं े े े ी ीं

ब क अं ज़ े ी मे ं बात करते पाये जाने पर ल जत अनुभव कर रहे है।ं इतना ही नहीं वे अपने आचार- यवहार मे ं भी ची नयों का अनुकरण करने लगते है,ं ब क ‘उन जैसा’ दखने के लए ला टक सजरी भी करवाने लग जाते है।ं

हड़पना और आ मसात करना इस भ ताज नत य ता से नपटने क एक और या है जो य नहीं दखती, इस लए यह वशेष प से भयं कर है। इस या के बहुत से प ऊपर दी गयी चालों से मलते हैं और यह या एक कार से उ हीं का पिरणाम है। कम भावी स यता को आ मसात करने, उससे भ ता को कम करने और ‘एक समान’ होने का दावा करने को हड़पने क सं ा दी गयी है। लोक यता के स दभ मे ं भारतीय और प मी स यता एक ही तर पर हो सकती है,ं क तु आ तिरक तर पर जहाँ आधारभू त धारणाओं का न आता है, ये तर एक समान नहीं है। धा मक सं कृ त के प म ारा अपहरण से समानता का एक म उ प होता है। कम भावशाली सं कृ त को अ धक भावशाली स यता ारा इस कार आ मसात कया जाता है क— 1.   भावी स यता दू सरी स यता के टुकड़े करके उन भागों को चुन लेती है जसे वह अपने लए उपयु समझती है; 2.    इन अप त अवयवों को भावी स यता अपने इ तहास और दृ कोण का भाग दखाने के लए अपनी भाषा और सामा जक सं थानों मे ं च त कर लेती है और उनके पर परागत ोतों को न कर देती है; 3.   जस सं कृ त से उनका दोहन कर लया गया है उस सं कृ त क सां कृ तक ँ ी ीण हो जाती है, यों क अब उन अवयवों को भावी और सामा जक पू ज स यता के इ तहास के प मे ं था पत कर दया गया होता है और यह दशाया जाता है क या तो वे अवयव उस मू ल सं कृ त के हैं ही नहीं या मू ल सं कृ त के वरोधाभासी है;ं 4.   ीण सं कृ त कसी मृत स यता के प मे ं सं हालयों क शोभा के लए बच जाती है जो अब भावी स यता के लए कोई चुनौती तुत नहीं करती। इस कार हड़प लये जाने के प ात इस स यता का जो स वहीन भाग बच जाता है उसे न कर दया जाता है। उसक भ ता को न कया जाना ही कसी स यता को एक बलहीन शकार बनाता है ता क उसे शकारी स यता क आनुवां शक मे ं च त कया जा सके।27 इसके प ात भावी स यता अपनी सु दरता, भाषा, दशन, दृ कोण और ऐ तहा सक पिर े य को वै क दृ कोण के प मे ं तुत कर देती ै











है। इसके साथ ही कम भावी स यता क भाषा, इ तहास, च और आकृ तयाँ न त वकृ तयों के साथ भावी स यता का अं श बन जाती है।ं इस वृ को उ चत ठहराने के लए एक कुतक दया जाता है क इस आ मसात करने क या मे ं भावी स यता ( तुत करण मे ं प मी) मे ं भी तो पिरवतन 28 होता है। इसके अ तगत, शकारी स यता के समृ होने और शकार स यता के ीण होने को कई इ तहासकार व स यता के वकास क उपा ध देते है।ं इसमे ं प म को स यता का के - ब दु और मू ल श के प मे ं था पत कया जाता है।29 अ य स यताओं को या तो प म के ोत के प मे ं ासं गक माना जाता है (‘हमारे इ तहास’ का भाग), या व रं गमं च पर (‘हम ने स य बनाया’ का भाग) अथवा प म के लए एक चुनौती के प मे ं (‘हमारे मोच’ का भाग)। जन स यताओं को हड़प लया जाता है, उनक पहचान और उनके हतों से फर कोई सरोकार नहीं रह जाता है।30 इस कुतक मे ं छपे न लभेद क वृ त के अ तिर मनु य जा त क व वधता के लए भी यह वृ त एक वप है। प म ने जन अ य स यताओं के फल खाये हैं उनक जड़ों को भी न कर दया है, जससे उन स यताओं मे ं जो चुर फल दान करने क साम य थी वह भी समा हो गयी। जन अवयवों को पचा लया जाता है वे ाय: न हो जाते है,ं यों क पचाई हुई स यता के अवशेष अ थपं जर कोई सकारा मक सृजन करने और योगदान देने मे ं असमथ हो जाते है।ं आज हमारे व मे ं ग़ैर-प मी स यताओं ारा धरोहर के प मे ं दया गया बहुत कुछ है (हालाँ क आज उसे प मी स यता के इ तहास और वकास के अं ग के प मे ं दशाया जा रहा है) ले कन य द वे स यताएँ, ज हे ं पचा लया गया है, आज जी वत होतीं तो व कहीं अ धक स प होता। हमने देखा है क जस कार एक माँसाहारी अपने शकार को पचा जाता है, उसी कार भावी प अपनी भ ता-ज नत य ता को मटाने के लए अ य स यताओं को पचा जाता है। नीचे दया रेखा च इस या के व भ प ों को दशाता है। हड़पने क यह या भोजन करने के समान है। जो उपयोगी साम ी है उसे खाने वाले ारा पचा लया जाता है और जो उसक सं रचना के यो य नहीं होती उसे मल के प मे ं याग दया जाता है। पिरणाम यह होता है क भोजन क भाँ त मू ल ोत सदा के लए न हो जाता है और हण करने वाला (प म) पहले से अ धक श शाली हो जाता है। इसके पिरणाम व प सां कृ तक व वधता कम हो जाती है, यों क मू ल सां कृ तक ोत के न होने से सम पता आ जाती है।

य ता का अस यपू ण समाधान धम और समानता/सम पता बहुत से भारतीयों के मन मे ं यह भावना घर कर गई है क भ ता के कारण हं सा होती है और इस लए प म से अपनी भ ता के त उनमे ं ला न का भाव रहता है। वे सा दा यक हं सा के वरोध मे ं ‘समानता’ या ‘एक पता’ के प धर बन जाते हैं और अपनी पहचान को ीण करने का यास करने लगते है।ं भारतीय उ वग प म ारा परोसे गये उस ह दू धम मे ं सहजता अनुभव करते हैं जसे समानता के ढाँचे मे ं तुत कया जाता है (जैसा उप नवेशवाद के काल मे ं होता था)। दाश नक और आ या मक तर पर ऐसी बहुत-सी धा मक पर पराएँ हैं जो ऊपर से देखने मे ं समानता क अवधारणा का समथन करती है।ं 31 उदाहरण के लए वेदा त क अवधारणा ‘एकम् सत्’ ने इस धारणा क ओर आकृ होने वालों को कुछ मत कर दया है। ‘एक ववाद’ का बखान इस कार कया जाता है मानो यह सभी कार क भ ता को नकार रहा हो, जब क वेदा त दशन के अनुसार ‘एक’ और उस ‘एक के अनेक प’ इस ा ड को अन त व वधता दान करते है।ं न स देह अ तम अथवा परम स य तो एक ही है, क तु उसका एक आ तिरक ढाँचा है जसके अनुसार ही सापे य यथाथ को समझा जा सकता है। यह सापे य यथाथ अलग से व मान नहीं है और इसका अपना अ त व उस परम एक पर नभर करता है। क तु यह कह कर क ‘इसका कोई अ त व ही नहीं है’ इस यथाथ को नकारा नहीं जा सकता। धम और कम (और उनके फल) का अ त व और उन क अ भ य इसी सापे य यथाथ मे ं होती है। यह सापे य यथाथ केवल एक दृ म नहीं है। दोनों तरों क वा त वकता का अपना मह व है और य अपने जीवन के नै तक और राजनै तक नणय इसी सापे य स य के अनुसार लेता है। यह कहना क जगत तो म या है और इसक कोई परम स ा नहीं है, इस लए इसमे ं जो घ टत होता है उसका कोई मह व नहीं है वेदा त दशन क ु टपू ण या या है। भारतीय धम क कोई शाखा इस सापे य सं सार से पलायन क बात नहीं करती, ब क सभी शाखाएँ फल क इ छा के बना नै तक कम करने क रे णा देती है।ं धम के सबसे प व थों मे ं से एक भगव गीता मे ं ी कृ ण अजुन को यही सीख देते हैं क इस सापे य सं सार मे ं अपने दा य व के नवाह से भागना नहीं चा हए। य द सापे य सं सार मे ं भ ता या अ तर कोई मह व न रखता तो कसी नै तकता क आव यकता ही न होती, यों क धम और अधम (नै तक और अनै तक यवहार) को उदासीन भाव से देखा जाता। इस सापे य सं सार मे ं व भ कार के आचारयवहार का आँकलन उनक े ता के आधार पर होता है, उ हे ं न त ही समान ीं

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नहीं माना जाता। इस लए समानता का यह बचकाना स ा त धम क श ाओं के व है जो सत् और असत्, दै वक और आसुरी को प प से भ बताता है। धम क इस ु टपू ण अवधारणा क आड़ वे ह दू लेते हैं जो भ ता-ज नत य ता से सत होते हैं या ज हे ं धम का ान नहीं है। इस का योग वे भी करते हैं जो राजनै तक औपचािरकता नभा रहे होते हैं अथवा ‘क र ह दू वाद’ के ठ पे से डरते है।ं ऐसे ह दू सोचते हैं क भ ता वा त वक नहीं है और यह कोई ग भीर सम या भी नहीं है, इस लए इसक उपे ा क जा सकती है। व तुत: ऐसी न यता का पिरणाम होता है उनके धम का ीण होना, वकृत होना और अ तत: पचा लया जाना। जो भारतीय वेदा त दशन को नहीं समझते वे ईसाइयों के मशन, इ क चरेशन और सहनशीलता को ह दू धम के त स मान समझ कर उसे सच मान लेने क भू ल करते है।ं जब कोई ईसाई ह दू का वेश धर कर ह दुओ ं के समीप आता है तो ह दू इसे समानता क स ी अ भ वीकृ त मान कर उससे उ मु यवहार करते हैं और अपने साथ स दयों से हुए छल से द डत होने के बावजू द असावधान हो जाते है।ं ह दुओ ं का इस कार झाँसे मे ं आ जाना और मान लेना क कोई त ं ता क भावना नहीं है, सबसे बड़ा ख़तरा है। कसी ईसाई चारक का ह दू वेश पिरधान, सं कृत के श दों का उपयोग, ह दू आचार यवहार और च ों का उपयोग देख कर ह दू यह मान बैठते हैं क वह ईसाई भी ी कृ ण, शव और देवी को उस सवश मान के प मे ं वीकार कर रहा है। ह दू अपनी सरलता मे ं यह समझ बैठते हैं क वह ईसाई बाइबल क ाथना क ही भा त ह दू पू जा को भी मा यता देता है, मू तयों को प व मानता है और गु ओं को केवल ‘बु मान श क’ नहीं ब क स पु ष मानता है। क तु कटु स य तो यह है क अ धकतम ईसाई स दाय तो यहू दी और इ लाम स दाय को भी वैध मानने क अनुम त नहीं देत,े ह दू अथवा बौ धम तो दू र क बात है। दू सरी बातों के अ तिर , ह दू धम के साथ समानता का अनुमोदन करना ईसाई मत क आधारभू त नषेधा ाओं का उ ं घन होगा, जनमे ं मू तपू जा और ‘झू ठे देवता’ (false Gods) क पू जा का नषेध है। ये वे नषेधा ाये ं हैं जो ख़ासकर मुख ईसाई स दायों मे ं सद यता पाने के लए अ नवाय है।ं इस लए समानता का अनुमोदन करने का उनका ता पय होगा कई मौ लक कार के अ य सं शोधन करना, जसमे ं स म लत होगा धमातरण और उसके लए चार तथा जसे मैनं े ‘इ तहासके करण’ का नाम दया है (अ याय 2 मे ं व णत)। ऐसा अनुमोदन चच के आधारभू त आदेशों को दुबल कर देगा, जैसे क यीशु को ‘गॉड’ का एकमा बेटा मानना, आदम और ह वा के ‘ थम पाप’ (Original Sin), ‘ जसने स पू ण मानव जा त को अन त नरक मे ं द डत कया है’ मे ं व ास करना, पू रे व को ईसाई बनाने का येय और सभी अ य धम क तमाओं को वीभ स बताना। ई ई े ों े े े ैं

ईसाई चारक इ क चरेशन का ढोंग समानता दखाने के लए करते है,ं जब क उनका व ास है क भारतीय धा मक पर पराएँ अवैध है।ं य द वे सच मे ं स यताओं क समानता मे ं व ास करते तो उ हे ं धमातरण क आव यकता ही नहीं होती, यों क इसका अथ होगा क ह दू , बौ और जैन अब मू तपू जक होने के नाते न दनीय नहीं है।ं क तु ऐसा करने से ईसाइयत क राजनै तक श ीण हो जायेगी और सं ग ठत ईसाइयत का अ त व ही ख़तरे मे ं पड़ जायेगा। यह ईसाइयों के लए भारत क धा मक पर परा को अपनाने के माग को अ धकृत प से खोल देगा यों क आज ईसाइयत मे ं जतने भी मू यवान आ या मक प तयाँ और आ मक स ा त है,ं उन सब के समतु य त व भारतीय धा मक स यताओं मे ं उप थत है।ं इससे चच का यह दावा क उसे ईसाइयत के अलौ कक इ तहास पर एका धकार है और व मे ं सभी के ईसाइकरण का दा य व ा है जसके उपरा त यीशु पुन: पृ वी पर आयेगा, का आधार समा हो जायेगा। ह दू अ प समानता का दावा क ‘सभी धम बराबर है,ं ऐसी ख़तरनाक दशा का माग खोलती है जसमे ं भारतीय धा मक पर पराओं का ीण होना और उनका पचाया जाना अव य भावी हो जाता है और इसके पिरणाम व प हो सकता है क सं ग ठत ईसाई स दायों के बढ़ते हुए पेट मे ं उ हे ं पचा लया जाये। इसका एक उदाहरण देता हू ँ (इसका स व तार वणन मैं अपनी आगामी पु तक U-टन योरी’ मे ं क ँ गा)—पातं ज ल योगसू वह मौ लक ाचीन थ है जस पर योग व ान आधािरत है। इसमे ं दशन और मनो व ान का गू ढ़ ान न हत है। अब इसका योग ‘गॉ पेल ऑफ़ जॉन’ (Gospel of John) मे ं पाद- ट पणी (फु टनोट) के प मे ं कया जाने लगा है और कई थानों पर उसे प मी मनो व ान क एक ाचीन प त के प मे ं दशाया जा रहा है। जब कोई प म से खोज करते हुए भारतीय आ या म व ा के े मे ं वेश करता है तो वह भी वेदा त दशन क पू वव णत व बहुच चत क तु ामक प से समझ गई समानता क अवधारणा से मत हो जाता है और सरलता से उसमे ं न हत स ी और मू यवान भ ताओं के प क उपे ा कर देता है। क तु उस प मी अ वेषक का मृ त-पटल कोरा नहीं होता; उसमे ं उसक अपनी एक सामू हक पहचान होती है जो यहू दी-ईसाई अथवा प थ- नरपे सं कारों पर आधािरत हो सकती है। यह एक अ य त मह वपू ण बात है। प मी य क मान सक सं रचना कुछ वशेष कार के जीवन मू यों, धारणाओं और वग करणों के अनुसार बनी हुई होती है। इस लए जसे ‘वै क’ माना जाता है वह मु यत: प म का ही मुखौटा होता है। हम देखग े ं े क कस कार इस वै क सोच से व भ स यताओं मे ं अ त वरोध और दुरा ह उपजते है।ं

उ र आधु नकतावाद (Post-modernism) का टालमटोल औ



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भ ता और समानता का उ ख े उ र आधु नकतावाद क चचाओं मे ं भी आता है और प मी शै क े क इस दाश नक वचारधारा से प थ- नरपे और आ या मक वृ वाले भारतीय बु जीवी दोनों ही आकृ होते है।ं उ र आधु नकतावाद क धारणा के भाव मे ं आ कर वै क सोच मे ं एक नया फ़ैशन चल नकला है जसका कहना है क सभी कार का गौरवशाली इ तहास प मी वकास क कहा नयाँ मा है,ं जसे प म ने अ य समू हों के त हं सा अथवा उनका दमन करके ा कया है। इस मत के समथकों के अनुसार सभी कार क व श पहचान को न अथवा धू मल कर देना चा हए और न त प से ऐसी स यताओं को अ य दुबल अथवा कम भावी स यताओं के दमनकता क दृ से देखना चा हए। थम दृ ा तो यह वचार उ चत जान पड़ता है, वशेषतया य द इसे हम उ र औप नवे शक (post colonial) या पराधीन य यों के च मे से देख।े ं क तु यह एक ऐसी यापक दोषदृ और अ व ासपू ण सं क णता का माग श त करता है जसके अ तगत कला, राजनी त अथवा दाश नक े मे ं कोई वक प नहीं रह जाते है।ं प मी उ र आधु नकतावाद इस पहचान से वं चत रखने का दुरा ह सभी ग़ैर प मी स यताओं के ारा दोहन क स भावना को बढ़ा कर उ हे ं वलु ता क ओर धकेलता है, यों क उ हे ं उनक भ ता सं चत रखने क सुर ा से वं चत रखा जाता है जो क वा त वक और बचाने यो य है।ं उ र-आधु नकतावाद इन स यताओं क उन वा त वकताओं को दुबल करने का यास करता है जनके वकास, सं र ण और थापन क आव यकता है। जस भारतीय भ ता का उ ख े मैं करने जा रहा हू ँ उस पर उ र-आधु नकतावाद क सोच का कोई भाव नहीं पड़ता है, यों क (1) यह कसी सा दा यक अथवा कसी और कार क ऐ तहा सक व श ता अथवा े ता पर आधािरत नहीं है (2) इसमे ं ान क स पू णता का कोई दावा नहीं कया गया है (3) यह भ ता दू सरों पर अपने मत को थोपने का य न नहीं करती। कई स लेखकों ने उ र-आधु नकतावाद के इस स ा त को अपना लया है और यह मान बैठे हैं क आज अमरीका एक ऐसा समाज बन गया है जहाँ क म त सं कृ त सभी पहचानों को धू मल करके उनक सीमाओं को मटा रही है। इस मत के अनुसार अमरीका एक ऐसी स यता के नमाण क ओर अ सर है जसमे ं भ ता क कोई य ता नहीं होगी, यों क यह समाज कसी भी कार के उ रा वाद से भरी गौरवशाली गाथा से मु होगा। क तु इस लोक य स यता क सतह के नीचे वराजमान यहू दी-ईसाई जड़ों, जो इसका वा त वक आधार है,ं मे ं मु य प से कोई पिरवतन नहीं है। वे प मी सं थाएँ जनमे ं श के त है, उनमे ं सीमाओं के मटने के कोई माण नहीं मलते। उदाहरण के प मे ं अमरीक शासन क वदेश नी त अपनी े ता और अपने वाथ क पू त के आधार पर बनाई गई है। बहुरा ीय क प नयाँ अपने नवेशकों के औ ी ी ी ो े े ी ी ैं

लाभ और अपनी भागीदारी को बढ़ाने के लए पर पर उसी कार लड़ती हैं जस कार कसी भी त पधा मे ं खलाड़ी लड़ते है।ं व भ ईसाई चच जीवा माओं क ह सेदारी के लए आपस मे ं तो लड़ती ही हैं पर तु मू तपू जकों के धमातरण के लए ँ ार होती है। उ र-आधु नकतावाद के वशेष ों को चा हए उनक लड़ाई और भी ख़ू ख क वे लोक य च लत सं कृ त (pop culture) के सतही ल णों क परत के नीचे ं े क शासन, यापार जगत और ईसाइयत क प मी देख।े ं वहाँ देखने पर वे पायेग सं थाओं का दमनकारी ढाँचा, जो उनका श -के है, यों का यों व मान है। ार भ से ही अमरीक सामा जक-राजनै तक एकता था पत करने के लए एक ऐसी सीमा त मान सकता क आव यकता रही है जसे कसी बाहरी श ु स यता को पचा कर उसे समा करना होता है।32 अमरीका के सामा जक प से मले-जुले पिरवेश (मे टं ग पॉट) ने मनु य को एक ऐसी आ थक इकाई मे ं पिरव तत कर दया है जो वे छा से कसी भी सां कृ तक पहचान को अपना सकता है, याग अथवा पिरव तत कर सकता है। यह ‘मे टं ग पॉट’ कम भावी सां कृ तक समू ह के य यों को उनक पहचान खो कर अपने मे ं स म लत होने के लए आकृ करता है जससे क वे आ धप य था पत रखने वाले स ा-लोलुप समू हों के सम और अ धक हीन हो जाते है।ं वा तव मे ं जब य यों को उनक जड़ों से काट कर अकेला और आ मके त कर दया जाता है तो अपने भु व के लए सम पत श शाली समू ह, जैसे क धमातरण करने वाली सं थाएं अथवा उ वग के आ थक हतों के प धर समू ह उ हे ं दशा देने के लए आ जाते है।ं अपने आप को बहुसां कृ तक वचारों के प धर बताने वाले इन समू हों का अमरीक घरेलू और वदेश नी त पर जबद त भाव है। ल दन थत सां कृ तक आलोचक ज़आउ ीन सरदार के अनुसार उ र-आधु नकतावाद के अ तगत रा -रा यों और उनक पहचानों क जो आलोचना क जाती है वह इन रा ों को एक-प ीय प से अपनी व श ता खोने के लए िे रत करती है। पिरणाम व प वे शकारी सा ा यों के सरल शकार बन जाते है।ं इसका कारण यह है क प म जो दू सरों से करने के लए कहता है वह वयं नहीं करता। वक सत देशों ारा खड़ा कया हुआ बु जी वयों का मकड़जाल वकासशील देशों को अपनी पहचान खोने के लए िे रत करता है।33 उ र-आधु नकतावाद के वचारकों के अनुसार कोई भी सां कृ तक पर परा बहुत-सी पर पराओं मे ं से एक होती है, इस लए उनका अपनी वै कता का दावा करना एक सं क ण और घम डी वचार है। कैसा वरोधाभास है क प म अपनी पहचान को म हमाम डत करने और यथावत रखने के लए अपने इ तहास को नये सरे से खर प मे ं े बताते हुए पुन: लख रहा है मानो यह एक ल बी अ त े दाश नक या ा का अ तम और उ म व प है। े















ये आलोचक बना कसी बाहरी मू यां कन के प मी मान सकता क आलोचना करने का दम तो भरते है,ं ले कन अपनी इस या को वे एक ऐसी नवचेतना बतलाते हैं जसके नेता और त न ध भी प म वाले ही है।ं अपने इन नवीनतम स ा तों को वापस उसी प म के बौ क इ तहास मे ं था पत कर पिरणामत: वे उस सामू हक प मी पहचान को ीण करने क अपे ा और अ धक सश बना रहे होते है।ं हालाँ क उ र-आधु नकता कसी भी कार क पहचान क आलोचना तो करती है, क तु वा त वकता यह है क वह वयं एक ऐसे इ तहास क उपज है जसका भ ता के त व श दृ कोण भारतीय पर पराओं क उपे ा करता रहा है। प म के उदारवादी उ र-आधु नक वशेष ों क मु य धारा से कटी हुई इन ग त व धयों का अमरीका और यू रोपीय सं घ के श -के ों पर कोई भाव नहीं ं े क बाज़ार के लोभनों और वामप थ ारा पड़ता है। इसे एक वड बना ही कहेग अपे त ब लदानों क वफलता को देखते हुए ां स और अमरीका के बहुत से ‘उ वामप थी’ अब ‘ नओ क सव टव’ अथात ‘नव ढ़वादी’ बन गये है।ं कुछ वष तक हड़ताले,ं यु - वरोधी दशन और मानवीय अ धकारों के लए रै लयाँ करने वाले ये उ सुधारवादी आजकल यहू दी-ईसाई स यता के बचाव और कुछ वशेष देशों के त मानवतावादी उ ह त प े क वकालत करने का प लेते देखे जाते है।ं चली और ईराक जैसे कई देशों मे ं आ तिरक लेश को भड़काने के लए अमरीक सेना ने इन उदारवादी समाजशा यों का उपयोग कया है। ये समाजशा ी जो वदेशों का ‘ े ीय अ ययन’ करते है,ं उसका वा त वक लाभ प मी रा , चच अथवा दोनों उठाते है।ं 34 दू सरी ओर प म अपनी पहचान और इ तहास के त आ त है, यों क उ र-आधु नकतावाद का प म पर भाव केवल शै क वाद- ववाद और उथली सं कृ त (pop culture) तक ही सी मत है। ँ और श ण भारत के उ र-आधु नकतावा दयों को, ज हे ं अपनी प मी पहुच बघारने मे ं आन द आता है, भारतीय छ व मटाने के लए ो सा हत कया जाता है। इसके लए भारतीय स यता को पछड़े समू हों के अ भशाप का कारण बताया जाता है। भारतीय वचारकों के मा यम से ही कया जाने वाला भारत का वख डन एक अ थरता को ज म देता है जो एक नये कार के उप नवेशवाद का माग श त कर रहा है। पछड़े (नीचे से आए—from below) समू हों क भ ता दखा कर उनका प धर दखना भारतीय उ र-आधु नकतावा दयों मे ं च लत आज का सबसे बड़ा फ़ैशन है। क तु इनमे ं से बहुत से पछड़े अ पसं यक हतों पर व तरीय गुटों का एका धकार हो गया है (इनमे ं व भ चच, चीनी माओवादी और इ लामवादी मुख है)ं जसके पिरणाम व प यह कोई वाय अथवा आ म नभर ईकाइयाँ न हो कर भारत मे ं एक नये कार के उप नवेशवाद के ीप बनते जा रहे हैं जनका सं चालन बाहर से (‘िरमोट’ ारा) कया जाता है। इस कार उ र-आधु नकतावाद का भाव े













उससे ठ क वपरीत है जसका यह अपने आप को समथक बताता है। इस भ ता के दखावे से थानीय सं कृ तयाँ सा ा यवाद ारा हड़पे जाने से धीरे-धीरे दुबल बनाई जा रही है।ं यह अपने आप मे ं एक ग भीर वषय है और इस पु तक के अ भ ाय से बाहर है जसक चचा मैनं े अपनी पु तक ‘ े कंग इ डया’ मे ं क है।35 उ र-आधु नकतावाद भारतीय धम को बना कसी म के और अस ब छोटेछोटे टुकड़ों मे ं तोड़ कर प म ारा पचाये जाने हेत ु तैयार कर रहा है। ठ क वैसे ही जैसे क यू टर मे ं इधर-उधर के च ों को कसी लेख मे ं उपयोग के अनुसार जोड़ने के प ात वह लेख उस लेखक क स प कहा जाता है। कुछ वशेष इन घटकों को पृथक करते समय ऐसा दशाने का यास करते हैं मानो उनका कोई धा मक स दभ है ही नहीं, इस लए उ हे ं हड़पा अथवा अपनी इ छानुसार न कया जा सकता है। ‘भारतीय स यता जैसे श दों का कोई औ च य नहीं है’ यों क ‘भारतीयता तो अं ज े ों ारा न मत वचार है’ जैसे तक को ो सा हत करके प म उसके ारा भारतीय स यता के पचाये जाने क या को श दान कर रहा है।36 उ र-आधु नकतावाद कई तरीकों से भारतीय दशन-शा से मलता-जुलता है। इसका एक उदाहरण यह है क दोनों का दाश नक ढाँचा मौ लक पहचान का वख डन करता है। दोनों मे ं एक और समानता है क दोनों के अनुसार सभी धारणाएँ अपने आप मे ं मान सक कृ तयाँ है,ं जो अ तत: नरथक हैं और उनका कोई वत अ त व नहीं है। बहुत से उ र-आधु नक वचारकों पर इन भारतीय पर पराओं का भाव पड़ा है। क तु इन दोनों मे ं एक मु य अ तर है क जहाँ धा मक वचारधारा य गत अहं कार को व त करती है वहीं उ र आधु नकतावाद भारतीय सं कृ त क सामू हक पहचान को व त करता है। दू सरा वशेष अ तर यह है क भारतीय धा मक पर परा मे ं उपल ध योगदशन और याएँ एक ऐसी अ त:चेतना दान करते हैं जसके अनुभव से भ ता का अ त मण वत: हो जाता है, जब क ऐसा कोई साधन उ र-आधु नकतावाद को उपल ध नहीं है। वख डन क यह या इतनी सरल नहीं है क कुछ बु जीवी बैठ कर इसे केवल ता कक वाद- ववाद से स प कर सकें। उ र-आधु नकता ारा कये जाने वाले स यताओं के वख डन क पिरण त एक शू यवाद अथवा उदासीनता क अव था क ओर ले जाती है। दू सरे श दों मे ं कहा जाये तो एक भावशाली स यता क भ य गाथा के व वं स के प ात उसक जगह पर कुछ रखने का कोई वक प इसके पास नहीं है, जब क ‘पू व प ’ (अगले भाग मे ं चचा) क भारतीय प त एक धा मक पर परा पर आधािरत यव था है जो सबको एक चेतन अ त व का सकारा मक धरातल दान करती है। भारतीय धा मक पर पराओं क ामा णक मता के उपयोग से प मी धारणाओं को चुनौती देते हुए उदासीनता और शू यवाद के इस गत मे ं जाने से बचा जा सकता है। यहू दी-ईसाई, प थ- नरपे वषय मुझे मुख लगे उनके ै े

और भारतीय धा मक नेताओं से चचा करते हुए जो त अपनी त या का मैनं े नीचे दी गयी ता लका मे ं

उ ख े कया है। भ ता-ज नत य ता पर आधािरत मत

मेरा

तवादी तक

यह सोच यहू दी-ईसाई स दाय मे ं न हत केवल मेरा स दाय स ा है और सभी ‘एकमा ता’ का पिरणाम है। जब क को इसका अनुयायी बनना चा हए भारतीय आ या म का आधार ही व वधता है सहनशीलता दू सरे के स दाय को अनु चत ठहराने का छ आवरण है। यह कृपालुता केवल राजनै तक दबाव सा दा यक सहनशीलता दशाती है क का ही पिरणाम है। आव यकता है हम अ य स दायों के त कतनी पर पर स मान क जो यह था पत स भावना रखते हैं करता है क हम दू सरों के मत का स मान करते है,ं यों क हम उसे उसके अनुया ययों के लए वैध मानते हैं यह अपने आप को वीकार करवाने के इ क चरेशन भी थानीय भारतीय लए कया गया धोखा है और इस कपट स यता के स मान का तीक है का उ े य थानीय स यता और सं कृ त को न करना है भारतीय वचार प म मे ं समझ नहीं इस झू ठ अवधारणा का उ े य प मी आते, इस लए ये बेकार और उपे ा मत का भाव बनाए रखना है यो य हैं भ ताओं का स मान ही समानता का समानता के लए आव यक है क हम पिरचायक है। भारतीयों ारा गोरों/ सभी भ ताओं को मटा दे ं प मयों का अनुकरण समानता नहीं अ पतु चापलू सी दशाता है लोग भ होते हुए भी सकारा मक प से यवहार कर सकते है,ं जसका भ रहने से वै ीकरण के लाभों से उदाहरण है व भ कार के खानपान, वं चत रहना पड़ सकता है म हला सश करण और अमरीका मे ं काले लोगों क स यता भ ता से तनाव उ प होता है, इस लए सौहाद और अनेकता मे ं एकता पर हमे ं तनाव दू र करना है तो एक होना आधािरत भ ता तनाव उ प नहीं ी



ि

चा हए

करती, पर तु े ता पर आधािरत भ ता तनाव उ प करती है

भ ता से सापे य नै तकता पलायनवाद का ज म होता है

और

आगे के अ याय मे ं वणन है क कस कार भ ता का स मान करते हुए भी स दभ-सं गत नी त कारगर हो सकती है

व वधता से उपजा आदान- दान गहन होता है और दीघायु होता है। य द यह व भ स यताओं का आदान दान भ ता न कर दी गयी तो अमरीका क और घुल मल जाना अ छ बात है, मू ल स यताओं क भाँ त ही भारतीय इसी लए एक वै क स यता मे ं वलीन स यता भी केवल सं हालयों क शोभा हो जाना तो ाकृ तक नयम है क व तु रह जायेगी और दीघका लक आदान दान का अ त हो जायेगा वेदा त अपने उ रदा य व को छोड़ कर अ ैत स ा त कहता है क सभी एक इस कार के पलायनवाद का समथन है,ं तो इन भ ताओं क च ता यों नहीं करता, यों क हमारे कम और ं करे? अ त व इसी सापे य भ ता पर आधािरत हैं प मी उदारवाद ने सा दा यक भ ता को वह तर दान नहीं कया जो उसने न ल और लं ग आधािरत भ ता को प मी उदारवाद ने तो पहले ही भ ता दान कया है। सा दा यक को अं गीकार कर लया है सहनशीलता भ ता का अनादर करती है और सभी स दायों को एक-सा कहने वाली नी त भी भ ता को ीण करती है प म के अनुभव पू रे व का त न ध व नहीं करते, इस लए सभी प मी ग त मे ं से युलरवाद को स यताओं को प म का अनुकरण वकास का तीक माना जाता है करने के लए कहना मानवता को अ य सभी अनुभवों से वं चत करना है इसने भी कुछ प मी धारणाओं को ह दु व क वचारधारा भी तो भ ता अपना लया है, जैसे क एक व श के दावे का भारतीय प है इ तहास पर बल देना। इसमे ं राजनै तक और त या मक प भी है







पू वप : वपरीत/ तलोम अवलोकन जब यहू दी-ईसाई मत का य व का अवलोकन करता है तो वह उसे प म ारा था पत मानद डों के अनुसार देखता है, अथात प मी दृ से देखता है। ऐसा करने से प मी दृ कोण को वै क होने का मानो एक वयं स अ धकार मल जाता है और इस दृ से जब कसी भी अ य स यता का अवलोकन कया जाता है तो वह सापे य दृ से होता है और वह स यता वै क नहीं मानी जाती। जन सम याओं पर हम ऊपर चचा कर चुके हैं उनके अ तिर अपने आप को दू सरों के दृ कोण से न देख पाने क इस असमथता का ही पिरणाम है क प मी वै ीकरण के प धर ( जसक चचा मैनं े व तार से अ याय 6 मे ं क है) अपनी क मयों, वफलताओं, सनक और व च ताओं के त अन भ है।ं जब कोई अपनी भावशाली थ त से दू सरों का नरी ण करता है, क तु वयं उसका अवलोकन नहीं करता, तो उसक धारणा बन जाती है क उसी का दृ कोण वै क हो सकता है। मेरा मत है क इस सम या का नवारण भारत क ‘पू वप ’ नामक पुरातन और श शाली पर परा मे ं छपा है। अपनी त ी वचारधाराओं के त यह एक धा मक पर परा है। इस ा मक या के अ तगत वरोधी प क वचारधारा का अ ययन और अनुस धान करने के उपरा त अपने स ा तों के आधार पर उसका ख डन कया जाता है। पू वप क इस पर परा के अनुसार अपना स ा त था पत करने के लए पहले अपने वरोधी प के दृ कोण का प लेते हुए तक- वतक करना होता है जससे क उसे अपनी क मयों को समझने का अवसर मल सके। वरोधी मत को समझने के प ात ही उसके ख डन क यो यता ा हो सकती है। ऐसे तक- वतक से एक स य न और लचीली मान सकता को भी ो साहन मलता है। इस ा मक या मे ं य शा ाथ अपने अहं कार क तु के लए नहीं अ पतु अपने मत के स यापन के लए करता है। इस खोज एवं अ ययन से य मे ं चर थायी पिरवतन भी होता है। पू वप के लए अपने वरोधी से सीधे क तु स मानपू वक शा ाथ क आव यकता होती है। इस या मे ं मू लभू त भेदों को अनदेखा करते हुए समानता का आड बर नहीं कया जाता, ब क उ हे ं बना य ता के प करने का य न कया जाता है। यह या इतनी सरल नहीं है जतनी तीत होती है। इसके लए दृढ़ न य, भरपू र अहं कार र हत आ म नय ण और वषय क ग भीरता के त सजगता क नता त आव यकता होती है। पू वप क यह या पीड़ा वहीन नहीं है, इसमे ं वरोध का भी सामना करना पड़ता है। ह दू , बौ तथा जैन धम मे ं इस या का भरपू र योग कया गया था। इस कार के उ ज े क शा ाथ धा मक पर पराओं क धरोहर हैं और इनके आलेखों से ैं

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ं ड़ों पु तकें भरी पड़ी है।ं इन शा ाथ का गहन अ ययन भारतीय दशन शा का सैक एक आव यक अं ग रहा है यों क इ हीं के आधार पर इन धम ने अपने आप को वक सत और खर कया है। दुभा यवश जब भारत मे ं इ लाम, ईसाइयत और यू रोपीय बोधन ने पदापण कया, उस समय यह या काय प मे ं नहीं थी। भारतीय धा मक दाश नकों ने इ लाम और ईसाइयत का सामना करने क अपे ा इन वदेशी मतों क या तो उपे ा क या पू वप करने के थान पर ‘सभी एक सामान है’ं कह कर टाल दया। यही यवहार उ होंने मा सवाद और से युलरवाद के लए कया। भारतीय धा मक मत के वपरीत अपनाई गयी इस उपे ा क मु ा ने पू वप से बचने का उ हे ं एक सहजसा बहाना दान कर दया क जब कोई भ ता ही नहीं है तो अवलोकन करने क या आव यकता है। पू वप क या के उपयोग का पिरणाम सहानुभू त मलना भी हो सकता है और उपे ा भी, सहम त भी मल सकती है और आलोचना भी। क तु ं सीधा सामना करने इसके लए जो आव यक गुण आजकल ाय: नहीं मलते, वे है— का साहस, भ ताओं का प ीकरण और समानता क अवधारणा। पू वप के लए आव यक है क इसे जतना हो सके एक न प वातावरण और मं च पर कया जाये, जससे क यह दोनों प ों के लए लाभ द हो। इसक आधार शला मे ं यह वीकायता होनी चा हए क वचारों मे ं पिरवतन लाभदायक और आव यक है। अवलोकन क दशा को पलटने क इस या के पीछे ‘जैसे को तैसा’ अथवा ‘उ टे बाँस बरेली को’ जैसी मान सकता नहीं होनी चा हए। इसे प म ारा क जाने वाली अपनी आ तिरक आलोचना के समक भी नहीं रखना चा हए — जसे करने वालों क प म मे ं भरमार है, क तु जो प म के अपने बनाये मानद डों पर अथवा प म के न हत वाथ क स के लए ही क जाती है। यहाँ वषय प म क वशेषताओं और दोषों का नहीं है, पर तु इसका है क उनक समी ा कस तरह के अवलोकन को यवहार मे ं ला कर क जाये। चीन, भारत और बृहत इ लाम के उदय ने व के आ थक और राजनै तक श समीकरणों को हला कर प म के भु व और आ मस मान को चुनौती दी है। यह म अभी थमने वाला नहीं है, इस लए जस तप ीय अवलोकन और दृ कोण के व तारों क चचा मैं कर रहा हू ,ँ उनक आव यकता और भी बढ़ जाती है। हर प क अपनी श याँ और सीमाएँ होती हैं ज हे ं दू सरों क दृ से देखे बना समझा नहीं जा सकता। यह दृ जतनी प और सीधी होगी उतना ही अ छा होगा। य द भ ताएँ ठ क से समझ ली जाये ं तो सां कृ तक आदान- दान अ धक फलदायक, सा वक और लाभदायक हो पायेगा। मेरे मतानुसार, ऐसे कसी भी उप म के लए आव यक है क— ो ों ओ









दोनों ओर से भ ता-ज नत य ता को पहचान कर उसे कम करने का यास कया जाए; दाश नक/सा दा यक तर पर और काय णाली मे ं जो आधारभू त भ ताएँ है,ं उ हे ं समझने और प प से य करने क इ छाश हो; प म क इ तहास-के कता, एकमा ता और आ ामक धमातरण क जैसे पेचीदा वषयों पर वाता क जाये;

वृ त

भारतीय धा मक काय करने वालों का भौ तक जगत क सम याओं और सा दा यक भ ता के त कम न य दृ कोण और प मी मतों से आधारभू त भ ताओं के त सीधा प यवहार हो; तथा व-सश करण मे ं रत और व- नदशा मक सं थाओं के च लत त क ु टपू ण चार साम ी मे ं सुधार लाने क आव यकता को पहचानना, जो सां कृ तक व लेषण करते हैं तथा जनमे ं शै णक सं थाएँ, काशक, सं चार मा यम और सं थान स म लत है।ं दाश नक अथवा सामा जक पू वप मे ं जस प और स मानपू वक वरोध क अपे ा होती है उसमे ं कुछ अभू तपू व नहीं है। अ य स यताओं ने अपने दृ कोण से जस कार तप ीय अवलोकन का उपयोग प म के त करने का यास कया है उससे भारतीय धम के व ान बहुत कुछ सीख सकते है।ं उदाहरण के लये 1950 के दशक मे ं जब अ जीिरया अपने आप को औप नवे शक शासन से वत कराने के लए लड़ रहा था, उस समय ैं ज फैनन Franz Fannon (1925-61) नामक एक अ जीिरयाई ने बृहत अ क चेतना को दशाने के लए ‘द रे ड ऑफ द अथ’ (The Wrethched of the Earth) नामक एक भावशाली पु तक लखी थी। इसमे ं उसने ँ ीप त वग ने गुलाम बु जी वयों क मान सकता मे ं यह लखा क ‘उप नवेशक पू ज गहराई से बैठा दया है क लोग कतनी भी भू ले ं करते रहे ं क तु उनके मौ लक गुण सवका लक ही रहते है।ं न स देह ये मौ लक गुण प मी ही है’ं । जब अ त ववाद के व यात ां सीसी दाश नक जीन पॉल सा े (Jean-Paul Sartre) ने फैनन क पु तक को पढ़ा और इसक समी ा क , तो वह इस तप ीय अवलोकन और इसके भाव को पहचान गये थे। अपनी पु तक ओिरएं ट ल म (Orientalism) मे ं जब एडवड सइड (Edward Said) ने वणन कया क कस कार आधु नक प म क बनावटी पहचान अ य स यताओं, वशेषत: अरबी और इ लामी स यता, के अ ययन पर आधािरत है तो वह भी एक कार का पू वप ही था।37 1978 मे ं का शत इस ववादा पद पु तक ने उ र-उप नवेशवाद के प मे ं एक नई श ा धारा को ज म दया जसके अ तगत वकासशील देशों के बहुत से वशेष ों ने अपने गोरे सहयो गयों के साथ मल कर ी





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प म का तप ीय अवलोकन ार भ कया। इसी कार चीनी भी स दयों से प म का तप ीय अवलोकन कर रहे हैं और इस पिर े य के अनुसार चीनी भाषा मे ं लखा सा ह य चुर मा ा मे ं उपल ध है। चीनी स ाटों और शासन-त ने स दयों तक यू रोपीय वचारकों के लेखों को चीनी वचारों के अनुसार समझने के लए उसके ं िरन मे ं अनुवाद को आ थक सहायता देते हुए ो सा हत कया। मैड वहीं भारतीयों ने यापक तर पर प म के अ ययन का कोई उप म नहीं कया। मुग़ल युग मे ं जब यापार के लए थोड़ी मा ा मे ं यू रोपीय भारत आने लगे थे, भारत के पास पया सै नक और आ थक श थी क वह यू रोपीय वचारों का अ ययन कर सकते थे। उस समय के भारतीय इ तहास से स ब धत व भ कारणों से, जो इस पु तक का वषय नहीं है,ं भारतीय शासकों ने अपनी दृ से अपने पिरवेश मे ं यू रोपीयों के अ ययन का कोई ग भीर वचार नहीं कया। इसके वपरीत जब उ होंने वयं को यू रोपीय अ ययनों का वषय पाया तो उ हे ं इस पर गव होने लगा क मानो े लोगों ारा भारतीयों का अ ययन कया जा रहा है, जैसे मानो भारतीय प म क नगाह मे ं मह वपू ण हो गये हों। प म ारा अपने अ ययन मे ं भारतीय जस गौरव का अनुभव करते हैं वह आज भी देखने को मलता है। वे मान लेते हैं क उ हे ं यह मह व उनक उदारता, वकासवाद, धम नरपे ता इ या द के कारण दया जा रहा है। अ य स यताओं के त प मी दृ कोण को चुनौती देना भारतीयों के लए और भारतीय धम का त न ध व करने वालों के लए दोहरा मह व रखता है। पहला, धा मक मा यताओं को अपने दृ कोण के अनुसार समझना और त प ात् प म का उस दृ कोण के अनुसार अ ययन करना। हालाँ क इस प त मे ं कुछ न हत असम पता हो सकती है यों क इस तप ीय अवलोकन मे ं हम धा मक प मे ं उपल ध साधनों मे ं से सव म सं साधनों क सहायता से दू सरे प क मू लभू त सम याओं का अ ययन करते है।ं तो भी ऐसा करना लाभ द है यों क यह भारतीय धा मक माग से स ब धत मौ लक ा तयों (भारतीयों के लए भी) को ही दू र नहीं करेगा, ब क प मी मान सकता के अवचेतन मे ं दबी धारणाओं को उजागर करके उ हे ं चुनौती भी देगा। भारतीय मानद डों के अनुसार प म से होड़ ले कर उसका अवलोकन करने के यास यदा कदा होते रहे है,ं हालाँ क पू वप क जस प त का मैं उ ख े कर रहा हू ,ँ वे उसके अनुसार नहीं थे। उदाहरण के लए, मानवशा ी मे म मेिरयट (McKim Marriott) ने श ा स मेलन के अपने सं कलन मे ं सामा जक वचार और अ ययन का वकास करने के लए भारतीय वचारधारा मे ं वग करण क यव था को मह व देने का प लया है। उसके अनुसार ऐसा करने से न केवल उपमहा ीप को समझने मे ं सहायता मलेगी, ब क व भ स यताओं का अ ययन जस सं क ण सोच से कया जा रहा है उससे भी मु मलेगी।38 यह दशाने के लए क प मी वै कता कतनी सी मत और वकृत हो सकती है, मेिरयट ने प म मे ं च लत भ ता क धारणा के े ें ौ ी औ ी

उदाहरण के प मे ं मा स क ‘भौ तकवादी आधार और ऊपरी रचना’ (material base and superstructure) तथा दुख म (Durkheim) क प व और दू षत (sacred and profane) अवधारणा का उदाहरण दया और कहा क यह भारतीय धा मक स यताओं मे ं उप थत ज टल और वाहमान वा त वकताओं को समझ नहीं सकतीं। उसने कहा क प म एक ऐसी मृग-मारी चका पी थरता का इ छु क है जसक मौ लक अवधारणा है क सभी समाज राजनै तक और सामा जक पहचान के वाहशील वग करण क अपे ा यू रोप और अमरीक थरता क अवधारणा को वीकारने के लए त पर है।ं ऐसा ही एक और उदाहरण हमे ं अ.क. रामानुजन से मलता है।39 रामानुजन ने भारतीय मू यों के आधार पर प मी नै तकता क सीमाओं को दशाया है। य द मनु ु ल का त Immanuel (भारतीय नी त-शा के रच यता) के दृ कोण से हम इमैनय Kant (जमनी के बोधन दाश नक) को देखते हैं तो का त क ‘ ण े ीगत अ नवायता’ (categorical imperative) क अ यवहािरकता प दखाई पड़ती है। यही थ त प म क नै तकता क भी है जो स दभ र हत रहने का यास करती है ( व तृत चचा अ याय 4 मे ं है)। रोना ड इ डे न (Ronald Inden) क स पु तक इमे ज नं ग इं डया—Imagining India(1990) भी समथन करती है क भारत क या या करने के लए जन वचारों का और जस श दावली का योग साधारणतया कया जाता है, वे उप नवेशवाद क उपज हैं और भारतीय बु जीवी उसी राह पर चलते हुए उ हीं प मी स ा तों को आयात करके उनका योग भारत पर कर रहे है।ं इसी स दभ मे ं और भी दृ ा त दये जा सकते है,ं क तु यहाँ सावधान रहने क आव यकता है। प मी मानवशा यों को मैनं े एक कार का पू वप करते हुए पाया है जसमे ं वे अ थायी प से अपने भ ता के दृ कोण को थ गत करके ग़ैरप मी सं कृ त मे,ं चाहे अ थाई प से ही सही, डू ब जाते हैं (या कम-से-कम इसका ढोंग करते है)ं । ऐसा करने से उ हे ं दू सरों को भीतर से समझने का अवसर मलता है। ँ बनाने के लए कया जाता है क तु सामा यतया यह सब गहन व ास और पहुच जसके प ात् वे फर से प मी धारणाओं और े णयों मे ं लौट जाते है।ं आँकड़े एक त करते समय उस अनुस धानकता क भ ता-ज नत य ता मानो वलीन हो जाती है, क तु जब प मी ोताओं के सम वह अपनी सू चनाओं के न कष को तुत करता है तो यह य ता कट हो जाती है। मैनं े पाया है क जब ऐसे कसी यास का उ े य भारतीय समाज के वणन को यू रोप-के त या या से बचाना भर ही होता है तो भी वह अ य त सुर ा मक होता है। वह प म का आँकलन भारतीय दृ कोण से करने क उपे ा कर देता है। पिरणाम यह होता है क प म क अपने आप को वै क स यता था पत करने क छ व यों क यों बनी रहती है। इस काय णाली से कभी पिरवतन नहीं आने वाला। इसके लए अवलोकन क दशा पलट कर सीधे प म पर के त करनी होगी। ं ी े ी ी ो ी ै

भारतीय धा मक सं कृ त के बु जीवी वग क एक सामा य त या होती है क ‘हमे ं केवल अपने अ दर झाँकना चा हए और अपने स य क च ता करनी चा हए,’ इस लए ‘और लोग या करते हैं उससे हमे ं या लेना है’? मेरा यु र है क पू वप न करके अ तमुखी होने से भारतीय धा मक वचारधारा व स दभ से वलग हो कर एक कोने मे ं अकेली रह जायेगी। तप ीय दृ साह सक होनी चा हए और इसे आसानी से नकारा नहीं जा सकता। तुत पु तक प म पर धा मक पू वप ीय 40 अ ययन ार भ करने का एक यास है। इस यास मे ं मैं भारतीय धा मक पर परा को एक दपण क भाँ त योग कर रहा हू ँ जसमे ं पहले तो वष से जमी हुई झू ठ और वकृ तयों क धू ल को हटाने का यास होगा और उसके प ात यह दपण प मी स यता को, वशेषत: उसके सा दा यक और आ या मक आधार को उसक छ व दखायेगा।

अ याय 2 योग — इ तहास से मु

यहू दी-ईसाई पर पराओं के अनुसार ा ड का येक रह यो घाटन ‘‘ऊपर से’’ आता है। यह केवल ई र ारा ही कया जाता है। इसके लए यह आव यक है क मानव हणशील हो, पर तु केवल यही पया नहीं है। भगवान सव पिर हैं और मनु य क वचार-श एवं स य जानने क या मे ं उनका य गत प से ऐ तहा सक ह त प े आव यक है। इन धम का आधार ऐसी ही ऐ तहा सक घटनाएँ है।ं इन ऐ तहा सक ववरणों का अ ययन एवं सं कलन एक तरह का जुनून उ प करता है जसे मैं ‘‘इ तहास-के क’’ (History centrism) कह कर स बो धत करता हू ।ँ इसके वपरीत भारतीय धा मक पर पराओं के अनुसार मनु य का ज म कसी ‘‘पाप’’ के तहत नहीं हुआ है, ब क वह तो अपने पू वज म के कम का ार ध लए यहाँ आता है, इस लए वह अपनी कृ त से अन भ है। सौभा य से हर मनु य क मता इतनी है क वह साधना से सहज ही अपने प मे ं इस ‘‘सत्- चत्-आन द’’ को ा कर सकता है। कृ त क वा त वकता के स य को जानने समझने के लए अनुभव ा करना होता है जो क साधक साधना ारा अ य साधकों तक आगे बढ़ाता है तथा परमा मा का यह अनुभव व वधतापू ण होता है और स भवत: ान के एक से यादा ोत सही हो सकते है।ं स ाई क इसी खोज और सं चरण क अवधारणा को मैं ‘ वानुभूत ान’ या ‘स हत ान’ के नाम से स बो धत करता हू ।ँ

परमे र को समझने (जानने) के दो माग व क येक सं कृ त और स यता मानव के अ त व के बारे मे ं यह न ं हम इस सं सार मे ं यों है? ं मृ यु के प ात या होता है? पू छती है क हम कौन है? या हम मृ यु पर वजय ा कर सकते है,ं य द हाँ तो कैसे? जीवन का परम स य ँ सकते है? ं ऐसे नों एवं इनके उ रों के त या है और हम उस तक कैसे पहुच भारतीय और प मी दृ कोण के बीच का अ तर अ धकां श लोग जतना समझते हैं वह उससे कहीं अ धक ज टल है। अब मैं पू वप क पर परा के ारा बना कसी लाग-लपेट और वा चातुय के सीधे इन भ ताओं एवं मतभेदों क असं गतता एवं वरोधाभासों का वणन क ँ गा। यहू दी-ईसाई पर पराओं के अनुसार ा ड का येक रह यो घाटन ‘‘ऊपर से’’ आता है। यह मा ई र ारा ही दया जाता है और उसी के ारा द है। इस पर परा के अनुसार मानव क हणशीलता तो आव यक है पर तु केवल यही पया नहीं है। भगवान सव पिर हैं और मनु य क वचार-श एवं स य जानने क या मे ं उनका य गत प से ऐ तहा सक ह त प े करना आव यक है। इन धम का आधारत भ ऐसी ही ऐ तहा सक घटनाएँ है।ं इन ऐ तहा सक ववरणों का अ ययन एवं ं ै े ैं े

सं कलन एक तरह का जुनून उ प करता है, जसे मैं ‘‘इ तहास-के क’’ कह कर स बो धत करता हू ।ँ सनातन धा मक व ास एवं मा यताएँ यहू दी-ईसाई प थ क तरह अथवा उसके समाना तर कसी ऐ तहा सक घटना म पर आधािरत नहीं है।ं इन धा मक पर पराओं क मा यता है क वा त वक स य ‘कहीं बाहर’ दू सरे वग मे ं थत नहीं है और न ही यह स य कसी अवतार या भ व यव ाओं के ह त प े पर नभर है, ब क सं सार मे ं थत येक मनु य, जीव, पौधे एवं लघुतम कण मे ं अ वभा य प मे ं व मान है। ई रवादी धम पर पराओं जैसे ह दू धम मे ं मानवता भगवान क ही एक अ भ य है एवं ग़ैर-ई रवादी पर पराओं जैसे बौ एवं जै नयों मे ं मानवता के आ म-बोध को चैत य क उ तम वा त वकता के प मे ं वीकार कया गया है। इस जीवन मे ं पू ण मता के साथ ‘‘सत्- चत्-आन द’’ क अव था का अनुभव ा करने तथा ई र के साथ एकाकार होने के लए कोई भी मनु य व- ववेक एवं पू ण वाय ता के साथ वयं के अ त व का अथ समझने क मता रखता है। योग के प मे ं वा याय एवं साधना के ारा कसी भी साधक क सहायता हेत ु ऐ तहा सक भ य आ यानों अथवा कसी सं थागत अ धकारी क अनुम त के बना साधन उपल ध है।ं स हत ान ा का रा ता इसी उदा वचार के साथ आर भ होता है क मानव जा त अपने आप मे ं प व है और यह वचार समू ची मानवता को भारतीय सं कृ त का एक अनुपम उपहार है।

धा मक पर पराए ँ यहू दी-ईसाई पर पराओं क तरह सनातन धा मक पर पराएँ एक सामू हक एवं ऐ तहा सक पहचान के मा यम से ान, सं कारों एवं अनुभव का सारण नहीं करतीं, ब क इसमे ं ान का आकां ी य अपनी मतानुसार परम स य क खोज मे ं कसी भी ब दु से अपनी खोज आर भ करने के लए वत है। उदाहरण के लए बीसवीं सदी के एक ह दू स -पु ष ी रमण मह ष अपने आ म ान ा के लए कसी अ ययन या ऐ तहा सक घटना पर नभर नहीं थे। जब वेदा त दाश नक आ द शं कर ारा लखे गये दशन थ उ हे ं दखाये गये तो उ होंने कहा क ये मा उनक आ या मक या ा के दौरान क गई स य क खोज क पु ही करते है।ं सभी सनातन धा मक पर पराएँ इस परम स य को जानने के लए इस ग़ैर-ऐ तहा सक एवं य माग का अनुकरण करती है।ं ी मह ष अर व द ने भी पाया क उनके ारा कये गये आ या मक अनुभव वेदों के अ ययन से पु हुए थे। उ होंने कहा क ल बे समय के प ात् जब मैनं े पाँ डचेरी मे ं वेदों को पढ़ना ार भ कया तो न त प से मेरे अनुभवों क पु हुई, न क वे मेरी साधना मे ं कोई सहायक बने।1 येक मनु य मे ं ‘‘सत्- चत्-आन द’’ के अनुभव क स भावना मौजू द है एवं सभी युगों और स यताओं मे ं इसे आदश पु षों ने कभी कभार साकार कया है। अत: ँ ी े े े

सनातन धा मक पर पराएँ कसी वशेष इ तहास के त अनु चत च ता कये बना बहुत से आ या मक गु ओं क पर पराओं ारा सखाये गये ान पर भरोसा करके ही वक सत और प वत हुई है।ं उनके ारा कये गये अथक यासों के कारण ही साधकों के लए ान का एक अतुलनीय वशाल ोत उपल ध हुआ है। यह ोत अ य श कों एवं मागदशकों के लए एक वके त पु तकालय के प मे ं उपल ध है, जससे वे श क एवं सहायक बन कर दू सरों क सहायता कर सकते है।ं अत: धा मक साधकों एवं श यों के लए यीशु को एक प व अवतार के प मे ं वीकार करना तो आसान है ले कन यीशु अ तीय नहीं है,ं यों क उनके समान समक थ त सभी मनु य ा कर सकते है।ं इ तहास पर नभर प मी वचार एवं सनातन धा मक पर पराओं के बीच मह वपू ण अ तर यह है क धा मक पर पराएँ मनु य को यानया ारा आ म ान और परम स य पर छाये हुए अँधरे े को परत-दर-परत समा कर उ तम स य क खोज करने हेत ु िे रत करती है,ं जब क प मी वचारधारा मे ं ऐसा करने हेत ु वैचािरक एवं तकनीक दोनों वधाओं का नता त अभाव है। यहाँ तक क य द सभी ऐ तहा सक सा य खो जाये,ं ऐ तहा सक मृ तयाँ मटा दी जाये ं और येक प व थल को न भी कर दया जाये, तब भी भारतीय धा मक-आ या मक पर पराओं ारा साधारण मनु य उस परम ई रीय स य को ा करने मे ं स म है। ह दू एवं बौ धम अपने अ तीय इ तहास को दू सरों पर नहीं थोपते और न ही पू री दु नया मे ं अपनी ऐ तहा सक और आ या मक स भुता का दावा करते है।ं दू सरों के आ या मक और ऐ तहा सक दावों के बारे मे ं ये धम बहुत ही सहज है,ं यों क कसी वशेष समय अथवा थान पर या कसी य - वशेष ारा ँ ने का ताव कया ही नहीं जा सकता। एका धकार के प से परमा मा तक पहुच ई र व को पाने क आकां ा सभी रख सकते हैं और स भवत: उसे ा भी कर सकते है।ं सनातन धा मक मा यताओं के मह वपू ण आ यान उदाहरण और सहायक के प मे ं उपल ध रहते है।ं 2 िरचड लेनॉय (Richard Lannoy) नामक व ान धा मक पर पराओं के इ तहास के त उदासीन भाव को य करते हैं और मेरे इस वषय मे ं वचारों एवं थ त को सार- प मे ं पेश करते हुए कहते हैं क, ‘‘इ लामी एवं यहू दी-ईसाई पर पराओं के वपरीत ह दू या बौ धम मे ं इ तहास का कोई आ या मक मह व नहीं है। मानव जीवन का उ तम आदश ब दु है ‘‘जीवन-मु ,’’ अथात् काल के ब धन से मु जीवन। भारतीय दशन के अनुसार मनु य को इस सं सार मे ं कसी भी क मत पर इस इ तहास और असां सािरक माग को खोजना चा हए।3

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यहूदी-ईसाई प थ

सनातन धा मक पर पराएँ य - वशेष मे ं व मान द य मताओं को मह व देती है,ं जब क यहू दी-ईसाई पर परा का बल ‘‘पाप से मु ’’ पर अ धक होता है। इस धा मक दृ कोण से यहू दी-ईसाई पर परा मे ं इ तहास से असाधारण आस ु नहीं तो कम-से-कम व च अव य है। जैसा क ी अर व द कहते है— ं बेतक ‘‘यू रोप मे ं ईसा मसीह क ऐ तहा सकता के स ब ध मे ं जो ववाद उ प हुए एवं उससे ईसाइयों मे ं जो नाराज़गी हुई, वह भारतीयों क आ या मक बु क दृ मे ं समय का अप यय ही था। एक भारतीय इसके वशेष ऐ तहा सक मह व को तो वीकार करेगा, पर तु धा मक मह व को नहीं यों क अ त मे ं इस से या अ तर पड़ता है क या यीशु (जो क एक बढ़ई जोसेफ़ के बेटे थे) वा तव मे ं बेथलेहम मे ं पैदा हुए, उ होंने वहाँ नवास कया और पढ़ाया? उन पर लगे राज ोह के आरोप स य थे अथवा गढ़े हुए जनके कारण उनक ह या क गई? य द हम अपने आ या मक अनुभव से आ तिरक यीशु को जान सकते है,ं उसके ान के काश मे ं अपना जीवन जी सकते हैं और उस मनु य क भाँ त भगवान से ाय त करके अपने आप को ाकृ तक दासता से छु ड़ा सकते है।ं य द यीशु भगवान के ारा बनाया मनु य हमारे आ या मक अ त व मे ं रहता है तो इससे कोई अ तर नहीं पड़ता क वह मैरी के पु के प मे ं ज मा, सताया गया और उसका अ त हुआ या नहीं। इसी कार हमारे लए भी ी कृ ण ई र के शा त् अवतार हैं न क केवल कोई ऐ तहा सक श क या नेता।’’4 यहू दी-ईसाई धा मक मा यताओं के अनुसार मनु य का ज म मू लत: पाप के अ तगत हुआ है, इस लए वह इस धरती पर योग एवं अ य धा मक प तयों क मदद से भगवान के साथ एक करण क स भावना का अनुभव नहीं कर सकता है। ईसाइयत के अनुसार परमा मा से मलन का एकमा रा ता यीशु ने ॉस पर चढ़ कर खोला है, अत: ईसाई स ा त क अवधारणा उसी एकमा ऐ तहा सक घटना पर नभर है। ईसाई मत उस मो के इ तहास का समथन करता है जसका व तार कम-से-कम दो युगों मे ं फैला है। इनक पहली कहानी है इजराइ लयों क , जो वयं को ‘‘भगवान ारा चुने हुए मनु य’’ के प मे ं न पत करते हैं और जो मानते हैं क दु नया मे ं याय और शा त का आर भ करने वाले तथा व भ रा ों के लए काश-पुं ज के प मे ं एकमा वे ही है।ं इ तहास ने इज़राइल के इस व ास के त उसक तब ता अथवा व ासघात दोनों को ही दशा दया है। उनक तब ता ने उ हे ं झू ठे भगवानों के ब धन से मु कया है और क ान क भू म पर क जे से पुर कृत कया है (इसमे ं ी













वतमान फ़ली तीन क जमीन भी स म लत है)। जब क उनके व ासघात के लए उ हे ं पाप के ब धन और मातृभू म से नवासन के प मे ं द डत कया है। बाद मे ं ईसाई चच ने ‘ई र के लोगों’ क वरासत ले कर और इज़राइल के, ँ ाने का दा य व लया। उस वशेषकर यीशु मसीह के काश को अ य रा ों तक पहुच आ ान के त न ा का इ तहास ही चच के इ तहास के प मे ं व णत कया जाता है जसमे ं पुर कार के प मे ं अन त जीवन तो है ही, साथ ही सफ़ क ान ही नहीं ब क समू ची पृ वी पर शासन करने का वचन भी दया गया, जब क अना थावा दयों अथात ना तकों के लए एक नरक एवं पृ वी के वनाश का द ड नधािरत कया गया है। इस कार क आ थाओं का नमाण करके ईसाइयत को अ य सं कृ तयों एवं स यताओं को सुधारने (कभी-कभार ज़ोर-ज़बरद ती से भी) क अनुम त देने के औ च य को भी स कया गया। हालाँ क सभी ईसाई एवं यहू दी इस पिरयोजना का समथन नहीं करते और बाइबल के नये एवं पुराने टे टामे स मे ं ऐसे वचार हैं जो आदश उदाहरणों से नेत ृ व का नधारण करने क माँग करते है,ं न क जोर-जबरद ती से। बहरहाल ईसाई मशन क इस भावना के कारण सं सार भर मे ं व भ आ ामक सरकारों ारा ईसाई मत के व तार का आयोजन कया गया। पिरणामत: हं सा ारा थानीय और मू ल सं कृ तयों का वनाश कर दया गया। इसके अ तिर धमपिरव तत लोग ईसाई समुदाय के व ासों को अपनाने के बाद न केवल अपनों से दू र हो गये, ब क अपने वयं के पू वजों और उनक पर पराओं का अपमान करने लगे। इन पर पराओं मे ं दावा कया गया है क ई र ने अपने वशेष य मनु यों को ही चुना है। ऊपर दये गये दोनों उदाहरणों के अनुसार केवल एक सामू हक ईकाई, अथात ‘‘इज़राइल और फर चच’’ को ही भगवान ने अपनी कृपा के लए चुना है। इस व ास के अनुसार ई र ने अपने वचारों और व श योजनाओं का खुलासा व श एवं नाटक य ऐ तहा सक अवसरों ारा करने के लए चुने हुए न बयों का सहारा लया, जो कुछ वशेष समुदायों से थे। इन तथाक थत न बयों ारा ल खत वचारों को न केवल उन समुदायों के लए एक परम धा मक स ा के प मे ं मान लया गया, ब क समू ची मानवता पर हमेशा के लए थोप दया गया। इस कार समू ची पृ वी के भा य को इ हीं ल खत वचारों पर नभर कर दया गया। यह सं ग ठत प थ एक तरह के ‘‘इ तहास लब’’ क तरह है जो इन न बयों क श ाओं और नदशों क सु वधानुसार सही या या करने मे ं लगा हुआ है। इस ल खत दृ कोण मे ं थत व भ स देहों और अनु चत या याओं के बारे मे ं कसी भी नकता क चच के स ाधीशों ारा न केवल व ासघाती कह कर न दा क जाती है, ब क नकता को कठोर पिरणाम भुगतने स ब धी ताड़ना भी दी जाती है। इस कार मानव-मा का उ ार करने वाले इस सामू हक और ऐ तहा सक दृ कोण के वपरीत भारतीय सनातन धम य गत धा मक दृ कोण एवं ान पर बल देता है। ीओ ों े ं ै े ी ी ै

(दू सरी ओर सनातन धा मक साधकों मे ं राजनै तक चेतना क कमी प दखती है। इसका एक कारण यह भी है क इनमे ं ऐसे सं थानों एवं सं गठनों क कमी है जो सामू हक एवं ऐ तहा सक प से सनातन धा मक पहचान को बढ़ावा देते हों)। ऐ तहा सक सा यों पर ही पू री तरह नभर रहने क कई ग भीर सम याएँ है,ं जो स य को जानने एवं परम स य को समझने मे ं बाधक है।ं यह ल खत वचन न केवल अवै ा नक एवं अता कक हैं (इनके मह वपू ण दावे पुनरावृ त अथवा माणीकरण के यो य नहीं है)ं , ब क इन घटनाओं के वरोधाभासी दावों क वजह से इस प थ के भीतर एवं इसके त ी स दायों के बीच सं घष होता रहता है। इन थों मे ं व मान शा दक प से ग़ैर-समझौतावादी अटल इ तहास अपने कुछ शा दक अथ को ले कर कु यात प से अपारदश हैं जो वा तव मे ं वनाशकारी पिरणाम देने मे ं अ णी है।ं ं े लकल उदाहरण के लए ईसाई ज़ायो न ट (Christian Zionists) — जो क एवेज ोटे टे ट एवं अमरीका के द ण प थी धा मक अ धकार ा भावशाली वग का एक उपसमू ह है, का मानना है क जब डे वड के मुख यहू दी म दर को उसके मू ल ं े थान पर भ य व प मे ं खड़ा कया जायेगा तब यीशु धरती पर पुन: वापस आयेग ं )े । पर तु जस थान पर यह मू ल म दर कभी था वहाँ थत (अथात् दू सरा ज म लेग म जद आज इ लाम क सबसे प व म जदों मे ं एक है। मुसलमानों का मानना है क पैग़ बर मोह मद ने वयं उसी थान पर मह वपू ण और सव कृ रह यो घाटन कया था। अत: उ होंने ठान लया है क उस थान का स मान वहाँ पर थत म जद को वहीं बनाये रख कर ही होगा। दोनों प ों के दावे समझौता करने क थ त मे ं नहीं हैं तथा एक का मत दू सरे के लए वनाशकारी है। इस कार यह दोनों ओर के आ धकािरक इ तहासों का सं घष है जसे म य-पू व के देशों मे ं ‘‘स यताओं के सं घष’’ (clash of civilizations) का नाम दया गया है। ज़ायो न ट ईसाइयों क मा यता है क ई र-आदे शत उनके ऐ तहा सक कत य को पू ण करने के लए इस म जद का ढहाया जाना अ त-आव यक है।

प मी ोताओं के लए धम क े क प मी लोगों के लए उ ज

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मेरी इस परा-सां कृ तक खोज या ा मे ं एक ऐ तहा सक दन तब आया जब मेरे म त क मे ं सं कृ तयों क भ ताओं के बारे मे ं मेरे न कष प हुए। कुछ वष पहले क बात है, मुझे यू जस मे ं ह दू धम पर वहाँ के ऐसे विर अ धकािरयों के सम अनौपचािरक या यान देने हेत ु आम त कया गया था जनका ह दू धम के स ब ध मे ं ान अ य त सतही था।5 मैनं े अपने या यान का आर भ उन ोताओं से कुछ न पू छ कर कया क ‘‘मान लो य द आपके सम त ऐ तहा सक त य गलत ो ें ो ें े ी ें े

सा बत हो जाये,ं अथवा खो जाये ं तब आपके धा मक जीवन मे ं या बचेगा? मान ली जये क य द ऐसा हो क ई र क ओर से पैग़ बर के मा यम से दये हुए ं ? ऐ तहा सक घटनाओं के ान से आपको वं चत होना पड़े तो आप या करेग े आप ं ? कस माण से अपना धा मक जीवन जयेग े दू सरे श दों मे ं कहू ँ तो या आप बना ऐ तहा सक ोतों पर नभर हुए आ या मक स य क खोज वयं के बलबू ते पर कर सकेंगे? या फर उन ऐ तहा सक ोतों के न होने पर आप कसी आ या मक शू य मे ं ं ? खो जायेग े मुझे आ य हुआ जब यहू दयों और ईसाइयों का वह समू ह इन नों से हैरान, परेशान एवं कुछ मामलों मे ं तो एकदम भौंच ा रह गया। अ धकां श ने कहा क ऐसी पिर थ त मे ं उनके लए धा मक होना लगभग अस भव हो जायेगा और आगे यह भी कहा क उन ऐ तहा सक पैग़ बरों के बना मानव जा त उस ई रीय इ छा श को जानने मे ं अ म स होगी। कुछ दू सरों ने कहा क यीशु के व श य गत ब लदान (अथात अ तीय ऐ तहा सक घटना) के कारण ही मानवता के लए मु स भव हो सक है। उस समू ह मे ं कुछ लोग इस चचा से परेशान भी दखे। इ हीं मे ं से एक य ने बाद मे ं मुझसे कहा क मुझे इस तरह उनके इ तहास का ख डन करने का कोई अ धकार नहीं है। मेरे इन नों ने उनक धा मक मा यताओं के आधार को ही खसका दया था। उनक बेचन ै त याएँ यह दशाने के लए पया थीं क यहू दी और ईसाई दोनों ही समुदाय अपनी ऐ तहा सक मा यताओं को कतना मह व देते है,ं हालाँ क अलगअलग कारणों से ही सही। यहू दयों के लए आ या मक मु य गत नहीं ब क सामू हक होती है एवं इज़राइल क उ प के इ तहास मे ं भगवान के प व ह त प े ारा उसके उ ार का गहरा सं केत है। उस ऐ तहा सक घटना के बना वे ई र क इ छा समझने मे ं असफ़ल होते और मो क ओर ले जाने वाला वह पथ उनके लए दुगम हो जाता। म से इज़राइ लयों के पलायन को बाइबल मे ं एक मह वपू ण घटना कहा गया है। यह त य सामू हक मो क अवधारणा मे ं यहू दयों के मु य व ास का आधार है। ईसाइयों का कहना है क उनक आ या मक मु तीन ऐ तहा सक घटनाओं पर आधािरत है—यीशु का अवतार, उनका ब लदान एवं पुनज वत होना। ईसाई एवं यहू दी अपनी पर पराओं के अनुसार वा त वक ऐ तहा सक ववरण क आलोचना कुछ हद तक सहन कर लेते है,ं पर तु पू री तरह से मो ा करने के लए उ हे ं कुछ ख़ास ऐ तहा सक घटनाओं क नता त आव यकता है। जहाँ यहू दयों के लए यह घटना आमतौर पर भारी सं या मे ं पलायन (Passover मे ं उसे याद कया जाता है) क मृ त के प मे ं आता है, वहीं दू सरी ओर ईसाइयों के लए यह यीशु के पुनज म (ई टर) के प मे ं आता है। ैं े

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मैनं े उन ोताओं के सम अपने या यान को बढ़ाते हुए कहा क भारतीय सनातन धम बना कसी ऐ तहा सक लेखन अथवा घटना के भी जी वत रह सकता है। उदाहरण के लए योगसू के रच यता पतं ज ल के जीवन इ तहास को अलग रखते हुए भी योग तकनीकों एवं व धयों के मा यम से आ या मक उ त ा क जा सकती है। इन योगसू ों क श ा मे ं कोई भी ऐ तहा सक स दभ नहीं है।ं

धम और



अनुभव

धा मक पर पराओं मे ं ान ा करने के लए य अनुभव एवं उसके पु करण के लए ायो गक परी ण अ धक मह वपू ण है।ं येक य को अपने तर पर स य क खोज एवं उसका पुन: परी ण करने का अ धकार है। अत: यह उसके अपने आ तिरक एवं बा यासों के मा यम से ही होना चा हए। इस लए सनातन धा मक पर परा का पू रा यान आ म-अनुशासन क तकनीकों, उनके सारण क व धयों, जीवन क व भ पिर थ तयों एवं य यों के वभावों के अनुकूल उ हे ं बनाने के योगों पर तथा व श पर पराओं के यायसं गत बचाव पर आधािरत होता है, न क केवल बु - वलास के लए ही। त क साधनाएँ कसी ह दू स त अथवा देवताओं के नजी जीवन पर आधािरत नहीं है।ं भजन एवं भ गीत भी इ तहास के क नहीं हैं और न ही ये भजन उन स तों के जीवन- वचार पर नभर हैं ज होंने इन भजनों क रचना क । अ त मे ं देवताओं को भी ऐ तहा सक य यों के प मे ं नहीं देखा जाता, ब क उ हे ं बल और बु के सवका लक तीकों के प मे ं माना जाता है जैसे क गु वाकषण के स ा त को। एक सनातन धा मक य के लए इ तहास स ब धी चेतना एक े दशा नदश क तरह तो अव य है, वशेषकर उस य के लए जो अपने वयं के आ या मक अनुभवों से सीख कर ग त नहीं कर पाया हो। इस लए ह दू एवं बौ ाय: व श स दाय पर परा अथवा भगवान के अवतार के इ तहास पर बल तो देते है,ं पर तु अ तत: उनका ल य अतीत क घटनाओं क बैसा खयों के बना आ म ान क थ त को ा करना होता है। मेरा मानना है क हर य मे ं ऋ ष अथवा योगी बनने क बल स भावना न हत होती है, यों क यह त य सव व दत है क समयसमय पर दु नया क व भ सं कृ तयों मे ं असं य स तों ने वा याय से आ मबोध ा कया है। अथात इ तहास बोध एवं जाग कता होना अ छ बात तो है, ले कन ई रीय द य चेतना क स हत वानुभूत अव था ा करने के लए यह ‘‘अ तआव यक’’ तो कतई नहीं।6 इसके वपरीत चच मे ं सखाई जाने वाली ाथनाओं और तकनीकों का सम त भाव यीशु पर आधािरत वशेष घटनाओं पर नभर है, जैसे क उनक मृ यु कैसे हुई औ

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और मरने के बाद वे कैसे जी उठे । यू जस के मेरे वे उदार और पढ़े - लखे ोता मेरी वाता सुन कर अ दर से हले हुए थे और मैं यह जानने के लए उ सुक था क या मैनं े धम मे ं इ तहास क आव यकता तथा इ तहास पर उनक वयं क नभरता स ब धी उनके मन मे ं छपे हुए ग भीर स देहों पर काश डाला था? मैं सोच रहा था क या मेरे नों ने उ हे ं इ तहास पर उनक नभरता से वं चत करना ार भ कर दया था और या कुछ सीमा तक मेरे या यान से उनके अ दर िर ता के ल ण स य हो गये थे? आ खर उनक धा मकता इतनी आक मक और कुछ व श ऐ तहा सक सं गों पर ही नभर यों है? या समू चे सं थागत यहू दी-ईसाई धम ं इस वचार से मेरे इस शोध- ब ध क स दाय इ तहास के ब धन मे ं जकड़े हुए है? एक न त परेखा नधािरत हुई क इ तहास-के क होना ही यहू दी-ईसाई पर पराओं एवं सनातन धा मक पर पराओं के बीच मुख भ ता है। यह मह वपू ण है क इस कार के वैचािरक सं वाद मे ं सबसे पहले हमे ं धम क प पिरभाषा तपा दत करनी होगी, जस हेत ु मैनं े नीचे दये हुए रेखा- च ारा ह दू धम को सं प े मे ं द शत कया है।

च का बाँया ह सा ई र ारा तपा दत स य के आर भ एवं सार को द शत करता है जसमे ं इस काय के लए यीशु अथवा पैग़ बर जैसे अवतारी बचौ लयों क मदद ली गई थी। ईसाइयों के मत के अनुसार ई र केवल एक बार यीशु के प मे ं अवतिरत हुए थे, हालाँ क यहू दयों और मुसलमानों का इस बात पर व ास नहीं है क ऐसा कोई अवतार कभी हुआ भी था। ह दू धम मे ं अवतारों क न तो कोई मानक सू ची है जो ब द हो चुक हो और न ही भगवान ने अपने को कसी वशेष अवतार तक सी मत कया है। च का दाँया भाग दशाता है क सनातन धा मक पर पराएँ कस तरह यहू दीईसाई पर पराओं से नाटक य प से भ है।ं यह आ म- ान ा करने के लए मानव ारा था पत रा तों को दशाता है। कई युगों से व भ स तों-यो गयों ने स य े





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के माग क इस या को खोजा, पर तु उनमे ं से कसी ने भी इस बात का दावा नहीं कया क उनके ारा दखाया गया माग ही ‘‘ मुख या अ तम’’ है या केवल उनक प त ही ‘‘एकमा सही’’ है या सभी मानवों के लए यही माग ‘‘सव े ’’ है। न ही भारत के धा मक साधक यह मानते हैं क उनके ारा अब तक सभी स भा वत रा तों को खोज लया गया है। दू सरे श दों मे ं कहा जाये तो आ या मक खोज के लए येक नये दृ कोण का रा ता सदैव खुला है।7

इ तहास वा तव मे ं इ तहास (History) एवं मथक के साथ और भी बहत ु कुछ है धा मक पर पराएँ अपने अतीत को ‘‘इ तहास’’ के मा यम से जोड़ती है।ं यह सं कृत भाषा का एक श द है जसका अनुवाद कभी-कभी ‘‘ मथक’’ या ‘‘कथा’’ के प मे ं भी कया जाता है। यह मह वपू ण है क ‘‘इ तहास’’ और ‘‘ मथक’’ श दों के उपयोग को यहाँ प कया जाये। सामा यत: प म मे ं ी राम एवं ी कृ ण से जुड़ी सभी कथाओं को ‘‘ मथक’’ कह कर उ ख े कया जाता है। प म क जनलोक य भाषा मे ं ‘‘ मथ’’ श द का उपयोग का प नक, वल ण, कथा मक, यहाँ तक क अं ध व ासपू ण, आ दमयुगीन एवं झू ठ दशाने के स दभ मे ं भी कया जाता है। मह वपू ण यह है क प म मे ं इस श द को ‘‘स य’’ का वपरीताथ माना जाता है। असल मे ं यू रोपीय व ानों ने ीको-रोमन तथा ईसा-पू व रचे गये सा ह य का अ ययन कर उसे एक मानक बनाया एवं उ हीं पिरभाषाओं को व भ लोगों एवं थानों का वणन करने के लए उपयोग करने लगे, जो क प म के उप नवेशों के प मे ं उनके अधीन थ थे, उनके ारा शा सत थे या जो ईसाई धम क पिर ध से बाहर थे। प मी व ानों ने ‘‘ मथक’’ श द को जादुई देवी-देवताओं, आ माओं एवं रा सों क छ व के प मे ं आ छा दत कया जसक झलक हमे ं ‘इ डयाना जोंस’’ (Indiana Jones) जैसी फ़ मों क कोरी क पना मे ं दखाई देती है। यह का प नक पिरभाषा सुनने मे ं भले ही मनोरं जक, आकषक एवं सु दर तीत होती है, पर तु यह स य क व सनीयता से कोसों दू र है।

इ तहास बनाम मथक प मी वचार क ‘‘ ‘इ तहास’ और ‘ मथक’ पार पिरक प से अलग है,ं ’’ क जड़े ं यहू दी-ईसाई पर पराओं मे ं ही है।ं नये टे टामे ट मे ं ाचीन काल मे ं ईसाई सभाओं को भेजे गये एक प के ारा अ धकारपू वक यह दावा करने का उ ख े है क ‘‘जब हमने यीशु मसीह क श यों और उनके आगमन के बारे मे ं आपको बताया, तो हमने चतुराईपू वक सोची क पत कथाओं का अनुकरण नहीं कया था, ब क हम उनक म हमा के आँखों देखे सा ी थे’’ (2 Peter 1:16)8 ो ी









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यू रोपीय ानोदय के पहले बाइबल के सा ह य को ऐ तहा सक त य के प मे ं यापक तौर पर वीकार कया जाता था। आज जब क बाइबल के शोधाथ बाइबल को कुछ हद तक क वताओं, पौरा णक कथाओं, शा ों तथा सामा जक सं कृ त के भ डार के प मे ं देखते है,ं वहीं जो कथाएँ ईसाई मत के लए मह वपू ण हैं उ हे ं न ववाद ऐ तहा सक त यों के प मे ं देखा जाता है। प म क नगाह मे ं अ य सं कृ तयों के धा मक आ यान ‘‘ मथक’’ (शालीनता से कहा जाये तो ‘‘प व कथाएँ’’) है,ं जब क उनके वयं के आ यानों को वे ‘‘ऐ तहा सक प से स य’’ कहते है।ं अ य सं कृ तयों के आ यानों को वे कोरी क पनाओं क तरह च त करते हैं और यह ाय: उन सं कृ तयों के त गलत दृ कोण का आधार बनते है।ं माना जाता है क अ य सभी स यताएँ प म क ाचीन एवं भ व य मे ं सफलतापू वक रहने वाली अख डत नर तरता जैसी मता नहीं रखतीं। कई वष पहले अमरीका मे ं प कािरता के एक ोफ़ेसर ने मुझे बताया था क उनके कॉलेज मे ं व क पौरा णक कथाओं के पा म मे ं बाक व क स यताओं को उनके मथकों के दपण से समझाया गया था, जब क उस व लेषण मे ं वयं प म को अलग रखा गया। जब उसने इस क शकायत क तो एक ा यापक ारा उसे बताया गया क प मी वचारों को ‘‘ मथकों’’ ारा नहीं अ पतु ‘‘इ तहास’’ ारा पढ़ाया जाता है। इस सम या को उ होंने जब उ ा धकािरयों के सम उठाया तो उ हे ं कहा गया क उस ा यापक को पा म को पढ़ाने क वैसी शै क वत ता है जैसा उ हे ं उ चत लगता हो। प कािरता के इस ा यापक ने अपना वयं का पा म ता वत कया जसमे ं उ होंने बाइबल स हत व भ प मी कथानकों क उनके मथकों के अनुसार या या क थी। इसके प ात् इस ा यापक को यह सुझाव दया गया क उनके इस पा म से छा अपनी ‘‘धा मक पहचान’’ के बारे मे ं परेशान एवं मत हो सकते हैं जो क अनु चत है। अ तत: ोफ़ेसर साहब ने अपना यह ताव वापस ले लया और उ होंने दू सरे व व ालय मे ं जाना उ चत समझा। प मी स यता मे ं औपचािरक श ा एवं ब ों का पालन-पोषण उनक व श ऐ तहा सक पहचान को था पत करते हुए ही कया जाता है। वशेषकर अमरीका मे ं तो यही सच है जहाँ इ तहास क हज़ारों सं थाएँ अपने-अपने थानीय इ तहास-बोध क व श ता था पत करने का काम कर रही है।ं इ हे ं अ य धक स माननीय नागिरक सं गठन माना जाता है। इन पर बड़ी मा ा मे ं सावज नक धन खच कया जाता है तथा ये लोग करों मे ं छूट भी ा करते है।ं न केवल येक छा के पा म मे ं अमरीका के नमाण-कता पू वजों के बारे मे ं बताया गया है, ब क झ डे को भी ऐसे पू जा जाता है जैसे वह एक देवता हो। साथ ही इसे तह कर रखने एवं साथ ले जाने के भी कई औपचािरक नयम-कायदे है।ं े



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न स देह भारतीय धा मक स यताओं के भी अपने ऐ तहा सक अ भलेख हैं तथा भारतीयों क अपनी ऐ तहा सक मृ तयों क एक ल बी पर परा है, य प यहाँ धम को इ तहास पर नभर नहीं माना गया है।9 प म को पता है क धा मक सं कृ तयों मे ं शा दक इ तहास पर अ धक ज़ोर नहीं दया जाता, इसी लए वे इस बात पर अड़े रहते हैं क भारत के धा मक आ यानों मे ं कोई ऐ तहा सक त य नहीं हैं एवं ये पू री तरह से का प नक है।ं उदाहरण के लए वेदों मे ं मुखता से सर वती नदी का उ ख े कया गया है एवं अब व भ उप ह च ों तथा आधु नक भू व ान से इसके अ त व को स भी कया जा चुका है तथा गुजरात के तट पर थत भगवान ी कृ ण क ारका को भी खोज लया गया है। इ हे ं अब भी प म के शोध अ ययनों मे ं भारतीय पर पराओं के ववरण क क पत कथाओं के प मे ं वग कृत कया जाता है।10 यहाँ पर यह बात मह वपू ण है क इन दोनों ही खोजों का मानव-शा (Anthropology) के अनुसार तो मह व है, पर तु सनातन धा मक-आ या मक साधनाएँ इन पर नभर नहीं है।ं

इ तहास सनातन धा मक स यताओं मे ं अतीत क अवधारणाएँ पू री तरह से कसी मथक अथवा केवल कसी ववरण मा के मा यम से नहीं बनाई ग है।ं ब क इ हे ं सम इ तहास ारा, जसमे ं स म लत है ‘‘पुराक प’’ (अथात अतीत क कथा) एवं जीवन के सभी पहलुओ ं के बारे मे ं दी जाने वाली सलाह, त था पत कया गया है। इ तहास मे ं मा ववरण नहीं ब क स य का भी यान रखा गया है। इ तहास को पुराणों के आ यानों के साथ जोड़ा गया है जसमे ं ववरण व मथक दोनों शा मल हैं तथा इनके व भ दृ कोणों के कारण वे शा दक वणन से कहीं अ धक खुले और मु है।ं स य इ तहास पर नभर नहीं है, ब क वह तो इ तहास क एक अ भ य है। भारतीय धा मक पर पराओं मे ं इ तहास व मथक के बीच अ तस ब ध क तुलना मे ं प मी वचारधारा के अ तगत स य और मथक के स ब ध ब कुल भ है।ं भारतीय धा मक थों मे ं व भ दृ ा त अथवा उदाहरण चुर मा ा मे ं दये गये है।ं यह मा श ा दान करने के लए ही है,ं न क प म क तरह ऐ तहा सक घटनाओं के सटीक माणों के दावों के समान। म दरों मे ं ह दू अनु ानों मे ं भाग लेते हैं एवं इस या का अ धकां श भाग वे अपनी सं हताब पर परा का पालन करने मे ं करते हैं और कुछ तो अपने धा मक आ यानों के ववरण पर अ त- व ास के आधार पर उनका उ सव मना कर भी करते है।ं अ धकां श ह दुओ ं के लए अपनी पर पराओं मे ं ऐ तहा सक घटनाओं को देखने का ढं ग बहुत ही लचीला है। इ तहास एक अ तहीन समय च है जो लगातार बदलता है। हालाँ क ह दू इस बात को समझते हैं क आ या मक या ा का आर भ करने वाले के लए इ तहास क सोच ँ ने के बाद उसक आव यकता मू यवान होती है, पर तु एक न त थ त तक पहुच ीं ी े ी े े

नहीं रहती। धम का न ावान साधक अपने भीतर बदलाव लाने क प इ छा के लए इ तहास पढ़ता है तथा उसमे ं न हत गुणों पर बल देता है, न क उसके ववरणा मक त यों पर। ी राम और ी कृ ण भावना के मू तमान अवतार हैं एवं उनक ऐ तहा सकता का मह व उनके ारा था पत आदश व नै तकता ारा त था पत हो जाता है। ी अर व द भारतीय आ यानों क शा तता को प करते हुए कहते हैं क इन आ यानों को भौ तक अतीत क घटनाओं के प मे ं नहीं देखा जाना चा हए, जैसे वृ दावन मे ं गो पयों क लीला क सं क पना द य गोकुल मे ं लगातार घ टत हो रही है जो वा तव मे ं भौ तक वृ दावन मे ं अ तरा मा के तर पर उनके अथ स हत अनुभव क जा सकती है।11 य प ी अर व द ने भगवान ी कृ ण क ऐ तहा सकता को वीकार कया है, पर तु यह भी प कया है क इस ऐ तहा सकता पर कुछ भी नभर नहीं है।12 मू लत: इ तहास अपने आप मे ं ही बहुलतावादी (pluralistic) है, जसके आमतौर पर कई सं करण होते है।ं नव न मत अथवा नये सं करण क कथा सामने आने पर पुराना अमा य नहीं हो जाता। पछले सं करणों को मटाने के लए कोई पुरानी पु तकें नहीं जला देता। ब क जस कथानक या इ तहास को अ वीकृत कर दया जाता है अथवा नज़र-अ दाज़ कया जाता है, वह बाद मे ं स भवत: एक न त समय पर ासं गक होने पर पुनज वत भी हो सकता है। इस लए भारत मे ं ाचीन पर पराएँ अभी भी वतमान िरवाजों के साथ-साथ अ त व मे ं है।ं एक मु अतीत भ व य क पी ढ़यों के लए एक रचना मक सं साधन का काम करता है जससे लोग नये रा तों क खोज कर सकें। जब क दू सरी ओर प म के इ तहास का अनावरण अ य समाना तर वचारधाराओं को पनपने ही नहीं देता, उनसे भयभीत होता है और मानता है क उ हे ं सं हालय मे ं द शत करना अ धक सुर त है (जी वत पर पराओं क तरह नहीं, ब क मृत पर पराओं क तरह)। पर तु सभी व भ ताओं को न करके कसी एकप ीय इ तहास मे ं समा हत करने से वह एकप ीय सं कृ त को ही बढ़ावा देता रहता है। इस कार क समझ और अ तदृ के न होने से इ तहास को गलत समझा जाता है और उसे एक तथाक थत वा त वकता बताते हुए एक मथक के प मे ं पेश कया जाता है।13 प मी देश यह माँग करते हैं क उनके मथकों को इ तहास के प मे ं देखा जाये, ता क उ हे ं स य होने का अ धकार मल सके। भारतीयों पर इस कार का कोई इ तहास-के त बोझ नहीं है, इस लए वे अपने मथकों को इ तहास के प मे ं तुत करने के दबाव मे ं नहीं है।ं ब क वहाँ कई अलग-अलग ह सेदार हैं जो अतीत के वषय मे ं अपने-अपने सं करणों क वीकृ त के लए त पधा करते है।ं इ तहास के नमाण मे ं श का योग हमेशा कायरत रहता है। (जैसे क एक लोक य कहावत है क ‘‘इ तहास वजेताओं ारा ही लखा जाता है’’)। बहुधा यह देखा जा चुका है क इ तहास ै ी ो ें ो औ ीं ो औ े

एकप ीय होता है, क उसमे ं या समा व हो और या नहीं हो, या और कसे मह व दया जाये, कसके दृ कोण को वशेषा धकार मले, कन मा यताओं को थोपा जाये इ या द कई वचार काम करते है।ं प म मे ं इ तहास को तुत करने के लए एक श शाली त और व तृत या वक सत क गई है तथा प मी मान वक त प मी मथकों को त यों मे ं पिरव तत करने मे ं त मयता से लगा हुआ है।14

प मी अवलोकन दु नया क उ प का कोई अ भलेख नहीं है और यह ागै तहा सक काल क ँ मे ं डू बा हुआ है। हालाँ क मथक वह वणन कर सकते हैं जो इ तहास नहीं कर धुध ं ‘‘ मथक’’ सकता। एक समकालीन वचारक मै डा कंग (Magda King) लखते है— त य छपाता है और वह कह डालता है जो होता ही नहीं। मथक वह आर भ देते हैं जसका आर भ कभी हुआ ही नहीं था तथा ‘‘ कसी समय क बात को’’ मथक सावभौ मक और समकालीन गौरव दान करते है।ं सच को य करने के लए मथक य क पनाओं का उपयोग कया जाता है।15 प म के व ानों क वृ भारतीय इ तहास के व भ तु तकरणों का सामना करने मे ं असमथ होने के कारण उ हे ं मथक एवं केवल मथक के प मे ं ही वग कृत करने क रही है। जैसा क पहले कहा गया है, उनके अपने मथकों को वे इ तहास के प मे ं याद रखते है।ं भारतीय आ या मक थों को वे जन या या मक व धयों से तौलते हैं वे यहू दयों एवं ईसाई प थ क कहा नयों के अ ययन से बलकुल भ है।ं उदाहरण के लए प म के अ ययन के लए समाजशा ीय व धयों एवं यु यों का उपयोग होता है, जब क तथाक थत आ दम स यताएँ मु य प से मानवशा एवं लोकगीतों के मा यम से अ ययन क जाती है।ं यू रोपीय एवं अमरीक सामा जक इकाईयों को उ होंने सदैव समुदाय के प मे ं वणन कया है, जनजा तयों के प मे ं कभी नहीं। प म मे ं धा मक एवं धम नरपे दोनों ही इ तहासों मे ं मुख बदलाव सामा यत: हं सायु हुआ है। मक वकास के व भ सोपानों ने पछले चरण को भया ा त हो कर देखा है, इस लए या तो उसे पू री तरह पचा कर अथवा उसका हं सक प से समू ल नाश कर दया गया है। इस लए आधु नक युग ने वयं को था पत और मजबू त करने के लए पछले म ययुगीन अथवा आ दमयुगीन चरणों से पू री तरह से छु टकारा पाना है। पिरणाम व प एक बेचन ै ी और अस तु लत से पिरणाम दखाई देते 16 है।ं प म क े ताबोध क मा यताएँ सावभौ मक इ तहास के साँचे के प मे ं उभरीं, इसी लए उनक दू सरों पर वजय ा करने, उ हे ं स य बनाने एवं बलपू वक े







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उन पर अपना नेत ृ व थोपने क नी त प दखाई देती है। जब क कोई भी भारतीय जा त (सामा जक समू ह) अपने अतीत को ऐसा सावभौ मक नहीं मानती क जससे अ य सभी समुदायों को गुज़रना ही पड़े । सं सार पर शासन था पत करने का भारतीयों मे ं कोई व ध-स मत भाव नहीं होता है। कसी भारतीय जा त (उदाहरण के लए पं जाबी) मे ं ऐसी कोई धारणा नहीं है क उसके इ तहास क घटनाएँ एवं कालख ड के ीय प से व के सभी समुदायों को पिरभा षत करे।ं इ तहास नमाण करने क गव ली ‘‘भारतीय व तारवाद’’ सरीखी कोई मह वपू ण पिरयोजना कभी नहीं थी, जैसा क प म मे ं हुआ है। इ तहास एवं भारतीय अतीत के ववरणों का आपसी स ब ध कहीं अ धक ज टल एवं कई परतों मे ं रहा है तथा भारत के पर परागत दृ कोण ने कभी भी अतीत को बदलने अथवा न करने का य न नहीं कया है। इ तहास के व भ चरण भारत मे ं एक साथ घुल- मल कर उप थत रहते है।ं

रामायण एवं महाभारत भारतीय इ तहास मे ं ववरण एवं मथक दोनों उप थत रहते हैं तथा ये कथाओं के भ डार के प मे ं एक से दू सरी पीढ़ी तक ह ता तिरत होते रहते है।ं भारतीय महाका य रामायण एवं महाभारत इस शैली के उ कृ उदाहरण हैं ज हे ं सैकड़ों सं करणों और व वधताओं मे ं फर से बताया गया है। ाचीन काल मे ं ‘‘महाभारत’’ का सबसे पहला सं करण वै दक व ान एवं गु ी वेद यास ारा मौ खक प से स वर पाठ के प मे ं ल पब कया गया था। कथावाचन क भारतीय पर परा आपसी सहभा गता क है, अथात् कथावाचक अपने ोताओं क च को यान मे ं रख कर आर भ से ले कर अ त तक उनसे जुड़ा रहता है। वाताकार अपने ोताओं क ओर से एक घटना, एक य , कोई नै तक या आ या मक वषय रखता है जसके चारों ओर कथाओं का अगला चरण बुना जाता है। यहाँ आ य एवं ान कथा ँ े हुए होते हैं क अतीत के साथ मनोरं जन होता हुआ तीत होता है। एक मे ं ऐसे गुथ बार सुनी हुई कथा जब कई बार दोहराई जाती है तब भी वह ऐसी तीत होती है मानो पहले कभी सुनी न गई हो। ी राम क अ रश: कथा कभी दोहराई नहीं जा सकती, हर बार उसमे ं कथाकार ारा दये जाने वाले त य, उसके ारा पुनकथन ( ाय: बातचीत के प मे)ं तथा ोताओं-दशकों क बदलती हुई च एवं धारणा सं यो जत रहती है। इस कार इ तहास च लत सवस म त के अनुसार बदलते और वक सत होते हैं एवं पिर थ तयों के अनु प ढल भी जाते है।ं टश उप नवेशवा दयों ने भारतीय अतीत को अपने इ तहास क सं क पना के अनु प इस तरह ढाला ता क वह भारत को सदा के लए एक अधीन थ और शा सत े

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के प मे ं व -मं च पर उपयोगी सा बत कर सकें। इ तहासकार रं जीत गुहा ने ट पणी क है क प म मे ं रा य एवं इ तहास लेखन के बीच व -इ तहास नाम का एक रणनी तक गठब धन बनाया गया। उस कूटनी त के अनुसार भू तकाल पर नय ण रखना आव यक है। इससे भी अ धक मह वपू ण यह है क इ तहास के प मे ं जो कथा थी उसे नागिरक स य समाज से उखाड़ कर रा य के सुपदु कर दया गया।17 धीरे-धीरे भारतीयों ने इस क थत व -इ तहास को इस तरह वीकार करना आर भ कर दया जैसे क यू रोपीय अथ के अनुसार ही उनका भी एक अतीत है। व इ तहास का ह सा बन कर वे आशा करने लगे क मथक और क पना को छोड़ कर वे यथाथ मे ं आ गये है।ं म क यह थ त शासकों ारा क गई मान सक हं सा दशाती है, अथात् मू ल नवासी उस सामा जक सोच को वीकार कर अपना लेते हैं जो उनक वयं क पर पराओं के तकूल है और जो उनक सं कृ त को गलत प मे ं दखाती है। यह केवल नकल करके उप नवे शयों को भा वत करने के लए कया जाता है।

सवनाशी सोच बाइबल मे ं उ खत शा दक दावों एवं घटनाओं के अनुसार इस सं सार का अ त हं सा से एवं एक वराट दुघटना से होने वाला है। ईसाई प थ के इ तहास मे ं इस तरह क सोच सदा से या है और यह बाइबल के रह यो घाटन क एक या या पर ृ ला क भ व यवाणी करती है—यीशु आधािरत है।18 यह आपदाओं क एक पू री ं ख मसीह का पुन: कट होना तथा उस दौरान आ तकों के लए मु एवं ना तकों हेत ु नरकद ड तथा ईसा मसीह वरो धयों हेत ु लय का दवस इ या द। प म के समू चे इ तहास मे ं ईसाइयों ारा व च -सी या याएँ क गई हैं (ब क गढ़ी गई है)ं जनमे ं कुछ तीका मक है।ं रह य के परदे मे ं एवं भ व यवा णयाँ करने वाली इस पु तक (Book of Revelation) को वयं के च मे के मा यम से देख कर वरोधाभास भी उ प कया गया है। स यता के अ त क इन घोषणाओं को परलोक स ा त कहा जाता है। इनका इ तहास न केवल एक पिरभा षत आर भ है ब क पिरभा षत अ त ं ।े भी है, जब ईसा मसीह सभी रा ों और जा तयों का याय करेग इस कार इस इ तहास क भ य कथा भ व य मे ं वहाँ समा होती है जो क न त है। कुछ वष पहले ‘‘टाइम’’ (Time) प का ने इसी वचार को अपने मु य लेख के प मे ं सम पत कया था जसमे ं यह कहा गया था क ‘‘स यता और इ तहास के अ त क जो दैवीय- नद शत धारणा य क गई है, वह उतनी ही पुरानी है जतना क प मी मत...।’’ ये मत यहू दी बाइबल मे ं सबसे पहले दखाई देते हैं अ तत: यहू दयों का ई र के शासन क पुन थापना का उ आकषण धीरे-धीरे धू मल हो गया, पर तु इसे ईसाई मत के ारा अपना लया गया।19 अ धकां श नेताओं ं





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ारा सं य ु रा य अमरीका को सदा से ही इस लेख मे ं व णत भ य वृ ा त के काश मे ं देखा और च त कया गया— ‘‘17वीं सदी से ही कई लोग दु नया के अ तम समय के आशावादी पिरदृ य मे ं नई दु नया (यानी अमरीका) को एक धुरी के प मे ं देखते थे। इसके पहले के आ तकों के वपरीत जो सोचते थे क वे ई र क ा ड स ब धी योजनाओं के सामने असहाय है,ं उ होंने सोचा था क वे अमरीका को प व कर एवं सुधार कर ईसा क सह ा दी को आर भ करने मे ं उ रे क हो सकते है।ं पादिरयों ने अमरीका को रह यो घाटन के एक नये य शलम के प मे ं चािरत कया। कई उप नवेशवा दयों ने इस ा त को ईसा सह ा दी के मामले मे ं जॉज तृतीय को ईसा मसीह वरोधी के प मे ं देखा। इससे जो सबसे ं )े , उ होंने देश क अ धक सहमत थे ( ज हे ं अब हम ईसाई मत चारक कहेग नागिरक सं कृ त के चलन को आकार देना आर भ कर दया, जसमे ं यु , शराब, गुलामी था जैसे पापों को आ दोलनों ारा समा कया गया। 18वीं सदी के म य तक कुछ लोगों ने बड़े व ास से यह घोषणा करना आर भ कर दी थी क सह ा दी वष अब मा तीन वष दू र है।20 हाल के वष मे ं लय (दु नया के अ त) के त अमरीका मे ं यह जुनून एक नई ँ गया है जहाँ कई ईसाई मत चारक मानो भ व य को देख रहे हों — ऊँचाई पर पहुच वशेषकर इज़राइल- फ़ली तीन यु हो या 9/11 क आतं क घटना हो, वे इसे व के अ त क पू व शत मान बैठे है।ं



हत ( वानुभूत) ान क साधना-प त

धा मक पर पराओं के अनुसार मनु य मू लत: ज म से ‘‘पापी’’ नहीं है, ब क वह तो अपने पू व-ज म के कम का बोझ लए यहाँ आता है जो उसे उसक स ी कृ त से अन भ रखता है। सौभा य से मनु य मे ं यह सहज मता होती है क वह इस थ त को पार करके वयं क ‘‘स दान द’’ अव था को ा कर सके। कृ त क वा त वकता का स य अनुभव से समझा जाता है तथा यह स य एक साधक से दू सरे ँ ता है एवं यह प व अनुभू त इतनी व वधतापू ण हो सकती है जहाँ साधक तक पहुच एक से अ धक साधना के प थ स य क खोज कर सकते है।ं व भ य गत अ यासों व अनुभव से ा ान आगे सािरत होता है या फर एक वयं स गु के साथ सीधे स पक से भी। स य के इसी उ गम और सारण को जानने-समझने क अवधारणा को मैं प म क समझ के लए स हत ( वानुभूत) ान क सं ा देता हू ।ँ एक मुख बौ व ान रॉबट थमन (Robert Thurman) अपनी पु तक ‘‘इनर िरवो यू शन’’ (Inner Revolution) मे ं लखते हैं क प म मे ं एक मथक च लत है े









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क केवल प व ान ही ान का उ े य हो सकता है, जसमे ं वै ा नक अपने योगों का नरी ण कर एवं उससे ा न कष को एक न प एवं तट थ िरपोट के प मे ं तुत करते है।ं इसके वपरीत अ ययन के वषय जैसे मनो व ान, दशन, चेतना वषयक अ ययन, नै तकता आ द य परक है,ं यों क वे य गत एवं आ तिरक अनुभवों से स ब ध रखते है।ं प म के अनुसार योग, यान एवं अ य आ या मक तकनीकें उनक रह यमयी कृ त क वजह से और भी स द ध है।ं यह ैतवाद पहले से ही मान लेता है क आ तिरक अनुभव मू ल कारणों का पू वानुमय े माग नहीं अपनाते, जब क बाहरी सं सार ऐसा करता है। इस धारणा के अनुसार आ तिरक धरातल का वै ा नक अ ययन करना अस भव है, जसमे ं योगों के नरी ण को दू सरों ारा व सनीय, पुन पादनीय, और मा णत घो षत कया जा सके। इस च लत प मी मथक के अनुसार केवल बाहरी अनुभवों से ही इ तहास को आकार दया जा सकता है, ज होंने प म को मु करके आधु नकता के दौर मे ं वेश कराया है। जब क आ तिरक ान एवं अनुभव य परक या यादा से यादा अ छे उ े य के लए हो सकते है,ं पर दू सरी ओर नरे अँध व ासी और एकप ीय भी। वे पारलौ कक च तन करते हैं तथा हमे ं और अ छा आभास करवाने के अ तिर इस भौ तक एवं सामा जक दु नया को कोई वशेष लाभ तुत नहीं करते।21 लेखक थमन इस मथक से दृढ़तापू वक असहम त दशाते है।ं वे इं गत करते हैं क वै ा नक केवल सं सार के भौ तक व प का अ ययन करने तक सी मत हैं तथा भू ल से इसे न प ता का नाम देते है।ं इसके वपरीत धा मक वचारकों एवं साधकों ने बहुत पहले से ही व तु/ वषय, धारणा/अवधारणा, शरीर/मन, वयं /अ य, समाज/ य , अनुभव/मा यता, तीक/ च इ या द के बीच पार पिरक नभरता को पहचाना है और उनके पास वै ा नक या योग कये जाने का तकसं गत दावा है। सनातन धम मे ं यह आ तिरक व ान वाला दृ कोण नरी णों, व भ योगों, मह वपू ण जाँचों तथा बहस- ववाद के मा यम से वक सत कया गया है, इस लए इसे यहू दी-ईसाई शैली क मा यताओं के समक रखना असं गत होगा। इस कार आ तिरक एवं बाहरी दोनों अ ययन वै ा नक हो सकते है।ं आ तिरक आ या मक व ान का भारत, त बत एवं चीन जैसे देशों मे ं एक ल बा इ तहास रहा है, पर उ होंने कभी भी बाहरी भौ तक व ान को नकारा नहीं है। जैसा सं घष प मी धम एवं व ान मे ं हुआ, वैसा सं घष इन देशों मे ं धम एवं व ान के बीच कभी भी नहीं हुआ है। ं थमन बताते है— आ म ान क इस पर परा को सू म एवं थू ल व पों मे ं दो हज़ार वष पहले ही खोज लया गया था एवं इसमे ं मनु य क आ तिरक दृ क छठ इ यों को दृढ़ करने के लए पिर कृत वचारशील प तयों का उपयोग कया गया था। इसका दायरा कृ त क सं क ण पिरभाषा के स दभ मे ं ही अलौ कक है। यह रह यमयी तभी तक है जब तक इसके व लेषणा मक योग पू रे नहीं े







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कये जाते। यह जादू तभी तक है जब तक इसे पिरभा षत करने वाली तकनीक को समझ नहीं लया जाता।22

आ या म व ा : एक



अनुभव-वाद

आ या म- व ा वयं एवं पिरवेश को जानने क एक अनुशा सत और यव थत साधना प त है जो सटीक आ म- नरी ण तथा ग भीर तक- वतक से क जाती है। यह माना जा सकता है क स य का स पू ण ान ा कया जाना स भव है जससे जीवन और मृ यु क पिर थ तयों पर वजय ा करके आन द क ा हो सकती है। यह आगे ऐसा दावा करता है क यह ान दू सरों को भी सखाया जा सकता है। यह प त कसी मत के त अं ध व ास अथवा हठध मता क माँग नहीं करती, ब क वचारकों, व ानों एवं साधकों से इन व ासों तथा वचारों क समी ा का आ ह करती है। आ तिरक नरी ण क प त से अ तदृ ा करने हेत ु मन एवं बु का उपयोग य क भाँ त कया जाता है। इस आ तिरक ान- व ान के योगों क व ध क मता अथवा उसके पिरणामों क उपयो गता कसी भी ऐ तहा सक सा य पर नभर नहीं है।23 इस कार के आ तिरक नरी ण के पिरणाम व प जो पहली मुख खोज है वह यह है क हमारे म त क से आने वाली अ ात व नयों मे ं से एक भी मू लभू त प से ‘‘हमारी अपनी’’ नहीं होती।24 अ धकां श धा मक णा लयों मे ं माना जाता है क वयं को तथा सं सार को ठ क से समझने मे ं क गई भू ल ‘‘अ व ा’’ ( म या ान) के कारण है, एवं यह अ व ा ही उन अनथकारी वचारों को ज म देती है जससे वनाशकारी एवं यसनी आदतों ( लेश) को बढ़ावा मलता है और जो सम त दुखों का मू ल कारण है।ं अपने अनुभवों को रचने के लए जब मन के पू व अनुब धनों और स दभ को अपने ऊपर थोपा जाता है तो उसे ‘‘नाम- प’’ कह कर स द भत कया जाता है। नाम- प मनु य क मृ त-अवशेषों के ही पिरणाम (अथात सं कार) हैं जो क वयं क इ छा से कये गये पछले कम के ही तफल है।ं वयं क पस द से ही य के सं कार बनते हैं जो क आगे चल कर उसक धारणा बनाने का काय करते है।ं पिरणाम व प एक का प नक एवं ामक सं सार (माया) न मत होता है। यह स ा त ह दू , बौ एवं जैन पर पराओं का सामू हक आधार है जो इस थ त से पार पाने का रा ता बताता है (इसे आगे अ याय 3 एवं पिर श ‘क’ मे ं व तार से पिरभा षत कया गया है)।25 इस लए नधािरत अनु म इस कार होता है :       वक प/कम ➝ सं कार/अवशेष ➝ नाम प ➝ वासना/लत आ तिरक अनुस धान के उपकरणों जैसे मन, बु , मृ त एवं अ य स ब धत मताओं को शु करके मनु य के मन क अनुभू तयों पर वजय ा क जा सकती ै

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है। पिरणाम व प जो मन: थ त ा होती है वह नाम प जैसी व धयों क म य थता से मु होगी। ी अर व द प करते हैं क ‘ ान’ का अनुभव (उ बु म ापू ण ान) कसी मनु य को पू णता के उजाले मे ं सापे य दृ रखना स भव बनाता है। वह देखता है, छूता है, अनुभव करता है एवं अन त को अपने अनुभवों से सीखता है। ‘‘सापे ता क सीमाओं के पार जाया जा सकता है’’—इस असाधारण व ास के कारण सनातन धा मक पर पराओं और कसी वै ा नक अ वेषण के बीच आपस मे ं कोई तनाव नहीं होता। एक योगी आ तिरक वै ा नक के प मे ं वयं नरी ण/अनुभव का य भी होता है जसे सं कृत मे ं ‘अ त:करण’ कहा गया है।26 एलन वॉलेस (Alan Wallace) ज होंने सं ाना मक व ान क दृ से धा मक पर पराओं मे ं योग- यान क भू मका का अ ययन कया है, बताते हैं क वै ा नक कसी भी कार के नरी ण के लए मानव मन-बु को ही ाथ मक साधन बनाते है।ं इस लए मन-बु को ही मु य प से य के प मे ं ठ क करना पड़े गा। अ श त मन-बु , जो उ ज े ना और श थलता के बीच झू लती रहती है, कसी भी व तु का नरी ण करने के लए अ व सनीय एवं अपया साधन है। इसे वै ा नक अ वेषण करने हेत ु उ चत साधन मे ं बदलने के लए यान क थरता और जीव तता को बहुत ऊँचे तर तक वक सत करना पड़े गा।27 यही योग का वै ा नक मह व है क वह यान, कुंड लनी जागरण, त एवं अ य धा मक व धयों से चेतना को उ तर पर ले जाने और शरीर के पिर कृत वकास के लए उपयोगी है। ये थ तयाँ स य क खोज से स ब धत गहन परतों को उघाड़ने मे ं शु सं ाना मक उपकरण के प मे ं काय करती है।ं पछली तीन सह ा दयों से भारतीय पर पराओं ने यान को और अ धक पिर कृत करने क क ठन व धयों का वकास कया है एवं इसे यावहािरक जगत मे ं मनु य चेतना क उ प , कृ त, एवं वकास क खोज मे ं लगा दया है। गौतम बु जैसे महान मननशील भारतीय स तों ारा इस कार क अनुभवज य एवं तकसं गत अनुस धानों और खोजों ने प म क कई मा यताओं को, वशेषकर वै ा नक भौ तकतावाद के स ा त को, ग भीर चुनौती दी है।28 इस कार के मननशील वै ा नक (अथात ऋ ष, योगी एवं बु ) एक तरह क चलती- फ़रती मानव योगशाला थे ज होंने आ तिरक वै ा नक मताओं को वक सत और शु करने के लए कई तकनीकों और प तयों का योग कया। महान ऋ ष पतं ज ल ने स योगसू ों को सं क लत कया ता क मनु य अपनी चेतना के सव तर क मता वयं वक सत कर सके। शैव पर परा ने शव भ के आ तक वक प के साथ ‘‘ यान’’ क श शाली या वक सत क , जसके ि







पिरणाम व प भगवान शव के साथ स पू ण भ यु वलय स भव है। शव वयं कोई ई रदू त नहीं हैं और ईसाइयत के अथ मे ं कोई भगवान भी नहीं, पर तु वह अवणनीय अ तम अव था हैं जो सब कुछ है और जसमे ं सब कुछ समा हत है। ऐसा कहा जा सकता है क ऋ षयों ने व भ योगा मक घटनाओं मे ं गहन अनुस धान का पथ श त कया। ऋ षयों ने इस बात क खोज क क मनु य के अ तमन के नरी ण एवं उसक खरता को बढ़ाने के लए आव यक है क जीवन शैली सरल हो जो मान सक बेचौनी एवं वकषण को कम करे। य जतना ही अपनी मान सक अवधारणाओं एवं इ छाओं को पु करता जाता है वह उतना ही यवहािरक मन को दृढ़ करते हुए स य के काश क राह मे ं आने वाली बाधाओं को बढ़ाता जाता है। अथात् मनु य क शा त मान सक थ त एक व छ योगशाला के समान है। वयं को एक मागदशक एवं खोजकता के प मे ं रख कर इन ऋ ष-मु नयों अथात् आ तिरक वै ा नकों ने आ तिरक परी ण क या को वक सत कया, उसक जाँच क और उसे उ कृ बनाया। योग- यान स ब धी थों को उपल ध पिरणामों के तुलना मक अ ययन के लए दशा नदश के प मे ं योग कया एवं इसी तरह लगातार नई-नई खोजों से इसे और आगे बढ़ाया गया। इनमे ं से कुछ खोजे ं दू सरों क तुलना मे ं अ धक पू ण थीं, कुछ बेहतर प त से ल खत एवं सं े षत क ग , जब क कुछ अ वेषणों को ान के अ धक प और ती ण उपकरण के प मे ं देखा गया। ये योग एवं पिरणाम व भ े ों के ‘खोजी उपकरण’ के प मे ं उपल ध रहे जो क आमतौर पर हमारे लए सुलभ नहीं रहते। कई पर पराएँ वक सत हु ज होंने आ या मक (आ तिरक) योगों को कई पी ढ़यों तक अनवरत स य रखा। फल व प समय के साथ-साथ इनसे अ याधु नक वैचािरक तमानों और ानमीमां सा का वकास हुआ। इस स ब ध मे ं जो दावे कये गये उन पर ती वाद- ववाद कये गये जनमे ं से अ धकां श अ छ तरह से ले खत है।ं इस कार के शा ाथ ने व भ ‘दशन’ (दृ कोण/दशन णाली) के शा ों क नींव रखी। यह प त आधु नक वै ा नक अनुभव-वाद के मानकों पर खरी उतरती है। वाभा वक प से इस कार क म य थता वहीन ान-प त के दावे को प म के कसी गढ़े गये सामा जकराजनै तक-सां कृ तक एवं ऐ तहा सक व लेषण और आधु नक मानवशा के बल पर नकारा नहीं जा सकता। सारां श मे ं कहा जाये तो यह आ तिरक व ान सीधे आ म-अवलोकन एवं ानयोग (यौ गक ान) के स मलन से सही जानकारी और य ान देने के लए है जससे अनुभू त और मु के ार खुलते है।ं इस तरह क णा लयों को धम क तरह नहीं ब क च क सा प त के प मे ं ही सटीक या या यत कया जा सकता है। इस धरती पर मानव जीवन मे ं सटीक समझ एवं धारणा का नमाण करना स भव है। ै ी ओं ी ो ें

यही सनातन धा मक पर पराओं वाली सोच क व श ता है जसमे ं एक प दाश नक ‘ वचार’ का वकास होता है, जो प म क आ या मक अटकलों से कहीं दू र है और जो स ी उ मु ता एवं आन द के लए न केवल स भव है ब क आव यक भी है। इसी कार आधु नक आ या मक गु ज होंने बना कसी शा दक हठध मता अथवा कसी भ व यवाणी या ऐ तहा सक घटना- मों का स दभ दये आ म ान करवाया, उनमे ं रमण मह ष, जे. कृ णमू त, ी अर व द तथा आन दमयी माँ शा मल है।ं उ होंने सभी कार के य गत एवं सामू हक पहचानों वाले सभी स दभ तथा आ यानों को ख डत करने पर बल दया है।

धा मक पर पराओं मे ं भु व जहाँ एक ओर प म का इ तहास-के क दृ कोण प व थों क के ीय भुता का दावा करता है वहीं आमतौर पर भारतीय दृ कोण सामा यत: आ या मक भु व कसी आ या मक गु मे ं खोजता है। इसका अथ स हत ( वानुभूत) सं चार से है जो सामा यत: य पर पर स पक से होता है और जो प म के उस दृ कोण से बलकुल भ है जसमे ं क थत थों के अ ययन ारा अमू त स य के सं चार पर ज़ोर दया जाता है।29 स हत ( वानुभूत) ान पर बल दये जाने के कारण धा मक पर पराओं मे ं जी वत आ या मक गु ही मह वपू ण होता है।30 स हत ( वानुभूत) आ या मक गु कई कार के हैं और उनके भु व क वभ े णयाँ है।ं इनमे ं सबसे मुख ऋ ष, मु न एवं गु है।ं ऋ वेद मे ं इन मुख ऋ षयों ( जनमे ं म हलाएँ व पु ष दोनों ही है)ं के दजनों स दभ दये गये है।ं अपनी योग-श यों के पिरणाम व प ऋ षयों ने वा तव मे ं परम त व के सा ात ‘दशन’ कये एवं इस ‘दशन’ को मौ खक प से चार वेदों के प मे ं सं चािरत कया।31 जब क पार पिरक प से मु नगण य -त मण करने वाले तप वी थे जो ाय: मौन त रखते थे। मु न को ‘ मण’ भी कहा जाता है जो वयं क अथक एवं कठोर साधना से वयं क मु के लए काम करता है एवं पिरणाम व प असाधारण योगश यों को ा करता है। मण अथवा मु नयों क पर परा के महान उदाहरण हैं बु एवं महावीर। जब क ‘गु ’ एक वल ण योगी एवं श क होता है जो अपने श यों को दी ा दे कर आ म ान के लए तैयार करता है। धम के सारण हेत ु गु - श य स ब ध अ त-आव यक है एवं धा मक पर पराओं मे ं आ म- ान क स हत कृ त को समझने क यह एक अ भ य है। आजकल प म मे ं ‘गु ’ श द का यापक ले कन ु टपू ण प से योग कया जा रहा है। ‘गु ’ केवल कसी एक े वशेष के वशेष या ई रदू त नहीं होते है।ं गु दू सरों को जो सखाता है उसका वयं आदश प होता है। गु का ान प म क तरह मा ऐ तहा सक घटनाओं अथवा रह यो घाटन पर आधािरत नहीं होता, ब क वह साधक मे ं अनुभवज य ान पैदा करने के लए एक व श कार क ं ं ै ी ो ी

तकनीक एवं समझ को जगाता है। गु एवं श य का स ब ध कसी साधारण श क एवं छा के बीच होने वाले स ब ध से कहीं अ धक गहरा होता है।32 जहाँ-जहाँ भारतीय धा मक पर पराओं का व तार हुआ वहाँ-वहाँ इस कार के व वधतापू ण आ या मक गु देखे गये ज होंने ान के उ तर को ा कया एवं उसे दू सरों को सखाया। उनके ऐसे बल यासों से अनेक मसाले ं सतत् उभर रही है।ं पिरणाम व प धा मक पिर े य मे ं ऐसे थानीय उदाहरणों और स दभ- ब दुओ ं क बहुतायत रही है, न क प म क सावभौ मकता का दावा करने वाले एकल स दभब दुओ ं क । अत: सनातन धा मक पर पराएँ कसी नबी या पैग़ बर, या स तों अथवा यीशु जैसे परमा मा के कसी एकमा अवतार पर नभर नहीं है।ं भारतीय धा मक पर पराएँ ई र के अनेक अवतारों क कथाओं के साथ अ त सहज हैं जनमे ं से कोई भी भगवान का बेटा अथवा बेटी होने के शा दक अथ क तरह नहीं देखा जाता। कसी एक वशेष अवतार अथवा (बो धस व) को ाथ मकता देने को अ य अवतारों क अ वीकृ त के प मे ं नहीं देखा जाता और न ही उ हे ं पू व के अवतारों के लए सं कट के प मे ं देखा जाता है। इससे भी मह वपू ण यह है क धा मक पर परा मे ं अ नवाय प मे ं कसी ‘एकल और एकमा सही’ मानव इ तहास के सं करण को ही माण के तौर पर था पत करने का यास नहीं हुआ, जैसे क बाइबल के अ ययनकता स करने मे ं य त रहते है।ं महा मा बु ने यह प कया क उनके ारा खोजी गई व धयाँ एवं पिरणाम मनु य के लए ानाजन का ‘एकमा उपल ध माग’ नहीं है,ं यों क यह न तो उनका वशेषा धकार है और न ही उनके स देशों का। बु कहते हैं क तु हे ं य द कोई स देह अथवा अ न तता लग रही है तो यह सोचना तु हारा अ धकार है। वे आगे कहते हैं — ‘‘ कसी भी क य को मा इस लए वीकार मत करो क वह कसी रह यो घाटन या पर परा पर आधािरत है या कसी तक- वतक का पिरणाम है अथवा इस लए क वह कसी दृ कोण से सच है या त यों के सतही आकलन पर आधािरत है या कसी क पहले से बनाई हुई धारणाओं के अनु प है अथवा यह कोई आ धकािरक त य है या फर यह तु हारे श क क त ा से जुड़ा हुआ है।’’33 उनका यह आलोचना मक रवैया वयं बौ धम पर लागू है— बु कहते है,ं ‘‘य द कोई मेरे बारे मे ं बुरी बात कहता है अथवा मेरे स उपदेशों क आलोचना करता है तो उसके त दुभावना न रखो, न ही हो और न ही दल को दुखी करो, यों क य द आप ऐसा करते हैं ँ ायेगा। इसी कार य द कोई मेरे अकारण आपको ही नुकसान पहुच ै

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ा तों व परेशान तो यह बारे मे ं

बहुत अ छा कहता है, मेरे स ा तों व उपदेशों क शं सा करता है तो अ धक खुश अथवा फु त होने क भी आव यकता नहीं है, यों क य द आप ऐसा करते हैं तो यह उस यथाथवादी धारणा के बनने मे ं बाधा उ प करेगा क हमारे जन गुणों को सराहा गया है या वे वा त वक हैं और सचमुच हमारे अ दर है।ं 34 सख प थ भी कसी नबी अथवा पैग़ बर पर नभर नहीं है। इस धम के सं थापक ी गु नानकदेव ने कभी भी यह दावा नहीं कया क वे अवतार हैं अथवा भगवान या ई र के पु या पैग़ बर है।ं उ होंने इस वचार को तपा दत कया क देव व क ा न कसी क रप थी वचार, हठध मता अथवा कसी ऐ तहा सक वृ ा त के सहारे से ब क ई र क भ एवं समपण से ही होगी। उनक श ाओं के अनुसार यही खोज येक मानव क ती ा कर रही है। मानव शरीर (मन एवं ाने याँ) के मा यम से ई रीय स य क अनुभू त क तकनीकें भारतीय धा मक पर पराओं मे ं चुर मा ा मे ं उपल ध है।ं यह थ त ा करने के लए पतं ज ल के योगसू एक शा ीय दशन एवं सं साधन के प मे ं उपल ध है।ं इस तरह के थों मे ं य क आ या मक साधना, दशन एवं 35 धमशा से अ वभा य है। ह दू धम मे ं शा ीय नृ य को एक भली-भाँ त वक सत कये गये अ यास के प मे ं था पत कया गया है। नतक के शरीर मे ं नृ य मे ं अं ग सं चालन, व नयों, भावनाओं के कटीकरण को व धवत ा ड व ान एवं ान मीमां सा के प मे ं परोया गया है। यह सं सार का एकमा मुख धम है जो शरीर के मा यम से इतने ल बे समय तक सफ़लतापू वक सं चािरत एवं स े षत कया गया है। इसमे ं शव के नटराज प मे ं च ण का उदाहरण दया जा सकता है जहाँ भगवान शव को इस प व नृ य के तप वी योग-गु के प मे ं था पत कया गया है। इसी कार ी कृ ण ारा दये गये आ यानों एवं शा ीय त वों को उनके भ ों के साथ नृ य के च ण के दृ ा त से बताया जाता है जसके ारा भ ों मे ं ‘‘भ -रस’’ के सं चार के साथ-साथ वे अपने ‘‘इ देवता’’ के साथ आ तिरक प से एकजुट होने का यास करते है।ं इस तरह क अ भ य पू ण भ भावना कसी आ या मक य ववशेष के लए आर त नहीं होती, ब क यह भाव समू ची सं कृ त मे ं फैलता है तथा इ हे ं लोकगाथाओं के मा यम से येक ह दू जानता-समझता है। जैसा क हम अ याय 5 मे ं और गहराई से देखग े ं ,े म ों के उ ारण से शरीर मे ं एक आ तिरक प व क पन उ प होता है जससे शरीर क आ तिरक ऊजा एवं बौ क मताएँ कट होती है।ं ऐसी तकनीकों से य के आ तिरक स यों को य के अ दर ही अनुभव कया जाता है, न क उसके बाहर। यह वचार मा तीका मक नहीं है, ब क यह माना जाता है क जगत क सृ व न-नाद से हुई है। इस कार इन व श अ त व नयाँ जनको युगों से अ यास और नरी ण ारा खोजा और ि ें ी े ो ेऔ े े

पिर कृत कया गया, हमे ं बाहरी ँ ाती है।ं अव था तक पहुच

ा ड के साथ एक प होने और उसे समझने क

योग के व भ पों जैसे ‘‘हठयोग’’ (योगासन) का उ े य है क साधक के शारीिरक अ यास अथवा साधना के ारा उसे उ ान क ा हेत ु तैयार कया जाये। परम स य के व प मे ं व भ थ, अवधारणाएँ, तीक, अनु ान आ द साधक को केवल य अनुभव ा करने मे ं सहायक अथवा पथ- दशक के प मे ं होते है।ं ये सं केतक मा है।ं उ ान को शरीर मे ं ही अनुभव कया जाता है। साधक व भ योग-प तयों का अ यास करते हैं जो उनके शरीर को ान ा करने के य के प मे ं पिरव तत करने के लए बनाई गई है।ं प म क सं कृ त मे ं यह सब अस भव है यों क उनक पर परागत सं रचना के अनुसार मानव शरीर तो वाभा वक प से पाप, नै तक गरावट एवं लोभन का ोत माना जाता है।36 भारतीय धा मक स हत ( वानुभूत) थाओं मे ं कोई ‘ऊपर से आया हुआ’ कानू न नहीं है और न ही पर पराएँ कसी धम वधान क सीमा मे ं ब द है।ं यहाँ पर ान के सं चय को ‘ ु त’ से पिरभा षत कया गया है जो क सावभौम एवं शा त है तथा स दभ के त सं वद े नशील यह ान ‘ मृ त’ के प मे ं व भ या याओं ारा सं चा लत है जसे क हीं धा मक सीमाओं अथवा ‘ऊपरी’ आदेशों क सीमा मे ं नहीं बाँधा जा सकता। अत: श य से यह अपे ा नहीं क जाती क वह आँखे ं ब द करके व ास कर ले, ब क उसे वयं अपनी चेतना के तर एवं व भ य गत अनुभवों क सहायता से ान ा कर सं वाद करने क अपे ा क जाती है। प मी दशन के वपरीत, जो क तक- वतक क सहायता से बना योग अथवा यान के मा यम से चेतना के तर पर कसी भी आ तिरक पिरवतन क अपे ा कये बना ही उसे समझते है,ं भारतीय दाश नक णाली गहन प से आ या मक अ यास के साथ ँ ी हुई है। गुथ यहाँ तक क ‘बुरी तरह बदनाम क गई’ ‘मनु मृ त’ ( जसे सामा यत: प म मे ं मनु ऋ ष के नयम के प मे ं जाना जाता है) को भी कभी यापक प से ह दुओ ं के या ई रीय नयम के प मे ं लागू नहीं कया गया, पर तु अं ज़ े ों ने यह दशाने के लए क उप नवेशवादी शासक ‘ ह दू क़ानू न’ के अनुसार शासन करते है,ं इसे बलात् लागू कया (जब क इस क़ानू न को उ होंने ही बनाया था)। इसके अ तिर मनु मृ त सं हता मे ं यह प कहा गया है क यह सावभौ मक नहीं है, व भ पिर थ तयों के अनु प इसमे ं समयानुसार अ तन, सं शोधन एवं पुनलखन कये जा सकते हैं (अ याय 4 मे ं इस पर आगे व तार से चचा क गई है)। इस दृ कोण को देखते हुए धा मक क रवाद (अस ह णुता अथवा अन यता) क धारणा भारतीयों के लए बनाना वरोधाभास ही है। आ या मक ल य क ा के लए जो य गत तब ता योगशा क दो मुख शाखाओं (यम और नयम) ारा िे रत एवं सुदढ़ ृ होती है उसके पथ होने क स भावना प म क तरह उन द य यव थाओं से ै ों ें े ै ई ी ै

कम है, यों क इनमे ं सामा जक एकता के नाम पर नै तकता उ चत ठहराई जाती है और उसके नयमों को य पर लादा जाता है। हालाँ क यादातर साधारण धा मक साधकों का जीवन, समू ह के नयमों, कमका डों एवं अ य सा दा यक ग त व धयों ारा सं चा लत होता है, पर तु इनमे ं बहुलता सु न त करती है क वह स दभ के त सं वद े नशील हो, उसमे ं य गत पस द/नापस द क स भावना हो तथा वह मतभेदों के त सहनशील भी हो।37 भगव गीता (17.3) के अनुसार येक य कृ त के तीन गुणों के अनुसार अपनी ा वक सत करता है। आ म ान क अनुभू त हेत ु य ारा सामा जक सं हताओं का उ ं घन स भव है जो क सामा यत: सामा जक यव था के आधार माने जाते है।ं इस लए त व ा मे ं जानबू झ कर धा मक थाओं का उ ं घन होता है, सामा जक स दभ के त उपे ापू ण यवहार होता है, अ य थाओं के त नवीन दृ कोण अपनाया जाता है एवं दू सरी बहुत-सी आ या मक वधाओं मे ं ता का लक पिरवतन होते है।ं 38 भारतीय धा मक पर पराएँ उन हठधम एवं इ तहास के थर स ा तों से बहुत दू र हैं जो स दभ से मु एवं ‘ नरं कुश आ ाओं’ से बने है।ं आ या मक व धयों मे ं यह लचीलापन ही ाय: नै तक सापे यवाद के आरोपों को ज म देता है। हालाँ क धा मक पर पराओं मे ं स ा तत: ऐसे कई सुर ा उपाय बनाये गये हैं जो नै तक पतन एवं सापे तावाद को रोकने मे ं सहायक है।ं इनमे ं से कुछ क चचा चौथे अ याय मे ं क गई है।

े ण धा मक पर पराओं मे ं स ष ान को हम नज व उस समय कह सकते हैं जब उसक सं क पत े णयों पर स हत ( वानुभूत) अनुभवों के बना ही चचा हो। हालाँ क धा मक पर पराओं ने अ य धक पिर कृत, तकपू ण एवं सं क पत णाली के सं वादों को वक सत कया है, तो भी ‘स हत- वानुभूत ान’ को मा कोरी दाश नक बौ कता एवं नाम- प भाषाई सीमाओं क तुलना मे ं उ माना जाता है। इस लए ऋ षयों एवं यो गयों को ह दू धा मक चलन मे ं प डतों (पुरो हतों) से ऊँचा थान ा है। उदाहरण के लए ह दू एवं बौ धम मे ं म ों अथवा प व ऋचाएँ, जो क पर परा क बहुत-सी मह वपू ण समझ का स ष े ण करती है,ं ब ों को उनका अथ समझने से पहले ही सखा दी जाती है।ं बना समझे ही इन म ों के जाप को भी अ य धक भावकारी माना जाता है। इन म ों के उ ारण मे ं न हत क पन शरीर से ले कर को शकाओं और सू म तर पर भी सीधा असर डालते हैं एवं शरीर मे ं आ मसात हो कर ये मौ लक पिरवतन करने मे ं स म होते है।ं इन म ों के स ब ध मे ं अ याय पाँच मे ं व तार से आगे चचा क गई है। ाचीन धमशा ों को मृ तब करके उनका पाठ करना कई मायनों मे ं ल खत श दों से सीखने क तुलना मे ं अ धक सटीक प त है, यों क स वर पाठ करते समय क गई गलती तुर त ठ क क जा सकती है जब क ऐसा हो सकता है क लखे हुए धमशा ों क कसी भी ु ट क ओर स दयों तक यान न जाये।39 प म क सोच के अनुसार ान का मौ खक सं चरण एक आ दम एवं अ म प त है जसका थान बु मानी से लेखन के आ व कार ने यापक प से ले लया। हालाँ क लेखन प त ने वाकई सं चार के मा यम मे ं एक ा तकारी बदलाव कया है, पर तु भारतीय वा चक पर परा आ या मक ऊजा क श लए हुए एक गहरा अथ रखती है (जो क प म मे ं बहुत पहले लु हो चुक है)। यह समझ और जानकारी न केवल म ों मे ं ब क भजनों एवं धा मक गीतों मे ं भी पिरल त होती है। ‘उ ािरत श द’ के मह व से हमे ं गु क भौ तक उप थ त एवं नकटता क आव यकता को समझने मे ं सहायता मलती है, यों क कुछ ान एवं आ या मक त व गु से श य क ओर मौन प से मा तरं गों ारा ही े षत कर दये जाते है।ं इस कार क व ा कसी बाहरी या या मक (लगभग न य) पु तक से ा नहीं क जा सकती, चाहे वह बाहरी त से कतनी भी सम थत हो। अत: साधक का शरीर ही ल खत पु तक है।40 ‘आ था’ क ईसाई अवधारणा के थान पर धा मक पर परा मे ं व भ साधना एवं योग आसनों ारा मानव मन एवं शरीर क व श आ तिरक थ तयों को ा करने पर ज़ोर दया जाता है जनक दू सरों ारा पू ण पहचान के प ात् उसे उनके साथ बाँटा जाता है। प म मे ं सं गीतकार और नतक इस स हत- वानुभूत पर परा को कलाकारों एवं शं सकों के दृ कोण से सराहते है।ं 41 ी



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कसी समुदाय ारा भी मू त प मे ं सामू हक अनुभव ा कया जाता है, उदाहरण व प ‘वा षक रामलीला।’ रामायण क इस मू ल कहानी को पुन: पुन: लोक य सामू हक मू त प मे ं तवष सावज नक रं गमं चों पर खेला जाता है। इस कार के अनु ानों मे ं आम त कलाकारों ारा व भ भू मकाओं का अ भनय करवा कर समुदाय क भावना का पोषण कया जाता है। दुभा य से इस पर परा को बहुत हद तक आज के टी.वी. आधािरत रामायण ने व था पत कर दया है जो न य और नज व है एवं कसी थान वशेष एवं समय के लए स दभ-र हत भी। जी वत गु ओं और उनके य स ष े ण के मह व के कारण धम थों के ल खत स ा त (जो आ धकािरक ोतों ारा प व ता के दावे के ल खत थ होते है)ं कम भावशाली होते है।ं उदाहरण के लए वै दक म ों को ऐ तहा सक ान क तरह नहीं माना जाता तथा उप नषद इ तहास- नरपे दाश नक वचन हेत ु आ धकािरक थ है।ं हालाँ क पुराण ऐ तहा सक ववरणों एवं घटनाओं का धा मक दृ ातों एवं धम क श ा देने के लए श ा द कथानकों क तरह योग करते है,ं न क अ नवाय प से कसी मुख बा यता क तरह। इस लए जब सनातन धा मक पर पराएँ अ य सं कृ तयों के स पक मे ं आती हैं तब वे हमेशा थानीय आ या मक पर पराओं एवं श कों का स मान करती है।ं आ या मक ान के सारण क ऐसी वके त प त येक उप-सं कृ त को थानीय नय ण दान करती है जो क कसी एक सं था ारा नय त कोई वशेष धम वधान क तरह ब कुल नहीं है।42 कुछ लोगों का कहना है क ‘गु ’ श द केवल उ हीं य यों के लए उपयोग कया जाता है जो पू ण ानी हों, जब क अ य लोग इस श द का उपयोग अ धक खुले तौर पर करते हैं जब क यह श द पैग़ बरों और न बयों क अवधारणाओं से भा वत स यताओं के लए अलग अथ रखता है। इसके अ तिर प मी पिरवेश मे ं ाय: ‘ य वाद’ पर अ धक बल दये जाने के कारण गु - श य स ब धों क सं रचना मे ं बाधाएँ उ प होती है।ं जस तरह आधु नक व ान मे ं नये स ा तों के परी ण हेत ु बाहरी नरी त त यों को आधार बनाया जाता है, उसी कार आ या म- व ा मे ं मानव के आ तिरक अनुभूत त यों को आधार बनाया जाता है। आज आ या मक अनुस धान हेत ु था पत कई उ कृ गु कुल है।ं ये सभी अपने-अपने गु -जनों के मागदशन मे ं अपने स ा तों एवं प तयों मे ं श ा दान करते है।ं य द कसी गु के बहुसं यक अनुयायी गु जैसी ही अव था ा कर लेते हैं तो उनके बाद उस माग को मा यता मल जाती है, अ यथा स य का वह दावा खुले बाज़ार के त पध दावों के सम अपने आप समा हो जाता है। य द कसी प थ के अनुयायी मलने दुलभ हो जाये ं और धीरे-धीरे वलु हो जाये ं तो वाभा वक प से वह गु कुल कमज़ोर पड़ जायेगा। ऐसे मे ं पु तकों को जलाना अथवा उस गु कुल पर हं सक आरोप लगा कर नकार देना अनु चत है। ं ी ं ै ो ी े े

यह ठ क उस भारतीय सं गीत गु क व ध के समान है जो अपने गायन एवं उसक पुनरावृ यों के सहारे श यों को सं गीत सखाता है जो क गीत स ब धी ल खत तानों से भ है। इसी तरह एक हठयोगी, बना कसी रह यमयी थों क ऐ तहा सक या याओं के, केवल अपने शरीर के मा यम से अपने श यों को आसन सखाता है। यहाँ तक क भ पर पराओं मे ं होने वाला सं वाद परमा मा के त म े के व वध अनुभवों, उन अनुभवों को उ चत री त से पिरभा षत करने तथा ई र से भ क नकटता पर यान के त करने के लए होता है। कसी या यान, धम पदेश अथवा वचन मे ं जो ान दया जायेगा वह तुलना मक प मे ं स हत ान साधना के उ तर का नहीं होगा। श क अपने अनुभव के अनुसार थों के क य को स े षत करता है, पर तु श य-गण अपने समय, थान एवं स दभ के अनुसार वयं क अ तदृ उ प कर उस त व ान को आ मसात कर नये थों का नमाण भी कर सकते है।ं महान म ययुगीन दाश नक एवं सां कृ तक वचारक अ भनवगु ने ामा णक ोत के प मे ं धा मक पर पराओं क कृ त एवं वैधता स ब धी अपनी एक यापक चचा मे ं प कहा है क वे सभी स हत- वानुभूत ान से त त होती हैं और थान, समय एवं अ य व भ कारकों के ारा सं चा लत होती है।ं 43 इस कार के ान ने लोगों को नई सोच क शु आत करने तथा उ रो र अ धक रचना मक अनुस धान एवं वकास हेत ु ो सा हत कया है। यहाँ पटी हुई लीक से हटने क अनुम त है। वा तव मे ं साधु को आ या मक तमान इस लए माना जाता है यों क उसने अपने आप को कसी ढर पर चलने क आव यकता से अलग रखा है। 44

कई प मी लोगों मे ं यह धारणा है क सनातन धा मक स यताएँ वैचािरक प से जड़ हैं तथा उनमे ं पिरवतन एवं आ म-अनुस धान क मता नहीं है—उनका ान सतत् हो रहे रह यो घाटन और च तन के बना असं शो धत थों मे ं थर है। उनक यह धारणा अं शत: धा मक पर पराओं के इ तहास- नरपे होने से हुई है। ऐसा इस लए भी हो सकता है यों क सनातन धम के पिरदृ य मे ं पिरवतन कभी भी हं सा से नहीं हुआ और न ही अ ध मण एवं व थापन ारा ऐसा हुआ है और न ही इसको युगों या काल-ख डों मे ं वभा जत कया गया है। (कम-से-कम प मी अथ मे ं तो नहीं)45 वा त वकता यह है क धा मक थों मे ं व वध योग कये गये हैं तथा वे जड़ होने से कोसों दू र है।ं उदाहरण के लए उप नष जो क वेदों के बाद आये, उ होंने भी धा मक पर पराओं मे ं नये बौ क दृ कोण जोड़ने मे ं सहायता क । रामायण ने व तारपू वक व भ पार पिरक मानवीय स ब धों एवं भू मकाओं मे ं आदश आचरण क या या क है। इसके बाद समयानु प अवसरों क माँग के अनुसार महाभारत मे ं सामा जक तथा राजनै तक सं घष मे ं धम क भू मका प क गई है। जब बौ धम ं े ें े ो े

भारत के जनमानस मे ं बहुत गहरे या हो गया तब त या व प आ दशं कर ने उन ाचीन थों क बौ शैली से पुन या या क , जससे अ ैत-वेदा त (अ ैतवाद) क ा त हुई। वगत हज़ार वष के अ तगत भ आ दोलन ने ह दू धम के भीतर क व श पुरातनप थी अवधारणा को अपने ही स ा तों के अनुसार चुनौती दी जससे यह और भी समृ हुआ। यह बात यान देने यो य है क सनातन धा मक पर पराओं के इतने ल बे इ तहास मे ं कभी भी नवीनता (नवाचार) के कारण आपसी टकराव नहीं हुआ। इन पर पराओं मे ं क रप थी व थापन का उ े य कभी भी नहीं रहा। एक युग से दू सरे युग मे ं बहुत बदलाव हुए, पर तु च लत वचारों मे ं ऐसे वैचािरक पिरवतन ाचीन वचारों के पुन थापन अथवा उस ाचीन था पत स य क और अ धक प अ भ य के लए ही हुए। प म मे ं बदलाव क वृ बाइबल मे ं उ खत ई र के रा य मे ं व ास से भा वत है। नये स यों को था पत करने के म मे ं ाचीन स यों का सामना करके उ हे ं हटाना होता है। ऐसा होने पर पिरवतन और उसका अनुभव अ य धक मू यवान एवं नाटक य हो जाते है।ं वयं यीशु ने कहा है क — ‘‘कोई य पुरानी बोतल मे ं नई शराब नहीं डालता ... (मै यू 9:17)।’’ सनातन धा मक पर पराओं मे ं नवीनता स य के मापद ड क तरह नहीं पू जी जाती और न ही उसके मौ लकता के दावों को ही ठ क माना जाता है। कभी भी जानबू झ कर दू सरों का व ास तोड़ना और स यताओं का वनाश कसी भी नवीन वचार के लए उ चत नहीं ठहराया गया। धा मक सनातन स यताओं मे ं अतीत और वतमान के स ब धों मे ं नर तरता एवं बदलाव दोनों देखे जा सकते है।ं वे पर पराएँ भावशाली एवं ासं गक तथा जी वत रहती हैं जो अगली पीढ़ी के बदलते दौर मे ं ह ता तिरत हो जाती है।ं जो ऐसा नहीं कर पाती हैं वे अश हो कर समा हो जाती है।ं उदाहरण के लए जसे प म पू वआधु नक, आधु नक अथवा उ र-आधु नक जैसे वशेषण देता है वह भारतीय समाज मे ं साथ-साथ द शत होते है।ं यहाँ पिरवतन धा मक पर परा को ख डत नहीं करता और न ही यह पू व- था पत सं थानों को परा जत करता है। धा मक पर पराओं क सामा य कृ त अ तमुखी तथा खुले म त क वाली दोनों ही है।ं इन पर पराओं क ाथ मकता बाहरी भौ तक सं सार पर वजय ा के बजाय आ तिरक आ या मक खोज है। े धा मक साधकों मे ं से बहुतों ने अपने जीवन के सव म काल का उपयोग यान क तकनीक सुधारने मे ं बताया। यह स करता है क आ खर यों सनातन धा मक स यताओं मे ं कसी वाचाल स ा के के ीकरण का प ढाँचा नहीं है, कैसे इनके साधक आधु नक व ान एवं अ य बौ क चुनौ तयों का सामना आसानी से करते हैं तथा यों इनमे ं दू सरों पर शासन करने क राजनै तक इ छाश एवं दु चार क कमी है।





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ँ ा कैसे काम करता है क ढाच

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प मी वचारधारा यह तो मानती है क ान क ा के लए कुछ मानवीय सीमाएँ है,ं ले कन इन सीमाओं क बाधा दू र करने क तकनीकों एवं तरीकों क सू चयाँ वक सत करने मे ं वह असफ़ल रही है। बाइबल के अनुसार परमा मा ने मनु य के ान क सीमाएँ तय क हैं ज हे ं तीका मक प से अ छाई और बुराई के ान पी वृ से फल न खाने क दैवीय नषेधा ा के प मे ं दखाया गया है। व ान एवं दशन के े मे ं आधु नक प मी धम नरपे यव थाएँ भी ाय: व भ वषयों क ान ा मे ं मानस क सीमाओं का दावा करती है।ं 46 इन सीमाओं के अ त मण करने हेत ु प म ने आ या म- व ा जैसा कोई यव थत व ान वक सत नहीं कया है। व ान एवं धम े के एक व ान एलेन वॉलेस ने इस कमी को महसू स कया, ं वे लखते है— ‘‘... कसी भी कार के व ान को वक सत करने का पहला चरण होता है उन साधनों को वक सत एवं पिर कृत करना जो योगकता ारा अनुस धान कये जाने वाले घटना म के नरी ण को सुगम और त यों के परी ण को स भव बनाते है।ं मान सक हलचल का य नरी ण करने मे ं हमे ं स म बनाने हेत ु हमारे पास एकमा साधन हमारा मनबु ही है। ले कन अर तू के समय से ले कर अब तक प म ने मान सक हलचलों के परी ण के लए एक व सनीय य के प इस श के वकास एवं उसे पिर कृत करने मे ं बहुत ही कम उ त क है। और तो और... आज भी प म मे ं ऐसे अनुभवज य आ या मक व ान के वकास का बहुत वरोध हो रहा है।47 ईसाई मान सकता मे ं इस तरोध के मू ल कारण बहुत गहरे बैठे हुए है।ं म ययुग मे ं कई मुख यू रोपीय वचारकों का मानना था क असाधारण मान सक मताओं तथा अनुभव के माणीकरण पर नभरता, मू तपू जकों (pagan) के ारा तक- वतक ीक वचार के उ यन से भा वत है, इस लए अ तत: वह ‘‘शैतानी भाव’’ से िे रत है। चेतना के उ तर को इस कार शैतानी मान कर उसके मु , उ साहपू ण खोज काय क ौ ौ गक के वकास को रोका गया। यू रोपीय अँध व ासों ने आ या म व ा को एक यव थत आधार दे सकने वाली वत ता क मानो ह या ही कर दी। शा ीय एवं मू तपू जक (pagan) सं कृ त के जो अवशेष बचे थे, प हवीं शता दी के अ त से स हवीं शता दी के म य तक वे भी ईसाई सा दा यक भु व के कारण न हो गये। ॉ े







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वॉलेस ने अपने शोध मे ं दशाया क कस तरह ईसाई रह यवा दयों ने भी मानवी मता पर ग भीर बे ड़याँ जकड़ दीं।48 अ य बातों के अ तिर उनमे ं से कुछ रह यवादी आ या मक थ तयों को सुसंगत प से थर, पिर कृत एवं वग कृत ं ऐसा लगता है क ईसाई रह यवा दयों के बीच करने मे ं स म थे। वे आगे लखते है— एक यापक सहम त बन गई थी क— मनु य के यान क उ तम थ त अव यमेव णभं गरु है जो क सामा यत: आधे घ टे से यादा नहीं रह सकती। इस रह यवादी मलन क णभं गरु कृ त पर व ास का आर भ हुआ ‘‘ऑग टीन’’ (Augustine) से तथा लगभग एक सह ा दी प ात मी टर एकहाट (Meister Eckhart) के लेखन मे ं यही पिरल त होता है, ज होंने इस बात पर बल दया क यान मे ं अ य धक हष के आवेश क थ त अव य ही णक होती है, जसका 49 अवशेष भाव तीन दनों से अ धक नहीं रहता। दू सरे श दों मे ं प मी वचार ‘समा ध’ अथात चेतना क वह थ त जसमे ं मनबु अबा धत प से यान मे ं लीन रहते है,ं उस अवधारणा को नकार देता है। इसके अ तिर प म मे ं मनी षयों एवं हठधम मठाधीशों के बीच हुए सं घष मे ं सदैव मनी षयों क ही हार हुई है। ईसाई भु व ने हमेशा ऋ ष अथवा बु व जैसी अव था को अपनी ऐ तहा सकता के लए ख़तरे के प मे ं देखा है। उ होंने स ों के आ या मकता के दावों को ‘मानव- न मत धम’ तथा पृ वी पर मनु य क े ता को चच के पिर े य मे ं मत करने वाले वधम कृ य के प मे ं देखा और उसक ं कैथरीन (St. न दा क । चौदहवीं सदी क सएना (Siena) क एक ईसाई व ान सेट Catherine) क कहानी यही दशाती है। हालाँ क बाद मे ं उसे स त तथा ‘डॉ टर ऑफ़ द चच’ भी घो षत कया गया, पर तु उसके जीवनकाल मे ं उसे न केवल अपनी साधना का अ यास करने से रोका गया ब क उसे सताया भी गया, यों क वह मु य प से युवाओं को भा वत करने लगी थी। इस कार के य आ या मक अनुभव के उदाहरणों के त शं का जनमे ं कभी-कभी उन रह यवा दयों ारा द शत वशेष श यों को, जो उनके देहा त के बाद भी दखती है,ं बाद मे ं बलपू वक वापस लेने को कहा गया जो क ईसाई रह यवाद मे ं असामा य नहीं है। ं मत का रवैया वै ा नक पड़ताल के हालाँ क कसी हद तक ोटे टैट त म तापू ण रहा, पर तु वॉलेस कहते हैं क इसने प मी म त कों ारा मानव क आ तिरक खोज के लए ग भीर यासों का रा ता और भी ब द कर दया। ोटे टे टों ारा धम के त क र आ हों तथा वै ा नक ा त के चलते ईसाइयों ारा चेतना क कृ त के मननशील अनुस धान मे ं तेज़ी से गरावट आई। ोटे टे टों मे ं ऑग ट नयन सोच को देखते हुए, जसमे ं जीवा मा क अ नवाय अध मता एवं मु होने मे ं मानव क असमथता अथवा व ास के बना ई र को न समझ सकना, इस अनुस धान के लए कोई शा -स मत ीं ो ई ो

उ साह नहीं रह गया। मु को अ धकारपू वक ई र क मानव को एक ं के प मे ं तुत कया गया।50 अयो य भेट धम के अ तिर भी यू रोपीय व ान केवल बा लोक तक ही सी मत रहा और उ होंने ‘योग’ जैसी आ तिरक तकनीक को अपने दाश नक च तन मे ं स म लत नहीं कया। साथ ही रेने डे काटस — Rene Descartes (1596-1650) के भ य भाव ने मामले को और बदतर बना दया। य प आर भ मे ं ऐसा लगा था क वह एक आ तिरक ायो गक नरी ण क दशा मे ं बढ़ रहा है — Cogito Ergo Sum (मैं सोचता हू ँ इस लए मैं हू )ँ , पर तु उसने आ या मक व ा क तुलना मे ं एक दू सरी क र दशा पकड़ी। पुन: एलन वॉलेस अपनी बात बेहतरीन तरीके से रखते हुए कहते ं है— ‘‘डे काटस, जसका वै ा नक ा त पर अ य धक वैचािरक भाव न ववाद है, ग भीर प से मन-बु के आ मपरी ण हेत ु तब था। ले कन अपने यू नानी एवं ईसाई पू वव तयों क तरह उसने यान क या के के ीयकरण क व ध नहीं बनाई जससे मान सक हलचल का व सनीय प से नरी ण कया जा सके। इसके अ तिर एक आ या मक कदम के प मे,ं जसने मानव मन-बु को ाकृ तक व से भावी प से दू र कर दया, डे सकाटस ने अपना न कष सुनाया क जीवा मा शरीर के भीतर ही होती है जहाँ वह शीष थ (pineal gland) के मा यम से समू चे शरीर पर अपना भाव डालती है। मोटे प मे ं शायद यह कहा जा सकता है क इस कार के दाश नक ख के कारण डे सकाटस के बाद दो शता दयों से भी अ धक समय तक मानव मनबु का अ वेषण प मी व ान ारा आर भ ही नहीं हो पाया।51 इसी तरह क सी मत सोच प मी धा मक मनो व ान के अ णी लेखक ज हे ं वयं ही इसके अनुभवज य खोज के य उपल ध नहीं थे, व लयम जे स — William James (1842-1910) के लेखन मे ं भी दखाई देती है। वॉलेस के अनुसार, ‘‘जे स को इस कार के वै छक यान को नर तर वक सत करने के मह व के बारे मे ं जानकारी थी, पर तु उसने वयं ही वीकार कया है क वह नहीं जानता क इसे कैसे ा कया जाता है।52 अ तत: प मी प त मे ं आ या मक व ा क कमी को वॉलेस ने सं प े मे ं बताया है— ‘‘...सं प े मे ं कहा जाये तो देखने से यह तीत होता है क प मी व ान क या ा कोपर नकस (Copernicus) से ले कर आधु नक समय तक ईसाई म ययुगीन ा डीय सोच से भा वत है। जैसे क इस सोच के अनुसार पृ वी के के मे ं नरक है और वग क अवधारणा इस ा ड क सबसे ी

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बाहरी क ा मे ं रखी गई। इसी कार मानव के य परक सं सार को सदा दु ता के ठकाने के प मे ं च त कया गया जब क बा सं सार को इन नै तक दू षणों से मु माना गया। अ तत: बीसवीं सदी के समापन वष मे ं ही प म के वै ा नक समुदाय ने मानव चेतना को एक वैध वै ा नक अ वेषण का वषय मानना आर भ कया। मनो व ान को चेतना क कृ त क या या करने मे ं एक शता दी से अ धक समय यों लगा जब क वह उभर कर तब आई थी जब प मी वै ा नकों को यह अनुभव हुआ क उ होंने इस ा ड के सभी मुख स ा तों को खोज लया है।53 आज के अ धकां श शै क व ानों मे ं ऐसी अनुभू तज य बु नयाद ही नहीं है जससे वे सनातन धम क ानमीमां सा को समझ सकें। यहू दी एवं ईसाई धमशा ी उतनी ही ग भीरता के साथ अपने ाचीन स ा तों का अ ययन करते हैं जतना वक लों क सेना कसी ज टल यापारी अनुब ध को पढ़ने मे ं लगाती है। वे ई र क ओर से क थत प से जारी गहन सं शोधनों क , जो व भ सू ों ारा तपा दत होते रहते है,ं जाँच करते है,ं उनमे ं सं ल न व भ धाराओं ँ ते है,ं आपात थ त मे ं बच नकलने के लए व श को देखने के लए उपब ध ढू ढ धाराएँ खोजते हैं इ या द... अथात् ईसाई धमशा यों के बीच होने वाली धा मक चचा ाय: नजी क प नयों के नामी वक लों के बीच होने वाली बहस के समान होती है। धमशा के इस दृ कोण के समथन हेत ु व ान लोग ई र और मानवता के ँ ते है।ं इस लए इन मतों के म य न हत अ तस ब धों के पुन नमाण का माण ढू ढ़ अ ययन पर यायशा तथा ऐ तहा सक व लेषणों का भु व बहुत बल होता है। अथात् इस कार के धा मक सं थान मनमाने तरीकों से स ा तों क या या करते है,ं उनको झू ठे दावों एवं ख़तरों से बचाने के लए उन पर नय ण था पत करते हैं तथा अ त मे ं अपने व तारवादी अ भयानों मे ं एक ह थयार के प मे ं इन सबका लाभ उठाते है।ं येक इ ाहमी मत मे ं उनके परमे र ने कसी व श समू ह के साथ सामू हक प से सौदेबाजी क है। यहू दी ई र ारा ‘चुन’े हुए लोग हैं जब क ईसाई परमे र के पु के ब लदान ारा लाभाथ है,ं वहीं उ मा ारा सं ग ठत मुसलमानों के लए ई र ारा भेजे गये आ ख़री पैग़ बर के श द ही अ तम और पू ण स य है।ं इस लए (जैसा क उनके सं थानों ारा य कया जाता है) उनका यान ाय: बाहर क ओर ही रहा। प मी वचार के मह वपू ण स ा त अ धकां शत: य गत आ या मकता के लए नहीं ब क सामू हक उ ार के लए हैं और ‘ना तकों’ (का फ़रों) पर वजय ा के लए समाज और राजनी त को सं ग ठत करने के लए है।ं य गत मु का अनुभव केवल मृ यु के प ात वग मे ं ही है। धरती पर सफलता का मापद ड अ धकतर यव थत मतों ारा सामू हक सामा जक-राजनै तक स यता के प मे ं रहा है। ं ै ी ों ो ी औ

भारतीय सनातन धा मक साधकों को यह सब अजीब और अ ासं गक लगता है जो यह समझ नहीं पाते क इन सब बातों का आ या मकता से या स ब ध है। धा मक पर पराओं क वशेषता है क वे समय और थान के एक से दू सरे छोर तक लगातार जीव त आ या मक गु तैयार कर उनक लगातार सफलता सु न त करती हैं ता क वे अपनी व श श ाओं के ारा नधािरत समुदायों को लाभा वत कर सकें। ता पय यह है क स हत आ म ान ा करने के तरीके अ धक मह वपू ण है,ं न क इस या से स ब धत इ तहास। व भ इ ाहमी मतों के बीच कतनी भी समानता हो पर तु यह उनके ग़ैर समझौतावादी इ तहास और उसक मा लकाना भ य कहानी ारा उ प सं घष का समाधान नहीं कर सकता। यह मान भी लया जाये क व भ प मी मतों के कमका ड एक जैसे हो जाये,ं उनके पू जाघर व देवालय एक समान दखने लगे,ं वेशभू षा के नयम एक जैसे बन जाये ं आ द, तब भी न त प से इनमे ं टकराव होता रहेगा।

पैग़ बर पर परा मे ं भु ववाद जैसा क हमने देखा है, यहू दी-ईसाई पर पराओं मे ं रह यो घाटन का अनोखा भ व यव ा इ तहास ही मनु य का परमा मा को समझने के लए सबसे अ धक सश माग है। यहाँ पर आ या मक ान जानने क लालसा मु य प से आ म- ान के लए नहीं ब क धरा पर समाज और य के लए परमे र क इ छा जानने के लए है। यह समझना बहुत आव यक है क इन मतों के ऐ तहा सक एवं सामा जक आयामों का कोई वक प नहीं है, ये सदा ही हावी रहते है।ं इन मतों के सभी पहलुओ ं मे ं इ तहास-के कता गहराई से समाई हुई है। इस व दृ के अनुसार मनु य मू ल प से पापी होते हैं तथा उनके लए अपनी आ तिरक मता क सीमाओं के बाहर जाना स भव नहीं है। ई र इ तहास मे ं ह त प े करते हैं ता क मनु य अपनी पाप-वृ पर वजय ा कर सके, पर तु उससे पार होने क मता फर भी सी मत है—मनु य न तो कभी भगवान बन सकते हैं और न ही भगवान जैस।े इसके अ तिर भगवान के ह त प े अनोखे और बेजोड़ हैं तथा उनक पुनरावृ स भव नहीं है। उदाहरण के लए ईसाइयों ारा माना जाता है क यीशु परमे र के सा ात् एका म प है,ं पर तु यह भी माना जाता है क अब कोई भी कभी भी यीशु के समान अवतारी पिरपू णता ा कर ही नहीं सकता। वा तव मे ं यह सारी सोच ढ़वादी ईसाइयों क है जसमे ं आ तकों क मुख री त यू केिर ट (Eucharist) के अनुसार वे शराब (wine) क एक घू टँ के साथ रोटी का एक नवाला खा कर यीशु के प व शरीर के साथ ख़ुद का स ब ध था पत हुआ मानते है।ं इनक मा यता है क यीशु का शरीर एवं र अनोखे है,ं अत: यही एकमा यू केिर टक री त कैथो लक एवं ढ़वादी ईसाइयों को यीशु के अवतार के अनुभव मे ं सहायक होगी। ी ै



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इसका अथ यह भी है क ‘चच’ ही उस पिरवतन को अ धकृत करेगी तथा उसक वा त वकता क गार टी देगी, साथ ही इस बात पर भी नय ण रखेगी क कौन ई र के साथ ऐसा भौ तक स पक रख सकता है और कौन नहीं। यहाँ सवा धक यापक प से जो स ा त लागू कया जाता है ( जसे ाय: ‘वैक पक द डा मक ाय त’ अथवा ‘का प नक ाय त’ कहा जाता है) उसके अनुसार येक मनु य को जानबू झ कर क गई परमे र क अव ा के पिरणाम व प उसका पू व काल मे ं उठाया गया ऋण चुकाना ही होगा। यों क मनु य के इस ऋण को चुकाने क शत भी केवल ई र ही बना सकते हैं इस लए उ होंने अपने एकमा पु को धरती पर इसक यव था हेत ु एवं सब कुछ ठ क करने के लए भेजा था। यीशु मानवता के पापों का बोझ एवं द ड क ज मेदारी अपने ऊपर ले लेते हैं और इस तरह मानवता पर परमे र के कोप को ख़ म कर देते है।ं अथात् जन पापों के अपराध का द ड हमे ं आज मलना है उसे भगवान ने पहले ही यीशु को ह ता तिरत कर दया था और उ होंने वह द ड भुगता। इसी लए हम यीशु से म े करते हैं व उसक पू जा करते है,ं यों क उ होंने हमारे लए वयं को ब लदान कर दया। इस वचारधारा का के ीय घटक त व यह है क हमारे आज के ाय त के लए वक प के प मे ं यीशु ने ख़ुद को सू ली पर चढ़ाने का नणय कया।54 इन पर पराओं मे ं मानव हमेशा ई र के अधीन थ रहेगा और य प असाधारण य अथवा भ व यव ा परमा मा से सीधा स पक कर सकते है,ं पर हमेशा वह थ त परमा मा ारा बाहर से आर भ क जाती है, न क य के अपने आ या मक अ यास एवं अनुशासन ारा। ईसाइयों के लए यीशु का अवतार एक अ तीय एवं बेजोड़ ऐ तहा सक घटना है, वही टोराह (Torah) क प व देन ु लेखन यहू दयों के लए है जब क पैग़ बर मोह मद को दया गया कुरान का त मुसलमानों के लए है। यों क भ व यव ा अथवा पैग़ बर ही ई र क इ छा को जानने-समझने का एकमा मा यम है।ं मनु य जा त तब तक अ ान के अँधरे े मे ं ही भटकती रहेगी जब तक वह इन न बयों के इ तहास का अ ययन नहीं कर लेती।55 हालाँ क उ पैग़ बर वष पहले रहे थे, पर तु अब हमे ं उनके नज व इ तहास ारा दी गई एकमा नदशक श ा का बोझ उठाने के लए छोड़ दया गया है। मह वपू ण बात यह है क ईसाइयों को केवल यीशु के स दभ मे ं पैग़ बर का स ा त वीकार करने को कहा जाता है, पर तु उनसे यह नहीं कहा जाता क वे वयं ठ क इस पैग़ बर के तीक क तरह बनने या वैसा यवहार करने का यास करे।ं ‘यीशु जैसा बनने’ का अथ यह होगा क अपने आ या मक यासों से कई मनु य यीशु ं े और इससे यीशु क व श ता और साथ ही उस जैसी प व थ त को ा कर लेग व श ता पर आधािरत चच क मह ा भी कम हो जायेगी। इस कार उन ऐ तहा सक स दभ और घटनाओं को खोना, ज होंने पैग़ बरी रह यो घाटनों को था पत कया था, वनाशकरी होगा।56 पैग़ बरों एवं उनके स देशों के गहन अ ययन पर यहू दी-ईसाई ो े े ैं े ों े ी ी ों ं

बल तो देते हैं पर तु अनेक यासों के बाद भी धमशा ी इन न हत स ा तों एवं थाओं के मामलों का उ चत नपटारा करने मे ं असमथ रहे है।ं इन भ व यवा णयों एवं शा ों क ऐ तहा सक जानकारी को स या पत करना लगभग अस भव ही है। इ तहास-के क मतों मे ं पैग़ बरों के लए यह आव यक नहीं है क वे वयं उ तम आ या मक चेतना के धनी हों, ब क पैग़ बर बनने के लए केवल इतना ही आव यक है क वे ई रीय इ छाओं के ष े क बनने पर सहमत हों। बाइबल मे ं भी वीकार कया गया है क उनके नबी बोधा मक अव था क सीमा से परे नहीं है।ं चच दावा करती है क वह भगवान का अवतार है, पर तु अभी तक यह जानकारी नहीं है क चच के धमशा यों ने ही स हत आ म ान को ा कया (या अगर ा कया भी है तो न त प से उसे मह व नहीं दया है)। बाइबल य ान ( ु त) के बजाय एक सां कृ तक आ यान ( मृ त) अ धक है। इसके वपरीत गीता का तक है क ैतवाद से मु ान ही सं सार के सभी ा णयों मे ं अ वभा जत आ या मक कृ त के दशन कराने मे ं स म है। वह ान जो सभी ा णयों को उनक अ त न हत एकता के बना अलग-अलग देखता है, नचले तर का है। इस कार केवल स गु पर पराएँ ही ान को ामा णक प से ह ता तिरत कर सकती है।ं एक नबी या पैग़ बर के स देश का भु व उसक उ ता के साथ बढ़ता दखता है, वशेषकर य द उस स देश मे ं कसी का फ़र के लए कठोर पिरणामों क चेतावनी दी गई हो। इस कार के पैग़ बरी अ भयानों को चलाए रखने का आधार ‘डर’ होता है जसमे ं अतीत को भयं कर घो षत कर उसका उ मू लन करना और पु तकों को जलाना, ‘झू ठे देवताओं’ क मू तयाँ ख डत करना एवं वध मयों का वनाश करने हेत ु या यक जाँच का ढोंग करना भी स म लत होता है। दू सरी ओर वै ा नक ान इ तहास-के क नहीं होता है। व ान का अपना एक गौरवशाली इ तहास है, पर तु ईसाइयत मे ं इ तहास क भू मका के उपयोग से यह बलकुल भ है। उदाहरण के लए सर आइजैक यू टन—Sir Isaac Newton (16421727) का एक नजी इ तहास है, ले कन गु वाकषण क खोज उनके जीवन क घटनाओं का पिरणाम नहीं है। उ होंने जस बात क खोज क वह तो पहले से ही उप थत थी। यहाँ तक क य द कोई यह सा बत कर दे क यू टन कभी थे ही नहीं ं े और या क वह एक धोखेबाज थे, तब भी भौ तक व ान के स ा त नहीं मटेग कोई भी दू सरा य उनका वत प से पुन: पता लगा सकता है। जो भी हो, ईसाई मत के अनुसार यीशु के जीवन क घटनाएँ इस बात का आ ासन देती हैं क भगवान ने मनु य को यह मता दी है क वह अन त नरकवास से बच सके। ई र के अ तीय ह त प े ारा नई शत बनाई ग हैं जो पहले वाली वाचाओं का थान ले सकें। यू टो नयन भौ तक इ तहास-के क नहीं है और कोई भी गु वाकषण के मू ल स ा त को झू ठा स नहीं कर सकता, चाहे कोई इसे झू ठ भी ठहरा दे क ऐ े ें ी े ं े ी ीं े

यू टन एक ऐ तहा सक य के प मे ं कभी अ त व मे ं थे ही नहीं, अथवा उनके य गत जीवन के ववरण को ही झुठला दे।57 यीशु के लए कये गये चम कार स ब धी दावों के वपरीत गौतम बु ने इस बात पर बल दया क नवाण उपल ध केवल वा त वकता क खोज है जो क हमेशा से ही व मान थी। वे परमे र क ओर से कोई आदेश ले कर नहीं आये। गौतम बु ने कहा क न तो वह वयं परमे र हैं और न ही उनक ओर से भेजे गये कोई दू त हैं तथा उ होंने जो भी खोजा उसे उनक या का पालन करके येक मनु य वयं ा कर सकता है। उ होंने प प से कहा क वा तव मे ं ‘ नवाण’ ा करने वाले न तो वे पहले य हैं और न ही अ तम। बु के स ा तों को साकार करने के लए हमे ं बु के जीवन-इ तहास का ान होना आव यक नहीं है।58 यहू दी और ईसाई मत अपनी इ तहास-के क मा यताओं से कोई समझौता नहीं कर सकते, यों क ऐसा करना उनका वह दावा छोड़ने के समान होगा क ‘परमा मा क इ छा के ान’ का एकमा रा ता उ हीं के पास है। ऐसा होने पर परमा मा और मनु य के स ब ध का यह स ा त क मनु य के लए इस तरह का व श ान केवल ‘ऊपर से’ कसी वशेष समय मे ं ई रीय ह त प े के प मे ं ही आ सकता है, अपने-आप खािरज हो जायेगा। सनातन धा मक पर पराओं के लोगों को यह प मी वचार इतना क र और असहज तीत होता है क वे ईसाइयों के साथ अपने धमस ब धी वैचािरक आदान- दान मे ं इसे अनदेखा तक कर देते हैं और आपसी बातचीत मे ं एक मामू ली बाधा मानते है,ं जब क यह सम या इतनी सरल नहीं है। यहू दी और ईसाई पर पराओं मे ं उनक धा मक सं थाएँ अपने नधािरत नयमों, कानू नी सं हताओं तथा अपिरवतनीय नय क थों ारा चलती हैं और वही यह सु न त एवं नय त करती हैं क उनक वचारधाराओं के अनुसार या ामा णक रहेगा और या नहीं। अ य सभी त प धयों को गौण दजा दे कर पीछे धकेल दया जाता है। अ य धम के त समानता एवं स मान क भावना कभी तुत नहीं क जाती। अ तधा मक वैचािरक आदान- दान भी मा ‘एक कुल जोड़ शू य-पिरणाम’ वाला खेल भर रह गया है। यह सु न त करने के लए क ई रीय आदेश बल रहे, अ ध नयमों के ामा णक थों का गठन होता है तथा वशेष प से ईसाई मत मे ं मह वपू ण पु यों के सार-सं प े एवं मा यताओं पर बहस होती है, उ हे ं लखा जाता है तथा चचा मे ं भाग लेने के लए उनका कड़ा परी ण कया जाता है। उदाहरण के लए नाइसीन मत (Nicene Creed) ऐ तहा सक-धा मक दावों क एक सू ची है। अ धकां श चच मे ं इसे एक बु नयादी शपथ अथवा मशनरी ववरण के प मे ं दोहराया जाता है जसके त ईसाइयों को न ा क त ा करनी पड़ती है। जनको ईसाई मत क इ तहास के ीयकता पर स देह हो उ हे ं इस मत के नदशों को, जो सन् 325 मे ं लखे गये थे, पढ़ना चा हए जब रोमन सा ा य मे ं पहली बार ईसाइयत को एक रा य-पो षत प थ े ें ं ी ी ई ी ी ै ो ई ई ों

के प मे ं मं जूरी दी गई थी। नाइसीन मत कैथो लक ईसाई, पू व क रप थयों, अ धकां श ोटे टे ट चच के साथ-साथ एं लकल समुदाय मे ं भी एक आ धकािरक स ा त के प मे ं वीकाय है। यह ईसाई एकता का एक आधार है जब क इसका दू सरा आधार बप त म क र म है। नाइसीन मत अ य बातों के अ तिर न न ल खत मा यताओं क शपथ प मे ं माँग करता है— 1) भु यीशु ही परमा मा क एकमा स तान हैं 2) प व त े (Holy Ghost) ारा कुँआरी मैरी (Virgin Mary) ने यीशु को ज म दया था। 3) यीशु को हमारे लए ही सू ली पर चढ़ाया गया, उसे घोर क ों का सामना करना पड़ा, फर उसक मृ यु हुई एवं उसे दफ़नाया गया... 4) मृ यु के तीसरे दन वह पुन: सशरीर जी वत हुआ एवं सीधा वग चला गया... 5) वग मे ं यीशु का थान परमे र के दा ओर

थत है

6) यीशु इस सं सार मे ं पुन: अपने पू ण गौरव के साथ आयेगा और तमाम जी वत व मृत य यों के साथ याय करेगा... 7) हम सभी मृता माओं को पुनज वत होते देखग े ं .े .. 8) हम अपने पापों से मु

ा करने हेत ु बप त मा वीकार करते है.ं ..

नाइसीन मत का पू रा या यान नीचे इस कार से है— हम सफ़ एक ई र, उस सवश मान परम पता मे ं जसने इस सं सार मे ं दृ य/ अदृ य तथा वग एवं नरक का नमाण कया है, मे ं व ास करते है।ं हम केवल एक ही परमे र यीशु मसीह पर व ास करते है,ं केवल वही भगवान के पु है,ं उस परम पता से उ प एकमा स तान, भगवान से भगवान, काश से काश, स े परमे र से स े परमे र...। सभी व तुए ँ उसी के मा यम से न मत हुई है।ं हम जैसे पापी मनु यों के उ ार हेत ु वह वग से धरती पर उतरे, प व आ मा क श से उसने व जन मैरी के गभ से मानव के प मे ं अवतार लया। हमारी भलाई के लए उ हे ं पॉ टयस पाइलेट (Pontius Pilate) के तहत सू ली पर चढ़ाया गया, उ हे ं क ों एवं मौत का सामना करना पड़ा और फर उ हे ं दफ़नाया गया। बाइबल के अनुसार तीसरे दन यीशु फर जी वत हो उठे , वग क सीढ़ी चढ़ कर वह परम पता परमे र के दा हने हाथ ं ,े क ओर वराजमान है।ं पुन: द य अवतार ले कर वह इस धरती पर आयेग ं ,े एवं उसके प ात उनका रा य कभी जी वत एवं मृता माओं का याय करेग ख़ म नहीं होगा। हम उस प व आ मा मे,ं उस ई र मे ं जो क जीवनदाता है औ



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और परम पता क एकमा स तान है, पर व ास करते है।ं हम परम पता और उसके पु क उपासना तथा उसक म हमा का गुणगान करते है।ं वह अपने भेजे हुए भ व यव ाओं के मा यम से अपनी बात कहता है। हम एक प व कैथो लक एवं धा मक चच मे ं व ास करते है।ं अपने पापों क मा के लए बप त मा वीकार करते है।ं हम मृता माओं को पुनज वत होते और सं सार के अ त व को जो अभी आना है देखग े ं .े .. आमीन।59 इससे यह प होता है क यीशु के य गत जीवन इ तहास के येक चरण पर व ास को एक ामा णक ईसाई तथा चच का सद य होने क आ धकािरक परी ा मान लया गया है (हालाँ क बहुत से तथाक थत ईसाई इस के येक श द पर अ रश: व ास नहीं करते है)ं । इस कार यीशु क असाधारण य गत जीवनी को, जो क सभी धा मक पर पराओं मे ं अ य त रे णादायक और श ा द मानी जायेगी, ईसाई मत मे ं ई र ारा सृ के सं चालन मे ं अ तीय एवं सावभौ मक साधन मान लया गया है।60 यीशु के जीवन इ तहास के च द मुख ब दुओ ं एवं उनके मह व पर आपसी मा यताओं का अ तर ही ईसाइयत मे ं मुख झगड़ों क वजह तथा कई कार के चच मे ं आपसी ववाद एवं वभाजन क जड़ है।61 अ धकां श इ ाहमी स दायों मे ं ववाद एवं सं घष का मुख आधार यही है क वा तव मे ं ई र ने या कहा, ई र ने कैसे कहा और वा तव मे ं उस स देश का अथ या है। उदाहरण के लए मुसलमान यीशु को एक महान पैग़ बर तो वीकार करते हैं ले कन उसे ई र का पु नहीं मानते। यह एक मह वपू ण बात है यों क इ लाम, जो क यह ज़ोर दे कर कहता है क ई र के कोई बेटे या बे टयाँ नहीं है,ं हर उस स भावना को नकारता है जसमे ं ई र के साथ स पू ण पहचान था पत हो सके। इसके अ तिर य द उ होंने यीशु को परमे र के पु के प मे ं वीकार कर लया तो फर पैग़ बर मोह मद को दये गये रह यो घाटन के दावों को ‘ई र के एकमा पु ’ ारा दये गये आदेशों के ऊपर था पत करना क ठन हो जायेगा। कोई एक नबी दू सरे नबी को अ ध मण कर सकता है पर तु कोई नबी ‘भगवान क एकमा स तान’ से बड़ा तो नहीं हो सकता। पर तु ईसाइयों को यीशु क ‘एकमा पु ’ के दज से ‘केवल नबी’ जैसी पदावन त मं जूर नहीं है, यों क एक तो इसका अथ यह होगा क उ होंने नाइसीन मत क मु य आ ा का उ ं घन कया है और दू सरी ओर इसका अथ यह भी होगा क ईसाइयत को, जसमे ं ई र के नवीनतम आदेशों को आर भ कया गया है, बाद मे ं अवतिरत हुए इ लाम के एक पैग़ बर ारा अ ध मत कर दया गया। इस लए ईसाइयों ारा कुरान को ई र के आदेश के प मे ं वीकार नहीं कया जाता। अत: आपसी सा दा यक बहस मे ं दोनों प एक-दू सरे को सू म या याओं के साथ केवल सहन करते हैं जससे दोनों ही प अपने मत को ‘अ तम धमस देश’ होने के दावे क मता के साथ अ धकृत कर सकें। ो ों

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दोनों प ों ारा अ तीय सच का दावा करने क वजह से इस तरह का सं घष उभर रहा है। आज नहीं तो कल, आचार सं हताओं, ई रीय आदेशों, ‘दस आ ाओं’ ं े (Ten Commandments) के सावभौ मक एवं प व होने स ब धी दावे भी होने लगेग और वे मनु य के नै तक उ थान एवं आपसी स भभाव के दशा- नदशों क बजाय ं ।े अपिरवतनशील नयम बना दये जायेग रह यवाद अथवा अ प इ तहास-के क ईसाइयत के पहलू सनातन धा मक पर पराओं के आ या मक अनुभव के समान होते हुए भी पृथकता से पहचाने जा सकते है।ं धा मक पर पराओं मे ं आ या मक अनुभव वशेष तकनीक मे ं पारं गत गु ओं क व श पर परा से पो षत कये जाते है।ं ान एवं अ धकार का सं चरण केवल औपचािरक प से यो य उ मीदवारों ारा कया जाता है। ईसाई रह यवाद क वृ एक अलग-थलग, वत: फूत एवं वभ घटनाओं क तरह रही है जो क सा दा यक हठध मता एवं ऐ तहा सक यीशु के साथ स ब धों क य वादी या या से जुड़ी है।62 बना कसी मा य पर परा के इस नव-जागृत रह यवादी क र ा न होने के साथ-साथ ऐसे लोगों पर अ धकारहीन और अवैध बताये जाने का ख़तरा तो रहता ही है, ब क इस कार क व च मनोवै ा नक थ तयों के दशनों क वजह से उ हे ं पागलख़ानों भी डाला जा सकता है। जब क भारतीय स दभ के व श पिरदृ य मे ं समक स पु षों ारा उस व फूत रह यवादी के पास जाकर, उसका नरी ण करके, उससे पू छताछ करके, उसक परी ा ले कर और यहाँ तक क उसे श त कर उसक ामा णकता क पु क जाती है। यों क यहू दी-ईसाई मत मे ं रह यवाद का अ यास ाय: चच के भु व को चुनौती देने के प मे ं होता है, इस लए इसका थान चच के अनुमो दत स ा तों के बाहर है। कठोर प तयों के अ यास के अभाव और छटपुट तौर पर गु थानों मे ं होने के कारण इसमे ं सही तकृ तयों, द तावेजों एवं पर पराओं क कमी है। ईसाइयत क मु य धारा का उपदेश है क य को यीशु क तरह बनने क इ छा तो रखनी चा हए, पर तु वा तव मे ं वह कभी भी यीशु के तर क चेतना ा नहीं कर सकता। स तों एवं रह यवा दयों के य गत अनुभव सं थानों के बाहरी भु व को चुनौती पेश करते हैं जैसा क जोन ऑफ़ आक (Joan of Arc) के मामले मे ं हुआ था, जसक द य वा णयों के कारण वयं उसी को वधम के प मे ं खू टँ ी पर जलाया गया था (बाद मे ं कैथो लक चच ने अपने कृ य का ख डन कया और उसे एक स त घो षत कया)। इसी कार ईसाई स दाय मे ं मी टर एकहाट (Meister Eckhart) को परमा मा के साथ एकाकार होने क स भावना का सा ी होने मा से बड़े पैमाने पर सताया गया।63 जीव त आ या मक स पु ष सं थागत श को नरथक करार कर देते है।ं या याओं एवं साधना के मामलों मे ं उ हे ं सं थागत भु व को अनदेखा करने के लए जनमानस का पया व ास ा रहता है, यहाँ तक क वे सं थाओं को अवैध भी स कर सकते है।ं ों े ं



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कुछ मामलों मे ं प मी रह यवा दयों ने सीधे ग़ैर-प मी गु ओं एवं आ या मक ोतों से श ा ली है, जससे यह समझा गया क यह रह यवाद पा ा य स दायों क प व ता मे ं मलावट उ प करके उसे कर देगा।64 भारत क तुलना मे ं प मी धम नरपे समाज मे ं रह यवाद को कम स मान मला है। वहाँ ाय: इसे अता कक या बाल-सुलभ मान सक थ त क तरह देखा जाता है जो क म त ं श कराने तथा आ या मक अनुभवों को गलत अथ दान करने वाले स ा त के प मे ं देखा जाता है। इन सभी कारणों क वजह से प म मे ं रह यवा दयों को न केवल नकारा गया है ब क सा दा यक भु ववा दयों ने उ हे ं सताया भी है। आज भी जो साधक रह यमयी अथवा असाधारण अनुभव कट करते हैं उ हे ं ाय: कलं कत करके पागलख़ानों मे ं ब द कर दया जाता है, उनक न दा क जाती है और उ हे ं दु आ माओं से अ भश समझा जाता है। कैथो लक मत मे ं कसी आ या मक गु को उसक मृ यु के कुछ न त वष के प ात ही स त क मा यता दान क जाती है ता क कहीं कसी ‘जी वत आ या मक स त’ से चच के सं थागत अ धकार ख़तरे मे ं न पड़ जाये।ं इस औपचािरक या ( जसे ‘प व स त घो षत करना’ भी कहते है)ं के ारा मृत आ या मक य क वरासत, जैसे उसके उपदेश, श ाएँ, उदाहरण इ या द चच क स प हो जाती हैं जो क उस स त क श ाओं क या या और इ तहास पर नय ण रखती है। इस यव था से जो ई र से सीधा स पक करने का अ यास करते हैं व ऐसा करने का प धरते है,ं चच को उनक ा तकारी श ाओं से कोई ख़तरा नहीं रहता।

यहूदी-ईसाई पर पराओं मे ं सं चरण

सभी इ ाहमी मतों मे ं सवा धक ामा णक पैग़ बरों क सू ची उनके धा मक नयमों के लेखन क तरह ही अब अव हो चुक है। अब कोई भी नई भ व यवाणी अथवा लेखन पछले व प को हटा कर उसक जगह नहीं ले सकती यों क इन मतों के अनुसार पैग़ बरों ारा ‘अ तम स य’ कहा जा चुका है, चाहे फर वह नये नयम ( यू ं ) हों, पुराने नयम (ओ ड टे टामेट ं ) हों अथवा कुरान हो। हालाँ क नये टे टामेट भ व यव ा अथवा नबी उभर सकते हैं पर तु वे पर परागत मत के स ा तों को न तो बदल सकते हैं और न ही उ हे ं सं शो धत कर सकते है।ं अब कसी भी पैग़ बर के श दों का तर एवं असर अथवा भु व बाइबल एवं कुरान जैसा नहीं हो सकता। इ तहास के समू चे दौर मे ं ईसाई रह यवा दयों ने उ थ त ा क (हालाँ क अ या शत प से), पर तु उ होंने इन थ तयों को ई र क कृपा माना यों क ये थ तयाँ योग के कसी औपचािरक अ यास से उ प नहीं हुई थीं और न ही वै ा नक आधार पर इनक चचा और इन पर तक- वतक के लए कोई सं रचना मक ँ







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ढाँचा ही उपल ध था। मा टन लू थर कंग (Martin Luther King) ने, ज होंने ं सुधारवादी काय म चलाया, इसक आलोचना ‘गैर-ईसाई’ कह कर क । ोटे टेट रह यवादी दावों को अ वीकृ त के साथ-साथ द ड के लायक भी समझा जाता था। बाद मे ं उ र-कै टयन (post-Kantian)बौ क सं कृ त ने रह यवाद को प प से यह कह कर पिरभा षत कया क यों क यह तक- वरोधी है इस लए इसे शै णक सं थाओं मे ं वीकार नहीं कया जा सकता। रह यवाद एवं ता ककता मे ं यह ढ़वादी आपसी वरोधाभास आज भी बल है। दुभा य से रह यवाद एवं वानुभूत अनुभवों के त इस कार क तकूलता के कारण प म मे ं आ तिरक व ान का कोई ‘स दाय’ (पर पराएँ या वं शाव लयाँ) नहीं है।ं न त प से वहाँ कसी कार क खर प तयाँ, तकृ त, लेखन, वं शाव लयाँ अथवा गु था पत नहीं हैं जैसे हम सनातन धम मे ं देखते है।ं आ तिरक व ान को चच ारा मु यधारा के अनुमो दत स ा तों मे ं स म लत न करने के कारण भू मगत होना पड़ा है जसके कारण यह व ान यव थत होने क अपे ा छटपुट एवं बखरा हुआ है। दुख क बात यह है क भारतीय धा मक पर पराओं क ं ’ जैसी कोई तरह प म मे ं खर एवं अनुशा सत व धयों पर आधािरत ‘यह कैसे करे? नयम या व ध है ही नहीं। यहाँ तक क यीशु-भ स ब धी उनक महान अ यास पु तकाओं जैसे थॉमस के पी (Thomas Kempi) क ‘यीशु का अनुकरण’ (Limitation of the Christ)एवं ां सस द से स (Francis de Sales) का लेखन इ या द इतने तर कृत हैं क उनके बारे मे ं बहुत कम ईसाइयों को जानकारी है। भारतीय धा मक पर पराओं मे ं बु एवं आ या मक स ों क उप थ त एवं नर तर बढ़ोतरी से इसमे ं सं थागत हठध मता एवं जड़ता आने क स भावना कम है, इसी लए इसे नय त अथवा ब धक बनाना भी क ठन है। कुछ े ों मे ं एक धारणा है क ईसाई मत मे ं भी अपनी वयं क योग एवं आ या म व ा है जो सनातन धा मक पर पराओं के समान ही है। यह दावा ाय: यहू दी-ईसाई अथवा प मी धम नरपे ढाँचे मे ं भारतीय आ या म- व ा को परो कर पचाने के उ े य से कया जाता है। इसी को आधार बना कर प मी इ तहास के अ प , अलग-थलग एवं अस ब उदाहरणों को भी बढ़ा-चढ़ा कर पेश कया जाता है। भू ली- बसरी ाचीन प मी ह तयों को पुनज वत करके उ हे ं पथ- दशकों क भू मका मे ं ढाला जाता है ता क वे भारतीय स ों का थान ले सकें एवं नये प मी वचारक सभी भारतीय खोजों पर उनके ारा क गई मू ल खोज के प मे ं दावा कर सकें, जब क उ होंने सदा से ही वह सब कुछ भारतीय ोतों से ही उधार लया होता है।65 प म मे ं व लयम जे स को मानव-मन के सु नयो जत आ तिरक अ वेषण के े मे ं अ णी माना जाता है, पर तु उनके सभी स ा तों पर ह दू एवं बौ वचारों का गहरा भाव था।66 यह (प मी मृ तयों से मटा दये जाने से पहले) सव व दत है क े े े ी े े ें औ

ं और उनक व लयम जे स ने न केवल वामी ववेकान द (1863-1902) से भेट शं सा क थी ब क वह ीलं का के यात बौ व ान अं गािरका धमपाल (18641933) के सं र ण मे ं भी आये थे जो क उनके कायकाल के दौरान हारवड मे ं एक अ त थ थे।67 इसके अ तिर व लयम जे स वेदा त के खर अ येता जो सयाह रॉयस Josiah Royce(1855-1916) तथा हारवड के सं कृत व ान चा ्स लैनमेन Charles Lanman (1819-1895) के नकट के सहयोगी भी थे। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जनमे ं अ णी प मी दाश नक व भ भारतीय धा मक वचारकों जैसे नागाजुन, शं कर, पा णनी एवं पतं ज ल (यह केवल कुछ उदाहरण है)ं से अ य धक भा वत थे। 68 अथात् मुख बात यह है क प मी सं कृ त पर भारतीय धा मक दशन का गहरा भाव रहा है, पर तु इसे लगातार अ वीकृत कया जाता रहा है। हालाँ क सामा यत: भारत से बौ क उधार लेने के बावजू द भी प म के रह यवाद मे ं खर प तयों, तकृ तयों, लेखन व धयों, याशील योगशालाओं एवं जा तयों क कमी है ज हे ं हम भारतीय धम-पर परा मे ं सहज देखते हैं यों क साधारणतया क तु आ यजनक कारणों से प म ने, ख़ासकर ईसाइयत ने, न केवल अपने रह यवा दयों को कनारे कर दया ब क उ हे ं वधम या ना तक कह कर मार भी डाला। जैसा क हमने देखा, योग याओं के साधन से आ म ान ा करने को चच ने वयं पर एक ख़तरे के प मे ं देखा और इससे भी बुरी बात यह है क इसको न दा, ब ह कार और यहाँ तक क मृ युद ड लायक द डनीय अपराध तक बना दया गया।

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यहू दी-ईसाई तथा सनातन धा मक पर पराओं के बीच मतभेदों को देखते हुए इसमे ं कोई आ य क बात नहीं है क कई भारतीय धा मक वचारों एवं थाओं के त ग भीर वरोध तो है ही, इन पर पराओं के मह व को कमतर आँकने क वृ भी है और ऐसा तब है जब क भारतीय धा मक वचारों एवं ा ड व ान का प मी दशन पर उ ख े नीय भाव है, वशेषकर योग क यापक लोक यता तो है ही।69 वा तव मे ं कई यहू दी एवं ईसाई नेताओं के बीच ‘योग’ एक यापक और ग भीर ववादों का के ब दु बना हुआ है। यहाँ तक क आज वे अपने आ या मक साधकों को इन पर पराओं के बारे मे ं ‘एक वदेशी’ था और नकली देवताओं क पू जा कह कर उससे छु ड़ाने का यास कर रहे है।ं इस तनाव का असली कारण यहू दी एवं ईसाई मतों मे ं मू तपू जा एवं मानव शरीर को न ष मानने क य ता से है। जैसा क हमने देखा है, मानवता के पतन और उनके ईडन गाडन से न कासन मे ं आदम और ह वा ारा व जत फल न खाने क आ ा का उ ं घन ही मुख कारण रहा। ईसाई स ा त के अनुसार आदम और ह वा ारा कया गया मू ल पाप बाद मे ं सभी मनु यों मे सं चिरत हो गया। इस लए मनु य के मू ल लोभन अथात् यौन- या ो











को चच ारा अनुमो दत र म से बाहर का एक पापकम माना गया है। यीशु के ‘ न कलं क गभाधान’ को मह वपू ण मानते हुए उ हे ं सम त मनु य जा त के मू ल पाप से मु माना गया है। रोमन कैथो लकों तथा पू व ढ़वादी ईसाइयों के लए व जन मैरी भी पाप के कलं क से मु है। एक कुँआरी ारा यीशु को ज म देने क घटना, जसके मू ल मे ं ईडन के बगीचे क इस कथा का आधार है, ईसाइयों ारा कया जाने वाला एक अ नवाय दावा है। प म के समू चे इ तहास के दौरान मानव शरीर को अपराध एवं शम के प मे ं देखा गया है जसे दू र करने के लए म ययुग के वै ा नक तकवाद ने कुछ वशेष नहीं कया। हालाँ क यहू दी प थ मे ं ईसाइयों के समान शारीिरक पापों को ले कर जुनून नहीं है, पर तु फर भी वहाँ मानव ारा स हत- वानुभूत ान को खोजने क बजाय ई र क आ ाओं का पालन करने पर ज़ोर रहता है।70 बाइबल मे ं यीशु का चारक पॉल (Paul) शरीर/आ मा के पर अपने मन क खलबली को असं गत ठहराते हुए कहता है— ‘‘अपनी अ तरा मा मे ं मैं ई र के नयमों से स हू ,ँ पर तु मैं देख रहा हू ँ क मेरे शरीर के अ य अवयवों पर कोई और कानू न काय करना चाहता है और वह मेरे म त क के नयम के साथ यु लड़ता है जो मुझे पाप के उस नयम का कैदी बनाता है जो मेरे अं गों पर काम करता है मैं कैसा न दनीय मनु य हू !ँ अब मुझे इस मौत के शरीर से कौन मु दलायेगा?’’ (रोमन 7:22-24) इस पाप का सबसे चरम प है अपने वयं के भीतर उप थत परमा मा को खोजने एवं उससे वातालाप करने के यास क स भावना पर वचार करना। इन प मी स ा तों मे ं इसी कार एक और न ष नयम है ‘मू तपू जन’ अथात् झू ठे देवताओं क पू जा करना। बाइबल के पुराने वधान (ओ ड टे टामे ट) के अनुसार मोज़ेस (Moses) ने सभी उ क ण छ वयों (मू तयों) पर तब ध लगा दया था जससे उनका सकारा मक, नकारा मक अथवा जादुई श यों जैसा भाव मन पर न पड़ सके। यह तब ध इ लाम मे ं और भी मह वपू ण है तथा उ क ण छ वयों (मू तयों) के व मु यत: यहू दी एवं ोटे टे ट अ धक मुखर हैं जब क इनक तुलना मे ं कैथो लक ईसाइयों और पू व ढ़वादी चच के अनुयायी ल बे समय से प व पिरवार एवं स तों क छ वयों का आदर करने के आदी रहे है।ं भारतीय धा मक पर पराओं के त व भ कारणों से प म मे ं ा त है, जसमे ं से एक यह है क प मी व ानों ने भारतीय धा मक छ वयों एवं देवताओं को म यपू व एवं यू रोप क ईसा-पू व क मू तपू जा क था से जोड़ कर देखा है। ले कन यह नखा लस मू तपू जन भारतीय धा मक भ -पर परा से ब कुल भ है।71 बहरहाल स दयों तक भारतीय धा मक पर पराओं के त इस ा त को चालाक से उपयोग करके भय फैलाने तथा धम को एक शैतान के प मे ं च त करने मे ं कया गया। ें ो

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प म मे ं योग साधकों के सामने मू तपू जा के त फैला यह स देह ही सबसे बड़ी बाधाओं मे ं से एक है। शरीर क योग के ारा मू तपू जा के प मे ं नकारा मकता से स ब होने के कारण ‘यहू दी योग’ तथा ‘ईसाई योग’ जैसे व च वणसं कर वचार उ प हुए है।ं योग के इन नकली सं करणों का दावा है क उ होंने भारतीय योग को व छ करके उसे मू तपू जा के ख़तरों से मु कया है। (इस स ब ध मे ं हाल ही मे ं 2008 मे ं एक ह दू -यहू दी शखर स मेलन मे ं एक ऐ तहा सक सं क प पािरत कया गया जसमे ं यहू दयों ारा ह दुओ ं क मू त पू जा क न दा करने को कम-से-कम आ धकािरक प से तो नकार दया गया है)।72 समावे शत नषेधों और सामा जक पू वा हों को जब अँधरे े कोनों मे ं सड़ने के लए छोड़ दया जाता है तो अ या शत तरीके से वे पुन: समाज क सतह पर लौट आते है।ं मू तपू जा एवं ह दू धम के त प मी य के मन के अ य सां कृ तक भय, कामुकता एवं भारतीय धा मक पर पराओं क गलत छ व उस य ारा इन पर पराओं क या या करने तथा योग के त उसक भ - भ त याओं को बनाने मे ं एक छलनी का काम करते है।ं हालाँ क कई प मी साधक योग के व भ आसनों के त आक षत है,ं ले कन उनमे ं से कुछ तो ाणायाम ( ास-उ छवास का अ यास) के बारे मे ं ऐसा वचार भी रखते हैं क इस या मे ं मानव चेतना मे ं ह त प े कया जाता है जो भगवान का े है। ईसाइयों ारा योग क आ म-के त शा त को एक बा ई र के समपण का वरोधी माना जाता है तथा मानव शरीर मे ं योग के जुड़ाव से उ प होने वाली ं े लकल वग प व ता को ख़रतनाक माना जाता है। अ य धक ढ़वादी और एवेज को यह डर है क योग के ारा पारलौ कक दु श याँ शैतान के प मे ं मनु य के मन मे ं वेश करके उसे भा वत कर सकती है।ं समू चे ईसाई इ तहास मे ं हमने देखा है क उनके रह यवा दयों को इसी डर क वजह से सताया गया था। कुछ अ य ईसाई वचारकों ने ‘ॐ’ के जाप को सीमारेखा से बाहर रखा है। म ो ार मनु य क मौ लक ऊजा तथा आवृ यों क एक सकारा मक णाली है, पर तु यह बाइबल के मू ल मतशा ों के साथ असं गत मानी गई है। इसके उ ारण को मू तपू जकों के इस ख़तरे के प मे ं क ‘भगवान ने ा ड को शू य से उ प कया’ क धारणा कहीं गलत न स हो जाये, के साथ देखा जाता है। इसके अ तिर अ धकां श ईसाई स ा तों के अनुसार परमे र सव यापी नहीं है, अथात् ा ड के प मे ं कट नहीं हुए हैं ब क वह उससे बाहर है।ं इस लए यह वचार क म ों के उ ारण से य के शरीर मे ं द यता उ प होती है, उसको स देह क दृ से अप व करने वाला माना जाता है। जहाँ एक ओर योग सीखने वाले कई प मी छा ॐ का उ ारण करते है,ं वहीं कुछ ऐसे भी हैं जो ऐसा करने से इं कार कर देते है।ं व श अमरीक योग श क ाय: कहते हैं क ‘‘ॐ के उ ारण मे ं मेरा साथ देना अथवा उ ारण नहीं करके चुप ैं े ैं ें े े ो ै े

रहना चाहते हैं इसमे ं आप वत है,ं ’’ अथात् वे ॐ के उ ारण को वैक पक रखते है।ं कई योग साधक जो इस म का अनुपालन करते हैं वे यह मान कर चलते हैं क यह उ ारण केवल मन को शा त रखने एवं यान के त करने के साधन के प मे ं ही उपयोगी है। अ धकां श योग श क अपनी क ाओं मे ं ाणायाम और जाप को समा व करते हैं एवं इसे वा य से स ब धत आधु नक योग के प मे ं के त रखते है,ं पर तु उनका यह दृ कोण केवल वा य आधािरत होता है यों क उनका यह वचार योग क मू ल अवधारणा एवं धा मक पर पराओं क जड़ों क उथली समझ पर आधािरत है। यहाँ तक क जो छा ॐ का जाप अपने यवहार मे ं वीकार करते हैं वे अ य व तृत म ों का, जो क ाथना सदृश दखाई देते है,ं वरोध करते है।ं यों क इन ाथना पी म ों को बाइबल या टोराह ारा मं जूरी नहीं मली है, इस लए उनक सोच के अनुसार ये ाथनाएँ स े भगवान (अथात यीशु) के लए नहीं हो सकतीं, इस लए न त प से यह ‘झू ठे भगवान’ के लए ही है।ं यह उन बाइबल आ ाओं (कमा डमे स) का उ ं घन है जसके अनुसार अ य देवताओं क पू जा क मनाही है। प मी वचारक म को एक झू ठ ाथना, अप व करने वाला एवं ख़तरनाक मानते हैं और एक तरह का ‘ ोजन हॉस’ (Trojan Horse) मानते हैं जो चुपके से उनके अ तमन मे ं मू तपू जा का मोह या शैतान उ प कर सकता है। प म के लए इससे भी अ धक सम या उ प करता है ‘भ योग,’ अथात् आ या म व ाओं मे ं उपल ध ऐसी धा मक था जसके अनुसार मौ खक उ ारणों या कसी आकृ त को दृ गोचर करते हुए साधक कसी व श देवता को स बो धत करते है।ं अत: यादातर अमरीक योग क ाओं मे ं इस व श भ प त को सामा यत: नकाल दया जाता है। प मी योग श क को भले ही य गत प से भ योग के सकारा मक अनुभव हुए हों, पर तु उसे इस कार के कट ह दू एवं बौ स ा तों का अपने श यों मे ं नदशन करने मे ं क ठनाई अनुभव होती है। इस त य से और भी ग तरोध उ प होता है जसके अनुसार ईसाइयत ने मानव शरीर पर व भ कार क वजनाएँ थोप रखी है,ं वशेषकर म हलाओं के शरीर पर। सनातन धा मक पर परा के अनुसार योग क शा त एवं थरता मनु य के मन-बु एवं शरीर को पर पर अ य धक नकट लाती है जसे ईसाइयत मे ं कामुक अथवा पाप माना गया है। म ययुग के आ या मक परी ण के दौरान जन यू रोपीय म हलाओं ने शारीिरक वधाओं का अ यास कया उ हे ं ‘चुड़ैल’ एवं ‘डायन’ कह कर मार दया गया। कैथो लक चच ने मानव जा त को इस ख़तरे से बचाने का बीड़ा उठाया है ं े लकल समू ह) ने भी तथा इस काम को करने का बीड़ा ोटे टे टों ( वशेषकर एवेज अपने ऊपर अ छ तरह से लया है।73 बाइबल मे ं ी-पु ष स ब धी धारणाएँ भारतीय धा मक पर पराओं से सवथा ं जैसे बाइबल के अनुसार ईव (ह वा) का ज म आदम क एक पसली से भ है— ं ं ें े

हुआ था एवं यह उस समय हुआ जब आदम वयं अ त व मे ं था, अथात् बाइबल के इस स ा त के अनुसार ‘‘नारी का ज म पु ष से हुआ।’’ जब क ‘जेने सस 1’ क कहानी मे ं उ हे ं समान प से च त कया गया है। सं कृत के ाचीनतम आ यानों के अनुसार सव थम मानव जोड़ी थी ‘यम’ और ‘यमी’ जो क जुड़वाँ ब ों के प मे ं उ प हुए। ‘यमी’ (नारी) क अपनी वयं क श शाली पहचान थी जो क ‘यम’ (नर) के अधीन नहीं है। इसी कार शव (नर) एवं श (नारी) को सह-अ त व के ँ े हुए हैं क एक-दू सरे से स ा त पर नभर माना गया है जो क आपस मे ं ऐसे गुथ अलग नहीं कये जा सकते। वा तव मे ं समू चे ा ड क क पना भारतीय धा मक पर परा के अनुसार ‘श ’ अथवा नारी ऊजा के समक क गई है।74 सनातन धा मक सं कृ त मे ं व णत सौंदयशा ों के अनुसार कसी लड़के अथवा पु ष को उसके पु ष व को न न तर का आँके बना उसे ‘सु दर’ क सं ा दी जा सकती है। पर परागत प से अमरीक पु षों के वपरीत भारत मे ं पु ष ग़ैरआ ामक अथवा सौ य छ व मे ं च त कये जाने पर असहज महसू स नहीं करते।75 अ धकां श ग़ैर-प मी देशों के नवासी ‘समलैं गकता’ को एक अलग वग मे ं भी नहीं रखते। धा मक पर पराओं मे ं समलैं गकता न ष नहीं है और भारत मे ं जहाँ पु ष अभी पा ा य सं कृ त मे ं नहीं रचे-बसे हैं वहाँ उ हे ं आमतौर पर एक-दू सरे का हाथ पकड़ कर अथवा गले मल कर ह े द शत करने मे ं कसी कार का सं कोच 76 अथवा भय महसू स नहीं होता।

वरोधाभासों को सारां श

प मे ं

तुत करने क ता लका

तुत न न ता लका भारतीय धा मक पर पराओं एवं प मी सं कृ त के बीच अ तर को प करती है। भारतीय धा मक पर पराए ँ यहूदी-ईसाई एवं प मी सं कृ तया ँ इ तहास-मु ान का मतानुसार ऊ व गमन...

मनु य



ुत क ऋष वण/दशन एवं पर परा ( जसमे ं शा त् स य हमेशा सभी के उपयोग एवं अनुस धान के लए उपल ध), बौ नवाण एवं जैन धम के उदाहरण... इ या द आ या म व ा (आ तिरक व ान) को येक पीढ़ी/सं कृ त के ारा अनुभव से पुन: परी ण, तरीकों क बहुतायत एवं आपसी वाद- ववाद ँ

ई र- द ओर...

इ तहास ऊपर से नीचे क

भगवान ारा पैग़ बरों/पु को मनु य और परमा मा के बीच क अन त खाई पाटने के लए सं सार मे ं वशेष थान पर भेजना... ामा णकता था पत करने के लए ‘चम कार’ क आव यकता... ी



ारा पुन: जाँच कर समयानुकूल सुधार करना...

अ तीय क म क ऐ तहा सक घटनाओं का उ ख े जनक पुनरावृ त एवं कोई सं शोधन स भव नहीं... स तों ारा घो षत कहा नयों को स ा त के प मे ं वीकार करने पर ज़ोर...

वशेषा धकार यु स हत- वानुभूत ान

थत

एवं

जी वत स स तों ारा आव यकता होने पर सं थानों के तकूल यव था देना ु त/ मृ त मे ं अ तर, येक समय एवं स दभ के लए स ों क पर पराओं ारा पुन या या, पुन: अनुस धान क या सतत् जारी... अनुभववाद, स देह नराकरण, तकवतक, खुलापन... आ या म- व ा धम क स मता... व वधता एवं स दभ के सं वद े नशीलता अ त न मत है मु

मुख

वत मत को एक ख़तरा समझना, रह यवा दयों को सताना, केवल मृत य ही स त बन सकते है,ं इस लए आ या म- व ा के व तार एवं सुधार मे ं कोई नर तरता नहीं।

मुख मता है ‘अन य’ इ तहास के दावे... अ य धम क वैधता क बजाय वयं क आ ममु ध परम- े ता के अनुसार स ह णुता पर बल दया जाता है

त इ तहास क अपिरवतनीय महान गाथाए ँ

आ या मक पािर थ तक त उ मशीलता क भावना आर भ करने हेत ु गु ओं का साथ... नर तरता के साथ बदलाव ी

वशेषा धकृत थ त, पर तु स तों ारा स ा तों का सं थागत सं र ण एवं सं वधन



बना कसी नये ार भ के डा वनवादी स ा तों क तयो गता एवं एका धकारवादी अ तम ल य का नमाण ी





कसी कार का एका धकारवादी ल य नहीं, हं सक व तार का भी कोई इ तहास नहीं...

क- क कर ग तशीलता, अतीत के इ तहास एवं सं कृ तयों को समा करने क भावना...

पर परा के ल ण, आधु नकता एवं उ र-आधु नकवाद के बीच आपस मे ं सम वय एवं सह-अ त व...

हं सक व तार को ई र क म हमा क सं ा दान करना, उ रआधु नकतावाद ारा कमजोर...

 

अ याय 3 कृ म एकता एवं सम एकता

सनातन धा मक पर पराओं मे ं सभी भौ तक एवं ग़ैर-भौ तक वा त वकताएँ परमा मा से अ भ ता क त वमीमां सा से ओत- ोत है,ं जसक या या अब हम ‘अ भ ं ।े के ीय प से इस त य पर वचार होगा क यों और कैसे एकता’ के प मे ं करेग इस अ भ एकता से कई कार क व भ इकाईयाँ उपजती है।ं स ा तों एवं अमल मे ं कई मह वपू ण मतभेदों के बावजू द सभी भारतीय धा मक स दायों मे ं इस अ भ एकता पर सहज व ास है तथा वे इसे मू त प मे ं ा करने हेत ु व तृत स ा तों व याओं के पालन क यव था करते है।ं प मी धम इसके उलट दृ कोण रखते है,ं जसके आ तिरक मतभेदों के अनुसार मनु य पापी होने के कारण एक दू सरे से तथा ई र से अलग है और स पू ण ा ड अणुओ ं एवं कणों का एक ढे र है इ या द। इसके अ तिर पैग़ बरों के ऐ तहा सक रह यो घाटनों पर नभरता के कारण मनु य अपने अतीत मे ं वचरता रहता है, जब क मु के दावों के आकषण के चलते वह भ व य के सपने देखता रहता है और इस कारण वह वतमान मे ं गहरे असमं जस मे ं रहता है। एकता को ा करने के लए इस कार का जो वै क दृ कोण है वह अ थायी, कमज़ोर एवं कृ म एकता ही देता है। इसके अ तिर ऐसी एकता को ाय: श - दशन एवं वच व के दबाव से ा कया जाता है। मैं इसका उ ख े कृ म या बनावटी एकता के प मे ं करता हू ।ँ प मी समाज क सां कृ तक स प , जो क हं सा एवं धोखे के ारा ा क गई है, को कृ म प से जोड़ा गया है यों क वह वयं के सां कृ तक पिरवेश से न तो उ प हुई है और न ही यव थत प से एक कृत ही क गई है। धा मक पर पराएँ सभी भौ तक एवं ग़ैर-भौ तक वा त वकताओं क परमा मा से अ भ ता क त वमीमां सा से ओत- ोत हैं जसक या या अब हम ‘सम एकता’ के ं ।े उनक मुख दलच पी इस त य पर है क यों और कैसे इस एकता प मे ं करेग से व भ इकाईयाँ उभरती है।ं स ा तों एवं अमल मे ं कई मह वपू ण मतभेदों के बावजू द सभी धा मक पर पराएँ इस ज मजात एकता मे ं व ास करती है,ं तथा इस एकता को मू त प मे ं ा करने हेत ु व तृत स ा त व याएँ ता वत करती है।ं यह दृ कोण प मी मतों के वपरीत है जो व भ वषय, जीवन एवं परमा मा के बीच अलगाव क धारणा से आर भ होते है।ं यहू दी-ईसाई मतों मे ं आ या मक ल य उस कृ म एकता क थ त को ा करना है जो पहले से ही अ त व मे ं नहीं है। इन धम के आ तिरक मतभेदों के अनुसार मनु य पापी होने के कारण एक दू सरे से एवं ई र से अलग है और स पू ण ा ड अणुओ ं एवं कणों का एक ढे र है। इसके अ तिर इ तहास एवं पैग़ बरों के रह यो घाटनों पर अ य धक नभरता के कारण मनु य अपने अतीत मे ं वचरता रहता है, जब क मु के दावों के आकषण के चलते े

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वह भ व य के सपने देखता रहता है और इस कारण वतमान मे ं वह गहरे असमं जस मे ं फँ सा रहता है। इस कार के वै क दृ कोण से एकता तो ा क जा सकती है, पर तु यह एकता अ थायी, कमज़ोर एवं कृ म कार क होती है। इसके अ तिर ऐसी एकता को ाय: श दशन एवं वच व के दबाव से ा कया जाता है। मैं इसका उ ख े कृ म या बनावटी एकता के प मे ं करता हू ।ँ मानवा धकार, नै तकता और कानू न के े मे ं प मी वचार ाय: इकाइयों मे ं अलगाव और उनके पृथक अ त व को वा त वक मानते हैं जसके अनुसार एकता एवं था य व को एक तरह से (य द आव यक हो तो बलपू वक भी) ऊपर से रो पत एवं लागू कया गया है। भारतीय धा मक पर परा के दाश नक तक देते हैं क जन यव थाओं मे ं न हत पू णता क ही कमी है तो उनके एक करण के यास भी अव य ही अपू ण, असं गत एवं वघटनकारी होंग।े सम एकता एवं कृ म एकता के बीच आपसी अ तर का गहरा स ब ध इ तहास-के कता एवं आ या म व ा के बीच के अ तर से ही है। इ ाहमी पर पराओं मे ं ऐ तहा सक रह यो घाटनों तथा नबी एवं पैग़ बरों क भ व यवा णयों पर ज़ोर देने के कारण ही उनक स यताएँ आज भी एक-दू सरे से और वै ा नक तक के साथ गहन टकराव क थ त मे ं रहती है।ं इसके अ तिर प मी बोध अपनी छोटे-छोटे टुकड़ों मे ं बँटी ख डत कृ त तथा एकतरफ़ा तक क वजह से आव यक अ तरों को मटा कर समानता बनाने मे ं ही लगा रहता है। अ बट आइं टाइन (Albert Einstein) एवं रवी नाथ टैगोर के बीच 14 जुलाई 1930 को हुए एक वातालाप मे ं अ भ एकता तथा कृ म एकता के बीच का अ तर एकदम प होता है। आइं टाइन का कहना था क ा ड का अ त व मनु य क चेतना से वत है, जब क टैगोर का तक था क मनु य एवं ा ड मे ं आपस मे ं पर पर नभरता है। समू चा ा ड हम से जुड़ा हुआ है, यह स पू ण व मानवीय है, इसका वै ा नक दृ कोण भी वै ा नक मनु य का ही है। इस व क स यता का आभास हमे ं तक एवं य आन द क अनुभू त के वीकृत मानक से होता है जो हमारे य गत अनुभवों के आधार पर शा त् मानव के अनुभवों से बना है। आइं टाइन इससे असहमत होते हुए खुल कर कहते हैं क ‘‘मैं यह सा बत तो नहीं कर सकता क मेरी सं क पना सही है, पर तु मेरा प थ यही कहता है...।’’1 टैगोर यह उजागर करना चाहते थे क ई रा ड एवं मानवता सभी अ त न हत एकता मे ं बँधे हुए हैं जनक अ वभा यता पर उ होंने बल दया, जब क आइं टाइन के वै क दृ कोण के अनुसार ा ड के इस ढाँचे के सभी आधारभू त त व अपने आप मे ं एक दू सरे से वत पृथक इकाइयाँ है।ं भारतीय सनातन धा मक पर परा क यह मौ लक गुणव ा सं कृत श द ‘पू ण’ से झलकती है, जसका धम मे ं गहरा अथ है। इस श द क या या ‘पू णता’ अथवा ‘अन त’ के प मे ं क गई है तथा भारतीय पर परा के बीसवीं सदी के महान ै ी े ो

वचारक ी अर व द ने इस श द को ‘अख ड’ कह कर अनुवा दत कया है। ‘पू ण तो ’ उप नषद के मुख म ों मे ं से एक है और कई अवसरों पर इस म का उ ारण करने क पर परा है। यह म कहता है— ‘‘पू णमद: पू ण मदं पू णा पुणमुद यते पू ण य पू णमादाय पू णमेवावा श यते’’2 इस छोटे से म मे ं ‘पू ण’ श द का उपयोग सात बार होता है। अथात् यह द य एवं उ कृ व ा ड पू ण है तथा यह सू म जगत भी पू ण है। ‘पू ण’ का ग णतीय अथ यह है क य द आप ‘पू ण’ मे ं से ‘पू ण’ को नकाल दे ं तब भी जो शेष बचेगा वह भी ‘पू ण’ ही होगा। इस म के जाप का उ े य उस साधक और ोता को धम क अ भ एकता का अनुभव कराना है। सू म हो या वराट हो, वे दू सरे मे ं अ त न हत हैं और पू ण भी हैं एवं य द आप पू ण से पू ण नकाल ले ं तब भी जो बाक रहता है वह भी अपने आप मे ं पू ण ही है। इसके वपरीत प मी वै ा नक पर परा अ भ एकता क पोषक होने के बजाय यू नतावादी (reductionist) है। यू नतावाद (reductionism) पू णता क या या उसके टुकड़ों क या या करके करता है। यवहार मे ं यू नतावादी स ा त बड़ी हद तक उपयोगी होता है और इस लए आधु नक व ान ने इस स ा त का उपयोग करके हमारे जीवन मे ं मह वपू ण योगदान दया है। सनातन धा मक पर पराओं मे ं एकता का अथ स पू ण चेतना क एकता के प मे ं लया जाता है और त व प चेतना का ही एक अ य प है। प मी वै ा नक एवं दाश नक ाय: यह न पू छते हैं क म त क के रसायनों से चेतना कैसे उ प हो सकती है।3 भारतीय पर परा मे ं हम इस सम या को वपरीत प से देखते है।ं हमारी पर परा यह मानती है क स पू ण चेतना ही इस सं सार के सम प का ोत है। हमारे सम चुनौती है क हम अपनी बहुलतावादी साधारण दु नया को इस एकता के पिर े य मे ं समझे।ं ी अर व द ने इस चुनौती को अ तमन क ज टलता क अवधारणा के प मे ं समझाया है (देखे ं अनुल नक—क)। उ होंने मनु य क सामा य थ त क तुलना उस ब े से क है जो अपनी पु तक पढ़ने मे ं इतना त ीन है क वह अपने आसपास क दु नया को भी भू ल जाता है। अपनी इस आ म-जागरण क या मे ं उसे दोहरी चेतनाओं को उजागर करना होता है ता क एक तो वह उस पु तक को पढ़ने का अनुभव ले सके तथा दू सरा उसमे ं व णत यापक अनुभव मे ं भी रम सके। ी अर व द ने अपने य गत आ या मक अनुभवों ारा एका म योग का वकास कया जो क व भ बौ क अटकलों के वपरीत था। इसका मुख उ े य पू ण चेतना का य अनुभव ा करना था। इस व श थ त को मह ष अर व द ने ‘परा-मान सक चेतना’ का नाम दया। पू ण चेतना का अनुभव केवल ल बी अव ध तक मन को एका करने तथा शरीर, भावनाओं, इ छाओं एवं मान सक याओं से ं





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वयं को पू री तरह अलग करने के प ात ही कया जा सकता है। वयं क व भ मान सक याओं को एक बाहरी य क तरह देखना होता है तथा मन के भीतर के अहं कारों को अपने से जोड़ने से रोकना होता है। यह या य को सामा य अथवा न य क अ य त थ त से आगे ले जाती है। यहाँ से अपनी वयं क मनोवै ा नक अ भ याओं का अ ययन कया जा सकता है, ठ क उसी कार जैसे कोई वै ा नक शु एवं न ल भाव से कये हुए नरी ण पर अपनी ट प णयाँ लखता है। अगले चरण मे ं य इस न ल भाव को अपनी सामा य दनचया से सम वत करता है और इस तरह एक आ या मक च पू ण होता है, एक पिरव तत एवं एक कृत दृ कोण तथा पिर कृत भाव के साथ। सनातन धा मक पर पराएँ मनु य क मू लभू त थ त को अ ान अथवा अ व ा के कारण उ प हुई मानती हैं और इससे मु का एकमा रा ता है य गत साधना के साथ आ तिरक मनो व ान क तकनीक अथवा आ या म- व ा का पालन। दू सरी ओर इ ाहमी पर पराओं के अनुसार मानव क यह थ त एक पापी क तरह है जो क इ तहास मे ं बहुत पहले भगवान क आ ा न मानने के कारण उ प हुई है। पापी थ त से मु तभी ा क जा सकती है जब ई र के सम प ाताप कया जाये एवं पैग़ बरों के जिरए भेजे गये उनके स देशों के बारे मे ं एक सामू हक समझ न मत क जाये। इ ाहमी पर पराएँ य का यान बाहरी त वों पर के त करती हैं जब क सनातन धा मक पर पराएँ उसक आ तिरक दशा पर के त होती है।ं एक ओर ऐ तहा सक आदेशों का अनुपालन करने तथा दू सरी ओर चेतना क सं रचना क खोज करने मे ं भारी अ तर है। मुझे यह जानकारी है क भारतीय दाश नकों एवं वचारकों मे ं स दयों से गहन बौ क तक- वतक हुए हैं जो दशन के भ - भ कार के दृ कोणों को सामने लाते रहे है।ं मैं इन अ तरों का अ धक सरलीकरण नहीं करना चाहता। सनातन धम क अ भ एकता स ब धी मेरी या या प मी मा यताओं क सम पता क धारणा का वरोध तो करती है, पर तु साथ ही उनक सोच के वपरीत सभी धम के आपसी समान स ा तों क पहचान भी करती है।4 इ तहास-के क वै क दृ का पिरणाम है कृ म एकता, न क वाभा वक एवं सम एकता...।

सम एकता एवं कृ म एकता क

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सम एकता का अथ है क अ तत: एक ‘सकल’ अ त व ही है। जन भागों से मल कर यह ‘सकल’ अ त व बना है उनका केवल सापे य अ त व है (इस ज टल ब दु को समझने एवं इस पर और तकनीक चचा के लए पिर श ‘क’ देख)े ं । इस अ भ एकता को समझना हो तो पक के तौर पर चेहरे से उसक मु कान के ं — स ब ध को लेग े अथात मु कान चेहरे से अलग नहीं क जा सकती; मु कुराहट उस चेहरे पर नभर है। हालाँ क चेहरे का अपने आप मे ं एक वत अ त व है, भले ही वह मु कुराए या नहीं। सभी इकाइयों का स पू ण ा ड के साथ ऐसा ही स ब ध है औ













और यह स ब ध एकतरफ़ा है। येक त व, चाहे वह भौ तक हो या अभौ तक, ‘सकल’ अ त व से कसी भी थ त मे ं अलग नहीं हो सकता। जस कार य के चेहरे का येक भाव उसक एक अ भ य होता है, उसी कार जो कुछ व ा ड मे ं है वह ‘सकल’ अ त व क अ भ य ही है। (बौ इस ववरण से अलग वचार रखते है,ं पर तु वह भी भ - भ इकाइयों के अ त व को नहीं मानते है)ं । कृ म एकता मे ं येक भाग एक दू सरे से अपना अलग अ त व रखता है। उदाहरण के लए मोटर-गाड़ी के व भ ह से अलग-अलग अ त व मे ं होते है,ं जब तक क वे कसी एक वाहन के नमाण मे ं न लगा दये जाये।ं इसी कार शा ीय भौ तक मे ं स पू ण ा ड को अलग-अलग ाथ मक कणों के वराट सं योजन के प मे ं देखा जाता है। तब सम या होती है क कसी बाहरी बल से उ हे ं एक कृत कैसे रखा जाये (बजाय क अ त न हत श से ही उ हे ं एक कृत करने का यास हो)। इस आर भक ब दु के कारण ही, जो महज सं योग नहीं है, यहू दी-ईसाई मतों मे ं सा दा यक ाथनाओं अथवा आदेशों का के ब दु य क अ मता के बाहर थत है, यों क उनक पर पराओं के अनुसार अ मता अपने आप मे ं वत एवं दू सरों से अलग है। इस अ नवाय पृथकता पर काबू पाने का एक ही तरीका है क दू सरों के साथ बँधने के रा ते खोजे जाये।ं सनातन धा मक पर पराओं मे ं परमा मा ा ड एवं मनु य मे ं पर पर एकता क या या करने के लए कई श दाव लयाँ है।ं ह दू दाश नक एवं आ या म व ा मे ं ये या याएँ ‘‘तत् एकम्’’ (वह एक है), सत् (अ त व), (परम स य), भगवान एवं शव के प मे ं है।ं बौ सह-उ प ता ( त य-समु पाद) जैसी श दावली का उपयोग ा ड क सभी इकाइयों क आपसी नभरता को दशाने हेत ु करते है।ं इन सभी धम मे ं अ भ एकता के स ा त पर सहम त है, य प इनक दशन णा लयों मे ं कई मह वपू ण अ तर भी है।ं व भ धा मक पर पराओं मे ं ग भीर कार के मतभेदों के बावजू द अ भ एकता ं के स ा त पर मु यत: तीन साझा वशेषताएँ समान प से है— (क) य क सभी इकाइयाँ (जैसे शारीिरक, मान सक, भावना मक, भाषाई, आ या मक अथवा अ य) ऊपरी तौर से अलग-अलग दखती हैं पर तु य से परे उनका कोई वा त वक अथवा वत य व नहीं है। सभी दाश नकों ने इसका ‘सारत व’ के अभाव के प मे ं उ ख े कया है। बौ इसे िर ता (शू यता) कहते है,ं य प ‘कुछ नहीं’ के अथ मे ं नहीं। (ख) स पू ण ा ड वत है और अ वभा य भी। इसके अ तिर और कोई अ त व नहीं है। यह कसी अ य वराट एक व अथवा अ य उ वा त वकता का ह सा नहीं है। ै े ी ी ओं ो ै े

(ग) इस अ भ एकता के भीतर सभी घटनाओं को पैदा करने क साम य है। व वधता को कहीं बाहर से आयात नहीं कया गया है, ब क यह तो इसी अ भ एकता से उ प होती है। भारत क व भ धा मक पर पराओं के बीच इन व वध घटनाओं और एकता के न त स ब ध को ले कर गहन मतभेद है।ं उदाहरण के लए आ द शं कर ने ‘माया’ श द का उ ख े एकत व से उ प व वधता के अनुभव को व णत करने के लए कया था। जब क रामानुज (जो क मह वपू ण वेदा त दशन ‘ व श ैत’ के तपादक थे) के अनुसार हर कार क व वधता अ भ एकता का ही अं ग होती है, अथात् आर भ से ही सम एकता का मू ल व प अनेकता मे ं एकता क कृ त वाला ही होता है। वहीं दू सरी ओर ी अर व द ने इस अ भ एकता क या या अ वभा जत (एक व) एवं वभे दत (बहुलता) के प मे ं क , यानी एक व हो अथवा वभा जत हो, यह उसी एकत व क मू ल चेतना के पहलू है।ं मह ष अर व द ने ‘अ भ य ’ श द का उपयोग उस व श या के लए कया है जसके ारा एक व मे ं न हत व वधता अपने आप को य करती है। सभी धा मक पर पराएँ इस बात पर सहमत हैं क ‘परम स य’ को साधारण मन-बु ारा पू री तरह से नहीं समझा जा सकता है, यों क मानव मन क अपनी सीमाएँ हैं और फल व प इसके अनुभव अपू ण है।ं हालाँ क धमशा इस अ भ एकता क अवधारणा को कुछ हद तक बतला सकते है,ं पर तु इसे समझने के लए य को एक व श चेतना क ँ ना होता है ता क वह इसे पू री तरह अनुभव कर सके। अव था मे ं पहुच इसके अ तिर इन सभी धा मक पर पराओं मे ं आपस क जुड़ी हुई सभी इकाइयाँ थर नहीं है,ं ब क वे तरल वाह क अव था मे ं रहती है।ं सभी कुछ, अथात् सभी पदाथ, भावनाएँ, मानवता, येक छोटे से छोटा कण, समय का येक पल तथा ा डक येक इकाई — सभी कुछ सतत् पिरवतनशील है।ं ह दू धम के अनुसार वयं -सृजन एक च य या है। ा ड अ त व मे ं आता है और फर समा हो कर अ य थ त मे ं तब तक सु पड़ा रहता है जब तक वह एक नये च के प मे ं फर कट नहीं होता। यह या साँस लेने और छोड़ने जैसी वाभा वक होती है और शा त् दोहराई जाती है। कोई भी सृजन परमा मा से अलग नहीं है। अथात् जब वयं परमा मा ही व भ पों मे ं ा ड मे ं अ भ य हैं तो वाभा वक प से समू चा ा ड ही वयं परमचेतन एवं अ भ एक है। इस लए परमा मा इस ा ड से अलग होते हुए भी उसके साथ एक प है।ं इस ा डक उ प परम स य से हुई है, हमारी कसी सं क पना के कारण नहीं, वरन् केवल इस लए यों क यही उसक कृ त है। यह दृ कोण ‘एके रवाद’ जसके अनुसार केवल एक भगवान है जो समू चे ा ड को ऊपर से नय त करता है तथा इसका वरोधी प मी सव रवाद े











(pantheism) इससे अलग है जो क ा ड को भगवान क तरह देखता है, पर तु बाहर से नय त करने वाले भगवान क तरह नहीं। सनातन धा मक पर पराओं क आ तकता मे ं यह दोनों ही धारणाएँ स म लत है।ं उदाहरण के लए ‘उप नषदों’ के अनुसार परमा मा का उ कृ व प ‘परा’ (अथात बा एवं अछूता) और अ त थ व प ‘अपरा’ ( ा ड क ही अ तर सं रचना) दोनों ही कार का होता है। भगवान इस समू चे वैभवशाली सं सार का नमाता (अथात् एक बाहरी श ) भर ही नहीं है, ब क वयं अपने-आप मे ं यह व है। अ तत: सभी कुछ उस ‘ -श ’ क ही एक व श अ भ य है। वयं एवं क अभ य एक दू सरे से अ वभा य है।ं इस कार ‘ व वधता मे ं एकता’ ही कृ त के मू लत व क वा त वकता है। प मी दाश नकों ने यह वचार ह दू धम से ही हण कया और उसे ‘सव रवाद’ का नाम दया, पर तु वा तव मे ं हमे ं उस ‘प मी सव रवाद’ से मत नहीं होना चा हए।5 बौ धम ने भी एकत ववाद के इस स ा त को (जो क वेदा त से मू ल प से भ है) यह कहते हुए माना है क ा ड मे ं सभी कुछ आपस मे ं एक-दू सरे से जुड़े हुए एवं आ त है।ं वा तव मे ं पृथकता क अवधारणा न केवल भौ तक इकाइयों क ब क वैचािरक, भावना मक अथवा मान सक दशाओं क भी अपने-आप मे ं ामक है। सभी व तुए ँ जो अ त व मे ं हैं या ऐसी तीत होती है,ं व तुत: णभं गरु मानी जाती हैं जनका केवल अ थायी अ त व तीत होता है। समय क मार से कुछ नहीं बचता और हर व तु लगातार दू सरी व तु मे ं बदलती रहती है। पर पर बुने हुए जाल मे ं येक णक अ त व दू सरे णक अ त व पर नभर है। के ीय एक कृत स ा त है क भू त, वतमान एवं भ व य क सभी व तुए,ँ भौ तक अथवा ग़ैर-भौ तक, आपस मे ं एक-दू सरे से जुड़ी हुई है।ं यह णकता अथवा न रता का वचार अपने साथ अन त व वधता उ प करता है यों क कोई व तु थायी है ही नहीं। हमेशा बदलने वाले अ थायी एक कृत सं सार क व वधता ही वा त वकता है। आं शक प से इस आ या मक आधार के कारण सनातन धा मक पर पराओं मे ं आ या मक एवं सां सािरक ग त व धयों के बीच कोई वरोधाभास नहीं दखाई देता है। ये दोनों ाय: ही एक-दू सरे पर आधािरत रहते हैं एवं इनके बीच का अ तर भी ँ ला रहता है।6 धुध ह दू एवं कुछ बौ मनु य एवं देवताओं के बीच क दू री को आसानी से पाट कर उनक याओं, गुणों, याओं एवं श यों को देवतु य मानते है।ं सं कृत के श द ‘देव’ का अनुवाद ाय: ‘देवता’ के प मे ं कया जाता है, अथात् वह जसके पास कुछ मू यवान है और जो उसे दू सरों को देता है। साधु-स त ान देते है,ं माता- पता मागदशन देते हैं और सू य काश देता है — और ये सभी ‘देव’ है।ं अपनी अन त आ या मक मता के चलते मनु य गहन तप या के अ यास के बलबू ते देवताे



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सदृ य बनने क इ छा कर सकता है। धा मक पर पराओं के एक व ान ओरगन (Organ) प करते हैं क— ह दू धम मे ं देव क अवधारणा यहू दी-ईसाई पर पराओं के वपरीत है जनके ँ ला कया जाना स भव नहीं अनुसार परमा मा और मनु य के बीच के अ तर को धुध है। प मी अवधारणा मे ं जो ई र है वह उसी व प मे ं रहेगा, वह इसके अ तिर कुछ और नहीं हो सकता। जो बदलता है वह भगवान नहीं है, जब क भारत मे ं एक देवता के देव व मे ं बढ़ोतरी भी हो सकती है या उसका देव व कम भी हो सकता है। ‘देव व’ के इस कार के तरीकरण का पहलू ह दू धम को सभी जी वत पों को एक कृत करने के लए एक तमान दान करता है। प मी मतों मे ं पशुओ,ं मनु यों एवं देवताओं के बीच जो पृथकता आव यक मानी जाती है वह सनातन धा मक स दाओं मे ं इतनी सु प नहीं है। कुछ हद तक जैन एवं बौ मतों को इस स ा त के यावहािरक न हताथ को प करने के वैक पक यासों के प मे ं समझा जा सकता है, जसमे ं जैन धम के अनुसार सभी जी वत ाणी मह वपू ण हैं एवं उनका सं र ण कया जाना चा हए, जब क बौ धम अ त व क अवधारणा को नकारते हुए जीवन या के स ा त के आधार पर स पू ण ाणी जीवन को और अ धक एक कृत करता है।7 सम एकता एवं व वधता के बीच का स ब ध यहू दी-ईसाई प थों मे ं प प से अलग है। इसमे ं एक वल ण घटना घ टत होती है जो क सृ कता से बलकुल अलग है एवं उससे पहले कुछ भी नहीं था। सृ कता एवं उसक सृ का ैतवाद क ‘ई र ही सब कुछ है’ के वचार क अनुम त नहीं देता। जहाँ भारतीय धा मक पर पराएँ सभी भ ताओं को ई र क सापे य तुलना मक वधाओं के प मे ं देखती है,ं वहीं यहू दी-ईसाई मत सभी भौ तक एवं ग़ैर-भौ तक इकाईयों को केवल उनके वयं के परम अ त व के प मे ं देखते है,ं जो क केवल बाहर से एक ‘ द य आदेश’ से जुड़े है।ं प म मे ं च द दाश नक वचार एवं रह यमयी पर पराएँ लगभग ह दू एवं बौ धम के समान अ तदृ रखती है,ं पर तु जो मत और दशन उनक स यताओं पर हावी हैं वे उ हे ं ह दू वचारों क तरह सव यापी ई र के मौ लक स ा त को नहीं समझा पाते और न ही वे बौ धम क तरह सं सार के खालीपन को अं गीकार कर पाते है।ं ईसाई प थ क कई या याएँ प व आ मा (Holy Spirit) को भगवान के सव यापी होने क धारणा को मानती है,ं हालाँ क यह प व आ मा कभी भी ईसाई धम मे ं एक के ीय वचार का प न ले सक । इसके अ तिर ईसाइयत कभी भी अ छा (भगवान) और बुरा (शैतान) या है अथवा प व क अप व से पृथकता के को सुलझा नहीं सक ।8 ग़ौरतलब है क सनातन धा मक पर पराओं मे ं अ भ एकता को आ या मक साधना जैसे योग के ारा अनुभव कया जा सकता है। यों क दोनों कार क ही ँ ै े ी औ ि ी औ औ

थ तयाँ, जैसे ‘बाहरी और आ तिरक,’ ‘शरीर और मन,’ ‘आ मा और पदाथ,’ ‘ य गत और सामू हक,’ सभी वयं स पू ण पर क मा अ भ य याँ भर है,ं अत: वाभा वक है क ई रीय परम स य क खोज स कट शरीर मे ं थत अ त:करण से ही ार भ होती है। ी अर व द ईषोप नष क या या मे ं नौ वपरीत जोड़ों के बारे मे ं बताते हैं क उ हे ं कैसे अ भ एकता के साँचे मे ं समाया गया।9 इसी कार शैव पर परा मे ं शव ही वह परम एक हैं जनके अ दर सभी तकूलताएँ समा हत है।ं इसके वपरीत प मी मतों मे ं यही खोज अलग-अलग इकाइयों से आर भ होती है, जैसे ई र और सृ , ई र और मानवता, शरीर और मन, आ मा और पदाथ आ द और फर इन सभी को एकजुट करने का यास होता है। इस अ त न हत भ ता के साथ साथ ‘यह वह’ जैसी दोहरी तावनाओं मे ं एक ही का चयन सदा उ मतभेदों पर बल देता है। फल व प ये भ ताएँ कसी अ भ एकता का अनुभव दान करने क बजाय सतत् च ताओं एवं बेचौनी का ोत बन जाती है।ं 10 प म क इसी कृ म एकता के दशन हमे ं अ तरा ीय राजनी त मे ं भी होते है।ं सं य ु रा (U.N.O.) नामक सं था अपने आप मे ं स भु एवं भ पहचान वाले व भ देशों का जमावड़ा बनी हुई है, जनके कई मु ों जैसे यापार, कानू नी अ धकारों, सुर ा, पयावरण सुर ा इ या द पर आपसी हतसाधन जुड़े हुए है।ं सं य ु रा का एक भी काय म अथवा योजना ऐसी नहीं है जसके लए इन देशों को अपनी नजी स भुता का ब लदान करना पड़े । इसी कार G-8 श शाली रा ों का समू ह सामू हक लाभों को ले कर चचा करता है, पर तु उनका असली उ े य अपनेअपने देशों का अ धकतम हत साधना होता है न क कोई साझा हतलाभ। भारतीय राजनी त मे ं भी गठब धन सरकारे ं इसी कार के कृ म समू ह हैं जहाँ अपने-अपने राजनै तक हतों को ले कर साथ आये हुए राजनै तक दल कसी साझा ल य के लए तब तक एक रहते हैं जब तक अपने वाथ और अवसरवादी ह त प े ों से वे बखर न जाये।ं अमरीका का वा य सं र ण उ ोग, नजी च क सकों, अ पतालों, बीमा क प नयों, अ धकािरयों, राजनेताओं एवं मरीज़ों के बीच उ प होने वाले व भ तनावों को रोकने के लए सं घषरत है। सभी हतधारक य -समू ह एवं सं थाएँ अपने हतों के लए मोल-भाव करने मे ं लगे हुए हैं जससे यह यव था मु य प से दखावा भर रह गई है, जहाँ व भ योगदानकता अपने-अपने यावहािरक कारणों से एक साथ काम करने को ववश है।ं आधु नक श ा णाली भी अलग-थलग कौशलों का एक बनावटी सं वभाग (portfolio) बन कर रह गई है जहाँ अ धकां श व ाथ केवल रोज़गार ा करने के लए श ा हण कर रहे होते है।ं यहाँ तक क अ त वषयी अ ययन भी अलग-अलग इकाइयों के एक तरह के सं वभाग ब धन ँ ीवादी बाज़ार बन कर रह गये है,ं जनमे ं एकता बनाना आव यक होता है। पू ज ं ी ी ै ें ो ी े ों े

यव था भी कृ म ही है जसमे ं व भ तयोगी अपने लाभ एवं हतों के अनुकूल यवहार करते है,ं जहाँ बाज़ारवाद का उ े य येक तयोगी प को अपने-अपने लाभ के लए स म बनाना है। यही बनावटी गुणव ा आधु नक समय क येक सं था मे ं वेश कर चुक है, चाहे वह रा ीय हो या अ तरा ीय। अ तसा ाद यक सं वाद (Interfaith dialogue) मे ं स ह णुता (tolerance) क धारणा भी इसका उदाहरण है क कस कार दखावे के समायोजन से भी अपनी क थत े ता को सं र त कया जा सकता है। उपरो सभी कृ म एकता के ऐसे उदाहरण हैं जनमे ं अलग-अलग इकाइयाँ अपनी पहचान और अपने लाभ को वत प से सुर त कर लेते है।ं जो स पू ण तीत होता है वह असल मे ं कुछ वत इकाइयों का सं ह मा है। भारतीय धम नरपे लोकत भी एक कार क कृ म एकता क यव था है जसे कसी भी बेतरतीब प से एक त मनु यों के कसी समू ह, जो एक सं वधान को अपनाते हैं और उस पर अमल करते है,ं पर लागू कया जा सकता है। कृ म एकता को हम बेहतर तरीके से मा ‘सु वधा’ के प मे ं जान सकते है,ं एक ऐसी सु वधा जो व भ वग क सीमा-रेखाओं और य यों को गहरी आ मीयता के ब धन मे ं बाँधने का सुअवसर खो देती है। इस पु तक का एक मुख ल य इस गहन एकता को खोजना भी है। कृ म एकता के एक व श कार ारा एक मू लभू त गुणव ा ा क जा सकती है जसमे ं स पू ण के यापक हतों को उसके अं शों के हतों के ऊपर रखा जाता है। इस या मे ं स पू ण को ाथ मकता मलती है और बाक ह से उसके अधीन हो जाते है।ं मनु य के शरीर क एक छोटी-सी जै वक को शका का समू चे मानव शरीर से स ब ध ज टल जीव त इकाइयों का उदाहरण है। नॉव (Norway) मे ं उपल ध सम जीव त वा य णाली सभी नागिरकों के सामू हक वा य हतों क देखभाल करती है तथा इस यव था के व भ घटकों क भू मका एवं काय के वकास के लए कत यों का नधारण करती है। च क सकों, वक लों एवं च क सा-सं थानों को अपने य गत हतों को साधने का यास कये बना इस सामू हक यव था मे ं स म लत होना पड़ता है। क यू शयसवाद एवं सा यवाद राजनै तक णा लयाँ हैं जो या मक एवं यावहािरक एकता के लए यास तो करते हैं पर तु इनमे ं अ भ एकता का अभाव है। सामू हक खेती तथा सहकारी स म तयों को भी यावहािरक एकताओं के प मे ं ही न मत कया गया है। पयावरण के व भ गठब धनों ारा यास कया जा रहा है क दु नया भर के ँ ने लोग इस पृ वी ह को बुरी तरह भा वत कर सकने वाली सम याओं के हल ढू ढ़ हेत ु एकजुट हों। कुछ लोग इस काय को अपना वाथ साधने एवं सं साधनों के सं र ण क यावहािरकता के प मे ं देखते हैं जब क दू सरों के लए यह एक जीव त दृ कोण है, जो इस ा ड क एकता और अख डता के लए अ त-आव यक है। ं े ो ी ं ओं ों ं ौ ों े

इस कार के आ दोलन उन बनावटी सं थाओं, कानू नों एवं समझौतों के व सं घष करते हैं जो क अलग-अलग समू हों ने अपने नजी हतसाधन के लए बनाये है।ं इतना सब होते हुए भी इस कार क जीव त णा लयाँ, चाहे वह आपस मे ं काला तर मे ं कतनी भी जुड़ी हुई यों न हो जाये,ं सनातन धा मक पर पराओं के अथ मे ं अ भ एकता के मानक पर खरी नहीं उतरतीं। यह इस लए भी है यों क उनके अवयव अपना अलग-अलग अ त व रख कर अपनी खींचतान जारी रखते है।ं ऐसे कसी बनावटी समू ह के लए यह दुलभ ही होगा क वह इतना एक कृत हो जाये क उसके अवयव अपने वाथ को थायी प से याग दे।ं अ धकां श मामलों मे ं जब व भ भागों क श सयत न य भी हो जाती है तब भी ऐसी स ध अ थायी और कमज़ोर होती है, यों क अ तत: वाथ पुन: कट होगा ही। धा मक पर पराओं क अ भ एकता मे ं इस कार के अ थायी गठब धन का कोई न ही नहीं उठता।

वै क त वों क तुलना न न ल खत ता लका मे ं इस बात पर काश डाला गया है क कस कार सनातन धा मक पर पराएँ एवं यहू दी-ईसाई वै क सोच एक दू सरे से भ है। इन अ तरों का इस अ याय मे ं आगे और व लेषण कया जायेगा। धा मक पर पराए ँ यहूदी-ईसाई मत परम त व (अ तम स य)

कुछ पर पराएँ व ास पर आधािरत हैं पर तु बाक पू व ‘ व ास’ अ नवाय है। साधना पर आधािरत है।ं परमा मा नर अथवा नारी या दोनों या कोई भी नहीं हो सकता। परम स य अवैय क एक ही परम- पता परमे र पर भी हो सकता है। परमा मा तक व ास ँ ने के लए व भ पहुच कार के तरीके एवं व धयाँ है।ं ई र और सं सार अलग-अलग है।ं सं सार ई र पर नभर है सव यापी भी है और तथा यह व एवं मनु य तब अ त न हत भी तथा यह व तक अप व हैं जब तक ई र प व है। क कृपा से इसे मु नहीं कया जाता। सब कुछ अ भ ै

एकता पर मू लभू त े

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नभर है। मू लभू त प से कोई व तुओ ं एवं जीवा माओं का भी त व या इकाई अलग नहीं अपना अलग अ त व है। है। स ा तत: ‘बुराई’ या ‘दु ता’ ई र मे ं अ छा-बुरा सभी कुछ का अपना वयं का अ त व स म लत है। कु वृ यों को है। बुराई एक बाहरी श है आ तिरक साधना से समा जसे ‘पाप’ क आ तिरक कया जाता है। सहज वृ से भी सहयोग मलता है। दू सरों को बचाने के नाम पर ना तकों पर ‘बलपू वक’ कोई यापक आदेश जारी होते है।ं स ा त थोपा नहीं जाता। जो मो को सामू हक (सं थागत) जैसे हैं ठ क है।ं हर य माना जाता है। दू सरों का अपनी आ या मकता पर यान धमातरण करने के भी आदेश दे। है।ं

मनु य जीवन

य गत-सत्- चत्-आन द, य गत आ म ान पर बल पुनज म क अवधारणा पिर थ तयाँ कम-फल पर आधािरत होती है,ं इस लए नय तवाद नहीं ब क व न मत भा य पर आधािरत

मनु य पापी है और उसे बचाया जाना चा हए। केवल एक ही ज म ज म के समय य क अ छ /बुरी पिर थ तयों के लए कोई प ीकरण नहीं।

य के आ तिरक ान एवं मनु य क मान सक उ त के साधना पर व ास नहीं। ‘मु ’ लए व वध आ या म व ाएँ क अवधारणा भगवान क (साधना याएँ)। कृपा पर नभर। भगवान पर व ास साधना मे ं व ास एवं मु हेत ु कये गये सहायक है। आ या म मे ं कम एवं उपासना क कुछ परमा मा क अनुभू त न हत है। भू मका।

सं सार



मो ा सफ़ ाय त एवं तदान से ही स भव।

न काम कम ारा मो



काल अना द है। सृ

सं सार- समय और ै

थान का एक ै



अवधारणा

वनाश का एक अन त च है। न त ार भ रखा गया है जो काल और काय के आपसी इ तहास लेखन को भा वत स ब ध अ या शत है।ं करता है। सं सार के अ त क कोई ‘अ तम समय’—समू ची भ व यवाणी नहीं है। मो मानवता के लए एक लय का य गत है सामू हक नहीं। दन न त है। इ तहास मह वपू ण नहीं—कई अवतार, ु त के प मे ं ऋ षमु नयों के आ या मक अनुभव। उनके ारा मृ त का पुनलखन।

इ तहास मे ं परमे र का अ तीय ह त प े । इस लए परमे र को समझने-जानने हेत ु इ तहास अ य धक मह वपू ण है।

बना कसी इ तहास पर नभर हुए परमा मा क चर थायी अनुभू त अभी और यहाँ, सदा उपल ध।

आ या मक स ा और अ धकार भगवान ारा कये गये रह यो घाटनों पर आधािरत है।ं

इ -जाल कई भारतीय धा मक पर पराओं मे ं न हत अ भ एकता के वैचािरक साँचे को इ के मायाजाल क उपमा से च त कया जा सकता है। वै दक पर पराओं मे ं व णत इ देवता के पास एक ऐसा अन त जाल है जसक येक गाँठ मे ं भ - भ कार के र न और म ण ऐसे जड़े हुए हैं जसमे ं हर म ण शेष म णयों को त ब बत कर सके, कसी म ण का अपना वत अ त व नहीं है। येक म ण दू सरों को त ब बत करने मे ं अ तीय है। इ का यह जाल इस ा ड को द शत करता ँ े हुए अ तस ब ध हैं तथा इस है जसमे ं इसके सभी घटकों के बीच गहरे गुथ ा ड का कोई एक भाग दू सरे से अलग नहीं है, ब क सभी का अ त व सामू हक वा त वकता पर ही नभर है। इ के इस जाल का यह मू ल वचार अथववेद (चार वेदों मे ं से एक) मे ं पाया जाता है जसके अनुसार स पू ण व को श अथवा इ के मायासं सार के प मे ं च त कया गया है। बाद मे ं बौ थों ने इ के इस जाल को एक पक के तौर पर उपयोग कया जसके अनुसार इस अन त ा ड का न तो कोई ार भ है और न ही अ त। इसमे ं सभी घटक आपस मे ं एक दू सरे पर नभर एवं स ब धत है।ं 11 इ का जाल स पू ण जीवजगत मे ं समाई हुई एक सव यापी रचना मक समझ को भी रेखां कत करता है। जो भ ता दखाई देती है वह वा तव मे ं माया ( म) है। इ े

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के इस जाल मे ं कसी एक म ण के काश का त ब ब येक दू सरे म ण मे ं दखने क मता एवं या को समझना सामा य मन-बु के लए क ठन है, पर तु यह काला तर मे ं खोजे जाने वाले भौ तक व ान और त वमीमां सा के बहुआयामी स ा तों को समझने के लए उपयोगी है। इस कार हम देखते हैं क आज के आधु नक व ान से स दयों पहले ही इ के इस जाल ने एक अ भुत पक दान कया था जो आज होलो ाम (hologram) क मुख गुणव ा के प मे ं जाना जाता है, जसके अनुसार होलो ाम के हर कसी े मे ं उसके पू रे े क स पू ण जानकारी समागत है। इ के जाल के इसी पक से िे रत हो कर माइकल टैलबोट (Michael Talbot) ने अपने नवीनतम स ा त मे ं इस भौ तक जगत क ‘होलो ा फ़क’ कृ त को दशाया है। उनका सुझाव है क इसी होलो ा फ़क त प (Model) के स ा त से हमे ं व भ योग- स यों को समझने के लए एक वै ा नक आधार ा हो सकता है। इ हीं योग-प तयों के अ यास से कुछ आ या मक स याँ ा क जाती हैं ज हे ं प म के वचारक ‘असाधारण,’ ‘अलौ कक’ अथवा ‘अ नय मत’ घटना दशाते है।ं एक कृत च (चेतना का उ तम तर) अथवा ‘एक कृत श ’ क पुनक पना ा ड मे ं उप थत येक घटक को 12 पर पर बाँधे रखने वाले वलय जैसी क गई है। इ के इस जाल क अवधारणा ने डगलस ह टेडर (Douglas Hofstadter) को भी कसी यव था के भौ तक, शारीिरक, तीका मक अथवा वैचािरक अवयवों के बीच ज टल स ब धों के अ ययन पर काय करने के लए िे रत कया।13 इस अवधारणा से मनु य के म त क क ज टल सं रचना के त प एवं इं टरनेट के त प भी भा वत हुए। वै ा नक बैल (Bell’s Theorem) के उस सै ा तक भौ तक मेय को, जसके अनुसार ा ड मे ं कोई भी थानीय घटना म अथवा कारण नहीं होता, भी इस इ जाल के पुरातन वचार से समथन मलता है, यों क ा ड मे ं सभी कुछ वाभा वक प से पर पर जुड़ा हुआ है। अ भ एकता क इस धा मक अवधारणा को भगव गीता के सातवे ं अ याय मे ं सार प से बताया गया है, जसमे ं ी कृ ण प करते हैं क स पू ण ा ड वे वयं है।ं पदाथ के छोटे-से-छोटे अणु से ले कर जीवन के उ तम त व और बु तक सभी कुछ भौ तक एवं आ या मक, अ छे एवं बुरे सभी उनके सं क प से य है।ं ी कृ ण प करते हैं क— पृ वी, जल, अ न, वायु, आकाश, मन, बु एवं अहं कार, इस कार यह आठ कार से वभा जत मेरी अपरा अथात जड़ कृ त है। इसके अ तिर मेरी एक अ य परा चेतन कृ त भी है जससे यह स पू ण जगत धारण कया जाता है। ो ों

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स पू ण भू त समुदाय इन दोनों कृ तयों से ही उ प होते है।ं मैं स पू ण जगत का उ भव तथा लय हू ,ँ अथात् स पू ण जगत का मू ल कारण हू ।ँ मुझसे े कुछ नहीं है। ा ड क येक न म त मुझ पर आधािरत है, ठ क उसी तरह जैसे कई मोती एक मजबू त धागे से बँधे रहते है।ं मैं ही जल का वाद हू ,ँ सू य-च मा का काश हू ,ँ वै दक म ों मे ं े ‘ॐ’ ँ ती अनहद अ य व न हू ँ का मू लत व हू ,ँ आकाश मे ं गू ज तथा पु षों मे ं पु ष व भी मैं ही हू ।ँ मैं पृ वी क प व सुग ध हू ,ँ अ न तेज हू ,ँ सम त चराचर का जीवन हू ँ एवं सभी तप वयों का तप हू ।ँ मैं ही स पू ण भू तों का बीज हू ,ँ बु मानों क बु हू ँ एवं तेज वयों का तेज हू ।ँ मैं बलवानों क आस एवं कामनाओं से र हत साम य हू ,ँ मैं सब भू तों मे ं धम के अनुकूल काम हू ।ँ सभी कार क पिर थ तयाँ, फर चाहे वे स वगुण से उ प होने वाली हों अथवा रजोगुण या तमोगुण से उ प भावावेग हों, सभी मेरे से ही होने वाले हैं ऐसा जान। मैं ही सब कुछ करता हू ँ पर तु फर भी मैं वत हू ।ँ मैं वयं कसी कार क भौ तक थ तयों मे ं नहीं हू ,ँ अ पतु वे मेरे ही भीतर है।ं फर भी मैं इन सभी अपार थ तयों से परे अन त मे ं रहता हू ँ (हालाँ क अ ानी मनु य यह समझ नहीं पाते है)ं ...। भगव गीता—7.4—7.13 गीता स देश के आने से बहुत समय पहले ही वेदों मे ं व भ तरों एवं थ तयों के साथ उस एक परम स य का वणन कया गया है।14 समय के साथ इन शा ों के मू ल स ा तों मे ं बहु-ई रवाद से एके रवाद जैसा कोई बदलाव नहीं हुआ जो प मी व ानों के दावों के वपरीत एक स ा त ारा दू सरे को खािरज करते हुए एक व को सफ़ अ ैतवादी अथवा व वधता को केवल बहु-ई रवादी देखना पस द करते है,ं दोनों को कभी भी साथ-साथ नहीं। प मी व ानों के अनुसार य द वेदों मे ं बहुई रवाद से बाद मे ं एके रवाद आया था तो फर वै दक देवताओं के सबसे श शाली देवता ही इस ा ड के अ तम शासक के प मे ं वराजमान होते (जैसा क बाइबल क आ ाओं मे ं कहा गया है क — तू मेरे सामने कसी अ य भगवान क पू जा नहीं करेगा)। पर तु भारतीय धा मक पर पराओं मे ं वैसा कभी कुछ भी घ टत नहीं हुआ।

ब धु’-सम पता का स ा त ै



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‘ब धु’ एक अवधारणा है जो यह समझने मे ं सहायता करती है क अ भ एकता मे ं व भ भागों को कस कार सम ता से समायो जत कया जाता है। व के सभी पहलुओ ं का एक अवणनीय ोत है और जसे हम कृ त के प मे ं देखते हैं वह एक उ वा त वकता का सू चक है। इस वा त वकता अथवा स यता के व भ व पों, जैसे व नयों, सं याओं, रं गों एवं वचारों के बीच अ तस ब ध था पत हैं और इसी को ‘ब धु’ कहते है।ं एक ओर सू म एवं सव यापी सं सार है व दू सरी ओर उनके समक य सं सार है। ‘ब धु’ इस सू म एवं वराट का न शा है और एक तरह से दोनों एक दू सरे क छ व है।ं ा ड क येक इकाई के भीतर स पू ण ा ड थत है। वह एक अनेक पों मे ं कट है इस लए अलग-अलग तीत होती इकाइयाँ भी उसी एक क ही भ अव थाएँ है।ं यह अलग-थलग भागों के कृ म प से एक साथ आने जैसी अव था नहीं है। व भ इकाइयाँ अपना साम यक अलग अ त व पू ण के सापे य अ थाई प से तो रखती हैं पर तु कभी भी वत अ त व क तरह नहीं, हालाँ क इस पू ण एकता क या मे ं उनक सु दर एवं काशमान भू मका मह वपू ण अव य रहती है। ‘अ भ एकता’ का यह वचार जसमे ं पू ण सभी भागों मे ं पू री तरह कट होता है और जो सब भाग पू ण प से जुड़े रहने के लए त पर रहते है,ं सभी धा मक णा लयों के सभी पहलुओ ं मे ं पिरल त भी होता है जनमे ं दशनशा , व ान, धम, नै तकता, आ या म, कला, सं गीत, नृ य, श ा, सा ह य, मौ खक या यान, राजनी त, ववाह, अथशा एवं सामा जक सं रचनाएँ सभी कुछ स म लत है।ं यह मू ल स ा त भारतीय कला, वा तुकला, सा ह य, धा मक अनु ानों, पुराणों, योहारों एवं िरवाजों के तीकों मे ं गहराई से था पत है, जसका उ े य य को गू ढ़ ान ा करने क सु वधा दान करना है। भारतीय सं गीत एवं नृ य कला ह दुओ ं के इस ा ड- व ान पर आधािरत है। भारतीय ‘ना -शा ’ (कला और सा दयशा के दशन क मौ लक वधा) नाटक को एक स पू ण कला मानती है, जसमे ं दशन, क वता, नृ य, सं गीत, शृंगार स हत पू रा सं सार ही समा हत है। यह एक जीव त एवं पू ण वचार है जसमे ं वै दक अनु ानों, शैव नृ यों और सं गीत एवं महाका य क कथाएँ स म लत है।ं भारतीय पर परा के आठ मुख रस ( म े , हा य, वीरता, आ य, ोध, दु:ख, घृणा एवं भय) इस स पू ण दु नया के दपण हैं जो य के पु षाथ मे ं साथ रह कर सहायक होते है।ं यह प व सं गीत एवं नृ य म दरों अथवा राजदरबारों दोनों मे ं द शत कये जा सकते है।ं इसके कारण कई मु लम दरबार ह दू आ या मक नृ य कथक, जो अपनी यापक कला मकता के लए जाना जाता है, को ह दू दशन न मानते हुए उसके सं र क बने, जो क अ यथा मू तपू जा के प मे ं न दत होता। न केवल हर भारतीय धा मक पर परा इस एकता को मानती है, ब क सभी पर पराओं के बीच के स ब ध भी यही दशाते है।ं यह देखा जा सकता है क कला ं





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एवं व ान क सभी शाखाएँ आपस मे ं स ब धत हैं ज हे ं मनु य क कृ त, जो वयं ा डीय एकता से नकलती है, व भ पों मे ं वयं को अ भ य करती है। एक वधा दू सरी वधा मे ं समाई है एवं उसे त ब बत करती है। इनमे ं से कसी एक व ा क गहन खोज एवं अ ययन अ तत: सम प एक कृत अ भ स ा तों एवं सं रचनाओं क ओर ले जाती है। मनु य क यह अन त वत ता उसके खगोलीय, थलीय, मनोवै ा नक एवं आ या मक पहलुओ ं के ‘ब धु’ अ तस ब धों ारा वरोधाभासी ढं ग से सं चा लत होती है तथा इनमे ं से येक का स ब ध यापक अथ मे ं कला, च क सा- णा लयों एवं सं कृ त के साथ होता है। जहाँ एक ओर ब धु क अवधारणा समू चे ा ड एवं य गत चेतना के बीच स ब ध था पत करती है, वहीं दू सरी ओर यही ब धु व तकसं गत एवं उ े यपू ण व ान से परे मानव चेतना के उ - तरीय व ान मे ं वराजता है। वै दक अनु ान क वेदी ा ड का त न ध व करती है एवं ह दू म दरों क वा तुकला का भौ तक आयाम व भ खगोलीय पिर म तयों पर आधािरत है। ‘य ’ जो प व या म त का मह वपू ण आधार है ा ड का त न ध व करता है। देवता पारलौ कक एवं मनु य, दोनों तरों क ही बु एवं समझ के अनु प होते है।ं धा मक अनु ान य और सम मे ं इनके अनु प आमू ल पिरवतन करते है।ं आयुव दक रोग नदान प त मे ं शरीर के व भ अं गों एवं जीभ के वभ थानों के बीच स ब ध के आधार पर ही वशेष च क सक अपने व लेषण मे ं रोगी के जीभ क जाँच करते है।ं ‘ब धु’ के कारण ही धा मक आ या मकता आज जी वत है, यों क जब कुछ व श अनुशासनों एवं वधाओं को न कर दया गया था तब भी बचे हुए अनुशासनों के ारा, जनमे ं उनके सू सुर त थे, इस सम पर परा को पुनज वत करने मे ं सहायता मली। इन सभी णा लयों क वा त वक श इनके स ा तों के आपस मे ं गहरे स ब धों के कारण है। जो य भारतीय धा मक प त मे ं पला-बढ़ा है वह वाभा वक प से व भ व तुओ ं मे ं भी एक समान त व को देखता है, जससे उसे दखावट के पीछे छपी वा त वकता का पता चलता है और वह कट प से अस ब धत घटनाओं के पर पर जुड़ावों के पीछे त यों क पहचान करता है।15 भारतीय शा ीय कला क एक व ान क पला वा यायन (ज म 1928) ने ब धु के कई च लत उदाहरणों को ल त कया है। इसके मह वपू ण तीक ऋ वेद, ना शा एवं त -समु य (म दरों क वा तुकला का थ) मे ं पाये जाते है।ं यहाँ ु ों को ‘बीज’ आर भ का ोतक है। ‘वृ ’ बीज से उ प हो कर ल बवत व भ व एकजुट करता जाता है। ‘ना भ’ अथवा ‘गभ’ अ य और य क अवधारणाओं को साथ लाता है। ‘ ब दु’ एक तीका मक के का स दभ च है जसके चारों ओर ा ड मे ं काल और आकाश क अवधारणा को दखाते हुए व भ या मतीय आकारों को रे खत कया जाता है। ‘शू य’ पिरपू णता तथा िर ता का तीक है। ं ि ं े ी े े ो े ैं

‘अ प’ कृ त से ही ‘ प’ एवं ‘पिर- प’ ( प से परे) गट होते है।ं ‘शू य’ एवं ‘पू ण’ (अ भ पू णता) मे ं आपसी स ब धों क समानता है जब क वरोधाभास यह है क पू ण ही शू य के भीतर है।16 क यू टर व ानी एवं सं कृत के व ान सुभाष काक बताते हैं क कुछ वशेष अं कों के मा यम से व भ े ों के म य सं वाद-स पक था पत होता है तथा दोनों कार क व ा ‘अपरा’ (अथात सी मत/ ैत) और ‘परा’ (उ तर/एक कृत) एकदू सरे क पू रक है।ं 17 दोनों परम स य के दो पहलू हैं जो आ तिरक एवं बाहरी व के ैत तथा साधारण एवं असाधारण दोनों के ही सम प है।ं 18 इसी कार वै दक ऋचाओं मे ं व वध तर हैं जो परम स य के व वध तरों से जुड़े हुए तीत होते है।ं 19 सं वाद-स पक के इस स ा त से यह पता चलता है क भारतीय धा मक पर परा मे ं अ भ एकता मा देव व एवं भ के स दभ मे ं ही य नहीं हुई है, अ पतु इसक उपल ध ‘कला’ के मा यम से भी हो सकती है। भारत मे ं अना द काल से ही य और अ य को जोड़ने मे ं कला एक मा यम रही है जो ई र के कट प से उसके अदृ य व प का अनुभव ा करने मे ं सहायक होती रही है। यह स ा त क मीर क शैव पर परा, गीत-गो व द एवं कई मुख पर पराओं एवं कला मक स दभ मे ं प दखाई देता है। इस लए व भ कलाएँ योग का ही एक प हैं ँ जसके तुतीकरण मे ं कलाकार, ोता एवं दशक चेतना के उ तम तर तक पहुच सकते है।ं क पला वा यायन ने इस थ त को ‘क व’ ( नमाता/कलाकार) का ‘ ग तशील एवं अनु मक ब धन,’ ‘का य’ (कला का प), एवं ‘र सक’ (पारखी ोता) के प मे ं व णत कया है।20 बी. वी. पुरारी ने ‘कला’ का उ म ववरण कृ ण भ के प मे ं दया है। ी कृ ण वयं मे ं अ भ एकता के व प हैं एवं यह सं सार कुछ और नहीं ब क ी कृ ण ारा अपनी ही श यों के मा यम से वर चत ‘रस’ को चखने के समान है। वे ं आगे लखते है— ‘‘कृ ण ही रस, सौ दय का अनुभव तथा र सक हैं जो इस सौ दय-अनुभव के सबसे बड़े पारखी है।ं राधा ही इस रस एवं र सक क आ तिरक एकता का ती तम बहाव है।ं अपनी द य लीलाओं ारा ी कृ ण अपनी इस राधा- पी मौ लक ऊजा के मा यम से वयं ही र सक बन कर अपना वाद हण करते है।ं ऊजावान ोता को ऊजा जीव त करती है जैसे राधा ी कृ ण को स यता दान करती है।ं जस कार ग ा वयं अपनी मठास नहीं चख सकता उसी कार पू ण-रस को चखने के लए एक स य अ ैत परम त व क आव यकता होती ही है। न हत श यों के मा यम से परम त व ारा वयं के आ वादन से इस सं सार क सृ होती है एवं सभी जीवा माओं का उस एक से प स ब ध बँधता है। जब वयं परम त व (अथात ी कृ ण) इस सं सार से स ब ध था पत करते हैं तब उनका यह अनु ह सभी ै औ ी ओं ो े ो े े

जीवा माओं को उनके साथ एकजुट होने के लए आक षत करता है और उनक लीलाओं मे ं रमने तथा इस सं सार क सीमाओं से परे उस ‘रस’ का अनुभव करने के लए िे रत करता है।’’21

काल, न य पिरवतन एवं अ-रेखीय च

य काय-कारण

भारतीय धा मक पर पराएँ अतीत, वतमान एवं भ व य क सीमाओं को धू मल कर अनुभवज य स य को णक एवं वाहमान प मे ं देखती है।ं व ान ॉय व सन ऑगन (Troy Wilson Organ) कहते हैं क प मी वचारकों का भारतीय धा मक दशन के साथ तालमेल नहीं बैठा पाने का एक कारण यह है क ‘‘भारतीय ग तशील वचार प त के बारे मे ं प म थर सारत व भाव के वग करण के ारा चचा क ठन है।’’22 प मी सोच घटनाओं को थान एवं काल मे ं थर इ तहास क दृ से खोजती है, जब क भारतीय धा मक पर पराएँ अतीत क कथाओं एवं घटनाओं के इ तहास के लचीले व प मे ं सहज है।ं सभी घटनाओं को भा वत करने वाली पिरवतन क इस थ त मे ं दोहराए गये घटना म थर एवं वत तीत होते है,ं हालाँ क ये सी मत मनोवृ क मा ामक रचनाएँ है।ं एक य न:स देह इस पिरवतन का ह सा है, फर भी यान एवं योग क सहायता से वह इस समू ची या को एक सा ी के प मे ं देख पाने मे ं स म है। इसके वपरीत प मी पिरदृ य मे ं मान लया गया है (अभी हाल तक तो ऐसा ही था) क थान एवं काल सी मत है,ं जनका पिरभा षत आर भ तथा अ त एक काट सयन (Cartesian) नधारक ड मे ं न हत है। ऐसे सं सार को बौ क एवं वैचािरक दृ से नय त कया जा सकता है। इसमे ं सीमाओं के वघटन एवं प वभाजन को अराजक माना जाता है। प मी सोच ऐसी नरं कुशता चाहता है जो नय ण कर सके। सनातन धा मक वचारों के अनुसार ा ड के अ तगत घटकों क पर पर अ तरं गता का कारण उनका च य अथवा अ-रेखीय होना है, न क एक ही दशा मे।ं ा ड बहुत ज टल एवं अ न त है, यहाँ तक क सामा य थान-काल से भी परे कहा जा सकता है। भारतीय धा मक याय पर परा एवं तक पू व यापी है,ं अथात् इसमे ं पहले भाव देखा जाता है, फर उसके बाद कारणों का अनुमान लगाया जाता है। इस या को ‘फलहेत’ु कहा जाता है, व श म मे ं जसका अथ है ‘ भाव 23 एवं उसका कारण’। बाइबल मे ं सृ के स ा तों के अनुसार ा ड का नमाण शू य से हुआ है तथा समय क शु आत वहीं से ार भ हुई। धा मक पर पराओं मे ं इसके समक कोई स ा त नहीं है।24 काल का कोई आर भ नहीं है। ा ड कालातीत माना जाता है, इसके पहले एक और ा ड था तथा उससे पहले कोई और भी था, अथात् यह ं

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ृ लाओं मे ं से एक है, न कोई पहला और न कोई अ तम। ऋ वेद ा ड अन त ं ख क स ‘सृजन क ऋचा’ मे ं ा ड क उ प क सटीक गणना को अ ात छोड़ दया गया है। ब धु- स ा त के समाना तर ही वां टम या क (quantum mechanics) मे ं वां टम ब धन (quantum entanglement) क अवधारणा भी है जसके अनुसार सबसे बु नयादी तर पर अ त सू म कण पर पर जुड़े होते हैं और जब कसी जोड़े का कोई कण अपना थान बदलता है तो त काल ही वह अ य सभी कणों को भा वत करता है, चाहे उनमे ं आपस मे ं कतनी ही दू री यों न हो। इसी तरह स भवत: एक ऐसी यव था है जो एक दायरे अथवा आयाम को दू सरे से जोड़ती है तथा ज मज मा तर मे ं एक य को दू सरे से जोड़ती है। नया ज म लेने वाले य का भू तकाल एवं भ व य का ह सा अ य य यों के भ व य एवं अतीत के साथ उलझा हुआ होता है।25 कसी व तु क अ छ अथवा बुरी वशेषताएँ इस लए होती हैं यों क वह क हीं गुणों से वां टम ब धन क भाँ त जुड़े होते है।ं यही कारण है क कोई व तु वाँछनीय अथवा अवाँछनीय होती है। प व व तुए ँ जैसे ‘ वभू त’ इसी भाँ त ा डीय बु से यु होती है,ं इसी लए जब कसी य के माथे पर वभू त लगाई जाती है तो वह मा एक साधारण भौ तक पदाथ नहीं होता, ब क उसके ारा कुछ व श भाव उ प होते है।ं यहाँ तक क तट थ इकाइयों के होते हुए भी आकाश सव समान नहीं है, पर तु थान- वशेष क कृ त अपनी थानीयता से अलग नहीं है और यही बात कसी थान- वशेष पर रहने वाले मनु यों को भा वत भी करती है।26 काल क गणना को समान इकाइयों मे ं नहीं देखा जा सकता, उसमे ं एक बुनावट भी होती है। भ - भ कालख डों एवं णों क अपनी व श ता होती है। दन भर मे ं से कुछ घ टे एवं स ाह मे ं कुछ दन शुभ या अशुभ (राहुकला) होते है।ं समय क कुछ व श इकाइयाँ (युग) न त कार क बुराइयों अथवा राजनै तक एवं धा मक उथल-पुथल को ज म देती हैं (उदाहरण के लए ‘क लयुग,’ जसमे ं माना जाता है क यह कालख ड आ या मक म एवं अध:पतन का समय है)।27 इस कार प म क त वमीमां सा, जो क थान एवं काल को अभौ तक इकाइयाँ मानती है, के वपरीत भारतीय धा मक पर परा मे ं काल एवं आकाश को ‘धातु’ (पदाथ) माना गया है जो दू सरी व तुओ ं पर भाव डालते है।ं इससे रामानुजन ने यह न कष नकाला क ‘‘भारतीय लोग आ या मक होते हैं क धारणा के वपरीत वा तव मे ं वे भौ तकतावादी होते है।ं ’’ वे वषयवादी हैं और भौ तक व तुओ ं मे ं व ास करते है।ं उनके यवहार मे ं कसी स दभ से ले कर उस वषय तक, बाहर से अपने तक जैसे खाने मे,ं ास लेने मे,ं यौन या मे,ं सं वद े नाओं मे,ं अवधारणाओं मे,ं वचारों, कला एवं धा मक अनुभवों इ या द सभी मे ं पदाथ का एक नर तर वाह बना रहता है।28 रामानुजन का दावा क समय और थान का दू सरी व तुओ ं से ं े े

वां टम ब धन क अवधारणा के अनु प जुड़ने का यह वचार प म क भौ तकतावादी धारणा से मेल नहीं खाता, यों क येक पदाथ अ तत: (या भगवान) क अ भ य है, इस लए इसे आ या मकता से अलग नहीं कया जा सकता।

धा मक तक मे ं म यम न हत है कुल मला कर देखा जाये तो धा मक वचारक अ न तता के साथ सहज हैं और अ न तता को एक ता कक स ा त के प मे ं भी योग करते है।ं जब हम प म क ओर मुड़ते हैं तो पाते हैं क कस तरह अर तू का स नयम ‘अपव जत म य’ यह/वह का आनुपा तक तक पेश करता है (इसी अ याय मे ं आगे चल कर मैं इस तक का खुलासा व तार से क ँ गा)। पू व दशनशा मे ं इस से ज टल पर तु खर तक क व वध समझ थान- थान पर तुत क गई है। उदाहरण के लए जैन धम मे ं ग़ैर- वल ण न कष (‘अनेका तवाद’ स ा त) के मत क वषद या याएँ क गई हैं जो क उनके अ य धक मह वपू ण एवं मौ लक स ा तों मे ं व मान है। यह स ा त बहुवाद और बहुलतावादी दृ कोण को स द भत करता है जसमे ं यह धारणा य क गई है क स य एवं वा त वकता क व भ अनुभू तयों को अलग-अलग ब दुओ ं से देख कर पाया जा सकता है, अथात् कोई भी दृ कोण अपने-आप मे ं पू ण नहीं है। इस कार कसी सामा य मन-बु ारा अपने-आप मे ं अन त वशेषताओं को लए परम स य को एकदम समझ सकना अस भव है। एक ही स य को जानने के लए भ - भ य यों ारा अलग-अलग पहलुओ ं पर वचार कया जाता है, अत: उनके पर पर आं शक न कष एक-दू सरे के वरोध मे ं दखाई देते है।ं इस णाली क कई शाखाओं मे ं से एक है ‘स भावनावादी तक’ (शायद-वाद) जसमे ं व लेषण का पिरणाम सही अथवा गलत के अ तिर कुछ और भी हो सकता है। ‘शायद’ श द का अथ यु प शा के अनुसार ‘स भव है’ अथवा ‘ऐसा हो सकता है,’ पर तु ‘शायद-वाद’ के स दभ मे ं इसका अथ है ‘क तपय अथ मे’ं अथवा ‘ कसी पिर े य मे।ं ’ यथाथ बेहद ज टल है तथा कोई भी एकल तावना इस यथाथ क कृ त को पू री तरह य नहीं कर सकती। अथात् येक वचार अथवा दाश नक ताव से पहले इस ‘शायद’ को उपसग के प मे ं लगाया जाना चा हए जससे उस ता वत कथन मे ं से कसी भी कार क हठध मता का वलोप कया जा सके। कोई भी सच अथवा घटना थायी नहीं होते यों क ये कई अ न त कारकों पर नभर रहते है।ं 29 एक मह वपू ण भारतीय बौ दाश नक नागाजुन ने भी एक पिर कृत तक पेश कया एवं उसी को आगे बढ़ाते हुए आ द शं कर ने वेदा त मे ं इसक या या करते हुए कहा क ा ड एवं परम स य के बारे मे ं मनु य क समझ सदा अधू री एवं ु टपू ण है जो नई जानकारी मलने पर सदैव बदलती रहेगी।30 वै दक कथन क ‘‘स य ै



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एक है पर तु उसे व भ तरीकों से य कया जाता है,’’ दू सरों के ान को भी स मान देने क सलाह देता है जो क अ त मे ं स य मा णत हो सकता है। भारतीय धा मक पर पराओं मे ं तकशा के कई त ी स दाय रहे हैं जो कसी भी अ तम एकल ान-मीमां सा के वच व को नकारते हैं (पिर श मां क ‘‘क’’ मे ं मैनं े बौ , ह दू एवं जैन दृ कोण के लचीले तक को प कया है)। सं कृत क एक मह वपू ण वशेषता यह है क इसमे ं कसी व तु को दू सरे से अलग दखाने के लए कम-से-कम 6 तरीके है,ं न क केवल सही/गलत वक प। सं कृत के उपसग ‘अ’ का उपयोग कम-से-कम सात कार क भ ताओं को य ं नषेध, लगभग (स कट), अनुप थ त, करने के लए कया जाता है, जसमे— भ ता (जो क थोड़ी-बहुत समानता क अनुम त भी देता है), कमी/ ास, बुराई/ अपा ता/अनौ च य/तमस तथा वपरीत/ वरोधाभास सभी स म लत होते है।ं 31 इसके वपरीत प मी अवधारणा मे ं सारे नों के उ र ‘हाँ या नहीं’ के -आधारी स ा त पर बना वक प नभर है,ं जैसे ‘स भव है’ अथात अ न तता या अ नयत थ त नहीं होती। वै ा नक सम याओं के त भारतीय दृ कोण एक यावहािरक व ध (algorithm) के ायो गक नरी णों के साथ ार भ होता है और य द भ व य मे ं इसके पिरणाम वरोधाभासी पाये जाते हैं तो यह व ध गलत भी स हो सकती है। यह एक याशील अवधारणा है जसका बेहतर पिरणामों एवं नरी णों ारा सुधार कया जा सकता है। इस प त मे ं कोई भी व ध अ तम नहीं होती तथा सभी व धयों का अ थायी और ासं गक होना य क चेतना पर नभर करता है। आ या मक व ा मे ं योगी अपने शरीर को एक योगशाला के प मे ं योग करके इस ायो गक या को आ मसात कर लेता है। इस कार का योग स दृ कोण प म क यहू दी-ईसाई प त से भ है जसमे ं अ तम स ा त को तपा दत करने हेत ु वरोधाभासी तरीकों का सं घष अ नवाय है। एक भौ तक व ानी रो म नर स हा (Roddam Narasimha) ने भारतीय ं अनुभवज य दृ कोण एवं प त को अ धक यावहािरक माना है। वे लखते है— ‘‘यू नानी दृ कोण मे ं वचारक वयं स प त एवं त प (मॉडल) बनाने का तरीका अपना लेते हैं (अथात् वयं स या मॉडल ता कक अनुमान अ तम मेय या पिरणाम), जब क भारतीय दृ कोण के अनुसार दृ य मे ं पुन: पुन: उभरने वाले व प क ज ासा तथा उसके अनु प नयम- णाली बनाने क या ारा दया जाता है (अथात् नरी ण नयम- णाली सवमा य पिरणाम)। भारतीय बौ क दृ कोण प म के वयं स ता एवं मॉडलों पर आधािरत स ा तों के त गहन स देहों को उजागर करता है और अपनी व ध क उपयो गता को दशाता है।’’32 वे आगे कहते हैं क मा य धारणा के वपरीत भारतीय खगोलशा यों ने अपने नरी णों मे ं उ कृ दशन कया है। आयभ ारा तपा दत नयम- णाली के ों



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मानकों को स दयों तक बार बार बारीक से अ ययन कया गया तथा उनके पिरणामों मे ं थत वसं ग तयों को खोज नकाला गया। ‘ स ा तों का स यापन’ करना भारतीय दृ कोण का एक मुख ह सा रहा है। प म क त प (model) बनाने क सं कृ त जड़ एवं अ त:सं घष से त है जसके पिरणाम व प दावे और त-दावे न मत होते रहते है।ं 33 भौ तक एवं ग णत के शोधों मे ं हाल ही मे ं हुई ग त ठे ठ अर तू कालीन मॉडलों के बजाय भारतीय धा मक तकसं गतता के अ धक अनु प है। यू टनका लक भौ तक क उपयो गता सेमीक ड टरों, लेज़र तथा अ य उपकरणों के लए आव यक भौ तक य याओं मे ं स भव नहीं है। ये याएँ वा टम या क पर आधािरत होती हैं जो क अ न तता पर नभर करती है।ं यह एक ऐसी खोज थी जसने प मी दशनशा क नींव हला कर रख दी, जब क भारतीय दाश नकों को इस घटना म से कोई परेशानी नहीं हुई। यहाँ तक क वयं आइं टीन भी वा टम भौ तक मे ं न हत अ न तता से सामं ज य बैठाने मे ं सफल नहीं हुए और उ हे ं यह ट पणी करनी ही पड़ी क ‘‘भगवान ा ड के साथ पाँसे नहीं खेलता...।’’ पर तु ह दुओ ं क द य आरा य जोड़ी शव एवं पावती खुशी-खुशी इन पाँसों से खेलते है।ं भारतीय दशनशा भौ तक के अ न तता के स ा त को सरलता से हण करता है। इ हीं कारणों से वा टम या क मे ं अ भनव खोज के लए नोबल पुर कार से स मा नत वनर हाइजेनबग (Werner Heisenberg: 1901-1976) तथा एर वन ोय डं गर (Erwin Schrodinger: 1887-1961) जैसे बड़े वै ा नक एवं प मी दशन के अ दू त भी ह दू दशनशा क ओर आक षत हुए और उ होंने यू टो नयन तथा काट ज़यन मॉडलों को अ वीकार कर दया। आधु नक भौ तक , जसके अनुसार कृ त एवं ा ड को कुछ व श ग णतीय समीकरणों के ारा व णत कया जा सकता है, जसमे ं कसी न प पयवे क क आव यकता नहीं होती, ने उस पुरातन यू टो नयन-काट ज़यन स ा त को मात दे दी। ं अपनी पु तक ‘जीवन या है?’ मे ं ोय डं गर लखते है— ‘‘ ाचीनकाल से उप नषदों क यह मा यता क ‘‘आ मन् = न (अथात् मैं ही सव यापी हू ,ँ सव शा त अहम्), सं सार क घटनाओं को समझने क अ तदृ का त न ध वचार माना गया, न क एक वचार के प मे।ं वेदा त के सभी अ ययनकता व ानों ने इस अवधारणा को अपने होंठों के उ ारण से सीखने के प ात् इनको अपने मनोम त क मे ं आ मसात भी कया।’’34 वै दक स ा त क अ भ सम एकता ने उनक सोच को प कया था जब उ होंने यह लखा क— ी







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जस जीवन को तुम अभी जी रहे हो वह केवल इस समू चे अ त व का नरा भाग ही नहीं है, ब क एक न त अथ मे ं वयं स पू ण है, ले कन यह स पू ण ऐसा ग ठत नहीं है जो पू रा एक नज़र मे ं ही देखा जा सके। जैसा क हम जानते हैं क ा ण लोग वा तव मे ं बहुत ही सरल एवं प श दों मे ं इसी अवधारणा को उस प व एवं रह यवादी सू ‘तत् वम् अ स’ (त वम स) के ारा य करते है।ं अथवा पुन: इन श दों को इस तरह समझे ं क, ‘‘मैं ही पू व मे ं हू ,ँ मैं ही प म मे,ं मैं ही ऊपर हू ँ और मैं ही नीचे भी, मैं ही यह सम त सं सार हू ।ँ ’’35 उनके जीवनीकार वा टर मू र (Walter Moore) के अनुसार वेदा त के अपने अ ययन और अपने वै ा नक शोध के बारे मे ं ोय डं गर (Schrodinger) क समझ मे ं एक प नर तरता थी... वेदा त क एकता एवं नर तरता तरं ग या क (wave mechanics) क एकता और नर तरता मे ं पिरल त होती है। 1925 मे ं भौ तक व ान के स ब ध मे ं व दृ एक महान मशीन के मॉडल जैसी थी जो क अलग कये जा सकने वाले और एक दू सरे को भा वत करने वाले कणों से बना था। अगले कुछ वष के दौरान ोय डं गर (Schrodinger) एवं हाइजेनबग (Heisenberg) तथा उनके श यों ने एक दू सरे पर आ ढ़ अ वभा य तरं गों क स भावना से यु एक ा ड का त प बनाया। उनका यह नया दृ कोण वेदा तवादी ‘एक मे ं सभी समा हत है’ं क अवधारणा से मेल खाता है।36 ोय डं गर ने 1925 मे ं वेदा त आधािरत अपनी अ तदृ के बारे मे ं लखा है, जसमे ं उ होंने कसी णाली क व वध एवं एकसाथ नर तर व मान थ तयों को समझने क सफलता का वणन कया है— ‘‘पर तु इस समाधान को श दों मे ं य करना आसान है—बहुलता जसका हम अनुभव करते हैं वह मा एक आभास है, स य नहीं है। वै दक दशनशा जसमे ं यह एक मू लभू त स ा त है, उसे व भ उपमाओं ारा प करता है। ु ी उनमे ं सवा धक आकषक है एक बहुमख टल, जो वा तव मे ं एक व तु है, जसके सैकड़ों छोटे-छोटे च दखाई देते है,ं ले कन वह उस व तु को वा तव मे ं उतने गुना नहीं करता है।’’37 इसी ऐ तहा सक लेख का एक और अं श इस कार है—‘‘आप एक ण मे ं अचानक ही वेदा त के मू ल स ा त क स ाई समझ सकते हैं ान, सं वद े ना एवं वक प मू लत: शा त् और अपिरवतनीय हैं तथा सं या मक प से यह एक भाव न केवल सभी मनु यों मे,ं ब क सभी सं वद े नशील ा णयों मे ं समान प से व मान है।’’ ें















अ त मे ं ोय डं गर वै दक दशन एवं आधु नक भौ तक के बीच एक दलच प ं ‘‘य द हम अन ट माख (Ernst Mach: 1838-1916) अनु पता के बारे मे ं बताते है— ारा तुत वचार को पुन: देखे ं तो हमे ं व ास होगा क यह उप नषदों मे ं पेश कये गये पर परावादी स ा तों के इतना नकट दखता है, भले ही ऐसा प श दों मे ं य न कया गया हो। बा व और चेतना, दोनों एक ही है।ं ’’38 हमारे समय के वा टम भौ तक के एक अ णी वै ा नक जॉन हीलर (John ं ‘‘मैं यह सोचता हू ँ क कोई इसका पता अव य Wheeler: 1911-2008) लखते है— ँ ा और फर लगायेगा क आ खर कस तरह से गहन भारतीय च तन यू नान तक पहुच 39 वहाँ से इसने हमारे समय के दशनशा तक राह बनाई।’’ व ान के आधु नक दशन को वै दक ान ने एक मह वपू ण योगदान दया है जसके अनुसार नरी ण करने वाला पयवे क (अथात् चेतना) अवलो कत क जाने वाली व तु को आकार देने मे ं मह वपू ण भू मका नभाता है। यह वही पहले उ खत वषय है जस पर आइं टाइन और टैगोर के बीच असहम त हुई थी। प म मे ं वेदा त स ा त ने मानव चेतना के अ ययन को एक सफल े बनाया है। अ न तता से जुड़ी धा मक धारणाओं मे ं ामा णक तक क सीमाओं के वचार उपल ध है।ं जब 1930 मे ं गोयडे ल (Godel) ने अपने मेय स ा त को, क कस तरह वभाजक तक (deductive logic) क णाली को अ त मे ं अधू रा ही रहना पड़ता है, द शत कया तब ाचीन भारतीय तकशा यों क बात अपने-आप ही स हो गई। इसका अथ यह नहीं है क ाचीनकाल मे ं भारतीयों ने वा टम भौ तक के स ा तों को वक सत कर लया था अथवा गोयडे ल के मेय को स कर दया था, ब क यान देने यो य बात यह है क यह आधु नक योग एवं आ व कार भारतीय धा मक दशनशा के साथ सुसंगत हो रहे हैं तथा इस धा मक दशन का आ या मक वभाव इस तरह के आ व कारों के न हताथ एवं उनके व तार हेत ु खुला हुआ है। कसी भी ज टल सम या को समझने ( जसमे ं व वध दृ कोण तथा अ न त पिरणाम भी शा मल है)ं हेत ु भारतीय धा मक बहुलतावाद एक ठोस नींव का काय करता है, फर चाहे वह त वमीमां सा, भौ तक व ान, अथवा मान वक हो। इसमे ं कोई आ य नहीं है क सनातन धा मक दशन मे ं तवाद का उपयोग स य ँ ने के लए प म क अपे ा अ धक कया जाता है। कसी के नकट तक पहुच सकारा मक व य को पू व मे ं न द सात कार के तवादों मे ं से कसी एक के प मे ं अ वीकार कर दया जाता है, ता क यह रेखां कत कया जा सके क अ तम स य इन सरल े णयों के परे भी हो सकता है। अ तम स य केवल नरा पदाथ, सी मत और पू री तरह से सव यापी नहीं है। जब अ तम स य स ब धी सम याओं पर वचार कया जाता है तब ‘अ ैत स ा त’ को एक ववाद (एकता) के मुकाबले अ धक वरीयता दान क जाती है।40 ऐसा तवाद नै तकता के े मे ं भी लागू है, ँ ाना चाहता,’’ ‘‘मैं तु हारी सहायता अथात् यह कहना क ‘‘मैं तु हे ं नुकसान नहीं पहुच ँ ै े ी

करना चाहता हू ’ँ ’ से अ धक सकारा मक स भावना दान करता है, ठ क उसी तरह, जैसे ‘‘मैं तुमसे घृणा नहीं करता हू ,ँ ’’ ‘‘मैं तु हे ं गले लगाना चाहता हू ’ँ ’ क भावना से अ धक अथ दान करता है। इसी तरह बौ एवं ह दू धम मे ं अ हं सा (चोट नहीं ँ ाना) का अथ दया, दान इ या द से भी अ धक है। पहुच सनातन धा मक पर पराओं मे ं जब वचारों को त यों के प मे ं वीकारना क ठन होता है तब धम मे ं ऐसी वृ है क उ हे ं पू णतया न का सत या खािरज कये जाने के बजाय उन वचारों को दृ ा त के प मे ं समायो जत कर लया जाता है।41 उदाहरण के लए प मी लोगों के मुकाबले ह दू मथकों एवं शा ों के ज़िरये अपनी सं कृ त के बौ क पहलुओ ं को आसानी से हण कर लेते है।ं ह दुओ ं के लए इन मथकों और धम थों क ऐ तहा सकता अथवा तक उनके यावहािरक मू यों तथा आ या मक अथ क अपे ा अ ासं गक है।ं ये व वध थ का या मक प मे ं उनके भीतरी अथ को आ मसात करते हुए पढ़े जा सकते है।ं जैसे भगव गीता क घटना को ही ले ले ं जहाँ वा तव मे ं पा डवों एवं कौरवों के बीच कु े नामक थान पर यु हुआ हो या नहीं, यह उतना मह वपू ण नहीं है जतना क आ दकाल से चलने वाले धम और अधम के बीच सं घष का वचार, जो हमेशा चलता रहता है।

पिरद ृ य एवं सापे

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सभी भारतीय धा मक दशन अ भ य क सीमाओं का पता लगाते है।ं वा त वकता बहुत ज टल मानी जाती है, जसे एक ववरण या अनेक व यों से भी य नहीं कया जा सकता।42 धा मक णा लयों मे ं इस बात पर बल दया जाता है क स य येक य क अपनी-अपनी धारणाओं, पू ववृ तथा येक क स पू ण दशा-अव था के साथ-साथ पू व ज मों के भाव पर भी नभर करता है। ऋ वेद क सु स पं के अनुसार ‘‘स य एक है, व ान इसे भ - भ नाम देते है’ं ’ इस ान क पु करता है क व भ बहुलतावादी दृ कोणों से ही ऐसा हो सकता है।43 जैसे क अँधों और हाथी क स कहानी मे ं दशाया गया है क छ: अँधे य यों को (जो नहीं जानते थे क वे हाथी को छू रहे है)ं एक अं ग छू कर उसक सही पहचान करने को कहा जाता है। वे हाथी के भ - भ अं गों को छू कर अनुमान लगाते हैं क यह या हो सकता है और अ त मे ं वे अपने-अपने न कष तुत करते है,ं जनमे ं कोई भी पू णतया सही नहीं होता। कहानी का सारत व यही है क सभी दृ कोण आपस मे ं सापे य हैं और पू ण स य कसी भी दृ कोण से परे है। इस कहानी के य यों क अ ानता त न ध प मे ं ऐसे सभी दृ कोणों के सापे य एवं अपू ण होने के त य को बताती है, जब क छ: अँधे य यों क सं या पाँच इ यों एवं मन का तीक है, जनमे ं से अकेले कोई भी इ य स य क परख करने मे ं स म नहीं है। हमारी अपनी सं कृ त एवं य गत अव था ही उस बौ क पिरदृ य का नमाण करती है जसके अनुसार हम इस सं सार को देखते है।ं हम अपनी भाषा मे ं व भ ें ओं े ों े ं े ैं े

घटनाओं का चयन करके उ हे ं समू हों मे ं इस कार यव थत करते हैं ता क वे इस सं सार क पिर थ तयों के अनुकूल दखाई दे।ं सं कृत मे ं ‘ फ़लॉसोफ़ ’ (philosophy) के लए ‘दशन’ सबसे नकट श द है जसका अथ है ‘पिरदृ य,’ जैसा कसी कोण से देखने मे ं दखाई देता है। वा त वकता के कई पिरदृ य हैं जो क इस बात पर नभर करता है क देखने वाला य कहाँ पर थत है और कस भाषा का योग कर रहा है, पर तु परम स य को कसी भी एक पिरदृ य से पू ण प से नहीं जाना जा सकता, यों क येक दृ य सी मत है। अत: यह अपे त है क आ या मक दृ कोण व वध एवं एक दू सरे से अलग होंग।े परम स य केवल उस अव था का उ ख े करता है जो क अ तम है और जसके पार जाया नहीं जा सकता। यह कसी एक दशन ारा वणन करने यो य नहीं है, इस लए धा मक पर पराओं मे ं हम इसे ‘अक य या अवणनीय’ कहते है।ं अ धक से अ धक यह हो सकता है क ँ सकें— न नां कत मे ं कुछ सं योजनों के मा यम से हम उस स य के नकटतम पहुच 1) कुछ ऐसे दशासू चक जो स य का सटीक वणन तो नहीं कर सकते, पर तु इसक कृ त के बारे मे ं कुछ सं केत देते है;ं 2) कुछ ऐसी यावहािरक प तयाँ जो सं ान से परे के अनुभव क अनुभू त करवाने के लए जानी जाती हों; 3) कुछ ऐसी तीका मक अथवा का या मक भावनाएँ जो स य के अनुभव को समझाने मे ं कुछ हद तक स म स हो सकें; 4) स य क कसी व श परेखा का एक ‘ नकटतम त न ध व’ अथवा दशन (हालाँ क कोई भी त न ध व सही नहीं हो सकता, नहीं तो वा त वकता वणन करने यो य हो जायेगी)। पू ण (परम) वत ता का अथ है सभी कार के (सी मत) दृ कोणों से वत ता। प म मे ं यह वृ रही है क वसं ग तयों को बाधा के प मे ं देखा जाता है, जब क व भ कार के सी मत दृ कोण एवं उनक स यता को इस वत ता ा के उपकरणों के प मे ं उपयोग कया जाना चा हए। वा त वकता क अवधारणा को कसी पू ण अथ मे ं देखने का यास हमेशा ही सी मत ान और अहं कार क बाधा (तथा इसके पिरणाम व प उ प हुई वकृ तयाँ) से त रहता है। ऐसे यासों के पिरणाम व प अस ह णुता, वाथ एवं न प दृ कोण रखने क अ मता ही पनपती है। यही कारण रहा क बु ने अनुया ययों को एक ायो गक धम क श ा दी जसका य गत अनुभव से परी ण कया जा सकता है। धा मक पर पराएँ इसी तरह सखाई जाती हैं जनमे ं आ या मक झान वाले य इनका वयं आ म-परी ण कर सकें। अ त मे ं इसे भी छोड़ दया जाता है जैसे नदी को पार करने के लए बनाया गया अ थायी बेड़ा छोड़ दया जाता है। धमशा , दशनशा ं



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एवं धा मक थ इस स यानुभव को ा करने मे ं उपयोगी ायो गक भू मका नभा सकते है,ं पर तु केवल मागदशक के प मे ं ही। साधकों क व वध सं ाना मकता भी अलग-अलग मताओं एवं चयों को दशाती है। ी अर व द बताते हैं क दृ कोणों क यह व वधता कैसे इस ा ड क व वधता का एक ह सा है— ‘‘ कृ त का वा त वक उ े य समृ व वधता ारा स ी एकता को आधार देना है। कृ त का रह य इसी मे ं प न हत है क वह जीवन का सामा य ढाँचा तो न मत करती है, पर तु साथ ही उसका आ ह एक अन त व वधता पर भी होता है। मनु य प के लए उसक एक योजना है, क तु कोई दो य अपनी शारीिरक मताओं एवं वशेषताओं मे ं बलकुल एक जैसे कभी नहीं होते। मानव क कृ त उसके अपने घटकों एवं भ य ढाँचे मे ं एक समान है, ले कन कोई दो य अपने वभाव, वशेषताओं तथा मन: थ त मे ं कभी ब कुल एक जैसे नहीं होते। कृ त मे ं सम जीवन उसक बनाई योजना एवं स ा तों के अनुसार एक है, यहाँ तक क पौधा भी जीव के सहचर के प मे ं पहचाना जाता है, पर तु जीवन क एका मता, अन त कारों के नमू ने वीकार और ो सा हत करती है।’’44 भारतीय दशन मे ं भी स य के पिर े य का भाव प प से देखा जा सकता है जहाँ येक स दाय एक दशन है अथवा स य का य , ता का लक एवं सहज ान दृ ा है। हालाँ क येक दशन एक दृ कोण मा है और उसे अ य दृ कोणों क स भा वत वैधता को वीकारना होता है। इन पर पराओं मे ं ‘परम स य’ के अन त पहलू है,ं पर तु इन अन त पों मे ं से कुछ का ान अथवा अनुभव तभी कया जा सकता है जब चेतना क उ तम थ तयाँ उपल ध हों। यों क ‘वा त वकता’ ु ी एवं अनेक परतों मे ं बताई जाती है, अत: कई व ान ह दू धम को बहुमख बहुदव े वादी कह कर उसक दु या या करते है।ं वे इस बात को नहीं समझते क बहुदेव वा तव मे ं अ भ एकता के ही कई व प है।ं 45 हालाँ क परम स य नराकार एवं सं क पना से परे है, पर तु कम-से-कम मनु य ँ तो देवी-देवताओं के य प का सहारा ले कर उस स य के आसपास पहुच सकते है।ं ह दू धम मे ं येक देवता के वृ ा त क व वध कथाएँ वक प के प मे ं उपल ध है।ं यह आव यक नहीं है क ये आ यान शा दक इ तहास के प मे ं लए जाये ं अथवा काल एवं पिर थ त के यावहािरक दायरे मे ं एकदम बठाए जा सकें। ‘दशन’ श द, म दर मे ं देवता क स मानपू ण आराधना (एवं य के भ भाव) के लए भी उपयोग कया जाता है। येक देवता क असं य या याएँ तथा भ व वध पों मे ं उपल ध है,ं जसका माण हैं ‘गणेश’ अथवा ‘काली’ क अ भुत व वधतापू ण अवधारणाएँ।46 चू ँ क सभी ववरण पर पर सापे य है,ं अत: परमे र क या या पु ष के प मे ं भी हो सकती है और म हला के प मे ं भी, ँ ो ों ों े ं ी ी औ ी ी े ें ी औ

म हला-पु ष दोनों पों मे ं भी, न ही नर और न ही नारी के प मे ं भी और यहाँ तक क कसी भी लं ग से परे भी इसक या या हो सकती है। नारी के प मे ं परमे र के कई न पण है;ं वा तव मे ं सफ़ भारतीय धा मक पर पराओं मे ं ही परमे र के नारी प को ले कर व तृत धमशा उपल ध है।ं इसी सापे य स दभ मे ं देखा जाये तो कई धा मक अनु ान एक प व नाटक के प मे ं दखाई देते है।ं ऐसे अनु ान के न पादन मे ं सभी इ यों का योग कया जाता है, जैसे दृ य व तुए,ँ व न, सुग ध, याएँ, पश तथा वाद इ या द। ऐसे सभी अनु ान हमारी सोच-समझ के दायरे को ( पकों के मा यम से) समृ करते हैं और हम व भ बौ क, भावना मक तथा वैचािरक पों के मा यम से बु के उ ँ बनाते है।ं प मी लोग इस तरह के धा मक अनु ानों तर तक एक असाधारण पहुच क बहुआयामी वषय-व तु के अ य त नहीं होने के कारण इन याओं को ‘बहुदव े वादी अ यव था’ कह कर ख़ािरज करते रहते है।ं इस कार धा मक पर पराओं मे ं गहरी अनुभू तयों ारा सभी ई रवादी तथा अनी रवादी न पणों को सजीव अ भ य यों एवं अनुमानों के प मे ं देखा जाता है, न क ऐ तहा सक य यों क तकृ तयों और कथानकों के प मे।ं 47 ये सी मत मता के मनु य को परम स य को जानने-समझने मे ं सहायता करते है।ं वशाल व वधतापू ण न पण भारतीयों का तीकों, व वध योगों, कलाओं और साह सकता के त गहरा लगाव दखाता है, वहीं कोरे श दाथ तथा रं गहीन च ण के त अवहेलना का भाव भी द शत करता है। वपुल एवं रं गीन सं कृ त क यह ँ आसानी से अनुभव क जा सकती है (उदाहरण के लए आज क पॉप सं कृ त गू ज और बॉलीवुड मे)ं । इस कार के च णों का न पण कसी अस तोष अथवा व ोह का पिरणाम नहीं है और न ही यह पहले से चली आ रही थाओं का अ ध मण है। ये केवल ई र के असं य प होने क पु करते है।ं धा मक पर पराओं मे ं काफ़ हद तक सभी कार क वैचािरक णा लयाँ कायरत रहती है।ं यहाँ योजन वचारों को उलटने का नहीं, ब क उभरते वचारों मे ं सामं ज य लाने का होता है। यहाँ तक क अस तोष अथवा असहम त को भी पर परा मे ं आं शक दृ कोण के प मे ं समा हत कर लया जाता है।48 जो धा मक कृ य और च लत तौर-तरीकों को अपनाये रहना चाहते हैं उ हे ं यह प त ढ़वादी या बेकार घो षत कये बना नर तरता दान करती है तथा साथ ही स य को जानने के दू सरे रा तों को ामा णक भी स करती है।49 सनातन धा मक पर पराओं मे ं ई र का त न ध व करने क हमारी सी मत मता को तक श क भू मका तक ले जाया गया है। पू व के सं कारों के पिरणाम व प परम स य का कोई भी पहलू सापे य, आं शक एवं ु ट क स भावना स हत ही होगा। तक को ार भ से ही मह वपू ण माना गया है, भले ही वह ं े ें े े े े ें ो ॉ

अपने-आप मे ं चेतना के उ तर एवं स य के काश तक जाने मे ं स म न हो। ॉय व सन ऑगन (Troy Wilson Organ) ने इस बात को य कया है क कस कार धा मक पर पराओं क णाली सभी कार क व वधताओं के होते हुए भी ह दुओ ं क एकता को सहारा देती है। भ कार के स पू ण कारक, जैसे र समू ह, भाषा, प थ, यवसाय, उपासनाप त इ या द, सामा जक समू हों को एकता दान करते है।ं इस लए सभी ह दू एकता क खोज के ारा एकजुट है।ं भारत जैसे देश को व भ कार के वघटनकारी त वों, जैसे दजन भर से अ धक भाषाएँ, बी सयों प थ और स दाय तथा हज़ारों जा त समू हों का सामना करना पड़ता है। इसके अ तिर ह दुओ ं के ाथ मक मानवीय िर तों पर बल देने के स ा त से रा क आधु नक अवधारणा मेल नहीं खाती। इसके बावजू द ह दू धम मे ं एक वशेष त व— वयं क एक कृत खोज—ऐसा है जस पर एकजुट भारत का नमाण कया जा सकता है। ह दू धम का स ा त है ‘आ मीयता,’ न क पृथ करण का भाव। ी कृ ण ने इसी स ा त को गीता मे ं य कया है, जब वे अजुन को याद दलाते हैं क ‘‘कोई भ कसी भी कार क आ था से पू जा-भ करना चाहता है तो वे उस आ था को थायी करते है’ं ’ (7:21)। ह दू धम मनु य मे ं पू णता क खोज के लए एक साधना है।50 भारतीय पर परा सापे य स य को भी वीकार करती है। यहाँ कसी स य को पू रा झू ठा अथवा दोषी (ईसाई मत क तरह) सा बत नहीं कया जाता, अ पतु ऐसा माना जाता है क यह मानव मन-बु के सी मत सं ान का एक त ब ब है। मनु य जो भी जानता-सीखता है वह अनेक स दभ के सापे य होता है तथा उसे क हीं आ ाओं, स ा तों अथवा सावभौ मक/मानक नयमों के तहत बाँधा नहीं जा सकता। पू ण एवं सापे य दोनों कार के स य का अपना-अपना थान है। धम के अनुसार व भ यावहािरक वा त वकताओं को समझने एवं उनका सामना करने मे ं सापे य स य हमारी सहायता करता है। यह स ा त प म के उन तमाम आरोपों को वत: ही झू ठा सा बत कर देता है जसके अनुसार बौ एवं ह दू धम सं सार को नकारने वाले अथवा सामा जक व नै तक प से ग़ैर- ज मेदार और अ यावहािरक दृ कोण वाले है।ं 51

वत ता एवं बहल ु ता

पू व एवं प म मे ं एक समान आकां ा है क दोनों सीमाओं एवं ब धनों से मु चाहते है।ं प मी पर पराएँ इस सं सार मे ं सामा जक, राजनै तक एवं सां कृ तक वत ता के पहलुओ ं तथा आगे चल कर पापों एवं मृ यु से मु पर बल देती है।ं प मी पिर े य के अनुसार भारतीय धा मक पर पराएँ न य, भा यवादी एवं नराशा से भरी है।ं हालाँ क जब हम अपनी दृ को उलटते हैं तो एक अलग ही त वीर उभरती है। धा मक पर पराएँ वयं को प मी पू वा हों से मु जैसा पाती है,ं ं ो े ो े ी ई ीं ैं औ ी ीं ऐ

पाप एवं अपराध बोध के बोझ तले दबी हुई नहीं हैं और न ही क हीं ऐ तहा सक दृ ा त, सं थागत स ा अथवा धा मक व श ता से बँधी हुई है।ं

अ तमन ारा आ म ान ा



वत ता

यहू दी-ईसाई मतों से सनातन धा मक पर पराएँ बलकुल अलग है जनके अनुसार हर मानव अपनी वयं क आ या मक व धा मक वधाओं के ारा एक जीव त ऋ ष, जन, अिरह त अथवा बो धस व बन सकता है। य क यह मता कई पव थों के मू ल मे ं अव थत है। आ या मक स पु ष नये कार क अ तदृ क खोज अन त कार से कर सकते है।ं भारत मे ं हमेशा ही असं य आ या मक पर पराओं, व वध इ तहास, अनेक साधना पथ, अनु ानों, तीकों, देवताओं एवं समुदायों क बहुतायत रहेगी। मू ल ोतों एवं थों क यह एक व फ़ोटक बहुलता, यहू दी-ईसाई मतों के सी मत स ा तों, आ ाओं एवं भ व यवा णयों मे ं सं हीत ान से बहुत उ तर क है। धम थों से भरे वशाल पु तकालयों मे ं व भ य यों एवं पर पराओं ारा ा अनुभवज य य ान एवं स दयों से होता आया आपसी वाद- ववाद सं क लत है। इस आ या मक अनुभव का ान इस कार कसी के अनुभव को नकारे बना सं चत होता चला गया, य प बदलते समय के साथ कुछ पर पराएँ वाभा वक प से कमज़ोर पड़ कर लु हो सकती है।ं भारतीय धा मक पर पराओं मे ं ऐसी कोई घटनाएँ नहीं हैं जनमे ं सं थागत एवं सं ग ठत प से धा मक पु तकें जलाई गई हों। ये पर पराएँ बना कसी अ तम न कष को नकाले हुए ान के मु ोत का एक खुला मं च है,ं इस लए यहाँ हमेशा नये वचारों एवं अनुभवों के लए थान रहता है। समय के साथ पर पराएँ बदलती है,ं पर तु फर भी उनक नर तरता उ हे ं ाचीन, आधु नक एवं उ र आधु नक काल के वचारों के साथ आराम से सम वत करती है। व भ पर पराएँ एक-दू सरे को भा वत भी करती हैं तथा उनमे ं गहन प मे ं आपसी आदान- दान भी होता रहता है। पर पराओं मे ं स य क खोज का काय नय मत चलने वाले आ या मक अ यास (साधनाओं) से अलग नहीं है, जसका उ े य मानव क पीड़ा- नवारण एवं उसे ान का काश दखाना है। यह स ा त प म ारा आ तिरक पिरवतन क अपे ा जानकारी को ाथ मकता देता है। परमा मा को पाने के लए धा मक पर पराएँ व भ अटकलों को अ वीकार करती है।ं 52 भारतीय धा मक ान को ‘ ु त’ (अनुभूत ान), ‘मत’ (राय अथवा स ा त), ‘वाद’ (तक या पिरदृ य), ‘ स ा त’ ( स त यवाद), ‘शा ’ (अ छ तरह था पत दृ कोण जो हमे ं दशा नदश देते है)ं , तथा ‘ मृ त’ (ऐ तहा सक द तावेज) मे ं वग कृत कया जाता है। जब मुझसे पू छा जाता है क ह दुओ ं क बाइबल कौन-सी है तब मेरा उ र हमेशा यही होता है क ह दू धम मे ं केवल एक पु तक नहीं, समू चा पु तकालय ै

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है। कसी भी ज टल ान के भ डार के लए एक से अ धक पु तक क आव यकता होती है। हालाँ क यहू दी-ईसाई पर पराओं मे ं उनके स ब धत शा ों पर बड़ी सं या मे ं ट प णयाँ क गई है,ं फर भी उनक थापना के बाद से ही येक मे ं थायी और अपिरवतनीय स ा तों को थर मनवाने का सतत् यास कया गया है। कोई भी एक ऐ तहा सक पु तक जसे वशेष प से अ तम स ा-के माना गया हो भारतीय धा मक पर पराओं मे ं नहीं है।53 वा तव मे ं ल खत शा को ह दू धम मे ं व वध कार के सीधे मौ खक स ष े ण के सामने बेहद गौण माना गया है।54 यों क तक एवं न पण को पिर थ तज य एवं सापे य प मे ं देखा जाता है, इस लए व वध प थों, शा ों एवं आ या मक साधनाओं को स ा त मे ं जकड़ने का कोई अथ नहीं है।

पू वा हों एवं कम से मु धम का न हताथ अ तत: व भ तरीकों का उपयोग करते हुए मनु य को कम के ब धन से मु दलाना है। यह य को ‘सत्- चत्-आन द’ (अथात आन दमयी चेतना का उ तम तर) क थ त मे ं ले जाता है, जसमे ं वह उन पिर थ तयों के अनुसार सहज ही कम करता है (जो क उसके कम के वेग से सं चा लत होते है)ं । एक ँ जाने के प ात् कोई नया कम उस य बार उस थ त मे ं पहुच के खाते मे ं जमा नहीं होता, यों क एक कता के प मे ं वह सम त अहं कारों से मु हो चुका होता है। उसके पछले कम भी धीरे-धीरे श थल हो कर समा हो जाते है।ं बौ धम मे ं भी इसी कार क समान अनुभू त है क ा ड मे ं सभी व तुओ ं का णभं गरु एवं ासं गक अ त व है और ये सभी व तुए ँ जनमे ं भू तकाल, वतमान एवं भ व य भी स म लत है,ं आपस मे ं एक-दू सरे से जुड़ी है।ं ा ड मे ं कोई भी भौ तक अथवा वैचािरक इकाई ऐसी नहीं है जसे सभी से अलग-थलग रखा जा सके। यह बोध य को उन व तुओ ं के ब धन से मु करता है जो वा त वक प से अ तत: उप थत ही नहीं है और जनक खोज दु:ख भोगने का अपिरहाय कारण बनता है। बौ धम का यह े ता भाव य के लए इस सापे य सं सार से मु लाता है और वह अपने शरीर के रहते ‘ नवाण’ क थ त भी पा लेता है। प म क म या अवधारणाओं के वपरीत ‘कम’ उन अथ मे ं ‘भा यवाद’ नहीं है जसमे ं कोई बाहरी श मानव को उसक वाधीनता से वं चत रखती हो। इसी म याबोध के कारण भारतीय धा मक स यता के बारे मे ं प मी समझ वकृत है। जब क स ाई यह है क कम का स ा त फल (पिरणाम) क च ता कये बना नर तर काय करने क चुनौती है। योग के स ा तों मे ं ‘कमयोग’ नाम से एक पू री शाखा है जसमे ं मनु य को आ या मक यवहार के ारा स कम क ओर िे रत कया जाता है। इसमे ं मनु य कसी वल बत सुपिरणाम क लालसा से कम नहीं करता ब क वह स कम के योजन के लए ही कम करता है, ता क वतमान मे ं अहं कार आधािरत उसक धारणाओं से उसे मु ा हो। ई

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अ य कई व ानों क तरह ी अर व द भी यही मानते हैं क मनु य क वकासया ा मे ं ‘मानवता’ ही वह मं च अथवा ार भक ब दु है जहाँ से ा ड एक व क ओर वापस लौटना आर भ करता है। दू सरे श दों मे ं कहा जाये तो ा ड क बहुलता के बीच मनु य ही वह कारक है जो उसे अ भ एकता क ओर वापस ले जाता है।55 अत: यह कहना हा या पद है क ह दू धम मे ं कारक का अभाव है। इस कार क व दृ के मह वपू ण सामा जक भाव होते है।ं ऑगन (Organ) लखते हैं क— ‘‘महान उप नषदों के कथनों मे ं ह दू धम उस परम एक करण को खोजता है जो कहता है क ‘त वम स’ और ‘अयमा म ।’ कोई ‘वह तत्’ मू लत: ‘त वं ’ ही है और मे ं सब समा हत है।ं मनु य पू छता है क मुझे अपने पड़ोसी को अपनी तरह यों समझना चा हए? ह दू धम मे ं इसका नणायक और सटीक उ र है, ‘ यों क तु हारा पड़ोसी तुम वयं ही हो, तु हारा वा त वक आ म व प।’ यह आधु नक समय क सबसे मह वपू ण सम या के नदान हेत ु एक सं केत स हो सकता है क रा ों क व वधता के बीच मनु य क एकता को कैसे ा कया जाये।’’56

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ह दू पर पराओं मे ं यीशु के समान चेतना का उ तर हम मे ं से हर कोई ा कर सकता है एवं यह थ त ा करने के लए हमे ं कसी ऐ तहा सक घटना, कसी व श देवता अथवा कसी सं था के व ास पर नभर नहीं होना है। और न ही चेतना के इस तर को ा करने के लए य को मृ यु का वरण करना पड़े गा, ब क वह इस दु नया मे ं जी वत रहते हुए भी ा कया जा सकता है जस तरह यीशु मसीह ने इसे स भवत: ा कया था। ‘ यान,’ ‘ ान,’ ‘त ’ और ‘भ ’ जैसे कुछ साधन और तकनीक हैं जो कसी बाहरी स ा या नदशों के भरोसे नहीं हैं और इनके ारा मनु य अपने-आप सीखता है। भारतीय पर परा मे ं कोई चच-स ा, पोप अथवा के ीय ा धकरण नहीं है। ब क यहाँ कई अवतारों, स तों और पैग़ बरों ने स दयों से व भ कार क आ या मक तकनीकों एवं नवीन या याओं से इन पर पराओं ं को सजीव रखा है। जैसा क ी अर व द कहते है— ‘‘यही वह पहली चौंकाने वाली बात है जस पर यू रोपीय मन-बु को ठोकर लगती है, यों क वह भारतीय धा मक पर पराओं को समझने मे ं ख़ुद को असमथ पाता है। वह पू छता है, ‘आ मा कहाँ है?’ उसका म त क एवं न त ं उसका शरीर कहाँ है? वह समझ ही नहीं पाता क कोई धम वचार कहाँ है? ऐसा कैसे हो सकता है जहाँ कोई कठोर नयम- स ा त शा पत नरक-द ड को न मनवाता हो, कोई ठोस धा मक त व न हों, यहाँ तक क कोई न त धमशा या मू लम भी न हों जो क इस धम को अपने वरोधी अथवा ी



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त ी धम से व श सा बत करते हों। कोई धम ऐसा कैसे हो सकता है जसमे ं कोई धान पोप न हो, कोई शासक पादरी न हो, चच न हो, कोई गरजाघर अथवा पिरष णाली न हो, कसी भी अनुयायी पर अ नवाय एवं बा यकारी धा मक नयम लागू न हों तथा कसी कार का धा मक शासन एवं अनुशासन न हो? ह दू पुरो हत मा औपचािरक अ धकारी होते हैं जनके पास कसी कार क पौरो ह य स ा या अ धकार नहीं होते क वे अनुशासना मक कारवाई कर सकें, जब क ह दू प डत क भू मका केवल शा ों एवं थों क या या करने तक ही सी मत है, वह शासक अथवा धम कानू न- स ा त बनाने वाला नहीं हो सकता। फर ह दू धम को एक धम कैसे कहा जा सकता है जब क वह सभी कार क मा यताओं को समा हत करता है, इसमे ं ना तकता और अ य े वाद क भी अनुम त है तथा यह व भ तरीकों वाले आ या मक अनुभवों तथा साह सक धा मक योगों को वीकृ त दान करता है।’’57 ह दू धम मे ं कोई मानक या आ धकािरक धमशा नहीं है, यों क ाचीन भारत मे ं कभी भी थोपा हुआ चच न मत शा जैसा कुछ नहीं रहा और न ही चच जैसी कोई औपचािरक सं थाएँ या पादिरयों क सं था जो सावभौ मक अ धकार से सबके लए नयम बनाये और उनमे ं सं शोधन करे और वशेष बात यह भी रही क कभी भी समाज पर कसी कार क सं रचनाएँ बलपू वक थोपी नहीं ग । जब भी इस कार के स ा मक दावे अ त व मे ं आये तो वे बेहद सी मत अ धकार े तक ही रहे और उ हे ं स ती से चुनौती भी दी जाती रही। इस लए वे भारतीय समाज पर अ धक समय तक नय ण रखने मे ं सफल नहीं हुए।58 भारतीय धा मक पर पराओं मे ं कोई भी अ धकारी या स ा कसी को ‘ ह दू ’ के प मे ं घो षत नहीं करती। यहाँ ‘बप त मा’ क तरह कोई अ नवाय वेश- ब दु नहीं है जसमे ं चच ारा आ धकािरक पादरी अथवा कोई म ी इस या के ारा कसी य को ईसाई समुदाय का सद य बनाते हों। यों क ह दू धम मे ं कसी सं गठन, समाज अथवा सं था का सद य बनना आव यक नहीं है एवं इसमे ं अपने आ म- ान एवं वत प से आ या मक े मे ं आगे बढ़े हुए व भ साधुओ-ं व ानों को म हमाम डत कया जाता है, इस लए यहाँ कसी कठोर सं थागत नय ण क सम या कभी उ प ही नहीं हुई। कसी भी सं था, स ा या अ धकारी को कसी य को ह दू धम से ब ह कृत करने का अ धकार नहीं है। धा मक पर पराओं मे ं भ भाव एवं पू जन-अचन क कई प तयाँ हैं जो क य गत प से अथवा समू ह मे,ं कसी नराकार परमे र के सम अथवा कसी वशेष देवता के सामने, घर पर अथवा म दर मे ं स प क जाती है।ं एक सामा य धा मक य मु य प से सं थागत स ाओं से मु होता है और कम-से-कम उसे े





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अपने धा मक आचरण के लए कसी ‘चच’ अथवा ‘उ मा’ जैसे आव यकता नहीं होती।

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सामा यत: एक मा यता है क ए शयाईयों के मुकाबले प मी लोग अ धकतर य वादी होते है,ं जब क वा त वक जाँच बताती है क मामला इससे एकदम वपरीत है। जो प मी लोग यहू दी अथवा ईसाई धम का पालन करते हैं वे औपचािरक प से सुपिरभा षत धा मक सं गठनों के सद य हो जाते है,ं जो अनु पता का वातावरण उ प करते है।ं कई प मी पिरवार स दयों से ऐसी सं थाओं के साथ स ब रहते है।ं पिरवतन धीरे-धीरे ल बे समय तक सहम त बनने पर होता है। प म मे ं य गत अस तोष एवं स दाय क री तयों को य गत बनाने के यासों पर कड़ी असहम त कट क जाती है। इसके वपरीत धा मक पर पराओं मे ं य वाद मू ल प से वत: च त है। कोई भी भारतीय धा मक समू ह अपनी पर परा या यवहारों को स पू ण मानवता या कसी अ य समुदाय पर थोपने का वचार भी नहीं करेगा। सनातन धा मक स यताओं के इ तहास मे ं कसी भी धा मक समू ह ने ऐसा यास कभी नहीं कया— कम-से-कम एक ल बे कालख ड तक अथवा एक बड़े े ा धकार मे ं तो कभी नहीं। ह दू धम मे ं ऐसी कोई आ या मक पर परा नहीं है जो भगवान या और कसी अ धकारी ारा दू सरे समुदाय के लोगों का धम पिरवतन करवाती हो। य क बु जीवन क ओर आ या मक या ा कसी कार क सामू हक या अथवा अ य समू हों के सम कये गये कसी व श दशन पर आधािरत नहीं होती है। ह दू धम मे ं कोई ‘का फ़र’ नहीं है, ब क केवल ‘अ ानी’ है। थानीय स ाएँ (जैसे ाम पं चायत आ द) कसी य को नयमों के उ ं घन पर जुमाना लगाने अथवा अ य धक ग भीर मामलों मे ं गाँव से न का सत करने का अ धकार रखती है,ं पर तु उनके अ धकार े हमेशा सी मत एवं थानीय ही होते है।ं ह दू धम मे ं ई र के सापे य कोई वशेषा धकार ा कबीला, सं कृ त, थान या समय नहीं होता है, यों क ई र सब को सुलभ है एवं सबके दय मे ं थत है और उसने कसी को भी अपना त न ध बनने का मता धकार नहीं दया है। कसी भी समुदाय का इ तहास पू ण नहीं माना जाता और न ही इसे दू सरे समुदायों के इ तहासों का अवमू यन करने का अ धकार है। इसी तरह से व वध व दृ याँ, साधन, णा लयाँ, प थ, छ वयाँ तथा उपसं कृ तयाँ आपस मे ं एक साथ रह सकती है।ं यह भी आव यक नहीं है क स मान पाने यो य थ त के लए आपस मे ं कोई वैचािरक समझौता हो। उदाहरण के लए आ द शं कर ने अपने दृ कोण से असहमत होने वालों को अपने दायरे से बाहर नहीं कया, ब क उनसे सं वाद था पत कया। धा मक जीवन, व ास एवं पू जा प त जैसे मामलों मे ं बौ क बहस एवं तक से कभी भी कनारा नहीं कया गया।





गत पथ ( वधम) चुनने क

वत ता

अ धकां श भारतीय धा मक पर पराओं मे ं येक य का अपना-अपना अ तीय ‘ वधम’ ( य गत धम) अथवा सं सार मे ं आने का उ े य होता है। यह वधम उसके य गत वभाव (चिर ), जो उसके पू व कम , गुणों तथा जीवन क पिर थ तयों के अनु प बनता है, पर नभर है। बौ धम मे ं ‘उपाय’ (कुशलता के अथ मे)ं क अवधारणा है जो क भ लोगों के बीच पर पर स मान का आधार बनती है। वहीं जैन धम मे ं स य के सापे य एवं एका धक पिरदृ य के स ा त ान मे ं न हत अ न तता के साथ होने से उ हे ं हठध मता और सावभौ मक पू णता के स ा तों से सं र ण दान करते है।ं उ सभी उदाहरण दशाते हैं क भारतीय धा मक पर पराएँ बहुत ही व वधतापू ण, उदार और सभी समुदायों, पिरवारों एवं य यों के अनुकूल एवं वशेष पिर थ तयों के लए बनी हुई है।ं जीवन के पु षाथ को चार वग मे ं बाँटा गया है तथा येक वग के लए वशेष नै तक स ा तों क अनुशंसा क गई है—‘धम’ को य के पिरवार, समाज एवं कृ त के साथ नै तक स ब धों के अनुसरण के प मे,ं ‘अथ’ को नै तक मा यमों से धन-समृ क ा के प मे,ं ‘काम’ को बना अनै तक हुए शारीिरक इ छाओं क पू त के प मे ं तथा ‘मो ’ को य के आ म ान एवं मु क खोज के प मे ं न पत कया गया है। परम स य क खोज का केवल एक ही सही रा ता है, जैसे बोझ से धा मक पर पराएँ मु है,ं इस लए सभी दशाओं मे ं फली-फूली है।ं उदाहरण के लए ह दू सामा यत: वयं को योग के चार मु य माग मे ं से एक या अ धक का एक साथ अनुसरण करते हुए देखते है,ं जैसे य सहज ान ( ानयोग), यान, समपण (भ योग) और कम मे ं कुशलता (कमयोग)। ये न तो पर पर अलग हैं और न ही वरोधी, ये साधक क वाभा वक पस द के अनु प होते है।ं

देवता (ई देव) के चयन क

वत ता

ह दू धम मे ं ‘अवतार’ ई र के अवतरण होते है।ं यहाँ अवतार क भू मका ईसाई स दाय मे ं यीशु ारा नभाई गई भू मका के समक होती है, पर तु धा मक पर पराओं मे ं कसी अवतार को ‘ व श और अ तम’ नहीं माना जाता तथा अ य पर पराओं के इस तरह के दावों को वीकृ त दान क जाती है। इसी लए ह दू यीशु को प व एवं ई र के एक अवतार के प मे ं वीकार कर लेते है,ं पर तु व श अवतार क तरह नहीं। ी राम एवं ी कृ ण ह दुओ ं ारा सवा धक पू जे जाने वाले अवतार है।ं यहाँ एक इ देव क भ दू सरे को ु टपू ण नहीं बताती, यों क ँ ने के कई पथ है।ं सव यापी ई र तक पहुच व भ देवी-देवता उस एक परम स य क ऊजा और ा डीय याओं के व श गुणों के तीक हैं तथा मू तपू जक भाव के देवी-देवता नहीं है।ं वे या तो ी ै े ी े ी ै े

व प (जैसे ल मी, दुगा इ या द ‘देवी’) अथवा पु ष व प (जैसे अ न, वायु आ द देवता) के प मे ं कट होते है।ं सभी दे वयाँ एक ही मुख देवी के व भ प हैं जो क ई र के अधीन नहीं है,ं ब क वे वयं ‘श - व पा’ (बु -ऊजा) ई र है।ं ‘देवी’ मा ‘देव’ व प का ी- प है, वह देव का यु प नहीं है। ह दू एवं बौ त एवं योग मे ं देवताओं के मानव आकृ त जैसे च ों मे ं मू तयाँ नहीं है,ं ब क कसी कलाकार ारा एक अमू त स ा त को मू त प मे ं तपा दत करने के समान है।ं इसी लए एक ही देवता क हज़ारों छ वयाँ हो सकती है,ं ऐसी भी ज हे ं य - प मे ं रे खत नहीं कया गया हो (जैसे क या मतीय च ) अथवा बना कसी च के भी य कया गया हो। कुछ थ तयों मे ं देवताओं क क पना साधक के शरीर के भीतर ऊजाओं और मनीषाओं के प मे ं क जाती है जो क ा ड क ऊजाओं एवं मनीषाओं के अनु प होती है। यह ‘ब धु स ा त’ के स य होने जैसा है। ह दू धम मे ं कसी प व भौगो लक थल को भी देवी प मे ं पू जा जाता है। उदाहरण के लए गं गा नदी को गं गा ‘देवी’ के प मे ं अ भ य कया गया है तथा इसे गं गा देवी का शरीर माना गया है। आ या मक यान के त करने के लए कसी नजी देवता क अवधारणा को ‘इ देव’ कहा जाता है। ‘पू जा’ एक आम धा मक कम का ड है जसके ारा एक भ अयत म े एवं भ भाव से अपने इ देवता को स मा नत अ त थ के प मे ं आम त करता है। अ धकां श ह दू अपने चुने हुए इ देवता के साथ बना कसी म य थ के नजी एवं सीधा स पक था पत करने मे ं व ास करते हैं और अ धकां श पिरवार दै नक पू जापाठ एवं ई र सेवा हेत ु म दर के प मे ं अपने घर मे ं एक अलग थान नधािरत करते है।ं कसी दृ य, मू त अथवा छ व के अ तिर कोई ‘म ’ भी इ देव हो सकता है। सं कृत क वणमाला मे ं येक श द- व न एक व श द य बोध एवं ऊजा का तीक होती है। यही कारण है क साधक अपनी कृ त एवं पिर थ तयों के आधार पर कई म ों मे ं से चुनाव कर सकता है। येक य (भ ) ारा उसके इ देवता क पू जा को हम अ तीय अथवा य गत एके रवाद के प मे ं देख सकते है,ं यों क उस भ के लए वही इ देवता परमे र का त न ध व करते है।ं पर तु इस य गत एके रवाद को न तो सावभौ मक माना जाता है और न ही दू सरों पर थोपने क को शश क जाती है। जब कसी स दाय- वशेष के देवता को ‘सावभौ मक’ कर थोपने का यास कया जाता है तभी ‘एकमा ’ (अथवा व श ता बोध) क सम या उ प होती है। एक ह दू कह सकता है क ईसाइयों ने अपने इ देव (अथात यीशु) को ले कर उसे सावभौ मक कर दया है तथा अपने आ ामक धम पिरवतन के मा यम से उ होंने अपनी श को और बढ़ाया है।59

धा मक पर परा का व णम नयम प म का व णम नयम कहता है क हम दू सरों के साथ वही करे ं जो क दू सरों से वयं अपने लए चाहते है।ं वाभा वक प से येक स ब धत प के अनुकूल पिरणाम पाने का यह एक यावहािरक रा ता है। इससे और उ तर पर जाते हुए यहू दी-ईसाई प थ मे ं कहा गया है क अपने पड़ोसी से उतना म े करो जतना तुम वयं से करते हो। भारतीय धा मक पर पराओं का सुनहरा नयम इस स ा त को एक कदम और आगे ले जाते हुए कहता है क तु हारे सामने कोई ‘दू सरा’ है ही नहीं, यों क य प से जो ‘अ य’ दख रहा है वह अ तत: तु हारा ही त प है। सं प े मे ं अपने पड़ोसी से अपने जैसा म े करो, यों क तु हारा पड़ोसी तु हारा ही एक व प है। यह इस अ याय मे ं पहले उ खत अ भ एकता क त वमीमां सा पर आधािरत है। भगव गीता (2:14-15) मे ं सभी के त ‘समता’ क वकालत क गई है यों क ई र का ‘परम स य’ सभी जीवों के प मे ं कट है, अथात् सभी जीव ई र मे ं हैं तथा उ हे ं उससे अलग नहीं कया जा सकता। आगे प कया गया है (13:27) क सभी जीवों मे ं ‘आ मा’ समान है तथा ‘समवृ ’ न मत करने का मु यसाधन येक जीव के चिर एवं य व का वकास (गुण वकास) है। यहाँ ‘सम’ श द का उपयोग य क स ामू लक पहचान के लए है। उदारता एवं अनुशा सत समानता (समता) क भावना से ही यह दृढ़ व ास उ प होता है क येक य के भीतर समान आ मा बसती है और यही उस एकता क भावना को मजबू त करती है। इस लए भगवान ने अजुन से समबु यु होने के लए कहा है (2:48)। भारतीय धा मक स यताओं मे ं यही ‘समभाव’ वचा के रं ग के त भी द शत होता है। उदाहरण के लए दो सबसे मुख ह दू अवतार, ी राम एवं ी कृ ण दोनों ही याम-वण के थे तथा दे वयों मे ं सबसे स ‘काली’ और ‘दुगा’ का वण भी काला या साँवला है। भगवान व णु को भी ‘मेघवण’ (काले बादलों जैसे रं ग वाले) कहा गया है और भगवान शव भी ऐसे ही दशाए गये है।ं महाभारत थ मे ं इस स ब ध मे ं एक व तार पू ण चचा है जसमे ं मनु य के ‘वण या रं ग’ को उसके गुणों पर वरीयता देने क कसौटी क पू री तरह से अवहेलना क गई है। भारतीय धा मक पर परा के इसी व णम नयम क भावना के अनुसार धा मक साधकों को कसी दू सरे क धा मक भावनाओं मे ं ह त प े करने से मना कया गया है जसे कभीकभार भू ल से ‘ न यता’ समझ लया जाता है। कसी साधक को उसके धा मक वचारों से मतभेद रखने वाले दू सरे धमावल बी का धम पिरवतन करने अथवा मारने का कोई स ा त नहीं है। इन पर पराओं मे ं ऐसी कोई श ा नहीं है क दू सरे धम के पू जा थलों को न कया जाये अथवा उ हे ं बदनाम करके ‘बुरे धम’ के ें





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प मे ं च त कया जाये या उनके व ासों के लए उ हे ं कसी कार द ड अथवा उन पर ‘ ज़जया’ जैसा कर लागू कया जाये। यह कोई आ य क बात नहीं है क ह दुओ ं ने ईसाई मत और फर इ लाम के उदय के प ात् धा मक उ पीड़न क वजह से ार भक ईसाइयों, यहू दयों और पार सयों को अपने यहाँ ईसा के बाद क कुछ शता दयों मे ं शरण दी थी, जब वे अपनी मातृभू म को छोड़ कर भागते फर रहे थे। इ लाम के आगमन से पहले पारसी मत फ़ारस एवं उसके आसपास के देशों मे ं सबसे मुख धम था। अपने देश से भगाये गये पार सयों को भारत मे ं शरण मली और आज भारत ही दु नया का एकमा देश है जहाँ पारसी समुदाय सबसे अ धक समृ है। भारत के कई शीष उ ोगप त, सरकारी अ धकारी एवं पेशव े र ‘ज़ोरा यन’ हैं जो अपने आपको ‘पारसी’ कहते है।ं द ण भारत के ‘थॉमस ईसाई’ वयं को यीशु के त काल बाद वाले कालख ड का मू ल नवासी कहते हैं एवं उ हे ं भारत के बहुलतावादी समाज मे ं गहरा आदर और स मान मला है। दु नया का सतत् सं चा लत सबसे पुराना ‘ सनेगॉग’—synagogue (यहू दी आराधनालय) द ण भारत के ‘को चन’ (अब को ी) मे ं थत है। य द यीशु का ज म भारत मे ं हुआ होता तो हो सकता है क उ हे ं भी भगवान राम, कृ ण अथवा दू सरे अवतारों क तरह एक और अवतार के प मे ं हण कर लया जाता। वैसे भी कई भारतीय घरों एवं म दरों मे ं (उदाहरण के लए रामकृ ण मशन, परमहं स योगान द आ म इ या द) यीशु को भी स म लत कर लया जाता है तथा कई ह दू गु ओं ारा यीशु को पदो त करके उ हे ं ी राम, ी कृ ण, शव इ या द देवताओं के समक भी रख दया जाता है। कसी ह दू के लए ‘‘एक ही भु, एक ही चच, एक ही रा ता’’ के वचार का समथन करना अस भव, द कयानू सी और उसक सोच से बाहर है, यों क उसके अनुसार इस कार का कथन, कृ त क व वधता, मनु य क थ त तथा ई र के साथ होने वाले दैवीय स पक क अनदेखी करना है। पर तु अपनी मू ल मा यताओं को अ वीकार कये बना ईसाई मत कभी भी ी राम अथवा ी कृ ण को ‘ई र के अवतार’ के प मे ं वैसी मा यता नहीं दे सकता जैसी क उसने यीशु को दान क है, न ही भगवान ‘ शव’ को ईसाई कभी सव देवता के प मे ं सव यापी मान सकते है,ं न ही ‘श पा देवी’ को माता- पी ई र या ई र क प नी के प मे ं पू य और परमे र जैसे द शत कर सकते है।ं न ही ँ ने ईसाई मत ने इस बात को माना क येक देवता के कई प होते हैं जन तक पहुच के लए व भ मा यम उपल ध हैं तथा कोई भी कसी के ीय मानव-आधािरत स ा अथवा नय ण के अधीन नहीं है। अत: इस बात मे ं कोई आ य नहीं है क प म के कसी भी इ ाहमी मत ने कसी दू सरे इ ाहमी मत के साथ कसी कार का तालमेल अथवा एक करण नहीं कया, ग़ैर-इ ाहमी धम के साथ तो बलकुल भी नहीं। ह दुओ ं के मन मे ं गहरे बैठे ं ैं ी े ें े ो े ं

हुए बहुलतावादी स ा त के कारण उनमे ं से अ धकां श लोग इस बात से अं जान हैं क उनक धा मक भावनाओं को प मी इ ाहमी मत बलकुल भी आदर नहीं देत,े उ टे वे न केवल ह दुओ ं क पू जा-प त को ‘बुतपर ती’ और झू ठे भगवान क भ कहते हैं ब क औरों के भी सभी देवताओं को उपे त करते है।ं सनातन धा मक ा तकारी बहुलतावाद अ भ स ा त है जो धमशा ों के मू ल व प पर इतर च तन क तरह मढ़ा नहीं जा सकता। हमारे आधु नक समय मे ं यहू दी और ईसाई मतों के लए अपने क र ख मे ं समझौतावादी एवं स ह णु होने क मजबू री है, पर तु आमतौर पर यह केवल राजनै तक प से सही दखाई देने तथा ं रा भर है। या फर स भवत: यह एक रणनी त के आपसी टकराव से बचने का एक पैत तहत कया जा रहा है जसमे ं दू सरी सं कृ त का स मान करने का दखावा करते हुए धमा तिरत होने वाले को वश मे ं कया जा सके, ता क अ तम चरण मे ं आ ामक धमा तरण करके उ हे ं अपने समुदाय मे ं मलाया जा सके। उदाहरण के लए महाभारत मे ं उ खत बहुलतावादी लोकाचार को देखे ं तो वह एक ग़ैर-अलगाववादी ढाँचे पर आधािरत है जसमे ं मा यताओं, अवधारणाओं एवं वचारों क बहुलता स म लत है। भारतीयों मे ं मनोवै ा नक प से यह बहुलतावादी स ा त इतने गहरे समाया हुआ है क वे सरलता से सभी कार के सापे य स य, अ न तता, अ प ता एवं सभी कार के वकारों एवं बहुलता को वीकार कर लेते है।ं महाभारत मे ं इस कार के कई दाश नक शा ाथ अ भले खत हैं जनमे ं व भ दाश नक णा लयों के बीच व जनों मे ं बहुलतावाद के आधार पर वाद- ववाद हुआ है। इस महाका य मे ं व भ दाश नक णा लयों के वचार भी है,ं जैसे सां य, वै णव, शैव धमशा ों तथा मण पी ग़ैर-ई रवाद।60 नै तकता, राजनी त और समाजशा पर एक मु बौ क वातावरण मे ं बहस क गई है।61 यह उस प मी ‘यहोवा’ चुने हुए लोगों के ई यालु भगवान के एकदम वपरीत है जो अपने तेज़तरार पैग़ बरों के मा यम से अपने अनुया ययों को बना शत आ ाकािरता का नदश देता है और उसक पू जा और आचरण स ब धी नयमों का कड़ाई से पालन नहीं कये जाने पर अपने गु से के कोप का डर दखाता है।

प म क कृ म एकता अब मैं यहू दी-ईसाई पर पराओं पर अपना यान के त करता हू ँ तथा सनातन धा मक पर पराओं के पिर े य मे ं यह दखाने का यास करता हू ँ क प मी मौ लक मा यताएँ और ा ड स ब धी उनके नयम कन सम याओं से त है।ं दू सरों के साथ उनके मता तर क आप ही उनक असली च ता है जसे फर बा प मे ं तुत कया जाता है। मेरा आधारभू त वचार यह है क प मी स यता (अथवा य द धा मक और ा ड स ब धी आधार पर कहे ं तो यहू दी-ईसाई स यता) मे ं जो तथाक थत एकता है वह कृ म है, जैसे इस पु तक मे ं पिरभा षत है। प म क यह ं े ों े ो ी ै े

एकता अलग-अलग एवं वत प से थत व भ भागों से ार भ होती है जसे भारी यासों ारा लाया जाता है। प म ने अपने व भ भागों को एक कृत करने मे ं ग त अव य क है, पर तु यह अ धकतर जानबू झ कर अ य धक असं गत एवं भ कार क मौ लक व दृ यों को एक साथ जोड़ कर क गई है। एकता क यह या ‘कुल जोड़ शू य’ पिर े य से त पधा करने वाले दृ कोणों से उभर कर आई है जो इनके पर पर सहवत होने एवं एक दू सरे पर भाव डालने मे ं बाधक है। असमान एवं वषम त वों को ऐसे मलाया जाता है ता क एक ही प हावी हो। दबने वाले प के चु न दा ह सों को ह थया लया जाता है तथा जो हावी प के बु नयादी स ा तों के साथ मेल नहीं खाते उ हे ं न दत करके अ वीकृत कर दया जाता है। प म ने ‘ य वाद’ पर बल देने के साथ-साथ अहं कार को बढ़ाने मे ं भी कोई कसर नहीं छोड़ी है। इस अहं भाव को ता ककता ने और भी मजबू त बनाया है जसने केवल ‘यह या वह’ क सोच और आण वक व व ान को ज म दया, जससे वह अहं नय त ढ़ग से यवहार कर सके। इसी अहं वादी च मे से दू सरों के साथ मतभेदों को देखा जाता है। जब प मी य अपने इस सी मत -आधारी (यह या वह) तक से ह दू धम के बहुलतावाद क ओर देखता है तो उसक व दृ को उप थत चुनौती ग भीर और यहाँ तक क ख़तरनाक भी तीत होती है। उसक त या आमतौर पर इस अ त- य त दखने वाले धम क ज टलता को कम करके उसे एक साधारण वैचािरक अवधारणा मे ं बाँधने क होती है, जैसे बहुदव े वाद, जा तआधािरत अनु म आ द। इस सम या के मू ल उ गम को समझने के म मे ं हमे ं प मी वकास के कुछ पहलुओ ं पर यान देने क आव यकता है—सबसे पहले यहू दी-ईसाई ा ड क क पना तथा शा ीय यू नानी व दृ के बीच का वभाजन और उसके बाद पाँच मह वपू ण घटना म जनमे ं कृ म एकता लाने के सभी यास टू ट गये। अ धकां श मामलों मे ं सं घषशील व दृ याँ अपने आप मे ं ही पू ण के बजाय कृ म हैं और इसी लए इनमे ं पर पर हं सक वरोध हुए। प म मे ं यह वृ रही है क ग त के येक अगले चरण मे ं उसक पछली अव था का सफ़ाया कर दया जाता है, यों क उस पू व चरण को तब एक ख़तरे के प मे ं देखा जाता है। पिरणाम व प एक ‘अ थरतावादी और व छ तावादी’ दृ य उभरता है।

प म को गढ़ने हेत ु टे पलटन योजना ं लोर के व ान एवं इससे पहले क हम इस व लेषण मे ं उतरे,ं मैं सन 2003 मे ं बैग ँ ा जसने प म क धम पर हुए एक स मेलन मे ं अपने अनुभव का वणन करना चाहू ग बेहद कमज़ोर और असं गत क थत आ तिरक एकता को प प से उघाड़ दया। ‘टे प टन फ़ाउ डे शन’ (Templeton Foundation) नामक सं था, जो क आधु नक व ान एवं प थ (मु यत: ईसाई प थ) को सुसंगत करने का यास करती है, ने इस े ें ै ों ो े ें ो े ी

स मेलन मे ं व भ वै ा नक द गजों को भेजा जनमे ं कुछ नोबल पुर कार वजेता भी स म लत थे और अ धकां श सावज नक प से ईसाई प थ मे ं अपनी न ा क घोषणा कर चुके थे। इन व ानों ने अपनी य गत सा दा यक मा यताओं और आधु नक व ान के बीच स ब धों के बारे मे ं बताया। टे प टन फ़ाउ डे शन के त कालीन और वतमान अ य वघो षत ईसाई मत- चारक हैं जो एक बड़ी वड बना है, यों क ईसाई मत- चारक पर परागत प से बाइबल के प मे ं धम नरपे व ान का वरोध करते है।ं फर भी ऐसा तीत हुआ क ये व ा सचमुच ही अपने मत और व ान को पास लाना चाहते थे। अपने इस बौ क यायाम (gymnastics) को स करने के लए उ हे ं नववेदा त के स ा तों का (वह भी बना कसी अ भ वीकृ त के) सहारा लेना पड़ा क चेतना ही परम स य तथा इस एकता का आधार है। इस कार ये स ा त उनके अपने मत के वै ा नक होने के आधार बन गये, भले ही इसके लए उ हे ं बाइबल के आ धकािरक स ा तों क या याओं को कतना ही खींचना पड़ा। वा तव मे ं ‘‘चेतना ही सब कुछ है तथा भौ तक दु नया इस क अ भ य है’’ का वै दक स ा त एक तरह से धम और पिरमाण या क (quantum mechanics) के बीच सुसंग त स करने का च लत साधन माग बन चुका है। पर तु व ान एवं सा दा यक े ों के उ व ान यह वीकार करने मे ं असमथ रहे क उ चेतना का यह दृ कोण यहू दी और ईसाई मतों के मानक थों मे ं नहीं है तथा सनातन धा मक पर परा का यह स ा त उनके मतों क मू ल मा यताओं, जैसे आ मा एवं सं सार क कृ त तथा उनके ई र के साथ स ब धों के वपरीत है। इस अवसर पर इन व ाओं ने दैवी एवं मानवीय चेतनाओं के बीच के अ तर के अपने स ा त को पू री तरह से टाल दया जसे यहू दी-ईसाई मा यताओं मे ं कभी भी दू र नहीं कया जा सकता। उ होंने अपने मत के इस आ ह क भी अनदेखी कर दी जसके अनुसार सभी रह यो घाटन इ तहास के कसी व श समय पर ऊपर से कट होते हैं और अपने व यों से यह धारणा य करते हुए तीत हुए क ईसाई प थ स हत सभी धम का आधार त व पिरमाण या क (quantum mechanics) है। स मेलन के पहले ही दन इस कार के वरोधाभासी भाषणों को सुन कर अपने व य के बारे मे ं सोचते हुए (जो मुझे अगले दन देना था) मेरी रात बड़ी बेचौनी मे ं कटी। मैनं े न य कया क मैं जो भाषण देने जा रहा था उसे अब अलग रखा जाये और तय कया क उसके थान पर कई अ य मह वपू ण नों क चचा क जाये क या इ तहास क कसी आक मक घटना से स ब धत सावभौ मक स य का दावा वै ा नक माना जा सकता है, वशेषकर य द वह एक ऐसी घटना पर आधािरत हो जसे कभी दोहराया नहीं जा सकता? इसको और ासां गक बनाने के लए मैनं े पू छा क एक वै ा नक उन दावों के बारे मे ं या सोचता है जसके अ तगत ऐसे ई रीय ह त प े जो क समय- थान को अलग करते हुए इस ा ड के था पत नयमों का ं ें ी े े े ैं ें

ं या व ान मानव इ तहास मे ं घ टत उ ं घन अथवा उ हे ं थायी प से बदल देते है? कसी भ य आ यान को जसमे ं ई र के ारा कये गये ह त प े से रह यो घाटन को ‘ क इस सं सार का एक समा -समय न त है’ वैधता दान कर सकता है? या आ या मकता के त वै ा नक दृ कोण को कसी के मत को ऐ तहा सक आ यान सा बत करने वाला होना चा हए या व ान को एक खुले अथ वाली ँ ने क या के समान होना चा हए जो कसी सा दा यक स ा तों तक पहुच या क समी ा भी करे? या धम पर व ान को लागू करने के यास मे ं हमे ं वै ा नक मानकों का उपयोग धा मक हठधम नयमों पर सवाल उठाने के लए करना चा हए, न क केवल कुछ मतों को वैधता दान करने के लए? या बहुत से ं व ान अपनी जाँच के मत-प थ स ब धी पिरणामों पर तो वचनब नहीं है? एक भौ तक व ानी के प मे ं मैं यह देख कर परेशान था क वहाँ एक त यात वै ा नकों ने बड़ी चतुराई से इ तहास के कता को अपनी मू ल सा दा यक पर पराओं से पृथक कर लया था, ता क वे ख़ुद को वै ा नक प मे ं पेश कर सकें। दू सरे श दों मे ं कहा जाये तो उ होंने बना कसी ऐ तहा सक स दभ के अपने मतों का त न ध व कया और अपने स देश को बदला, जससे क वे वै ा नक ोताओं को भा वत कर सकें। वहाँ उप थत कोई भी य मेरी इन च ताओं को मा यता देने को तैयार नहीं था। इस लए मैनं े उ हे ं उकसाने के यास मे ं यह पू छा क या यहू दीईसाई मतों से जुड़े वै ा नक इस कार के वै ा नक वचार- वमश मे ं इ तहासके कता क सम या से बचना चाहते है,ं जब क इ तहास-के क स ा त उनके ं सा दा यक व श ता के दावे के मू ल मे ं है? इ तहास-के क मतों तथा अ य धम के बीच अ तर को और प करने के लए मैनं े सनातन धा मक पर पराओं के ग़ैर-इ तहासवादी तरीकों पर काश डाला तथा उ हे ं वानुभूत वै ा नक य वाद क तरह च त कया। इसके बाद मैनं े उनसे पू छा क मनु य क मताओं ारा क गई खोजों के आधार पर कये जाने वाले स य के दावों के बारे मे ं व ान या कहता है, जो क दू सरों ारा दोहराए जा सकते हैं ं दू सरे श दों मे,ं तथा पैग़ बरों के मा यम से ई र के ह त प े पर आधािरत नहीं है? या आ या म- व ा (अ त न हत मानव मता पर आधािरत) एक ायो गक व ान है? और य द ऐसा है तो या इसके अनू ठे ऐ तहा सक रह यो घाटनों के साथ मेल कया जा सकता है? इ तहास-के कता पर आधािरत इस वषय पर मेरी बात क या या का एक भारतीय ईसाई, जोसेफ़ भु ने, जो क टे पलटन फ़ाउ डे शन (Templeton Foundation) का एक सहयोगी तथा अमरीक अकादमी मे ं ह दू धम अ ययन मे ं एक राजनै तक प से स य नेता है, बड़े ही आ ामक ढं ग से तवाद कया। ले कन कई अ य भारतीयों ने काय म के बाद मुझसे स पक करके अपना समथन य कया और कहा क मैनं े जस मह वपू ण वषय को उठाया था वह बहुत ँ ं े ी ो े ीं े े

आव यक था, भले ही वहाँ उप थत अ धकां श लोग उसे सुनना तक नहीं चाहते थे। कई मुख य यों ने मुझे सुझाव दया क इ तहास-के कता स ब धी मेरा दृ कोण वहाँ एक मह वपू ण थान पाने का हकदार था तथा मुझे ो सा हत कया क मैं इस पर आगे बात जारी रखू ँ क इ तहास-के कता और आधु नक व ान के बीच कोई सुसंग त नहीं है। कुछ मतों मे ं इ तहास-के कता क मुख भू मका स ब धी मेरे इस काम को आगे बढ़ाने का यह एक नणायक ण था। वहाँ उप थत वै ा नक भी ताज़ा घटना मों क अनदेखी कर रहे थे। यह सव व दत है क यू रोपीय आ दोलन जसे ‘ ानोदय’ (Enlightenment) आ दोलन के प मे ं भी जाना जाता है, ईसाई ढाँचे पर एक दीघकालीन हमला था, ता क राजनै तक प से श शाली पादिरयों के पर कतरे जा सकें और वत वै ा नक योगों को अनुम त मले। इस लड़ाई मे ं व ान के सामने ईसाई मत हार गया और अब उसके शा ीय व ान व ान-स मत तीत हो कर उ हीं ऐ तहा सक हठधम नयमों का पुन: चार करने मे ं य त है।ं ऐसे व ान एक वै ा नक धमशा के प मे ं ईसाई मत के पुन नमाण पर उ ख े नीय भाव डाल रहे है।ं ये व ान ‘ हाइटहेडवादी वचार’ (Whiteheadian thought) जैसी दाश नक े णयों का सहारा लेते है,ं जैसे क चच के व ानों ने बहुत पहले ीक दशन को ह थया कर कया था। जैस-े जैसे मैं इस वषय मे ं और गहरे उतरता गया मैनं े महसू स कया क ईसाई मत और व ान के बीच क दरार स दयों के सं घष के बाद भी ख म नहीं हुई है। इसक जगह वहाँ अ त न हत दरारों को ढाँकने के लए केवल एक परत चढ़ा दी गई है। भारतीय धा मक पर पराओं के साथ ऐसा नहीं है। यहाँ व ान और धम के बीच कोई न हत सै ा तक सं घष नहीं है। धा मक पर परा चू ँ क एक पू व नधािरत सीधी रेखा जैसी नहीं है, इस लए वकास के चरमो कष क ओर जाती हुई नहीं बढ़ती। ब क यह ार भक बीज से घुमावदार तरीके से बढ़ते और लौटते हुए अपने मू यों मे ं वृ करती जाती है। ग़ैर-यू ली डयन (non-Euclidean) व क उ त ग णत और वां टम भौ तक (quantum physics) स ब धी बौ क चुनौ तयों का सामना करने मे ं पर परागत प मी सीधेसपाट वचार असमथ है।ं पर तु भारतीय धा मक म त क सू तम अणु एवं खगोल व ान क दु नया मे ं सहज है।

प मी मतों का उदय— न हत सम याए ँ सनातन धा मक दृ कोण से प म के इ तहास को देखने से उनक समयसमय पर उभरती कुछ मौ लक वैचािरक सम याएँ दखाई देती हैं जो प मी वचारकों ारा ं कृ म एकता के दावों को चुनौती देती रहती है।ं ये इस कार है— ि



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1) आ तिरक व ान, तकनीक, प तयों और स ा तों क कमी, जनके ारा हमारे आ तिरक जीवन और उ चेतना का अ वेषण होता है। 2) ईसाई थों के मू ल मे ं बौ कता का वरोध और वाद- ववाद, कारणों क मीमां सा तथा ा डीय अ वेषण का अभाव है। 3) पू ण स तु के लए ब हगामी झुकाव, जस कारण सा ा यवादी व तार और व नयोजन का अ तहीन सल सला चलता रहता है। 4) ैतवादी अहम् का याग कये बना मु आ ह।

सम या कमी

क अतृ एवं द

मत खोज का

मां क 1 और 2—आ तिरक व ान एवं अ त न मत बौ कता क

आ या म व ा का अभाव या उसका अ प वकास प मी मान सकता क एक गहरी सम या है जो उनके सां कृ तक इ तहास मे ं पिरल त होती है। सं थागत ईसाई मत ने हमेशा से ही अपने रह यवादी साधकों को कनारे कया है। न ही यहू दी-ईसाई मतों के मू ल आ या मक थों मे,ं जनका मुख ज़ोर परमे र ारा तय कया हुआ इ तहास-के त आदेश है, कसी कार के बौ क अथवा दाश नक सं वादों पर बल दया गया है। ईसाई थों मे ं कसी कार क पू छताछ, जाँच, बहस, कारण-मीमां सा और च तन क कोई के ीय पर परा नहीं थी, ले कन जब उ हे ं अ य स यताओं का सामना करना पड़ा तब आलोचकों क त या के कारण इ हे ं बाद मे ं जोड़ा गया। थों का अ धकां श भाग बातचीत अथवा सं वादनुमा नहीं ब क का य पी, कानू नी नयमों एवं ऐ तहा सकता से भरा पड़ा है। हालाँ क दाश नक वचार कहीं-कहीं कुछ ब दुओ ं मे ं न हत है,ं पर तु रह यो घाटन मे ं के ीय प से य नहीं कये गये है।ं आ या मक च तन को यू नानी े णयों से ला कर बाइबल के रह यो घाटनों पर बाद मे ं अलग से रोपा गया। वैसे भी इन थों मे ं कड़े सा दा यक नयम-कानू नों के मुकाबले दाश नक वचारों को कम स मानजनक थान ा है। ईसाई पर परा के एक ार भक और भावशाली व ान सं त ऑग टीन (St. Augustine : 354-430) ने ईसाई मत मे ं लेटो ारा दये गये अ त-पिर कृत और वक सत त वमीमां सा एवं दशन को च लत लया। इस काय को पू रा करने के लए ऑग टीन मुख प से एक ीक वचारक लो टनस (Plotinus : 205-70) पर नभर थे। स दयों बाद एक म ययुगीन साधू और दाश नक सं त थॉमस ए वनास (St. Thomas Aquinas : 1225-1274) ने ईसाई मत मे ं तकसं गत पू छताछ क या लाने के लए अर तू (Aristotle) के काय क सहायता ली। लेटो एवं अर तू ईसाई मतशा ों के वकास के मुख ोत रहे और दोनों ही ईसा-पू व के यू नानी थे तथा इस कार उ होंने ईसाई मत मे ं बौ कता लाने के लए यू नान के दाश नक वचारों का े











मुखता से उपयोग कया।62 उ ख े नीय है क एक समय तक चच ने ए वनास (Aquinas) के दाश नक वचारों को वधम और रह यो घाटनों के लए एक ख़तरा ँ बताया था। दोनों ही मामलों मे,ं जो कृ म एकता ये मतशा ी खोज रहे थे, वह पहुच के बाहर रही, नतीजतन कई न अनसुलझे रहे जनसे नई च ताएँ पनपीं तथा इनके उ रा धकािरयों के बीच कई उ ज े क ववादों का कारण बनीं।63 ए वनास (Aquinas) ने पाया क वह अ भ एकता के वचार को कभी भी पू री तरह य नहीं कर पायेगा, जसक कृ त तकसं गत होने क अपे ा रह यमयी है। बाद मे ं ोटे टे ट सुधारवाद (Protestant Reformation) ने मह वपू ण वै ा नक त यों और उजागर स यों मे ं आपसी मेल का माग श त कया, पर तु बाद के ानोदय को मू ल व ास और तक के बीच सामं ज य बैठाने मे ं केवल आं शक सफलता ही मली। ऐसे यासों का पिरणाम ाय: दोनों प ों मे ं से एक का वनाश या उनके आपसी सं घष के सतत् जारी रहने के प मे ं ही हुआ है।

सम या

मां क 3—बा

व तार

प मी स यता मे ं इन मुख दरारों के साथ-साथ कई अ य मतभेद भी है,ं जैसे ाचीन बनाम आधु नक, अस य या मू तपू जक बनाम स य, आ दम बनाम पिर कृत तथा बहुदव े वादी बनाम एके रवादी। इस कार के लगभग सभी वभेदों ने या तो कसी एक वृ के ारा दू सरी को हड़पने अथवा जबरद ती के कृ म समझौतों के लए मजबू र करने अथवा तरोधी त वों को पू री तरह से ख़ािरज करने का माग श त कया है। इन वृ यों एवं याओं मे ं लगभग हमेशा ही य गत अथवा सामू हक प से दू सरों पर हं सक योजनाओं को स म लत कया गया। यीशु और बु जैसे महान श कों के उपदेश से श ा क ‘‘पृथकतावादी अहं कार के कारण ही पीड़ा उपजती है,’’ क अपे ा प मी अहं कार उ प से अपने आप को नरथक ख़तरनाक तरीकों से बाहरी सं सार को अपने अधीन करने के लए बलपू वक यास करता है। इस अहं भाव क हताशा को बाक दु नया पर थोपने क या ने एक ऐसी एकता को ज म दया जो क कृ म भी है और हं सक भी। उदाहरण के लए ाचीन यू रोप क धरती से जुड़े स दायों एवं पू णतावादी सां कृ तक सं रचनाओं (तथाक थत मू तपू जकों) का ार भ के ईसाई भु व के समय जस कार नाश कया गया वह जतना सोचा था उससे कहीं अ धक यापक और वनाशकारी था।64 मू तपू जक मत यू रोप मे ं कई शता दयों तक बने रहे और उ हे,ं वशेषकर म हलाओं को, द ड देने के लए इन यू जीशन (Inquisition) नामक यायालय णाली वक सत क गई। यू रोपीय आ मण और वजय के दौरान कई मू ल अमरी कयों का नरसं हार एक ल पब द तावेज है। उ हे ं अ धक से अ धक अलग-थलग आर त े ों मे ं रहने के लए मजबू र कया गया तथा हेय प मे ं ं

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सं हालयों मे ं दशन हेत ु और साथ ही उनक याद को उ सव के प मे ं हर मोड़ पर वल ण आदश क तरह तुत कया जाता है। प मी मनोम त क मे ं उस समय म क थ त पैदा हो जाती है जब उसे कसी ऐसी दू सरी स यता का सामना करना पड़ता है जो उनके ारा बनाये गये -आधारी स ा त और पर पर वरोधी त वों के खाँचे मे ं पू री तरह नहीं बैठती। उदाहरण के लए प मी स दभ मे ं भारत स य और बबर, आ दम और पिर कृत तथा धा मक और धम नरपे सभी है। यह साधारण ामीण समाज एवं पर परागत शहरी सं कृ त, एक कृत नेत ृ व एवं उ तर व ान से ले कर राजनी त, यापार और भौ तक तक सभी को वीकार करता है। प मी समाज इस सं कृ त मे ं तकूल दखने वाले त वों के एक करण को अस भव मानता है तथा उ हे ं पचाने या उसके कसी घटक को खािरज करने के कये उ हे ं सुपिर चत े णयों मे ं ढालता है। अत: जब प म अपने ही घर मे ं एक थर एवं सुसंगत दृ कोण था पत करने मे ं असमथ होता है तो वह व भ अ भयानों ारा दू सरों पर वजय ा करने एवं उ हे ं दमन करने नकल पड़ता है। अपने भीतर के वशाल खोखलेपन को भरने के लए वह अ य सं कृ तयों और य यों को नगलने और पचा जाने यो य सं साधन के प मे ं देखता है।65

सम या

मां क 4—प मी अहं कार ारा मु

का गलत यास

प मी दृ कोण का अ धकां श ह सा इस पू व-सोच से त है क वयं और दू सरे के बीच य गत तथा सामू हक तर पर एक मू लभू त तनाव है। इस तरह का तनाव उनमे ं साम यक पिर थ तयों के स ब ध मे ं गहरी च ताएँ पैदा करता है और साथ ही ऐसी सोच क कसी बाहरी बदलाव क आव यकता है। यह अनुभूत अभाव जसे कुछ व ानों ने ‘दु:ख’ (एक धा मक स ा त जसक या या अ याय 5 मे ं क गई है) क प मी अ भ य के प मे ं ता ककता दी है जो भौ तक, मनोवै ा नक अथवा बौ क कसी भी प मे ं हो सकता है। अपने भीतर क इस कमी का शमन बाहरी सं सार मे ं खोजना प म का एक मौ लक म है जसे बौ एवं अ य धा मक पर पराओं ने चुनौती दी है।66 इस कार आ म- ैतवाद एवं उसक न हत च ताएँ बढ़ती जाती हैं और पर पर एक-दू सरे का वरोध करती है।ं जैस-े जैसे अहं कार बढ़ता है वह उसके लए और याकुल होता है जो उसके पास नहीं है, यों क उसक कृ त हमेशा अस तु रहने क है। इसके वपरीत याकुलता जतनी बढ़ती है अहम् भी उतना सश होता जाता है और वह हताश हो कर उसक इ छा करता है जो उसके पास नहीं होता। यह या अ तहीन एवं आ मघाती होती है, यों क यह वयं क एक कृ म धारणा पर आधािरत होती है।67 े

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इस अनवरत अ भयान के पिरणाम व प प मी अ मता समय के साथसाथ मजबू त होती जाती है। यों क ये च ताएँ लगातार सं चत हो कर दृढ़ बनी रहती है,ं यह झू ठ अ मता या पहचान बैठ सकती है, पर तु नये प मे ं फर से उठ खड़ी होती है। कृ म अ मता और कृ म सं कृ त क बु नयादी सम या अनसुलझ ही रहती है। इस सम या क असली जड़ यह है क वभा जत अ मता क धारणा एक कृ म वचार है जो क मु यत: अतीत पर आधािरत हो कर मु य पा के प मे ं मा णत होता है। अ मता हमेशा भ व य मे ं कुछ खोजती रहती है और इस कारण वह वतमान मे ं रहने का अवसर खो देती है। वतमान मे ं रह कर ल बे समय तक जाँच के बाद ही आ तिरक व ान क खोज स भव है और इस य ता पर काबू करके उसका इलाज कया जा सकता है। पर तु प मी अवधारणा मे ं अतीत एवं भ व य क काली छाया वतमान पर पड़ी रहती है, फर चाहे वह बाइबल क सृजन स ब धी अवधारणा हो या मानव के पतन क , या मु एवं काल समा क अवधारणा अथवा वकास एवं ग त स ब धी कोई धम नरपे अवधारणा हो जो इ हीं तरह के नयमों का पालन करती हो। अतीत एवं भ व य का यह सं योजन क तपय भ य ऐ तहा सक कथानकों का ही पिर कृत सं करण है जो वतमान के अनुभवों पर परदा डाल देता है। ऐसा कहा जा सकता है क सम या दरअसल दोहरी है — 1) यह अ मता अतीत से न मत है तथा यह उस पू व-वृता त को वतमान से अनुकूल करने के लए यासरत रहती है तथा 2) इस अ मता को उसके इ तहास से मु दलाने के यास मे ं वतमान ‘ ण’ (पल) को भ व य क वेदी पर ब ल चढ़ा दया जाता है। गैर-प मी समाज मे ं वत ता वक सत यों नहीं हो पायी, इसके बारे मे ं आधु नक प मी जगत क अपनी उ सोच है। सनातन धा मक पर पराओं मे ं वक प के प मे ं ‘ वत ता’ के वषय मे ं ‘मो ,’ ‘मु ’ और ‘ नवाण’ के वचारों को प म ने कभी भी पया मा यता नहीं दी।68 भारतीय धा मक पिर े य मे ं प मी समाज वत ता से नहीं ब क अपनी अ मता के गढ़े हुए अ धदेशों से सं चा लत है, जो क सी मत सं सार मे ं असी मत व तार क आकां ा रखते है।ं जैसा क हम जानते हैं क यह न तो थायी है और न ही सम त मानवता के लए यावहािरक है। इ तहास कई ष ों ( जनमे ं उप नवेशवाद और नरसं हार भी स म लत है)ं क ओर सं केत करता है, जन के ारा ग़ैर प मी समाज को दुबल और नय त करने का काय कया गया।69 इसके अ तिर यीशु समेत यहू दी पैग़ बर य गत वत ता के बारे मे ं अ धक च तत नहीं थे; इसक अपे ा उ होंने ई र क आ ा का पालन करके सामू हक वत ता पर बल दया। पॉल (Paul) ने वत ता श द को च लत कया, पर तु सनातन धा मक स दभ के अथ मे ं नहीं। कुछ ाचीन यू नानी वचारकों जैसे सुकरात (Socrates) और लेटो (Plato) ने ाचीन भारतीयों के वपरीत आ तिरक े तथा ं ि ें े े ों े

आ तिरक एवं बा जगत मे ं सम वय लाने के मह व पर बल दया; उ होंने वत ता को तक के साथ जोड़ा, जससे वे आ तिरक याओं क गहरी समझ बनाने तथा वतमान का सीधा सामना करने के लए योग जैसी या क खोज नहीं कर सके। वे ँ पाये। योग से मलने वाले स हत ान तक नहीं पहुच जैसा क हमने देखा, स त ऑग तीन (St. Augustine), जो क स भवत: ईसाई पर परा मे ं मतशा , मनो व ान एवं सामा जक स ा तों के सबसे भावशाली वचारक थे, ने भी अपने वचारों मे ं ‘मनु य मू ल प से पापी है’ वाले स ा त क अवधारणा पर अ धक बल दया, जसे उ होंने ‘आदम’ (Adam) ारा वत ता के दु पयोग के प मे ं पिरभा षत कया। मू लत: पापी होने क अवधारणा ने ईसाइयों को एक पहचान अव य दान क , पर तु यों क यह पहचान पाप से सनी हुई है, इस लए इसमे ं वत ता क कमी है। कृपा के म त उपहार के प मे ं समाधान को सहज प से तब तक टाल दया गया है जब तक क य परलोक मे ं द य दृ ं ,े तब उ हे ं नहीं पा लेता। वक प यह है क लय के दन जब यीशु दोबारा आयेग सामू हक प से यीशु ारा बचा लया जायेगा। कसी भी थ त मे ं वत ता ‘वतमान’ मे ं नहीं मलती, इस लए य ता बनी रहती है। ईसाई मत मे ं ‘पाप’ क अवधारणा वतमान थ त मे ं अस तोष (अथवा दु:ख) का सामना करने क एक या या बन गई है, पर तु यह अवधारणा वतमान मे ं योग के मा यम से गहन अ तदृ ा करने क अपे ा वतमान से आँखे ं चुरा कर भ व य मे ं मलने वाली मु मे ं न हत है। मु दलाने क थ गत क हुई त ा चच नामक सं था को समपण देने को कहती है, जो क ई र का व श अ धकार े है। ह दू और बौ धम मे ं वा त वक मु वतमान ण मे ं आ तिरक साधना ारा सा य है, पर तु प म मे ं ाय: यह अवधारणा उनके अतीत मे ं गुम हो गई थी और भ व य मे ं मलने वाली वत ता क मृग-तृ णा का पीछा करने मे ं ओझल हो जाती है।

ं एक वसं ग त ईसाई हठध मता एवं यू नानी दलीले— जैसा क टे पलटन फ़ाउ डे शन (Templeton Foundation) के साथ मेरी मुठभेड़ मे ं हमने देखा, प मी सं कृ त के सबसे मुख ववादों मे ं व ान और धम के बीच का सं घष मुख है। वशेष प से अमरीका मे ं इस तनाव क जड़े ं बहुत गहरी है,ं जहाँ डा वन के मक वकास के स ा त को सृ वाद से बदलने के यास यहू दी-ईसाई मतों क अ ववेचनीय नी तयों क ओर सं केत करते है,ं जनके अनुसार इस सं सार का नमाण एक बाहरी श ने शू य से एक बार मे ं ही कर दया था। यह सारग भत है क डा वन के मक वकास के स ा त का सबसे शोर भरा वरोध उ हीं समू हों क ओर से होता है जो ईसाइयत और उसके हठधम स ा तों के प मे ं ऊँची आवाज़ उठाते है।ं इसके वपरीत क र से क र ढ़वादी ह दू , बौ या ै









जैन वचारक भी ा ड क उ प के स ा त अथवा कसी अ य वै ा नक स ा त के वरोध मे ं बहस करने के इ छु क नहीं होते। हालाँ क धा मक व दृ रखने वाले कुछ वै ा नकों ने भी डा वन के स ा त पर न उठाये है,ं पर तु ये न उस स ा त के पीछे थत व ान से स ब धत है,ं न क कसी सा दा यक हठधम स ा त से।70 टे पलटन फ़ाउ डे शन का यह स मेलन हाल के वष मे ं एक मुख स मेलन था, जसमे ं बाइबल आधािरत मत को मू लत: वै ा नक घो षत करने का यास कया गया था। इसी शैली मे ं जैसा क हम देखग े ं ,े अमरीक लेखक केन व बर (Ken Wilber) ने एक अ भ दाश नक काययोजना तैयार करने का यास कया है (एक बार पुन: बना कसी अ भ वीकृ त के) जो बौ ान एवं ह दू आ तिरक व ान को समा व करता है और कभी-कभी इ तहास-के त ईसाइयत क ओर भी चला जाता है। प म के ा ड व ान मे ं गहरे पिरवतन को छोड़ कर ( जसके अनुसार नी सया प थ—Nicene Creed—मे ं उ खत अ ववेचनीय मा यताओं को अ वीकृत करना पड़े गा) अ भ एकता लाने के ऐसे यासों का बहुत ज दी ही सफाया हो जाता है। यहूदी और यू नानी मत व ान और धम के बीच वभाजन क शु आत का वणन एक टश क व और सां कृ तक इ तहासकार मै यू अन ड (Matthew Arnold : 1822-1888) ने बहुत पहले कया था। अन ड (Arnold) ने बाइबल ( ाचीन यहू दी) तथा ीक (यू नानी) पर पराओं के बीच इस गहरे वभाजन को सटीक और ज़ोरदार तरीके से समझाया, ं जो क प मी स यता के ज म के समय से ही चला आ रहा है। वे लखते है— ‘‘यहू दी और यू नानी दोनों ही मत मानव कृ त क आव यकताओं से उ प हुए हैं तथा उ हीं आव यकताओं को स तु करने मे ं लगे रहते है।ं पर तु दोनों के तरीके इतने भ हैं क वे ऐसे भ ब दुओ ं को मह व देते हैं तथा अपनीअपनी यव थाओं ारा ऐसे भ - भ याकलापों को करते हैं क मानव कृ त का चेहरा एक के हाथ से दू सरे के हाथ मे ं जाते हुए एकदम बदल जाता है।’’71 अन ड ारा प मी स यता के दोनों भागों के पर पर अ त वरोध का वै व यपू ण च ण आज भी प प से दखता है। उसने अ ानता से नपटने स ब धी उनके अलग रा तों को इस कार बताया है— अपने अ ान से छु टकारा पाने के लए व तुओ ं को जैसी वे हैं वैसी देखना और इस तरह देखने मे ं उ हीं के अनु प उनक सु दरता मे ं उ हे ं देखना यू नानी स यता का सरल और आकषक आदश है, जसे यू नानी स यता मानव कृ त के सामने रखती है; तथा इसी आदश क सादगी और आकषण से यू नानी स यता और उसमे ं मानव का जीवन एक सुखद आराम, प ता और चमक के े







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साथ रहा, जसे हम काशयु और मधुरता से भरा मानते है।ं इसमे ं क ठनाइयों को दृ से दू र रखा जाता है और आदश यु सौ दय एवं ता ककता हमारे मू ल वचारों मे ं व मान रहती है।ं कहने मे ं यह सब अ छा लगता है क हमे ं अ ान से छु टकारा पाना चा हए, व तुओ ं को उनके वा त वक व प मे ं देखना चा हए, पर तु यह सब कैसे कया जा सकता है जब कोई हमारे यासों को वफ़ल करने मे ं लगा हो? यह कुछ और नहीं पाप है तथा यहू दयत मे ं पाप को जो थान ा है वह यू ना नयत क तुलना मे ं वा तव ही गु तर है। पू णता को ा करने मे ं यह बाधा पू रे पिरदृ य पर हावी है और पू णता कहीं दू र थ धरती से दू र उभरती हुई पृ भू म मे ं दखाई देती है। पाप के नाम के तहत वयं को जानने और जीतने क क ठनाइयाँ, जो य के पू णता के माग मे ं बाधक है,ं यहू दी मत के लए मानव के तकूल सकारा मक, स य इकाई के प मे ं एक रह यमयी श बन जाती है।72 यहू दयत मे ं पाप क अवधारणा पर बल देना यू ना नयत मे ं मानव क थ त को स बो धत करने के लए बु म ा के योग करने के वपरीत है। आन ड आगे ं लखते है— पुराने टे टामे ट (Old Testament) के नयम-अनुशासन को सं प े मे ं एक ऐसे अनुशासन के प मे ं य कया जा सकता है जो हमे ं पाप से घृणा और उससे दू र भागने क श ा देता है, जब क नवीन टे टामे ट (New Testament) का अनुशासन हमे ं इस पाप के लए मरने क श ा देता है। यू ना नयत प सोच और व तुओ ं को उनके मू ल सार एवं सु दरता मे ं देखने क बात करती है तथा मानव को उसे ा करने हेत ु एक भ य एवं अनमोल उपल ध के प से देखती है, जब क यहू दयत ‘पाप’ क भावना के त सचेत रहने को कहती है तथा इसी पाप मे ं जागे रहने को ही एक उपल ध मानती है। दोनों मत अपने मुख नयमों पर टके हुए है,ं एक प बौ कता पर जब क दू सरा कठोर आ ाकािरता पर, एक अपने कत यों के आधारों को पू री तरह समझने पर जब क दू सरा उसके कमठ अ यास पर।73 आन ड आगे कहते हैं क ोटे टे ट/कैथो लक (Protestant/Catholic) वभाजन ने ईसाई मत और यू नानी मत के बीच क खाई को पाटने मे ं कुछ नहीं कया, यों क ोटे टे टवाद (Protestantism) कुछ और नहीं ब क बना बौ क उ कृ ता के उसी कैथो लक मान सकता का दू सरा प है। महान ार भक ईसाई मतशा ी टरटु लयन (Tertullian: 160-230) का स ं का य शलम से या लेना-देना है?’’ इससे पता चलता है क न था, ‘‘एथेस प मी सं कृ त क दो व भ वचारधाराओं को आपस मे ं सं ले षत करने मे ं या क ठनाई आ रही थी तथा उनमे ं से एक को ही अपनाया जा सकता है। ें



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इस वभाजन क पुनरावृ इ तहास मे ं कई पों मे ं होती रहती है—चाहे वह म ययुग के ार भ मे ं बाइबल आधािरत ान और शा ीय यू नानी त वमीमां सा के बीच हो अथवा पुनजागरण काल (Renaissance) मे ं धम नरपे और धा मक कला के बीच तनाव मे ं हो, अथवा ानोदय काल (Enlightenment) मे ं तक और रह यो घाटन के बीच तनाव मे ं हो या फर आज के व ान और धम, धम नरपे ता और प व ता, क रतावाद एवं मानवतावाद के बीच के सां कृ तक यु मे ं हो। सम या केवल ईसाई मत क सीमाओं के कारण ही नहीं है। यू नानी प भी एक मुख सम या है।

के साथ

अर तू —‘म य माग’ क उपे ा जैसा क हम देख रहे है,ं आर भक ईसाई युग मे ं नधािरत नयमों के पालन से कसी बाहरी भगवान ारा ा ड को नय त करने का दृ कोण यू नानी त वमीमां सा पर मढ़ दया गया था और दोनों के वलय से मु क अवधारणा रची गई, जो प म के इ तहास और उसक यव था क च ता के त सं वद े नशील थी। बाद मे ं यू रोपीय धम नरपे ता भी तक या लोगो (Logos) को सावभौ मक स ा त मान कर इसी माग पर चली। तक स य क ओर ले जाता है और स य स देह-र हत होता है तथा अ तीय, प , और पू री तरह से मा य होता है। जो इस तरह से तक ँ ते वे समाज के लए ख़तरा है,ं यों क वे नहीं करते या समान न कष तक नहीं पहुच अराजकता एवं म फैलाते है।ं इनके लए बाक सब लोग ‘अ य’ होते है।ं इन ग़ैरप मी लोगों को तकहीन माना जाता है तथा वे अपने व ास, धा मक र मों तथा िरवाजों के बारे मे ं जो भी प ीकरण देते हैं उ हे ं ख़ािरज कर दया जाता है। प म ता ककता क सव े ता का यह भाव उनक अपनी पहचान क े णयों पर आधािरत ान-प त पर नय ण रखने से स ब धत है। यह वा तव मे ं प म के अजीबोगरीब इ तहास को दशाता है। इस के कारण प म क व श -आधारी े णयों जैसे सच/झू ठ, अ छा/बुरा, वयं /अ य इ या द को बढ़ावा मलता है और व वधता एवं रचना मक वकास के लए कोई जगह नहीं बचती। स य का यह दृ कोण प मी ाण त ा के उस शा ीय अर तू वादी कानू नों से उपजा है जसमे ं म यमाग बलकुल छोड़ दया गया है, अथात् दो वपरीत तावों के बीच कोई भी समझौता नहीं हो सकता। इसे यो जत अथवा दो मू यों वाली णाली के प मे ं स द भत कया जाता है जहाँ केवल ‘सही’ या ‘गलत’ दो ही पिरणाम हो सकते है;ं एक साथ कुछ भी सही/गलत नहीं हो सकता। हालाँ क यह स ा त कुछ यावहािरक पहचान बनाने के लए उपयोगी है, पर तु इस जड़ स ा त को अ नवायता देने से इसने सामा य और ता कक वचारों पर कठोर सीमाएँ बाँध दीं। आज भी यह स ा त प मी दशन और व ान के श ण का आधार है तथा ऐसा कोई भी दृ कोण जो इसके अनु प नहीं होता उसे अ वीकार कर दया जाता है। े





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अर तू के इस दो े णयों वाले स ा त ने प म को ‘ थायी और अ तम गुणों’ वाले वचार दे कर सहायता दी तथा उस अपव जत म य (Excluded Middle) नयम का उपयोग उसमे ं आ या मक यव था और यथाथता लाने के लए कया। प मी दशन क बाद मे ं आ पर पराओं ने भी इस हठ वभाजक तक को अपनाया और वा तव मे ं यह प मी वचारधारा का एक मुख स ा त बन गया। व श ता और पृथकतावाद एक-दू सरे को बल देते हैं जससे बौ क नय ण को उकसाने मे ं सहायता मलती है। अपव जत म य का स ा त एक दृ कोण से दू सरे को पू ण प से अलग करने का आदेश देता है। सभी भौ तक और ता कक इकाइयाँ अपिरवतनीय है,ं एकदू सरे से पर पर ब कुल अलग। यह केवल एक को दू सरे से पहचानने का यावहािरक मापद ड भर ही नहीं है ब क यह य और अ य प मे ं वा त वकता क कृ त बन चुका है। यह नयम व तुओ ं के पार पिरक प से नभर होने, एक-दू सरे से जुड़े होने अथवा एक-दू सरे मे ं अ त न हत होने क स भावना को समा करता है। यह पहले च चत अ भ एकता के गुथे हुए और ग तशील स ब धों क वशेषताओं से बलकुल वपरीत है। अत: इसमे ं कोई आ य नहीं है क प मी टीकाकारों ने बौ धम के ‘चतु को ट’ स ा त अथवा जैन धम के ‘शायदवाद’ जैसे तकसं गत ढाँचों को तब अ न त और रह यवादी वचार मान कर ख़ािरज कया जब बड़े ही असु वधापू ण ढ़ं ग से उ हे ं उनका सामना करना पड़ा। इस कार प मी सोच अलग क जाने वाली े णयों, पिरभा षत नयम, सही/ गलत तक, अस द ध पिरणामों, था पत स ाओं तथा नय ण जैसी बातों को वशेषा धकार देती है। यह वृ उस यू नानी वचार से नकली है जो वयं स त पों पर आधािरत है, जनसे य तकसं गत अनुमान लगा कर कसी एक ँ ता है। प म का यह स ा त, दशनशा , व ान एवं धमशा पिरणाम तक पहुच जैसे सभी े ों मे ं कायरत है। प मी दाश नक इस क र स ामीमां सा मे ं सुधार हेत ु सं घषरत है,ं पर तु उनक मू लभू त वृ अभी भी क र ही है। मानक बु परी ण तथा मनोवै ा नक एवं मान सक याओं के आं कलन हेत ु जो मापद ड अपनाये जाते हैं वे अर तू क मानक -आधारी इकाइयों के पर पर व नमेय पर नभर रहते है।ं हालाँ क कुछ प मी वचारकों ने अलगाववादी तक का वरोध कया है, पर तु धम नरपे तावादी नरं कुश ताकतों ने उनके तक को पू री तरह ख़ािरज भले ही न कया हो पर तु दबा ज़ र दया है।74 व श तापू ण यहू दी-ईसाई अलगाववादी लोकाचार के दो आधारों मे ं से एक अर तु का यह नयम है, जब क दू सरा आधार उनक इ तहास-के क अलगाववादी कृ त है।

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प म मे ं पाँच ऐ तहा सक आ दोलन हुए हैं जनके ारा हम उसक कृ म एकता एवं अहं कार के प े ण क व श ता क सम याओं को प प से देख सकते है,ं ं वे है— 1) रोम क स ा का उदय एवं प मी ईसाइयत का ज म; 2) प हवीं और सोलहवीं सदी के सुधार एवं पुनजागरण; 3) आधु नक व ान एवं उससे उपजी बु ता का ज म; 4) उ ीसवीं और बीसवीं सदी के पू व पुनजागरण; 5) उप नवेशवादी व तार इन सभी कालख डों मे ं हमने देखा क शा ीय एवं ाचीन यहू दी मानकों के पहले से ही अ थर सं योग टू टते चले गये तथा उनसे उपजी य ता से ाय: दू सरों पर हं सक तरीकों से वार हुए।

रोम एवं प मी ईसाई स ा का ज म ं ाइन (Constantine: 274-337) ारा ार भक ईसाई मत को रोमन स ाट कॉ टेट ह थयाने से ईसाइयत बड़े पैमाने पर पहली बार सं ग ठत हुई तथा रोमन सा ा यवाद के ढाँचे के भीतर ही ईसाई आ धप य था पत हुआ। यहाँ हम पहले व णत कुछ सम याओं को सतह पर कट होते हुए देखते है,ं वशेषकर उ चेतना-यु आ तिरक वै ा नक तकनीकों क उपे ा, उ घो षत मत और बौ क त वमीमां सा के बीच याकुल कृ म एकता, तथा प मी मनोम त क का देहमु और बा प े ण, जनसे धमा तरण एवं सा ा यवादी व तार जैसी पिरयोजनाओं का ज म हुआ है। ईसाइयत के ार भ के लगभग एक हज़ार वष तक रोमन सा ा यवाद या तो वयं रोम के प मे ं या प व रोमन शासन के प मे ं अथवा रोमन कैथो लक चच के प मे ं समू चे यू रोप पर हावी रहा। स दयों तक यह अटू ट वच व ाय: नरं कुश शासकों ारा हं सक तरीके से ं ाइन धमा तरण करने क लालसा से िे रत था। इस कार हम कॉ टेट (Constantine) ारा रोम के आ धकािरक मत के प मे ं क जाने वाली ईसाई रा य थापना क कथाओं मे ं मत आधािरत प मी आ ामक हं सा को (जो क उसके बाद के स ाटों और वजेताओं ने जारी रखीं) देखते हैं जसमे ं उ होंने बलपू वक बड़े पैमाने पर बप त मा कया था।75 रोमन सा ा य पर भु व स करने वाले यु के एक य दश वणन के ं ाइन ने अपनी आँखों से सू य से ऊपर वग मे ं काश-यु अनुसार कॉ टेट ॉस क ं ाइन एक फ देखी, जस पर लखा था, ‘इसके ारा वजय ा करो।’ तब कॉ टेट ने अपनी सेना को एक त करके उ हे ं उस ‘ ॉस’ के सहारे वजय ा करने हेत ु िे रत कया। इस ॉस को उसने ‘‘सोने से मढ़े हुए एक ऐसे ल बे भाले’’ के प मे ं ो



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व णत कया जो एक आड़ी प ी के प मे ं उस भाले के ऊपर लगा हुआ था। उसक सेना ने इस ॉस का उपयोग एक झ डे के प मे ं करते हुए सफलतापू वक वजय ं ाइन उस ॉस से मलने वाली वजय क स ाई के ा क और इस कार कॉ टेट त और भी आ त हो गया।76 ं ाइन क अ य सं कृ तयों पर वजय के अनुभव स ाट अशोक के कॉ टेट अनुभव, जो ईसा पू व 270 मे ं भारत के मौय सा ा य के सं हासन पर आ ढ़ हुए थे, के एकदम वपरीत तीत होते है।ं पड़ोसी रा य क लं ग पर हमला करके अशोक ने अपने पहले से ही बड़े सा ा य को और भी व तार दया। य प अशोक इस भयानक और भीषण यु मे ं वजयी रहे, पर तु उ हे ं दू सरों को दु:ख के कारण प ाताप हुआ और उ होंने बौ धम अपना लया। उ होंने अपने तेरहवे ं रा यादेश मे ं लखा था क— ‘‘ द य महाम हम राजा ने क लं ग के नवा सयों पर वजय ा क , जब वे आठ वष से त त थे। लगभग डे ढ़ लाख लोगों को ब दी बना कर ले जाया गया, एक लाख य इस यु मे ं मारे गये और उससे कई गुना बाद मे ं मरे। क लं ग पर क जा करने के त काल बाद द य राजा का धम के त म े , धम सं र ण तथा उसके न म नदश देने का उ साही काय आर भ हुआ। इस कार द य राजा क क लं गवा सयों पर वजय ने उनके प ाताप को ज म दया, यों क पहले से अपरा जत देश को जीतने मे ं बहुत से लोगों का वध होता है, बहुतों क मृ यु होती है और उ हे ं ब धक बना कर ले जाया जाता है। यह इस द य राजा के लए गहरे दु:ख और खेद क बात है।77 अशोक ने अपनी सेना को नश करके भं ग कर दया तथा अपना जीवन बौ धम क शा तपू ण सेवा मे ं सम पत कर दया। यह एक भ कार क वजय थी ं ाइन के जसमे ं एक आदश पेशव े र यो ा ने धम के सामने आ मसमपण कया, कॉ टेट ठ क वपरीत जसने यीशु के धा मक स देश को एक सै य ह थयार मे ं बदल दया। कौ ट य के अथशा मे ं अशोक क इस वीरता को ‘धम- वजय’ अथवा धम के मा यम से वजय के प मे ं जाना जाता है तथा इसे शासन कला क नी त एवं अ तरा ीय स ब धों के लए उपयोग कया गया एवं समू चे ए शया मे ं फैलाया गया। अशोक का यह उदाहरण इतना भावशाली था क कई अ य ए शयाई स ाटों ने भी इसे अपनाया। उदाहरण के लए जापान के राजकुमार शोतुकू (Shotuku) ने इसका उपयोग जापानी रा को एकजुट करने तथा अ तरा ीय स ब धों को सुधारने मे ं कया। स इ तहासकारों अन ड टॉयनबी (Arnold Toynbee) तथा एच.जी. वे स (H.G. Wells) ने इस नी त के लए स ाट अशोक को अब तक का सबसे महान स ाट बताया है।78 इसके अ तिर जब बौ स यता अपनाने को आतुर अ य देशों (जैसे चीन, मं गो लया, क बो डया, इ डोने शया व थाईलै ड) क नगाह मे ं भारत क आ या मक े ता स हो गई थी, तब भी भारत ने कभी भी वहाँ के ों ो े ीं ी ो े ें

शासकों पर अपना शासन थोपने का यास नहीं कया, न ही उन को अपने मे ं मला कर कसी कार का स मान या कर माँगा और न ही उनक थानीय सं कृ तयों, भाषाओं एवं इ तहास को न करने का यास कया।79 इस तरह क स यता और प मी स यता के सार के तौर-तरीकों मे ं प वरोधाभास है जो क गौर करने लायक बात है। यहाँ यह इं गत करना मह वपू ण है क ईसाइयत को भ - भ एवं वदेशीय धा मक पर परा वाले वशाल एवं बहु वध समुदाय, ज हे ं मू तपू जकों का शीषक दया गया, पर थोपने से एक ओर सेना और पादिरयों के मत तथा दू सरी ओर व भ लोगों क आ थाओं के बीच गहरी दरार पड़ी। इसके अ तिर ईसाइयत चच क रोमन सं था के प मे ं एक धमत बनी जो समू चे म ययुगीन काल के दौरान स ा मे ं रही और इसक एकछ , नरं कुश एवं हं सक वृ ने नर तर व भ तरोधों को आम त कया। इससे प मी मान सकता एवं राजनी त मे ं और भी दरारे ं पड़ीं, वशेषकर धा मक एवं धम नरपे श यों के बीच। पछले पेज पर दये गये च से पता चलता है क कस तरह बौ कता एवं आ तिरक व ान क कमी से बनी इ तहास के कता ने व भ दोहरे मापद डों, आशं काओं और पलायनवादी आ दोलनों को ज म दया। इसका पिरणाम था नरं कुश सा दा यक शासन।

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प हवीं और सोलहवीं शता दी के दौरान न केवल धा मक और धम नरपे श यों के बीच, ब क यू ना नयत और यहू दयत के बीच भी उस अ थर म ययुगीन कृ म युग मे ं वकार उ प हुए। लू थर (Luther), के वन (Calvin) और उनके अनुया ययों के दबाव मे ं सुधारकों ने बाइबल के मू ल आधारों पर वापस लौटने पर ज़ोर दया, जब क एक समय तक उनके सहयोगी रहे कला और ान के मानवतावा दयों ने शा ीय यू नानी वचारों वाले थों, मू यों एवं वचारों को पुनज वत करने पर बल दया, जसमे ं पादरी स ा अ धकारों के व तक एवं क पनाओं के लए नई तब ता स म लत थी। यह पुनजागरण ाचीन यू ना नयों के कई दाश नक एवं वै ा नक थों क खोज ारा िे रत हुआ था। यह काय इ लामी व ानों ारा चािरत हुआ जो रोमन चच के मुकाबले यू नानी व ान के कम वरोधी थे। ं सुधारवा दयों ने नई तकसं गत एवं वै ा नक पुनजागरण के त काल बाद ोटे टेट णा लयों का उपयोग कया तथा वत जाँच क वकालत क । ऐसा होते हुए भी इससे उपजने वाले दोनों आ दोलन वाभा वक प से वभा जत थे एवं एक-दू सरे के व भी। सुधारकों का ल य इ तहास-के कता से मु होना नहीं था ब क मो के साधन पर क जा जमाये बैठे कैथो लक पादिरयों एवं रोमन आ धप य से वत होना था। उ सुधार आ दोलन ईसाइयों के मु के इ तहास से सना था तथा अ तत: औप नवे शक व तार के दौरान खोजे गये नये मू तपू जक समू हों के धम पिरवतन क पिरयोजना को चालू रखने हेत ु इसे काम मे ं लया गया। ई र के साथ सीधा स पक था पत करने क इ छा लए ोटे टे टों ने पादिरयों के दमनकारी (और मँहगे) ह त प े ों को नकारा और य गत एवं वत: फूत ाथना तथा व च तन पर बल दया। फर भी उनक भगवान को अ य मानने वाली ैतवादी स ब ध वाली धारणा ने उ हे ं आ तिरक चेतना का वकास करके परमा मा से मलने क स भावना से रोके रखा। इसके अ तिर उनके इस आ ह ने क ‘रह यो घाटन कसी बाहरी भगवान के ारा होते हैं न क आ तिरक साधना से’ उ हे ं धा मक जीवन मे ं आ या म व ा क भू मका से दू र रखा। पुनजागरण और सुधार आ दोलनों ने सा दा यक भुता के रा य मे ं धम नरपे ता क वृ क ।

बु ता आ दोलन और आधु नकता इस आ दोलन से जो लगभग वतमान काल तक खं चा चला आ रहा है आधु नक दशन का उदय हुआ और सा दा यक तथा धम नरपे के बीच का अ तर और बढ़ा, कुछ हद तक इस लए भी यों क रेने डे काट (Rene Descartes) के काय मे ं वख डत तक को मुखता मली। उनके आधु नक वचार पू री तरह से वख डत तक पर आधािरत थे जनका आ तिरक व ान अथवा उस जैसी कसी भी चीज से ोई





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कोई लेना-देना नहीं था और ये प म मे ं न हत ैतवाद पर आधािरत थे, पर तु उसे नये तर पर का टजयन वचार के प मे ं म हमाम डत कया गया। इस कार रा य (nation/state) इस ैतवाद क छाया तले बढ़ते रहे और कुछ हद तक रोमन चच क ईसाइयत पिरयोजना का धम नरपे वादी सं करण बन गये। यू नानी तक तथा वै ा नक नरी ण के नर तर वकास ने (साथ ही ईसाई प थ को कनारे रखते हुए) बु ता आ दोलन को ज म दया। चच के वच व को सफलतापू वक चुनौती दी गई तथा यू रोप को अँधकार युग से तक के काशमान युग मे ं ले जाने मे ं मह वपू ण ग त हुई। बाइबल और व ान के बीच न हत वरोधाभासों को देखते हुए यह एक बड़ी क मत चुकाने के बाद ही हुआ, जसने आ मा और शरीर के बीच क दू री बढ़ा दी, तक और रह यो घाटन, वै ा नक और आ या मक नरी ण तथा सा दा यक और धम नरपे ता के बीच सं घष को तेज कर दया। इन वरोधी प ों को कभी मलने नहीं दया; येक को सीधे ही अलग-अलग नधािरत अ धकार े मे ं डाल दया गया, जो क ाय: अपने वपरीत पहलू से अलग-थलग रहते थे। प म क इन आ तिरक सम याओं को लगातार उपे त कया गया, यों क प म ने अपने ईसाई मत के उस पुराने व तारवादी एवं वजय अ भयानों के त प को बा - ता वत काय म के प मे ं ढाल दया, हालाँ क अब यह एक नये धम नरपे भौ तकतावाद से जुड़ चुका था। यू रोपीय दृ कोण मे ं न हत गहरे वभाजन तथा उ हे ं हल करने के यासों का चरमो कष डे काट (Descartes) के काम मे ं प दखाई देता है। यहाँ प म मे ं न हत ँ ाया गया जो आगे मन/शरीर के ैतवाद को एक दाश नक पू णता क ऊँचाई तक पहुच चल कर यहू दी एवं ईसाई मतों और वख डत तक के बीच चले आ रहे मतभेदों को सुलझाने के यास का आधार बना। व तुत: इसे उ हे ं अलग-अलग अ धकार े ों मे ं था पत कर उपल ध कया गया। प मी सं कृ त मे ं न हत वरोधाभास का सबसे स उदाहरण है गै ल लयो (Galileo 1564-1642) को चच ारा दी गई सजा और कारावास, यों क उसने सू य को सौर म डल का के मानने स ब धी कोपर नकस (Copernicus) के वचार का समथन कया था। तब डे काट ने वयं को गै ल लयो एवं चच के बीच क लड़ाई के बीच फँ सा हुआ पाया। 1633 मे ं डे काट को उस पु तक को का शत न करने का नणय लेना पड़ा जसमे ं वह कोपर नकस के स ा त का समथन कर रहा था।80 वै ा नक के प मे ं डे काट का मानना था क शरीर पी य का सं चालन भौ तक के नयमों के अनुसार होता है, पर तु कैथो लक भ डे काट के मन का व ास था क मनु य क आ मा ई र क आ ाओं का पालन करने अथवा न करने हेत ु वत है तथा लय के दन उसे इसका पिरणाम भुगतना पड़े गा। े





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उसने मन और शरीर स ब धी ैतवाद के सं घष को हल करने का यास कया जसके अनुसार शरीर भौ तक नयमों के आधार पर चलता है, जब क आ मा और मन एकदम भ त व हैं जो क चच के स ा तों के अनु प काय करते है।ं मन के स ब ध मे ं वचार करते समय उसने इसके गुणों का परी ण शरीर एवं आ मा से पू री तरह से अलग हो कर कया। ‘‘मैं सोचता हू ,ँ इस लए मैं हू .ँ ..’’ (Cogito Ergo Sum) उसक स कहावत एवं कायप त बन गई। दाश नक अटकलों एवं वै ा नक परी णों का े आ मा एवं जी वत पदाथ के े से अलग कर दया गया और वह इस तरह एक अलग जीव त अ त व बना। इस तरह के णालीगत आदेशों अथवा सं घष वराम ारा एक को दू सरे के अ धकार- े मे ं दखल दये बना आगे बढ़ने क छूट मल गई। प मी दशन के इ तहासकार ड यू . टी. जोंस (W.T. Jones) बताते हैं क कस तरह यह समझौता कायरत हुआ— ‘‘य द मन और शरीर पू री तरह से भ हैं और येक का स य उनक अलगअलग कृ त के अनुसार ही उ घा टत होता है, तब यह अस भव है क मनो व ान एवं शारीिरक व ान एक दू सरे का पर पर वरोध करे।ं इस लए ऐसा कोई कारण दखाई नहीं देता क धमशा ी आधु नक भौ तक के अ ययन मे ं और भौ तकशा ी आ या मक स य क वशेष यो यता के दावे मे ं कोई ह त प े करे।ं व ान और धम के बीच कोई मतभेद नहीं हो सकता, यों क इनमे ं से येक अपने-अपने े मे ं धान है एवं कोई भी एक-दू सरे के े का अ त मण नहीं करता।81 अत: व ान एवं चच के अ धकार े इस तरह से पिरभा षत कये गये हैं क न तो उनके बीच कोई साझा े है और न ही कोई सं घष है। जैसा क ाय: होता है, जब प मी सं कृ त क हीं वदेशी वचारों को पचाती है तब एक अ यावहािरक वभाजन होता है, जसमे ं दोनों भाग इस तरह से अलग हुए जससे येक अपना अ धकार े नय त कर सके। आज तक यावहािरक प से प म का मनो व ान एवं दशन शा का येक श ा के , मन एवं शरीर के वभाजन क काट जयन सम या को प अथवा परो प से सुलझाने को मुख सम या मानता 82 है। भारतीय धा मक दशन ने इस कार कभी भी राजनै तक, दाश नक अथवा आ या मक े मे ं मन/शरीर का वभाजन नहीं कया। उदाहरण के लए ‘ ाण’ एक ऐसी मुख अवधारणा है जो मन एवं शरीर के पार पिरक स ब धों को जोड़ता है। इसके अ तिर ाण को न तो मन मे ं और न ही शरीर मे ं समा हत कया जा सकता है, यह दोनों मे ं या है। ‘ ाण’ का एक सरा कट मे ं उप थत है जब क दू सरा सरा अदृ य है। ाण केवल अपने अ त थू ल प मे ं ास है, अ यथा यह चीनी वचारों मे ं ई





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‘ यू ई’ (Qi) के समान सभी तरों पर सू म ऊजा से स ब है। यानयोग मे ं अ याथ , ‘‘मुझ मे ं ाण है और मैं ाण मे ं हू ’ँ ’ क श ा का अनुभव करता है। ा ड के एक वशु या क मॉडल मे ं कृ ष से ले कर सामा जक यव था एवं कारखानों तक को काट जयन एवं यू टो नयन नय तवाद का उपयोग कर सु यव थत कया जा सकता है। डे काट ने ‘ कृ त के नयम’ श द का लगातार उपयोग करके इस स ा त को था पत कया। जैसा क हमने देखा, उसक उपल ध धमशा को दशनशा से अलग करने क थी तथा इस तरह सं सार को जानने-समझने मे ं ई र क आव यकता को उसने सी मत कया। यू टन ने ा ड को य चा लत बना कर ई र क रचना के प मे ं था पत कया, पर तु उसके पोषण हेत ु ई र को अनाव यक बताया। गैली लयो, केपलर (Kepler) एवं यू टन ने कैथो लक चच ारा चािरत प व आ मा (Holy Spirit) के प मे ं ‘ई र पी सं सार’ जैसे अ प एवं अ वक सत वचार से इस कार दू री बनाने मे ं नणायक भू मका नभाई, जसका परी ण ग भीरता से पहले कभी नहीं हुआ था। इस वृ ने ोटे टे टवाद से मेल खाते हुए सं सार मे ं ई र क द य उप थ त को कम करते हुए ँ ा दया। आगे चल कर डा वन ने मानव वकास का एक लगभग शू यता तक पहुच या क स ा त ता वत कया। सं सार मे ं ई र क उप थ त के स ा त को यागने से जीवन-मू यों का पतन होता गया, यों क ा ड को नै तक मू यों से मु या क नयमों ारा सं चा लत होते देखा जाने लगा। इससे कृ त का शोषण और बढ़ा और ी-स ब धी सोच को यहू दी एवं ईसाई मतों से नकाल दया गया, अथात नदशक नयम ‘मदानगी’ के प मे ं थे। ानोदय एवं उसके प ात हुए आधु नकतावादी आ दोलनों ने धम नरपे ान एवं धम नरपे रा य के प मे ं ईसाई प थ क हठध मता को हटाने का यास कया, पर तु धम नरपे े ों मे ं भी उसके आ तिरक वभाजन एवं य कृ मता से अ थरता एवं म पैदा हुआ, यों क वै ा नक ा त भी उस पुरानी इ तहासके कता एवं अहं कार से मु नहीं थी (इस बारे मे ं पु तक के अ याय 6 मे ं प मी धम नरपे ता— ‘ईसाइयत का दू सरा प’ के तहत चचा क गई है।)83 रा य, जो धम नरपे एवं बु आदश को बढ़ावा देने के लए ग ठत कया गया था, असल मे ं इन मा यताओं एवं व ान के बीच उ प तनावों से गढ़ा गया। ‘‘एनसाइ लोपी डया टा नका’’ — Encyclopedia Britannica (जो क लोक य ान ा का एक पैमाना है) प करता है क कस तरह प मी धम नरपे ता ने बाइबल के कुछ वचारों को इसमे ं स म लत कया— े



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‘‘अपने आधु नक धम नरपे व प मे ं था पत प मी स यता भी ईसाई प त ारा था पत वचार एवं सं वद े नशीलता क ल बे समय से चली आ रही पर परा क वािरस है। 18वीं और 19वीं सदी मे ं मानवता के वकास स ब धी बोध एवं मानवता क ग त के मानी शा त एवं स भाव से पू ण वचारों के सं करण सह ा दी पुराने मसीहाई व ासों को अपनी वरासत क झलक दखाते है।ं 84 इन सब वचारों से उभर कर सामने आई प मी रा य स ा क कृ म कृ त का वणन एक व यात सां कृ तक इ तहासकार टीफ़न टौ मन (Stephen Toulmin) ं ‘‘शू यवाद से उपजी रा यस ा मू लभू त प से सं यो जत नहीं थी, इस कार करते है— ब क अलग-अलग ह सों को जोड़ कर कृ म प से बनाई हुई थी और केवल डर के कारण एकजुट थी।’’85 इस कार भगवान क जगह रा य क यव था कृ म मनु यों एवं कृ म जीवा माओं ारा क जा रही थी। इसके लए एक अ धकारी त आव यक था जो न प ता लाया तथा इस कार य परक नणयों मे ं कमी आई। इस यव था मे ं य गत अ त: याओं का थान अ भ िे रत या मक द ता ने ले लया, जससे समाज मे ं एक जन समू ह दू सरे समू ह से बदले जा सकने वाले भागों मे ं बदल गये एवं उनके अ धकारों तथा वशेषा धकारों को एक-सा कर दया गया। जै वक समुदाय क अ तरं गता के थान पर आये कृ म आदेश ने डर के कारण इन भागों को एकजुट कर दया। एं या कै मलेरी (Andrea Camilleri) के अनुसार जै वक समुदायों मे ं इस थानीय वघटन से एक अणुकृत आबादी (atomized ँ से बाहर एवं अ धकारी population)बनती है जनके मानवता स ब धी दावे पहुच त पर आधािरत औपचािरक मानवा धकार के बल पर टके होते है।ं 86 इस तरह के समाज के अणुकृत य केवल समझौतों से जुड़े होते हैं जो उनके वयं के हतों क पू त करते हैं न क समाज के। लोक हत केवल य गत भागों के हतों का योग भर होता है।

ा य पुनजागरण 18वीं सदी के अ तम वष से प म उस वैचािरक थ त से गुजरा है जसे कुछ व ानों ( वशेषकर रेम ड ाब — Raymond Schwab) ने ‘ ा य पुनजागरण’ का नाम दया है।87 इस आ दोलन, जो ाय: उपे त पर तु समकालीन व ानों ारा ँ ा गया, ने प म को ए शयाई समाज और वशेषकर भारतीय पहचाना और ढू ढ़ धा मक पर पराओं के साथ प म के सं घष के प मे ं देखा। इस वैचािरक सं घष ने प म को चुनौती दी तथा इसके सवा धक सम या त त यों को उजागर कया। सं कृत एवं इसके पिर कृत शा ीय थों के साथ यू रोपीय व ानों के इस सं घष ने उ ीसवीं सदी के सबसे जीव त और भावशाली बौ क आ दोलनों मे ं से एक को ज म दया। यू रोपीय भारत वदों एवं उनके वरो धयों ारा प म क मानी तथा ओं



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आधु नक अवधारणाओं को ढालने के यासों मे ं उनक ाय: जानबू झ कर छपाई गई अथवा बहुत ही कम आँक गई भू मकाओं को उजागर करने के लए यापक काम करने क आव यकता है। यहाँ पर यह इं गत करना भी आव यक है क ए शयाई सं कृ त और त व ान को पचाने से प म क कृ म एकता को और भी अ धक तनाव मे ं डाल दया गया। इस सम या के बारे मे ं मैनं े अपनी आगामी पु तक ‘यू टन योरी’ (U-Turn Theory) मे ं व तार से चचा क है। अपनी व तारवादी एवं औप नवे शक नी त और काय म के अ तगत प म ने न केवल नवीन व एवं अ का क वदेशी सं कृ तयों को पचाया, अ पतु उदारवादी एवं वक सत उपल धयों वाली मौ खक और ल खत प से मा णत भारतीय एवं ए शयाई स यताओं क पर पराओं का भी उ हे ं सामना करना पड़ा। हालाँ क कई उप नवेशवा दयों ने ए शयाई स यताओं को या तो आ दम या नै तक प से स द ध ‘झू ठे देवताओं’ क पू जा करने वाली मान कर उपे ा क , तो दू सरों ने इसे सां कृ तक एवं भौ तक स पदा क खान समझ कर उसे खनन यो य माना। यू रोप मे ं सं कृत के भाव से यू रोपीय भाषा व ान मे ं ा तकारी पिरवतन हुए तथा इसके ह दू एवं बौ धम का सामना करने पर प मी दशनशा को असीम जानकारी मली और साथ मे ं यहू दी-ईसाई पर पराओं को ग भीर चुनौती भी। कुछ प मी वचारक जैसे थोरो (Thoreau), एमसन (Emerson) एवं हटमैन (Whitman) तो ईसाई क रप थी वचारों से इसी कारण अलग हो गये। यही या आज भी योग, यान, च क सा व ान, कला, पयावरण, नारीवाद, दशन-शा एवं पॉप सं कृ त के मा यम से और भी अ धक गहराई से प म क मु य धारा मे ं सतत् जारी है। हालाँ क एक आम धारणा है क योग एवं यान को प मी सं कृ त मे ं आसानी से आ मसात कया जा सकता है, पर तु यह धारणा, वशेषकर वानुभूत स हत ान के वषय को ले कर, धा मक पर पराओं तथा यहू दी-ईसाई पर पराओं के बीच गहरे मतभेदों एवं वसं ग तयों क उपे ा कर देती है। प म ारा भारतीय पर पराओं को पचाने का यास उसी जबरन बनाई गई कृ म एकता का ही एक और उदाहरण है जसके बारे मे ं ग भीरता से सोच- वचार नहीं कया गया है।

औप नवे शक वजय ा य पुनजागरण के साथ ही साथ प मी औप नवे शक व तार हुआ जसमे ं क गई हं सा और अ त मण को इ तहास मे ं अ छ तरह से ले खत कया गया है। हालाँ क जस बात पर यान नहीं दया जाता वह यह है क धम नरपे वै ा नक ग त एवं ‘ पछड़े ’ लोगों को अधीन करने के नाम पर हुई व तार क रे णा मू लत: ईसाई व दृ मे ं गहरे बैठ हुई व तार क रे णा और उसक सरं चना के स ा तों मे ं थी। यह दमन अ धकतर तब हुआ जब प मी सं कृ त मे ं धम नरपे एवं सा दा यक त वों के बीच वभाजन और भी ती होता गया। दोनों सा दा यक और े ों े औ े ी ों े ें

धम नरपे त वों ने साथ-साथ औप नवे शक नी तयों के या वयन मे ं भाग लया, चाहे सतह पर देखने से दोनों पर पर वरोधा मक दखाई देते थे पर तु दोनों ही वचारों का उ भव उसी सा दा यक एवं ा ड स ब धी अवधारणा के तहत हुआ था जसमे ं ऐ तहा सक रह यो घाटनों और व ान क ग त के तनावों को आपस मे ं मला दया गया था। जैसा क हमने देखा, इन उप नवेशवादी और आ ामक अ भयानों मे ं प म क कृ म एकता और उसमे ं न हत मान सक सं रचना के सं घष को बाहर क ओर े पत कया गया था। पुनजागरण एवं बोध आ दोलन के काल मे ं एक कृत ईसाई व दृ के टू टने के बाद उसके व भ घटकों के बीच आपसी सं घष हुआ, पर तु वयं के घर क वप याँ कम करने हेत ु फर इन घटकों को मला कर सं सार भर मे ं व तार अ भयान ार भ हुआ। इसे यान मे ं रखना बहुत मह वपू ण है क जस समय यू रोपीय ईसाइयों के बीच आपसी सं घष एवं घर ही मे ं त ी सं थानों के बीच यु हो रहे थे उसी समय वे व के दू सरे लोगों पर वजय ा करने हेत ु अ भयान भी छे ड़ रहे थे। सां कृ तक इ तहासकार डे वड लॉय (David Loy) ने उस मनोवै ा नक भाव का व लेषण कया जसने इन वजय अ भयानों को ज म दया। वे लखते हैं —‘‘मनोवै ा नक प से हम जानते हैं क बढ़ी हुई च ताओं एवं डर क एक य गत त या आ ामकता हो सकती है, पर तु या इ तहास क ग त यह जताती है क ऐसा सामू हक प से भी स य है?’’ व तार करना और दू सरों पर शासन करके उ हे ं अपने मे ं मला लेना भी वयं को सुर त रखने का एक रा ता है। भौ तक े मे ं हुई बाहरी ा तयों ने कुछ वा त वक थायी मू यों का वकास कया, जैसे साम ती थों तथा अ धनायकवादी वचारधाराओं को हटाया गया (आधु नकता क उपल धयों के पिरणाम व प यू रोपीय न त ही सुधरे है)ं , पर तु आ तिरक अशा त एवं अस तोष ने प मी स यता को व तार करने के लए उकसाया।89 इस यू रोपीय व तारवाद के बाद ‘नये यू रोप’ के प मे ं अमरीका का ं इ तहास के प थ नरपे ज म हुआ जसका सारा ज़ोर ‘मु ’ स ब धी ोटे टैट सं करण पर रहा। प हवीं सदी मे ं यू रोपीय हमलावरों ने इस बात पर ज़ोर दया क जस भू म पर उ होंने आ मण कर क जा जमाया वह उनक ‘खोज’ है, इस लए उसे उनक ‘स प ’ माना जायेगा—एक ऐसी पिरयोजना जसमे ं सोना, गुलाम, बौ क स पदा और अ य व भ कार क स प याँ स म लत थीं। टोफ़र कोल बस (Christopher Columbus) को आज भी नई दु नया के एक आ द खोजकता के प मे ं (न क दमनकारी के प मे)ं च त कया जाता है जसने पोप क वैधा नक वीकृ त के साथ पेन क रानी क सेवा मे ं अमरीका को अपने क जे मे ं लया। यह दु साह सक दावा ईसाई खोज के उस स ा त (Doctrine of Christian Discovery) पर आधािरत था जो ईसाइयत क अ य सं कृ तयों (उदाहरणाथ ‘मू तपू जक अथवा ं े ो े ि े े

अस य’) के साथ सं घष क त या व प पोप के आ धकािरक आदेश के प मे ं घो षत कया गया था। मू तपू जकों के पास भौ तक स पदा और आ या मक एवं सां कृ तक न ध थी जसे यू रोपीय आ मणकारी अपना बनाना चाहते थे।90 इ तहासकार टीव यू कॉ ब (Steve Newcomb) के लेख जसे ‘सं सार का ईसाई कानू न’ (Christian Law of Nation) के प मे ं जाना जाता है, ने यह दावा कया क बाइबल के आधार पर ईसाई देशों को एक ‘ई रीय अ धकार’ ा है क वे कसी ग़ैर-ईसाई भू म और वहाँ के नवा सयों पर अपना पू ण अ धकार था पत कर सकते है।ं अगली कई स दयों तक इन मा यताओं ने ‘अनुस धान के स ा त’ (Doctrine of Discovery) को ज म दया जसका पेन, पुतगाल, ां स, इं लै ड और हॉलै ड (सभी ईसाई देशों) ने भरपू र उपयोग कया।91 यान दे ं क ‘अस य’ (अथात मू तपू जक) लोग भी इन ‘आ व कारकों’ के अ धकार े मे ं आ गये ज हे ं (मू तपू जकों को) एक स प क तरह शो षत करने हेत ु चच से अनुम त ा थी। चच के मतशा यों ने इस भु व का उपयोग अ क (काले) लोगों को गुलाम बनाने तथा अमरीका के लाखों मू ल नवा सयों और दू सरों को ‘मू तपू जक’ मान कर उनका नरसं हार करने के लए कया। यह तक दया गया क बाइबल के अनुसार कृ त के सं साधनों पर व श अ धकार केवल ग़ैर-मू तपू जकों का है। टोफ़र कोल बस ने अमेिरका के उप नवेशीकरण तथा उसके मू ल नवा सयों के धम पिरवतन को ‘अ तम समय (End Time)’ क ा हेत ु आव यक माना। उसने अपने पुतगाली सं र कों को व ास दलाने का यास कया क ‘नये सं सार’ (New World) से लू टे हुए धन का उपयोग वे मुसलमानों से य शलम क पुन: ा वाले मतयु मे ं करे,ं यों क नई सह ा दी (The New Millennium) के आगमन हेत ु भी यही पू व-शत थी।92 अठारहवीं सदी के अ त तक लगभग सभी त े अमरीक इस बात से आ त थे क उ हे ं इ तहास मे ं व को मु दलाने के लए ई र ने एक मह वपू ण त न ध के प मे ं वशेष प से चुना है। चच के त न ध के प मे ं ई र के नये सा ा य क थापना के लए भगवान ने अमरीका को ही चुना। मानव जीवन क पिर थ तयों को हल करने के लए अपने वाथ क स को ‘ य गत वत ता’ का नाम दे कर म हमाम डत कया गया, जसे कसी तरह कसी उ उ े य के नाम पर तपा दत कया जा सके। ँ ीवाद के अ भयानों से इसी वाथ दृ कोण को जब आधु नक अ नय त पू ज जोड़ दया गया, वशेषकर इस शोषक वचारधारा के साथ क सं सार को भु ववादी मनु यों ारा शो षत करने का अ धकार है, तब धम नरपे ता का चोला ओढ़ कर ई

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था पत इस ईसाइयत क पिरयोजना ने अ का, ए शया एवं अमरीका के नवा सयों पर कहर बरसा दया। पृ वी और इसके नवा सयों पर इसका भाव यापक था जसे आज भी महसू स कया जा सकता है। परा जत हुए लोगों को मू तपू जक या अस य पिरभा षत करके यू रो पयों ने व -स यता मे ं उनके व भ योगदानों को दबा कर और अनदेखा करके उनक सं कृ तयों और भू मयों को हड़प कर उनको अपने मे ं मला लया। उनक सं कृ तयों का दु पयोग एवं उनका वनाश इतना बनावटी और अनै तक था क काले और गोरे लोगों क आ तिरक फूट थायी बन गई जो अमरीका को आज भी परेशान कर रही है। इसक ासं गकता हमारे शोध के लए यह है क जो सां कृ तक स पदाएँ हं सा और धोखे से हड़प लीं जाती हैं उ हे ं कृ म प से जोड़ा जाता है, यों क वे न तो वयं के सां कृ तक पिरवेश मे ं जै वक प से उ प हुई होती हैं और न ही उ हे ं स भावना से एक कृत कया गया होता है।

अ याय 4 यव था और अ यव था

प मी लोगों क अपे ा सनातन धा मक सं कृ तयों के लोग भ ता, अ न तता एवं अ थरता को आसानी से वीकार कर लेते है।ं धा मक दृ कोण है क तथाक थत अ यव था ाकृ तक एवं सामा य है, हालाँ क इसे यव था ारा स तु लत कया जाना आव यक है, पर तु न तो इस पर मजबू री मे ं रोक लगाने या समा करने क आव यकता है और न ही कसी बाहरी श से जबरन सामं ज य था पत करने क । इसके वपरीत प म अ यव था को एक ग भीर ख़तरे क तरह देखता है। उसके अनुसार या तो इसे न करना आव यक है अथवा समावे शत करके मटाना। प मी लोगों क तुलना मे ं भारतीय अ या शत थ तयों मे ं अ धक सहज रहते है।ं वा तव ु ों को पलटना एवं ऐसी मे ं भारतीय ग़ैर-रेखीय सोच के अनुसरण को वपरीत व ज टलताओं को सुलझाना ज हे ं सरल अवधारणाओं या ववरणों मे ं नहीं उतारा जा सकता, ाकृ तक मानते है।ं वे अ प ता, स देह, अ न तता, याओं के व वधीकरण और बना कसी के ीय स ा और मानक नयमों के भी सफल हो सकते है।ं इसके वपरीत प मी लोग कसी भी वपरीत, अ या शत अथवा वके त थ तयों मे ं अ धकतर भयभीत हो जाते है।ं वे ऐसी थ तयों को सुलझाने वाली ‘सम या’ क तरह देखते है।ं सं कृत के वशाल शा ीय लेखन एवं धम वधान स दभ मे ं हम अ यव था एवं मतभेद से नपटने के कई सं वद े नशील एवं म यममाग य तरीके देखते है।ं यहाँ पर हमेशा अ यव था को बने रहने का अ धकार देते हुए स तुलन और सा यता खोजी जाती है। जब क दू सरी ओर यू नानी शा ों एवं बाइबल के उ प स ा तों क कहा नयों मे ं अ यव था एवं यव था के दो धु्रवों मे ं कुल जोड़ शू य सं घष होता है जसमे ं ‘ यव था’ का जीतना आव यक है। पछले अ यायों मे ं मैनं े प म क इ तहास-के कता तथा उसक आ तिरक प से वभा जत एवं ैतवादी व दृ मे ं बलपू वक एकता लाने के सं घष पर चचा क थी। मैनं े कहा था क यह एकता मू ल प से कृ म एवं अ थायी है और दबाव मे ं आ कर यह अपने घटकों मे ं बख़र जाती है। इसके वपरीत भारतीय धा मक पर पराओं मे ं ा ड क अ भ एकता क अवधारणा बहुलता एवं व वधता के त अ धक थर एवं तनाव-मु दृ कोण रखती है। इस अ याय मे ं हम यह देखग े ं े क प मी सोच अ यव था एवं यव था के त भारतीय धा मक दृ कोण से कस कार भ है। अ यव था तब उ प होती है जब य ऐसी घटनाओं का अनुभव करता है जो उसके मनोवै ा नक एवं सां कृ तक पू वा हों से मेल नहीं खातीं और पिरणाम व प उसका सं ान लेना क ठन हो जाता है। वकार उ प होने के ब दु व भ य यों ं ं ैं ों े ं ो े ैं े

एवं सं कृ तयों मे ं अलग-अलग होते है,ं पर तु इनके कुछ ा प प है।ं सनातन धा मक सं कृ तयों के लोग प मी लोगों क अपे ा अ न तता, भ ता एवं अ थरता को वीकारने मे ं अ धक सहज होते है।ं धा मक दृ कोण के अनुसार तथाक थत अ यव था ाकृ तक एवं सामा य है, हालाँ क इसे यव थाओं ारा स तु लत कया जाना आव यक है, पर तु न तो इस पर मजबू री मे ं रोक लगाने या समा करने क आव यकता है और न ही कसी बाहरी श से जबरन सामं ज य था पत करने क । इसके वपरीत प म अ यव था को एक ग भीर ख़तरे क तरह देखता है। उसके अनुसार या तो इसे न करना आव यक है अथवा समावे शत करके मटाना। इन दो सं कृ तयों मे ं यव था एवं अ यव था के बारे मे ं मान सक वृ त, न तता एवं अ न तता स ब धी उनके दृ कोण का त ब ब है। प मी मे ं आ ासन एवं न तता क लालसा अ धक होती है, यों क वहाँ ‘यह या वह’ क वपरीतताओं पर बल दया गया है। प मी मत मृ यु के डर को इस जीवन के बाद मु अथवा नरकद ड से दू र करने का वादा करते हैं जब क भारतीय धा मक दृ कोण मे ं मृ यु के प ात कई ज मों और व भ साधना माग से चेतना का मक वकास, जसमे ं वह व भ मोड़, च ों, असफ़लताओं, एवं पिरवतनों से गुज़रती है, होने का वधान है।1 ईसाई अ सर सादे पू वानुमय े पिरणामों को ही पस द करते है,ं जैसे क उनके अनुसार नकट भ व य मे ं सं सार का समा होना और कसी वशेष मत को मानने वालों के लए वग क ा । इस तरह क उ े यपू ण परेखा मे ं यह आकषक दखता है क ‘पाप के त लड़ाई’ (war against evil) छे ड़ कर उसका पू ण वनाश कर दया जाये। पर तु भारत के ा ड व ान के अनुसार कोई अ तम यु हो ही नहीं सकता, यों क इस सं सार मे ं ‘अव य भावी अ त’ जैसा कुछ अभी होने वाला नहीं है। इस ा ड के अ त मे ं भी एक नये ा ड का ज म होगा जो क न ार भ और न अ त होने वाले ा डों का एक अन त म है। अना द एवं अन त ा ड अ धकां श प मवा सयों के लए एक डरावनी अवधारणा है, यों क वे कुछ न त सीमाओं जैसे समय और ा ड क शु आत और अ त, सी मत और पृथक और व तुओ ं इ या द को ही देखने के आदी रहे है।ं भारतीय धा मक पर पराओं मे ं ‘कमफ़ल के बीज को जलाने’ का जो वचार है वह मनु य को पछले सभी कम के भाव से मु करता है, जसका ता पय है क मानव अपने यासों से आ म-बोध को ा करे। वहाँ कोई अना द वग या नक नहीं होता ब क एक ही वा त वकता के अ तगत भ अव थाओं का अ त व होता है। इ हे ं मश: ‘ वग’ और ‘नरक’ के नाम से े े ों क तरह च त कया गया है। वग या नरक मे ं य का वास हमेशा अ थायी होता है। ‘ वग,’ जसे प मी श दों मे ं Heaven के प मे ं व णत कया जाता है, हमारा कोई अ तम ग त य थान नहीं ै औ ो े े ो े े

ब क आराम और आरो यलाभ का थान है। अपने अ छे कमफल भोगने के प ात हम पुन: साधना करने के लए इस सं सार मे ं लौटते है।ं ‘नरक’ मनु य ारा कये गये बुरे एवं नकारा मक कम के कारण पीड़ा एवं दु:ख भोगने का एक थान है, पर तु वहाँ से भी मनु य अ तत: धरती पर वापस लौटता है। जतने चेतना के तर हैं उतने ही लोक है।ं उ तम तर पर हम परम स य से एका मकता ा करते है,ं जहाँ से सभी आये हैं और जहाँ सभी को वा पस जाना है। इस तरह के बहुआयामी ा ड मे ं य क या ा कोई च ता वाली बात नहीं है, यों क हमारा परम त व सत्- चत्आन द मे ं सुर त है। भारतीय धा मक पर पराओं मे ं ‘अ न तता’ को एक बुराई अथवा नकारा मकता के प मे ं नहीं देखा जाता है। वा तव मे ं भगवान शव के श ा द आ यानों मे ं आमतौर पर उ हे ं पावती जी के साथ पाँसे खेलते हुए दशाया गया है, जहाँ दोनों यदाकदा हँसी- ठठोली मे ं एक-दू सरे से छल करते है।ं अथात् अ न तता को हमेशा ही ु ापू ण एवं रा सी श के प मे ं व णत नहीं कया जाता ब क उस प बाहरी श त मे ं भी जो मनु य के अ दर उमड़ कर उसक भीतरी यव था को आहत करती है। पाँसे को महाभारत मे ं ‘अ न तता’ के पक क तरह दशाया गया है। यव था बनाये रखने वाले समाज के ज मेदार सद यों ने जुए को हमेशा ही ओछ नगाहों से देखा है। यु ध र, जो क वैसे धमराज है,ं पाँसा खेलने के आदी थे और इसे एक वनाशकारी अवगुण के प मे ं भी च त कया गया है। फर भी पाँसों का खेल वै दक अनु ानों के राजसू य य का एक अ नवाय एवं मह वपू ण ह सा है। चार युगों के नाम उनके मक पतन के अनुसार भारतीय पाँसों के चार चेहरे हैं ( जनमे ं अशुभ एवं बुरा मुख, अथात् ‘क ल’ युग हमारा समकालीन अराजक कालख ड है)। इस औपचािरक अनु ान के दौरान राजा ारा फेंका गया पाँसा न केवल ा डीय यव था मे ं अ न तता दशाता है ब क राजा के अपने युग- नधारण क श को 2 भी द शत करता है। इन गहरे मतभेदों के कई व भ न हताथ हैं जनमे ं से कुछ क जाँच मैं यहाँ कर रहा हू ।ँ पर तु पहले हम यह देखग े ं े क अराजकता एवं अ यव था से प म न केवल भयभीत है ब क अपने इस डर को वह भारत और इसक सं कृ त क ओर कस तरह े पत करता है।

भारतीय ‘अ यव था’ और प मी च ताए ँ मेरे वयं के अनौपचािरक अवलोकन इस वचार को पु करते हैं क प मवा सयों क अपे ा भारतीय लोग अ या शत पिर थ तयों मे ं अ धक सहज ु ों को रहते है।ं वा तव मे ं भारतीय ग़ैर-रेखीय सोच के अनुसरण को वपरीत व पलटना और ऐसी ज टलताओं को सुलझाना, ज हे ं सरल अवधारणाओं या ववरणों मे ं नहीं उतारा जा सकता ाकृ तक मानते है।ं वे अ प ता, स देह, अ न तता एवं ओं े ी औ ी े ी औ ों े ी

याओं के व वधीकरण और बना कसी के ीय स ा और मानक नयमों के भी सफल हो सकते है।ं इसके वपरीत प मी लोग कसी भी वपरीत, अ या शत अथवा वके त थ तयों मे ं अ धकतर भयभीत हो जाते है।ं वे ऐसी थ तयों को सुलझाने वाली ‘सम या’ क तरह देखते है।ं जैसा क हम आगे देखग े ं ,े प म के इस यवहार को दशाने के लए वा तव मे ं कुछ व ापू ण माण उपल ध है।ं प मवासी को ाय: भारत एक बेकार-सा, सभी तकसं गत अपे ाओं को नकारता हुआ मा भा य के सहारे जी वत रहने वाला देश तीत होता है। यह धारणा भारत क व मयकारी व वधता के कारण है जो यहाँ के समुदायों क बहुलता एवं सां कृ तक भ ता मे ं त ब बत होती है, जनमे ं बाहर से आये हुए समुदाय जैसे यहू दी, ईसाई और पारसी भी शा मल है।ं यह त य क येक समुदाय के वयं अपने मानद ड है,ं प मी नरी क को मकारी लग सकते है,ं जससे वह यह न कष नकाल सकता है क यहाँ के लोगों मे ं सही और गलत क कोई प समझ नहीं है। ी अर व द ने इस प मी मान सकता पर ट पणी क है— ‘‘...यू रोप क सा दा यक सोच कठोर एवं ख डत पिरभाषाओं, स त ब ह कार, बाहरी वचारों के साथ नर तर त मयता, सं गठन और आकार क आदी है। प मी मत एक न त प थ है जो ता कक एवं सा दा यक सोच, आचरण को न त करने के लए स त एवं प नै तक सं हता, दृ कोणों एवं अनु ानों और चच स ब धी दृढ़ एवं सामू हक सं गठनों क सं रचना से तैयार कया गया है। जब वचारधारा इन वृ यों मे ं एक बार जकड़ ली जाती है तब कुछ भावना मक जोश एवं एक न त सीमा तक रह यवादी खोज को भी तकसं गत सीमाओं तक सहन कया जाता है, पर तु आ ख़रकार शायद सुर ा इसी मे ं है क इन ख़तरनाक नमू नों के बना ही काम चलाया जाये...।’’3 शकागो व व ालय मे ं द ण ए शया स ब धी वषयों के व ान लॉयड और सुसन डो फ़ (Lloyd and Susan Rudolph) इं गत करते है,ं ‘‘प म मे ं भारत क छ व पारलौ कक, भा यवादी एवं ग़ैर-समतावादी के प मे ं देखी जाती है।’’ यह ऐसा है जैसे हम अपने आप से कम सां सािरक, कुशल, समतावादी एवं य वादी हो ं ,े य द भारतीय उससे कम होते है।ं 4 जायेग एक समतु य त य तुत करते हुए कोलगेट व व ालय के एक अमरीकन इ तहासकार ए यू रॉटर (Andrew Rotter) कहते हैं ‘‘अमरीक अ मता, जो अ धकतर कामुकता, जा तभेद एवं बीमािरयों से त े णयों के बीच रह रही है, ने पराए भारतीयों पर घृ णत अथवा अवैध तीत होने के ल ण थोपे है।ं उसके अनुसार भारतीयों को ग दा, उ छृं खल, कामुक, तथा आ दम जैसा माना जाता है।’’5 भारत क वत ता के तुर त बाद एक और अमरीक , हेरो ड आइजै स (Harold Isaacs) ने अमरीक श ा वदों, राजन यकों, कूटनी तकों, यावसा ययों, ों





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मत चारकों, मी डया के सद यों जैसे व भ लोगों का सा ा कार ले कर उ हे ं भारत और चीन के बारे मे ं अपने वचार य करने को कहा।6 भारत का वणन करते समय इन अमरी कयों ने भारत को ‘करोड़ों लोग,’ ‘भीड़ भरे शहरों,’ ‘भीड़भाड़ त,’ ‘लोगों के झु ड’ जैसे कई अपमानजनक वशेषणों ारा व णत कया। उ रदाताओं मे ं से एक ने व श प से ट पणी क क भारत मे ं करोड़ों लोग हैं और कोई नहीं जानता क चीं टयों क तरह कतनी और ‘मानवी बाँ बयाँ’ है।ं 7 अमरी कयों ने भारत मे ं ती ग ध को आ दमवादी, धू ल, ग दगी तथा बीमािरयों के साथ जोड़ रखा है। अमरीक ले खका कैथरीन मेयो (Katherine Mayo) क पु तक ‘‘द फेस ऑफ़ मदर इ डया’’ (The Face of Mother India) ने भारत के बारे मे ं अमरी कयों क वचारधारा को अ य धक भा वत करने मे ं मह वपू ण भू मका नभाई और 1950 के दशक के म य तक इस पु तक के 27 अमरीक सं करण छप चुके थे तथा अकेले अमरीका मे ं ही इसक ढाई लाख से अ धक तयाँ बक ।ं मेयो ने मुसलमानों क उनके मत का व तार करने क लड़ाकू वृ क सराहना क एवं महमू द गज़नी क हं सक लू ट व अ याचारों को वशेषकर म हमाम डत कया। उसने गज़नी क तुलना बाइबल मे ं व णत जोशुआ (Joshua), गीदेयोन (उ दह) एवं डे वड (David) से क है, यों क गज़नी इनक ही तरह ‘एक ई र’ के स मान मे ं अपना जीवन ब लदान करने को तैयार था। ह दू धम को एक भीषण कलं क बताते हुए मेयो ने लड़ कयोंम हलाओं से दु यवहार, बा लका दु हनों, भोजन क कमी, सती था इ या द के बारे मे ं र रं जत ववरण दया।8 हालाँ क कुछ व ानों ने ह दू धम के ान एवं भ क शं सा क , पर तु अ धकां श ने कैथरीन मेयो के ढ़वादी वचारों को ही न कष के प मे ं दोहराया है क ह दू धम एक और नराशाजनक क म का धम है जो क रप थयों क एक ऐसी भीड़ का उ पादन करता है जो गं गा मे ं डुबक लगाते है,ं क लों पर लेटे हुए नं गे और दुबल साधुओ ं तथा बेकार नषेधा ाओं को बढ़ावा देता है—कुल मला कर वह इसे एक ज टल और बेकार क ग दगी कहती है।ं गाँधी जी ने मेयो क इस पु तक को ‘‘नाली क सफ़ाई करने वाले नरी क क िरपोट’’ (A Drain-inspector’s Report) कहा था एवं इसक कटु आलोचना क थी। आइजै स (Isaacs) आगे कहते हैं क ‘‘भारत से कामुकता का भय वहाँ क ख़तरनाक दखने वाली कामुकता पर आधािरत था। वहाँ ह दू म दरों मे ं अ लील मू तयाँ, सभी जगह कई कार के लैं गक तीक और तथाक थत लालची पुरो हत थे जनके बारे मे ं कहा जाता था क वे अपनी वासना क पू त के लए म दरों के अ दर वै याओं को रखते थे।’’9 इस तरह के ववरणों ने भारत क छ व एक ‘अनै तक एवं अ व ासपू ण’ ढ़वादी क तरह गढ़ी। शीत-यु के दौरान ए यू रॉटर ने द ण ए शया के त अमरीक नी तयों से स ब धत सां कृ तक मा यताओं एवं व ासों के बारे मे ं बहुत समय तक शोध काय ं ै ी े ै ि ों े े

कया।10 अमरीका के राजनै तक एवं सै य अ धकािरयों के अवग कृत लेखन का व लेषण करने के बाद उसने न कष नकाला क कुल मला कर भारतीयों मे ं पारद शता क कमी एवं प ता के अभाव के कारण उ हे ं समझना बहुत क ठन है। उ हे ं हा या द, बदबू दार, उ छृं खल एवं जं गल मे ं भीड़ भरे जैसा भी बताया गया। रॉटर लखते हैं क सभी अमरीक धारणाओं के आधार पर भारत को एक रह यमयी और असाधारण देश क तरह देखा गया। इस देश के ऊपर एक पदा-सा पड़ा हुआ दखता है जो अ ययनकताओं को इसक वशेषताएँ देखने से रोकता है। यहाँ तक क ज होंने पू व ए शया को अ छ तरह समझ लया था उ होंने भी वीकार कया क वे भारत से च कत थे।11 भारत ने आ म-अनुशासन एवं आ म- नय ण जैसे प मी गुणों को द शत नहीं कया। जैसा क रॉटर कहते है,ं ‘‘प मवा सयों ने भारतीयों को अवां छत और व जत क तरह अपनी तकसं गत आ म-छ व के वपरीत पाया। उ र- बोध काल के एक प मी य के लए य द यव था अभी है तो वहीं भारत क ग दगी एवं अ यव था उसके लए घृणा का वषय थी।’’12 शीत यु काल के द तावेजों मे ं अमरीक गृह म ालय ने यह घो षत कया क भले ही भारतीय कतने ही ं े और प मी लोगों के लए पू ण प से पा ा यकृत यों न हो जाये ं वे ए शयन ही रहेग ं ।े टाइम प का (Time Magazine) के एक मु य लेख मे ं बताया अ या शत ही रहेग गया क भारत क तभा सदा मथक क खोज मे ं रही, न क ता ककता मे।ं भारत से लौटते हुए अमरीक अ धकािरयों के लए यह सामा य बात थी क वे वहाँ क घटनाओं को भारतीयों मे ं दखने वाली अ मता, अ ववेक अथवा नरे अनू ठे पन के प मे ं व णत करे।ं 13 अमरी कयों का झुकाव अ यव था, नै तक स द धता एवं न यता को पु ष व से जोड़ने पर था।14 यह कभी-कभी पक क तरह ‘मदाने’ अमरीका को ‘रह यमयी नींद मे ं खोई हुई युवती’ (अथात भारत) को आक षत करके ह थयाने के ं प मे ं य कया गया।15 रॉटर आगे कहते है— प म ारा भारत को ी के प मे ं च त करने से अ धकां श भारतीय पु षों को नामद माना गया। ह दू धम को कमजोर करने वाले जाल मे ं फँ स कर अ धकां श भारतीय पु ष अपनी मदानगी से वं चत रहे। लैं गक स दभ मे ं प मी वचारक ऐ तहा सक प से अ धकां श भारतीय पु षों मे ं तीन वशेषताओं क स भावना य करते है।ं इनमे ं पहली न यता और उसका बढ़ा-चढ़ा कर तुत कया हुआ व प, दू सरी भावुकता और तीसरी वषमलैं गक श क कमी थी। ह दू पु ष न य, चाटुकार और कायर है।ं अपनी न यता के कारण वे य त: शम क भावना से पी ड़त हुए बना सब कुछ सह सकते है।ं उ होंने अपने उ पीड़कों का वरोध नहीं कया ब क उ हे ं बेहोश उदासीनता से देखा। न यता का यह बढ़ा हुआ व प ी ी ो ों े ी ों े ं ें ै

चापलू सी था। प मी लोगों ने कहा क यह भारतीय पु षों मे ं चुर मा ा मे ं है। बहुतों ने जॉन टुअट मल (John Stuart Mill) क उस उ से सहम त जताई क ‘वा तव मे ं ह दू मे ं नपुं सक क तरह एक गुलाम के भरपू र गुण पाये जाते है’ं ।16 भावुकता को एक मु य भारतीय वशेषता माना गया— कसी वषय पर ता कक एवं ठ डे दमाग से सोचने क अपे ा भारतीय पु ष आपा खो देते है,ं जैसा क यों के बारे मे ं कहा जाता है। अमरी कयों का लगातार यह दावा रहा है क प मी लोग तकसं गत एवं मजबू त होते हैं जब क पू व देशों के लोग भावुक एवं सं वद े नशील। ं ी CIA ने कहा है था क ‘उनका चिर नेह के बारे मे ं अमरीक खु फ़या एजेस भावुकता के कारण कमजोर हो जाता है जससे मू यों के त उनक समझ कभीकभी न हो जाती है,’17 तथा रा प त आइज़नहोवर (Eisenhower) का मानना था क नेह क भावा मक उ ज े ना भारत के लोगों के चिर को साकार करती है।18 उनके अनुसार भारत मे ं तक और यव था का अभाव है। ँ े जा भारतीयों क गलत पहचान के ोत प म के ऐसे भयावह पू वा हों मे ं ढू ढ़ सकते हैं जो उनके ारा ह दू धम को नर तर अ त-सरलीकरण कर ‘बहुदव े वादी’ मानने के कारण आये तीत होते है।ं एक गलत धारणा जो आज भी बनी हुई है क अनेक-ई रवाद ह दुओ ं क मान सकता को ऐसे वक सत करता है क कोई एक स य या भु व नहीं होता, जससे उनके दृ कोण व नी तयाँ बदलती रहती हैं और पिरणाम व प वे धोखेबाज़ के प मे ं अमरीका के म नहीं माने जा सकते। कसी राजनै तक सं कट के समय प मी लोग भारतीयों पर सही प चुनने का भरोसा नहीं कर सकते। रॉटर बताते हैं क अमरीका क वदेश नी त को हमेशा ोटे टे ट के क र वचार ‘एक और एकमा स य’ से सं चा लत कया जाता है। 1954 मे ं सं य ु रा मे ं अमरीका के राजदू त आथर डीन (Arthur Dean) ने एक भारतीय उ ा धकारी से दो टू क श दों मे ं कहा था क अमरीका अपनी नी तयाँ यीशु क नी त वा यों के आधार पर चाहता है, जसके अनुसार ‘‘जो मेरे साथ नहीं है वह मेरा वरोधी है (मै यू – Matthew—12:30),’’ इसी लए आथर डीन नेह क गुट नरपे ता और भारत क नै तक तट थता क नी त से नाराज़ थे।19 भारत क तट थता को प म ने हमेशा उसक नै तक अ प ता और सापे यवाद के उदाहरण के प मे ं देखा जहाँ ह दू सही या गलत का चुनाव करने क परवाह नहीं करता। यों क भारत मे ं ई र का अ त व हमेशा से अटकलों और व वधताओं का वषय रहा है, इस लए भारत क वदेश नी त भी अ न तता से त रहेगी ही। जब क दू सरी ओर पा क तानी प वादी, सश , लड़ाकू (सकारा मक अथ मे)ं और सबसे बड़ी बात क उनक तरह ‘एके रवादी’ के प मे ं सामने आये, जससे वे अमरीक जैसे और भारतीयों क अपे ा अ धक भरोसेम द लगे।20 काल एवं ा ड के वषय मे ं ह दू अवधारणाओं ने भारत क सापे तावादी वदेश नी त को भा वत े





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कया। गुट नरपे स ा त के त अमरीक बेचन ै ी को इस त य से मह वपू ण तरीके से समझा जा सकता है क अमरी कयों क मान सकता हठधम स ा तों पर ं आधािरत सा दा यक पर पराओं से न मत है।21 रॉटर प करते है— वशेषकर पा क तान के मुसलमान ईसाइयों के समान ही ‘एके रवादी’ लगते है।ं ह दुओ ं का कई देवताओं-अवतारों मे ं व ास है और स भवत: स य के कई सं करणों मे ं भी। मुसलमानों मे ं ऐसा नहीं है। हालाँ क मुसलमानों के भगवान बाइबल के नये कानू नों (New Testament) के अनुसार नहीं हैं तथा मनु यों के लए उनके आदेश ईसा मसीह क ओर से नहीं ब क पैग़ बर मोह मद क ओर से आये थे। पर तु उनमे ं उ आदेश के ोत के त कोई ं म नहीं और न ही उनमे ं वग य आ म लापरत मुसलमान और ईसाई है— नेक का एक ही सुर है। प मी लोग ाय: इ लाम और ईसाइयत के बीच इस समानता को तुत करते रहे है,ं पिरणाम व प भरोसे का एक तालमेल बना हुआ है जसमे ं सहमत न होने वालों को बाहर रखा जाता है।22 रॉटर आगे कहते है,ं ‘‘इसी सा दा यक सोच के कारण पा क तान के साथ सै य गठब धन बनाने मे ं पू व अमरीक गृह म ी जॉन फ़ो टर डलैस (John Foster Dulles) ारा िे रत अमरीक नणय समझा जा सकता है। वे लखते हैं क एक ईसाई देश ही पहली ाथ मकता होता, पर तु यों क न ही पा क तान और न भारत ईसाई था, इस लए उस समय पैग़ बरी मत वाले पा क तान के साथ जाना सव म वक प था। डलैस के अनुसार ह दू धम भी सा यवाद क तरह ही यथाथ नै तक सम याओं से सत था। सा यवाद मे ं कोई ई र नहीं जब क ह दू धम मे ं भगवान के कई तीकों को माना जाता है, जससे उसका नै तक दशासू चक अ प और मत माना गया। ं ागन (Pentagon), गृह सन् 2003 मे ं भारत-अमरीक सै य स ब धों पर पेट म ालय, ए शया- शा त सै य कमान एवं नई द ी थत अमरीक दू तावास के अमरीक नी त- नमाताओं के एक दल ने एक वग कृत ववरण तैयार कया। भारतीयअमरीक समाचार ोत रे डफ़.कॉम (Rediff.com) ने इस ववरण क सं े पका तुत क जसमे ं भारतीय सेना को स म, अ छ तरह से श त और रणनी त एवं ौ ो गक मे ं नपुण बताया गया। फर भी अमरी कयों ने भारतीय समक ों के साथ अपने पार पिरक स ब धों को असु वधाजनक बताया, जसके अनुसार भारतीय अ धकारी, जनरल, नौसेना य एवं एयर माशल आसानी से अपमा नत महसू स कर सकते है,ं उनके साथ काम करना क ठन है, वे अमरी कयों के त गहरा अ व ास रखते हैं एवं भ व य पर यान देने क अपे ा अतीत के त अ धक आस है।ं ववरण के अनुसार 1990 के दशक मे ं जन अमरीक सै य अ धकािरयों ने भारतीयों के साथ काम कया उ होंने खुलासा कया क वे पा क ता नयों के साथ काम करना ं े जनको उ होंने अ धक समझौतापरक, म यम माग और काम अ धक पस द करेग ै ें ी ॉ े े े

मे ं सहज साथी बताया।23 यह रॉटर ारा व णत ववरण से मेल खाता है जसके अनुसार अमरी कयों को ‘असली मद ’ के साथ खड़ा होना सहज लगता है और पा क तानी नेता जो माँस खाते है,ं शराब पीते हैं और सेना के ह थयारों एवं मशीनरी क सही क करना जानते है,ं असली मद है।ं 24 वर का दशनशा , भ एवं लोकमतों का आवरण प म क भारत के त अ यव था क धारणा को और बढ़ाता है। वेदों, पुराणों एवं ह दू धम मे ं अ यव था क अवधारणा को एक कारण से आ मसात कया गया है। यह कसी भी नरं कुश वृ को घटा कर स तु लत करती है और साथ ही अ प ता व अ न तता के मा यम से रचना मक ग तशीलता भी दान करती है। नीचे वाला च बाइबल एवं धम नरपे य दृ कोण वाले प मी वचारकों मे ं आमतौर से च लत भारत क छ व को दशाता है। च के शीष पर एक ‘‘ त े सं कृ त’’ (white culture) है जो भारतीय समाज को ख़तरनाक, स भवत: शैतानी भी मानती है तथा अमरीका के क थत स य समाज एवं ग तशील भाव के आ छादन के लए तैयार है। प मी सं कृ त क गहराई से जो दो मुख दृ कोण नकलते हैं वे हैं ढ़वादी बाइबल एवं उदार धम नरपे ता। ढ़वादी दृ कोण मशनिरयों ारा लखे गये थों पर आधािरत है जब क उदारवादी दृ कोण मानवा धकारों और सामा जक उ त जैसे काय मों से भा वत है, जब क इन वचारों के वपरीत इस तरह क श दावली गहरे न लवाद एवं यू रोप-के त पू वा हों से सत है। अथात दोनों अवधारणाएँ अपने अनुसार भारत को एक अराजक थान के प मे ं तुत करती हैं जसे यव थत कये जाने क आव यकता है।

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इस च मे ं न न एवं ग दे से दखाई देने वाले साधुओ,ं खुले मे ं कये जाने वाले शवदाह तथा कमफल के स ा त को नय तवाद बताने वाली गलत पिरभाषाओं को जोड़ने से भारत एक ऐसा न त े लगता है जो एं लो-अमरी कयों क भारतीयों के त अनै तक, तकहीन एवं व च होने जैसी धारणाओं को पु करता है। वा तव मे ं लगभग सन 1600 से ले कर अब तक अ धकां श ग़ैर-यू रोपीय स यताओं के बारे मे ं प मी धारणा यही है।25 ए शयाई एवं प मी सं कृ तयों मे ं ानबोध ा करने के व भ तरीके वै ा नक परी ण का वषय बन गये है।ं सं ाना मक व ान के े मे ं म शगन व व ालय (University of Michigan) के एक शोध से पता चलता है क वा तव मे ं सं सार के त ए शयाई और गोरे अमरी कयों का दृ कोण एकदम भ है। उदाहरण के लए जब गोरे अमरी कयों को एक च दखाया जाता है तो वे उस च क अ भू म पर अ धक यान के त करते है,ं जब क ए शयाई य उस च को अ छ तरह से अ ययन करने के लए उसक पृ भू म पर भी यान देते है।ं अ ययन करने वाले शोधकता िरचड न बेट (Richard Nisbett) बताते हैं क हमारी अपे ा ए शयाई लोग कहीं अ धक ज टल सामा जक सं सार मे ं रहते है।ं उ होंने न कष नकाला क ए शयाई लोग सामं ज यपू ण एवं ज टल स ब धों के अ धक अ य त है।ं 26 प म का यह यू नकारी (reductionist) पू वा ह क ‘‘प म अथात् यव था एवं भारत अथात् अराजकता’’ यह समझाने मे ं वफ़ल है क भारतीयों का व भ आ या मक साधनाओं के साथ-साथ व ान, यापार एवं अ भया क आ द के तकसं गत े ों मे ं े दशन कैसे है। प म के व ान उस समय साफ़ असहज हो जाते हैं जब वे प मी इ तहास के पहले के भारतीय उपमहा ीप क पिर कृत सां कृ तक एवं वै ा नक उपल धयों के माणों का सामना करते है।ं उनमे ं से अ धकां श व ान इस म त म क चचा ऐसे तक के सहारे करते हैं क भारतीय सं कृ त के अतीत क उपल धयाँ और वतमान का यापक दशनशा वा तव मे ं जैसे भारतीय नहीं है; अथात् उदाहरण के लए अ य धक यव थत एवं सटीक स धु-सर वती स यता वा तव मे ं मू लत: भारतीय नहीं है। य द प मी लोग कसी व तु को ‘भारतीय’ कहते हैं तो वे यह दशाने का यास करते हैं क यह सं कृतआधािरत स यता का वरोधा मक पहलू है जसे सं कृत स यता ने न कया था। उनका यह भी मानना है क ह दू धम पहले अ त व मे ं नहीं था, पर तु पछले दो सौ वष के दौरान ह दू रा वा दयों ारा एक सा जश से इसे कट कया गया है। ये सभी घोषणाएँ उन तक पर आधािरत हैं जनके अनुसार ह दू धम मे ं आदश , यव था और के ीय श का अभाव है। इस मान सकता के अनुसार अराजकता और यव था साथ-साथ नहीं रह सकते। भारतीयों को तकश मे ं न न घो षत करने के कारण प मी व ान भारतीय वचार णा लयों क उ कृ ता को पू री तरह से वीकार करने मे ं क ठनाई का सामना ै े ैं ों

करते है,ं जब क प म पर इन णा लयों का गहरा भाव एक अका त य है। प मी म त क का बहु-इ यगत एवं ग़ैर-अनु मक जाग कता से हट कर एक सीधे-रै खक एवं अनु मक जाग कता क ओर जाना मानवता के इ तहास मे ं एक मह वपू ण सफ़लता के प मे ं अ भन दत कया जाता है।27 दू सरी ओर भारतीय स यता हमेशा से ही च तन, सं गठन एवं अनुभवों क बहुआयामी णाली मे ं न हत रही है। यह समका लक भारतीय दृ कोण प म क कई नई खोजों का आधार रहा है जनमे ं सं रचनावाद (structuralism) क खोज जैसे मुख ानशा का स ा त भी स म लत है—एक ऐसी प त जसने भाषा और समाज स ब धी व भ अ ययनों मे ं ा तकारी पिरवतन लाया। भारत के इन ान साधनों का मह व समझने मे ं प मी वचारक न केवल असफल रहे ब क उ होंने इन साधनों का इस अनुमान के कारण लगातार वरोध कया क ये अराजक सं कृ त से उ प हुए है,ं जसमे ं ता ककता एवं -आधारी स ा त अ धकां शत: अनुप थत है।ं जैसा क िरचड लेनॉय (Richard Lannoy) ं न कष देते है— सहज एवं एक सं वद े नशील सं ान से यु तमानों (सं रचनावाद के दोनों पहलू ) को ‘अवै ा नक ववेकहीनता’ कह कर न दत करना एक दुखद एवं गलत धारणा है, वशेषकर भारत जैसे समाज मे ं तभा ने, जसे य प ल बे समय से ‘पुरातन’ कह कर कलं कत कया गया था, फर से चरण-दर-चरण मक एवं रै खक ग त के तक पर भु व ा करना आर भ कर दया है।28

अराजकता के साथ भारतीयों का धैय इस स ब ध मे ं धा मक पर पराओं क सहजता अ भ एकता और स दभ को मह व देने के कारण है। सभी व तुए ँ सहज प से आपस मे ं जुड़ी हुई है,ं इस लए य बहुलता के त न त है और उससे कसी कार से डरता नहीं। ी अर व द लखते है,ं ‘‘हमे ं एकता न मत करनी चा हए न क एक पता।’’29 वे प करते हैं क भारतीय धा मक पर पराओं मे ं एकता एक कार से अ भ ता क आ तिरक भावना मे ं न हत है, इस लए यहाँ बखराव और अराजकता से वनाश के डर के बना वराट बहुलता पाई जाती है। वे आगे कहते हैं क कृ त अन त कार क भ ता को आसानी से वहन कर सकती है, यों क शा त् स य क अ त न हत अचल थ त यहाँ हमेशा अ भा वत रहती है। ी अर व द के लए वा त वकता (शा त् स य) क न यता न बदलने वाले अ त व मे ं है जो अ तहीन पुनगठन क स म अपिरवतनीयता ही रहती है, पर तु कोई भी वभेदन इसे न , वकृत, अथवा कम नहीं कर सकते।30 इस नय मतता का एक आ या मक आधार है। वे लखते हैं क— ै ो



‘‘य द मनु य एक आदश आ या मकता का अनुभव कर सकता है तो उसे कसी कार क एक पता क आव यकता नहीं होगी, यों क उसी आ या मक नींव पर व वधता का परम खेल सहज प से स भव होगा। य द फर सै ा तक प से वह एक सुर त, प एवं मजबू त एकता का अनुभव कर सकता है तो एक समृ और असी मत व वधता उसके या वयन मे ं बना कसी वकार, म, और सं घष के भी स भव है।31 यव था तथा अराजकता के बीच जो वाही एवं पर पर स ब ध हैं उ होंने ही भारत क सामा जक, राजनै तक एवं नागिरक सं रचनाओं को आकार दया है। औप नवे शक काल से ले कर वतमान समय तक पार पिरक भारतीय समाज क वके ीकृत सं रचना और वचा लत कृ त ने बहुत से प मी लोगों को अच भत कया है। प म क एक पता, के ीकृत स ा एवं नय ण क ाथ मकता से यह वके त ढाँचा बहुत अलग है। उदाहरण के लए ईसाई मत क ववाह व ध से भ ह दू ववाह प त मे ं पुरो हत वयं कोई अनु ान नहीं करता और न ही जोड़े को ववा हत घो षत करने का उसे कोई अ धकार है; वह केवल श क के प मे ं काय करता है। दू हा और दु हन वयं ही ववाह सं कार क याएँ पू ण करते है।ं दू सरे श दों मे,ं कसी बाहरी स ा को उ हे ं प त-प नी घो षत करने का अ धकार नहीं है। इसी कार क ‘ वयं करके देखो’ वाली वत ता अ य पर पराओं जैसे योग एवं यान मे ं भी प है। यहाँ तक क औपचािरक पू जापाठ मे ं भी दशा नदश केवल अनुभवहीन लोगों के लए हैं और धीरे-धीरे इनसे हट कर वह और अ धक वत हो कर अपनी आ या मक या ा मे ं कसी बाहरी स ा के ह त प े के बना अपना माग वयं ही श त करता है। भारत का कु भ मेला इस बात को दशाता है क वशालतम पैमाने पर भी व वधता वयं -सं चा लत और बना कसी अराजकता के हो सकती है। येक बारह वष मे ं आयो जत होने वाले कु भ मे,ं जो क सं सार का सबसे बड़ा मेला है, भारत के कोने-कोने से समाज के सभी वग , पर पराओं, जा तयों एवं भाषाओं के लाखों-करोड़ों लोग खं चे चले आते है।ं फर भी इसमे ं कोई के ीय आयोजन स म त अथवा बाहर से आने वालों को नम ण भेजने या काय म घो षत करने वाला कोई ‘काय म ब धक’ अथवा इसे चािरत करने वाली कोई के ीय स ा या बाहर से आने वालों के लए कसी कार का के ीकृत पं जीकरण क वेश णाली नहीं है। यह आयोजन एक वत: फ़ूत और सावज नक अ धकार े का है जसमे ं कसी का सरकारी अ धकार अथवा भु व नहीं होता। अ त- ाचीन काल से व भ समू हों ने अपने छोटे-छोटे नगर बसा लए हैं और लाखों लोग य गत प से केवल तीथ या ा एवं उ सवों मे ं भाग लेने आते है।ं ई े



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मु बई के ड बेवालों क वतरण सेवा वा ण य के े मे ं भारतीय व-सं चालन का एक और उदाहरण है जो बना कसी के ीय स ा या आयोजक के एक त के मा यम से येक ाहक के घर पर पका हुआ गम खाना वतिरत करती है।32 य गत उ मयों क यह यव था अ तजाल (Internet) क तरह एक वके ीकृत यव था है जसमे ं बना कसी के ीय अ धकार के एक य दू सरों के साथ स पक मे ं रह सकता है। ब धन के व ालयों ने इस यव था का अ ययन कया तथा उसे आ यजनक प से कुशल पाया, यहाँ तक क फ़ेडरल ए स स े (Federal Express) और डीएचएल (DHL) जैसी आधु नक वतरण क प नयों ने भी इनसे त पधा करने का यास कया, पर तु असफल रहीं। भारतीय सं कृ त मे ं रचना मकता तयशुदा साँचों एवं आशु- यव था के बीच एक ग तशील आदान- दान मे ं पनपती है। प मी लोगों क अपे ा आम तौर पर भारतीय लोग चरम थ तयों से नपटने मे ं अ धक सहज होते हैं तथा अराजकता और उसके वपरीत यव था के बीच के थान को रचना मकता, अ त ान एवं अ तदृ के लए एक अवसर क तरह देखते है।ं भारतीय कला मे ं भी एकता है, पर तु यह एकता समान त पों क पुनरावृ जैसी नहीं है ब क यह व वधता मे ं एकता है। यह एकता ह दू जीवनशैली के येक क पनाशील आयाम, जैसे वा तुकला, क वता, सं गीत और मू तकला मे ं य होती है। इस त य का वणन करने के लए कई उदाहरण है।ं भारतीय सं गीत पर लखे लगभग सभी अं ज े ी लेखों मे ं ‘ वर’ का अनुवाद ‘नोट’ (note) के प मे ं कया जाता है। इसी वकृत पिरभाषा को बहुत से भारतीयों और तथाक थत वशेष ों ारा अं गीकार कर लया गया है। वा तव मे ं ‘ वर’ का कोई प मी समक श द नहीं है, यों क मू लत: वर केवल नोट को ही समा व नहीं करता ब क आस-पास के मधुर पिरत को भी अपने मे ं समेटे हुए होता है। एक व ान ने ट पणी क है क जन प मी सं गीत ों ने भारतीय सं गीत का अ ययन कया है उ होंने शायद ही कभी ‘ वर’ से पहले और बाद मे ं उ प होने वाले व भ कोण एवं घुमावों क शालीनता को महसू स कया होगा, यों क यह उनके लए एक अनजाना वचार है। उ हे ं लगता है क वे ‘ वर’ को भलीभाँ त समझते है,ं पर तु वा त वकता मे ं ऐसा है नहीं।33 भारतीय शा ीय सं गीत क लयब सीमा (ताल) एक ग़ैर-रेखीय एवं ग़ैर-अनु मक सं ान के ा प पर आधािरत है। भारतीय सं गीत के रागों को हर बार एक ही तरह गाया या बजाया नहीं जाता; वे कलाकार क मनोदशा, ोताओं क त या, उस ण के रस, मौसम, दन का समय इ या द को त ब बत करते है।ं न तो कोई दो ण एक जैसे होते हैं और न ही कोई दो स दभ। मु यत: रागों को उनक मू ल वर सं रचना पर आशु-रचना के आधार पर गाया-बजाया जाता है। इस पू ण वत ता और आशु रचना ( जसे ाय: भारतीय सं गीत मे ं ‘उपज’ कहा जाता है) के कारण एक ही राग अन गनत तरीकों से य ं ी ै ी ी ो े ी

कया जा सकता है। फर भी भारतीय सं गीत को बेतरतीब या अराजक क तरह नकारा नहीं जा सकता, केवल इस लए क यह नयमों का अ रत: पालन नहीं करता।34 इसी तरह क स दभपरक सं वद े नशीलता भारतीय जड़ी-बू टी दवाओं को बनाने मे ं तथा साथ ही च क सा नदान एवं दवाई देने मे ं भी देखी जाती है। यहाँ वा य को ‘ वपरीत मे ं स तुलन’ के प मे ं पिरभा षत कया गया है जसमे ं चरम थ तयों को नय त करना स म लत है। आयुव दक दवाइयों को कभी-कभी पहले से तैयार करके नहीं रखा जाता, यों क येक मनु य क भ शरीर रचना एवं उसक कृ त क जाँच करने के प ात ही रोग के ल ण और उपचार क सलाह दी जा सकती है। बीमारी के कारण का वणन करते समय आयुव दक श दावली मे ं ‘हमला’ (as viral attack) कहने क अपे ा इसे ‘अस तुलन’ कहा जाता है। आयुव दक च क सक दवाओं का एक सुसंगत म ण तैयार करता है जससे शरीर क तरोधी ताकते ं एक दू सरे क कमी पू री करके उ हे ं नय त करती है।ं यहाँ तक क आयुवद मे ं इलाज के लए कुछ वषों का भी योग कया जाता है, यों क स दभ के अनुसार वषैले पदाथ मे ं भी उपचारा मक गुण होते है।ं भारतीयों ारा टीके (vaccination) का आ व कार पू रे शरीर को मजबू त करने के लए तकूल को रचना मक प से योग करने के स ा त पर आधािरत है।35 कई कार के पौधों एवं खा पदाथ मे ं व श ‘रस’ होते हैं ज हे ं य द शु प मे ं पया जाये तो वे हा नकारक हो सकते है,ं पर तु न त मा ा मे ं म ण करके और पकाने से वे लाभकारी हो सकते है।ं येक य के शरीर के गुणधम का आँकलन करने के बाद सही स तुलन लाने के लए अनुकूल रसों को खा पदाथ के प मे ं दया जाता है।36 अ छे भारतीय रसोईये यं जन बनाने क ल खत व ध या मापक उपकरणों पर नभर नहीं रहते, यों क यह या क और रस वहीन होगा, फर भी वे उ म भोजन तैयार करते है।ं आशु-रचना भारतीय नृ य, कला, व , पहनावा, न ाशी और यहाँ तक क म दरों एवं घरेलू अनु ानों, री तिरवाजों एवं थाओं मे ं भी व श प से अं कत है। कां जीवरम के स म दर मे ं एक हज़ार त भ हैं जनमे ं कोई दो भी एक जैसे नहीं है।ं जैस-े जैसे य क कला मे ं वीणता आती है वैस-े वैसे आशु-कला सहज ही अपने आप वक सत होती चली जाती है। उ ण े ी के योगी सहजता से अ यास करते है।ं हालाँ क ार भ मे ं श यों को जानबू झ कर योगासन एक नधािरत अनु म मे ं सखाये जाते है,ं पर तु उ ण े ी के श यों के लए कोई पू व- नधािरत अनु म नहीं होता। इनका शरीर अपनी इ छा के बना सोचे वचा लत होता है और यहाँ तक क ‘मैं कर रहा हू ’ँ क भावना भी कम होती जाती है।37 अहं कार थर एवं सुसंगत त वों, नधािरत कायकारी स ा तों एवं ु मे ं फँ से रहने के कारण होता है। वयं को उभारने के लए ामक चीजों के चं गल ं ै ो े े ई ी े

अहं कार का समपण आव यक है। इस ल य को ा करने के लए कई तरीके योग मे ं लाये गये है,ं हालाँ क प मवासी इ हे ं अ यव थत भी मान सकते है।ं 38 भारत मे ं दीपावली और होली के उ सव तीक के प मे ं सामा जक रचना मक उबाल के मा यम से सं सार को अ यव था से उ प हुए दखाते है।ं उ सव मनाने वाले त दन क यव था एवं बँध-े बँधाए ढाँचे से बाहर आ कर एक पुनज वत अ थायी सामू हक अ यव था मे ं भाग लेते है,ं जससे वे अपनी नजी यव थत भू मका मे ं फर से वापस लौट कर तरोताज़ा महसू स करते है।ं उ सव दो लयब ु ों का तीक है, जैस— वपरीत व े यव था/अराजकता; नयम ब ता/तकहीन आवेगों पर समपण; वभाजन और भेदभाव/ मलन और अभेद-भाव; वजनाओं का पालन/ वजनाओं का अ त मण; वा त वक स ा त परक अनुशासन/आमोद स ा त मे ं म नता; जा तगत त ता/सामू हकता का गौरव इ या द। उ सव मनाने क री तयाँ, यव था को फर से लाने के लए, अ यव था क ऊजा या रचना मक मानस को स य करती है।ं 39 भारतीय कला कामशा , आ या मक अ भ य और वा तव मे ं जीवन के लगभग सभी पहलुओ ं मे ं पिर कृत याकरण है, जसका उपयोग अनुशासन क नींव के प मे ं तथा तमानों क या या करने एवं आशु-कला को ो साहन देने मे ं होता है। कई ह दू यौहारों मे ं भारतीय म हलाएँ चावल के बहुरंगी चू रे से घर के फ़श पर ज टल बेल-बू टे बनाती है।ं आयोजन के स प होने के बाद इन रचनाओं के ऊपर लोगों के चलने से ये मट जाती हैं और चावल का चू रा इधर-उधर बखर जाता है। डे वड शलमन (David Shulman) अनु ान का वणन करते हुए लखते है,ं ‘‘जैस-े जैसे दन बढ़ता है चावल का चू रा घर मे ं आने-जाने वाले लोगों के पैरों मे ं लगता- बखरता रहता है। चावल का चू रा सड़क क धू ल से घुल मल जाता है तथा तीक अपने मू ल व प मे ं नहीं रह पाता। इसे बनाया भी इसी लए गया था। वह आगे कहते हैं क ऐसी यव थत रं गोली के नमाण का उ े य केवल णक होता है और जब इसक उपयो गता समा हो जाती है तब उ हे ं मटने के लए छोड़ दया जाता है। अथात् उनका नमाण बने रहने के लए नहीं ब क अदृ य, णक एवं अ या शत 40 वा त वकता के तीक क तरह कया जाता है। ह दू धम के बारे मे ं एक अ णी प मी वशेष वे डी डो नगर (Wendy Doniger), जसका भारतीय धा मक कला का काय उसे कमतर बनाना है, लखती हैं क ‘‘चावल क रं गोली को मटाना एक तरह से यव था को वकृत कर उसके पुन नमाण कये जाने जैसा है।’’41 हालाँ क वह एक गलत आँकलन भी करती हैं क ह दुओ ं ारा म दरों को पुन था पत करने का यास उ हे ं अहं वादी सं र क बनाता है, जो आ मस तु के लए यह मानते हैं क ह दू म दर, कला, और महलों को सदा के लए बने रहना है। उसका अ त न हत स देश यह है क पछले एक हज़ार वष व इसके समकालीन कालख ड मे ं वदेशी भु व के समय ह दू म दरों का ं ि ओं

जस तरह पिर याग एवं वनाश कया गया वह उ चत था। ह दुओ ं क अ यव था के त सहजता और उसके रचना मक उपयोग के त तो समझ अ छ है, पर तु यह ले खका क -आधारी यू नकारी सोच मे ं सकुड़ कर म दरों क यव थत वा तुकला क उपे ा करते है।ं 42 भारतीय आ या मक लचीलेपन को बेतरतीब, दोहरे चिर वाला अथवा दृढ़ता क कमी के म क तरह नहीं देखना चा हए। अत: इस पू वगामी चचा को स तु लत करने के लए इसमे ं यव था एवं पिरशु ता का अ त व दशाना आव यक हो गया है— कसी शोध- ब ध हेत ु ‘ याय-शा ’ को पाँच चरणों मे ं कड़ाई से लागू कया जाता है; कसी सम या के आकार नधारण हेत ु ‘मीमां सा’ के सात स ा त है;ं सं कृत मे ं वै ा नक थ लेखन हेत ु ‘त -यु ’ नाम के तरीके है;ं साथ ही वप यों से वाद-पिरवाद करने के भी व भ तरीके था पत है।ं प म क स ‘दाँए म त क क यव था’ वाली धारणा, ‘बाँए म त क क रचना मकता’ के साथ भारतीय इ तहास मे ं फली-फूली है और इन के बीच का तनाव व भ सां कृ तक व पों मे ं लगातार अ भ य होता रहा है।43

प व आ यान यव था और अराजकता के जन व भ पहलुओ ं के बारे मे ं मैनं े ऊपर लखा है वे भारत एवं प म के मथकों और बु नयादी कथानकों क वषमता मे ं प प से दखते है।ं वेदों, उप नषदों तथा सं कृत के वृहद शा ीय लेखन मे ं हमे ं अ यव था और असमानता से नपटने हेत ु कई स दभगत, सं वद े नशील तथा लचीले तरीके देखने को मलते है।ं यहाँ अ यव था के अ धकारों को मानते हुए खोज हमेशा स तुलन एवं सा यता के लए होती है। यू नानी शा ीय एवं उ प (Genesis) क सृ -स ब धी ु ों के बीच सतत् कुल-जोड़ शू य सं घष चलता रहता है, जसमे ं कहा नयों मे ं दो व ‘ यव था’ क ही वजय होनी चा हए। यहू दी एवं यू नानी दोनों ही के प मी मथक ऐसे सं गों से भरे पड़े हैं जो नकारा मक े ों को अराजक और वग को यव थत ँ ने क अपे ा सतत सं घषरत है।ं यह सं रचना दशाते है,ं दोनों पू रक या स तुलन ढू ढ़ प मी सं कृ त एवं मनो व ान का आधार है, इस लए य द इसे कसी बाहरी दृ कोण से पिरल त न कया जाये तो इसे देखना प मी लोगों के लए क ठन है।

वेद वै दक सा ह य मे ं ऐसे कई मथक हैं जो व रच यता ‘ जाप त’ के जगत को उ प करने के यासों का वणन करते है,ं जसमे ं यव था एवं अ यव था जैसे बलों मे ं स तुलन हो। उनके पहले यास के पिरणाम व प जो सृ बनी उसमे ं भ ता का अभाव (‘जामी’) था, यों क यह अ य धक यव थत थी। यह अ भ एकता को अस भव बनाता है, यों क यहाँ व वध घटक सं य ु होने के लए पया मा ा मे ं हैं ी

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ही नहीं। वे एक से हैं और सीधे ही एक दू सरे मे ं मल जाते है,ं एक ऐसी थ त जसे ‘पं च वं श ा णा’ (24:11:2) मे ं एक दु: व न के प मे ं स द भत कया गया है। सृ क रचना के दू सरे यास मे ं एक ऐसा ा ड उ प हुआ जो अ त ख डत एवं अराजक था (पृथक अथवा नन व)। जब ा ड मे ं इकाइयाँ बहुत अ धक अकेली, बख़री हुई, एक दू सरे से एकदम भ (पृथक) होती हैं तब वे आपस मे ं स ब ध नहीं बना सकतीं। तब एक ऐसी सृ वाँ छत है जो कसी हद तक भ ता और अकेलापन रखती हो, पर तु ‘जामी’ के ल ण से बची रहे, अथात् इकाइयाँ पर पर स ब ध तो ं ी, पर तु उनमे ं पृथकता क अवाँछनीय थ त नहीं होगी।44 रखेग जाप त का मानना था क जीवन वपरीत अ त क थ तयों, पहचान के अ य धक अ तर और अ य धक सम पता के बीच थत होना चा हए। अ तत: वे एक ऐसे ही ा ड क सृ करने मे ं सफ़ल रहे। यह काय उ होंने समानता क श ारा स प कया जसे ‘ब धुता’ या ‘ब धु’ कहते हैं तथा जसके बारे मे ं अ याय 3 मे ं चचा हो चुक है। वेद वा त वकता के व भ तरों मे ं स ब धों को खोजने के यासों से भरे पड़े है।ं यह सम त वै दक वचारों एवं नै तक सं वाद के एक मुख स ा त के प मे ं जाना जाता है। ह दू धम ‘ यव था’ (अथात देवताओं) तथा ‘अराजकता’ (अथात असुरों) के बीच जारी त ता के अपने मुख के ीय स ा त के चारों ओर ऐसे कई आ यान बुनता है जनमे ं इसे दशाया गया है। भारतीय धा मक पर पराओं के मुख ु ों के बीच चले मथक जसमे ं ‘समु म थन’ को दशाया गया है इन दोनों वपरीत व आ रहे शा त् सं घष को दखाता है। ीरसागर चेतना और रचना मकता का समु है जसका म थन करके शा त् जीवन का अमृत ा कया जाना है। म थन करने के लए दो वरोधी प आव यक है।ं मजे क बात यह है क दोनों प ों के पता ‘क यप’ ऋ ष हैं जो ‘दृ या दशन’ का तीक है।ं असुरों क माता ‘ द त’ (अथात वभा जत और सी मत) है, इस लए असुर सी मत दृ के वं शज है।ं देवताओं क माता ‘अ द त’ (असीम) हैं और इस लए उनका दशन उ तर का है। असुरों मे ं अ धक पाश वक श है, पर तु समु म थन के लए असुरों क श के साथ-साथ देवताओं क दू रद शता भी आव यक है। इन मू ल त दयों के बीच चली आ रही खींचतान का कोई अ त नहीं है और यह य के भीतर चलने वाले आ या मक सं घष का भी तीक है। ँ और असुरों ने उस का मुहँ देवताओं ने उस ा ड पी वशाल सप क पू छ पकड़ा तथा मे पवत को म थन करने वाली मथनी तथा सप को र सी के प मे ं उपयोग करते हुए म थन कया। वे समु म थन के लए र साकशी मे ं सं ल न हो कर एक दू सरे को आगे-पीछे खींचते है।ं यह ैतवादी म थन वा तव मे ं ान और अ ान के बीच है, हालाँ क अ ान को पाप अथवा नरकद ड क तरह देखने क गलती नहीं करनी चा हए। आसुरी वृ याँ मनु य का थायी भाव नहीं होतीं ब क वे समये ि ों े ें ी ैं ो ों ों

समय पर मनु य के आ तिरक अवगुणों के प मे ं उभरती है।ं इन दोनों प ों का आपसी तनाव कसी एक प को हरा देने पर ख़ म नहीं होता और यह तरहतरह के चम कािरक और लाभकारी पदाथ को उ प करता है और फर इस बात पर खुला सं घष ार भ होता है क अमर व को हण करने क ाथ मकता कसक है। यह उ ख े नीय है क अमृत नकलने के पहले वष का कलश नकलता है जो एक बार फर से ‘अ छे ’ और ‘बुरे’ के बीच पर पर- नभरता को दखाता है। यह मथक यव था एवं अराजकता से ऊपर उठने का माग दशाता है ज हे ं नाज़ुक स तुलन के साथ रखा गया है तथा अ तत: ये आ या मक बोध के अधीन थ हो जाते है।ं समु म थन क इस कथा को अ रश: नहीं लेना चा हए। वा तव मे ं ा डक उप क अ न तता को ऋ वेद के स सृ -गान—Hymn of creation— X:129) मे ं बहुत अ छे तरीके से य कया गया है। ‘‘...वा तव मे ं कौन जानता है और ऐसा कौन है जो यह घोषणा कर सकता है क मनु य का ज म कहाँ हुआ और यह सृ

कहाँ से आई?

ई रक उप

के बाद हुई है,

भी इस

ा डक उप

कौन जानता है क वह सबसे पहले कहाँ पैदा हुआ? वह, जो इस सृ

का ‘ थम’ और ‘उ गम’ है,

या उसी ने सभी को कसक दृ

प दया अथवा ऐसा नहीं कया, है जो इस ा ड का नय ण वग मे ं करती है,

या वा तव मे ं वह यह जानता है या शायद नहीं...’’ कुछ मुख वै दक देवत व, वशेषकर अ न, सोम एवं व ण असुर हैं जो इ के कहने पर देवताओं क ओर आ गये, पर तु अभी भी उनमे ं ैधवृ और कपटी भाव देखने को मलते है।ं 45 ऐसा माना जाता है क येक वा षक च के अ त मे,ं अथात् नववष आर भ के उ सव के दौरान ये असुर कुछ समय के लए पुन: अपनी रा सी वृ क ओर लौटते है।ं इस समय समाज अ यव था मे ं डू ब जाता है (जैसा क होली के यौहार के दौरान खेल-खेल मे ं द शत कया जाता है) और फर से यव थत ा ड का नवोदय होता है। देवताओं और असुरों के बीच जारी इस सहकािरतापू ण सं घष मे ं असुर ाय: जीतते हुए लगते है,ं यों क ऐसे सं केत मलते हैं क गहनतम ान तथा असाधारण श यों क सुर ा ैधवृ के असुर प के लोगों के ारा क जाती है।46 इस तरह क बार बार दल बदल, साँठ-गाँठ और ख डन प म के अराजकता के त दृ कोण, जो ैतवादी और यव था या अ यव था अथवा अ द नी या बाहरी मे ं कसी एक ही क धारणा को उलटता एवं परा जत करता है। ह दू धम के ग तशील स तुलन के बारे मे ं िरचड लेनॉय (Richard ं Lannoy) सं प े मे ं लखते है— ों

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‘‘ ह दू शा ों मे ं इ तहास को धम और अधम, नै तक, आदशवादी, आ या मक श यों और अँधकार, वासना एवं बुराई के बीच एक अनवरत सं घष होता हुआ दखाया जाता है जसमे ं धम क हमेशा वजय होती है। इ तहास, नै तकता, राजनी त एवं सामा जक च तन एक ा डीय अनु ान योजना मे ं आपस मे ं म त रहते हैं जहाँ देवता और सं कृ त के नायक प व और अप व व के बीच मै ीपू ण म य थ क भू मका नभाते है।ं अ छाई और बुराई के बीच सं घष क यह क पना लोक हत के लए एक ा डीय य के प मे ं क गई है जसमे ं अ तत: राज-धम के नवहन के लए देवताओं और मनु यों को एकजुट कया जाता है।’’47 ब धु क वै दक अवधारणा ा ड क अ त न हत एकता को पु करती है। वै दक य ( जसका गलत अनुवाद ‘ब लदान’ के प मे ं कया गया है तथा जस पर अ याय 5 मे ं चचा क गई है) एक कायशाला है जहाँ ऐसे ब धु व का गठन कया जाता है जो इस जीवन क असं य य अ भ य यों तथा उनके उ कृ मू ल व प के बीच एक पक क तरह है। एक अथ मे ं य अराजकता को यव था मे ं बदल देना है। एक बार फर वै दक वचारों क ान मीमां सा ऋ वेद (10:130:3) मे ं प कट होती है—‘‘मू ल प या था तथा उसका त प, उसक अ भ य या थी एवं इन के बीच का स ब ध, ब धुता या था?’’ आ द व प एवं उनके य ीकरण के बीच स पक-सू ों क वै दक खोज यव था और अराजकता के बीच स ब ध समझाने क एक कुंजी है। सृजन य के अनु ान एक पक क तरह हैं जो अ ात अराजकताओं का पुन: वग करण करके उनका सभी शा ों, साधनाओं एवं सं थाओं मे ं आ दपाठों के प मे ं उपयोग करते है।ं ब धु क भावना आपसी नभरता का मजबू त ब धन है।48 भारतीय धा मक मनीषा सम त ा ड को ऐसे एक कृत व प मे ं देखती है जो बाहर से थोपे हुए नयमों से सं चा लत होने क अपे ा वयं -अनुशा सत है। बाहरी लोगों को य द भारत एक ‘ याशील अराजकता’ क तरह दखता है तो ऐसा इस लये है यों क यहाँ मतभेदों को सहष वीकृ त दी जाती है और साथ ही वाय ता को बनाये रखते हुए उनके एक करण के सं क पत यास कये जाते है।ं सावभौम यव था एवं स भाव के त उ ख े नीय अ तदृ को ऋ वेद मे ं ‘ऋतम’ कहा गया है जो क ाकृ तक यव था को बनाये रखने का स ा त है। वशाल आकाशगं गाओं से ले कर परमाणु का के जो इसक कृ त व दशा है, ऋतम सब कुछ देता है। यह तीन तरों पर कट होता है, पहला लौ कक सतह पर कृ त क दशा सं चालन के प मे,ं दू सरा सामा जक-नै तक सतह पर याय के प मे ं तथा तीसरा उस अ येता के आ तिरक दायरे मे।ं ऋतम कृ त के सू म एवं थू ल अ त वों के बीच स तुलन बनाये रखता है। नै तक सदाचार एवं ा डीय यव था े



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के बीच कोई वरोधाभास नहीं है। यह उन े ों के बीच सेत ु था पत करता है ज हे ं प म ने अलग कर दया है, जैसे धा मक व धम नरपे भावना व वृ इ या द। यव था एवं अराजकता के बीच तनाव से एक नाज़ुक स तुलन बनता है, पिरणाम व प अ धनायक क थ त क अपे ा च लत यव था अ थायी, सापे य, छ यु और लचीली बनती है। च लत यव था को जड़ बनने से रोकते हुए अ यव था रचना मकता के ोत के प मे ं उभरती है। भगवान केवल ा ड के नमाता ( ा के प मे)ं ही नहीं हैं और न ही वे केवल इसक यव था चलाने वाले ( व णु प मे)ं है,ं ब क वे इसे समा भी करते हैं ( शव के प मे)ं । इस वघटन क या से ा ड क उ प के अगले च के लए जगह बनती है। आ या मक तर पर योग के ई र शव यथो चत अराजकता का प धर कर हमारे मनोम त क पर छाए हुए वकारों के ब धनों को न करते है,ं जससे नई सृ का माग तय होता है। यह सव यापी या उप-परमाण वक तथा लौ कक दोनों तरों पर अनवरत चलती रहती है। ु ों के बीच ग तशील स तुलन क अवधारणा वै दक थों मे ं लगातार वपरीत व मलती है। ऋ वेद मे ं ाचीन ऋ षयों का वणन मलता है ज होंने अपने दय मे ं झाँक कर अ त व (सत्) एवं ग़ैर-अ त व (असत्) के बीच छु पे हुए स ब धों (ब धु) क ु खोज क । अ त व न केवल ग़ैर-अ त व पर टका हुआ है ब क ये दोनों ही व 49 आपस मे ं घ न ता और ग तशीलता के साथ बँधे हुए है।ं भगवान ी कृ ण भी दो भ य वों को दशाते है।ं उनका एक प ऐ य (सं ग ठत) का है जो आ म व ास, आ म नभरता एवं उपल ध को दशाता है। उनका दू सरा प माधुय-भाव (मधुर म े पू ण भावना) का है जो यव थत अनुशासन के वपरीत मधुर म े का है। इस लए म े , जो बु से भी े है, यव था क कमी को पू रा करता है।

बाइबल एवं ीक पौरा णक कथाए ँ बाइबल क सृ कथाओं एवं ीक के मथकों मे ं यव था को अराजकता क अपे ा वशेषा धकार दान कया गया है। उदाहरण के लए सृ क उ प स ब धी कथाओं (Genesis अ याय 1 और 2) के अनुसार ई र ने शू य से ा ड को एक बार होने वाली घटना जैसे न मत कया, जसमे ं पर पर प से व श एवं वपरीत गुणधम से यु घटक समा हत थे। जेने सस कथा क ार भक पं यों के अनुसार ‘‘शु आत मे ं पृ वी नराकार एवं शू य थी।’’ बाइबल मे ं व णत यह मौ लक अव था बौ धम क ‘शू यता’ क तरह नहीं, ब क एक ऐसी थ त है जसे ठ क करना आव यक है। इस लए ई र अपने एकल आदेश के साथ ह त प े करते है,ं ‘‘वहाँ काश को आने दो/और वहाँ काश आ गया (I:3)।’’ पिर छे द आगे कहता ै





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है, ‘‘और परमे र ने देखा क काश उ म है (I:4)।’’ इस कार बाइबल मे ं ई र काश और अँधरे े क -आधारी े णयाँ था पत करते है।ं इस कार जेने सस कथा व भ कार के वरोधों को तुत करती है, जैसे नीचे और ऊपर, समु और शु क भू म, सू य और च मा, अ छाई और बुराई इ या द। इस कथा से ऐसा दखाई देता है क सव यापी परमा मा ने एक ऐसे ा ड का नमाण कया है जो न केवल उससे अलग है, ब क पर पर व श े णयों मे ं न मत है। दो वपरीत मा यताएँ, जैसे ई र/शैतान, आ तक/मू तपू जक, स ा धम/ झू ठा धम, देवता/मू त, इ तहास/ मथक इ या द, जो पर परा मे ं बाद मे ं आ , जेने सस कथाओं क तरह पर पर अलग जैसी है।ं येक मामले मे ं जो ड़यों का पहला वक प एकदम पिरशु प से वैध है जब क दू सरा वक प बेहद ख़तरनाक। यह न केवल नकारा मक है ब क यव था लाने के लए इसका उ मू लन आव यक है। इस तरह क प मी सोच स तुलन क अपे ा सं घष और दमन को ज म देती है। प म क इस -आधारी सोच का ोत है ‘‘अ प ता एवं नराकार क अपे ा -आधारवाद एवं व श ता को वशेषा धकार दान करना, शू य अथवा खालीपन के त भय तथा देव व क भावना को सामा य थान-काल से परे सरासर बाहरी मानना।’’ यहाँ ऐसा कोई सं केत नहीं है क कोई भी सृजन ई र क आ तिरक वा त वकता मे ं सहभागी है और न ही ऐसा तीत होता है क मनु य उ तम चेतना क खोज या उसके बारे मे ं सोच भी सकता है। इसके बदले धरती जोत कर एक उ ान का नमाण कया जाता है — उ ान जसक सं क पना पहले एक वग क अवधारणा के प मे ं क जाती है, पर तु यह ज दी ही यहाँ से मनु यों को नवा सत करने वाला थान बन जाता है। यहाँ मनु यों ारा ई र क आ ा का पालन करना अपे त है, जसके अनुसार उ हे ं अ छे और बुरे ान पी वृ से फल खाना व जत है। जब आदम और ह वा इस नयम का उ ं घन करते हैं तभी उ हे ं शरीर का भान होता है और उनक यह चेतना मू ल प से पाप क है। अचानक उ हे ं लगता है क वे न न हैं और इस लए वे परमा मा के सम श म दा होते हैं और उनक यही श म दगी और अलगाव परमा मा के त डर मे ं बदल जाता है। ान पी वृ से फल खाने का लोभन ैतवादी थ त (अ छाई बनाम बुराई) मे ं गरने जैसा है। वचार करे ं क जेने सस मे ं सप उ अनु ह से पतन क ओर िे रत करता है तथा वह ह वा ही है जो सबसे पहले इस लोभन मे ं फँ सी— बाद मे ं यही चरम पतृस ा तथा ी जा त से व ेष क पर परा का आधार बना है। इसके वपरीत भारतीय धा मक पर पराओं मे ं ना गन (या सप) कसी बुराई का नहीं ब क कु ड लनी का तीक है जो मौ लक रचना मक ण ै जीवनी श है। ण ै ऊजा को आ मसात कर आगे बढ़ाते हुए ही य ( ी एवं पु ष) ैतवाद के पार जा सकते है।ं धा मक पर पराओं के दाश नक यह मानते हैं क ैतवाद ही अपनेआप मे ं उस म का कारण है जो मनु य को ा ड क वभे दत पर तु सामं ज यपू ण ै ो े े ो े ी ो े े ै

एकता को समझने से रोकता है। यह मानव मन-बु अतीत मे ं ई र के आदेशों का उ ं घन करने से।

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जेने सस कथाओं क तुलना भारतीय धा मक पर पराओं मे ं जाप त क कथा से क जा सकती है, हालाँ क यह कहना आव यक है क जाप त क कथा को ह दू धम मे ं वैसा थान ा नहीं है जैसा क आदम और ह वा क कहानी को ईसाइयत और यहू दयत मे ं है। जाप त का आ यान केवल कथा है और उसे श दश: नहीं लया जाता। इसका मह व एक व श आ या मक एवं दाश नक ब दु को प करने के लए कया जाता है। वा तव मे ं हो सकता है क अ धकां श ह दुओ ं को जाप त क कथा के बारे मे ं जानकारी भी न हो जब क यहू दी-ईसाई पर परा मे ं आदम और ह वा क कथा इतनी कानू नी और के ीय है क यह बाइबल के सबसे स ह सों मे ं से है। इसे ाय: करोड़ों यहू दयों एवं ईसाइयों ारा श दश: (चाहे हमेशा नहीं) वीकार कया जाता है। धमा तरण समथक इसे ा ड और मानवता क मू ल उ प के वै ा नक ववरणों के व एक यावहािरक तक के प मे ं भी पेश करते है।ं इस कथा क अ रश: स यता का कुछ ईसाई ख डन कर सकते है,ं पर तु इस पर सवाल उठाना बाइबल पर व ास करने वालों का दल तोड़ने के समान है। इस कार जो स ा त ईसाइयत क मु यधारा मे ं तीका मक प मे ं देखा जा सकता था वह अ प ता व भ अथ वाले या जाप त के आ या मक गहराई वाले आ यान क अपे ा प मी सा दा यक पहचानों क एक मा णत कसौटी (litmus test) बन गई। जो जेने सस मे ं यव था/अ यव था क जोड़ी को हम देखते हैं उसको फर अ छाई और बुराई तथा ई र और शैतान के बीच वभाजन के प मे ं त था पत कया गया। हालाँ क बाइबल मे ं ‘शैतान’ को अपे ाकृत मामू ली थान दया गया है, पर तु काला तर मे ं उसका परमा मा के साथ यु ईसाई मत क च लत क पना का के ीय नाटक बन गया। सं सार मे ं सभी कार के ेषभाव के लए शैतान ज मेदार माना गया है। शैतान ही ईडन (Eden) मे ं वह नाग है जसके बहकाने क ताकतों ने ार भक पाप (original sin), लोभन क रे णा, रह यो घाटन क पु तक मे ं मगरम छ, झू ठ के मू लाधार और बुराई के वतक को ज म दया। यीशु के व शैतान अ तम हारी हुई लड़ाई छे ड़ेगा, जसके बाद अ तत: उसे नक मे ं डाल दया जायेगा। अत: यह बहुत मह वपू ण हो जाता है क सही प क ओर हो कर उनके व लड़ाई लड़ी जाये जो तथाक थत शैतान के लए काम कर रहे है।ं 50 ह दू धम मे ं कसी बाहरी शैतान अथवा ईसा- वरोधी अवधारणा का कोई समतु य नहीं है। यहाँ कोई - वरोधी, ई र- वरोधी अथवा शव- वरोधी नहीं है, ँ े हुए है।ं हालाँ क यह यों क अ छाई और बुराई ज टल प से आपस मे ं गुथ व दृ अधम को मा नहीं करती, पर तु जताती है क अ छाई और बुराई य के भीतर ही थत हैं तथा इ हे ं अपनी चेतना को जा त कर (न क बाहरी नय ण ै ैं े ें ें ईऔ ई ो ों ी

से) काबू मे ं कया जा सकता है। ‘ ’ मे ं अ छाई और बुराई दोनों ही स म लत है।ं नकारा मक श याँ असुरों या रा सों के प मे ं साकार व भ श शाली तभाएँ ँ ाने क मता रखती है।ं हमे ं इ हे ं पहचान कर होती हैं जो अ य धक नुकसान पहुच इनका सामना करना होगा और अ तत: सत्- चत्-आन द क ा हेत ु इ हे ं योग ारा पा तिरत करना होगा।51 उदाहरण के लए राजनै तक तर पर त ी देशों को ‘शैतानी सा ा य’ (जैसा क कई अवसरों पर रा प त रेगन ने सो वयत सं घ को स बो धत कया था) के प मे ं अथवा ‘शैता नयत क धुरी’ (जैसा क जॉज बुश ने उन देशों को न पत कया जो अमरीका को ाय: धमकाते रहते है)ं का भाग मान कर रा सी घो षत नहीं कया जायेगा। भारतीय कथानकों मे ं दशाया गया है क बुराई के साथ सं घष य क आ तिरक जू झ है, बाहरी नहीं और देवताओं ने यह बाहरी दु मनों को न करने क अपे ा वष पी कर प कया। ऐसी ही एक कथा मे ं भगवान शव ने समु -म थन से उ प हुए भयानक, काले और कड़वे वष का वयं ही सेवन कया था। उ होंने वष को अपने क ठ मे ं धारण कया जब क अमृत को दू सरों के लए छोड़ दया। पर तु मह वपू ण यह है क भगवान शव ने ऐसा दो कारणों से कया। पहला, ान के धरातल से ( वष के घातक भाव को जानते हुए) और दू सरा, म े वश (लोगों को हा न न हो) कया, न क अ ान या वनाशकारी आवेश मे ं आ कर। इसके अ तिर वे वष को अपने मे ं समा हत कर उसे बदलने मे ं स म है,ं इस लए उ होंने उसे थू का नहीं। ईसाई रह यो घाटन पु तक मे ं इसी से मलती-जुलती कथा स भवत: ईसा मसीह के पुन: आगमन को ले कर है, जसमे ं उ हे ं ‘शैतान’ को कसी बाहरी सं घष मे ं हराने क अपे ा उसे आ मसात करते दखाया गया है। इस कथा मे ं यीशु एक रचना मक उदाहरण था पत करते दख रहे है,ं न क वे सभी मनु यों को उन सभी के व , जो शैतान का साथ दे रहे है,ं यु मे ं अपने प मे ं खड़ा होने को कह रहे है।ं पर तु कहने क आव यकता नहीं है क यह एक का प नक पिरदृ य है और अ छाई/बुराई का यह ैतवाद यहू दी और ईसाई मतों मे ं थायी प से था पत है। इसी कार यू नानी सां कृ तक कथानकों मे ं आकाशीय देवता यव था और उजाले के तीक हैं तथा अ तत: वे धरती के देवताओं, जो अराजकता और अँधरे े के तीक है,ं पर वजय ा करते है।ं हम यह भी देखते हैं क एक कार क यव था को बाद मे ं आई अ धक स ती से पिरभा षत यव था ारा व त कर दया जाता है। ऐसा एक रेखीय अनु म मे ं होता है जहाँ नई यव था पुरानी के साथ मलजुल कर रहने या उसे अ प ता क थ त मे ं छोड़ने क अपे ा उसे पू री तरह से अ ध मत कर लेती है। उदाहरण के लए उ कृ आकाशीय देवता जीउस (Zeus), टाइटन (Titans), जो बहुत अ धक अ यव थत और स द ध है,ं को पू री तरह से हरा देते है।ं ो



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प म क व श ‘यह या वह’ क सोच इ ाहमी मतों क सा दा यक अ तीयता को पिरल त करती है, जो अतीत मे ं बाइबल मे ं व णत दस मे ं से पहले आदेशों (Ten Commandments), ‘मेरे अ तिर तुम कसी और भगवान को नहीं पू जोगे,’ मे ं प है। या तो इस के ारा ‘यहोवा’ (Yahweh) को अ य सभी देवताओं से बड़ा और स माननीय दखाना था अथवा दू सरे देवताओं को नकारते हुए इसे स त एके रवादी आदेश क तरह तुत करना था, फर भी इसका अथ बहुत ही कड़ाई के साथ लागू कया गया। इन आदेशों के मलते ही मोजेज (Moses) ने उन सभी इज़राइ लयों क ह या का आदेश दया जो अ य देवताओं को पू जते थे। इज़राइ लयों का मानना था क वे य ई रीय आदेश ारा भा यवान ‘चुने हुए लोग’ (chosen people) हैं और बाद मे ं इस मत का उपयोग उ होंने अ य देशों पर वजय ा करने एवं नरसं हारों को उ चत मा णत करने के लए कया। मोज़ेक के नयम (Mosaic Law) ने उनके मत क व श ता था पत क और पिरणाम व प यहू दी अपने मत और जा त के त अ वभा जत हैं (हालाँ क ईसाइयों और मुसलमानों क तरह उ हे ं दू सरों का धम पिरवतन करने का आदेश नहीं है)।

स दभगत नै तकता प मी लोग वशेषकर नै तकता के े ों मे ं भ ता और सू म अ तर को ले कर असहज है।ं उनके अनुसार भारतीय धा मक नै तकता अराजक, आवेगपू ण, तकहीन और स ा तहीन है। पर तु भारतीय धम मे ं नै तक स ा त और यवहार क एक स माननीय पर परा है जसे प मी वचारक देख नहीं पाते। जैसा क ी अर व द ं कहते है— ‘‘भारतीय धम मे ं ऐसा कोई नै तक वचार नहीं है जस पर बल न दया गया हो, इसे इसके सवा धक आदश एवं अ नवाय व प मे ं न रखा गया हो या श ा, आदेश, दृ ा त, कला मक रचनाओं और अनु प उदाहरणों ारा लागू न कया गया हो। स य, स मान, न ा, ईमानदारी, साहस, शु ता, म े , सहनशीलता, आ म-ब लदान, अं हसा, मा, दया, परोपकार, नेक इ या द भारतीय धा मक पर पराओं के सू हैं और इस दृ कोण मे ं मानव जीवन और मानव धम का सार है।ं बौ धम अपनी उ एवं े नै तकता, जैन धम अपने आ म- वजय के ताप सक स ा तों तथा ह दू धम सभी धा मक प ों के शानदार उदाहरणों के साथ अपनी नै तक श ाओं और अ यास मे ं कसी भी धम अथवा णाली से कम नहीं है, ब क इनमे ं सव थम है और सबसे ताकतवर भावशाली यव था रखता है।52 भारतीय धा मक नै तक स ा तों को सम या क पिर थ त और स दभ का सामना करने के लए इस कार न मत कया गया है क प मी नै तकता उसके सामने अनाव यक प से सं हताब , जड़, एका मवादी और सरलीकृत तीत होती है। ए.के. रामानुजन ने अपने भावशाली नब ध, ‘‘ या वचार क कोई भारतीय प त भी है?’’ मे ं ‘स दभ-मु ’ तथा ‘स दभ-सं वद े ी’ श दावली का उपयोग करके प मी और भारतीयों के नै तकता स ब धी दृ कोणों को दशाया है— ‘‘ऐसा कहा जा सकता है क सं कृ तयों मे ं सामा यत: आदश प मे ं पिरणत होने क वृ होती है तथा इस स ब ध मे ं वे या तो स दभ-मु अथवा स दभ-सं वद े ी जैसे नयमों के अनुसार सोचती है।ं वा त वक यवहार अ य धक ज टल हो सकता है, हालाँ क सं कृ तयाँ जन नयमों के अनुसार सोचती हैं वे उनके यवहार का मागदशन करने मे ं मह वपू ण कारक होती है।ं भारत जैसी सं कृ तयों मे ं स दभ-सं वद े ी जैसे नयमों को ाथ मकता दी जाती 53 है।’’ वे इं गत करते हैं क भारतीय सं कृ त सं कृत याकरण क तरह है और प मी सं कृ त और भाषा- व ान क अपे ा अ धक ासं गक है। इसे व तार देते हुए ं रामानुजन आगे कहते है— ौ

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मौसम, ाकृ तक छ व, समय, गुण-त व, वाद, चिर , भावनाओं, रस इ या द के व भ वग करण ह दू च क सा, क वता, पाक-कला, धम, कामशा एवं जादू स ब धी च तन के मू लभू त अं ग है।ं येक जा त अथवा वग एक स दभ, ासं गकता क सं रचना, सं योजनों का वीकृत नयम, स दभ का ढाँचा कसका है और या ऐसा हो सकता है का परा-सं चरण इ या द पिरभा षत करता है। यहाँ तक क ‘कामसू ’ भी जो श दश: म े -स ब धों का एक याकरण है, ी एवं पु ष को ऐसे जोड़ता है जैसे सं ा एवं या को व भ लं गों, आवाज़ों, भावों और पहलुओ ं के साथ जोड़ा गया हो। लं ग शैली क तरह भावपू ण है।ं व भ कार के देह एवं चिर , अलग-अलग नयमों का पालन करते हैं तथा व भ सुग धों एवं सं केतों से त या करते है।ं 54 इन सभी वृ यों मे ं येक के सामा जक एवं राजनै तक मह व है।ं स दभ-मु च तन से -आधारी तकपू ण े णयों, इ तहास-के क काल मों, स ा तों तथा वभ कार क कानू नी-सं हताओं को दशा मलती है। यह वृ नयमों पर आधािरत, शीष-के त शासन तथा नय ण के लए अनुकूल है। इस कार वाहमान और बदलती हुई अव थाओं क अपे ा न त, थर एवं ठोस चीज़ों को नय त करना अ धक सरल है। बना म य-माग वाले अर तू के नयम का नदशा मक तक ‘हम बनाम वे’ जैसे वरोधी वक पों क ओर ले जाता है। इस तरह का सं उपदेश केवल समू हों के श ण, जैसे सेनाओं, ब वभाग या मत चारकों के लए उपयोगी है। नय ण, लचीलेपन और पिर थ तयों के त सं वद े नशीलता का वरोधी है। न:स देह प म ने कभी-कभी नदशा मक पर पराओं के व दखावटी सां कृ तक व ोह भी द शत कया है, जससे उसका समाज एक नई स दभगतसं वद े नशीलता से समृ हुआ है।55 फर भी सामा यत: उसके मुख आदश, न तता एवं एक पता को बढ़ावा देते हैं जसे प म अपनी ‘सावभौ मकता’ क तरह तुत ं ‘‘प म मे ं पु ष करता है। रामानुजन इस प मी लोकाचार को और प करते है— का स दभ, ज म, वग, लं ग, आयु, थान, पद इ या द से नहीं होता, वह पु ष क तरह ही स बो धत कया जाता है। तकनीक के अपने मापद डों एवं व नमेयकारी भागों तथा पुनजागरण के बाद के व ान ने सावभौ मक नयमों (और त यों) क खोज के साथ स दभ-मु ता के त उनके पू वा ह को और गाढ़ ही कया है।’’56 न केवल नै तकता के अनु योगों के त प मी अवधारणा स दभ से मु है, ब क यह वत ता अपने-आप मे ं स य एवं उ चत काय क एक कसौटी के प मे ं देखी जाती है। सव े नै तक श ा जैसे बाइबल के ‘दस आदेशों’ अथवा कै ट (Kant) के सु प एवं अ नवाय उपदेश को मू यवान माना जाता है, यों क ऐसी मा यता है क उ हे ं तथाक थत प से पिर थ तयों क परवाह कये बना सभी ै ों ं ों ौ ी े े

कालख डों एवं थानों पर सावभौ मक तरीके से लागू कया जा सकता है।sजब क ँ ने के लए दू सरी ओर भारतीय धा मक पर पराओं ने ल बे समय से स य तक पहुच सावभौ मक स य एवं याओं और स दभ- वशेष मे ं नधािरत स य के बीच स तुलन बनाया है। इस कार भारतीय धा मक सं कृ तयाँ ज टलताओं एवं सू म भ ताओं के त सहजता के साथ वक सत हुई हैं और नै तकता एवं आचरण मे ं जड़ एवं नरं कुश आदश क अवधारणाओं को नकारती है।ं भारतीय धम य यों एवं समू हों के आचरण हेत ु एक नै तक ढाँचा दान करता है जो यावहािरक पु षाथ एवं चेतना के वकास मे ं सहायक होता है। सामा जक थरता एवं स भाव को सुदढ़ ृ बनाये रखने के लए सनातन धम आव यक है और साथ ही यह धन-धा य एवं सुख क खोज के लए नै तक नदश भी देता है। इसक मा यताएँ आ या मक एवं लौ कक स ा तों पर आधािरत है,ं पर तु ये सामा य सामा जक जीवन के लए भी अनुकूल है।ं यह धम मनु य को उसके कु टल एवं व छ द आवेगों, इ छाओं, मह वाकां ाओं एवं अहं कार के दलदल मे ं फँ सने से रोकने का यास करता है। उसक स दभपरक कृ त, ज टल नै तक नों के व भ उ रों के उभरने के लए न कपट भाव रखती है। इसी स दभ-आधािरत गुणव ा को दृ गत रखते हुए भारत के स ग णत एवं दाश नक ‘बोधयान’ (Baudhayana: 800 ई.पू .) ने उ ख े कया क पर पराओं के व ान पु ष अपने-अपने े ों क थाओं का पालन करते है।ं उ होंने एक े क थाओं को सू चीब कया जो दू सरे े के तकूल थीं, जब क अपने-अपने स दभ मे ं दोनों ने ु त औए मृ त का अनुसरण कया था। भौगो लक प से नी तयों को थानीय बनाने के अ तिर धम व भ त वों जैसे जीवन का पड़ाव (आ म धम), यवसा यक वृ (वण धम), जा तगत नयम (जा त धम), य गत वभाव ( वभाव धम) एवं अपने पथ का चुनाव ( व-धम) इ या द को त ब बत करता है। धम असाधारण पिर थ तयों मे ं जैसे कसी दबाव अथवा आपातकाल के समय य को वह सब करने क छूट देता है जो सामा यत: गलत माना जाता है। यह ‘आपद-धम’ क ण े ी के अ तगत आता है। एक ‘साधारण-धम’ (पू ण पेण सावभौ मकता) भी है जो शा ों मे ं ‘अ तम उपाय’ के प मे ं च त कया गया है, अथात् य द कोई सं ग लागू न हो तब इनका पालन करो। मृ तयों को जारी करने के लए कोई के ीय अथवा एकमा स ा नहीं रही तथा इनको कई राजाओं, आ या मक तमानों एवं बु जी वयों ने समय-समय पर न मत कया।58 कई शा ज हे ं ाय: ‘ मृ त’ कहा गया है, सभी वणा मों क े णयों के नयमों को वक सत करने के लए बनाये गये तथा इन नयमों मे ं हर काल एवं पिर थ त के अनुसार सुधार कया गया।59 मृ तयों को येक कालख ड एवं सामा जक सं गों के अनुसार पुनल खत करने का अ भ ाय है और इस लए आधु नक काल के ह दू इन ाचीन मृ तयों का पालन करने हेत ु बा य नहीं है।ं वा तव मे ं इन ों









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मृ तयों को आधु नक समय के अनुसार पुन: लखा जाना और पुरानी मृ तयों क समी ा करके उ हे ं सं शो धत भी कया जाना अपे त है। भारतीय बहुलतावाद हमेशा ही कसी एक सवमा य परम स ा त के हावी न होने पर आधािरत रहा है। एक ही युग मे ं भ - भ मृ तयों को व भ े ों मे ं लागू कया जाता रहा है तथा जब ऐ तहा सक पिरवतन ने पुराने नयमों को अ च लत कर दया तब नई मृ तयाँ बनाई ग । व भ सा दा यक, न लीय एवं जातीय समुदायों क आचरण-सं हताओं मे ं व वधता को सहज वीकार कया गया। जब कोई था पत आचार सं हता लागू नहीं होती थी तब थानीय व ानों का आचरण नेक के दशा नदश के प मे ं काय करता था। थानीय लोक आ यानों ने धम के सार को थानीय स दभ मे ं सरल दशा नदशों से समझाया।60 पार पिरक भारत मे ं शासक धम क थापना एक सु वधा दाता के प मे ं करते थे, न क दू सरों पर अपनी थाओं को थोपने के लए। शासक का कत य था क वह व वधता का समथन करे तथा यवसाय, पिरवार तथा अ य त वों को यान मे ं रखते हुए कानू न को व भ स दभ मे ं अलग-अलग लागू करे। अथात् एक ही समाज के व भ समुदायों को अपने-अपने नयम-कानू नों का पालन करने क पू री वत ता थी। ाचीन भारत मे ं नी तशा ों के एक मुख सं कलनकता ‘मनु’ बताते हैं क शासक को धम क ासं गक कृ त को पहचानना चा हए—राजा, जो धा मक नयम के बारे मे ं जानता है, को उसमे ं जा तयों (समुदायों), जलों, सं घों एवं पिरवारों के नयमों को भी देख कर फैसला करना चा हए।61 महान सं कृत व ान पा डुरंग वामन काणे (1880-1972) बताते हैं क ‘‘सामा यत: राजा के पास कोई वैधा नक श नहीं थी, फर भी ऐसे उदाहरण हैं जहाँ राजाओं ने ाय: थानीय थाओं को पहचानते हुए नये नयमों क रचना क । राजाओं के पास उन े ों हेत ु सकारा मक नयम बनाने क कुछ न हत श याँ थीं जो धम-शा ों के े मे ं नहीं आते थे।62 यहाँ तक क वे लोग जो सं कृ त वरोधी अथवा प े वधम थे उ हे ं भी अपनी ं व श धम-मा यताओं के अनुसार स मान दया जाता था। ी काणे बताते है— ‘‘नारद (जो एक महान ऋ ष थे) ने कहा है क राजा को समाज के वधम समू हों, यापािरयों, सं घों तथा अ य समू हों क पर पराओं को बने रहने देना चा हए और चाहे उनक पार पिरक री तयों, ग त व धयों, पू जा- व धयों एवं जी वका के तरीके कुछ भी हों, उ हे ं राजा ारा बना कोई फेरबदल कये उन समू हों को पालन करने क अनुम त मलनी चा हए। नारद ऋ ष के अनुसार राजा को वध मयों, यापािरयों, सं घों, और लोगों ारा उनक री तयों का उ ं घन कये जाने का यान रखना चा हए। बृह प त (एक वै दक देवता) के अनुसार राजा को प तयों, कारीगरों, पहलवानों, साहू कारों, सं घों, नतकों, ना तकों, चोरों इ या द के स ब ध मे ं उनक पर पराओं के अनुसार ही नणय दया जाना चा हए।63 ं ों ों े े औ े

शासकों क श यों पर अं कुश लगाने के लए उन पर व श और अलग तरह के नै तक दशा- नदश लागू कये गये थे। मनु के अ तिर अ य कई कानू नी स ा तकारों ने, जनमे ं कसी के पास भी पू ण अ धकार नहीं थे, अपने नयम-कानू नों को बना कर थोपने क अपे ा पू वजों क त कालीन थाओं को ही सं हताब कया। प मी शैली के समान नदशा मक सं थानों के न होने के कारण कई प मी व ानों का न कष था क भारत उनक समझ मे ं कभी भी एक ‘रा के प मे’ं नहीं था। वे यह मानने को तैयार नहीं हैं क व- यव थत णाली यावहािरक भी हो सकती है। धम वणना मक या आदेशा मक हो सकता है, अथात् पर परा के अनुसार या जो होना चा हए। वणना मक धम के उदाहरणों मे ं ‘गुणधम’ है जो कसी भी व तु क सहज कृ त को इं गत करता है, जैसे बना आँके (अ छे या बुरे प मे)ं कसी जड़ीबू टी के गुणधम क कृ त। धम उप नषदों मे,ं जो अ धक आदेशा मक है,ं नै तकता क पर परा बताती है क मनु यों का यवहार कैसा होना चा हए।64 महाभारत कसी सू म अ तर या स दभ का सहारा न लेते हुए बताता है क स य अपिरवतनीय नहीं है। सतां श ु च वत बताते हैं क महाभारत मे ं नै तकता क तीन ं 1) सभी स दायों मे ं पाये जाने वाले सावभौ मक आदेश, 2) कृ त, े णयाँ है— माता- पता, पू वजों, महान श कों, वृहद मानवता एवं सभी जी वत ा णयों के त सहज सावभौ मक ऋण तथा 3) ‘ व-धम,’ य गत आ या मक माग। हालाँ क इनमे ं से कोई भी नयम उस य पर लागू नहीं होता जो ‘स य’ और ‘अस य’ के औपचािरक े ों को अपनी आ या मक ऊँचाइयों ारा पार कर चुका है। धम आचरण को क हीं सावभौ मक नै तक स ा तों क अपे ा वशेष पिर थ तयों मे ं यावहािरक प से स बो धत करता है। महाभारत मे ं भी म और ी कृ ण के धम क तुलना करके च वत बताते हैं क सामा य धम कहाँ लाँघा जाता है। आपात थ त मे ं आचरण कये जाने वाले आपद-धम के बारे मे ं अ छ तरह जानते हुए भी भी म नदशा मक वधानों का ही पालन करते है।ं वहीं दू सरी ओर ी कृ ण अपने उ े यों क ा के कये, जो मानवता क भलाई के लए थे, आव यकता पड़ने पर था पत मानकों से थोड़ा अलग हटते है।ं उदाहरण के लए ी कृ ण ने सामा य पिर थ तयों मे ं गलत माने जाने वाले तरीकों से, ोण, कण और दुय धन के वध का सुझाव दया और वयं भी म का वध करने का यास कया, केवल इस लए क सम मानवता के हत मे ं कौरवों को हराया जाना आव यक था। धम क नई यव था के आधार क थापना के लए उन तौर-तरीकों का योग करना आव यक होता है ज हे ं आमतौर पर अ यायपू ण माना जाता है। हालाँ क कसी भी उपाय से उपल ध यह सुखद अ त यायो चत ठहराये जाने जैसा नहीं है। ी कृ ण ने प कया है क इस तरह का आपात एवं असाधारण माग ी





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तभी अपनाया जा सकता है जब कता अहं कार-मु , न: वाथ, सा वक हो और उसका काय मानवता क यापक भलाई के लए हो।65 इस कार के नणयों मे ं यह मह वपू ण है क धम यावहािरक एवं लाभदायक हो। इस लए आमतौर पर महा मा बु ने स े और उपयोगी उपदेश दये, भले ही पिर थ त के अनुसार वे सुखद या अ य लगे। केवल असाधारण पिर थ तयों मे ं क णा एवं मो के उ े यों को ा करने के लए चतुराई अथवा छल का उपयोग कया जा सकता है।66 लेनॉय (Lannoy) इस व श ता के अ त न हत स ा त को बताते हुए कहते हैं ु ों से भी अ धक —‘‘भारतीय समावेशी पर परा अ छाई और बुराई के दो वरोधी व गहराई के तल पर काम करती है।’’ पारसी, यहू दी एवं ईसाई मतों मे ं सही या गलत के वपरीत वक पों मे ं से एक को चुनने क परम आव यकता जैसा आ ह भारतीय ं ‘‘भारतीय नै तक स ा तों मे ं धा मक पर पराओं मे ं नहीं है।67 वह आगे कहते है— अ छाई और बुराई हमेशा सापे य होती है और मू लभू त प से ‘अ छे ’ या ‘बुरे’ क कसी सटीक पिरभाषा से दू र रहा जाता है।’’68 भारतीय धा मक पर पराओं मे ं बाइबल क दस आ ाओं के समक जैसा कुछ नहीं है।ं 69 उदाहरण के लए भगव गीता को कसी ई रीय नयम-कानू न या श ा जैसी पु तक क तरह नहीं पढ़ा जाता और न ही यह कभी कसी शासक के आदेश के प मे ं रही। भगव गीता यह भी आदेश नहीं देती क ‘‘तु हे ं यह करना है और वह नहीं,’’ ब क यह धम और कम क णाली क या तथा व भ वक पों के स भा वत पिरणामों को प करती है। गीता ाकृ तक धम का एक वणन है। गीता का स देश ी कृ ण के अजुन से यह कहने पर समा होता है क वह मानव यवहार क कृ त एवं स भावनाओं के बारे मे ं उनके उपदेश को सुनने के बाद वही करे जो ं उसे ठ क लगे। लेनॉय लखते है— ‘‘भारत क सं य ु पिरवार णाली मे ं सामा जक ढाँचे का लचीलापन पर पर नभरता से उपजा है—अथात भारतीय आ ह क झलक सापे य सामा जक ु ों क मानवीय म य थता एवं वक प पर नभर करती मू यों तथा अ थर व है। भारतीय ब ा अपने माता- पता के प नदशों क अपे ा अपने वयं के देखने से अ धक सीखता है।70 रामानुजन अपने लेखन मे ं भारतीय ासं गक नै तकता क तुलना प म क ं सावभौ मक नै तकता से करते है— कैंट (Kant) को थोड़ा-सा पढ़ने के बाद मनु को पढ़ने से कैंट क सावभौ मकता के त नासमझ प दखती है। कैंट मे ं सव यापक मानवीय कृ त जैसी कोई अवधारणा नहीं तीत होती है जसके अनुसार ‘‘मनु य को ह या नहीं करनी चा हए...’’ अथवा, ‘‘मनु य को झू ठ नहीं बोलना चा हए...’’ ै े ै

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जैसे नै तक नदशों का न कष नकाला जा सकता हो। कोई भी पिर थ त अथवा एकल नयम सभी के ऊपर लागू नहीं कया जा सकता। यहू दी-ईसाई मतों क मुख पर परा नै तकता के सावभौ मकरण पर आधािरत है। मनु ारा ऐसा कोई आधार तुत नहीं कया गया है। मनु के लए नै तक होने हेत ु पिर थ त वशेष को जानना आव यक है, यह पू छने के लए क कसने या कया, कसको और कब कया। येक जा त (वग) के य के अपने कानू न और नजी नै तक नयम होते हैं ज हे ं सावभौ मक नहीं बनाया जा सकता।’’71 जैसा क पहले उ ख े कया गया है, एक सावभौ मक धम ( जसे सामा य धम कहते है)ं होता है तथा यह कहना सही होगा क धमशा व भ स दभ मे ं मनु य के य गत आचरण के लए एक यापक परेखा स हत कई सुझाव देते है।ं 72 ु ों महाभारत मे ं भारतीय दशन मे ं व मान सावभौम एवं ासं गक जैसे वपरीत व के बीच तनाव के स ब ध क सजीव चचाओं का वणन है। इ हीं तनावों को मनु ने, बना नरं कुश ावधानों के नय ण के, लचीले एवं सं वादा मक प से सं हताब कया था।73 ासं गक नै तकता के व ाय: नै तक सापे तावाद का गलत आरोप लगाया जाता है, यों क कसी ववरण के सही अथ को समझने के लए उसके फल व प ‘आचरण’ और उसके पीछे ‘ल य’ को यान मे ं रखना आव यक है। अ हं सा के स दभ मे ं सवसामा य का हत एवं भलाई सावभौ मक स ा त और सव स य है। बु और महाभारतकालीन स तों के लए भी अ हं सा सावभौ मक आदश (अ हं सा परमोधम:) और स य सव धम है (स यं परो ना त धम:)। ासं गक नै तकता सावभौ मक नै तकता क पू त करती है और य गत अ भ य के प मे ं पिरल त होती है। दू सरे श दों मे ं कहा जाये तो ासं गक धम व श स दभ मे ं परोपकार एवं दया के उ तम सावभौ मक धम स ा तों को लागू करता है। ु ों को इस कार सनातन धा मक दशनशा सावभौ मक एवं ासं गक दोनों व अवसर देता है, केवल ासं गक को ही नहीं, यों क ऐसा करना नै तक सापे तावाद के समान होगा। आ या मक प से सव यापी (अथवा ‘परा’) या भगवान सावभौ मक हैं जो ासं गक या सव यापी लौ कक तर (अथवा ‘अपरा’) को आधार देते है।ं बौ धम मे ं इस सावभौ मकता का समक पर पर अ त नभरता के जाल के प मे ं है। इसी कार अ मता के दो तर है;ं स दभ-मु आ मा और ासं गक मनबु । यह पहले च चत सापे य एवं पू ण नरपे स य के समक है। सापे य स य अ नवाय प से ासं गक है तथा केवल परम स य ही सभी स दभ से मु है। धम के सावभौ मक ल यों को न द एवं स दभ- व श धम के मा यम से ही काया वत ै







कया जाता है। सावभौ मकता का नवहन न द करता है।74 इस कार सावभौ मक आ ाएँ और न द नधारण एक साथ काम करते है।ं ु ी नहीं, ब क -नाभीय होने स य के इन दो तरों के बीच स ब ध - व ु ीयता का अथ है क य दो वपरीत तरों के बीच अवसरवादी ढं ग चा हए। व से डोलता है। उदाहरण के लए सां सािरक मामलों मे ं त पध और मेहनती य जीवन क मायावी कृ त का हवाला देते हुए धमाथ उ े यों के त अपनी ज मेदािरयों से बच सकता है। इस कार परम-स य का अपनी आव यकता पू त हेत ु दु पयोग कया जा सकता है। दू सरी ओर एक -नाभीय दृ कोण दोनों कार के स य को हर समय साथ-साथ देखता है। वैसे लोग सापे य धरातल के आधार पर अपना यवहार तो करते है,ं पर फर भी वे परम स य के बारे मे ं सचेत रहते हैं और सापे य नै तकता को परम स य क ा के लए एक कुशल साधन के प मे ं देखते है।ं उ तर का ासं गक माग अ तत: सभी कार के स दभ से मु चाहता है; इसका एक साधन ‘सं यास’ है, जीवन का ऐसा अ तम पड़ाव जो सां सािरक स दभ , पर पराओं, नयमों इ या द से मु है। यह तब होता है जब गृह थ का स दभ- व श धम उसके जीवन के अ तम चरण मे ं घू मते हुए साधू क तरह सभी स दभ से मु चाहता है। इस कार स दभ- व श धम (अथात सापे य धम) अ तत: स दभ-मु (सावभौ मक) धम मे ं पिरव तत हो जाता है। इस भाँ त धम सां सािरक एवं परमाथ दोनों कार क च ताओं को वीकारता है। सभी ासं गक सं रचनाओं के मौ लक अ त मण क एक और अ भ य गहन समपण क एक मु ा है जो जा त, थाओं, लं ग, पहनावे, पर पराओं और जीवन के पड़ाव जैसे सभी ब धनों को तोड़ती है। इस जीवन मे ं पू ण मु अथात् मो क थ त आ या मक माग क अ तम पिरण त है जहाँ य का जीवन पू ण प से स दभ-मु हो जाता है।75 भारतीय धा मक पर पराओं मे ं धम क उ तम अ भ य ‘ व-धम’ (मेरा अपना धम) है जो कसी य एवं थ त के लए न त लागू होता है। यह केवल चेतना क सा वक थ त मे ं अनुभव होता है तथा यह इस थ त मे ं सं गानुसार वानुभूत एवं उसके अनुकूल होता है। चेतना के नचले तरों (ताम सक व राज सक) पर अ धक कठोर एवं सं हताब नी त- नयम नधािरत कये गये है।ं जब तक य सा वक थ त को ा नहीं कर लेता तब तक सबसे अ छा वक प यही है क वह ऐसे आ या मक गु के मागदशन मे ं रहे जसने यह थ त ा कर ली हो। यहू दी-ईसाई मान सकताओं के लए व-अ भ य होने वाले ‘ व-धम’ का वचार अजनबी है, जो यह मानते हैं क ऋ ष क उ चेतना वाली थ त अस भव है। यहू दी-ईसाई मतों मे ं नै तकता का एकमा उपल ध ोत वही है जो उनके पैग़ बर पहले से ही उजागर कर गये है।ं ं ो





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एक दाश नक एं टो नयो द नकोलस (Antonio de Nicolas), ज होंने भारतीय धा मक पर पराओं का कई दशकों तक अ ययन कया है, बताते हैं क धम मे ं पू री तरह से भ नै तकता है जो कसी बाहरी नयम-कानू नों अथवा ऐ तहा सक ं रह यो घाटन पर नभर नहीं है। वे आगे लखते है— ‘‘ नणय लेने क स हत तकनीक, उ चत व चतुर नणय, जब वतमान धम और स दभ मे ं इसक आव यकता पड़ती है, लेने का अ यास ही उ कृ ता ा करने का श ण है। यह भगव गीता मे ं अवतार ी कृ ण के स पू ण काय म का ल य और नै तकता है जससे हताश एवं परेशान यो ा अजुन को उसके वतमान धम (उसक त कालीन पिर थ त) के अनुकूल अथात् यु े मे ं नणय लेना, सव म नणय लेने के लए तैयार करना है। ऋ वेद से ले कर आधु नक भारतीय शा तक मानव यवहार के लए यही काय म ता वत करते हैं क बाहर के नयमों के पालन क नै तकता क अपे ा वयं नणय लेने क नै तकता अ धक आव यक है। भारतीय शा ों मे ं कोई बाहरी ई रीय स ा ऐसी घोषणाएँ नहीं करती।76 सरलीकृत नयम या आदेश वतमान नै तक पिर थ तयों से नपटने हेत ु अपया ं हमारी श ा णाली, वषय एवं व तु के म य है। नकोलस (Nicolas) लखते है— वा त वक समझौतों, ता कक नरथकता एवं स य क खोज जैसे नणयों के त पू वा ही है। पर तु हमारी श ा यव था मे ं ऐसा कोई त नहीं है जो व वध एवं अ प थ तयों मे ं आ मके त नणय, जैसे ‘‘स भा वत नणयों मे ं से सबसे उ चत कौन-सा है,’’ के बारे मे ं सखा सके। इसे ा करने के लए य और उसके आ या मक गु को भी नई तकनीकों को आ मसात करना पड़े गा, ता क उस य को अपनी यावहािरक समझ के अनुसार सव म वक प चुनने के लए तैयार कया जा सके। इस कार गीता क यु भू म मनु य का अपना शरीर ही है।77 एक ट पणी मे ं अपना न कष तुत करते हुए नकोलस कहते हैं क समाज यावहािरक नणय लेने से कस कार भा वत होता है— यहाँ प म ने अपने लोगों को ‘‘यह सही है और यह गलत है’’ जैसी यावहािरक स म तयों हेत ु श त कया है, पर तु ये सभी प मी लोग ज टल पिर थ तयों मे ं नणय लेने मे ं स म नहीं है,ं वशेषकर जहाँ कई वक प होते हैं तथा म त क के अ भाग का योग थ त को समझने हेत ु आव यक हो जाता है।78 आगे के पृ पर दखाए गये च मे ं स दभ के आधार पर व भ धम क चचा का सार- प पेश कया गया है। बाँए त भ मे ं शीष पर सावभौ मक सनातन धा मक स ा त दखाये गये है।ं ये स दभ- व श तरह के धम को, जैसा क नीचे दशाया गया है, वक सत करने के लए दशा नदशों के प मे ं उपयोग कये जाते है।ं त भ का ो

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नचला भाग व-धम को च त करता है और य के नजी सं कार, यो यता, पू ववृ , पस द तथा बाहरी पिर थ तयों को दशाता है। जो य पू ण प से शु सा वक जीवन यतीत कर रहा है वही य गत सटीक नणय लेने क अ तदृ रख सकता है। बाक को कसी जी वत स पु ष के स म मागदशन या था पत तमान अथवा आ या मक थों पर नभर होना पड़े गा।

दाँई ओर का त भ स दभ के परे क थ तयाँ दशाता है। यहाँ शीष पर वह थ त है जसमे ं मनु य अपनी सम त शारीिरक इ छाओं एवं सं ाना मक सीमाओं से मु हो चुका है। इस थ त को ह दू ‘जीवन-मु ’ या मो कहते है।ं बौ इसे ‘शू यता’ कहते है।ं (हालाँ क दोनों थ तयाँ बलकुल एक समान नहीं है,ं पर तु दोनों ही शारीिरक इ छाओं से मु स ब धी े ता का दावा करती है।ं पिर श ‘‘क’’ मे ं इन पर पराओं के आपसी स ब धों को अ धक व तार से बताया गया है)। ‘बो धस व’ वह है जो इस थ त को ा करने के बाद मानवों एवं अ य जीवों क मदद करने के लए पृ वी पर लौटने का नणय करता है। दाँई ओर के त भ मे ं नीचे क ओर ‘सं यास’ ( याग) क जीवन शैली दशाई गई है। ऐसे य ने सामा जक जीवन एवं उसके मानद डों का पिर याग कर दया है। अत: वह सामा जक स दभ से मु है। पर तु ऐसे य ने अभी तक शारीिरक सं कारों से मु ा नहीं क है। ँ ा है। इस थ त मे ं य के लोभन मे ं यह रा ता अभी अपने ग त य तक नहीं पहुच आ जाने का ख़तरा रहता है तथा पिरणाम व प कई स सं यासी गिरमा से गर भी चुके है।ं सं यासी को डगाने मे ं उसके अनुया ययों का वशेष प से हाथ होता है जो उसे स -स प मान लेते है,ं जसे गु ने अभी तक स भवत: ा न कया हो। ासं गक एवं ग़ैर- नदशा मक भारतीय समाज तथा नदशा मक प मी समाज के बीच कुछ मतभेदों को आगे दी गई ता लका मे ं प कया गया है। गैर- नदशा मक नदशा मक ासं गकता और जा त- वशेष के अथ- समाज के लए सं हताब शा ारा नणय नयम ों





सावभौ मक

स दायों ारा समका लक नर तरता पर परा, ानोदय और आधु नक काल और बदलाव के बीच तनाव वण और जा त के साँचे क पर पर सम पता और के नभरता, लचीलापन और आ मसं चालन

त यव था

बहुलवादी और सहनशील धम का नय ण ारा व श वादी प थ से मल-जुल कर रहना और पार पिरक दू सरों का व थापन या करना सं कृ त और वचारों के मा यम से फौजी दमन और नरसं हार शा तपू ण व तार व तार

ारा हं सक

ह दू धम को समझने के लए नै तकता स ब धी प मी वचारों का ढाँचा उपयोग मे ं नहीं लाया जा सकता। इसका अथ यह नहीं है क ह दू धम अनै तक है, पर तु केवल इतना है क नै तकता के न को एक यापक दृ कोण से देखा जाना आव यक है।79 शै क े ों मे ं नै तक सापे तावाद को स दभ सं वद े नशील समझने क गलती करने क वृ है। (असमान टुकड़ों को जोड़ने का खचड़ी यास) इस स दभ मे ं एक है ‘त व ा’ जसका उ ख े मैनं े ऊपर कया है क यह आ या मक साधनाओं का एक समु य है ( जसमे ं शमशान मे ं यान, व जत खा पदाथ का सेवन तथा कुछ अ य धक कमका डी यौन साधनाएँ), जनक अनुशंसा धा मक े के कुछ उ त साधकों के लए क गई है। ‘त ’ को प म मे ं ाय: हेय दृ से देखा जाता है, यों क यह वयं को कुछ न त स दभ मे ं ैतवाद से ऊपर उठाने के लए नयमों के उ ं घन को एक मा यम बनाता है। ‘त व ा’ को समझने से पहले हमे ं इसके सां कृ तक एवं दाश नक स दभ को यान मे ं रखना पड़े गा। त व ा का ज म मनु य को े बनाने के लए व वध शारीिरक साधनाओं के प मे ं आर भ हुआ। इसक कई थाएँ, शा , धारणाएँ एवं पर पराएँ कसी था पत मानक यव था का वरोध करती हैं तथा ये भारत मे ं सं कृ त- वरोधी के प मे ं दखाई देती है।ं यहाँ तक क नयमों को अ वीकृत करने के लए मानद डों का जानबू झकर उ ं घन कया जाता है, वशेषकर उनका जो कमका ड क शु ता पर के त है। समय के साथसाथ त व ा का वै दक एवं अ य पर पराओं के साथ एक व थ समागम होता रहा। इसके त वों मे ं वै दक एवं अ य र मों, तीकों व दशनशा को उधार ले कर उ हे ं पुन न मत, यव थत व सुसंगत करते हुए एक ऐसी एक कृत प त बनाई ु साथ-साथ रहते गई जसे ता क पर परा कहा गया। मू यों एवं अनु ानों के दो व हुए और ज टल तरीके से एक-दू सरे मे ं पर पर समा व होते रहते है।ं 80 ी

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भारतीय धा मक पर पराओं मे ं नै तकता अथवा आचरण अपने-आप मे ं एक ल य नहीं है और न ही इसे बाहर से थोपा जाता है। नै तकता केवल पू णता क उ आ या मक थ त ा करने का एक ार भक साधन है। आ या मक मु के ल य को एक अलग, अ धक भावशाली और त काल व प मे ं सां सािरक नै तकता क सीमाओं का उ ं घन करके आ या मक वशेष ों ारा ा कया जा सकता है। ता क साधक, जो आ या मक मु को वाममाग के अनुशा सत ँ ाने, सं यम, उपयोग ारा ा करने का यास करते है,ं को दू सरों को नुकसान न पहुच वासनाओं से परहेज एवं स यवा दता जैसे कठोर नयमों का पालन करना पड़ता है।81 ं को भी आ य मे ं डाल उनके वाथ- याग क बलता क र नै तकतावादी ोटे टेट देगी। ले कन अ तत: त व ा प मी नै तक स दभ के व लेषण से परे है तथा इसे केवल भारतीय आ या मक दृ कोण से ही समझा जा सकता है। प मी नै तकता सभी उ ं घनों को अनै तक और ख़ािरज करने यो य मानती है।82 अनु ानों एवं जीवनशैली के मापद डों तथा उनके उ ं घन के बीच जो वरोधाभास है उसने प मी सा दा यक वचारकों को एक अवसर दान कया है क वे एक धम नरपे ढाँचे के भीतर त व ा के मुख घटकों को वख डत करके व त कर सकें। इस तरह दू सरों को नीचा दखाने क वृ त ाय: उन व ानों का अपमान करती है जो अ यथा स दय हैं और जन मे ं से कुछ ने अपना यादातर जीवन इसके अ ययन, या या और अ यास मे ं सम पत कया है।83 हालाँ क यह सच है क ता क थाएँ और उनक दलीले ं दु पयोगों के अवसर देती हैं और जब क यह मा य है क इस तरह के दु योग कभी-कभी होते भी है,ं तब भी ये च ताएँ सामा यत: अ ैतवादी थ त को ा करने के उ तम, जोरदार तथा आ मसं यमी मानकों एवं ल यों से अपवाद व प हट कर है।ं

सौ दयबोध, नै तकता एवं स य भ ता एवं अ यव था के बारे मे ं प मी लोगों क च ताओं को देखते हुए यह ब कुल आ यजनक नहीं है क वे भारतीय सौ दयशा से भी चकराये हुए और परेशान रहते है।ं प मी सं कृ त ‘गोरेपन’ को बोलने और यवहार मे ं प रो तथा साफ़ पुनरावृ त के यो य कलाओं को वशेषा धकार देती है, जब क भारतीय धा मक पर पराओं का दृ कोण, अँधकार, गू ढ़ता, सामं ज य, आशु-रचना एवं रह यमय होता है। इसके अ तिर प मी लोग ाय: अनजाने मे ं यह मान लेते हैं क जो ‘ख़ू बसू रत’ (उनके वयं के व च एवं सां कृ तक प से न मत वचार मे)ं है वह ‘अ छा’ और ‘स ा’ भी है। इसी तरह जो ‘बदसू रत’ है वह ‘बुरा’ और ‘गलत’ भी है (और शायद राजनै तक प से व वं सकारी भी)। लेटो (Plato) के समय से ही प म ने अ छाई, स य और सौ दय जैसे तीन आधारभू त मू यों को आपस मे ं पेचीदगी से जुड़ा ै े ें े ी े े ें ो ी

हुआ देखा है। इनमे ं से कसी एक के त नणय करने मे ं अ य दो का भी अथ लगा लया जाता है, अथात् इस तकड़ी का येक भाग दू सरों पर एकप ीय प से च त हो जाता है, इस लए जो ‘सु दर’ है वह ‘अ छा’ भी होगा और इस लए ‘स य’ भी होगा। इसके वपरीत भारतीय दृ कोण मे ं ‘स य,’ ‘अ छाई’ एवं ‘सौ दय’ के े ब कुल भ हैं तथा येक दू सरों से अपे ाकृत वत प से कायरत है। सं कृत के पद ‘स यं - शवम्-सु दरम्’ (स ाई-अ छाई-सौ दय) मे ं ‘स य’ धान है तथा यह ‘ शवम’ (अ छाई) और ‘सु दरम’ (सौ दय) से े है। स य क उप थ त के लए न तो सौ दय और न ही अ छाई क उप थ त अ नवाय है और न ही सौ दय क कमी अस य अथवा चिर हीनता क ओर सं केत करती है।84 ं जैसा प मी सं कृ त मे ं अ य स दभ मे ं है, इस तकड़ी समू ह क जड़े ं दोहरी है— बाइबल क ‘चुने हुए लोग’ स ब धी अवधारणा तथा काश, सम पता एवं प क शु ता स ब धी पार पिरक यू नानी पस द। पर परा के इन दो आयामों ने सं य ु प से जा त, न लीय पहचान और शारीिरक दखावट के और कला, सा ह य और सं गीत के त प म का च लत रवैया न मत कया। बाइबल शा और यू नानी भाव ने मल कर काली चमड़ी के लोगों के त न लीय ढ़ब ता को मजबू त कया। सु दरता और सौ दयबोध के यू नानी मानद ड तथा बाइबल मे ं व णत शु ता एवं व श ता क वं शावली दू सरी सं कृ तयों के मू यां कन का आधार बनीं, ज हे ं ाय: भ ा, बबर तथा यौ नक प से व छ द च त कया गया तथा उनके देवताओं एवं तीकों को वषम पी, धू सर, भयानक तथा वकृत व प मे ं देखा गया।85 ु ा और तकहीन लगे (अ य बातों के अ तिर चुने हुए मू ल चाहे यह बड़ा ही बेतक लोग, अथात् इज़राइल के नवासी न लीय दृ कोण से उतने ‘गोरे’ नहीं थे), पर तु ‘काले’ लोगों के साथ प मी सं घष पर उनका उ भाव दखाई पड़ा। वे आज भी भारत और भारतीयों के त सतही और गहन दोनों पों मे ं प मी दृ कोण को भा वत करते है।ं यह सच है क ‘गोरेपन,’ सम पता एवं न त आकार क वरीयता को प मी कला के इ तहास मे ं चुनौती दी गई है ( वशेषत: प म के वल ण आ दोलनों के समय जब प मी क पनाओं मे ं भारत का थान अ य त मह वपू ण हो गया था), पर तु इन चुनौ तयों ने प मी सं कृ त के व भ आ तिरक वभाजनों को और अ धक भड़काया, जससे उ हे ं नये नयम, प ता और नय ण थोपने क रे णा मली। स ाई और अ छाई के साथ सौ दय का स ब ध तथा प मी सं कृ त पर इन तीनों का सं य ु भाव उनके धम नरपे वचार मे ं भी द शत होता है। उदाहरण के लए कैंट (Kant) ने भारतीयों क कला एवं धा मक सौ दयशा ों के आधार उन पर दोष मढ़े , ज हे ं उसने हा या द पाया। वे लखते हैं क भारतीयों मे ं व च ता के त बड़ी च है जो रोमां चकारी तर तक चली गई है। उनका धम व च ताओं से भरा ँ ँ ै ै ी ो

पड़ा है। दै याकार मू तयाँ, परा मी ब दर हनुमान का अनमोल दाँत, व भ मू तपू जक तप वयों एवं साधुओ ं के अ ाकृ तक ाय त् इ या द सब ऐसा ही बताते है।ं 86 भारतीय धम मे ं सौंदय के त इस भयानक थ त के कारण वाभा वक प से उसने पाया क म हलाओं के उ पीड़न जैसी कई अनै तक थाएँ यहाँ पाई जाती होंगी। ी-पु ष स ब धों को यू रोपीय लोगों ने भौ तक धरातल से ऊपर उठा कर ँ ाया। ले कन कैंट नै तकता, आकषण एवं आ या मक रे णा के तर तक पहुच लखते हैं क ऐसा ए शया मे ं नहीं पाया जाता— ‘‘चू ँ क उसके (ए शयाई) पास नै तक सु दरता क अवधारणा नहीं है जसे आवेग (यौन- या) से सं य ु कया जा सके, इस लए वह कामुक रस को भी खो देता है, अथात् उसका अ त:पुर अशा त का एक नर तर ोत है। वह सभी कार क कामुक व च ताओं पर फलता-फूलता है। वह अ यायपू ण एवं घृ णत तरीकों का योग करता है। इस लए वहाँ ी हमेशा एक कैद मे ं होती है, चाहे वह अ ववा हत रहे या फर कसी बबर, नक मे और शं कालु प त के साथ रहे।’’87 इन दृ कोणों के कुछ इ तहास, वशेषकर उनके शा ों क जड़े ं तथा उनका ं ।े ले कन याद रहे है क यू नानी मू यों के साथ मेल का हम आगे ज दी ही वचार करेग ये दृ कोण आज भी जारी हैं और ये प म क वच व था पत करने वाली सवा धक हं सक और आ ामक पिरयोजनाओं के लए आज भी ज मेदार है।ं जब मैनं े 1970 के दशक मे ं अमरीक क प नयों मे ं काम करना ार भ कया तब वहाँ ब धन श ण गो यों मे ं व श मानक हाव-भाव पर ज़ोर दया जाता था, जैसे मजबू ती से हाथ मलाना व सनीय और आ म व ासी य का पिरचायक है जब क ढीले-ढाले तरीके से हाथ मलाने को प मी सं कृ त मे ं कमज़ोरी क नशानी तथा नै तक अ न तता के प मे ं देखा जाता है। आ म व ास से आँख मलाने क मु ा (लगभग आ ामक ब दु तक, पर तु उ चत ती ता और स तु लत मु कान के साथ) यह दशाती है क य दृढ़ न यी, पर तु स तापू वक नय ण मे ं है। क प नयों मे ं सश भोजन (power lunch) जैसी श दावली का भी वेश हुआ, जसका ‘‘असली मद या करते हैं और या नहीं’’ जैसे शीषकों वाली सबसे अ धक बकने वाली पु तकों ने भी ो साहन दया। कहीं पीछे न रह जाये,ं ऐसी सोच से ‘असली म हलाएँ’ जैसे शीषकों वाली पु तकें भी शी का शत हु । प मी वक ल अपने मुव लों को अदालती कारवाई के समय औपचािरक प से कपड़े पहन कर और यव थत बालों के साथ उप थत होने का सुझाव देते है,ं यों क प म मे ं बाहरी प नै तकता और स ाई से स ब धत है। जब क दू सरी ओर अ त- य त बाहरी प को सं चार मा यम (Media) एवं तकूल प ारा े







नय मत प से अनै तक, कु टल और ख़तरनाक क तरह दखाया जाता है।88 प म मे ं ‘अ यव थत आचरण’ एक अपराध जैसा है तथा उ छृं खल तरह के दशन ने कई नद ष य यों को मुसीबत मे ं डाला है। हालाँ क यह यं यपू ण है, यों क बड़े -बड़े बदमाश और अपराधी जैसे बनाड मैडॉफ़ (Bernard Madoff), एनरान (Enron) और व डकॉम (WorldCom) इ या द के दोषी विर अ धकारी आम जनता के बीच हमेशा साफ़-सुथरे और यव थत ढं ग से ही उप थत होने वालों मे ं से थे। न तो उनके सौ दयशा और न ही स य और तक के त उनके समपण ने उ हे ं अनै तकता से दू र रखा!89 समाज और राजनी त मे ं हाल क वृ यों, जनमे ं लोक य सं कृ तयों का वै ीकरण भी स म लत है, ने ऐसे ग़ैर-मानक कृत सौ दयशा और अ य वकृत धारणाओं को चुनौती दी है। ‘काले व ानों’ ने दखाया है क कस तरह ‘काले सौ दयशा ’ को ाय: बुराई और तकहीनता से जोड़ कर रखा गया तथा कैसे इस सोच ने गोरे लोगों के मन मे ं यह धारणा पु क क ‘गोरे’ लोग ही अ छाई और स ाई के र क है।ं 90 1950 के दशक मे ं ए वस े ले (Elvis Presley) ने ‘गोरों के समाज’ मे ं च लत वीकायता क सीमारेखा को गोरे ोताओं के लए काला सं गीत अपना कर पार कया। इसके त म त त या हुई। जहाँ एक ओर उसके शं सकों ने इस सं गीत को सकारा मक एवं यौन नयमों का अ त मणकारी मान कर वागत कया, वहीं दू सरी ओर ढ़वा दयों ने इस सं गीत को ‘अराजक श यों’ के आ मण के प मे ं ख़तरनाक माना। कुछ समुदायों ने ए वस े ले के िरकॉ स को सावज नक प से जलाया, इस लए FBI ने इस बुराई को नय त करने के उपाय खोजने के आदेश दये। जब गोरों ने धीरे-धीरे इस सं गीत को ऐसे आ मसात कया क वह अब यह कालों का सं गीत न रहा, तो अराजकता का डर अ तत: ओझल हो गया। इसी कार जब जैज़ (jazz), यू ज़ (the blues), रॉक (rock) तथा कालों के सं गीत क अ य शै लयाँ, कुछ हद तक ‘ हप-हॉप’ (hip-hop) सं गीत क बेहद ग़ैर-मानक शै लयों भी, सं गीत के व भ उ पादों के प मे ं यव थत तरीके से बेची ग तब कहीं जा कर वे ख़तरनाक का तीक हटा कर मु यधारा मे ं आ पा ।91 दू सरे श दों मे,ं जब यही सं गीत प मी सं कृ त मे ं आ मसात कर लया गया तब यह ‘अ यव थत’ और ‘ख़तरनाक’ नहीं रहा। उ ीसवीं सदी मे ं जब अमरीका ने मै सकन (Mexican) े पर क जा करने का नणय कया तब मै सको नवा सयों को बबर, अनै तकतावादी एवं दु व प मे ं च त कया गया।92 यहीं से ‘मै सकन डाकू’ (Mexican Bandito) नामक ढ़वादी धारणा ार भ हुई। मै सको से आने वाले आ वा सयों के बारे मे ं आजकल जो बहस होती है वह भले ही प प से न लीय न हो, पर तु यह मै सको नवा सयों मे ं सौ दयशा एवं नै तकता क कमी और तकशीलता के घ टया होने को मू त प ै े ी ै औ े ो ो ॉ ी े

देती है। एक और उदाहरण यह है क सगरेट को तो ‘वॉल ीट (Wall Street) के ँ ीवाद के स य तीक’ के प मे ं वैधता मली, जब क अवैध स (drugs) को पू ज हमेशा काले अथवा अ य न लों से जोड़ा जाता है, जैसे गाँजे (marijuana) को मै सक स से, हेरोइन को कालों से, अफ़ म को अफ़गा नयों से और पयॉट को मू ल अमरी कयों से। इस कार अमरीका मे ं ‘ स के व यु ’ (war on drugs) यव था और अराजकता के बीच एक मथक य यु के प मे ं बना हुआ है। अ क -अमरी कयों के यासों को साधुवाद देना चा हए ज होंने नै तकता से त े न ल के जुड़े होने क अवधारणा को सावज नक प से चुनौती दी, हालाँ क यह अब ँ ा रही है। भी च लत है और नुकसान पहुच इस चलन का उ टा भी देखने मे ं आता है। जब प मी शैली ग़ैर-प मी सं कृ तयों मे ं वेश करती है तो वहाँ के लोग बल प मी सौ दयबोध क नकल करने का यास करते है।ं उदाहरण के लए प म ारा रची और चलाई गई अ तरा ीय सौ दय तयो गताओं ने भारतीय नारी क सु दरता के तमानों को लगातार भा वत कया है। जब बहुत-सी भारतीय म हलाओं ने मस यू नवस (Miss Universe) और मस व ड (Miss World) क उपा धयाँ जीतनी ार भ क ं तो वे भारतीय लड़ कयों के लए अनुकरणीय (role models) बन ग । ा तीय सौ दय तयो गताएँ भी एकाएक भारतीय रा यों मे ं उभरीं, जैसे मस उ र देश, मस पं जाब, मस केरल, मस म य देश इ या द और वजयी लड़ कयाँ रा ीय तर क और फर अ तरा ीय तर क सौ दय तयो गताओं के लए चुनी जाने लगीं। भत म (supply chain) थानीय तर पर ार भ होता है, जैसे मस लखनऊ तयो गता, मस कानपुर या मस भोपाल तयो गता इ या द। थानीय तयो गता मे ं उ थान लड़क के सामा जक, पेशव े र और वैवा हक तर को बढ़ा देता है। इन तयो गताओं क तैयारी के लए छोटे-छोटे शहरों स हत समू चे भारत मे ं कई मॉड लं ग कूल खुल गये है।ं इन कूलों मे ं लड़ कयों को सखाया जाता है क उ हे ं कैसे चलना चा हए, कैसे बात करनी चा हए, कस तरह से प मी म हलाओं के हाव-भाव को अपनाना चा हए, यों क प म ने सभी म हलाओं के लए सौंदय-मानक पिरभा षत कर दये है।ं बड़े पैमाने पर साधन पदाथ (cosmetic products) एवं वचा को गोरी बनाने स ब धी व ापन प सं केत देते हैं क सौ दयशा प मी मापद डों ारा 93 पिरभा षत कया जा रहा है। भारत भर मे ं कॉल से टर (call centers) के कमचािरयों के लए ‘उ ारण श ण’ कूल था पत कये जा रहे है।ं कसी युवा का उ ारण जतना अ धक अमरीक होगा उसे उतना अ धक वेतन मलेगा और यह सां कृ तक भाव समाज के अ य े ों मे ं इस तरह वेश कर गया है क अमरीक बोलचाल और श ाचार भारत मे ं एक मह वपू ण सामा जक च बनते जा रहे है!ं ें

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प म मे ं पर परागत प से ई र ारा चुने हुए लोगों अथवा एक वं श के वशेषा धकार को ही सौ दय आकषण, नै तकता और स य को था पत करने क मता हेत ु उपयु माना जाता है। ऐसी ‘ व श तावादी’ धारणा कुछ हद तक बाइबल ारा पतृस ा पर ज़ोर देने से उ प हुई है, जहाँ ई र, पता और केवल एक ही पु उसक इ छा एवं भावों का त न ध है। बाइबल क पर पराओं मे ं वजयी उ रा धकारी ाय: अपने भाइयों को न करके अपनी वरासत को मलावटी या ततर- बतर होने से बचाता है। यह वृ हमने सं सार उ प क ईसाई पु तक (Genesis) मे ं कैन और एबेल (Cain and Abel), आइजैक और इशमाइल (Issac and Ishmael), जैकब और इसाव (Jacob and Esau) के बीच आपसी सं घष मे ं देखी है। हर घटना मे ं सं घष है जो कभी-कभी हं सक रहा। ऐसा ही तनाव बाइबल मे ं नोआ (Noah) और उसके बेटों क कहानी मे ं भी पिरल त होता है। एक वनाशकारी बाढ़ मे ं केवल नोआ अपनी प नी और वं शजों स हत धरती पर बचे रहे ज होंने आगे चल कर धरती को आबाद कया। नोआ के तीन बेटे हैम, शेम और जपेथ थे। सं सार उ प क ईसाई पु तक (Genesis 9:2227) के अनुसार हैम नोआ क न नता पर हँसा था और अपने गौरव के अनादर करने क सजा के कारण नोआ ने हैम के वं शजों को अपने अ य दो बेटों के वं शजों का दास बन कर रहने क सजा दी। इस लए हैम ‘बुरे’ अथवा ‘अशु ’ वं श का तीक है। ाचीन ईसाई स यता काल मे ं हैम के ब ह कार क इस ‘घ टया’ ण े ी को ाय: काली चमड़ी, यौ नक अशु ता तथा सामा यत: बुराई के साथ जोड़ कर देखा गया। वशेषकर यू नानी म े के शा दक एवं अ प ववरण को उ वल अथवा काशमान देवता क सं ा दे कर ाचीन ईसाइयों ने गोरी चमड़ी को अँधरे े पर उजाले अथवा अराजकता पर यव था क वजय के प मे ं प व वशेषा धकार क तरह देखा। एक ईसाई दाश नक ओिरगेन (Origen) ने हैम के स दभ मे ं प कया है क बना यो यता वाली नीच जा त अधम क भाँ त ही यवहार करती है।94 इस कार हैम को तीन गुणा शा पत बना दया गया—वह बदसू रत, बुरा और इज़राइल क उ चत धारणाओं को फैलाने के लए अयो य था। उ ीसवीं शता दी के आर भ तक सं सार का नोआ के वं शजों ारा बसाने वाली बाइबल क कथा और इस कहानी क ‘गोरे एवं प व ता’ क पार पिरक समझ के अनुसार या या को प म मे ं ाय: इ तहास क तरह वीकार कया गया था। जब ँ े और उनका एवं यू रोप के औप नवे शक मत- चारक सं सार के व भ ह सों मे ं पहुच उनके यापािरयों का वहाँ क थानीय सं कृ तयों से सामना हुआ, तो उ होंने वदेशी समाजों के वृ ा तों को अँध व ास कह कर ख़ािरज करते हुए उ हे ं नोआ के तीन बेटों मे ं से एक के वं शजों के प मे ं स द भत कया। अ भ ाय: यह था क एक वशेष े को नोआ के वं शजों क एक व श शाखा क पहचान के प मे ं था पत कया जाये। ं ै ों े ं ी ी ों े ं ों े

अ धकां श वृ ा तों मे ं काली चमड़ी वालों क पहचान हैम के वं शजों के ू र, अस य और अनै तक होने के प मे ं क गई है।95 इस कार बाइबल ने कुछ न लों अथवा जा तयों को तथाक थत अनै तक मान कर उनके दमन का सा दा यक औ च य दान कया। यह पहचान बहुत-सी गुलाम- थाओं को उ चत मानने के सा दा यक तक का आधार बनीं। ोटे टे ट आ दोलन के सं थापक मा टन लू थर (Martin Luther) ने कहा था क हैम और उसके वं शज शैतान और कटु घृणा से भरे हैं और उ हे ं मू तपू जा और व ो हयों क तरह देखा।96 हाल ही, 1964, मे ं प म वज नया (West Virginia) के अमरीक सभासद (senator) रॉबट बड (Robert Byrd) ने अमरीक काँ स े द तावेज मे ं ‘नागिरक अ धकार अ ध नयम’ (Civil Rights Act) को नोआ क कहानी को पढ़ कर यह घोषणा करते हुए रोकने का यास कया क ‘हैम के वं शजों के व भेदभाव को नोआ उ चत मानता था, इस लए स भवत: हमे ं भी वही करना चा हए’।97 1517 से 1840 के दौरान लगभग दो करोड़ काले लोगों को अ का मे ं कैद करके अमरीका लाया गया और इस तरह दास बनाया गया जसे एक नरसं हार क सं ा दी जानी चा हए।98 1843 मे ं ‘नी ो या अ क न ल से स ब धत दासता’ (Slavery as It Relates to Negro or the African Race) नामक एक पु तक का शत हुई जो देखते-ही-देखते सवा धक बकने वाली पु तक बन गई।99 इसके लेखक ने अ कयों पर लादी गई गुलामी- था को नाटक य प से नोआ के हैम को दये गये शाप से स द भत कर उ चत ठहराया— ‘‘अरे हैम, मेरे बेट,े तु हारे केवल इसी कृ य के लए ई र के आदेश ारा मैनं े तु हे ं और तु हारी जा त को शाप दया है; ई र ने मुझे कहा है क तु हारे आने वाले वं शज भी उनके पता क तरह मानव जा त क सबसे गरी हुई दशा मे ं ं ,े यहाँ तक क उ हे ं सामा य मानव समाज से भी नीचे वाली थ तयों मे ं रहेग जं गली जानवरों क तरह दास बनाया जायेगा; और चाहे शाँ त काल हो या यु काल, तुम एक तु छ, अपमा नत और पी ड़त जा त क ही तरह रहोगे।’’100 बाइबल मे ं व णत यह शा ीय न लीय वग करण (अपने नै तक व राजनै तक पिरणामों स हत) प मी मान सकता मे ं अ छ तरह से था पत हो गया था। यह न केवल अ क गुलामों ब क सं सार के अ य अ त े लोगों के साथ यवहार का एक पैमाना बन गया। उनक दु वधा यह थी क ये लोग इज़राइल के इ तहास मे ं कहाँ ं बाइबल ारा था पत इस ढाँचे मे ं भारतीयों के थान के बारे मे ं ठ क बैठते है? औप नवे शक वचारक इस कार वचार करते थे क या ये हैम क स ताने ं हो ी ैं











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ं उनके भ े पन, भू री वचा और समझ से परे तौर-तरीकों से लगता है क ये सकती है? इसी तरह के कसी अधीन थ वग से स ब धत हो सकते है।ं जन द गजों ने इस पहेली को सुलझाने का यास कया उनमे ं व लयम जोंस (William Jones: 1746-1794), मै स यू लर (Max Muller: 1823-1900), ायन ू टन हॉगसन (Brian Houghton Hodgson: 1800 या 1801-1894) और बशप रॉबट कॉ डवेल (Bishop Robert Caldwell: 1814-1891) स म लत है।ं भाषा वद जो स (Jones) ने नोआ और हैम क कथा के न लीय ढाँचे को सं सार क भाषाओं का मान च बनाने मे ं एक नमू ने क तरह अपनाया।101 जो स ने सं कृत कथाओं और सं कृत थों को बाइबल क घटनाओं से जोड़ते हुए यह दावा कया क ह दुओ ं का चिर हैम के समान है।102 यह सोच यू रोपीय नदशक तमान बन गई और आगे चल कर उ ीसवीं सदी के उ रा ्ध मे ं यही अनु म वकास क धम नरपे अवधारणा मे ं समा गया, जैसा क जे स मल (James Mill) और उसके पु जॉन टुअट मल (John Stuart Mill) के लेखन मे ं दखता है। अराजकता के त प मी पीड़ा तथा यव था लाने क इ छा, राजनी त, लैं गक स ब धों, मत तथा सामा जक सं रचनाओं मे ं भी े पत क जाती है। यू रोप मे ं बारहवीं से अठारहवीं शता दी के दौरान कैथो लक धमा धकरण (Inquisition) ने अपने नरं कुश नै तक एवं धा मक मत को हं सक तरीके से लागू कया। यू रोपीय इ तहास क इस ू र अव ध के दौरान यव था को ज टलता क अपे ा वरीयता दी गई तथा इसे मदाना और ज टलता को ण ै , शैतान एवं बुराई के प मे ं देखा गया। नयम-पु तकाओं ारा पैशा चक तरीकों का योग करने वाले स द ध लोगों को दोषी ठहराने के लए मानक त बनाये गये। यह दमन कई शता दयों तक चला और लगभग यू रोप के येक कोने मे ं फैला, जसके पिरणाम व प जादू -टोना करने के आरोप मे ं लाखों म हलाओं (और कई पु षों भी) क ह या कर दी गई। स हवीं सदी के अ त मे ं पू व अमेिरका मे ं ‘सालेम के चुड़ैल मुकदमे’ (Salem witch trial) इस नृशंस पिरयोजना का लगभग दम तोड़ता हुआ अ तम अ याय था। यू रोपीय बोध (Enlightenment) ने इनमे ं से कुछ आशं काओं को पीछे छोड़ दया था। अपने मथक य और अँध व ासी त वों को पिरशु करके एक नये और उ त ईसाई मत का ज म हुआ जसने अ धक तकसं गत और धम नरपे व दृ को अपनाया। फर भी उसक अ त न हत ाथ मकताएँ और व ास दृढ़ बने रहे और यू रोप का स यीकरण अ भयान यू रोपीय मानक नयमों एवं वचारों को थोपते हुए जारी रहा। अराजकता को ख़ म करने के लए धा मक प त क अपे ा तकसं गत योजनाएं चलाई ग । यहाँ तक क अ छाई और सु दरता के मलन ने कृ त के त दृ कोण को भी भा वत कया। उदाहरण के लए ‘आलू ’ को, जो क द ण अमेिरका क पैदाइश है, अमरीका के यू रोपीय वा सयों ने उसके बेडौल व प के कारण कु प एवं अशुभ ें े ें औ ँ े ी ी े ों

के प मे ं न दत कया। और चू ँ क इसक खेती अमरीका के मू ल नवा सयों, ज हे ं अनै तक एवं अस य समझा जाता था, ारा क जाती थी, आलू को इनसे स ब धत होने के कारण स द ध और ख़तरनाक भोजन घो षत कर दया गया। जब यू रोप मे ं भीषण अकाल पड़ा (और लगभग आधी आबादी के मारे जाने क आशं काएँ उ प हु ) तभी वहाँ के कसानों ने आलू क खेती करने का नणय लया। इसी तरह के अँध व ासों के आधार पर इटली मे ं टमाटर को भी तब धत कर दया गया था (जब क आज टमाटर के बना इतालवी भोजन क क पना करना ही क ठन है)। इसी काल के दौरान इ तहास स ब धी दशनशा उ प हुआ, जसके अनुसार सभी समाज कम यव था से अ धक क ओर बनाये गये एक सावभौ मक अनु म का पालन करते है।ं वयं यू टन ने 1728 मे ं अपने लेखन, ‘‘द ोनोलॉजी ऑफ़ ए शए ट कंगड स’’ (The Chronology of Ancient Kingdoms) मे ं ाचीन मथकों के अनुसार न लीय अनु म वक सत कया।103 इसी तरह क वैचािरक अवधारणाओं के कारण यू रोप से अमरीका आ कर बसने वालों ने थानीय अमरीक मू ल नवा सयों को पैशा चक बीहड़ मे ं अराजकता से रहने वाले दु या पछड़े हुए लोगों क तरह देखा। उनको पछड़े हुए लोग मान कर उन पर सामा जक ग़ैर- ज मेदारी, तकशू यता और यौन-स ब धी व छ दता जैसे व भ ढ़वा दताएँ न मत क ग । इस कार ग़ैर-प मी लोगों को अराजकता क मू रत और ख़तरे के प मे ं देखा गया।104 समय के साथ-साथ सु दरता के मापद ड मुख सं कृ त के मू यों को त ब बत करने लगते है,ं जैसे काली बनाम गोरी वचा तथा दुबला बनाम मोटा।105 इसी पृ भू म मे ं हम यह जान सकते हैं क आधु नक प मी कला मे ं यीशु को गोरा कैसे च त कया जाने लगा। इतालवी पुनजागरण मे ं जस उ वग ने च कला को ायो जत कया था वह वाभा वक प से परमे र के पु को ठ क अपनी ही तरह ‘गोरा’ देखना चाहता था। तब से ाय: यीशु को सुनहरे-भू रे बालों और त े वचा के साथ दशाया गया है जब क वा तव मे ं वे म य-पू व ए शयाई वशेषताओं के साथ यामवण के रहे होंग।े जब यीशु का नवीकरण हुआ तब बीसवीं सदी के अमरीका मे ं उनक नीली आँखे ं काफ़ लोक य हु ।106 जब भारत जैसे ज टल इ तहास और धम वाले वशाल देश से प म का सामना हुआ तब इसे उ हे ं अपने मत और राजनै तक इ तहास के साधारण खाँचे मे ं समाना आव यक हो गया। व लयम जो स (William Jones) ने यही करने का यास कया। उसक मह वपू ण पिरयोजना को इ तहासकार थॉमस ॉटमैन (Thomas Trautmann) ने इस तरह समझाया क ‘‘यह बाइबल क तकसं गत र ा के लए पू व व ा से एक त क हुई साम ी ारा न मत क गई थी।’’107 यों क जो स क नगाह मे ं ईसाई मत ही एकमा स ा मत था, उसने ा, व णु और शव क या या ईसाई मू त (Trinity) के वकृत सं करण के प मे ं क । यह वकृ त मू तपू जकों के ई र क कृपा से गरने के कारण हुई थी। उसका मानना था क ै ो ी ो ों े े ें ई ो ी

यू रोपीय लोगों के पास े तक मता है, जब क उनक तुलना मे ं ए शयाई लोग अभी केवल ब े है।ं जोंस ने भारतीय समाज के च को बाइबल के अनु प ढालने के लए कई समझौते कये। वह ह दू धम को पचाने प मी लोगों मे ं सबसे अ णी था, पर तु उसका ल य ईसाई धम क व सनीयता को बढ़ावा देना ही था और इस उ े य को उसके ढ़वादी यहू दी-ईसाई पाठकों ारा बहुत सराहा गया।108 अगले पृ पर दये गये च से पता चलता है क प मी तकड़ी मा यताओं के कोण को कस तरह से स य-अ छाई-सौ दय क उनक वचारधारा मे ं रच कर यव था और अराजकता तथा स य और अस य क अवधारणा से पु कया गया है। स य थान के आयत क तुलना अ यव थत और असं गत आकार क अस यता के साथ करे।ं उपरो तीन मे ं से कोई एक या दो गुण होने का य े जहाँ तक कसी को दया जा सके, वहाँ तीनों गुण एक साथ होना प म मे ं वभावत: ही मान लए जाते है।ं दू सरी ओर भ ी मू तयाँ और समाज मे ं ग दगी मनु यों क अनै तकता दशाती है, जनके पास तकश का अभाव है। गरीबी तकश और नै तकता के अभाव क सू चक है। इस लए इन गरीबों को उनक थानीय अनै तक सं कृ त से बचाया जाना आव यक है। यही वचारधारा धमा तरण क वै क ईसाई पिरयोजना के लए कुछ तक का आधार आज भी है।

धा मक वन तथा यहूदी-ईसाई म

थल

अराजकता और यव था के त जो चचा ऊपर क गई है उसका दृ कोण कृ त के त ख से भा वत है। भारतीय धा मक पर पराओं तथा यहू दी-ईसाई स यताओं मे ं अ तर प करने के लए ‘जं गल’ और ‘म थल’ को पकों के तौर पर उपयोग कया गया है। प म मे ं ाय: वन े को अराजकता, म और घबराहट के प मे ं देखा जाता है। यह दां ते (Dante) का ‘अँधरे ा जं गल’ (dark wood) है जहाँ सीधी राह भटक जाती है।109 जब क रे ग तान को उजाले के थान क तरह देखा जाता है जहाँ अपने सादे परम त ववाद और स पू णता मे ं स य का खुलासा होता है। यह खाली, बं जर और समतल भी है। इसके वपरीत भारतीय धा मक पर पराओं मे ं जं गल शरण देने वाला, आ त य दाता एवं गहन आ या मक रे णा का थान है। ी अर व द ने वनों क सादृ यता का उपयोग भारतीय और प मी आ या मक दशन के बीच कुछ अ नवाय मतभेदों को दशाने के लए कया— ी







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‘‘भारतीय दशनशा और धम क अ तहीन व वधताएँ यू रोपीय मान सकता को अन त, व मयकारी, थकाऊ और बेकार-सी लगती है;ं वन प त क समृ और चुरता के कारण वह जं गल को देखने मे ं असमथ है; वह यहाँ के व वध आचारों मे ं समान आ या मक जीवन के सू भी नहीं देख पाती। ले कन जैसा क ववेकान द ने सं ग तपू वक कहा है, ‘वनों क अन त व वधता ही े भारतीय धा मक सं कृ त का सं केत है’। भारतीय मनीषा ने इस बात को जाना है क सव स य अन त है; वै दक सं कृ त के आर भ से ही उसने यह जाना है क कृ त मे ं आ मा को वह अन त, वयं को सदैव ही अ तहीन व वधताओं मे ं तुत करता है। जब क प मी सं कृ त क मान सकता ने ल बे समय तक पू री मानवता के लए आ ामक एवं अ य त अता कक वचारों वाले एक ही मत, अपनी सं क णता के बल पर केवल एक ही सावभौ मक मत, एक ही तरह के कठोर स ा तों, एक ही प थ, अनु ानों क एक प त, नषेधा ाओं तथा आदेशों क एक नयमावली एवं चच का एक अ यादेश, से पो षत कया है।’’110 भारत मे ं वन हमेशा उपकार का तीक रहे है,ं यों क शायद इस उपमहा ीप क हरी-भरी वन प तयों (अब अ धकां श नरावृत) ने लोगों को गम से राहत दी थी। धम के कुछ े ाचीन आ या मक थों को ‘आर यक’ या ‘वनों के वचन’ भी कहा जाता है तथा उ हे ं रचने वाले ऋ षयों को ‘वनवासी सं यासी’ के प मे ं जाना जाता है। य यों के लए जीवन के जन व भ पड़ावों का ावधान कया गया है उन मे ं अ तम से पहले वाले पड़ाव मे ं य अपने सम त पािरवािरक ब धनों को तोड़ कर आ या मक ल यों को ा करने मे ं लगाता है जसे ‘वान थ’ कहते है,ं जसका शा दक अथ है ‘जीवन क व य अव था।’ जं गल एक ऐसा थान है जहाँ अराजकता और यव था के बीच स तुलन लाया जा सकता है। उसक हज़ारों कार क जीव जा तयाँ, पौधे और सू मजीव आपस मे ं एक-दू सरे पर आ त है।ं इसमे ं एक वग़फु ट के थान मे ं ही सू मजीव व भ जीव पों का एक समू चा शहर अपने मे ं समाये हुए है। कसी भी तर पर सू म जीव हमेशा अपने बड़े प के साथ घरा होता है, इस लए यह ‘सं सार के अ दर सं सार’ अलग-थलग नहीं है। वन के अ दर बहुत सारे ज टल जैव पदाथ होते हैं जो सतत् बदलते और वक सत होते रहते है।ं व य जीव एक-दू सरे के अ य त अनुकूल होते हैं और एक-दू सरे मे ं वलय हो कर नये-नये पों मे ं सरलता से बदलते भी रहते है।ं कसी भारतीय के लए जं गल का अथ है— जनन, बहुलता, पा तरण, पर पर नभरता और मक वकास। वन एक अ छा मेज़बान होता है और बाहर वालों के लए अपने दरवाज़े कभी ब द नहीं करता, ब क वासी नये जीव-ज तुओ ं क जा तयों को मू ल नवासी के प मे ं पुनवा सत करता है। यह जै वक प से बढ़ता है जहाँ यह पहले से उप थत जीवों को न कये बना नये जीवों के साथ मलजुल ै ी ी औ ीं ो ी

कर रहता है। यह कभी भी अ तम और पू ण नहीं होता। इसका जीवन-नृ य सतत् वकासशील रहता है। तुलना मक प से भारतीय सोच काफ़ हद तक या आधािरत है। बौ धम मे ं जं गल के जीवों क आपसी नभरता एक तरह से समू चे ा ड क आपसी नभरता को त ब बत करती है। प यों, पशुओ,ं पौधों इ या द के प मे ं जं गल क व वधता ई रीय वभू त क अभ य है। जस तरह जं गल मे ं अन त जै वक याएँ है,ं उसी कार ई र के साथ सं वाद क भी अन त वधाएँ है।ं वा तव मे ं भारत का आ या मक दृ कोण इसी स ा त पर आधािरत है क ई र सब मे ं अ त न हत है तथा उसे जीवन और कृ त के कसी भी व प से पृथक नहीं कया जा सकता। वन भी मानव शरीर क तरह बाहरी एवं अ दर के बीच स ब धों के लए स दभ बनाते हैं या कह सकते हैं क मानवता और जं गलीपन के बीच स ब ध था पत करने का स दभ दान करते है।ं व भ भारतीय धा मक शा और अनु ान एक-दू सरे मे ं ज टल प तयों से इस कार घुल मल जाते हैं क वे तथाक थत ‘मह वपू ण सं करणों’ अथवा एकरेखीय काल म क सं क पनाओं क अव ा करते है।ं भारतीय धा मक पर पराएँ वयं को बड़े ही ग तशील तरीके से पुन यव थत करती हैं जससे प मी मानस मे,ं जो सब चीज़ों को अपने उ चत थान मे ं देखने का आदी है, बेचन ै ी उ प होती है। भारतीय पर पराएँ बहती हुई प व न दयों के कनारे था पत हु हैं जो पिरवतन एवं वकास का तीक है।ं अ तहीन जै वक वकास का परम अनुभव भारतीय दशन शा के व भ गु कुलों, शा ों, देवताओं, अनु ानों, आ या मक साधनाओं और यौहारों का अ भ अं ग रहा है। आपसी स भावना का वचार वन से उपजा जहाँ ँ े होने का भाव या है। वनवासी कृ त का स मान करते हैं और अपने पर पर गुथ समक यहू दी-ईसाइयों के वपरीत यह नहीं मानते क ई र ने मनु य को इस दु नया पर अपना भु व था पत करने के लए बनाया है। कृ त और इसके जीव एक ही ा डीय पिरवार का ह सा है।ं दू सरी ओर रे ग तानी पिरवेश ने इ ाहमी मतों को आकार दया है। रे ग तान तकूल हो सकता है और वह ऐसा थान नहीं है जहाँ कोई जीव थायी प से रह सके या जहाँ जीवन क व वधता का अच भा देखा जा सके। इसका वशाल खालीपन व मयकारी है, पर तु भय भी पैदा करता है। रे ग तान, कठोरता, जीवन का अभाव, अ य वातावरण तथा ख़तरों का सं केत देता है। यहू दी-ईसाई लोकआचरण इसी डर और अभाव क भावना पर आधािरत है। कृ त सहायक नहीं ब क डरावनी है, इस लए इसे अधीन, श , और नय त कया जाना आव यक है। इन पिर थ तयों पर वजय पाने के लए रे ग तान मे ं रहने वाले भगवान से राहत क आशा रखते है।ं इनके अनुसार ई र एक पालन-पोषण करने वाली माँ नहीं ब क एक कठोर और ाय: ो धत होने वाले पता के समान है। ऐसा ई र ‘‘यह करो और ें ै ई ें ी ो ै े े े े

वह न करो’’ जैसे स त नदश दे कर उ हे ं उबारता है। ई र उ हे ं जीवन चलाने के लए केवल दस आ ाएँ (ten commandments) देता है! बदले मे ं ई र उनसे गहरी कृत ता, प ाताप और ाय त क आशा रखता है। ऐसा तीत होता है क रे ग तान अपने-आप मे ं सा दा यक अनुभवों क चरम सीमा है; यह प ाताप करने का एक थान है। ँ ने से पहले मो जज (Moses) म से पलायन के प ात और प व भू म तक पहुच और उसके अनुया ययों ने चालीस वष तक रे ग तान क कठोर पिर थ तयों मे ं जीवन बताया। इज़राइल के लोगों के लए पापों का ाय त करने का स देश ँ ाने से पहले बप त मा-दाता जॉन (John) कठोर तप या हेत ु रे ग तान मे ं गया पहुच था। अपने सावज नक जीवन क शु आत मे ं यीशु ने भी रे ग तान मे ं चालीस दनों के अपने पहले उपवास मे ं ई र को समपण करने से पहले शैतान के लोभनों का तरोध करने के लए सं घष कया। इस छ व के वपरीत महा मा बु ने बो धवृ के नीचे जीवन के म यम माग का ान ा कया। वन से स ब धत पक से बरगद के वृ का सीधा स ब ध है जसे ए शया भर क कहा नयों एवं मथकों मे ं ा के साथ सुनाया जाता है। सभी वृ ों मे ं बरगद का थान इस लए अ तीय है, यों क पहले शाखाएँ अं कुिरत होती हैं और अ तत: धरती क ओर जा कर एक नये वृ क जड़े ं बन कर पू रे वृ के लए पोषण और थरता दान करती है।ं यह वृ अपने आप मे ं एकल ढाँचा है, पर तु यह एक ज टल एवं वके ीकृत सं गठन क तरह काय करता है जहाँ प यों, जानवरों एवं मनु यों को आ य व आहार मलता है। इसक व भ जड़े ं और शाखाएँ व वध कार के मू ल ं सभी एक ही सजीव ाण का ह सा है,ं भले ही एक दृ मे ं इसे ोतों के तीक है— समझा न जा सके। येक जड़ हर तने को पो षत करती है, इस लए वृ का येक प ा जड़ों क इस सं य ु णाली से जुड़ा होता है। इस वृ का कोई एक मु य के नहीं होता, यों क इसक कई जड़े ं, तने और शाखाएँ सभी आपस मे ं एक-दू सरे से जुड़ कर अ वभा य है।ं बरगद के वृ के कई के होते है।ं ठ क इसी तरह भारतीय स यता एक ऐसी रचना है जसका कोई के ीय नय क नहीं है; यह आ तिरक एवं बा पों मे ं अ तग ठत एक खुली सरं चना है। यह वाभा वक प से समावेशी है, इस लए व वधता को बढ़ावा देने तथा पा तरण के लए अ य धक भावशाली णाली है। सु दर एवं भ य होने के अ तिर बरगद का वृ व भ जीवों एवं ग त व धयों को भी आसरा देता है। यह या यों को छाया और आ य दान करता है। ब दर यहाँ अपना घर बना लेते है।ं योगी इसके नीचे यान लगाते है।ं ामीण दुकानदार इसक छ छाया तले अपना यापार करते है।ं ामवासी इसके नीचे अपनी चौपाल लगाते हैं और समुदाय के समाचार और घटनाओं को आपस मे ं बाँटते है।ं यह पेड़ वशाल, औ









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ज टल और पुरातन है, फर भी इसके आकार और ज टलता मे ं सामं ज य और आकषण 111 रे ग तान, बरगद के वृ और उसक ज टलता को आसरा देने मे ं असमथ है। जं गल को रे ग तान बना देना वनाशकारी है जब क रे ग तान मे ं फूल उगाना उसे समृ करने जैसा है। रे ग तानी लोग हिरयाली के लए इतना तरसते हैं क यह उनका प व रं ग है (जैसा क इ लाम मे)ं । उनके म य जीवन को खुशहाल देने वाला एक छोटा-सा वन (म उ ान—oasis) उनका ग त य बन जाता है। शा त् वग के बारे मे ं उनक सभी अवधारणाएँ वन से स ब धत होती है।ं पर तु इसका उ टा कभी स य नहीं होता—अथात वन क सं कृ तयाँ रे ग तान क लालसा नहीं रखतीं। वनों क ँ ते हुए सं सार सं कृ तयाँ (अथात भारतीय ह दू सं कृ त) वैक पक चारागाहों को ढू ढ़ को जीतने नहीं ग ; वे अपने घर मे ं (अथवा बरगद के नीचे) ही खुश थीं। मा ा मक दृ से रे ग तान क अपे ा वन कई गुना जनसं या का पोषण करते है,ं इसी लए सं सार भर क ाचीन स यताएँ आकार मे ं भारत क स धु-सर वती स यता क तुलना मे ं बहुत छोटी थीं। रे ग तान मे ं जीवन के कार और व वधताएँ सामा यत: अ य धक कम हैं और पिरणाम व प रे ग तान के नवा सयों का ान कम व तुओ ं तक सी मत होता है और इस लए ज टल स ब धों और स दभ का सामना करने मे ं वे कम अनुभवी होते है।ं स दभ-आधािरत सं कृ त का पक वन के लए ठ क बैठता है जो यह खुलासा करता है क भारतीय धा मक सं कृ तयों मे ं रहने वाले लोग सं ाना मक ज टलता के साथ अ धक सहज यों है।ं न स देह, जो लोग रे ग तान से लगाव रखते है,ं उनका मानना है क वह व मय और इबादत िे रत कर सकता है। फर भी, अ धकां श लोगों के लए रे ग तान यादती का थान है, जैसे अ य धक ठ ड या जला देने वाली गम , भू ख या भोजन, पानी अथवा रेत।

प मी जोकर एवं भारतीय वदूषक यव था एवं अराजकता के सां कृ तक मथक य मे ं समा व हो कर उसके अवचेतन मे ं स हत हो जाते है।ं यव था और अराजकता के त मान सक दृ कोण फर उन रचना मक या-कलापों मे ं सू म तरीकों से उभरते हैं जो आदश , पकों एवं तीकों का उपयोग करते है।ं आधु नक समाज अपने इन मथकों को अपने कथा-सा ह य, फ़ मों एवं मी डया के अ य मा यमों ारा सां कृ तक भ ताओं को प करने और उनका व लेषण करने के लए अ भ य देता है। वशेषकर हॉलीवुड ने अराजकता के त प मी भय को बैटमैन (Batman) क लोक य फ़ मों ारा भावशाली ढं ग से तुत कया है। मैं सं कृत क कुछ क वताओं एवं नाटकों मे ं व णत ‘ वदू षक’ से इसक तुलना क ँ गा। ै



2008 क एक फ़ म बैटमैन-3 : ‘द डाक नाइट’ (Batman 3: The Dark Knight) मे ं जला वक ल का चिर स यता का मू त प है जो यव था को चुनौती देने वाले सभी कार के अपराधों से लड़ता है। जब क जोकर का चिर नायकवरोधी है जो अराजकता को आदश बना कर जला वक ल के हर कदम पर बाधा उ प करता है। फ़ म के अ त मे ं जोकर उस वक ल को अपना जीवन-दशन बताता है—वह कहता है क स य सं सार अपनी योजनाओं के त बहुत च तत रहता है और अपनी नी तयों, नयमों एवं मानकों के सटीक पालन मे ं अ य धक सजग है। ‘जोकर’ को कभी परा जत नहीं कया जा सकता, यों क वह वतमान ण मे ं सहजता से काम करता है, साथ ही वह नडर भी है यों क उसने कुछ भी एक त नहीं कया है, इस लए उसके पास खोने के लए कुछ नहीं है। वा तव मे ं लाखों डॉलर क चोरी करने के बाद जोकर धन के पहाड़ को जलाता है, ता क वह यह स कर सके क भौ तकतावादी स यता के पु षाथ मे ं उसे कोई च नहीं है। फ़ म के अ त मे ं हारे हुए जला वक ल को उसके आधे जले हुए और घनौने चेहरे के साथ दखाया गया है। जोकर बताता है क आधा अ छा चेहरा यव था क सु दरता है जसके नीचे ‘गोथम सटी’ (अथात स यता) तथा उसके ‘ नरं कुशवादी नय ण’ क कु पता छपा दी जाती है। यह कु पता जला वक ल के वयं के ओहदे और राजनै तक यव था मे,ं जो स यता क र ा करने का दखावा करती है, अ य धक ाचार के प मे ं समाई हुई है। अ त मे ं जला वक ल सं ग ठत अपराध का सरगना बन जाता है और ‘टू फ़ेस’ (Two Face) के नाम से जाना जाता है। इस कार यव था का सं र क अराजकता का मु य त न ध बन जाता है। उसका आधा सु दर/आधा कु प चेहरा यह दशाता है क ‘ यव था’ अपने भीतर अपनी ही पराजय समाये हुए है और इसके ल य कभी भी ा नहीं हो सकते तथा यह पाख डी है। यह पिरणाम, यव था और अराजकता को पर पर अलग एवं असं गत त वों के प मे ं तुत करता है। ु वेन (Bruce Wayne), ‘कानू न से परे’ है। फ़ म का मु य नायक ‘बैटमैन,’ स वह बुराई के युगल जला वक ल और जोकर दोनों को ख़ म कर देता है, पर तु वह ऐसा उनमे ं से कसी को भी एक कृत करके नहीं करता, ब क वह छल से ‘कभी न होने वाली’ मथक य यव था बना कर ऐसा करता है। वह वक ल क दल-बदली को छपाता है तथा इस नै तकता के आदश क ह या करने वाले अपराधी के प मे ं वयं को प बदल कर दखाता है। स भव है स यता अराजकता क असीम ताकत पर भावशाली रोक ही नहीं ब क उस पर जीत भी हा सल कर सकती है, पर तु इसके लए उसे अराजकता क रणनी त और उसके प व प को अपनाना होगा। पिरणाम एक असहज ग तरोध होता है। ु वेन), एक न: वाथ परोपकारी जसने बुराई का भले ही हम बैटमैन ( स मुकाबला करने क या मे ं अपने को छपा कर और वयं के स े सदाचारों का ी

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याग कया अथवा अराजकतावादी नायक वरोधी जोकर जो यव था के खोखले पाख ड को उजागर करता है, के प मे ं हों, फ़ म का मू ल स देश इन दो श यों के तप ी स ब धों पर ही टका है। मू लभू त वषय का कभी स तोषजनक समाधान नहीं होता, य प दोनों वरोधी दावे ख़ािरज कर दये जाते है।ं सं कृत नाटकों मे ं अराजकता को जोकर ( जसे ‘ वदू षक’ के प मे ं जाना जाता है) के प मे ं साकार कया गया है। यह वदू षक अपने राजा से, जो यव था के प मे ं धम क र ा करता है, वरोधाभासी तथा ा मक स ब ध होते हुए भी 112 वशेषा धकार रखता है। वदू षक के तीक क तुलना बैटमैन फ़ म के जोकर के साथ है। यव था का तीक सु दर राजा और अराजकता का तीक वकृत चेहरे वाला वदू षक न केवल अ वभा य है,ं ब क वे सहकम हैं तथा एक-दू सरे के त अनुकूल समान म ता का यवहार भी रखते है।ं शू क ारा ल खत सं कृत नाटक ‘मृ छक टकम्’ मे ं म वत वदू षक मै य े स य प से पर तु अनजाने मे ं ख़लनायक के ख़तरनाक उ े यों को ो साहन देता है। वह यह इस हद तक करता है क जस नायक क वह य सहायता कर रहा होता है वह ह या के झू ठे आरोप मे ं फ़ाँसी के ँ जाता है। हालाँ क यव था क अ यव था पर जीत के साथ नाटक फ़ दे तक पहुच का सुखद अ त होता है, पर तु उ कृ स देश यह है क य द समाज को सही तरीके से कायशील रखना है तो अराजकतावादी श यों को ववेकपू वक कुशलता से यव था मे ं एक कृत करना होता है। नाटक के औपचािरक आर भ मे ं ही इस वचार को प प से रख दया गया है। इ देवता एवं असुर पी व ण के बीच जो झगड़ा होता है वह एक बार पुन: यव था एवं अराजकता के बीच तनाव का तीक ु ों का त न ध व करते हैं पर फर भी उनसे ऊपर है,ं है। ा, जो दोनों वपरीत व दोनों लड़ने वालों के बीच मेल मलाप एवं समझौता करवाते है।ं नाटक के शु आत मे ं राजसी नायक इ क भू मका मे ं है, जब क ा उसका तप ी और सलाहकार म बनते हैं जो अपनी कु पता के साथ व श आसुरी (रा सी) च ों वाली छ व का तीक बन जाते है।ं वदू षक एक अपराधी के प मे ं है जसके पार पिरक यव था को भं ग करने के कारनामे वा तव मे ं उसे मजबू त बनाते है।ं अ धकां श मामलों मे ं इसे राजा ारा ही भेजा जाता है जो अ यव थत श यों को नय त प से छोड़ता है (ठ क उसी तरह जैसे शरीर मे ं बीमारी से तर ा के लए व भ तरोधी टीके लगाए जाते है)ं । 113 इस तरह ‘एक कृत अराजक त व’ के प मे ं वदू षक ‘ बना यो यता के ा हुआ’ (wild card) जोकर है; उसे प व ‘ॐ’ ारा सं चा लत एक महान ा ण के प मे ं च त कया गया है, पर तु फर भी वह सं कृ त- वरोधी तथा भृकुटी तनने लायक कई बुरे ल ण द शत करता है, जैसे शराब और माँस के त लालसा, दा सयों से अवैध स ब ध, छड़ी का लैं गक सं केत के प मे ं उपयोग इ या द। यव था के े ें ो ी ो ें े

के ब दु मे ं इस कार वरोधी अ यव था को रखना ह दू धम मे ं अराजकता के रचना मक प से मेल खाता है। इस कार सं कृत के नाटक के मू ल वषय मे ं ‘दो भ धाराओं के गठब धन’ क अ तधारा सतत् वाहमान रहती है, जहाँ स तुलन अ तत: था पत होता है। ‘ब धु’ का स ा त सदैव उप थत रहता है।114 इन उदाहरणों से हम फर देख सकते हैं क यव था और अराजकता के त प मी अवधारणा दोहरे आधार वाली है; वह बेमल े त पध है। प म के अनुसार यव था और जो कुछ भी अ छा व प व है, स यता का तीक है और अराजकता (या अ यव था) जो अ छाई और प व ता क वरोधी है, अस यता का तीक है। भारतीय दृ कोण एक करण का है जसमे ं इ हे ं एक दू सरे का पू रक और सं वादा मक मानते हुए स यता के आव यक पहलुओ ं क तरह देखा जाता है, पर तु एकता के उ स ा त मे ं एक करण और सम वय ारा अराजकता और यव था का मलजुल कर रहना आव यक है जससे दोनों अपना-अपना काय पू रा करके अपने पू ण एवं ँ सकें। उ तम तर पर पहुच

अ याय 5 अ पा तरणीय सं कृत श द बनाम प मी पाचन

सं कृत के बहुत से श दों का अं ज़ े ी अनुवाद कया ही नहीं जा सकता। मुख सं कृत श दों क अ पा तरणीयता अ धकां श भारतीय पर पराओं के सुपा य और आ मसात न हो सकने का माण है। सं कृत श दावली और उसके व तृत अथ का सं र ण करना, औप नवेशीकरण का तरोध और भारतीय धा मक धरोहर क सुर ा करने का मुख तरीका है।

प म के बहुत से लोग यह मान लेते हैं क सं कृत भाषा मे ं स हत भारतीय धा मक ान का अ य भाषाओं मे ं अनुवाद करके और बना उसका मू ल अथ बदले उसे अ य सा दा यक या वै ा नक पिर े य मे ं ढाला जा सकता है, जैसे ‘ॐ’ को आमीन, ‘शा त:’ को अमन तथा ‘ ा’ को भगवान इ या द। इस अ याय मे ं मैं यह स क ँ गा क ऐसा नहीं हो सकता। ाचीन होने के साथ-साथ सं कृत क आज तक क मह ा उसक गहन रचना मक मता मे ं है। कसी भी श द के अथ क गू ढ़ता ाय: उसके सां कृ तक स दभ, श द उ प क ऐ तहा सकता और उसक बारी कयों तथा अ त न हत अथ के यापक स दभ मे ं स हत होती है। येक सं कृ त का सामू हक सं चयी अनुभव उसके व श भू गोल एवं इ तहास के अनुसार होता है। कसी सं कृ त को समझना उसे जीने जैसा है। व भ सं कृ तयों के व श अनुभवों मे ं पर पर हमेशा अदलाबदली नहीं हो सकती तथा इन अनुभवों को य करने वाले श दों का उनके मू ल प मे ं रहना आव यक है; य द भाषा-स ब धी े णयाँ समय के साथ लु हो जाती हैं तो सां कृ तक अनुभव क व वधताएँ भी न हो जाती है।ं बहुत-सी ाचीन सां कृ तक कलाकृ तयों का दू सरी सं कृ तयों मे ं कोई समतु य नहीं है और इन श पकृ तयों को बलपू वक प मी- वीकाय साँचे मे ं ढालना अथवा उनके ारा हड़पा जाना एक तरह से उ हे ं वकृत करने जैसा है। यह भी एक कार का औप नवेशीकरण और सां कृ तक दमन ही है। इस लए कसी भी श द क बारी कयों को समझने के लए उसक मू ल सं कृ त को समझना आव यक है। अपनी गहन सरं चनाओं और े णयों के कारण भाषा एक सां कृ तक वचारधारा को आकार दे कर त ब बत करती है। सं कृत मे ं कुछ वशेष गुण हैं जो धा मक दशनशा क व श कृ त एवं अ त न हत वाभा वक सं ग को कट करते है।ं सं कृत से जुड़ी अ पा तरणीयता का एक और गहन ोत है इसक मू लभू त व नयों मे ं सं योगों और अ तस ब धों क परते ं जो पर पर आधारभू त क पनों ारा साझा प से जुड़ी हुई है।ं अत: एक बीजग णतीय सू क तरह एक श द का पू रा अथ उसक व नयों का सम व प होता है। इसी कारण जब एक वदेशी सं कृ त, वशेषकर औप नवे शक, अपना सरलीकृत अनुवाद सं कृत श दों पर थोपती है तब बहुत नुकसान होता है। इससे भी यादा नुकसान तब होता है जब उप नवेश बन चुक सं कृ तयों के मू ल नवासी इस वदेशी ं यह मक और सू म अनुवाद को अपनाने लगते है— या है जसे हावी सं कृ त ारा पु कार एवं बेहतर जीवनशैली का लालच दे कर हा सल कया जाता है।

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यह समझने के लए क सं कृत अ तीय और अ पा तरणीय यों है तथा इसमे ं न हत स यताएँ दू सरों से अलग यों है,ं हमे ं वेदों मे ं व न एवं भाषा क समझ को और अ धक गहराई से देखना होगा। अना द काल से भारतीय ऋ षयों एवं भाषा व ा नयों का मानना है क मू ल क पन से ही सम सृ बनी है और यह क पन समू चे ा ड के दल क धड़कन है। सं कृत भाषा के अ रों का गठन इस ँ से हुआ है जो मनमाने ढं ग से अथ का व नयों से ा डीय प दन क गू ज स ब ध नहीं जोड़ता। मानव भाषा और उसक अवधारणाओं एवं वषय-व तुओ ं का य त न ध व व न के बदलते प तरों के क पनों क वा त वक अभ य ारा होता है। यह गहन वा त वकता, जससे व न और आकार कट होते है,ं न तो पैग़ बरों ारा (जो केवल ई र के स देशवाहक थे) या बौ क नरी ण से, ब क गहन यान मे ं य अनुभव से खोजी गयी। ऋ ष वह होता है जो शा त् स य को देखता और सुनता है। उसक असाधारण मताएँ उसे अन त ा डीय क पनों और उनसे स ब धत ठोस वषय-व तुओ ं से सीधे सा ा कार करने मे ं स म बनाती है।ं ऋ ष ऋचाओं क रचना नहीं करते, ब क उ हे ं सुन कर उनमे ं लीन हो जाते है।ं इन ऋचाओं को ‘म ’ कहा जाता है। सं कृत-शा ों को बौ क ान से समझा जा सकता है, पर तु कुछ शा अनुभवा मक अथ के साथ क पनों का अनु म हैं और केवल योगा यास ारा ही जाने जा सकते है।ं उनक व न क कृ त ही उ हे ं अ पा तरणीय बना देती है। उदाहरण के लए कोई भी बाहरी श द आग से जलने पर होने वाले दद और गम के अनुभव को पू री तरह से य नहीं कर सकता। ‘जलना’ श द आग का केवल एक वैचािरक नाम है न क अनुभवा मक, जब क सं कृत के म का ल य उसके भाव मे ं न हत है। इस अ याय मे ं मैं चचा क ँ गा क सं कृत ा ड क अ भ एकता के सनातन धा मक व ास को कैसे दशाती है और यह भी क इस एकता को लाने मे ं योगदान देती है। मैं सं कृत क व श ता को भी उजागर क ँ गा क कस कार व न सभी वा त वकताओं के सू म क पनों क अ भ य है। यही मू ल क पन असं य भौ तक याओं को, जनमे ं उनके नाम तथा उनके त हमारी अवधारणाएँ स म लत है,ं कट करते है।ं इस लए श दों, व तुओ ं एवं वचारों के बीच सभी भेद आपस मे ं सापे य है।ं अ भ एकता को समा व कये हुए हम जस व वधता का अनुभव करते हैं वही वा त वकता है। पिरणाम व प, सं कृत श दों का अ य भाषाओं मे ं अनुवाद नहीं कया जा सकता।



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भारतीय भाषाई स ा त एवं शा ों के उ ारण के अ यास अ य धक पिर कृत हैं तथा उनका अ ययन एवं अथ भारतीय आ या मकता एवं धा मक साधनाओं से अलग नहीं है। बहुत-सी भारतीय पर पराओं ने सं कृत क ाचीन गुणव ा को हण करने का यास कया है। कुछ ऋ षयों ने अपने अनुभवों को ‘श ’ अथवा ाचीन ऊजा क ा णक अ भ य के प मे ं द शत कया है। जब क दू सरों ने इस ा ड क या या ‘श द,’ क पनशील स य के प मे ं करने का यास कया। ‘ फोट’ स ा त के अनुसार ‘ व न’ और ‘अथ’ वा त वकता के एक ही स े के दो पहलू हैं और अपने अ कट प मे ं एक जैसे है।ं य प से इन जुड़वाँ मे ं भेद अ श त मानस को तभी तक मह वपू ण दखता है जब तक वह मानता है क व न और उसके अथ एक-दू सरे से अलग है।ं 1 वेद इस मौ लक क पन को ‘वाक्’ देवी के प मे ं कट करते हैं जो मू ल व नयों से सभी वचारों, तालों, क पनों और य व तुओ ं को हमारे सम लाती है।ं वह ा डों तथा उस पदाथ क ज मदा ी है जससे ा डों क रचना होती है। ं परा (अ य ), क मीर के शैववाद के अनुसार ‘‘वाक्’’ के चार तर होते है— प य त (सू म), म यमा (वैचािरक सं क पना) तथा बैखरी ( थू ल वाणी)।2 शव-सू के अनुसार साधारण ान यावहािरक स पक से आता है और यह ान बाहरी सं सार से स ब धत है। ले कन वयं इन स पक को आपस मे ं जोड़ने के लए जस श क आव यकता होती है उसे ‘मा का’ कहते है।ं ‘मा का’ श दों एवं तीकों को आपस मे ं बाँध कर एक ऐसी भाषा का व प दान करती है जसे हम समझ सकें।3 ता क पर पराओं मे ं येक व तु क एक अ त न मत व या मक व न होती है। कसी एक व तु के दस से भी अ धक नाम हो सकते है,ं पर तु के ीय अथवा ‘बीज-म ,’ जो उस वषय-व तु का ना भक, के ब दु तथा भावाथ है, कभी नहीं बदलता। इस लए य द कोई य वषय-व तु के मू ल बीजम के साथ लय ारा एक कृत होता है तब वह उसक पू री समझ को हण करता है। ‘श द’ ा ड क ाचीनतम व न-चेतना है। ीम भागवत मे ं अ य ‘ॐ’ तथा उसक अ भ य से वेदों एवं सम त सृ क उ प को बताया गया है।4 िरचड लेनॉय (Richard Lannoy) ने कहा है क ह दू वयं को एक ऐसे सू म जीव के प मे ं देखता है जो इस वराट ा ड अथवा कृ त का स ा त प है। वह कृ त के बारे मे ं ान अपनी ता का लक सं वद े नशील जाग कता को योग ारा पिर कृत करके ा करता है। पतं ज ल के योग-सू इस ‘ऋत भराबु ’ (दृ अ तदृ ) का वणन करते है।ं 5 कृ त क ओर भारतीय दृ कोण के समान भारतीय तकशा भी न केवल वैचािरक अवधारणाओं के साथ वक सत होता है ब क अनुभवों के व भ तरीकों को अपना कर भी। जब क प म मे ं इन अनुभवों को सं क ण व श ीकरणों ारा दबा दया गया है। प म क सबसे नज़दीक उपमा को वै ा नक के पािर थ तक स ब धों के ववरण मे ं देखा जा सकता है, जहाँ वातावरण ै औ ी ों ो ई े ें े े ॉ े ैं

और जीवों को एक कृत इकाई के प मे ं देखा गया है। अत: लेनॉय कहते हैं क ‘‘ ह दुओ ं ने य अनुभू त के मा यम से सं गीतमय म ो ार क म णाली एवं 6 व न तरं गों के वर- व ान को एकसाथ जान कर ा कया।’’

व न, उसके अथ एवं वषय-व तु क एका मता जैसा क पहले वणन कया गया है, सं कृत क उ प ऋ षयों ारा इस सं सार क येक व तु के परम त व क खोज क या मे ं महारत हा सल करके हुई है। उनके एकता के इस सहज ान ने न केवल उनक पौधों एवं जीवों के वग करण स ब धी समझ को बढ़ाया, ब क ऐसे जीवों के त गहरा स मान और समानुभू त को भी पैदा कया (जब क इसके वपरीत आधु नक समाज मे ं पयावरण के नयमों का पालन ाय: राजनै तक अथवा प आदेशों से होता है)। नीचे वाला रेखा च दशाता है क येक व तु कैसे एक क पन के प मे ं ार भ होती है जसमे ं उस व तु का स भा वत आकार और समतु य व न दोनों स म लत होते है।ं ये क पन धीरे-धीरे कट होते हैं और हम इ हे ं अलग-अलग व नयों के प मे ं अनुभव कर सकते है।ं यह व न और भी प हो कर व न-अथ क जोड़ी मे ं बदल जाती है। इस कार येक व तु का अपना अ त न मत नाम होता है।

भारतीय याकरण के व ान ा ड व ानी भी हैं जो भाषा व ान के नयमों को ा ड के व प (ऋतम्) के साथ मलता-जुलता देखते है।ं ‘ याकरण’ श द, भाषा क अ प थ त से ले कर उसक पू ण प से अ भ य तक, याकरण और बोलचाल के वकास को स द भत करता है। ा ड के क पनों के उ प होने क व भ अव थाएँ, जैसे मू ल एक कृत थ त से ले कर सू म और फर थू ल अभ य तक अ मता के आ तिरक वकास के समक है।ं इस कार भारतीय भाषा व ान, मनो व ान तथा ा ड व ान अपने-अपने वषयों के मा यम से एक ही स य क या या करते है।ं िरचड लेनॉय कई पी ढ़यों तक खोज करने क इस वै ा नक व ध को दी गई ं ‘‘ ा णों ने हर आने वाली पीढ़ी के म त क पर यह ाथ मकता को बताते है— ें









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भाव डाला क उ हे ं मानव चेतना पर पड़ने वाली व न के भावों का अ ययन सं ाना मक के ों का ख अदृ य के आ तिरक वण- थल क ओर करके करना है।’’ इन ाचीन शरीर-वै ा नकों ने शरीर क सं वद े नशीलता को नै तक मह व दया।7 योग क वै दक समझ का नधारण म त क और वषय-व तु क एकजुटता मे ं न हत है। श दों के साथ सं गीत के स म ण को लेनॉय ने ाचीन भारत के महान दाश नक च तन मे ं से एक कह कर स बो धत कया है।8

म जहाँ न त धता या है, म अ त व के ऐसे सू मतम तर से उ प होता है। क पनों के ठोस एवं व तु प मे ं अ भ य होने क खोज के प ात ऋ षयों ने मू ल ोत तक वापस लौटने क प तयों का भी पता लगाया। म ों के उपयोग ारा व भ कार क यान-योग णा लयों का वकास, परी ण तथा सारण कया गया ँ सके। अत: ता क इनका साधक चेतना क मू ल एक कृत अव था तक पहुच आ म ान क ा के लए सं कृत एक उ म मा यम है। यहाँ यह यान देना मह वपू ण है क म ों क खोज लगभग उसी कार क गई जस कार से आइं टाइन ने e=mc2 क खोज क थी। खोजे जाने से पहले भी वा त वकता अ त व मे ं थी। यही बात म ों के लए भी स य है ज हे ं ‘अपौ षेय’ (अथात अ य गत = अ ात ारा खोज) कहा जाता है। येक म उसके वा त वक खोजकता, परी क और माणक ऋ ष या स त के साथ जुड़ा हुआ है। ाचीनतम मौ खक माण व श ऋ षयों को प प से म ों के ा के प मे ं ना मत करते है।ं ी अर व द इन म ों क खोज क या के ं बारे मे ं बताते है— ‘‘ कसी म क खोज के लए ऋ ष कसी गुलाब के रं ग से ार भ कर सकते हैं अथवा कसी के चिर क सु दरता या श से अथवा कसी काय क भ यता से या फर इन सब से हट कर अपनी वयं क ही रह यमयी आ मा मे ं वेश कर उसक अ त गू ढ़ ग त व धयों के मा यम से। एक बात आव यक है क उसे उस श द अथवा छ व मे ं सी मत हो कर नहीं ब क उनसे परे उस काश मे ं जाना है, जसके ारा उस म का व प देखना स भव होगा तथा उस काश क बाढ़ मे ं उन सीमाओं को तब तक डुबोए रखना है, जब तक वे उसके म त य मे ं बह न जाये ं या अपने को म के य दशन मे ं खो न दे।ं उ तम तर पर वह वयं के लए अदृ य हो जाते है,ं ऋ ष का य व उस द य आभास के शा त वाह मे ं खो जाता है और सभी का भावाथ वहाँ अपने रह यों क स भुता क एक बात करते तीत होते है।ं ’’9 ं









इस कार सं कृत मू ल ोत क ओर वापस लौटने का अनुभवा मक माग दान करती है। मानव व नयों से आर भ कर उ प के ोत तक जाने मे ं सं कृत को हम अभ य से पहले क दशा मे ं उ टे प े ण के उपकरण के प मे ं उपयोग कर सकते है।ं मान ली जए क हम एक मौ लक क पन ‘क’ को खोजते हैं जसक मू ल व न ‘ख’ है जो ‘ग’ जैसी सू म व न बन जाती है जो आगे चल कर थू ल व न ‘घ’ मे ं बदल जाती है। तब सं कृत के मा यम से इस माग पर वापस लौट सकते है,ं जैसे हम ‘घ’ ( य व न) से शु करते हुए अपनी चेतना को ‘ग’ (सू म व न) से ले ँ सकते है।ं जाते हुए ‘ख’ (मू ल व न) और अ त मे ं ‘क’ (मौ लक क पन) तक पहुच यह प त व भ कार के अनु ानों, त व ा एवं यान व धयों क कई णा लयों का मू ल स ा त है। उदाहरण के लए मह ष महेश योगी ारा सखाए जाने वाले भावातीत यान (Transcendental Meditation) मे ं ‘बीज-म ’ क व न सव थम मौन अव था मे ं उ िरत हो कर धीरे-धीरे अ य सभी वचारों का थान ले लेती है। केवल म ही बचा रह जाता है। धीरे-धीरे यह म भी धीमा और म म पड़ कर अ त मे ं लगभग ँ जाता है। फर यह भी अपनी उप थ त का सू म फु सफु साहट के तर तक पहुच सं केत छोड़ते हुए लु हो जाता है। इस गहन न त धता क अ त-सचेत व-चेतना मे ं उ तम यान के अ भुत अनुभव होते है।ं मौन जप ारा य वापस मौ लक ोत पर लौट आता है। वै ा नक अनुस धान इस दावे का समथन करते हैं क बना उनका अथ जाने हुए भी वै दक सं कृत शा ों को पढ़ने एवं उ ारण करने से एक व श शारीिरक अनुभू त एवं मन: थ त उ प होती है।10 इस लए सं कृत के म कोई मनमाने ढं ग से बनाये हुए लोक नहीं हैं और न ही उ हे ं केवल वैचािरक स दभ मे ं समझना है। इन म ों क गहन स ाई उनके क पनों क कृ त मे ं है और ये क पन हमे ं चेतना के उन तरों तक ले जा सकते हैं जो भाषा से परे है।ं सं कृत म ों को बचपन मे ं ही क ठ थ करवाने (भले ही ब े को उसका अथ समझ मे ं न आता हो) का एक कारण यह है क उनके पू रे भाव और लाभ के अनुभव समय के साथ-साथ ही होते है।ं ी अर व द जसे ‘सं करण’ (involution) कहते हैं वही य के भावी वकास का आ या मक आधार है। म को य के भीतर बोया जाता है जो एक बीज के एक पेड़ के प मे ं वक सत होने क भाँ त फलता है। इनको दोहराने से ये य के शरीर के येक भाग मे ं क पन पैदा कर उसके अ दर उसी मू ल वा त वकता का पुन नमाण करते हैं जहाँ से इनक उ प हुई है (सं करण क इस मह वपू ण अवधारणा को पिर श ‘‘क’’ मे ं समझाया गया है)। ी अर व द बताते हैं क—‘‘म एक ऐसा श द है जसमे ं देवत व क श है तथा यह देव व को मानव चेतना एवं उसक कायप त मे ं था पत कर सकता है, अन त के रोमाँच और कसी परम श को जागृत कर सकता है व परम स य के गान के चम कार को थायी बना सकता है।’’11 ं ं ओं े े े ै ी

क वताओं के लेखन एवं पाठ से क पना क एक सं उड़ान जैसी एक आ ाद भरी खुशी मलती है। ऐसा ही पर तु और भी गहन अनुभव स भव है जब म ों के ँ ाने के मा यम हमारे कान बन जाते है।ं म ों का गान हमारी अ तरा मा तक पहुच च तन व न ऊजा- ोत के प मे ं कया जा सकता है। एक श द मा के उ ारण से एक वा त वक भौ तक क पन पैदा होता है और उस क पन के भाव क खोज उस श द से जुड़े अथ तक ले जाती है। इसके अ तिर भौ तक क पन और व ा के अ भ ाय मल कर अ तम पिरणाम को भा वत करते है।ं व न एक वाहक है और अ भ ाय इसे अ तिर श दे कर एक भाव पैदा करता है।12 म ों का उपयोग एक आ या मक सं कार और एक वशेष कार क चेतना क थ त लाने के लए कया जाता है। ये ऐसी व न आवृ याँ हैं जो एकदम सटीक अनु म मे ं इस कार था पत क जाती हैं ता क क पन क न हत श को जगा सकें। समय के साथ म ों के जाप का अ यास छोटे क पनों को न भा वत कर उ हे ं अवशो षत कर लेता है। एक अव ध के बाद (जो क साधक के अ यास पर ँ जाता है जहाँ और दू सरे क पन शा त हो जाते हैं नभर है) साधक उस तर तक पहुच और अ तत: वह अपने म मे ं न हत ऊजा एवं आ या मक गुणव ा के साथ पू री तरह से सामं ज य था पत कर लेता है। म ो ार करने वाले साधक का सू म पों मे ं पिरवतन हो जाता है। म के लाभकारी भाव न केवल साधक के ह से मे ं आते हैं ब क समू ची मानवता और ा ड के लए भी वयमेव अ जत हो जाते है।ं म जीव-भाव क ऊजा अथवा ाण को याशील करते है।ं कुछ आ या मक च क सक ाण-ऊजा को कसी रोगी मे ं ह ता तिरत करते है।ं यहाँ तक क ाणऊजा को वशेष अं गों पर भी के त करते हुए वयं - च क सा क जा सकती है जो बीमारी को दू र करने मे ं सहायक हो सकती है। म इस वा य या का एक ह सा हो सकते है।ं य द कोई य कसी बीमार अं ग को आ तिरक काश मे ं नहाए हुए क क पना करते हुए म का जाप करता है तो म वहाँ के त हो कर लाभकारी भाव छोड़ता है। इसी लए नवजात ब े को यानपू वक एक उपयु नाम दया जाता है ता क वह क पन के प मे ं नाम का समावेश अपने अ दर कर ले, जो समय के साथ नाम को दोहराने से सू म पों मे ं आ तिरक पिरवतन पैदा करे।

सं कृत क खोज योग के अनुभवों को सं कृत के अ तिर कसी और भाषा मे ं सही कार से तुत करना क ठन है, यों क जैसा ी अर व द ने उ ख े कया है क केवल 13 सं कृत मे ं ही वे अनुभव मब कये गये है।ं इस कार सं कृत ‘योग क भाषा’ है। सं कृत दशन मे ं कहा गया है क सं कृत क वणमाला मे ं जो ‘एका री व नयाँ’ हैं वे इस सृ क उ प का मू लाधार है।ं वा तव मे ं सं कृत क व नमाला भी वयं ो

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कृ त क वा त वकता को कट करती है। इस व नमाला क मू ल व न इसक अ भ य को दशाती है। अ य भाषाओं मे ं ‘ ह ू ’ (Hebrew) भी इसी तरह का दावा करती है। ह ू भाषा को प म मे ं एक ‘प व ल प’ के प मे ं मा यता दी जाती है और इसके अ रों के आकार एवं व न को ले कर कई रह यमयी पर पराएँ जुड़ी हुई हैं जनमे ं यह बल भावना है क इसके जो अ र ई र के नाम मे ं है,ं जसे लोक य प मे ं ‘यहोवा’ या या े ह कहा जाता है, इतने प व तथा आ या मक ऊजा से भरे हुए हैं क इ हे ं कसी धम नरपे स दभ मे ं उ खत अथवा उ ािरत नहीं कया जाना चा हए। हालाँ क यहू दी पर परा मे ं व न के ोत अलग कार से थत हैं और ल खत ल प के आकार एवं व प पर अ धक यान दया जाता है, जब क सं कृत का ल खत प बहुत बाद मे ं आया। दरअसल यह प प से एक मौ खक पर परा है। यहू दी मत क रह यमयी (और मु यधारा से दू र) था ‘कबला’ (Kabbalah) मे ं ही मु य प से इस भाषा और इसक व नयों क बारी कयों को समझा और जाना जाता है। इ लाम भी अरबी भाषा मे ं र चत कुरान के क पनों को वशेष बताता है (इसी कारण से कुरान को याद करना और पाठ करना अपने आप मे ं उनके मजहब क साधना णाली का मह वपू ण ह सा माना जाता है)। पर तु यहू दी और इ लामी पर पराओं मे ं मश: ह ू और अरबी भाषा को आमतौर पर एक बाहरी ई र ारा र चत माना जाता है जब क सं कृत मे ं ये व न क पन अपने आप मे ं ही ‘परम् स य’ है,ं ज हे ं ‘नाद’ कहा गया है और जहाँ से सृ क उ प होती है। यह मह वपू ण है क जस मौ लक व न/बीज म क चचा हम कर रहे हैं उसे हम ‘अ य भाषाओं के श द’ के अथ से अलग देख।े ं ‘श द’ को आमतौर पर गलती से अं ज़ े ी के ‘वड’ (word) के प मे ं अनुवा दत कया जाता है जब क यह सं कृत क सबसे छोटी व न इकाई ( व न ाम) है। ऐसे कई व न ाम सं य ु अनु म मे ं मल कर एक ‘श द’ बनाते है।ं सं कृत मे ं अलग-अलग अ रों अथवा व न ाम का अथ जानने के लए एक श दकोश है जसे ‘एका रकोश’ कहा जाता है। ‘श द’ कई वणमाला व नयों का स म ण है। अं ज़ े ी के मामले मे ं देखा जाये तो श दकोश ‘श दों’ का अथ दान करता है, पर तु ाथ मक व न ाम या अ रों का कोई अथ नहीं दया गया है। वे मानव पर परा ारा वक सत हुए है।ं तथा प सं कृत मे ं येक व न ाम के मू ल वर का समृ अथ है तथा साथ मे ं येक का चेतना पर वशेष भाव है। इस लए ‘श द’ (प व व न) क श मु दान करने जैसी है, यों क यह हमे ं परम चेतना क कृ त क अ तदृ से अवगत कराती है। बाइबल मे ं अ भ य पं , ‘सृ के आर भ मे ं श द था,’ सं कृत आधािरत दशनशा के अनुसार सृ के नमाण का सटीक वणन नहीं है। यह कहना अ धक सही होगा क ‘‘सृ के आर भ मे ं एक मौ लक व न थी जो व वध मू ल व नयों के प मे ं पहचानी गई और आगे अ भ य हो कर म त व नयों के अनु म के ै ों े ें ई े े

फल व प श दों के प मे ं कट हुई।’’ कहने का ता पय यह है क ‘श द’ के कट होने से पहले बहुत कुछ घ टत हुआ और श द के आकार लेने से पहले क यह क पन या म ों के यान एवं जाप करने वाले को वापस उस श द के मू ल मे ं ले जा सकती है। केवल सं कृत मे ं ही हम पाते हैं क येक श द को उसक मू ल व न मे ं व ले षत कया जा सकता है जो उसके मू ल और अथ को समा व करता है और जहाँ से वह उ प हुआ जाना जा सकता है।14 सं कृत के बारे मे ं ी अर व द लखते ं है— इसके येक वर एवं यं जन का एक व श एवं अपिरहाय बल है जो व तुओ ं क कृ त पर आधािरत है, न क वकास या मानवी चयन परय ये मू लभू त व नयाँ हैं जो ता क बीज-म ों क जड़ों मे ं थत हैं और म ों क भावकारी श का वयं गठन करती है।ं मू ल भाषा के येक वर- यं जन का एक ार भक अथ था जो कसी आव यक श से उ प हुआ तथा ये 15 ही अ य कई यु प अथ का भी आधार बने।’’

सं कृत एवं बहल ु तावाद

यों क सं कृत क येक बीज व न का अपना एक अलग अथ है, इस लए इनसे उ प होने वाले सभी श दों मे ं इनक व श पहचान दखती है। सै ा तक प से श दों का अथ, अ रों, श दां शों एवं धातुओ ं के बीजग णतीय सं योजन के अनुसार य कया जा सकता है। मू ल व नयों एवं श दाथ व ा क यही पारद शता एक वाभा वक वाह का अनुगमन करती है जो सं कृत को वयं के इ तहास क खोज करने क मता भी देती है। पिरणाम व प, सं कृत एक सतत् रचना मक भाषा है जसमे ं येक श द वचारों का सृ ा और रचनाकार है। ‘अ र’ का शा दक अथ ‘अ वनाशी’ अथवा ‘अन त’ है। ‘अ र’ एक शा त् व न है जो कभी न नहीं होती, अ पतु भाषा के पू ण रह य को य करती है। अ र को ‘वण’ भी कहा जाता है जसका अथ है ‘रं ग।’ इस कार येक अ र को एक व न के प मे ं सुना जाता है और अ भ य होने पर उसका एक प रं ग है। ऐसा कहा जाता है क ऋ षयों ने न केवल वेदों को सुना ब क उ हे ं देखा भी। ‘वणमाला’ के वा त वक अथ ‘रं गों क माला’ या वे गुण अथवा रं ग हैं जनसे च कार वा त वकता को च त करता है।

एक ही मू ल व न के व वध अनुभव उ हे ं एक दू सरे से बाँधने या जोड़ने के अनुसार मू ल व नयाँ व भ श दों को ज म देती हैं जनके अपने व श अथ, उन अथ के अपने आ ह और वशेष कार क बारी कयाँ हो सकती है।ं यों क येक श द क खोज एक समावेशी यौ गक ि

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अनुभव का पिरणाम होती है, इस लए ाय: मू ल व न या श द कई अथ को लए भी हो सकता है, यहाँ तक क वपरीत अथ को लए भी।16 इसे एक उदाहरण से प करते है।ं 17 मू ल व न ‘‘ द ’’ का अथ है एक त करना, ढे र लगाना इ या द। इसे हम ‘‘ द ’’ श द का अथ मां क 1 मान लेते है।ं एक त या सं क लत करने का अनुभव हमे ं वकास, वृ , समृ इ या द के अनुभव क ओर ले जाता है। इस लए मू ल व न ‘‘ द ’’ का अथ वकास, वृ या समृ भी होता है (अथ मां क 2)। जब चीज़े ं बढ़ती हैं तो ाय: वे कसी दू सरी व तु को ढँक लेती है,ं इस लए ‘‘ द ’’ का एक अ य मह वपू ण अथ है ‘आवरण’ (अथ मां क 3)। इसे और आगे बढ़ाएँ तो इस आवरण क या या हम छपाने, ढँकने, चपकाने अथवा ध बे लगाने के प मे ं भी कर सकते हैं (अथ मां क 4)। इसके अ तिर मू ल श द के साथ हम उपसग और ययों को जोड़ कर कई नये अथ का गठन कर सकते है।ं उदाहरण के लए सं कृत भाषा मे ं शरीर को ‘देह’ कहा जाता है जो क मू ल वर ‘‘ द ’’ से उ प हुआ है। ऐसा यों है? यों क देह एक आवरण है जो आ मा को ढँके रहता है (अथ मां क 5)। हम ‘देह’ श द के आगे इसमे ं एक उपसग ‘सं ’ को भी जोड़ सकते है।ं ) ‘सं ’ उपसग पू णता, सम ता एवं वीणता के अनुभव को स द भत करता है (जहाँ से अं ज े ी श द ‘SUM’ आया है)। इस कार, श द ‘सं -देह’ (सं + देह) का अथ है पू ण प से ढँकना या स देह करना (अथ मां क 6)। अथात् स देह क थ त मे ं मानव चेतना पू री तरह छु प जाती है, वा त वकता आवृत हो ँ र अँधरे ा और जाती है, स य छु प जाता है, कोई प दृ नहीं रहती तथा चहुओ उलझन होती है। ये सारे अथ मू ल व न ‘ द ’ के है।ं नीचे दया रेखा च दशाता है क—1) एक मू ल व न के व भ तरों पर कई अथ होते हैं जो अलग पर तु स ब धत अनुभवों के अनु प होते है।ं जब हम बारीक से इसका व लेषण करते हैं तो पाते हैं क ये सभी अथ आपस मे ं एक-दू सरे पर आ त है,ं एक-दू सरे से अलग नहीं। वे एक ही मू ल व न मे ं व वध तरों के अनुभवों का एक सम और स पू ण अनुभव रचते है।ं 2) इन व वध अथ मे ं से याकरण के नयमों के अनुसार येक के साथ दू सरे श दां श जोड़ कर नये श दों को ा कया जा सकता है।

हालाँ क सभी भाषाएँ पू ववत उपसग एवं ययों के सं योजन से नये श द गढ़ने मे ं स म है,ं पर तु सं कृत मे ं यह मता अ य धक ऊँचाई लए हुए है जहाँ यह या यव थत, पू वानुमय े एवं रचना मक है। जब मू ल व न का उपयोग कसी श द क रचना मे ं कया जाता है तो वह व न था पत स ा तों के अनुसार पा तिरत होती है। कसी वशेष ारा न मत नये श द पर अपना यान के त करके सुनने वाला य उस श द के अभी अथ क या या कर सकता है। इसका अथ यह है क सं कृत क वृहत श दावली खुली हुई एवं बेहद व तार करने यो य है। सं कृत को एक तरह से खुले वा तु श प क तरह देखा जा सकता है। नये श दों का नमाण (जब कसी वचार क अ भ य करनी हो) मू ल व न के उपयोग तथा श द गठन के नयमों का पालन करते हुए कया जाता है। उदाहरण के लए जब वै दक ऋ षयों को ‘भे ड़या’ श द के वचार को अ भ य करना था तब उ होंने ‘वृक्’ श द बनाया, जसका अथ मू ल सं रचना के अनुसार ‘चीरने वाला’ होता है। इस लए ‘वृक्’ श द का एक अथ ‘भे ड़या’ तो है ही, पर तु यह अथ इस श द के कई अ य अथ मे ं से एक है। जब क दू सरी ओर अं ज़ े ी मे ं wolf श द का अथ सफ़ एक जानवर को स द भत करता है, पर तु कोई ऐसा स दभ या सं रचना तुत नहीं ृ लाब पिरवार को ज म दे सके। अं ज़ करता जो श दों के एक पू री ं ख े ी भाषा मे ं उनक थाओं के अ तिर कोई मू लभू त कारण नहीं है जसके ारा कसी वशेष जानवर (अथवा कसी और व तु को) को एक वशेष व न ारा स द भत कया जा सके।18 भाषा व ा नयों ने पता लगाया है क हालाँ क सभी भाषाएँ एक ही तरह से काय करती है,ं पर तु फर भी एक मह वपू ण अ तर है—सं कृत भाषा के अ तिर अ य भाषाओं मे ं अ धकां शत: व न और व तु के बीच आर भक स ब ध का तु तकरण बड़े ही अ नय त ढं ग से कया गया है। इस लए श द व नयों के अ य अथ के साथ ज टल याओं के ारा स ब धत हो कर वक सत होते है।ं हम सं कृत के अ तीय गुण के बारे मे ं दावा कर सकते हैं क इसमे ं ार भक व न ाम- प स ब ध है, जसे ‘नाम- प’ भी कहा गया है जो परम स य क धा मक त वमीमां सा मे ं मक तरों के क पनों ारा भौ तक प से अ भ य होता है। यहाँ ै

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मह वपू ण न हताथ यह है क जैसे सभी मौ लक व नयाँ अ भ एकता मे ं अपने मू ल ोत से जुड़ी हुई हैं वैसे ही सभी अथ भी जुड़े हुए और एक-दू सरे पर नभर है,ं इस लए वा त वकता यह है क अ तत: इस ा ड क सभी व तुए ँ आपस मे ं अ वभा य ँ ा हुआ है, कुछ भी पृथक नहीं है। प से जुड़ी हुई है।ं सभी कुछ आपस मे ं गुथ ‘उपश द’ (पयायवाची) नरथक नहीं हैं सं कृत भाषा के रच यताओं के च ड सृजना मक वार के कारण इसमे ं यहाँ बहुत से श दों के बड़ी सं या मे ं पयायवाची है,ं कभी-कभी तो बीस से भी अ धक। एक पयायवाची श द कसी दू सरे का थान नहीं ले सकता। ऐसा न केवल पयायवा चयों मे ं सू मताओं के व श बदलाव के कारण है ब क सं कृत मे ं व श मू ल-श द- व न के स म ण के कारण भी। कई स भा वत समानाथ श दों मे ं से जो व तु के गुण के ववरण को सबसे सटीक बताता हो उसे ही चुनना चा हए। समानाथ श दों क सू ची के येक श द के गहन व लेषण से पता चलता है क व भ समानाथ श द एक ही व तु को व वध कार से अनुभव करने के तरीके है,ं इस लए येक पयायवाची का एक व श एवं न त अथ है। अगले पृ पर जो रेखा च ं एवं उदाहरण दये गये हैं वे इस वचार को और भी प करते है—

पछले दोनों रेखा च आपस मे ं एक-दू सरे के पू रक है।ं पहले वाले रेखा च मे ं एकल मू ल व न से व वध अनुभव ा होते हैं और येक अनुभू त हमे ं उन व श अनुभवों वाले श दों क ओर ले जाती है। जब क दू सरे च मे ं एक ही श द के कई पयायवाची हैं जनमे ं से येक को व भ मू ल व नयों से ा कया गया है और इस लए येक का स दभ और सू म-भेद भी अलग-अलग है। उदाहरण के लए सं कृत के श दकोष ‘अमरकोष,’ जो समानाथ श दों को ं अ न, सू चीब करता है, मे ं ‘अ न’ के लए ही चौंतीस श द दये गये है।ं ये है— वै नरा, व , वतहो , धनं जय, प यो न, वालना, जातवेदा, तनुनापत, ब हस, सुषमा, कृ णवतमा, शो चकेशा, उषबुध, आ याशा, बृहदभानु, कृषाणु, पावक, अनल, रो हता , वायुसखा, शखावन, आशुश ु णी, हर यरेतस, हुतभुक, दहन, ह यवधन, स च, ीमुन, शु , च भानु, वभावसु, शु च एवं अ पतम। फर भी ै े ं े ोई ी ीं ै ों े ो

इनमे ं से कोई भी नरथक नहीं है, यों क येक एक व श गुण को हण करता है। उदाहरण के लए ‘व ’ श द, ‘वाह’ (ले जाना) के मू ल से आया है, का अथ हुआ ‘ले ं कये जाने वाले साद को य जाने वाला’—इस लए यह श द देवताओं को भेट करने के लए उपयोगी है; ‘ वलना’ श द क उ प मू ल श द ‘ वाल’ (जलाना) से हुई है और इसका अथ है ‘जो जल रहा है’; ‘पावक’ श द क उ प ‘पु’ (शु करना) मू ल से हुई है और इसका अथ है ‘जो शु करता है;’ ‘सुषमा’ का मू ल है ‘सुष’ (सुखाना) और इसका अथ है ‘जो सुखाता है;’ ‘अनल’ का अथ है ‘अपया ,’ यानी आग के सामने कुछ भी पया नहीं है जो अ न क भ ण कृ त को बतलाता है।19 एक स म लेखक को यह तय करना है क ‘आग’ के इन समानाथ श दों मे ं से, दये गये स दभ मे,ं कौन-सा सवा धक उपयु है। सं कृत मे ं य वाचक सं ाओं को ाय: न त वणन क तरह देखते है।ं ी व णु के एक हज़ार नाम ( व णु सह नाम) पुराणों मे ं उ खत उन से स ब धत व भ घटनाओं पर काश डालते है।ं रामकृ ण मशन के ों मे ं ी राम पर एक रचना का गायन कया जाता है जसक रचना वाराणसी मे ं हुई थी तथा जसमे ं उनका अनु मक न त वणन उनके जीवन इ तहास को च त करता है। इस कार हम पाते हैं क सं कृत का येक अ र एवं अ रों के अनु म पर बना येक श द अथ से भरा हुआ है तथा एक ासं गक त मे ं एक गाँठ के प मे ं काय करता है।

सं कृत और स दभ अपनी व श सं रचना के कारण सं कृत शा ों क या या कसी दये गये स दभ मे ं ही क जानी आव यक है। वषय-व तु को स दभ से अलग नहीं कया जा ं सकता या पू ण अथ नहीं लगाया जा सकता। ए.के. रामानुजन कहते है— ‘‘19वीं सदी तक कोई भी भारतीय वषय बना स दभ के नहीं होता था। इनका नमाण ‘फल ु त सं हता’ पर आधािरत होता है जो पढ़ने, मनन करने अथवा सुनने वाले य को यह बताता है क पढ़ने, जाप करने अथवा सुनने ं ।े वे कतने भी ाचीन थ को वतमान पर उसे कौन-से अ छे पिरणाम मलेग पाठक क मन: थ त के अनुसार ासं गक बना देते है।ं ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के ार भक सं ग हमे ं यह बता देते हैं क कस लए और कन पिर थ तयों मे ं इन थों क रचना हुई थी। ऐसी येक कथा एक अ य वृहद-कथा मे ं लपटी है। उस थ के भीतर एक कथा है जो दू सरी कथा के लए एक स दभ बनती है; न केवल बाहरी ढाँचे क कथा आ तिरक उपकथा को िे रत करती है ब क आ तिरक कथा बाहरी को भी का शत करती है। यह ाय: स पू ण थ के लए एक सू म तकृ त के प मे ं काय करता है।’’20 ों







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श दों का सही उ ारण भी उनके अथ मे ं मह वपू ण भू मका नभाता है तथा भारतीय पर परागत मौ खक सारण मे ं इसे अ य धक मह व दया गया है।21 वर के उतार-चढ़ाव और ज़ोर देने के पिरवतन से समू चा अथ ही बदल सकता है।22 लयब वर पाठ ने भी भाषा को एक स प सं गीतमय गुणव ा दान क है, इसी लए ाचीन भारत क मौ खक पर परा वाले ऋ ष-मु नयों ने इन थों को सुर त रखने के लए न केवल अ रों-श दों को ब क न त वरो ारण एवं लयब पाठ को भी मह व दया। इस व ध ने वेदों, उप नषदों एवं अ य शा ों- थों को उनके मू ल अथ और अ भ ाय के साथ सुर त रखना स भव बनाया। पिर थ त, य , उ अनुभव और व ा का अ भ ाय भी स दभ को उपल ध करवाते है।ं एक लोक अथवा पं के कई अथ हो सकते हैं और कथाएँ एक-दू सरे मे ं लपटी हुई होती है।ं त भ कथा ोताओं के अनुसार अपनी पुनरावृ -दरपुनरावृ मे ं अलग होती है और इस लए भ - भ स दभ तैयार कये जाते है।ं ु ं के जीवन का उदाहरण के लए कुछ जैन क वताओं मे ं सात अलग-अलग भ ओ वणन कया गया है। य द इन क वताओं का कसी ग़ैर-सं कृत आधािरत भाषा मे ं शा दक अनुवाद कया जाये तो वे नरथक और असं गत तीत होगीं। ासं गक प से नधािरत अथ वाले कसी श द को जब उसके कई अथ मे ं से केवल एक ही अथ तक सी मत कर दया जाता है तो यह बीजग णत क चर रा श को एक व श अचर रा श के गुण मे ं नधािरत करने जैसा है, जस कारण चर रा श क उपयो गता ही ख म हो जाती है। येक श द केवल एक अथ मे ं न हो कर समू चे वण म का तीक है। उदाहरण के लए ‘ लं गम्’ श द को ाय: गलत अथ मे ं समझा जाता है, यों क इसे केवल एक अथ/गुण मे ं सकोड़ कर उसी को लं गम का सार मान लया जाता है। इसका ‘ लं ग’ के प मे ं गलत अनुवाद करके इसका उपयोग प मी सं वाद मे ं नदशक क तरह कया गया है।23 हालाँ क ‘ लं गम्’ श द के अथ मे ं तीक, च , थान, सं केत, ँ है’’ वा य मे ं ब ा, ल ण और उभय लं ग भी है।ं ‘‘वहाँ आग है यों क वहाँ धुआ ँ धुआ लं ग का तीक ही है। यापक प मे ं यह एक सं केतक अथ मे ं है जो वयं के अ तिर कसी और चीज़ को इं गत करता है। अमरीक वज, वत ता क मू त (Statue of Liberty) तथा अमरीका का रा ीय गान सभी अमरीका के लए ‘ लं ग’ है,ं फर भी वे नरथक नहीं हैं यों क वे अमरीका के व भ पहलुओ ं को दशाते है।ं कसी क पनी का च उसका ‘ लं गम्’ है और उस क पनी के कई लं ग हो सकते है।ं अथ भी समय के साथ बदल जाते है।ं इस लए न त, थर एवं स मू यों पर ज़ोर देना अथ को यू नकारी एवं वकृत करने जैसा है। सं कृत दोनों कार क चरम सीमाओं से बचती है—चाहे एक ओर पिरशु ता-पू ण हो अथवा दू सरी ओर अ नय मत एवं मनमाने तरीके हों—सं कृत एक ो





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दभ-र हत याकरण थर ढाँचा कार से ों



क यू टर क ो ा मं ग भाषा के प मे ं काय करती है जो था पत नयमों एवं याकरण के सहारे अन गनत कार क योजनाओं को ज म देती है। पिरणाम व प, ववरण क सभी या याओं को एक ‘आ धकािरक’ सं करण मे ं ढालने क कोई ववशता नहीं होती (जैसा क एक व तारवादी पर परा को अपनी पर परा समान प से फैलाने के लए आव यक है)। उदाहरण के लए भारत मे ं रामायण कई सं करणों एवं पा तरों मे ं पाई जाती है। न ही भारतीय सं कृ त मे ं व भ गु ओं क वं शाव लयों या व भ अवतारों के ववरणों अथवा अतीत क अ य घटनाओं को एक ऐ तहा सक काल म मे ं सं यो जत करने क आव यकता महसू स क गई है जसे सभी को मानना पड़े । सं कृत रचनाओं के लेखक एवं सं कलक ( यास) वै दक सं हों को पुन:स द भत करते हुए येक युग के लए उ हे ं नये सरे से स पा दत करते है।ं 24 कसी शा को भारतीय श द मे ं ‘ थ’ कहा जाता है जो ताड़ के प ों को पु तक के प मे ं बाँधने वाली गाँठों को स द भत करता है, जो इस बात का सं केत है क व भ भागों क भौ तक एकता समय वशेष के पाठक के पिरवेश के स दभ से वत कसी कार का नणायक सं करण ग ठत नहीं करती। यह उस प मी पर परा से प प से भ है जहाँ येक पा वषय को ‘धमवैधा नक सं करण’ मे ं ढाल दया जाता है, यों क यही तब पिरशु सं करण माना जाता है। भारतीय शा ों मे ं व भ स दभ-आधािरत त प हैं तथा इस कार र चत शा ों का व प सं कृ त क अ य पर पराओं के अनु प तैयार कया जाता है। देखने मे ं कसी देवता क कोई व श ‘स य’ मानी जाने वाली था पत छ व नहीं पाई जाती। ं ‘‘अ तत: अर तू वादी अथ वाली एकता नहीं ब क रामानुजन लखते है— सामं ज यतापू ण होना मह व रखता है।’’25

सं ानक—स दभ का ह सा स दभ को उसके अनुभव करने वाले य से अलग नहीं कया जा सकता।26 कता और कम का यह अ तस ब ध बहुत यापक है। भारतीय का य पिरदृ यों को वन प तयों एवं जीवों और य परक भावनाओं ारा व भ स दभ मे ं वग कृत कया जाता है जसे रामानुजन ने, ‘‘ऐसा पािर थ तक य त जसमे ं य क 27 ग त व धयाँ और भावनाएँ उसका अं ग है,ं क सं ा दी है। पिरवेश से व ा क एकता सं कृत क उस सहजता मे ं मा णत है जहाँ या को कता और कम के - वभाजन के हुए बना य कया जाता है। ाचीन ऋ ष जानते थे क व ा कता नहीं केवल साधन मा है। सं कृत क सं रचना इसी च तन पर आधािरत है और भाषा मे ं इसक जाग कता होने से अकता थ त क अनुभू त क जा सकती है। अ धकां श भाषाओं मे ं कमवा य श द सकमक यायों के उपयोग े ी

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से ही स भव है,ं ले कन सं कृत मे ं कमवा य अ भ य अपने आप मे ं ाकृ तक एवं मा य प त है और सकमक तथा अकमक दोनों कार क याएँ कमवा य हो सकती है। ‘अहं हसा म’ (मैं हँसता हू )ँ कहने क अपे ा ‘मया हा यते’ (हँसने क या का दशन कया जा रहा है) कहना सं कृत मे ं ब कुल भी अनुपयु नहीं माना जाता। इस तरह कता क अपे ा याप त एवं काय पर अ धक बल दया गया है। इसके वपरीत अं ज़ े ी भाषा मे ं या मे ं कता ारा कये जा रहे काय पर बल देते हुए कतृवा य को वरीयता दी जाती है। दृ कोणों क भ ता यह द शत करती है क एक मान सकता (अं ज़ े ी) काय पर एवं दू सरे पर नय ण था पत करना चाहती है, जब क दू सरी मान सकता (सं कृत) उस काय के लए कसी को य े क अपे ा ही नहीं रखती। य परक तथा व तु न स दभ के बीच अ तस ब धों का एक उदाहरण ‘वृ दार यक उप नषद’ (5.2) तुत करता है। जाप त ारा तीन भागों मे ं क गई तीन श दों ‘दा, दा, दा’ क व न गजना तीन समू हों के लए अलग-अलग अथ लए हुए है—आन द के उपभो ा देवताओं ने इस पहले ‘दा’ श द को सुना जसका अथ है ‘द यता,’ अथात् ‘ नय ण’। ू र कृ त वाले असुरों ने इसे सुना ‘दया वम्’ अथवा ‘दयालुता’। लालचीवृ त वाले मनु यों को यह श द दू सरों को ‘दान’ देना सुनाई दया। इस कार जैसा बदलाव जाप त सुनने वालों मे ं लाने क इ छा रखते थे वैसे ही इस श द को अलग-अलग अथ मे ं सुना गया।28

रह यवाद एवं बाहरी द ु नया चेतना क उ अव थाओं मे ं ऋ षयों ने बाहरी वषय-व तुओ ं क कृ त के बारे मे ं खोज क । इस खोज से उ हे ं भौ तक सं सार मे ं यावहािरक वग करण णाली वक सत करने मे ं सहायता मली। इसका एक उदाहरण ाचीन भारत मे ं पौधों के यापक वग करण मे ं मलता है। 1795 मे ं का शत व लयम जो स के मू यां कन के अनुसार यह वग करण प मी वन प त ों ारा उपयोग कये जाने वाले लै टन आधािरत वग करण क तुलना मे ं कहीं अ धक उ त था। जो स लखते है,ं ‘‘मैं भारतीय पौधों को उनक साथक भारतीय उपा धयाँ देने हेत ु लाला यत हू ,ँ यों क मुझे पू रा व ास है क य द ख़ुद लनेयस (Linnaeus) को इस ाचीन और व ापू ण भाषा का ान होता तो उ होंने वयं इसी भारतीय वग करण को अपनाया होता...।’’29 ह दू दशन शा के अनुसार सृ के येक त व मे ं चेतना होती है, जो इसका के या मू ल क पन है। इसी स ा त के आधार पर ाचीन भारतीय च क सकों एवं वन प त ों ने पौधों का अ ययन कया। उ होंने अ त ान क खोज के साथ-साथ ‘परी ण’ (मान सक जाँच) का भी सहारा लया ता क उनके यव थत ान क पुनसमी ा समकालीन वशेष ों ारा हो सके।30 ाचीन थों मे ं उपल ध पौधों के हज़ारों नाम इसी अ तदृ क अ भ य है।ं उनके सार- प क अनुभू त उनके े ीं ई ी ें ों े ें े ी ौ े

नामकरण से अलग नहीं हुई थी। आयुवद मे ं नामों से हमे ं न केवल कसी पौधे क भौ तक सरं चना के बारे मे ं पता चलता है ब क उसके औषधीय गुणों के बारे मे ं भी जानकारी मलती है। ाचीन भारतीय वै अथवा च क सा वै ा नक योगशाला के माणों और नरी ण सु वधाओं के बना ही ( जन पर आज का योगा त व ान नभर है) वन प तयों के सटीक गुणों तथा उनके बहुआयामी पहलुओ ं का पता लगा सकते थे।31 सं कृत, आधु नकता एवं उ र आधु नकता 1700 के अ तम वष मे,ं अथात् जो स के समय से ही, सं कृत के व ानों ने प मी श ा सं थानों मे ं भाषा व ान के सृजन मे ं अपना योगदान दया है। औप नवे शक भारत वदों ने ‘पा णनी’ याकरण के यू रोपीय अ ययन को एक मह वपू ण सफलता माना। यू रोप मे ं सं कृत के व ान आधु नक भाषा व ान को एक शै क अनुशासन के प मे ं था पत करने वाले ार भक वकासकता थे। ं द सॉ युर (Ferdinand de प मी सं रचनावाद के जनक माने जाने वाले फ़ डनेड Saussure: 1857-1913) ने अपना शै क जीवन पेिरस मे ं पा णनी सं कृत याकरण के अ ययन और अ यापन मे ं बताया। सॉ युर क पीएच.डी. क उपा ध सं कृत क सं य ु म या प त पर आधािरत थी, जसने आगे चल कर यात मानव- व ानी लॉड लेवाई- ॉस (Claude Levi Strauss: 1908-2009) को भा वत कया। लेवाई- ॉस सॉ युर के काम से भा वत होने वाले बहुत से प मी वचारकों मे ं से एक थे। सॉ युर क मृ यु के प ात उनके श यों ने उनक या यान ट पा णयों को मरणोपरा त का शत कया, ले कन उनमे ं से सं कृत, पा णनी और भारतीय शा ों के सभी स दभ को बड़ी सफ़ाई से हटा कर उनके थान पर आधु नक यू रोपीय भाषाओं से स ब धत सामा य एवं सावभौ मक स ा तों को लागू कर दया! इसमे ं न हत सं कृत दाश नक स ा त सं रचनावाद (structuralism) के नाम से जाना गया जसने यू रोपीय कला, समाजशा , इ तहास, दशनशा एवं मनो व ान मे ं ा तकारी पिरवतन लाया। सं रचनावाद का वचार ही उ र-सं रचनावाद का, जो उ र-आधु नकता का सू म दशन है, अ दू त था।32 बीसवीं सदी तक प म के मुख व व ालयों मे ं भाषा व ान मे ं पीएच.डी. करने वाले व ा थयों के लए पा म मे ं सं कृत का होना आव यक माना जाता था। एक ल बी अव ध तक श ा सं थानों मे ं सं कृत का ती ता से अ ययन करने (और प म ारा क गई इसक खोज के दो शता दयों बाद) के बाद ही भाषा व ान को पया तरीके से यू रोपीय व प दे कर इसे सं कृत से अलग कया जा सका। अमरीक क व टी.एस. इ लयट (T.S. Eliot: 1888-1965) उन कुछ प मी वचारकों मे ं से एक थे ज होंने सं कृत क श और भारतीय धा मक पर परा के े ों ो ों े ें ं

साथ इसके स ब धों को समझा। उ होंने हारवड (Harvard) मे ं सं कृत का अ ययन कया, जहाँ पर यह दशनशा के पा म का एक अ नवाय भाग थी। पर तु अ तत: अपने सां कृ तक पालन-पोषण एवं मान सकता के पिरणाम व प वे ह दू या बौ धम को अपनाने से परहेज करते रहे। फर भी ई लयट ने सं कृत के बारे मे ं अपनी अ तदृ एक मुख क वता ‘द वे ट लै ड’ (The Waste Land) मे ं य क है, जसमे ं न केवल उ होंने ‘दा’ व न ाम ( जसका उ ख े ऊपर कया गया है) के व वध अथ का अ वेषण कया ब क अपनी क वता का अ त शा त: शा त: शा त: के म ारा भी कया। उ हे ं पता था क सं कृत श दों का अं ज़ े ी मे ं उपयु अनुवाद नहीं कया जा सकता, इस लए उ होंने इस म का अनुवाद करने का यास नहीं कया। अपनी पु तक ‘‘टी.एस. इ लयट ए ड इं डक े डशं स’’ (T.S. Eliot and Indic Traditions) मे ं लयो के ्स (Cleo Kearns) प करती हैं क क व के भारतीय उप नषदों एवं वै दक शा ों के अ ययन से ही उ हे ं सं कृत भाषा के के मे ं थत ास, व न एवं न त धता के बारे मे ं आभास हो सका। ई लयट समझ चुके थे क कसी म का भाव केवल उसके अथ पर ही नभर नहीं करता, ब क उस म के सटीक उ ारण एवं उससे जुड़ी हुई ास लेन-े छोड़ने क तकनीक पर भी। हालाँ क ई लयट ने यह नाम नहीं लया, पर तु वे ‘म श ’ का ही उ ख े कर रहे तीत होते हैं जब उ होंने लखा क ‘सं कृत भाषा श दां शों एवं लय-ताल मे ं काम करती है जो येक श द को फू त देते हुए चेतना तर के वचारों और भावनाओं के बहुत अ दर तक जाती है; वे ाचीनतम और व मृत हो रही भाषा के मू ल मे ं जा कर आर भ और अ त को खोजते हुए कुछ ले कर आते है।ं यह भाषा अथ से जुड़ी हुई अव य है पर सामा य समझ मे ं यह अथ से परे ही है’।33

सं कृ त ही भारतीय धा मक स यता भारतीय धा मक स यता को जोड़ने वाला मू ल आधार सं कृत है जसने इसे गहराई से न मत कया है। यु प शा के स ा त के अनुसार सं कृत का अथ है ‘ व तृत,’ ‘पिर कृत,’ ‘शालीन’ और ‘स य’ जो अ भ य क पू णता क ओर सं केत कराता है। पिर कृत और श त लोगों ारा सं चार- यव था का चय नत साधन बनने से सं कृत ने एक व श सां कृ तक णाली और सं सार का अनुभव लेने के तरीकों को भा वत कया। ‘सं कृ त’ श द ऐसी ही स यता और चलन के लए उपयोग कया गया है (इस श द को ‘सनातन धम’ क या या हेत ु भी उपयोग कया जा सकता है) जसने आधु नक भारत क सीमाओं को पार कर द ण ए शया, द णपू व और पू व -ए शया के अ धकां श भागों को भा वत कया। व भ े ों के पार पिरक स ब धों के कारण इस अ खल-ए शयाई सं कृ त मे ं वकास और पिरवतन हुए। ँ



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हालाँ क आमतौर पर ए शया मे ं सं कृत अब बोली नहीं जाती, पर तु फर भी यह द ण और द ण-पू व ए शयाई स यताओं का एक ठोस आधार बनी हुई है। इस कार जो लोग इस भाषा को नहीं भी बोलते हैं वे भी इसक सं रचनाओं एवं स ा तों को अपनी ‘सं कृ त’ मे ं अनुभव कर सकते है।ं सं कृ त, मानव व ान, कला, वा तुकला, लोक य गीतों, शा ीय सं गीत, नृ य, नाटक, मू तकला, च कला, सा ह य, तीथया ा, धा मक अनु ानों एवं धा मक आ यानों क श ा और उनका भ डार है जसमे ं अ खल-भारतीय सां कृ तक ल ण दखते है।ं यह ाकृ तक व ान एवं तकनीक क सभी शाखाओं जैसे च क सा, वन प तशा , ग णत, अ भया क , वा तुकला, आहार व ान इ या द को समा व करती है। पा णनी क याकरण इसक वल ण उपल धयों मे ं से एक है। यह प ता, लचीलेपन और खरता क एक ऐसी मू ल भाषा है जो आधु नक सं गणक व ान के कई वतकों के लए सुझावों का ोत बनी हुई है। सं कृत को भारत के कुछ मु लम शासकों ने भी अपना सं र ण दान कया ज होंने अपने पुरालेख प ( वशेषकर बं गाल और गुजरात मे)ं इस भाषा मे ं लखवाये थे। यह सं कृत का वै ा नक और धम नरपे पहलू ही था जसने अरब देशों मे ं भारतीय व ानों को वै ा नक चचाओं और अपनी पु तकों का अरबी भाषा मे ं अनुवाद करने के कये बगदाद मे ं सादर नम त कया।

सं कृत महान एवं लघु दोनों पर पराओं को एकजुट करती है महान भारतीय क व का लदास (सन् 600) के समय तक सं कृत व जनों क चहेती भाषा बन चुक थी और उनके वचारों तथा कलाकृ तयों मे ं पिरल त होती थी। यह एक जीव त भाषा क तरह व भ े ों मे ं फली-फूली, पर तु इसके बाद भारत पर सै य एवं राजनै तक वजय अ भयानों क वजह से पहले फ़ारसी और फर अं ज़ े ी ने सं कृत पर हण लगा दया। इस कार सं कृत ए शया के एक बड़े भू -भाग के आ या मक, कला मक, वै ा नक एवं धा मक अनु ानों क स पक भाषा थी और आज क अं ज़ े ी क तरह थानीय भाषाओं को बोलने वालों के आपसी सं चार का एक उपयोगी मा यम थी। इसके अ तिर सं कृत थानीय भाषाओं के साथ पर पर दो-तरफा स ब त थी। सं कृत क व श सं रचना ऊपर से नीचे थानीय ँ ती थी। इसके साथ ही सं कृत के लचीलेपन और खुली सं रचना से भाषाओं मे ं पहुच थानीय सं कृ त और भाषा उसमे ं आ मसात हो जाती थीं। इन दो सां कृ तक धाराओं, मश: महान और लघु पर पराओं के आदान- दान से सं कृ त फली-फूली। यौहारों एवं धा मक अनु ानों ारा पर पर स ब ता का जाल बुना गया था और व ानों ने इनके ारा एक दू सरे पर थानीय भाषाओं और सं कृत के पार पिरक भाव को समझा। ए शया क बहुत-सी व वध भाषाओं ारा सं कृत एक मू ल-भाषा और े णयों क परेखा क तरह उपयोग मे ं लाई गई। उ कृ सं कृ त एवं स य ी



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शहरी समाज ( जसे मानवशा मे ं महान पर परा कहा गया है) ने सामा य सं कृ त को पिर कृत एवं यापक व प दान कया, जब क ामीण जन-साधारण समाज (लघु पर परा) ने इसे लोक यता, जीव तता तथा दृ कोण मे ं व वधतायु बनाया। जब एक बार थानीय या े ीय सां कृ तक ल णों को सं कृत मे ं अ भ ल खत कर म वत् ढाल दया जाता है तो वे सं कृ त के अ भ अं ग बन जाते है।ं इसके वपरीत जब सं कृ त के त वों को थानीय े ीय पहचान या रं ग दे दया जाता है तो वे एक व श थानीय पहचान और रं ग हण कर लेते है।ं द ण और द ण-पू व ए शया क व वधता मे ं एकता इसी परेखा को त ब बत करती है। इसके अ तिर सं कृत और थानीय भाषाओं के बीच स ब धों तथा सं कृ त क सवसामा य सां कृ तक सं रचना के कारण यह आव यक नहीं है क उसमे ं समाये हुए मू यों और उनके अथ क े णयों को समझने के लए सभी को सं कृत का ान हो ही। इसी तरह थानीय भाषा के व ा क भी सं कृ त के सां कृ तक साँचे के ँ होगी। अ तगत उसके वचारों, मू यों एवं े णयों तक पहुच शा ीय पर परा (औपचािरक शा ीय ान) और लोक-पर परा (लोक य और अनौपचािरक मौ खक ान) के बीच एक समृ सहजी वता है। वा तव मे ं लोकपर परा को भारतीय शा ों जैसे ना शा और आयुवद सा ह य मे ं सु दर ढं ग और स मान के साथ वीकृ त दी गई है। इन सभी सं कृ तयों एवं ान णा लयों मे ं एक नर तरता बनी हुई है। बहुत-सी आ दवासी थाएँ और िरवाज म दरों मे ं अनुसरण होने वाले मु य री तिरवाजों मे ं समाये हुए है।ं उदाहरण के लए पुरी के जग ाथ म दर मे ं मु य मू तयाँ न स देह आ दवासी पां कनों ारा य क गई हैं और ऐसा ही सम वय मदुराई के मीना ी म दर मे ं भी पाया जाता है। अमरीकन मानव व ानी मै म मैिरयट (McKim Marriott) तथा िरचड लेनॉय (Richard Lannoy) दोनों ने ट पणी क है क ‘लघु पर पराओं’ और ‘महान पर पराओं’ के बीच पार पिरक स ब ध है,ं अथात् वे आपसी स भावना के साथ पार पिरक प से एक-दू सरे पर नभर है।ं 34 मैिरयट के अनुसार लेन-देन क पार पिरक या एक ‘ पं ज’ क तरह काम करती है, जससे ऊपर और नीचे क ओर दोहरी ग त व ध उ प होती है। ऊपर वाली महान पर परा को ामीण लोक सं कृ त के उभरते त वों ने पो षत कया जब क नीचे वाली ग त व ध से सावभौ मक, आमतौर पर ा णों क शहरी सं कृ त सािरत हुई।35 पुराण भारतीय सं कृ त को कुलीन वग के अ तिर दू सरे वग मे ं भी फैलाने के मा यम थे और कथाओं मे ं समाये आ या मक स देशों को सािरत करने के साथसाथ एक ाचीन लोक य सं कृ त क तरह भी जाने जाते थे। वजय नाथ क पु तक ‘‘पुराण एवं सं कृ त सं मण’’ (Puranas and Acculturation)) यह बताती है क पुराणों ने व भ सामा जक तरों, जा तयों, धा मक स दायों एवं पार पिरक ी

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भारतीय भू -भागों को ऐसी प त से जोड़ा जो वके ीकृत एवं लचीली थी।36 ये त व सामा जक ग तशीलता का उपकरण बने ज होंने जनजातीय लोगों को बड़ी सं या मे ं समाज मे ं ा णों के समान वेश करने हेत ु स म बनाया। पुराणों क रचना अलग-अलग स दयों मे ं होती रही थी। इनका न तो कोई व श मू ल ज म थान है और न ही इनक रचना कसी वशेष लेखक ारा क गई। व भ सं कलकों ने वके त तरीके से इन पुराणों को सं क लत कया। आर भक चरणों मे ं लेखक गहन वै दक ान एवं सा ह यक कौशल लए तीत हुए और इ होंने ग तशील शैली के सं कृत सा ह य के प मे ं पुराणों को सं क लत करने क दशा व भू मका नधािरत क । बाद मे ं इस या को एक बड़े यापक समू ह मे ं आगे बढ़ाया गया जो कहानी सुनाने मे ं तो वीण थे पर तु वै दक यो यता मे ं उतने कुशल नहीं थे। मू ल थान से दू र थ े ों मे ं वासन के कारण थानीय एवं वासी लोगों के बीच नये कार के सां कृ तक आदान- दान क आव यकता हुई। वासन के इस वाह का भाव दोनों ओर था। नीचे से आया हुआ भाव आ दवासी समुदायों मे ं अभी भी च लत सामू हक गायन और धा मक कृ यों मे ं प दखता है। व वध समुदायों और भाषाओं मे ं पार पिरक स पक, अलग-अलग देवताओं, प तयों, कथाओं, थानीय म दरों और तीथ के मा यम से होता था जो आगे चल कर पौरा णक कथाओं का अं ग बन गये। इस या मे ं कई थानीय यावसा यक एवं श पकारी समू हों के सं र क देवी-देवताओं को मा यता ा हुई। ‘आगम पर परा’ (ता क प त) के अनु ान मह वपू ण बने और व श दी ा ारा गु - श य पर परा को औपचािरक बनाने वाली प त को भी वीकृ त मली। मथकों के लचीले ढाँचों का उपयोग ग़ैर-वै दक प त वाले देवी-देवताओं को आ मसात करने के लए भी कया गया तथा समय के साथ इन देवी-देवताओं को वै दक पर परा मे ं स म लत कर लया गया। इस या से वेदों मे ं कुछ अनाम देवताओं ने स ा क । उदाहरण के लए गणेश एवं का तकेय जैसे सामा य देवताओं को भी वेदों क मु यधारा मे ं आ मसात कर लया गया।37 शव के मामले मे ं उनके पिरवार के देवताओं का व तार करने के लए ‘य ’ और ‘ त े ों’ को सेवकों (गणों) के प मे ं स म लत कया गया।38 पुराणों ने बड़ी सं या मे ं व भ तीथ एवं प व थलों को लोक य बनाया। पुराणों मे ं मा यता ा तीथ थान को एक ऐसे प व थल के प मे ं माना जाता था जहाँ आ या मक शु के लए वशेष श याँ होती थीं। धीरे-धीरे इन तीथ थलों ने वै दक य (अनु ानों) का थान लेना ार भ कर दया।39 ऐसे धा मक सं कार कसी वशेष वण (सामा जक वग) तक ही सी मत नहीं थे और ये कुछ औपचािरक धा मक अनु ानों से भी अ धक लोक य बन गये। जस तरह कोई लोक य पयटन थल थानीय स ा सं रचना एवं अथ यव था पर गहरा भाव छोड़ता है उसी कार ऐसे तीथ थलों क लोक यता मे ं हुई वृ से थानीय राजनै तक मुख एवं यवसायी लाभा वत हुए। दू र थ थत समुदाय के लए अपने तीथ थान मे ं तीथया यों का े





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दू र-दू र से आना गौरव और मह व का वषय बन गया। पुराणों ने भी म दर नमाण को आगे बढ़ाया, यहाँ तक क म दर वा तुकला एवं योजना के नयमों के सबसे पहले शा वे ही थे।40 थानीय आ दवासी समुदायों क नयु ाय: म दर मे ं मह वपू ण कायकताओं के प मे ं क गई और इससे भारत के दू रदराज े ों मे ं ‘म दरआ दवासी गठब धन’ को मजबू त बनाने मे ं सहायता मली। पुराणों ने कई थानीय भ ताओं को समा व करके धम क ासं गक कृ त को समृ कया।41 इस या और च लत ईसाई सां कृ तक अ त मण मे ं एक मह वपू ण अ तर है क अपनी इ तहास-के कता और न हत व श ता को यान मे ं रखते हुए य को इ तहास-के त व दृ मे ं पिरव तत करने के दौरान ईसाइयों के लए यह या केवल एक बीच का कदम भर है। जब क दू सरी ओर भारतीय पर पराओं मे ं धा मक परासरण ( वेश) ने लोगों पर महानगरीय धम पर पराओं मे ं पिरवतन होने का दबाव डाले बना थानीय व वधताओं को ल बे समय तक अनवरत बनाये रखा। शा ीय और लोक य दोनों थाएँ सव-समावेशी महाका यों (जैसे रामायण और महाभारत) क पर पराओं का ह सा हैं जो औपचािरक एवं लोक पर पराओं मे ं ं सां कृ तक एक करण को द शत करता है। लेनॉय लखते है— ‘‘ ाचीन काल से भारत के गाँव-गाँव मे ं सतत् मण करते रहने वाले पेशव े र कलाकारों क बहुरंगी गायन-टो लयों, चारण-भाट, लोक-गायकों और साधुओ ं को इस ‘स पक भाषा’ का एक मह वपू ण त व माना जा सकता है। इसी कार व भ जा त और स दायों के गु ओं ने भी जीवन के वरोधाभासों का समाधान कर व भ त ी ना पों तथा सां कृ तक न ा क व वधता ारा अपना आकषण था पत कया। अ तम व लेषण मे,ं वह अकेली एक करण क श ही है जसे भारतीय सं कृ त का वाहक इस सतत् मौ खक समाज मे ं सं गीत क श से व वध लोगों को जोड़ने के लए योग करता है। सामा जक एक करण को लय, ताल और आलाप क सावभौ मक पस द के ारा ा कया गया।42 इस कार अ पसं यक समू हों मे ं शा तपू ण सह-अ त व ह दू सं कृ त क बहुलतावाद का ही पिरणाम है। यह भावना सामा जक पिरवतन लाने के उ े य से कये गये हं सक सं घष के पिरणाम व प ा नहीं हुई है। दुभा य से कुछ प मी ं क और भारतीय व ानों का एक समू ह सं घष लाने पर ज़ोर देता है जो वोट-बैक राजनी त के उ े य के प मे ं काम करता है। औप नवे शक शासनकाल मे ं यू रोपीय आ ा ताओं ने अपनी सा दा यक पु तकों और स ा तों को अपने गुलामों पर थोपा। इससे भी बदतर, उ होंने मू ल नवा सयों को ही मटा दया और उनके साथ उनक पर परा के समृ और उपयोगी ान को भी। उ होंने मू ल नवा सयों को ‘आ दवा सयों’ के प मे ं देखा। आजकल के क थत व ानों ने प म क ी औ ं े ों ी ं ै ो

वभाजनकारी और सं घष क े णयों ारा वही सं रचनागत ैतवाद थोप कर भारत को समझने क झू ठ आशा रखी हुई है और साथ ही व ापू ण भारतीय धा मक पर पराओं को मू ल नवा सयों के त द भी- े ता और दमनकारी प मे ं दखाने का सं ग ठत यास भी कया है। पर तु भारत मे ं तथाक थत आ दवासी ( जनका च ण ा य जीवन तथा अनौपचािरक लोक- ान णा लयों से होता है) सदैव ही औपचािरक धा मक णा लयों के साथ स भावपू ण सह-अ त व मे ं रहे है।ं

भारतीय सं कृ त एवं अ खल ए शयाई स यताए ँ उदाहरण के लए भारत भर मे ं ी कृ ण क कथाएँ कई थानीय उप-सं कृ तयों मे ं समा हत क गई है।ं येक भारतीय गाँव मे ं और लगभग हर जा त के लए ‘कुलदेवी’ अथवा ‘ ामदेवी’ का थानीय प है। भारत के व भ भागों मे ं थानीय लोगों ने कई योहारों एवं धा मक अनु ानों का पा तरण कया है। पिरणाम व प े ीय और लोक-पर पराओं क आ यजनक व वधता ह दू धम क पर पराओं से स ब है। अ खल-ए शयाई स दभ मे ं वत धा मक पर पराओं के बीच आदान- दान, पर पर भाव और आमू ल पिरवतन हुए। ऐसे सां कृ तक आदान- दान उस समय हुए जब इन सं कृ तयों का आपस मे ं स पक अ वेषण, यापार, ान णा लयों के यारोपण इ या द ारा हुआ और अ धकां शत: ये कसी दृ कोण- वशेष से सं क पत या सु नयो जत काय म से सदा मु रहे। समय के साथ इस नये ान को थानीय स दभ मे ं पुन: ढालने तथा स य आकार देने के यास भी चलते रहे। इसी लए रामायण को कई ए शयाई सं कृ तयों और भाषाओं मे ं पा तिरत और आ मसात कया गया है। उदाहरण के लए थाईलै ड मे ं ‘अयो या’ नामक थान है तथा बाली ीप मे ं ‘वानर वन’ है जहाँ हनुमान (वानर देवता ज होंने भगवान ी राम क पू जा व चाकरी क थी) के वं शजों के प मे ं वानरों को पू जा जाता है। कम-से-कम ईसाई कालख ड क शु आत से ले कर तेरहवीं शता दी तक गाँधार (अफ़गा न तान और पा क तान का एक भू भाग) रा य के पु षपुरा (पेशावर) से ले कर अ म (द ण वयतनाम) के पा डुरंग और म य जावा ीपसमू ह के बनम तक स ा ढ़ एवं शास नक े ों के लए सं कृत ाथ मक भाषा एवं सां कृ तक सं चार का मा यम थी। इसने लगभग एक हज़ार वष से भी अ धक अव ध तक अ धकां श ए शया को अपने भाव मे ं रखा। सं कृत को न तो कसी सा ा यवादी श ारा जबरन थोपा गया और न ही कसी यव थत चच जैसे के ीय शा ारा इसे लागू कया गया। इस कार यह भाषा सां कृ तक चेतना का कारण और पिरणाम दोनों रही है, जसे धम, वग या लं ग क परवाह कये बना अ धकां श द ण और द ण-पू व ए शया के लोगों ने अपनाया था। े

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व के यू रोपीयकरण से स दयों पहले तक समू चे म य ए शया से ले कर अफ़गा न तान, भारत, ीलं का, थाईलै ड, क बो डया, वयतनाम और इ डोने शया तक का वशाल भू भाग एक पिर कृत अ खल-ए शयाई स यताओं का मलन े था। अपनी पु तक ‘‘ए क चरल ह ी ऑफ़ इं डया’’ (A Cultural History of India) मे ं ए.एल. बाशम (A.L. Basham)कहते हैं क पाँचवीं शता दी तक भारतीय सं कृ तवादी रा यों, अथात् भारतीय राजनै तक स ा तों क पर परा वाले एवं ह दू /बौ धम को मानने वाले रा यों ने वयं को बमा, थाईलै ड, भारत-चीन, मले शया एवं इ डोने शया के बहुत से े ों मे ं था पत कर लया था।43 इससे वष पहले टश इ तहासकार ए.जे. टॉयनबी (A.J.Toynbee) ने ट पणी क क ‘‘सुदूर उ र-पू व मे ं जापान से ले कर सुदूर उ र-प म मे ं आयरलै ड तक फैली हुई व भ थानीय स यताओं क माला मे ं भारत एक मुख और के ीय कड़ी है।’’ अपने इन दो छोरों के सरों के बीच यह माला एक तोरण क तरह झुक जाती है जो भू म य रेखा से नीचे इ डोने शया तक जाती है।44 हालाँ क रोमन स यता के हं सक सार, जसने लै टन को स दयों तक यू रोपीय भाषा बनाया, के वपरीत ए शया का ‘सं कृ तकरण’ पू री तरह से शा तपू ण और बना कसी को जीते, शासन कये या थानीय पहचानों को न कये हुआ था। ऐसा नहीं है क राजनै तक ववाद अथवा वजय के लए यु नहीं हुए, पर तु अ धकां श घटनाओं मे ं उ े य, सां कृ तक या धा मक सम पता आरो पत करने का नहीं था। अ ण भ ाचाज क पु तक ‘‘ ट े र इ डया’’ (Greater India) का न न ल खत ग ां श इस बात पर मह वपू ण काश डालता है— ‘‘भारत के अ य देशों और लोगों के साथ स पक और स ब धों क अनू ठ वशेषता यह है क सां कृ तक व तार को कभी औप नवे शक वच व और यावसा यक ग तशीलता क तरह असं गत नहीं माना गया, आ थक शोषण तो एकदम नहीं। सं कृ त बना राजनै तक उ े यों के आगे बढ़ सकती है, यापार बना सा ा यवादी ढाँचे के चल सकता है, ब तयाँ बना औप नवे शक अ याचारों के बस सकती हैं तथा सा ह य, धम और भाषा को बना कसी ँ ाया जा सकता है। यह व ेष, अँध-रा ीयता अथवा न लीय भेदभाव के पहुच भारत के अपने पड़ो सयों के साथ स पक के इ तहास मे ं अ छ तरह मा णत है। इस कार हालाँ क म य और द ण-पू व ए शया के बड़े भू -भाग भारतीय सं कृ त के समृ के बने, फर भी शायद ही वे कभी कसी भारतीय राजा अथवा वजेताओं के शासन मे ं रहे या उ हे ं कसी भारतीय सेना क दशहत या उसके ारा मचाई गई तबाही का सामना ही करना पड़ा। वे राजनै तक एवं आ थक पों से पू ण वत थे तथा उनके लोग भारतीय और वदेशी त वों के एक करण को दशाने के बावजू द कसी भारतीय रा य से स ब ध नहीं े

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रखते थे और भारत को मातृभू म क अपे ा एक प व भू म के थे—एक तीथ े के प मे,ं न क अ धकार े के।’’45

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ए शया के सबसे तभाशाली छा भारत के मुख श ा के ों जैसे त शला और नाल दा मे ं श ा ा करने जाते थे। इ डोने शया के राजा बलदेव नाल दा व व ालय के इतने समथक थे क उ होंने इसे सन् 860 मे ं चुर मा ा मे ं दान दया। द ण-पू व ए शया मे ं हज़ारों मील दू र थत एक राजा भारत के कसी व व ालय को सहयोग देना चाहता हो, यह अ खल-ए शयाई अ ययनशील आदान- दान के मह व को रेखां कत करता है। ार भक बौ थ पाली एवं अ य ाकृत ( थानीय जनभाषा) भाषाओं मे ं थे, पर तु बाद वाले ‘ म त सं कृत’ मे ं लखे गये। उन दनों मौ खक एवं ल खत सं वाद के लए पिरशु पा णनीय सं कृत का चलन था। त बती ल प और याकरण सं कृत के आधार पर वक सत क ग थी और वा तव मे ं वह दपण मे ं सं कृत का ही त ब ब है।ं 46 त बत मे ं बौ धम के सार के साथ बहुत से ज टल सां कृ तक त वों जैसे हठध मता, दाश नक एवं आ म व ा के वचारों, धा मक एवं आ या मक थाओं, सामा जक सं गठनों के व प तथा एक समृ कला मक पर परा का भी वकास हुआ। सन् 1500 से ही थाईलै ड मे ं सं कृत का प भाव रहा था। वहाँ और द णपू व ए शया के अ य भागों मे ं सं कृत को सावज नक, सामा जक, सां कृ तक एवं शास नक योजनों के लए उपयोग कया जाता था। आज भी वहाँ सं कृत को शाही उ रा धकारी क मा यता, वैधता एवं सारण तथा औपचािरक अनु ानों को त था पत करने के मा यम के प मे ं अ य धक स मान दया जाता है। क बो डया के खमेर समाज का अ य धक भारतीयकरण हुआ था तथा बाद के थाई राजाओं ने भारतीय धम को अपनाया और अपने शासन के स ा तों को ह दू थाओं के आधार पर न मत कया। चीन एवं भारत के बीच एक अ तीय और पर पर स मानपू ण आदान- दान होता था। भारत से बौ वचारों का चीन मे ं जाना सबसे उ ख े नीय और प आयात था। तां ग राजवं श (T’ang Dynasty: सन् 618-907) ने द ण एवं द ण-पू व ए शया से आने वाली सं कृ त के लए अपने दरवाज़े खोले। सातवीं शता दी मे ं चीन पर ँ ा जब और कसी काल क अपे ा इस भारतीय भाव अपनी चरम सीमा पर पहुच कालाव ध मे ं सबसे अ धक चीनी भ ु एवं राजक य दू त भारत आये। नाल दा ु ं को आक षत कया। व व ालय ने बड़ी सं या मे ं ए शया भर से बौ भ ओ नाल दा मे ं चीनी व ानों ने न केवल बौ धम, ब क वै दक दशनशा , ग णत, खगोल व ान और दवाओं का भी अ ययन कया। चीनी स ाट ने नाल दा मे ं अ ययन करने वाले चीनी व ा थयों को उदार सहयोग दया। बहुत से भारतीय थों का चीनी भाषा मे ं अनुवाद कया गया और ये चीनी वचारधारा मे ं था पत हो गये। े े ी ी ं ें ी ी ी ों े

सन् 950 से 1033 के बीच बड़ी सं या मे ं चीनी तीथया यों ने भारत का मण कया तथा सं कृ त के व तृत ढाँचे को समझा। उ होंने अपनी या ाओं के शलालेखों को प व थलों पर छोड़ा तथा अपने स ाट ताई- सोंग के स मान मे ं एक तू प का नमाण कया। इस बीच कई भारतीय गु एवं पं डत भी चीन क या ा पर गये जहाँ उनका ख़ू ब आदर-स कार हुआ। भारतीय थों का अनुवाद करने के लए चीनी स ाटों ने एक आ धकािरक म डल का गठन कया। इन यासों का नेत ृ व करने के लए ाय: भारतीय व ानों को बुलाया जाता था। ए शया भर मे ं बौ धम के सार को अ छ तरह से वीकार कया गया है, पर तु धम के अ तिर यह अ खल-ए शयाई स यता के व वध े ों, जैसे भाषा, भाषा व ान, ग णत, खगोल व ान, च क सा, वन प त व ान, यु कलाओं (martial arts) एवं दशनशा के े ों मे ं भी ान के ोत बन गये थे। आ धकािरक पं चां गों (calendars) को बनाने मे ं भारतीय खगोल वदों का परामश लया जाता था। सातवीं शता दी मे ं चीन मे ं गौतम, क यप एवं कुमार नाम के तीन खगोलीय व ालय बहुत फले-फूले। नव हों स ब धी भारतीय स ा त को चीन ने पहले ही अपना लया था। इनके अ तिर ताँग (T’ang) के कालख ड मे ं सं कृत के कई मुख खगोलीय, ग णत एवं च क सा शा ों का चीनी अनुवाद भी कया गया। बौ एवं ह दू धम के ँ ले पड़ गये थे और बीच स ा तों, थाओं एवं सं थाओं से स ब धत वभेद धुध ान ा करने वाली सं कृ तयों के लए ये अपे ाकृत मह वहीन थे। उदाहरण के लए चीन मे ं बौ धम चारक अपने ा णवादी ान के लए भी उतने ही पू जे जाते ु थे जतने क अपनी भ क त ाओं के लए। सामा यत: इ तहासकार सं कृ त के इस बड़े पैमाने पर हुए नयात को बौ धम के नयात के प मे ं देखते है,ं जो आमतौर पर इस दशा मे ं भारतीय धा मक सं कृ त क भू मका को कमजोर करता है। कलाएँ भी चीनी और भारतीय सं कृ त के सं गम का के थीं, जसने ‘चीनीभारतीय’ (Sino-Indian) नामक कला के श ा के को ज म दया। यह कला के उ री वेई शासनकाल (Northern Wei: period सन् 386-534) मे ं मुख के बन गया और थुनवां ग (Thunwang), युन-कां ग Yun-kang) एवं लाँगमेन (Longmen) क च ानों को काट कर बनाई गई गफाओं मे ं भ च ों के साथसाथ बु क 60 से 70 फ़ु ट ऊँची वशाल तमाएँ भी देखने को मलती है।ं यह रे णा न केवल भारत से आयात क हुई छ वयों एवं त वीरों (उदाहरण के लए अज ता एवं सारनाथ) से मली, ब क उन भारतीय कलाकारों से भी ज होंने चीन क या ा क । भारतीय सं गीतकारों ने अपनी तभा बाँटने के लए चीन और जापान क या ा क और उनमे ं से कुछ या ाओं को चीनी स ाटों ने ायो जत कया था। ताँग के शासनकाल मे ं ‘बो ध’ नामक भारतीय सं गीतकार सं गीत के दो मुख कारों— बो धस व एवं भैरों को चीन से जापान ले गये। इस कार भारतीय सं कृ त ने अपने ारा भा वत क गई येक स यता क व श ता को सं र त रखा। ई ई





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ईसाई मत का चार व के कसी अ य भाग मे ं थत एक के से था, जो इसे थोपने के राजनै तक-धा मक ढाँचे का एक भाग था। ईसाइयत क इस दू र थ साँठगाँठ के का ाय: आ थक एवं राजनै तक वाथ रहता था, जो थानीय आबादी के हत से एकदम भ था। दमन का उ े य औप नवे शक हतों के लए दू सरों का हर कार से शोषण करना था। वजेता और परा जत तथा औप नवे शक स ा एवं अधीन लोगों के बीच वषमताएँ सां कृ तक च बन गये। जो लोग वजेता या उप नवेशवादी स ा के अनु प यवहार करते थे उनक त ा दू सरों से अ धक थी। प है क यू रोपीय शासन मे ं जन मू ल नवा सयों ने ईसाई मत वीकार कर लया था वे अपने ही समाज के उन लोगों से अ धक सामा जक लाभ एवं स मान पाते थे ज होंने अपना धम नहीं बदला। दमनकारी उ े य, जसे अब पू व के अवलोकन ारा आसानी से पहचाना जा सकता है, व के सभी लोगों को एक सावभौ मक इ तहास मे ं समा व करना था—एक काय म जो खु म-खु ा धम पिरवतन और प मी सावभौ मकता ारा आज भी जारी है। भारतीय सं कृ त और प मी स यता के सार के बीच जो अ तर है उसे हम यापार के ‘ध ा’ बनाम ‘खींचना’ (push vs pull) सौदे क तरह समझ सकते है।ं ‘ध ा’ (push) सौदे के स ा तों मे ं अनु चत आ ामक व ापन, दर-दर जा कर ब के लए हाक लगाना, डराने क यु याँ, पु तकाओं का वतरण, पो टर अ भयान, पैम स हत कचरा ई-मेल भेजना, दू रभाष ारा बेचना, नकारा मक राजनै तक अ भयान और छल-कपट वाली कूटनी तयाँ स म लत है।ं यादातर ये तरीके अनै तक और यहाँ तक क अवैध भी होते है।ं पहले ईसाइयत और बाद मे ं इ लाम का सार यादातर इ हीं तरह के बेढंगे और आ ामक साधनों ारा कया गया था। आज भी बहुरा ीय उ ोगों क तरह ईसाई सं गठन भारत के येक जले (दू सरे देशों मे ं भी) मे ं धमा तरण का एक न त ल य नधािरत करते हैं जसका बजट त धमा तरण मे ं होने वाले यय के आधार पर सु नयो जत कया जाता है।47 ं ईसाइयों ारा इसे आ धकािरक भाषा मे ं ‘आ माओं क वे टकन एवं व भ ोटे टेट फसल काटना’ (soul harvesting) कहते है,ं जो कसी बहुरा ीय क पनी ारा बाज़ार मे ं अपनी ह सेदारी बढ़ाने जैसा अ भयान है। ‘खींचना’ (pull) सौदा उसे कहते हैं जहाँ आपू तकता के कसी दबाव या धमक दये बना व तु क माँग उसे उपभोगकता क ओर भेजती है। उपभो ा वयं ँ ने और उसके पास जाने क पहलकदमी करता है। इसके आम आपू तकता को ढू ढ़ आधु नक उदाहरणों मे ं कसी न त आव यकता के लए वग कृत व ापन, जैसे पीले प ों (yellow pages) का उपयोग, ई-बे (E-Bay) तथा उपभो ा ारा अ य साधन खोजना स म लत है।ं 48 सं कृत के मामले मे ं हण करने वाली सं कृ तयों ने इसके अपने मे ं समा व करने को अ त लाभकारी पाया और ह दू -बौ इ तहास (अतीत के आ यानों), ं ों ी ों ों ों े े ों ी

पुराणों, तीकों, अनु ानों, स ा तों, शासन चलाने के वचारों एवं भारतीय सौ दयशा को भारत क धरती मे ं खोजा। इसका सबसे अ छा माण यह है क एक हज़ार से भी अ धक वष तक चीन, त बत, थाईलै ड, यां मार, क बो डया, वयतनाम, ीलं का एवं अ य देशों के शासकों ने अपने तभाशाली छा ों को भारत के ‘ वहारों’ ( श ण सं थानों) मे ं ान ा करने के लए भेजा।49

अ पा तरणीय े णया ँ इस अ याय मे ं पहले क गई चचा दशाती है क सं कृत के श दों का अनुवाद कया जाना यों स भव ही नहीं है। मुख सं कृत श दों का अनुवाद न हो सकना बहुत-सी भारतीय पर पराओं क ग़ैर-सुपा यता मा णत करता है। सं कृत श दाव लयों को सँभाले रखना और इस कार इन श दों के सभी अथ क पू री ृ ला को सं र त करना उप नवेशवाद के ंख त अवरोध और धा मक ान क सुर ा करने का एक साधन बन जाता है। यह सच है क समू चे इ तहास मे ं मानव ान और इसके वकास एवं व तार मे ं अनुवादों ने एक भावशाली भू मका नभाई है। भारतीय कहा नयों को यू रोप मे ं पौरा णक कथाओं (Aesops Fables) मे ं पुन: सुनाया गया। अरब-वा सयों ने यू नानी दाश नक शा ों और भारतीय ग णत को अनुवा दत करके यू रोप को नया ान दया; ईसाइयत के इ तहास मे ं बाइबल का अनुवाद मह वपू ण था; भारत मे ं रामायण और महाभारत के थानीय सं करण सां कृ तक आदान- दान मे ं मह वपू ण भू मका नभाते रहे है।ं हालाँ क ऐसे मामलों मे ं भी जहाँ कसी अनुभव को दू सरी सं कृ त मे ं जाना जाता है और वहाँ इसे य करने के लए कोई श द भी है, पर तु वह श द केवल यावहार के लए है न क उसके क पन भाव मे ं म जैसा; यह सं क पना से भी गहरे चेतना के तर पर सं कृत के म ों के समान भाव उ प नहीं करता। दू सरे श दों मे ं यह वैचािरक समानता केवल चेतना के सतही तर तक ही सी मत रहती है। अ तस दाय सं वाद मे ं यीशु को कभी-कभी ऋ ष या गु बताया जाता है; वेदों अथवा गीता को ‘ ह दू बाइबल,’ तोराह क पु तकों को ‘यहू दी वेद’ तथा ह दू धा मक समारोहों को ‘पू जा (Worship)’ क व धयों जैसा स द भत कया जाता है। कुछ भारतीयों मे ं भी ‘गु ’ को ‘नबी’ अथवा ‘स त’ (ईसाई वाला) कहने क वृ पाई जाती है। साथ ही देवों को ईसाई फ़िर तों और असुरों को दानव (Demon) का प दे दया जाता है। पर तु इस कार समानता दखाने के लए श दाव लयों का ँ ाता है। ‘साधना’ ईसाई पू जा या आदान- दान अ तत: म और नुकसान ही पहुच व ास क तरह नहीं है; ‘आ मा’ यहू दी-ईसाई सोच मे ं ‘Soul’ से भ है; ‘ ाण’ शारीिरक ास से कहीं अ धक है; ‘श ’ शारीिरक ऊजा का पयायवाची नहीं है; ‘आकाश’ भौ तक थान नहीं है; ‘ च ’ केवल चेतना ही नहीं है और प मी सं कृ त मे ं ‘रस’ का कोई समतु य है ही नहीं। इसी तरह, ‘सू य’ का ता पय हमारी भौ तक सौर णाली के सू रज से कहीं अ धक है, उसका अथ ‘के ’ या ‘मू ल’ क अवधारणा को भी समा हत करता है। इस लए सू य-देव को पू जने का अथ Sun God क पू जा करने से कहीं अ धक है। इसी कार े



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‘अ न’ श द का अथ केवल भौ तक आग नहीं है और इसक पू ण समझ ही य को अनु ानों मे ं आग के योग क म हमा पहचानने के यो य बना सकती है। यों क ह दू सू य या अ न को अपने अनु ानों मे ं स म लत करते है,ं अत: इन और ाचीन मू तपू जा स ब धी िरवाजों, जो स दयों पहले प म ारा यू रोप मे ं दबा दये गये थे, मे ं ँ ी जाती है। एक ामक समानता ढू ढ़ ‘त ’ का स भोग और ‘ ीधन’ का दहेज के प मे ं गलत अथ लगाया गया है। जब अं ज े ी श द ‘अं कल’ (uncle) व श स ब धों क व वध देशी श दाव लयों जैसे पता के बड़े भाई (ताऊ), पता के छोटे भाई (चाचा), माता के भाई (मामा), माता क बहन के प त (मौसा) इ या द का थान ले लेता है तो स ब धों क व वधता क बारी कयाँ लु हो जाती हैं और ‘अं कल’ के अथ क सभी श दाव लयों को हटा कर वह एक सम प स ब ध उनका थान ले लेता है। प मी लोग य द ‘माता’ और ‘ पता’ को सवसाधारण श द अ भभावक (parent) से बदलने क क पना करे ं तो शायद उ हे ं यह सम या समझ मे ं आ जाये। मैं जानता हू ँ क सं कृत के ाचीन शा ों का सं र ण और अनुवाद करने के लए मह वपू ण पहलकद मयाँ ाय: प मी उदार दा नयों ारा न धब क जा रही है।ं ये यास शं सनीय है।ं पर तु फर भी इन यासों को आ या मक साधना और यहाँ तक क सामा जक सं गठन के सं साधन के प मे ं मू ल भाषा क सं कृत श दाव लयों और शा ों के मह व को समझने के लए वक प नहीं बनाया जा सकता। न ही ये यास आधु नक व व ालयों से सं कृत को पा म से हटाने के, यहाँ तक क ं ,े जहाँ वह अभी हाल तक प म मे ं दशनशा से भी, ष का नवारण कर पायेग ान का त भ थी। अगले कुछ पृ ों मे ं मैं सं कृत के कुछ श दों (जो ाय: साधारण प मी समक श दों से गलत अनुवा दत होते है)ं का चयन करके भारतीय और प मी स यताओं मे ं ँ ा। मौ लक मतभेदों पर काश डालू ग ‘

’ अथवा ‘ई र’ ‘God’ का समानाथ नहीं है ‘ ’ श द का मू ल है ‘ ह’ जसका अथ है ‘ व तार करना।’ पू ण व तािरत परम स य, जो सब का नमाता है, सभी मे ं रहता है और सबके परे है, ‘ ’ कहलाता है। यहू दी-ईसाई समझ के अनुसार इसका अनुवाद ‘ई र’ के प मे ं करना इसके अथ को कम करता है। वह गॉड—‘God’ जसे मोज़ेस (Moses) ने सा नाई पवत (Mount Sinai) पर देखा तथा जससे उसने शलालेख ा कये थे दू र तक ‘ ’ जैसा नहीं है। ा ड का नमाता यह यहू दी-ईसाई God उससे व श और अलग है। इसके अ तिर यह गॉड अ धनायक है जो य यों को नयमों के उ ं घन करने पर सज़ा देता है और इ तहास मे ं एक वशेष समय और थान पर ह त प े करता रहता है। जब क दू सरी ओर ‘ ’ वयं ा ड है जो येक मे ं अतृ आ मा के प मे ं रहता ं ै औ ै ें ो ै

है और अ तत: हमे ं बनाता है। यह वचार ‘ ’ को सवसुलभ एवं सदैवउपल ध बनाता है; वा तव मे ं हर युग मे ं ानी तथा ‘ ’ से एक कृत हो चुके आ या मक गु मागदशन के लए सदैव हमारे बीच रहे है।ं यहू दी-ईसाई मत के मु य अनुया ययों मे ं परमे र से अ ैत एकता का भाव अनुप थत है, हालाँ क यह सं थागत चच ारा अ धकारहीन कये गये रह यवा दयों मे ं दबा हुआ रहा है। लगभग इसी तरह ‘ई र’ श द भी यहू दी-ईसाई धारणा के ‘गॉड’ के समान नहीं है। येक य क नजी पस द (इ देवता के प मे)ं के अनुसार ‘ई र’ अन त पों मे ं अपनी अ भ य देते है।ं येक श द जैसे , ई र, ा, व णु, शव, देवी इ या द के समृ न हताथ है जो एक-दू सरे से भ है।ं ये और कुछ अ य श द ‘गॉड’ क एकल अवधारणा मे ं समेटे नहीं जा सकते।

‘ शव’ मा सं हारक नहीं ‘ शव’ का ाय: गलत अनुवाद ‘सं हारक’ के प मे ं कया जाता है और इसी पिर े य मे ं उ हे ं ा (‘ नमाता’) एवं व णु (‘पालक’) के वरोधी के प मे ं क पत कर लया जाता है। हमने देखा है क यहू दी-ईसाई अवधारणा मे ं ‘ ा’ सृ नमाता नहीं हैं और न ही आज के लेखकों क सोच के अनुसार ‘ शव’ एक व वं सक भगवान है।ं वा तव मे ं ‘ शव’ का सबसे उ म वणन एक ‘ पा तरकता’ (Transformer) के प मे ं कया जा सकता है जो मानवता और ा ड को चेतना के उ वकास क ओर अ सर कराते है।ं इस वकास या मे ं झू ठे मान सक ढाँचों के स दभ (नाम- प) का वलय कया जाता है जो ‘ वनाश’ से एकदम भ है। शव ारा कया गया यह पा तरण एक पुन नमाण या है जसे ‘ वनाश’ के प मे ं गलत च त कया गया है। भौ तकता और पदाथ क वघटन या को नई सृ क अभ य हेत ु एक ‘च ’ के अ त के प मे ं भी देखा जा सकता है, ठ क उसी तरह जस कार कोई मौसम आने वाले मौसम क नई अ भ य का माग श त करता है। यह पर परा कृ त क नर तरता पर बल देती है, अत: वनाशकारी दखने वाली या वा तव मे ं मा एक पा तरण है। इसी लए शव को नृ य एवं योग ान एवं रह यवाद के महे र के प मे ं व णत कया गया है और इसी कारण शव अपने भ ों को उतने अ धक समपण के लए िे रत करते हैं जतना उ हे ं ‘ व वं सक’ मा मानने पर स भव न होता।51 ‘आ मा’ को Soul अथवा Spirit नहीं कहा जा सकता भारत और प म के ा ड स ब धी मतभेद अ मता के परम स य क उनक पर पर सोच मे ं प प से पिरल त होते है।ं भारतीय दशनशा ों मे ं अ मता क वभा वक कृ त सत्- चत्-आन द है जसे आ या म व ा ारा अनुभव कया जा सकता है। जब क दू सरी ओर प म मे ं अ मता क क पना पापी के प मे ं क गई ै े े ै ों े े ो ों े ं े ी

है जसे केवल पैग़ बरों के इ तहास-के क रह यो घाटनों मे ं व ास करके ही कम कया जा सकता है। ह दू धम मे ं य क स ी अ मता को आ मा के प मे ं जाना जाता है। ‘आ मा,’ परम, सव एवं उ कृ का त ब ब है तथा इस कार यह यहू दीईसाई अवधारणा क ‘Soul’ या ‘Spirit’ से एकदम भ है। यों क ईसाइयत दृ कोण के अनुसार मानव क कृ त ‘पापी’ है, इस लए वहाँ ‘गॉड’ के लए आव यक हो जाता है क वह पापी को मु देने के लए बाहर से ह त प े करे। लोग अपनी आ या मक श के वकास के लए आ या म व ा (जैसे यान, योग इ या द) को अपनाते भी है,ं पर तु यह अ यास उ हे ं बहुत अ छे पिरणाम नहीं दे पाता, यों क उनका मानना है क एक तर के बाद पापों के दाग को साफ़ करने के लए बाहर से ‘गॉड’ का ह त प े आव यक है। जैसा मैनं े पहले कहा है, Soul का सीमा-ब धन या उसमे ं दोष ईसाइयत क इ तहास के क त वमीमां सा पर नभर होने के कारण है। बहुत से ईसाई इस सोच को पस द नहीं करते क Soul के बारे मे ं उनक अवधारणा आ मा क तुलना मे ं सी मत है, फर भी वे उस व श इ तहास पर अपनी नभरता यागने के लए तैयार नहीं हैं जो वयं ही इन सीमाओं का आधार है। आ मा क भारतीय धा मक अवधारणा पुनज म और कम क अवधारणाओं से जुड़ी हुई है। य के ज म के समय एक व श आ मा उसमे ं वेश करती है तथा उसके कम य के एक ज म से दू सरे ज म के बीच क कड़ी है।ं इसे दू सरी तरह देखे ं तो कम य के पछले ज म मे ं कये गये चयनों का लेखा-जोखा है और आने वाले ज मों को भा वत करने के लए यह बही-खाता य के नधन पर आगे थाना तिरत कर दया जाता है। हालाँ क भारतीय धा मक पर पराओं मे ं ‘आ मा’ क कृ त के बारे मे ं भ - भ धारणाएँ है,ं पर तु इन सभी का के ीय वचार मनु य के कम और पुनज म पर ही आधािरत है। कुछ ार भक ईसाइयों ( वशेषकर Origen ईसाई) ने पुनज म के वचार क पु क थी, पर तु ऐसा करते समय वे बाइबल के पू व वधान (Old Testament) नयमों को तोड़ रहे थे। जैस-े जैसे ईसाई मतशा ों का वकास हुआ इन अवधारणाओं को मु यधारा के मतशा ों ारा अ वीकार कर दया गया। पुनज म-कम का स ा त मानता है क य क कृ त पू ण प से उसके पछले ज म के कम का पिरणाम है। यह कोई ऐसा अव ापू ण कृ य नहीं है जसे आदम और ह वा के यौन सं चरण ारा आगे बढ़ाया गया हो। य द ईसाई धम मे ं ‘पाप’ क मू ल अवधारणा यौन- या के सं चरण के स ा त पर आधािरत न होती तो यीशु के ‘कुँवारे ज म’ (virgin birth) स ब धी ‘ऐ तहा सक त य’ का पू रा मह व ही समा हो जाता। वा तव मे ं ईसाई मतानुसार मानव क अव था के वणन मे ं ‘मौ लक ो







पाप’ (original sin) को य द कम और पुनज म के स ा त से व था पत कर दया जाये तो उनका पू रा इ तहास के क ढाँचा अपने वग और नरक क अवधारणाओं के साथ ही भर-भरा कर व त हो जायेगा। पुनज म एवं कम क अवधारणा से अन त समय अथात् काल के बना आ दअ त के वचार को अलग नहीं कया जा सकता। इस ा ड क कोई ार भक अव था नहीं है, यों क इससे पहले भी कोई और था और उससे पहले एक अ य था ृ ला अन त है। इसके वपरीत यहू दी और ईसाई मत एक और ा डों क यह ं ख ार भ और अ त होने वाले न त समय पर आधािरत है।ं जैसा क अ याय 4 मे ं चचा क जा चुक है, यव था स ब धी प मी वचार न त और पिरब इकाइयों क मा यता पर आधािरत हैं ज हे ं नय त कया जा सकता है। जो भी असी मत या अन त है वह अहम क नय ण और डर पैदा करने क चाह को चुनौती देता है। प मी देशों के लए अ यव था को वीकार करना बहुत क ठन है। जब क ‘आ मा’ का न तो कोई ार भ और न ही कोई अ त है, पर तु प मी Soul के साथ ऐसा नहीं है जो एक पिर मत समय मे ं उ प हुई जब गॉड ने धू ल मे ं फूँक मार कर आदम (Adam) को उ प कया था (जेने सस: 2:7)। मू त वाली बाहरी प व शा त् आ मा (Holy Spirit) ई र मे ं ही है और यीशु क आ मा गॉड के साथ सह- चर थायी है। पर तु आ मा के वपरीत य गत Soul एक सी मत समय मे ं रहती है। एक अ य भ ता यह है क यहू दी और ईसाई पर पराओं मे ं सभी य गत Soul न केवल God से ही ब क सं सार से भी अलग े से है।ं इन पर पराओं मे ं हालाँ क आ माएँ सं सार मे ं या है,ं पर तु ऐसा वे सं सार से अलग हुई इकाई के प मे ं ही हो सकती है।ं इसके वपरीत भारतीय पर परा मे ं ‘आ मा’ ‘ ’ से अ भ होते हुए कसी अ य चेतना से भ नहीं है और भौ तक सं सार का ही परम त व है। भारतीय धा मक णाली के अनुसार ‘आ मा’ केवल मनु यों मे ं ही नहीं ब क पशुओ,ं पौधों और व भ कार के जीवों मे ं भी रहती है। यही सं चयी अनुभव य के वतमान च का गठन करते है।ं व भ जातीय, न लीय और सां कृ तक पहचान के साथ हर एक क अ मता ने पछले ज मों मे ं म हला और पु ष देहों मे ं वयं को अनुभव कया है। यह सब य के अतीत को र -स ब धी अवधारणा से पिरभा षत करने वाले प मी वचार से एकदम अलग है। भारतीय धारणा के अनुसार मेरा अतीत मेरे जै वक पता क अपे ा मेरे पू व-ज मों मे ं न हत है और मृ यु के बाद मेरा भ व य मेरे अगले ज मों मे ं होगा, न क मेरे ब ों मे।ं इसके वपरीत बाइबल के पू व वधान (Old Testament) ने र -स ब धों क व श ता पर बल दे कर न ल स ब धी कठोर अवधारणा को ज म दया। इसके अ तिर प मी पर परा मे ं य का वतमान देह ही है जसके पहले उसका कोई अ य शरीर नहीं था। पिरणाम व प इस शरीर के त उनका अ य धक मोह रहता है जो अ तत: न ल, लं ग इ या द के ं ै ै ो ें ि ो

त मोह मे ं पिरव तत हो जाता है। जब क पुनज म क अवधारणा है क जा त, लं ग एवं पहचान के अ य प केवल इस ज म के ही सापे य है।ं पुनज म य के अतीत और भ व य के उ रा धकािरयों के त लगाव को कम करता है। भारतीय धा मक पर परा मे ं मनु य का दाह-सं कार एक तरह से इस न र शरीर से लगाव को कम करता है, इसी लए यहाँ पर क तान जैसा कोई थान नहीं है जहाँ ं एवं बातचीत क जाती हो। पुनज म का स ा त ल बे समय तक मृत य यों से भेट मृ यु को एक ाकृ तक पुनरावतन के प मे ं देखता है और इसी लए यहाँ प मी पर परा, जसमे ं यह माना गया है क य को केवल एक ही जीवन मलता है, क अपे ा मानव देह के त आस कम है। ईसाई Soul से भ आ मा सभी पशु-प यों, पौधों और कृ त मे ं भी क टत होती है जससे पशु-प यों और पयावरण के त वा त वक स मान कट होता है, न क बाद मे ं सोच कर या धम व ान के ऐ छक प मे।ं य प ईसाई मत मे ं पशुं प यों के अ धकारों को ले कर छटपुट आ दोलन (उदाहरण के लए सेट ां सस St. Francis के अनुया ययों मे)ं चले हैं और पयावरण वतमान मे ं एक च लत वषय है, पर तु ये ईसाइयत मे ं बाद मे ं आने वाली बाते है;ं ऐसे आ दोलन ईसाई त वमीमां सा मे ं मू लभू त प से स म लत नहीं है।ं बाइबल के अनुसार God ने मानव जा त को पौधों और पशुओ ं के ऊपर भु व दान कया है और ब धन एवं पयावरणवादी ईसाई रे णाएँ एका मकता क अवधारणा से नहीं उपजी है,ं जैसा क भारतीय धा मक त वमीमां सा मे ं न हत है। वेद, बाइबल अथवा गो पेल का समानाथ नहीं हैं प म मे ं ‘बाइबल’ श द का योग अ य पर पराओं के प व शा ों का उ ख े ँ कया जाता है। जो भी हो, यहू दी और ईसाई पर पराओं मे ं इसे करने मे ं अँधाधुध वशेष सं क ण स ा तों भरे इ तहास के क थों मे,ं जनमे ं उनके मत क नदशा मक और व सनीय श ाएँ है,ं स द भत करने के लए ही कया जाता है। यहू दी बाइबल का मू ल ‘तोराह’ (Torah) है जसमे ं मोज़ेस (Moses) ारा लखी हुई पाँच पु तकों (Pentateuch) के अ तिर व भ भ व यवादी भा य, गीत, भजन, ऐ तहा सक आ यान एवं वचारपू ण लेख स म लत है।ं ईसाईयों क प व पु तकों मे ं ह ू बाइबल (Old Testament) और New Testament हैं जो चार ईसा चिरतों (Gospels) से मल कर बना है, जनमे ं चारकों के अ ध नयम (Acts of the Apostles)समुदायों, य यों या चच को लखे गये प और रह यो घाटन क पु तक (Book of Revelation) स म लत है।ं कुरान मुसलमानों के लए प व थ है जसे वे बाइबल के रह यो घाटनों का सं शो धत एवं पिरपू ण थ मानते है,ं और इसमे ं यहू दी और ईसाई बाइबल को थानाप करने के उ े य से नये रह यो घाटनों को जोड़ा गया है। ी

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सभी मामलों मे ं इन शा ों क एक व श मतवैधा नक थ त है—ये आदेशा मक हैं और कुछ पर पराओं मे ं अ तम चरण भी। इ हे ं इ तहास के एक न त ब दु पर रचा गया था, वशेषकर तब जब उनका मत उनके मू ल े से बाहर फैलना ार भ हुआ, जससे उसका एक मत वधान और वाच नक आधार बनाया जा सके जो आ धकािरक और नणया मक हो। यहू दी और ईसाई पर पराओं मे ं इस कार के ‘अ तम मत वधान’ बनाने क या ईसा क पहली दो शता दयों मे ं हुई, जब ईसाइयत आकार ले रही थी तथा इज़राइल को अपने म दरों के वनाश एवं अपने लोगों के नवासन से बख़रने जैसी थ तयों का सामना करना पड़ रहा था। इन पर पराओं मे ं प व शा ों क थ त भारतीय पर पराओं के ल खत शा ों क थ त से उ ख े नीय प से भ है। ह ू बाइबल प प से ल बे और अलगअलग समय और शै लयों मे ं लखे गये थों का एक सं ह है, पर तु अ धकां श ईसाई सं रचनाओं मे ं इसे ऐसे मतशा क तरह देखा जाता है मानो यह एक ही य ारा लखा गया हो और इसमे ं व णत घटनाएँ वा तव मे ं घ टत हुई हों। यहाँ तक क दस आ ाएँ (Ten Commandments) भी इज़राइल के इ तहास मे ं एक व श ण से स द भत क गई है,ं वह ण जसका वणन व तार से तो कया गया है, हालाँ क तीनों इ ाहमी मतों मे ं उसे अलग-अलग अथ मे ं लया गया है। सं प े मे,ं ह ू बाइबल और New Testament मे ं ववरणा मक इ तहास एक मह वपू ण भू मका नभाता है। वै दक दृ से देखने पर बाइबल अ धकां शत: ‘ मृ त’ (एक ल खत ऐ तहा सक भाग) है और इसे ‘ ु त’ ( य आ म ान का अनुभव) नहीं माना जा सकता। बाइबल पू री तरह से तीसरे प का ववरण, जैसे ‘क’ ने ‘ख’ से या कहा तुत करती है। एक ईसा चिरत (Gospel) यीशु के जीवन, कृ यों, मृ यु, दफ़न और पुन थान के इ तहास का ल खत वणन है, न क यीशु ारा वयं के सारग भत अनुभवों का वणन। अत: हम ‘ यू टे टामे ट’ को ‘ ु त’ से अलग पहचान करने के लए ‘यीशु मृ त’ कह सकते है।ं इसके अ तिर ‘ यू टे टामे ट’ को प व भाषा मे ं नहीं लखा गया ब क अपने समय क लोक य भू म यसागरीय ीक भाषा मे ं उसक रचना हुई। ईसाइयों के लए यह प थ नरपे भाषा है तथा इसका वषय केवल कसी ‘और बात’ क ओर इं गत करता है। यह शा दक अथ मे ं यीशु क देह नहीं है। हालाँ क कुछ क रप थी ईसाईयों का मानना है क बाइबल सभी कार के ववरणों मे ं अचू क है, वहीं कुछ उदार ईसाइयों का मानना है क केवल यीशु के ज म, मृ यु एवं पुन: जी वत होने क ऐ तहा सक घटनाएँ ही पू ण प से सही है,ं पर तु दोनों ही प इन घटनाओं को अ तरम स य के श द मानते है,ं न क अपने आप मे ं उसके क पनों क तरह। इसके वपरीत जैसे क ऊपर चचा क गई है, भारतीय शा ‘ ु त’ और ‘ मृ त’ मे ं वभ है,ं अथात् एक तो परमा मा के य वानुभूत ान का बोध कराते हैं जब क दू सरे मे ं ऋ षयों ारा कये गये भा य एवं ासं गक योगों का ान है। ं ी े ें औ ि ी ों

भारतीय सं कृ त के स दभगत वभाव मे ं थरता और पिरवतनशील थ तयों तथा वा त वक स तु लत ढाँचे और णक वा त वकता के बीच पर पर या होती 52 रहती है। फर भी दोनों मे ं भ ता रहती है। ‘ ु त’ ई र िे रत एवं कालातीत है जो भौ तक शा के कसी सू क तरह एक शा त् अनाम लेखक के ान जैसी है। जब क दू सरी ओर ‘ मृ त’ मे ं न हत स दभपरक स य सदैव पिरवतनशील होते हैं तथा इ हे ं कसी स ा त अथवा नयमों मे ं नहीं जकड़ा जा सकता। नई पिर थ तयों मे ं मानव न मत ‘ मृ त’ समय एवं थान के अनुकूल बार बार लखी जाती है। इस ं आव यकता को ी अर व द इस कार समझाते है— ‘‘सबसे पहली बात तो यह है क न: स देह एक परम शा त् स य है जसक खोज हम कर रहे है,ं जससे अ य सभी स य उ प होते है,ं जसके काश से अ य सभी स य अपना सही थान, ान क प त से स ब ध और या या ा करते है।ं दू सरे, भले ही यह स य ‘एक’ एवं शा त् है, पर यह काल मे ं और मानव म त क से य होता है, इस लए येक शा मे ं दो त वों का होना आव यक है, एक अ थायी व न र व प जो देश-काल मे ं उ प हुए वचारों से स ब धत है और दू सरा थायी व शा त व प जो सभी युगों और देशों मे ं लागू हो सके।’’53 हालाँ क ‘ ु त’ (अथात जैसे आ द-नाद) का कोई रच यता नहीं है, पर तु पाठक ं एक या ोता उसक या या का स दभ दान करता है। ‘ मृ त’ के दो स दभ है— लेखक जो उसे रचता है और दू सरा पाठक जो उसक या या करता है। यहू दी-ईसाई मतों मे ं ‘ ु त’ और ‘ मृ त’ को एक ही पु तक मे ं सकोड़ कर बना कसी वक सत स दभ के एक न त काल मे ं अव कर दया गया है। यहाँ फर ं वाद क से ऐसा तीत होता है क रोमन कैथो लक स दाय क रप थी ोटे टेट अपे ा अ धक पिर कृत दृ कोण रखते है।ं ोटे टे ट, जो स ा तत: सं थागत चच और उसके पादरीवाद के नय ण से वयं क मु चाहते है,ं पर परा को आ धकािरक नहीं मानते और साधारणत: लू थर (Luther) के आदश वा य ‘Sola Scriptura’ (अथात केवल शा ही अ धकािरक है)ं को ही अपनाते है।ं उ होंने एक स ावादी चच के थान पर एक स ावादी पु तक को अपनाया हुआ है। दू सरी वे टकन जनरल पिरषद (1962-65) के बाद जसने रोमन कैथो लक सं थागत चच के भ व य के लए एक साँचा तैयार कया, कैथो लक ईसाइयों ने God के रह यो घाटनों को बाइबल और पर परा क दो धाराओं के प मे ं देखा, जसे कुछ आधु नक मतशा यों ने मश: ‘ ु त’ और ‘ मृ त’ के समक रखने का यास कया। पर तु ऐसे कई कारण हैं जनसे यह तुलना बहुत अ धक अथ नहीं रखती। पहली बात यह है क जैसा ‘ ु त’ मे ं नहीं है, बाइबल मे ं पहले से ही ढे र सारी इ तहास के क साम ी है। यह बाइबल को ‘ मृ त’ के दबाव मे ं रखती है जो यहू दीईसाई पर पराओं क इ तहास-के त त वमीमां सा से मेल खाती है। दू सरा, ईसाई ै े े ि े ों

पर परा वशेष प से ‘चच’ का अनुभव है, अथात् यह आ तिरक व ान के अनुभवों का द तावेज नहीं है, ब क या याओं और समय के अनुकूल बनने का उसका ववरणा मक इ तहास है। चच क मजबू त सं थागत सं रचना का अथ है क इसके ारा शा ों क या या को एक औपचािरक के ीय स ात ारा नय त कया जाता है। हालाँ क वरोध होता है, जैसा क वतमान मे ं समलैं गकता, म हला पादिरयों, मू ल को शका (stem cell) शोध काय इ या द के वाद- ववाद मे ं दखता है, पर तु ाय: यह चच ारा अ धकारहीन कये या सताये हुए समू हों ारा ही कया जाता है और इनका भाव बहुत धीमा तथा अ धकािरयों के भारी तरोध के बाद ही होता है। इसके अ तिर चच के व भ स दाय इस तरह के ख़तरों से नपटने मे ं अ य धक अनुभवी हो गये है।ं मुख प व शा ों को चुनौती देना वधम या ईश- न दा माना जाता है। आव यकता यह तीत होती है क बदलते समय और स दभ के अनुसार ‘ मृ तयों’ मे ं भी बदलाव हो। जब क अभी थ त यह है क पिरवतन क कोई स भावना उ हीं उ पादिरयों और अ धकृत म यों के हाथ मे ं है जो सं थागत अ धकार के मा यम से अपनी स ा और नय ण को बनाये हुए है।ं यों क उनका उ भव व भ ोतों से हुआ है तथा उन पर कसी सं थागत स ा का नय ण नहीं रहा है, इस लए ‘ मृ तयों’ ने ह दू धम को बना कसी हं सक यु या आ तिरक फूट के ही पिरवतन वीकार करने के लए मु रखा है। प मी लोग भारत क ‘ व-धम’ (मेरा धम अथवा य गत धम) स ब धी अवधारणा को समझने मे ं क ठनाई का अनुभव करते हैं जो क लचीली तथा समय और थान के अनुसार बदलने और रचना मक खोज करने से स ब ध रखती है। ईसाई और ह दू पर पराओं मे ं प व शा ों क समझ क तुलना को यापक प से च त करने के लए कई ब दुओ ं को एक ता लका मे ं उदाहरण स हत दया गया है— ईसाइयत

ह दू धम

‘ ु त’ ऐ तहा सकता पर मह व नहीं देती बाइबल ऐ तहा सक व श ताओं से भरी तथा यह अपने-आप मे ं ‘अपौ षेय’ हुई है, इसी लए यह ‘ मृ त’ आधािरत (अ य गत, अनाम लेखक) तथा है। ‘सनातन’ (कालातीत) है। ईसाई प थ मे ं केवल ‘एक ही’ प व पु तक है जसक या या सं थागत स ा ारा नय त है। बाइबल मे ं कहींकहीं कुछ गीत और भाव-अ भ य याँ हैं ज हे ं भ के भजन माना जा सकता ै ऐ ी

वेद ाथ मक शा है।ं उप नषद सव दाश नक वचनों के लए जाने जाते है।ं रामायण और गीता को दै नक जीवन मे ं लगातार पढ़ा-सुना जाता है। भ कालीन स तों के गीत (भजन) े ी

है, पर तु अ य कार क यादातर ऐसी सहभा गता का सबसे भावशाली अ भ य यों को बाहर कर दया गया तरीका है और ये बना कसी धम वधान है। के दबाव मे ं गाये जाते है।ं आधु नक समय तक बाइबल क श ाओं मे ं पिरवतन अथवा उनक पुन या या को के ीय स ा ारा नय त कया जाता रहा है और यह पिरवतन इ तहास के भु व पर नभर है। स हत आ या मकता क श के ोत के अभाव के कारण इनक नभरता इ तहास के धरोहर पर है।

अ या शत थानों से नये-नये गु उभरते हैं जो ाय: अपनी नू तन या याओं से क रप थ को चुनौती देते हैं ज हे ं आ या मक साधना मे ं जाँचा व पिर कृत कया जाता है और इस तरह कसी के ीय कारण स ा-त के लगातार नय ण क स भावना को रोक दया जाता है।

‘धम’ श द, ‘िरलीजन’ अथवा कानू न का समानाथ नहीं है सं ग क सं वद े ना के अनुसार ‘धम’ श द के अनेक अथ है।ं मो नयर- व लय स (Monier-Williams) के ‘‘सं सं कृत-अं ज े ी श दकोश’’ (A concise SanskritEnglish Dictionary) मे ं धम के लए कई श दों को सू चीब कया गया है, जैस— े आचरण, कत य, अ धकार, याय, सदाचार, नै तकता, धम, धा मक यो यता, नयमानुसार कया गया अ छा काय इ या द।54 कुछ दू सरे नाम भी सुझाये गये है,ं जैसे यहू दी भावनानुसार ‘कानू न’ या ‘तोराह,’ ीक मे ं ‘लोगोस’—logos, ईसाइयत मे ं ‘way’ (माग) और यहाँ तक क चीनी भाषा मे ं ‘ताओ।’ इनमे ं से कोई भी पू ण प से सही नहीं है और न ही ये सं कृत क तरह धम का सम अथ कट करते है।ं धम श द सं कृत क बीज धातु ‘धृ’ से बना है जसका अथ है ‘वह जो थामे रखता है’ अथवा ‘ जसके बना कुछ भी टक नहीं सकता’ या ‘जो इस ा डक थरता और सदभाव को बनाये रखता है।’ ‘धम’ मे ं व तुओ ं के ाकृ तक और अ त न हत सहज यवहार, कत य, नयम, नै तकता, सदाचार इ या द सभी स म लत है।ं उदाहरण के लए भौ तक व ान के नयम भौ तक णा लयों के धम के बारे मे ं मनु य क वतमान समझ को व णत करते है।ं ा ड मे ं येक इकाई का अपना व श धम है—इले ॉन, जसका धम एक न त प त मे ं घू मना है, से ले कर बादलों, आकाशगं गाओं, पौधों, क ड़ों और वभावत: मनु य तक सभी का अपना-अपना धम है। प मी श दकोश मे ं ‘धम’ के समक कोई श द नहीं है। उप नवेशवा दयों ने भारतीय पर पराओं को ईसाइयत मे ं न पत करने का यास कया ता क वे शा सत लोगों को च त और उ हे ं ण े ीब कर सकें, समझ सकें व उन पर नय ण कर सकें, पर फर भी ‘धम’ क अवधारणा उनके लए ज टल ही बनी रही। ‘धम’ का े





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सामा य अनुवाद ‘religion’ वशेष प से ामक है, यों क अ धकां श प मी लोगों के लए वा त वक religion का नमू ना वह है जो— 1) ऐसे परमा मा क पू जा क माँग करता है जो हमसे और

ा ड से अलग हो;

2) एक न त ऐ तहा सक घटना के समय God ारा दये गये शा नयम-कानू न पर आधािरत हो; 3) चच क

के एकल

ा धकारी सं था ारा सं चा लत हो;

4) औपचािरक सद यों से बना हो; 5) व धवत घो षत पादरी ारा सं चा लत हो; और 6) नयत री त-िरवाजों का योग करता हो। ृ ला के अनुसार कया जाता है जो इन सब का नधारण एक आ धकािरक ं ख ँ ती है। सं वाद के ऊपर अपना माण इस व मे ं God के ऐ तहा सक ह त प े मे ं ढू ढ़ ा धकार होने के कारण ईसाइयत ने दू सरे धम का अ ययन करने के लए कई पू वन णत े णयाँ और च तुत कये, जनसे ग भीर प से उनक गलत या याएँ सामने आ । धम को ई र क पू जा के साथ जोड़ने से वकृ त पैदा होती है, यों क ‘धम’ कसी वशेष प थ या व श पू जा प त तक सी मत नहीं है। कसी प मी य के लए ना तकता एक वरोधाभासी बात हो सकती है, पर तु बौ , जैन एवं चावाक धम मे ं सामा य प से पिरभा षत ई र का कोई थान नहीं है। यहाँ तक क कुछ ह दू धा मक णा लयों मे ं ई र क यथाथ अवधारणा ववादा पद है। कसी साधक के लए म दर जाना भी आव यक नहीं है, यों क वह अपने घर मे ं ही अ यास एवं भ का वही तर ा कर सकता है। वा तव मे ं य अपने ‘इ देवता’ (चय नत ई र का प) क त वीर अपने बटुए या जेब मे ं रख सकता है और हो सकता है क वह कभी कसी पू जा थल मे ं जाये ही नहीं। ह दू धा मक पर पराओं मे ं ‘धम’ मानव जीवन के सभी पहलुओ ं क सु यव थत पू त का स ा त दान करता है—अथात धन और श का सं चय (अथ), इ छाओं क पू त (काम) तथा मु (मो )। तो religion श द ‘धम’ के व वध अथ का केवल एक छोटा-सा उपवग ही है। इसे ‘नवदी तों का धम’ क तरह देखा जा सकता है। एक बात और है क religion केवल मनु यों पर लागू होता है, समू चे ा ड पर नहीं; इले ॉन, ब दरों, पौधों और आकाशगं गाओं के लए कसी कार का religion नहीं है, जब क इन सभी का अपना-अपना ‘धम’ है। ‘धम’ येक ण वयं को कट करता है और यों क मानवता का सार सत्- चत्-आन द है, इस लए मानव वयं के अनुभव से अपने धम को जान सकता है। इसके वपरीत प मी ओं े ं औ े ो ों े औ

पर पराओं मे ं व और इसके लोगों के लए मु य नयम या धम पृथक और एक कृत दोनों है जो कसी बाहरी श ारा कट और शा सत होता है। भारतीय धा मक पर पराओं मे ं ‘अधम’ श द का अथ है अपने कत यों से वमुखता या अनै तकता; इसका अथ कसी मत- णाली के तावों को ठु कराना या आ ाओं अथवा था पत नयम- स ा तों क अव ा करना नहीं है।55 ‘धम’ का अनुवाद ाय: ‘कानू न’ के प मे ं भी कया गया है, पर तु कानू न बनाने के लए कुछ स ा तों का होना आव यक है और इन स ा तों को : (1) उस स ाधीश ारा बनाया और लागू करना आव यक है जसे कसी े परराजनै तक भु व ा हो, (2) उसका पालन अ नवाय होना आव यक है, (3) अदालत ारा वह पिरभा षत, न णत और लागू होना है और (4) उसे तोड़नेपर द ड का ावधान हो। भारतीय धा मक पर पराओं मे ं ‘धम’ का ऐसा कोई ववरण नहीं मलता। मत वधान क यव था—ऐसे नयम जो चच ारा नधािरत और लागू कये गये थे —बाद के रोमन स ाटों ारा ार भ क गई थी। यहू दी कानू न का सव े ोत इज़राइल का God है। प मी मत इस बात पर सहमत हैं क God के कानू नों का पालन वैसे ही होना चा हए जैसे क वे कसी राजा क आ ाएँ है।ं इस लए यह मह वपू ण है क ‘झू ठे ई रों’ क न दा करके उन पर वजय ा क जाये, अ यथा वे प म के ‘स े नयमों’ को कमज़ोर करने के लए अवैध कानू न बना सकते है।ं य द व वध देवी-देवताओं क अनुम त दी गई तो यह म फैल सकता है क कौन से नयम सावभौ मक है।ं इसके वपरीत भारतीय धा मक णा लयों मे ं ऐसा कोई द तावेज नहीं है जसने कसी राजा को धा मक मृ तयों या धम-शा ों को कसी व श समय या थान पर लागू करने का उ ख े कया हो, न ही ऐसा कोई दावा कया गया है क ई र ने इन नयमों का खुलासा कया है और न ही यह क ये कसी शासक ारा जबरद ती लागू कये जाये।ं स मृ तयों के कसी भी सं कलनकता को शासकों ारा नयु नहीं कया गया, न ही वे कानू न लागू करने वालों मे ं थे और न ही कसी रा य-स ा मे ं उ हे ं कोई सरकारी पद ा था। वे यायकता से अ धक आधु नक सामा जक स ा तवा दयों जैसे थे। कोई भी वेद और उप नषद कसी राजा, अदालत, यव थापक या सं था ारा ायो जत नहीं थे, जैसा क ईसाई चच मे ं होता है। स ‘या व य मृ त’ कसी तप वी के दू रदराज आ म मे ं आर भ हुई थी। ‘मनु मृ त’ मनु ऋ ष के सादे नवास- थान से ार भ हुई थी जसमे ं उनके ारा समा ध थ थ त मे ं नों के दये गये उ र समा हत है।ं मनु ने ऋ षयों को बताया क येक युग का अपना व श धम होता है (मनु मृ त VIII, 4-7)। इस स दभ मे ं धम यहू दी शा ों के कानू न के अथ से मलता जुलता है जहाँ ‘तोराह’ (यहू दी समतु य) भी य आ या मक अनुभव से ा होता है। अ तर यह है क ‘तोराह’ शी ता से ही ाचीन इज़राइल क सं थाओं ारा या पत और लागू कया गया था। ी

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भारतीय धम-शा ों ने कसी भी था को न तो बनाया और न ही लागू कया, ब क च लत थाओं को ही अ भले खत कया। बहुत-सी पर परागत मृ तयों मे ं व श समुदायों क थानीय थाओं को ले खत कया गया। एक मह वपू ण स ा त था क हर समुदाय ारा ही व-शासन कया जाये। मृ तयाँ कसी मं च से कोई ढ़वादी दृ कोण नधािरत करने का वयं कोई दावा नहीं करतीं और पहली बार टेन के उप नवेश काल मे ं उ ींसवीं शता दी के बाद ही मृ तयों को सरकार ने कानू न के प मे ं बदला। भारतीय धमशा ों का एक उप-शा सामा य मतभेदों एवं आपरा धक शकायतों स ब धी ववादों अथात् ‘ यवहार’ को देखता है। प मी पिरभाषा मे ं केवल यह उप-शा ही ‘कानू न’ माना जा सकता है। मनु मृ त (VIII, 4-7) मे ं अठारह कार के यवहारों के ववादों क सू ची दी गई है।56 एक अ य मह वपू ण ब दु यह है क ये ‘ यवहार के कानू न’ भी थानीय थाओं ारा त था पत कर दये जाते थे। जनता क इ छा को त ब बत करने वाली थानीय पर परा मानक कानू नों से अ धक मा य थी। कसी वजयी राजा को पर परा ने व जत कया हुआ था क वह परा जत जनता पर अपने कानू न लागू न करे, ब क उसे उनके थानीय कानू नों का स मान करना पड़ता था।57 ‘धम’ क अवधारणा को religion और कानू न मे ं ढालने के कई दु पिरणाम है।ं इससे धम स ब धी अ ययन प मी हाथों मे ं जाने से समाज से जुड़े हुए धा मक व ानों के अ धकार कम हो जाते है;ं इसके अ तिर इससे यह म भी पैदा होता है क धम ईसाइयों क चच स ब धी कानू न या और उसक पर परा से जुड़ी हुई रा य-स ा के सं घष से मलता-जुलता है। पिरणाम व प, धम नरपे ता के नाम पर भारत मे ं धम को उ हीं दायरों मे ं देखा जा रहा है जनमे ं ईसाई मत को यू रोप मे ं देखा गया था। अत: भारत मे ं ‘धम’ को religion के प मे ं तुत करना बहुत बड़ी भू ल है।

‘जा त’ और ‘वण’ श द, Caste के समानाथ नहीं हैं ‘जा त’ ( जसे ाय: Caste के प मे ं गलत अनुवा दत कया गया है) को ग णत के एक समु य अथवा सा ह य मे ं उसक शैली के प मे ं सही ढं ग से समझा जा सकता है। यह मनु यों के अ तिर दू सरों पर भी लागू होती है, जैसे वृ ों क जा त, तकसं गत सं याओं क जा त, याओं क जा त आ द। मानव के स दभ मे ं रा एक जा त है, धा मक समू ह एक जा त है, समलैं गक लोगों क एक जा त है, सेना एक जा त है, कसी क पनी के कमचारी एक जा त हैं इ या द सभी जा त के उदाहरण है।ं इसी कार ‘वण’ का अथ ‘रं ग’ है। वण लोगों के व भ य वों और गुणों को ी ं













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भी इं गत करता है। कसी य का ‘वण’ उसके अतीत के कम और गुणों पर आधािरत होता है जसमे ं ‘गुण’ य गत वभाव एवं वृ यों क दशा बताते है।ं यह एक यापक वषय आजकल क च बन गया है और पाठकों को इस स ब ध मे ं कये गये अनेक शोधों क जानकारी ा करने हेत ु इस पु तक क थ-सू ची 58 देखने क सलाह दी जा रही है। ‘ॐ’ (ओम), आमीन अथवा अ ाह इ या द का समानाथ नहीं है अ पा तरणीयता का न ‘ओम’ क व न और तीक के अं ज़ े ी ल या तरण मे ं अ य धक मह वपू ण हो जाता है। ‘ॐ’ के मह व को बहुत पहले से ही वीकारा गया है, यहाँ तक क प म मे ं भी, जहाँ योगा यासी इसक मू ल व न को सुर त रखने का यास करते है।ं ‘ॐ’ को ह दू धम क येक णाली जैसे वै णव, शैव, त , ी- व ा, पतं ज ल योग-सू , श द, नादएवं नाद-योग के साथ-साथ व भ वै याकरणीय श ा सं थानों तथा फ़ोट स ा त इ या द मे ं एक यापक और गहन जाँच और अ यास के वषय के प मे ं लया गया है। अन गनत वै दक म ों मे ं ‘ओम’ न हत है।59 बौ , जैन और सख धम मे ं भी ऐसा ही है। वशेषकर ईसाइयों के योग (Christian Yoga) के अ यास मे ं एक च लत क तु ु टपू ण त य यह है क ‘ॐ’ को ‘आमीन’ या ‘यीशु’ से व था पत कर दया जाता है। ‘ओम’ के म वाले पहलू को कसी समानाथ श द ारा बदला नहीं जा सकता। ‘ओम’ ई र का क पन है जो अनुकूल मन: थ त मे ं आस है। ऋ ष पतं ज ल ने ‘ॐ’ को ई र का व ा कहा है। अत: इससे जो अनुभव ा होता है उसे ई र के कसी दू सरे नाम क वैक पक व न से उ प नहीं कया जा सकता। जब 2007 मे ं बाबा रामदेव (जो न त प से आज भारत मे ं योगा यास के सबसे लोक य त न ध है)ं ने अमरीका का दौरा कया था तब एक प कार ने उनसे सवाल कया—‘‘अमरीका मे ं कुछ लोग योग को ‘ईसाई योग’ कहते है।ं या यह उ चत है?’’ तब बाबा रामदेव ने कहा— ‘‘जब कोई योगा यास कर रहा हो तब वह ‘ॐ’ का उ ारण कर सकता है। जब क दू सरा य ‘अ ाह-ो-अकबर’ या यीशु का नाम ले सकता है। ‘योग’ एक व ान है और सभी लोगों के लए है। वह व ान ही था जसने बजली का आ व कार कया और हवाई जहाज बनाये। ये कसी वशेष वग के लोगों के लए नहीं हैं ब क सभी के लए है,ं चाहे उनक धा मक मा यता कुछ भी हो। इसी तरह ‘योग’ भी सभी के लए है।’’60 ले कन बाबा रामदेव एक मू ल ब दु भू ल गये। माना क बजली एक सावभौ मक श है, पर तु धना मक छोर को ऋणा मक छोर से बदला नहीं जा सकता या ताँबे के तार को कसी अ य गुणधम के तार से बदल कर समान पिरणाम क आशा नहीं ी









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क जा सकती। साधारणत: एक औष ध को दू सरी से बदला नहीं जा सकता; येक के अपने व श गुण- वभाव होते हैं और वह वशेष पिरणाम उ प करने के लए कुछ न त थ तयों मे ं ही अनुकूल है। मह ष महेश योगी ने कई बार बताया क येक ‘बीज-म ों’ क व न व श व न होती है जसके न त भाव ात है।ं सावभौ मक ायो गकता का अथ है क वशेष पिर थ तयों मे ं एक व श या समान पिरणाम उ प करती है। एक ‘बीज-म ’ को कसी दू सरी मनमानी व न से बदलने से नवेश बदल जाते हैं और व ान के अनुसार इसका वाभा वक अथ यह है ं ।े क उ पाद भी बदल जायेग दुभा य से बाबा रामदेव यह समझाने का मौका चू क गये क ‘ओम’ के उ ारण का अ यास मानव मन-बु से ‘नाम- प’ (नाम और प स ब धी स दभ) को मटाने के लए कया जाता है। म के पीछे वै ा नक स ा त का यही आधार है। सभी इं गत स दभ के परे जाने क उसक मता मे ं ही उसक सवभौ मकता न हत है। ‘यीशु’ और ‘अ ाह’ य वाचक सं ाएँ हैं जो ऐ तहा सक स दभ (अथात नाम- प) से लदी हुई है।ं य द बाबा रामदेव को ‘ओम’ का दू सरे नामों के साथ वै ा नक समीकरण बैठाना है तो आव यक है क पहले वे ‘यीशु’ और ‘अ ाह’ जैसे ऐ तहा सक स दभ वाले श दों के राग का आनुभ वक अ ययन करे;ं उसके बाद ही वे यह नधािरत करने क थ त मे ं होंगे क इन नामों का भाव ‘ओम’ के मा क भाव जैसा ही है।

‘द:ु ख,’ Suffering (पीड़ा) का समक

नहीं है

भारतीय धा मक पर पराओं मे ं आमतौर पर यह माना जाता है क मानव क सम याओं का ोत अधू रा या गलत सं ान है, जो हमारे सं कारों का पिरणाम है। अपनी वा त वक कृ त क पू री समझ हुए बना हम इस सं सार क भौ तक व तुओ,ं वचारों, अवधारणाओं और भावनाओं को, ज हे ं हम वा त वक मानते है,ं अलगाव क अवधारणा से रं गते है।ं य द ऐसा नहीं होता तो यह सं सार हमारे रहने के लए अ त णभं गरु लगता और नय ण करने और सुर ा क हमारी आव यकता ीण होती जाती। सं सार को ैतवादी मानने से बौ ों क मा यता अनुसार दुख (स तोष क कमी, उदासी या च ता) ा होता है। य प हम यह समझ पाते हैं क शारीिरक और मान सक इकाइयों का नमाण उनसे छोटी-छोटी इकाइयों ारा हुआ है जो और भी सू म इकाइयों से बनी है,ं पर तु अ धकां श लोग इस वचार को वीकार करने मे ं असमथ हैं क सं सार मे ं कोई भी वत अ त व है ही नहीं। भगव गीता (12.5) के लोकों मे ं इस सम या क चचा क गई है जो यह सलाह देते हैं क नराकार के त समपण क अपे ा ई र के त य गत भ अ धक आसान और भावशाली है। प मी दाश नक वत अ मता को ‘सार’ या ‘पदाथ’ कहते है,ं ी





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पर तु भारतीय धा मक दृ कोण के अनुसार ऐसे सार और पदाथ मे ं आ था करना अ ानता है। अ ैतवादी ह दू तथा बौ दोनों ही इस यावहािरक वा त वकता (सं सार) का व लेषण करते है,ं पर तु भ - भ पिरणामों के साथ। ह दू वख डन या भगवान पी परमे र मे ं जा कर कता है जहाँ कोई अलग वषय-व तु नहीं रहती, न ही पृथक े णयाँ हीं। दू सरी ओर बौ वख डन कसी परमे र मे ं नहीं ब क णभं गरु होती इकाइयों क याओं, जो च ाकार/पार पिरक प मे ं आपस मे ं जुड़ी हुई अत: अज मी है,ं मे ं कता है। फर भी दोनों मे ं कोई आर भ नहीं है; एक मे ं अ ैतवाद है तथा दू सरे मे ं पृथक अ थायी और सापे य त व है।ं यहू दी और ईसाई मतों मे ं मनु य और परमा मा के बीच अ भ एकता को न समझ सकने का कारण उनक पू ण ैतवादी अवधारणा है, अथात् अनुभव होने वाली (व तु) और अनुभव करने वाले ( य ) को अलग मानना। ैतवादी सोच मे ं जी कर अपने उ े यों क पू त और लालसाओं को उनका अहं कार स तु करता है और नापस द चीज़ों से बचता है, चाहे ये उ े य टकाऊ नहीं है।ं यों क अहं यह मानता है क इकाइयाँ अपने ही बल पर टक है,ं इस लए उनका सं हण स ा तत: कया जा सकता है। उनक अलग इकाइयों के प मे ं अ त व-हीनता अहं को वीकाय नहीं है, यों क ऐसा होने से अहं क खोज ामक, अस भव और यथ स होगी। उनके लए अहं क सबसे अ वीकाय धारणा यह है क यह अपने-आप मे ं मन-बु का बनाया एक कृ म ढाँचा है, अत: एक म है। यह साफ़ दखाई देता है क कस तरह अपने को अलग मानने वाला यह अहं भाव अपनी इस धारणा को भौ तक, मान सक और भावना मक इकाइयों पर थोपता है। इस कार अहं कार के पु षाथ केवल अपने को ही पो षत और मजबू त करने के लए ही होते है।ं ैतवाद सोच वाली णा लयों के अ तिर सभी भारतीय धा मक णा लयाँ य से ैतवाद से ऊपर उठने के लए एक मौ लक सं ाना मक पिरवतन क अपे ा करती है,ं ता क पृथक वषयों के त आस समा हो। पृथक इकाइयों मे ं वयं ही स तु करने क मता है, ऐसी धारणा ‘अ व ा’ है। पर तु इस अ व ामय चेतना क सामा य थ त से परे जा कर तथा परम स य के साथ एकाकार हो कर ही परम का य अनुभव हम कर सकते है।ं प मी दाश नकों के पू णतया का प नक व देहमु सावभौ मक सार, जो अ तत: अ य े एवं अ ा य माने जाते है,ं के मुकाबले आ तिरक व ान के अनुभवों और प तयों ारा बु व और या भगवान य े और ा होने यो य व ासपू वक घो षत कये जा सकते है।ं सभी भारतीय धा मक स दाय मानते हैं क अहं कार ैतवाद से सत होता है, इस लए भी वे अहं कार को मह वपू ण बनाने व उसे मजबू त करने को अ वीकार करते ं जस एक न पर उनमे ं अनेक मत हैं वह यह है क उसके स े व प का ान है? होने के बाद अ मता या ‘आ मा’ का या होता है। अ धकां श ह दू धा मक ै ओं े ी ै े े

मा यताओं के अनुसार ‘आ मा’ ही अ तम स य है। अ ैत वेदा त के अनुसार माया से मु ही के साथ एकाकार होना है। ी जीव गो वामी (सन् 1513-98) क या या के अनुसार सभी जीव और पदाथ भगवान के ही प है,ं इस लए उनसे अलग नहीं है।ं हालाँ क बौ ( व भ आ या मक तक से) इस बात पर ज़ोर देते हैं क जब वयं अ मता पर पर नभरता के जाल से अलग नहीं है तो उससे परे कोई परमा मा नहीं है जससे मलन होना हो। जो भी हो, इन जीवों मे ं ह दू और बौ अहं कार से मु आन द क एक वाव था तक ले जाती है। यावहािरक प से या भगवान क अवधारणा बौ ों क पर पर- नभरता के अनु प है जहाँ दोनों मे ं बना कसी अस ब वचार या ैतवादी अनुभव के पू ण अ त वों से सा ात् होता है। पिर श ‘‘क’’ मे ं इन ब दुओ ं पर आगे चचा क गई है। डे वड लॉय David Loy ने बौ दृ कोण से प मी इ तहास पर शोधकाय कया है। उनक पु तक ‘प म का बौ इ तहास’ (The Buddhist History the West) बताती है क प म और उसके अलग-अलग भाग अ मता क वकृत अवधारणा पर आधािरत है।ं 61 इस अ मता का नमाण ैतवादी सोच से हुआ है, जससे अ मता और दू सरों के बीच तनाव अ त न हत है। धा मक स ा तों के योग से डे वड लॉय ने बताया है क अ मता क ऐसी कोई भी अवधारणा ‘अभाव’ क अनुभू त पर नभर है जो ‘दुख’ के समान है या मेरे वचार मे ं ‘अमू त होने’ जैसा है। इस कार क पृथकता का भाव या देहमु अ मता क मनोवै ा नक थ त के पिरणाम व प हालात के त च ता तो पैदा होती ही है और कसी हद तक यह भी स देह होता है क कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ है और इस बेचन ै ी को कसी कार के बाहरी, भौ तक, मनोवै ा नक या बौ क पिरवतन के उपचार क आव यकता है। ‘दु:ख’ एक मनोवै ा नक अव था है जसमे ं अ मता जतने ज़ोर से वयं को दृढ़ता से आगे बढ़ाती है, उतना ही यादा उसे उस व तु का अभाव खटकता है जो उसके पास नहीं है। अपनी कृ त से ही उसमे ं आ म नभरता नहीं है और बाहरी व तुओ ं क लालसा से अभाव क भावना उ प होती है। इसके वपरीत दु:ख जतना अ धक होगा सम या से नपटने के लए अ मता और अ धक अ धकार ा श शाली कारक के प मे ं काय करेगी। डे वड लॉय प मी इ तहास को ‘सामू हक अ मता’ क अवधारणा के वकास के स दभ मे ं य करते हैं जहाँ येक तर पर उसे व भ अभावों और दुख का सामना करना पड़ता है और इनके नवारण हेत ु उपाय तो सोचे जाते है,ं पर तु वे उसे मलते नहीं। ँ ने के पीड़ा के नवारण हेत ु प मी मु का वचार उसे बाहर ढू ढ़ प मे ं पिरभा षत कया गया है। ओलडो पैटसन (Orlando Patterson) लखते हैं क वत ता का जो मू य प म ने था पत कया है वह मानव स यता ारा सोचे गये कसी अ य मू य क अपे ा बेहतर है।62 पर तु वह इस यास क नरथकता से भी अवगत है— ै ो ों औ ऐ ी

‘‘ यों क अ मता का अ त व और ऐसी अ मता का भु व एक म है तो ऐसी अ मता अपने स े व प का अनुभव कभी नहीं कर पायेगी, अथात् वह पया मु के अनुभव से वं चत रहेगी। यह अपने अभाव का समाधान करने के लए अपनी वत ता के े का व तार करेगी जो इतना बड़ा कभी नहीं हो सकता क स तोषजनक हो।’’63 डे वड लॉय यह भी सुझाव देते हैं क मो , मु , नवाण इ या द मु क वैक पक अवधारणाएँ हैं जन पर प म ने पया और ग भीर प से वचार नहीं कया है। ाचीनकाल के यू ना नयों मे ं सुकरात (Socrates) और लेटो (Plato) ने आ तिरक े पर यान दया और आ तिरक व बा े ों के बीच सामं ज य लाने क आव यकता जताई। पर तु भारतीयों से अलग, ‘योग’ के अभाव क वजह से, मु स ब धी उनका ान अमू त कार के तक पर आधािरत था। लॉय का तक है क मु स ब धी प मी इ तहास उसक अ मता क छ व के आदेश से सं चा लत है जो एक सी मत सं सार मे ं अन त व तार क अपे ा करता है। वे बताते हैं क पाप क अवधारणा वतमान थ त मे ं दु:खों का सामना करने क या या बन गई है; योग ारा आ म- नरी ण करके नहीं ब क वतमान ण को भुला कर भ व य मे ं मु के सुहाने पिरदृ य मे ं क पना कर। मौ लक पाप (original sin) ने ईसाइयों क य वादी अवधारणा को दू षत कया जो पाप के ब धन से मु हेत ु एक पू व शत है।

यीशु अवतार नहीं ईसाइयों का मानना है क केवल यीशु ही पू ण प से ई र के साथ शारीिरक और आ या मक प से एक है।ं यीशु को ाय: एक ह दू श द ‘अवतार’ के प मे ं व णत करने के यास होते है।ं सं कृत मे ं अवतार श द का अथ है ‘दृ य व प मे ं अवतरण’ तथा यह हमे ं पू णता क उ तर अव था मे ं ले जाने हेत ु भगवान का मानव (या ग़ैर-मानव भी) प मे ं पृ वी पर आने का उ ख े करता है। ‘अवतार’ के सजातीय अथ भी है।ं फर भी दोनों ही स दभ मे ं ई र सवश मान हैं और कुछ भी कर सकते है,ं य प वे मानव नयमों के, जो उ हीं के ारा न मत है,ं अ तगत काय करने के लए एक दृ य व प मे ं अवतार लेते है।ं वशेषकर मानव प मे ं आ तिरक वजय या नया आ म-बोध ा करके अवतार येक मानव क चेतना क मता को वक सत करते है,ं ता क वह वयं उ हीं के समान आ तिरक वजय या आ म- ान ा कर सके। इस अथ मे ं अवतार एक कार का अवतरण है, जैसा यीशु ईसाइयत मे ं है। वे जानबू झकर वै छक आ म- तब ध अं गीकार कर अपनी ग त व धयाँ करते है।ं ‘अवतार’ अन त ान से पू ण होते हैं जसका उपयोग वे कर सकते है,ं हालाँ क साधारणत: वे ऐसा नहीं करते या चु न दा प मे ं करते है।ं यह सब कुछ यीशु के सां सािरक जीवन के दौरान लागू होता है। ौ औ ें ी ो े े

पर तु मौ लक पाप और मु दाता क भू मका मे ं यीशु को देखते हुए ‘अवतार’ और ‘यीशु’ के बीच अलं य भ ताएँ है।ं एं टो नयो डे नकोलस (Antonio de Nicolas) ने यीशु के मु दाता व प और ह दू धम के ‘अवतार’ स ब धी अवधारणा मे ं अ तर को एक े उदाहरण से प कया है। उ होंने यीशु का वणन इस कार कया है— ‘‘पापी मानव जा त और God के बीच उ ारकता छ व म य थ के प मे ं है। हम इस छ व को ब ल के बकरे के प मे ं भी जानते हैं जो थानाप शासक के समान है। कसी को एक न त अवसर पर समू चे समुदाय के उ ार हेत ु ब ल के लए चुना गया है। वह अमर द यता ा करता है, अ य मनु यों को बचाता है, अपने परम पता को रं गमं च पर लाता है, उसके अनुयायी उसके नाम पर चच क थापना करते हैं और यही अनुयायी यवहािरक स ा तों के आधार पर एक आ यान, एक मतशा और यवहार मे ं नै तकता क थापना करते है।ं ‘उ ारक/पापी’ क योजना मे ं य यों को अपने आ या मक ान को बढ़ाने के लए बहुत यादा गुं जाइश नहीं है, यों क अ तत: हम पापी है,ं हमारा ज म पाप से हुआ है और हमारा य गत उ ार एक उपहार है, बशत हम नै तकता के बनाये गये स ा तों का पालन करे।ं ऐसा ई र के उ कृ ान ा करने या इस योजना से कतराने के पिरणाम व प नहीं है। यहू दी, इ लाम और ईसाई प थ इस नमू ने के अनुयायी और सं थापक है।ं God और नै तकता स ब धी नयम बाहर से आते हैं और इन अनुया ययों के जीवन का ल य है क सं सार के सभी मनु यों को इस नमू ने के सम आ मसमपण करवाया जाये, चाहे वह बलपू वक हो अथवा धमा तरण ारा। इस नमू ने मे ं य केवल नाम के लए ही य है, यों क वा तव मे ं य क पू णता तो इस नमू ने के सामने पू ण समपण करने मे ं ही है। नमू ने को य यों मे ं इस कार स म लत कया गया है क य यों के प मे ं नमू ना ही येक पालन करने वाले य के मा यम से काय करता है। अत: जहाँ कहीं हं सा होती है वहाँ यह उ ारकता नमू ना अपना काम कर रहा होता है।’’64 पर तु ‘अवतार’ एकदम भ अवधारणा है— ‘‘दू सरी ओर अवतार के नमू ने मे ं उ ारकता क तुलना मे ं मानव के वकास क अपार स भावनाएँ है,ं ‘असत्’ (अराजकता) क स भावना क वह भाषा जहाँ मानव आकारों के सभी स भव रेखा- च , नायकों, देवताओं, मनु यों इ या द के प मे ं ज म लेने क ती ा कर रहे है,ं से ले कर य और छ वयों क भाषा जहाँ सभी नाम- पों को होम करना है। देवता सृजन के प मे ं इस पार हैं और वे कायरत असं य म त कों के आ तिरक मू त प है।ं नामों क अपे ा अ त:करण कायरत है।ं ये काय इतने भावशाली हैं क वे नये देवता भी गढ़ े ैं े े े े ैं े े ो

सकते है,ं काय के नये के था पत कर सकते हैं जनसे मानव ववेक को सही नणय लेने मे ं सहायता मले। यहाँ नै तकता पर चलने के कोई पू वथा पत मानक नहीं हैं जनसे समझौता होना है...।’’65 ईसाइयत का व श दावा क यीशु ही एकमा अवतार थे भारतीय धा मक प तयों को अ वीकाय है। भारतीय धा मक पर परा मे ं समय क माँग के अनुसार येक अवतार शा त् स य को नये सरे से था पत करने के लए आते है।ं ईसाइयत ारा था पत शत के अनुसार यीशु को अवतार के प मे ं वीकार करने का अथ है ं ।े उसे व श थान देना; इससे ी कृ ण जैसे और सभी अवतार अवैध हो जायेग ं जैसा क ी अर व द बताते है— ‘‘भारत ने ाचीन काल से ही अवतारों क वा त वकता, व श प मे ं अवतरण और मानवता मे ं भगव -चेतना के रह यो घाटन के लए माना है। वा तव मे ं प म मे ं यह धारणा लोगों के म त क पर अपनी छाप कभी नहीं बना पाई यों क इसे चच क हठध मता के प मे ं ब हरं ग ईसाइयत ारा, बना तक, सामा य चेतना और जीवन के त दृ कोण के कसी आधार के तुत कया गया है। पर तु भारत मे ं यह सोच फली-फूली है और जीवन के वेदा तक दृ कोण के एक ता कक पिरणाम क तरह दृढ़ बनी रही है और उसने लोगों क चेतना मे ं मजबू त जड़े ं जमा ली है।ं सभी अ त व ई र क अ भ य याँ हैं यों क उसके अ तिर कोई भी अ त व नहीं है, य द होगा तो या तो वह एक वा त वक प या फर उस वा त वकता के क पत प मे ं होगा। अत: येक चेतन जीव कसी हद तक नाम- प के कट सी मत ढाँचे मे ं अन त का ही अवतरण है। पर तु यह आवरणयु अ भ य है और परम चेतना और जीव-चेतना के बीच के मक स ब ध आं शक या पू ण प से सी मत अ मता के अ ान के पद के पीछे छु पे हुए होते है।ं ’’66 यही ई र- पी ा ड है जसे हम ‘सं सार’ कहते हैं और इसक ई रीय लीला ृ ला मे ं कट होती है; अत: वा तव मे ं मानव अपने-आप व वध पों क वशाल ं ख मे ं ई र का ही प है, उससे कम नहीं। ा ड का वकास परमा मा क चेतना का ही अनावरण है। इस अ भ य का एक उ े य है और उसके स य व भ पों क ृ लाओं, जैसे शा त, स भाव, श , यु और वजय, ान और काश, सु दरता, ंख फु ता इ या द मे ं य होते है।ं ी अर व द बताते हैं क जब ई र पी मानव अपने को पहचान लेता है और उसी मान सक ा प के अनुसार काय करता है तब उस नये ज म के प मे ं अ भ य अनुकूल थ त क होती है; यह ई र का पू ण चेतन अवतरण है, इसी को ‘अवतार’ कहते है।67 सृजन के उ े य के लए परमा मा कई वशेष सं चालकों का प लेता है; इनमे ं से येक व श स य क अ भ य का नरी ण करता है। कसी चिर क ें











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अभ य पू ण अवतरण मे ं हो सकती है जसे अवतार कहते हैं या फर कसी व श स य क अ भ य के प मे,ं जसे ‘ वभू त’ कहते है।ं इस कार ‘अवतार’ ई र का दृ य प है, जब क ‘ वभू त’ उसके अन त गुणों मे ं से एक या अ धक क अभ य है। दू सरे श दों मे,ं एक अवतार वभू त भी है पर तु यह आव यक नहीं क कोई वभू त अवतार भी हो। उदाहरण के लए ी कृ ण अवतार के साथ-साथ वभू त भी है,ं जब क अजुन केवल वभू त है। इसी तरह एक बहादुर शासक, उषण, भी केवल एक वभू त है।68 पैग़ बरों के वपरीत ‘अवतार’ परमे र क ओर से चुने गये म य थों के प मे ं काय नहीं करते और न ही इ तहास को आकार देने क ई र क इ छा को समझने के लए मनु यों का उ हे ं जानना आव यक है।

’ या ‘कुंड लनी’ के समक

‘प व आ मा’ (Holy Spirit), ‘श

नहीं

सवधम समभाव क च लत खोज मे ं ाय: यह सुझाव दया जाता है क ईसाइयत क Holy Spirit ह दू धम मे ं ‘श ’ या ‘कुंड लनी’ के समक है। हालाँ क कोई भी मत दू सरे से बेहतर नहीं है, पर तु ये श दाव लयाँ केवल भ अथ मे ं ही नहीं ब क ई र का पर पर ब कुल असं गत त न ध व तुत करती है।ं अ य बातों के साथ वे व व ान क असमान अवधारणाओं पर आधािरत है।ं ाचीन वै दक सा ह य के अनुसार परमा मा ने अपनी रचना मक श से इस ा ड क रचना क । आगे चल कर इसी श को सव री देवी के प मे ं यव थत कया गया जसका पिर कृत धमशा और पू जा क व धयाँ है।ं यह सं सार उसी क अ भ य है। वह इस ा ड का साँचा और मू ल पदाथ है, चेतना और श है और सभी पों को पृथकता दान करने का साधन है जो सम पता मे ं धँसने से बचाने के लए उनक अ त न हत एकता को ढके रहती है। पिर कृत धा मक कम-का ड और यान प तयाँ येक व तु मे ं ‘श ’ क द य उप थ त का आभास एवं उससे एकता का भाव उ प करते है।ं उदाहरण के लए यान क एक प त क च लत शैली के आकृ त च ( ीय ) मे ं ऊपर और नीचे क दशा क ओर एक दू सरे को काटते हुए कोण ‘श ’ के आरोही और अवरोही झुकाव को द शत करते है।ं हालाँ क ईसाइयत मे ं भी ‘प व आ मा’ (Holy Spirit) मनु य के भीतर ही है, पर तु वहाँ वयं के बाहर ‘ऊपर’ से हुए अवतरण पर अ धक बल दया गया है। इसके अ तिर ‘श ’ क तुलना मे ं Holy Spirit को मानव-अ मता या ा ड के सार के प मे ं नहीं देखा जाता। ईसाई मत ई र और उसक सृ के बीच एक न हत ैतवाद को मानता है। इस कारण हम तक स य को तुत करने के लए ऐ तहा सक रह यो घाटनों, पैग़ बरों, पादिरयों और सं थाओं क आव यकता पड़ती है। ले कन ै ी



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दैवीय ‘श ’ के सव यापी और सब मे ं अ त न हत होने के कारण इसे ईसाइयत जैसी सं थाओं पर नभर नहीं रहना पड़ता; उनक अनुभू त योग याओं ारा अ तमन मे ं झाँक कर क जा सकती है। यों क ा ड कुछ और नहीं ‘श क सव यापकता’ ही है, तो यह कहा जा सकता है क ण ै कृ त प के त सं वद े ना यथाथ मे ं न हत है। लगभग येक ह दू गाँव मे ं एक व श देवी ाय: ‘ ामदेवी’ के व प मे ं होती है। व भ ह दू मा यताओं मे ं ‘श ’ को भ - भ पों मे ं देखा गया है, पर तु ह दू धम के येक नर देवता क द यता उसमे ं न हत ी ‘श ’ के कारण ही है। ‘श ’ सदैव हमारे भौ तक शरीर मे ं होती है। एक ह दू शा के अनुसार ‘‘मनु य का शरीर देवी का म दर है।’’ इस लए उसे सात ना भक य ब दुओ ं (‘च ’) क ृ ला के प मे ं अनुभव कया जा सकता है। ‘श ’ क के त मनोधाराओं क ं ख आ या मक ऊजा (कुंड लनी) हर य क मे द ड के नचले भाग मे ं थत है। व भ आ या मक साधनाओं ारा कु ड लनी को जागृत करके च ों ारा ऊपर ँ ाया जाता है जससे य क ओर पहुच ैतवाद से मु हो कर एक व चेतना ा करता है। इस एक व चेतना से अलग कोई वग नहीं है। मानव शरीर क अवधारणा ईसाइयत मे ं अलग तरह से क गई है। एक ओर तो मानव ई र क छ व मे ं न मत है, वहीं दू सरी ओर शरीर को मू ल पाप (original sin) के सारण का मा यम माना गया है जससे य बुरी आ माओं से भा वत हो सकता है। ह दू धम मे ं कु ड लनी को ाय: शुभ फण फैलाये एक कोबरा नाग के प मे ं च त कया जाता है। ले कन ईसाइयत का के ीय मथक एक ऐसा नाग है जो बुराई का अवतार है। ह दू धम मे ं गु श य क कु ड लनी जागृत करने तथा उस अनुभव को सामा य जीवन मे ं समा हत करने मे ं सहायता करता है। कई आ म कु ड लनी जागृत करने के लए वशेष सहायता दान करते हैं जसमे ं कभी-कभी अ थायी ल ण, जैसे शरीर मे ं क पन, सहज अ भ य और गहन भ भाव उ प होते है।ं यह सभी घटनाएँ य गत हैं और साधक क सुर ा को छोड़ कर आ म क ओर से उ हे ं नय त करने का कोई यास नहीं होता। सबसे मह वपू ण अ तर यह है क इस अनुभव को ईसाइयत के कसी व श इ तहास के मा यम ारा क हुई या या जैसे य नहीं कया जाता। कु ड लनी जागरण जैसे ल ण क घटनाएँ छटपुट व प मे ं ईसाइयों मे ं भी हुई है,ं पर तु चच क मुख स ा ारा इसे म त ं श माना गया है और यहाँ तक क इसे शैतान का काम बताया गया है। ज हे ं ऐसे अनुभव हुए हैं उ हे ं उनके ववेक पर स देह करने के लए िे रत कया गया और ाय: मान सक प से बीमार माना गया। यहाँ तक क उ हे ं पागलख़ाने मे ं भी भत कया गया।69 ें

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ु ों को ह दू धम मे ं कोई ‘बुरी आ मा’ या रा सी श नहीं है। ‘श ’ सभी व स म लत करती है जनमे ं वह एकसाथ एक भी है और अनेक भी, काश भी है और अँधकार भी, सहायक भी है और हं सक पा तरणकता भी; ऐसे जोड़ों के दोनों छोरों को आ या मकता मे ं एक कृत करने क आव यकता है। काली क च डता और अँधकार से ले कर पावती के े हल पालन-पोषण को ह दू धम परमा मा के सभी पहलुओ ं के प मे ं वीकार करता है। य द कभी कु ड लनी जागरण का कोई नकारा मक भाव होता भी है तो वह उस य क धारणा और कृ त के कारण होता है, न क क हीं बाहरी बुरी आ माओं ु या क के कारण। यहाँ पर पुन: बजली का उदाहरण उपयोगी है। येक व त या अ त न हत प से न तो अ छ है और न बुरी, वह अपने वाभा वक गुणों के अनुसार त या करती है। इसी दृ कोण के पिरणाम व प ह दू ओं ने कु ड लनी जागरण को ले कर साहसी योग कये है,ं ठ क उसी कार जैसे क ु के साथ करते है।ं वै ा नक व त ईसाइयत मे ं अ छे और बुरे के बीच ैतवाद पर बल देने के पिरणाम व प बुरी आ माओं ारा आ धप य का भय पैदा होता है। इस भय को ाय: मू तपू जकों या उनके धम पर े पत करने का यास हुआ है, वशेष प से ह दू देवी ‘काली माँ’ पर, जसक च डता और काला रं ग प मी लोगों के लए भीषण प से चौंकाने वाला है। ऐसी बुरी आ माओं से छु टकारा पाने के लए कभी-कभी यीशु का नाम लेने या पास मे ं बाइबल रखने क धारणा है। ‘श ’ क अवधारणा ी व पा है जसके असं य प हैं तथा जब इसे ठ क से समझा जाता है तब कोई भी प अराजकता या बुरी आ माओं के त भय उ प नहीं करता। यदा-कदा Holy Spirit क भी क पना ी प मे ं क गई है, वशेषकर ओ ड टे टामे स मे ं इसे ान क देवी ‘सो फ़या’ (Sophia) के कुछ भजनों के साथ जोड़ कर देखा गया है। पर तु यह स ब ध साधारणत: ईसाइयत क मु यधारा ने वीकार नहीं कया। इसके अ तिर ईसाइयत क सबसे मुख ी पा , ‘कुवाँरी मैरी’ (Virgin Mary) Holy Spirit के सम प नहीं है। Holy Spirit बड़े ही रह यमयी ढं ग से यीशु को व जन मैरी के गभ मे ं लाती है, पर तु यह अनुभव छट-पुट और असाधारण है और दू सरे मनु यों मे ं स भव नहीं है, जब क ‘श ’ का अनुभव कोई भी कर सकता है। कुछ तीका मक च ों को छोड़ कर मैरी के अनुभवों को सभी ईसाइयों मे ं कट करने के कये कोई आ या मक याएँ नहीं है।ं कई अ तस कृ त वशेष कु ड लनी जागरण क या का स ब ध ं क ‘पेट े ो टल’ पू जा क घटना से करते हैं जसे Holy Spirit के काय के प मे ं व णत ं क कया गया है। गु ारा जागृत कु ड लनी या ‘श पथ’ जैसे ही पेट े ो टल अनुभवों मे ं भी ती शारीिरक त याएँ कसी चम कारी गु ारा ार भ क जा सकती है।ं हालाँ क ऐसे अनुभवों को ईसाइयत क मु यधारा ारा स देह क दृ से देखा जाता ै ें ई ई ों े ं ो े े

है। वा तव मे ं ईसाई मतशा ों मे ं Holy Spirit को एक तरह के अपू वानुमय े घटक (wild card) के प मे ं लया गया है जससे समझ के ार खुलते है,ं पर तु उ हे ं वधम के प मे ं न दत कया जाता है। वधम के ख़तरे को कम करने के लए इन अनुभवों को सावधानी से ‘पाप मु के लए जारी सं घष’ के स दभ के साथ नयमब कया जाता है और वह मु केवल यीशु क कृपा से ही मल सकती है। ‘श ’ के वपरीत Holy Spirit को योग याओं ारा य के नजी आ तिरक अनुभवों के प मे ं कट नहीं कया जाता, ब क बाहरी असाधारण सामुदा यक ाथना के आ ान ारा उसे अपने अ दर ं क बठाया जाता है। वशेषकर पेट े ो टल बुरी या शा व आ माओं के ख़तरे के त सचेत रहते हैं और अ धकां श तो कसी दू सरे मत के आ या मक अनुभव को एकदम ख़ािरज कर देते है,ं जसके कारण वशेषकर ह दू गु स द ध बन जाते है।ं श को ईसाइयत के ढाँचे मे ं गलत च ण का अगला पिरणाम यह होता है क ह दू देवी क पू जा को ाय: गलती से व जन मैरी क पू जा के समक रख दया जाता है।70 इस आ या मक वसं ग त का एक उदाहरण ह दू धम मे ं ‘महादेवी’ का है जसमे ं दू सरी सभी दे वयाँ, जैसे दुगा, काली, ल मी, सर वती, अ बका और उमा समा हत है।ं ई रीय माता जसे कभी-कभी श भी कहते है,ं ा ड क द य ऊजा क सव थम अ भ य हैं जसक रचना मक श और गभ से स पू ण ा ड और उसके सभी प उ प होते है।ं पू री सृ उनक श से आ ला वत है। बौ धम मे ं इसे क णा का अवतार, ‘ वान यन’ (Kwan Yin), द य ी ‘तारा’ (Tara) या अपने असाधारण साधनों ारा पर परा क ‘महान माता’ बनने वाली ‘शेरप चामा’ के पों मे ं देखा गया है। ई र को ‘देवी माता’ के प मे ं पू जना ह दू और बौ धम के कुछ स दायों क वशेष देन है। परमे री माँ व भ श यों, य वों, उ प यों एवं वभू तयों क वा मनी है जनके मा यम से वे इस ा ड मे ं अपना काय करती है।ं व भ पों एवं य वों क इन उ प यों को मानव ने अलग-अलग नामों के अ तगत अनादी काल से पू जा है। वह अपनी कसी भी या सभी अ भ य यों मे ं देखी और अनुभव क जा सकती है। ी अर व द परमे री माता के चार मु य पहलुओ ं को रेखां कत ं करते है— 1) ‘महे री’ शा त व तार एवं समझ मे ं आने वाली बु म ा, सहज कृपा, अपार क णा, े एवं असाधारण तेज तथा शासन क म हमा का त न ध व करता य व है।ं 2) ‘महाकाली’ अपनी शानदार श और बल जोश, यो ा मनोदशा, जबद त इ छाश , अ य धक फ़ू त एवं व को हला कर रख देने वाली ताकत का त न ध व करती है।ं ं ी ी े े ो ी ों ी

3) ‘महाल मी’ अपनी म े मय, मधुर एवं अ भुत सु दरता के गोपनीय रह यों भरी सामं ज यता तथा सटीक लया मकता, अपनी ज टल और गू ढ़ समृ , स मोहक आकषण और मनोहर कृपाश को तुत करती है।ं 4) ‘महासर वती’ अपने व तृत ान क गु और अथाह मता, सतक एवं दोषहीन काय और सभी व तुओ ं मे ं शा तपू ण और पारं गत द ता का त न ध व करती है।ं ी अर व द लखते हैं क ‘‘ कसी भी आमू ल पिरवतन को स भव बनाने के लए े तम माँ के इन चारों पहलुओ ं को अनुभव करना पड़े गा। जब मानव मन, जीवन और शरीर इन चारों क सामं ज यता और ग त व धयों क वत ता से पा तिरत होता है तभी मानव कृ त स य द य कृ त मे ं पिरव तत हो सकती है’’।71 कोई य कसी एक पहलू का दू सरे मे ं आसानी से अनुवाद करके व वधता को कम नहीं कर सकता। इसका अथ यह है क साधक को अनुभू त होने के पहले स पू ण पिरवतन क या से गुज़रना पड़े गा और यह पिरवतन ‘साधना’ के मा यम से ही हो सकता है। वै दक पर परा मे ं ‘अ द त’ को सभी देवताओं क माता या ‘अन त माँ’ के प मे ं जाना जाता है। ‘अ द त’ दो अवयवों से मल कर बना है, ‘अ’ और ‘ द त’ जसमे ं उपसग ‘अ’ नषेधा मक है। ‘ द त’ श द सं कृत के मू ल ‘ द’ से नकला है जसका अथ है काटना, वभाजन, अलग या वख डन करना, अथात् ‘ द त’ ैतवाद या अलगाव के अथ को स द भत करता है। इस कार ‘अ द त’ श द उस एकता को स द भत करता है जो अ वभा य है। सभी देवताओं क माता अ द त अ वभा जत चेतना हैं जब क ‘ द त’ जसके ारा सभी ‘दै यों’ (रा सों) का ज म हुआ है, वभा जत चेतना का प है।72 येक देवी अन त चैत य श अ द त का ही एक प है। व भ ह दू पर पराओं मे ं अ द त को सं क प, नयम, माया, कृ त और श आ द व भ नामों से स बो धत कया जाता है। अ द त एक अन त चेतना है जो ा ड मे ं सभी चेतना पों का ोत है और सभी श याँ उसक है।ं त श भी एक सव देव को मा यता देती है जो सबका सं चालन करते हैं और यह सव श आ देवी ही है।ं उसके दस व श चिर हैं ज हे ं ‘दशमहा व ा’ (या ान के दस पथ) कहा जाता है।73 यही दस ान के ोत स पू ण ान क णाली नधािरत करते है।ं इनमे ं से येक देवी एक व श और मौ लक दा य व को नय त करती हैं तथा अ त व के एक व श रचना मक स ा त का सं चालन करती है।ं प है क जस कार ईसाइयत मे ं व जन मैरी को न पत कया गया है वह साफ़ तौर पर ह दू धम मे ं ‘देवी’ और उसक बहुत-सी अ भ य यों को समझने व अनुभव करने से एकदम अलग है। े ी ें े ों े

भारत के द णी भाग मे ं धमा तरण करने वालों ने एक बड़ा अ भयान चलाया हुआ है जसमे ं व जन मैरी को ह दू देवी के वक प के प मे ं तुत कया जाता है। उसके लए सम पत एक गरजाघर मे ं पू जा जैसे अनु ान कये जाते हैं जनमे ं फूलमालाओं का उपयोग, फ़श पर बैठना, अगरब ी जलाना, साद बाँटना, आरती आ द का ढोंग कया जाता है। मू ल नवा सयों को यह व ास दलाया जाता है क वे अपने ृ धा मक माहौल और व ास के े मे ं ही हैं और यह नई वदेशी देवी पिर चत पैतक वा तव मे ं उनक देवी के समान ही है, केवल यह आधु नक णाली क है जो क ँ ीवाली और गरीबों के त उदार और दानशील है इ या द। इसी तरह साफ़-सुथरी, पू ज चच ारा कई ईसाई स तों को ऋ षयों क तरह था पत कया जाता है; यीशु को अवतार या योगी के प मे ं चािरत कया जाता है और बाइबल को वेद के समान सािरत कया जाता है। कुछ भारतीय चारकों ने तो ‘श ’ श द के थान पर Holy Spirit (प व आ मा) श द का उपयोग करना आर भ कर दया है। इस कार के धू त यासों ने बहुत से ह दुओ ं को वयं उनक धा मक व श ता और व ास के त उलझन मे ं डाल दया है। 1960 के दशक से कई ईसाई व ानों, वशेषकर म हलाओं ने, ईसाइयत के कई वषयों वशेषकर इसके ‘ पतृ स ा मक’ मतशा और सं थान, कमज़ोर पािर थ तक य त , योग प त और उसमे ं स हत तकनीक के अभाव इ या द का समाधान करने के लए ह दू देवी के पहलुओ ं को आ मसात कया। हालाँ क ये यास शं सनीय है,ं पर तु सावधान रहना है क कहीं ‘श ’ क मू ल ह दू अवधारणाएँ केवल जोड़-तोड़ (Add-on) के लए ही तो उपयोग मे ं नहीं लाई जा रहीं। पर परा को अलग-अलग टुकड़ों मे ं बाँट कर कुछ चु न दा भागों को अपनाते हुए बाक भागों को मटाने से मू ल ोत वकृत और ीण हो जाता है। ‘श ’ को पालतू नहीं बनाया जा सकता। ईसाइयों ारा ‘श ’ और ‘कु ड लनी’ को ामा णक तौर पर वीकृ त देना जतना साधारण प से माना जाता है उससे कहीं अ धक चुनौतीपू ण है। ऐसा करना परमे र क व वध अ भ य यों के व चच क स दयों से चली आ रही ताड़ना को ठु कराना होगा और ईसाइयत मे ं पिरवतन ला कर देवी को परमा मा के प मे ं था पत करना होगा। इससे बहुदव े वादी, मू तपू जक एवं अराजकता स ब धी पुरानी मृ तयाँ फर से जागृत होंगी तथा यह चच क ‘प व त व’ (Holy Trinity) क पार पिरक अवधारणा को भी चुनौती देगा। ‘पैग़ बर’ या ‘ईसाई स त’ श द ‘ऋ ष,’ ‘गु ’ अथवा ‘योगी’ के समानाथ नहीं हैं प म मे ं ‘स त’ श द उसके लए योग कया जाता है जो प व या सदाचारी है, अत: इस अथ के अनुसार यह ऋ ष, गु अथवा योगी के समान दखाई देता है, पर तु ें ऐ



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वा तव मे ं ऐसा है नहीं। ‘साधु’ अथात ‘ यागी’ शायद प मी स त के यादा अनु प होगा, पर तु यहाँ भी सम याएँ है।ं अ य बातों के अ तिर ‘स त’ श द रोमन कैथो लक एवं ढ़वादी ईसाइयत मे ं व श सं केताथ लए हुए है। इस श द क उ प ार भक चच मे ं हुई थी।74 इसके आ धकािरक एवं सटीक ईसाई श दाथ के अनुसार यह रोमन कैथो लक या ढ़वादी चच ारा मा यता ा कसी ऐसे मृत य के लए स द भत कया जाता है जो ईसाइयत के वादे के अनुसार वग मे ं पू ण प से मु वचरण कर रहा हो और God का द य आन द ले रहा हो। कैथो लक चच क एक वशेष औपचािरक ‘स त घोषणा’ प त है जो उन ‘स तों’ को मा यता देती है ज हे ं ईसाइयों के लए अनुकरणीय य के प मे ं चुना जाता है। दस हज़ार से भी अ धक मा यता ा कैथो लक स त हैं और उनसे भी अ धक ढ़वादी चच मे ं है।ं उ ख े नीय त य यह है क पु ष अ धकां श मा यता ा अ भ ष स त हैं (म हलाएं बहुत ही कम है)ं तथा बहुत से ार भक स त वे हैं जो ईसाइयत के चार- सार और उसक र ा मे ं शहीद हुए थे। इ हे ं चेतना क उ त थ त ा करने के लए नहीं ब क उनके ब लदानों के लए जाना जाता है। साधुता मु से भ है जो बप त मा करवा कर और God को अपने जीवन मे ं वीकार करने के बाद सभी व ास करने वालों को त काल उपल ध है और तभी खोई जा सकती है जब य बना प ाताप कये पाप करता जाये। साधुता— द य दृ क स ी उपल ध, एक उ तर क समझ और ई र से सीधा स पक—एक ऐसी या है जो ल बे समय तक स य के दशन ारा ा क जाती है, जसमे ं ाय: शहादत, तप या और दू सरों क सेवा जैसी क ठन परी ाओं से गुजरना पड़ता है। प म के बहुत से साधू न तो रह यवादी थे और न ही मतशा ी। साधुता यान या च तन मे ं कसी व श अनुभवा मक ा या कसी अ भ य को जसे सं कृत मे ं ‘ स ’ कहते है,ं क ओर सं केत नहीं करती। ईसाई लोग स तों को उ चेतना के े के कसी वशेष क तरह नहीं देखते और न ही ऐसी थ तयों क ा साधुता के लए आव यक मानी जाती है। स त घो षत होने के लए क ठन समय मे ं भी य गत ा और चम कार कर सकने क मता आव यक है; इन गुणों को एक औपचािरक या ारा था पत कया जाता है जो ाय: य क मृ यु के कुछ वष बाद स प क जाती है। चम कार मह वपू ण है यों क कैथो लक ईसाई मानते हैं क स त वग से धरती के लोगों के लए म य थता करते हैं और ‘ई र के म ’ के प मे ं उनके लए ाथना करते है,ं अथात् वे मानव और ई र के बीच म य थ है।ं ोटे टे ट मत मे ं साधुता क क पना कुछ हद तक इस त प से भ है यों क यह म ययुगीन कैथो लक स तों के अ याचारों को अ वीकृत करता है। ोटे टे टों ने ों









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इन अ याचारों को अँध व ास, मू तपू जा और ाचार के सं केत क तरह देखा। इस लए ोटे टे ट ‘स त’ श द के उपयोग का (सामा य प से आ या मक लोगों को स द भत करने के अ तिर ) वरोध करते है,ं हालाँ क कई ोटे टे ट धमा तरणवादी God के साथ सीधा पैग़ बरी स पक होने का दावा करते है।ं यह यवहार ‘ई र क इ छा’ के अनुसार चलता है, न क भगवान से ‘सत्- चत्-आन द’ के अनुभव के लए। रोमन कैथो लकों क तुलना मे ं ई र के साथ स पक करने मे ं मनु य के यासों क कसी भू मका को ोटे टे ट अ धक ज़ोर दे कर नकारते है,ं जसे वे पू री तरह से ई र क कृपा पर आधािरत मानते है।ं अत: योगी, गु , आचाय, साधु अथवा जीवनमु इ या द को प मी श द ‘स त’ के समानाथ मानना एक बड़ी गलती है, यों क सं कृत के ये स बोधन उन य यों के लए हैं ज होंने व भ तरों क य आ या मक उपल ध अनुभव क है। कसी ‘ऋ ष’ के समान कोई प मी स त अपने सीधे आ तिरक आ या मक अनुभव के रह यो घाटन का ोत नहीं है और यह भी हो सकता है क उसने अपने जीवनकाल मे ं मु क वैसी थ त ा न क हो जैसी एक जीवनमु करता है। इसके अ तिर इ ाहमी मतों मे ं परमा मा से एकाकार होने और उनसे पहचान बनाने को ब कुल ही नकार दया जाता है और इस बात पर ज़ोर दया जाता है क ई र का वच व मानव ारा कभी भी ा नहीं कया जा सकता। पैग़ बर श द यहू दी, ईसाई और इ लामी धम मे ं एक वशेष कार के आ या मक माग-दशक के लए उपयोग कया जाता है तथा भारतीय धा मक पर परा मे ं इसका कोई समानाथ नहीं है। पैग़ बर, ‘गु ’ के अथ जैसा नहीं है जो श य क साधना को मु क ओर ले जाने का मागदशन देता है। और न ही वह ‘ऋ ष’ क तरह है जो ा डीय चेतना से एक हो कर शा त् सावभौ मक स यों को उजागर करता है। न ही वह ‘जीवनमु ’ है जो इसी जीवन मे ं पू ण मु मे ं जीता है। ँ ाने के इ ाहमी मतों मे ं पैग़ बर वह है जसे God ने अपनी इ छा को पृ वी तक पहुच लए चुना है। उसका योग केवल God के व ा के प मे ं होता है। यह स देश इज़राइ लयों (children of Israel), ईसाई चच, इं गत देशों या समू ची मानव जा त के लए नद शत हो सकता है। सामा यत: इसे य यों के लए नद शत नहीं कया जाता। God पैग़ बरों को इस लए नहीं चुनता यों क वे रह यवादी या मतशा ी है।ं उ होंने अपना जीवन चाहे प व या तप वी भी न रखा हो पर तु उ होंने य गत आ ाकािरता द शत क होगी और चुने जाने के बाद वे मतशा के अनुसार गहन प ाताप और नेक के पथ पर चले होंग।े पैग़ बर को एक साधारण य क तरह अनुकूल बनाया जाता है, चाहे उसने अपना जीवन कसी योगी अथवा यहाँ तक क प व य के प मे ं भी नहीं बताया हो। दू सरे श दों मे,ं भारतीय स दभ मे ं वह सामा यत: एक मननशील अथवा यागी य नहीं है। ब क वह God का एक सम पत एवं स य प से य त ै ो े ी े ी ों औ ि ो ों ै े ि ों औ

तेज वी सेवक है जो त कालीन मानद डों और आ धकािरक लोगों जैसे पादिरयों और शासकों को ाय: चुनौती देता है। मु यधारा के मतशा यों क दृ मे ं यह आव यक नहीं है क पैग़ बरों क राय या नजी मा यताएँ सही हों। उनका काय यह है क God के स देश क सही या या हो, जो उ हे ं God से सीधे ा होता है। मतशा यों क दृ मे ं पैग़ बर क या या गलत हो सकती है। पैग़ बर वयं यह प करते हैं क मह व God के स देश को दया जाना चा हए न क स देशवाहक को। उदाहरण के लए मोजेस (Moses) को एक ऐसे पैग़ बर क मा यता ा है जसने God से सीधे बात क , ले कन उ हे ं ‘स त’ के प मे ं नहीं पू जा जाता और इस तरह से भी नहीं क जैसे उसने इसी जीवनकाल मे ं मु ा कर ली हो। (हालाँ क यहाँ ‘स त’ जैसे शीषक का योग अनु चत ही है, यों क सही बात तो यह होगी क ईसाई श द केवल ईसाइयों पर ही लागू हो)। यह एक जानी-मानी बात है क वा तव मे ं वह ँ भी नहीं पाया था, उसने इसे बाइबल के मु के थान (Promised Land) तक पहुच केवल दू र ही से देखा। कसी पैग़ बर क म हमा उसक इस मता मे ं न हत होती है क वह ‘गॉड’ क ँ ाता है। वह योजना य यों को योजनाओं को कतनी ईमानदारी से मनु यों तक पहुच माया-मोह और सं सार से मु दलाने के बारे मे ं नहीं है। पैग़ बर कोई दाश नक नहीं होता; वह वा त वकता क परम सं रचना, चेतना क कृ त या परमा मा के साथ एकाकार होने के ान के बारे मे ं नहीं बताता। वह केवल मनु य के कत यों और पू जा ँ ाता है। उसने चाहे उ के बारे मे ं ‘गॉड’ क इ छा को उन तक पहुच तर क चेतना या ा ड के त अ तदृ न भी ा क हो, जैसी भारतीय ऋ षयों ने क थी। जब भी इ हे ं समान प से उपयोग कया जाता है, पैग़ बरों और ऋ षयों के बीच इस मह वपू ण अ तर को छु पाया या अनदेखा कया जाता है। ं छठ शता दी अतीत और भ व य क भ व यवा णयों के उदाहरण न नानुसार है— ईसा पू व मे ं सोलोमन (Solomon) के म दर का वनाश और यहू दयों का बेबीलोन (Badylon) मे ं नवासन; सन् 70 मे ं दू सरे यहू दी म दर का वनाश और उसके बाद यहू दयों का नवासन और बखराव; यीशु क मृ यु और उनका पुन: उ भव ( जसके बारे मे ं ईसाई मु यधारा का मानना है क दू सरों के साथ यह भ व यवाणी ओ ड टे टामे ट के पैग़ बर जोशुआ (Isaiah) ारा क गई थी); यीशु क भ व य मे ं पृ वी पर वापसी और यह वचार क यु , अकाल, महामारी और मौते ं सं सार के अ त का पू वाभास हैं और इसके प ात य शलम क स ा क वापसी और इसके लोगों क बहाली होगी। इनमे ं से बहुत-सी बाते ं ववादा पद हैं और व ानों ने इन पर बहस क है। ले कन जो बात ऋ षयों के कथनों के वपरीत प उभर कर आती है वह यह है क ये स देश केवल व श ऐ तहा सक या भ व य क घटनाओं के बारे मे ं ही बताते है।ं ै ई ई ों े ं े ें

ईसाई समू हों मे ं इस बारे मे ं बहुत मत भ ता है क ह ू बाइबल (Hebrew Bible) के वीकृत महान पैग़ बरों के बाद भ व यवाणी होना जारी रही अथवा नहीं। कुछ का मानना है क अ तम पैग़ बर यीशु के आगमन के बाद, ज होंने ‘ई र के पू ण स देशों’ को आ मसात कर वतिरत कया, पैग़ बरवाद का अ त हो गया। दू सरों का तक है क बाइबल मे ं भी भ व यवाणी जारी रहने के माण हैं और लगभग सभी ईसाइयों का मानना है क उपचार तथा रह यो घाटन क गहन समझ आज भी कट हो रही है। स े पैग़ बरों को पहचानने या स य को अस य से अलग करने के लए कोई सु न त व ध नहीं है, सवाय इसके क स ी भ व यवाणी पहले के पैग़ बरों ँ ते है।ं झू ठे का ख डन नहीं करती और आ तक चम कारों को माण के प मे ं ढू ढ़ पैग़ बरों के ारा तबाही मचाने क स भावना के कारण वे एक बड़ा ख़तरा माने जाते है,ं जससे ऐ तहा सक स यता के त च ता बनी रहती है। आजकल के किर माई और धमा तरणवादी ईसाई समू हों और कुछ इ ला मक सं थाओं तथा प म क मु यधारा से बाहर के कई प थों अथवा वध मयों मे ं कसी नेता को पैग़ बर भी मान लया जाता है। यह शीषक ईसाई मत क मु य धारा मे ं योग नहीं कया जाता, हालाँ क ाय: ऐसे कसी स देश को आम अथ मे ं पैग़ बरी के तौर पर स द भत कर दया जाता है, मानो वह पृ वी के लोगों के लए ‘गॉड’ क श ा या इ छा य कर रहा हो। इसके वपरीत ‘ऋ ष’ अपने अनुशा सत अ यास ारा चेतना के उ तर और सामा य से ऊँची मानव मताएँ ा करने के लए अपना जीवन सम पत करते है।ं वे अपने अ त उ त तर के अ त ान और आ म ान से स य का सा ा कार करते है।ं वे अनुभव क अन यता मे ं व ास रखते हैं और सतत् तप या से वयं को यथास भव इतना बढ़ाते हैं क अपनी चेतना का व तार मानव तर को पार कर चेतना मे ं लीन हो जाते है।ं परम स य के सीधे ल य क ा के लए ऋ षयों को कई तरों से गुजरना पड़ सकता है और इसे येक मानव ारा दोहराया भी जा सकता है। पहले चरण मे ं ऋ ष को ा ण या का ाता कहा जाता है; दू सरे चरण मे ं उसे ‘ ,’ अथात् जो मे ं रमण करता है, कहा जाता है (यहाँ ा ण वण से कोई स ब ध नहीं है) और अ तम चरण मे ं उसे ‘ ीभू त’ (अथात जो वयं बन गया है) कहा जाता है। ऋ षयों क आकां ा परम स य के साथ एकाकार होने क होती है।75 ऋ षयों को ाय: तीकों क अ तदृ सां के तक प मे ं मलती है ज हे ं वे म ों क भाषा ारा य करते है।ं वे श क और मागदशक भी है;ं ाचीन भारत मे ं सामा य जीवन मु य प से इ हीं के भाव से न मत हुआ था। यहू दी-ईसाई अथ मे ं भारतीय ऋ ष ई र का स देशवाहक होने का दावा नहीं करते। वे अपने चम कारों के लए नहीं जाने जाते और न ही उनक उनमे ं कोई च ही रही है। वे मनोभावों अथवा आवेगों पर नभर नहीं रहते। ऋ षयों क व श ता यह ी ै े ो औ े े े ैं

रही है क वे आ म-बोध और काश के मा यम से परम स य का अनुभव करते है।ं उनके लए ‘ म े ’ एक सहज अ भ य है जो एक व क भावना से उपजी है। कसी भी ऋ ष को शहीद के प मे ं स मा नत नहीं कया गया और न ही चच के स तों क तरह कोई ऋ ष कसी श शाली सं था से जुड़े रहे। कोई ऋ ष चाहे वह एक ज ासु श य के प मे ं ही हो, अपने से अ धक आ मबोध वाले दू सरे ऋ ष के पास जाता था। जो लोग अं तधा मक सं वाद और स ब धों मे ं य त हैं उनके लए यह भेद पहचानना मह वपू ण है, यों क प मी मा यताओं को सनातन धा मक मा यताओं पर थोपने (अथवा इस के उलट भी) के यास अपिरहाय प से यू नकारी हो जाते है।ं

देवता, मू तपू जकों के ई र के समानाथ नहीं हैं मू तपू जा और बहुदव े वाद के चलन को ाय: व वध कार के धम के साथ स ब धत कया गया था, ज हे ं पहले ाचीन इज़राइल ारा और फर चच ारा पैशा चक मान कर व त कया गया। उनके अनुसार मू तपू जकों मे ं न न कार के ं लोग स म लत है— 1) पू व वधान (Old Testament) के समय के कनान (Canaan) के थानीय मतों और आसपास के े ों के प थों के अनुयायी; 2) व भ कार के बहुदव े वादी जनमे ं पुराने यू नानी और रोमन भी थे जो कई देवताओं मे ं व ास करते हुए तीत होते थे; 3) म ययुगीन चुड़ैले ं (अ धकाँशत: म हलाएँ) जो पृ वी क ाकृ तक श यों का आ ान और उपयोग करती थीं और ज हे ं ईसाई धमा तरण अ भयानों के दौरान चच ने बड़ी सं या मे ं ता ड़त कया; 4) शैतान के उपासक जो जानबू झ कर यीशु मसीह के दु मन के प मे ं काम करते थे और जो सीधे ईसाई दृ कोण और श ाओं को उलट कर उनका बलपू वक अ त मण करते थे; 5) अ य व भ समू ह ज हे ं चच क स ा ने मू तपू जक माना, वशेषकर झाड़फूँक करने वाले। इन सभी समू हों को ‘मू तपू जक’ या ‘अस य’ माना गया। मू तपू जकों को ‘का फ़र’ तथा ‘अ य’ या बाहरी मान कर उनक भ सना क गई। यह कहा गया क इ हे ं यु मे ं हरा कर ईसाइयत मे ं पिरव तत करना है। जैस-े जैसे यहू दी और ईसाई मत वक सत हो कर फैलते गये उ होंने ‘मू तपू जक’ और ‘बहुदव े वादी’ समुदायों क बहुत-सी थाओं, तीकों और वचारों को नई तरह से घुमा कर आ मसात कया। उदाहरण के लए ‘ समस के पेड़’ (Christmas tree) को जमनी के वदेशी कृ त-पू जक प थ से नकल करके लया गया; मेरी (Mary) और यीशु के बाल प क च लत छ व को कदा चत म के आई सस (Isis) प थ के माँ-ब े क छ व के नमू ने के प मे ं लया गया; ई टर (Easter) क कई पर परागत थाएँ जैसे अ डे क सजावट तथा खरगोश का तीक भी ईसा-पू व के जनन कम-का डों से लए गये। मू तपू जकों को अपने मे ं मलाने के लए उनका धमा तरण करके उनके कई देवताओं और पू जनीय तीकों को ईसाई पू जा क र मों मे ं ‘स तों’ और मृ त- च ों के प मे ं मला लया गया। इसके अ तिर ईसा-पू व काल के बहुत से योहार और छु ि याँ भी ईसाई कैले डर मे ं स म लत कर लए गये ों



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तथा धा मक थलों को पुनवग कृत कर ईसाई इ तहास के भाग के प मे ं दखाया गया। अ धकां श मामलों मे ं यह या जबरन क जा करने जैसी थी। उपरो या ईसाइयत क अ य सं कृ तयों को पचाने क सामा य वृ को प प से दशाती है। ईसाइयत ने परा जत कये धम के उपयोगी त वों को आ मसात कर उनके अ य दृ कोणों को ‘मू तपू जक’ बता कर उपे त कर दया। य प ये धम और प थ भारतीय धा मक पर पराओं से एकदम भ थे, पर तु ईसाइयत ारा उनको पचाना यह बतलाता है क ईसाइयत अपने त यों के साथ कैसा यवहार करती है। अ ध हण क यह या ाय: अ य धक हं सक होती थी। पिरणाम व प कई मू तपू जक स दाय लगभग वलु ही हो गये और ईसाइयत एक व वजेता के प मे ं सुदढ़ समस के पेड़ और ई टर अ डों के ृ हुई। उनके तीकों को अपनाने के बावजू द ईसाइयत ने मू तपू जक पर पराओं के उदारवाद को तो नहीं अपनाया, ब क उनके मू तपू जक व श त वों को पचा कर सुदढ़ ृ हुई अपनी पृथक व श ता को और अ धक उ साह के साथ बनाये रखा। ह दू धम मे ं ‘देवता’ एक ही ई र के कई प हैं जो एक ही साथ सब मे ं या है।ं इस कार वे वा त वकता के ताने-बाने हैं और साथ ही सव कृ और अपिरवतनीय भी। व भ भारतीय प तयों ने इस वचार को य करने के लए अपने-अपने व श वग करण वक सत कये और अपनी योग साधनाओं से सभी मे ं समाई वभा वक साम य क मता को वक सत कया। ं परा, उदाहरण के लए ी अर व द बताते हैं क श के तीन व प होते है— अ त न हत तथा य गत। इनक या या न नानुसार क जा सकती है— ‘परा’ परम मू ल श है।

है जो सं सार से परे है और सृ

को अ य

से जोड़ती

‘अ त न हत’ ा डीय महाश है जो सभी ा णयों का सृजन करती है तथा सभी याओं एवं श यों को धारण, व , पोषण तथा उनका सं चालन करती है। ‘ य श

गत’ श उपरो दोनों श यों का य मे ं स हत प है, अथात् व भ दे वयों के प मे ं हम मे ं है, हमारे पास है और य व और ा ड के बीच क म य थता कर रही है।

‘देवता’ हमारी अ त न हत श का बाहरी ा डीय और भीतरी देव व का साकार प है।ं आ तिरक देवता वे दैवी गुण हैं ज हे ं व भ रह यमयी योग याओं और चरण-दर-चरण साधनाओं से हमारे अ दर खोजा जाना है। े ों औ





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वेदों और बाद के यौ गक व ता क थों मे ं मानव के इन आ तिरक सं ाना मक के ों को ‘देवता’ अथवा ‘देव’ (सामा य व प मे ं देवता) के प मे ं स बो धत कया गया है। इनका वणन ऊजा के प मे ं और कहीं-कहीं य यों के प मे ं भी कया गया है। अथव वेद (10.2.31) मे ं मानव शरीर को ‘देवताओं का नगर’ कहा गया है और बताया गया है क मनु य के शरीर मे ं आठ सं ाना मक के होते है।ं कुछ देवता मानव शरीर क वत जै वक याओं के समीप हैं जब क दू सरे देवता रचना मक के ों मे ं है।ं वृ दार यक उप नष (3.9.1) के अनुसार 33 मुख देवताओं के तहत 3,306 देवता हैं जो यारह- यारह के तीन समू हों मे ं यव थत है।ं सभी देवता चेतना के एक ही काश के मू त प हैं इस लए कोई भी ँ सकता है। यजुवद कसी भी देवता के मा यम से चेतना क अ तम परतों तक पहुच (34:55) भी सं ाना मक के ों क या या ऋ ष, पर परागत ानी और मनीषी जैसे वा त वक मनु यों के प मे ं करता है जो सं या मे ं सात हैं और शरीर मे ं रहते है।ं इनका उ ख े अथववेद (10.2.6) मे ं भी कया गया है। वृहदार यक उप नष (2.2.3) कहता है क इ याँ ही ऋ ष है।ं वै दक थों मे ं भी मानस क मताओं को उ / न न, भावपरक/बौ क, पौ षेय/ ण ै इ या द भागों मे ं भा जत कया गया है। ृ ला को चेतना के आ तिरक काय े पर अ भनवगु ने देवताओं क व तृत ं ख था पत कया है। इस लए भैरव या शव अथवा काली एक नपुण योगी क चेतना क मू ल सं रचनाएँ हैं ज हे ं वे अपनी साधना ारा अपने अ दर ही खोजते, फु टत करते और जाँचते है।ं ‘ शव’ वह अवणनीय और वरोधाभासी परम चैत य हैं जो य के अ दर उसक चेतना के सी मत और सं कु चत पों मे ं आकार हण करते है।ं शव, भैरव और काली क इन आ तिरक सं रचनाओं के साथ-साथ अ भनवगु ने अपनी पु तक ‘त लोक’ मे ं व भ देवताओं को स द भत कया है ज हे ं य ‘बाहरी’ देवता के प मे ं भी देखता है। अथात् उ तम चेतना ने वयं को अन गनत दैवी जीव- व प अव थाओं मे ं वभा जत कर लया है जो मनु य के अ तस मे ं वराजमान देवता हैं और बाहरी सं सार मे ं भी। ी अर व द ने दाँए और बाँए के बीच के भाजन का वणन इस कार कया है— बु एक ऐसा अं ग है जो काय के व भ समू हों से मल कर बना है, जो दो मह वपू ण वग मे ं बँटा हुआ है; दाँए अं ग के काय और वभाग तथा बाँए अं ग के काय और वभाग। दा हने ओर के वभाग यापक, रचना मक और सम वया मक होते है,ं जब क बाँए ओर के वभाग समी ा मक और व लेषणा मक होते है।ं बाँया भाग वयं को सु न त स य तक ही सी मत रखता है जब क दाँया भाग च र मे ं डालने अथवा अ न तता को समझने का यास करता है। दोनों ही मानव क तकसं गत समझ के लए आव यक है।ं 76 यहाँ पर यह वचारणीय है क ी अर व द ने उपरो बात 1910 मे ं लखी थी, अथात् आधु नक व ान के उस वचार के बहुत पहले जसके अनुसार म त क के ँ औ ँ ँ ो ी ैं ो ें ो ऐ ी

दाँए और बाँए भाग क सोच मे ं भ ताएँ होती है।ं ाणायाम योग क ऐसी सन व ध है जसमे ं ना सका के छ ों से व श तरीके से ास- ास ारा म त क के दोनों गोला मे ं तालमेल बैठाया जाता है। अत: ‘देवता’ आ तिरक और बाहरी बौ क मताएँ तथा श याँ है,ं फर भी इन मे ं से कोई भी पहलू दू सरे को हटाता नहीं है। ता पय यह है क इन गहराई और व श ता-यु ज टल अवधारणाओं को सुर त रखने के लए इ हे ं ‘मू तपू जकों के भगवान’ (Pagan gods) के एक साधारण (और अस मानजनक) ढाँचे मे ं अनुवा दत नहीं कया जा सकता। ‘देव’ श द को अं ज े ी के ‘गॉड’ के प मे ं अनुवाद नहीं कया जा सकता। देव श द क उ प मू ल बीज ‘ दव’ से हुई है जसका अथ है ‘चमकना’ या ‘दमकना।’ यह केवल का य क पना नहीं है ब क कृ त क वा त वक श का सू चक है। अत: ‘देव’ वे हैं जो ‘ काश मे ं लीला करते है’ं । वे एक वा त वकता के अनेकों प एवं य वों, ‘जीव त वा त वकताओं,’ ‘ काश के ब ों’ एवं ‘अन त के पु ों’ के तीक है।ं प मी सं वाद मे ं ‘गॉड’ का अथ एकदम भ है जो क ‘देव’ क अपे ा न केवल अ धक क र एवं प है ब क यह श द यू रोपीय ईसाइयों ारा मू तपू जकों पर कये गये अ याचारों (इस आधार पर क ये झू ठे भगवानों को पू जते है)ं के इ तहास से बो झल है। इस कार ह दू धम मे ं व भ ‘देवता’ एक ही वा त वकता क व भ मनोवै ा नक थ तयों, ऊजाओं तथा तभाओं का त न ध व करते है।ं इस लए कोई भी मनमाने ढं ग से कसी एक देवता को दू सरे से बदल नहीं सकता। एक वशेष देवता क पू जा करने से य परमा मा के कसी व श पहलू का आ ान करता है। इस लए ह दू धम मे ं हम सभी देवताओं क पू जा कर सकते हैं और उनके काश एवं श का अनुभव कर उन सब से परे जा कर सम गत के 77 उ तम अनुभव को ा कर सकते है।ं ह दू धम मे ं ‘इ देवता’ (चुने हुए देवता) क अवधारणा अ तीय है तथा अपने वभाव एवं पिर थ तयों ( व-धम) के अनुसार य को धम का अनुसरण करने के आदश के अनुकूल है। अत: ह दू धम को केवल इस अथ मे ं ‘बहुदव े वादी’ नहीं कहा जा सकता क वह बहुत से ई रों क पू जा व भ परम इकाइयों के प मे ं करता है।

Idol = बुत — मू त का समानाथ नहीं है इ ाहमी मतों मे ं idol (बुत) श द नकारा मक और रा सी सं केताथ से लदा हुआ है। यह श द ाय: झू ठे देवताओं क भयानक छ वयों को स द भत करता है जनके वशेषा धकार और लाभ ा करने के लए उन पर ब ल चढ़ाई जाती है। कुरान और ह ू बाइबल बुत पर तों को ‘दु ा मा’ के प मे ं च त करती है। दोनों बुत पर तों के व हं सा क अनुम त देती है।ं ये तीनों प थ ऐसे कालख ड से गुज़रे हैं जनमे ं ों



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छ वयों का सफाया कया गया है, यों क उ होंने महसू स कया क इनसे बुत पर ती प त का आ ान होता है। सुधारकों क एक ग भीर सम या ढ़वादी और कैथो लक तुतीकरण को ले कर भी थी, जनके अनुसार ये दोनों पादरी- था से स ब धत थे और अँध व ास और सनसनी फैला कर आम जनता पर नय ण कर रहे थे। फर भी मानव क धा मक पर पराओं और पू जा प तयों मे ं इस कार के तीकों का सहारा लेने क वृ जारी है और ढ़वादी और कैथो लक दोनों ही चच ने ‘यीशु’ और ‘स त क छ वयों’ के प मे ं इ हे ं अपनाया है (हालाँ क बड़े ही सतकतापू ण और योजनाब तरीके से)। ईसाई मत मे ं ‘स ी आराधना’ (latria) केवल यीशु के लए ही मा य है, पर तु प व ता क मसाल बने हुए स तों क छ व को केवल उसी समय तक सहन कया जाता है जब तक क वे केवल ा (dulia) के पा रहे,ं न क पू जा के। अत: ‘स त’ के लए ‘ तमा’ (icon) श द का चलन है जब क ‘बुत’ (idol) श द ‘झू ठे भगवानों’ अथवा दैवीय स ा क भौ तक छ व का त न ध व करता है। ढ़वादी (Orthodox) चच मे ं तमा को चू मा जाता है तथा इ हे ं ा से देखा जाता है, पर तु तकनीक प से उ हे ं पू जा नहीं जाता। प प से कहा जाये तो ईसाई जन का आदर करते हैं वह तमाएँ है,ं जब क का फ़र जन को पू जते हैं वह बुत कहलाते है।ं जस समय तक ईसाई उप नवेशवा दयों ने भारतीय सं कृ त का नजदीक से सामना कया तब तक बाइबल के ये पू वा ह मजबू ती पकड़ चुके थे। इस लए लोक य ह दू धम मे ं च लत च ों और मू तयों क मुखता आज भी यहू दी और ईसाई मतों के अनुया ययों मे ं एक गहरे कार क घृणा पैदा करती है। प म ारा ह दू धम का ‘बहुदव े वा दयों’ के प मे ं दु चिर - च ण करने के पिरणाम व प इसके ई र व को ईसा-पू व यू रोप तथा ए शया माइनर मे ं तब च लत मू तपू जक थाओं और वशेषताओं के साथ जोड़ा गया। इस च ण मे ं अँध व ासज नत ब ल था, नै तकता क कमी, यावहािरक अ थरता, व च यौन ड़ाएँ, भा यवाद इ या द स म लत है।ं व भ छ वयों और भ क व तुओ ं को तुर त मनमाने तरीके से तमा न मान कर बुत के प मे ं ज कया गया। धम के बीच आपसी सं वाद मे ं दृ या मक वणन के त सहानुभू त रखने वाले ार भक कैथो लक ईसाई आ वा सयों ने भी इस का वरोध कया— वशेषकर जब इस देव व च ण मे ं कोई ी देवी स म लत होती, यों क उनक ई र स ब धी अवधारणा पू री तरह से पु ष- धान थी। च ण के त, वशेषकर धा मक मामलों मे ं प म का वै क दृ कोण उनके कई मनोवै ा नक और सां कृ तक सं घष को कट करता है और इस लए ह दू और बौ धम मे ं तमाओं क भू मका को प म समझ नहीं पाया है। शासकों और शा सत के बीच श के अस तुलन के कारण पर पर सं चार मे ं बाधाएँ आ और े





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दुभा यवश बहुत से अ प-जानकार भारतीय ‘बहुदव े वाद,’ ‘मू तपू जक’ इ या द श दों का दु पयोग करके सम या को और बढ़ा रहे है।ं ऐसा कोई ता कक कारण नहीं है क ई र के भारतीय च णों को मू तयों के प मे ं नहीं ब क तमाओं के प मे ं देखा जाये। वा तव मे ं कृ त के बारे मे ं भारतीय समझ और तीकों क उपयो गता से प म को बहुत कुछ सखाया जा सकता है। प व छ व के लए सं कृत मे ं ‘मू त’ श द उपयोग कया जाता है जसका अथ है ‘जागृत,’ ‘असली’ तथा ‘ द य आ मा को दशाने वाला।’ ‘ ाण- त ा’ का अथ है क व श पू जा प त से छ व मे ं परमा मा क उप थ त यु ाण भर देना। इसी कार क एक समाना तर या क रप थी ईसाई चच मे ं भी है जसे ‘ तमा क थापना’ और ‘आशीवाद’ देना कहा जाता है। तथा प ह दू धम इससे कहीं आगे जाता है। ाण- त ा का अथ है क परमा मा के नकट जाने के लए एक गहरा, ग भीर और देखने मे ं कम नभरता वाला माग श त हो। योहार समा के प ात मू त को पानी मे ं वा हत करने क था ‘ वसजन’ वैरा य का तीक है। इसमे ं वचार यह है क य को भौ तक आकृ त के साथ अनुर नहीं ब क उसक आ मा के साथ समा हत होना चा हए।78 ी अर व द कहते है,ं ‘‘ ाथना प थर के लए नहीं ब क उस प थर मे ं दशाये गये परमा मा के त क जाती है।’’79 वे आगे प करते हैं क य द हर पू जा- व ध धा मक मन से पू री क जाये तो वह हमे ं न र मे ं शा त का मरण कराती है, आ या मक सहायता दान करती है और इ यों पर लगे हण से चेतना का शु करण करती है।80 इन तमाओं को ाचीन यू रोप के मू तपू जकों क मू तयों के समक रखने के प मी यासों पर अपनी सीधी त या देते हुए ी अर व द ं लखते है— ‘‘भारतीय धम जो कालातीत, नाम- प से परे और नराकार परमा मा क अवधारणा पर आधािरत है, वह बाद क जा तयों के सं क ण तथा अ ानी एके रवाद जैसे व ासों पर ठहरे रहने को बा य नहीं हुआ और उसने शा त ँ ने क सभी म य थ अव थाओं, नामों, श यों और और अन त तक पहुच य वों को नकारा नहीं। एक बेरंग अ ैतवाद अथवा फ क -सी अ प अनुभवातीत आ तकता न तो भारतीय धम का आर भ था, न उसका म य और न ही उसका अ तम छोर। यहाँ पर एक ही ई र क सभी पों मे ं पू जा क जाती है, यों क यहाँ सब कुछ उसी मे ं समाया हुआ है अथवा उसक कृ त या अ त व से उ प हुआ है। भारतीय बहुदव े वाद (अनेक देवताओं क अवधारणा) ाचीन यू रोप मे ं च लत बहुदव े वाद जैसा नहीं है, यों क यहाँ कई देवों क पू जा करने वाले य को पता है क ये एक ही ई र के देव व के व भ प, नाम, य वों और श यों के तीक है;ं उसके देवता एक ही पु ष से उ प हुए है,ं उसक दे वयाँ एक ही द य श क ऊजाएँ है;ं ी





भारतीय तीक-पू जा कसी अस य अथवा अ वक सत बु क मू त-पू जा जैसी नहीं है, यों क अ धकां श अ ानी य भी यह जानते हैं क छ व एक तीक और सहायक च है और इसका उपयोग हो जाने पर इसे यागा जा सकता है।’’81 मू त को ‘बुत-idol’ के समक रखने का प मी चलन वचारपू वक और सोची हुई मू त के त धा मक सं वद े नशील ायु प त को कमतर करता है।

‘य ,’ ‘ईसाई ब लदान’ का समानाथ नहीं है प मी व ान ‘धा मक ब लदान’ ववरण का उपयोग भगवान को स तु करने, उ हे ं ध यवाद देने अथवा एक उ सव के प मे ं उ हे ं अ , व तु (आमतौर पर क मती व तुए)ँ , जी वत पशु अथवा मनु य अपण करने क पू जा से स द भत करते है।ं इस तरह के ब लदान को रोमन धा मक स ा त क पार पिरक समझ, do ut des या ‘पाने को तुम दो’ क तरह समझा जाता है। यह माना जाता है क य ारा वे छा से अपना कुछ हत यागने के बदले देवता उस भ को आ या मक या ं ।े भौ तक लाभ दान करेग यहू दी और ईसाई दोनों ही पर पराओं मे ं (और कुरान मे ं भी) यह ब लदान स ब धी अवधारणा अ त अ प ता से ले कर पू ण ब ह करण तक है, जैसा क इ ाहम और आइजैक क कहानी मे ं प है (जेने सस 22:2)। इ ाहम का पहले मानना था क God ने उसे आदेश दया है क वह अपने बेटे आइजैक का मोिरया क भू म पर थत एक पवत पर ब लदान करे। ब लवेदी पर बँधे और मृ यु के नकट आइजैक को अचानक एक दू त ने कट हो कर उसक जगह एक भेड़े को रख कर आइजैक क जान बचाई। पर परागत यह कहानी बताती है, जैसा नबी अमोस (Amos) ने कहा है क ‘‘भगवान आपके ब लदान और आहु तयों को तु छ मानते है’ं ’ (Amos 5:21-24)। यीशु के ब लदान को ‘ ाय त स ा त’ क तरह समझा गया है जो ाचीन और म ययुगीन कानू नी थाओं आ द मे ं च लत था। God ने अपने और मानवता के बीच सामं ज य लाने हेत ु और मू ल पाप ारा आई सम या को ठ क करने के लए अपने एकमा पु का ब लदान कया। God के याय के अनुसार मू ल पाप का ाय त कया जाना था जससे मानवता को शा पत होने से बचाया जा सके। पर तु God के त कया गया अपराध असीम था और सी मत मनु य इस तरह के महान ाय त करने हेत ु स म नहीं थे। इस लए मानवता क र ा हेत ु God ने अपने इकलौते पु को ब लदान हेत ु भेजा। यू टे टामे ट मे ं कहा गया है क यह ब लदान ‘सदा के लए’ कया गया है और इसे कभी दोहराया नहीं जायेगा (हालाँ क कई मुसलमान अभी भी अपनी लोक य धा मक थाओं के अनुसार पशु ब ल को जारी रखे हुए है)ं । ें









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बाइबल मे ं ाचीन इज़राइल से ले कर ार भक चच तक पैग़ बरों के काय क या के मा यम से ब लदान क अवधारणा लगातार ‘अहं कार के ब लदान’ के आ या मक प मे ं पिरव तत हो गई। ओ ड टे टामे ट के स उ रणों मे ं से एक के अनुसार God को ख़ू नी ब लदान क आव यकता नहीं है ब क उसे एक टू टे और प ातापी दल का ब लदान चा हए (Psalm 51:17)। आगे चल कर यहू दी और ाचीन ईसाई पर पराओं मे ं यह अवधारणा आ म-ब लदान के व ास ारा ‘शहादत’ के प मे ं वक सत हुई। वा तव मे ं चच ने अपने अनुया ययों को अपने व हं सा ँ ाने के म मे ं ‘शहीद’ होने के लए िे रत कया। उ प कर वयं को नुकसान पहुच चच ारा घो षत और औपचािरक प से म हमा-म डत हज़ारों स तों मे ं से अ धकां श इसी तरह के शहीद थे। एक ईसाई धा मक व ान जोनाथन कशच (Jonathan Kirsch) ने बताया क चौथी सदी से ईसाइयों को दू सरों पर हं सक आ ामकता करने के लए उकसाया गया, जसे बाद मे ं अपने ऊपर उ पीड़न के दावों के प मे ं पेश कया जा सके। अपनी पु तक ‘‘God Againstn the Gods’’ मे ं जोनाथन शहीदों को म हमाम डत करने क या के बारे मे ं बताते है।ं 82 ‘‘उनमे ं से सवा धक उ साही लोगों ने अपने मत का सावज नक दशन कर इसे अपने प व कत य के प मे ं देखा, चाहे इसके लए उनको गऱ तारी, अ याचार और मौत का सामना ही यों न करना पड़े । यीशु के कुछ सै नकों ने स यता से धा मक थलों और मू तपू जकों के म दरों मे ं वेश करके, तमाओं को तोड़ कर और य वे दयों को उलट-पलट करके अपने लए शहादत माँगी, जैसा क उ हे ं उनके वयं के शा ों ने करने का नदश दया था, ‘‘तु हे ं उनक वे दयों को तोड़ना है और त भों को टुकड़े -टुकड़े करना है, यों क अपना भु एक ई यालु God है।’’83 उदाहरण के लए मू तपू जक रोम के अ याचारों को सह कर उसमे ं से बच कर नकलने और कबू लने वाले को उसके साथी ईसाइयों ने बहुत मह व दया। उसे मू तपू जा के व प व यु के एक अनुभवी यीशु के सै नक के प मे ं एक जी वत उदाहरण क तरह देखा गया और उसके घावों और उनके च ों को स मानजनक पदकों के प मे ं आदर दया गया।84 दलच प बात है क मू तपू जक द डा धकारी अ नवाय द ड देने से बचने के लए ाय: ईसाइयों को ग़ैर-ईसाइयों के त थोड़ा-सा तीका मक स मान देने का अनुरोध कया करते थे— ‘‘दरअसल, अपनी वे छा से ही नहीं ब क जोश के साथ यों और पु षों ारा मौत के आ लं गन का तमाशा—और ल बे समय तक इन शहादतों क मृ तयाँ और शहीदों के अवशेषों ने उनके व ास क आग को और भड़काया ो ों

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तथा लोगों को और भी अ धक क र कृ यों को करने के लए िे रत कया। कभी-कभी तो मू तपू जक द डा धकािरयों ने अपना जीवन बचाने के लए व तुत: ईसाइयों को समझौता करने हेत ु कुछ चे ा करने क ाथना क ।’’85 एक शहीद क मौत को ‘र का बप त मा’ माना जाता था जससे उसके पाप धुल जाते थे, ठ क उसी कार जैसे पानी के बप त मा से होता है। ार भक ईसाई अपने शहीदों को श शाली म य थ के प मे ं आदर देते थे और उनके कथनों को प व आ मा (Holy Spirit) ारा िे रत माना जाता था। शहीदों के जीवन वृता त ईसाइयों के लए रे णा ोत बन गये तथा उनके जीवन और अवशेष लोगों के लए य े थे। बाद के ईसाई वृ ा तों ने उ पीड़नों को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर दखाया। जोनाथन कशच लखते हैं क ‘‘यातनाओं के दल दहला देने वाले उदाहरण उन साधुओ ं क क पनाओं से उ प हुए जो अपने क ों मे ं सुर त बैठ कर अनाव यक और अशोभनीय का प नक कहा नयों को ज म दे कर वयं का मनोरं जन करते थे।’’86 दू सरी शता दी के ईसाई लेखक टरटु लयन (Tertullian) ने लखा है क ‘‘शहीदों का ख़ू न ही चच का बीज है,’’ अथात शहीदों का वै छक ब लदान दू सरों का धमा तरण करने मे ं सहायता करता है।87 स तों के अवशेष आज भी चच मे ं य े है।ं शहादत के युग ने इन अवशेषों को धमवे दयों पर था पत कर चच क वा तुकला को भा वत कया। वतमान मे ं कैथो लक और पू व ढ़वादी चच, यू केिर ट (Eucharist) था को मनु य के ब लदान के प मे ं बताते हैं जसे इनके सद यों ारा याद एवं पुन: आ ान कया जाता है (हालाँ क कई ोटे टे ट इस या या को अ वीकार करते है)ं । ईसाई मत मे ं ब लदान करने वालों को आज भी म हमाम डत कया जाता है। डे नवर, कोलोराडो (Denver, Colorado) थत जोशुआ ोजे ट (Joshua Project) अरबों डॉलर यु एक वशालतम वै क सं गठन है जसका घो षत उ े य समू ची मानवता को ईसाई मत मे ं पिरव तत करना है। वां छत पिरणाम ा करने के लए ं ों का योग औ च यपू ण बताया जाता है। ऐसी ही एक रणनी त ववादा पद दाव-पेच ाचीन काल से ले कर आज तक के ईसाई शहीदों को यापक प से चािरत कये जाने क है। शहीदों क सू ची यव थत तरीके से येक देश और जले मे ं बनती है। कोई भी य जोशुआ ोजे ट के आँकड़ा कोष (◌्database) पर भारत के कसी भी जले मे ं इन शहीदों के नाम खोज सकता है तथा यह सू ची लगातार उ नां कत (updated) होती रहती है। यह पिरयोजना कसी भी ईसाई मौत के लए दू सरों को दोषी ठहराने और इसके सही आँकड़े और गलत सू चना उ प करने के लए एक ामा णक मशीन क तरह बन चुक है। भारत के मामले मे ं जोशुआ ोजे ट ने अपने त ी के प मे ं ह दुओ,ं जनका धम भारत मे ं मुख है, को मात देना अपना प ल य बनाया हुआ है। यह वशेष प से व च बात है क ह दू धम क या त ऐसी है जसने ईसाई और अ य मतों को गले लगाया है। फर भी, जब कहींँ ई ैं ीं ं ई ई े े े ैं

कहीं हं सा क घटनाएँ हुई है,ं उनका कारण ईसाई मत का चार करने वाले रहे हैं ँ ा कर भारतीय देवीज होंने ‘मू तपू जक,’ ‘अस य’ इ या द श दों क चोट पहुच देवताओं, तीकों और पर पराओं का जानबू झ कर अपमान करते हुए पू रे गाँवों को ईसाई मत मे ं पिरव तत करने के लए व ीय ो साहन भी दये है।ं ले कन इस तरह के भड़काने का उ ख े कभी नहीं कया जाता। जो भी घटनाएँ सावधानीपू वक लखी और का शत क जाती है,ं वे केवल अध-स य होती है;ं जैसे बताया जायेगा क एक ईसाई पर इस लए हमला कया गया, यों क वह ईसाई है।88 यह मू तपू जकों के व ाचीन काल से चले आ रहे ईसाई आ ामक यवहार क नर तरता है। ईसाई मत मे ं शहादत क अवधारणा ब लदान से जुड़ी हुई है जो क वग ा करने के लए हं सक मौत को ो सा हत करने का एक ख़तरनाक वचार है। इ लाम मे ं ‘ जहाद’ क अवधारणा ईसाई मत के ऐसे ब लदान के चरम सं करण के व तारवादी इ तहास का ही असर है। इसके वपरीत धा मक पर परा मे ं केवल स ख मत ही ऐसा है जो औपचािरक प से अपने धमगु ओं को ‘शहीद’ श द से म हमाम डत करता है ज होंने इ लामी शासन के एक व श काल मे ं इ लामी उ पीड़न से ह दू धम क र ा करने के लए एक ‘सै य स दाय’ का प लया था। उदाहरण के लए गु तेगबहादुर (1621-1675) एक वा त वक शहीद बने जब इ लाम मत अपनाने से मना करने पर औरं गज़ेब ने उ हे ं बेरहमी से क ल कर दया था। प मी व ान अनु चत प से इस ईसाई ब लदान क अवधारणा क सं कृत के ‘य ’ श द से बराबरी करते है।ं ‘य ’ का ता पय है ‘‘अ त व के दो धरातलों के बीच आदान- दान।’’ भगव गीता (3:9-16) कहती है क ‘देवता’ हमारा पोषण करते है,ं इस लए हमे ं भी देवताओं का पोषण करना चा हए। य वह धागा है जो मानवता और देवताओं के बीच स ब ध था पत करता है तथा सव यापी सदैव य मे ं था पत है।ं दू सरे श दों मे,ं अ त व के व भ धरातलों मे ं पार पिरक पालन-पोषण होता रहता है तथा इन उ तरों मे ं आदान- दान होता है। य के मा यम से ही सृजन होता रहता है।89 दू सरों क भलाई के लए अपने जीवन का ब लदान करना ही य के पीछे मू ल स ा त है। यही वा तव मे ं भौ तक सं सार मे ं न हत ब लदान क सम योजना का ह सा है, जैसे पृ वी के ख नज पदाथ पौधों का पोषण करते है;ं छोटे पौधे मर कर पेड़ों के लए जै वक खाद बनते है;ं पौधों को खा कर अपना नवाह करते हैं और पशु बदले मे ं मानवता को सहारा देते है।ं य भी एक ऐसी ही या है जो य को अ य से जोड़ती है। ं या भारतीय सं कृ त मे ं भी ईसाइयों जैसे ब लदान हुए यहाँ दो न खड़े होते है— थे? और य द हुए थे ( बना इस पर यान दये क कतने हुए थे) तो या वे वा तव मे ं ‘य ’ के समक हैं या फर य ऐसी ग त व धयों से अलग है? े



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पहले न के स ब ध मे ं भार तयों ने भी अपना जीवन ब लदान कया जो प म के शहीदों से कुछ मलता-जुलता है (य प ऊपर व णत अथ क तरह नहीं)। जब यह न त हो गया क मु लम आ मणकारी जीत गये हैं तब राजपू त म हलाओं ने अपनी वत ता, स मान और जीवन को ख़तरे मे ं देख कर ‘जौहर’ (आ मदाह) कया। इस के पीछे हुए अपने स मान क र ा करते हुए पराजय वीकार करने क ं रे णा थी।90 एक और उदाहरण सन् 1906 का है जब बाली (◌ँBali) मे ं हॉलैड (Dutch) के आ मणकािरयों से परा जत होने के बाद ह दुओ ं ने सामू हक ु ान’ (puputan) श द है।91 पर तु आ मह या क थी। बाली मे ं इस कृ य के लए ‘पुपत ये सभी कृ य वै छक आ मसमपण के थे जब यह ात हो गया था क आ मणकारी परा जत जनता पर न स देह अवणनीय हं सा, लू ट और बला कार इ या द दु कृ य करेगा। इसे अ धक से अ धक ‘र ा मक ब लदान’ के प मे ं देखा जा सकता है। ‘शहादत’ के प मी इ तहास के वपरीत ये घटनाएँ छटपुट थीं; ये कसी व तारवादी या आ ामक रणनी त का ह सा नहीं थीं और न ही शहादत के लए ये कोई के ीय योजना के तहत यव थत ो साहन थे, जैसे शहीदों को प मी आदश के प मे ं तुत कया जाना। ईसाई जगत मे ं शहादत को एक प थ के प मे ं उठाया गया, पर तु भारत मे ं ऐसा नहीं हुआ।92 जहाँ तक दू सरे न का स ब ध है, आगे दये गये प ीकरण से यह पता चलता है क य प यह सच है क ब लदान क एक वशेष अवधारणा य का एक मह वपू ण अं ग है, पर तु प मी इ तहास के साथ सामा यत: जुड़े हुए ब लदान के दू सरे व वध सं केताथ इसमे ं लागू नहीं होते। न ही प म मे ं ब लदान क अवधारणा ‘य ’ के ा डीय वशाल एवं समृ मह व क ओर सं केत भी करना आर भ करती है। ं ‘अ य ,’ भारतीय ा ड व ान बताता है क अ त व के तीन तर है— ‘ य ’( ा ड और सावभौ मक प मे)ं तथा ‘ कट’ ( य गत अथवा व श ) व प मे।ं य ा ड के व श व ान मे ं अ त व के इ हीं व वध तरों और उनके बीच आपसी स ब धों पर आधािरत है। बाहरी अनु ान य क उन देवताओं के त सम पत आ तिरक ब लदान क ही एक तु त है जो हमारे अ दर चेतना क श के प मे ं हैं और बाहर ा डीय ं श के प मे।ं ी अर व द इस वचार का सार समझाते है— ‘‘वह परम एक ही कता, कम तथा काय के उ े य, ाता, ान तथा ान के उ े य के प मे ं य है। ा डीय ाण जसमे ं कम अपण कया जाता है वह है, अपण कया जाने वाला प व ाण भी है; जो भी अपण कया जाता है वह भी का ही एक प है; अपण करने वाले य मे ं भी ही थत है; कम, काय, और य भी इस तरह वयं ग त व धयों मे ं ँ ना भी है;ं अथात य ारा ल य तक पहुच है।’’93 ै ै ीं ी ीि

वै दक माग न यता का नहीं समपण का है—अथात अपनी शारीिरक, भावना मक तथा बौ क कम को ई र को अपण करना। देह-बु -ज नत अहं कार के अ धकार और कम के क भोगने के दावों का ख डन करना वृहत उ े य है। अहं कार का कमका ड ारा अ न मे,ं जो वयं क उ ता का तीक है, सं ाना मक समपण ही य है। यजमान क रे णा (भावना), सीखने क या ( वा याय), कमका ड (कम), आहु तयाँ ( याग), देवता जसका आ ान कया गया हो और पिरणाम (फल) कसी य के ाथ मक त व है।ं ये घटक हमारे अ दर होने वाली व भ मान सक याओं का तीक है।ं ी अर व द इस पर काश डालते हुए कहते है94ं क यह या आ मचेतन, बु और अपने ल य के त सजग बनती हुई ा डीय और य गत ग त व ध का मनोवै ा नक तीक है— ‘‘ ाचीन वै दक णाली मे ं हमेशा दो अथ होते थे, शारीिरक व मनोवै ा नक; बाहरी व तीका मक तथा य अथवा याग के बाहरी व प एवं सभी पिर थ तयों के आ तिरक अथ। आहु त मनु य का ही शारीिरक अथवा मान सक ाण है जसे उसके शारीिरक अथवा मान सक काय ारा देवताओं या परमे र, पर अथवा सावभौ मक श यों को वयं क उ आ मा या मानव जा त और सभी अ त वों मे ं या परमा मा को अ पत कया जाता है।’’95 ‘य ’ को sacrifice = ब लदान क तरह गलत अनुवा दत करने से प मी व ानों को मानव ब लदानों और शहादत के यहू दी एवं ईसाई इ तहास को य जैसी धा मक अनु ान प त पर थोपने का मौका मला।

‘कम,’ प मी Suffering क अवधारणा जैसा नहीं है मानवीय पीड़ा एक सव यापी त य है, स भवत: इसी लए येक मुख वै क दृ कोण मे ं पीड़ा के वचार के त प ीकरण और समाधान के स ा त तुत कये गये है।ं ईसाई और यहू दी मत मू ल पाप क अवधारणा पर ही अ धक नभर है।ं मानव जा त पर यह मू ल कलं क उ हे ं जीवन भर धरती पर दुख सहने के लए ा पत करता है। इस लए पीड़ा अ ान से नहीं ब क पाप से उ प होती है। आदम और ह वा (Adam and Eve) के कृ यों के कारण, ज होंने लोभन पर काबू न कर पाने के कारण ईडन के बगीचे (Garden of Eden) मे ं ‘अ छे और बुरे’ के ान के वृ से व जत फल को चख लया था, समू ची मानव जा त इस मू ल पाप क सहभागी है। इस अपराध के पिरणाम व प उनक सभी स ताने ं (क थत प से सभी मनु य) मू ल पाप से पी ड़त है।ं अत: इन प मी पर पराओं मे ं मु यधारा के मतशा य गत और सामू हक दोनों कार क पीड़ाओं को उस मू ल या मुख पाप से जोड़ते हैं जो क केवल ान या समझ क कमी के कारण ही नहीं ब क बुरे मनोरथ क गलती और चयन से कये गये थे। ै ई े े े ी ो े े ें

केवल God ारा मा करने से ही बचाव हो सकता है। ईसाइयत के मामले मे ं केवल God का पु यीशु ही दू सरों को मो दान कर सकता है यों क केवल वही एक है जो ‘मू ल पाप’ से मु है (इस अवधारणा मे ं कुँवारी माता के गभ से उनका ज म लेना मह वपू ण है यों क य द उनका ज म ी-पु ष स ब धों से हुआ होता तो वे भी मू ल पाप से पी ड़त होते)। इस कार ईसाई चच ने समू ची मानवता को बचाने के लए यीशु क दया पर एका धकार का दावा कया है। ईसाइयों और यहू दयों के अनुसार मू ल पाप God जैसा ‘सव ’ बनने के यास के कारण उ प हुआ था। इस लए ईसाई और यहू दी मत सदैव मानवता के अ तरतम ई र व के सव कृ ह दू वचार को घृ णत और नै तक ता के तीक क तरह मानते है।ं दुख और मु स ब धी बाइबल के इन लौ कक स ा तों को यू रोपीय बु ता (European Enlightenment) ने उ श के त सं क पत समपण ारा मत नरपे बनाया, पर तु मू ल त वों को बनाये रखा। जॉज व हेम े डिरक हेगल े (George Wilhelm Friedrich Hegel Hegel) ने इ तहास के अपने मक वकास के (linear theory of History) स ा त मे ं दावा कया है क ग़ैर-प मी स यताओं मे ं प म ं ी जब तक क उनका जैसा उ साह नहीं था और इसी लए वे तब तक पी ड़त रहेग प म ारा सफल उ ार एवं समावेश न हो जाये। आगे चल कर मा सवाद ने वग के बीच के शोषण स ब धी स ा त का उपयोग पीड़ा क या या करने के लए कया ँ ीप त वग के व और पू ज साधारण मनु य के मसीहाई सं घष के प मे ं एक समाधान ता वत कया। अत: प मी अहं भाव का, चाहे धा मक हो या धम नरपे अथवा य गत हो या सामू हक, मानना है क उसका एक येय (mission) है जसके लए याशील होना आव यक है। इस लए वह अपने आप को इ तहास के एक मुख त न ध के प मे ं पिरभा षत करता है जो हम सब को स भवत: एक समान उ वल भ व य क ओर ले जाता है। इस पिरयोजना मे ं भाग लेने से मना करना द डनीय है। अ य सं कृ तयों और उनक आ या मक पर पराओं को सम याओं क तरह देखा जाता है जनका हल ाय: वनाश अथवा उन पर क जा करके कया जाता है।96 भारतीय धा मक पर पराओं मे ं मानवीय थ त क अवधारणा भ कार से क जाती है। यहाँ लड़ाई ‘मू ल पाप’ के साथ नहीं है और दू सरों ारा कये गये काय से सोचे गये पाप से तो कतई नहीं। ब क अ ान से ही भाव और कारण का म पैदा होता है और इ हीं कारणों से य गत एवं सामू हक दोनों कार क पीड़ा का नधारण होता है। यह समझ अलग-अलग धमशा ों ारा य क गई है जो अ पा तरणीय श द ‘कम’ के इद- गद वक सत हुए है।ं (इस लए ान वृ के फल खा लेना कसी पाप का कारण नहीं हो सकता)। े

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‘कम’ स ा त ारा य के वचारों, भावनाओं एवं काय ारा उनके वतमान और भ व य के पिरणाम नधािरत होते है।ं इस लए, उदाहरण के लए, कसी य के बु - वकास, सौ दयबोध उ यन या आ या मक आयाम को उ त करने के यास वाभा वक प से इन े ों क ग त मे ं योगदान देते है।ं इसके वपरीत हं सा, लालच या वासना के वचार अथवा काय इन वृ यों को बढ़ाते हैं जनका नतीजा इस और अगले ज म मे ं भुगतना पड़े गा। ‘कम’ का आशय भा यवाद नहीं है ब क वह तो हर कसी के कम-फल क णाली है। वा तव मे ं कम को ‘ नय तवाद’ के वपरीत अथ मे ं लया जाना चा हए, यों क यह य ारा वे छा से चुने गये वक पों के लए ज मेदारी एवं दा य व को नभाने का एक नै तक ढाँचा दान करता है। दू सरे श दों मे ं कहे ं तो कम- स ा त य के जीवन और नय त के नमाण और पुन नमाण को स भव बनाता है। अत: कम- स ा त काय-कारण का एक मनो-भौ तक वै ा नक नयम है। जान-बू झ कर कया गया येक काय ‘सं कार’ पी भाव छोड़ता है जसे एक ‘बीज’ भी कहा जाता है जो समु चत पिर थ तयों मे ं अं कुिरत होता है और न मत ‘पिरणाम’ को कमफल कहते है।ं कमफल के पकने का समय अ न त है और यह तब होता है जब इसके कट होने और समाधान हेत ु उ चत फलदायक थ तयाँ बनती है।ं कसी भी कम को बार बार दोहराने से ‘सं कार’ दृढ़ होते हैं जो धीरे-धीरे एक आदत या वृ (वासना) बन जाती है जो आगे चल कर इसी कम क पुनरावृ करवाती है। इन सं कारों एवं वासनाओं क श ऐसी होती है क य बना जाने ही य वत उन कम को करता चला जा सकता है। यह ‘सुदढ़ ृ यवहार’ (reinforced behavior) क उस मनोवै ा नक अवधारणा क तरह है जो और भी अ धक ब धनकारी होता है, हालाँ क इस अवधारणा के केवल मनोवै ा नक ही नहीं ब क धा मक, दाश नक और आ या मक न हताथ भी है।ं यहाँ वयं के काय ारा ही चिर का नमाण होता है न क कसी दू सरे के (जैसा ईसाइयत के मू ल पाप मे ं है), जो आगे चल कर उस य से और अ धक काय करवाता है। आ या मक साधना य को समपण भाव से पछले कमफल का भोग करते हुए अपने पछले कम के बीजों को न करने मे ं स म बनाती है, न क इस तरह से त या देते हुए जससे नये कम का नमाण हो और या और फल का च अ वरत चलता रहे। सकारा मक कम को ‘पु य’ कहते हैं और नकारा मक कम को ‘पाप।’ कोई भी कसी दू सरे के कम के कारण क नहीं भोगता, इस लए येक य का एक 97 अलग खाता है जसमे ं उसके कम के पिरणाम दज होते है।ं भारतीय दशनशा क सां य णाली के अनुसार य क चेतना एक पा क तरह है जसमे ं उसके सं कार (हमारे वक पों ारा उ प बीज) जमा होते है।ं भारतीय मनो व ान मे ं य वाद का यही आधार है। सं प े मे,ं य के कम के पिरणाम ही उसक य गत चेतना मे ं सं हीत होते है।ं े









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कम का उ े य केवल शु करण है। कम तभी सं चत होते हैं जब य अपने को एक अलग और वत इकाई के प मे ं देखता है। जब य मे ं ‘कता’ का भाव नहीं रह जाता तब उसके कम जमा होना ब द हो जाते हैं (हालाँ क सं चत कम के पुराने ‘ ार ध’ अपना भाव जारी रखते है)ं । इस दृ कोण से पुनज म एक ऐसी यव था है जसमे ं य के पछले ज म के जमा कम के आधार पर ही उसका वतमान ज म नधािरत होता है। इससे प होता है क अलग-अलग य भ - भ पिर थ तयों मे ं कैसे पैदा होते है।ं ‘कम’ क अवधारणा ई र के पाँसे खेलने या मनमाने ढं ग से भा य नधािरत करने जैसी नहीं है, न ही यह अ नय मत है और न ही यह कसी आ दकालीन सामू हक पाप का पिरणाम है। प म के नय मत गलत चार के वपरीत कम स ा त वा तव मे ं अ छे काय का मागदशक है, न क केवल वतमान पिर थ तयों क या या करने क एक यव था। जैस-े जैसे य के कम के भाव समा होते है,ं कम न होते जाते हैं पर तु खाता फर से नये कम से भरता रहता है यों क अहं कार सतत् नये-नये चुनाव करता रहता है। ह दुओ ं का मानना है क येक जीव परमे र से उसी तरह स ब धत है जैसे ँ े ं एक सुसंगत और द य नृ य (लीला) का अं ग है।ं इस एक बू दँ समु से। ये सभी बू द नृ य मे ं अग णत जीवा माएँ हैं जनमे ं येक के अपने-अपने वक पों के कारण पिरणाम ा होते है।ं ‘मु ’ एक ऐसी वत ता क थ त है जसमे ं य गत अ मता, जो अपने कम के कारण पिरणामों के ब धन मे ं है, अपने को मू ल प से पा तिरत करके परम वा त वकता से अपना अलगाव खो देती है। इस तरह क ‘मु ’ कोई भौ तक वग नहीं है, वरन् चेतना क एक थ त है। पहले मैनं े कहा था क धा मक अथ मे ं सं ाना मक चू क से ही मानवीय पीड़ा उ प होती है। व वध सं ाना मक चू कों का यापक जाल ही कम के सं चत होने का कारण है—उदाहरण के लए अहम को ही अपनी परम अ मता मानना और यह मानना क व तुए ँ अपने से ही अ त व मे ं हैं ज हे ं ा करने के लए उनके पीछे पड़ने के ल य और अपनी भावनाओं और अवधारणाओं को असली मान कर उ हे ं पकड़े रखना इ या द। इन चू कों को यान से देख कर य अपने कम को सुलझा कर अहम के बोझ को ह का कर सकता है। जैस-े जैसे सं ाना मक चू कों मे ं सुधार होगा वैस-े वैसे स मोहनों का पीछा करने पर भी वराम लगेगा। प मी व ानों ने भारतीय पर पराओं पर य वाद क कमी का गलत आरोप थोपा है और यह जताया है क केवल प म मे ं ही यह वशेषता है। अत: यह भी मह वपू ण है क कम स ा त क कुछ गलत या याओं को दू र कया जाये। यह स ा त इस बात पर बल देता है क वरासत मे ं मले पछले कम के फल (न क मनमाने ढं ग से न द भा य) को य गत यास (पु षाथ) से स तु लत करना चा हए। पं चत 98 और अ य बहुत-सी कहा नयाँ कसी एक या दू सरे पर पू री तरह से े ो ी ैं ी ी े ी

व ास करने क अ ानता को च त करती है।ं इसी लए पीड़ा के त भारतीय दृ कोण न तो भा यवादी वीकृ त क है और न ही इसके वपरीत, ब क यहाँ मनु य क वतमान थ त मे ं पू ण वत ता मे ं व ास करने को कहा गया है। अत: वां छत दृ कोण यावहािरक है तथा यह वतमान, म यम एवं ल बे समय के स दभ मे ं अ तर पहचानने क माँग करता है। वतमान ण मे ं पीड़ा के त सं यमशील वीकृ त होनी चा हए जब क म यम काल मे ं य को दुखों को कम करने के लए दृढ़तापू वक यास करना चा हए और अ तत: ल बे काल मे ं य को उस च से परे जाने का यास करना चा हए, जसमे ं कम अपना भाव डालते है।ं

‘कम,’ ‘मु

’ (Redemption) का समानाथ नहीं है

हालाँ क ‘कम’ एक धा मक श द है, पर तु यह आज क प मी श दावली मे ं लोक य है। बहुत से लोग अपनी चचाओं मे ं ‘कम’ का स दभ देते रहते है,ं हालाँ क इसक अवधारणा दोनों सं कृ तयों के बीच आसानी से अनुवाद करने यो य नहीं है और इस लए गलत समझ जाती रही है। कुछ ही मायनों मे ं कम का स ा त बाइबल क याय क अवधारणा के समान है। उदाहरण के लए बाइबल का कहना है ‘‘जैसा तुम बोओगे वैसा ही तुम काटोगे।’’ धा मक एवं यहू दी-ईसाई दोनों ही दृ कोण इस बात पर बल देते हैं क अ छे या बुरे काय शारीिरक, मौ खक या मान सक हो सकते हैं और दोनों ही वत इ छा को मानते हैं (हालाँ क यहू दी-ईसाई मतों मे ं वत ता को पू री तरह समा भले ही न कया गया हो, पर यह ‘मू ल पाप’ से समझौता कये हुए है जब क धा मक पर पराओं मे ं यह ‘वासनाओं’ से त है)। और दोनों ही याय सं गत सं सार क उस अवधारणा पर आधािरत हैं जसमे ं अ तत: याय क जीत होगी; दोनों ही एक सावभौ मक नयम को मानते हैं जो अनवरत सृजन का एक अ त न हत लौ कक स ा त है और दोनों ही यह सं केत देते हैं क इस सृजन के व जानबू झ कर कया गया कोई भी काय उसके पिरणामों से मु नहीं है। पर तु फर भी इन दो अवधारणाओं के बीच मह वपू ण मतभेद है।ं जब हम कम- स ा त के अथ को भारतीय स दभ मे ं नहीं देख पाते तो हम धा मक तथा यहू दी-ईसाई वपरीत वै क दृ कोणों को एक समान और समक मानने का ख़तरा उठा बैठते है।ं यहू दी और ईसाई मतों मे ं याय चाहे कसी हद तक पृ वी पर ही आँका जाता हो, पर तु अ तत: यह याय के दन (Day of Judgement) पर ही स प होगा, जब हर य को उसके काय के लए ज मेदार ठहराया जायेगा और उसी के अनुसार उसे थायी प से वग या नरक भेजा जायेगा। का प नक प से अ त मे ं एक ऐसा सवनाशी सं घष होगा जसे समय का अ त (End Times) कहा गया है।99 इसके वपरीत धा मक ‘कम स ा त’ के अनुसार ई रीय याय का कोई वशेष दन नहीं है; वा तव मे ं ऐसे कसी समय का उ ख े नहीं है जब पुर कार और द ड थायी प ं ।े ‘कम’ एक सतत् चलने वाली से समा हो जायेग ा डीय णाली है जसमे ं सभी े

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कम के पिरणाम आगे-पीछे चलते रहते है,ं ठ क वैसे ही जैसे ाकृ तक व ान मे ं कारण सतत् काय करता रहता है। याय स ब धी ईसाई दृ कोण मीमां सा णाली मे ं कम क या या के समान है; अ छे कम से ‘ वग’ का आन द मलता है जब क बुरे कम से ‘नरक’ जैसा द ड मलता है। पर तु ईसाई अवधारणाओं के नर तर नरक या अन तकाल तक वग मे ं जीवन के वपरीत ह दू वचारधारा यह है क दोनों थ तयों मे ं ठहराव अ थायी और सं चत कम के अनुपात मे ं रहता है। एक मुख अ तर यह है क वग के ठहराव पू री तरह से सं चत कम को समा नहीं कर पाते और उ चत थ तयों मे ं कट होने वाले कमफलों के भोग के लए पुनज म लेना पड़ता है।100 इस कार पुनज म का वचार मह वपू ण है और यह भारतीय दृ कोण मे ं समा हत है।101 जब क ईसाई मत और साथ-साथ प मी धम नरपे वचारधारा (जैसे क मनो व ान) मे ं सामा यत: पिरणामों के लए समय अव ध एक जीवन-च तक सी मत है। दू सरी ओर भारतीय दृ कोण मे ं काय-कारण च य के वक पों से चा लत है और 102 अनेक जीवन-च ों मे ं फैला हुआ है। कम स ा त पुनज म क अवधारणा को मह वपू ण बनाता है। इससे पता चलता है क अलग-अलग य यों एकदम भ पिर थ तयों मे ं ज म लेते है।ं मनु यों के असमान पैदा होने को ईसाई God क ‘रह यमयी इ छा’ से पिरभा षत करते है।ं ईसाई मत क ‘मू ल पाप’ क अवधारणा के वपरीत कम स ा त कहता है क केवल हमारे अतीत ( पछले या इस ज म) के कम ही हमे ं हमारी पिर थ तयों तक ँ ा कर हमे ं ब धन मे ं जकड़ते है।ं उदाहरण के लए एक वमान के सभी या ी एक पहुच दुघटना मे ं मर सकते है,ं पर तु उनमे ं से येक क मृ यु उनके य गत कम के पिरणाम व प हुई है। इस लए जो सामू हक फल तीत होता है वह वा तव मे ं ‘सामू हक कम’ के कारण नहीं मला है। सामू हक कम क अवधारणा उसी समय लागू होती है जब य यों का एक समू ह कोई सामू हक काय करता है और इस लए येक सहभागी उस काय मे ं भागीदार बनता है। ले कन मह वपू ण बात है क यह सामू हक कम कसी अ य के कम के कारण उपा जत नहीं होता, उदाहरण व प ईसाई मत के मामले मे ं जो ‘आदम’ और ‘ह वा’ ारा कया गया।103 ं पहली तो यह क कसी ह दुओ ं के अनुसार ईसाई मत मे ं दो मुख सम याएँ है— य (जीव) ारा कया गया कम कसी अ य य को थाना तिरत नहीं कया जा सकता, ब क कम करने वाले य ारा उसे इस या भ व य के जीवन मे ं 104 भोगना पड़े गा। इसके अ तिर फल कभी भी कम से पहले नहीं ब क बाद मे ं ही मलता है, इस लए यीशु क पू ववत यातनाओं से न तो उनके पू व के याकलापों के अनुसार (जैसा क यहू दयों के लए यीशु के ज म से पहले के दावे मे ं कहा गया है) औ



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और न ही भ व य मे ं क हीं य यों ारा कये जाने वाले कम क माफ़ हो सकती है।105 यहू दी और ईसाई मतों मे ं सामू हक एवं य गत दोनों कार के अपराध बोध क अवधारणा है और दोनों के लए ाय त आव यक है। सामू हकता के सवाल पर यह स ा त समू ची जनता जैसे क ह ू बाइबल मे ं व णत इज़राइल के उन सभी लोगों पर लागू होता है जो ई र के त व ास पर या तो अ डग रहे अथवा ई र के ऊपर उनका व ास कम हुआ। पिरणाम व प पू री जनता को सामू हक प से पुर कार अथवा द ड मला। कम-से-कम रोमन कैथो लक पिर े य मे ं ‘चच’ को सामू हक इकाई के प मे ं या तो मु दी जा सकती है या उ हे ं ई र से वमुख कया जा सकता है। समय के साथ व वध कार क सामू हक नर तरता मह वपू ण हो गई। इसका एक उदाहरण ाचीन इज़राइल मे ं पादिरयों क जै वक वं शावली के प मे ं देखा जा सकता है। अ य उदाहरण पोप क पर परा के प मे ं देखा जा सकता है जसमे ं ईसाई उ चच मे ं पादिरयों क अख डत नर तरता है। कम जैसे भाव इन समू हों ारा ह ता तिरत कये जा सकते हैं जो वशेष सद यों के य गत पाप अथवा अपराध से एकदम अलग होंग।े इस कार कसी प मी य के लए वयं क कृ त अं शत: वं श-पर परा ारा न मत और न त प से व ास एवं सामू हक आ था ारा नधािरत क जा सकती है; जब क भारतीय कम- स ा त के अनुसार य का ज म एक साधन मा है जसके ारा कोई जीवा मा अपने य गत पू व कम के खाते के अनुसार ज म लेती है तथा उसका भा य कसी सामू हक पहचान से मु है। धा मक पर पराओं मे ं कम तथा उनका भाव सी मत है, चाहे इनका फलीभू त होना ल बे समय तक बना रह सकता है। कसी भी कम के लए कसी भी कार का शा त् द ड मल ही नहीं सकता।106 दू सरी ओर ईसाइयत और इ लाम मे ं नरकवास सदा के लए होता है और God के अ तिर इसमे ं कोई कुछ कर ही नहीं सकता।107 जैसे पहले चचा हो चुक है, इन दो दृ कोणों के कुछ अ तर इनके ा ड व ान के अ तर से प कये जा सकते है।ं भारतीय दशनशा के अनुसार काल भी बना कसी आ द या अ त के ा ड क तरह अन त है, जब क बाइबल के अनुसार समय ‘एकमा ा ड’ के सृजन से ार भ हुआ है और आने वाले अ तम समय (End Time◌े) पर इसका अ त होगा। अ धकां श ईसाई इस ा ड का च ण एक पिर मत समय के मक इ तहास के प मे ं करते हैं जसके बाद अन त काल तक वग या नरक होगा। ऐसे समय-मान मे ं कये गये य गत कम के पिरणाम अन त ं ।े और इस पृ वी पर पाप से सामना करने के लए एकमा यही काल तक चलेग जीवन है। इस य ता के पिरणाम व प धमा तरण करने के लए ईसाई िे रत होते हैं और ाय: ऐसे तरीकों का योग करते हैं जो यीशु के अपने उदाहरण के वपरीत है।ं ँ ें े ें ि ों ों ो

हालाँ क बाइबल मे ं लगभग येक द य आगमन, जसमे ं फिर तों ारा चरवाहों को यीशु के ज म का स देश भी स म लत है, ‘डरो मत’ जैसे आदेश देता है, फर भी ईसाई मशनिरयों ने पर परागत प से ‘डर’ के मनोवै ा नक दबाव का इ तेमाल कया है और लोगों को ‘अ छे समाचार’ के प मे ं भरमाया है क मानव जा त क सम त दुदशाओं के नवारण के लए God ने उनक चच को व श प से चुना है। ह दू धम मे ं य वयं अपने कम का समाधान कर सकता है जससे नये कम सं चत न हों और समयानुसार उसे मु ा हो सके। यहाँ तक क अ य धक नृशंस कम क भरपाई करने के लए भी दू सरा ज म सदैव उपल ध है। नीचे दी गई ता लका मे ं इन मुख अ तरों का सार दया गया है— समय (कालख ड)

कम (फल)

भाव

ईसाइयत

सी मत

अन त तक

काल

ह दू /बौ धम

असी मत

अ थायी

 

ऐ तहा सक मनोवै ा नक ह त प े पर न हताथ नभरता हाँ

तनाव, अपराधबोध

नहीं

सहजता

इसके अ तिर कम- स ा त का मानना है क मनु य के पास वयं क साधना ारा अपने कम के ब धनों को पू री तरह से तोड़ने के साधन हैं और उसे यहू दी-ईसाई मतों क अवधारणा के समान कसी दैवीय ह त प े क आव यकता नहीं है। यहाँ ‘कृपा’ ( बना यो यता के ई र क क णा एवं दया) स ब धी अवधारणा तो है, पर तु एक पू वापे ा क तरह नहीं। अपनी मु के लए मनु य वयं मा यम है। इस लए भले ही ी कृ ण, शव अथवा बु क म हमा के बारे मे ं उसने न सुना हो, पर तु धम के अनुसार जीवन यतीत करने वाला य एक अ छा ह दू हो सकता है। इसके वपरीत यीशु के इ तहास को जाने और वीकार कये बना कोई य ‘अ छा ईसाई’ नहीं हो सकता। भारतीय धा मक पर पराओं मे ं भौ तक अहं भाव ही सं क णता एवं पीड़ा का मुख ोत माना जाता है, जब क प मी दृ कोण मे ं अहं भाव सदैव अटल रहता है और कभी-कभी ख़तरनाक मसीहाई व तार भी कराता है। धा मक आ थाओं मे ं स हत ान अहं कार को ख़ म करने के लए एक अ तिरम ल य के प मे ं होता है। ( वक प मे ं अ तम ल य अहं का इतना व तार करना है क इसमे ं सब कुछ समा जाये, एक ऐसी थ त जसे ‘पू णा मा’ कहा जाता है)। पीड़ा से कोई भी नहीं बचता और यह उ आकां ाओं का रे णा ोत बनना चा हए तथा गहन अ तदृ ( ा) और दया (क णा) के ोत मे ं पिरव तत होनी चा हए। स हत ं



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ान सं सार क मु क योजनाओं को ‘खरीदने’ या कसी व श प थ या स दाय के त न ा से ा नहीं कया जा सकता। इस समझ का च ण बु के जीवन, उनके ारा व तत चार महान स य और त प ात् बौ धम के इ तहास के अ तिर और कहीं देखने को नहीं मलता—जो क सं सार क सबसे यव थत शा त य धा मक सं रचनाओं मे ं से एक है।108 भारतीय धा मक पर पराएँ आ माओं एवं रा य े को ह थयाने के राजनै तक एवं मनोवै ा नक मुकाबले मे ं नुकसान झेलती हैं यों क वे धमातरण मे ं व ास नहीं रखतीं। ऐ तहा सक रह यो घाटनों स ब धी ईसाई और इ लामी जुनून, मु और शाप क योजना तथा ई रीय स य के व श धारक के प मे ं औपचािरक सं थाओं ने कई बार व तार और नय ण क सा ा यवादी योजनाओं को भड़काया है। इसक तुलना मे ं भारतीय धा मक पर पराओं मे ं कसी अ त न हत आदेश अथवा आ ामकता के लए औ च य स करने जैसी कोई सोच नहीं है। वे सं घ टत होने के उ रे क के प मे ं कसी ‘ना तक’ (या मू तपू जक) को दु मन के प मे ं पेश नहीं करतीं और आ म-बोध स ब धी उनके दावे ाय: गरीबों, भू खों, वं चतों एवं अ श तों क नगाह मे ं दू र क कौड़ी एवं गू ढ़ तीत होते है।ं प मी मतों क तरह उनमे ं कोई सं थागत स ाके , नय ण त अथवा सं गठना मक ढाँचा नहीं है। आईये हम पीड़ा, कम, मु और मो के स दभ मे ं इन पर पराओं क तुलना करे।ं तुत ता लका के तीन त भ इस तरह क तुलनाओं और उ हे ं समक दखाने मे ं चुनौ तयों को द शत करते है।ं पहला त भ मह वपू ण ईसाई स ा त को द शत करता है जैसा क मु यधारा के ईसाइयों ारा समझा गया है; दू सरे मे ं इसको भारतीय धा मक पर पराओं के कम- स ा त के ढाँचे मे ं दोहराया गया है और तीसरा त भ इस स ा त को कम के दशनशा के अनुसार नधािरत करता है। ँ े मे ं कम- स ा त ढाच पिरभा षत ईसाई स ात

ईसाई स ा त 1.   आदम और ह वा ारा कये गये मू ल पाप ने सभी मनु यों को हमेशा के लए अ तम समय के आने तक अन त शा पत कया है, जब तक इसे ई र के अनु ह ारा सं शो धत न कया जाये। ी



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भारतीय स ा त

कम का सार सामू हक माता- पता के कम प से नहीं होता। येक आने वाली सभी जीव का कम उसके पू वपी ढ़यों मे ं सामू हक ज म से स ब धत है, न प से वतिरत कये क उसके पू वजों से। सभी गये है।ं कम का फल कम और कमफल सी मत अन त है। है,ं न क अपिर मत। ी



2.  यीशु ने समू ची और भावी मानवता के पापों के लए यातनाएँ सहीं हैं ता क उ हे ं अन त शापों से बचाया जा सके।

3.   यीशु ारा मु दलाने क आव यक और उपयु शत है क उसके ज म, मृ यु और पुन: जी वत होने जैसी ऐ तहा सक घटनाओं पर पू ण व ास कया जाये तथा बाइबल क श ाओं का पालन कया जाये।109

हर य का कम यीशु को ह ता तिरत कया जाता है। भ व य मे ं कये जाने वाले अज मे य का कम यीशु के कमफल (यातना) ारा पहले ही स भा वत प से चुका दया जाता है।

कम अह ता तरणीय है। ‘फल’ सदैव कम के बाद ही मलता है, न क पहले; इसे भ व य के कम के लए अ म प से जमा नहीं कया जा सकता और न ही इसे बीती हुई बातों पर लागू कया जा सकताहै।

मा यीशु मे ं व ास कसी भी कार का करने से कमफल पर व ास अपने आप मे ं कम आ यजनक अनुपात के पिरणामों को नर त मे ं भाव पड़ता है। करने मे ं स म नहीं है।

ईसाई श द Works, ‘कमयोग’ का समानाथ नहीं है ‘Works’ एक ईसाई श द है जो ह दू -बौ धम मे ं ‘साधना’ (अनुशा सत आ या मक अ यास) और कमयोग जैसा तीत होता है। यह कसी जाग क और सु वचािरत आ या मक अ यास क ओर सं केत करता है। परोपकार से ले कर ाथना, यान, बाइबल के अ ययन से ले कर सम त ईसाई अनु ानों तक मे ं इसे उपयोग कया जाता है जसके ारा य God के सम अपना आ या मक तर ऊँचा करने का यास करता है। क र ोटे टे ट पर पराओं मे ं कोई भी कसी भी कार के आ या मक अनुशासनों, परोपकार स ब धी काय और यहाँ तक क आ म-ब लदान आ द से भी मो ा नहीं कर सकता। ऐसा कर पाने का मजाल ोटे टे टों के लए आ या मक वकास मे ं बड़ी बाधाओं मे ं से एक है। पिरणाम व प ोटे टे टों मे ं भारतीय धा मक पर पराओं, जैसे योग जो यह सं केत देता है क य अपने स काय ारा मो ा कर सकता है, के त भारी अ व ास है जसका अथ है God क कृपा के त नासमझ और न ता का अभाव ो

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होना। ोटे टे ट ‘Works’ के मह व को नकारते नहीं है,ं पर तु उ हे ं मो के फल क तरह देखते है,ं न क उसे ा करने के साधन क तरह। कैथो लक ईसाई ोटे टे टों से मु य प से सहमत है,ं हालाँ क वे ‘Works’ को मो ा करने क तैयारी और स भवत: इस थ त को ा करने के साधन के प मे ं लेते है।ं कैथो लक मत के अनुसार मनु य पू री तरह से प तत और नहीं है,ं इस लए वे वयं क मो ा और द यता का दशन करने का यास कर सकते हैं —हालाँ क ोटे टे ट मत क तरह वे ज़ोर देते हैं क मो दान करने का पू ण अ धकार केवल God के पास ही है। इस लए कैथो लक ईसाइयों मे ं कुछ आ या मक अ यास भारतीयों जैसे है,ं जैसे क माला जपने क था जो ह दू जाप क तरह ही है। बहुत-सी कैथो लक एवं पू व ढ़वादी चच क पर पराएँ, जैसे ाथना के साथ ास का सम वय और मठों मे ं च लत शारीिरक एवं वानुभूत आ या मक साधनाओं के यापक योग, स भवत: भारतीय पर पराओं से हण क गई थीं या कम-से-कम भारतीय पर पराओं से भा वत थीं।110 ोटे टे टों के मुकाबले कैथो लक ईसाई कमका ड पर अ धक बल देते है।ं इस कारण सामा य कैथो लक, ढ़वादी चच और उ वण य (High Anglican) चच के सद य ोटे टे टों क तुलना मे ं भारतीय आ या मकता को अपनाने मे ं सहजता का अनुभव करते है।ं आ या मक साधना क श से कैथो लक भलीभाँ त पिर चत हैं तथा आ या मक यासों और उनके सु वचािरत सं वधन को सहज प मे ं लेते है।ं साथ ही वड बना यह है क उनमे ं से बहुत से तो ‘योग’ का तरोध करते है,ं यों क वह ईसाई ‘ व श ता’ के लए अपमानजनक है। उनक समझ यह बनी हुई है क आ या मक साधनाओं को पू री तरह से उनके धा मक एवं ऐ तहा सक स दभ से अलग करके तट थ व धयों जैसा नहीं माना जा सकता।111 धम के अनुसार जीवन के परम ल य को ा करने के लए य गत यास एवं ई र का अनु ह दोनों आव यक है।ं य के अ दर क अचू क मह वाकां ा और ई र क ऊपर से बरसी कृपा ये दो श याँ हैं जो हमे ं परम ल य तक ले जाती है।ं कृपा केवल स य और ान के काश क थ तयों मे ं ही ा होती है, जसके लए अपनी न न कृ त का पिर याग करना होता है। इसमे ं मान सक वचार, आ थाएँ, वरीयताएँ, आदते ं तथा अ भ ाय स म लत हैं ता क शा त मन स ा ान ा कर सके। ी अर व द के अनुसार य को अपनी इ छाओं, माँगों, लालसाओं, उ ज े नाओं, जुनूनों, वाथ, अ भमान, अहं भाव, वासना, लालच, ई या, ेष तथा स य के त वरोध को छोड़ना पड़े गा ता क ऊपर से स ी श और आन द एक शा त, वशाल, मजबू त और प व सम पत ाणवान जीव मे ं उमड़ पड़े । शारीिरक तर पर य को भौ तक कृ त क बु हीनता, स देह, अ व ास, अँधकार, हठ, सं क णता, आल य, बदलाव के त अ न छा, तामस इ या द को यागना पड़े गा औ ी ो े ी ें

ता क काश, श और आन द क स ी थरता द य होते हुए शरीर मे ं था पत हो सके।112 य का ऐसा पू ण समपण उसक येक हरकत मे ं होना चा हए; यह पया नहीं है क ऐसा कभी-कभार ही कया जाये, जैसे उदाहरण के लए केवल पू जा या साधना के समय। यहाँ पर ‘समपण’ का अथ इस आशा से अपनी ज मेदािरयों को छोड़ना नहीं है क ई र सब कुछ कर लेगा (भारतीय पर परा इसे ताम सक लापरवाही कहती है)। ब क यह सं केत देती है क जीवन को इस सं सार मे ं पू णता से जया जाये। इस जीवन प त को अं ज़ े ी मे ं ‘‘चटाई से परे का योग—Yoga off the mat’’ कह कर व णत कया गया है जो ‘‘चटाई पर योग—Yoga on the mat’’ से भ है, अथात जो अ यास केवल पृथक समय और थान मे ं ही सी मत है। ी अर व द बताते हैं क— ‘‘योग को ास का ब कुल वचार कये बना भी कया जा सकता है, कसी भी आसन अथवा बना आसन के, एका ता पर कोई बल दये बना, पू णत: जागृत अव था मे,ं घू मते- फरते, काम करते, खाते, पीते, बातचीत करते, कसी भी यवसाय मे,ं नींद मे,ं व न मे,ं अचेतन, अ चेतन अथवा दोगुनी चेतना जैसी थ तयों मे ं कया जा सकता है। यह कोई रामबाण दवा या थर अ यास या णाली नहीं है ब क ा ड क मू ल कृ त पर आधािरत 113 शा त् त य क एक या है। भगव गीता ‘कमयोग’ अथात कम ारा मु पर बल देती है। येक कम अहं कार से मु , बना फल क इ छा कये पू री ईमानदारी से करना होता है। इस तरह य परमा मा के एक उपकरण क तरह कम करता है। ऐसा करने से य क चेतना उ त होती है। इसमे ं ‘तप या’ न हत है जसका उ भव सं कृत के मू ल श द ‘तपस’ से हुआ है जसके बीज का अथ है उ मा उ प करना, चमकना। यह अ भलाषा, यास, ती ता, याग और पीड़ा क अ न क गमाहट है जसे सेवा और समपण के जीवन मे ं अनुभव कया जाता है। इसे पीड़ा के प मे ं नहीं देखा जाता ब क जीवन के उ तम ल य को साकार करने के लए य क तप या के प मे ं वत भाव और हष से वीकार कया जाता है। सभी सम याएँ और क ठनाइयाँ मानव जीवन के इस ल य को भुला देने के कारण उ प हुई है।ं इसके थान पर लोगों क ग त व धयाँ एक सतही अहं कार के आसपास के त हो गई है।ं ‘तप या’ इसी अहं भाव से मु पाने के लए कये जाने वाली नर तर साधना और य गत सं क प को स द भत करता है।

‘Salvation’ - ईसाई मु

, जीवनमु

और मो

का समानाथ नहीं है

कभी-कभी मेरे घर के आसपास थानीय चच से अ छे कपड़ों मे ं सजे-धजे कुछ ईसाई मत चारक (Evangelist) युवक और युव तयाँ का समू ह पड़ोस मे ं आस-पास ई

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चल कर ईसाइयत का चार करने के लए दरवाज़े क घ टयाँ बजाते है।ं मैं हमेशा उ हे ं चाय क पेशकश करते हुए आराम से सहज बातचीत करने के लए आम त करता हू ।ँ हालाँ क मैं एक कैथो लक कूल मे ं पढ़ा हुआ हू ँ और धम पिरवतन के खेल को अ छ तरह समझता हू ।ँ फर भी मैं दखावा करता हू ँ क मैं भोले आ वासी क तरह बु नयादी न पू छने के लए उ सुक हू ।ँ कुछ मनटों क गपशप के बाद ाय: उनमे ं से एक अपने वषय को खोलते हुए पू छता है, ‘‘ या आपको बचाया जा चुका है?’’ मैं आ य कट करने का यास करते हुए त या देता हू ँ क ‘‘मैं तो कभी द डत हुआ ही नहीं!’’ मेरे युवा और आकषक मेहमान ाय: ह ा-ब ा हो जाते है।ं वे मुझसे आशा करते हैं क मैं उनसे कहू ँ क मैं पहले ही बचाया जा चुका हू ँ और यों क उ हे ं भाषा कौशल श ण के ह थयार से लैस कया हुआ है क वे यह दावा करे ं क मेरे वतमान व ास क अपे ा वे मुझे बचाने मे ं अ धक स म है।ं मैं ाय: उ हे ं अचरज मे ं डाल देता हू ँ जब मैं उनसे कहता हू ँ क ‘‘मुझे बचने क आव यकता है ही नहीं।’’ ईसाई मु मू ल पाप (original sin) से उ प अन तकालीन शापों से नवारण का समाधान है। पर तु यह सम या भारतीय धा मक पर पराओं मे ं नहीं है। क पना क जए क कोई आपसे पू छे क या आपको जेल क सजा से मादान मल गया और आप कहे ं क आपको कसी अपराध के लए द डत कया ही नहीं गया, इस लए ऐसा न बेहूदा है। यहाँ न हताथ यह है क कसी धा मक य के लए यह कहना क उसे बचा लया गया है यह सू चत करता है क वह ईसाई मत के मू ल स ा त को वीकार करता है, जसके अनुसार येक मनु य ‘पापी’ के प मे ं ज मा है और वह जब तक यीशु मसीह के सम समपण नहीं कर देता, पापी ही बना रहेगा। यहाँ तक क जब चच दू सरे धम को यो यता के आधार पर मा यता देती है तब भी जहाँ ‘उ ार’ क बात आती है वहाँ कोई भी माग यीशु मसीह का थान नहीं ले सकता। भारतीय धा मक पर पराओं मे ं मु —salvation क नकटतम अवधारणा ह दू धम मे ं ‘मो ’ और बौ धम मे ं ‘ नवाण’ है ज हे ं सामा य प से ‘मु ’ के प मे ं अनुवा दत कया जा सकता है। पर तु ‘मु ’ स ब धी धा मक अवधारणा और ईसाई salvation मे ं मह वपू ण अ तर है।ं मु salvation का आ ासन ा करना अ धकतर ईसाइयों के आ या मक जीवन का मह वपू ण ण होता है। यह कृपा के उपहार के प मे ं मलती है और इसका ोत य के बाहर थत होता है। यह पू री तरह से यो यता, आ या मक साधना, ाथना या तप या के पिरणाम व प नहीं होती। हालाँ क ये इसक ा मे ं सहायक हो सकते हैं और कुछ स दायों मे ं आव यक भी है,ं पर तु ये अपने-आप मे ं ीं ैं

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पया नहीं हैं यों क ईसाई मत के अनुसार हम मे ं मु —salvation ा करने क मता नहीं है। यहू दी और ईसाई पर पराओं मे ं मृ यु को ‘पाप’ का पिरणाम माना जाता है। ईसाई मत के अनुसार सं सार के अ तम समय आ मा क मु मे ं शारीिरक मु भी स म लत होगी। मृतकों का गौरवा वत भौ तक प मे ं पुन थान होगा तथा वग और पृ वी के बीच क सीमा मट जायेगी या लां घी जा सकेगी। अ धकां श ईसाइयों के लए इस मो (Salvation) का अनुभव केवल मृ यु के बाद ही हो सकता है। दू सरी ओर धा मक मु (मो ) यहाँ और अभी इसी शरीर मे ं और इसी सं सार मे ं ा क जा सकती है। धा मक मो ईसाई मु —Salvation से केवल इसी अथ मे ं समान है क दोनों मानव ब धन क वत ता से स ब धत है,ं पर तु धम मे ं इस ब धन क कृ त एकदम भ है। ‘मो ’ वा तव मे ं एक ऐसी थ त है जसमे ं य अ ानता, पू वा हों, और कम के बोझ से मु हो कर जीवन यतीत करता है। भगव गीता के अनुसार जब य बना कसी इ छा, अहं कार और मनु य क ँ जाता कृ त क वृ यों से परे हो जाता है तब वह पहले मह वपू ण पड़ाव पर पहुच है; इससे मक वकास के दरवाज़े खुलते हैं और पू ण अथ मे ं स भा वत मो क ा होती है। दू सरी ओर मु —Salvation मे ं वक सत जानकारी या चेतना, गू ढ़/रह यमयी ान या शारीिरक साधनाएँ (हालाँ क ये उप थत हो सकते है)ं स म लत नहीं है।ं न ही यह बु धम के ‘ नवाण’ जैसी अ नवाय प से पू ण सं यास जैसी थ त है। यह केवल God क इ छा के सम समपण से ही अनुभव कया जा सकता है और यहाँ God का अथ वशेष प से बाइबल के God से है। सं कृत मे ं एक और थ त का वणन कया गया है जसका ईसाई मत मे ं कोई समक नहीं है। जस य ने मो ा कर लया हो वह सं सार मे ं रह कर भी आ या मक काय को कर सकता है, अथात वह पछले कम (कम ब धन) से मु है और फर भी सं सार मे ं स य है। ऐसे य को ‘जीवन मु ’ कहा जाता है। वह अपनी इ छानुसार या तो सं सार से वमुख हो सकता है या इससे भा वत या सी मत हुए बना इसमे ं काय कर सकता है। ‘जीवनमु ’ का समक बु धम मे ं ‘बो धस व’ है। नव वधान (New Testament) इस थ त को ‘सं सार मे ं रहते हुए भी उसका ह सा नहीं’ क तरह देखता है। इसमे ं ईसाई ‘जीवनमु ’ के वकास के लए एक ं पॉल (St. Paul) ने वयं के बारे मे ं ऐसी कई बाते ं कही हैं स भव अवसर है और सेट जससे सं केत मलता है क कुछ अ य ईसाई स तों क तरह उ होंने भी इस थ त का कम-से-कम वाद तो लया था। ले कन मह वपू ण बात है क बाइबल त वमीमां सा मे ं इसके लए कोई श द नहीं है यों क इस थ त को सु नयो जत ी ों े



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तरीकों से परखा, समझा या योग मे ं नहीं लाया गया था। जीवनमु थ त को दशाने के लए ‘स त,’ ‘पैग़ बर’ या ‘रह यवादी’ श द भी पया नहीं है। जब भी ईसाइयों ने इस थ त का अनुभव कया, वह न तो योग क एक यव थत या के पिरणाम व प हुआ था और न ही उसे मु —salvation के प मे ं देखा गया। अत: वे टकन द तावेज डो मनस जीसस (Dominus Jesus) के अनुसार ऐसा य उन य यों, जो चच मे ं पू ण मु —salvation ा करते है,ं क तुलना मे ं ग भीर प से अपू ण है। जैसे ही मत चारक (evangelists) मेरे घर से बाहर नकलते हैं मैं हमेशा यह आशा करता हू ँ क हमारी इस चचा ने उनक लोगों ( ज हे ं वे अपने मत का उपदेश देते है)ं के बारे मे ं इन धारणाओं को चुनौती दी होगी और स भवत: वे इस वचार का ं े क उनके चच के बाहर के सभी लोग आ या मक पुन: ग भीर परी ण करेग अपू णता क थ त मे ं है।ं पर तु जब तक वे ऐसा नहीं करते तब तक मैं उ हे ं अपने ँ ा, उनसे चाय क पेशकश क ँ गा और उनके घर मे ं वागत करते हुए बुलाता रहू ग साथ यह अ छा समाचार साझा क ँ गा क ‘मू ल पाप’ (original sin) जैसी कोई चीज नहीं है।

अ याय 6 प मी सावभौ मकता से मुकाबला

जहाँ ईसाइयत एक ओर अपनी इ तहास-के कता को समू चे व पर थोपने के ई रीय आदेश का दावा करती है, वहीं दू सरी ओर यू रोपीय ानोदय के वचारकों ने भी व भ कार क अपिरवतनीय अवधारणाओं को वक सत करके उ हे ं ‘सावभौ मक’ ओहदा दे दया है। गहरी अवधारणा यह बना दी गई है क व इ तहास क धारा का सम प और दशा एक ही प मी उ े य क ओर जा रही है, चाहे वह मु (salvation) हो अथवा वै ा नक धम नरपे वकास। इसे ा करने के लए सभी लोगों और उनक सं कृ तयों को उन व वध योजनाओं मे ं ढकेला जाता है ज हे ं सफल बनाने के लए तुत कया जाता है। वा तव मे ं आधु नक कानू नों, नयमों, पर पराओं और आम थाओं का नमाण इसी मान सकता (जानबू झ कर या अनजाने मे)ं से कया जाता है। पिरणाम व प व भ ग़ैर-प मी स यताओं क बौ क एवं सां कृ तक स प यों को प म ारा हड़पा गया है और ऐसा अब भी कया जा रहा है। इनमे ं स म लत हैं ा ड, अ तिर , समय और सामा जक स ब धों क सम वदेशीय अवधारणाओं का वनाश और वा तव मे ं अ मता और े आदश से उनके स ब धों का भी नाश। येक वदेशी सं कृ त क एकता को कई टुकड़ों मे ं ख डत कया जाता है, फर इ हे ं प मी वग करण मे ं ढाला जाता है जसे अ धक वषयपरक या सही आ या मकता पर आधािरत दखाया जाता है। यह औप नवे शक सं सार को योजनाब तरीके से बेदखल करने (एक तरह क बौ क नरभ ता) से कम नहीं है। जब ल त सं कृ त के उपयोगी त वों को (प मी आव यकताओं के अनुसार) नचोड़ लया जाता है तब जो बचता है वह जजर हो चुक सं कृ त क न ाण भू सी क तरह होता है। शकार को उसी क दुदशा का कारण और ोत होने के लए भी दोषी ठहराया जा सकता है। इस कार क सावभौ मकता मानव आव यकताओं का समाधान करने मे ं वफ़ल रहती है; अ धक से अ धक यह प मी भू मका के तहत व भ स यताओं के बीच ‘कृ म एकता’ ही ला सकती है। इस पु तक का सबसे मह वपू ण उ े य है प मी सावभौ मकता के दावों का ख डन करना। इन दावों के अनुसार प म ही इ तहास का चालक और उसका ल य है तथा एक साँचा दान करता है जसमे ं सभी स यताओं और सं कृ तयों को बैठना ही है। यह दृ कोण यू रोपीयों और अमरी कयों क चेतना मे ं इस तरह समाया हुआ है क यह उनक पहचान का एक मुख ह सा बन चुका है। फर भी वयं प मी पिर े य के भीतर यह लगभग अदृ य-सा ही है। पू वप या ‘अवलोकन को पलटने’ (reversing the gaze) से हम इस दृ कोण पर काश डाल सकते है,ं ता क उन ी ों





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तरीकों का पदाफ़ाश हो सके ज होंने भारत और भारतीय धा मक पर पराओं के त गलतफ़ह मयाँ फैला कर उनक अवमानना क है। प मी सावभौ मकता ने सबसे पहले अठारहवीं शता दी के अ त और उ ीसवीं के ार भ मे ं यू रोप के मानी आ दोलन के समय अपनी पू ण अ भ य ा क। इसके चार मह वपू ण पिरणाम नकले जनमे ं येक ने भारत और उसक धा मक पर पराओं को य प से फँ साया : (1) आ या मक और सां कृ तक के साथसाथ आ थक सं साधन के प मे ं ‘पू व’ क खोज; (2) प मी न लीय पहचान, वशेषकर जमनी को सहारा देने के लए सं कृत का योग; (3) सावभौ मक व भावना के वकास के लए व इ तहास का ववरण द शत करना, वशेष प से यू रोपीय और अमरीक देशों के अनुसार, न क ए शयाई देशों के (इन ववरणों को मोटे तौर पर एक ही य , ‘हेगल े ’—Hegel ारा चािरत कया गया); और (4) इन ववरणों को पुन: वापस भारत भेजना, जसका भाव यह हुआ क प म के इस श शाली सावभौ मक मथक के काश मे ं भारतीय अपने अतीत क पुन या या करने क गहन आव यकता महसू स करने लगे।ं जैसा क हम देखग े ं ,े इन चार पिरणामों के भाव प म से भारत क ट र करवाने क शत था पत कर अपना असर आज भी छोड़ रहे हैं और बहुत-सी उन अवधारणाओं को नधािरत कर रहे हैं जन पर यह ट र जारी है। एक नया कथानक गढ़ा जाता है और त यों क या या इसी के अनुसार करते हुए उसमे ं समा दी जाती है। प मी इ तहासकार वक प के प मे ं उपल ध जानकारी मे ं आ धकािरक न तता के साथ हेऱफेर करते हैं और बाद के इ तहासकार इसी या को आने वाले प मी आ ा ताओं और शासकों क आव यकताओं के अनु प जारी रखते है।ं येक तर पर कुछ चुने हुए पहलुओ ं का चयन करके उ हे ं प मी वचारों के अनुकूल बनाया जाता है जो आगे चल कर सामू हक मृ त और क पना का अं ग बन जाते है।ं इस तरह का इ तहास लोगों के मन मे ं तीकों, कथानकों, अलं कारों, पहचानों, पू वजों, थानों इ या द के प मे ं घर कर जाता है। यह सही हो या गलत पर तु यह उनक सामू हक पहचान के कथानक के प मे ं असर करने लगती है।1 हालाँ क इस तरह क वृ याँ सभी स यताओं मे ं पायी जाती है,ं पर तु अपने इ तहास, दशन और पहचान के ववरणों को प म दू सरों पर थोपने मे ं वशेषकर सफ़ल रहा है। इस या के या वयन के लए आव यक था क दू सरों के इ तहास और पहचानों को इस तरह से पचाया जाये क उपयोगी दखने वाले अं श प म का ह सा बन जाये।ं यह या अहं कार क य ता से सं चा लत होती है जो वषम दृ कोणों को कृ म प से जोड़ने के यासों और स ा के व तार क अन गनत पिरयोजनाओं से धन पाती है। जैसा क हमने पछले अ यायों मे ं देखा है, प मी सं शोधनवाद या तो ईसाइयत क मु (salvation) के इ तहास के मं च पर ग़ैर-प मों को मामू ली ै ें ी े ओ े े

खलाड़ी दखाने का यास करता है या फर उ हे ं उस मथक क ओर ले जाने का यास करता है क प मी तक और व ान ने कैसे आ दम मान सकताओं और सं कृ तयों पर वजय ा क । इ ाहमी पर पराएँ और धम नरपे ता दोनों इस मामले ं एक तऱफ ईसाई मत का दावा है क उ हे ं अपने इ तहास-के क वचारों मे ं दोषी है— को समू चे व पर थोपने का ई रीय आदेश मला हुआ है, वहीं बु ता के व ानों ने भी व वध अपिरवतनीय वैचािरक मा यताओं को वक सत कर उ हे ं ‘सावभौ मक’ म हमा से स मा नत कया। गहन अवधारणा यह है क व इ तहास का आकार और दशा-धारा एक प मी उ े य क ओर जा रही है—चाहे वह मु (salvation) हो अथवा वै ा नक धम नरपे वकास। इसके लए सभी लोगों और सं कृ तयों को उन व वध योजनाओं मे ं कृ म प से डाला जाता है जो इस उ े य के लए तुत क जाती है।ं व तुत: आधु नक कानू नों, नयमों, पर पराओं और आम थाओं को इसी वचारधारा से न मत कया जाता है (चाहे जानबू झ कर या अनजाने मे)ं । पिरणाम यह हुआ है क प म ने व भ ग़ैर-प मी स यताओं क सां कृ तक और बौ क स पदाओं को हड़पा और आज भी ऐसा हो रहा है। इनमे ं स म लत हैं ा ड, अ तिर , समय और सामा जक स ब धों क सम वदेशीय अवधारणाओं का वनाश और वा तव मे ं अ मता और े आदश से उनके स ब धों का भी नाश। वदेशी सं कृ त क एकता को कई टुकड़ों मे ं ख डत कया जाता है, इ हे ं फर प मी वग करण मे ं ढाला जाता है जसे अ धक वषयपरक या सही आ या मकता पर आधािरत दखाया जाता है। यह औप नवे शक सं सार को योजनाब तरीके से बेदखल करने (एक तरह क बौ क नरभ ता) से कम नहीं है। जब ल त सं कृ त के उपयोगी त वों को (प मी आव यकताओं के अनुसार) नचोड़ लया जाता है तब जो बचता है वह जजर हो चुक सं कृ त के न ाण भू सी क तरह होता है। शकार को उसी क दुदशा का कारण और ोत होने के लए भी दोषी ठहराया जा सकता है। इस कार क प मी सावभौ मकता मानव क आव यकताओं का समाधान करने मे ं वफ़ल होती है; अ धक से अ धक यह प मी भू मका के तहत व भ स यताओं के बीच ‘कृ म एकता’ ही ला सकती है। सम या का एक पहलू यह है क प मी दृ कोण दू सरे को कम करके आँकने का रहा है और उसके -आधारी (binary) मापद डों को व भर मे ं लागू करने का पिरणाम हं सा के प मे ं उभरता है। उदाहरण के लए प व /धम नरपे , एके रवादी/बहुदव े वादी, सृजन/ मक वकास तथा राजनै तक वाम/द णप थ जैसी -आधारी े णयाँ भारतीय धा मक स यता को समझने के आर भक यास के लए अनुपयु है।ं पू व/प म अथवा पू वा य/ पा ा य वचार का वभाजन भी एकप ीय है तथा यह ‘प म’ कहलाने वाले े से स ब धत ऐ तहा सक घटनाओं के पिरणाम व प ही सामने आया है।2 ं ी े ी ों े ों ो

प मी श ा व न केवल भारतीय धा मक थों के मह वपू ण सं करणों को अपने अनुसार बनाते है,ं ब क सं वाद क े णयों, ज टल श द और थ तयाँ कस तरह स द भत क गई है,ं या रोचक है और सं ग के प मे ं स म लत कया गया (और या छोड़ा गया), कौन-से सामा जक स ा तों और श दों के भा य व ान का उपयोग कया जाना है और या या के मामले मे ं कौन आ धकािरक हैं इ या द का भी नधारण करते है।ं यापक साधारणीकरण मे ं लगे प मी शोध सं थान ह दू धम क वैधता पर नय मत प से अपने नणय देते रहते हैं और इसक चचा कब और कैसे क जानी चा हए (य द हो तो), इसके अ धकृत व ा कौन हैं इ या द पर भी अपनी टीका- ट प णयाँ करते रहते है।ं इस कारण, वशेषकर प म ारा च लत वग करण को देखते हुए, भारतीय धा मक पर पराओं के बहुत से लोग अपनी सं कृ त क वैधता पर ही स देह करने लगते है।ं 3

पा ा य पाचन एवं सं लेषण वषय के अ ययन मे ं जमनी का थान 17वीं शता दी के अ त और 18वीं के ार भ मे ं जमनी, ां स और इं लै ड के तथाक थत मानी आ दोलन (Romantic movement) के नेताओं ने ाचीन भारत का अ ययन करने मे ं वशेष च ली। भारत को यू रोपीय सं कृ त का मू ल माने जाना वाला स ा त उसका मू ल यहू दी होने के पहले के दृ कोण का त पध बनने लगा। यह बदलाव इस लए हुआ यों क सं कृत को कुछ यू रोपीय भाषाओं से मलता-जुलता पाया गया—जब क ह ू ऐसी नहीं थी — और यू रोपीय लोग सं कृत मे ं लखे महान भारतीय थों क खोज से भाव वभोर थे यों क इससे उनके वगत इ तहास का पुन नमाण हो सकता था। भारत के पार पिरक शा ों ने ऐसी स यता क ओर इं गत कया जसने नाटक, धम और महाका य, नी तकथा, वक सत अमू त वचार, च क सा, ग णत और खगोल व ान मे ं मह वपू ण उपल धयाँ ा क थीं। सन् 1800 से 1850 के बीच लगभग येक यू रोपीय श ा के मे ं सं कृत अथवा भारतीय व ा वभाग क थापना क गई, कभी-कभी तो ीक और लै टन भाषा क वरीयता गराने क क मत पर। एक महान भारतीय सं कृ त से करीबी के वचार ने वहाँ के बु जी वयों को एक साझा यू रोपीय इ तहास खोजने के लए िे रत कया। तब से बीसवीं सदी के आर भ के कुछ समय तक सं कृत ने भाषा व ान के े मे ं यू रोप और अमरीका मे ं अपना भु व जमाये रखा और यू रोप के कुछ मुख इ तहासकारों, दाश नकों और अ य बु जी वयों ने इसक गू ढ़ता के वषय मे ं व वध स ा त तपा दत कये। हालाँ क बीसवीं सदी के म य तक सं कृत का अ ययन कम हो गया और आज यह श ा के ों मे ं लगभग वलु -सी हो रही है। पुनजागरण (Renaissance) और उप नवेशवाद (colonialism) के काल ने यू रोप क ‘पहचान’ क राजनी त के स तुलन पर असमान भाव डाला। ां सी सयों ने कैथो लक चच और ीको-रोमन उ कृ स ह य क वरासत के गौरव का दावा ं ो ों े ी ौ ी ो े

कया; टश लोगों ने अपनी पौरा णक वं शावली को व जल (Virgil) के (Aenas) के साथ जोड़ कर और भारत को टश सा ा य के मुकुट के एक हीरे क तरह दखा कर अपनी रा ीयता क भावना को सुदढ़ ृ कया; पे नश और पुतगा लयों ने अपनी समु ी-खोजों तथा अमरीका के उप नवेशन का म हमागान कया और इटली वा सयों ने पुराने रोमन सा ा य क मधुर यादों को सं जोया। इस तरह के भ य कथानकों ने त ी रा ों क पहचानों को मजबू त कया और उनके नागिरकों मे ं गव क भावना वक सत क । जमनी के पास ऐसा कोई भ य दावा नहीं था, यों क उनके पास न तो कोई वदेशी सा ा य था और न ही कोई उ कृ वं शावली जस पर गव कया जा सके। जमनी क हीन भावना सां कृ तक उ त क यापक प से वीकृत उड़ान के साथ बढ़ने लगी, जस के ारा स य यू रोप को यू नान, इज़राइल और फर रोम मे ं मुख ँ ता दखाया गया औप नवे शक श यों के प मे ं ार भ होता और चोटी तक पहुच था। इससे यू रोप के उ सं कृ त के मे ं ां स नवजागरण के उ रा धकारी के प मे ं था पत हो गया जब क जमन लोगों के पास ऐसा कोई कथानक नहीं था। व तुत: यू रोप मे ं इस काल क पा पु तकों मे ं जमन लोगों को अस य दशाया गया था ज होंने पहले रोमन सा ा य को और फर ां स मे ं यू रोप क उ सं कृ त को न कया था। ऐसी पिर थ तयाँ मे ं जमनी के लोगों को गव का भाव तब हुआ जब यह ात हुआ क सं कृत न केवल उ त स यता का मुख सं केतक है ब क अ य कसी यू रोपीय भाषा क तुलना मे ं जमन भाषा से अ धक समानता रखती है। इसने जमन बु जी वयों को उ सा हत कया और जमन लोगों क पहचान को न मत करने क दशा मे ं भारत उनके लए एक मुख ोत बन गया। जन जमन लेखकों क रचनाओं पर भारत का भाव पड़ा था उनमे ं जमन मा नयत के अ दू त, जैस— े जोहान गॉ ाइड वॉन हडर (Johann Gottfried von Herder, 1744-1803) तथा काल व हेम ाइडिरक वॉन शेगल े (Karl Wilhelm Friedrich von Schlegel, 1772-1803); उनके साथ जमनी क आदशवादी यव था के स प धर वॉन शे लं ग (F.W.J. von Schelling, 1775-1854), आथर शोपेनहावर (Arthur Schopenhauer, 1788-1860) और न:स देह जॉज व हेम ाइडिरक हेगल े (Georg Wilhelm Friedrich Hegel) स म लत थे। भारतीय व ाओं का अपने पेशे मे ं अ धकां श समय तक गहराई से अ ययन करने वाले शता दी के अ य मुख जमन वचारकों मे ं व हेम वॉन ह बो ट (Wilhelm von Humboldt, 1767-1835), ां ज़ बॉप (Franz Bopp, 1791-1867) तथा मै स यू लर (Max Muller, 1823-1900) मुख थे। भारतीय दशन ने नी शे (Nietzsche) के दाश नक काय को भी भा वत कया, जब क गेटे (Goethe) का लदास के सं कृत नाटक ‘‘अ भ ान शाकुंतलम्’’ से इतना उ ा सत था क उसने फ़ॉ ट (Faust) क ो ं े ी ों े

तावना को सं कृत नाटक क पर परा के अनु प ही लखा। इन जमन व ानों ने जीव त टश एवं ां सीसी भारतीय व ा के व ानों के साथ वचार- वमश कया और इससे जो गहरा भाव पड़ा उसे आधु नक प मी वचार के नाम से जाना जाता है। भारत के त यह मानी आकषण, वशेषकर सं कृत के शा ीय काल का, सदैव वाथ-भाव के कारण ही रहा। यहाँ तक क जमन मा नयत के आर भक चरणों मे ं भी, जब पौरा णक और उ कृ भारत के त गहरा म े और स मान था, यू रोप-के क ढाँचे और हतों को थोपने क वृ बनी हुई थी। भारतीय वचारों को धीरे-धीरे उनके स दभ से हटा कर उ हे ं नये उभरते जमन ढाँचे मे ं चु न दा तरीके से पचाया गया। इन भारतीय वचारों क उ प यों के नवीन ोतों का पता लगाने का यास कया गया और मुख यू रोपीय वचारकों ारा कई वैक पक क पनाएँ ता वत क ग । उदाहरण के लए पहला मुख जमन सं कृत शेगल े (Schlegel) भारतीय दृ कोण का एक बड़ा समथक था। उसने सं कृत शा ों से कई वचारों को ले कर ाचीन जमनी एवं प म के नये इ तहास को न पत कया। ले कन अचानक शेगल े ने फर से ईसाई मत को अपना लया और भारत को ाचीन जमनी क ज मभू म मानने के अपने पहले के शोध नब ध को अ वीकार कर दया। उसने भारतीय धम को सं कृत शा ों से अलग करने का यास कया ता क सं कृत स यता के ग़ैरधा मक पहलुओ ं को चु न दा प से हड़प कर जमनी क ईसाई पहचान मे ं था पत कया जा सके। भारत के त मा नयत धीरे-धीरे कम होती गई और शेगल े स हत अ य जमनों ने भारत को कई बुराइयों से यु एक आ दम समाज के प मे ं देखना ार भ कर दया।

े का प मी मथक हेगल पर तु सभी जमन वचारकों मे ं हेगल े (Hegel) ही था जसने प मी वचारधारा और पहचान पर सबसे गहरा और थायी भाव छोड़ा। इसे ाय: भुला दया जाता है क उसका काय भारत के अतीत के त फैले मा नयों के जुनून क त या के प मे ं था। उसने अ ैतवाद जैसे भारतीय दृ कोणों को हण कया और साथ ही भारत वदों से भारतीय स यता क उपयो गता के व वाद- ववाद भी कया। उसने यह माना हुआ था क प म और केवल प म ही इ तहास और योजनवाद का एकमा त न ध है। भारत को उसने ‘जड़ स यता’ मान कर उसक तुलना मे ं प म को पिरभा षत कया। इस कार हेगल े ने कुछ हद तक भारत से सामना करते हुए जमन लोगों के लए एक पहचान बनाने का यास कया। बु ता (Enlightenment) के सं थापक के ें औ

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प मे ं और यू रोपीय वचारों क नामी ह तयों मे ं से मुख क है सयत से उसने इ तहास के एक श शाली और भावकारी दशनशा का वकास कया जसमे ं सभी स यताओं का भू तकाल, वतमान और भ व य एक ही साँचे मे ं समा हत कर दया गया। यह सच है क अपनी श ा के दौरान हेगल े को इ ाहमी मतों के त गहरी अ च पैदा हुई। उसने इनके सं क ण और दशन- वरोधी पहलुओ ं को अनुभव कया क कस तरह उनका अ धकतर ान उसक नगाह मे ं अस य ाचीन म यपू व के व श सां कृ तक पिरवेश मे ं ब ध गया था। साथ ही हेगल े ने इ ाहमी पर पराओं क इ तहास-के कता और उनके वृहत मु — Salvation के कथानकों को गहरे प मे ं आ मसात कर अ नवाय प से (या शायद अनजाने मे)ं फर से न मत कया। हालाँ क यह अ धक धम नरपे व यापक स दभ मे ं कया गया। धम से अलग होते हुए और एक वशु ीक धम नरपे तकश को अपनाने से उसका भ य कथानक कई मायनों मे ं यहू दी-ईसाई मु (salvation) के इ तहास क तछाया जैसा है। इस तरह हेगल े क Weltgeist (World Spirit) अथात ‘ व वृ ’ इसी इ तहास क समथक है, जसके अनुसार ‘प म’ असाधारण है यों क इस या ा मे ं वह नेत ृ व करने के लए पू व न द है, जब क अ य स यताओं को पीछे पीछे चलना पड़े गा या मट जाना होगा। हेगल े क ‘ व - वृ ’ सम मानवता को लए हुए एक कृ म एकता है। यह प म को वशेषा धकारी बनाती है और जो इस योजना के अनु प नहीं बैठते वे इ तहास का ह सा नहीं है,ं हालाँ क यह वृ उ हे ं उस तरह उपयोग कर सकती है जैसे पौधों, पशुओ ं और जमीन इ या द को कया जाता है। हालाँ क सभी मानवों का एक भू गोल है, पर तु इस अथ मे ं इ तहास नहीं। इ तहास-बोध का यह अभाव सं थागत कमी के कारण है, अथात् वत प से स मता के साथ कम ारा व मे ं पिरवतन लाने मे ं वे स म नहीं है।ं ‘ वृ ’ (Spirit) क यह या ा व भ चरणों के ँ ती है जसे ‘पू ण वृ ’ म से गुजरती हुई आ म-बोध के सव तर तक पहुच (Geist) कहते है।ं यह वृ व श आकार उ प करती है और ये आकार व इ तहास के भ - भ रा है।ं उनमे ं से येक रा के वकास क एक वशेष अव था का त न ध व करता है जससे वे व -इ तहास के युगों के अनु प बने।ं 4 यह वृ न न से उ व प मे ं वक सत होती है, इस लए हेगल े ने व भ देशों को वकास के अलग-अलग चरणों मे ं रखा है। वे प करते हैं क ‘‘यह ई र क योजना है और व इ तहास वधाता क योजना के अ तिर और कुछ नहीं है। व ई र ारा सं चा लत होता है और व -इ तहास उनके शासन का त व और उनक योजना का या वयन है।’’5 ो











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जो एकता वह ता वत करता है वह जा तवादी है जहाँ प मी लोगों को, जनक वह जा त के प मे ं अ य स यताओं जैसे अ क , ए शयाई, मू ल अमरी कयों इ या द से तुलना करता है, वह ा ड के के मे ं रखता है। जो भी त य उसके शोध- नब ध से मेल नहीं खाते उ हे ं सु वधाजनक प से नकारते हुए वह यू रोप और अमरीका को मानव वकास के जुड़वा शखर जैसे दखाने के यास मे ं घटनाओं का एकतरफ़ा काल म न मत करता है। वह काल मों के इस साँचे को सावभौ मक इ तहास घो षत करता है और उदाहरण के लए यह दखाता है क ‘‘वै क इ तहास पू व से प म क ओर जाता है।’’ यू रोप पू णतया सावभौ मक इ तहास का अ तम छोर है जब क ए शया उसका ार भ।6 वह ‘ ागै तहा सक’ मं च क क पना कर उसमे ं उन सभी देशों को रखता है जो उसके अनुसार व इ तहास मे ं नहीं चुने गये है।ं अमरीका के मू ल नवा सयों को हेगल े ‘ प प से मू ख’ कह कर ख़ािरज कर देते हैं और उ हे ं ऐसे ‘अ ानी ब ों’ क तरह बताते हैं ज हे ं सभी पहलुओ ं मे ं केवल हीनता से पिरभा षत कया जा सकता है। वे यह भी दावा करते हैं क भारत का कोई इ तहास ही नहीं है।7 इसके अ तिर , यों क ई र वयं तकसं गत है, व इ तहास के समू चे त व तकसं गत हैं और वा तव मे ं उ हे ं ऐसा होना ही चा हए; एक सव दैवी श इस 8 समू चे त व का नधारण और उसे मा णत करने मे ं स म है। हेगल े के अनुसार केवल प म को ही तकबु से स प कया गया है, इस लए वह ई र क योजना के अनुसार सं चालक के पद पर है। हेगल े व ध के अनुसार तकसं गत प म को इ तहास के के ीय त न ध के प मे ं देखना चा हए—एक न े के इं जन जैसा। दू सरों को अतीत मे ं फेंक दया गया, अथात् उनके दन पू रे हो गये। इस लए उ हे ं भ व य क कसी भी योजना से बाहर कर दया गया। इस कार क वृ प प से प मी है। दू सरी सं कृ तयों को या तो इ तहास के कूड़े दान मे ं फेंक दया गया (य द वे इ तहास से स ब ध रखती हों तो) या फर प म का अनुकरण करने हेत ु मजबू र कर दया गया, अ यथा उ हे ं कुचल दया गया। व इ तहास और दशन को वकास के एकमा और समय क मक उड़ान मे ं व वृ को ग तशील आ दोलन के प मे ं देखा गया। ए शया और वशेषकर भारत के त हेगल े वच प से भयभीत और अँध त या त है।ं वह पिर म-पू वक सं कृत और भारतीय स यता क आलोचना करते हैं और अपने दशन मे ं चुने हुए कुछ वचारों (जैसे पू ण आदशवाद) को समा हत करने के लए यू रोपीय भारत वदों से वाद- ववाद करते हैं तथा भारत को न न तरीय दखाते हुए अपने प मी स ा त का नमाण करते है,ं जैस— े ए शया इ तहास मे ं एक ब े के समान है जब क प म पू ण वक सत और सभी के अ तम ग त य क तरह।

उप नवेशवाद एवं न लवाद तकसं गत दखाये गये े े

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हेगल े -र चत इ तहास का मक स ा त इ तहास क ग त सु न त करने के लए प मी औप नवे शक शोषण के औ च य के प मे ं लोक य हुआ। ले कन हेगल े इस वचार को और आगे ले जाते हुए कहते हैं क इ तहास को आगे बढ़ाने मे ं यू रोपीय लोगों ारा कया गया कोई भी कृ य, चाहे वह कतना ही न दनीय यों न ं हो, मानव वकास के नाम पर यायो चत है। वे लखते है— ‘‘ यों क इ तहास घटनाओं के प मे ं ‘ व वृ ’ का एक न शा है, इस लए जो लोग एक ाकृ तक स ा त के प मे ं इस ‘ वृ ’ (Spirit) को पाते हैं वे ही व इ तहास के उस युग पर अपना भु व जमाते है;ं जो लोग व तुत: ‘व वृ ’ के वाहक हैं उनके पू ण अ धकार को छोड़ कर दू सरों क वचारधारा का और कोई अ धकार नहीं बनता।’’9 अत: उ े यवादी अ नवायता के प मे ं औप नवेशीकरण वां छनीय है जसके ारा ं े यू रोपीय लोग दू सरों को हड़प सकते है।ं वे आगे लखते है— ‘‘ऐसा समाज (अथात् प म) वयं से आगे देख कर उपभो ाओं क ओर िे रत है। इस लए वह अपनी आजी वका के साधन उन लोगों के बीच खोजता है जो उससे नीचे है,ं जो सं साधनों के मामले मे ं बहुतायत मे ं है,ं जैसे क उ ोगों से स ब धत। ऐसे आपसी स ब धों के व तार से, कहीं यव थत तो कहीं छटपुट प मे,ं उप नवेश था पत करना स भव होता है और एक पू ण था पत नागिरक समाज िे रत होता है।’’10 इस कार सभी ग़ैर-यू रोपीय लोग यू रोपीय लोगों के हाथ मे ं केवल व तुओ ं के समान है।ं अपने स ा तों को अ कयों पर लागू करते समय हेगल े दो टू क ँ ते है— ं ‘‘अ त न लवादी न कष पर पहुच े ों का यह ल ण है क उनक चेतना अभी ँ ी है, उदाहरण के लए ई र अथवा तक न प ता के अ त ान पर ही नहीं पहुच कानू न क अवधारणा तक, जन से मानवता को सं सार से स ब ध रख कर उसके सार का अ तब ध होता है। वह (अ त े य ) अभी भी अध न मत इं सान है।’’11 हेगल े का तक है क अ कयों के लए यही बेहतर होगा क वे तब तक गुलाम बने रहे ं जब तक वे पिरप वता क या से गुज़र कर ईसाइयत मे ं पू ण प से ं ‘‘गुलामी अपने आप धमातिरत नहीं हो जाते। अ कयों के लए वह आगे कहते है— मे ं अ यायपू ण है यों क असल मे ं मनु य वत है, पर तु वत होने से पहले उसे पिरप व होना पड़े गा। इस लए यही उ चत और सही है क दास था को एकदम नहीं ब क धीरे-धीरे समा कया जाये।’’ अ का पर अपनी चचा को समा करते हुए हेगल े ट पणी करते हैं क ‘‘इस ब दु पर हम अ का को यहीं छोड़ते है,ं अब दोबारा इसका उ ख े नहीं होगा। यों क यह व इ तहास का कोई ह सा नहीं है और न ही यहाँ कोई वकास हुआ और न ही इसका कोई अ भयान है।’’

भारत — इ तहास बना जड़वत 1828 मे ं शेगल े (Schlegel) पहले से ही यह दावा कर रहे थे क ‘‘भारतीयों के पास न तो कोई नय मत इ तहास है और न ही इ तहास के वा त वक व ान पर कोई द तावेज़। उनक मानवीय मामलों और घटनाओं स ब धी सभी अवधारणाएँ पू री तरह से पौरा णक है’ं ’।12 इसके दो साल बाद वयं हेगल े ने भी इसी तरह का दृ कोण य कर भारत को सु व दत प से बना इ तहास वाला देश कहा— अथात यह देश जाग कता से इ तहास बनाने मे ं अ म है। हेगल े के वचार मे ं भारत वयं कुछ ठोस काय करने के बजाय व इ तहास के नायकों का पछल गू बना रहा। उ होंने कहा, भारतीय मनीषा क सहज कृ त ऐ तहा सक स य नहीं केवल ‘सपने’ ही पैदा करने मे ं स म है।13 इसके वपरीत प मी भाव वत है और इस वत ता पर काय कर रहा है। इसी कारण प म ने पू व पर अ धकार जमाया है और उनके आपसी स ब ध वाभा वक प से ‘प म क अधीनता’ के ही है।ं प म को य द भारत का अ ययन कर कुछ सीखना है तो वह यह है क उसे या नहीं करना और या पीछे छोड़ना है, न क वह या अपना सकता है। वह लखते है,ं य द प मी लोग ाचीन भारत को आदश माने ं अथवा उसका म हमागान करे ं तो यह उनक मू खता ही होगी।14 हेगल े का भारत क पना और चैत यता का े है15 जहाँ कुछ-कुछ ‘डरपोक और ण ै ’ जैसा भाव या है।16 ह दुओ ं मे ं मानव जीवन के त नै तकतापू ण स मान क भावना17 का अभाव है और वशेषकर ा णों मे ं ‘सच के त कोई ववेक भाव’ नहीं है।18 वे लखते हैं क भारतीय अ यावहािरक अन त मे ं खोये हुए हैं और अभी तक सी मत और ख़ास क स ी कृ त नहीं खोज सके है।ं भारतीय बु क पना और अराजकता मे ं खोई हुई है और उसमे ं व श ता के प भाव क और य गत वत ता क कमी है। यह एक ऐसा दमनकारी समाज है जसमे ं धा मकता और नरं कुश कामुकता अपने चरम पर है। इसी लए भारत शैशवाव था मे ं फँ सा हुआ है, उसका वकास ठहर गया है और वह वयं पिरप व होने मे ं असमथ है। ऐ तहा सक ग त अस भव है यों क क एकता हेत ु पीछे क ओर जाते हुए भारतीय रह यवाद पलायनवादी है, जब क प मी भाव अ भ य क उ थ तयों क ओर आगे बढ़ता जा रहा है। पुनज म को हेगल े एक क ी सोच कह कर ख़ािरज कर देता है जसने भारतीय यो गयों को कठोर तप या मे ं ल कया है जो उ हे ं म ययुगीन यू रोपीयों क याद दलाता है। वे ‘योग’ को न तो कला क शं सा मे ं न ही व लेषणा मक अनुभव मे ं वषय-व तु क ब हमुखी त ीनता जैसा देखते हैं और न ही य गत मजबू ती क अ तमुखी त ीनता के प मे,ं ब क उसे ‘का प नक भ ’ जैसा मानते हैं जो उनके अनुसार एक ‘नकारा मक दृ कोण’ च त करती है। ‘मो ’ को वे एक का प नक एवं नकारा मक मु मानते है।ं े





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दशनशा के इ तहास स ब धी अपने या यान मे ं हेगल े कहते हैं क उनके मन मे ं भारतीयों के त कोई स मान नहीं बचा यों क उनमे ं सामं ज य का अभाव है। वे ं इ तहास के अयो य है— पहले हमे ं भारत के ाचीन ान के त तस ी और आदर का भाव था, पर तु भारतीयों के व श खगोलीय काय से पिर चत होने और उ हे ं जाँचने के बाद सभी आँकड़ों मे ं ु टयाँ दखाई दीं। भारतीयों के काल म से यादा कुछ भी मपू ण और दोष-यु नहीं हो सकता; कोई भी खगोलशा ी, ग णत आ द मे ं पारं गत हो कर इ तहास के स दभ मे ं इतना अनाड़ी नहीं हो सकता जस पर भारतीयों मे ं न तो धीरज है और न ही सामं ज य।19 ं ‘‘ टश या यू ँ भारत के उप नवेशीकरण को हेगल े एक अ नवाय होनी मानते है— कहे ं ई ट इ डया क पनी भारत के शासक है,ं यों क ए शयाई सा ा यों क घातक नय त यही है क वे यू रोपीयों के अधीन रहे।ं ’’20 इस लए भारत को एक ‘जड़’ तथा वयं अपने बू ते पर ग त करने मे ं असमथ घो षत कर दया गया था और यह प म का दा य व था क वह भारत को उप नवेश के प मे ं था पत कर उसके ऊपर ‘श य या’ करे, जैसे कोई डॉ टर मरीज के हत के लए करता है। यह वचार यू रोपीय उप नवेशवाद के दृ कोण से मेल खाता है जो हेगल े के समय अपने चरम पर था। उस समय यू रोप श शाली था और दू सरों के ऊपर अपनी नै तक और बौ क े ता के क र रा वादी दावे थोप सकता था। भारत के त अपने सभी व यों मे ं हेगल े वयं को ‘यू रोपीय म ी का सपू त’ के प मे ं तुत करते है।ं भारत व व हेम ह फ़ास (Wilhelm Halbfass, 1940-2000) बताते हैं क ‘‘हेगल े को शा ीय भारतीय वचारों क यव थत ज टलता और इ तहास-ज नत पिरवतनशीलता का पया ान नहीं था।’’ हेगल े को सं कृत क यावहािरक जानकारी नहीं थी। उसका भारतीय सं कृ त का ववादा मक योग पू णत: का प नक था जो उसक अपनी सनक व त कालीन समय क वशेष आव यकताओं पर आधािरत था। वह अनुभवज य परख के त भी च तत नहीं था और केवल नराधार क पनाओं पर ही नभर था जो ाय: भारत को एक हा य- च क तरह दखाती थीं।21 अपने पू रे पेशे मे ं हेगल े ने भारतीय दशनशा को अपमानजनक प मे ं तुत कया और इसे यू रोपीय वचारधारा के अधीन बताया। ह फ़ॉस (Halbfass) या या करते हैं क हेगल े ने दशनशा क दशा को इस तरह पिरभा षत कया जससे ‘पू व दृ कोण’ उपे त हो जाये— हेगल े हमारे सम भारतीय दशन क एक ग भीर और यापक पिरचचाका उदाहरण तुत करते है।ं फर भी उनके ारा धम से दशनशा का ऐ तहा सक अलगाव, खोई हुई एकता क ा हेत ु कसी भी ललक का े





उसका अवमू यन तथा उनका यह व ास क केवल यू रोप ारा ही वा त वक ‘असली’ दशनशा के वकास से ‘मु व ान’ को लाये जाने के कारण पू रब पीछे छूट गया, जैसे वचारों ने ‘पू व दृ कोण’ क उपे ा क और दशन क अवधारणा के सं कु चत योग तथा इ तहास दशन के आ म-ब धन को ो सा हत कया।22 भारत क जड़ता और इ तहास के न होने क हेगल े क समझ को काल मा स (Karl Marx) ारा बनाये रखा गया। उसने भारत का वणन ‘ए शयाई उपज णाली’ (Asiatic Mode of Production) मे ं जकड़े होने जैसा कया। उनका मानना था क भारत एक आ थक दलदल मे ं फँ स गया है जसमे ं नरं कुश रजवाड़े भरपू र श का उपयोग करते हुए अपिरवतनशील ण े ीब गाँवों पर शासन चलाते है।ं उनके व लेषण मे ं भारत के वा त वक आ थक इ तहास का ग भीर अ ान द शत होता ृ ला मे ं वह अपना है। एक अमरीक समाचार-प के लए लखे गये लेखों क ं ख गलत न कष पेश करता है— भारतीय समाज का कोई इ तहास है ही नहीं, कम-से-कम जो ात इ तहास हो। जसे हम उसका इ तहास कहते हैं वह और कुछ नहीं ब क एक के बाद एक आने वाले घुसपै ठयों का इ तहास रहा है, ज होंने न य व जड़ समाज पर अपना सा ा य था पत कया। वलायती नगरानी मे ं भारत के मू ल नवा सयों का अ न छा और अपया प से कलक ा मे ं श त एक नया वग कट हो रहा है जसे शासन यव था क आव यकताओं एवं यू रोपीय व ान से स प कया गया है। भाप श ने भारत और यू रोप के बीच नय मत एवं त ु ग तयु सं चार था पत कये है।ं उसके मु य ब दरगाहों को पू रे द ण-पू व समु से जोड़ा है तथा उसे अलग-थलग थ त से फर से मु कया है जो क उसक न यता का मुख वधान था।23 भारतीय इ तहासकार रं जीत गुहा बताते हैं क कस तरह इस कार के पृथकतावादी वचार क ‘ कसके पास इ तहास और तक श है और कसके पास नहीं’ ने औप नवे शक शासन को उ चत ठहराया— परा जत हो चुके ‘इ तहास-शू य’ लोगों का अतीत प म को अपनी जीत को शासनत मे ं बदलने के यासों मे ं बहुत उपयोगी स हुआ। ई ट इ डया क पनी क व ीय णाली, या यक सं थाएँ, शास नक त — औप नवे शक रा य के मुख और रचना मक पहलू —उस अतीत पर अ य धक नभर रहे जसक आव यकता कानू न बनाने और शासन क यव था जमाने के मु य ोत के प मे ं पड़ती थी। इस मामले मे ं शासन ारा वयं को सही आकार देने के लए ागै तहा सक उपयोग चकनी म ी के प मे ं कया गया। पर तु इससे उप नवेशवाद को भारतीय अतीत मे ं वयं के ववरणों को सं था पत करने क जगह भी मली। उ होंने उप नवे शक ान का े े ो ी ो

महल खड़ा करने के लए भारत को एक साम ी क तरह योग कया। इस कार उपमहा ीप क ‘इ तहास वहीन जा त’ को स य यू रोप एवं व इ तहास क अधीनता वीकार करने के पुर कार व प एक इ तहास मला, ठ क उसी तरह जैसे ागै तहा सक काल मे ं धँसे हुए मु के अयो य अधीन लोगों को जनके पास जू ते और आ था नहीं थे जू ते और बाइबल दान क गई।24 ं गुहा आगे कहते है— पू रब मे ं उप नवेशवादी इ तहास लेखन का उ पादन और सार टश स ा क सबसे बड़ी उपल धयों मे ं से एक था। यह ागै तहा सक के खाली थानों पर बोया गया। जो बीज के प मे ं बोया गया वह वा तव मे ं सीधे उ रबु वादी (post-Enlightenment) यू रोपवा सयों और वशेषकर अं ज़ े ी ऐ तहा सक सा ह य से सुग ठत हो कर भारतीय पाठशालाओं एवं व व ालयों के उपयोग के लए आया। यह कृ त इ तहास के प मे ं वयं भारतीयों ने प मी नमू ने क न ावन नकल कर के बनाई।25 इस या को अपमानजनक और वनाशकारी होने के अ तिर और या कहा जा सकता है— जो ववरण छूट गये उ हे ं जातीय अथवा भौगो लक क पना-मा नहीं कहा जा सकता। वे अपनी सं कृ त, सा ह य, धा मक ग त व ध, दशनशा इ या द स हत मानवता का एक बड़ा ह सा है।ं यव थत तरीके से इ हे ं एक-एक कर के खोज कर प मी दाश नक ागै तहा सक जं गल मे ं रखते गये। जो फेंक दया गया वह न केवल इन तथाक थत इ तहास-हीन लोगों के रोजमरा अ त व मे ं जया हुआ अतीत है ब क इन अतीतों को उनके व श -सं सार के ग मे ं एक कृत करने वाली भाषाई णा लयाँ भी है।ं इस कार न मत व -इ तहास ने दू सरों के ऐ तहा सक ववरणों के ऊपर एक वशेष शैली के भु व को बढ़ावा दया।26

‘प मी वत ता’ का ख डन अपने पेशे मे ं हेगल े ने इस न को कई बार स बो धत कया क या भारत और चीन क कला, सा ह य, दशन और भाषाओं ने इन स यताओं को उनके ारा न मत व -इ तहास क सं रचना मे ं कोई थान दलवाया और हर बार वह भावपू ण प से ँ ा क ऐसा नहीं है। भारत और चीन के बारे मे ं वे लखते हैं क— इस न कष पर पहुच वा तव मे ं इन देशों मे ं वत ता क अवधारणा के बारे मे ं आव यक आ मचेतना का गहरा अभाव है और वषय भोग, इ छाओं और सां सािरक वाथ के याग के बारे मे ं भारतीय स ा त मे ं सकारा मक नै तक वत ता का न तो ैऔ







ल य है और न ही दशा, ब क यह चेतना का अ त तथा आ या मक और यहाँ तक क भौ तक जीवन मे ं भी यवधान डालता है।27 हेगल े ीक क वता क शं सा करते हैं यों क उनके अनुसार इसमे ं ‘ वत य व क मु ’ को दशाया गया है जब क भारत के रामायण और महाभारत के बारे मे ं उनका मानना है क ये ‘ वत ता और नै तक जीवन क उ आकां ाओं के पिर याग क ओर वृ है’ं ।28 वत ता का यह वचार या थ त उनके लए नणायक है और इसे प म के ईसाई होने से जोड़ा गया। वे लखते हैं क ‘ईसाई युग मे ं ही द या मा सं सार मे ं आई है और उसने य मे ं अपना नवास बनाया है, जो क अब पू री तरह मु है तथा पया वत ता से स प है’।29 गुहा (Guha) बताते हैं क हेगल े (Hegel) जहाँ एक ओर तो भारत और चीन को नकारते हैं वहीं ाचीन ीक, रोम, म ययुगीन यू रोप एवं अमरीका के गुलाम था वाले समाजों क शं सा करते है।ं यह वड बना है क हेगल े ई ट इ डया क पनी के दमनकारी शासन को ‘स य देशों क स ी वीरता’ और ‘रा य क सेवा मे ं कये गये ब लदान’ के प मे ं देखते है।ं 30 वा तव मे ं भले ही हेगल े ने इस तरह न देखा हो, पर तु ईसाइयत के बहुत से पहलू य गत वत ता से मेल नहीं खाते जनमे ं था पत मत और सा दा यक िरवाजों के आ ापालन का आ ह स म लत है। इसके अ तिर अ तम समय (End Times) मे ं मु (Salvation) दलाने मे ं चच क भू मका य गत आ या मक वत ता मे ं बाधा है। इसक तुलना भारतीय आ तिरक व ान के मह व और उसमे ं य क ं वत ता से करके देख।े ं भारतीय धा मक पर पराओं क दो मुख वशेषताएँ है— अपना माग चुनने क पू ण वत ता और कसी धा मक हठध मता, चच या राजनै तक स ा का न थोपा जाना। इन पर पराओं को प म से कम वत और य वादी कह कर ख़ािरज नहीं कया जा सकता। या बु , अशोक और गाँधी जैसी ह तयाँ वत प से ा तकारी ऐ तहा सक और बौ क पिरवतन लाने के ं उदाहरण नहीं है? प म मे ं उभरी य वाद क अवधारणा अपे ाकृत नया वकास है जसे ाचीन शा ों और इ ाहमी सा दा यक स ा तों से ा होने का दावा कया जाता है। पू व के तथाक थत वैय कता- वहीन च तन क अवधारणा के मुकाबले प म क व श और नधारक पहचान का सं शोधनवादी दावा उनके ारा झू ठ बाते ं गढ़ने के कारण कया जा सका।

जमन भु व का ज म व श प म क अवधारणा इ तहास मे ं अपे ाकृत हाल ही मे ं आई है। इससे पहले अं ज़ े ी, आयिरश, जमन, इटै लयन, यू नानी और पे नश लोगों ने अपने आप को े







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एक-दू सरे से सतत् सं घषरत व श सं कृ तयों के प मे ं देखा था, कसी सं य ु यू रोपीय स यता के ह से के प मे ं नहीं। हेगल े इस त य को अनदेखा करते हैं क प म का बनना बाक व के कारण ही स भव हुआ, जस पर उसका नमाण और जी वका पू णत: नभर है। हम उसके लेखन मे ं पृथक सं कृ त समू हों के बीच ‘प म’ नामक कृ म एकता बनाने का सं घष भी देखते है,ं न केवल ीक, रोमन और इज़राइली ब क े ं च, जमन, टश और पे नश इ या द मे ं भी। हेगल े के अनुसार जब क ‘प म’ शु है, पर तु कुछ प मी लोग दू सरे प मी लोगों क अपे ा अ धक शु है।ं जमनी क एक वशेष नय त है और ईसाई मत ं ‘‘जमन भाव (germanische Geist) ही नये व उसके दल मे ं है। हेगल े लखते है— (neuen Welt) क आ मा है जसक नय त पू ण स य का बोध है। जमन जा त क नय त ईसाई स ा त के वाहक के प मे ं अपनी सेवाएँ देना है।’’31 भारतीय स यता के प मी े णयों मे ं वलय को हेगल े एक वाभा वक और ं ‘‘ व भ आव यक या मानते है।ं जैसा क ह फ़ॉस (Halbfass) बताते है— सां कृ तक पर पराओं का मू यां कन और उनमे ं तुलना के उपयु दृ कोण (अथात ानशा ) को इ तहास ने नधािरत कर दया है और यह यू रोप के प मे ं ही तय कया गया है। यू रोपीय वचार को ही सभी च तन पर पराओं के अ वेषण क े णयाँ और स दभ दान करने है।ं 32 इससे पता चलता है क आ खर यों हेगल े ने तुलना मक दशन एवं धम और सं कृ तयों के म य तट थ एवं पार पिरक समझ बनाने के सभी यासों का वरोध कया। इसके बदले यू रोपीय दृ कोण क सं रचनाओं मे ं अ य सभी पर पराएँ स म लत हैं तथा यह ान को एक कृत करने का एकमा साधन है। इसके अ तिर अ य स यताओं को अ च लत और अनाव यक बताया गया। प म को इनमे ं जो भी उपयोगी दखता है उसे वह आसानी से आ मसात कर पचा लेता है। व भाव (World Spirit) क उ त के लए हेगल े अ य ‘तु छ’ सं कृ तयों का ‘ े ’ प म ारा हड़पे जाने को वैध करार देते है।ं हेगल े क मृ यु के बाद उनके इ तहास स ब धी यापक ‘यू रो-के क’ ववरणों और नय त के सामा यीकरण के फल व प ‘आय पहचान’ का वकास हुआ। पार पिरक प से भारतीय बोलचाल मे ं ‘आय’ श द नै तक एवं आ या मक गुणव ा क ओर सं केत देता है न क जा त के प मे,ं जैसा क ाचीन बौ शा ों मे ं इसके नय मत उपयोग से प है जहाँ इसका न:स देह व श नै तक और धा मक मह व है।33 यह अथ सभी थानीय स दभ मे ं सव यापी है। बौ ोतों से लए गये उपरो उदाहरण पू णतया तीका मक हैं और इस श द के कट होने क ार भक एवं त न ध चरण को त ब बत करते है।ं भगव गीता (2.2) मे ं ीकृ ण इस श द का उपयोग बना कसी जा त के अथ मे ं करते है।ं एक ‘आय’ जा त के आ व कार और नमाण का ार भ भारतीय आय के का प नक स ा त से हुआ जो जमनी के पू वज ं ो ं ी े े ें

थे, जसे बाद मे ं इस तरह सं शो धत कया गया क जमन जा त वयं ही ‘आय’ जा त बन बैठ । आगे चल कर इस ‘आय’ पहचान को यापक प से तुलना मक भाषाशा के दु पयोग से यू रोपीयों ने हण कर लया। इस कार के बौ क छल के मह व को कम नहीं कया जा सकता यों क इसी ने यू रोप मे ं ‘नाजीवाद’ तथा औप नवे शक भारत मे ं ‘ वड़वाद’ को ज म दया।34

सारां श च तुत च मे ं भारत से यू रोपीय मुठभेड़ के दौरान भारत समथक और भारत वरोधी दोनों श यों के काय का सारां श दया जा रहा है। बा ओर व भ यू रोपीय पहचानों के बीच क पू व-व णत त ता को दशाया गया है। दाँई ओर दशाया है

क जहाँ एक ओर आ तिरक त ताएँ चल रही थीं वहीं अ य जा तयों पर यू रोपीय े ता का भाव भी था, जो व स दभ मे ं मू ल अमरी कयों के नरसं हार और अ कयों क दासता का कारण बनी। इस े ता को यायसं गत दखाने और दू सरों पर अ याचार करने को उ चत ठहराने क माँग सदैव बनी रही। च का नचला ह सा दखाता है क कस तरह चच और बु वचारधाराओं के भु व के व त या व प यू रोप मे ं मानी आ दोलन एक कार का सं कृ त- वरोधी आचरण बन गया था। यह मा नयत कुछ हद तक उस आदश अतीत क ओर लौटने क दशा मे ं िे रत थी जब ई र, मनु य और कृ त मे ं सामं ज य था। मानवता क पाप र हत जड़ों को खोजने का यास कया गया जो एक लोक य तावना पर आधािरत था क इ तहास को ई र ारा मागदशन मल रहा है, जसे केवल ईसाई रह यो घाटनों के मा यम से ही समझा जा सकता है। च के बीच का ऊपरी भाग ै













यह दखाता है क कस तरह सं कृत से मुठभेड़ से नपटने के लए व भ ृ ला वक सत हुई। यव थाओं और ानशा ों क एक ं ख

े क वरासत एवं भारतीय सं कृ त हेगल भारतीय वचार-दशन को पारलौ कक च त करने वालों मे ं हेगल े अकेले नहीं थे। प म के आर भक मा नयों ने भारत के रह यवादी और अनुभवातीत वचारों को भौ तकवाद क अ वीकृ त के प मे ं म हमाम डत कया। न केवल प म के मुख वचारकों ने यह अवधारणा मजबू त क क भारतीय लोग पलायनवादी और य वाद के त उदासीन होते है,ं ब क वयं भारतीय व ानों ने भी भारतीय दशन पर अपनी तु त मे ं गू ढ़ और अनुभवातीत वचारों को आव यक बताना आर भ कया। इस कार भारतीय दृ कोण क ‘धा मक’ कृ त का एकतरफ़ा आ ह अनाव यक प से उभरा। इसके कारण प मी लोगों पर यह अ मट भाव पड़ा क भारत मे ं धा मक आ ह के बल होने के कारण उसक दाश नक णाली स ा तत: अ वक सत है।35 आजकल के बहुत से भारतीय व ान इस सोच को अपने वयं के तमान के प मे ं अपनाते है।ं 36 हेगल े के भारत क इ तहास-हीनता के वचारों के कारण ही भू तकाल मे ं भारत और भारतीय दशन को नकारा गया और आज भी वे भारत के त च लत दृ कोण को आकार देते है।ं भारत के बहुत से व व ालयों के दशनशा के वभाग हेगल े वादी (Hegelian) वचारों और उनक सोच पर आधािरत है।ं जब उ पी ड़तों के ं व प दये गये इ तहास के मन मे ं यह था पत हो जाता है क आ ा ताओं के भेट अ तिर उनका अपना वयं का कोई इ तहास नहीं है तब आ ा ताओं ारा लखे गये इ तहास को न केवल वैधता मलती है ब क वह गौरवा वत भी हो जाता है। बहुत से भारतीय आज भी लॉड मैकॉले (Lord Macaulay) क छाया मे ं जी रहे हैं जसके भारतीय सं कृ त के त कु यात वचारों ने पी ढ़यों तक टश औप नवे शक मान सकता को आकार दया। कुछ भारतीय उप नवेशवा दयों के त ऐसे आभारी हैं जैसे उ होंने ही भारतीयों को इ तहास का अनुभव करवाया। यह उनक मान सकता मे ं बैठ चुका है क प मी शासनकाल के पहले उनके पास इ तहास का कोई बोध नहीं था। हेगल े क वरासत ऐसी है जसने प म को उसक तथाक थत ‘सावभौ मकता’ क सं क णता के त अँधा बना दया और भारत के त उनके गलत तक को मजबू त कया। हेगल े सभी सं कृ तयों को अतीत/वतमान, उ / न न, महान/लघु इ या द व भ े णयों मे ं बाँधते है।ं यह परम त व (Absolute) क अनुभू त के लए साम यक थ त मे ं तक के आगे बढ़ने जैसा है। इ तहास के उसके मक स ा त (linear theory of History) ( जनमे ं इ तहास के बहुत से मा सवादी और मानवतावादी वृ ा त और इन पर आधािरत व भ दशन स म लत है)ं ने जस हद ै े े ी ो ें े

तक प मी व ा को भा वत कया वह वा तव मे ं आ यजनक है। हेगल े के वचारों को प म मे ं यापक वीकृ त मली तथा इ होंने ही भारत के त बदले हुए नज़िरए को गढ़ा।37 हेगल े के इ तहास के स ा त ने प म क उदार-प थी े ता को बढ़ाने मे ं मुख भू मका नभाई जो ‘सावभौ मकताएँ’ दान करने क धारणा के पीछे छु पी रहती है। यू रोपीय बु ता से यु ये पू वधारणाएँ शै णक दशन, भाषाशा ों, सामा जक स ा तों एवं वै ा नक प तयों के सं गम मे ं स म लत कर ली ग और ये सभी ईसाई मतशा के साथ-साथ व भ सा ा यवादी और औप नवे शक मू यों से सं चा लत थीं। ये भाव तब न केवल भारतीय व ाओं मे ं समा गये ब क आज भी इनका द ण ए शयाई अ ययनों पर क जा है।

प मी सावभौ मकता पर सामा य



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प मी सावभौ मक दावों के लए ाय: तीन त याएँ तुत क जाती है।ं इनमे ं से एक मु य प से यहू दी-ईसाई मत आधािरत दावों को स बो धत करती है जब क दू सरी उनके दाश नक दावों को स बो धत करती है। पहली, जसक चचा आगे क गई है, समाधान के प मे ं धम नरपे ता क वकालत करती है, अथात् यह वचार क इन अ तधा मक मु ों को धम के स दभ से दू र रख कर सुलझाया जा सकता है, यहाँ तक क धा मक सं कृ तयों को सावज नक े से ही हटा दया जाये तो और भी अ छा। दू सरी त या, जसक भी चचा आगे क गई है, उन सभी वृहत कथानकों के उ र-औप नवे शक वख डन क वकालत करता है जनक मैनं े पू व मे ं चचा क है। तीसरी त या सभी पर पराओं क समानता या उनमे ं नग य अ तर मान कर भ ता क य ता से बचने का एक उपाय बन गया है। ये तीनों ही दृ कोण दोषपू ण हैं और दुभा य से इ हे ं स द ध प से भारत मे ं पुन नयात कया गया।38

प मी धम नरपे ता—ईसाइयत क दोहरी नी त प मी सावभौ मकता का धम नरपे नमू ना प मी स यता क बनावटी एकता का एक ह सा है। इ तहास के अ त मे ं भौ तकवादी व नलोक बनाने के इ ाहमीमसीहाई अ भयान का मा सवाद के स दाय पर हमले से मुकाबला हुआ। पिरणाम व प जो धम नरपे ता उभरी वह अ य प से यहू दी-ईसाई वषयों को धारण करती थी और इसी लए वह व के व भ धम के त तट थ नहीं है। यह ा ड क कृ त, मानव पहचान और भ ता स ब धी प मी मू यों और मा यताओं से या है। ं





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वयं धम नरपे ता क समू ची अवधारणा उ हीं समाजों से उ प हुई एवं लागू होती है जहाँ धम इ तहास-के क, राजनै तक प से था पत, व तारवादी और व ान के साथ तनाव से त है।ं यह पू णतया प मी सम या के लए प मी समाधान है। भारतीय धा मक पर पराओं मे ं इन मु ों का कोई थान ही नहीं है, यों क न तो वे इ तहास-के क हैं न ही वे धम-पिरवतन मे ं सं ल न हैं और न ही वे वै ा नक खोजों से भयभीत है।ं इस कार धम नरपे ता सम या के मू ल तक नहीं जाती और केवल एक नये भेष मे ं प मी वचारों को तुत करती है। इस कार क वकृत एवं शु क धम नरपे ता का, जो आ या मक सं कृ त क म हमा को न करती है, तरोध होना शु हो गया है। अमरीक मत नरपे तावादी यह दावा करते हैं क उ होंने प मी आ धप य के मामलों को अपनी ऐ तहा सकधा मक पहचान के ढ़वादी पहलुओ ं को मानते हुए अब अ वीकार करके सुलझा लया है और आगे बढ़ चुके है।ं पर तु या वा तव मे ं ऐसा कया भी है? य प अमरीक उदारवाद आ थक एवं जातीय समतावाद को आ मसात करता है, पर तु धा मक उदारवाद क सामा य आव यकता केवल सहनशीलता तक ही सी मत है न क स े आपसी स मान तक। स ह णुता का वचार लोक य तो हुआ, पर तु जैसा क थम अ याय मे ं चचा क गई है यह स ह णुता दू सरों पर कृपा मा है जो े ता था पत करने के ता पय से है। बहुत से उदारवादी नेता जैसे हलेरी ल टं न Hillary Clinton) और जमी काटर (Jimmy Carter) पू णतया ईसाई हैं और उ हे ं अ छ तरह पता है क ईसाई प थ मू लत: व श ता क माँग करता है। ईसाई व श तावाद और स े उदारवाद के बीच वरोधाभासों पर शायद ही कभी खुल कर (और शायद नजी बातचीत मे ं भी) चचा हुई होगी। बाराक ओबामा (Barack Obama) से ले कर येक अमरीक राजनेता को वोट लेने के लए अपने आप को अ छा ईसाई घो षत करना पड़ता है। यथाथ मे ं अमरीक धम नरपे उदारवाद ने अभी तक स ा बहुलतावादी प ा नहीं कया है। इसका ं ,े पर तु अथ केवल इतना है क सरकारी सं थान प थों के बीच ह त प े नहीं करेग यहाँ पर यह न पू छना ासं गक है क या ईसाई राजनेता अपनी चच से नकलने के बाद अपनी अँध-देशभ और े ताबोध को याग कर जनता के अ धकािरयों ं ईसाई स े उदारवादी तभी बन सकते हैं जब वे अपने के प मे ं काय कर सकते है? व श ताबोध, जसके कारण वे मा स ह णुता तक सी मत है,ं को न केवल माने ं और उसे पार करे ं ब क दू सरे धम का स मान और समथन करना भी सीखे।ं ◌़ ां सीसी ा त के प ात ही धा मक एवं धम नरपे वै क दृ कोणों के बीच वभाजन ने अपना मह वपू ण आधु नक प हण कया। कैथो लक चच को अ भजात एवं म यवग य ढ़वाद के साथ जुड़ा हुआ देखा गया जब क ‘ वत ता, समानता और भाईचारे’ क मा यताएँ केवल तक से उ प हुई मानी ग । उदारवादी ी

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बु जी वयों ने तक को टश सा ा य एवं सी राजशाही जैसे कई श शाली शासनों के व एक ह थयार के प मे ं योग कया। तक और धम के बीच एक नई एवं सवथा कृ म एकता, उ सवों एवं तीकों के सहारे था पत करने के यास हुए। हालाँ क ये यास ज दी ही ढह गये पर तु इ होंने समू चे यू रोप और अमरीका मे ं कैथो लक मत एवं धम नरपे रा य के बीच वच व हेत ु हं सक सं घष क एक वरासत छोड़ी। कैथो लक मत और धम नरपे रा य के बीच स ब ध सामा य करने मे ं पी ढ़याँ लग ग पर तु अ भ एकता फर भी हाथ नहीं लगी, ब क इसे चच और स ा सं थान को अलग करके ा कया गया— यही वह स ा त था जसक वकालत अमरीका के सं थापकों ने क थी। अ तत: वे टकन तीय (Vatican II) के समय 1960 के दशक मे ं कैथो लक चच ने औपचािरक प से इस वभाजन को स ा तत: वीकार कया। इसका पिरणाम मा एक राजनै तक ग तरोध और सं घष वराम ही अ धक था, स ी एकता नहीं। क हीं भी अथ मे ं इसने वभा जत और वदीण वै क सोच एवं दशनशा क अ त न हत सम याओं का समाधान नहीं कया। उ ीसवीं सदी के अ त एवं बीसवीं सदी के ार भ मे ं यू रोप के सबसे बड़े और भावशाली च तक डा वन (Darwin), मा स (Marx) और ोयड (Freud) पू रे धम नरपे माने गये, जब क ईसाई मतशा ों क बौ क त ा मे ं नर तर गरावट आती गई। फर भी ईसाइयत कहीं जाने वाली नहीं थी, वह उ क र तरीके से वापस आने के लए भू मगत हो गई तथा धम नरपे रा य और धा मक द ण प थ के बीच असहज सं घष वराम आज भी अमरीक राजनी त को अ थर कये हुए है। जब क ईसाइयत व ान क ख़ा तर अपनी इ तहास-के क मा यताओं के साथ समझौता करने को तैयार नहीं है, वहीं बहुत-सी यहू दी और ईसाई मा यताओं और व ासों ने इस धम नरपे सं वाद क सं रचना को नधािरत कया है।39 व ान/ धम का यह सं घष त आधार बहुत से स धम नरपे प मी वचारकों के बाइबल के मथक या अँध व ास- म त व च धम नरपे तावाद मे,ं व ान और दशन दोनों मे ं च त होता है। उनके काय के इस पहलू को ाय: धम नरपे चचाओं से दू र रखा जाता है, पर तु इन वरोधाभासों का पता लगाना आव यक है ता क यह उजागर हो सके क प मी धम नरपे ता मे ं बाइबल स ब धी सं वाद कतना मह वपू ण है। उदाहरण के लए ां सस बेकन (Francis Bacon), ज हे ं आधु नक प मी व ान का पैग़ बर माना जाता है, ने पतन से पू व के आदम (Adam) क अव था ा करनी चाही, एक ऐसी थ त जो कृ त और उसके ान क श यों से शु और न पाप स पक कराती है—अथात ग त जो वापस आदम तक ले जाये।40 आईज़क यू टन (Isaac Newton) ईसाई सह ा दी के उ साही समथक थे और अपना अ धकां श समय बाइबल क भ व यवा णयों क या या करने मे ं लगाते थे। थॉमस हॉ स (Thomas Hobbes) क कृ त क अव था बना ई र का उ ख े कये जॉन े े े े

के वन (John Calvin) के ‘ ाकृ तक मनु य’ (natural man) के धम नरपे सं करण क भाँ त है और हॉ स क ‘लेवायथन’ (Leviathan) मे ं बाइबल का 657 बार उ ख े कया गया है और इसी कार क वृ उसके अ य मुख राजनै तक लेखों मे ं भी दखाई देती है।41 बहुत से यू रोपीय समाजवा दयों ारा नजी स प क आलोचना मक या याएँ आदम के पतन और उसे मले ई रीय ाप क ववेचनाओं से उ प हुई है।ं लॉके (Locke) ारा तपा दत य गत अ धकारों का स ा त ई र के साथ मानवता के स ब ध क ोटे टे ट समझ मे ं न हत है। अमरीका के अ तीय नागिरक समाज का ज म एक नये फ ल तीन (Promised Land) मे ं ई र का एक और सा ा य था पत करने के लए मतवादी इ छाओं के कारण हुआ है जसमे ं स त नयमों और वरोध का दमन एवं आगे चल कर धम नरपे तावा दयों क उनके व त या के प मे ं हुआ। यहाँ तक क प मी मतों पर हमला करने वाले मा सवाद ने भी परो प से उ हीं आधारभू त सं रचनाओं और भ य कथानकों का सहारा लया और धम नरपे वै क दृ कोण क ये अनकही मा यताएँ बन ग ।42

भारतीय नकली-धम नरपे ता धा मक हं सा से नपटने के लए धम नरपे ता का एक अ य सं करण प मी श ा प त मे ं श त (और ाय: प म ारा ायो जत) भारतीय उ -वग क ओर से आता है। ये बु जीवी बना समझे-बू झे भारतीय धा मक दृ कोण पर दोषारोपण करते है।ं ये लोग पर परागत भारतीय समाज और सं कृ त के दु यवहारों क सू ची बनाने को तैयार रहते हैं (और न:स देह यहाँ याय-सं गत च ताएँ है)ं और उन वचारों से साँठ-गाँठ करते हैं जनके अनुसार भारत के पास व को देने के लए कुछ सकारा मक नहीं है। उनक दृ मे ं य द भारत को आगे बढ़ना है तो उसे प मी मू यों और थाओं क नकल करनी पड़े गी। भारत क वतमान धम नरपे ता को प म से आयात कया गया जहाँ मत अलगाववादी और धुर सं थागत प लए हुए है,ं पर तु भारतीय समाज का इ तहास और पिर थ तयाँ एकदम भ है।ं भारत मे ं धम नरपे ता सा दा यकता को रोकने के लए है जब क यू रोप मे ं इसे चच क सं थागत थापना को रोकने के लए अपनाया गया। भारत क वत ता के बाद गाँधी जी ने पर परागत धा मक समाज को बलशाली बनाने क वकालत क । पर तु नेह इस से असहमत थे और चाहते थे क भारत प म के न शेकदम पर चले। भारत क आ मा के इस सं घष मे ं नेह जीत गये। इस कार वके ीकृत पार पिरक समाज बनाने के गाँधी जी के सपने क जगह ं और सो वयत सं घ के ा प के अनुसार नेह वादी समाजवाद आया जसे इं लैड बनाया गया था। ँ ी े ं ो ें ी े ं ें

1977 मे ं धानम ी इ दरा गाँधी ने भारत के सं वधान मे ं एक सं शोधन तुत कया जसक तावना मे ं ‘धम नरपे ’ श द को औपचािरक प से त था पत कया गया। वग य एल.एम. सं घवी, जो एक सलाहकार के प मे ं कायरत थे, ने इस ा प के ह दी अनुवाद पर ह ता र करने से इं कार कर दया जसमे ं ‘से यू लर’ श द का अथ ‘धम नरपे ’ रखा गया था (श दश: जसका अथ होता है धम से उदासीन)। उ होंने कहा, यों क धम भारतीय समाज का आधार है इस लए ‘से यू लर’ श द का सही ह दी अनुवाद ‘प थ नरपे ’ (अथात कसी ‘सं ग ठत स दाय’ के त तट थ या उदासीन) होना चा हए। इ दरा गाँधी इस पर सहमत हु और (एक क से के अनुसार) उ होंने अपना पेन उ हे ं दया और तब सं घवी ने सं वधान के अ तम ा प मे ं सुधार कया जो अब रा प त भवन मे ं रखा हुआ है। इसका अथ है क सरकार सं ग ठत धम के त न केवल तट थ ब क उदासीन भी रहेगी। पर तु भारतीय श ा वदों, बु जी वयों, मी डयाक मयों और नेताओं ने उ कृ और सही अ तर, जस पर सं घवी अड़े रहे थे, को अनदेखा कया हुआ है। सं कृत के दो वपरीत अथ वाले श द, ‘ नरपे ’ और ‘सापे ,’ का अनुवाद नहीं कया जा सकता और ये बहुलतावादी धा मक दृ कोण को समझने के लए मह वपू ण है।ं उ हे ं नीचे तुत कया गया है— ‘ नरपे ’ न यता और ग तहीनता से स ब धत है जहाँ कोई यास, इ छा, आशा अथवा या क ओर कोई वृ त नहीं है; इसका अथ है उदासीनता। ‘प थ’ को सं ग ठत स दायों के प मे ं देख कर धम नरपे ता को ‘प थ नरपे ता’ कहा जा सकता है। सभी मतों के त सरकार का रवैया उदासीनता और तट थता का होना चा हए और व भ मतों के बीच आपसी स ह णुता क वृ त होनी चा हए। ‘सापे ’ का व तुत: अथ पार पिरक आदान- दान और आपसी स मान क अपे ा के साथ होता है।43 यह व भ प थों और पहचानों मे ं आपसीय परकता, एकता, और भाईचारे के अथ मे ं ‘ब धु व’ के ( जसक चचा अ याय 3 मे ं क गई है) स ा त को सुगम बनाता है। जहाँ तक आपसी सहयोग और नभरता का भी न है इसका अथ अनेकता मे ं एकता है। इस वृ को ‘सकारा मक धम नरपे ता’ कहा जा सकता है, न क े ता क थ त मे ं अ त न हत उदासीनता और तथाक थत उदारता। ‘धम’ अ धक अ तिर सद यता ऐ े

अपने आप मे ं कसी भी स दाय अथवा सं ग ठत प थ क तुलना मे ं यापक है, हालाँ क यह उनका आधार हो सकता है। अ य बातों के ईसाई अथ मे ं यह कसी वशेष मत के त वीकायता या उसक क माँग नहीं करता; न ही यह वैचािरक वत ता, वै ा नक नरी ण या

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ऐसे लोगों के व ासों एवं पर पराओं के लए ख़तरा है जो इसके अनुकूल नहीं है।ं मैनं े इसक सहजता और ासं गक गुणव ा के बारे मे ं अ याय 4 मे ं ववेचना क है। शरीर, पिरवार, समाज, पशु, कृ त और वृहद ा ड क नै तकता से धम को अलग करना अस भव है। जैसा क हम देखग े ं ,े भारतीय स दभ मे ं धम को सावज नक जीवन से अलग करने का अथ है उसके पिर कृत सां कृ तक एवं आ या मक सं साधनों क जड़ों को उखाड़ना।44 ‘धम’ का religion के प मे ं गलत अनुवाद करने (अ याय 5 मे ं बताया गया है) ‘सावज नक े मे ं कोई religion नहीं’ के प मी वचार का अथ बहुत से भारतीयों ने ‘सावज नक े मे ं कोई धम नहीं’ क तरह लगाया हुआ है। धम नरपे बनाये गये भारतीय यह मानने मे ं वफ़ल रहे हैं क एक धम नरपे समाज—अथवा धम के बना समाज (जैसा क ाय: से यू लेिर म का अनुवाद कया जाता है)— ख़तरनाक प से नै तक यवहार के त दोहरी वृ वाला स होगा। नीरद चौधरी ने भारत को धम नरपे ता अपनाने के वरोध मे ं चेतावनी दी थी चाहे वह उ तम यू रोपीय ही यों न हो, यों क धम क नै तकता एवं आ या मक गुणों के बना समाज अनै तक और सां कृ तक प से हो जायेगा।45 ‘ना तक’ होने से फर भी नै तक यवहार समा नहीं होता, पर तु धम- वहीन होना तो ाचार और दु यवहार के समान है। से यू लिर म को भारतीय धा मक समाज मे ं आयात करने का पिरणाम कई कार से वनाशकारी रहा है। अ धकां श भारतीय अ भजात वग और राजनै तक नेताओं ने प मी नमू ने को एकदम गलत समझा है। उदाहरण के लए अमरीक सं वधान मे ं चच और रा य स ा के वभाजन के भाव को ही ले ले।ं जन सं थापकों ने इस सं वधान का ा प तैयार कया था उ होंने सावज नक या नजी प से धम के बना समाज क क पना नहीं क थी, ब क एक ऐसे समाज का सपना देखा था जहाँ व भ कार क धा मक ं ी। यह सब रा य स ा के ह त प अ भ य याँ फले-फूलेग े या य समथन के बना होगा, पर तु इसमे ं रा य स ा का नय ण या दबाव भी नहीं होगा। इन नेताओं के य गत वचार ढ़वादी से ले कर उदार दृ कोण के थे (थॉमस जेफ़रसन Thomas Jefferson तो ईसाई व श तावाद के त अ य धक शं का पद थे और एक तरह के सदाबहार दशन के समथक थे)। फर भी वे इस बात पर सहमत हुए क एक व थ समाज का आधार ग भीर प से आ या मक होता है और लोकत के अ त व के लए व ास और ववेक कसी न कसी प मे ं मह वपू ण है।ं भारत क नकलची धम नरपे ता अमरीक धम नरपे ता से कई प अथ मे ं अलग है। कई अमरीक यहू दी और ईसाई सावज नक प से अमरीक होने के अथ मे ं अपने-अपने प थों पर दृढ़ रहते हैं और इस दृढ़ता को धम नरपे ता से वरोधाभास के प मे ं नहीं देखते। भारतीय धम नरपे ता ने धम क भ ताओं को तनाव और सम याओं का ोत मानते हुए मटाने का यास कया है, पर तु इन ह त प े ों का ैऔ ी ी ी ी े ेऔ े े

कभी-कभी वपरीत भाव पड़ा है और अपनी व श ता बनाये रखने और हड़पे जाने से बचने के लए कुछ सा दा यक पहचाने ं इस कारण अ धक हठ हुई है।ं

उ र-औप नवे शक समी ा हाल के वष मे ं जै स डे िरडा (Jacques Derrida) जैसे लोग अपने उ र-आधु नक सहयो गयों का अनुसरण करते हुए उ र-उप नवेशवा दयों ने प म क दाश नक सावभौ मकता को वख डत करने के कई यास कये है।ं हालाँ क उनके यास सामा यत: शू यवाद पर समा होते हैं यों क वे ‘धम’ और ‘धम नरपे ’ के बीच वभाजन जैसी बु नयादी पू वधारणाओं से नहीं बच सकते। भ य कथानकों के वख डन मे ं उ र-आधु नकतावादी यह अनदेखा कर देते हैं क उनक सोच अ य प से धम नरपे ता के भ य कथानकों पर टक हुई है। धम-आधािरत दशन और धम ने धम नरपे ता जैसे चरम आवरणों को ओढ़े बगैर प मी दशनशा क बहुतसी उन दु वधाओं को हल कया है जो उनके सामने खड़ी हु । हालाँ क हाल के वष मे ं उ र-आधु नक च तक धम/धम नरपे वभाजन पर कुछ नरम तो पड़े है,ं पर तु फर भी (कुछ मु य अपवादों को छोड़कर) धा मक दृ कोणों को वीकार नहीं कर पाये है।ं इसका कारण यह है क वे ठ क उस ब दु पर ठहर जाते हैं जहाँ पर उ हे ं प मी ा ड व ान को मू ल प से छोड़ना पड़े गा। उ र-औप नवे शक व ान अपनी भारतीय पहचान का योग तब करते हैं जब उ हे ं व ाओं के प मे ं व सनीयता मलती है और वा तव मे ं उ होंने प म क तर कारपू ण समी ाएँ भी क है।ं कुछ ने तो इससे भी आगे बढ़ कर भारतीयों क औप नवे शक बु क भी आलोचना क ज होंने प मी वचार क े णयों को आ मसात कर इस या मे ं वयं अपनी े णयों को ही भुला दया। उदाहरण के लए उ र-आधु नक दशन और उ र-औप नवे शक अ ययनों मे ं हेगल े क पिरयोजना भली-भाँ त वख डत एवं अ त त क जा चुक है और ाय: ऐसा उसके राजनै तक एवं सां कृ तक ख़तरों को भली कार से समझते हुए कया गया। सम या यह है क इस कार के वख डत और सामा जक प से ग तशील व लेषण भी प मी पर परा के दायरों मे ं ही कये जाते हैं जहाँ से सम या पैदा हुई। जैसा क हमने देखा है, उ र-आधु नक समी ा ाय: ‘शू यवाद’ पर समा होती है यों क वह रचना मक दशन तुत करने मे ं वफल रही है। फर भी इन दाश नकों मे ं एक ह क -सी वीकृ त है क भारतीय धा मक दशन के पिर कृत और सं वादआधािरत चिर मे ं अटल-सी तीत होने वाली सम याओं को हल करने क मता है और कुछ ने इस मता को समझने का यास भी कया। हालाँ क कुछ अपवादों के साथ वे इसमे ं पू री तरह सफल नहीं हो पाये है।ं इसका कारण, कुछ हद तक, उनक बु मे ं पैठे ‘धम’ और ‘धम नरपे ता’ के वभाजन का भाव है और दू सरा उ हे ं ि



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आ तिरक व ान एवं स हत ान क व धयों के बारे मे ं पता न होना है (और ाय: इनका वरोध करना) जो उ हे ं उनके मान सक ग तरोध से बाहर नकाल सकती है।ं इसके अ तिर , हालाँ क अ भ ाय: ऐसा नहीं होते हुए भी इन समी ाओं का पिरणाम ाय: ‘समानता’ क त या जैसा ही हो जाता है (नीचे देख)े ं , अ तर यह है क जैसा आ या मक समानता मे ं नहीं होता यहाँ अ तम थ त उदासीनता क हो जाती है। दू सरे श दों मे,ं मुख सं कृ त के आ या मक और दाश नक ववरणों का वख डन करने के बाद उनके थान पर रखने के लए कुछ नहीं बचता, जब क स े पू वप के ारा आ या मकता और धम मे ं त त आ म ान क धा मक अवधारणा सकारा मक अ त व क नींव दान करती है। इस कार शू यवाद, उदासीनता और उपे ा उ प होती है, यों क इन प मी मा यताओं को चुनौती देने वाली भारतीय धा मक पर पराओं क मह वपू ण मता को ाय: अनदेखा कया जाता है। इसके अ तिर अ धकां श भारतीय व ान य या अ य प से प मी शै णक सं थानों, काशन समू हों अथवा धन के ोतों पर नभर रहते है।ं दू सरे श दों मे,ं ये व ान अपनी सीमा जानते हुए नपी-तुली आलोचना कर एक तरह से प म के ‘पालतू पशु’ के प मे ं काय करते हैं या फर अपने प मी मा लकों ारा दी गई आ म-आलोचनाओं को ही उगलते रहते है।ं वशेष प से जब ह दू धम क बात आती है तब वे पर परा क अवहेलना करते हुए ाय: उ हीं औप नवे शक पू वधारणाओं पर नभर रहते हैं ज हे ं वे कमजोर करने का दखावा करते है।ं मुझे उ र-आधु नक और उ र-औप नवे शक े के कसी ऐसे व ान क जानकारी नहीं है जसने सं कृत का अ ययन कर भारतीय धा मक मतों के ‘ स ा त’ को प म क समी ा करने मे ं उपयोग कया हो। मैं इस समू ह क आलोचना करने वाला पहला य नहीं हू ।ँ रोना ड इ डे न (Ronald Inden) कहते हैं क ऐसे व ानों ने भारतीय धा मक पर पराओं पर वचार करते समय अपने अवचेतन क औप नवे शक मा यताओं के कारण अपने आपको नव-उप नवेशवा दयों ं मे ं बदल लया है। उनका दावा है क ऐसे भारतीय बु जी वयों मे— पुरानी औप नवे शक क पनाओं को पुन: था पत करने क वृ है। ‘‘म हलाओं के त यव थत दु यवहार ( पतृस ा मकता), ब ों के शोषण (बाल- म), आय-कुल क परजीवी ा ण जा त का वच व, जा तयों के आधार पर भेदभाव (छु आछूत) एवं पुरातन ह दू धम को वजेता के प मे ं दोहराने से भारत क ाचीन अ त न हत और व श प से वख डत और 46 दमनकारी थ त वाली छ व च त हुई है।’’ एस.एन. बालगं गाधर (S.N. Balagangadhara) ने इस ल ण को इस कार समझाया है—‘‘इन भारतीय व ानों को वयं को ऐसे तुत करना होता है जससे ो ों







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गोरों को अपने अपराध-बोध का यान आये और ऐसे भारतीयों को शै णक जगत मे ं नौकरी दे कर वे अपने पछले पापों से मु पा सकें। ले कन कोई भी ग़ैर-प मी य के प मे ं उ र-औप नवे शक होने मे ं प म का मुकाबला नहीं कर सकता।47 प मी धम नरपे ता से िे रत ये उ र-उप नवेशवादी भारतीय धा मक पर पराओं और उनक वतमान ासं गकता का नया परी ण करने मे ं असफ़ल रहे है;ं इसके बदले इ होंने मान वक दशन के प मी वचारों क नकल करके उ हे ं ग भीर प से एक भ पर परा पर े पत कया है। सं कृत और अ य भारतीय भाषाओं को नबल करने से वे कई मामलों मे ं ाय: समा ही हो गई है,ं यों क अं ज़ े ी भाषा और प मी सा ह य को ग त के माग क तरह तुत कया गया है। ग त को कभीकभी पर परा के वरोधी के प मे ं पिरभा षत कया जाता है और पर परा क वकालत करने वालों पर ाय: पुरातनप थी अथवा क रप थी क छाप लगा दी जाती है। कई भारतीय व ानों ने प मी न शेकदम पर चलते हुए भारतीय धा मक पर पराओं को ऐसे ढ़ त दखाया है, जसे मैं caste (जा त), cow (गाय) और curry (कढ़ी) कहता हू ।ँ औप नवे शक भावों को समा करने के दावों क भारतीय समी ाएँ दो कार क हैं और येक अपनी ही तरह से ु टपू ण है। नीचे दी ता लका मे ं उनका सं ववरण दया गया है। ऊपर बाँया ह सा भारत के प मी अ ययनों के बारे मे ं है जसमे ं बड़ी सं या मे ं भारतीय व ानों को हड़प लया गया है।48 ऊपर दाँये ं ह से मे ं उ हे ं दखाया गया है ज होंने भारत के अ ययन मे ं धा मक श दाव लयों का उपयोग करते हुए मह वपू ण योगदान दया है; हालाँ क वे इन धा मक श दाव लयों का ं या कहे ं क पया आ ह उपयोग प म क ओर अवलोकन करने मे ं असफ़ल रहे है— से कोई वशेष अ तर पैदा नहीं कर सके। नीचे का बाँया ह सा उन व ानों के स दभ मे ं है जो प म क घोर न दा तो करते हैं पर तु भारतीय धा मक े णयों के योग मे ं श त नहीं हैं और इसके अ तिर वे अपनी आजी वका और पेशे हेत ु प म पर ही वशेषत: नभर है।ं ता लका मे ं नीचे दाँये ं ह से मे ं ववरण तुत करने हेत ु और काम करने क आव यकता है और इस पु तक का ल य उस िर थान मे ं योगदान करने का है।  

प मी े णयों का उपयोग

धा मक े णयों का उपयोग

भारतीय स यता का आज के द ण ए शयाई अवलोकन अ ययन मे ं अ धकां श औप नवे शक भारतीय व ा एवं मान वक स ब धी वचार

इ डे न (Inden), मैरीयोट (Marriott), और रामानुजन (Ramanujan) ने प मी दायरे मे ं ही सी मत रह कर भारतीय धा मक े णयों के ो





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उपयोग को ो साहन देने का यास कया।

प मी स यता अवलोकन

उ र-उप नवेशवादी भारतीय व ान ज होंने प मी वचारोंपर हमला तो बहुत ही दुलभ—ऐसे का कया, पर तु धा मक व ानों क सं या बढ़ाना आधारों, जसक वे मेरा ल य है। अवहेलना करते हैं पर खड़े हो कर नहीं।

आ या मक समानता का भोलापन प मी सावभौ मकता क सम या क एक घ टया त या का तक यह है क सभी सं कृ तयों और धम मे ं अ त न हत समानता के लए एक आ ह हो सकता है जो सदभाव और यायसं गत एकता को सु न त करेगा। ऐसा हो सकता था, य द कुछ मत अपनी अ त न हत व श ता के दावों पर अड़े नहीं रहते, पर तु वे ऐसा करते है।ं इस कार अ य प से प मी वचार और मू य सावभौ मक त वों क भाँ त च त हो जाते है।ं समानताओं पर ही मह व देने क गलत नी त के कारण बहुत से भारतीय गु और अ य सां कृ तक राजदू त इस वचार को बढ़ावा देने के लए ज मेदार हैं (जो क प मी सावभौ मकता को साझा ढाँचा मान कर कया जाता है) और वे भ ताओं क बात करने से बचते है।ं आज का गहरा सं कट यही है क लोगों क वचारधारा मे ं ं पहला यह क ‘ व श ता’ का थान ‘सामा यता’ ने ले लया है। इसके दो कारण है— सवमा य ‘समानता’ भ ता के मु ों को टाल देती है और दू सरा यह क ‘सवमा य वचारों’ के पीछे अनजान बनने का दखावा कया जा सकता है। ‘स यताओं के सं घष’ मे ं ‘धा मक भ ता’ के आकार और दायरे को न समझ पाने का एक कारण यही गलतफ़हमी है। ‘इ तहास से वत ’ के धा मक वचार और उसक अ त न हत अ भ एकता के आ ह के कारण कई लोग इस बात पर व ास करने लगे हैं क आधार प मे ं भारतीय धम भी वही चीज़े ं सखलाते हैं जो इ ाहमी पर पराएँ या धम नरपे व ान सखाता है। जब व भ धा मक माग अथवा स य क अवधारणाओं क बात आती है तो वे कहते है,ं ‘सभी एक है।ं ’ ‘ फर सम या या है?’ और फर भी इसी सतही समानता को बढ़ावा देने वाले भारतीय, वयं के बारे मे ं अन भ , उन वै क दृ कोणों और तावनाओं को वीकार करते हैं जो तकसं गत हैं ही नहीं। हम पहले ही देख चुके हैं क ‘समानता’ का यह प मी दाँव अ वीकरण ै





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का एक ख़तरनाक प है जो व भ सं कृ तयों मे ं से कमज़ोर प प से उनके हड़पने के लए खुला छोड़ देता है।

को आ ामक

मतभेदों का सामना करते समय ाय: भारतीय लोग ‘अनेकता मे ं एकता’ अथवा सं कृत के वा यां श ‘वसुदव े कुटु बकम्’ (अथात समू ची दु नया एक पिरवार है) के जाने-पहचाने नारे लगाते है।ं ले कन एक पिरवार मे ं कभी भी समान भाव के य नहीं होते। एक य के माता- पता, दादा-दादी, भाई-बहन आ द सभी अलग य हैं जनके साथ उसके व भ कार के स ब ध होते है।ं और न ही कसी पिरवार मे ं सभी य व एक जैसे होते है।ं वा तव मे ं अ धकां श पिरवारों मे ं नकारा मक गुणों वाले सद य भी होते हैं ज हे ं डाँट-फटकार लगानी पड़ती है। य द पिरवार क उपमा देनी हो तो वह ‘आ तिरक व वधता के त आपसी स मान है’ न क समानता। धा मक व ानों ने अ य पर पराओं के समक पू वप हेत ु आव यक सै ा तक साधनों का वकास नहीं कया है—कम-से-कम उतनी कड़ाई के साथ नहीं कया जतना ाचीनकाल मे ं कया जाता था। यह कमजोरी भ ता के डर से भी जुड़ी हुई है। ‘ नवृ ’ ( नषेध, न यता, याग) पर अ धक बल दया जाता है जब क ‘ वृ ’ (सकारा मक या, नेक सां सािरक जीवन) को कनारे कर दया जाता है। समाज के मागदशक स भाषण कौश य, त पधा मक व लेषण और रणनै तक वचार णाली मे ं भली-भाँ त श त नहीं है।ं ासं गक वत ता क चुरता ने ग़ैरज मेदारी, पलायनवाद और अकुशलता पैदा कर दी है। दुभा य से कसी ऐ तहा सक कानू न एवं के ीय अ धकृत स ा के अभाव के साथ-साथ आ या म व ा के स हत उदाहरणों पर अ धक नभरता आज के युग मे ं अ य धक आदशवादी सा बत होती दखती है, अथात् समाज को सुर त रखने मे ं न भावी। इन क मयों के पिरणाम व प भारतीय गु क प मी छा ों के त समझ उनक भावना मक और मान सक थ तयों तक ही सी मत रहती है और उनक प मी पहचानों अथवा कसी अ य ऐ तहा सक एवं सां कृ तक भावों पर वे अ धक यान नहीं दे पाते। इस लए गु उनके ोध, भय, वासनाओं, आदतों इ या द जैसे सामा य मनोवै ा नक वकारों से ही नपटते है।ं पर तु न तो गु और न ही श य क ओर से ही प मी अनुब धन-स ब धत गहरी सम याओं को समझने का कोई यास होता है। अ धकां श प मी लोगों का पालन-पोषण और श ा इस कार होती हैं क वे अपनी स यता पर ही बल दे,ं अथात् सं थापकों, य नय त तथा व मे ं उनक व श है सयत पर। अ प काल मे ं छा के लए गु के साथ पार पिरक आदानदान मे ं इन अ त न हत वृ यों और पू वधारणाओं का वलय करना या उनके भाव को कम दखाना यावहािरक और राजनै तक प से सही हो सकता है, पर तु दीघ काल मे ं ये ाय: भारी गलतफ़ह मयाँ ही पैदा करती है।ं (इन वृ यों और पू वधारणाओं से मुकाबला करने का दा य व भी गु का ही होता है)।

न कष—पू वप

और भ व य क राह

‘‘महाभारत मे ं नये राजा के रा या भषेक शपथ हण समारोह मे ं एक चेतावनी दी जाती है—‘हे राजन, आप एक माला बनाने वाला बने,ं न क कोयला फूँकने वाला।’’ यह वा तव मे ं ‘धम-सापे ता’ के त एक आ ान है। माला धा मक व वधता का एक पक है जसमे ं व भ रं गों और आकृ तयों के फूल सुखदायक भाव देने के लए ँ े हुए होते हैं और यह सामा जक सामं ज य का तीक आपस मे ं तालमेल के साथ गुथ है। इसके वपरीत कोयला व वधता को सम पता मे ं बदलने का, उसे नज व एवं भ मीभू त करने का एक पक है।’’

पू वप

एवं सापे

धम

पछले अ यायों मे ं प म और भारत के बीच कुछ मू लभू त मतभेदों के बारे मे ं जानकारी दी गई है। मैनं े तक दया है क ये मत- भ ताएँ केवल पू वप के खर अ यास अथवा सीधे पार पिरक शा ाथ से ही उजागर हो सकती है।ं न यह उठता है क आज पू वप सामा जक और आ या मक वकास के सामं ज यपू ण दृ कोण था पत करने के लए कस तरह से योगदान दे सकता है और कस आधार पर इसे उ चत एवं भावशाली ढं ग से जारी रखा जा सकता है? यहाँ पर मेरा सुझाव है क हमे ं मागदशन के लए धम का सहारा लेना चा हए, वशेषकर भगव गीता के के ीय कथानक का। उस कथानक मे ं नायक अजुन को यु े , जसे कु े कहा गया है, मे ं यु करने का आदेश मला है। आर भ मे ं वह इस टकराव से बचने क इ छा करता है यों क उसे आशं का है क इस यु से लाभ क अपे ा हा न अ धक होगी। उसके सारथी ी कृ ण को उसे आगे बढ़ने क रे णा देने हेत ु काफ़ समझाने-बुझाने क आव यकता पड़ती है। उसके सामने सभी दशाओं से खुला एवं दृ गोचर होता जो वशाल मैदान है जहाँ एक ही पिरवार के सद य दू सरे के सामने तैनात हैं और दोनों ही ओर के यजनों का वनाश न त है। पर तु वा तव मे ं जैसा ी कृ ण खुलासा करते है,ं म के अ तिर और कुछ भी न नहीं होगा। हालाँ क अजुन इसे तभी समझ सकता है जब वह धम क र ा के लए जो खम उठाने का नणय ले और वे छा से अहम का याग करे। ऐसा जो खम उठाने के लए उप थत मु ों क गहरी समझ होना आव यक है। अजुन केवल अपने प के लए ही नहीं ब क याय और धम क यापक थापना के लए भी लड़ रहा था जो ा डीय (अ त न हत कृ त) ऋतम के समान है। जस रा य के लए उसे लड़ना है वह वा तव मे ं उसी का है, जसे उसके बहुत से वप ी भी वीकार करते है।ं वप यों क लड़ाई उनके प मे ं धम के होने से नहीं ब क अ ानता, आस और लालच के कारण है। इसके अ तिर अजुन अपनी श अथवा अहम को बढ़ाने के लए नहीं लड़ रहा। उसने कई वष के योगा यास और परी ाओं से वयं को पहले ही नपुण बना लया था और उस अव था को पा चुका था जहाँ वह इन सब को ी कृ ण के सम सम पत कर सकता था। और न ही उसक यह या व ध बाहर से उसके ऊपर थोपी गई थी। ब क इस सं घष मे ं उसका होना उसक वयं क कृ त और सामा जक दा य वों के कारण है, वशेषकर उसके ‘ व-धम’ के। या यू ँ कहे ं क सं घष करना उसका क य है जब क कसी भ जीवन वृ वालों के लए स भवत: यह थ त लागू न होती। इस कथानक का उपयोग करते हुए, जो क यहाँ समझाने के कये अ त गू ढ़ और बहुआयामी है, हम भावी पू व प हेत ु शा ाथ क कुछ अ नवायताओं और नयमों े ैं



का नधारण कर सकते है।ं उदाहरण के लए— 1) इसे आपसी सहम त से शा ाथ के नयमों, समय और थान के साथ सभी को समान अवसर मले ऐसा सु न त करते हुए नधािरत करना होगा। दू सरे श दों मे,ं असली सामना प मी सं थाओं के सं र ण मे,ं प मी कसौटी पर, प मी पू वा ह- त सं चार मा यम क देखरेख मे ं और चय नत प मी अ धव ाओं ारा सं चा लत नहीं हो सकता। 2)

तभा गयों का उ े य एक-दू सरे का धम-पिरवतन करना या इसके वपरीत बु नयादी मतभेदों को छपाने के लए लुभावनी भाषा के योग का नहीं होना चा हए। उ े य स य क खोज का होना चा हए।

3) इस तरह के ‘ तीका मक ’ का पिरणाम शायद दोनों प ों क अहं कारी तर पर ‘ वजय’ के प मे ं सदैव नहीं हो सकता। इसमे ं कई चहेती योजनाओं और मा यताओं को भी यागना होगा। 4) वैचािरक मे ं उतरने से पहले आ या म- व ा के ग भीर अ यास अहम पर वजय ा करना आव यक है।

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5) वयं को आ या मक प से मा णत स करने के अ तिर धम के र कों को अपने वरो धयों और उनक पर पराओं एवं मत-शा क गहन जानकारी होनी चा हए। इसी तरह प मी मतों का त न ध व करने वालों को भी उनक पर परा और वै क दृ कोण के ग भीर वक प क स भावना के प मे ं भारतीय धम क ओर खुले भाव से देखना होगा। इस तरह क योजना क तैयारी के लए यह पु तक एक भू मका दान करती है। स भवत: ऐसे वैचािरक हेत ु ‘सापे -धम’ ही सबसे अ छा सावज नक ढाँचा है (अ याय 6 मे ं च चत)। हमे ं याद है क सापे ता (सापे धम का गुण) का अथ है ‘आपसी स मान और आदान- दान के साथ’ तक। ऐसा दृ कोण सभी माग और पहचानों के बीच अ तर-अहं भाव, एक व और भाईचारे के अथ मे ं ‘ब धु’ के स ा त के अनु प है। जहाँ तक आपसी सहयोग और आपसी नभरता का न है इसका अथ अनेकता मे ं एकता भी है। यह वैचािरक ढाँचा उस लोकाचार के अनु प है जसे ‘सकारा मक बहुलतावाद’ कहा जा सकता है, न क केवल उदारता या क पत े ताबोध क थ त से नकली उदासीनता। सापे ता अ भ एकता मे ं व ास से उपजती है जसके अनुसार भ ता और अ त न हत एकता पर पर वरोधी नहीं है।ं इसके वपरीत ‘ नरपे ता’ प म के से यू लिर म के यादा समीप है जसे अ थायी और अ थर ग तरोध से उ प होने वाले सं घष क रोकथाम करने के लए इलाज के प मे ं वक सत कया गया। े

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धम नरपे ता सभी सीमाओं के पार यापक मानवता को बढ़ावा देने के बजाय केवल भौ तक समानता का वादा करती है, चाहे यह वादा भी कभी पू रा न कया गया हो। कभी-कभी तो से यू लिर म का उपयोग फूट डालने के लए भी कया जाता है। इसके बावजू द इसने बु जी वयों के म य एक उ कृ थान ा कया हुआ है। ‘सापे ता’ कसी कार का नकारा मक स ा त नहीं है, जैसा क अमरीक सं वधान मे ं व णत है क सरकार को सा दा यक थाओं मे ं ह त प े नहीं करना चा हए। ब क यह आ या मक साधना के व वध पों से स य सहयोग का स ा त है। ाचीन भारतीय रा के बहुलतावादी चिर का य े धम-सापे ता को जाता है। उदाहरण के लए अ पसं यकों का सं र ण बहुसं यकों क सदभावना पर नभर करता है और सापे -धम के कारण ही भारत क ऐसी अ तीय पर परा रही है क इसने व के कोने-कोने से आये व भ समुदायों का अपने यहाँ वागत कया है और उनक पहचान या सा दा यक पर परा को बचाते हुए उ हे ं समृ होने का अवसर दया है। हाल मे ं प म से आयात कये गये ‘से यू लिर म’ के आधार ‘Religion’ को ‘धम’ का थान दे कर प मी सामा जक और कानू नी ढाँचों को अपनाना है। इसने ं क राजनी त को ज म दया है और धम नरपे ता के नाम पर वभाजक वोट बैक जवाबी त या मे ं ह दू राजनेताओं के एक वग ने राजनै तक प से सश ‘ ह दू ’ धम था पत करना चाहा है। इस तरह क मब त या ह दुओ ं और अ पसं यकों दोनों के लए ही वनाशकारी रही है। इस लए यह पु तक भारत मे ं धम नरपे ता के न हताथ पर जोरदार बहस मे ं एक योगदान है। वशेष प से इस बात पर बल देना होगा क ‘सापे -धम’ ह दू धम के त न ा क माँग नहीं करता और न ही यह अपना सरोकार केवल पर परागत ह दुओ ं तक ही सी मत रखता है। ‘जा तधम’ क अवधारणा पहले से ही येक जा त के अपने अलग धम के त आदर का भाव रखती है, इस लए सापे -धम णाली मे ं मु लम जा त अपने आ तिरक मामलों के लए शरीयत को अपने जा त-धम के प मे ं रख सकती है। पू वप के सहभा गयों के प मे ं सावज नक प से मु लम अपने कानू नी और नै तक स ा तों क मु भाव से वकालत कर सकते हैं (हालाँ क का फ़रों क ह या करने जैसे नदश दू सरी जा तयों के साथ आपसी स मान के स ा त का उ ं घन करते हैं और इस लए उ हे ं ख़ािरज करना होगा)। ‘‘महाभारत मे ं नये राजा के रा या भषेक के शपथ- हण समारोह मे ं एक चेतावनी दी जाती है—‘हे राजन, आप एक माला बनाने वाला बने,ं न क कोयला फूँकने वाला।’1 यह वा तव मे ं ‘धम-सापे ता’ के त एक आ ान है। माला धा मक व वधता का एक पक है जसमे ं व भ रं गों और आकृ तयों के फूल सुखदायक ँ े हुए होते हैं और यह सामा जक भाव देने के लए आपस मे ं तालमेल के साथ गुथ सामं ज य का तीक है। इसके वपरीत कोयला व वधता को सम पता मे ं बदलने ै े औ ी े े े

का, उसे नज व और भ मीभू त करने का पक है।’’ शपथ- हण करते समय राजा से अनुरोध कया जाता है क वे सुसंगत व वधता को समथन देने का दृ ा त दे ं जसमे ं अ य धक ासं गक और व वध सं कृ त को अलग-अलग मतों (फूलों) क एकता ँ ा जाये। यह फूलों के अ यव थत बखराव क अस ब ता और (माला) मे ं गू थ यू नकारी एक प सावभौ मकता जैसी पराका ाओं से बचती है।2 मैं प मी से यू लिर म के वक प के प मे ं ‘सापे -धम’ को ता वत करता हू ।ँ से यू लिर म को स भवत: ‘प थ- नरपे ’ क तरह य कया जा सकता है जसका अथ है कसी एक प थ (स दाय) के त दू सरे क अपे ा तऱफदारी न करना। सापे -धम पर आधािरत समाज से यह आशा क जाती है क वह उ तम धम को बनाये रखेगा, न क केवल स ह णुता या उदासीनता का यवहार करेगा। धम क कृ त ही व भ समुदायों क व वधता के त सं वद े नशील होना है। नागिरक पहचान, दै नक चया, राजनी त और शासन के कौशल व भ तरों के पार पिरक स ब धों का पोषण करते हुए इसी अवधारणा से सू चत और मागद शत होते हुए स प होंग।े यह पू वप के लए भी एक सुर त ढाँचा दान करेगा, यों क आपसी स मान क नै तकता मतभेदों को वषैला होने से पहले ही पछाड़ देगी। इसके अ तिर ‘धम’ कभी भी अ तम प से न या मक नहीं हो सकता। वह ऐसी मु वा तुकला क तरह है जो लगातार वक सत होते हुए समावेशी है। इन शत के आधार पर पू वप कसी बहस से नपटने या एकता जताने का मा यम नहीं है ब क वह स यताओं मे ं चल रहे सं घष के दौरान ण- त ण एकता को उभरने, घुलने, बखरने और पुनज वत होने का अवसर देता है।

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इ ाहमी पर पराओं के मेरे वयं के ग भीर अ ययन तथा कई वष से कये गये सं वाद एवं वाद- ववाद के आधार पर मैं यहू दी और ईसाई प ों क ओर से न न ल खत त याओं क अपे ा करता हू ।ँ

क रप थी वरोध इन मतों के अ धकतर लोग पू वप के आधार और उपयो गता को ख़ािरज कर ं ।े इस अ वीकृ त के कुछ कारण सं क ण अ ानता, अ ात का भय, मनोवै ा नक देग सं कार और अँध व ास भी है।ं उनक ऐसी सै ा तक समझ भी हो सकती है क ‘आ या म- व ा’ ( जसे मैं ऐसे शा ाथ क आव यक शत मानता हू )ँ उनके मतानुसार गलत और ईश न दातु य भी है, यों क यह ई र क कृपा के बजाय वयं क साधना से वग ा का यास करती है। इस समू ह के कई लोग शरीर के व , अ याय 2 मे ं व णत, बाइबल के नषेधों का पालन करते है।ं े





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इसके पहले क हम इस समू ह को ह का समझे ं हमे ं यह याद रखना चा हए क इसमे ं अमरीका के चच जाने वाले ईसाइयों का एक बहुत बड़ा तशत स म लत है, जनका सेना, थानीय और रा ीय सरकारों और यहाँ तक क वदेश नी त मे ं भावकारी राजनै तक दखल है। बहुत से सभासद (senators), महासभा के सद य (congress persons), सं घीय व रा य के अ धकारी (federal and state officials) और सु ीम कोट के यायाधीश भी ऐसे वचारों का समथन करते है।ं हालाँ क सभी अमरीक ईसाई इन सभी दृ कोणों से तादा य नहीं रखते, पर तु इस ईसाई समू ह मे ं सबसे अ धक आ तिरक सामं ज य है, इ हे ं यापक प से तब समथन ा है और इ होंने हाल मे ं घरेलू और वदेशी मोच पर अपनी सं ग ठत एवं आ ामक राजनै तक कारवाई क मता का दशन भी कया है। यही वह समू ह है जो गभपात और समलैं गक अ धकारों के व है तथा पाठशालाओं मे ं मक- वकास के पढ़ाये जाने का भी वरोध करता है। इस समू ह का एक बड़ा उपवग इस बात पर भी पू री तरह सम पत है क ‘ लय का दन’ (End of time) तब आयेगा जब God क स ा (Kingdom of God) के बाहर वाले लोग ं ।े इसके पहले व ास का परी ण होगा जसमे ं बेरहमी से पू णतया न कर दये जायेग जो यीशु के प मे ं नहीं है उ हे ं यीशु के व और ‘शैतान’ के प मे ं माना जायेगा। ऐसा व ास करने वालों के लए धम के साथ पर पर स मानपू वक शा ाथ करना शैतान से स ब ध रखने जैसा है। तप के धमा तरण के प अ भ ाय: के अ तिर ऐसा सं वाद कसी अ य शत पर करना ‘पाप’ है।

इ तहास-के

कता क सीमाओं मे ं ही उदारता

यहू दी, ईसाई या धम नरपे पृ भू म के कई प मी लोगों क च पू वप मे ं हो सकती है, यहाँ तक क वे ऊपर दी गई पू व- नधािरत शत को पू रा करते हुए भी अपने को देख सकते है।ं कई प मी लोगों ने आ या म- व ा का अ यास कया है और इसके शारीिरक, मान सक और आ या मक लाभों क सराहना भी वे करते है।ं बहुतों ने भारतीय धा मक साधनाओं मे ं गहरे उतरने के पिरणाम व प अपने वयं के मतों के नये अथ भी समझे है।ं कई तो इसे एक वैध और भावशाली आ या मक माग के प मे ं भी देखते है।ं इस समू ह के बहुत से लोग फर भी इ तहास-के कता और व श ता-बोध, जसे वे अपने मत का मह वपू ण अं ग मानते है,ं के साथ समझौता करने को ब कुल भी तैयार नहीं होंग।े आ खरकार ईसाइयत के व ास के वण-मानक (gold standard) नायसीन मत (Nicene Creed) को व ास के ब धनों को तोड़े बना ऐसे ही नहीं फेंका जा सकता। इसके अ तिर बहुतों के लए नरक-द ड का गहरा बैठा हुआ डर और प मी पहचान से जुड़े हुए य गत और सामू हक अहम के आन द (ईसाई े

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मत से गुं थी हुई पहचान) के पार जाना बहुत क ठन है। इनके साथ गहरी और वा त वक अ य आप याँ भी हो सकती हैं और केवल पू व-प ही इन मामलों को उजागर कर सकता है। अरबों डॉलर वाले बहुत से सं थान (जैसे यु चौिरटेबल टस्—Pew Charitable Trusts तथा जॉन टे पलटन सं थान—John Templeton Foundation) ं मु यधारा के नागिरक समाज मे ं ईसाई स ा तों य प शालीन और कूटनै तक है— के भाव को फैलाने के लए तब हैं और इस तर पर पू वप मे ं ह सा लेने के लए राजी भी हो सकते है।ं हालाँ क मैनं े पाया है क वे अपनी इ तहास-के कता क खुलआ े म चचा करना पस द नहीं करते।

धम के ग भीर खोजकता अ यासकताओं का एक बहुत छोटा समू ह न केवल प म क मू ल मा यताओं और ऐ तहा सक योजनाओं पर न खड़े करने को तैयार होगा, ब क इनसे वयं को पू री तरह से दू र भी रखेगा। इस समू ह मे ं मानवतावादी, आ म नभरता के समथक, सामा जक कायकता और अ य ऐसे लोग स म लत हैं जनको पर परागत प मी सा दा यक पिर े य के रह यमयी अनुभव हुए है।ं इस समू ह का एक उपवग इस बात का पता लगाना चाहेगा क या ख़तरे मे ं पड़ी प मी अवधारणाओं को कम वभाजनकारी बनाने के लए भारतीय धम के काश मे ं पुन: तपा दत कया जा सकता है। (इस समू ह मे ं यहू दी लेखक रोजर कामेने ज़— Roger Kamenetz, व यात रोमन कैथो लक मतशा ी डॉम बीड फ़थर—Dom Bede Griffiths और रैमा डो प ण र—Raimondo Panikkar जैसी ह तयों को मैं स म लत क ँ गा)। इससे आगे के उपवग मे ं वे आते हैं जो सबसे दू र तक जाने के इ छु क है,ं वे जो यहू दी और ईसाई मतों क मह वपू ण आ या मकता का यापक प से अनुवाद भारतीय धा मक पिर े य मे ं करने क वकालत करते है।ं ये ज ासु यीशु को ह दू अवतारों के समक वीकार करने को तैयार हैं और इस कार वे उनक पू जा भारतीय धा मक शत पर अपने ‘इ देवता’ के प मे ं करने को तैयार है।ं प म के बहुत से य गत साधक पहले से ही चुपचाप अपने नजी अ यास मे ं इस तावना पर काय कर रहे है।ं हालाँ क इस कार के यास उ ख े नीय है,ं क तु ये ाय: अ पजीवी होते हैं यों क ज ासुओ ं ने अपनी सां कृ तक मा यताओं, वशेषकर इ तहास-के कता और व श ताबोध क ओर पया यान नहीं दया होता है, ब क इन मामलों क या तो उपे ा क है या फर उ हे ं एक ओर रख दया है। स े भारतीय धा मक पिर े य को अपनाने के लए उ हे ं कतनी बौ क, मान सक और आ या मक तैयारी क ै

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आव यकता है इसका उ हे ं पू री तरह से भान नहीं है। य द वे ऐसा कर भी पाये ं तब भी प मी सावभौ मकता और ‘ व -श ’ होने का अचेत आवरण वे स भवत: ओढ़े ं ।े ऐसे ज ासुओ ं क सामा य वृ एक का प नक ‘सदाबहार दशन’ क रहेग वीकृ त क हो सकती है या फर वे अपनी पू व मा यताओं और सा दा यक माग क ओर चले (U-turn) जाते है।ं स भव है क कुछ लोग अपिरप व और अ पजीवी प से ह दू या बौ धम मे ं ‘पिरव तत’ भी हो जाये।ं कई तो ‘भारत- वशेष ’ या आ म नभरता के `एक कृत दाश नक’ के वेष मे ं प म मे ं भारतीय धम क यापक च को देखते हुए वयं क शं सा करवाने क दृ से ं ।े कोई दुलभ ही प मी ज ासु होगा जो बना पीछे मुड़े हुए इसका पू रा लाभ उठायेग अपनी खोज पू री कर पाता हो। उससे भी दुलभ वह है जो आ या मक उपल ध का एक पू णतया नया और नजी माग बना पाता हो। इस मोड़ पर पू वप के पिरणाम व प जो वक प और माग खुलते हैं वे बहुत से ँ ा क पू वप से सभी हैं एवं ज टल भी। इन क ठनाइयों के बावजू द भी मैं यह तक दू ग ओर के य इन दृ कोणों को प करते हुए अपने वक प खोज सकते है।ं

धा मक गु ओं को चुनौती कसी भी तरह से पू वप केवल प मी लोगों के लए ही चुनौतीपू ण नहीं है। भारतीय धा मक प वालों मे ं भी इसके अ ययन और स ी एवं खुली तब ता क आव यकता है। जैसा क अ याय 1 मे ं समझाया गया है, पू वप का अ यास पछली सह ा द के दौरान भारत से लगभग लु हो गया। इसे वापस लाना इतना आसान नहीं होगा। 18वीं और 19वीं शता दी मे ं लगातार होने वाले उप नवेशी आ मणों के कारण भारतीय धा मक नेताओं ने या तो शा ाथ ब द कर दया या फर प मी पिर े य को ही अपना लया। उप नवेशवा दयों ने केवल अपने लाभ के लए सं कृत और इसके थों को सीखने का वृहत यास कया। दुभा यवश भारतीय धम-नेता प मी अ ययन क व तु होने से स तु और कई मामलों मे ं ग वत भी थे और तब ता और कड़ाई से प म का अ ययन करने हेत ु अवलोकन को उलटने मे ं वफ़ल रहे। वामी ववेकान द ने वा तव मे ं प म का अ वेषण कया और कुछ नेताओं जैसे राममोहन रॉय ने ‘ ो समाज’ जैसे सम वया मक आ दोलन चलाने का यास कया। क तु ऐसे यासों मे ं प मी मत, दशनशा और इ तहास क ठोस समझ पैदा करने का अभाव था जो क प म का सही पू वप करने के लए आव यक है। ववेकान द और दू सरे लोग प म का यव थत अ ययन धा मक शत के बना कये ही स तु थे और वही पढ़ते थे जो प म के समथक और समी क लख रहे थे, न क धा मक स दभ मे ं प म के औपचािरक अ ययन के उपरा त। इसके ि







अ तिर मह वपू ण बात यह थी क प म का ऐसा यदा-कदा अवलोकन उस तरह से सं थागत और समय के साथ पिरपू ण नहीं कया गया था जस तरह से प म ने भारतीय धा मक समाजों के अ ययन के लए कया था। प मी व ालयों (convent schools) क तुलना मे ं भारत मे ं धा मक सं थानों का कोई वकास नहीं कया गया, कोई थान नहीं हैं जहाँ व के मतों का तुलना मक अ ययन पढ़ाया जाता हो ता क दू सरे मतों से वैचािरक मुकाबला करने के लए भ व य के ऐसे मागदशक तैयार कये जा सकें जो पू रे ान से सराबोर हों। दू सरे श दों मे ं ईसाई और तथाक थत से यू लर सं थाएँ भारतीय धम का अ ययन गहनता से करती हैं जब क वपरीत दशा मे ं ऐसा अ ययन कदा चत् ही कया जाता हो। समकालीन गु और आचाय भी प म के ग भीर अ ययन के त अ न छु क दखाई दये है।ं द भ और सतही ान के पीछे उनक अयो यता छपी हुई है। उनक यह वृ उनके इस कथन मे ं य होती है—‘‘स य हमारे साथ है तो फर हमे ं दू सरों के अ ान का अ ययन करने क च ता यों करनी चा हए?’’ अ य लोग अ तरं जत ं ‘‘दू सरे लोगों के मतों का वन ता के द भी दशन को मात देते हुए पू छते है— अ ययन करने वाला मैं कौन होता हू ?ँ ’’ कुछ और लोग तो प म से मुकाबले क चुनौती से हताशापू वक पीछे हट जाते है।ं इसके अ तिर भारत क वत ता के बाद प म-पिरभा षत धम नरपे ता ने भारत के व व ालयों मे ं धम-स ब धी औपचािरक मान वक श ण को रोका है। सामा जक व ान मे ं धम का वणन मु यत: मा सवादी है जो ऐसा वचार चािरत करता है क धम पछड़े पन क सम या है जसे आ थक ग त से हल कया जाना है। अपने प मी श यों क सामू हक पहचानों को समझने मे ं असफ़ल रहने के कारण अ धकां श गु उ हे ं स े पा तरण क तैयारी करवाने मे ं भी असफ़ल होते हैं जहाँ इन पहचानों को यागना पड़ता है। यह मह वपू ण है क प मी श यों को आ या मक या ा मे ं इ तहास-के क परविरश के कारण उ प होने वाली बाधाओं के बारे मे ं बताया जाये। क तु इसके लए प मी मान सकता, पिर े य और इ तहास का पिर कृत ान आव यक है। यों क यादातर गु ओं को स हत ान के त प मी तर कार के गहन इ तहास क समझ नहीं है इस लए उनके अ धकतर छा ( मानी आकषण क आर भक अव ध के बाद) अचानक या तो चले जाते हैं या उनक साधना धीरे-धीरे फ़ क पड़ती जाती है। प म के भारतीय धम से सं घष मे ं उ प होने वाली इन और अ य सम याओं को मैनं े अपनी आगामी पु तक ‘यू -टन थओरी’ (U-Turn Theory) का वषय बनाया है। इसमे ं मैनं े दोनों प ों के वैचािरक व नमय मे ं सुधारों क आव यकता को समझाया है जसमे ं गु ओं ारा प म का औपचािरक और गहन प से अ ययन करने क आव यकता पर भी बल दया गया है, ता क वे अपने प मी श यों को उ चत प से भा वत कर सकें। े



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पू व-प म क दरार के पू वप के न त पिरणाम का पहले से अनुमान नहीं लगाया जा सकता और तभा गयों को सभी स भावनाओं के ार खुले रखने होंग।े जस बात क त काल आव यकता है वह है भ ताओं क वीकृ त और उन भ ताओं का आदर करने क आव यकता। मुझे आशा है क यह पु तक आपसी सं वाद का एक खुला े (एक कु े ) था पत करने मे ं योगदान देगी जहाँ अतीत क अपे ा पू व और प म अ धक समान शत पर मल सकेंगे।

ँ ी जी का ‘ व-धम’ और ‘पू वप ’ गाध मैं यहाँ गाँधी जी का उ ख े कर ऐसा सव कृ उदाहरण देते हुए अपनी बात समा ँ ा ज होंने नभ कता से बना कसी को नुकसान पहुच ँ ाए अथवा करना चाहू ग अँधरा ीयता के साथ अपनी भारतीय धा मक भ ता का दावा दृढ़ता से कया। वे भारतीय सां कृ तक आचार- यवहारों से ओत- ोत थे और वे अपने जीवनपयत धम के साथ परी ण करते रहे। बहुत ही सरल और सटीक बोल बोलते हुए वे इ तहास के वाह को बदलने मे ं सफल रहे। एक शता दी पू व का शत उनक एक छोटी-सी पु तक ‘ ह द वराज’ अथवा ‘Indian Home Rule’ टश सा ा य को ल य करते हुए पू वप का एक शानदार उदाहरण है। इसमे ं वे टश शासन क जाँच भारतीय दृ कोण से करते हैं जसमे ं उस भारतीय अ भजात वग क आलोचना भी स म लत है ज होंने टश सरकार से हाथ मला लया था। यह पु तक उनक आर भक कृ तयों मे ं से एक है जो उप नवेशवाद क सम याओं के बारे मे ं जाग कता फैलाने क एक मागदशक है। उन सम याओं ने अब नया प ले लया है और दू सरे उ कृ सा ह यों क तरह ह द वराज ने भी एक ताजी और भ ासं गकता ा कर ली है। ‘ ह द’ का अथ है भारतीय और ‘ वराज’ अथात व-शासन। भारत पर शासन ं ने सा ा य के आधीन बड़ी सं या मे ं भारतीयों का ही नौकरों करने के लए इं लैड क भाँ त उपयोग कया। भारतीय वत ता सेना नयों के व लड़ने वाली पु लस और सेना मे ं अ धकां श भारतीय सै नक थे जो टश वद पहने और टश झ डा उठाये हुए थे। शीष पर पू री लोक सेवा टेन के नय ण मे ं थी जसमे ं यायाधीश, राजनी त और व भ सरकारी अ धकारी स म लत थे। औसतन एक अं ज़ े के आदेश तले दस, बीस या पचास भारतीय काम करते थे। ‘ ह द वराज’ मे ं गाँधी जी ने अं ज़ े सा ा य का व लेषण कया और भारतीयों को टोका क वे उस सा ा य क सेवा करना ब द करे ं जो उ हे ं गुलाम बना रहा था। उनका तक था क य द वे ं े तो वह अपने-आप ही ढह जायेगा। वह सा ा य क सेवा करना ब द कर देग आ म नभर नहीं वरन् कहा जाये तो परजीवी था। वह ज दा था और फल-फूल रहा था यों क भारतीय उसके कामकाज मे ं सह-अपराधी बने हुए थे। बहुत सारे भारतीयों ने वयं का उपयोग अपने ही लोगों के उ पीड़न हेत ु होने दया। ँ ी ी े ी ओ े े

जब गाँधीजी ने टश जीवन प त क ओर अपना यान के त करते हुए उनक शोषणकारी थाओं, वग कृत यव था और औ ो गक उपभो ावाद क आलोचना क तो वे सचमुच ही उस स यता को उकसाने वाला ` वपरीत अवलोकन’ (reversing the gaze) कर रहे थे जसे वे भली-भाँ त ल बे समय से अपने य गत नरी ण और अ ययन से जानते थे। यह ठ क वही है जसे मैं पू वप कहता हू ँ और मेरी पु तक मेरे वयं के जए हुए अनुभवों और अमरीक वचारों के अ ययन का ही पिरणाम है। ँ े क वा तव मे ं टेन और भारत के बीच गाँधी जी इस न कष पर पहुच स यताओं का एक गहरा सै ा तक सं घष है। जब एक प कार ने इं लै ड मे ं उनसे पू छा क वे टश स यता के बारे मे ं या सोचते हैं तो उ होंने कहा, ‘वह एक अ छा वचार होगा।’ उनक च ताओं मे ं टश औ ो गक करण का अ पजीवी होना भी मुख था जो न ववाद प से उ हे ं पहला आधु नक पयावरणवादी बनाता है। उ होंने देखा क औ ो गक अथ यव था मे ं लगातार बढ़ता उपभोग ाकृ तक सं साधनों को कम करके गाँवों क आ म नभरता को न कर रहा है जो भारत के सामा जक ढाँचे का ताना-बाना है। इस सम या क त या मे ं उ होंने सादी जीवन-शैली क वकालत ँ ी थी उनका च मा, एक जोड़ी च पल, क और अपनायी। कुल मला कर उनक पू ज एक पैन और कुछ धो तयाँ। धम क व श ता का एक अ य मह वपू ण ब दु जस पर गाँधी जी ने ज़ोर दया वह था ‘स ाई क अवधारणा,’—सं कृत मे ं ‘स य।’ गाँधीजी का ‘स य’ केवल एक बौ क ताव नहीं था ब क जीवन जीने का एक तरीका था जसे येक य ारा य साकार प से अपने अ दर जया जाना था। उ होंने ‘स या ह’ (स य का आ ह) क वकालत क और इसक केवल क पना मा न कर उसे जये जाने पर भी ज़ोर दया। इस लए उनके च तन मे ं स य को ल पब या नय मत करने क कोई जगह नहीं थी। ‘स य’ को कसी पु तक अथवा नयमावली मे ं कैद नहीं कया जा सकता; वह अपने अ दर जया जाना है और अपने से अलग नहीं कया जा सकता। यह दाश नक व श ता गाँधी जी क सफ़लता के मू ल मे ं थी। उ होंने न केवल एक थायी समाज क वकालत क , वे उसी तरह जये भी। उ होंने न केवल आव यक व तुओ ं के थानीय उ पादन क वकालत क , ब क वयं तकली से सू त कात कर अपना कपड़ा बनाया और अपनी बकरी को वयं दुह कर वैसा उदाहरण था पत कया। स यताओं के बीच एक और मौ लक अ तर जसे ‘ ह द वराज’ मे ं तुत कया गया वह है ‘अ हं सा’ का वचार। यह श द जसका अनुवाद साधारणतया ‘NonViolence’ के प मे ं कया जाता है प मी वचार के शा तवाद जैसा नहीं है। यह ँ ाना जब क ‘अ हं सा’ का उससे कहीं यापक है। ‘ हं सा’ का अथ है नुकसान पहुच ँ ं ै े े औ

ँ ाना। अ हं सा ा करने के लए स यता और आमना-सामना अथ है नुकसान न पहुच आव यक है। बड़े पैमाने पर हं सा करने वाले व के श शाली सा ा य को चुनौती देने के लए असाधारण श क आव यकता थी। यह वरोधाभास लगता है क अ हं सा को यथाथ के धरातल पर उतारने के लए एक यो ा क आव यकता पड़ती है। गाँधी जी एक ऐसे यो ा थे। अ हं सा को स या ह से जोड़ने पर गाँधी जी के नर तरतापू वक अ याय से लड़ने के आदश ने ज म लया। उ होंने सामा जक स यता को नचले तबके से ऊपर क ओर ले जाने क वकालत क जहाँ लोग अपने मे ं ही वह बदलाव लाये ं जो वे व मे ं देखना चाहते है।ं अ हं सा मा बाते ं या कानू नन लागू करने क चीज़ नहीं है; इसे य यों ारा जया जाना है। ले कन इसके लए एक कायशील और टकाऊ समाज क आव यकता है जहाँ नचले तर के लोग अपने स य को वत तापू वक आ मसात कर सकें। इस कारण से, न कसी शुगल मे ं ही, उ होंने ‘ वराज’ क माँग क थी। इसके अ तिर ठ क से समझे जाने पर ‘ हं सा’ सभी कार के नुकसान क ँ ाना भी हं सा है, यों क गहन ह दू वचार के ोतक है। पयावरण को नुकसान पहुच अनुसार समू ची कृ त द य है। अमरीका मे ं 1970 के दशक मे ं व दना शवा के यासों से लाया गया आधु नक नारीवादी पयावरण आ दोलन गाँधी जी के अ हं सा के ँ ाना भी हं सा है और इसी लए आदश पर आधािरत है। पशुओ ं को नुकसान पहुच शाकाहार अ हं सा का एक मह वपू ण गुण है। गाँधी जी ने तक दया क माँसाहार क तुलना मे ं शाकाहार से पयावरण का कम नुकसान होता है, इस लए एक शाकाहारी समाज कसी माँसाहारी समाज क तुलना मे ं पािर थ तक य प से अ धक टकाऊ है। ‘अ हं सा’ सं कृ तयों पर पू री तरह से लागू होती है। सं कृ तयों का वनाश एक व श कार क हं सा है जसे अ हं सा के च लत ववरणों मे ं ाय: मा यता नहीं दी गई है। उदाहरण के लए जब सं य ु रा ने ‘नरसं हार’ पर अपने कानू नों का मसौदा तैयार कया तब ऐसे वा यां श नकाल दये गये जो ‘सां कृ तक नरसं हार (या सफ़ाए)’ का उ ख े करते थे। सं य ु रा के अ धकृत पिरभा षत कानू न मे ं ‘सां कृ तक नरसं हार’ न ष नहीं है। गाँधी जी इस तरह क हं सा को पू री तरह समझते थे और ाय: इसक चचा भी करते थे। सां कृ तक नरसं हार एक समू ह के ारा दू सरे के थानीय धम, भाषा, पहनावे, जीवनशैली, थाओं, तीकों इ या द को यव थत और पू ण प से ख़ म या दमन करना है। चाहे ख़तरे मे ं आये ऐसे लोगों को मानवीय सहायता, श ा और च क सा सु वधाये ं मल भी जाये,ं पर तु य द उनक पहचान, इ तहास-बोध, वरासत क अवधारणा और कृ त के साथ उनके स ब धों को यव थत प से न कर दया जाये तब भी यह हं सा ही होगी। अ मता क सामू हक अवधारणा एक जा त को अलग करना उ हे ं पचाने क तावना और उप नवेश क या का एक मुख अं ग है। इस कार क हं सा आज ‘ वकास’ के े





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नाम पर सतत् प से जारी है जसमे ं सफ़लता को पा ा यीकरण क कसौटी पर आँका जाता है। अ धकां शत: इसे ‘सावभौ मक’ नाम से जाना जाता है—यहाँ तक क मानवा धकार-स ब धत सं वाद भी वा तव मे ं सां कृ तक नरसं हार है और इस लए गाँधी क पिरभाषा मे ं हं सा ही है। गाँधी जी ने इस तरह के उप नवेशवाद के व सं घष कया और उसक भौ तक एवं राजनै तक अ भ य यों के व भी लगातार सं घषरत रहे। य प वे ईसाइयत ृ कया करते थे) पर भारत मे ं के व नहीं थे (और वा तव मे ं ाय: यीशु को उ त ईसाई मत चारकों (missionaries) का वरोध करते थे। वे कहते थे क उ हे ं केवल न: वाथ काम करना चा हए, धमा तरण नहीं। य द वे कोई पाठशाला या औषधालय चलाते हैं या गरीबों को खाना देना चाहते हैं तो ये चीज़े ं धमा तरण का मा यम नहीं बननी चा हए। इसी दशा मे ं गाय ी च वत पवाक (Gayatri Chakravorty Spivak) ने ऑ सफ़ोड व व ालय (Oxford University) मे ं एमने टी इं टरनेशनल ((Amnesty International) ारा ायो जत एक काय म मे ं उन लोगों का स दभ दया जो ‘‘गल तयों को सही करना चाहते है’ं ’ और वे ‘‘ जनक गल तयों को ठ क कया गया।’’3 उसने तक दया क मानवा धकार स यतावाद केवल ऐसे अ धकार होने से ही स ब धत नहीं है, ब क यह भी है क उन अ धकारों को कौन देने वाला है और कौन नहीं। मानव अ धकारों के प मी तरीके ‘‘ शखर से नीचे क ओर’’ एक ऐसी श सं रचना मे ं या वत होते हैं जसमे ं सश लोग (जैसे वै क मी डया और ँ वाले राजनै तक कायकता, राहतकम , वयं -सेवी सं गठन— व पोषण क पहुच NGOs) अपने को उनके त न ध (agent) के प मे ं तैनात कये हुए होते हैं और ं ी (agency) का ‘बोझ’ अपने ऊपर ही मानवा धकारों को सु न त करने वाली एजेस और ज मेदािरयाँ लए हुए है।ं ऐसी के ीयकृत सं रचना लोगों को समथ बना कर वयं के स या ह मे ं लगने के गाँधी जी के आदश से सवथा असं गत है। गाँधी जी क सोच क सू मता मे ं य जब गहरे उतरता है तो यह प हो जाता है क जो लोग उ हे ं अपना आदश मान कर काम कर रहे है,ं उनके और गाँधी जी के आदश के बीच गहरी दरार है। बहुत से तथाक थत गाँधीवादी एक सं थागत सं रचना के अं ग के प मे ं काम करते हैं जो हं सा पैदा करती है। गाँधी एक यापािरक नाम (brand name) क तरह बन चुके हैं और यह छाप गाँधी पर ही उपयु नहीं बैठती। गाँधी जी का मानना था क सां कृ तक भ ता को ख़ म नहीं ब क उनका वागत करना है। यही एक ाचीन ह दू वचार भी है। यह ऐसे भी कथन के अनु प है क केवल एक ही कार का फूल या वृ नहीं होना चा हए। ा ड व वधता पर न मत है। वा तव मे ं Uni-verse श द का अथ ही यही है—‘एक मे ं बहुत।’ येक जा त क उप-जा त और फर उसक भी उप-उपजा त होती है तथा व वधता का यह घोंसला बढ़ता रहता है। यह व वधता जड़ व प नहीं है यों क ये इकाइयाँ एक ै े े ें ै ि ो ी ी ैं े

ण से दू सरे ण मे ं सदैव पिरव तत होती रहती है।ं इन सब से पता चलता है क भ ता ा ड का अ त न हत स ा त है। इसके अनुसार कहना तक-सं गत होगा क सां कृ तक एक पता अ ाकृ तक और अ यावहािरक है। कसी एक ही कार का मत या जीवनशैली नहीं होनी चा हए। गाँधी जी आ यजनक प से भ ता क य ता से मु थे। वे एक पार पिरक धोती पहनते, नं गे पैर और खुली-छाती चलते और जमीन पर बैठने मे ं सं कोच नहीं करते थे। वे अपनी बकरी वयं दुहते और केवल बकरी का ही दू ध पीते थे। यहाँ तक क 1931 मे ं जब वे इं लै ड गये और कंग जॉज पं चम (King George V) ने ब कंघम पैलस े (Buckingham Palace) मे ं उनके स मान मे ं एक वागत समारोह आयो जत कया, वहाँ भी उ होंने बकरी का ही दू ध पया। वे वही घसी हुई च पले ं पहने थे जो उ होंने भारतीयों ारा नमक बनाने पर तब ध के कानू न को तोड़ने के लए अपनी स स वनय अव ा (civil disobedience) या ा के समय पहनी थीं। यही उनका जीवन जीने का तरीका था। वे पार पिरक ामीण भाषा मे ं बोलते थे और गरीबों के साथ रहते थे। जब वै क मी डया के लोग उनसे सा ा कार करने आते थे तो वे उ हे ं ाय: आ यजनक थानों पर पाते; उदाहरण के लए सड़क- कनारे कसी गरीब आदमी के साथ बैठे हुए। वा तव मे ं वे दू सरों से भ थे और अपने इस प पर वे ज़ोर देते थे, न क उसका मह व कम करके उसे छोड़ते थे। गाँधी जी का सं कृत के ‘अनुवाद-अयो य’ श दों का योग करना अपनी स यता को सां कृ तक नरसं हार क हं सा से बचाने के रा तों मे ं से एक था। ‘स या ह’ का उ ख े मैं पहले ही कर चुका हू ।ँ उ होंने ‘ व-धम’ (मेरा धम) को अपना मागदशक स ा त तथा भगव गीता के कु े को ‘यु का मैदान’ बताया जहाँ हमे ं अपनी चुनौ तयों का सामना करना पड़ता है। गाँधी जी ने समझाया क सं कृत श द ‘ वराज’ का अथ केवल राजनै तक वत ता ही नहीं है, ब क यह व वध कार क वत ता को सू चत करता है। ‘करने को वत होना’ और ‘ कसी से वत होना’ मे ं अ तर है। प म मे ं ‘ वत ता’ (Freedom) क क पना कार रखने, कहीं भी जाने, कुछ भी खरीदने या कुछ भी बोलने क वत ता क तरह क जाती है। यह सब है, ‘करने को वत होना’—ऐसा या वैसा कुछ भी करने क वत ता। यह ब हमुखी वत ता है। क तु इस तरह का वत य यह नहीं कह सकेगा क वह ोध, इ छा, ई या, बुरी आदतों और ववशताओं से वत है। इस कार क वत ता एक आ तिरक थ त को दशाती है। इसका वा त वक अथ है अपनी अनुकू लत अ मता या अहं भाव से वत होना। गाँधी जी ने इसी तरह क आ तिरक और बा नभरताओं से वत होने क थ त को ा और आ मसात करने क दशा मे ं सदैव काय कया। औ





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एक और अनुवाद-अयो य श द जसका उपयोग गाँधी जी ने कया वह था ‘ वदेशी,’ जसका अथ है ‘ म ी से उ प ’। देशी उ पाद जसे आज प म मे ं ‘ थानीय खरीदो’ (buy local) आ दोलन के बढ़ते हुए चलन क तरह देखा जा सकता है। गाँधी जी के वदेशी वचार मे ं व तुओ ं क ल बी दू री से पिरवहन क आलोचना और थानीय उ पादन तथा मौसमी भोजन को ाथ मकता देना स म लत था। यह केवल आ थक ाथ मकता से ही नहीं ब क अ हं सा के आदशवादी स ा तों से भी स ब धत था। पयावरण और य के वा य के लए भी वदेशी उ म होता है, यों क यह ‘ य जो उपयोग करने का आदी है’ पर आधािरत है। समय के साथ-साथ लोगों का स ब ध अपने नवास के ाकृ तक थान से हो जाता है। वदेशी का ता पय है थानीय पैदा कया हुआ अ खाना, थानीय बने कपड़े पहनना और जहाँ तक स भव हो थानीय बनी हुई व तुओ ं को खरीदना। इन सभी वचारों ने गाँधी जी क राजनै तक सोच मे ं योगदान दया। उ होंने ‘पं चायत’ के थानीय शासन पर आधािरत भारतीय समाज क वकालत क जो गाँव के तर से ार भ हो कर ‘नीचे से ऊपर’ ग ठत होने वाली पार पिरक वके ीकृत यव था है। भारत का यह वचार टश शासन से सीधी ट र लेता था। वे सदैव च तत रहते थे क कहीं भारतीय भू री चमड़ी वाले अं ज़ े न बन जाये ं (जो दुभा य से अ धकां शत: सच हुआ) और वे सदैव कहते थे क य द वत ता ा के बाद भारत को अं ज़ े ी स यता ही अपनानी है तो अं ज़ े ों को यहीं बने रहने दया जाये यों क इस काम को वे यादा अ छ तरह कर सकते है।ं दुभा यवश गाँधी जी क मृ यु के प ात सं वाद क े णयों को नय त करने के उनके यास लु हो गये। उनके कई वचारों को इस तरह अनुवा दत कया गया क उनका मू ल सू म अथ ही खो गया। मृ यु के बाद गाँधी ‘पालतू ’ बना दये गये। गाँधी के थान पर गाँधीवाद आ गया। यह गाँधी जी के त हं सा है। गाँधी जी के आदश को कमज़ोर करने का एक घातक तरीका वयं ह दू पर परा से ही आया है। वेदा त क उ कृ ऋचाओं का गलत अथ और स दभर हत उ ारण कर लोगों को न यता, श थलता और पलायनवाद क ओर ो सा हत कया गया। ले कन वड बना यह है क जो लोग न यता और े ता के बारे मे ं बड़ीबड़ी बाते ं करते हैं वही लोग वाथ के लए सौदेबाज़ी करते देखे जाते है।ं य द वे माता- पता हैं तो वे चाहते हैं क उनके ब े परी ाओं मे ं अ छा नतीजा ले कर भौ तक प से सफ़ल बने।ं य द वे ा यापक हैं तो वे अ छा अनुब ध लेने के लए अपने कायकाल हेत ु सौदेबाज़ी करते है।ं इस कार अपने नजी जीवन मे ं वे जतने यादा त पध बन सकते हैं बनते है,ं पर तु जब समाज और धम के लए स या ह क ज मेदारी उठाने क बात आती है तब वेदा त के न य होने के उनके आदश उ हे ं भागने का अवसर दे देते है।ं वा तव मे ं वेदा त ‘ वृ ’ (अथात कम का माग) और ‘ नवृ ’ (कम से छूटने का माग) दोनों को स म लत करता है। जब य स य ँ ँ ं ै ें े ि

प मे ं तट थ ढं ग से कम करता है वहाँ ‘ नवृ ’ एक आ तिरक थरता क भाँ त है। यह आल य, भा यवाद या पलायनवाद नहीं है। ँ ाने वाले’ च लत क पना मे ं गाँधी जी को एक न य और ‘नुकसान न पहुच य क तरह च त कया जाता है। जब क वा तव मे ं वे दु साहसी और मुखर ( जसे आज हम ‘राजनै तक प से गलत’ कहा करते है)ं थे और कसी भी सं था ारा हड़पे जाने के व थे। कु े मे ं बीसवीं सदी के अजुन क तरह उ होंने अधम का वरोध कया और टश सा ा य क र ा करने वाले यायाधीशों, राजनी त ों और वक लों को चुनौती दी। रचना मकता के सागर के अपने एक दशक ल बे म थन मे ं मैनं े गाँधी जी के स ा तों से रे णा ली है। उनका जीवन इस पु तक के बहुत से मह वपू ण ब दुओ ं मे ं झलकता है। प म के त उनका पू वप चुनौतीपू ण और दु साहसी था; स यताओं के आपसी सं घष को उ होंने कु े क तरह देखा जहाँ उ होंने ‘ व-धम’ का पालन कया; सं कृ त के बारे मे ं होने वाले सं वाद को नय त करने के लए उनका अनुवाद-अयो य श दों का उपयोग एक कूटनी तक तरीका था और उनक जीवन प त यह द शत करती थी क अपने वरो धयों के त आदर रखते हुए भी कस तरह रचना मक प से भ ता का दावा कया जा सकता है। कई मामलों मे ं यह स मान भले ही पर पर न रहा हो, पर तु मह वपू ण यह है क गाँधी जी ने उदाहरण था पत कया और उसे जया।

पिर श क

धम क अ भ एकता

व भ धा मक स दायों के बीच पर पर शा ाथ का एक सतत् इ तहास है और इसे लखने और इसके व लेषण करने के लए कई थ सं क लत कये गये है।ं मेरा अ भ ाय इन णा लयों क या या अथवा उनके आपसी स ब धों का तकनीक ववरण तुत करना नहीं है। ब क मैं धा मक पर पराओं के वराट इ धनुष के अ तगत मै ी स ब धों को च ाँ कत करना चाहता हू ँ जसे मैं ‘धम क अ भ एकता’ कहता हू ।ँ यह एकता वेदों मे ं शा ीय प मे ं व णत है, पर तु यह उन स दायों तक ही सी मत नहीं है जो वेदों को ामा णकता का वशेषा धकार देते है।ं व भ स दायों के बीच यह आपसी स ब ता उस कृ म एकता से भ है जो सामं ज य था पत करने के लए वत इकाइयों के पर पर वलय से बनायी जाती है। यह ऐसी व वधता है जो ठ क उस सम ता से उपजती है जो उसे आधार देती है। जन ब दुओ ं क समानता का उ ख े कया गया है वे प मी पर पराओं से पर पर ं ।े इस तरह के योग का अ भ ाय प म के सापे भारतीय तुलना का आधार बनेग धम के अ तीय और मू ल वचारों को च ाँ कत करना है। धा मक स दायों मे ं अ धकतर वेदों का भु व वीकार करते हैं जब क कुछ ऐसा नहीं भी करते। जैसे याय, वैशे षका, सां य और योग वेदों का भु व तो वीकार करते हैं पर तु उ होंने अपनी वत दशनशैली वक सत क है। जो वेदों को वीकार नहीं करते उनमे ं बौ , जैन, चावाक और लोकायत स म लत हैं (इनमे ं से अ तम दो भौ तकतावादी स दाय है)ं ।

ह दू धम क ‘ई र-

ा ड-मानव’ स ब धी अ भ एकता

वेदा त के सभी स दाय इस बात से सहमत हैं क ा डीय चेतना ही परम स य है और इस वा त वकता से परे कुछ भी नहीं है। यही ‘परम स य’ ा डक सृ का मू ल है। अ ैत-वेदा त के न म स ा त के अनुसार सं सार मे ं आरो पत दखता है जो एक सं ाना मक दोष है। इस आरोपण क तुलना मोती क चमक या आकाश के नीलेपन से क जा सकती है जहाँ चमक या नीलापन इन इकाइयों के लए मह वपू ण नहीं है। एक और च लत उदाहरण सप-र जू म अथात र सी का साँप जैसा दखने ँ ले मे ं र सी को साँप समझने से देखने वाले य को भय लगता का है; शाम के धुध है; हालाँ क दन के काश मे ं यह र सी क कु डली के अ तिर और कुछ नहीं है ँ ले मे ं वह और डर गायब हो जाता है। र सी को साँप समझ लया गया था यों क धुध ठ क से दख नहीं रही थी और इस लए भी क य के मन मे ं पहले से ही कु डली मारे साँप क छाप था पत है (सं कार, वासना)। ी ी औ ं ो

ठ क इसी कार क गू ढ़ रह यमयी श माया ारा मानव और सं सार को अपिरवतनीय पर आरो पत कया हुआ है जो वा तव मे ं वयं ही के अ तिर कुछ भी नहीं है।ं ‘ ’ अ ैत (non-dual), न वशेष (homogeneous) और अ तत: नगुण (without qualities) और बना उपा धयों (adjuncts) वाला है। मकड़ी ारा कसी बाहरी साधन के बना अपना जाल बुनने को के लए एक पक क तरह योग कया जाता है जो ा ड का न म व भौ तक कारण है। यह पक अ ैत के स ा त के अनुसार कारण व के एकमा ववरण के अनु प है जहाँ कोई बाहरी साधन का ह त प े नहीं होता। अपने मे ं कोई बदलाव लाये बना मू ल कारण पिरणाम उ प करता है। र सी साँप मे ं नहीं बदलती (जैसे दू ध से दही बनता है) ब क साँप केवल एक आभास के प मे ं र सी पर आरो पत दखाई देता है। वेदा त को मानने वाले स दायों मे ं मतभेद केवल इस बात पर है क वे ‘परम स य’ को लौ कक या सां सािरक जगत से कैसे स ब धत देखते है,ं पर तु उस परम स य के एक होने मे ं कोई मतभेद नहीं है। आ द शं कर (788-820 ई.) को उस स दाय का सबसे बल समथक माना जाता है जसने परम स य क क पना अ य गत के प मे ं क थी, जब क रामानुज (1055-1137 ई.) ज होंने शं कर के दृ कोण को चुनौती दी, को उस स दाय का मुख त न ध माना जाता है जसके अनुसार परम स य य गत भी है। शं कर परम स य को ‘ ’ मानते है।ं य प हम ही हैं पर तु माया ( म का परदा) हमे ं उस सव यापी ‘ ’ से अलग होने का अनुभव कराती है—वह भी वत अहं भाव के साथ। इससे -आधारी स य का आभास होता है जो इस पर नभर करता है क य माया के जाल मे ं फँ सा हुआ है या नहीं। इस दोहरी थ त को कई कार से व णत कया गया है, जैसे सापे और परमय नराकार और साकारय नगुण और सगुण। येक प ीकरण मे ं सापे स य—माया का ही दू सरा प— न र, अपू ण, मू ल प से अस य और दु:खों का कारण है। बाद मे ं रामानुज के व श -अ ैत ( वभे दत अ ैतवाद) स दाय ने ‘माया’ के कारण अलगाव के अनुभव क अवधारणा को अलग रखते हुए शं कर को चुनौती दी और यह वचार तुत कया क सभी व श वभाव, गुण और स भावनाएँ मे ं न हत है।ं सम (सामा य) और व श ( वशेष) अ वभा य है;ं सामा य यापक दृ कोण तुत करता है और व श उसके अ दर व वधता लए हुए है।1 इस कार को व श ता-र हत अथवा भेद-र हत नहीं देखा गया (जैसा शं कर ने बताया था)। क कृ त और मू ल भाव अपने व वध पों मे ं स पू ण अ त व को समेटे है जो एक शरीर-धारी के शरीर के साथ स ब ध से द शत होता है। सभी चेतन और अचेतन इकाइयाँ मल कर के शरीर का नमाण करते हैं और शरीरी





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पी ा ड क चेतना और आ तिरक नय क है। इस कार परम और सापे एक कृत ही है।ं व श इकाइयाँ अवा त वक नहीं हैं ब क परम स य क कृ त को मू लत: भेदज नत बनाती है।ं कोई गुण-र हत या सम प पदाथ स भव नहीं है। गुण येक पदाथ मे ं न हत है,ं इस लए पदाथ और उसके गुणों को अलग नहीं कया जा सकता। इस कार और सं सार क अ त न हत एकता अ वभा य है। उदाहरण के लए नीलकमल के मामले मे ं नीलापन (गुण) उसके मू ल पदाथ, कमल, से अलग नहीं कया जा सकता। अथात ऐसा त व है और य से अलग न होने वाला गुण है। ीम भगव गीता हमे ं श ा देती है, ‘‘ वयं को सभी ा णयों मे ं तथा सभी ा णयों को वयं मे ं देखना चा हए।’’ व श मे ं सामा य का अनुभव होने से मु या मो के ार खुलते है।ं यह केवल का प नक तक- वतक या कताबी ान ारा ा नहीं कया जा सकता ब क आ मानुभू त से ही मलता है। स दभ से मु क परम थ त मे ं सभी स दभ एक उप-समू ह के प मे ं स म लत है,ं क तु स दभ तब कोई बाधा तुत नहीं करते। यथा थ त से पार होना ‘पू णता’ (अन त पिरपू णता) क एक ऐसी थ त है जसमे ं सभी स दभ स म लत हैं ले कन वह फर भी सभी स दभ से परे है। यह कोई स दभ-र हत या एकसमान स ा नहीं है। ह दू धम सामा य अव थाओं को व श ताओं से पिरपू ण अ भ इकाइयों क तरह देखता है। सामा य और व श ताओं के पर पर स ब ध कभी भी कसी एक छोर क ओर नहीं लुढकते; न तो सव यापी पारलौ कक झान क ओर ( जसमे ं सां सािरक व श ताओं क अनदेखी होती हो) और न ही सां सािरक व श ताओं क अ तवादी भौ तकता क ओर (सव यापी आ या मकता क क मत पर)। यह दृ कोण उस प मी दशन से भ है जसमे ं व श ताओं-र हत एकप ीय सीधीसपाट एकता दखाई पड़ती है। रामानुज के उ रा धकारी ी जीव गो वामी ने उनके स ा त को पिर कृत कया और उ हे ं आ द शं कर के वचारों के साथ एक कृत कर एक यापक दृ कोण तुत कया। उ होंने कहा क परम स य य गत एवं सम गत दोनों एक साथ होता है। शं कर के नगुण के वचार क बजाय ी जीव गो वामी ने रामानुज के उस दृ कोण को अपनाया जसके अनुसार प और गुण अलग त व नहीं है,ं ब क क ही कृ त है।ं 2 वा त वकता व वध स भावनाओं से लबा-लब भरी है जनका अलग से कोई वत अ त व नहीं है। ी जीव गो वामी ने वा त वकता क तीन अ भ य यों को और अलग करते ं हुए बताया क ये साधक क मता के अनुसार अनुभव क जाती है— ै

(क) सम गत, नराकार ( )—यह उस अ वभा य परम स य का अनुभव है और अनुभवकता उससे अलग नहीं हो सकता। ज होंने सभी सुखों को याग दया है और बना कसी व श ता, आकार या आ तिरक व वधता के परम स य क खोज मे ं लगे है,ं उ हे ं अपने च ड अ यास ारा उस आन दपू ण वा त वकता से एक होने का अनुभव होता है। (ख) य गत, साकार (भगवान)—यह उन साधकों का अनुभव है जनक इ याँ परमान द से भरे ा ड का स पू ण अनुभव लेने मे ं भ और अ भलाषा से या है।ं इस परा- थ त क ा पर उ हे ं भगवान (परम स य क य गत आन दमयी वभू त) का अनुभव होता है। आ तिरक और बा इ यों को भगवान के दशन होते हैं जो इस योजन के लए व श ता धारण करते है।ं (ग) वह जो हमारे अ तमन मे ं वराजमान है (परमा मा)—वह ‘परम-आ मा’ (परम स य) है जसे सभी जीवों और व तुओ ं के नय क के प मे ं अनुभव कया जाता है। जस कार एक नीलकमल अपनी नी लमा से यु कमल है उसी कार भगवान (ख) भी सभी वभू तयों से यु परम स य हैं और इस लए वे परम स य क स पू ण अभ य है।ं जस कार ‘कमल’ नीलकमल क तुलना मे ं अपू ण है यों क वणन करने मे ं ‘नी लमा’ नहीं है, उसी कार (क) भी व श गुणों को द शत नहीं करता और इस लए उस वा त वकता क अधू री अ भ य है। अ तर केवल साधक के अनुभव पर नभर है। ी जीव गो वामी के अनुसार साकार (ख) से य गत अनुभव परम स य क अ धक सटीक अ भ य है यों क सम गत अव था (क) मे ं भाव अ य रहते है।ं अत: ‘क’ को ‘ख’ के उप-समू ह के प मे ं देखा गया है। ान और भ के दो माग के कारण ही ‘क’ और ‘ख’ के बीच अ तर दखता है। भ भगवान क वभू तयों-यु ‘परम स य’ क ओर ले जाती हैं जब क ान उसी ‘परम स य’ को अ वभा य चेतना ( ) का अनुभव दान करता है। इस कार ‘भगवान’ के सा ात अनुभव मे ं ‘ ’ का अनुभव स म लत है।3 दू सरे श दों मे,ं भगवान = + सभी वभू तयाँ, ल ण, और भाव। य द भगवान क वा त वकता का अनुभव हो गया तो ‘ ’ क अनुभू त वाभा वक ही हो जायेगी, जैसे य द कोई ‘नीलकमल’ को समझ ले तो वह कमल को भी समझ लेता है। भगवान और परमा मा के बीच कोई वशेष अ तर नहीं है—परमा मा भगवान क ही एक आं शक अ भ य है। सृजन के न म ही परमा मा भगवान क अ भ य है; वे य यों और व तुओ ं ( कृ त के आ दकालीन—अ य पदाथ समेत) मे ं वेश कर उन मे ं ाण सं चािरत करके आ तिरक नय क के प मे ं उनके याकलापों को नद शत करते है।ं ी







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ी जीव गो वामी बताते हैं क भगवान क श और वभू तयाँ मानव क समझ से बाहर (अ चं य) हैं तथा सामा यत: अस भव लगने वाले पिरणाम पैदा कर सकते हैं (उदाहरण के लए कुछ म ों क श से असा य रोगों का उपचार)। हालाँ क ये श याँ भगवान क ही है,ं पर वे इनसे परे है।ं ये श याँ न तो भगवान से भ हैं और न उनके समान ही। एक ही साथ समान और भ होने का यह अनू ठा स ब ध (भेद-अभेद) एक अ तीय स ा त है जो भारतीय सं गीत, नृ य, मू तकला, पू जाप त, कम-का ड, नै तकता, नी तशा , धम इ या द मे ं भी या है। इन श यों के अलग-अलग नाम, प और य व हैं ज हे ं ाय: भगवान क प नयों के प मे ं च त कया जाता है। यह शं कर के अ ैत स ा त के वपरीत है जसमे ं नगुण, नराकार और अनाम को परम स य कहा गया है तथा य गत देवी-देवता ‘माया’ के प है।ं भगवान का कोई भी भौ तक व प नहीं है, उ हे ं अ त व, चेतना और परमान द के अनुभव से जाना जाता है; हालाँ क वे भ ों के भावानुसार असी मत पहलुओ ं मे ं असी मत थानों पर एक साथ कट होते है।ं धरती पर अवतार के प मे ं कट होने के अ तिर भगवान अपने नाम को भी उसी तरह कट करते है।ं इस कार ‘भगवान’ का नाम भगवान ही है और उसमे ं भगवान जैसी श भी है। यहाँ तक क उसके नाम के श दां श मे ं भी य को सां सािरक ब धन से मु दलाने क श है। इसी लए ‘नाम-जप’ (मौन प से ई र का नाम गुनगुनाना) तथा ‘नाम-सं क तन’ (सामू हक प मे ं वा य ों के साथ उसके नाम को गाना) लौ कक को भावातीत े से जोड़ता है। सां सािरक मनोकामनाओं वाले ाय: कसी देवता क पू जा करते समय उ हे ं ही परमे र मान लेते है।ं 4 इससे उ तर के य पू जे गये देवता के व ह मे ं ही परमे र को अपने इ देव क तरह समाया हुआ देखते हैं और इस कार वा तव मे ं उनके ारा परमे र क ही पू जा होती है। पू जा का एक और उ तर है जसमे ं पू जे ं गये देवता को ही परमे र क वभू त माना जाता है। ी कृ ण कहते है— जनका ान अन गनत कामनाओं से हरा जा चुका है, वे अपने वभाव से िे रत हो कर अ य देवताओं क व श कृ त से सं चा लत अलग-अलग सा दा यक नयमों का पालन करके उनको पू जते है।ं वे जस भी देवता क न ापू वक पू जा करना चाहते हैं मैं उनक ा को थर करता हू ।ँ ऐसी ा से यु हो कर वे उस देवता क पू जा करते हैं और उस देवता से मेरे ारा ही वधान कये हुए उन इ छत भोगों को न:स देह ा करते हैं (गीता 7.2022)। अ ैत और वै णवमत के बीच अ तर को सं प े मे ं इस कार कहा जा सकता है— अ ैतमत मे ं पहचान पू री तरह से समा हो जाती है जब क रामानुज और ी जीव गो वामी के मतों मे ं पहचान रहती है, पर तु वह ई र से अलग नहीं, उसी का एक ै ै ी े ैं ी औ ी ैं ै

प है। अ ैतवादी मानते हैं क जीव और परमा मा एक ही है;ं जब क वै णव मत वाले मानते हैं क दोनों का अ त व सदैव अलग रहता है। वै णव मत वाले ाय: गीता (15.7) का सहारा लेते हुए दावा करते हैं क जीव परमा मा का अं श ही नहीं ब क सदैव से वही है, अथात् ‘सनातन’ है। यों क जीव का कोई वघटन नहीं होता इस लए यह यान देने यो य है क ‘मो ’ एक ई रीय लीला है जहाँ जीव सदैव ई र क सेवा का आन द ले रहा है (ई र के ही अं श के प मे)ं । यह परमान द क उ तम अव था है यों क प व भाव वाला भ ई र क सेवा के लए कसी भी शत को वीकार करता है, यहाँ तक क जसमे ं दू सरे उसे शारीिरक अथवा भौ तक प से दिर ही यों न पाये।ं फर भी दोनों स दायों मे ं अ भ एकता अलग-अलग इकाइयों का आधार है।5

ी अर व द का

यावतन और

मक वकास का स ा त

बीसवीं सदी मे ं ी अर व द ने सभी भारतीय धम स दायों का अ ययन कया, क तु उनका मुख योगदान यावतन और मक वकास क वै दक अवधारणाओं को व तार से समझाना था जसे उ ीसवीं सदी के अ त मे ं वामी ववेकान द प म के सम ले गये थे। ( वामी ववेकन द को शकागो—Chicago मे ं 1893 मे ं स प हुई व धम सं सद—Parliament of World Religion—मे ं गरजते हुए भाग लेने तथा व भ अमरीक दाश नकों, जैसे व लयम जे स—Williams James और जोशुआ रॉयस—Josiah Royceपर अपना भाव छोड़ने के लए जाना जाता है)। वामी ववेकान द और ी अर व द के अनुसार यावतन ही मक वकास का आधार है। यह ऐसी वधा है जसके ारा वह एक अनेक पों मे ं अ भ य होता है। यहाँ अपिरवतनशील परम स य अपनी अदृ य मता ारा व भ श यों और पों को कट करता है जो सभी उसी के प है,ं यों क वह पू ण परम स य सभी अं शों मे ं एक साथ न हत है। परम स य अपिरवतनशील एक और उसक व भ अ भ य याँ दोनों एक साथ है, फर भी उसक अपिरवतनशील एकता पर इस तरह परदा पड़ा है (उसक अ भ य थमी है) क उसके व वध प उसक व श अ भ य याँ होते हुए भी उस से अपनी अ त न हत एकता से अन भ है।ं इस कार अं श वशेष यह नहीं जानता क वह यापक क मा एक अ भ य है। दू सरी तरह से कहे ं तो अं श यह नहीं जानते क वे वत इकाइयाँ नहीं हैं और उस पू ण के ही प है।ं हमारी चेतना पर पड़े परदे को एक उपमा क सहायता से समझा जा सकता है। कभी-कभी कोई अ भनेता अपने अ भनय मे ं इतना खो जाता है क एक ण के लए ी













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अपनी असली पहचान का बोध तक खो बैठता है। इसी कार यावतन मे ं स ी अ मता क पहचान को य द इं गत भू मका से तादा मय नभाने क चरम सीमा तक ले जाये ं तो वहाँ स ी चेतना पर पदा पड़ा रहता है और वह पू री तरह से छप जाती है। यों क स ी परम अ मता अ त न हत है, इस लए मक वकास क ल बी या ारा पदाथ अपनी असली पहचान ा करने के लए िे रत होता है जो क न:स देह अ त व के उ तथा अ धक चैत य होने के बोध के कारण होता है।6 ी अर व द बताते हैं क परमे र ‘सम और आ य-वत ान’ क दोहरी मता ं इनमे ं एक न हत आ म-बोध क रखते हुए दोनों तरों को एक साथ समझते है— मता है जसमे ं ‘सभी व तुओ ं का अ त व, चेतना, इ छा, आ मान द और सबका वाह एक और अ वभा य है’। दू सरी मता इसक ‘एकता से व वधता और व वधता से एकता’ क चलायमान या है जसके ारा उनके बीच एक सतत् यव थत स ब ध था पत रहता है और उनक अ भ य ब धनकारी भेद या एक सू म अ वभा य अ तर न हो कर उसी एकता के भीतर ही सीमां कन और नधारण करती रहती है।7 स पू ण ा ड उसी ‘एक’ क ही अ भ य है जो सतत् उसी से नकल कर उसी के प मे ं वाहमान है। यह उसी ‘एक’ क श है जो उसके अपने व भ पों मे ं वयं ही द शत होती रहती है और जो आ म- वभाजन क या को दोहराती रहती है। अ भ , वकासरत और वयं -चैत य ा ड और कुछ नहीं ई र का सव यापी प ही है। सब मे ं वही आ मा है वही अ त व है; के ों का बहु यीकरण मा उस चेतना क यावहािरक या है जसका अ भ ाय भ ता क लीला, पार पिरकता के यवहार, आपसी ान, आपसी श के झटके, आपसी आन द, अ नवाय एकता पर आधािरत भ ता और भ ता के यावहािरक आधार पर अनुभूत एकता को था पत करना है। फर भी यह उसका अपना ही अ त व है जसका आन द वह भो ा के प मे ं लेता है, भले ही वह व वधता मे ं हो।8 यावतन (Involution) क यह अवधारणा परम स य क कृ त क अवधारणा से भ नहीं है और यह व दशन को भारत का एक मुख योगदान है। डा वन (Darwin) के मक वकास के स ा त मे ं यावतन का कोई थान नहीं है, यों क ‘धम नरपे /प व ’ का वभाजन ऐसी स भावना को नकारता है। अत: यह मक वकास कृ म है जसमे ं पहले से उप थत अलग-अलग मू लभू त इकाइयाँ जुड़ कर य त: अ नय मत तु े -बाजी ( य न- ु ट—trial and error) व ध ारा मश: और अ धक वक सत प लेती है।ं पर तु ह दू दशन मे ं यावतन मक वकास से पहले होता है और उसके लए व ध हेत ु और सामा य दशा नदश दान करता है। यह धम क अ भ एकता का मू ल है। ै



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अत: व ‘ऋत/धम’ ारा व-शा सत है, यह देखना ह दुओ ं के लए वाभा वक है। न दयाँ ऋत ( ाकृ तक यव था का नयम) के अनुसार बहती है।ं यह नहीं क वे बहे ं ही पर तु बहना उनक कृ त है। यह पानी का ऋत धम है क वह न े य नीचे क ओर जाये; पौधे भी व- यव थत है;ं येक जीव-ज तु मे ं वयं को नय त करने क अपार मता है और मानव तर पर सामा जक ढाँचे अपने आप को भावशाली ढं ग से वयं चलाते है।ं परमा मा का यावतन पदाथ मे ं होता है और इस लए उन सभी पों मे ं भी जो पदाथ से मश: वक सत हुए है।ं ऐसी यव था मे ं ‘सृ और मक वकास’ मे ं कोई दुराव नहीं है।

‘अ भ एकता’ के

त बौ धम का द ृ कोण

बौ धम भी अ भ एकता क अवधारणा पर आधािरत है। बौ धम यह दशाता है क धा मक पर पराएँ त वमीमां सा के मामले कतने ही यापक प मे ं एक-दू सरे से भ होते हुए भी गहरे और अ भ प से एक कृत हैं (मैं इस अ भ एकता को दशाने के लए बौ धम क मा य मका शाखा पर यान के त क ँ गा)। बौ धम वेदा त के मुख स ा तों मे ं से एक क पु करता है, जसके अनुसार सामा य बु के ारा अनुभव कये गये वे करण आ खरकार वा त वक नहीं हैं जब वे पृथक इकाइयों के प मे ं दखाई देते है।ं पर तु वह वेदा त पर पराओं को मौ लक चुनौती देते हुए दावा करता है क या भगवान के प मे ं परम स य क अवधारणा भी ामक है। बौ स ा त यह है क घटना- म अ त व क ‘वा त वक व तुए’ँ नहीं है।ं वह सभी पदाथ के परम अ त व का प ख डन करता है। व तुओ ं के नज-अ त व के बलकुल भी न होने क अवधारणा को ‘शू यता’ (खालीपन) कहा जाता है। यह न कष दो दावों से नकला है—(1) सब कुछ णक घटनाओं का वाह मा है (सं कृत मे ं इसे ‘ ण’ कहा गया है), और (2) ये ण एक के बाद दू सरे ण क सतत् वाहमान धारा मे ं बँधे है,ं अथात् येक ण का वा तव मे ं कोई अलग अ त व है ही नहीं। यह दावा क ये सब णक ासं गक अ त व एक दू सरे से पैदा होते है,ं को सह-उ प आ त स ा त (dependent co-arising— ती य-समु पाद जनमे ं पहला कारण या मू ल कारण अथवा अकारण कारण का न होना हो) के नाम से जाना जाता है। यों क णक घटनाएँ टकती नहीं हैं इस लए येक ण एक अलग इकाई है। भू तकाल, वतमान और भ व य के सभी ण इ जाल के पक क तरह एक दू सरे पर अनजाने मे ं ही आ त है।ं इसका अथ यह है क येक पल बाक सभी पलों के कारण हैं और इसी लए कसी भी ण का अपना कोई अलग अ त व नहीं है। सभी घटनाएँ, ण और व तुए ँ इसी तरह से जुड़ी हुई हैं और सभी घटना- म एक-दू सरे को य या अ य प से भा वत करते है,ं भले ही वे समय या थान क दृ से ँ ँ े ी ी ों ों ोई ी ीं ैं

कतने ही समीप या दू र यों न हों। कोई भी पृथक व तुए ँ या याएँ स भव नहीं है,ं इस लए व तुओ ं का अलग अ त व नहीं है। येक य का हर अनुभव काय-कारण प मे ं समू चे ा ड से जुड़ा हुआ है और इस कार सभी जीव आपस मे ं जुड़े हुए है।ं सह-उ प आ त स ा त क ृ लाब पिरक पना दो तमानों से क जा सकती है—अन त रेखीय ं ख त याएँ ृ लाब और पर पर च ाकार ं ख त याएँ। दोनों ही तमानों मे ं सब कुछ एक दू सरे पर नभर है।ं बु ने घो षत कया था क सभी अ त वों को काय-कारण क याओं से पर पर जोड़ने क अवधारणा ही एकमा स ा सावभौम नयम है और यह बना कसी शासक के वत प से वचा लत है। कसी बु ने अवतार ले कर ऐसा कहा हो या नहीं, पर यह सावभौम नयम है। यह परम स य क बौ अ भ य है। यह जैसी अवधारणा पर आधािरत नहीं है यों क बौ धमावल बी कसी य गत अथवा अवैय क ई र को नहीं मानते जो सचमुच ही सभी से अपना पृथक अ त व रखता हो। ‘परम स य’ णक करणों का यही वराट नृ य है। जसे हम सामा य तौर पर ‘सं सार’ कहते हैं और जसे दाश नक ‘सां सािरक अ त व’ कहते हैं वह बौ धम मे ं भी ‘सं सार’ के नाम से जाना जाता है और यह मा घटनाओं क ऐसी धारा है जहाँ कसी भी घटना का कोई अलग अ त व नहीं है। इसका अथ है क कसी भी व तु का अ त व या आ म- कृ त नहीं है, यहाँ तक क कोई भू मका भी नहीं जो ‘परम स य’ को आधार देता हो। इस लए मू ल-मा य मकाकािरका (नागाजुन र चत एक मुख बौ थ ज हे ं बु के बाद सबसे अ णी ं ‘‘न तो वयं से, न दाश नक माना जाता है) के सबसे पहले लोक मे ं कहा गया है— कसी दू सरे से, न ही दोनों से और न बना कसी कारण के कुछ भी उ प होता है।’’9 ‘कम और फल’ का कम स ा त बना कसी सृ कता या इस पर पर नभरता के जाल के बाहर क कसी इकाई के सहारे ही सं चा लत होता है। येक करण कारणों के इसी जाल के अ दर से ही उ प होता है, इस लए कोई भी पृथक अथवा अ ासं गक ( वत ) करण स भव नहीं है। यहाँ तक क ‘परम स य’ श द का उपयोग भी मैं केवल इस पर पर- नभरता के अन त जाल क ओर इं गत करने हेत ु कर रहा हू ,ँ यों क बौ ज़ोर देते हैं क परम स य अपने-आप मे ं सवथा िर (अथात् व-अ त व से र हत) है। अ यथा इसे एक तरह से अ य गत ई र के प मे ं उपयोग कया जा सकता और यह पृथक अ त व वाला बना-कारण कारण बन सकता है। सभी मान सक याएँ भी पर पर- नभरता क वा त वकता मे ं स म लत रहती है।ं शा त एवं थर मन से आ म- नरी ण का अ यास ( वपासना) बौ योगी को मान सक त वों के वाह और उनक पर पर याओं को देखने मे ं स म बनाता है। ं



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प समझ (सां ज य) से मान सक याओं का तट थ अवलोकन और आ म नरी ण स भव हो पाता है। अपने से ही अ त व मे ं दखते हुए आ तिरक और बाहरी करण जब गहरी अ तदृ से देखे जाते हैं तब वे म त (अं शों से बने) और कारणा मक (अ त न हत कारण-यु ) पाये जाते है।ं इसका अथ है क वे वत प से अ त व मे ं नहीं है।ं फर यह या व भ अं शों के परी ण के लए योग क जाती है और वही म त कृ त पाई जाती है। योगी क अ तदृ कसी भी कार क अ तम मू लभू त ईकाई (अणु) नहीं दखाती, चाहे वह भौ तक, मान सक अथवा भावना मक हो। येक ऐसी अणु प ईकाई मे ं अ य इकाइयाँ एवं याएँ न हत हैं जो मश: दू सरों पर नभर रहती है।ं इकाइयों पर नभरता क यह अन त ृ ला कसी भी वत अ त व (जैसे ई र) पर समा नहीं होती। ंख इस िर ता को बहुधा-उ िरत बौ कहावत मे ं अ भ य कया गया है—‘‘सभी करण व-र हत, िर और सार-र हत होते है।ं ’’ एक अ य कथन इस वचार को व तारपू वक बताता है—‘‘जो भी नभरता मे ं उ प हुआ है वह वत नहीं हो सकता। और यों क सभी परत हैं इस लए कसी का व-अ त व नहीं है।’’10 शू यता और सह-उ प समक माने जाते है।ं नागाजुन ने ‘अ-ता वक’ और ‘अ-सार’ के बौ स ा त को पदाथ ( य), अ त व (सत), आ म- कृ त या सार ( व-भाव), वशेषता (ल ण) और कारण व क समी ा क अवाधारणा के साथ-साथ अपनी भाषा मक समालोचना ारा आगे बढ़ाया। उ होंने न न ल खत स ा तों क थापना क । पहला, उन दाश नकों ने ज होंने कुछ मा यताओं और पू वधारणाओं को अनदेखा कया है, उ होंने मौ लक प से सार-र हत और अ त व क कारणा मकता क नभर कृ त पर पदा डाला है। मु य अपराधी य यों क आ म- कृ त और करणों क अवधारणा है। दू सरा, ‘अ त व, अ त व- वहीन, दोनों अथवा एक भी नहीं’ के चार वक पों (चतु को ट) के तक को सभी करणों और इकाइयों पर—यहाँ तक क बु और नवाण पर भी—समान प से लागू करके नागाजुन ने सभी अवधारणाओं क वरोधाभासी कृ त और भाषा क सीमाओं को उजागर कया। तीसरा, ‘खालीपन (शू यता) सभी इकाइयों को नकारती है’ क च लत अवधारणा के वपरीत उ होंने ता वत कया क शू यता सभी अ त वों क ाकृ तक थ त है यों क वे पर पर नभरता से सह-उ प होते हैं और इस लए व-अ त व- वहीन है।ं अ त मे,ं यहाँ तक क शू यता और सह-उ प नभरता क अवधारणाओं को भी ं ।े उसी समालोचना से गुजरना पड़े गा, नहीं तो वे वत अ त व जैसा मू त प ले लेग ों े





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उ होंने शू यता को सभी दृ कोणों के तकार के प मे ं ता वत कया, न क दू सरों के ऊपर एक े व-अ त व स ा त के प मे।ं शू यता व- कृ त से िर है जसमे ं शू यता- स ा त जैसे वचार और नयम भी स म लत है।ं उन आलोचकों को ज होंने उन पर शू यतावाद का आरोप लगाया, नागाजुन ने इं गत कया क य द व तुए ँ वा त वक प से अ त व मे ं होतीं तो वे आपस मे ं याशील नहीं हो सकती थीं। केवल शू यता और सह-उ प नभरता के स दभ मे ं ही पार पिरक या और पर पर- नभरता स भव है (इस बारे मे ं व तृत प ीकरण आगे दये गये उपशीषक ‘म यम माग’ (The Middle Path) मे ं देख)े ं । बु और नागाजुन का अ भ ाय: शू यता क अवधारणा के अ त व को था पत करना नहीं, अ यथा वह अपने व-अ त व वाली एक ‘व तु’ हो जायेगी। इस लए वे ज़ोर देते हैं क ‘शू यता िर है,’ अथात् शू यता क अवधारणा ही अपने-आप मे ं वत अ त व- वहीन है। दू सरे श दों मे,ं शू यता कोई ऐसी ईकाई नहीं है जसे एक कार के असाधारण परलोक क तरह सं सार से ऊँचा माना जाये, ब क यह तो केवल करणों क परम कृ त है। इस पर पार पिरक बौ दृ कोण इस कार है —‘‘शू यता करणों को िर नहीं करती, यों क करण वयं ही िर है।ं ’’11 ‘परम स य’ पर पर नभरता के जाल के बाहर के काय े क कोई अ य वा त वकता नहीं है, ब क सार और त वों स ब धी च लत बोधा मक सोच को शनै: शनै: ऐसी सोच मे ं बदलने वाला स ा त है जसमे ं ऐसी कोई भी इकाइयाँ अपने से ही अ त व मे ं नहीं है।ं 12 बु बताते हैं क सभी श ाएँ मु का ार खोलने के लए है,ं न क हण करने के लए और इ हे ं अपिरवतनशील नहीं बनाना चा हए।13 एक स कथन है क ‘‘अधम का तो या कहना य को धम का भी पिर याग कर देना चा हए।’’ मु के वचारों को भी उसी तरह छोड़ देना चा हए जस कार उ े य क पू त के प ात ं ‘‘ जनमे ं शू यता के सहज अ त व बेड़े को छोड़ दया जाता है। नागाजुन कहते है— का वचार हावी है वे असा य है।ं ’’14 दू सरे श दों मे,ं शू यता को एक तरह क ‘चैत य थ त’ या एक व तु जो वयं अ त व मे ं है, मान कर उससे चपके रहना एक कार से झू ठ से चपके रहने जैसा है। ‘दु:ख’ श द को सामा यत: प मी अथ मे ं ‘पीड़ा’ के प मे ं गलत अनुवा दत कया जाता है। यह अनुवाद अपया है। दु:ख वह मानवीय थ त है जसमे ं य सं सार और वयं को व-अ त व इकाइयों के प मे ं देखता है। इस सं ाना मक दोष के कारण हम व तुओ ं से आस हो कर उ हे ं पाने क इ छा करते है।ं इन इ छाओं क पू त अस भव है, यों क (तृ के लए) ज हे ं हम पाने का य न करते हैं वे अ त व मे ं हैं ही नहीं। यों क येक व तु जसका हमे ं भान होता है वह सबके साथ पर पर आ त है, इस लए कसी व तु को पृथक करके ा करना अस भव है। यहाँ तक क अ मता जन व तुओ ं को पाने क लालसा करती है वे भी ै ो ी ैं औ ो े

अ ततोग वा अ त वहीन हैं और इस लए उसको स तु करने का यास यथ है। ु टपू ण वचारों से उ प हु क कर भावनाओं और दु:खों से मु बु य रहता है।

दो स य और स दभ सभी करण पर पर नभरता मे ं उ प होते हैं और इस लए सारत व से र हत है;ं वे केवल सापे य प से अ त व मे ं है।ं अ तम अथ मे ं ये समझ से बाहर हैं यों क व- कृ त का अभाव इ हे ं सभी य गत वशेषताओं से र हत बनाता है। यह यथा थ त ही वैचािरक वणनों से र हत परम वा त वकता है। इस लए सापे य अ त व को समझने के लए त यों को दो वा त वकताओं (सापे य और अ तम) के स दभ मे ं समझना होगा। ‘‘धम इन दो वा त वकताओं पर आधािरत है— सां सािरक पर परागत वा त वकता तथा े परम वा त वकता।’’15 सापे य वा त वकता का े भाषा और अवधारणा का े है जो क मू ल प मे ं ृ ला का वषय है। परम स य अ त वहीन है और पर पर नभरता क अन त ं ख ‘‘शा तपू ण है, मान सक सं रचनाओं ारा गढ़ा हुआ नहीं, न ही सोचा हुआ और न ही व श ताओं के साथ’’।16 इस लए ववरणों के स दभ क पहचान करना मह वपू ण है जो सापे य या परम वा त वकताओं से स ब ध था पत कर पाये।ं य द ऐसा नहीं कया गया तो फर म और वरोधाभास उ प होगा। म य माग िर ता ही पिरवतन और या को स भव बनाती है। नागाजुन इस बात को समझाते हुए कहते हैं क सार के होते हुए अ त व अथहीन है यों क तब पिरवतन अस भव होगा। अ नवायतावा दयों क स ा मीमां सा मे ं याएँ स भव नहीं हैं यों क व तुओ ं के वाभा वक य गत अ त व क अवधारणा उ हे ं स भव बनाने वाली पर पर याओं और नभरता को रोकेगी। दू सरे श दों मे,ं य द करण िर न हो कर वाभा वक प से व मान होते तो पिरवतन क कोई स भावना न होती और ा ड थायी प से जड़ और अपिरवतनशील होता। अत: िर ता और सहउप नभरता ही करणों के अ त व क स ी कसौटी है,ं न क उनका वअ त व। वे कहते है,ं ‘‘य द सार होगा तो समू चा सं सार अज मा, अचल और जड़ ही रह जायेगा। पू रा सं सार अपिरवतनीय होगा।’’ नागाजुन का सभी कृ म एकताओं के लए यह बड़ा झटका है, यों क वे पृथक त वों को ले कर एकता को खोजते है।ं उन अ नवायवा दयों के लए जो िर ता को भू ल से शू यवादी और उसे ं ‘‘य द िर ता याशीलता का अ त मानते है,ं नागाजुन यह ख डन तुत करते है— को अ वीकार कर दया जाये तो कोई भी या उपयु नहीं होगी। तब कोई भी या जो ार भ न हुई हो नहीं हो सकेगी और बना या के कारक तुत रहेगा।’’17 औ



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और फर य द (यह सं सार) िर न होता तब या बना कसी लाभ के होती। ऐसी थ त मे ं दु:ख को समा करने और लेश तथा अप व ता को मटाने का काय ही नहीं हो सकेगा।18 नागाजुन प करते हैं क ‘अ य इकाइयों पर नभरता से जो भी सृजन होता है उसे हम िर ता के प मे ं समझ सकते है।ं यह नाममा का अ त व है और यही वा तव मे ं म यमाग है’।19 म य अव था का अथ है क करण नाममा को अ त व मे ं है और न तो अ त व क और न ही अ त वहीनता क अवधारणा व तुओ ं क ं ‘‘ऐसा कहना क ‘यह है,’ वा त वकता पर लागू होती है। वे सं प े मे ं कहते है— थरता को पकड़ने जैसा है। जब क ऐसा कहना क ‘यह नहीं है,’ शू यवाद के दृ कोण को अपनाने जैसा है। इस लए बु मान य ऐसा नहीं कहता क 20 ‘अ त व है’ अथवा ‘अ त व नहीं है’।’’ अपने पहले वचन मे ं बु ने म यमाग के नै तक ता पय क या या करते हुए बताया था क यह माग सुख स ब धी कामुक आ म-भोग तथा व-पीड़नयु आ मपीड़ा क पराका ाओं के बीच का रा ता है।21 इस स ा त का दाश नक त प समथन और असहम त के छोरों को यागता है, एक था य व के दृ कोण क ओर जाते हुए है जब क दू सरा शू यवादी दृ कोण क ओर।22 यह म यमाग का तक है जो चरम थ तयों को टालता है। अत: ‘दु:ख’ या है, इसका कारण या है और इसे समा करने का माग या हो, यह समझ दाश नक सू नहीं ब क यावहािरक है, अथात् पिरवतन के उ े य के लए है। सनातन अ त ववादी इकाइयाँ और शू यवाद क दो चरम अव थाएँ मनु य के मानस मे ं जड़े ं जमाये हुए है।ं वे अपने को केवल सामा य जीवन मे ं ही य नहीं करते ब क होने और न होने क दाश नक अवधारणाओं मे ं भी करते है,ं जैसे ‘है’ और ‘नहीं है।’ बु अ ा नयों के अ त न हत मनो व ान को स बो धत करते हैं जो हैरानी और स देह से उस समय मत होते हैं जब अ त व और अ त वहीनता क अवधारणाओं के अनुसार व तुए ँ अ ततोग वा वा त वकता के अनु प नहीं होतीं। अ तवादी दृ कोण क क ठनाइयों से बचने के लए य को सभी करणों क सह-उ प नभरता क कृ त को समझना चा हए।

कुशल साधन—स दभ का यावहािरक उपयोग दो स ाइयों के होते बौ माग क स दभशील कृ त ‘कुशल साधन’ नामक एक यावहािरक व ध को इं गत करती है।23 बु बताते हैं क उपदेशों को य क बु और यो यता तथा समय, थान और पिर थ त क कृ त के अनु प नधािरत कया जाता है। उदारता, नै तकता और धम के मक नदश क अ यापन-कला का उपयोग य के तर के अनु प अ यापन के कई तरों से गुजरता है। ों









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यों क मो क आशा रखने वाले चेतन ा णयों क सं या अन त है, इस लए मो के साधन भी अन त होने चा हए और जब जीवों का वभाव, मता, यो यता और म भी अन त प से व वध हैं तो बो धस व को भी येक मामले के लए उपयु य गत साधन पर वचार करना होगा। यह बो धस व के सामने एक क ठन चुनौती तुत करता है जो एक बु गु है,ं ज होंने यह वचन दया है क ं ।े मा जब तक येक जीव दुखों से मु नहीं हो जाता तब तक वे ज म लेते रहेग सावभौ मक क णा पया नहीं है जब यह केवल भावनाओं और आवेगों पर उतर आती है। य यों और करणों क आ म- कृ त क िर ता के वषय मे ं बो धस व को अपने ववेक का योग करना चा हए। अ तत: कुछ य यों का उ ार नहीं होना है यों क वयं , य और जीवन सभी वैचािरक सृजन हैं जो याओं को जड़ बना कर थायी त व बनाने के पिरणाम है।ं फर भी चेतनशील जीवों के दुखों के त अपनी महान क णा के कारण वे एक भी ाणी का पिर याग नहीं करते, य प सभी जीव स य के सापे य तर पर ही अ त व मे ं है।ं य द वे ‘चेतनशील जीव’ क अवधारणा को ल त करते तो वह उन क सहायता करने मे ं एक बाधा बन जाता। ‘जीवों का अ त व नहीं है’ के परम स य को उ हे ं अपनी महान क णा के सापे य स य से लगातार स तु लत करना पड़े गा। येक य के स दभ मे ं उ हे ं य गत प से उ चत उपचारों का उपयोग करना पड़े गा।

तक क चतु कोटी अपने गहन दाश नक कौशल और ती ण बु के ारा नागाजुन ने एकता स ब धी सम या के त अपना वयं का दृ कोण वक सत कया और भ ता तथा समानता को कैसे ठ क से समझा जाये के त गहरी समझ क दृढ़ नींव रखी। वा त वकता को पया प से कसी आं शक दृ कोण से बताया या समझा नहीं जा सकता और सम ान के लए व वध दृ कोणों पर वचार करना आव यक है, य प वा त वकता अ तत: कसी भी चिर - च ण से परे है। तक के ये सभी प केवल ग़ैर-अ नवायतावाद तथा ग़ैर- व श तावाद क चौखट के अ तगत ही समझे जा सकते है।ं भारतीय तकशा मे ं वरोधाभास और (अर तुवादी) ब ह कृत म य के स ा त केवल समयानुसार और स दभशील थ तयों मे ं ही लागू कये जाते है,ं न क प मी दशन के पू ण- नधािरत और नरं कुश तरीके क तरह। दू सरे श दों मे,ं अ मतास ब धी येक श ा के लए समय, थान, पिर थ त और म य थ के त सं वद े नशीलता आव यक है। बु के ‘अना म’ के मू लभू त स ा त क श ा के वषय मे ं नागाजुन एक चौंकाने वाला व य देते हैं क ‘‘अ मता के होने के बारे मे ं श ा दी गई और बु के अना म स ा त के साथ-साथ न ही आ म और न ही अना म क भी श ा दी गई ै ै ैं ें ऐ ो ो ी

है।’’24 इस कार ऐसा लगता है क जो बलकुल वरोधाभासी स ा त हैं उ हे ं सखाया जाता है। य क अव था के अनुसार वरोधाभास के चरम छोरों मे ं से येक छोर का उपयोगी थान हो सकता है और कसी छोर को भी सभी पिर थ तयों मे ं पू ण प से ख़ािरज नहीं कया जा सकता। वै ा नक भौ तकवादी जैसे अ तवा दयों के लए जो अ मता के त शू यवादी दृ कोण रखते है,ं आ मअवधारणा क पार पिरक उपयो गता पर ज़ोर देना ‘कुशल साधन’ है। आधु नक मनो व ान इसे अ मता के सं ाना मक बेसरु ेपन और उसके वख डन को रोकने के लए अहम के सकारा मक वकास के प मे ं मानता है जो आगे चल कर मान सक बीमारी बन सकती है। इसके वपरीत जो आ मा को मू त प देना चाहते हैं उ हे ं उनक अ नवायतावादी सोच के तकार के लए अना म के स ा त क श ा दी जाती है। नागाजुन इं गत करते हैं क आ म अथवा अना म क धुिरयों से भी अ धक गहरा स य व मान है। य द कसी को आ य हो क ऐसा कैसे तकसं गत हो सकता है तो उसे यह समझने के लए सही/गलत के उस -आधारी तक के परे जाना होगा जससे हम पिर चत है।ं अ धकां श भारतीय धा मक दशनों मे ं भारतीय शा ीय तक, वशेषकर नागाजुन से जुड़े स दायों मे,ं कसी भी ताव को चार स भावनाओं अथवा चरम छोरों के एक ं सय चौखट के प मे ं देखता है (पू व उ खत चतु को ट)। चार स भावनाएँ है— (और झू ठ नहीं); अस य (और सच नहीं); दोनों स य और अस यय और न ही स य है और न ही झू ठ। भारतीय तकशा एवं त व- ान णा लयाँ येक सम या को इन चार वक पों मे ं वभा जत करती है,ं न क केवल सही/गलत मे।ं इन चारों स भावनाओं को वीकार या अ वीकार करने से पहले येक का व लेषण करने क आव यकता पड़ती है। बौ धम ने इन स दयों पुरानी चार-वैक पक णा लयों को पिर कृत करके औपचािरक प दया।25 इसे यावहािरक पिर थ तयों मे ं स दभशीलता उ प करने मे ं योग कया जाता है। सभीता कक वक पों को समा करने के कये तक-शा ीय य के प मे ं बौ धम क इस चतु को ट का उपयोग कया जाता है। यह दृ कोण शू यता क िर ता के स ा त से जुड़ा हुआ है, अथात् शू यता क अवधारणा का भी अमू तकरण। यों क अ मता और अना म दोनों ही यावहािरक उपा धयाँ है,ं अत: उनसे जो कुछ भी स ब धत होगा वह भी यावहािरक होगा। त व- ान के चरम दृ कोणों के तकार के लए अ मता के चारों वक पों का येक स ा त व लेषणा मक और यावहािरक प से लागू कया जा सकता है। हालाँ क इनमे ं से कोई भी दृ कोण कसी वा त वक ईकाई को स द भत नहीं करता जो व लेषण ारा दख सकता हो।

ह दू और बौ धम मे ं अ मता क अवधारणाए ँ ऐ









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ऐसा तीत होता है क बौ धम मे ं य परकता और चेतना क अवधारणा को समा करने के लए अ मता को पाँच समू हों मे ं वख डत कया गया—आकार ( प), भावना (वेदना), सं ान (सं जना), मान सक सं रचना (सं कार) और चेतना ( वजनान)। इसके ‘अना म’ के स ा त को ह दुओ ं के भारी तरोध का सामना करना पड़ा यों क यह ग़ैर-बौ अ मता (आ मा) और पु ष (परमा मा) के भारतीय दाश नक वचारों से पू णतया भ है और उनका ख डन करता है। इस पिर े य मे ं तीखी बहस के के सार ( वभाव) तथा अ त व (सदभाव) स ब धी न थे। आ म नरी ण और व लेषण ारा बौ ों ने तक दया क अ मता म त है और नभरता से उ प हुई है और इस लए एक आक मक और णक घटना है। पर तु भारतीय दशन मे ं दू सरी णा लयाँ भी हैं जो मनोवै ा नक अहम् (अहं कार) के लए इसी तरह के अवा त वक तक देती है,ं य प त व- ान वषयक अहम् के लए नहीं। उदाहरण के लए पतं ज ल अनुभवज य चेतना के मनोवेगीय स ा त (केवल सं रचना मक नहीं) को तपा दत करते हुए यह तक देते हैं क मन और मान सक याएँ उस समय क ( च -वृ - नरोध) जाती हैं जब दृ ा (पु ष) और दृ क श (दृग-दृ य- ववेक) को अलग कया जाता है। वचार ( ज हे ं वृ कहा गया है) उस समय समा हो जाते हैं जब पु ष क शु चेतना वयं मे ं ही समा जाती है। यह अवधारणा बौ धम के उस दृ कोण के सम प है जसके अनुसार बु क वा त वक कृ त न कलं क और चमक ली होती है, पर तु आक मक दू षण के ँ ली पड़ जाती है। कारण धुध वेदा त मे ं भी मनोवै ा नक अ मता गलत पहचान से उ प करण है; जब सही ान ा होता है तब र सी को साँप समझने जैसा म समा हो जाता है। इसके अ तिर आ मा के पं चकोष मे ं होने के वेदा त- स ा त के समक पाँच समू हों (पं च- कंध) से बना तथाक थत बौ स ा त है।

जैन धम—पर पर स मान के व वध द ृ कोण जैन धम क गहरी जड़े ं ाचीन भारत मे ं हैं और इसने कई शता दयों तक अपना मह वपू ण भाव डाला है। हालाँ क इसका वै क दृ कोण अ य भारतीय धा मक पर पराओं से भ है, फर भी ह दू और बौ स दायों मे ं पायी जाने वाली अ भ एकता इसमे ं भी पाई जाती है। जैन धम का एक मुख स ा त यह कहता है क वा त वकता य परक है, यों क यह सापे य न क थर दृ कोणों ारा समझ जाती है। इसे ‘नयस का स ा त’ कहा जाता है। ‘नय’ वह स दभ ब दु है जस से नणय कये जाते है।ं कुल सात कार के ‘नय’ हैं और कसी एक व तु के गुणों को च त करने के लए इन सभी का उपयोग कया जाता है।26 यह ‘अनेका तवाद’ के स ा त क ओर ले जाता ै





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है जसके अनुसार न कष को व वध दृ कोणों को यान मे ं रख कर नकलना चा हए। इनमे ं से येक दृ कोण स दभ और य क पृ भू म से नधािरत होता है। इस लए जैन धम का एक और मह वपू ण स ा त कहता है क सम त ान केवल स भा वत (शायद-वाद) या आं शक है। जसे हम पू ण स य अथवा यावहािरक ान मानते है,ं उसके आर भ मे ं आव यक प से ‘शायद,’ ‘स भवत:,’ ‘कारणवश’ जैसी अवधारणाएँ जोड़नी पड़े ंगी। यहाँ न हताथ यह है क सम त ान दृ ा के स दभ मे ं सापे य या आक मक होता है जससे पू ण ववरण देना अस भव है। ‘शायद-वाद’ और ‘अनेका त-वाद’ के ये वचार जैन धम क ासं गक एवं ग़ैरनरं कुशतावादी दृ कोण के आधार है।ं अत: जैन धम उस दृ कोण क णा लयों का वरोध करता है जो वा त वकता को केवल एक न त कृ त का होने का दावा करते है।ं ऐसी णा लयों को ‘एका तवाद’ नाम से स द भत कया गया। अर तू वादी (Aristotelian) तक तथा बाइबल क अ तीयता इस कार क न त कृ त के मु य उदाहरण है।ं ‘नय’ स ा त मे ं व णत वा त वकता के अनेकों प कसी के बारे मे ं भी प समथन या असहम त य करने नहीं देत,े यों क वा त वकता क कृ त इतनी ज टल है क उसे कसी एक पिरभाषा या वशेषण मे ं नहीं बाँधा जा सकता। ‘परम स य’ को उसी मु आ मा ारा समझा जा सकता है जो सभी स भावनाओं पर एक साथ वचार करने क मता रखता हो। आलोचकों ने तक दया है क इस स ा त से कसी एक करण के बारे मे ं वरोधाभासी पिरणाम मलते है।ं जै नयों का उ र है क इन वरोधाभासों से केवल तभी बचा जा सकता है जब ववरणों को व वध दृ कोणों से तुत कया जाये जससे कसी एकतरफ़ा या वशेषा धकार ा दृ कोण के बजाय यापक पिरदृ य ा हों। जैन तक यह मानता है क एक ही व तु, एक ही अथ, एक ही थान और समय के बारे मे ं वरोधाभासी ववरण अ वीकाय है।ं दये गये स दभ मे ं कसी व तु के बारे मे ं वसं ग तयाँ केवल व भ दृ कोणों के वचारों मे ं ही हो सकती है।ं जैन तकशा ी इस पू वधारणा पर टके हैं क कोई ‘पिरशु सारत व’ नहीं है और वरोधाभास स ब धी आरोप उस पर लगाते हैं जो यह दावा करता है क उसी का दृ कोण स दभ-मु और पिरशु है। इस कार जैन तकशा , बौ धम का मा य मका तकशा तथा व भ ह दू धम तक- णा लयाँ उस स दभ पर बल देती हैं जसमे ं वा त वकताओं को जाना जा सकता है। येक णाली योग, यान और उनसे जुड़ी हुई साधनाओं ारा इन स दभ के ब धन से पार होने का माग भी तुत करती है।ं जहाँ तक इ हे ं ‘परम और पू ण स य’ जैसा तुत करने का न है, अर तू वादी के ब ह कृत म य के स ा त और बाइबल क अ तीयता क तानाशाही को धा मक तक प प से अ वीकार करते है।ं

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पिर श ख धा मक एवं इ ाहमी पर पराओं क प तयों का णालीय ँ ा ढाच

भारतीय धा मक त वमीमां सा को वा तुकला के एक ऐसे ढाँचे क तरह माना जा सकता है जसमे ं समान स ा तों, तीकों तथा तकनीकों को मानने वाले उन व भ ँ ने के स दायों को समाया हुआ देखा जा सकता है जो चेतना के उ तरों तक पहुच लए रचे गये है।ं इसक कोई सटीक पिरभाषा देना न:स देह ही अस भव है, यों क भारतीय धम स ा तों एवं योग क तकनीकों का वृहत समू ह है। यह पु तक मेरे पछले दो दशकों क ज ासा का पिरणाम है जसके ारा मैनं े भारतीय धा मक सं रचना को उसके लचीलेपन और व वधता के साथ याय करते हुए पिरभा षत करने और उसक व श ता को नकारने वाले समानतावादी दृ कोण से बचने का यास कया है। कोई भी बहुत कार के सं घटक जैसे ड क ाइव, न, ऑपरे टं ग सॉ टवेयर, मेमोरी काड, टर इ या द को चुन कर व भ कार के सं गणकों (computers) का नमाण कर सकता है। येक कार का सं घटक व भ वशेषताओं के साथ व वध व े ताओं से उपल ध है, उदाहरण के लए व भ कार क न। इस लए सं घटकों का मेल करके कोई भी अन गनत स भा वत तरीकों से पू ण प से यव थत त - णा लयों का नमाण कर सकता है, हालाँ क सभी नधािरत समान मानक और सं रचना से यु है।ं उदाहरण के लए कसी नमाता क न को दू सरे के क -बोड से मलाया जा सकता है। कुछ ‘अपने से करने वाले’ कमठ बु उपभो ा ऐसे भी हैं जो सं घटकों का चयन करके सं गणक बना लेते है।ं दू सरे लोग व सनीय व े ता— स टम इं टी ट े र— ारा बने-बनाये सं गणक पर नभर रहने को अ धक पस द करते हैं जो अपने उपभो ा के अनुकूल सं घटकों का चयन करके पू री णाली तैयार करता है। ‘ स टम इं टी ट े र’ एक म य थ है जो अपने ाहकों के बहुत से ज टल वक पों क चयन याओं और दु वधाओं को सरल बनाता है। उसक भू मका तहरी होती है : (1) सं घटकों का चयन करके पू री णाली का नमाण करना, (2) णाली को था पत करना, और (3) उसक पहचान के लए एक यापािरक नाम देना। ह दू स दाय अथवा कोई य गत गु णा लयों को जोड़ने वाला (systems integrator) है जो कसी भ के आ या मक जीवन के उपयु व भ सं घटकों का चयन करके उ हे ं ‘समाधान-परक पू ण त ’ (total system solution) के प मे ं सं यो जत करता है। वह दी ा एवं श ण ारा ऐसा करता है और सहयोग जारी रखता है। बहुत से स दाय यापािरक नामों (◌ंbrand name◌े) जैसे है,ं यों क वे ी ों





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न त तीकों, पोशाक के तरीके आ द से च त और पहचाने जाते है।ं इस नमू ने के ं आधार पर हम भारतीय धम-पर परा को इस कार दखा सकते है— (क) य के सां सािरक जीवन हेत ु मागदशन के साथ-साथ आ या मक खोज के लए खुली सं रचना—नये आपू तकताओं ारा समय के साथसाथ बहुत सारे और नये वक प जोड़े जाते है।ं (ख) य गत पस द पर आधािरत व वध कार के सं घटक, जो सं रचना के अनु प है,ं का जोड़ा जाना। य अपने ‘इ देवता’ और अ य देवताओं, कम-का ड, स ाह मे ं कस दन त रखना है (य द रखना चाहे तो), तीथ थलों, उ सवों, प व थों, ा डीय दृ कोण इ या द का चयन कर सकता है। व वध कार के सं घटक जो इस सं रचना के अनु प होते है,ं बहुलता दान करते हैं और येक सामा जक स दभ एवं काल के अनुसार बहुत से सं घटक न मत कये जाते है।ं (ग) स दायों ारा उपल ध ‘पहले से ही तैयार’ (pre-packaged) धा मक णा लयाँ जनमे ं से येक स पू ण-जीवन का समाधान दान करती है।ं यह उस साधक के लए है जो उपल ध वक पों मे ं से वयं का आ या मक माग नहीं चुनना चाहता या चुन ही नहीं सकता। (घ) बु साधक के लए ‘अपने से करो’ (do-it-yourself) वाला वक प जो सभी आपू तकताओं से परहेज करता है। इस वक प के साथ काम करने के लए इस साधक को अपनी साधना मे ं पिरप व होना पड़े गा। (च) व वध शोध एवं वकास त ान ( य गत या स दाय) समय-समय पर नये वचार और प तयों को सामने ला कर सबके लए उपल ध करवाते है।ं बहुत से नवाचार असफल हो जाते हैं जब क कुछ सफल भी होते है।ं (छ) अ तजाल (Internet) क तरह इस धम णाली का कोई के , मा लक या सं थापक नहीं है और वैक पक ताव सदैव तक- वतक और पिरवतन से गुजरते रहते है।ं यहाँ ऐसा कोई भी श -के नहीं है जसने सभी भारतीय धा मक साधकों के लए कभी भी ‘ या सही है’ का नणय कया हो। कोई भी अ य वक पों को ख़ म करने मे ं स म नहीं हो सका है। अ वीकृत अवयवों को न करने (जैसे पु तकों को जलाने) का कोई इ तहास नहीं रहा है; जब साधकों ारा नये अवयवों को अपना लया जाता ँ ले पड़ जाते है।ं उपभो ाओं और है तो पुराने अपने आप ही धुध आपू तकताओं का बाज़ार हमेशा स य रहा है और धा मक शासकों ारा नरं कुश श के योग से कुछ भी नहीं सुलझाया जा सका है। ी















(ज) इस खुली सं रचना वाली णाली का सफलता से उपयोग करने के लए उसके इ तहास का अ ययन करना आव यक नहीं है, वैसे ही जैसे अ तजाल (Internet) कसने बनाया और इसके ार भ होने क दू सरी सामा य बाते।ं ऐसी सं कृ त का बहुत से नवाचारों ारा सतत् पुन नमाण होता रहता है जो अ या शत तरीकों और थानों मे ं कट होते रहते है।ं यह णाली वयं -सं शो धत और अनुकू लत होती रहती है और कसी इ तहास- वशेष क अ नवायता तथा दीघका लक अ तीयता क सम याओं से बची रहती है। ज टल नों के स भव एवं व वध उ रों के त खुलप े न क भावना के कारण ही भारतीय धम क अवधारणा मे ं बहुलतावाद क जड़े ं गहरी समायी हुई है।ं यहू दी-ईसाई मतों मे ं मौ लक शोध एवं वकासया के अभाव के कारण इस हद तक बदलने क और इसी तरह के वक प और खुलापन दान करने क मता नहीं है। जैसा क हमने देखा है, वे यह व ास नहीं करते क स य के ाथ मक स ा तों क खोज य वयं कर सकता है; इसी लए व श ऐ तहा सक घटनाओं के दावे करने क उनक ववशता है। अपनी इस सं क ण मनोवृ त के कारण वे बल देते हैं क उनके उ पाद के अ तिर बाक सब अनु चत है,ं एक एका धकारवादी यवहार। उनके पास वैसे साधन और तकनीकें नहीं हैं जैसी क भारतीय धा मक पर पराओं ने कई शता दयों के यासों से वक सत क है।ं जहाँ एक ओर भारतीय धा मक पर पराएँ अमरीका- थत स लकॉन वैली (Silicon Valley) क नवीनता और वत ता लए हुए है,ं वहीं यहू दी-ईसाई मत नय त और सरकार ारा चलाये जाने वाले एका धकारवादी चलन जैसे तीत होते है।ं जस कार सो वयत सं घ एक ही हवाई क पनी (airline), एक ही कार क कार, एक ही द तमं जन इ या द क अनुम त देने पर व ास करते थे (जब क अस लयत यह है क उपभो ा क कई आव यकताएँ होती है)ं उसी कार अ धकां श ईसाई लोग प थ को एक ही प त से जानने क अनुम त देने पर व ास करते है;ं बहुत-सी यहू दी पर पराएँ भी ऐसा ही करती है।ं जस कार ईसाई सं थानों ने आ या मक साधकों (अथात शोध एवं वकासया क योगशालाएँ जहाँ नई प तयों क खोज होती है और पुरानी को चुनौती दी जाती है) पर एक-तरफ़ा तब ध लगाये है,ं उसी कार सो वयत शासकों ने उ ोग उप म क अनुम त नहीं दी, यों क इससे उनके एका धप य को ख़तरा पैदा होता। लचीलापन ग भीर चुनौ तयों का सामना करके आता है। ह दू और बौ धम मे ं एक नहीं ब क अनेकों थ हैं और येक एक ही न का अलग-अलग समाधान तुत करते है।ं तो यह न खड़ा होता है—जब यहाँ ऐसे मामलों मे ं म य थता करने और नदश देने के लए कोई एक आ धकािरक स ा नहीं है तो फर साधक सही ी



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पु तक का चुनाव या सही साधना करने का नणय कैसे करे? इसका उ र यह है क धा मक पर पराओं मे ं कम-से-कम तीन वक प हैं जनमे ं से साधक वशेष पिर थ त के लए ‘नै तक या है’ का नणय कर सकता है—ये हैं शा , साधना-पर परा (स दाय अथवा गु ) और अपनी साधना से चेतना के उ तर को ा करना। धा मक पर पराओं मे ं ऐसे कोई नै तकता के था पत सू नहीं है ज हे ं बना देख-े समझे ‘सावभौ मक’ माना जा सके। ह दू नै तकता के इस ासं गक आधार (अ य धक उ र-आधु नक वचार) को था पत करना बहुत मह वपू ण है, यों क ईसाई मत- चारकों क मु य आलोचना यह है क ह दू धम नै तक सापे यवाद (moral relativism) से पी ड़त है। सापे यवाद के इस आरोप को ाय: ऐसे तरीकों से य कया जाता है जससे वह गलतफ़हमी मे ं वा त वक लगे, जैसे लाखों देवता, ढे र सारे शा , बहुत से गु , पू ण वत ता इ या द। धम क ासं गक कृ त क चचा अ याय चार मे ं क गई है।

Introduction

NOTES

1 The term ‘Abrahamic religions’ is often used when Judaism, Christianity and Islam are all to be referred to as a group.

1: The Audacity of Difference 1 (Friedman 2005). 2 As a recent example of such views, here is what the New York Times wrote: ‘… culture … has only atomized lately as a consequence of the very same globalizing forces that purportedly threaten to homogenize everything. […] Nationalism, regionalism and tribalism are all on the rise. Societies are splitting even as they share more common goods and attributes than ever before. Culture is increasingly an instrument to divide and differentiate communities.’ (Kimmelman 2010: 19). 3 (Weiming n.d.). Also see (Liu 2003). 4 The scholar was Jay Garfield, and we had this discussion at the Vedanta Congress in the summer of 2009 at the University of Massachusetts, Dartmouth. A concrete example showing the importance of preserving difference is that of healing systems throughout the world. Each brings something useful to the table because of its distinct models and approaches. Western medicine, Indian Ayurveda and yoga, and Chinese medicine and acupuncture all provide unique solutions for certain types of diseases and wellness management. Yet none can be properly mapped onto another’s framework without compromise. What is needed is not a cut-and-paste insertion of these practices into a Western model of medicine but an understanding of the integrity and utility of each system’s own model and the philosophy behind it, so as to give it a place alongside Western systems. 5 Tolerance became a serious topic of discussion in Christianity only in the sixteenth and seventeenth centuries in response to the Wars of Religion, which started following the Protestant Reformation. 6 (Ratzinger 2000). 7 For details on the Emory Inter-Religious Council, see: (Emory InterReligious Council n.d.). 8 She was joined by Prof. Deepika Bahri, who had recently been appointed director of the Asian Studies Program. This was Emory’s response to severe criticism of its Hindu-phobia, offered in the hope that Bahri’s soft-spoken nature, Indian language skills, and Hindu name would placate Hindu parents who had protested against Emory. (Ramaswamy, Nicolas and Banerjee 2007). 9 For instance, when asked about what happened to Mahatma Gandhi after his death, theologians of some Christian denominations insist that Gandhi went to Hell because he was not Christian. For examples of such interpretations, see: (Weiss 2007). 10 The other question I asked the dean was: ‘How would you balance between respect for a religion on the one hand and academic freedom on the other, especially when a professor at your university claims that Ganesha’s trunk symbolizes “a limp phallus”, that he has “an appetite for oral sex”, and that Shiva is a “notorious womanizer” ’ (For details on this anti-Hinduism scandal at her university, see: www.invadingthesacred.com.) The dean was pleasant but evasive, remarking that these important questions had to be ‘considered’ but that there were ‘no easy answers’. 11 (Haag 2008, Oct/Nov, 2-3).

12 To take only one example, Christians, from the Spanish conquistadores to the Protestant Puritan settlers, supported and even encouraged the genocide of Native Americans. The conquistadores believed that the Native Americans were related to them in the same way that children were to adults, women were to men, and savages or wild beasts were to civilized people. Since their weakness led them to worship ‘false gods’ and promote heathen practices, they had to be either forcibly converted or killed outright. These projects of eradication resulted in the elimination of whole cultures. Slavery and colonization were sometimes rationalized by church officials, though, of course, economic motives were always present. Such practices are deplored today in politically correct circles, and yet the underlying religious and philosophical rationales for them remain, for the most part, unchallenged and unchanged. 13 (Balslev 1991). 14 (Balslev 1991). 15 Rorty claims that ‘freedom and equality are the West’s most important legacy’, to which he arrogantly adds: ‘I do not have philosophical backup for this claim, and do not feel the need of any.’ The West, Rorty writes, ‘has created a culture of social hope’ which makes it ‘a culture of experimentation’ for bringing about ‘drastic change in the way things are done’. In other words, it is politically progressive. This he contrasts with India’s ‘consensus that the conditions of human life are and always will be frustrating and difficult.’ He goes on to describe India in patronizing tones as the ‘high culture of a peaceful society’ that wants to remain stuck under ‘priests’ and ‘sages.’ A visit to India convinces him that India is ‘a country whose native traditions have little to do with the Western hopes of freer and more equal future generations.’ (Balslev 1991: 17–25). 16 For a detailed discussion on how Indian philosophy has been marginalized in the American academy, see: (Shruti 2005). 17 Concerning Indian contributions to mathematics, Albert Einstein, a great admirer of Indian scientific achievements, philosophy and spirituality, is quoted as saying: ‘We owe a lot to Indians who taught us how to count, without which no worthwhile scientific discovery could have been made.’ In a similar vein, the British historian of India Grant Duff says: ‘Many of the advances in the sciences that we consider today to have been made in Europe were in fact made in India centuries ago.’ The influential American writer Mark Twain travelled extensively in India and spoke broadly about the achievements of ancient India. He said: ‘India is the cradle of the human race, the birthplace of human speech, the mother of history, the grandmother of legend, the great grandmother of tradition. Our most valuable and most constructive materials in the history of man are treasured up in India only.’ The popular American historian Will Durant echoes Mark Twain’s admiration for Indian achievements in his Story of Civilization: ‘India was the mother of our race and Sanskrit, the mother of Europe’s languages. India was the mother of our philosophy, of much of our mathematics, of the ideals embodied in Christianity, … of self-government and democracy. In many ways India is the mother of us all.’ For these and other quotations on the same theme, see: (sciforums.com 2001). 18 (Balslev 1991: 53). 19 (Todorov 1999: 308). 20 Even today the Catholic Church sees itself as the new embodiment of Israel, the chosen people, with a mandate to establish the kingdom of heaven worldwide, even though this mandate is currently understood to recognize the separation of church and state. Furthermore, the Catholic Church has a history of violent, as well as non-violent, repression of heresy. The political dimension inherent in such evangelizing is especially apparent in the intimate and ongoing collusion between the churches and secular state power.

21 The Vatican Directive Prot. N. 802/69 dated 25 April 1969, Twelve Points of Inculturation, applies officially in India. The Kerala church has a new curriculum in every seminary for training its clergy which includes symbolic use of the Hindu tradition of sanyas, bhajans, the gurukul system and Varnashram. The church calls this ‘Indianization’ (Anathkrishnan 2007). 22 (Pearson 1990: 123). 23 In his Annual Letter of 1651, Father Antony Proenca pleaded with his readers: ‘Among my readers, there will surely be some who could procure for us some lotion or ointment which could change the colour of our skin so that just as we have changed our dress, language, food and customs, we may also change our complexion and become like those around us with whom we live, thus making ourselves “all to all”, Omnia Omnibus factus. It is not necessary that the colour should be very dark; the most suitable would be something between black and red or tawny. It would not matter if it could not be removed when once applied; we would willingly remain all our lives the “negroes” of Jesus Christ, A.M.D.G. [to the greater glory of God].’ (Shourie n.d.). 24 (Samuel 2008). This Bible is called the New Community Bible. 25 (Malhotra and Neelakandan, Breaking India, 2011: 111–124). 26 There are many examples in popular culture of Indian mimicry due to inferiority complexes. The Times of India did a survey on the level of sexual satisfaction among its readers. Interestingly, the results were expressed in terms of ‘world standards’ on such things as frequency and ways of having sex. In their radio discussion on the survey, one female anxiously asked, ‘Sir, how are we doing compared to world standards ’ Critics have pointed out that auto manufacturers in India use Western anthropometric data, including details such as height, weight and key physical specifications of people who are likely to drive, or be driven around in, a car. In the absence of gathering Indian population data, car makers such as Maruti Suzuki India, Mahindra and Mahindra and Tata Motors rely on mannequins based on US, Japanese, European or Korean specifications. The American size of 6 ft and 75 kg does not suit Indian drivers in terms of brake and clutch operations. Women’s dress size standards in Indian metropolitan cities are European or American sizes, and likewise for shoe sizes. Even in describing weather, many Indians writing in English refer to hot sunny days as ‘nice days’ and rain as ‘bad weather’, an attitude reflecting the context in England where it is often rainy and the sun hardly shines, but out of context for hot climates where rain is a blessing and a celebration by nature and culture alike. The use of first, middle and last names by Indians of today has replaced the traditional use of village name or jati name. The adoption of the Western calendar has similarly undermined the native festivals that corresponded to the Indian seasons and the agricultural roles performed, such as planting and harvesting. The lure of Hollywood Oscars overrides native criteria for popularity and success among many new elite movie producers of India. This follows the trend in written works by Indian authors who often cater to Western tastes and stereotypes about Indians. Organizations such as the South Asian Journalists Association (SAJA) cater to Indians’ complex of feeling ignored. They make a big thing of Indians being invited by, included in, and even investigated by the American establishment as a mark of ‘having arrived on the world stage’. I have discussed this issue of whiteness complexes among Indians in various articles, and there is extensive literature on the wider subject of whiteness written by American scholars, both black and white. See (Malhotra, Whiteness Studies and Implications for Indian-American Identity 2007). Many Indian intellectuals have a Hegelian fear of being left out of history, an issue taken up in Chapter 4. Later on, Karl Marx modified this linear history into stages defined by class structures. To qualify for the revolutions leading to utopia, his system demanded that the starting point be a feudal system, and from there his class struggle system would move

society forward. This led many Indian historians and social scientists to work hard at characterizing Indian society as feudal, in order not to be left out of history. 27 In a separate volume titled U-Turn Theory, I cite numerous examples of this kind of digestion of Indian civilization into the West and illustrate the effect of such a process over time. 28 There are numerous examples where the conquering civilization gets significantly modified. Early Christianity digested pagan and pre-Christian traditions, and this brought Christmas and the mother/son icon and various other rituals and symbols into Christianity. The conquest of the Native Americans by Europeans introduced new agricultural foods into the rest of the world, including potatoes, tomatoes and corn. Similarly, Islam’s expansion into India allowed it to serve as the bridge between India and Europe, because Islamic scholars translated major treatises on Indian mathematics, astronomy and botany and retransmitted these to Europe, adding fuel to the scientific revolution. European colonization of India brought cross-cultural fertilization, as the Europeans learned steel and textile manufacturing, agriculture, medicine and shipbuilding from India. 29 Hegel is a good example of such a thinker, as explained in Chapter 4. 30 It is interesting to note that in the early UN debates on the legal definition of genocide, the notion of cultural genocide was proposed initially but then dropped, and only physical genocide was declared a crime. See Article 7 of the 1994 draft (later this article was deleted): (Draft United Nations Declaration on the Rights of Indiginous Peoples 1994). 31 Readers who need a brief overview of the dharma philosophies mentioned in this section might benefit by reading Chapter 3 first and, for a deeper look, Appendix A. 32 Besides the US and the European Union, jurisdictions which remain highly nationalistic include Russia, China, Japan and the Arab states. Each has an overriding grand narrative rather than multiple competing narratives, as in the case of India. 33 (Sardar 1998). 34 (D. Horowitz 1967). 35 (Malhotra and Neelakandan, Breaking India, 2011) For a short article, see: (Malhotra, We, the Nation(s) of India, 2009). 36 The same scholars promote the divisive and separatist movements on behalf of Dalits, Dravidians and minority religions by constructing elaborate histories, religions, linguistic models and political identities for them. The methodology is not being used to deconstruct minority identities in the same way. For instance, one could question whether a genuine Dalit identity exists at all, given that this is a recent category and those said to belong to it are from thousands of separate jatis across hundreds of miles of distance, with little if any historical contact and no commonality of religion, language or customs. In other words, contrary to the ideals of deconstructing boundaries, in the case of Dalits, Dravidians and certain other groups, their boundaries have been recently constructed using imported theories. This practice is rife in the field known as subaltern studies. 37 (Said 1979). 38 (Marriott 1990). 39 (Ramanujan 1990). 40 (Fox 1986: 20). Subjecting Western epistemologies to the scrutiny of Western viewpoints and ways of knowing introduces what sociologist Richard Fox has called a measure of ‘epistemic parity’.

2. Yoga: Freedom from History

1 (Sri Aurobindo: ‘On Himself ’, SABCL Vol.26, p.68). This is true even of Sikhism, which has a defined historical lineage of gurus but which does not claim that they are intermediaries in the individual practitioner’s self-realization of liberation. 2 For example, ethnographic studies in Nepal, Orissa and other regions reveal that Puranic stories served as generic templates, which were localized for each place, time and context. Into these, tribal deities were incorporated, thus becoming part of the Hindu–Buddhist mainstream. These deities had narratives, songs and rituals, and a special relationship with each locality. This assimilation of communities respected cultural specificities and was never just a ploy to gain a foothold so as to erase local traditions later. 3 (Lannoy 1971: 292). 4 (Aurobindo, Collected Works of Sri Aurobindo: Essays on the Gita, 1997: 15). 5 This occurred around Diwali, after the events of 11th September 2001, as part of the state governor’s programme to give state employees exposure to the major religions being practised in New Jersey. I was the featured speaker on Hinduism (‘Diwali Celebration’, 2001). 6 In Hinduism, for instance, the loss of history would never be permanent, as time is cyclical. The narrative goes as follows: After the dissolution of the universe, a new universe is manifested, and the first living being, Brahma, is self-born from a lotus flower which grows out of Vishnu’s navel. After meditation for 1,000 celestial years, there manifests in his heart the Vedic knowledge and the knowledge for recreating the universe. This is when creation takes shape. Thus, the highest knowledge is again recoverable (but, it should be stressed, only by qualified persons). 7 An excellent example is the ‘Pratyabhijna’ doctrine of ‘self-recognition’ which its Kashmiri founder, Utpaladeva (early tenth century ce), promulgated explicitly as a new and easy method open to all (despite its hidden philosophical sophistication and claims to fulfil all the doctrines that came before). There was thought to be no contradiction between its being revealed by a human being for the first time in a specific place and the timeless validity of its core insights and teaching. Nor is there an undue sense of catastrophe over a particular tradition being irremediably lost over time. 8 (The New Oxford Annotated Bible with Apocrypha: New Revised Standard Version, 2010). 9 Ronald Inden wrote a book to illustrate that Indian history can be accurately discovered in reliable records. (Inden, Walters and Ali, Querying the Medieval: Texts and the History of Practices in South Asia, 2000). 10 In contrast to the approach to Indian antiquity, the West has a well-established discipline of biblical archaeology in the academy, and in the popular imagination, history is propagated in such places as the History Channel on television. For decades, serious scholarship has been seeking physical evidence to match biblical references. In the West, this endeavour is highly respected, whereas in India comparable efforts tend to get dismissed as chauvinism. 11 (Aurobindo, Letters on Yoga, 1970: 425–27). He is referring to the popular stories about Krishna, saying that these do not occur in space time and that they are always occurring and available for us to actualize on earth. 12 Sri Aurobindo wrote on the historicity of Krishna and Jesus as follows: ‘The historicity of Krishna is of less spiritual importance and is not essential, but it has still a considerable value. It does not seem to me that there can be any reasonable doubt that Krishna the man was not a legend or a poetic invention but actually existed upon earth and played a part in the Indian past. Two facts emerge clearly, that he was regarded as an important spiritual figure, one whose spiritual illumination was recorded in one of the Upanishads, and that he was traditionally regarded as a

divine man, one worshipped after his death as a deity; this is apart from the story in the Mahabharata and the Puranas. There is no reason to suppose that the connection of his name with the development of the Bhagavata religion, an important current in the stream of Indian spirituality, was founded on a mere legend or poetic invention. The Mahabharata is a poem and not history, but it is clearly a poem founded on a great historical event, traditionally preserved in memory. Some of the figures connected with it, Dhritar Parikshit, for instance, certainly existed and the story of the part played by Krishna as leader, warrior and statesman can be accepted as probable in itself and, to all appearance, founded on a tradition which can be given a historical value and has not the air of a myth or a sheer poetical invention. That is as much as can be positively said from the point of view of the theoretical reason as to the historic figure of them, but in my view there is much more than that in it and I have always regarded the incarnation as a fact and accepted the historicity of Krishna as I accept the historicity of Christ’ (Aurobindo, Letters on Yoga, 1970: 425–27). 13 Raimundo Panikkar (1918–2010), a recognized authority on both Hindu traditions and Roman Catholic theology, provides a perspective on the relationship of time, history and culture different from that proposed in Judeo-Christian religions. The vision that a people has of its own history, argues Panikkar, suggests how their tradition understands their past and assimilates it into the present. But a people’s attitude to its history is determined less by written interpretations of that past than by their ways of life and how they relive or revisit it. India, for instance, has lived her memories of the past more through her epics than through the written records or documents of history. The lack of interest in literal historiography can be frustrating and upsetting to the Western mind. But the same Western mind, retorts Panikkar, fails to see that its own myths precisely are taken as history. (Panikkar 1979).384 Being Different 14 An award-winning book, Lies My Teacher Told Me: Everything Your American History Textbook Got Wrong (Loewen 1995), gives numerous examples of outright fallacious history which is taught in US schools and accepted as true by the public, especially as it pertains to centuries of encounters with Native Americans and African–Americans. 15 (M. King 1964: 147). 16 An arguable exception would be the Western ‘stages’ of civilization, such as archaic, magical, primitive, traditional, medieval, modern, and so on. These may not even be accurate in understanding Europe, yet they are being universalized and applied to all other civilizations. India does not neatly fit into these stages; it always has had many of the qualities of all such stages. For instance, Auguste Comte’s Law of Three Stages of Knowledge states that knowledge in all branches necessarily passes through theological (animistic), philosophical (speculative) and scientific (‘positive’) stages. Each subsequent stage is superior, and old knowledge is always obsolete. He concludes that the West is ahead of, and superior to, all other civilizations. For more analysis, see the following article available on the Internet: ‘Word as Weapon: The Polemically Charged Use of Terminology in Euro-American Discourse on Hinduism’ (Morales 2002). 17 (Guha 2002: 71-72). 18 Not all Christians believe in this part of the Bible, which was controversial even when the canon was formed. Although it seemed a genuine vision from a highly authoritative source (John of Patmos), it inflamed dangerous sentiments and was susceptible to misapplications. 19 (Gibbs 2002: 46-47). Also see: (Biema 2002). 20 (Gibbs 2002: 42). Also see: (Biema 2002). 21 (Thurman, Inner Revolution 1999). 22 (Ibid.: 211-212).

23 (Ibid.: 275-277). 24 (Ibid: 176). 25 Avidya should not be equated with original sin in Abrahamic traditions. Avidya implies no particular failure of morality or disobedience to an external deity, but rather a cognitive limitation, to be overcome by each individual even if it takes many lifetimes to do so; sin is a state of moral corruption which does indeed lead to moral blindness but needs to be addressed by repentance in the practitioner and forgiveness from the divine. 26 Anindita Balslev refers to this form of scientific inquiry as ‘second-order empiricism’, a unique achievement of Indic traditions. (Private communication). 27 (Wallace 2002: 12). 28 (Wallace 2002: 13-14). Another Western scholar who has specialized in bringing dharmic principles and meditation to modern cognitive psychology is Eleanor Rosch Heider, professor of psychology at the University of California, Berkeley. For an overview by her, see: (Rosch 1997). 29 The insistence on apostolic succession in the Church is supposed to guarantee transmission directly from person to person back to the first disciples of Christ, and this may appear to be an exception here. But in fact it functions more as a support for institutional claims than as a way of guaranteeing an embodied transmission of spiritual experience. 30 The Indian notion of body is that it is the integral being: the physical, emotional, mental, psychic and spiritual bodies and many intermediate pranic bodies or parts and planes of the being, all interlinked with each other, with the atman seen as both transcendental and immanent in the self. 31 Initially, there were seven rishis known traditionally as belonging to the ‘Northern list’ (possibly referring to the stars in the northern constellation of Ursa Major): Gautama, Bhardwaja, Vishvamitra, Vashishtha, Kashyapa, Angiras and Jamadagni. Later, another list of seven rishis evolved, which is known as the ‘Southern list’ (possibly referring to the stars in the southern constellation of Carine): Bhrugu, Angiras, Marichi, Pulastya, Pulaha, Kratu and Atri. 32 Dattatreya is an interesting example of someone who combines many subtypes. He is worshipped as a supreme deity by millions of Hindus. Originally a semi-divine rishi, he is ascribed great integrative force in the Markandeya Purana where he figures as the essence of Brahma, Vishnu and Shiva. His enormous fame as a great guru and yogi establishes links with Buddhism (identified as Devadatta in the syncretic milieu of Nepal) and Jainism (as Digambara; identified with Tirthamkara Neminatha). Dattatreya co-mingles even with popular Sufi saints from the medieval period onwards. The three-faced Dattatreya icon of the guru, yogi and avatar (divine incarnation) stands as an impressive paradigm of the eclectic and integrative quality of dharma and its ahistorical quality. 33 Anguttara Nikaya (1.18). 34 Digha Nikaya (1.3). 35 This is also different from the Western secular notion of a set of propositions based solely on reason, which exist independently of any consciousness. In Indian thought, the possibility of truth being ultimately independent of consciousness and separable from it does not arise. Everything that appears to be unconscious is also only a form of consciousness and is situated within consciousness itself and is not apart from it. 36 Certain Indian ascetic groups also treat the body in a similar manner, but this is seen as a means to transcendence, not an innate evil caused by something akin to original sin.

37 The foundational texts of Indian ethics involve animal stories (the original source of Aesop’s fables and later those of Lafontaine) taught to children to illustrate simple moral precepts within concrete pragmatic contexts. What is particularly striking is that there are often tales that illustrate diametrically opposite moral lessons. For example, one demonstrates that even an injured tiger cannot change its carnivorous nature, whereas another shows how a crow is able to overcome its nature in order to befriend a mouse. Indian children were thus taught contextual ethics without being forced to assimilate rules of moral conduct by catechism. 38 Furthermore, these transgressions may be contrasted with the rigid unforgiving (but nevertheless often transgressed) morals prevalent in Judeo-Christian ethics, as well as with the nihilistic relativism of postmodern ethics. 39 Modern Bible scholarship amply demonstrates this. A major example is what is called the ‘Johanine comma’, an emendation in the text of one of the New Testament letters to emphasize the doctrine of the Trinity, which was known but went unremarked for years until the Higher Criticism (the school of Bible interpretation generated by German historicism) discovered it and made a point of it in the nineteenth and twentieth centuries. 40 Textual hermeneutics and the intellectual discrimination it fosters (‘bauddha-jnana’ in Kashmir Shaivism) operate within the context of the transmission (‘from mouth to mouth’ or ‘mukhat mukham’) of embodied knowledge (‘paurusha-jnana’). 41 In certain Christian understandings, especially that of Vatican II, the Church is absolutely and unconditionally the embodiment of Christ. See the work of the great Jesuit theologian, Henri De Lubac (Lubac 1988). 42 The Shankaracharya mathas are a rare exception of institutionalization that succeeded for a long time. But the Shankaracharya institutions do not control Hinduism in the same manner that the various churches may be said to control Christianity. 43 Actually, Abhinavagupta turns this insight on its head and treats the founders of the various traditions, including the Buddha, as not mere persons (‘paurusheya’) but as embodiments of such eternal knowledge. 44 I am indebted to William Pinch for reviewing an early version of my history-centrism thesis and sending me the following counter-example in an email in 2004: ‘I am in general agreement with your emphasis on historicity in the Judeo-Christian-Islamic traditions … But I see historicity as emerging in Indic traditions as well, particularly among the bhakti saints – and I don’t see this as a response of Western impact. You say that “Indians who claimed enlightenment using the ahistorical methods were glorified and honored as spiritual leaders during their lives, and often developed massive followings”, and then turn to the bhakti saints and more recent figures as examples. A look at the Ramanandi sampraday, arguably the largest ascetic/monastic community in India (and certainly the largest Vaisnava order) and the crucible of most north-Indian bhakti hagiography, would appear to undercut this assertion, as would the Dasnami, the Saiva counterpart to Ramanandis. Both communities developed mass followings well after the samadhis of their founders – the Ramanandis in the sixteenth/seventeenth century, the Dasnamis in the fourteenth/fifteenth century. Those texts (Sankaradigvijayah and Bhaktamala) are fundamentally historical narratives. This is not to say that the method of enlightenment is not at work as well in these communities, but it is to say that history matters in a serious way to them.’ In response to Pinch, I maintain that these examples merely show a history of lineages. They are not history-centric, because they do not claim God’s unique intervention for all humanity through their specific lineages. 45 Among other things, because Vedic cosmology has always been much more time-and-spaceoriented than Western cosmology (at least until recent science extended the vision of the latter), the

dharmic sense of what constitutes an epoch or period in time – a ‘kalpa’ – is much greater. Human events are often dwarfed in this expanded view. 46 A few examples will make this clear: (i) Gödel’s theorems demonstrate that all the truths of common mathematical systems cannot be written in any language. Linguistic expression, including statements made in mathematics, is limited in the set of truths it could possibly state. (ii) Wittgenstein’s theory of language as a game is built on problematizing the meanings of sentences and the limits of what may be represented. (iii) The quantum uncertainty principle applies to the uncertainty built into the state of all physical systems. (iv) Kant considered his transcendental realm and the notion of the noumenon to be outside the mind’s capacity. (v) Various postmodernist philosophers refute any mental representation of an objective ultimate reality. 47 (Wallace 2002: 11-12). 48 Christianity’s direct experience of God is called the ‘beatific vision’, which can only be achieved after death. The Catholic Encyclopedia defines it as: ‘The immediate knowledge of God which the angelic spirits and the souls of the just enjoy in Heaven. It is called “vision” to distinguish it from the mediate knowledge of God which the human mind may attain in the present life. And since in beholding God face to face, the created intelligence finds perfect happiness, the vision is termed “beatific”.’ The vision implies a parent–child relation to God – not the classic dharma notion that we are God playing this human role. Besides, this beatific vision is available only after one dies and goes to heaven, not before. The Bible says God ‘dwells in unapproachable light, whom no one has even seen or can see’ (1 Timothy 6:16). Only in heaven does he reveal himself to us face to face (1 Corinthians 13:12; Matthew 5:8; Psalm 17:15). 49 (Wallace 2002: 3) cites the following: (Butler 1967, Burnaby 1991, Eckhart 1979). 50 (Wallace 2002: 3-4). 51 (Ibid.: 4). 52 (Wallace 2002: 12) cites the following: (James 1950, 416–24). 53 (Wallace 2002: 5-6). 54 The nature of this atonement is expressed in Bible verses such as: ‘He himself bore our sins in his body on the tree, that we might die to sin and live to righteousness’ (1 Pet 2:24) and ‘For Christ also died for sins once for all, the righteous for the unrighteous, that he might bring us to God’ (1 Pet. 3:18). There are variations of substitutionary theory, but they generally hold that atonement in Christ’s death occurs in place of some consequence for humanity. 55 In the Judeo-Christian religions, every person can, to some extent, gain access to and know God. But the historical prophets’ unique and extraordinary role is unavailable, which renders their historicity critical. There are many other (lesser) prophets who continue to emerge, but these do not create or alter the mandatory canons on which authority is based. 56 Jesus does say to those who claim superior knowledge of God through their biological and historical connection to Abraham: ‘Do you not realize that God can raise up children to Abraham from these stones.’ However, it is not the same thing as saying that yoga by itself (i.e., human ‘purushartha’, or effort) suffices. In other words, the dependence on God to do it would remain even after considering Jesus’ remark. 57 A prominent theoretical physicist at Princeton’s Institute for Advanced Studies made the counter-argument to me that the Big Bang was a unique event in which physicists believe, thereby making physics also history-centric. However, this argument is flawed: physicists believe in the Big Bang Theory not as a premise of physics (in the sense that Christians believe in Jesus’ historicity as the premise for Salvation). Rather, the Big Bang Theory is a conclusion which is scientifically

derived, based on physical laws and empirical evidence which is verifiable today. Hence, the Big Bang Theory does not make physics history-centric: it is a result of physical theory and not a prerequisite belief or cause of it. Those who regard it as evidence of history-centrism are mixing causes and effects. However, the religious historicism that defines the individual’s mission in the world in relation to God has in many ways been transposed onto, and still propels, the evolutionary approach to life on earth within a cosmic history extending from the Big Bang to some unknown destination. 58 In the context of his elaborate discussion of the nature and meaning of tradition (‘agama’), Abhinavagupta, who is a great Hindu admirer of the Buddha, claims that the Buddha is ultimately not a historical person but rather a perennial (‘a-paurusheya’) spiritual principle which anyone can become, as it were, with proper effort. We see here the de-historicizing thrust deliberately at work within the core of the dharmic tradition. 59 This is a 1975 ecumenical version. (Creeds n.d.). 60 At least since the second Vatican Council (1962–65), official Catholic doctrines has held that God operates through every spiritual tradition, though not with the fullness found in Jesus (cf. the official conciliar document Lumen Gentium, Chapter II, Article 19). So one can tolerate other faiths, even respect them to some extent, but eventually they serve merely as preparation to become Christians in order to be saved. 61 A good example would be the split between the Roman Catholic and Orthodox Churches regarding the proper date of Easter, perhaps the most important liturgical event in the Christian calendar. 62 See especially the various works of René Guénon (1886–1951) which focus on aspects of initiatory paths and transmission and examine the problems posed by Christianity. These differences in tradition and context have been typically ignored or downplayed by Indic scholars, who have devoted entire theses to developing and emphasizing the similarities between, say, Shankara and Meister Eckhart. 63 Meister Eckhart, an exemplar of Christian mysticism, was not in any way interested in politics or the acquisition of power, unlike the more worldly priests. His one idea was the unity of the divine and the human, which seems natural from the dharma perspective but which was a threat to the church’s dogma of a strict dualism between the human and the divine (a dogma which justifies a hierarchical ecclesiastical power structure). Eckhart was declared a heretic and persecuted by the church. At some point between 1327 and 1329, he died mysteriously while in church custody (Blakney 1941: xxiv). 64 For examples of how the West’s claims to mysticism, inner sciences and spirituality in general have benefited from Indian influences, see the following works: (U. King 1980: Bruteau 1974; Overzee 1992; Coward, Jung and Eastern Traditions 1985; Coward, Yoga and Psychology 2002; Clarke 1997; Olson 2002; McEvilley 2001; Federici 1995; Kearns 1987). Also, (Roy, Pothen and Sunita 2003; Parkes 1987; Rajasekharaiah 1970; Wolters 1982; Pai 1985). 65 Here is how Eugene Taylor of Harvard describes Western mysticism: ‘Indeed there is an unbroken tradition of mysticism which can be said to embody forms of meditative practice in the West – from the NeoPlatonists such as Plotinus, through the medieval mystics both early and late – Johannes Erigena, St. Bonaventure, John of the Cross, St. Teresa, St. Bernard of Clairvaux – followed by such personalities as Robert Parsons, Margaret Mary Alacoque, and Emanuel Swedenborg, to modern Christian contemplatives such as Teilhard de Chardin and Thomas Merton, and now Shlomo Carlbach, Bede Griffiths, and David Steindl-Rast.’ Taylor then explains that the kind of meditation that is now spreading in America is distinctly Asian: ‘[M]editation per se should

be taken as a uniquely Asian phenomenon which, wholesale, has only recently come to the attention of the West. In its new Western context, particularly in the United States, however, it has undergone significant reformulation. In the U.S. it has become indigenized, so that now one can say that Asian forms of meditation have become thoroughly Americanized. (E. Taylor n.d.). Because of the weakness of an indigenous discourse of spiritual exploration in the West, Indian yoga and adhyatma, or the body of yogic techniques of spiritual realization of oneness with God, have had a major impact on contemporary Western paradigms, a matter I discuss extensively in my forthcoming book on the ‘U-Turn Theory’. 66 For example: (a) The notion of the stream of consciousness in James’s psychology is derived from the Buddhist characterization of consciousness metaphorically styled as a stream (‘sota’). James’s notion of a psychodynamic constellation of mind and mental states is patently the Buddhist conception of a central mental event (‘mano, citta’) accompanied by satellite mental states in everchanging configurations. The Buddhist conception of mind and mental events posits (based on introspection, not speculation) a solar-system model of mind. (b) Furthermore, James’s signature idea of pragmatism, especially as applicable to metaphysics, is borrowed from the very anti-speculative methodology which is a cardinal and signature Buddhism. James’s pragmatic axiom is closest to the Buddhist notion of ‘artha-kriya’, elaborated on by the Buddhist logic school of Dignaga and Dharmakirti. This is the central deconstructionist tenet of the Madhyamika school. James was under the tutelage of the Sri Lankan Buddhist scholar Anagarika Dharmapala (see note on Anagarika Dharmapala) and acknowledges his debt to him openly, though accounts of this are rarely acknowledged by present-generation biographers of James or historians of philosophy. 67 Anagarika Dharmapala (1864–1933) was a Sri Lankan (then Ceylonese) lay Buddhist who founded the Mahabodhi Society in 1891 to recover Buddhist management of the site of the Buddha’s enlightenment at Bodh Gaya. He worked diligently for the revival of Buddhism in India and the restoration of its sacred sites. He has the distinction of being the first Buddhist scholar to teach on four continents: Asia, Europe, North America and Australia. He shared the honour of being invited to the World’s Parliament of Religions in Chicago in 1893 with Swami Vivekananda, a watershed event in the introduction of Buddhism and Hinduism to the West. As a visiting scholar at Harvard during James’s tenure, he exercised a significant influence over James, who acknowledged as much on a number of occasions in his article ‘Yoga Psychology in the Schools: Some Insights from the Indian Tradition’ (Salmon n.d.). 68 A compelling argument can be made that the system (theory-praxis) found in Patanjali’s Yoga-Sutra offers greater depth and consistency than the tenets of Husserl’s phenomenology. Also, Husserl’s notion of ‘lifeworld’ may simply be equivalent to atman (god as embedded in the individual self) as understood in Dvaita Vedanta. Westerners like to describe it as a ‘fundamental [belief] uncovered by Husserl’, simply ignoring Indian traditions (Husserl 1999). These two systems are appropriately contrasted because they are comparable in their claims to have developed theories and methodologies, specifically epistemologies and praxes, adequate for grounding and comprehending all common sense and third-person scientific knowledge on one hand, and on the other, all metaphysical knowledge. Therefore, one should acknowledge Patanjali as one of the world’s earliest systematic scholars of the mind sciences. His Yoga Sutra contains an elaborate theory and framework for understanding the mind, various practices for achieving specific states, and descriptions of what the practitioner experiences at each stage. But even prior to Patanjali, many Indian texts were based on the systematization of extensive inner experiences resulting from disciplined practices. Subsequently, many traditions emerged, each based on a systematic exploration of the mind.

69 Much of this resistance takes the form of what I have called the U-Turn, an initial immersion in one or another dharmic perspective followed by a relapse into more familiar contexts. 70 Many dharmic traditions, including primarily Hindu ones, stress the purity of the body and the need for cleansing. For the most part, however, this purity does not have to do with any imputed original sin, or indeed sin of any kind. 71 The Pratyabhijna school of bhakti mysticism, for example, explicitly justifies image worship as a deliberate projection of the creative Self onto an external support to facilitate meditation and inner transformation. See Chapter 5 on the difference between images in dharma and idolatry. 72 (Second Hindu–Jewish Leadership Summit Declaration, Israel 2008). 73 Ethnographic reports, especially those by Christian missionaries in India, of involuntary ‘possession’ during village festivals and other religious occasions, have served only to reinforce such stereotyped perceptions of Hindu spirituality as a whole, even of yogic techniques which are a mode of self-purification. 74 In Judaism, the Shekinah is the female principle of God, but the elaborate philosophy, practice and lineages of this spiritual practice and tradition are lost. At the same time, it is to be acknowledged that the dharma ideal is too often not implemented by society, as for instance, when women are not allowed in certain temple spaces. 75 Susan Jeffords has argued that American notions of masculinity have remained opposed to femininity, and hence the feminine qualities are to be discarded or at least contained in order for the masculine qualities to manifest properly (Jeffords 1989: xii). 76 There are other body fetishes peculiar to Christianity. In many biblical interpretations, the human body is to be resurrected at the End Times and shall live forever in Heaven along with one’s family and friends. The resulting cohesiveness within a given group and anxiety towards others have perhaps been a factor in the scandalous fact that the American church remains far more racially segregated even today than businesses, government or schools. Also, many Christians believe that fixing up the body before burial, locating the dead body in a good cemetery, etc., are all worth the effort because we will all live happily forever in Heaven in these bodies. Bereavement often entails accepting that one’s departed relative has entered Heaven where he waits for the rest of the family to rejoin him – sort of like one member of a tour group going ahead of the others to make the arrangements and then wait for the rest to join up. A relative of mine who converted to Mormonism is desperately trying to convert not only his children in the US but also his parents and relatives back in India, as he is convinced that this will ensure that the family is joined happily in Heaven.

3. Integral Unity and Synthetic Unity 1 (Organ 1970: 339). 2 Translation: ‘That is purna. This is purna. Purna comes from purna. Take purna from purna, still purna remains’ (Brihadaranyaka Upanishad, 5.1.1). 3 The Australian philosopher David John Chalmers refers to the ‘hard problem of consciousness’, which raises the question of how consciousness can arise out of inanimate processes comprising the chemistry of the brain. This question has persisted despite numerous speculative theories. 4 David Loy also explains that the differences between Advaita Vedanta and Madhyamika Buddhism are not of such a kind as to make them incompatible. (Loy, Nonduality: A Study in Comparative Philosophy, 1988).

5 It is important here to underscore panentheism (with the en in the middle) which is not to be confused with ‘pantheism’ (without the ‘en’ in the middle). The former signifies the immanent nature of God without a transcendent spirit, whereas the latter is nature worship characteristic of many pagan faiths, at least as characterized by their opponents. Panentheism refers to the world as God and at the same time God remaining transcendent. This dual character of God is central to integral unity. God is the unchangeable transcendent and also everything that exists, and hence ever in flux. Charles Hartshorne, a prominent philosopher and theologian, introduced the term ‘panentheism’ into the Western lexicon after his detailed study of Hindu metaphysics in the 1930s (especially Ramanuja and Sri Jiva Goswami). 6 Mahayana Buddhism denies any such bifurcation: ‘There is no specifiable difference whatever between nirvana and the everyday world; there is no specifiable difference whatever between the ever yday world and nir vana.’ (Mulamadhyamikakarika, 25:19) 7 (Organ 1970: 104). 8 Christian theologians hold that immanence was always there; the essence of Jesus as immanent pre-exists his incarnation as one member of the eternal trinity of God. His incarnation merely manifested it. In mainstream Judaism and Islam, God is most often seen as transcendent but not immanent. 9 Sri Aurobindo writes: ‘The pairs of opposites successively taken up by the Upanishad and resolved are, in the order of their succession: 1) the Conscious Lord and phenomenal Nature, 2) renunciation and enjoyment, 3) action in nature and freedom in the soul, 4) the one stable Brahman and the multiple movement, 5) being and becoming, 6) the active Lord and the indifferent Akshara Brahman, 7) vidya and avidya, 8) birth and non-birth, 9) works and knowledge.’ (The Collected Works of Sri, Aurobindo: Isha Upanishad, Vol. 17, 2003, p. 85) 10 The West’s synthetic unity may be linked to the premise of nominalism as conceived by William of Ockham (1288–1348), one of the church’s major figures of medieval thought. The theologian Servais Théodore Pinckaers (1925– 2008) explains: ‘For Ockham, there is absolute separation between God and the world. God created the world, but he remains a stranger to it. There is no symbiosis between the world and God. The two realities are isolated in their respective existence. Moreover, this is nothing but the consequence of the radical insularity of all beings’ (Pinckaers 2005: 141). 11 The mantra is: ‘brihaddhi jaalam brihatah shakrasya vaajinivatah’ (8.8.6). ‘ayam loko jaalamaasit shakrasya mahato mahaan’ (8.8.8). It was later adopted by the Mahayana Buddhists in the third-century scriptures of the Avatamsaka Sutra to illustrate the principle of mutual interrelatedness and interpenetration of parts and wholes. The formal logic of this principle was further worked out between the sixth and eighth centuries in the Huayan school of Chinese Buddhism known as Kegon in Japan. 12 Michael Talbot started as a science fiction writer who later integrated many Indian ideas which he had learned via the works of other westerners such as physicist David Bohm, neurophysiologist Karl H. Pribram, and psychologist Stanislav Grof. All three had studied Indian thought for decades and later claimed originality in their ‘independent’ discovery of the nature of reality. Grof termed this ‘holographic’. Talbot’s most influential non-fiction books were Mysticism and the New Physics (1993), Beyond the Quantum (1988) and the Holographic Universe (1992). 13 (Hofstadter 1999). 14 ‘Purusha evedam sarvam yad bhutam yacca bhayam’ – ‘Purusha is all this, all that was, and all that shall be’ (Rig Veda III.90.2). ‘Pado asya vishva bhutani tripadasya’mritam divi’ – ‘He is

immanent in all this creation and yet he transcends it’ (Rig Veda X.90.3). 15 According to some systems, there are 8,400,000 forms of flora and fauna, yet the emphasis is on the sense that one living unity comprises all these multiple living forms. 16 (Vatsyayan, The Square and the Circle of Indian Arts,1997). 17 For instance, the number 360, the nominal day count of the year, shows up as the 360 bones of the infant (which later fuse into the 206 bones of the adult); and various multiples of 360 include the Garbha Upanishad’s statement that the body has 180 sutures and 900 sinews, and the Brihadaranyaka Upanishad’s mentioning that the number of ‘nadis’ (subtle nerves for the flow of prana) is 72,000. Another central Vedic number is 108: The chain of 108 links is held together by 107 joints, which is the number of marmas, or weak spots of the body in Ayurveda. The NatyaShastra speaks of the 108 karanas (movements of hand and feet in the vocabulary of dance.) There are 108 beads of the rosary (‘japamala’), a tradition of the 108 names of divinity, and the number 108 appears in many other settings in the tradition, including temple architecture (Kak, ‘Ritual, Masks, and Sacrifice’, 2004). 18 (Kak, The Gods Within, 2002, 100-101). 19 In their book The Complementary Nature, J.A. Scott Kelso and David A. Engstrom compile numerous instances of complementarity across the sciences, humanities and arts, all the while referring to recent Western discoverers as ‘pioneers’ and to earlier Western thinkers as ‘originators’. There is scarce mention of dharmic sources apart from vague and superficial references to ‘eastern wisdom’. The authors do not bother to cite instances of Western thinkers (such as T.S. Eliot) who, by their own admission, were clearly influenced by dharmic culture or philosophy. Moreover, the terminology used is a combination of new-age and archaic Greek/biblical jargon (Kelso and Engstrom 2006). 20 Writing in (Dehejia 1996: vii). 21 (Tripurari 1998: 20-21). A different perspective is offered by Harsha Dehejia, a scholar who interprets Indian art as a non-devotional means for transcendence, calling this the advaita (nondualism) of art (Dehejia 1996). He distinguishes between art as an expression of devotion to a personal God (that is to say, the artist as ‘bhakta’) and art that uses rasa as an expression of the movement toward transcendence (the artist as ‘rasika’). Bharata, the ancient writer of NatyaShastra, made this distinction implicitly between art in devotional and non-devotional ways, and later on, Abhinavagupta made it explicit. Thus, it can be said that classical Indian texts do not require worship as a criterion for attaining ‘ananda’, or the bliss of transcendence. In the sixteenth century, Sri Jiva Goswami introduced the category of ‘bhakti-rasa’ to clarify the distinction by emphasizing devotion to a personal deity. Thus, the equivalent of the secular/sacred distinction is available in the distinct approaches to ananda via art and devotion. The key point of difference with the West is that in dharma both art and devotion are based on common notions of integral unity with bandhus linking the manifest and unmanifest. This is why I disagree with Harsha Dehejia when he calls Indian aesthetics ‘secular’, for what is lost in secularism is the principle that all rasas are forms of one rasa and the ultimate rasa is a state of unity-consciousness, and also the related idea that all ‘rupas’ (forms) are a concretization of ‘purusha’; in other words, the integral unity of forms that is accessible as rasa is lost in the strictly secular model. Western secularism lacks the unmanifest/manifest cosmological principle that makes the advaita of art possible. What happens is that the bandhu principle is compromised by many westerners who decontextualize the dharmic source and relocate it in a secular frame. 22 (Organ 1970: 172).

23 In Sanskrit grammar, temporal connectives and the dynamic relation of acts are seldom linearly articulated. A sequence of connected events, while it may be perceived linearly, is not valued in the same way as a non-linear pattern outside history (Lannoy 1971: 289). 24 In Samkhya theory, effects are latent in the cause. In Vedanta, Brahman becomes the world through a process of self-emanation. In the Buddhist doctrine of ‘dependent arising’, all effects are traced to prior causes, and the infinite series of prior causes consists of interdependent entities, each with momentary existence only. 25 Each Hindu deity is not an isolated, localized historical person but is present here and now as well. The rishis discovered these deities as cosmic intelligences and also discovered (or programmed) the mantras that allow humans to become quantum-entangled with them. Humans are linked with devatas; our unconscious and conscious layers are linked with one another. The genders, varnas, ashrams and jatis are templates which are interconnected in this way. Mantras are programs which tap into the cosmic memory, as it were. Rishis have done a lot of intense spiritual practice called ‘tapasya’ to uncover the reality and then develop a path through which we can link up to it as well. 26 Houses (containers) have mood and character and affect the fortune and moods of the dwellers. The village soil produces crops for the people but also affects their character. Richard Lannoy, a scholar of Indian civilization, explains: ‘Food is believed to transmit certain qualities in the nature of the donor and the cook, besides (in the case of meat) “toxic” essences passed on from the psychophysiological system of an animal violently killed. Westerners, even when vegetarian, are regarded by the inmates of Brahman ashrams as not only polluting because of their imperfect dietary system, but [as] spiritually “retarded”, because they have absorbed “toxic” substances through heredity, “bad” karma …’ (Lannoy 1971: 151). 27 (Ramanujan 1990: 51). Also, musical instruments such as the veena have to be made on an auspicious day by members of a particular jati or family after observing certain austerities; the gourd from which it is made must come from specific places. The gunas of the substances affect the quality of the instrument, and hence of the music (Ramanujan 1990: 52-53). 28 (Ramanujan 1990: 52-53). 29 This idea is also admirably articulated in Twenty Stanzas on Mere-Representation (Vijnaptimatrata-Siddhi Vimsika) by the Buddhist philosopher Vasubandhu (Anacker 2002). 30 In Nagarjuna’s system, logic has four modes, each of which qualifies and extends the other. Starting with the classical dharmic technique of negation that ultimate reality is ‘not this/ not that’, Nagarjuna adds that it is also ‘not not this/ not not that’. This aphorism points to a subtle yet spiritually potent way of understanding at once the relativism of phenomena and their non-trivial status, both the absoluteness of the divine and its resistance to reification. 31 (A Concise Sanskrit-English Dictionary, 1990). 32 (Infinity Foundation n.d.). 33 Hence, the history of Western science and religion is filled with allegations of fraud. Narasimha writes: ‘As an aside, we may note that strong belief in models has an interesting concomitant, namely the notion of fraud. The history of Western science is shot through with the idea of theories and models and of fraud. Ptolemy himself was accused of fraud; so, in more recent times, were Galileo, Newton, Mendel, Millikan and a great variety of other, lesser known figures. I believe the reason for this can be traced to faith in two-valued logic, namely the idea that answers to questions have to be either yes or no; models have to be true or false: there are no other options. Scientists often encounter situations where there may be discrepancies between model and

observation. If the discrepancies are large, the theory would of course be quickly rejected, but the crucial cases are those in which the discrepancies are small but not negligible. If the scientist falls in love with the model, he is tempted to ignore inconvenient observations which do not agree (as many of the names mentioned above did at one time or the other) or else stretch the model in bizarre ways (as Newton did with the speed of sound). If, on the other hand, observation is the starting point and one has no great faith in any particular physical model (which was the prevailing norm of Indian scientific thought), the question of fraud does not arise. Indian scientists, even classical ones, do not appear to have accused each other of fraud. This could not have been mere politeness, as they did make charges of ignorance and even stupidity against each other (as Brahmagupta did against Aryabhatta, for example). We could say that fraud is the besetting sin of a model-making scientific culture’ (Roddam Narasimha, ‘The Revolution of Modern Science,’ a presentation at a symposium in Delhi).

73.

34 (E. Schrödinger 1992: 87). 35 Moore, Walter J., Schrödinger: Life and Thought Cambridge University Press (1992). pp.170-

36 As quoted in ‘The Mystic Vision’ as translated in Quantum Questions: Mystical Writings of the World’s Great Physicists (1984) edited by Ken Wilber, Shambala Publications, Boston. 37 ‘The Mystic Vision’ as translated in Quantum Questions: Mystical Writings of the World’s Great Physicists (1984) edited by Ken Wilber, Shambala Publications, Boston. 38 See (E. Schrödinger 1964). 39 In a foreword to (Jitatmananda 1986). 40 (Organ 1970). 41 The slaughter of the horse in the Ashvamedha Yajna was interpreted allegorically in the Aranyaka texts. There was to be no actual sacrificing of the horse: each limb of the horse became an allegory of meditation upon nature. He who mediated on the dawn was, as it were, meditating upon the head of a horse; the sun worshipper was, as it were, adoring the eye of the horse; the air was the life of the horse, etc. 42 For example, Sri Jiva Goswami’s Vedanta is called ‘achintya-bheda-abheda’, meaning inconceivability of difference/non-difference. This expresses the impossibility of reducing the ultimate truth to fit within the limits of human knowledge. Jain ‘syadvada’ logic and Buddhist ‘catuskoti’ logic make these presuppositions much more explicit. 43 ‘Ekam sad vipra bahudha vadanti’ (Rig Veda, 1:164.46). 44 (Aurobindo, Collected Works of Sri Aurobindo: The Human Cycle,The Ideal of Human Unity, War and Self-Determination, 1997: 423-425). The practical situation today is such that Sri Aurobindo advocates applying ‘the minimum of uniformity which is sufficient’, until such time as individuals have evolved to make any external imposition unnecessary. In the same writing, he says: ‘We shall find that a real spiritual and psychological unity can allow a free diversity and dispense with all but the minimum of uniformity which is sufficient to embody the community of nature and of essential principle. Until we can arrive at that perfection, the method of uniformity has to be applied, but we must not over-apply it on peril of discouraging life in the very sources of its power, richness and sane natural self-unfolding.’ 45 For example, some Hindu philosophical systems describe three levels of Reality as material (‘adhibhautika’), deity (‘adhidaivika’) and transcendent (‘adhyatmika’). Using these levels, the river Ganga is considered holy, and the way it presents itself to one’s senses is at the adhibhautika level. But Ganga is also Ganga Devi (Goddess Ganga), a deity worshipped in temples, and this is at

the adhidaivika level of experience. Beyond both these is the adhyatmika, or spiritual, form of Ganga as Lord Vishnu’s consort and yet non-different from Vishnu. This last level is beyond our ordinary sensory realm. 46 Sri Ganesha is the deity of categories and also the deity of auspicious beginnings, implying that categories emerge in a fresh beginning and are not preset absolutes. In the beginning come the categories; this is why Ganesha is worshipped at the start of any new activity. 47 In Chapter Eleven of the Bhagavadgita, Krishna grants Arjuna’s request to see His universal form. Krishna states that it is not possible to see it with ordinary eyes, and thus He confers divine vision on Arjuna to enable him to see the universal form. 48 When a treatise attempts to find shortcomings in an opposing view, it does so authentically, without unfair allegations or misrepresentations, unlike what frequently happens in modern fights between rivals. Thus, even when an original text has become lost, one can recover its positions because of the way opposing treatises have depicted it in their purva paksha. Such a tradition, without purging anything along the way, becomes increasingly more complex as it proceeds. 49 For example, Sarva-darshna-sangrahah, a text written in the traditional style, depicts all the darshanas in an ascending order, each leading on to the next as a more sophisticated version, without absolutely falsifying what has been superseded. 50 (Organ 1970: 90). 51 In response to such allegations, one must point out that a famous intellectual of the Advaita Vedanta tradition, Madhavacharya, played a key role in establishing the Vijaynagar kingdom and created a strong ground for the Hindu dharma in the face of the Islamic invasion, and he was helped by his brother, Sayabacharya. 52 Although this is true, by and large, of the Indian spiritual systems, there are others, such as Nyaya, which find delight in speculation for its own sake. Karl Marx also criticized philosophers for being too theoretical; he thought the purpose ought to be to change the world. However, his was strictly an external pursuit which did not offer the means to enhance the inner being. 53 Sikhism does have a single book, but its worldview is not closed as this is not a historycentric book but rather a book of inspirations and principles. Sikhism does not claim historical uniqueness of its ten gurus and respects the legitimacy of other religions’ exemplars. Sikhs openly acknowledge their borrowings from Hinduism and Islam. 54 The Veda was restricted from being written down. Only in modern times has it been published in book form. 55 ‘Man represents the point at which the multiplicity in the universe becomes consciously capable of this turning and fulfillment’ (Aurobindo, The Upanishads, 1996). 56 (Organ 1970: 93). 57 (Aurobindo, Indian Spirituality and Life 1919). 58 The Western ones were vigorously challenged, too. The Reformation challenged the whole concept of priesthood and abolished its establishment, eventually separating it from state power completely for its followers. But these challenges have been rarer and involved immense violence and struggle. Such movements did not overturn the heavily institutionalized structure. 59 In this respect, Jewish monotheism differs from Christian and Islamic versions. Jews regard the commandments from God as second-person speech, i.e., directed specifically at them, and hence particular to them. But Christians and Muslims claim the instructions delivered to them via prophets to be third-person speech and hence universal commands for all humanity. While the commands

apply universally, the ‘adhikara’, or authority, to propagate and enforce them was given specifically to Christians and Muslims, respectively. So the adhikar was handed down in second-person speech specifically to them, directing them to serve as God’s agents for enforcing the universal edicts. 60 ‘Shramanas’ were itinerant ascetics and free-thinkers who pursued the quest for liberation and enlightenment (moksha-marga) without acknowledging the supremacy of Vedic revelation. The founders of Jainism and Buddhism were styled ‘shramanas’. In Buddhist discourses (‘sutras’), nonBuddhists often refer to the Buddha as the ‘shramana’ (Pali: ‘samana’) Gautama. Sometimes ‘shramanas’ and ‘brahmanas’ are contrasted; however, the shramana ranks included many freethinking ‘brahmanas’. 61 Even when Indian thought differentiates between, on the one hand, Veda-based (‘astika’) mystical and proto-scientific empirical systems (such as Vaisheshika and Samkhya), and on the other, the non-Vedic based (‘nastika’) systems of Jainism and Buddhism, the underlying ethos is to try to integrate old tenets into the new ideas and in the worst case to leave them alone rather than abolishing them. 62 Augustine Aurelius, Bishop of Hippo (354 ce–430 ce), is considered the most influential early Christian theologian after St. Paul. He was one of the most prolific Church writers and dealt with a vast range of theological issues facing the Church in his day, and this had a big influence on the politics of Rome. He started out as a well-known orator who had studied the philosophies of Plato and who was also heavily influenced by Plotinus. Augustine then became a Christian at age 32. Eight centuries later came the next big leap in theology from Aquinas. It is widely accepted that Aquinas used Aristotle to formulate his entire Christian theology. Jewish scholars in Toledo, Spain, under Islamic rule, had translated Aristotle’s works, and this triggered a need for a Christian response. Aquinas’s theory of knowledge is not a vision of divine truth (contrary to what one expects from a rishi) but rather a Christianized revision of Aristotle’s philosophy. It is ironic that Christian Rome contributed to the destruction of the Greek libraries. These documents were preserved by Islamic scholars, and it was these old Greek manuscripts that became available to Europe at the end of the Crusades. Thus began the appropriation of Greek pagan intellectual works to construct what is now called Christian theology. While scholars know all this and write about it, the common westerner is shielded from these facts and taught that Christian theology is internally inspired. 63 Thomas McEvilley has explained the likely Indian origins of some aspects of Greek thought. For instance, he says the Western intellectuals’ cover-up of the likely Indian origins of Plotinus protects Western identity and historicity: ‘Translations of his work may have a churchy kind of ring. The view of Plotinus as a kind of proto-Christian theologian may express, at least in part, a dread of finding possible Indian origins for the texts whose influence was to contribute to shaping the thought of Thomas Aquinas, Nicolas of Cusa, Meister Eckhart, and many later Western thinkers. So it is not only that “to admit oriental influences on [Plotinus] was tantamount to besmirching his good name,” but even more, it would also besmirch that whole aspect of the Western tradition that flowed from him. If Plotinus had passed massive Asian influence into the Western tradition, there would be little point to calling it Western tradition’ (McEvilley 2001: 550). 64 For a harrowing account of the violent conquest of paganism by Christianity in the early medieval period, see: (MacMullen 1999). Paganism is a general term for the earth-based and shamanistic religions that lie at the ancient base of many societies. These religions typically engage with what they see as many spirits and energies, not all of them necessarily divine in the absolute sense. They tend to worship nature. These faiths became the target of aggressive Christianity after Constantine.

65 Although conquest and conflict are by no means absent from dharmic traditions, these conflicts stemmed from an entirely different psychology and political programme than did the huge colonial endeavours of the West. 66 For an extended view of this analysis, see the work of cultural historian David Loy’s A Buddhist history of the West. 67 A good discussion of these ideas, from a Buddhist point of view, may be found in (Loy, A Buddhist History of the West : Studies in Lack, 2002). David R. Loy analyses this Western penchant for solving deep internal divisions by projecting itself on to the external world. 68 One such typically self-congratulatory account is Orlando Patterson’s statement that the West’s value of freedom is ‘superior to any other single complex of values conceived by mankind’ (Patterson 1992, 402-403). 69 (Loy, A Buddhist History of the West : Studies in Lack). 70 The dharma traditions are not free from ideological tensions, but it is unthinkable to imagine a ‘war’ between science and dharma; the underlying cosmologies and paradigms would embrace and enable both. 71 (Arnold 1869: 94). This was Arnold’s influential analysis of the deep conflict between the biblical and Greek traditions. 72 (Arnold 1869: 94-95). 73 (Arnold 1869: 95). 74 Even the development of modal logic touted as an exclusively Western breakthrough in philosophy has failed to mitigate this pervasive categorical thinking. With the recent development of many-valued logics in the West, attributed to such figures as Lucasiewicz and Lobochevsky, the view that Aristotelian logic is the only valid logic is no longer universally held among academics. However, Aristotelian logic continues to exert influence on the Western mentality. Even the earlier influence of Kant’s deontological ethics reflects the Judo-Christian theological decrees mandating an inflexible morality regardless of context. 75 James Carroll’s book Constantine’s Sword explains how institutionalized Christianity emerged in the fourth century after Jesus (Carroll 2001). 76 Carroll writes: ‘The emperor constantly made use of this sign of salvation as a safeguard against every adverse and hostile power, and commanded that others similar to it should be carried at the heads of all his armies, (Carroll 2001: 175). 77 (V.A. Smith 2009: 171). 78 (Wells 1922). 79 (sciforums.com 2001). 80 (Robinson 1976: 249). 81 (W.T. Jones 1969: 176). 82 Kant’s transcendental ego caused further harm by removing the spiritual self and making it inherently inaccessible and impossible ultimately to know. 83 Not only were such famous scientists as Issac Newton, Francis Bacon and John Locke profoundly and explicitly Christian and deeply influenced by Christian worldviews, notions of time and the like, but the new secular giants, Freud, Marx and Darwin, were implicitly Judeo-Christian in their history-centrism, their sense of time as linear, and their assumption that the Western ego is the normative paradigm for all.

84 Some examples of secularism disguising biblical assumptions and ideas are: Francis Bacon (1561–1626), considered the prophet of modern Western science, sought ‘a return to the state of Adam before the Fall, a state of pure and sinless contact with nature and knowledge of her powers … a progress back to Adam’ (Loy, A Buddhist History of the West : Studies in Lack, p. 59). Newton was a fervent believer in the millennium and spent much of his time interpreting biblical prophecy. Thomas Hobbes’ (1588–1679) state of nature is a secularized version of Calvin’s ‘natural man’, without God being mentioned, and in his Leviathan, the Bible is cited 657 times; there is a similar trend in his other major political works (Loy, A Buddhist History of the West : Studies in Lack, 127). Many European socialist critiques of private property originated in interpretations of Adam’s Fall and God’s curse upon him. John Locke’s (1632–1704) theory of individual rights is rooted in the Protestant understanding of man’s relationship with God. The unique civic society of the USA evolved out of the Puritan ambitions to create another empire for God in a new Promised Land by means of strict laws and suppression of dissent. Even Marxism, while attacking Western religion, implicitly borrowed its underlying structures and ‘grand narrative’, and these have become unstated assumptions in the secular worldview. See: (Eliade 1987: 206-207) and (‘Eschatology’ 1992). 85 (Toulmin 1990: 211-212). 86 (Camilleri 1994: 24). 87 See (Schwab 1984). 88 (Loy, A Buddhist History of the West : Studies in Lack, 109). 89 (Malhotra, ‘American Exceptionalism and the Myth of the Frontiers’, 2009). 90 In 1452, forty years before Columbus’s historic voyage, Pope Nicholas V issued to King Alfonso V of Portugal the ‘bull’ (i.e., an edict with the legal authority of the Vatican) known as Romanus Pontifex, in which he declared war against all non-Christians throughout the world and specifically sanctioned and promoted the conquest, colonization and exploitation of non-Christian nations and their territories. Since non-Christians were considered less than human (and hence lacking souls), even wholesale genocide was condoned. In this edict, the Pope directed Portugal’s king to ‘invade, search out, capture, vanquish, and subdue’ all those who the King’s men saw as ‘pagans … and other enemies of Christ’. The Pope’s directive was to ‘reduce their persons to perpetual slavery, and to apply and appropriate … [their] possessions, and goods, and to convert them …’ This doctrine was subsequently reinforced by a later Pope in order to legitimize Columbus’s conquests. European nations upheld and implemented the doctrine as the legal and moral basis for colonialism (Davenport 1917: 20-26). When Columbus first arrived on Guanahani Island, he performed a ceremony in order to take possession of the natives’ land for the king and queen of Spain. Pope Alexander IV issued a new bull, Inter caetera, of 3 May 1493, reinforcing this doctrine of discovery. Like the judgments of the US Supreme Court, these papal bulls stand to this day despite the attempts of the North-American Indians who have been agitating against them and trying to have them repealed. 91 (Newcomb n.d.). 92 (Loy, A Buddhist History of the West: Studies in Lack, 59)

4. Order and Chaos 1 ‘The Indian idea of oneness of life leads to an open-ended sense of perfectibility, to less anguish in the face of time and a less fanatical will to achieve everything in a single lifetime’ (Lannoy 1971: 227).

2 Gambling, like many other expressions of chaos, is frowned upon as a vice in the disciplined life of a normal Hindu, and this is why Yudhishthira is severely castigated, even by his own wife, Draupadi, for this otherwise inexplicable addiction. Nevertheless, the Diwali tradition is for everyone to play dice and other games of chance, even gamble with money. Such days of exception, inserted into the calendar of Hindu festivals, are also part of Holi. What is destructive, threatening and to be avoided in ‘normal’ life is nevertheless to be integrated into the larger cultural framework, drawing on ritual and myth. Also, the Bhagavadgita (16.6 and 18.40) explains that everything is composed of the three gunas (i.e., not good/evil). 3 (Aurobindo, Collected Works of Sri Aur obindo: The Renaissance in India,1997:191). 4 (Rudolph and Rudolph 1967: 9). Rudyard Kipling, a great lover of India’s wilderness and native culture, wrote sarcastically, mimicking the fantasies of his ignorant British audience: ‘India, as everyone knows, is divided equally between jungle, tigers, cobras, cholera, and sepoys’ (Kipling 1987). Regardless of what he intended, such images travel over time and get re-contextualized and reconfigured by others into the stereotypes we are describing here. 5 (Rotter, Comrades at Odds: The United States and India, 1947-1964, 2000: 35) 6 Scratches on Our Minds came out in 1958. Paperback editions of the book, re-titled Images of Asia, were published in 1962 and 1972. M.E. Sharpe did a paperback version with the original title restored in 1980. It is now out of print (Isaacs 1980). I have summarized and excerpted from Andrew Rotter’s comments on the book. See (Rotter, ‘In Retrospect: Harold R. Isaacs’s Scratches on Our Minds’, 1996: 177-88). 7 Quoted in (Rotter, Comrades at Odds: The United States and India, 1947-1964, 2000: 10). 8 (Mayo 1935). Mayo influenced several generations of American policy makers when she wrote that the Muslim ‘is the purest of monotheists … He worships One God and Him only, Omniscient, Omnipresent, Omnipotent … and the Ten Commandments of Moses are embedded in his law.’ The Hindu, by contrast, ‘is the most elaborate of Polytheists. He worships millions of gods, some by acts that are cardinal offenses against any moral code of civilized humanity.’ Another sensational novel in America depicted ‘barbaric India, land of languor, intrigue, strange appetites, exotic women, cruel and scheming men’ In the Hollywood movie, Gunga Din, the thugs do horrible atrocities in Kali’s name, and Steven Spielberg’s blockbuster movie Indiana Jones and the Temple of Doom features Hindu worshippers eating monkey brains, having male-slaves, and drinking Kali’s blood (Rotter, Ibid.:201-04). 9 (Rotter, ‘In Retrospect: Harold R. Isaacs’s Scratches on Our Minds’, 1996: 177-88). 10 (Rotter, Comrades at Odds: The United States and India, 1947-1964, 2000). 11 (Ibid.: 8). 12 (Ibid.: 12). 13 (Ibid.: 18). 14 ‘Americans held gendered stereotypes of Hindu men and women: Men … were weak. They were also cowardly, treacherous, emotional, flighty, and given to talk rather than action. They refused to stand up to evil, preferring to compromise with it, mediating disputes instead of taking the one right side in them, failing utterly to behave like … “true men”. Hindu men, Americans concluded, were effeminate. Not so Hindu women, who had admirable backbone, but with it the less admirable quality of ruthlessness and a regrettable penchant for emasculating men’ (Ibid.: 191). 15 (Rotter, Ibid.: 191).

16 (Rotter, Ibid.: 192). This view was also echoed by Abbe Dubois, who wrote extensively on Hindus’ lack of aesthetics, morality and courage: ‘Their [Hindus’] want of courage almost amounts to deliberate cowardice. Neither have they that strength of character which resists temptation and leaves men unshaken by threats or seductive promises, content to pursue the course that reason dictates. Flatter them adroitly and take them on their weak side, and there is nothing you cannot get out of them’ (Dubois 2002, 188). 17 (Rotter, Ibid.:, 194). 18 (Rotter, Ibid.: 22). 19 (Rotter, Ibid.: 238-239). 20 (Rotter, Ibid.: 235-236). 21 Harrison, Selig S., quoted in (Rotter, Ibid.: 220). 22 (Rotter, Ibid.: 229). 23 (Bhushan 2003). 24 (Rotter, Ibid.: 219). 25 For a fuller analysis of the history of this mindset, see (Malhotra, ‘American Exceptionalism and the Myth of the Frontiers’, 2009). 26 (Associated Press 2005). 27 (Lannoy 1971: 280). 28 (Ibid.: 422). 29 (Aurobindo, Collected Works of Sri Aurobindo: The Human Cycle,The Ideal of Human Unity, War and Self-Determination, 1997: 423). 30 (Aurobindo, Collected Works of Sri Aurobindo: The Life Divine, 2005, 353355). 31 (Aurobindo, Collected Works of Sri Aurobindo: The Human Cycle,The Ideal of Human Unity, War and Self-Determination, 1997: 423). 32 (Dabbawala n.d.). 33 Personal email communication from Dr Rajan Parrikar. 34 (Organ 1970: 18-19). The following two excerpts from Troy Wilson Organ’s, The Hindu Quest for the Perfection of Man, explain how dharma is expressed in music: ‘It would be a great mistake to dwell upon the multiform nature of Hindu philosophy and miss the common theme running through the systems. Indian music is a helpful analogy of Hindu philosophy. In classical Indian music the musicians start with a raga, i.e., a melody composed of notes in a specific order and with specific emphases, and a tala, i.e., an organized group of beats on which the rhythm structure is based. Raga corresponds approximately to scale in Western musical theory; tala corresponds to measure. The musicians are challenged to weave a woof consistent with the given melodic and rhythmic pattern. Whereas a concert of Western music is a re-creation of an original creation, a concert of Indian music is a creation within the framework of the raga and the tala. Raga and tala constitute the invariable; the musicians supply the variable. Indian music thus is a revealing of the pluralities within oneness; it is the manifold manifesting of the Cosmic Oneness. So is Indian philosophy. The primary texts of Hinduism, the Vedas and the Upanishads, supply the raga and the talas. This is the speculative insight that Reality is the integration of values.’ Organ goes on to say, ‘In Indian music creativity demands the deliberate variegation of the effects of beauty within raga and tala: variety within structure, freedom within law, liberation within discipline, plurality within unity, many-ness within one, diversity within simplicity, many-foldness within the single,

finite within the infinite, relative within the Absolute, the informal within the formal, particularity within universality, unpredictability within predictability, pluralism within monism, variegation within evenness, creativity within staticity, difference within sameness, change within the unchanging, flux within stability, novelty within the established, movement within the unmoved, alternation within the unalterable, jiva within atman ’ 35 ‘Vaccination, unknown to Europe before the eighteenth century, was known in India as early as 550 A.D.’ (Durant 1997: 531-32). Also: ‘The ancient Chinese knew of preventive inoculation against smallpox, which they probably got from India’ (Garrison 1913: 52). 36 (Zimmermann 1999: 128-129). 37 Swami Kripalu (after whom the Kripalu Yoga Center in Massachusetts was named) was videotaped many times in such spontaneous flows of asanas. 38 For example, a technique called ‘chaotic breathing’ is meant to break mental patterns. Some mantra techniques use the principle that vak (sound/ thought) has four levels, and silent inner speech (madhyama) can lead spontaneously to pashyanti, wherein the patterned mind is deconstructed and one experiences a heightened state of alertness without content or sense of time or self. 39 (Lannoy 1971: 194). 40 (Shulman 1985: 3-4). 41 (Doniger 2009: 682). 42 Doniger is placating the lobby that does not want Hindus to reclaim their temples (taken over by invaders) by arguing that such a demand is somehow un-Hindu. Of course, as a proud collector of Indian art, Doniger would not want to allow her own vast collection to be reappropriated on the same basis. Nor would she want her intellectual property taken over without recourse in this way. 43 Nyaya Shastra’s five steps to establish a thesis are: pratijna (hypothesis), hetu (causal element), udaharana (data or example in support), upanaya (verification or experiment), nigamana (conclusion). The Mimamsakara’s principles for framing a problem are: upakrama (introduction), upasamhara (hypothesis), abhyasa (general outline of the hypothesis), apurvata (indication of originality), phala (purpose behind this framing), arthavada (argument in support of the solution or refutation of opponent), and upapatti (establishing the conclusion). The tantrayuktis are enumerated in various texts such as Arthashastra of Kautilya (third century bce), Sushrutasamhita of Sushruta (fifth century bce), Charakasamhita of Charaka (second century bce), Ashtangahridaya of Vagbhatta (third century ce) and Vishnudharmottara purana (fourth or fifth century ce). In addition to these ancient texts, there is another, titled Tantrayuktivicara, which exclusively deals with thirty-six devices for presenting scientific texts. A work called Anvikshiki has been attributed to Medhatithi Gautama and was preserved in Charaka schools. It deals with three themes, one of which is sambhasha or vadavidhi (methods of debate). One such system included: pratijna (issue or proposition to be debated), sthapana (the case including reason, example, application and conclusion), pratisthapana (a counter-propositions or ‘holes’ in the case), hetu (sources of knowledge), upanaya (application); nigamana (conclusion), uttara (rejoinder), siddhanta (tenet established after examination by experts), and samshaya (doubts and uncertainty). 44 This analysis is based on (B.K. Smith, 1989: 51-54). 45 The crisscrossing between the two sides has been interpreted by some with the theory that asuras as a whole were more ancient divinities that had somehow fallen from grace (like the Titans

of ancient Greece) with the rise of the devas. In early Iranian religion, their roles are reversed, with the devas becoming the ‘demons’, or rather the gods of a hostile civilization. 46 Some examples: (1) Brihaspati, the purohita (ritual performer) and guru of the devas constantly competes with his counterpart among the asuras, Shukrachraya, but it is the latter alone who holds the key to the secret of immortality. Thus Brishaspati’s own son, Kacha, has to become Shukra’s disciple and trick him into revealing the secret for the benefit of the devas. (2) Some of the most revered father-figures (the brahmin preceptor Drona, the wise Vidura, the patriarch Bhishma, et al.) in the Mahabharata all remain in the camp of the demoniac Kauravas. Ultimately, Krishna instructs Arjuna to seek spiritual wisdom and instruction in statecraft from the dying Bhishma even after having facilitated the slaying of the latter. Conversely, Bhima, who is Arjuna’s elder brother, betrays many savage and demonic traits which the epic highlights by having his birth coincide with that of the villain, Duryodhana. (3) Sri Rama has to perform penance for his slaying of Ravana, who is not only a brahmin but a great devotee of Shiva. 47 (Lannoy 1971: 294). 48 (B.K. Smith, 1989: 220). The ritual includes the sprinkling of sand (representing chaos) around patterned baked bricks (representing order) and the murmuring of inarticulate (anirukta) sounds amidst the well-articulated (nirukta) speech and chants. The finite thus remains grounded in the un-manifest and non-ordered potentialities of the infinite. The syllable Aum is considered anirukta par excellence, signifying everything by signifying nothing. 49 ‘At that time, there was neither existence nor non-existence, neither the worlds nor the sky. There was nothing that was beyond. There was neither death nor immortality. There was no knowledge of the day or night’ (Rig Veda, X. 129). 50 Much of the Judeo-Christian myth of the Devil is not biblical but a reflection of the influence of folklore and earth-based religions. The myth does reinforce the inherent dualism, however. 51 For example, Ravana was very knowledgeable, wise, and a worshipper of Shiva, and he achieved great spiritual powers, but he is classified as asura because his ego and arrogance took over and led him to adharmic conduct. 52 (Aurobindo, Collected Works of Sri Aurobindo: The Renaissance in India, 1997: 148). 53 (Ramanujan 1990: 44-47). 54 (Ibid.: 52-53). 55 The West has also developed ‘situational ethics’ at certain points. Wittgenstein’s notions of meaning against class-logic, searches for ‘native categories’ in anthropology, and holistic medicine, are also akin, in varying degrees, to Indian perspectives. Postmodern thought in the West has gone to great lengths to deconstruct normative categories, but in the absence of the notion of purna (or Brahman), the end-result, as I have said elsewhere, is narcissistic and nihilistic, or leaves a vacuum that is eventually appropriated into some normative framework. 56 (Ramanujan 1990: 54) 57 Universal Western ethics also tend to be abstract and therefore difficult to put into practice. Kant’s categorical imperative is an example: one teaches a child to say ‘please’ and ‘thank you’ rather than the abstract principle of ‘be polite’. The process of learning does not depend on apprehending universal categories. 58 However, smritis cannot be rewritten by just anybody, as this requires authority. There are people called ‘shastrakara’, or people who write shastra, but that is a high platform on which to be. The ordinary man does not have the adhikara, or authority, to produce shastra. What is more

realistic in the modern era is that existing dharma shastras should be adapted by practitioners to modern circumstances. No new smritis need to be written from scratch, but commentaries on existing ones could proliferate and create change. 59 The four varnas are the spiritual and intellectual leaders (brahmana), leaders of governance (kshatriya), those engaged in commerce (vaisya), and workers (shudra). The four asramas are: student in youth (brahmacharya), householder in adult life (grihasth), the transitional stage of preretirement (vanaprastha), and renunciation in old age (sannyasa). 60 Various smriti texts were used by kings as guidelines for the judicial systems in their kingdoms. In the late 1700s, the British, in order to rule in India, applied their penchant for canonized, universal laws and devised normative laws for India, which they termed ‘Hindu Laws’. They became the first in India’s long history to try to homogenize Hindu laws across the vast land. While these Hindu laws were derived from various Indian smritis, the latter, by their very nature, were always intended to be flexible, context-sensitive and open to revision and rewriting. By canonizing (as it were) the smritis at a particular moment in history and by presuming certain contexts to be universal, the British not only grossly misinterpreted the essence of Hinduism but stymied its social evolution as well. Unfortunately, even after independence, the same static Hindu laws have prevailed and hardened into what is now commonly accepted as Hindu laws. The British put great effort into this project; they made a number of attempts to engage the assistance of teams of pandits. They were simply unable to accept the contextual nature of laws, as that notion of contextuality was alien to their own ethos of uniformity and because it would not enable them to control the Indian public. The British-developed Indian criminal code is based on Roman and British traditions, but their judicial system followed the guidelines of the smritis in civil matters such as succession, adoption, marriage and divorce, and so on. Muslims, Christians and tribal communities were allowed to follow their respective traditions in such civil matters. The notion of a uniform civil code in Indian law would, under a system similar to Manu’s, have to be limited to certain types of laws that are general but would have to allow jati-specific laws for affairs that are internal to a given jati. 61 (Manusmriti, 7.41). 62 (Scharfe 1989: 221-22). 63 (Kane 1930: 882). 64 For example, Taittiriya Upanishad (1.11) says: ‘Speak the truth. Practice virtue (dharma) … Let there be no neglect of study and teaching. Let there be no neglect of the duties to the devatas and the fathers …’ 65 cf. (Chakravarti 2006). 66 For example, in the Discourse to Abhaya (Abhaya-Kumara-Sutta) there are statements classified according to their truth-value, utility (non-utility) and pleasantness (or unpleasantness). The intention is to ascertain what kinds of propositions are approved or asserted by the Buddha. In terms of the possibilities of being true (bhutam, taccam) or untrue (abhutam, ataccham), useful (atthasamhitam) or useless (anatthasamhitam), pleasant for others (paresam piya manapa) or unpleasant for others (paresam appiya amanapam), we get the eight following possibilities: (1) true useful pleasant; (2) true useful unpleasant; (3) true useless pleasant; (4) true useless unpleasant; (5) false useful pleasant; (6) false useful unpleasant; (7) false useless pleasant; and (8) false useless unpleasant. It is worthwhile quoting the text in order to get the context of this teaching: ‘The Tathagata does not assert a statement which he knows to be untrue, false, useless, disagreeable or unpleasant to others (no. 8). He does not assert a statement which he knows to be true, factual, useless, disagreeable and unpleasant to others (4). He would assert, at the proper time, a statement

which he knows to be true, factual, useful, disagreeable and unpleasant to others (2). He would not assert a statement which he knows to be untrue, false, useless, agreeable and pleasant to others (7). He would not assert a statement which he knows to be true, factual, useless, agreeable and pleasant to others (1).’ For an extensive discussion of this topic, see (Kalupahana, 1992: 45-52). For an even more technical exposition, see (Jayatilakee, 2004: 338-68). 67 (Lannoy 1971: 96, 227) 68 S.N. Balagangadhara has extensively argued for this non-normative nature of dharma and its difference from Western religion. Sarvepalli Radhakrishnan (1888–1975) points out that ‘the human race is not divided into the kingdom of Ormuzd and the kingdom of Ahriman [the good spirit and the evil spirit in the Zoroastrian religion]. In each man are these two kingdoms of light and darkness’ (Radhakrishnan, The Bhagavad Gita,1948: 335). 69 The oft-made parallel between the yamas and niyamas in Hinduism and Buddhism and the Ten Commandments is inappropriate for precisely these reasons. A better parallel might be made with Jesus’ Sermon on the Mount, which is more like a discourse on dharma than a set of codified laws. 70 (Lannoy 1971: 85). 71 (Ramanujan 1990; Marriott 1990: 44-47). 72 For instance, in Manusmriti the morality prescribed for all people includes ‘contentment, forgiveness, self-control, abstention from impurity, control of the sense-organs, wisdom, knowledge of the Self, truthfulness, controlling anger, cultivation of curiosity, and abstention from injuring creatures’. These are clearly universal principles or ideals (called samanya-dharma). The text then details the implementation of the samanya-dharma tailored to a variety of contexts, rather than applied homogeneously: A teacher and priest must not kill, but a soldier or policeman is allowed to do so under the right circumstances (i.e., in the line of duty, to protect society). The injunction to non-injury is specified for the brahmana as well as for the student (Manusmiriti 7.41), and for the ascetic forest-dweller (vana-prastha) this is likewise enjoined (75), as well as the practice of friendship and compassion towards all living creatures, and liberality to all (8). Furthermore, although there is an explicit preference expressed for adhering to one’s own svadharma, a crossover is explicitly recommended under certain circumstances, if the overarching universal principle calls for it. For example, in chapter 4 of Manusmriti, a brahmana or kshatriya is permitted to engage in trading in certain situations but must avoid agriculture since this involves an unacceptably high degree of harm to animals and insects. The universal ethic of compassion to all living beings is repeatedly emphasized, even in times of distress, i.e., when the context does not override it. A vaishya may, in times of distress, adopt a shudra’s mode of life on a temporary basis and relinquish it as soon as possible. 73 Here are some examples of universal dharma: ‘Abstention from injury, truthfulness of speech, justice, compassion, self-restraint, procreation with one’s own wife, amiability, modesty, patience – the practice of these is the best of all religions as taught by … Manu himself ’ (Santiparva, 21.11-12). ‘Refusal to appropriate what is not given, charity, study (of the scriptures), penance (tapas), abstention from injury (ahimsa), truth, freedom from wrath, and worship of the gods in sacrifices – these are the characteristics of virtue’ (Santiparva, 37.10). ‘Abstention from injury, by act, thought and word, in respect of all creatures, compassion, and charity, constitute behavior that is praiseworthy. That act or exertion by which others are not benefitted or that consequence of which one has to feel shame should never be done’ (Santiparva, 124.65-6). ‘Righteousness (dharma) was declared for the advancement and growth of all creatures. Therefore, that which leads to the advancement and growth of all creatures is righteousness. Therefore, that is

righteousness which prevents injury to creatures’ (Santiparva, 109.9-11). ‘… I know morality, which is eternal, with all its mysteries. It is nothing else than that ancient morality which is known to all, and which consists of universal friendliness, and is fraught with beneficence to all creatures.’ ‘That mode of living which is founded upon a total harmlessness towards all creatures or (in the case of actual necessity) upon a minimum of such harm, is the highest morality’ (Santiparva 262.56). The following are some examples of contextual dharma: ‘That which is virtue may, according to time and place, be sin. Thus, appropriation (of what belongs to others), untruth, and injury and killing, may, under special circumstances, become virtue. Acts that are (apparently) evil, when undertaken from considerations connected with the gods, the scriptures, life itself, and the means by which life is sustained, produce consequences that are good’ (Santiparva, 37.14). ‘Might is not always meritorious and forgiveness also is not always meritorious…Therefore, men should never exhibit might in excess or forgiveness in excess’ (Vanaparva, 6.8 ff). ‘There where falsehood would assume the aspect of truth, truth should not be said. There again, where truth would assume the aspect of falsehood, even falsehood should be said’ (Santiparva, 109. 4-5). ‘It is always proper to speak the truth. It is better again to speak what is beneficial than to speak what is true. I hold this is the truth which is fraught with the greatest benefit to all creatures’ (Santiparva, 329.13). ‘In seasons of distress, a person, by even speaking an untruth, acquires the merit of speaking the truth, even as a person who accomplishes an unrighteous act acquires, by that very means, the merit of having done a righteous act. Conduct is the refuge of righteousness. You should know what righteousness is, aided by conduct’ (Santiparva, 259.6). As may be evident from these quotations, the absolute standard of morality and righteous conduct must be moderated or compromised at times, depending on emergency, exigency and necessity (as in distress), and in the service of an even higher standard of truth than relative truth and untruth. That higher standard accords with universal compassion and non-injury. Thus: ‘That mode of living which is founded upon a total harmlessness to all creatures (or in the case of actual necessity) upon a minimum of such harm, is the highest morality’ (Santiparva, 262.4-5). See: (Radhakrishnan, A Source Book in Indian Philosophy 1957). 74 For example, in the Buddhist Dhammapada, the Buddha makes the following universalist credo of Dharma: ‘Hatred ceases by non-hatred, not by means of hatred. This is an eternal law (sanatana dharma)’ (Dhammapada,1,v). The emphasis on the eternality of the ethical principle of not opposing hatred with hatred is a patently universalist ethical principle. 75 Ramanujan elaborates on this: ‘Where kama, artha and dharma are all relational in their values, tied to place, time, personal character and social role, moksha is the release from all relations. If brahmacharya (celibate studentship) is preparation for a fully relational life, grhasthasrama (householder stage) is a full realization of it. Vanaprastha (the retiring forest-dweller stage) loosens the bonds, and sannyasa (renunciation) cremates all one’s past and present relations. In the realm of feeling, bhavas are private, contingent, context-roused sentiments; vibhavas are determinant causes; and anubhavas, the consequent expressions. But rasa is generalized; it is an essence. In the field of meaning, the temporal sequence of letters and phonemes, the syntactic chain of words, yields finally a “sphota”, an explosion, a meaning which is beyond sequence and time’ (Ramanujan, 1990: 54). 76 (de Nicolas 1986). 77 (Ibid.: 1986). 78 (Ibid.: 1986). 79 Furthermore, the Western scholars engaged in this are not formally qualified as psychologists, and there is inadequate due diligence and supervision of their work by psychology

experts. There has often been an ‘anything goes’ Wild West attitude of using pop psychology in interpreting Tantra. The licence to ‘tantricize’ Hinduism as a whole, and in a cavalier manner to boot, is more common among American than European scholars. It is natural for certain well-placed and influential American scholars to champion their own hermeneutics, because this empowers them as the new authorities on the vast theatre of Hinduism. The more esoteric, sensational and complex their theories become, the more their role as intermediaries in the cross-cultural encounter becomes secured. Other academicians have gone to the extent of claiming that the traditional Tantra practitioners’ view is ill-conceived and obsolete, and does not correspond to any reality. André Padoux, French specialist on Kashmir Shaivism and Abhinavagupta’s tantric works, makes this type of claim in his opening essay in the collective volume The Roots of Tantra (Padoux, 2002: 23-24). 80 Although the Vedic sacrifice is performed by brahmins typically for the upper strata, tantric sadhana (practice) is an individual discipline of the mind-body and its transmission has been available to everyone irrespective of caste. Certain tantricized sects, such as the Pashupatas and Kapalikas, were composed of those who had renounced worldly pursuits; however, they were not averse to the cultivation of siddhi (power) and even espoused radical sensuality. Tantra’s worship of deities is not a subservient prayer to an external God but rather a pursuit to gain personal access to the deities’ powers. At the level of the Tantra adept, the cosmic symbolism holds esoteric meaning within one’s inner experiences. But, for Indian householders, the same symbolism pervades popular festivals and pilgrimages without necessarily having the same esoteric meaning that it has in Tantra (i.e., it has more popular significance). In Srimad Bhagavata, Lord Krishna recommends a blend of both in Kaliyuga (Srimad Bhagavata, 11.2749, 11.1137). 81 There are stringent moral standards to maintain self-discipline, conquer selfish desires and egotism, and prevent cruelty and exploitation of others in Buddhist Tantra or vajrayana as well as in Shaiva Tantra. These codes are the root and branch vows which enjoin a morality grounded in a compassionate motivation (bodhichitta) to cherish others more than oneself. Tantric morality is premised on the balance of wisdom and compassion (prajna-karuna), or alternatively, wisdom and skilful means (prajna-upaya). In the traditionalist Tantric worldview, only the most disciplined and unselfish are really qualified for the higher practices. A dissolute and licentious tantric practitioner is pejoratively called a ‘beast’ (pashu) in the Shaiva-Shakta tantric schools. 82 (Hiltebeitel 1989). 83 Thus André Padoux, who did his doctoral research under his personal guru, Lilian Silburn, refers to Abhinavagupta as being unaware of his contradictions, because he is an Indian (i.e., caught up within the very system he is attempting to describe objectively). This remark was apparently not intended for Indian audiences, for it was removed from the subsequent English translation of his French thesis. 84 As a result of this, Indian narratives are filled with what Westerners would consider ethical and ontological contradictions. Dharma, or right action, is a domain of its own, and is not necessarily related to aesthetics or even necessarily to conventional morality. It is interesting that the aesthetics of the king are glorified as rupa (good-looking), whereas the sadhu/tantrika is another kind of exemplar, who is not a-rupa (neutral looks) but vi-rupa (bad looks). Dharma is not related to rupa (aesthetics) but a separate domain. Indian logicians and grammarians do not bring in beauty or morality. 85 Origen of Alexandria (185–254 ce), one of the founding fathers and prominent theologians of the early Church, wrote that the Egyptians went into bondage because ‘Egyptians are prone to degenerate life’ and sinking to vices. ‘Look at the origin of the race and you will discover that their father, Ham, who had laughed at his father’s nakedness deserved a judgment of this kind and that

his son, Chanaan, should be servant to his brothers, in which case the condition of bondage would precede the wickedness of his conduct.’ 86 Kant, Immanuel. ‘Observations of the feeling of the Beautiful and Sublime’. Quoted in (Eze 1997: 55). 87 Ibid. Kant made sati seem like a normative practice which could be used as the basis for making sweeping conclusions: ‘The despotic sacrifice of the wives in the very same funeral pyre that consumes the corpse of husband is a hideous excess’ (Eze 1997: 55). 88 I remember a local Princeton policeman, originally from India, giving advice to some Indian teenagers to stay out of trouble by avoiding drugs, gangs, etc. One of the kids avoided direct eye contact with him, and the policeman reprimanded him, ‘When stopped by a police officer, make sure you look directly and confidently at his eyes and with complete certainty in your tone. If you don’t do this, police officers are trained to suspect that you have something to hide.’ He explained that it was important to have a strong and positive body language, with chest out and not hunching or looking scared. He pointed out that Indians are often misunderstood, because they have a very different body language than white Americans. 89 This is not to say that Indians are not corrupt. The point is that in India there is not the same kind of conflation of morality, aesthetics and reason, and hence one finds a wider spectrum of each independently of the other two. 90 In the 1930s, when Theodor Adorno criticized whites for defining jazz as black music, the prevailing white-dominated discourse did view jazz as ‘primitive and perhaps even dangerous, its refinement best left to whites’ (Steinman 2005: 117). Record companies forced black groups to adopt frontier names such as ‘The Jungle Band’ and ‘Chocolate Dandies’, and they were given labels like ‘Ethiopian Nightmare’. Mainstream critics described jazz as degenerate and something of which to be wary. Only when practised and marketed by whites did it become mainstream. 91 Adorno explained capitalism’s appropriation of black music into ‘commodities’ and ‘confusing parodies’ which were ‘manufactured by the fashion industry’ (Steinman 2005: 118). 92 See (Kagan 2006; Slotkin 1985). 93 I have discussed this syndrome more widely in various articles. See, for instance: (Malhotra, ‘Whiteness Studies and Implications for Indian-American Identity’, 2007). 94 Goldenberg explains the use of the term ‘discolored’ in this passage by analysing Origen’s approach to skin colour: ‘One must ask why Origen chose to mention the Egyptians’ skin color while describing their bondage … The answer I think can be deduced from Origen’s extensive exegetical treatment of dark skin elsewhere in the Bible. He explains the dark color of the maiden of Son 1:5, saying darkness is due to prior sinful condition … “black because of the ignobility of birth”, (Haynes 2002: 68). 95 Haynes further explains: ‘For over two millennia, Bible readers have blamed Ham and his progeny for everything from the existence of slavery to serfdom to the perpetuation of sexual license and perversion to the introduction of magical arts, astrology, idolatry, witchcraft and heathen religion. They have associated Hamites with tyranny, theft, heresy, blasphemy, rebellion, war and even deicide’ (Haynes 2002: 67). 96 (Haynes 2002: 68). 97 (Haynes 2002: 2). Also see: (‘What’s up with the Biblical Story of Drunken Noah ’, 2005).

98 As Haynes points out, for tax purposes, slaves were counted as property along with domestic animals. The US Congress passed a bill asking the US Census Bureau to count each slave as threefifths of a person. Indeed, by the eighteenth century, as slavery became a central institution of the European economy, the Hamitic myth was entrenched and governed the discourse on race relations and justification of slavery. The advocates of slavery included respected professionals such as doctors, lawyers, politicians, clergymen and professors who based their position on the Curse of Ham as historical fact (Haynes 2002: 66). Some extreme pro-slavery advocates went to the extent of tracing the black race as descendants of the cursed Cain, the first murderer in Biblical mythology. More importantly, even converted Africans themselves accepted this version of their history as taught to them by Europeans. Thus, the slave and black poetess Phyllis Wheatley wrote in 1773: ‘Remember Christians, Negroes black as Cain/May be refined and join the angelic train’ (Goldenberg 2003: 178). 99 (Haynes 2002: 107). 100 (Priest 1852: 94) cited in (Haynes 2002: 247). This book was reprinted three times in New York, from 1843 to 1845 and had six editions in Kentucky from 1852 to 1864 (Haynes 2002: 247). The book was called The Bible Defense of Slavery and its author was venerated. Troup Taylor, another Christian, wrote a pamphlet that also became famous and saw many reprints. Titled The Prophetic Families, the Negro: His Origin; Destiny and Status (T. Taylor 1895), it explained how the curse on Ham was passed on through Canaan to the entire negro race: ‘Canaan who is certainly the father of the negro family, was adapted to a destiny suited only to an inferior people. The prophecy begins by saying “Cursed be Canaan; a servant of servants shall he be unto his brethren”… Let us see how literally the prophetic law embraced in this verse has been fulfilled by the negro and negro alone’ (T. Taylor 1895: 20-21). 101 Earlier Islamic scholars had concluded that Indians were black descendants of Ham but that they were the first nation to have cultivated the sciences, and hence Allah ranked them above some white and brown peoples. See, for instance: (i) The eleventh-century work translated in (Andalui 1991). (ii) Shem is named as the ancestor of Arabs and Persians; Ham, as the ancestor of Indians; and Japhet, as the ancestor of Turks, Chinese and Russians, in the 1768 work by Muhammad Qasim Hindu Shah Firishta (Firishtah n.d.). (iii) A later work places Akbar in the lineage of Japhet, whom it regards as the most just of Noah’s sons, while Ham had sons named Hind and Sindh. (Beveridge 1902, Reprint 2010). 102 (Sugirtharajah 2005: 148, 150). 103 (Newton 2009). Later, Bryant (in 1774-76) evolved this further in his three-volume series titled Analysis of Ancient Mythology (Byrant 2003). The sons of Ham included Egyptians, Greeks, Romans and Indians. These descendants of Ham had invented the arts but then declined into idolatry. 104 (Slotkin 1985). 105 From the Egyptian paintings to the Ajanta caves, art history shows a diversity of ideas about human beauty, reflecting the prevailing view of that time and place. When one examines the women models in the Renaissance paintings, most of them are pale, overweight by today’s standards, and without cosmetics or jewellery. By today’s standards of Madison Avenue fashion, few of the Renaissance models would get jobs even as ordinary models. The dominant culture during the Renaissance did not exert much physically, as that was a marker of the labour class, whereas the elite today espouse exercise as a value. The European elite in prior centuries avoided the sun, while the poor worked in the fields, but today the rich boss is out playing golf and getting tanned or going to beach resorts, and it is the blue-collar worker who is indoors in a sweatshop.

106 A very early Greek text by John Chrysostom has Jesus with dark blue eyes, though this depiction did not become popular in the mainstream until relatively recently. 107 (Trautmann 2004: 42). 108 Trautmann explains the Hindu images which are so prominent on Sir William Jones’s statue in St Paul’s Cathedral: ‘The scene as a whole, therefore, is presented not under the aspect of a depiction of pagan idolatry but as a benign, independent record of the truth of the Biblical story of the universal flood’ (Trautmann 2004: 80). 109 The Divine Comedy, ‘Inferno’, Canto 1 110 (Aurobindo, Collected Works of Sri Aurobindo: The Renaissance in India 1997: 186). I am indebted to Dr Lokesh Chandra who, during our conversations in the 1990s, suggested the terms ‘forest civilization’ and ‘desert civilization’. 111 The jati called baniya, prevalent in northern India, often sold groceries and other merchandise under such a tree, and British writers of the seventeenth century started to refer it as ‘banyan’, naming it after the community conducting its business underneath its shade. The traditional Indian school was often held under a banyan tree, and this is still the case in remote areas. 112 F.B.J. Kuiper’s magnum opus Varuna and Vidûshaka: On the Origin of the Sanskrit Theater argues for the (asura) Varuna-identity of the Hindu joker. It grew out of his primary work on the centrality of balance between order/chaos, gods and demons, in Vedic religion (Kuiper 1979). 113 It is important to bear in mind that the Hindu sages were keenly aware of these connections and theorized them in multiple ways. 114 (Lannoy 1971: 399). Lannoy argues that this art form usually conforms to a tragicomic mould in keeping with the conception of the Hindu universe as a conjunction of complementary forces morally opposed to each other.

5. Non-translatable Sanskrit versus Digestion 1 Katyayana, the Sanskrit grammarian and mathematician of the third century bce, stated that shabda (speech), artha (meaning) and their mutual relation are eternal (nitya). He believed that the word-meaning relationship was not a result of human convention but was eternal. Although the object that a word refers to is non-eternal, the substance of its meaning remains unchanged, like a lump of gold used to make different ornaments, and is therefore permanent. According to Patanjali, spotha (meaning) is the permanent aspect, while dhvani (sound) is its temporary aspect. The Sanskrit author Bhartrihari, on the other hand, regarded shabda as indivisible, unifying cognition and linguistic usage, and ultimately identical with Brahman. Shabda-Brahman is both the underlying cause of the articulated sounds and the linguistic expression of their meaning. Language philosophy was debated between the naturalists of the Mimamsa school led by Kumarila, who held that shabda designates the actual phonetic utterance, and the Sphota school, led by Mandana Mishra, who identified sphota and shabda as a mystical ‘indivisible word-whole’. 2 The Indian conception of the relation of the macrocosm to the microcosm is also expressed in the tantric system as the four layers of vak (vibration) which comprise a tangled web. From the grossest to the subtlest, these are as follows: (1) Vaikhariis what we conventionally experience externally. Here things are separate and relate as independent entities. For example, verbalizing a mantra as audible sound is at the vaikhari level. (2) Madhyama is the subtler level of cognition, where the mantra is in the mind as a thought but not verbalized aloud. (3) The next more subtle level is pashyanti, which is in the subconscious mind where these entities are inter-contained and

inter-defined and not really separable at all. This is when the mantra disappears, leaving only a very mild presence but without form. (4) Para is the ultimate reality, where there are no separate entities and only an ocean of possibilities from which the aforementioned levels arise to manifest difference. The mantra is absent and there is silent but heightened awareness. 3 (Kak, The Gods Within, 2002: 151). 4 SrimadBhagavatam 12.6: Verses (40-41). The Supreme Self perceives this unmanifest, subtle sound outside of the physical sense of hearing and power of vision. The complete Vedic sound one employs is an elaboration of the ‘omkara’, which appears from the soul in the ether. Of the selforiginating Brahman and Paramatman, it is the direct expression. It is the eternal seed of the Vedas that is the secret of all mantras. (42) The three sounds [A, U and M] of the alphabet beginning with A originated from that sound. They are fundamental to the threefold aspect of material existence, namely, the gunas, as well as to the names of the Vedas, destinations of lokas, and states of consciousness [avasthatraya]. (43) The mighty unborn Lord Brahma created from it the different sounds of the total collection of vowels, sibilants, semivowels, and consonants as they are known by their short and long measures. 5 Patanjaji’s Yoga-Sutra (I.48-51). Such enlightenment/understanding is saturated with harmony, order and righteousness. Whatever one has learned or heard from external sources is outside of the consciousness, but this special realization is of a different category. This spontaneous self-awareness completely transmutes the entire being and there is total change. All other habits and tendencies are overcome by it. When even this special realization (with the seed of fragmentation still present in it) gets transcended, everything is transcended, and the seeker has, as it were, come full circle. The Reality realizes itself, without the need for the separate individual even in his subtlest state. This indeed is the enlightenment in which there is no seed at all for the manifestation of duality. 6 (Lannoy 1971: 273-74). 7 (Ibid. 275). 8 Pure, ecstatic contemplation of phonetic sounds reverberating on the ether in the sacred chant is comparable to the contemplation of geometrical forms and mathematical laws by the Pythagoreans. ‘Only the Pythagorean master can hear the music of the spheres: only the perfect Hindu sage can hear the primordial sound – nada. One system exalted numbers, and the other, words’(Lannoy 1971: 276). 9 (Aurobindo, Collected Works of Sri Aurobindo: The Future Poetry, 1997: 38). 10 An example of such a study was reported in the article titled ‘Physiological patterns during practice of the Transcendental Meditation technique compared with patterns while reading Sanskrit and a modern language’, published by the Psychology Dept., Maharishi University of Management, Fairfield, Iowa. It claims: ‘This study tested the prediction that reading Vedic Sanskrit texts, without knowledge of their meaning, produces a distinct physiological state. We measured EEG, breath rate, heart rate, and skin conductance during: (1) 15-min Transcendental Meditation (TM) practice; (2) 15-min reading verses of the Bhagavad Gita in Sanskrit; and (3) 15-min reading the same verses translated in German, Spanish, or French. The two reading conditions were randomly counterbalanced, and subjects filled out experience forms between each block to reduce carry-over effects. Skin conductance levels significantly decreased during both reading Sanskrit and TM practice, and increased slightly during reading a modern language. Alpha power and coherence were significantly higher when reading Sanskrit and during TM practice, compared to reading modern languages. Similar physiological patterns when reading Sanskrit and during practice of the

TM technique suggests that the state gained during TM practice may be integrated with active mental processes by reading Sanskrit’ (Travis, et al. 2001). 11 (Aurobindo, Collected Works of Sri Aurobindo: The Future Poetry, 1997: 313). This is a paraphrase of Anjali Jaipuria, ‘Mantric Poetry’, presented at National Seminar on Philosophy of Indian Poetics & Value-Oriented Education, 24-26 January 2003, Sriperumbudur, India. 12 In texts such as Sringaraprakasha of Bhoja (Chapter 7) and Durghatavritti of Sharanadeva, the authors declare that intonation has an important role to play in revealing the intention of the speaker, and it helps in the interpretation of texts in the right manner. Bhoja has given several divisions and subdivisions of intonation and their importance. In Sringaraprakasha, each category of intonation has been illustrated with examples from Sanskrit literature. 13 (Aurobindo, Collected Works of Sri Aurobindo: The Synthesis of Yoga, 1999, 11-12). 14 Dr Sampadananda Mishra of the Sri Aurobindo Society, Pondicherry, India, has theorized that reciting certain Sanskrit alphabets gives an experience of pranayama.‘It is as if the alphabet is breathing,’ he remarks. 15 (Aurobindo, Hymns to the Mystic Fire, 1996: 449). 16 For example, the word ushas in the Vedas has both light and darkness as its meanings. The experience of light is not complete without the experience of darkness, and so the word meaning ‘light’ also expresses the sense of ‘darkness’. 17 I am indebted to Dr Sampadananda Mishra of the Sri Aurobindo Society, Pondicherry, for providing this example. 18 For more details, see: Sanskrit and the Evolution of Human Speech by Dr Sampadananda Mishra, pp. 119-124 (unpublished). 19 Again, I am indebted to Dr Sampadananda Mishra of the Sri Aurobindo Society, Pondicherry, for providing this example. 20 (Ramanujan 1990: 48). 21 The correct method is prescribed by the Vedanga called Siksha, which covers enunciation (ucharana), tone (swara), duration (maatra), pitch (balam), evenness (samam) and compounding (santhanam). These rules, designed to ensure clear, lucid and effective pronunciation of mantras, require that the sounds be properly audible and not mumbled or overemphasized; nor should they be uttered in a casual manner or in a staccato fashion, nor delivered too fast or too slow or with a shaking of the head. The sounds should have been orally learnt from a teacher and should be orally chanted with concentration and understanding and never read from a written script. 22 In his Mahabhashya (1.1.1), Patanjali gives a beautiful example to illustrate this point. Indra killed Trishira, the son of Tvashta. This enraged Tvashta, who set about avenging his son’s death. For this he conducted a sacrifice with the intention of bringing into life a powerful being that could kill Indra. He had recited repeatedly ‘indrasatrurvarddhasva’, meaning ‘may the killer of Indra grow stronger’. But, unfortunately,Tvashta recited the mantra with the wrong accentuation. As a result, the word indrashatru, meaning ‘the killer of Indra’ (‘indrasya shatruh’) gave the sense ‘he whose killer is Indra’ (‘indrahyasya shatruh’) and ultimately the being that came out of the sacrificial urn was killed by Indra. Tvashta could not get the desired result, and all his efforts proved futile because he accented incorrectly. Erroneous intonation or accentuation, then, can bring harmful results or no result at all. 23 See (Ramaswamy, Nicolas and Banerjee 2007), for details on this example and the controversy surrounding it.

24 (Sullivan 1994: 377-401). 25 (Ramanujan 1990: 50). 26 Epistemologically, there are many theories in Indian philosophy which emphasize the contextual nature of subject–object relationships. One sophisticated theory is propounded in the Vijnaptimatrata philosophy of the Yogachara school of Buddhism, according to which all erroneous cognitions are said to arise in the form of bifurcation of subject and object (grahya-grahaka-vikalpa) in what is more fundamentally a non-dual experience (advaya-vijnaptimatrata) in which duality discrimination (dvaya-vikalpa) is introduced as an inveterate tendency to dichotomize. The general Buddhist theory of ‘dependent arising’ (‘pratityasamutpada’) also emphasizes the mutually dependent nature of the subject-object (nama-rupa) relation. 27 (Ramanujan 1990: 50). 28 These three ‘das’ comprise a model conversation policy, an intense desire to preserve the equilibrium, and a subsistence ethic designed not to upset the social ecology. This institutional framework is rooted in the exchange of services and social reciprocity called the ‘jajmani’ system wherein the law of karma operates as the ethical correlative. See: (Lannoy 1971: 194-95). 29 (W. Jones 1795: 237-312). Westerners consider Carolus Linnaeus (1707– 78) to be the father of modern taxonomy. 30 This method was also used by The Mother, Sri Aurobindo Ashram, to give spiritual names to hundreds of flowers. She explained how she discovered the significance of a given flower ‘by entering into contact with the nature of the flower, its inner truth. Then one knows what it represents’ (Mother 2003: 230). 31 Dr Sampadananda Mishra of the Sri Aurobindo Society, Pondicherry, has provided the following examples to show how the various names of a plant reveal the different aspects of its truth. The modern botanical description of guduchi or tinosporacordifolia is that it is a climber with long offshoots; rich in foliage, in sap; the leaves of which are used as vegetables; its mature stem is black green in colour; it has no thorns; it has a bitter taste; it promotes good health and imparts longevity and is benevolent in action; cattle love to eat its leaves; it is capable of rejuvenating itself from the cut bits of the stem; and its fibrous shoot was used in surgery for suturing. Now let us look at the different names of this plant given by the ancient Indian Acharyas. The very name guduchi is derived from the root gud, which means ‘to guard or protect or preserve’. This indicates the high potentiality of the plant. The names amritavalli, amritavallari, amritalata, somavalli and somaltika indicate that this is a weak-stemmed plant. The name mandali indicates that the stems of this plant entwine in a circular fashion; kundali indicates that the stem gets entangled while it twines; nagakumari indicates that the stem has a twining nature comparable to that of young snakes; tantrika points out the spreading nature of the plant; tantri indicates the tough rope-like nature of the plant; chadmika refers to its thick foliage; vatsadini indicates that its leaves are eaten by the calves; shyama refers to the black green colour of its stem; dhara indicates that the young stems of this have slight longitudinal grooves; chakralakshana indicates the appearance of the stem in crosssection; vishalya indicates that the plant has no thorny or irritant appendages; the names china, chinnaruha, chinnodbhava and chinnangi refer to the undying nature of the stem or stem bits; abdhikahvaya refer to the richness of sap in its stem and leaves; amrita indicates that the persons using this plant would live a long and healthy life; soma refers to the powerful action of the plant as an elixir; the names rasayani, vayastha and jivanti refer to the rejuvenating nature of the plant; jvarashini and jvarari refer to the specific use of the plant in fevers; bhishakpriya and bhishakjita signify that this plant is the favourite of the physicians; vara indicates that it is the best among medicines; soumya and chandrahasa indicate its nature of benevolence in action; devanirmita,

amritasambhava and surakrita indicate the divine origin of the plant. These examples show that the ancient Indian rishis did not create multiple names for one plant just out of their fanciful imaginations; the names corresponded to their various experiences in the process of discovering the complete nature or truth of a plant. 32 Richard Lannoy, who researched this history, points out that Indians were structuralists several thousand years before Claude Lévi-Strauss lost all sense of time and became totally absorbed in tracing the labyrinthine geological strata of the Cévennes and long before structuralist physics was developed with the aid of non-numerical, computerized pattern-recognition (Lannoy 1971, 280). 33 (Eliot 1964: 118-19). Kearns explains that Eliot’s use of ‘shantih shantih shantih’ to end The Waste Land showed his deep appreciation of the sound and breath effects involved, and that the closest Christian equivalent, ‘the peace that passeth understanding’, would be a feeble translation. Yet Eliot omits aum at the end. This was the final threshold dividing Indic and Western tradition which Eliot did not want to cross (Kearns 1987: 228-29). 34 (Lannoy 1971: 166). 35 (Ibid). 36 (Nath 2001). 37 (Ibid.: 98). 38 (Eck 1982: 69). 39 According to Skanda Purana (II.8.6.81-84), by taking a bath in the place where Sarayu and Ghaghara meet, the pilgrim receives punya (merit) equivalent to a thousand Ashvamedha Vedic rituals, etc. 40 For example, the Linga Purana (I.77.8-25) refers to different styles of temple architecture. 41 For example, in the Markandeya Purana (XIX.10), drinking liquor is not disapproved of, and meat and liquor are mentioned as acceptable offerings to Lord Dattatreya. 42 (Lannoy 1971: 193). 43 (Lamb 1975: 442-43). 44 As quoted in (Bhattacharjee 1981: 199-200). 45 (Bhattacharjee 1981: 1-3). 46 There is synergy between Sanskrit and Prakrit. A tinge of Prakrit added to Sanskrit brought Sanskrit closer to the language of the home, while a judicious Sanskritization made Prakrit into a language of a higher cultural status. Both processes were simultaneous and worked at conscious as well as subconscious levels. As an example of this symbiosis, one may point to various Sanskrit texts in medieval India which were instruction manuals for spoken or conversational Sanskrit by the general public. 47 For examples of such projects, read (Malhotra and Neelakandan 2011) 48 There can certainly be abusive practices in pull marketing; the mere fact that the buyer takes the initiative does not preclude unethical conduct on the part of the seller. Likewise, not all push marketing is unethical but can be easily coopted by the aggressive ego. 49 (Lamb 1975). 50 Another distortion in translation is the loss of families of words. We have seen that the synonyms for a given object are like a family. But when these are separately mapped on to another language they no longer comprise a family.

51 Monier Williams gives ‘in whom all things lie’ as the primary meaning of Shiva, derived from the root œi. Other important meanings of the word are ‘auspicious’, ‘kind’, and so on. Shiva is also ‘a-kala’, i.e., beyond time, and ‘sadashiva’, the eternal who stays on despite and beyond destruction. 52 The Vedic term ritam means truth defined as a repeated pattern of events, something like universal laws of science. This is distinguished from satyam, which is absolute truth. While empirically observed patterns of repeated events are open to verification, as well as falsification, satyam, based on transcendental experience, is absolute and independent of contingencies of empirical observation (which David Hume spoke of in the eighteenth century). 53 (Aurobindo, Collected Works of Sri Aurobindo: Essays on the Gita, 1997: 4). 54 (A Concise Sanskrit-English Dictionary 1990). In specific systems there are also other meanings, such as, for instance, in Jaimini’s Mimamsa aphorisms (1.1.2). 55 It has been pointed out that the Hindu school of Purva Mimamsa does demand commandment-style obedience. This system consists of mechanical reciting of mantras in the right way so as to achieve the desired result, and it interprets the Vedas as including ‘vaidhi’ (commandments) among its verses. Jaimini originated the Purva-Mimamsa school by compiling earlier interpretations, the main thrust of which was that the slightest deviation from the correct procedure of the yajnas (temple ritual) would not only be futile but counterproductive. Language had to be purposeful, and purely descriptive language was worthless. In his book Vidhi Viveka, the eminent scholar Mandana Misra discusses the Purva-Mimamsa claim that dharma is to be known only from the Vedic injunctions. See: (Natrajan 1995). However, it is refuted by Vedanta and Tantra and replaced by what is called Uttara Mimamsa. Buddha, Mahavira and Krishna were all opposed to the purva-mimamsa way. Krishna (in Gita 2. 42-6) criticizes the ‘veda-vada-ratahs’, or the persons who have superficial knowledge of the Vedas, and for having the wrong bhava. He emphasizes the importance of knowing the higher purpose of rituals as opposed to the mechanical performance of them. Sri Jiva refers to two kinds of bhakti: vaidhi-bhakti is based on scriptural compliance whereas raganuja-bhakti is based on feelings of love from the heart. The latter is far superior. Thus, Purva Mimamsa is seen as having a role for beginners and is superseded by Uttara Mimamsa. Also, even at the Purva Mimamsa stage, vaidhi was never a set of commandments against others but was intended as a set of instructions to help the individual raise his or her own consciousness in order to transcend, as it were, the need for commandment. 56 Interestingly, these laws do not pertain to jatis, varnas, etc., in other words there are no civic or criminal laws as such pertaining to castes. 57 For a detailed account on why Dharma is not law, see: (Sharma 2005). 58 See, for example, Sharma 2005. 59 Some examples from the Vedas are as follows: Chandogya Upanishad (2.23.2-3): ‘As leaves are held together by a spike, so all speech is held together by Aum. Aum is the world-all.’ Taittiriya Upanishad (1.8): ‘Aum is Brahman. Aum is the whole world.’ Katha Upanishad (2.15-17): ‘The word which all the Vedas rehearse, and which all austerities proclaim, desiring which men live the life of religious studentship – that word is Aum. That syllable is Brahman. That syllable indeed is the supreme. Knowing that syllable, whatever one desires is his.’ Mandukya Upanishad (1-12) explains that Aum is divided into four components: ‘A’, ‘U’ and ‘M’ correspond to the three states of consciousness, namely and respectively, waking, sleeping and deep-sleep. The fourth is the ‘turiya’ state, which transcends all these. Thus Aum is the Self (Atman). Maitri (Maitrayaniya) Upanishad (6.22) explains that Aum is both the way to understand Ultimate Reality as well as the means to transcendence in order to attain it. Aum is equated with ‘Shabda-Brahman’. Maitri Upanishad (6.28)

compares Aum with the raft for crossing to the other side of the space in the heart. Svetasvatara Upanishad (1.13-14) explains the use of Aum as sound for meditation. ‘Both the universal and the individual Brahman are to be found in the body by the use of Aum. By combining one’s body and the Aum sound for practising dhyana, one may see the deva within oneself.’ 60 (G. Joseph 2007). 61 (Loy, A Buddhist History of the West : Studies in Lack 2002). 62 (Patterson 1992: 402-03). 63 (Loy, A Buddhist History of the West : Studies in Lack 2002, 9). 64 (de Nicolas 1986). 65 Ibid. 66 (Aurobindo, Collected Works of Sri Aurobindo: Essays on the Gita, 1997: 13-14). 67 Ibid. 68 This is based on the Bhagavadgita’s view. The Puranas and some other Vaishnava traditions do not make a clear distinction between vibhuti and avatara, and there is a tendency to apply the name ‘avatar’ to anyone who has risen above the ordinary level of human consciousness or has some special divine power. But the Bhagavadgita is specific about avatars and says that there can be infinite numbers of vibhutis, or ones with special qualities and powers of the divine, but the Supreme descends in human form as an avatar for a specific purpose. 69 Kundalini Rising: Exploring the Energy Awakening, by Gurmukh Kaur Khalsa and Dorothy Walters. Sounds True, 2009. 70 The Virgin Mary has long been the object of both devotional and scholarly interest, and recent years have seen a proliferation of studies on traditions of worship of Hindu goddesses. Despite the parallels between the two, however, no one has yet undertaken a book-length comparison of these traditions. In Divine Mother, Blessed Mother, Francis Clooney offers the first extended comparative study of Hindu goddesses and the Virgin Mary (2005). Clooney is almost unique in the field of Hindu studies as a Christian theologian with the linguistic and philosophical expertise necessary to produce sophisticated comparative analyses. Building on his previous work in comparative theology, he sheds new light not only on these individual traditions but also on the nature of gender and the divine. 71 (Aurobindo, The Mother 1995, 54). 72 ‘The Gods are born from Aditi in the supreme Truth of things, the Dasyus or Danavas from Diti in the nether darkness; they are the Lords of Light and the Lords of Night fronting each other across the triple world of earth, heaven and mid-air, body, mind and the connecting breath of life’ (Aurobindo, Collected Works of Sri Aurobindo: The Secret of the Veda 1998, 232). Also: ‘Aditi is the infinite Light of which the divine world is a formation and the gods, children of the infinite Light, born of her in the Ritam, manifested in that active truth of her movement guard it against Chaos and Ignorance. It is they who maintain the invincible workings of the Truth in the universe, they who build its worlds into an image of the Truth’ (Aurobindo, Collected Works of Sri Aurobindo: The Secret of the Veda 1998, 475). 73 The names of these ten personalities appear differently in different Tantras, though the most popular and widely accepted names are: Kali, Tara, Tripurasundari, Bhuvaneshwari, Tripurabhairavi, Chhinnamasta, Dhumavati, Bagalamukhi, Matangi and Kamalatmika. At the start of each cycle of creation, Kali emerges as Time, and Bhuvaneshwari as Space; the flaming word supreme turned toward manifestation is Bhairavi; the perceiving word is Tara; the expressed word is

Matangi; the primordial luminous desire is Sundari; the delightful beauty is Kamala; Chhinnamasta combines light and sound in her thunderclap; and Bagalamukhi stifles the free flow of things. 74 Some linguists feel that it was an adaptation of Sanskrit ‘santah’, with the root word ‘sat’. In Hindi it is ‘sant’. In support of this, one notes that saints emerged prominently in Catholicism, and hence this was not something adopted from Judaism. 75 ‘Tat paramam Brahma-veda Brahma-ivabhavati’ (‘The knower of that ultimate Brahman becomes Brahman, nothing less’), Mundaka Upanishad, 3/2/9. There are seven types of rishis: srutarshi, kandarshi, paramarshi, maharshi, rajarshi, brahmarshi and devarshi. 76 (Aurobindo, The Hour of God: Selections from his Writings, 1995, 218). 77 An example of worshipping numerous devatas for specific qualities is the following aphorism by Sri Aurobindo: ‘Be wide in me, O Varuna; be mighty in me, O Indra; O Sun, be very bright and luminous; O Moon, be full of charm and sweetness. Be fierce and terrible, O Rudra; be impetuous and swift, O Maruts; be strong and bold, O Aryama; be voluptuous and pleasurable, O Bhaga; be tender and kind and loving and passionate, O Mitra. Be bright and revealing, O Dawn; O Night, be solemn and pregnant. O Life, be full, ready and buoyant; O Death, lead my steps from mansion to mansion. Harmonise all these, O Brahmanaspati. Let me not be subject to these gods, O Kali’ (Aurobindo, The Hour of God: Selections from his Writings, 1995, 85). 78 This view of the worship of images is consistent with the ‘smarta’ schools of Hinduism. This is distinct from Vaishnavism where the image is seen as a living being (‘archa-vigraha’) because the Lord has entered it after the necessary rituals, and hence it is not a mere symbol. But in either case, it is not an idol in the Western sense of that term. 79 (Aurobindo, Collected Works of Sri Aurobindo: Essays in Philosophy and Yoga 1998, 247). 80 (Aurobindo, The Upanishads 1996, 278). 81 (Aurobindo, Collected Works of Sri Aurobindo: The Renaissance in India 1997, 192). 82 (Kirsch 2004). 83 Ibid.: 108-109. 84 Ibid.: 115. 85 Ibid.: 15-16. 86 (Ibid. 2004: 113). 87 (Salisbury 2004). 88 See: Breaking India. 89 Rig Veda (I,164,35) says that yajna is the very navel of the universe. It was Lord Prajapati who first fashioned yajna, and through it he wove into one fabric the warp and weft of the three worlds (Rig Veda I,164,33-35). 90 One prominent incident in the sixteenth century is described as follows: ‘For it is an Indian custom that when such a calamity has occurred, a pile is made of sandalwood, aloes, etc., as large as possible, and to add to this dry firewood and oil. Then they leave hardhearted confidants in charge of their women. As soon as it is certain that there has been a defeat and that the men have been killed, these stubborn ones reduce the innocent women to ashes…As many as three hundred women were burnt in the destructive fire of those refractory men’ (Allami 1977, 472). 91 ‘Puputan’ is a Balinese term that refers to a mass ritual suicide in preference to facing the humiliation of surrender … [In] 1906, an overwhelming Dutch force landed at Sanur beach … [and] the Raja, dressed in traditional white cremation garments [and] magnificent jewelry … [led a

procession of his] officials, guards, priests, wives, children and retainers [and] began killing themselves and others… the Dutch open[ed] fire with rifles and artillery. Women mockingly threw jewelry and gold coins at the troops … Approximately 1,000 Balinese died’ (‘Puputan’ 2011). 92 While not linked to the concept of yajna, it has been suggested that the Bhagavadgita, too, incites violence, especially when Lord Krishna urges Arjuna to fight his close relatives in order to fulfil his dharma. But before rushing to declare these wars as equivalents, several critical differences must be noted. Arjuna declares his reluctance to fight as he has nothing to gain, whereupon and Krishna educates him on the inner state of the warrior – consisting of detachment, self-mastery, transcendence of ego, and devotion – as a critical prerequisite of action. In the Bhagavadgita it is dharma (as righteousness) and not one’s specific brand of religion that is paramount and worth fighting for. In the Abrahamic traditions, the son, or the warrior, must be willing to die for the selfproclaimed ‘true’ faith, often in place, or on behalf, of his forefathers. This willingness could, of course, testify to a transcendence of ego, but that is not stressed in the usual transmission and teaching of this story in the Abrahamic traditions. While Hinduism has had its share of militant wars, immolations and sacrifices, it has nothing like the violent history of martyrdom which we see in early Judaism, Christianity and Islam. Nor does martyrdom offer the ticket to salvation or entry into paradise. Arjuna’s liberation would depend, the Gita makes clear, on a lifelong treading on the path of dharma and not on a single act of self-immolation, no matter how worthy and defensible the cause. 93 (Aurobindo, Collected Works of Sri Aurobindo: Essays on the Gita 1997, 120). 94 (Aurobindo, Collected Works of Sri Aurobindo: The Secret of the Veda 1998, 278). 95 (Aurobindo, Collected Works of Sri Aurobindo: Essays on the Gita 1997, 119). 96 Hegel’s philosophy of history is the self-conscious expression of an attitude that operates implicitly across the whole culture, and this remains Christian even when translated into secular theories regarding the end of history. 97 One person may, indeed, suffer from someone else’s hatred or anger, or get a positive surprise from someone. But it is the recipient’s own past karmic debt that has created such circumstances, and the other person doing the act is merely a vehicle for what was coming anyway through one means or another. So there are two separate accounts involved here: the person doing the act and the one to whom it is being done. The doer, by this act, is creating fresh karma in his account, as it were. The recipient suffers a consequence of past karma in his account. Each account is with the cosmos and not with another individual. The cosmos may deploy an individual as the vehicle or may bring about situations that are not directly brought about by any individual, say, an accident or earthquake or an epidemic. 98 Panchatantra is the Sanskrit collection of animal fables, probably compiled in the third century bce. Buddhist prose fables are interspersed with wise sayings in verse. The work is attributed to Vishnu Sharma. 99 The Biblical book of Revelation, Chapters 6–18, describes the End Times prior to the Second Coming of Christ. The world will be devastated, millions of people will perish, and the most evil person in all history will be ruler of the entire world. The Second Coming of Christ puts all this to an end. 100 The dialogues in Katha Upanishad explain the temporary nature of such stays in heaven/hell, and their difference from moksha, which is permanent. 101 The idea of rebirth is embedded in a hierarchy of innumerable forms of life. Some texts estimate 8.4 million forms of life all the way from ‘Brahma the creator to a blade of grass’. Some

interpretations assume that the jiva-atman (soul) starts at the lowest forms of life and naturally evolves to the human form where it has the free will to be able to bring about progress. 102 The accumulated samskaras, or traces, that ripen across a series of life cycles are called samcitakarma. 103 There is nothing equivalent to the collective guilt, suffering and redemption found in Christianity. 104 In Hinduism, there is a similar concept of receiving grace from one’s guru whereby a guru can diminish negative phala by assuming the negative karma of a disciple. However, such transfers are rare and local, and never on a universal scale such as the claim of Jesus transferring all karma of all humanity, including those born thousands of years after him. 105 The Bible speaks of Jesus’ sacrifice as ongoing forever, a perpetual flow of blood until the end of time, which would have to be the case if his death on the cross were a metaphysical as well as physical one, and thus never really over as is insisted in the faith. So this discrepancy is not insurmountable theologically. 106 That the Indian spiritual traditions posit infinite time and finite karma does not mean that there is no sense of urgency to the spiritual quest or that that attitude is carefree or casual. Quite the contrary. The moksha-marga discourse which abounds in the spiritual literature of all dharma traditions includes urgent admonitions for those who are qualified by dint of discrimination (viveka) and detachment (vairagya) to strive for liberation in the present life (jivanmukti). In the Indian traditions, however, this urgency is within the context of individual sadhana and the realization that the liberation path (moksha-marga) may stretch over several lifetimes and the final goal not achieved in the present life. The efforts made toward the realization of the goal in anyone life persist as tendencies (samskaras) in the psyche (chitta) and their karmic potential will be activated in subsequent lifetimes. 107 According to Dante, the gates of Hell carry the message: ‘Abandon hope, all who enter here’ (‘Lasciate ogne speranza, voi ch’entrate’). 108 The Four Noble Truths are: (1) Dukkha is inherent in the ordinary human condition. (2) The cause of dukkha is attachment. (3) Cessation of suffering is attainable in human life. (4) The way to achieve this is through the eightfold path. 109 This is explicitly true of Catholics and Mormons, as well as Protestant evangelicals, Pentecostals and members of mainline denominations such as Baptists, Southern Baptists, Presbyterians, Methodists, Calvinists, etc. 110 The subject of Western appropriations of Indian spiritual traditions is covered in my forthcoming series of books on ‘U-Turn Theory’. 111 (Malhotra, A Hindu View of Christian Yoga 2010). 112 This whole paragraph is based on (Aurobindo, The Mother 1995, 1-41). 113 (Aurobindo, Collected Works of Sri Aurobindo: Essays Divine and Human 1997, 18).

6. Contesting Western Universalism 1 Homer, for example, does this backward projection to construct Greek prehistory using civilizations that were non-Greek (such as Hittites, Anatolians, etc.). Similarly, the book Black Athena shows how African civilization was coopted in the Egyptian historians’ workshop, and later this Egyptian civilization got co-opted into Greek civilization. What is called Roman Art was often the art of non-Roman peoples conquered by Imperial Rome and hence named after the new owners. Christianity selectively borrows from Judaism’s Old Testament, and Islam selectively borrows from

the Bible. The ‘pagan’ category was created by collapsing immense diversity and context in preChristian Europe, Egypt, Greece, Persia, Hittite, India, Africa, Latin America, and just about everywhere else 2 The origins of the separation of East vs. West goes back to the truce called by the Pope in the fifteenth century between Spain and Portugal by legitimizing their right to plunder on either side of the longitude passing through the Azores islands in the Atlantic ocean. 3 Indian mimicry of British Victorian laws enacted under colonial rule has led to a contemporary controversy about gays. In traditional Indian society, there are no normative sexual categories of ‘gay’ and ‘straight’, and therefore being gay is neither banned nor formally sanctioned. It is simply left ambiguous and indeterminate for individuals to figure out for themselves in their own contexts. In the traditional Indian approach, the Western categories of gay/straight are not mutually exclusive, nor are they the permanent essences of a person. From such a perspective, questions such as whether a gay person is ‘allowed’ to be Hindu appear strange. 4 (Hegel, Lectures on the Philosophy of World History, 1982: 64). 5 Ibid. 6 (Hegel, Samtliche Werke, 1955: 243); quoted in (Dussel 1995: 20). 7 As Edward Said points out, Asia and Africa were often declared ‘static, despotic, and irrelevant to world history (Said, Culture and Imperialism, 1993: 198). 8 (Hegel, Lectures on the Philosophy of World History, 1982: 30). 9 Cited in (Dussel 1995: 24). 10 (Hegel, Enzyklopadie Der Philosphie, 1952: 151). 11 (Hegel, Lectures on the Philosophy of World History, 1982: 138). 12 (Schlegel 1859: 120). 13 (Hegel, The Oriental World: India, 1956: 140–41, 162–64). 14 See (Clarke 1997: 65–67). 15 (Hegel, The Oriental World: India, 1956: 109). 16 Ibid., 149. 17 Ibid., 150. 18 Ibid., 164. This series of quotes is paraphrased from (Kearns 1987, 92– 94). 19 (Hegel, Lectures on the History of Philosophy, 1995: 125–26). 20 From (Hegel, Lectures on the Philosophy of World History, 1982), Quoted in (Droit 1989: 189). 21 Hegel read translated works of India and sought advice from the noted Sanskrit linguist F. Bopp in Germany, but his most important references were the writings of British colonialists, such as William Jones, F. Wilford and J. Mill. Toward his final years, Hegel seemed to become more open to treating Indian philosophy as legitimate. Earlier he had claimed that India had to be ‘excluded from the history of philosophy’ because ‘real philosophy begins only in Europe.’ Hegel softened this stance somewhat after reading Colebrooke’s articles on Samkhya and Nyaya-Vaisesika, regretting that these systems had been misunderstood by Europeans as ‘religion’ rather than philosophy. But even after this new insight into India, he continued to insist that Indian philosophy was disconnected from the historical process of progress because it lacked the idea of the autonomous individual self as a concrete agent of historical change. He was emphatic that Indian thought is a generic and vague mysticism that annuls all individuality and discourages initiative. His

influence on other Enlightenment thinkers has been such that holistic ideas are dismissed as confusion. Although there is much talk currently of holism in philosophy and of a unified theory of knowledge, the binary dialectic using a sharp distinction of categories remains the predominant characteristic of Western thought. 22 (Halbfass 1988: 146). 23 (Marx 1853). This was the final article in a series on India. See: (Halbfass 1988: 137–38). 24 (Guha 2002: 44–45). 25 Ibid. Some other examples of social sciences propagating these same prejudices can be found in: Weber’s The Religions of India; Karl Wittfogel’s Oriental Despotism; modern psychoanalysis of India by Carstair’s The twice born; Mussaief-Masson’s The Oceanic Feeling. Indian culture is depicted as pathological under such theories. 26 (Guha 2002: 48–49). 27 (Hegel, Lectures on the Philosophy of World History, 1982: 142). 28 (Hegel, Aesthetics, 1975) quoted in (Guha 2002: 38). 29 (Hegel, Lectures on the Philosophy of World History, 1982: 131). 30 (Guha 2002: 40–41). 31 (Hegel, Lectures on the Philosophy of World History, 1982: 341). 32 (Halbfass 1988: 96). 33 ‘Arya’ is often the first member in the appositionally defined compounds (karmadharayasamasa) such as ‘Arya-Dharma: Noble Dharma’,‘Arya-Pudgala: Noble /Holy Person’,‘Arya-Sravaka: Noble/Holy Disciple’,‘Arya-Marga: Noble/ Holy Path’, and ‘Arya-Sangha: ‘Spiritual Community’. 34 (Malhotra and Neelakandan, Breaking India, 2011). 35 Such notions are reinforced by studies such as (Radhakrishnan, Eastern Religions and Western Thought, 1997), the title of which reflects the emphasis. 36 Among the Indian champions were Sarvepalli Radhakrishnan and T.R.V. Murti. Radhakrisnan’s An Idealist View of Life (2009), and Murti’s transcendentalist interpretation of Nagarjuna’s deconstruction philosophy in his translation of the Mula Madhyamika Karika in The Central Philosophy of Buddhism(1960), are typical examples of this emphasis. 37 Many other European philosophers began simply to ignore Indian thought or else dismiss it as trivial. Halbfass lists a representative sample of works on the history of philosophy which ignore Indian philosophy except perhaps for some short, dismissive remarks which are assumed to be selfevident (Halbfass 1988: 153-54). James Mill, whose multi-volume history of India became the defining work on India for half a century, Lord Risley who developed and enforced hierarchical caste categories in India through the census every decade, and Max Weber, the pre-eminent Western sociologist of his era, were each very heavily influenced by Hegel’s views on India. The same mindset has persisted among Western intellectuals to this day. For instance, it is evident in the writings of Jean Gebser, a well-known twentieth-century thinker who is often cited by westerners claiming to be devotees of Sri Aurobindo and other Indian gurus. They have been pursuing what they regard as East–West integration but in a very Hegelian framework of world history, which enshrines the imperative of a Western-dominated future (Gebser 1985). 38 A similar failure to address the problem of false Western universalism accrues to the common notion among successful Westernized individuals that the forces of capitalism and globalization will eventually bring a level of economic prosperity that will make the question of

religious and cultural identities moot, a matter of fashion, as it were, or of personal preference that has little or no impact on the public sphere. This again is a dangerous form of denial, for as we have shown in the early chapters of this book, globalization is at base an imposition of Western values and modes of being in disguise; its very presuppositions – that the world is ‘progressing’ toward some millennial goal of prosperity, that rampant acquisition and expansion are the only possible engines of development, and that the world is a set of resources to be exploited purely for the good of humans – are all versions of Abrahamic myth of history and its secular scientific alternative. But what has never been addressed in a satisfactory manner is how the Western model of progress can be scalable to cover all seven billion humans on the planet without human or environmental exploitation. 39 Encyclopaedia Britannica explains how the secular West has incorporated certain biblical ideas: ‘Western civilization, even in its modern secularized forms, is heir to a long tradition of Christian patterns of thought and sensibility…Both the 18th- and 19th-century Enlightenment and the Romantic versions of the idea of the progress of humanity to an ideal state of peace and harmony betray their descent from messianic-millenarian beliefs…’(‘Eschatology’, 1992). 40 (Loy, A Buddhist History of the West : Studies in Lack, 2002: 59). 41 (Ibid.: 127). Similarly, Western theories of human rights in vogue today, including the doctrine enshrined in the UN charter on human rights, are based on the debates among Christians in prior centuries. When John Locke, a British philosopher, started talking about ‘natural rights’ in the eighteenth century, he was reflecting an earlier debate within Christianity. Thus, Christian ethics and other ideas got dressed up in secular language. In psychology, it could be argued, the notion of the development of the self is a complex secularization of the Christian notion of soul. 42 Mercea Eliade’s deconstruction of modern Marxism as Judeo-Christian myth is very interesting: ‘Marx enriched the venerable myth by a whole Judeo-Christian messianic ideology: on the one hand, the prophetic role and soteriological function that he attributes to the proletariat; on the other, the final battle between Good and Evil, which is easily comparable to the apocalyptic battle between Christ and Antichrist, followed by the total victory of the former. It is even significant that Marx takes over for his own purpose the Judeo-Christian eschatological hope of an absolute end to history;…’ (Eliade 1987: 296-97). Similarly, The Encyclopaedia Britannica explains: ‘Marxist Communism, in spite of its explicit atheism and dogmatic materialism, has a markedly messianic structure and message… Some of the analogies between Marxism and traditional Christian eschatology have been described, in a slightly ironical vein, by the English philosopher, Bertrand Russell, who contends that Marx adapted the Jewish messianic pattern of history to socialism in the same way that the philosopher-theologian St. Augustine (ad 354–420) adapted it to Christianity. According to Russell, the materialistic dialectic that governs historical development corresponds – in the Marxist scheme – to the biblical God, the proletariat to the elect, the Communist party to the church, the revolution to the Second Coming, and the Communist Commonwealth to the millennium… The similarities are founded on actual historical contacts… and also on the fact that they are variations of the same social dynamics and of a basic myth…’(‘Eschatology’, 1992). 43 See (Tilak 2009). 44 Gopalrao Joshi was a Maharashtrian who converted to Christianity in the early twentieth century to get the benefit of sending his wife Anandi to the US for a master’s degree in medicine. When asked to take oath as a witness in a court of law by placing his hand on a Bible, Gopalrao refused. He said that as a Hindu he can go to any temple; and starting to go to Jesus’ temple makes no difference, and insisted on taking oath by placing his hand of the Gita. In other words, Christianity is a sect, a sampradaya, and he did not want to give up dharma even as a Christian.

45 (Chaudhuri 1987: 881). 46 (Inden, Imagining India, 1990: xii). 47 Personal communication. Some of the prominent names that come to mind are: Vinay Lal, Gayatri Chakravorty Spivak, Ramachandra Guha and Partha Chatterjee. 48 For a recent example of many such discussions among Westernized Indian youth and my response to them, see: (History-Centrism vs. Non-History-Centrism, 2010).

Conclusion: Purva Paksha and the Way Forward 1 Mahabharata, XII.72.20. 2 Scharfe 1989: 221. 3 Spivak, 2004.

Appendix A: The Integral Unity of Dharma 1 In Vedanta, as in Kashmir Shaivism, universals (samanya) and particulars (visesha) are inseparable – the universal serving as the unity view and particulars as the multiplicity view of the very same reality. The universal is seen in and as every particular, and each particular is nothing other than a mode of the universal. 2 To appreciate this, we must first understand that there are three types of differences possible: (i) differences between two objects belonging to the same category (sajatiya), (ii) differences between two objects belonging to different categories (vijatiya), and (iii) differences within the same object, either among its various parts or between its form and its essence (svagata). The impersonal school categorically denies all three differences in Brahman, and this makes Brahman devoid of all forms and attributes. Ramaanuja does not accept the first two differences but accepts the third one, since inherent in Brahman are form and attributes that are built into its unity and are not separate essences. 3 Although the complementarity of jnana and bhakti are generally advocated as the manifestations of the cit-shakti, there is a difference between Sankara’s Kevala-advaita and the Vaishnava Vedanta schools in general as to the relative superiority of jnana and bhakti. For Sankara, bhakti is preparatory or prerequisite to jnana; i.e., bhakti leads to brahma-jnana or cognitive realization of the attributless (nirguna) Brahman. Thus, there is the popular saying bhakti jnanam mata, meaning ‘bhakti is the mother of jnana’. In other words, devotion culminates in knowledge. On the other hand, the devotional schools of Vaisnava Vedanta, such as the Achintya-bheda-abheda of Sri Jiva Goswami, consider the personal (Bhagavan) as higher than the impersonal absolute (nirguna-brahman), and knowledge (jnana) may be said to culminate in bhakti. Jnana is not demeaned and is generally considered complementary to bhakti, and eventually jnana is superseded or sublated by bhakti (Bhagavadgita, 7.19). 4 Lower deities are functional and meant for managerial affairs of the universe. 5 According to Srimad-Bhagavatam (3.29.13), ‘a pure devotee does not accept any kind of liberation – salokya, sarsti, samipya, sarupya or ekatva – even though it is offered by the Lord.’ 6 Sri Aurobindo explains this as follows: ‘The material existence has only a physical, not a mental individuality, but there is a subliminal Presence in it, the one Conscious in unconscious things, that determines the operation of its indwelling energies … We see then all the powers inherent in the original self-existent spiritual Awareness slowly brought out and manifested in this growing separative consciousness; they are activities suppressed but native to the secret and

involved knowledge by identity and they now emerge by degrees in a form strangely diminished and tentative.’ (Aurobindo, Collected Works of Sri Aurobindo: The Life Divine, 2005: 570-71). 7 (Aurobindo, Collected Works of Sri Aurobindo: The Life Divine, 2005: 277). 8 Ibid.: 150. 9 (Mula-Madhyamaka-Karika, 1, Pratyaya-Pariksha). Translation by Dr Laul Jadu Singh 10 Four Hundred Stanzas by Aryadeva (Catuh-Shataka-Shastra-Karika, XV1, 23). 11 Quoted from the Kasyapa Chapter of the Arya Ratnakuta Sutra in (Lopez 2004, 353). Also, the Essence of the Perfection of Wisdom (Prajna-Paramita-Hridaya Sutra) famously states this principle: ‘Form (rupa) is emptiness (sunyata), emptiness is form, form is not different from emptiness nor emptiness from form. What is form, that is emptiness, what is emptiness, that is form, and so it is for feeling, perception, dispositions and consciousness (the remaining aggregates).’ 12 To reify the two truths in terms of two different ontological orders (of existence as pertaining to phenomena and noumena) would be to err in the direction of essentialism. This makes Buddhism radically different than Kantian and other Western idealism. Seen from a Buddhist view, the Kantian blunder is to reify two distinct ontological orders of existence, phenomenal and noumenal. 13 This statement, found in many places in the Pali canon in the original Pali is: ‘nissaarana atthaya, na gahahana atthaya’; in Sanskrit: ‘nihsarana arthaya’, ‘nagrahana arthaya’. 14 (Mula-Mamadhyamika-Karika, XIII, 8). Translation by Dr Laul Jadu Singh. 15 (MMK, XX1V, 8). The worldly conventional truth is called samvrittisatya/ loka-vyavahara. The supreme ultimate truth is called paramartha-satya. 16 (MMK, Atma-Bhava-Pariksha 8). 17 (MMK, Arya-Satyani-Pariksha 38). Translated by (Garfield 1995: 317). 18 (MMK, XXIV, 37). Translated by (Garfield 1995: 72). 19 (MMK, XXIV, 39). Translated by (Garfield 1995: 72). 20 (MMK, Svabhava-Pariksha 10). Translation Dr by Laul Jadu Singh. Nominal existence is referred to as prajnapti-sat. 21 It opens on this very theme: ‘These two extremes are not to be resorted to by one who has gone forth from the world. What are the two That conjoined with the passions, low, vulgar, common, ignoble and useless, and that conjoined with self-torture which is painful, ignoble, and useless. Avoiding these two extremes, the Tathagata has gained knowledge of the Middle Way, which gives sight and knowledge and which tends toward calm, insight, enlightenment, nirvana’ (Opening verse of Setting in Motion of the Wheel of Dharma [Dharma Chakra Pravartana Sutra]). 22 The Kaccayana Vacchagota Sutta presents concisely the principle of Dependent Arising as a philosophical Middle Path. 23 Skilful means is called upaya-kaushalya. 24 (MMK, Atma-Bhava-Pariksha). Translated by (Garfield 1995, 72). 25 Nagarjuna employs both positive and negative forms of the tetralemma. In this way, the positive-negative distinctions indicate the different perspectives of the two truths (relativeconventional and ultimate). An example of the positive tetralemma from the conventional perspective is the four alternative positions on the self. This is not an irrational exercise by Nagarjuna but simply an explanation of how, from the perspective of conventional truth, the selfnotion is valid in a verbal-pragmatic way. However, from the perspective of the ultimate truth, the

self does not exist. The positions that (1) the self exists conventionally but is empty and (2) the self ultimately does not exist, are equivalent in meaning though apparently contradictory. Nagarjuna’s negative tetralemmas are more complex since, by means of these, he explores the limits of expressibility and the paradox incurred when one attempts to characterize reality from the ultimate perspective. An example of the negative tetralemma is: ‘“Empty” should not be asserted; “nonempty” should not be asserted. Neither both nor neither should be asserted. These are only used nominally’ (MMK, XXII, 11). In this example, Nagarjuna discusses what is inexpressible from the ultimate perspective: namely that nothing, even that phenomena are empty or its negation, can be asserted from the ultimate perspective. Ostensibly nothing 440 Being Different can be said, but skilfully Nagarjuna has the final word: he has characterized the ultimate reality in principle beyond characterization. That the relationship between the two kinds of tetralemmas may generate a higher order of paradox also means that the two truths, apparently contradictory, are ultimately equivalent and non-dual when duality discrimination (dvaya-vikalpa) ceases. See the discussion in (MMK), and (Chandrakirti 2004: 285–324). 26 Technically, these are called sapta-bhangi. The seven possible forms of statement which are formally expressed are: (1) a thing is, (2) it is not, (3) it is and is not, (4) it is indescribable, (5) it is and is indescribable, (6) it is not and is indescribable, and (7) it is, is not, and is indescribable.

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व भ ता पा ा य सावभौ मकता को भारतीय चुनौती         राजीव म हो ा एक भारतीय-अमरीक शोधकता और समसाम यक , व दशन, अ तस यता मुठभेड़ एवं व ान के बु जीवी है।ं श ा से एक वै ा नक, पहले एक विर सं य ु ब धक, नी त- नधारण परामशकता एवं सू चना ौ ो गक एवं मी डया के उ मी। वे ‘ े कंग इ डया’ (Amaryllis, 2011), ‘इनवे डं ग द से े ड’ ( पा ए ड कं.) के धान पु ष और एक यवहारी लेखक एवं व ा है।ं वे यू नव सटी ऑफ़ मेसा यू से स, डाटमाउथ (University of Massachusetts, Dartmouth) के ‘इ डया टडीज़ ो ाम’ के शासक म डल के अ य है।ं   हमारे सां कृ तक ढाँचे हमारे जीवन, लोगों, व तुओ ं और थ तयों के त रवैये क अ भ य है।ं यह व श वृ त वेदों के आ या मक ान से वक सत हुई है। अत: हमारी सं कृ त धा मक है जो हमारे जीवन के येक पहलू मे ं या है और वै दक दू रद शता से जुड़ी हुई है। वै दक दृ कोण के अनुसार भगवान से कुछ भी अलग नहीं है और इस लए सभी हमारे लए प व है।ं आज हमारी सं कृ त के आगे चुनौती खड़ी है यों क वै क सं कृ त स पक साधन, व क अथ यव था, और सं ग ठत सा दा यक काय मों ारा हमारी सां कृ तक सीमाओं को भेद रही है। हम व भ सं कृ तयों और मा यता णा लयों से भा वत हो रहे है।ं इस कार जीवन वक पों से भरा पड़ा है। जब उनमे ं से कसी को चुनना पड़ता है तो चुनाव म ों के दबाव, स पक साधन, इ या द से भा वत हो सकता है। इस कार ढाँचे क अनु पता ख़ म हो जाती है और पर परा समा हो जाती है। ी राजीव मलहो ा क पु तक ‘ व भ ता’ (Being Different) इन ढाँचों के त समझ का एक य ान दान करती है। यह पु तक प मी भाव ारा र चत गलत धारणाओं और वचारों को हटाने मे ं सहायता करती है और यह अपने वयं के ं

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सां कृ तक ढाँचों का समथन करने का दृढ़ व ास भी पैदा करती है। यह प ता प मी पर पराओं को सही पिरपे य मे ं देखने के लए सहायक है। व भर मे ं सां कृ तक अ भ य याँ अलग-अलग हैं और होनी ही चा हए। येक सं कृ त क अपनी वयं क मनोहरता है। यह पु तक व भ पर पराओं और सां कृ तक ढाँचों क सु दरता देखने का पिर ान भी दान करती है। हमे ं लोगों के अपने सां कृ तक ढाँचों और पर पराओं के त समपण को समझना चा हए। सां कृ तक ढाँचों को भ देखते हुए य को दू सरों को उनक पर पराओं का पालन करने क वत ता का आदर करना आना चा हए। मुझे व ास है क यह आपसी स मान मानवता को एक सु यव थत समाज बनाने मे ं सहायता देगा। मैं ी राजीव मलहो ा और उनके दल को इस वल ण काय करने के लए बधाई देता हू ।ँ मैं उनसे ऐसे और शोध काय ा करने क ती ा मे ं हू ।ँ वामी परमा मान द सर वती महास चव, ह दू धम आचाय सभा ‘‘यह पु तक उन लोगों के लए पढ़ना बहुत आव यक है जो भारत और उसके भ व य के सं र ण क च ता करते है।ं ’’ मकर द परां जपे अं ज़ े ी ा यापक, जवाहरलाल नेह व व ालय, द ी व भ ता (Being Different) मे ं मैं जो वशेषकर श ा द और मौ लक पाता हू ँ वह यह है क भारतीय समाज मे ं अराजकता क जो सकारा मक भू मका है वह प म मे ं इसके त घृणा से अलग है। यह पु तक हेगल े (Hegel) के अराजकता और अ न तता के त गहरे पैठे हुए डर को बतलाती है। वे प मी सौ दयशा , नै तकता, प थ, समाज और राजनी त मे ं यव था को गौरवां वत करते हैं और पू व पर पराओं को सव रवाद, बहुदव े वाद और एके रवाद जैसी व ऐ तहा सक े णयों मे ं वग कृत करते है।ं हेगल े ने समानताओं क णाली को वक सत करके येक सं कृ त क मा यताएँ और सापे य अथ न पत कये। इस कार उ होंने ‘प म’ और ‘बाक लोगों’ क परेखाएँ पिरभा षत क ।ं यव था के नाम पर ये ग़ैरप मी लोगों के ऊपर ानमीमां सक दमन के वैचािरक ह थयार बने। अराजकता के त भारतीय धा मक व दशन अ धक सहज है, जो इसे यव था के स तुलन के लए ा ड मे ं था पत रचना मक उ रे क क तरह देखता है, नहीं तो यह कमज़ोर पड़ जायेगी। ी नवास तलक वत व ान, मा यल, कनाडा ी

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यह पु तक भारतीय पर पराओं क ामा णक तु त द शत करने क आव यकता का एक यास है, जो प मी पर पराओं से इसक बहुत-सी भ ताओं को भी दशाती है। यह भारतीय पर पराओं क म या तु त को सुधारती है, ज हे ं प मी तमानों के पिरपे य मे ं देखा जाता है। यह भारतीय पर पराओं को प म ारा पचाने के ख़तरों से भी हमे ं सावधान करती है, जसके पास इस स यता को वकृत और कमज़ोर करने क मता है। यह पु तक भारतीय पर पराओं क स ी तु त देते हुए और प मी ढाँचों एवं योजनों क मा यता को चुनौती देकर उन अपरी त अवधारणाओं क जाँच करती है ज हे ं दोनों ने अपने और एक-दू सरे के त बना रखी है, और यह भ ताओं के साथ सीधे और स े सं घष क माँग करती है। ँ वाले काय के लए बधाई देता हू ,ँ जो क और मैं राजीव को इस गहरी पहुच अ धक वचारशील और श त सं वाद को व लत करेगा जससे उ चत सहम त था पत होगी।   वामी दयान द सर वती सं योजक, ह दू धम आचाय सभा भ ता को आपसी स मान के साथ बनाये रखने पर ज़ोर देने का, न क केवल सहन करने के साथ, राजीव मलहो ा का आ ह आज के युग मे ं और भी अ धक ासं गक है, यों क केवल एक ही कार क सावभौ मकता क अवधारणा तपा दत क जा रही है। य द यह दू सरी स यताओं के त वों को आ मसात भी कर ले, या लेखक के श दों मे ं पचा भी ले, तब भी एक ही तरह क सावभौ मकता नहीं हो सकती। क पल वा यायन वत

व ान और रा य सभा के सद य

यह पु तक भारतीय और पा ा य सं कृ त क धा मक व दाश नक वचारधारा के व लेषण का एक भावना मक यास है। ऐसा सफल यास इससे पू व कसी लेखक ारा नहीं कया गया। इस पु तक मे ं उ ख े नीय प से जो बात शं सनीय है वह है ईमानदारी से भारतीय दशन वचार क यु सं गत ववेचना व उसका पा ा य वचारधारा पर भाव। लेखक ने पा ा य सं कृ त का भारतीय दृ कोण से जो अवलोकन कया है वह सराहनीय है। अ धकतर भारतीय वचारक जो भारतीय सां कृ तक और दाश नक वचारधाराओं से अन भ है,ं पा ा य वचारधारा को अ धक सफल मानते है।ं इस पु तक मे ं तुत व लेषण ऐसी मान सकता को उजागर करने का यास करता है। े













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लेखक ी राजीव म हो ा ने जस कार मह व देकर कहा है क हमे ं आपसी वैचािरक मतभेदों व अ तरों को आपसी स मान क दृ से देखना चा हए, वह आज के युग मे ं बहुत ही ववेकपू ण व यावहािरक है। यह पु तक अ य त पठनीय है।   सेवा नवृत जनरल वी. के. सं ह भू तपू व सेना य बहुत से भारतीय आ या मक गु जनमे ं अपनी सं कृ त के गहन ान का अभाव है और जो अपने आप को प म से नीचा समझते है,ं प मी चुनौती के त अपनी त या भारतीय और प मी मतों को समान दखा कर य करते है।ं ी राजीव म हो ा का काय एक य क तरह है जो अवलोकन को उलट कर प म को ं के ारा देखता है। इस भारतीय ान णा लयों के लेस या को पार पिरक प से पू वप कहा जाता है और राजीव जी के काय ने इसे एक नया मशन दया है। ी राजीव म हो ा ने पाचन के एक बहुत ही दलच प पक ारा धा मक पर पराओं को छोटे-छोटे भागों मे ं तोड़ कर प मी सं कृ त के पेट मे ं पचाये जाने को समझाया है। ‘‘ व भ ता’’ बताती है क इ तहास के कता कस कार प म को व श ता के दावों क ओर ले जाती है; इससे उन भ ताओं के त य ता उ प होती है ज हे ं वह पाचन क पिरयोजनाओं ारा हल करने का य न करती है, ता क जो भी चुनौतीपू ण वचार दखता हो वह मट जाए।   स यनारायण दास सं थापक, जीव सं थान (वे दक अ ययन) अ त ाचीन काल से भारतीय अ या मवे ा त पध वचारधाराओं के गहन अ ययन एवं ववेचन क सश पर परा का नवाह करते रहे है।ं क तु नकटकालीन (recent) नेत ृ व ने भारतीय दशन प तयों के मा यम से पा ा य िरलीजन एवं दशन के गहन व लेषण एवं ववेचन को उपे त कया है। फल व प पा ा य मानकों (paradigm) ने इस पिरसं वाद (discourse) पर अपना भु व था पत कर लया और काल- म मे ं भारतीय दाश नक च तन मह वहीन सा होता चला गया। महा मा गां धी, ी अर व द एवं सवप ी राधाकृ णन ने कुछ अथ मे ं पा ा य जगत के व लेषण एवं ववेचन पर दृ पात (reverse the gaze) कया, जो क औप नवे शक काल मे ं भारतीय अ मता को सुदढ़ ृ करने हेत ु मह वपू ण स हुआ। अब इ सवीं सदी मे ं `पू वप ’ क इस ाचीन पर परा को ी राजीव म हो ा ने पुन: ं



था पत कया एवं उनक पु तक व भ ता (Being Different) धम-धारणा के दृ कोण से प मी जगत का गहन नरी ण करती है। धम-धारणा क व भ वचार प तयों एवं दशनों को एक दू सरे का सं घषशीलत ी था पत करने क अपे ा इस पु तक क वधा (methodology) भारतीय सं कृ त के ह ता र स ा तों को पा ा य दशन के सापे तुलना मक प से रेखां कत करती है। व व ालयीन पा पु तक के प मे ं यह वीकार करने यो य पु तक है, जो क वचार ा त के पुरोधाओं क एक नई पीढ़ी मे ं उ साह का सं चार कर सकती है। अ तसा कृ तक पिरसं वाद क वृह पृ भू म मे ं धम-धारणा क भू मका के मह व को परखने क दृ से अ या मक नेत ृ व भी इस पु तक के अ ययन से अव य लाभा वत होगा। जससे वे एक श शाली वैचािरक दृ कोण के साथ वतमान ं ,े ऐसी मेरी अपे ा एवं आशा है। बौ क कु े मे ं अपनी अहम भू मका नभायेग णव पं डया अ य , गाय ी पिरवार

हापर ह दी (हापरकॉ लं स प लशस इं डया) ारा 2013 मे ं का शत   कॉपीराइट लेखक © राजीव म हो ा कॉपीराइट अनुवाद © देवे सं ह   लेखक इस पु तक के मू ल रचनाकार होने का नै तक दावा करता है। इस पु तक मे ं य कये गये सभी वचार, त य और दृ कोण लेखक के अपने हैं और काशक कसी भी तौर पर इनके लये ज़ मेदार नहीं है।   हापर ह दी हापर कॉ लं स प लशस इं डया का ह दी स भाग है पता : ए-75, से टर-57, नौएडा—201301, उ र देश, भारत   ISBN : 978-93-5116-017-5   E-ISBN : 978-93-5136-760-4   टाइपसे टं ग : नओ सा टवेयर क सलटैं स, इलाहाबाद   मु क : थॉ सन स े (इं डया) ल.   यह पु तक इस शत पर व य क जा रही है क काशक क ल खत पू वानुम त के बना इसे यावसा यक अथवा अ य कसी भी प मे ं उपयोग नहीं कया जा सकता। इसे पुन: का शत कर बेचा या कराए पर नहीं दया जा सकता तथा ज दबं ध या खुले कसी अ य प मे ं पाठकों के म य इसका पिरचालन नहीं कया जा सकता। ये सभी शत पु तक के खरीदार पर भी लागू होती है।ं इस स दभ मे ं सभी काशना धकार सुर त है।ं इस पु तक का आँ शक प मे ं पुन: काशन या पुन: काशनाथ अपने िरकॉड मे ं सुर त रखने, इसे पुन: तुत करने के त अपनाने, इसका अनु दत प तैयार करने अथवा इलै ॉ नक, मैके नकल,फोटोकॉपी तथा िरकॉ डग आ द कसी भी प त से इसका उपयोग करने हेत ु सम त काशना धकार रखने वाले अ धकारी तथा पु तक के काशक क पू वानुम त लेना अ नवाय है।