Srimad Bhagavad Gita Tattva Vivechani [1 ed.]

भगवान श्रीकृष्ण की दिव्यवाणी से निःसृत सर्वशास्त्रमयी गीता की विश्वमान्य महत्ता को दृष्टि में रखकर इस अमर संदेश को जन-जन

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Srimad Bhagavad Gita Tattva Vivechani [1 ed.]

Table of contents :
गीता-महिमा
अथ प्रथमोऽध्यायः
अथ्य द्वितीयोऽध्यायः
अथ तृतीयोऽध्यायः
अथ चतुर्थोऽध्यायः
अथ पञ्चमोध्यायः
अथ षष्ठोऽध्यायः
अथ सप्तमोऽध्यायः
अथ अथाष्टमोऽध्यायः
अथ दशमोऽध्यायः
अथैकादशोऽध्यायः
द्वादशोऽध्यायः
त्रयोदशोऽध्यायः
पञ्चदशोऽध्यायः
षोडशोऽध्यायः
महाभारतमें श्रीगीताजीकी महात्म्य
आरती

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ीमदभगवद गीता ् ् ववेचनी हदी-टीकास हत

य योगे र: कृ ो य पाथ धनुधर:। त ी वजयो भू त ुवा नी तम तमम ॥



ीमदभगवद गीता ् ् ववेचनी हदी-टीकास हत

मेव माता च पता मेव मेव बंधु सखा मेव । मेव व ा वडं मेव मेव सव मम देवदेव ॥

टीकाकार – ी जयदयाल जी गोय का

वषय सूची गीता-म हमा अथ थमोऽ ायः अ तीयोऽ ायः अथ तृतीयोऽ ायः अथ चतुथ ऽ ायः अथ प मो ायः अथ ष ोऽ ायः अथ स मोऽ ायः अथ अथा मोऽ ायः अथ दशमोऽ ायः अथैकादशोऽ ायः ादशोऽ ायः योदशोऽ ायः प दशोऽ ायः षोडशोऽ ायः महाभारतम ीगीताजीक महा आरती

मेव माता च पता मेव। मेव ब ु सखा मेव॥ मेव व ा वणं मेव। मेव सव मम देवदेव॥ वसुदेवसुतं देवं कं सचाणूरमदनम्। देवक परमान ं कृ ं व े जग ु म्। .

गीता-म हमा

ीम गवदगीता ् सा ात् भगवान्क द वाणी है। इसक म हमा अपार है, अप र मत है। उसका यथाथम वणन कोई नह कर सकता। शेष, महेश, गणेश भी इसक म हमाको पूरी तरहसे नह कह सकते; फर मनु क तो बात ही ा है। इ तहास, पुराण आ दम जगह-जगह इसक म हमा गायी गयी है; परंतु जतनी म हमा इसक अबतक गायी गयी है, उसे एक कर लया जाय तो भी यह नह कहा जा सकता क इसक म हमा इतनी ही है। स ी बात तो यह है क इसक म हमाका पूणतया वणन हो ही नह सकता। जस व ुका वणन हो सकता है वह अप र मत कहाँ रही, वह तो प र मत हो गयी। गीता एक परम रह मय है। इसम स ूण वेद का सार सं ह कया गया है। इसक रचना इतनी सरल और सु र है क थोड़ा अ ास करनेसे भी मनु इसको सहज ही समझ सकता है, परंतु इसका आशय इतना गूढ़ और ग ीर है क आजीवन नर र अ ास करते रहनेपर भी उसका अ नह आता। त दन नये-नये भाव उ होते ही रहते ह, इससे वह सदा नवीन ही बना रहता है। एवं एका च होकर ा-भ स हत वचार करनेसे इसके पद-पदम परम रह भरा आ तीत होता है। भगवान्के गुण, भाव, प, त , रह और उपासनाका तथा कम एवं ानका वणन जस कार इस गीताशा म कया गया है वैसा अ ंथ म एक साथ मलना क ठन है; भगवदगीता ् एक ऐसा अनुपमेय शा है जसका एक भी श सदुपदेशसे खाली नह है। गीताम एक भी श ऐसा नह है, जो रोचक कहा जा सके । इसम जतनी बात कही गयी ह, वे सभी अ रश: यथाथ है; स प भगवान्क वाणीम रोचकताक क ना करना उसका नरादर करना है। गीता सवशा मयी है। गीताम सारे शा का सार भरा आ है। इसे सारे शा का खजाना कह तो भी अ ु न होगी। गीताका भलीभाँ त ान हो जानेपर सब शा का ता क ान अपने-आप हो सकता है, उसके लये अलग प र म करनेक आव कता नह रहती। महाभारतम भी कहा है – 'सवशा मयी गीता ' (भी ० ४३।२)। परंतु इतना ही कहना पया नह है; क सारे शा क उ वेद से ई, वेद का ाक भगवान् ाजीके मुखसे आ और ाजी भगवान्के ना भ-कमलसे उ ए। इस कार शा और भगवान्के बीचम ब त अ धक वधान पड़ गया है, कतु गीता तो यं भगवान्के मुखार व से नकली है, इस लये उसे सभी शा से बढ़कर कहा जाय तो कोई अ ु न होगी। यं भगवान् वेद ासने कहा है– गीता सुगीता कत ा कम ैः शा सङ् हैः।

या यं प नाभ मुखप ा नःसृता॥ (महा०, भी ० ४३।१) 'गीताका ही भली कारसे वण, क तन, पठन-पाठन, मनन और धारण करना चा हये, अ शा के सं हक ा आव कता है? क वह यं प नाभ-भगवान्के सा ात् मुख-कमलसे नकली ई है।' इस ोकम 'प नाभ' श का योग करके महाभारतकारने यही बात क है। ता य यह है क यह गीता उ भगवान्के मुखकमलसे नकली है, जनके ना भ-कमलसे ाजी उ ए और ाजीके मुखसे वेद कट ए, जो स ूण शा के मूल ह। गीता गंगासे भी बढ़कर है। शा म गंगा ानका फल मु बतलाया गया है। परंतु गंगाम ान करनेवाला यं मु हो सकता है, वह दूसर को तारनेक साम नह रखता। कतु गीता पी गंगाम गोते लगानेवाला यं तो मु होता ही है, वह दूसर को भी तारनेम समथ हो जाता है। गंगा तो भगवान्के चरण से उ ई है और गीता सा ात् भगवान् नारायणके मुखार व से नकली है। फर गंगा तो जो उसम आकर ान करता है उसीको मु करती है, परंतु गीता तो घर-घरम जाकर उ मु का माग दखलाती है। इ सब कारण से गीताको गंगासे बढ़कर कहते ह। गीता गाय ीसे भी बढ़कर है। गाय ी-जपसे मनु क मु होती है, यह बात ठीक है; कतु गाय ी-जप करनेवाला भी यं ही मु होता है, पर गीताका अ ास करनेवाला तो तरन-तारन बन जाता है। जब मु के दाता यं भगवान् ही उसके हो जाते ह, तब मु क तो बात ही ा है। मु उसक चरणधू लम नवास करती है। मु का तो वह स खोल देता है। गीताको हम यं भगवान्से भी बढ़कर कह तो कोई अ ु न होगी। भगवान्ने यं कहा है – गीता येऽहं त ा म गीता मे चो मं गृहम्। गीता ानमुपा ोकान् पालया हम्॥ (वाराहपुराण) 'म गीताके आ यम रहता ँ , गीता मेरा े घर है। गीताके ानका सहारा लेकर ही म तीन लोक का पालन करता ँ ।' इसके सवा, गीताम ही भगवान् मु क से यह घोषणा करते ह क जो कोई मेरी इस गीता प आ ाका पालन करेगा वह नःस ेह मु हो जायगा  (३।३१); यही नह , भगवान् कहते ह क जो कोई इसका अ यन भी करेगा उसके ारा म ानय से पू जत होऊँ गा (१८। ७०)। जब गीताके अ यनमा का इतना माहा है, तब जो मनु इसके उपदेश के अनुसार अपना जीवन बना लेता है और इसका रह भ को धारण कराता है और उनम इसका व ार एवं चार करता है उसक तो बात ही ा है। उसके लये तो भगवान् कहते ह क वह

मुझको अ तशय य है। वह भगवान्को ाण से भी बढ़कर ारा होता है, यह भी कहा जाय तो कु छ अनु चत न होगा। भगवान् अपने ऐसे भ के अधीन बन जाते ह। अ े पु ष म भी यह देखा जाता है क उनके स ा का पालन करनेवाला जतना उ य होता है, उतने ारे उ अपने ाण भी नह होते। गीता भगवान्का धान रह मय आदेश है। ऐसी दशाम उसका पालन करनेवाला उ ाण से भी बढ़कर य हो, इसम आ य ही ा है। गीता भगवान्का ास है, दय है और भगवान्क वा ् मयी मू त है। जसके दयम, वाणीम, शरीरम तथा सम इ य एवं उनक या म गीता रम गयी है वह पु ष सा ात् गीताक मू त है। उसके दशन, श, भाषण एवं च नसे भी दूसरे मनु परम प व बन जाते ह। फर उसके आ ा पालन एवं अनुकरण करनेवाल क तो बात ही ा है। वा वम गीताके समान संसारम य , दान, तप, तीथ, त, संयम और उपवास आ द कु छ भी नह ह। गीता सा ात् भगवान् ीकृ के मुखार व से नकली ई वाणी है। इसके संकलनकता ी ासजी ह। भगवान् ीकृ ने अपने उपदेशका कतना ही अंश तो प म ही कहा था, जसे ासजीने -का- रख दया। कु छ अंश जो उ ने ग म कहा था, उसे ासजीने यं ोकब कर लया, साथ ही अजुन, संजय एवं धृतरा के वचन को अपनी भाषाम ोकब कर लया और इस सात सौ ोक के पूरे ंथको अठारह अ ाय म वभ करके महाभारतके अंदर मला लया, जो आज हम इस पम उपल है। गीताका ता य

गीता ानका अथाह समु है, इसके अंदर ानका अन भ ार भरा पड़ा है। इसका त समझानेम बड़े-बड़े द जयी व ान् और त ालोचक महा ा क वाणी भी कु त हो जाती है, क इसका पूण रह भगवान् ीकृ ही जानते ह। उनके बाद कह इसके संकलनकता ासजी और ोता अजुनका न र आता है। एसी अगाध रह मयी गीताका आशय और मह समझना मेरे-जैसे मनु के लये ठीक वैसा ही है, जैसे एक साधारण प ीका अन आकाशका पता लगनेके लये य करना। गीता अन भाव का अथाह समु है। र ाकरम गहरा गोता लगानेपर जैसे र क ा होती है, वैसे ही इस गीतासागरम गहरी डु बक लगानेसे ज ासु को न -नूतन वल ण भाव-र -रा शक उपल होती है। परंतु आकाशम ग ड़ भी उड़ते ह तथा साधारण म र भी! इसीके अनुसार सभी अपने-अपने भावके अनुसार कु छ अनुभव करते ही ह। अतएव वचार करनेपर तीत होता है क गीताका मु ता य अना दकालसे अ ानवश संसार-समु म पड़े ए जीवको परमा ाक ा करवा देनेम है और उसके लये गीताम ऐसे उपाय बतलाये गये ह, जनसे मनु अपने सांसा रक कत कम का भलीभाँ त आचरण करता आ ही परमा ाको ा कर सकता है। वहारम परमाथके योगक यह अ तु कला गीताम बतलायी गयी है ओर अ धकारी-भेदसे परमा ाक ा के लये इस ँ

कारक दो न ा का तपादन कया गया है। वे दो न ाएँ ह – ' ान न ा ' यानी सां योग और 'योग न ा ' यानी कमयोग (३।३)। यहाँ यह होता है क ' ाय: सभी शा म भगवान्को ा करनेके तीन धान माग बतलाये गये ह – कम, उपासना और ान। ऐसी दशाम गीताने दो ही न ाएँ कै से मानी ह? ा गीताको भ का स ा मा नह है? ब त-से लोग तो गीताका उपदेश भ धान ही मानते ह और य -त भगवान्ने भ का वशेष मह भी श ोम कहा है (६। ४७) और भ के ारा अपनी ा सुलभ बतलायी है (८।१४)।' इसका उ र यह है क शा म कम और ानके अ त र जो 'उपासना' का करण आया है, वह उपासना इ दो न ा के अ गत है। जब अपनेको परमा ासे अ भ मानकर उपासना क जाती है तब वह सां न ाके अ गत आ जाती है और जब भेद से क जाती है तब योग न ाके अंतगत मानी जाती है। सां न ा और योग न ाम यही मु अ र है। इसी कार तेरहव अ ायके चौबीसव ोकम के वल ानके ारा परमा ाक ा बतलायी गयी है; परंतु वहाँ भी यही बात समझनी चा हये क जो ान अभेद से कया जाता है वह सां न ाके अ गत है और जो भेद से कया जाता है वह योग न ाके अ गत है। गीताने भ को भगवत्ा का धान साधन माना है – लोग क यह मा ता भी ठीक ही है। गीताने भ को ब त ऊँ चा ान दया है और ान- ानपर अजुनको भ बननेक आ ा भी दी है (९।३४; १२।८; १८।५७,६५,६६)। परंतु गीताने न ाएँ दो ही मानी ह। इनम भ योग न ाम शा मल है; क भ म ैतभाव रहता है, इस लये ऐसा मानना यु व भी नह कहा जा सकता। भ कस कार योग न ाके साथ मली ई है, इसपर आगे चलकर वचार कया जायगा। अ ,ु गीताम के वल भजन-पूजन अथवा के वल ानसे अपनी ा बतलाकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क योग न ाके पूरे साधनसे तो उनक ा होती ही है, उसके एक-एक अंगके साधनसे भी उनक ा हो सकती है। यह उनक कृ पा है क उ ने अपनेको जीव के लये इतना सुलभ बना दया है। इसके अ त र गीताम ' ान' और 'कम' श का योग जन- जन अथ म आ है, वह भी वशेष रह मय है। गीताके कम और कमयोग तथा ान और ानयोग एक ही चीज नह ह। गीताके अनुसार शा व हत कम ान न ा और योग न ा दोन ही य से हो सकते ह। ान न ाम भी कमका वरोध नह है और योग न ाम तो कम का स ादन ही साधन माना गया है (६।३) और उनका पसे ाग उलटा बाधक माना गया है (३।४)। दूसरे अ ायके सतालीसवसे लेकर इ ावनव ोकतक तथा तीसरे अ ायके उ ीसव और चौथे अ ायके बयालीसव ोक म अजुनको योग न ाक से कम करनेक आ ा दी गयी है और तीसरे अ ायके अ ाईसव तथा पाँचव अ ायके आठव, नव और तेरहव ोक म सां यानी ान न ाक से कम करनेक बात कही गयी है। सकाम कमके लये कसी भी न ाम ान

ही नह है, सकाम क मय को तो भगवान्ने तु बु बतलाया है (२।४२-४४ और ४९; ७। २०-२३; ९।२०,२१,२३,२४)। ानका अथ भी गीताम के वल ानयोग ही नही है; फल प ान, जो सब कारके साधन का फल है – जो ान न ा और योग न ा दोन का फल है और जसे यथाथ ान अथवा त ान भी कहते ह, उसे भी ' ान' श से ही कहा है। चौथे अ ायके चौबीसव और पचीसवके उ रा म ानयोगका वणन है और इसी अ ायके छ ीसवसे उनतालीसवतकम फल प ानका वणन है। इसी कार अ भी संगानुसार समझ लेना चा हये। अब, सां न ा और योग न ाके ा प ह, उन दोन म ा अ र है, उनके कतने और कौन-कौनसे अवा र भेद ह तथा दोन न ाएँ त ह अथवा पर र सापे ह, इन न ा के कौन-कौन अ धकारी ह, इ ा द वषय पर सं ेपसे वचार कया जा रहा है – (१)

सां

न ा और योग न ाका



स ूण पदाथ मृगतृ ाके जलक भाँ त अथवा क सृ के स श मायामय होनेसे मायाके काय प स ूण गुण ही गुण म बरतते ह – इस कार समझकर मन, इ य और शरीरके ारा होनेवाले सम कम म कतापनके अ भमानसे र हत होना (५।८-९) तथा सव ापी स दान घन परमा ाके पम एक भावसे न त रहते ए एक स दान घन वासुदेवके सवा अ कसीके भी अ का भाव न रहना (१३।३०) – यह तो 'सां न ा' है। ' ानयोग' अथवा 'कमसं ास' भी इसीके नाम है। और– (२) सब कु छ भगवान्का समझकर स -अ स म समभाव रखते ए, आस और फलक इ ाका ाग करके भगवत्-आ ानुसार सब कम का आचरण करना (२।४७-५१) अथवा ा-भ पूवक मन, वाणी और शरीरसे सब कार भगवान्क शरण होकर नाम, गुण और भावस हत उनके पका नर र च न करना (६।४७) – यह 'योग न ा' है। इसीका भगवान्ने सम योग, बु योग, तदथकम, मदथकम एवं सा क ाग आ द नाम से उ ेख कया है। योग न ाम सामा पसे अथवा धान पसे भ रहती ही है। गीतो योग न ा भ से शू नह है। जहाँ भ अथवा भगवान्का श म उ ेख नह है (२।४७-५१) वहाँ भी भगवान्क आ ाका पालन तो है ही – इस से भ का स वहाँ भी है ही। ान न ाके साधनके लये भगवान्ने अनेक यु याँ बतलायी ह, उन सबका फल एक स दान घन परमा ाक ा ही है। ानयोगके अवा र भेद कई होते ए भी उ मु चार वभाग म बाँटा जा सकता है– (१) जो कु छ है, वह ही है। (२) जो कु छ वग तीत होता है, वह मायामय है; वा वम एक स दान घन के अ त र और कु छ भी नह है। (३) जो कु छ तीत होता है, वह सब मेरा ही प है – म ही ँ ।

(४)

जो कु छ तीत होता है, वह मायामय है, अ न है, वा वम है ही नह ; के वल एक न चेतन आ ा म ही ँ । इनमसे पहले दो साधन 'त म स ' महावा के 'तत् ' पदक से ह और पछले दो साधन ' म् ' पदक से ह। इ का ीकरण इस कार कया जा सकता है– (१) इस चराचर जगत्म जो कु छ तीत होता है, सब ही है; कोई भी व ु एक स दान घन परमा ासे भ नह ह। कम, कमके साधन एवं उपकरण तथा यं कता – सब कु छ ही है  (४। २४)। जस कार समु म पड़े ए बफके ढेल के बाहर और भीतर सब जगह जल-ही-जल ा है तथा वे ढेले यं भी जल प ही ह, उसी कार सम चराचर भूत के बाहर-भीतर एकमा परमा ा ही प रपूण ह तथा उन सम भूत के पम भी वे ही ह (१३।१५)। (२) जो कु छ यह वग है, उसे मायामय, णक एवं नाशवान् समझकर – इन सबका अभाव करके के वल उन सबके अ ध ान प एक स दान घन परमा ा ही ह और कु छ भी नह ह – ऐसा समझते ए मन-बु को भी म त पू कर देना एवं परमा ाम एक भावसे त होकर उनके अपरो ान ारा उनम एकता ा कर लेना (५।१७)। (३) चर, अचर सब है और वह म ँ ; इस लये सब मेरा ही प है – इस कार वचारकर स ूण चराचर ा णय को अपना आ ा ही समझना। इस कारका साधन करनेवालेक म एक के सवा अ कु छ भी नह रहता, वह फर अपने उस व ानान घन पम ही आन का अनुभव करता है (५।२४; ६।२७; १८। ५४)। (४) जो कु छ भी यह मायामय, तीन गुण का काय प वग है – इसको और इसके ारा होनेवाली सारी या को अपनेसे पृथक नाशवान् एवं अ न समझना तथा इन सबका अ अभाव करके के वल भाव प आ ाका ही अनुभव करना (१३।२७, ३४)। इस कारक त ा करनेके लये भगवान्ने गीताम अनेक यु य से साधकको जगह-जगह यह बात समझायी है क आ ा ा, सा ी, चेतन और न है तथा यह देहा द जड वग – जो कु छ तीत होता है – अ न होनेसे असत् है; के वल आ ा ही सत् है। इसी बातको पु करनेके लये भगवान्ने दूसरे अ ायके ारहवसे तीसव ोकतक न , शु , बु , नराकार, न वकार, अ य, गुणातीत आ ाके पका वणन कया है। अभेद पसे साधन करनेवाले पु ष को आ ाका प ऐसा ही मानकर साधन करनेसे आ ाका सा ा ार होता है। जो कु छ चे ा हो रही है, गुण क ही गुण म हो रही है, आ ाका उससे कोई स नह है (५।८,९; १४।१९)। न वह कु छ करता है और न करवाता है – ऐसा समझकर वह न - नर र अपने-आपम ही अ आन का अनुभव करता है (५।१३)। उपयु ानयोगके चार साधन म पहले दो साधन तो क उपासनासे यु ह एवं तीसरा और चौथा साधन अहं ह-उपासनासे यु है। ँ

यहाँ यह होता है क 'उपयु चार साधन ु ान-अव ाम करनेके ह या ानाव ाम या वे दोन ही अव ा म कये जा सकते ह।' इसका उ र यह है क चौथे साधनके अ म जो या पाँचव अ ायके नव ोकानुसार बतलायी गयी है – यह तो के वल वहारकालम करनेक है और दूसरे साधनके आर म पाँचव अ ायके स हव ोकके अनुसार जो साधन बताया गया है, वह के वल ानकालम ही कया जा सकता है। शेष सब ाय: दोन ही अव ा म कये जा सकते ह। यहाँ कोई यह पूछ सकता है क 'पहले साधनम  'वासुदेव: सव म त ' – जो कु छ दीखता है सब वासुदेवका ही प है (७।१९) तथा 'सवभूत तं यो मां भज ेक मा तः ' – जो पु ष एक भावम त आ स ूण भूत म आ पसे त मुझ स दान घन वासुदेवको ही भजता है (६।३१) – इनका उ ेख नह कया गया।' इसका उ र यह है क ये दोन ोक भ के संगके ह और दोन म ही परमा ाको ा ए पु षका वणन है; अत: इनका उ ेख इस संगम नह कया गया। परंतु य द कोई इनको ानके संगम लेकर इनके अनुसार साधन करना चाहे तो कर सकता है; ऐसा करनेम कोई आप नह है। जस कार ऊपर सां न ाके चार वभाग कये गये ह, उसी कार योग न ाके भी तीन मु भेद ह– १. कम धान कमयोग। २. भ म त कमयोग। ३. भ धान कमयोग। (१) सम कम म और सांसा रक पदाथ म फल और आस का सवथा ाग करके अपने वणा मानुसार शा व हत कम करते रहना ही कम धान कमयोग है। इसके उपदेशम कह -कह भगवान्ने के वल फलके ागक बात कही है (५।१२; ६।१; १२।११; १८।११), कह के वल आस के ागक बात कही है (३।११; ६।४) और कह फल और आस दोन के छोड़नेक बात कही है (२।४७,४८; १८।६,९)। जहाँ के वल फलके ागक बात कही गयी है, वहाँ आस के ागक बात भी साथम समझ लेनी चा हये और जहाँ के वल आस के ागक बात कही है, वहाँ फलके ागक बात भी समझ लेनी चा हये। कमयोगका साधन वा वम तभी पूण होता है जब फल और आस दोन का ही ाग होता है। (२) भ म त कमयोग – इसम सारे संसारम परमे रको ा समझते ए अपनेअपने वण चत कमके ारा भगवान्क पूजा करनेक बात कही गयी है (१८।४६) इस लये इसको भ म त कमयोग कह सकते है। (३) भ धान कमयोग– इसके दो अवा रभेद ह(क) 'भगवदपण' कम। (ख) 'भगवदथ' कम। भगवदपण कम भी दो तरहसे कया जाता है। पूण 'भगवदपण' तो वह है जसम सम कम म ममता, आस और फले ाको ागकर तथा यह सब कु छ भगवान्का है, म भी भगवान्का ँ और मेरे ारा जो कम होते ह वे भी भगवान्के ही ह, भगवान् ही मुझसे ँ

कठपुतलीक भाँ त सब कु छ करवा रहे ह – ऐसा समझते ए भगवान्के आ ानुसार भगवान्क ही स ताके लये शा व हत कम कये जाते ह  (३।३०; १२।६; १८।५७,६६)। इसके अ त र पहले कसी दूसरे उदे से कये ए कम को पीछेसे भगवान्के अपण कर देना, कम करते-करते बीचम ही भगवान्के अपण कर देना, कम समा होनेके साथसाथ भगवान्के अपण कर देना अथवा कम का फलमा भगवान्के अपण कर देना – यह भी 'भगवदपण' का ही कार है, यह भगवदपणक ार क सीढ़ी है। ऐसा करते-करते ही उपयु पूण भगवदपण होता है। 'भगवदथ' कम भी दो कारके होते हजो शा व हत कम भगवत्- ा , भगव ेम अथवा भगवान्क स ताके लये भगवदा ानुसार कये जाते ह वे तथा जो भगवान्के व ह आ दका अचन तथा भजन- ान आ द उपासना प कम जो भगवान्के ही न म कये जाते ह और पसे भी भगव ी होते ह, वे दोन ही 'भगवदथ' कमके अ गत ह। इन दोन कारके कम का 'म म' और 'मदथ कम' नामसे भी गीताम उ ेख आ है  ( ११।५५; १२।१०)। जसे अन भ अथवा भ योग कहा गया है  (८।१४,२२; ९।१३,१४,२२,३०,३४; १०।९; १३।१०; १४।२६) वह भी 'भगवदपण' और  'भगवदथ' इन दोन कम म ही स लत है। इन सबका फल एक भगव ा ही है। अब यह होता है क योग न ा त पसे भगव ा करा देती है या ान न ाका अंग बनकर। इसका उ र यह है क गीताको दोन ही बात मा ह अथात् भगवदगीता ् योग न ाको भगव ा यानी मो का त साधन भी मानती है और ान न ाम सहायक भी। साधक चाहे तो बना ान न ाक सहायताके सीधे ही कमयोगसे परम स ा कर सकता है अथवा कमयोगके ारा ान न ाको ा कर फर ान न ाके ारा परमा ाक ा कर सकता है। दोन मसे वह कौन-सा माग हण करे, यह उनक चपर नभर है। योग न ा त साधन है, इस बातको भगवान्ने श म कहा है (५। ४,५ तथा १३।२४)। भगवान्म च लगाकर भगवान्के लये ही कम करनेवालेको भगवान्क कृ पासे भगवान् मल जाते ह, यह बात भी जगह-जगह भगवान्ने कही है (८।७; ११।५४,५५; १२। ६-८)। इसी कार न ाम कम और उपासना – दोन ही ान न ाके अंग भी बन सकते ह (५।६; १४।२६)। कतु ानयोगम अभेद उपासना है, इस लये ान न ा भेद उपासना प भ योगका यानी योग न ाका अंग नह बन सकती। यह दूसरी बात है क कसी ान न ाके साधकक आगे चलकर च अथवा मत बदल जाय और वह ान न ाको छोड़कर योग न ाको पकड़ ले और उसे फर योग न ाके ारा ही भगव ा हो। य द कोई पूछे क कमयोगका साधन करके फर सां योगके साधन ारा जो स दान घन परमा ाको ा होते ह, उनक णाली कै सी होती है तो इसे जाननेके लये ' ाग' के नामसे सात े णय म वभाग करके उसे य समझना चा हये–

चोरी, शा न ष नीच ेणीका ाग है।

(१) न ष कम का सवथा ाग भचार, झूठ, कपट, छल, जबरद ी, हसा, अभ भोजन और कम को मन, वाणी और शरीरसे कसी कार भी न करना – (२) का

कम का

माद आ द यह पहली

ाग

ी, पु और धन आ द य व ु क ा के एवं रोग-संकटा दक नवृ के उ े से कये जानेवाले य , दान, तप और उपासना आ द सकाम कम का अपने ाथके लये न करना – यह दूसरी ेणीका ाग है। य द कोई लौ कक अथवा शा ीय ऐसा कम संयोगवश ा हो जाय, जो पसे तो सकाम हो, परंतु उसके न करनेसे कसीको क प ँ चता हो या कम-उपासनाक पर राम कसी कारक बाधा आती हो तो ाथका ाग करके के वल लोकसं हके लये उसे कर लेना सकाम कम नह है। (३) तृ ाका सवथा ाग एवं ी, पु और धना द जो कु छ

मान, बड़ाई, त ा भी अ न पदाथ ार के अनुसार ा ए ह , उनके बढ़नेक इ ाको भगव ा म बाधक समझकर उसका ाग करना। यह तीसरी ेणीका ाग है। (४)

ाथके लये दस ू र से सेवा करानेका

ाग

अपने सुखके लये कसीसे भी धना द पदाथ क अथवा सेवा करानेक याचना करना एवं बना याचनाके दये ए पदाथ को या क ई सेवाको ीकार करना तथा कसी कार भी कसीसे अपना ाथ स करनेक मनम इ ा रखना– आ द जो ाथके लये दूसर से सेवा करानेके भाव ह, उन सबका ाग करना– यह चौथी ेणीका ाग है। य द कोई ऐसा अवसर यो तासे ा हो जाय क शरीरस ी सेवा अथवा भोजना द पदाथ को ीकार न करनेसे कसीको क प ँ चता हो या लोक श ाम कसी कारक बाधा आती हो तो उस अवसरपर ाथका ाग करके के वल उनक ी तके लये सेवा दका ीकार करना दोषयु नह है; क ी, पु और नौकर आ दसे क ई सेवा एवं ब -ु बा व और म आ द ारा दये ए भोजना द पदाथ को ीकार न करनेसे उनको क होना एवं लोकमयादाम बाधा पड़ना स व है।  (५) स ूण कत -कम म आल और फलक इ ाका सवथा ाग ई रक भ , देवता का पूजन, माता- पता द गु जन क सेवा, य , दान, तप तथा वणा मके अनुसार आजी वका एवं शरीर-स ी खान-पान आ द जतने कत -कम ह,

उन सबम आल का और सब कारक कामनाका ाग करना– यह पाँचव ेणीका ाग है। (६) संसारके स ूण पदाथ म और कम म ममता और आस



का सवथा

ाग

धन, मकान और व ा द स ूण व ुएँ तथा ी, पु और म ा द स ूण बा वजन एवं मान, बड़ाई और त ा आ द इस लोकके और परलोकके जतने वषय-भोग प पदाथ ह उन सबको णभंगुर और नाशवान् होनेके कारण अ न समझकर उनम ममता और आस का न रहना तथा के वल एक परमा ाम ही अन भावसे वशु ेम होनेके कारण मन, वाणी और शरीरके ारा होनेवाली स ूण या म और शरीरम भी ममता और आस का सवथा अभाव हो जाना – यह छठी ेणीका ाग है। उ छठी ेणीके ागको ा ए पु ष का संसारके स ूण पदाथ म वैरा होकर के वल एक परम ेममय भगवान्म ही अन ेम हो जाता है। इस लये उनको भगवान्के गुण, भाव और रह से भरी ई वशु ेमके वषयक कथा का सुनना-सुनाना और मनन करना तथा एका देशम रहकर नर र भगवान्का भजन, ान और शा के ममका वचार करना ही य लगता है। वषयास मनु म रहकर हा , वलास, माद, न ा, वषय-भोग और थ बात म अपने अमू समयका एक ण भी बताना अ ा नह लगता एवं उनके ारा स ूण कत -कम भगवान्के प और नामका मनन रहते ए ही बना आस के के वल भगवदथ होते ह। यह कमयोगका साधन है; इस साधनके करते-करते ही साधक परमा ाक कृ पासे परमा ाके पको त तः जानकर अ वनाशी परमपदको ा हो जाता है (१८।५६)। कतु य द कोई सां योगके ारा परमा ाको ा करना चाहे तो उसे उपयु साधन करनेके अन र न ल खत सातव ेणीक णालीके अनुसार सां -योगका साधन करना चा हये। (७) संसार, शरीर और स ूण कम म सू

वासना और अहंभावका सवथा

ाग

संसारके स ूण पदाथ मायाके काय होनेसे सवथा अ न ह और एक स दान घन परमा ा ही सव समभावसे प रपूण ह – ऐसा ढ़ न य होकर शरीरस हत संसारके स ूण पदाथ म और स ूण कम म सू वासनाका सवथा अभाव हो जाना अथात् अ ःकरणम उनके च का सं ार पसे भी न रहना एवं शरीरम अहंभावका सवथा अभाव होकर मन, वाणी और शरीर ारा होनेवाले स ूण कम म कतापनके अ भमानका लेशमा भी न रहना तथा इस कार शरीरस हत स ूण पदाथ और कम म वासना और अहंभावका अ अभाव होकर एक स दान घन परमा ा के पम ही एक भावसे न - नर र ढ़ त रहना – यह सातव ेणीका ाग है। इस कार साधन करनेसे वह पु ष त ाल ही स दान घन परमा ाको सुखपूवक ा हो जाता है (६।२८)। कतु जो पु ष उ कारसे कमयोगका साधन न करके आर से ही सां योगका साधन करता है वह परमा ाको क ठनतासे ा होता है। स ास ु महाबाहो दःु खमा ुमयोगत:। (५।६) यहाँ यह होता है क कोई साधक एक ही समयम दोन न ा के अनुसार साधन कर सकता है या नह – य द नह तो ? इसका उ र यह है क – सां योग और कमयोग

इन दोन साधन का स ादन एक कालम एक ही पु षके ारा नह कया जा सकता। क कमयोगी साधनकालम कमको, कमफलको, परमा ाको और अपनेको भ - भ मानकर कमफल और आस का ाग करके ई राथ या ई रापणबु से सम कम करता है  (३।३०; ५।१०; ११।५५; १२।१०; १८।५६-५७) और सां योगी मायासे उ स ूण गुण ही गुण म बरत रहे ह अथवा इ याँ ही इ य के अथ म बरत रही ह – ऐसा समझकर मन, इ य और शरीरके ारा होनेवाली स ूण या म कतापनके अ भमानसे र हत हेकर के वल सव ापी स दान घन परमा ाके पम अ भ भावसे त रहता है (३।२८; ५।१३; १३।२९; १४।११-२०; १८।४९-५५)। कमयोगी अपनेको कम का कता मानता है (५।११), सां योगी कता नह मानता (५।८,९)। कमयोगी अपने कम को भगवान्के अपण करता (९। २७,२८), सां योगी मन और इ य के ारा होनेवाली अहंतार हत या को कम ही नह मानता (१८।१७)। कमयोगी परमा ाको अपनेसे पृथक् मानता है (१२।१०), सां योगी सदा अभेद मानता है (१८।२०)। कमयोगी कृ त और कृ तके पदाथ क स ा ीकार करता है (१८।६१), सां योगी एक के सवा कसीक भी स ा नह मानता (१३।३०)। कमयोगी कमफल और कमक स ा मानता है, सां योगो न तो से भ कम और उनके फलक स ा ही मानता है और उनसे अपना कोई स ही समझता है। इस कार दोन क साधनणाली और मा ताम पूव और प मक भाँ त महान् अ र है। ऐसी अव ाम दोन न ा का साधन एक पु ष एक कालम नह कर सकता। जैसे कसी मनु को भारतवषसे अमे रकाके ूयाक शहरको जाना है तो वह य द ठीक रा े होकर यहाँसे पूव-ही-पूव दशाम जाता रहे तो भी अमे रका प ँ च जायगा और प म-ही-प मक ओर चलता रहे तो भी अमे रका प ँ च जायगा; वैसे ही सां योग और कमयोगक साधन- णालीम पर र भेद होनेपर भी जो मनु कसी एक साधनम ढ़ता-पूवक लगा रहता है, वह दोन के ही एकमा परम ल परमा ातक शी प ँ च जाता है (५।४)। –

अ धकारी

अब यह रह जाता है क गीतो सां योग और कमयोगके अ धकारी कौन ह – ा सभी वण और सभी आ म के तथा सभी जा तय के लोग इनका आचरण कर सकते ह अथवा कसी खास वण, कसी खास आ म तथा कसी खास जा तके ही लोग इनका साधन कर सकते ह। इसका उ र यह है क य प गीताम जस प तका न पण कया गया है वह सवथा भारतीय और ऋ षसे वत है, तथा प गीताक श ापर वचार करनेपर यह कहा जा सकता है क गीताम बताये ए साधन के अनुसार आचरण करनेका अ धकार मनु मा को है। जगदगु् भगवान् ीकृ का यह उपदेश सम मानवजा तके लये है – कसी खास वण अथवा कसी खास आ मके लये नह । यही गीताक वशेषता है। भगवान्ने अपने उपदेशम जगह-जगह 'मानव: ', 'नर: ', 'देहभृत् ', 'देही ' आ द श का योग करके इस बातको कर दया है। जहाँ सां योगका मु साधन बतलाया गया है, भगवान्ने 'देही' श का योग करके मनु मा को उसका अ धकारी बताया है (५।१३)। इसी कार भगवान्ने श म

कहा है क मनु मा अपने-अपने शा व हत कम ारा सव ापी परमे रक पूजा करके स ा कर सकता है (१८।४६)। इसी कार भ के लये भगवान्ने ी, शू तथा पापयो नतकको अ धकारी बतलाया है (९।३२)। और भी जहाँ-जहाँ भगवान्ने कसी भी साधनका उपदेश दया है, वहाँ ऐसा नह कहा है क इस साधनको करनेका कसी खास वण, आ म या जा तको ही अ धकार है, दूसर को नह । ऐसा होनेपर भी यह रण रखना चा हये क सभी कम सभी मनु के लये उपयोगी नह होते। इसी लये भगवान्ने वणधमपर ब त जोर दया है। जस वणके लये जो कम व हत ह, उसके लये वे ही कम कत ह, दूसरे वणके नह । इस बातको ानम रखकर ही कम करने चा हये। ऐसे वणधमके ारा नयत कत -कम को अपने-अपने अ धकार और चके अनुकूल मनु मा ही कर सकते ह। वणधमके अ त र मानव-मा के लये पालनीय सदाचार, भ आ दका साधन तो सभी कर सकते ह। कु छ लोग ऐसा मानते ह क सां योगके साधनका अ धकार सं ा सय को ही है, दूसरे आ मवाल को नह । यह बात भी यु संगत नह मालूम होती। भगवान्ने सां क से भी यु करनेक आ ा दी है (२।१८)। भगवान् य द के वल सं ा सय को ही सां योगका अ धकारी मानते तो वे अजुनको उस से यु करनेक आ ा कभी न देते। क सं ास-आ मम कममा का ाग कहा गया है, यु पी घोर कमक तो बात ही ा है। फर अजुन तो सं ासी थे भी नह । उ भगवान्ने ा नय के पास जाकर ान सीखनेतकक बात कही है (४।३४)। इसके अ त र तीसरे अ ायके चौथे ोकम भगवान्ने सां योगक स के वल कमके पत: ागसे नह बतलायी। य द भगवान् सां योगका अ धकारी के वल सं ा सय को ही मानते तो सां योगके लये कम का पसे ाग आव क बतलाते और यह नह कहते क कम का पत: ाग कर देनेमा से ही सां योगक स नह होती। यही नह ; अ० १३।७-११ म जहाँ ानके साधन बतलाये गये ह, वहाँ एक साधन ी, पु , धन, मकान आ दम आस एवं ममताका ाग भी बतलाया है – 'अस

रन भ

: पु दारगृहा दषु।' ी, पु , धन, मकान आ दके साथ पत: स होनेपर ही ममताके ागक बात कही जा सकती है। सं ास-आ मम इनका

उनके त आस एवं पसे ही ाग है; ऐसी दशाम य द सं ा सय को ही ानयोगके साधनका अ धकार होता तो उनके लये इन सबके त आस और ममताके ागका कथन अनाव क था। तीसरी बात यह है क अठारहव अ ायम जहाँ अजुनने खास सं ास और ागके स म कया है, वहाँ भगवान्ने सं ासके ानपर सां योगका ही वणन कया है (१३ से ४०), सं ास-आ मका कह भी उ ेख नह कया। य द भगवान्को 'सं ास' श से सं ास-आ म अ भ ेत होता अथवा सां योगका अ धकारी वे के वल सं ा सय को ही मानते तो इस संगपर अव उसका श म उ ेख करते। इन सब बात से यह मा णत ँ

होता है क सां योगका अ धकार सं ासी, गृह सभीको समान पसे है। हाँ, इतनी बात अव है क सां योगका साधन करनेके लये सं ास-आ मम सु वधाएँ अ धक ह, इस से उस आ मको गृह ा मक अपे ा सां योगके साधनके लये अव ही अ धक उपयु कह सकते ह। कमयोगके साधनम कमक धानता है और वण चत व हत कम करनेक वशेष पसे आ ा है (३।८; १८।४५,४६); ब कम का पसे ाग इसम बाधक बतलाया गया है (३।४), इस लये सं ास-आ मम कम धान कमयोगका आचरण नह बन सकता; क वहाँ और य -दाना द कम का पसे ाग है; कतु भगवान्क भ सभी आ म म क जा सकती है अत: भ - धान कमयोग सभी आ म म बन सकता है। कु छ लोग म यह म फै ला आ है क गीता तो साधु-सं ा सय के कामक चीज है, गृह के कामक नह ; इसी लये वे ाय: बालक को इस भयसे गीता नह पढ़ाते क इसे पढ़कर ये लोग गृह का ाग कर दगे। परंतु उनका ऐसा समझना सवथा भूल है, यह बात ऊपरक बात से हो जाती है। वे लोग यह नह सोचते क मोहके कारण अपने ा धमसे वमुख होकर भ ाके अ से नवाह करनेके लये उ त अजुनने जस परम रह मय गीताके उपदेशसे आजीवन गृह म रहकर अपने कत का पालन कया, उस गीताशा का यह उलटा प रणाम कस कार हो सकता है। यही नह , गीताके उपदे ा यं भगवान् ीकृ जबतक इस धराधामपर अवतार पम रहे, तबतक बराबर कम ही करते रहे – साधु क र ा और दु का संहार करके उ ार कया और धमक ापना क । यही नह , उ ने तो यहाँतक कहा है क य द म सावधान होकर कम न क ँ तो लोग मेरी देखा-देखी कम का प र ाग कर आलसी बन जायँ और इस कार लोकक मयादा छ - भ करनेका दा य मुझीपर रहे (३। २३-२४)। इसका यह अथ भी नह है क गीता सं ा सय के लये नह है। गीता सभी वणा मवाल के लये है। सभी अपने-अपने वणा मके कम को करते ए सां या योग – दोन मसे कसी एक न ाके ारा अ धकारानुसार साधन कर सकते है। गीताम भ

गीताम भ , ान, कम-सभी वषय का वशद पसे ववेचन कया गया है; सभी माग से चलनेवाल को इसम यथे साम ी मल सकती है। कतु अजुन भगवान्के भ थे; अत: सभी वषय का तपादन करते ए जहाँ अजुनको यं आचरण करनेके लये आ ा दी है, वहाँ भगवान्ने उसे ाय: भ धान कमयोगका उपदेश दया है (३।३०; ८।७; १२।८; १८। ५७, ६२, ६५, ६६)। कह -कह के वल कम करनेक भी आ ा दी है (२।४८,५०; ३।८,९,१९; ४। ४२; ६।४६; ११।३३-३४), परंतु उसके साथ भी भ का अ ल से अ ाहार कर लेना चा हये। चौथे अ ायके च तीसव ोकम जो भगवान्ने अजुनको ा नय के पास जाकर ान सीखनेक आ ा दी है, वह भी ान ा करनेक णाली बतलाने तथा अजुनको चेतावनी देनेके लये। वा वम भगवान्का आशय अजुनको ान सीखनेके लये कसी ानीके पास भेजनेका नह था और न अजुनने जाकर उस यासे कह ान सीखा ही। उप म-

उपसंहारको देखते ए भी गीताका पयवसान शरणाग तम ही तीत होता है। वैसे तो गीताका उपदेश 'अशो ान शोच म् ' (२।११) इस ोकसे ार आ है; कतु इस उप मका बीज  'काप दोषोपहत भावः ' (२।७) अजुनक इस उ म है, जसम ' प म् ' पदसे शरणाग तका भाव है। इसी लये 'सवधमान् प र '  (१८।६६) इस ोकसे भगवान्ने शरणाग तम ही अपने उपदेशका उपसंहार भी कया है। गीताका ऐसा कोई भी अ ाय नह है, जसम कह -न-कह भ का संग न आया हो। उदाहरणके लये दूसरे अ ायका इकसठवाँ, तीसरे अ ायका तीसवाँ, चौथे अ ायका ारहवाँ, पाँचव अ ायका उनतीसवाँ, छठे अ ायका सतालीसवाँ, सातव अ ायका चौदवाँ, आठव अ ायका चौदहवाँ, नव अ ायका च तीसवाँ, दसव अ ायका नवाँ, ारहव अ ायका चौवनवाँ, बारहव अ ायका दूसरा, तेरहव अ ायका दसवाँ, चौदहव अ ायका छ ीसवाँ, पं हव अ ायका उ ीसवाँ, सोलहव अ ायका पहला ( जसम ' ानयोग व त: ' पदके ारा भगवान्के ानक बात कही गयी है), स हव अ ायका स ाईसवाँ और अठारहव अ ायका छाछठवाँ ोक देखना चा हये। इस कार ेक अ ायम भ का संग आया है। सातवसे लेकर बारहव अ ायतकम तो भ योगका करण भरा पड़ा है; इसी लये इन छह अ ाय को भ धान माना गया है। यहाँ उदाहरणके लये ेक अ ायके एक-एक ोकक ही सं ा दी गयी है। इसी कार ानपरक ोक भी ब त-से अ ाय म मलते ह। उदाहरणके लये – दूसरे अ ायका उनतीसवाँ, तीसरेका अ ाईसवाँ, चौथेका चौबीसवाँ, पाँचवका तेरहवाँ, छठे का उनतीसवाँ, आठवका तेरहवाँ, नवका पं हवाँ, बारहव तीसरा, तेरहवका च तीसवाँ, चौदहवका उ ीसवाँ और अठारहवका उनचासवाँ ोक देखना चा हये। इनम भी दूसरे, पाँचव, तेरहव, चौदहव तथा अठारहव अ ाय म ानपरक ोक ब त अ धक मलते ह। गीताम जस कार भ ओर ानका रह अ ी तरहसे खोला गया है, उसी कार कम का रह भी भलीभाँ त खोला गया है। दूसरे अ ायके उनतालीसवसे तरपनव ोकतक, तीसरे अ ायके चौथे ोकसे पतीसव ोकतक, चौथे अ ायके तेरहवसे ब ीसव ोकतक, पाँचव अ ायके दूसरे ोकसे सातव ोकतक तथा छठे अ ायके पहले ोकसे चौथे ोकतक कम का रह पूण पसे भरा आ है। इनम भी दूसरे अ ायके सतालीसव तथा चौथेके सोलहवसे अठारहवतकम कमाके रह का वशेष पसे ववेचन आ है। इसके सवा अ ा अ ाय म भी कमाका वणन है। ान-संकोचसे अ धक माण नह दये जा रहे ह। इससे यह व दत होता है क गीताम के वल भ का ही वणन नह है, ान, कम और भ – तीन का ही स क् तया तपादन आ है। सगुण- नगुणक उपासना और त ऊपर यह बात कही गयी क परमा ाक उपासना भेद- से क जाय अथवा अभेदसे, दोन का फल एक ही है – यह बात कै से कही गयी, क भेदोपासकको तो भगवान्

साकार पम दशन देते ह और इस शरीरको छोड़नेके बाद वह उ के परम धामको जाता है और अभेदोपासक यं प हो जाता है। वह कह जाता-आता नह । इसका उ र यह है क ऊपर जो बात कही गयी वह ठीक है और कताने जो बात कही वह भी ठीक है। दोन का सम य कै से है, अब इसीपर वचार कया जाता है। साधनकालम साधक जस कारके भाव और ासे भा वत होकर परमा ाक उपासना करता है, उसको उसी भावके अनुसार परमा ाक ा होती है। जो अभेद पसे अथात् अपनेको परमा ासे अ भ मानकर परमा ाक उपासना करते ह, उ अभेद पसे परमा ाक ा होती है और जो भेद पसे उ भजते ह, उ भेद पसे ही वे दशन देते ह। साधकके न यानुसार परमा ा भ - भ पसे सब लोग को मलते ह। भेदोपासना तथा अभेदोपासना – दोन ही उपासनाएँ भगवान्क उपासना ह। क परमा ा सगुण- नगुण, साकार- नराकार, -अ सभी कु छ ह। जो पु ष परमा ाको नगुण- नराकार समझते ह, उनके लये वे नगुण- नराकार ह ( १२।३)। जो उ सगुणनराकार मानते ह, उनके लये वे सगुण- नराकार ह (८।९)। जो उ सवश मान्, सवाधार, सव ापी, सव म यानी सब कारके उ म गुण से यु मानते ह, उनके लये वे सवसदगु् णस ह (१५।१५, १७, १९)। जो पु ष उ सव प मानते ह उनके लये वे सव प ह। (७।७-१२; ९।१६-१९)। जो उ सगुण-साकार मानते ह, उनके लये वे सगुण-साकार पम कट होते ह (४।८; ९।२६)। ऊपर जो बात कही गयी, वह तो ठीक है; परंतु इससे कताक मूल शंकाका समाधान नह आ, वह -क - बनी ई है। शंका तो यही थी क जब भगवान् सबको अलग-अलग पम मलते ह, तब फलम एकता कहाँ ई। इसका उ र यह है क थम परमा ा साधकको उसके भावके अनुसार ही मलते ह। उसके बाद जो भगवान्के यथाथ त क उपल होती है, वह वाणीके ारा अकथनीय है, वह श ारा बतलायी नह जा सकती। भेद अथवा अभेद पसे जतने कारसे भी परमा ाक उपासना होती है, उन सबका अ म फल एक ही होता है। इसी बातको करनेके लये भगवान्ने, अभेदोपासक को अपनी ा बतलायी है (१२।४; १४।१९; १८।५५) और भेदोपासकके लये यह कहा है क वह को ा होता है (१४।२६), शा त् शा को ा होता है (९।३१), को जान जाता है (७।२९), अ वनाशी शा त पदको ा होता है (१८।५६) इ ा द, इ ा द। अभेदोपासना तथा भेदोपासना दोन कारक उपासनाका फल एक ही होता है, इसी बातको ल करानेके लये भगवान्ने एक ही बातको उलट-फे रकर कई कारसे कहा है। भेदोपासक तथा अभेदीपासक दोन के ारा ापणीय व ,ु यथाथ त एक ही है; उसीको कह परमशा और शा त ानके नामसे कहा है (१८।६२), कह परम धामके नामसे (१५।६), कह अमृतके नामसे (१३।१२), कह 'माम् ' पदसे (९।३४), कह परम ग तके नामसे (८।१३), कह सं स के नामसे (१८।४५), कह अ य पदके नामसे (१५।५), कह नवाणके नामसे (५।२४) और कह नवाणपरमा शा के नामसे (६।१५) कया है।

इनके अ त र और भी कई श गीताम उस अ म फलको करनेके लये यु ए ह, परंतु वह व ु सभी साधन का फल है – इसके अ त र उसके वषयम कु छ भी कहा नह जा सकता। वह वाणीका अ वषय है। जसे वह व ु ा हो गयी है वही उसे जानता है; परंतु वह भी उसका वणन नह कर सकता, उपयु श तथा इसी कारके अ श ारा शाखाच ायसे उसका ल मा करा सकता है। अत: सब साधन का फल प जो परम व ुत है वह एक है, यही बात यु संगत है। परमा ाका यह ता क प अलौ कक है, परम रह मय है, गु तम है। ज वह ा है, वे ही उसे जानते ह। परंतु यह बात भी उसका ल करानेके उ े से ही कही जाती है। यु से वचारकर देखा जाय तो यह कहना भी नह बनता। गीताम समता है। भगवत्- ा क

गीताम समताक बात धान पसे आयी तो समता ही कसौटी है। ान, कम एवं भ – तीन ही माग म साधन पम भी समताक आव कता बतायी गयी है और तीन ही माग से परमा ाको ा ए पु ष का भी समताको एक असाधारण ल ण बतलाया गया है। साधन भी उसके बना अधूरा है, स तो अधूरी है ही। जसम समता नह , वह स ही कै सा? 'समदःु खसुखम् ' पदसे ानमागके साधक म समतावालेको ही अमृत अथात् मु का अ धकारी बतलाया गया है (२।१५)। ‘ सद ् सद ् ोः समो भू ा सम ं योग उ ते ' इस कार कमयोगके साधकको समतायु होकर कम करनेक आ ा दी गयी है (२। ४८) और भ मागके साधकके लये भी इ गुण के सेवनक बात कही गयी है (१२।२०)। इसी कार गुणातीत ( स ानयोगी) के ल ण म भी समताका धान पसे समावेश पाया जाता है (१४।२४-२५) और स कमयोगीको सम बतलाया गया है (६।७-९) तथा स भ के ल ण म भी समताका उ ेख कया गया है (१२।१८-१९)। इस समताका त सुगमताके साथ भलीभाँ त समझानेके लये ीभगवान्ने गीताम अनेक कारसे स ूण ाणी, या, भाव और पदाथ म समताक ा ा क है। जैसे – मनु म समता सु ायुदासीनम े ब ुषु। साधु प च पापेषु समबु व श ते ॥ (६।९) 'सु द ् म , वैरी, उदासीन, म , े और ब ुण म, धमा ा भी समान भाव रखनेवाला अ े है।' मनु और पशु म समता व ा वनयस े ा णे ग व ह न। शु न चैव पाके च प ताः समद शनः॥(५। १८) ' ानीजन व ा और वनययु ा णम तथा गौ, हाथी, कु े और समदश ही होते ह।' स ूण जीव म समता ौ

और पा पय म

चा ालम भी

'है

आ ौप ेन सव समं प त योऽजुन। सुखं वा य द वा दःु खं स योगी परमो मत:॥ (६। ३२)

अजुन! जो योगी अपनी भाँ त स ूण भूत म सम देखता है और सुख अथवा दुःखको भी सबम सम देखता है, वह योगी परम े माना गया है।' कह -कह पर भगवान्ने , या, पदाथ और भावक समताका एक ही साथ वणन कया है। जैसे –

सम: श ौ च म े च तथा मानापमानयोः। शीतो सुखदःु खेषु सम: स वव जत:॥ (१२। १८) 'जो श ु- म म और मान-अपमानम सम है तथा सरदी-गरमी और सुख-दुःखा द ंद म सम है और आस से र हत है (वह भ है)।' यहाँ श ु- म ' ' के वाचक ह, मान-अपमान 'परकृ त या' ह, शीत-उ 'पदाथ' ह और सुख-दुःख 'भाव' है। समदःु खसुखः : समलो ा का न:। तु या यो धीर ु न ा सं ु त:॥ (१४। २४) 'जो नर र आ भावम त, दुःख-सुखको समान समझनेवाला, म ी, प र और णम समान भाववाला, ानी, य तथा अ यको एक-सा माननेवाला और अपनी न ाु तम भी समान भाववाला है (वही गुणातीत है)।' इसम भी दुःख-सुख 'भाव' ह; लो , अ और का न 'पदाथ' ह; न ा- ु त 'परकृ त या' ह और य-अ य ' ाणी', 'भाव', 'पदाथ' तथा ' या' सभीके वाचक ह। इस कार जो सव सम है, वहारम कथनमा क अहंता-ममता रहते ए भी जो सबम समबु रखता है, जसका सम प सम संसारम समभाव है, वह समतायु पु ष है

और वही स ा सा वादी है। गीताके सा वाद और आजकलके कहे जानेवाले सा वादम बड़ा अ र है। आजकलका सा वाद ई र- वरोधी है और यह गीतो सा वाद सव ई रको देखता है; वह धमका नाशक है, यह पद-पदपर धमक पु करता है; वह हसामय है, यह अ हसाका तपादक है; वह ाथमूलक है, यह ाथको समीप भी नह आने देता; वह खान-पानशा दम एकता रखकर आ रक भेदभाव रखता है, यह खान-पान- शा दम शा मयादानुसार यथायो भेद रखकर भी आ रक भेद नह रखता और सबम परमा ाको सम देखनेक श ा देता है; उसका ल के वल धनोपासना है, इसका ल परमा - ा है, उसम अपने दलका अ भमान है और दूसर का अनादर है, इसम सवथा अ भमानशू ता है और सारे जगत्म परमा ाको देखकर सबका स ान करना है; उसम बाहरी वहारक धानता है, इसम अ ःकरणके भावक धानता है; उसम भौ तक सुख मु है, इसम आ ा क सुख मु है; उसम परधन और परमतसे अस ह ुता है, इसम सबका समान आदर है; उसम राग- ेष है इसम राग- ेषर हत वहार है। ी

जीव क ग त कमानुसार उनक उ म,

गीताम जीव के गुण एवं म म और क न – तीन ग तयाँ बतलायी गयी ह। कमयोग तथा सां योगक से शा ो कम एवं उपासना करनेवाले साधक क ग त आठव अ ायके चौबीसव ोकम बतलायी गयी है। उनम जो योग हो जाते ह, उनक ग तका वणन छठे अ ायके चालीसवसे पतालीसवतकम कया गया है। वहाँ यह बतलाया गया है क मरनेके बाद वे गा द लोक को ा होते ह और सुदीघकालतक उन द लोक के सुख भोगकर प व आचरणवाले ीमान् लोग के घर म ज लेते ह अथवा गम न जाकर सीधे यो गय के ही कु लम ज ते ह और वहाँ पूव अ ासके कारण पुन: योगके साधनम वृ होकर परम ग तको ा हो जाते ह। सकामभावसे व हत कम एवं उपासना करनेवाल क ग तका वणन नव अ ायके बीसव और इ सव ोकम कया गया है – वहाँ गक कामनासे य -यागा द वेद- व हत कम करनेवाल को गके भोग क ा तथा पु के य हो जानेपर उनके पुन: म लोकम ढके ले जानेक बात कही गयी है। वे लोग कस मागसे तथा कस तरह गको जाते ह, इसक या आठव अ ायके पचीसव ोकक ा ाम बतलायी गयी है। चौदहव अ ायके चौदहव, पं हव और अठारहव ोक म सामा भावसे सभी पु ष क ग त सं ेपम बतलायी गयी है। स गुणक वृ म मरनेवाले उ म लोक म जाते ह, रजोगुणक वृ म मरनेवाले मनु म उ होते ह तथा तमोगुणक वृ म मरनेवाले पशुप ी, क ट-पतंग और वृ ा द यो नय म ज ते ह। इस कार स गुणम त पु ष भी मरकर ऊपरके लोक म जाते ह, रजोगुणम त राजस पु ष मनु -लोकम ही रहते ह और तमोगुणम त तामस पु ष अधोग तको अथात् नरक को और तयक् यो नय को ा होते ह। सोलहव अ ायके उ ीसवसे बीसव ोकतक आसुरी कृ तके तामसी मनु के स म भगवान्ने कहा है क उ म बार-बार आसुरी यो नय म अथात् कू कर-शूकर आ द यो नय म डालता ँ और इसके बाद वे घोर नरक म गरते है। इसी कार और-और ल म भी गुण-कमके अनुसार गीताम जीव क ग त बतलायी गयी है। मु पु ष क ग तका वणन व ारसे सां और योगके फल पम जगह-जगह कया गया है। जीव ु पु ष का कह जाना-आना नह होता। वे तो यह पर परमा ाको ा हो जाते ह। गीताक कुछ खास बात (१) गुण क पहचान क-राजस-तामस पदाथ , भाव एवं

गीताम सा या क कु छ खास पहचान बतलायी गयी है। वह इस कार है– (क) जस भाव या याका ाथसे स न हो और जसम आस एवं ममता न हो तथा जसका फल भगव ा हो, उसे सा क जानना चा हये। (ख) जस भाव या याम लोभ, ाथ एवं आस का स हो तथा जसका फल णक सुखक ा एवं अ म प रणाम दुःख हो, उसे राजस समझना चा हये।



(ग) जस भाव या याम हसा, ान हो, उसे तामस समझना चा हये।

मोह एवं माद हो तथा जसका फल दुःख एवं

इस कार तीन तरहके भाव एवं या का भेद बतलाकर भगवान्ने सा क भाव एवं या को हण करने तथा राजस एवं तामस भाव एवं या का ाग करनेका आदेश दया है। (२) गीताम आचरणक अपे ा भावक

धानता

य प उ म आचरण एवं अ ःकरणका उ म भाव, दोन हीको गीताने क ाणका साधन माना है, कतु धानता भावको ही दी है। दूसरे, बारहव तथा चौदहव अ ाय के अ म मश: त , भ एवं गुणातीत पु ष के ल ण म भावक ही धानता बतलायी गयी है (दे खये २।५५ से ७१; १२।१३ से १९; १४।२२ से २५)। दूसरे तथा चौदहव अ ाय म तो अजुनने कया है आचरणको धान मानकर, पर ु भगवान्ने उ र दया है भावक ही धानता रखकर। गीताके अनुसार सकामभावसे क ई य , दान, तप, सेवा, पूजा आ द ऊँ ची-से-ऊँ ची याक अपे ा न ामभावसे क ई यु , ापार, खेती, श एवं सेवा आ द छोटी-सेछोटी या भी मु दायक होनेके कारण े है (२।४०,४९; १२।१२; १८।४६)। चौथे अ ायम जहाँ कई कारके य प साधन बतलाये गये ह (४।२४ से ३२), उनम भी भावक धानतासे ही मु बतलायी है। गीता और वेद

गीता वेद को ब त आदर देती है। भगवान् अपनेको सम वेद के ारा जाननेयो , वेदा का रचनेवाला और वेद को जाननेवाला कहकर उनका मह च ब त बढ़ा देते ह (१५।१५)। संसार पी अ वृ का वणन करते ए भगवान् कहते ह क 'मूलस हत उस वृ को त से जाननेवाला ही वा वम वेदके त को जाननेवाला है (१५।१)।' इससे भगवान्ने यह बतलाया है क जगत्के कारण प परमा ाके स हत जगत् के वा वक पको त से जानना ही वेद का ता य है। भगवान्ने कहा है क 'जो बात वेद के ारा वभागपूवक कही गयी है, उसीको म कहता ँ (१३।४)।' इस कार अपनी उ य के समथनम वेद को माण बतलाकर भगवान्ने वेद क म हमाको ब त अ धक बढ़ा दया है। भगवान्ने ऋ ेद, यजुवद तथा सामवेद– वेद यीको अपना ही प बतलाकर उसको और भी अ धक आदर दया है (९। १७)। भगवान् वेद को अपनेसे ही कट बतलाते ह (३।१५; १७।२३)। भगवान्ने यह कहा है क परमा ाको ा करनेके अनेक साधन वेद म बतलाये ह (४।३२)। इससे मानो भगवान् पसे यह कहते है क वेद म के वल भोग ा के साधन ही नह ह – जैसा क कु छ अ ववेक जन समझते ह – कतु भगव ा के भी एक-दो नह , अनेक साधन भरे पड़े ह। भगवान् परमपदके नामसे अपने पका वणन करते ए कहते ह क वेदवे ालोग उसे अ र कारके नामसे नदश करते ह (८।११)। इससे भी भगवान् यही सू चत करते ह क वेद म के वल सकाम पु ष ारा ापणीय इस लोकके एवं गके अ न भोग का ही वणन नह है,

उनम परमा ाके अ वनाशी पका भी वशद वणन हे। उपयु वणनसे यह बात हो जाती है क वेद को भगवान्ने ब त अ धक आदर दया है। इसपर यह शंका होती है क ' फर भगवान्ने कई ल म वेद क न ा क है? उदाहरणत: उ ने सकाम पु ष को वेदवादम रत एवं अ ववेक बतलाया है (२।४२) तथा वेद को तीन गुण के काय प सांसा रक भोग एवं उनके साधन का तपादन करनेवाले कहकर अजुनको उन भोग म आस र हत होनेके लये कहा है (२।४५) और वेद यी-धमका आ य लेनेवाले सकाम पु ष के स म भगवान्ने यह कहा है क वे बार-बार ज ते-मरते रहते ह, आवागमनके च रसे नह छू टते (९।२१)। ऐसी तम ा माना जाय?' इस शंकाका उ र यह है क उपयु वचन म य प वेद क न ा तीत होती है, परंतु वा वम उनम वेद क न ा नह है। गीताम सकामभावक अपे ा न ामभावको ब त अ धक मह दया गया है और भगवान्क ा के लये उसे आव क बतलाया है। इसीसे उसक अपे ा सकामभावको नीचा और नाशवान् वषय-सुखको देनेवाला बतलानेके लये ही उसको जगह-जगह तु स कया है, न ष कम क भाँ त उनक न ा नह क है। जहाँ वेद के फलको लाँघ जानेक बात कही गयी है, वहाँ भी सकाम कमको ल करके ही वैसा कहा गया है (८।२८)। उपयु ववेचनसे यह बात हो जाती है क भगवान्ने गीताम वेद क न ा कह भी नह क है, ब जगह-जगह वेद क शंसा ही क है। गीता और सां

दशन तथा योगदशन कु छ लोग ऐसा मानते ह क गीताम जहाँ-जहाँ 'सां ' श का योग आ है, वहाँ वह मह ष क पलके ारा व तत सां दशनका वाचक है; परंतु यह बात यु संगत नह मालूम होती। गीताके तेरहव अ ायम लगातार तीन ोक (१९, २० और २१) म तथा अ भी ' कृ त' और 'पु ष', दोन श का साथ-साथ योग आ है और कृ त-पु ष सां दशनके खास श ह; इससे लोगोने अनुमान कर लया है क गीताको का पल सां का स ा मा है। इसी कार 'योग' श को भी कु छ लोग पातंजलयोगका वाचक मानते ह। पाँचव अ ायके ार म तथा अ भी कई जगह 'सां ' और 'योग' श का एक ही जगह योग आ है; इससे भी लोग ने यह मान लया क 'सां ' और 'योग' श मश: का पल सां तथा पातंजलयोगके वाचक है; परंतु यह बात यु संगत नह मालूम होती, न तो गीताका 'सां ' का पल सां ही है और न गीताका 'योग' पातंजलयोग ही है। नीचे लखी

बात से यह हो जाता है। (१) गीताम ई रको जस पम माना है, उस पम सां दशन नह मानता। (२) य प ' कृ त' श का गीताम कई जगह योग आया है, परंतु गीताक ' कृ त' और सां क ' कृ त' म महान् अ र है। का पल सां क कृ त तीन गुण क सा ाव ा है; कतु गीताक कृ त तीन गुण क कारण है, गुण उसके काय ह (१४।५)। सां ने कृ तको अना द एवं न माना है; गीताने भी कृ तको अना द तो माना है (१३।१९), पर ु न नह ।

(३) गीताके 'पु ष' और सां के 'पु ष' म भी महान् अ र है। का पल सां के मतम पु ष नाना ह; कतु गीताका सां पु षको एक ही मानता ह (१३|२२, ३०; १८|२०)| (४) गीताक 'मु ' और सां क 'मु ' म भी महान् अ र है। सां के मतम दुःख क आ क नवृ ही मु का प है; गीताक 'मु ' म दुःख क आ क नवृ तो है ही, कतु साथ-ही-साथ परमान प परमा ाक ा भी है (६।२१ -२२)। (५) उपयु स ा भेदके सवा पातंजलयोगम योगका अथ है – ' च वृ का नरोध।' परंतु गीताम करणानुसार 'योग' श का व भ अथ म योग आ है (दे खये अ० २।५३ क टीका)।

इस कार गीता और सां दशन तथा योगदशनके स ा म बड़ा अ र है। इस टीकाका योजन

ब त दन से कई म का आ ह एवं ेरणा थी क म अपने भाव के अनुसार गीतापर एक व ृत टीका लखूँ। य तो गीतापर पू पाद आचाय , संत-महा ा एवं शा के ममको जाननेवाले व ान के अनेक भा , टीकाएँ और ा ाएँ ह, जो सभी आदरणीय ह एवं सभीम अपनी-अपनी से गीताके ममको समझानेक चे ा क गयी है; कतु उनमसे अ धकांश सं ृ तम ह और व ान के वशेष कामक ह। इसी लये म का यह कहना था क सरल भाषाम एक ऐसी सव पयोगी टीका लखी जाय जो सवसाधारणक समझम आ सके और जसम गीताका ता य व ारपूवक खोला जाय। इसी को लेकर तथा सबसे अ धक लाभ तो इससे मुझको ही होगा, यह सोचकर इस कायको ार कया गया। परंतु यह काय आपातत: जतना सुकर मालूम होता था, आगे बढ़नेपर अनुभवसे वह उतना ही क ठन स आ। म जानता ँ क यो ता एवं अ धकार दोन क से ही मेरा यह यास दुःसाहस समझा जायगा। वणसे तो म एक वै का बालक ँ और व ा-बु क से भी म अपनेको इस कायके लये नता अयो पाता ँ । अत: गीता-जैसे सवमा पर टीका लखनेका सवथा अन धकारी ँ । रह गयी भाव के स क बात तो भगवान्के उपदेशका पूरा-पूरा भाव समझनेक बात तो दूर रही, उसका शतांश भी म समझ पाया ँ – यह कहना मेरे लये दुःसाहस ही होगा। भगवान्के उपदेश को य चत् भी समझकर उनको कामम लाना तो और भी क ठन बात है। उसे तो वही लोग कामम ला सकते ह, जनपर भगवान्क वशेष कृ पा है। पूरे उपदेशको अमलम लाना तो दूर रहा, जन लोग ने गीताके साधना क कसी एक ोकके अनुसार भी अपने जीवनको बना लया है, वे पु ष भी वा वम ध ह और उनके चरण म मेरा को टश: णाम है। गीताक ा ा करनेके भी ऐसे ही लोग अ धकारी ह। अ ु मेरा तो यह यास सब तरहसे दुःसाहसपूण एवं बालचे ा ही है; कतु फर भी इसी बहाने गीताके ता यक य चत् आलोचना ई, भगवान्के द उपदेश का मनन आ, अ ा - वषयक कु छ चचा ई और जीवनका यह समय ब त अ े कामम लगा – इसके लये म अपनेको ध समझता ँ । इससे य प मेरा गीतास ी ान बढ़ा ही है और

ब त-सी भूल का भी माजन आ है। फर भी भूल तो इस कायम पद-पदपर ई ह गी, क गीताके ता यका सौवाँ ह ा भी म समझ पाया ँ , यह नह कहा जा सकता। गीताका वा वक ता य पूरी तरहसे तो यं ीभगवान् ही जानते ह और कु छ अंशम अजुन जानते ह, जनके उ े से भगवान्ने गीता कही थी। अथवा जो परमा ाको ा हो चुके ह, ज भगव ृ पाका पूण अनुभव हो चुका है, वे भी कु छ जान सकते ह। म तो इस वषयम ा कह सकता ँ ? जन- जन पू महानुभाव ने गीतापर भा अथवा टीकाएँ लखी ह, म तो उनका अ ही कृ त और ऋणी ँ ; क इस टीकाके लखनेम मने ब त-से भा और टीका से बड़ी सहायता ली है। अत: म उन सभी व नीय पु ष को कृ त तापूण दयसे सादर को ट-को ट णाम करता ँ । हाँ, इस टीकाके स म म नःसंकोच यह कह सकता ँ क यह सवथा अपूण है। भगवान्के भावको करना तो दूर रहा; ब त-सी जगह उसे समझनेम ही मुझसे भूल ई ह गी और ब त-सी जगह उससे वपरीत भाव भी आ गया होगा। उन सब भूल के लये म दयालु परमा ासे तथा सभी गीता- े मय से हाथ जोड़कर मा माँगता ँ । जो कु छ मने लखा है, अपनी तु बु के अनुसार लखा है और इस कार अपनी समझका प रचय देकर मने जो बालचपलता क है, उसे व जन मा करगे। इस टीकाम मने कसी भी आचाय अथवा टीकाकारके स ा का न तो उ ेख कया है और न कसीका ख न ही कया है। कतु अपनी बात कहनेम भावसे कसीके व कोई बात आ ही सकती है; इसके लये म सबसे मा चाहता ँ । ख न-म न करना अथवा कसी स ा क दूसरे स ा के साथ तुलना करना मेरा उ े नह है। इसम इस बातका भी भरसक ान रखा गया है क कह पूवापरम वरोध न आवे; परंतु टीकाका कलेवर ब त बढ़ जानेसे स व है, कह -कह इस तरहका दोष रह गया हो। आशा है व पाठक इस कारक भूल को सुधार लगे और मुझे भी सूचना देनेक कृ पा करगे। इस टीकाके लखनेम मुझे कई पू महानुभाव , म एवं बंधु से अमू सहायता ा ई है। आजकलक प रपाटीके अनुसार उनक-नामका उ ेख करना आव क है; परंतु म य द ऐसा करने जाता ँ तो थम तो उनको क देता ँ , दूसरे उन लोग के साथ जैसा स है, उसे देखते उनक बड़ाई करना अपनी ही बड़ाई करनेके समान है। इस लये म उनमसे कसीके भी नामका उ ेख न करके इतना ही कह देना पया समझता ँ क वे लोग य द मनोयोगके साथ इस कायम सहयोग न देते तो यह टीका इस पम कदा चत् का शत न हो पाती। यह टीका पहले व म सं० १९९६ म 'गीतात ांक' के पम का शत ई थी। उस समय यह संकेत कया गया था क पु क पम काशनके समय भूल सुधारनेक चे ा क जा सकती है, उसके अनुसार कह भाषाक से और कह छपाईक भूल का संशोधन करनेक से एवं कह -कह नवीन भाव को कट करनेके उ े से भी सुधार कया गया है। परंतु अब भी ब त-सी ु टय का रह जाना स व है तथा कसी जगह दोष से नयी भूलका हो जाना भी

स व है। अत: अ म मेरी पुन: सबसे करब ाथना है क मेरी इस बाल चपलतापर सुधीजन स होकर मेरी भूल को सुधार ल और मुझे सूचना देनेक कृ पा कर। वनीत-जयदयाल गोय का टीकाके स म कुछ ात बात यह व ृत टीका गीता ेस, गोरखपुरसे का शत साधारण भाषाटीकाके आधारपर व म संवत् १९९६ म लखी गयी और 'गीतात ांक' के पम का शत क गयी थी। अब उसका पु क पम त ववेचनी टीकाके नामसे काशन कया जाता है। अत: य -त उसक भाषाम संशोधन कया गया है और कसी- कसी लम ोक के अ यम भी प रवतन कया गया है। भाव ाय: वही रखा गया है। कह -कह कु छ नया भाव कट करनेके उ े से

प रवतन भी कया गया है। गीताम भगवान् ीकृ तथा अजुनके लये जन भ - भ स ोधन का योग आ है, उनका श ाथ न देकर ाय: उन-उन ोक के अथम। ' ीकृ ' तथा 'अजुन' श का ही योग कया गया है और कह -कह 'पर प' आ द श -के - रख दये गये ह। उनक ा ा ब त कम ल पर क गयी है। जहाँ-जहाँ स ोधन कसी वशेष अ भ ायको ो तत करनेके लये रखे गये तीत ए के वल उ ल म उस अ भ ायको ो रके पम खोलनेक चे ा क गयी है। टीकाम जहाँ अ ा के उ ारण दये गये ह वहाँ, उन का उ ेख कह कह संकेत पम कया गया है– जैसे उप नषदके् लये 'उ०'। इसम जन- जन ंथ से सहायता ली गयी है, उनके नाम क ता लका पाठक क सु वधाके लये अलग दी गयी है। जहाँ का नाम न देकर के वल सं ा ही दी गयी है, उन ल को गीताका समझना चा हये। अ ाय और ोक-सं ा को सीधी लक रसे पृथक् कया गया है। बाय ओरक अ ाय-सं ा ओर दा हनी ओरक ोक-सं ा समझनी चा हये। ोक के भावको खोलनेके लये तथा वा क रचनाको आधु नक भाषाशैलीके अनुकूल बनानेके लये टीकाम मूलसे अ धक श भी य -त जोड़े ह और भाषाका वाह न टूटे, इस लये उ को कम नह रखा गया है। कसी- कसी जगह जहाँ पूरा-का-पूरा वा ऊपरसे जोड़ा गया है को कका योग कया गया है। अथको जहाँतक हो सका है, अ यके अनुकूल बनाया गया है तथा मूल पद क वभ क भी र ा करनेक चे ा क गयी है। इससे कह -कह वा -रचना भाषाक से सु र नह हो सक है; फर भी मूल पद के अथक र ा करते ए भाषाक सु रतापर भी यथाश ान दया गया है। ो र का म ाय: सव अथके मके अनुसार ही तथा कह -कही ोकके मानुसार भी रखा गया है। ब त थोड़े ल म यह म बदला भी गया है। ो रम जहाँ सं ृ तके वभ स हत पद को लया है, वहाँ उनके लये सं ृ ताकरणक प रभाषाके अनुसार 'पद' श का योग कया गया है और जहाँ उनको ह ीका ँ



प दे दया गया है, वहाँ उ 'श ' कहा गया है। म जहाँ कसी पद, श या वा का भाव या अ भ ाय पूछा गया है उनके उ रम कह -कह तो उस पद, श या वा का सरल अथमा दे दया गया है और कह -कह हेतुस हत उस पद, श या वा के योगका आशय बतलाया गया है। दोन ही कारसे ऐसे का उ र दया गया है। ो रम कह -कह अ य- मसे मूल ोक के अंश को लेकर ही कये गये ह और कह -कह अथके वा ांश को लेकर कये गये ह। अथके वा ांश को भी कह कह अ वकल पसे उ तृ कया है और कह -कह श म कु छ प रवतन करके उनको दुहराया गया है। इनके अ त र कह -कह कु छ नये भी ह। म 'अ भ ाय', 'भाव' आ द श आये ह, उनमसे कु छ तो अथके ही पयायम आये ह और कु छ खास कसी बातको पूछनेक से आये ह। गीताम 'एत े संशयम् ' (६।३९), 'हे सखे त ', 'इदं म हमानम् ' (११।४१) इसी कार कई आष योग ह, जो वतमान च लत ाकरणक से ठीक नह माने जाते। इन योग के स म टीकाम कु छ नह लखा गया है और इनके अथ करनेम भी च लत ाकरणका ान न रखकर योगके अनुसार ही अथ कये गये ह। ंथ के नाम सं ृ त-भा

ीम गवदगीताके ाय: मु -मु और अनेक टीका के अ त र ् न ल खत ंथ से सहायता ली गयी है – ऋ ेदसं हता, ऐतरेय ा ण, शतपथ ा ण, ईशावा ोप नषद,् के नोप नषद,् कठोप नषद,् मु कोप नषद,् तै रीयोप नषद,् छा ो ोप नषद,् बृहदार कोप नषद,् ेता तरोप नषद,् ोप नषद,् नारायणोप नषद,् बृह ाबालोप नषद,् योगदशन, सां का रका, मनु ृ त, व स ृ त,' संवत ृ त, बृहदयो ृ त, शंख ृ त, ् गया व अ ृ त, उ रगीता, ीम ागवत, अ पुराण, वायुपुराण, वाराहपुराण, ग डपुराण, माक ये पुराण, -वैवतपुराण, पुराण, बृह मपुराण, म पुराण, ा पुराण, शवपुराण, प पुराण, पुराण, व ु-पुराण, कू मपुराण, देवीभागवत, महाभारत, ह रवंश, वा ीक यरामायण, नारदभ सू , शा सू , सूय स ा , ीरामच रतमानस, वनयप का, कृ कणामृत और भ माल आ द-आ द। गीता - माहा

ीभगवनुवाच न ब ोऽ न मो ो ैवा नरामयम्। नैकम न च तं स ारं वजृ ते॥ १॥ गीतासार मदं शा ं सवशा सु न तम्। य तं ानं वेदशा सु न तम्॥ २॥ इदं शा ं मया ो ं गु वेदाथदपणम्। य: पठे यतो भू ा स ग े ुशा तम्॥ ३॥

ीभगवान् बोले - न ब न है, न मो ; के वल नरामय ही सव वराजमान है। न अ ैत है, न ैत; के वल स दान ही सब ओर प रपूण हो रहा है॥ १॥ गीताका सारभूत यह शा स ूण शा ारा भलीभाँ त न त स ा है, जसम वेद-शा से अ ी तरह न त कया आ ान व मान है॥ २॥ मेरे ारा कहा आ यह गीता-शा वेदके गूढ़ अथको दपणक भाँ त का शत करनेवाला है; जो प व हो मन-इ य को वशम रखकर इसका पाठ करता है, वह मुझ सनातनदेव भगवान् व ुको ा होता है॥ ३॥ एत ु ं पापहरं ध ं दःु ख णाशनम्। पठतां ृ तां वा प व ोमाहा मु मम्॥४॥ अ ादशपुराणा न नव ाकरणा न च। नम चतुरो वेदान् मु नना भारतं कृतम्॥५॥ भारतोद ध नम गीता नम थत च। सारमु ृ कृ ेन अजुन मुखे मृतम्॥६॥ मल नम चनं पुंसां ग ा ानं दने दने। सकृ ीता स ानं संसारमलनाशनम्॥७॥ गीतानामसह ेण वराजो व न मत:। य कु ौ च वतत सोऽ प नारायण: ृतः॥८॥ भगवान् व ुका यह उ म माहा (गीताशा ) पढ़ने और सुननेवाल के पु को बढ़ानेवाला, पापनाशक, ध वादके यो और सम दुःख को दूर करनेवाला है॥४॥ मु नवर ासने अठारह पुराण, नौ ाकरण और चार वेद का म न करके महाभारतक रचना क ॥५॥ फर महाभारत पी समु का म न करनेसे कट ई गीताका भी म न करके [उपयु गीतासारके पम] उसके अथका सार नकालकर उसे भगवान् ीकृ ने अजुनके मुखम डाल दया॥ ६॥ गंगाम त दन ान करनेसे मनु का मैल दूर होता है, परंतु गीता पणी गंगाके जलम

एक ही बारका ान स ूण संसारमलको न करनेवाला है॥७॥ गीताके सह नाम ारा जो वराज न मत आ है, वह जसक कु ( दय) म वतमान हो अथात् जो उसका मन-ही-मन रण करता हो, वह भी सा ात् नारायणका प कहा गया है॥८॥ सववेदमयी गीता सवधममयो मनु:। सवतीथमयी गंगा सवदेवमयी ह र:॥९॥ पाद ा धपादं वा ोकं ोकाधमेव वा। न ं धारयते य ु स मो म धग त॥१०॥ कृ वृ समु तू ा गीतामृतहरीतक । मानुषैः क न खा ेत कलौ मल वरेचनी॥११॥ गंगा गीता तथा भ :ु क पला सेवनम्। वासरं प नाभ पावनं क कलौ युगे॥१२॥ गीता सुगीता कत ा कम ैः शा व रैः।

या यं प नाभ मुखप ा नःसृता॥१३॥ आपदं नरकं घोरं गीता ायी न प त॥१४॥ गीता स ूण वेदमयी है, मनु ृ त सवधममयी है, गंगा सवतीथमयी है तथा भगवान् व ु सवदेवमय ह॥९॥ जो गीताका पूरा एक ोक, आधा ोक, एक चरण अथवा आधा चरण भी त दन धारण करता है, वह अ म मो ा कर लेता है॥१०॥ मनु ीकृ पी वृ से कट ई गीता प अमृतमयी हरीतक का भ ण नह करते, जो सम क लमलको शरीरसे बाहर नकालनेवाली है॥११॥ क लयुगम ीगंगाजी, गीता, स े सं ासी, क पला गौ, अ वृ का सेवन और भगवान् व ुके पव- दन (एकादशी आ द) इनसे बढ़कर प व करनेवाली और ा व ु हो सकती है?॥१२॥ अ शा के व ारसे ा योजन? के वल गीताका ही स क् कारसे गान (पठन और मनन) करना चा हये, जो क सा ात् भगवान् व ुके मुखकमलसे कट ई है॥१३॥ गीताका ा ाय करनेवाले मनु को आप और घोर नरकको नह देखना पड़ता॥१४॥ इ त ी ं दपुराणे व ायां योगशा े ीकृ ाजुनसंवादे ीगीतासारे भगव ीतामाहा ं स ूणम्।

ॐ पूणमदः पूण मदं पूणा ुणमुद ते। पूण पूणमादाय पूणमेवाव श ते ॥ वसुदॆव सुतं दॆवं कं स चाणूर मदनम्। दॆवक परमान ं कृ ं व ॆ जग ु म् ॥

ीम गव ीता त

ववेचनी

अथ थमोऽ ायः

ीभगवान्ने अजुनको न म बनाकर सम व को ीगीताके पम जो महान् उपदेश दया है , यह अ ाय उसक अवतारणाके पम है। इसम दोन ओरके धान - धान यो ा के नाम गनाये जानेके बाद मु तया अजुनके ब ुनाशक आशंकासे उ मोहज नत वषादका ही वणन है। इस कारका वशाद भी अ ा संग मल जानेपर सांसा रक भोग म वैरा क भावना ारा क ाणक ओर अ सर करनेवाला हो जाता है। इस लये इसका कम ' अजुन - वषादयोग ' रखा गया है। अ ायका सं ेप : इस अ ायके पहले ोकम धृतरा ने संजयसे यु का ववरण पूछा है, इसपर संजयने दूसरेम ोणाचायके पास जाकर दुय धनके बातचीत आर करनेका वणन कया है, तीसरेम दुय धनने ोणाचायसे वशल पा व - सेना देखनेके लये कहकर चौथेसे छठे तक उस सेनाके मुख यो ा को नाम बतलाये ह। सातवम ोणचायसे अपनी सेनाके धान सेनानायक को भलीभाँ त जान लेनेके लये कहकर आठव और नव ोक म उनमसे कु छके नाम और सब वीर के परा म तथा यु कौशलका वणन कया है। दसवम अपनी सेनाको अजेय और पा व क सेनाको अपनी अपे ा कमजोर बतलाकर ारहवम सब वीर से भी क र ा करनेके लये अनुरोध कया है। बारहवम भी पतामहके शंख बजानेका और तेरहवम कौरव - सेनाम शंख नगारे ढोल , मृदंग और नर सघे आ द व भ बाज के एक ही साथ बज उठनेका वणन है। चौदहवसे लेकर अठारहवतक मश : भगवान् ीकृ , अजुन, भीमसेन , यु ध र , नकु ल, सहदेव तथा पा व - सेनाके अ ा सम व श यो ा के ारा अपने - अपने शंख बजाये जानेका और उ ीसवम उस शंख नके भयंकर श से आकाश और पृ ीके गूँज उठने तथा दुय धना दके थत होनेका वणन है। बीसव और इ सवम धृतरा - पु को यु के लये तैयार देखकर अजुनने कृ ासे अपना रथ दोन सेना के बीचम ले चलनेके लये कहा है और बाईसके तथा तेईसवम सारी सेनाको भलीभाँ त देख चुकनेतक रथको वह खड़े रखनेका संकेत करके सबको देखनेक इ ा कट क है। चौबीसव और पचीसवम अजुनके अनुरोधके अनुसार रथको दोन सेना के बीचम खड़ा करके ीकृ ने यु के लये एक त सब वीर को देखनेके लये अजुनसे कहा है, इसके बाद तीसवतक जन - समुदायको देखकर अजुनके ाकु ल होनेका तथा अजुनके ारा अपनी शोकाकु ल तका वणन है। इकतीसव ोकम यु के वपरीत प रणामक बात कहकर ब ीसव और ततीसवम अजुनने वजय और रा सुख न चाहनेक यु पूण दलील दी है। च तीसव और पतीसवम आचाया द जन का वणन करके अजुनने ' मुझे मार डालनेपर भी अथवा तीन लोक के रा के लये भी म इन आचाय और पता - पु ा द आ ीय जन को मारना नह चाहता ' ऐसा कहकर छतीसव और सतीसवम दुय धना द जन के आततायी होनेपर भी उ मारनेम पापक ा और सुख तथा स ताका अभाव बतलाया है, अड़तीसव तया उनतालीसवम कु लके नाश और म ोहसे होनेवाले पापसे बचनेके लये यु न करना उ चत बतलाकर चालीसवसे चौवालीसवम कु लनाशसे उ होनेवाले दोष का व ारपूवक वणन कया है। पतालीसव और छयालीसवम रा और सुखा दके लोभसे जन को मारनेके लये क ई यु क तैयारीको महान् पापका आर बतलाकर शोक काश करते ए अजनने दुय धना दके ारा अपने मारे जानेको े बतलाया है और अ के सतालीसव अ ायका नाम :

ोकम यु न करनेका न य करके शोक नम अजुनके श ागपूवक रथपर बैठ जानेक बात कहकर संजयने अ ायक समा क है। स – पा व के राजसूयय म उनके महान् ऐ यको देखकर दुय धनके मनम बड़ी भारी जलन पैदा हो गयी और उ ने शकु न आ दक स तसे जुआ खेलनेके लये यु ध रको बुलाया और छलसे उनको हराकर उनका सव हर लया। अ म यह न य आ क यु ध रा द पाँच भाई ौपदीस हत बारह वष वनम रह और एक साल छपकर रह। इस कार तेरह वषतक सम रा पर दुय धनका आ धप रहे और पा व के एक सालके अ ातवासका भेद न खुल जाय तो तेरह वषके बाद पा व का रा उ लौटा दया जाय। इस नणयके अनुसार तेरह साल बतानेके बाद जब पा व ने अपना रा वापस माँगा तब दुय धानने साफ इनकार कर दया। उ समझानेके लये पु दके , ान और अव ाम वृ पुरो हतको भेजा गया, परंतु उ ने कोई बात नह मानी। तब दोन ओरसे यु क तैयारी होने लगी। भगवान् ीकृ को रण - नम ण देनेके लये दुय धन ारका प ँ च,े उसी दन अजुन भी वहाँ प ँ चे गये। दोन ने जाकर देखा - भगवान अपने भवनम सो रहे ह। उ सोते देखकर दुय धन उनके सरहाने एक मू वान आसनपर जा बैठे और अजुन दोन हाथ जोड़कर न ताके साथ उनके चरणके सामने खड़े हो गये। जागते ही ीकृ ने अपने सामने अजुनको देखा और फर पीछेक ओर मुड़कर देखनेपर सरहानेक ओर बैठे ए दुय दन दीख पड़े। भगवान् ीकृ ने दोन का ागत - स ार कया और उनके आनेका कारण पूछा। तब दुय धनने कहा - ' मुझम और अजुनम आपका एक सा ही ेम है और हम दोन ही आपके स ी ह; परतुं आपके पास पहले म आया ँ , स न का नयम है क वे पहले आनेवालेक सहायता कया करते ह। ' सारे भूमंडलम आज आप ही सब स नोम े और स ाननीय ह, इस लये आपको मेरी ही सहायता करनी चा हये। ' भगवान्ने कहा - ' नःस हे आप पहले आये ह, परतुं मने पहले अजुनको ही देखा है। इस लये म दोन क सहायता क ँ गा। परतुं शा ानुसार बालक क इ ा पहले पूरी क जाती है , इस लये पहले अजुनक इ ा ही पूरी करनी चा हये। म दो कारसे सहायता क ँ गा। एक और मेरी अ बलशा लनी नारायणी - सेना रहेगी और दूसरी ओर म यु न करनेका ण करके अके ला र ँ गा ; म श का योग नह क ँ गा। अजुन धमानुसार पहले तु ारी इ ा पूण होनी चा हये ; अतएव दोन मेसे जसे पसंद करो माँग लो! ' इसपर अजुन श ुनाशन नारायण भगवान् ीकृ को माँग लया। तब दुय धनने उनक नारायणी - सेना माँग ली और उसे लेकर वे बड़ी स ताके साथ ह नापुरको लोट गये। इसके बाद भगवान्ने अजुनसे पूछा - ' अजुन! जब म यु ही नह क ँ गा तब तुमने ा समझकर नारायणी - सैनाको छोड़ दया और मुझको ीकार कया ?' अजुनने कहा - ' भगवन् ! आप अके ले ही सबका नाश करनेम समथ ह, तब म सेना लेकर ा करता ? इसके सवा ब त दन से मेरी इ ा थी क आप मेरे सार थ बन, अब इस महायु म मेरी उस इ ाको आप अव पूण क जये। ' भ व ल भगवान्ने अजुनके इ ानुसार उनके रथके घोड़े हाकँ नेका काम ीकार कया। इसी संगके अनुसार भगवान ीकृ अजुनके सार थ बने और यु ार के समय कु े म उ गीताका द उपदेश सुनाया। अ ु। दुय धन और अजुनके ारकासे वापस लौट आनेपर जस समय दोन ओरक सेना एक ही चुक थी उस समय भगवान् कृ ाने यं ह नापुर जाकर हर तरहसे दुय धनको समझानेक चे ा क ; परतुं उ ने कह दया - ' मेरे जीते - जी पा व कदा प रा नह पा सकते, यहाँतक क सूईक नोकभर भी जमीन म पा व को नह दूँगा। ' ( महा० उ ोग० १२७।२२ से २५ ) । तब अपना ायो चत ा करनेके लये माता कु ीक आ ा और भगवान् ीकृ क ेरणासे पा व ने धम समझकर यु के लये न य कर लया।

जब दोन ओरसे यु क पूरी तैयारी हो गयी तब भगवान् वेद ासजीने धृतरा के समीप आकर उनसे कहा - ' य द तुम घोर सं ाम देखना चाहो तो म तु द ने दान कर सकता ँ । ' इसपर धृतरा ने कहा - ' ष े !म कु लके इस ह ाका को अपनी आख देखना तो नह चाहता परंतु यु का सारा वृ ा भलीभाँ त सुनना चाहता ँ । ' तब मह ष वेद ासजीने संजयको द दान करके धृतरा से कहा - ' ये संजय तु यु का सब वृता सुनावगे। यु क सम घटनाव लय को ये देख सुन और जान सकगे। सामने या पीछेसे, दनम या रातम, गु या कट , या पम प रणत या के वल मनम आयी ई, ऐसी कोई बात न होगी जो इनसे त नक भी छपी रह सके गी। ये सब बात को - क - जान लगे। इनके शरीरसे न तो कोई श छू जायगा और न इ जरा भी थकावट ही होगी। ' ' यह ' होनी ' है अव होगी इस सवनाशको कोई भी रोक नह सके गा ? अ म धमक जय होगी। ' मह ष वेद ासजीके चले जानेके बाद धृतरा के पुछनेपर संजय उ पृ ीके व भ ीप का वृता सुनाते रहे, उसीम उ ने भारतवषका भी वणन कया। तदन र जब कौरव - पा व का यु आर हो गया और लगातार दस दन तक यु होनेपर पतामह भी रणभू मम र ासे गरा दये गये , तब संजयने धृतरा के पास आकर उ अक ात् भी के मारे जानेका समाचार सुनाया ( महा० भी ० १३ ) । उसे सुनकर धृतरा को बड़ा ही दुःख आ और यु क सारी बात व ारपूवक सुनानेके लये उ ने संजयसे कहा , तब संजयने दोन ओरक सेना क ूह - रचना आ दका व ृत वणन कया। इसके बाद धृतरा ने वशेष व ारके साथ आर से अबतकक पूरी घटनाएँ जाननेके लये संजयसे कया। यह से ीम गव ीताका पहला अ ाय आर होता है। महाभारत, भी पवम यह पचीसवाँ अ ाय है। इसके आर म धृतरा संजयसे करते ह – धृतरा उवाच

धम े े कु े े समवेता युयु वः। मामकाः पा वा वै कमकु वत संजय॥१॥ धृतरा बोले – हे संजय ! कु

े म एक त , इ

ावाले मेरे और पा ु के पु ने

ा कया ? ॥१॥

कु े कस ानका नाम है और उसे धम े कहा जाता है ? उ र – महाभारत , वनपवके तरासीव अ ायम और श पवके तरपनव अ ायम कु े के माहा का वशेष वणन मलता है ; वहाँ इसे सर ती नदीके द णभाग और ष ती नदीके उ रभागके म म बतलाया है। कहते ह क इसक लंबाई - चौड़ाई पाँच - पाँच योजन थी। यह ान अंबालेसे द ण और द ीसे उ रक ओर है। इस समय भी कु े नामक ान वह है। इसका एक नाम सम पंचक भी है। शतपथ ा णा द शा म कहा है क यहाँ अ , इ , ा आ द देवता ने तप कया था ; राजा कु ने भी यहाँ बड़ी तप ा क थी तथा यहाँ मरनेवाल को उ म ग त ा होती है। इसके अ त र और भी कई बात ह , जनके कारण उसे धम े या पु े कहा जाता है। – धृतरा ने ' मामका : ' पदका योग कनके लये कया है और ' पा वा : ' का कनके लये ? और उनके साथ ' समवेता : ' और ' युयु व : ' वशेषण लगाकर जो ' कम् अकुवत ' कहा है उसका ा ता य है ? उ र – ' मामका : ' पदका योग धृतरा ने नज प के सम यो ा स हत अपने दुय धना द एक सौ एक पु के लये कया है और ' पा वा : ' पदका यु ध र - प के सब यो ा स हत यु ध रा द पाँच भाइय के लये। ' समवेता : ' और ' युयु व : ' वशेषण देकर और ' कम् अकुवत ' कहकर धृतरा ने गत दस दन के भीषण यु का पूरा ववरण जानना चाहा है क यु के लये एक त इन सब लोग ने यु का ार कै से कया ? कौन कससे कै से भड़े ? और कसके ारा कौन , कस कार और कब मारे गये ? इ ा द। –

भी पतामहके गरनेतक भीषण यु का समाचार धृतरा सुन ही चुके ह, इस लये उनके का यह ता य नह हो सकता क उ अभी यु क कु छ भी खबर नह है और वे यह जानना चाहते ह क ा धम े के भावसे मेरे पु क बु सुधर गयी और उ ने पा व का देकर यु नह कया ? अथवा ा धमराज यु ध र ही धम े के भावसे भा वत होकर यु से नवृ हो गये ? या अबतक दोन सेनाएँ खड़ी ही ह , यु आ ही नह और य द आ तो उसका ा प रणाम आ ? इ ा द। स –   धृतरा के पूछनेपर संजय कहते ह – संजय उवाच

पा वानीकं ूढं दुय धन दा। आचायमुपसंग राजा वचनम वीत्॥१॥ ा तु

संजय बोले – उस समय राजा दय ु धनने

ूहरचनायु

पा

व क सेनाको देखकर और ोणाचायके

पास जाकर यह वचन कहा ॥१-२॥

दुय धनको ' राजा ' कहनेका ा अ भ ाय है ? उ र – संजयके ारा दुय धनको ' राजा ' कहे जानेम कई भाव हो सकते ह – ( क ) दुय धन बड़े वीर और राजनी त थे तथा शासनका सम काय दुय धन ही करते थे। ( ख ) संत सभीको आदर दया करते ह और संजय संत - भावके थे। ( ग ) पु के त आदरसूचक वशेषणका योग सुनकर धृतरा को स ता होगी। – ूहरचनायु पा व - सेनाको देखकर दुय धन आचाय ोणके पास गये , इसका ा भाव है ? उ र – भाव यह है क पा व - सेनाक ूहरचना इतने व च ढंगसे क गयी थी क उसको देखकर दुय धन च कत हो गये और अधीर होकर यं उसक सूचना देनेके लये ोणाचायके पास दौड़े गये। उ ने सोचा क पा व - सेनाक ूहरचना देख - सुनकर धनुवदके महान् आचाय गु ोण उनक अपे ा अपनी सेनाक और भी व च पसे ूहरचना करनेके लये पतामहको परामश दगे। – दुय धन राजा होकर यं सेनाप तके पास गये ? उ को अपने पास बुलाकर सब बात नह समझा द ? उ र – य प पतामह भी धान सेनाप त थे , परंतु कौरव - सेनाम गु ोणाचायका ान भी ब त उ और बड़े ही उ रदा य का था। सेनाम जन मुख यो ा क जहाँ नयु होती है , य द वे वहाँसे हट जाते ह तो सै नक - व ाम बड़ी गड़बड़ी मच जाती है। इस लये ोणाचायको अपने ानसे न हटाकर दुय धनने ही उनके पास जाना उ चत समझा। इसके अ त र ोणाचाय वयोवृ और ानवृ होनेके साथ ही गु होनेके कारण आदरके पा थे तथा दुय धनको उनसे अपना ाथ स करना था , इस लये भी उ स ान देकर उनका यपा बनना उ अभी था। पारमा थक से तो सबसे न तापूण स ानयु वहार करना कत है ही , राजनी तम भी बु मान् पु ष अपना काम नकालनेके लये दूसर का आदर कया करते ह। इन सभी य से उनका वहाँ जाना उ चत ही था। स – ोणाचायके पास जाकर दुय धनने जो कु छ कहा , अब उसे बतलाते ह – –

प तै ां पा ु पु ाणामाचाय महत चमूम्। ूढां पु दपु ेण तव श ेण धीमता॥३॥

हे आचाय ! आपके बु

मान् श

दप ु दपु धृ



ारा

ूहाकार खड़ी क

ई पा ु पु क इस

बड़ी भारी सेनाको दे खये ॥१-३॥

कहा ?



धृ ु दुपदका पु है , आपका श है और बु मान् है - दुय धनने ऐसा कस अ भ ायसे

उ र - दुय धन बड़े चतुर कू टनी त थे। धृ ु के त त हसा तथा पा व के त ोणाचायक बुरी भावना उ करके उ वशेष उ े जत करनेके लये दुय धनने धृ ु को दुपदपु और ' आपका बु मान् श ' कहा। इन श के ारा वह उ इस कार समझा रहे ह क दे खये , दुपदने आपके साथ पहले बुरा बताव कया था और फर उसने आपका वध करनेके उ े से ही य करके धृ ु को पु पसे ा कया था। धृ ु इतना कू टनी त है और आप इतने सरल ह क आपको मारनेके लये पैदा होकर भी उसने आपके ही ारा धनुवदक श ा ा कर ली। फर इस समय भी उसक बु मानी दे खये क उसने आपलोग को छकानेके लये कै सी सु र ूहरचना क है। ऐसे पु षको पा व ने अपना धान सेनाप त बनाया है। अब आप ही वचा रये क आपका ा कत है। – कौरव - सेना ारह अ ौ हणी थी और पा व - सेना के वल सात ही अ ौ हणी थी ; फर दुय धनने उसको बड़ी भारी ( महती ) कहा और उसे देखनेके लये आचायसे अनुरोध कया ? उ र – सं ाम कम होनेपर भी व ूहके कारण पा व - सेना ब त बड़ी मालूम होती थी ; दूसरी यह बात भी है क सं ाम अपे ाकृ त होनेपर भी जसम पूण सु व ा होती है वह सेना वशेष श शा लनी समझी जाती है। इसी लये दुय धन कह रहे है क आप इस ूहकार खड़ी क ई सु व त महती सेनाको दे खये और ऐसा उपाय सो चये जससे हमलोग वजयी ह । स – पा व-सेनाक कू टरचना दखलाकर अब दूय धन तीन ोक ारा पा व-सेनाके मुख महार थय के नाम बतलाते ह –

अ शूरा महे ासा भीमाजुनसमा यु ध। युयुधानो वराट पु द महारथः॥४॥ धृ के तु े कतानः का शराज वीयवान्। पु ज ु भोज शै नरपु वः॥५॥ युधाम ु व ा उ मौजा वीयवान्। सौभ ो ौपदेया सव एव महारथाः॥६॥

इस सेनाम बड़े - बड़े धनुष वाले तथा यु म भीम और अजुनके समान शूरवीर सा क और वराट तथा महारथी राजा पु द , धृ के तु और चे कतान तथा बलवान् का शराज , पु जत् कु भोज और मुन म े शै , परा मी युधाम ु तथा बलवान् उ मौजा , सुभ ापु अ भम ु एवं ौपदीके पाँच पु - ये सभी महारथी ह ॥१/४ - ६॥ – ' अ ' पदका यहाँ कस अथम योग आ है ? उ र – ' अ ' पद यहाँ पा व - सेनाके अथम यु है। – ' यु ध ' पदका अ य ' अ ' के साथ न करके ' भीमाजुनसमा : ' के साथ कया गया ? उ र - ' यु ध ' पद यहाँ ' अ ' का वशे नह बन सकता , क उस समय यु आर ही नह आ था। इसके अ त र उसके पहले पा व - सेनाका वणन होनेके कारण ' अ ' पद भावसे ही उसका वाचक हो जाता है, इसी लये उसके साथ कसी वशे क आव कता भी नह है। ' भीमाजुनसमा : ' के साथ ' यु ध ' पदका अ य

करके यह भाव दखलाया है क यहाँ जन महार थय के नाम लये गये ह , वे परा म और यु व ाम भीम और अजुनक ही समता रखते ह। - युयुधान , वराट , प ु द , धृ के तु चे कतान , का शराज , पु जत् , कु भोज , शै , युधाम ु और उ मौजा कौन थे ? उ र - अजुनके श सा कका ही दूसरा नाम युयुधान था ( महा० , उ ोग० ८१। ५ - ८ ) । ये यादववंशीय राजा श नके पौ थे ( महा० ोण० १४४। १७ - १९ ) । ये भगवान् ीकृ के परम अनुगत थे और बड़े ही बलवान् एवं अ तरथी थे। ये महाभारतयु म न मरकर यादव के पार रक यु म मारे गये थे। युयुधान नामक एक दूसरे यादववंशीय यो ा भी थे ( महा० , उ ोग० १५२। ६ ) । वराट म देशके धा मक राजा थे। पा व ने एक वष इ के यहाँ अ ातवास कया था। इनक पु ी उ राका ववाह अजुनके पु अ भम ूके साथ आ था। ये महाभारतयु म उ र , ेत और शंखनामक तीन पु स हत मारे गये। पु द पांचालदेशके राजा पृषत् के पु थे। राजा पृषत् और भर ाज मु नम पर र मै ी थी , पु द भी बालक - अव ाम भर ाज मु नके आ मम रहे थे। इससे भर ाजके पु ोणके साथ इनक भी म ता हो गयी थी। पृषत् के परलोकगमनके प ात् पु द राजा ए, तब एक दन ोणने इनके पास जाकर इ अपना म कहा। पु दको यह बात बुरी लगी। तब ोण मनम ु होकर चले आये। ोणने कौरव और पा व को अ व ाक श ा देकर गु द णाम अजुनके ारा पु दको परा जत कराकर अपने अपमानका बदला चुकाया और उनका आधा रा ले लया। पु दने ऊपरसे ोणसे ी त कर ली , परंतु उनके मनम ोभ बना रहा। उ ने ोणको मारनेवाले पु के लये याज और उपयाजनामक ऋ षय के ारा य करवाया। उसी य क वेदीसे धृ ु तथा कृ ाका ाकट् य आ। यही कृ ा ' ौपदी ' या ' या सेनी ' के नामसे स ई और यंवरम जीतकर पा व ने उसके साथ ववाह कया। राजा पु द बड़े ही शूरवीर और महारथी थे। महाभारतयु म ोणके हाथसे इनक मृ ु ई ( महा० ोण० १८६ ) । धृ के तु चे ददेशके राजा शशुपालके पु थे। ये महाभारतयु म ोणके हाथसे मारे गये थे (महा० ोण० १२५ ) । चे कतान वृ वंशीय यादव ( महा० भी ० ८४।२० ), महारथी यो ा और बड़े शूरवीर थे। पा व क सात अ ौ हणी सेनाके सात सेनाप तय मसे एक थे ( महा० उ ोग० १५१ ) । ये महाभारतयु म दुय धनके हाथसे मारे गये ( महा० श , १२ ) । का शराज काशीके राजा थे। ये बड़े ही वीर और महारथी थे। इनके नामका ठीक पता नह लगता। ( मह० उ ोग० १७१ म ) का शराजका नाम सेना व ु और ोधह ा बतलाया गया है। कणपव अ ाय छः म जहाँ का शराजके मारे जानेका वणन है , वहाँ उनका नाम ' अ भभू ' बतलाया गया है। पु जत् और कु भोज – दोन कु ीके भाई थे और यु ध र आ दके मामा होते थे। ये दोन ही महाभारतयु म ोणाचायके हाथसे मारे गये ( महा० कण० ६। २२ , २३ ) । शै धमराज यु ध रके सुर थे , इनक क ा दे वकासे यु ध रका ववाह आ था ( महा० आ द० ९५ ) । ये मनु म े , बड़े बलवान् और वीर यो ा थे। इसी लये इ ' नरपुंगव ' कहा गया है। युधाम ु और उ मौजा – दोन भाई पांचालदेशीय राजकु मार थे ( महा० ोण० १३० ) । पहले अजुनके रथके प हय क र ा करनेपर इ नयु कया गया था ( महा० भी . १५। १९ ) । ये दोन ही बड़े भारी परा मी और

बलस वीर थे , इसी लये इनके साथ मश : ' व ा ' और ' वीयवान् ' – दो वशेषण जोड़े गये ह। ये दोन रातको सोते समय अ ामाके हाथसे मारे गये ( महा० सौ क० ८। ३४ - ३७ ) । – अ भम ु कौन थे ? उ र – अजुनने भगवान् ीकृ क ब हन सुभ ासे ववाह कया था। उ के गभसे अ भम ु उ ए थे। म देशके राजा वराटक क ा उ रासे इनका ववाह आ था। इ ने अपने पता अजुनसे और ु से अ श ा ा क थी। ये असाधारण वीर थे। महाभारतयु म ोणाचायने एक दन च ूहक ऐसी रचना क क पा वप के यु ध र , भीम , नकु ल , सहदेव , वराट , पु द , धृ ु आ द कोई भी वीर उसम वेश नह कर सके ; जय थने सबको परा कर दया। अजुन दूसरी ओर यु म लगे थे। उस दन वीर युवक अ भम ु अके ले ही उस ूहको भेदकर उसम घुस गये और असं वीर का संहार करके अपने असाधारण शौयका प रचय दया। ोण , कृ पाचाय , कण , अ ामा , बृहद् बल और कृ तवमा - इन छ : महार थय ने मलकर अ ायपूवक इ घेर लया ; उस अव ाम भी इ ने अके ले ही ब त - से वीर का संहार कया। अ म दुःशासनके लड़के ने इनके सरपर गदाका बड़े जोरसे हार कया , जससे इनक मृ ु हो गयी ( मह० , ोण० ४९ ) । राजा परी त इ के पु थे। – ौपदीके पाँच पु कौन - कौन थे ? उ र – त व , सुतसोम , ुतकमा , शतानीक और ुतसेन – ये पाँच मश : यु ध र , भीमसेन , अजुन , नकु ल और सहदेवके औरस और ौपदीके गभसे उ ए थे ( महा० , आ द० २२०।७९ - ८० ) । इनको रा के समय अ ामाने मार डाला था ( महा० , सौ क० ८ ) । – ' सव एव महारथाः ' इस कथनका ा भाव है ? उ र – शा और श व ाम अ नपुण उस असाधारण वीरको महारथी कहते ह , जो अके ला ही दस हजार धनुधारी यो ा का यु म संचालन करता हो। एको दशसह ा ण योधये श शा

वीण

ुध

महारथ इ त

नाम्। ृत : ॥

दुय धनने यहाँ जन यो ा के नाम लये ह, ये सभी महारथी ह – इसी भावसे ऐसा कहा गया है। ( महा० , उ ोग० १६९ - १७२ म ) ाय : इन सभी वीर के परा मका पृथक् - पृथक् पसे व ृत वणन पाया जाता है। वहाँ भी इ अ तरथी और महारथी बतलाया गया है। इसके अ त र पा व - सेनाम और भी ब त - से महारथी थे , उनके भी नाम वहाँ बतलाये गये ह। यहाँ ' सव ' पदसे दुय धनका कथन उन सबके लये भी समझ लेना चा हये। स – पा व - सेनाके धान यो ा के नाम बतलाकर अब दुय धन आचाय ोणसे अपनी सेनाके धान यो ा को जान लेनेके लये अनुरोध करते ह –

अ ाकं तु व श ा ये ता बोध जो म। नायका मम सै सं ाथ ता वी म ते॥७॥

हे ा ण े ! अपने प म भी जो धान ह , उनको आप समझ ली जये। आपक जानकारीके लये मेरी सेनाके जो - जो सेनाप त ह , उनको बतलाता ँ ॥७॥

दखलाया है ?

– ' तु '

पदका

ा अ भ ाय है ? और

' अ ाकम् '

के साथ इसका योग करके

ा भाव

उ र – ' तु ' पद यहाँ ' भी ' के अथम है ; इसका ' अ ाकम् ' के साथ योग करके दुय धन यह कहना चाहते ह क के वल पा व - सेनाम ही नह , अपने प म भी ब त - से महान् शूरवीर ह। – ' व श ा : ' पदसे कनका ल है ? और ' नबोध ' यापदका ा भाव है ? उ र – दुय धनने ' व श ा : ' पदका योग उनके ल से कया है , जो उनक सेनाम सबसे बढ़कर वीर , धीर , बलवान् , बु मान् , साहसी , परा मी , तेज ी और श व ा वशारद पु ष थे और ' नबोध ' यापदसे यह सू चत कया है क अपनी सेनाम भी ऐसे सव म शूरवीर क कमी नह है ; म उनमसे कु छ चुने ए वीर के नाम आपक वशेष जानकारीके लये बतलाता ँ , आप मुझसे सु नये। स – अब दो ोक म दुय धन अपने प के धान वीर के नाम बतलाते ए अ ा वीर के स हत उनक शंसा करते ह –

भवा ी कण कृ प स म तजयः। अ ामा वकण सौमद थैव च॥८॥

आप – ोणाचाय और पतामह भी

तथा कण और सं ाम वजयी कृपाचाय तथा वैसे ही अ

, वकण और सोमद का पु भू र वा ॥८॥ –

ोणाचाय कौन थे और दुय धनने सम वीर म सबसे पहले उ

'

ामा

आप ' कहकर उनका नाम कस

हेतुसे लया ? उ र – ोणाचाय मह ष भर ाजके पु थे। इ ने मह ष अ वे से और ीपरशुरामजीसे रह समेत सम अ - श ा कये थे। ये वेद - वेदांगके ाता , महान् तप ी , धनुवद तथा श ा - व ाके अ मम और अनुभवी एवं यु कलाम नता नपुण और परम साहसी अ तरथी वीर थे। ा , आ ेया आ द व च अ का योग करना इ भलीभाँ त ात था। यु े म जस समय ये अपनी पूरी श से भड़ जाते थे , उस समय इ कोई भी जीत नह सकता था। इनका ववाह मह ष शरदवान् क क ा कृ पीसे आ था। इ से अ ामा उ ए थे। राजा पु दके ये बालसखा थे। एक समय इ ने पु दके पास जाकर उ य म कहा , तब ऐ यमदसे चूर पु दने इनका अपमान करते ए कहा – ' मेरे - जैसे ऐ यस राजाके साथ तुम - सरीखे नधन , द र मनु क म ता कसी तरह भी नह हो सकती। ' पु दके इस तर ारसे इ बड़ी ममवेदना ई और ये ह नापुरम आकर अपने साले कृ पाचायके पास रहने लगे। वहाँ पतामह भी से इनका प रचय आ और इ कौरव - पा व क श ाके लये नयु कया गया। श ा समा होनेपर गु द णाके पम इ ने राजा पु दको पकड़ लानेके लये श से कहा। महा ा अजुन ही गु क इस आ ाका पालन कर सके और पु दको रण े म हराकर स चवस हत पकड़ लाये। ोणने पु दको बना मारे छोड़ दया , परंतु भागीरथीसे उ रभागका उनका रा ले लया। महाभारत - यु म इ ने पाँच दनतक सेनाप तके पदपर रहकर बड़ा ही घोर यु कया और अ म अपने पु अ ामाक मृ ुका ममूलक समाचार सुनकर इ ने श ा का प र ाग कर दया और समा ध होकर ये भगवान् का ान करने लगे। इनके ाण ाग करनेपर इनके ो तमय पका ऐसा तेज फै ला क सारा आकाशम ल तेजरा शसे प रपूण हो गया। इसी अव ाम धृ ु ने तीखी तलवारसे इनका सर काट डाला। यहाँ दुय धनने ' आप ' कहकर सबसे पहले इ इसी लये गनाया क जसम ये खूब स हो जायँ और मेरे प म अ धक उ ाहसे यु कर। श ागु होनेके नाते आदरके लये भी सव थम ' आप ' कहकर इ गनाना यु संगत ही है।

भी कौन थे ? उ र – भी राजा शा नुके पु थे। भागीरथी गंगाजीसे इनका ज आ था। ये ' ो ' नामक नवम वसुके अवतार थे ( महा० शा ० ५०।२६ ) । इनका पहला नाम देव त था। इ ने स वतीके साथ अपने पताका ववाह करवानेके लये स वतीके पालनकता पताके आ ानुसार पूण युवाव ाम ही यं जीवनभर कभी ववाह न करने तथा रा पद - ागक भीषण त ा कर ली थी ; इसी भीषण त ाके कारण इनका नाम भी पड़ गया। पताके सुखके लये इ ने ाय : मनु मा के परम लोभनीय ी - सुख और रा - सुखका सवथा ाग कर दया। इससे परम स होकर इनके पता शा नुने इ यह वरदान दया क तु ारी इ ाके बना मृ ु भी तु नह मार सके गी। ये बाल चारी ,अ तेज ी , श - शा दोन के पूण पारदश और अनुभवी , महान् ानी , महान् वीर तथा ढ़ न यी महापु ष थे। इनम शौय , वीय , ाग , त त ा , मा , दया , शम , दम , स , अ हसा स ोष , शा , बल , तेज , ाय यता , न ता , उदारता , लोक यता , वा दता , साहस , चय , वर त , ान , व ान , मातृ - पतृ भ और गु - सेवन आ द ाय : सभी स णु पूण पसे वक सत थे। भगवान् क भ से तो इनका जीवन ओत ोत था। ये भगवान् ीकृ के प और त को भलीभाँ त जाननेवाले और उनके एक न पूण ास और परम ेमी भ थे। महाभारत - यु म इनक समानता करनेवाला दूसरा कोई भी वीर नह था। इ ने दुय धनके सामने त ा क थी क म पाँच पा व को तो कभी नह मा ँ गा , परंतु त दन दस हजार यो ा को मारता र ँ गा ( महा० उ ोग० १५६।२१ ) । इ ने कौरवप म धान सेनाप तके पदपर रहकर दस दन तक घोर यु कया। तदन र शरश ापर पड़े पड़े सबको महान् ानका उपदेश देकर उ रायण आ जानेके बाद े ासे देह ाग कया। – कण कौन थे ? उ र – कण कु ीके पु थे , सूयदेवके भावसे कु ीक कु मारी अव ाम ही इनका ज हो गया था। कु ीने इ पेटीम रखकर नदीम डाल दया था , परंतु भा वश इनक मृ ु नह ई और बहते - बहते वह पेटी ह नापुर आ गयी। अ धरथ नामक सूत इ अपने घर ले गया और उसक प ी राधाने इनका पालन - पोषण कया और ये उ के पु माने जाने लगे। कवच और कु ल पी धनके साथ ही इनका ज आ था , इससे अ धरथने इनका नाम ' वसुषेण ' रखा था। इ ने ोणाचाय और परशुरामजीसे श ा व ा सीखी थी , ये शा और श दोन के ही बड़े प त और अनुभवी थे। श - व ा और यु कलाम ये अजुनके समान थे। दुय धनने इ अंगदेशका राजा बना दया था। दुय धनके साथ इनक गाढ़ मै ी थी और ये तन - मनसे सदा उनके हत च नम लगे रहते थे। यहाँतक क माता कु ी और भगवान् ीकृ के समझानेपर भी इ ने दुय धनको छोड़ कर पा वप म आना ीकार नह कया। इनक दानशीलता अ तीय थी , ये सदा सूयदेवक उपासना कया करते थे। उस समय इनसे कोई कु छ भी माँगता ये सहष दे देते थे। एक दन देवराज इ ने अजुनके हताथ ा णका वेष धरकर इनके शरीरके साथ लगे ए नैस गक कवच - कु ल को माँग लया। इ ने बड़ी ही स ताके साथ उसी ण कवच - कु ल उतार दये। उसके बदलेम इ ने उ एक वीरघा तनी अमोघ श दान क थी , कणने यु के समय उसीके ारा भीमसेनके वीर पु घटो चका वध कया था। ोणाचायके बाद महाभारत यु म दो दन तक धान सेनाप त रहकर ये अजुनके हाथसे मारे गये थे। – कृ पाचाय कौन थे ? उ र – ये गौतमवंशीय मह ष शर ान् के पु ह। ये धनु व ाके बड़े पारदश और अनुभवी ह। इनक ब हनका नाम कृ पी था। महाराज शा नुने कृ पा करके इ पाला था। इससे इनका नाम कृ प और इनक ब हनका नाम कृ पी आ। ये वेद - शा के ाता , धमा ा तथा सद् गुण से स सदाचारी पु ष ह। ोणाचायसे पूव कौरव - पा व को और –

यादवा दको धनुवदक श ा दया करते थे। सम कौरववंशके नाश हो जानेपर भी ये जी वत रहे , इ ने परी ो अ व ा सखलायी। ये बड़े ही वीर और वप य पर वजय ा करनेम नपुण ह। इसी लये इनके नामके साथ ' स म त यः ' वशेषण लगाया गया है। –अ ामा कौन थे ? उ र – अ ामा आचाय ोणके पु ह। ये श ा व ाम अ नपुण , यु कलाम वीण , बड़े ही शूरवीर महारथी ह। इ ने भी अपने पता ोणाचायसे ही यु - व ा सीखी थी। – वकण कौन थे ? उ र – धृतरा के दुय धना द सौ पु मसे ही एकका नाम वकण था। ये बड़े धमा ा , वीर और महारथी थे। कौरव क राजसभाम अ ाचारपी ड़ता ौपदीने जस समय सब लोग से पूछा क ' म हारी गयी या नह ', उस समय वदुरको छोड़कर शेष सभी सभासद चुप हो रहे। एक वकण ही ऐसे थे , ज ने सभाम खड़े होकर बड़ी ती भाषाम ाय और धमके अनुकूल कहा था क ' ौपदी के का उ र न दया जाना बड़ा अ ाय है। म तो समझता ँ क ौपदी हमलोग के ारा जीती नह गयी है ' ( महा० सभा० ६७। १८ - २५ ) । – सौमद कौन थे ? उ र – सोमद के पु भू र वाको ' सौमद ' कहा करते थे। ये शा नुके बड़े भाई बा ीकके पौ थे। ये बड़े ही धमा ा , यु कलाम कु शल और शूरवीर महारथी थे। इ ने बड़ी - बड़ी द णावाले अनेक य कये थे। ये महाभारत यु म सा कके हाथसे मारे गये। – ' तथा ' और ' एव ' – इन दोन अ य - पद के योगका ा अ भ ाय है ? उ र – इन दोन अ य का योग करके यह दखलाया गया है क अ ामा , वकण और भू र वा भी कृ पाचायके समान ही सं ाम वजयी थे।

अ े च बहवः शूरा मदथ जी वताः। नानाश हरणाः सव यु वशारदाः॥९॥

और भी मेरे लये जीवनक आशा श ा

से सुस

ाग देनेवाले ब त - से शूरवीर अनेक

कारके

त और सब - के - सब यु म चतुर ह ॥९॥

इस ोकका ा भाव है ? उ र – इससे पूव श , बा ीक , भगद , कृ तवमा और जय था द महार थय के नाम नह लये गये ह ; इस ोकम उन सबक ओर संकेत करके दुय धन इससे यह भाव दखला रहे ह क अपने प के जन - जन शूरवीर के नाम मने बतलाये ह , उनके अ त र और भी ब त - से यो ा ह , जो तलवार , गदा , शूल आ द हाथम रखे जानेवाले श से और बाण , तोमर , श आ द छोड़े जानेवाले अ से भलीभाँ त सुस त ह तथा यु कलाम बड़े कु शल महारथी ह एवं ये सभी ऐसे ह जो मेरे लये ाण ोछावर करनेको तैयार ह। इससे आप यह न य सम झये क ये मरते दमतक मेरी वजयके लये डटकर यु करगे। –

अपने महारथी यो ा क शंसा करके अब दुय धन दोन सेना क तुलना करते ए अपनी सेकको पा व - सेनाक अपे ा अ धक श श लनी और उ म बतलाते ह – स



अपया ं तद ाकं बलं भी ा भर तम्। पया ं दमेतेषां बलं भीमा भर तम् ॥१०॥

?

भी

पतामह ारा र

त हमारी वह सेना सब

कारसे अजेय है और भीम ारा र

त इन

लोग क यह सेना जीतनेम सुगम है ॥१०॥ –

दुय धनने अपनी सेनाको भी पतामहके ारा र त और अपया बतलाकर ा भाव दखलाया है

?

उ र – इससे दुय धनने हेतुस हत अपनी सेनाका मह स कया है। उनका कहना है क हमारी सेना उपयु ब त - से महार थय से प रपूण है और परशुराम - सरीखे यु वीरको भी छका देनेवाले , भूम लके अ तीय वीर भी पतामहके ारा संर त है तथा सं ाम भी पा व - सेनाक अपे ा चार अ ौ हणी अ धक है। ऐसी सेनापर वजय ा करना कसीके लये स व नह है ; वह सब कारसे अपया – आव कतासे कह अ धक श शा लनी , अतएव सवथा अजेय है। महाभारत , उ ोगपवके पचपनव अ ायम जहाँ दुय धनने धृतरा के सामने अपनी सेनाका वणन कया है वहाँ भी ाय : इ महार थय के नाम लेकर और भी ारा संर त बतलाकर उसका मह कट कया है। और श म कहा है – गुणहीनं परेषा

ब प

ा म भारत।

गुणोदयं ब गुणमा न

वशा ते॥

महा० , उ ोग० ५५।६७ ) ' हे भरतवंशी राजन्। म वप य क सेनाको अ धकांशम गुणहीन देखता ँ और अपनी सेनाको ब त गुण से यु आर पा रणामम गुण का उदय करनेवाली मानता ँ । ' इस लये मेरी हारका कोई कारण नह है। इसी कार भी पवम भी जहाँ दुय धनने ोणाचायके सामने फरसे अपनी सेनाका वणन कया है वहाँ उपयु गीताके ोकको - का दोहराया है ( महा० भी ० ५१।६ ) और उसके पहले ोकम तो यहांतक कहा है – (

एकैकश : समथा ह यूयं सव महारथाः। पा ु पु ान् रणे ह ुं ससै ान् कमु संहता : ॥

भी ० ५१।५ ) ' आप सब महारथी ऐसे ह, जो रणम अके ले ही पा व को सेनासमेत मार डालनेम समथ ह ; फर सब मलकर उनका संहार कर द , इसम तो कहना ही ा है ? अतएव यहाँ ' अपया ' श से दुय धनने अपनी सेनाका मह ही कट कया है और उपयु ल म यह ोक अपने प के यो ा को उ ा हत करनेके लये ही कहा गया है ; ऐसा ही होना उ चत और ासं गक भी है। – पा व - सेनाको भीमके ारा र त और पया बतलाकर ा भाव दखलाया है ? उ र – इससे दुय धनने उसक ूनता स क है। उनका कहना है क जहाँ हमारी सेनाके संर क भी ह , वहाँ उनक सेनाका संर क भीम है , जो शरीरसे बड़ा बलवान् होनेपर भी भी क तो तुलनाम ही नह रखा जा सकता। कहाँ रणकला - कु शल , श - शा नपुण , परम बु मान् भी पतामह और कहाँ धनु व ाम अकु शल , मोटी बु का भीम ! इस लये उसक सेना पया - सी मत श वाली है , उसपर हमलोग सहज ही वजय ा कर सकते ह। स – इस कार भी ारा संर त अपनी सेनाको अजेय बताकर , अब धन सब ओरसे भी क र ा करनेके लये ोणाचाय आ द सम महार थय से अनुरोध करते ह – (

अयनेषु च सवषु यथाभागमव ताः। भी मेवा भर ु भव ः सव एव ह॥११॥

इस लये सब मोच पर अपनी - अपनी जगह भी

त रहते

ए आपलोग सभी नःस ेह

पतामहक ही सब ओरसे र ा कर॥ ११॥

इस ोकका ा ता य है ? उ र – पतामह भी अपनी र ा करनेम सवथा समथ ह , यह बात दुय धन भी जानते थे। परंतु भी जीने पहले ही यह कह दया था क ' पु दपु शख ी पहले ी था , पीछेसे पु ष आ है ; ी पम ज होनेके कारण म उसे अब भी ी ही मानता ँ । ी - जा तपर वीर पु ष श हार नह करते , इस लये वह सामने आ जायगा तो म उसपर श हार नह क ँ गा। ' इसी लये सारी सेनाके एक हो जानेपर दुय धनने पहले भी सब यो ा स हत दुःशासनको सावधान करते ए व ारपूवक यह बात समझायी थी ( महा० भी १५।१४ - २० ) । यहाँ भी उसी भयक स ावनासे दुय धन अपने प के सभी मुख महार थय से अनुरोध कर रहे ह क आपलोग जो जस ूह ार - मोचपर नयु ह , सभी अपने - अपने ानपर ढ़ताके साथ डटे रह और पूरी सावधानी रख , जससे कसी भी ूह ारसे शख ी अपनी सेनाम व होकर भी पतामहके पास न प ँ च जाय। सामने आते ही , उसी समय , शख ीको मार भगानेके लये आप सभी महारथी ुत रह। य द आप लोग शख ीसे भी को बचा सक तो फर हम कसी कारका भय नह है। अ ा महार थय को परा जत करना तो भी जीके लये बड़ी आसान बात है। स – दुय धनके ारा अपने प के महार थय क वशेष पसे पतामह भी क शंसा कये जानेका वणन सुनाकर अब संजय उसके बादक घटना का वणन करते है – –

त संजनय ष कु वृ ः पतामहः। सहनादं वन ो ैः श ं द ौ तापवान्॥१२॥

कौरव म वृ

बड़े तापी पतामह भी ने उस दय ु धनके दयम हष उ

करते ए उ

रसे सहक दहाड़के समान गरजकर शंख बजाया॥१२॥

इस ोकका ा भाव है ? उ र – भी पतामह कु कु लम बा ीकको छोड़कर सबसे बड़े थे , कौरव और पा व से इनका एक - सा स था और पतामहके नाते ये दोन के ही पू थे ; इसी लये संजयने इनको कौरव म वृ और पतामह कहा है। अव ाम ब त वृ होनेपर भी तेज , बल , परा म , वीरता और मताम ये अ े - अ े वीर युवक से भी बढ़कर थे ; इसीसे इ ' तापवान् ' बतलाया है। ऐसे पतामह भी ने जब ोणाचायके पास खड़े ए दुय धनको , पा व - सेना देखकर , च कत और च त देखा ; साथ ही यह भी देखा क वे अपनी च ाको दबाकर यो ा का उ ाह बढ़ानेके लये अपनी सेनाक शंसा कर रहे ह और ोणाचाय आ द सब महार थय को मेरी र ा करनेके लये अनुरोध कर रहे ह ; तब पतामहने अपना भाव दखलाकर उ स करने और धान सेनाप तक है सयतसे सम सेनाम यु ार क घोषणा करनेके लये सहके समान दहाड़ मारकर बड़े जोरसे शंख बजाया। –

ततः श ा भेय पणवानकगोमुखाः। सहसैवा ह स श ुमुलोऽभवत्॥१३॥

इसके प ात् शंख और नगारे तथा ढोल , मृदंग और नर सघे आ द बाजे एक साथ ही बज उठे । उनका वह श –

बड़ा भयंकर आ॥१३॥

इस ोकका ा भाव है ?

उ र – भी पतामहने जब सहक तरह गरजकर और शंख बजाकर यु ार क घोषणा कर दी , तब सब ओर उ ाह फै ल गया और सम सेनाम सब ओरसे व भ सेनानायक के शंख और भाँ त - भाँ तके यु के बाजे एक ही साथ बज उठे । उनके एक ही साथ बजनेसे इतना भयानक श आ क सारा आकाश उस श से गूँज उठा। स – धृतरा ने पूछा था क यु के लये एक होनेके बाद मेरे और पा ू के पु ने ा कया, इसके उ रम संजयने अबतक धृतरा के प वाल क बात सुनायी ; अब पा व ने ा कया उसे पांच ोक म बतलाते ह –

ततः ेतैहयैयु े मह त ने तौ। माधवः पा व ैव द ौ श ौ द तुः॥१४॥

इसके अन र सफेद घोड़ से यु

उ म रथम बैठे ए बजाये॥१४॥

ीकृ

महाराज और अजुनने भी अलौ कक शंख

इस ोकका ा भाव है ? उ र – अजुनका रथ ब त ही वशाल और उ म था। वह सोनेसे मँढ़ा आ बड़ा ही तेजोमय , अ काशयु खूब मजबूत , ब त बड़ा और परम सु र था। उसपर अनेक पताकाएँ फहरा रही थ , पताका म घुँघ लगे थे। बड़े ही ढ़ और वशाल प हये थे। ऊँ ची जा बजली - सी चमक रही थी , उसम च मा और तार के च थे और उसपर ीहनुमान्जी वराजमान थे। जाके स म संजयने दुय धनको बतलाया था क ' वह तरछे और ऊपर सब ओर एक योजनतक फहराया करती है। जैसे आकाशम इ धनुष अनेक काशयु व च रंग का दीखता है, वैसे ही उस जाम रंग दीख पड़ते ह। इतनी वशाल और फै ली ई होनेपर भी न तो उसम बोझ है और न वह कह कती या अटकती ही है। वृ के ंडु म वह नबाध चली जाती है, वृ उसे छू नह पाते। ' चार बड़े सु र , सुस त , सु श त , बलवान् और तेजीसे चलनेवाले सफे द द घोड़े उस रथम जुते ए थे। ये च रथ ग वके दये ए सौ द घोड मसे थे। इनमसे कतने भी न मारे जाँय , ये सं ाम सौ - के - सौ बने रहते थे ; कम न होते थे और ये पृ ी , ग आ द सब ान म जा सकते थे। यही बात रथके लये भी थी ( महा० , उ ोग० ५६ ) । खा ववन - दाहके समय अ देवने स होकर यह रथ अजुनको दया था ( महा० , आ द० २२५ ) । ऐसे महान् रथपर वरा जत भगवान् ीकृ और वीरवर अजुनने जब भी पतामहस हत कौरव - सेनाके ारा बजाये ए शंख और अ ा रणवा क न सुनी , तब इ ने भी यु ार क घोषणा करनेके लये अपने - अपने शंख बजाये। भगवान् ीकृ और अजुनके ये शंख साधारण नह ; अ वल ण , तेजोमय और अलौ कक थे। इसीसे इनको द बतलाया गया है। –

पा ज ं षीके शो देवद ं धन यः। पौ ं द ौ महाश ं भीमकमा वृकोदरः॥१-१५॥

ीकृ भीमसेनने पौ

महाराजने पांचज

नामक महाशंख बजाया॥ १-१५॥

नामक , अजुनने देवद

नामक और भयानक कमवाले

भगवानके ' षीके श ' नामका ा भाव है ? और उनको ' पांचज ' शंख कससे मला था ? उ र – ' षीक ' इ य का नाम है उनके ामीको ' षीके श ' कहते ह तथा हष , सुख और सुखमय ऐ यके नधानको ' षीके श ' कहते ह। भगवान् इ य के अधी र भी ह और हष , सुख और परमै यके नधान भी , इसी लये उनका एक नाम ' षीके श ' है। पंचजन नामक शंख पधारी एक दै को मारकर भगवान् ने उसे शंख पसे ीकार कया था। इससे उस शंखका नाम ' पांचज ' हो गया ( ह रवंश० २।३३।१७ ) । – अजुनका ' धनंजय ' नाम पड़ा और उ ' देवद ' शंख कहाँसे ा आ? –

उ र – राजसूयय के समय अजुन ब त - से राजा को जीतकर अपार धन लाये थे , इस कारण उनका एक नाम ' धनंजय ' हो गया और ' देवद ' नामक शंख इनको नवातकवचा द दै के साथ यु करनेके समय इ ने दया था ( महा० , वन० १७४।५ ) । इस शंखका श इतना भयंकर होता था क उसे सुनकर श ु क सेना दहल जाती थी। – भीमसेनके ' भीमकमा ' और ' वृकोदर ' नाम कै से पड़े एवं उनके पौ नामक शंखको महाशंख बतलाया गया ? उ र – भीमसेन बड़े भारी बलवान् थे। उनके कम ऐसे भयानक होते थे क देखने - सुननेवाले लोग के मन म अ भय उ हो जाता था ; इस लये ये ' भीमकमा ' कहलाने लगे। इनके भोजनका प रमाण ब त अ धक होता था और उसे पचानेक भी इनम बड़ी श थी , इस लये इ ' वृकोदर ' कहते थे। इनका शंख ब त बड़े आकारका था और उससे बड़ा भारी श होता था , इस लये उसे ' महाशंख ' कहा गया है।

अन वजयं राजा कु ीपु ो यु ध रः। नकु लः सहदेव सुघोषम णपु कौ॥१६॥ कु ीपु

राजा यु ध रने अन

वजय नामक और नकुल तथा सहदेवने सुघोष और

म णपु क नामक शंख बजाये ॥१६॥

यु ध रको ' कु ीपु ' और ' राजा ' कहनेका ा अ भ ाय है ? उ र – महाराज पा ु के पाँच पु म यु ध र , भीम और अजुन तो कुं तीसे उ ए थे और नकु ल तथा सहदेव मा ीसे। इस ोकम नकु ल और सहदेवके भी नाम आये ह ; यु ध र और नकु ल - सहदेवक माताएँ भ - भ थ , इसी बातको जनानेके लये यु ध रको ' कु ीपु ' कहा गया है। तथा इस समय रा होनेपर भी यु ध रने पहले राजसूयय म सब राजा पर वजय ा करके च वत सा ा क ापना क थी। संजयको व ास है क आगे चलकर वे ही राजा ह गे और इस समय भी उनके शरीरम सम राज च वतमान ह ; इस लये उनको ' राजा ' कहा गया है। –

का परमे ासः शख ी च महारथः। धृ ु ो वराट सा क ापरा जतः॥१७॥ पु दो ौपदेया सवशः पृ थवीपते। सौभ महाबा ः श ा ुः पृथ ृथक् ॥१८॥ े अजेय सा

धनुषवाले का शराज और महारथी शख

ी एवं धृ



तथा राजा वराट और

क , राजा प ु द एवं ौपदीके पाँच पु और बड़ी भुजावाले सुभ ापु अ भम ु – इन सभीने , हे राजन्।

सब ओरसे अलग - अलग शंख बजाये ॥१७/१८॥

का शराज , धृ ु , वराट , सा क , पु द तथा ौपदीके पाँच पु और अ भम ूका तो प रचय पहले ासं गक पम मल चुका है। शख ी कौन थे और इनक उ कै से ई थी ? उ र – शख ी और धृ ु दोन ही राजा पु दके पु थे। शख ी बड़े थे , धृ ु छोटे। पहले जब राजा पु दके कोई स ान नह थी , तब उ ने स ानके लये आशुतोष भगवान् शंकरक उपासना क थी। भगवान् शवजीके स होनेपर राजाने उनसे स ानक याचना क , तब शवजीने कहा – ' तु एक क ा ा होगी। ' राजा –

पु द बोले – ' भगवन् ! म क ा नह चाहता , मुझे तो पु चा हये। ' इसपर शवजीने कहा – ' वह क ा ही आगे चलकर पु पम प रणत हो जायगी। ' इस वरदानके फल प राजा पु दके घर क ा उ ई। राजाको भगवान् शवके वचन पर पूरा व ास था , इस लये उ ने उसे पु के पम स कया। रानीने भी क ाको सबसे छपाकर असली बात कसीपर कट नह होने दी। उस क ाका नाम भी मद का - सा ' शख ी ' रखा और उसे राजकु मार क सी पोशाक पहनाकर यथा म व धपूवक व ा यन कराया। समयपर दशाणदेशके राजा हर वमाक क ासे उसका ववाह भी हो गया। हर वमाक क ा जब ससुरालम आयी तब उसे पता चला क शख ी पु ष नह है , ी है ; तब वह ब त दुः खत ई और उसने सारा हाल अपनी दा सय ारा अपने पता राजा हर वमाको कहला भेजा। राजा हर वमाको पु दपर बड़ा ही ोध आया और उसने पु दपर आ मण करके उ मारनेका न य कर लया। इस संवादको पाकर राजा पु द यु से बचनेके लये देवाराधन करने लगे। इधर पु षवेषधारी उस क ाको अपने कारण पतापर इतनी भयानक वप आयी देखकर बड़ा दुःख आ और वह ाण - ागका न य करके चुपचाप घरसे नकल गयी। वनम उसक ूणाकण नामक एक ऐ यवान् य से भट ई। य ने दया करके कु छ दन के लये उसे अपना पु ष देकर बदलेम उसका ी ले लया। इस कार शख ी ीसे पु ष हो गया और अपने घरपर आकर माता पताको आ ासन दया और शुर हर वमाको अपने पु ष क परी ा देकर उ शा कर दया। पीछेसे कु बेरके शापसे ूणाकण जीवनभर ी रह गये , इससे शख ीको पु ष लौटाना नह पड़ा और वे पु ष बने रहे। भी पतामहको यह इ तहास मालूम था , इसीसे वे उनपर श - हार नह करते थे। वे शख ी भी बड़े शूरवीर महारथी यो ा थे। इ को आगे करके अजुनने पतामह भी को मारा था। – इन सभीने अलग - अलग शंख बजाये , इस कथनम भी कोई खास बात है ? उ र – ' सवश : ' श के ारा संजय यह दखलाते ह क ीकृ , पाँच पा व और का शराज आ द धान यो ा के - जनके नाम लये गये ह – अ त र पा व सेनाम जतने भी रथी , महारथी और अ तरथी वीर थे , सभीने अपने - अपने शंख बजाये। यही खास बात है। स – भगवान् ीकृ और अजुनके प ात् पा व - सेनाके अ ा सब ओर शंख बजाये जानेक बात कहकर अब उस शंख नका ा प रणाम आ ? उसे संजय बतलाते ह –

स घोषो धातरा ाणां दया न दारयत्। नभ पृ थव चैव तुमुलो नुनादयन्॥१९॥

और उस भयानक श ने आकाश और पृ ीको भी गुँजाते ए धातरा के यानी आपके प वाल के दय वदीण कर दये॥ १-१९॥

इस ोकका ा भाव है ? उ र – पा व सेनाम जब सम वीर के शंख एक ही साथ बजे , तब उनक न इतनी वशाल , गहरी , ऊँ ची और भयानक ई क सम आकाश तथा पृ ी उससे ा हो गयी। इस कार सब ओर उस घोर नके फै लनेसे सव उसक त न उ हो गयी , जससे पृ ी और आकाश गूँजने लगे। उस नको सुनते ही दुय धना द धृतरा पु के और उनके प वाले अ यो ा के दय म महान् भय उ हो गया , उनके कलेजे इस कार पी ड़त हो गये मानो उनको चीर डाला गया हो। स – पा व क शंख नसे कौरववीर के थत होनेका वणन करके , अब चार ोक म भगवान् ीकृ के त कहे ए अजुनके उ ाहपूण वचन का वणन कया जाता है – –

अथ व ता ृ ा धातरा ा प जः। वृ े श संपाते धनु पा वः॥२०॥ षीके शं तदा वा मदमाह महीपते। अजुन उवाचा सेनयो भयोम े रथं ापय मेऽ ुत॥२१॥ है राजन् ! इसके बाद क प ज अजुनने मोचा बाँधकर डटे ऐ धृतरा श

चलनेक तैयारीके समय धनुष उठाकर षीकेश

दोन सेना

ीकृ

- स

य को देखकर , उस

महाराजसे यह वचन कहा – हे अ

ुत ! मेरे रथको

के बीचम खड़ा क जये॥ २० - २१॥

अजुनको क प ज कहा गया ? उ र – महावीर हनुमानजी भीमसेनको वचन दे चुके थे ( महा० वन० १५१।१७ - १८ ), इस लये वे अजुनके रथक वशाल जापर वरा जत रहते थे और यु म समय - समयपर बड़े जोरसे गरजा करते थे ( महा० भी ० ५२। १८ ) । यही बात धृतरा को याद दलानेके लये संजयने अजुनके लये ' क प ज ' वशेषणका योग कया है। – अजुनने मोचा बाँधकर डटे ए धृतरा - स य को देखकर श चलनेक तैयारीके समय धनुष उठा लया , इस कथनका ीकरण क जये ? उ र – अजुनने जब यह देखा क दुय धन आ द सब भाई कौरव - प के सम यो ा - स हत यु के लये सज - धजकर खड़े ह और श हारके लये बलकु ल तैयार ह, तब अजुनके मनम भी वीर - रस जग उठा तथा इ ने भी तुरंत अपना गा ीव धनुष उठा लया। – संजयने यहाँ भगवान् को पुन : षीके श कहा? उ र – भगवानको षीके श कहकर संजय महाराज धृतरा को यह सू चत कर रहे ह क इ य के ामी सा ात् परमे र ीकृ जन अजुनके रथपर सार थका काम कर रहे ह , उनसे यु करके आपलोग वजयक आशा करते ह – यह कतना बड़ा अ ान है ! – अपने रथको दोन सेना के बीचम खड़ा करनेके लये अनुरोध करते समय अजुनने भगवान् ीकृ को ' अ ुत ' नामसे स ोधन कया , इसका ा हेतु है ? उ र – जसका कसी समय भी पराभव या पतन न हो अथवा जो अपने प , श और मह से सवथा तथा सवदा अ लत रहे – उसे ' अ ुत ' कहते ह। अजुन इस नामसे स ो धत करके भगवान् क मह ाके और उनके पके स म अपने ानको कट करते ह। वे कहते ह क आप रथ हाँक रहे ह तो ा आ, व ुत : आप सदा सवदा सा ात् परमे र ही ह। –

यावदेता र ऽे हं योदधु् कामानव तान्। कै मया सह यो म न् रणसमु मे॥२२॥

और जबतक क म यु इस यु



े म डटे ए यु के अ भलाषी इन वप ी यो ा

ापारम मुझे कन - कनके साथ यु

करना यो

को भली कार देख लूँ क

है, तबतक उसे खड़ा र खये ॥२२॥

इस ोकका ीकरण क जये ? उ र – अजुन भगवान् ीकृ से कह रहे ह क आप मेरे रथको दोन सेना के बीचम ले जाकर ऐसे उपयु ानपर और इतने समयतक खड़ा र खये , जहाँसे और जतने समयम म यु के लये सज - धजकर खड़े ए सम –

यो ा को भलीभाँ त देख सकूँ । ऐसा करके म यह जानना चाहता ँ क इस रणो मम – यु के वकट संगम यं मुझको कन - कन वीर के साथ लड़ना होगा।

यो मानानवे ऽे हं य एतेऽ समागताः। धातरा दुबु ेयु े य चक षवः॥२३॥

दब ु ु

दय ु धनका यु म हत चाहनेवाले जो - जो ये राजालोग इस सेनाम आये ह , इन यु

करनेवाल को म देखूँगा ॥२३॥

दुय धनको अजुनने दुबु बतलाया ? उ र – वनवास तथा अ ातवासके तेरह वष पूरे होनेपर पा व को उनका रा लौटा देनेक बात न त हो चुक थी और तबतक वह कौरव के हाथम धरोहरके पम था , परंतु उसे अ ायपूवक हड़प जानेक नीयतसे दुय धन इससे सवथा इनकार कर गये। दुय धनने पा व के साथ अबतक और तो अनेक अ ाय तथा अ ाचार कये ही थे , परंतु इस बार उनका यह अ ाय तो अस ही हो गया। दुय धनक इसी पापबु का रण करके अजुन उ दुबु बतला रहे ह। – दुय धनका यु म हत चाहनेवाले जो ये राजा इस सेनाम आये ह , इन यु करनेवाल को म देखूँगा , अजुनके इस कथनका ा अ भ ाय है ? उ र – अजुनका इसम यह भाव तीत होता है क पापबु दुय धनका अ ाय और अ ाचार सारे जगत् म कट है , तो भी उसका हत करनेक इ ासे उसक सहायता करनेके लये ये राजालोग यहाँ इक े ए ह ; इससे मालूम होता है क इनक भी बु दुय धनक बु के समान ही दु हो गयी है। तभी तो ये सब अ ायका खुला समथन करनेके लये आकर जुटे ह और अपनी शान दखाकर उसक पीठ ठ क रहे ह। तथा इस कार उसका हत करने जाकर वा वम उसका अ हत कर रहे ह। अपनेको बड़ा बलवान् मानकर और यु के लये उ ुक होकर खड़े ए इन सबको म जरा देखूँ तो सही क ये कौन - कौन ह ? और फर यु लम भी देखूँ क ये कतने बड़े वीर ह और इ अ ाय तथा अधमका प लेनेका मजा चखाऊँ । स – अनके इस कार कहनेपर भगवान्ने ा कया ? अब दो ोकोम संजय उसका वणन करते ह – –

संजय उवाच एवमु ो षीके शो गुडाके शेन भारत। सेनयो भयोम े ाप य ा रथो मम्॥२४॥ भी ोण मुखतः सवषां च मही ताम्। उवाच पाथ प ैता मवेता ु न त॥२५॥

संजय बोले – हे धृतरा भी

! अजुन ारा इस कार कहे ए महाराज

और ोणाचायके सामने तथा स ूण राजा

ीकृ

च ने दोन सेना

के बीचम

के सामने उ म रथको खड़ा करके इस कार कहा क हे पाथ !

यु के लये जुटे ए इन कौरव को देख ॥२४/२५॥

गुडाके श ' का ा अथ है और संजयने अजुनको यहाँ गुडाके श कहा ? उ र – ' गुडाका ' न ाको कहते ह ; जो न दको जीतकर उसपर अपना अ धकार कर ले , उसे ' गुडाके श ' कहते ह। अजुनने न ा जीत ली थी , वे बना सोये रह सकते थे। न द उ सताती नह थी , आल के वश तो वे कभी होते ही न थे। संजय ' गुडाके श ' कहकर यह सू चत कर रहे ह क जो अजुन सदा इतने सावधान और सजग ह उ आपके पु कै से जीत सकगे ? –'

यु के लये जुटे ए इन कौरव को देख , भगवान् के इस कथनका ा अ भ ाय है ? उ र – इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क तुमने जो यह कहा था क जबतक म सबको देख न लूँ तबतक रथ वह खड़ा र खयेगा , उसके अनुसार मने सबके बीचम ऐसी जगह रथको लाकर खड़ा कर दया है जहाँसे तुम सबको भलीभाँ त देख सको। रथ र - भावसे खड़ा है, अब तुम जतनी देरतक चाहो सबको भलीभाँ त देख लो। यहाँ ' कु न् प ' अथात् ' कौरव को देखो ' इन श का योग करके भगवान् ने यह भाव भी दखलाया है क ' इस सेनाम जतने लोग ह, ाय : सभी तु ारे वंशके तथा आ ीय जन ही ह। उनको तुम अ ी तरह देख लो। ' भगवान् के इसी संकेतने अजुनके अ ःकरणम छपे ए कु टु ेहको कट कर दया। अजुनके मनम ब ु ेहसे उ क णाज नत कायरता कट करनेके लये ये श मानो बीज प हो गये। मालूम होता है क अजुनको न म बनाकर लोकक ाण करनेके लये यं भगवान् ने ही इन श के ारा उनके दयम ऐसी भावना उ कर दी , जससे उ ने यु करनेसे इनकार कर दया और उसके फल प सा ात् भगवान् के मुखार व से लोकपावन द गीतामृतक ऐसी परम मधुर धारा बह नकली , जो अन कालतक अन जीव का परम क ाण करती रहेगी। स – भगवान् ीकृ क आ ा सुनकर अजुनने ा कया ? अब उसे बतलाते ह – –

त ाप ि ता ाथः पतॄनथ पतामहान्। आचाया ातुला ातॄ ु ा ौ ा ख था॥२६॥ शुरा ु द ैव सेनयो भयोर प।

इसके बाद पृथापु गु

को , मामा

अजुनने उन दोन ही सेना



त ताऊ - चाच को , दाद - परदाद को ,

को , भाइय को , पु को , पौ को तथा म को , ससुर को और सु द को भी देखा ॥२६ और

२७ वका पूवाध॥

इस डेढ़ ोकका ीकरण क जये ? उ र – भगवान् क आ ा पाकर अजुनने दोन ही सेना म त अपने सम जन को देखा। उनम भू र वा आ द पताके भाई , पतातु पु ष थे। भी , सोमद और बा ीक आ द पतामह - पतामह थे। ोणाचाय , कृ पाचाय आ द गु थे। पु जत् , कु भोज और श आ द मामा थे। अ भम ु , त व , घटो च , ल ण आ द अपने और भाइय के पु थे। ल ण आ दके पु थे , जो स म अजुनके पौ लगते थे। साथ खेले ए ब त से म और सखा थे। पु द , शै आ द ससुर थे और बना ही कसी हेतुके उसका क ाण चाहनेवाले ब त - से सुहद् थे। स – इस कार सबको देखनेके बाद अजुनने ा कया ? अब उसे बतलाते ह – –

ता मी स कौ ेयः सवा ब नू व तान्॥२७॥ कृ पया परया व ो वषीद दम वीत्।

उन उप

त स ूण ब ु

को देखकर वे कु ीपु अजुन अ

यह वचन बोले ॥२७ वका उ राध और २८ वका पूवाध ॥

क णासे यु

होकर शोक करते ए

उप त स ूण ब ु से ' कनका ल है ? उ र – पूवके डेढ़ ोकम अजुन अपने ' पता - पतामहा द ' ब त - से पु ष क बात कह चुके ह; उनके सवा जनका स नह बता आये ह , ऐसे धृ ु , शख ी और सुरथ आ द साले तथा जय थ आ द बहनोई –'

और अ ा जो अनेक कारके स से यु जन दोन ओरक सेनाम ह – ' उप त स ूण ब ु ' से संजय उन सभीका ल कराते ह। – अजुन अ क णासे यु हो गये , इसका ा ता य है ? उ र – अजुनने जब चार ओर अपने उपयु जन - समुदायको देखा और यह सोचा क इस यु म इन सबका संहार हो जायगा , तब ब ु ेहके कारण उनका दय काँप उठा और उसम यु के वपरीत एक कारक क णाज नत कायरताका भाव बल पसे जा त् हो गया। यही ' अ क णा ' है , जसको संजयने ' परया कृपया ' कहा है और इस कायरताके आवेशसे अजुन अपने यो चत वीर भावको भूलकर अ मो हत हो गये , यही उनका उस ' क णासे यु हो जाना है। ' – ' इदम् ' पदसे अजुनके कौन - से वचन समझने चा हये ? उ र – ' इदम् ' पदका योग अगले ोकसे लेकर छयालीसव ोकतक अजुनने जो - जो बात कही ह, उन सभीके लये कया गया है। स – ब ु ेहके कारणअजुनक कै सी त ई , अब ढाई ोक म अजुन यं उसका वणन करते ह –

मे ं जनं कृ युयु ुं समुप तम्॥२८॥ सीद मम गा ा ण मुखं च प रशु त। वेपथु शरीरे मे रोमहष जायते॥२९॥ अजुन बोले – हे कृ

! यु

े म डटे ए यु के अ भलाषी इस

श थल ए जा रहे ह और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीरम क २९॥

जन समुदायको देखकर मेरे अंग

एवं रोमांच हो रहा है ॥२४वका उ राध और

अजुनके इस कथनका ा भाव है ? उ र – यहाँ अजुनका यह भाव है क इस महायु का महान् भयंकर प रणाम होगा। ये सारे छोटे और बड़े सगे -स ी तथा आ ीय जन , जो इस समय मेरी आँ ख के सामने ह , मौतके मुँहम चले जायँगे। इस बातको सोचकर मुझे इतनी मा मक पीड़ा हो रही है , मेरे दयम इतना भयंकर दाह और भय उ हो गया है क जसके कारण मेरे शरीरक ऐसी दुरव ा हो रही है।               –

गा ीवं ंसते ह ा ैव प रद ते। न च श ो व ातुं मतीव च मे मनः॥१-३०॥

हाथसे गा

ीव धनुष गर रहा है और

इस लये म खड़ा रहनेको भी समथ नह

ँ ॥३०॥

चा भी ब त जल रही है तथा मेरा मन

मत - सा हो रहा है

इस ोकका ा भाव है ? उ र – क णाज नत कायरतासे अजुनक बड़ी शोचनीय त हो गयी है, उसीका वणन करते ए वे कह रहे ह क ' मेरे सारे अंग अ श थल हो गये ह, हाथ ऐसे श शू हो रहे ह क उनसे गा ीव धनुषको चढ़ाकर बाण चलाना तो दूर रहा , म उसको पकड़े भी नह रह सकता , वह हाथसे छु टा जा रहा है। यु के भावी प रणामक च ाने मेरे मनम इतनी जलन पैदा कर दी है क उसके कारण मेरी चमड़ी भी जल रही है और भीषण मान सक पीड़ाके कारण मेरा मन –

कसी बातपर णभर भी र नह हो रहा है। तथा इसके प रणाम प मेरा म भी घूमने लगा है, ऐसा मालूम होता है क म अभी - अभी मु छत होकर गर पडँ गा। ' – अजुनका गा ीव धनुष कै सा था ? और वह उसे कै से मला था ? उ र – अजुनका गा ीव धनुष द था , उसका आकार तालके समान था ( महा० , उ ोग० १६१ ) । गा ीवका प रचय देते ए बृह लाके पम यं अजुनने उ रकु मारसे कहा था – ' यह अजुनका जग स धनुष है। यह णसे मढ़ा आ , सब श म उ म और लाख आयुध के समान श मान् है। इसी धनुषसे अजुनने देवता और मनु पर वजय ा क है। इस व च , रंग - बरंगे , अछू त , कोमल और वशाल धनुषका देवता , दानव और ग व ने दीघकालतक आराधन कया है इस परम द धनुषको ाजीने एक हजार वष , जाप तने पाँच सौ तीन वष , इ ने पचासी वष , च माने पाँच सौ वष और व णदेवने सौ वषतक रखा था। ' ( महा० , वराट० ४३ ) । यह अजुनको खा व - वन जलानेके समय अ देवने व णसे दलाया था ( महा० , आ द० २२५ ) । स – अपनी वषादयु तका वणन करके अब अजुन अपने वचार के अनुसार यु का अनौ च स करते ह –

न म ा न च प ा म वपरीता न के शव। न च ेयोऽनुप ा म ह ा जनमाहवे॥३१॥

हे केशव ! म ल ण को भी वपरीत ही देख रहा ँ तथा यु म

जन - समुदायको मारकर क

ाण भी

नह देखता ॥३१॥

म ल ण को भी वपरीत ही देख रहा ँ इसका ा भाव है ? उ र – कसी भी याके भावी प रणामक सूचना देनेवाले शकु ना द c च को ल ण कहा जाता है, ोकम ' न म ा न ' पद इ ल ण के लये आया है। अजुन ल ण को वपरीत बतलाकर यह भाव दखला रहे ह क असमयम हण होना , धरतीका काँप उठना और आकाशसे न का गरना आ द बुरे शकु न से भी यही तीत होता है क इस यु का प रणाम अ ा नह होगा। इस लये मेरी समझसे यु न करना ही ेय र है। – यु म जन-समुदायको मारकर क ाण भी नह देखता, इस कथन का ा अ भ ाय है? उ र – अजुनके कथनका भाव यह है क यु म अपने सगे - स य के मारनेसे कसी कारका भी हत होनेक स ावना नह है ; क थम तो आ ीय जन के मारनेसे च म प ा ापज नत ोभ होगा , दूसरे उनके अभावम जीवन दुःखमय हो जायगा और तीसरे उनके मारनेसे महान् पाप होगा। इन य से न इस लोकम हत होगा और न परलोकम ही। अतएव मेरे वचारसे से यु करना कसी कार भी उ चत नह है। स – अजुनने यह कहा क जन को मारनेसे कसी कारका भी हत होनेक स ावना नह है, अब फर वे उसीक पु करते ह – –

न काङ् े वजयं कृ न च रा ं सुखा न च। क नो रा ने गो वद क भोगैज वतेन वा ॥३२॥

हे कृ

! म न तो वजय चाहता ँ और न रा

योजन है अथवा ऐसे भोग से और जीवनसे भी –

अजुनके इस कथनका

तथा सुख को ही। हे गो व ! हम ऐसे रा

ा लाभ है ? ॥३२॥

ीकरण क जये ?

से



उ र – अजुन अपने च क तका च ख चते ए कहते ह क हे कृ ! इन आ ीय जन को मारनेपर जो वजय , रा और सुख मलगे , म उ जरा भी नह चाहता। मुझे तो यही तीत होता है क इनके मारनेपर हम इस लोक और परलोकम संताप ही होगा , फर कस लये यु कया जाय और इ मारा जाय ? ा होगा ऐसे रा और भोग से ? मेरी समझसे तो इ मारकर जीनेम भी कोई लाभ नह है। स – अब अजुन जनवधसे मलनेवाले रा - भोगा दको न चाहनेका कारण दखलाते ह –

येषामथ काङ तं नो रा ं भोगाः सुखा न च। त इमेऽव ता यु े ाणां ा धना न च ॥३३॥

हम जनके लये रा यु म खड़े ह ॥३३॥

, भोग और सुखा द अभी ह, वे ही ये सब धन और जीवनक आशाको

ागकर

अजुनके इस कथनका ा ता य है ? उ र – यहाँ अजुन यह कह रहे ह क मुझको अपने लये तो रा , भोग और सुखा दक आव कता ही नह है। क म जानता ँ क न तो इनम ायी आन ही है और न ये यं ही न ह। म तो इन भाई - ब ु आ द जन के लये ही रा ा दक इ ा करता था, परंतु म देखता ँ क ये सब यु म ाण देनेके लये तैयार खड़े ह। य द इन सबक मृ ु हो गयी तो फर रा , भोग और सुख आ द कस काम आवगे ? इस लये कसी कार भी यु करना उ चत नह है। स – इस कार यु का अनौ च दखलाकर अब अजुन यु म मरनेके लये तैयार होकर आये ए जन - समुदायम कौन - कौन ह, उनका सं ेपम वणन करते ह – –

आचायाः पतरः पु ा थैव च पतामहाः। मातुलाः शुराः पौ ाः ालाः संबं धन था ॥३४॥

गु जन , ताऊ - चाचे , लड़के और उसी कार दादे , मामे , ससुर, पौ , साले तथा और भी स



लोग ह ॥३४॥

अजुन इन स य के नाम लेकर ा कहना चाहते ह ? उ र – आचाय, ताऊ, चाचे आ द स य क बात तो सं ेपम पहले कही जा चुक है। यहाँ ' ालाः ' श से धृ ु , शख ी और सुरथ आ दका तथा ' स नः ' से जय था दका रण कराकर वे यह कहना चाहते है क संसारम मनु अपने ारे स य के ही लये तो भोग का सं ह कया करता है ; जब ये ही सब मारे जायँगे , तब रा - भोग क ा से होगा ही ा ? ऐसे रा - भोग तो दुःखके ही कारण ह गे। स – सेनामे उप त शूरवीर के साथ अपना स बतलाकर अब अजुन कसी भी हेतुसे इ मारनेम अपनी अ न ा कट करते ह – –

एता ह ु म ा म तोऽ प मधुसूदन। अ प ैलो रा हेतोः क नु महीकृ ते ॥३५॥

हे मधुसूदन ! मुझे मारनेपर भी अथवा तीन लोक के रा फर पृ ीके लये तो कहना ही ा है? ॥३५॥

तस

के लये भी म इन सबको मारना नह चाहता;

अजुनने यह कर कहा क मुझे मारनेपर भी म इ मारना नह चाहता ; क दोन सेना म य मसे जो अजुनके प के थे , उनके ारा तो अजुनके मारे जानेक कोई क ना ही नह हो सकती ? –

उ र – इसी लये अजुनने ' तः ' और ' अ प ' श का योग कया है। उनका यह भाव है क मेरे प वाल क तो कोई बात ही नह है ; परंतु जो वप म त स ी ह, वे भी जब म यु से नवृ हो जाऊँ गा , तब स वत : मुझे मारनेक इ ा नह करगे ; क वे सब रा के लोभसे ही यु करनेको तैयार ए ह। जब हमलोग यु से नवृ होकर रा क आकां ा ही छोड़ दगे तब तो मारनेका कोई कारण ही नह रह जायगा। परंतु कदा चत् इतनेपर भी उनमसे कोई मारना चाहगे तो उन मुझे मारनेक चे ा करनेवाल को भी म नह मा ँ गा। – तीन लोक के रा के लये भी नह , फर पृ ीके लये तो कहना ही ा है ? इस कथनका ा ता य है ? उ र – इससे अजुनने यह भाव दखलाया है क पृ ीके रा और सुख क तो बात ही कौन - सी है , इनको मारनेपर कह लोक का न क रा मलता हो तो उसके लये भी म इन आचाया द आ ीय जन को नह मारना चाहता। स – यहाँ य द यह पूछा जाय क आप लोक के रा के लये भी उनको मारना नह चाहते , तो इसपर अजुन अपने स य को मारनेम लाभका अभाव और पापक स ावना बतलाकर अपनी बातको पु करतै ह –

नह धातरा ा का ी तः ा नादन। पापमेवा येद ान् ह ैतानातता यनः ॥३६॥

हे जनादन ! धृतरा के पु को मारकर हम

ा स ता होगी ? इन आतता यय को मारकर तो हम पाप

ही लगेगा ॥३६॥

धृतरा के पु को मारकर हम ा स ता होगी ? इस कथनका ा भाव है ? उ र – अजुन कहते ह क वप म त इन धृतरा पु को और उनके सा थय को मारनेसे इस लोक और परलोकम हमारी कु छ भी इ स नह होगी और जब इ त व ु ही नह मलेगी तब स ता तो होगी ही कै से। अतएव कसी से भी म इनको मारना नह चाहता। – ृ तकार ने तो श म कहा है – –

आतता यनमाया ं ह ादेवा वचारयन्। नातता यवधे दोषो ह ुभव त क न॥

मनु० ८।३५० - ५१) ' अपना अ न करनेके लये आते ए आततायीको बना वचारे ही मार डालना चा हये। आततायीके मारनेसे मारनेवालेको कु छ भी दोष नह होता। ' व स ृ तम आततायीके ल ण इस कार बतलाये गये ह – (



दो गरद ैव श पा णधनापह : ।

३।१९ ) ' आग लगानेवाला , वष देनेवाला , हाथम श लेकर मारनेको उ त , धन हरण करनेवाला , जमीन छीननेवाला और ीका हरण करने - वाला – ये छह ही आततायी ह। ' दुय धना दम आततायीके उपयु ल ण पूरे पाये जाते ह। ला ा - भवनम आग लगाकर उ ने पा व को जलानेक चे ा क थी , भीमसेनके भोजनम वष मला दया था , हाथम श लेकर मारनेको तैयार थे ही। जूएम छल करके पा व का सम धन और स ूण रा हर लया था , अ ायपूवक ौपदीको सभाम लाकर उसका घोर अपमान े दारापहता च षडेते

ातता यन : ॥ (

कया था और जय थ उ हरकर ले गया था। इस अव ाम अजुनने यह कै से कहा क इन आतता यय को मारकर तो हम पाप ही लगेगा ? उ र – इसम कोई स हे नह क ृ तकार के मतम आतता यय का वध करना दोष नह माना गया है और यह भी न ववाद स है क दुय धना द आततायी भी थे। परंतु कह ृ तकारने एक वशेष बात यह कही है – स एव पा प तमो य : कुयात् कुलनाशनम्।

जो अपने कु लका नाश करता हे , वह सबसे बढ़कर पापी है। ' इन वा को सामा आ ाक अपे ा कह बलवान् समझकर यहाँ अजुन यह कह रहे ह क ' धृतरा के पु आततायी होनेपर भी जब हमारे कु टु ी ह , तब इनको मारनेम तो हम पाप ही होगा और लाभ तो कसी कार भी नह है। ऐसी अव ाम म इ मारना नह चाहता। ' अजुनने इस अ ायके अ तक इसी बातका ीकरण कया है। स – जन को मारना सब कारसे हा नकारक बतलाकर अब अजुन अपना मत कट कर रहे ह – '

त ा ाहा वयं ह ुं धातरा ा बा वान्। जनं ह कथं ह ा सु खनः ाम माधव ॥३७॥

अतएव हे माधव ! अपने ही बा व धृतरा के पु को मारनेके लये हम यो

नह ह ;

क अपने ही

कुटु को मारकर हम कैसे सुखी ह गे ? ॥३७॥

इस ोकका ा भाव है ? उ र – इस ोकम ' त ात् ' पदका योग करके अजुन यह कह रहे ह क ' मेरी जैसी त हो रही है और यु न करनेके प म मने अबतक जो कु छ कहा है तथा मेरे वचारम जो बात आ रही ह, उन सबसे यही न य होता है क दुय धना द ब ु को मारना हमारे लये सवथा अनु चत है। कु टु को मारकर हम इस लोक या परलोकम कसी तरहका भी कोई सुख मले , ऐसी जरा भी स ावना नह है। अतएव म यु नह करना चाहता। ' स – यहाँ यह हो सकता है क कु टु - नाशसे होनेवाला दोष तो दोनोके लय समान ह है; फर य द इस दोषपर वचार करके दुय धना द यु से नह हटते, तब तुम ही इतना वचार करतै हो ? अजुन दो ोक म इस का उ र देते ह – –

य ेते न प लोभोपहतचेतसः। कु ल यकृ तं दोषं म ोहे च पातकम् ॥३८॥ कथं न ेयम ा भः पापाद ा व ततुम्। कु ल यकृ तं दोषं प जनादन ॥३९॥

य प लोभसे



ए ये लोग कुलके नाशसे उ

देखते , तो भी हे जनादन ! कुलके नाशसे उ वचार करना चा हये ॥३८/३९॥

दोषको और म से वरोध करनेम पापको नह

दोषको जाननेवाले हमलोग को इस पापसे हटनेके लये

नह

इन दोन ोक का भाव ा है ? उ र – यहाँ अजुनके कथनका यह भाव है क अव ही दुय धना दका यह काय अ ही अनु चत है, परंतु उनके लये ऐसा करना कोई बड़ी बात नह है ; क लोभने उनके अ ःकरणके ववेकको न - कर दया है। इस लये न तो वे यह देख पाते है क कु लके नाशसे कै से - कै से अनथ और दु रणाम होते ह और न उ यही सूझ पड़ता है क दोन सेना म एक त ब ु - बा व और म का पर र वैर करके एक - दूसरेको मारना कतना भयंकर पाप है। –

पर हमलोग – जो उनक भाँ त लोभसे अ े नह हो रहे है और कु लनाशसे होनेवाले दोषको भलीभाँ त जानते ह – जान बूझकर घोर पापम वृ ह ? हम तो वचार करके इससे हट ही जाना चा हये। स –   कु लके नाशसे कौन - कौन - से दोष उ होते ह , इसपर अजुन कहते ह –

कु ल ये ण कु लधमाः सनातनाः। धम न े कु लं कृ मधम ऽ भभव ुत ॥४०॥

कुलके नाशसे सनातन कुलधम न हो जाते ह , धमके नाश हो जानेपर स ूण कुलम पाप भी ब त फैल जाता है ॥४०॥

सनातन कु लधम ' कन धम को कहते ह – और कु लके नाशसे उन धम का नाश कै से हो जाता है ? उ र – अपने - अपने कु लम पर रासे चली आती ई जो शुभ और े मयादाएँ ह, जनसे सदाचार सुर त रहता है और कु लके ी - पु ष म अधमका वेश नह हो सकता , उन शुभ और े कु ल - मयादाको ' सनातन कु लधम ' कहते ह। कु लके नाशसे जब इन कु लधम के जाननेवाले और उनको बनाये रखने - वाले बड़े - बूढ़े लोग का अभाव हो जाता है, तब शेष बचे ए बालक और य म ये धम ाभा वक ही नह रह सकते। – धमका नाश हो जानेपर स ूण कु लम पाप भी ब त फै ल जाता है, इस कथनका ा अ भ ाय है ? उ र – पाँच हेतु ऐसे ह , जनके कारण मनु अधमसे बचता है और धमको सुर त रखनेम समथ होता है – ई रका भय , शा का शासन , कु ल - मयादा के टूटनेका डर , रा का कानून और शारी रक तथा आ थक अ न क आशंका। इनम ई र और शा सवथा स होनेपर भी वे ापर नभर करते ह , हेतु नह ह। रा के कानून जाके लये ही धानतया होते ह ; जनके हाथ म अ धकार होता है , वे उ ाय : नह मानते। शारी रक तथा आ थक अ न क आशंका अ धकतर गत - पम आ करती है। एक कु ल - मयादा ही ऐसी व ु है, जसका स सारे कु टु के साथ रहता है। जस समाज या कु लम पर रासे चली आती ई शुभ और े मयादाएँ न हो जाती ह , वह समाज या कु ल बना लगामके मतवाले घोड़ के समान यथे ाचारी हो जाता है। यथे ाचार कसी भी नयमको सहन नह कर सकता , वह मनु को सवथा उ ृ ंखल बना देता है। जस समाजके मनु म इस कारक उ ृ ंखलता आ जाती है, उस समाज या कु लम ाभा वक ही सव पाप छा जाता है। स – इस कार जब सम कु लम पाप फै ल जाता है तब ा होता है, अजुन अब उसे बतलाते ह – –'

अधमा भभवा ृ दु कु ल यः। ीषु दु ासु वा य जायते वणसंकरः ॥४१॥

हे कृ

! पापके अ धक बढ़ जानेसे कुलक

द ू षत हो जानेपर वणसंकर उ

होता है ॥४१॥

याँ अ

द ू षत हो जाती ह और हे वा

य!

य के

इस ोकका ा ता य है ? उ र – कु लधमके नाश हो जानेसे जब कु लके ी - पु ष उ ृ ंखल हो जाते ह , तब उनक ाय : सभी याएँ अधमयु होने लगती ह , इससे पाप अ बढ़कर सारे समाजम फै ल जाता है, सव पाप छा जानेसे समाजके ी - पु ष क म कसी भी मयादाका कु छ भी मू नह रह जाता और उनका पालन करना तो दूर रहा , वे उनको जाननेक भी चे ा नह करते और कोई उ बतलाता है तो उसक द गी उड़ाते ह या उससे ेष करते ह। ऐसी अव ाम प व सती - धमका , जो समाज - धमक र ाका आधार है, अभाव हो जाता है। सती का मह खोकर प व कु लक याँ घृ णत भचार - दोषसे दू षत हो जाती ह। उनका व भ वण के परपु ष के साथ संयोग होता –

है। माता और पताके भ - भ वण के होनेसे जो स ान उ होती है वह वणसंकर होती है। इस कार सहज ही कु लक पर रागत प व ता बलकु ल न हो जाती है। स – वणसंकर स ानके उ होनेसे ा - ा हा नयाँ होती है, अजुन अब उ बतलाते ह –

संकरो नरकायैव कु ल ानां कु ल च। पत पतरो ेषां लु प ोदक याः ॥४२॥

वणसंकर कुलघा तय को और कुलको नरकम ले जानेके लये ही होता है। लु यावाले अथात्



और तपणसे वं चत इनके पतरलोग भी अधोग तको ा

ई प

और जलक

होते ह॥४२॥

कु लघाती ' कनको कहा गया है और इस ोकम ' कुल ' पदके साथ ' च ' अ यका योग करके ा सू चत कया गया है ? उ र – ' कु लघाती ' उनको कहा गया है, जो यु ा दम अपने कु लका संहार करते ह और ' कुल ' पदके साथ ' च ' अ यका योग करके यह सू चत कया गया है क वणसंकर स ान के वल उन कु लघा तय को ही नरक प ँ चानेम कारण नह बनती , वह उनके सम कु लको भी नरकम ले जानेवाली होती है। – ' लु ई प और जलक यावाले इनके पतरलोग भी अधोग तको ा हो जाते ह ' इसका ा भाव है ? उ र – ा म जो प दान कया जाता है और पतर के न म ा ण - भोजना द कराया जाता है वह ' प या ' है ओर तपणम जो जलांज ल दी जाती है वह ' उदक या ' है ; इन दोन के समाहारको ' प ोदक या ' कहते ह। इ का नाम ा - तपण है। शा और कु ल - मयादाको जानने - माननेवाले लोग ा - तपण कया करते ह। परंतु कु लघा तय के कु लम धमके न हो जानेसे जो वणसंकर उ होते ह , वे अधमसे उ और अधमा भभूत होनेसे थम तो ा - तपणा द या को जानते ही नह , कोई बतलाता भी है तो ा न रहनेसे करते नह और य द कोई करते भी ह तो शा - व धके अनुसार उनका अ धकार न होनेसे वह पतर को मलती नह । इस कार जब पतर को स ानके ारा प और जल नह मलता तब उनका पतन हो जाता है। स – वणसंकरकारक दोष से ा हा न होती है, अब उसे बतलाते ह – –'

दोषैरेतैः कु ल ानां वणसंकरकारकै ः। उ ा े जा तधमाः कु लधमा शा ताः ॥४३॥

इन वणसंकरकारक दोष से कुलघा तय के सनातन कुल - धम और जा त - धम न हो जाते ह ॥४३॥

इन वणसंकरकारक दोष से कन दोष क बात कही गयी है ? उ र – उपयु पद से उन दोष क बात कही गयी है जो वणसंकरक उ म कारण ह। वे दोष ह – ( १ ) कु लका नाश , ( २ ) कु लके नाशसे कु लधमका नाश तथा ( ३ ) पाप क वृ और ( ४ ) पाप क वृ से कु ल य का भचारा द दोष से दू षत होना। इ चार दोष से वणसंकरक उ होती है। – ' सनातन कु लधम ' और ' जा तधम ' म ा अ र है तथा उपयु दोष से इनका नाश कै से होता है –

?

उ र – वंशपर रागत सदाचारक मयादा का नाम ' सनातन कु लधम ' है। चालीसव ोकम इनके साथ ' सनातना : ' वशेषण दया गया है और यहाँ इनके साथ ' शा ता : ' वशेषणका योग कया गया है। वेद - शा ो ' वणधम ' का नाम ' जा तधम ' है। कु लक े मयादा के जानने और चलानेवाले बड़े - बूढ़ का अभाव होनेसे जब '

कु लधम ' न हो जाते ह और वणसंकरताकारक दोष बढ़ जाते ह , तब ' जा तधम ' भी न हो जाता है। क वणतरके संयोगसे उ संकर स ानम वण - धम नह रह सकता। इसी कार वणसंकरकारक दोष से इन धम का नाश होता है। स – ' कु लधम ' और जा तधम ' के नाशसे ा हा न है ; अब इसपर कहते ह –

उ कु लधमाणां मनु ाणां जनादन। नरके ऽ नयतं वासो भवती नुशु मु ॥४४॥

हे जनादन ! जनका कुलधम न

हो गया है, ऐसे मनु

का अ न त कालतक नरकम वास होता है,

ऐसा हम सुनते आये ह॥४४॥

इस ोकका ा भाव है ? उ र – यहाँ अजुन कहते है क जनके ' कु लधम ' और ' जा तधम ' न हो गये ह , उन सवथा अधमम फँ से लोग को पाप के फल प दीघकालतक कु ीपाक और रौरव आ द नरक म गरकर भाँ त - भाँ तक भीषण यम यातनाएँ सहनी पड़ती ह , ऐसा हमलोग पर रासे सुनते आये ह। अतएव कु लनाशक चे ा कभी नह करनी चा हये। स – इस कार जन - वधसे होनेवाले महान् अनथका वणन करके अब अजुन यु के उ ोग प अपने कृ पर शोक कट करते है – –

अहो बत मह ापं कतु व सता वयम्। य ा सुखलोभेन ह ुं जनमु ताः ॥४५॥

हा ! शोक ! हमलोग बु लोभसे

मान् होकर भी महान् पाप करनेको तैयार हो गये ह , जो रा

और सुखके

जन को मारनेके लये उ त हो गये ह ॥-४५॥

हमलोग महान् पाप करनेको तैयार हो गये ह , इस वा के साथ ' अहो ' और ' बत ' इन दोन अ य - पद का योग करनेका ा अ भ ाय है ? उ र – ' अहो ' अ य यहाँ आ यका ोतक है और ' बत ' पद महान् शोकका ! इन दोन का योग करके उपयु वा के ारा अजुन यह भाव दखलाते ह क हमलोग जो धमा ा और बु मान् माने जाते ह और जनके लये ऐसे पापकमम वृत होना कसी कार भी उ चत नह हो सकता , वे भी ऐसे महान् पापका न य कर चुके ह। यह अ ही आ य और शोकक बात है। – जो रा और सुखके लोभसे जन को मारनेके लये उ त हो गये ह , इस कथनका ा भाव है ? उ र – इससे अजुनने यह भाव दखाया है क हमलोग का रा और सुखके लोभसे इस कार तैयार हो जाना बड़ी भारी गलती है। स – इस कार प ाताप करनेके बाद अब अजुन अपना नणय सुनाते ह – –

य द माम तीकारमश ं श पाणयः। धातरा ा रणे ह ु े ेमतरं भवेत् ॥४६॥

य द मुझ श र हत एवं सामना न करनेवालेको श वह मारना भी मेरे लये अ धक क

ाणकारक होगा ॥४६॥

हाथम लये ए धृतरा के पु रणम मार डाल तो

इस ोकका ा भाव है ? उ र – अजुन यहाँ कह रहे है क इस कार यु क घोषणा होनेपर भी जब म श का ाग कर दूँगा और उन लोग क कसी भी याका तकार नह क ँ गा , तब स वत : वे भी यु नह करगे और इस तरह सम आ ीय –

जन क र ा हो जायगी। परंतु य द कदा चत् वे ऐसा न करके मुझे श हीन और यु से नवृ जानकर मार भी डाल तो वह मृ ु भी मेरे लये अ क ाणकारक होगी। क इससे एक तो म कु लघात प भयानक पापसे बच जाऊँ गा , दूसरे , अपने सगे - स ी और आ ीय जन क र ा हो जायगी ओर तीसरे कु लर ाज नत महान् पु - कमसे परमपदक ा भी मेरे लये आसान हो जायगी। अजुन अपने तकारर हत उपयु कारके मरणसे कु लक र ा और अपना क ाण न त मानते ह , इसी लये उ ने वैसे मरणको अ क ाणकारक ( ेमतरम् ) बतलाया है। स – भगवान् कृ ासे इतनी बात कहनेके बाद अजुनने ा कया, इस ज ासापर अजुनक त बतलाते ए संजय कहते ह –

संजय उवाच एवमु ाजुनः सङ् े रथोप उपा वशत्। वसृ सशरं चापं शोकसं व मानसः ॥४७॥

संजय बोले – रणभू मम शोकसे उ

मनवाला अजुन इस कार कहकर , बाणस हत धनुषको

ागकर

रथके पछले भागम बैठ गया॥४७॥

इस ोकम संजयके कथनका ा भाव है ? उ र – यहाँ संजय कह रहे ह क वषादम अजुनने भगवान् से इतनी बात कहकर बाणस हत गा ीव धनुषको उतारकर नीचे रख दया और रथके पछले भागम चुपचाप बैठकर वे नाना कारक च ा म डू ब गये। उनके मनम कु लनाश और उससे होनेवाले भयानक पाप और पापफल के भीषण च आने लगे। उनके मुखम लपर वषाद छा गया और ने शोकाकु ल हो गये। –

ॐत ीकृ

द त ीम गव ीतासूप नष ु व ायां योगशा े ाजुनसंवादेऽजुन वषादयोगो नाम थमोऽ ायः ॥१॥

ेक अ ायक समा पर जो उपयु पु का दी गयी है , इसम ीम गव ीताका माहा और भाव ही कट कया गया है। ' ॐ त त् ' भगवान् के प व नाम ह ( १७।२३ ), यं ीभगवान् के ारा गायी जानेके कारण इसका नाम ' ीम गवद् गीता ' है , इसम उप नषद का सारत संगृहीत है और यह यं भी उप नषद् है, इससे इसको ' उप नषद् ' कहा गया है , नगुण - नराकार परमा ाके परम त का सा ा ार करानेवाली होनेके कारण इसका नाम ' व ा ' है ओर जस कमयोगका योगके नामसे वणन आ है , उस न ामभावपूण कमयोगका त बतलानेवाली होनेसे इसका नाम ' योगशा ' है। यह सा ात परम पु ष भगवान् ीकृ और भ वर अजुनका संवाद है और इसके ेक अ ायम परमा ाको ा करानेवाले योगका वणन है , इसीसे इसके लये ' ीकृ ाजुनसंवादे ....... योगो नाम ' कहा गया

अ ायका नाम



॥ ॐ ीपरमा ने नमः ॥

तीयोऽ ायः

इस अ ायम शरणागत अजुन ारा अपने शोकक नवृ का ऐका क उपाय पूछे जानेपर पहले-पहल तीसव ोकतक आ त का वणन कया है। सां योगके साधनम आ त का वण, मनन और न द ासन ही मु है। य प इस अ ायम तीसव ोकके बाद धमका वणन करके कमयोगका प भी समझाया गया है, परतुं उपदेशका आर सां योगसे ही आ है और आ त का वणन अ अ ाय क अपे ा इसम अ धक व ारपूवक आ है इस कारण इस अ ायका नाम ' सां योग' रखा गया है। अ ायका सं ेप

इस अ ायके पहले ोकम संजयने अजुनके वषादका वणन कया है तथा दूसरे और तीसरेम भगवान् ीकृ ने अजुनके मोह और कायरतायु वशादक न ा करते ए उ यु के लये उ ा हत कया है। चौथे और पाँचवम अजुनने भी - ोण आ द पू गु जन को मारनेक अपे ा भ ा के ारा नवाह करना े बतलाया है। छठे म यु करने या न करनेके वषयम सशंय करके तथा सातवम मोह और कायरताके दोषका वणन करते ए भगवान् के शरण होकर उनसे क ाण द उपदेश करनेके लये ाथना क है और आठवम लोक के न क रा को भी शोक- नवृ म कारण न मानकर वैरा का भाव द शत कया है। उसके बाद नव और दसवम संजयने अजुनके यु न करनेके लये कहकर चुप हो रहने और उसपर भगवान् के मुसकराकर बोलनेक बात कही है। तदन र ारहवसे भगवान् ने उपदेशका आर करके बारहव और तेरहवम आ ाक न ता और न वकारताका न पण करते ए चौदहवम सम भोग को अ न बतलाकर सुख-दुःखा द को सहन करनेके लये कहा है और प हवम उस सहनशीलताको मो ा म हेतु बतलाया है। सोलहवम सत् और असत्का ल ण कहकर स हवम ' सत्' और अठारहवम ' असत्' व ुका प बतलाते ए अजुनको यु करनेक आ ा दी है। उ ीसवम आ ाको मरने या मारनेवाला समझनेवाल को अ ानी बतलाकर बीसवम ज ा द छ: वकार से र हत आ पका न पण करते ए इ सवम यह स कया है क आ त का ाता कसीको भी मारने या मरवानेवाला नह बनता। तदन र बाईसवम मनु के कपड़े बदलनेका उदाहरण देते ए शरीरा र ा का त समझाकर तेईसवसे पचीसवतक आ त को अ े , अदा , अ े और अशो तथा न , सवगत, ाणु, अचल, सनातन, अ , अ च और न वकार बतलाकर उसके लये शोक करना अनु चत स कया है। छ ीसव और स ाईसवम आ ाको ज नेमरनेवाला माननेपर भी और अ ाईसवम शरीर क अ न ताके कारण भी शोक करना अनु चत बतलाया है। उनतीसवम आ त के ा, व ा और ोताक दुलभताका तपादन करते ए तीसवम आ त सवथा अव होनेके कारण कसी भी ाणीके लये शोक करनेको

अनु चत स कया है। इकतीसवसे छ ीसव ोकतक ा धमक से यु को अजुनका धम बतलाकर उसका ाग करना सब कारसे अनु चत स करते ए सतीसवम यु को इस लोक और परलोक दोन म लाभ द बतलाकर अजुनको यु के लये तैयार होनेक आ ा दी है। अड़तीसवम सम को यु आ द कम म पापसे न ल रहनेका उपाय बतलाकर उनतालीसवम कमब नको काटनेवाली कमयोग वषयक बु का वणन करनेक ावना क है। चालीसवम कमयोगक म हमा बतलाकर इकतालीसवम न या का बु का और अ वसायी सकाम पु ष क बु य का भेद न पण करते ए बयालीसवसे चौवालीसवतक गपरायण सकाम मनु के भावका वणन कया है। पतालीसवम अजुनको न ाम, न , न स , योग ेमको न चाहनेवाला और आ संयमी होनेके लये कहकर छयालीसवम ा णके लये वेदो कमफल प सुखभोगको अ योजनीय बतलाकर सतालीसवम सू पसे कमयोगका प बतलाया है। अड़तालीसवम योगक प रभाषा सम बतलाकर उनचासवम समबु क अपे ा सकाम कम को अ तु और फल चाहनेवाल को अ दीन बतलाया है। पचासव और इ ावनवम समबु यु कमयोगीक शंसा करके अजुनको कमयोगम लग जनेक आ ा दी है और समभावका फल अनामय पदक ा बतलाया है। उसके बाद बावनव और तरपनवम भगवान् ने वैरा पूवक बु के शु , और न ल हो जानेपर परमा ाक ा बतलायी है। चौवनवम अजुनने रबु पु षके वषयम चार कये ह तथा पचपनवम पहले का, छ नव तथा स ावनवम दूसरेका तथा अ ावनवम तीसरे का सू पसे उ र देते ए भगवान् ीकृ ने पचपनवसे अ ावनवतक सम कामना का अभाव, बा साधन क अपे ा न रखकर अ रा ाम ही सदा स ु रहना, दुःख से उ न होना, सुख म ृहा न करना, राग, भय और ोधका सवथा अभाव, शुभाशुभक ा म हष-शोक और राग- ेषका न होना तथा सम इ य को वषय से हटाकर अपने वशम रखना आ द, रबु पु षके ल ण का वणन कया है। उनसठवम इ य ारा वषय का हण न करनेसे वषय क नवृ हो जानेपर भी रागक नवृ नह होती, उसक नवृ तो परमा दशनसे होती है - यह बात कहकर, साठवम इ य क बलताका न पण कया है। इकसठवम मन और इ य के संयमपूवक भगव रायण होनेके लये कहकर इ य वजयी पु ष क शंसा क है। बासठव और तरसठवम वषय च नसे पतनका म बतलाकर च सठव और पसठवम राग- ेषसे र हत होकर कम करनेवालेको सादक ा , उससे सम दुःख का नाश और शी ही उसक बु र हो जानेक बात कही है। तदन र छाछठवम अयु पु षके लये े बु , भगव न, शा और सुखका अभाव दखलाकर सड़सठवम वायु और नौकाके ा से मनके संयोगसे इ यको बु का हरण करनेवाली बतलाते ए अड़सठवम यह बात स क है क जसक इ याँ वशम ह वही वा वम रबु है। उसके बाद उनह रवम साधारण मनु के लये ान को रा के समान और त को जाननेवाले योगीके लये वषयसुखको

रा के समान बतलाकर स रवम समु के ा से ानी महापु षक म हमा क गयी है और इकह रवम सम कामना, ृहा, ममता और अहंकारसे र हत होकर वचरनेवाले पु षको परम शा क ा बतलाकर बह रव ोकम उस ा ी तका माहा वणन करते ए अ ायका उपसंहार कया है। स – पहले अ ायम गीतो उपदेशक ावनाके पम दोन सेना के महार थय और उनक शंख नका वणन करके अजुनका रथ दोन सेना के बीचम खड़ा करनेक बात कही गयी; उसके बाद दोन सेना म त जनसमुदायको देखकर शोक और मोहके कारण यु से अजुनके नवृत हो जानेक और श -अ को छोड़कर वषाद करते ए बैठ जानेक बात कहकर उस अ ायक समा क गयी। ऐसी तम भगवान् ीकृ ने अजुनसे ा बात कही और कस कार उसे यु के लये पुन: तैयार कया; यह सब बतलानेक आव कता होनेपर संजय अजुनक तका वणन करते ए दूसरे अ ायका आर करते ह – स य उवाच । तं तथा कृ पया व म ुपूणाकु ले णम् । वषीद मदं वा मुवाच मधुसूदनः ॥१॥ संजय बोले – उस कार क णासे ा और आँ सु से पूण तथा ने वाले शोकयु उस अजुनके त भगवान् मधुसूदनने यह वचन कहा ॥१॥ तम् ' पद यहाँ कसका वाचक है एवं उसके अ ुपूणाकुले णम् ' और ' वषीद म् '- इन तीन वशेषण के

ाकुल

साथ ' तथा कृपया व म् ', ' योगका ा भाव है? उ र – पहले अ ायके अ म जनके शोकम होकर बैठ जानेक बात कही गयी है, उन अजुनका वाचक यहाँ ' तम् ' पद है और उसके साथ उपयु वशेषण का योग करके उनक तका वणन कया गया है। अ भ ाय यह है क पहले अ ायम जसका व ारपूवक वणन हो चुका है, उस ब ु- ेहज नत क णायु कायरताके भावसे जो ा ह, जनके ने आँ सु से पूण और ाकु ल ह तथा जो ब ु - बा व के नाशक आशंकासे एवं उ मारनेम भयानक पाप होनेके भयसे शोकम नम हो रहे ह, ऐसे अजुनसे भगवान् बोले। – यहाँ ' मधुसूदन' नामके योगका और ' वा म् ' के साथ ' इदम् ' पदके योगका ा भाव है? उ र – भगवान् के ' मधुसूदन' नामका योग करके तथा ' वा म् ' के साथ ' इदम् ' वशेषण देकर संजयने धृतरा को चेतावनी दी है। अ भ ाय यह है क भगवान् ीकृ ने पहले देवता पर अ ाचार करनेवाले ' मधु' नामक दै को मारा था, इस कारण इनका नाम ' मधुसूदन' पड़ा; वे ही भगवान् यु से मुँह मोड़े ए अजुनको ऐसे (आगे कहे जानेवाले) वचन ारा यु के लये उ ा हत कर रहे ह। ऐसी अव ाम आपके पु क जीत कै से होगी, –'

क आपके पु भी अ ाचारी ह और अ ाचा रय का वनाश करना भगवान्का काम है; अतएव अपने पु को समझाकर अब भी आप [1] स कर ल, तो इनका संहार क जाय। ीभगवानुवाच । कु त ा क ल मदं वषमे समुप तम् । अनायजु म मक तकरमजुन ॥२॥ ीभगवान् बोले – हे अजुन! तुझे इस असमयम यह मोह कस हेतुसे ा आ? क न तो यह े पु ष ारा आच रत है, न गको देनेवाला है और न क तको करनेवाला ही है॥२॥

वशेषणके स हत ' क लम् ' पद कसका वाचक है? तथा ' तुझे इस असमयम यह मोह कस हेतुसे ा आ' इस वा का ा अ भ ाय है? उ र – ' इदम् ' वशेषणके स हत ' क लम् ' पद यहाँ अजुनके मोहज नत शोक और कातरताका वाचक है तथा उपयु वा से भगवान्ने अजुनको डाँटते ए उनसे आ यके साथ यह पूछा है क इस वषम लम अथात् कायरता और वषादके लये सवथा अनुपयु रण लीम और ठीक यु ार के अवसरपर, बड़े-बड़े महार थय को सहज ही परा जत कर देनेवाले तुम-सरीखे शूरवीरम, जसक जरा भी स ावना न थी, ऐसा यह मोह (कातरभाव) कहाँसे आ गया? – उपयु ' मोह ' ( कातरभाव) - को ' अनायजु ', ' अ ' और ' अक तकर ' कहनेका ा भाव है? उ र – इससे भगवान्ने अपने उपयु आ यको सहेतुक बतलाया है। अ भ ाय यह है क तुम जस भावसे ा हो रहे हो, यह भाव न तो े पु ष ारा से वत है, न ग देनेवाला है और न क त ही फै लानेवाला है। इससे न तो मो क स हो सकती है, न धम तथा अथ और भोग क ही। ऐसी अव ाम बु मान् होते ए भी तुमने इस मोहको (कातरभावको) कै से ीकार कर लया? ै ं मा गमः पाथ नैत ुपप ते । ो पर प ॥३॥ ु ं दयदौब ं –'

इदम् '

इस लये हे अजुन! नपुंसकताको मत ा हो , तुझम यह उ चत नह जान पड़ती। हे पर प! दयक तु दब ु लताको ागकर यु के लये खड़ा हो जा ॥३॥ – ' पाथ ' स ोधनके स हत नपुंसकताको मत ा हो और तुझम यह उ चत नह जान पड़ती -इन दोन वा का ा भाव है?

उ र – कु ीका दूसरा नाम पृथा था। कु ी वीरमाता थी। जब भगवान् ीकृ दूत बनकर कौरव-पा व क स करानेके लये ह नापुर गये और अपनी बुआ कु ीसे मले, उस समय कु ीने ीकृ के ारा अजुनको वीरतापूण स ेश भेजा था, उसम वदुला और ँ

उनके पु संजयका उदाहरण देकर अजुनको यु के लये उ ा हत कया था। अत: यहाँ भगवान् ीकृ ने अजुनको ' पाथ ' नामसे स ो धत करके माता कु ीके उस यो चत स शे क ृ त दलाते ए उपयु दोन वा ारा यह सू चत कया है क तुम वीर जननीके वीर पु हो, तु ारे अंदर इस कारक कायरताका संचार सवथा अनु चत है। कहाँ महान्-से-महान् महार थय के दय को कँ पा देनेवाला तु ारा अतुल शौय? और कह तु ारी यह दीन त? - जसम शरीरके र गटे खडे ह, बदन काँप रहा है, गा ीव गरा जा रहा है और च वषादम होकर मत हो रहा है। ऐसी कायरता और भी ता तु ारे यो कदा प नह है। – यहाँ ' पर प ' स ोधनका ा भाव है? उ र – जो अपने श ु को ताप प ँ चाने-वाला हो उसे ' पर प ' कहते ह। अत: यहाँ अजुनको ' पर प ' नामसे स ो धत करनेका यह भाव है क तुम श ु को ताप प ँ चानेवाले स हो। नवातकवचा द असीम श शाली दानव को अनायास ही परा जत कर देनेवाले होकर आज अपने य भावके वपरीत इस कापु षो चत कायरताको ीकार कर उलटे श ु को स कै से कर रहे हो? – ' ु म् ' वशेषणके स हत ' दयदौब म् ' पद कस भावका वाचक है? और उसे ागकर यु के लये खड़ा होनेके लये कहनेका ा भाव है? उ र – इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क तु ारे जैसे वीर पु षके अ ःकरणम रणभी कायर ा णय के दयम रहनेवाली, शूरजन के ारा सवथा ा , इस तु दुबलताका ादुभाव कसी कार भी उ चत नह है। अतएव तुरंत इसका ाग करके तुम यु के लये डटकर खड़े हो जाओ। स – भगवान् के इस कार कहनेपर गु जन के साथ कये जानेवाले यु को अनु चत स करते ए दो ोक म अजुन अपना न य कट करते ह – अजुन उवाच । कथं भी महं सङ् े ोणं च मधुसूदन । इषु भः तयो ा म पूजाहाव रसूदन ॥ २-४॥ अजुन बोले – हे मधुसूदन! म रणभू मम कस कार बाण से भी पतामह और ोणाचायके व लडँ गा? क हे अ रसूदन! वे दोन ही पूजनीय ह॥४॥ – इस ोकम ' अ रसूदन ' और ' मधुसूदन ' इन दो स ोधन के स हत ' कथम् ' पदके योगका ा भाव है ? उ र – मधु नामके दै को मारनेके कारण भगवान् ीकृ को मधुसूदन कहते ह और वै रय का नाश करनेके कारण वे अ रसूदन कहलाते ह। इन दोन नाम से स ो धत करते ए इस ोकम ' कथम् ' पदका योग करके अजुनने आ यका भाव कट कया है। अ भ ाय

यह है क आप मुझे जन भी और ोणा दके साथ यु करनेके लये ो ाहन दे रहे ह वे न तो दै ह और न श ु ही ह, वरं वे तो मेरे पूजनीय गु जन ह; फर अपने ाभा वक गुण के व आप मुझे गु जन के साथ यु करनेके लये कै से कह रहे ह। यह घोर पापकम म कै से कर सकूँ गा? – ' इषु भः ' पदका ा भाव है? उ र – ' इषु ' कहते ह बाणको। यहाँ ' इषु भः ' पदका योग करके अजुनने यह भाव दखलाया है क जन गु जन के त वाणीसे हलके वचन का योग भी महान् पातक बतलाया गया है, उनपर ती ण बाण का हार करके म उनसे लड़ कै से सकूँ गा। आप मुझे इस घोर पापाचारम वृ कर रहे है ? गु नह ा ह महानुभावान् ेयो भो ुं भै मपीह लोके । ह ाथकामां ु गु नहैव भु ीय भोगान् धर द ान् ॥५॥ इस लये इन महानुभाव गु जन को न मारकर म इस लोकम भ ाका अ भी खाना क ाणकारक समझता ँ । क गु जन को मारकर भी इस लोकम धरसे सने ए अथ और काम प भोग को ही तो भोगूँगा ॥५॥ – ' महानुभावान् ' वशेषणके स हत ' गु न् ' पद यहाँ कनका वाचक है?

उ र – दुय धनक सेनाम जो ोणाचाय, कृ पाचाय आ द अजुनके आचाय तथा बा ीक, भी , सोमद , भू र वा और श आ द गु जन थे, जनका भाव ब त ही उदार और महान् था, उन े पू पु ष का वाचक ' महानुभावान् ' वशेषणस हत ' गु न् ' पद है। – यहाँ ' भै म् ' के साथ ' अ प ' पदका योग करके ा भाव दखलाया गया है? उ र – इसका यह भाव है क य प य के लये भ ाके अ से शरीर- नवाह करना न है, तथा प गु जन का संहार करके रा भोगनेक अपे ा तो वह न कम भी कह अ ा है। – ' भोगान् ' के साथ ' धर द ान् ' और ' अथकामान् ' वशेषण देनेका तथा ' एव ' अ यके योगका ा अ भ ाय है? उ र – इससे अजुनने यह भाव दखलाया है क जन गु जन को मारना सवथा अनु चत है, उनको मारकर भी मलेगा ा? न तो मु ही होगी और न धमक स ही; के वल इसी लोकम अथ और काम प तु भोग ही तो मलगे, जनका मू इन गु जन के जीवनके सामने कु छ भी नह है और वे भी गु जन क ह ाके फल प होनेके कारण एक कारसे उनके र से सने ए ही ह गे, अतएव ऐसे भोग को ा करनेके लये गु जन का वध करना कदा प उ चत नह है। – ' अथकामान् ' पदक य द ' गु न् ' का वशेषण मान लया जाय तो ा हा न है?

उ र – य द ' गु न् ' के साथ ' महानुभावान् ' वशेषण न होता तो ऐसा भी माना जा सकता था; कतु एक ही ोकम जन गु जन को अजुन पहले ' महानुभाव ' कहते ह, उ को पीछेसे ' अथकामान् ' धनके लोभी बतलाव, ऐसी क ना उ चत नह मालूम होती। दोन वशेषण पर र व जान पड़ते ह, इसी लये ' अथकामान् ' पदको ' गु न् ' का वशेषण नह माना गया है। स – इस कार अपना न य कट कर देनेपर भी जब अजुनको स ोष नह आ और अपने न यम शंका उ हो गयी, तब वे फर कहने लगे – न चैत ः कतर ो गरीयो य ा जयेम य द वा नो जयेयुः । यानेव ह ा न जजी वषाम ेऽव ताः मुखे धातरा ाः ॥६॥ हम यह भी नह जानते क हमारे लये यु करना और न करना – इन दोन मसे कौन-सा े है, अथवा यह भी नह जानते क उ हम जीतगे या हमको वे जीतगे। और जनको मारकर हम जीना भी नह चाहते , वे ही हमारे आ ीय धृतरा के पु हमारे मुकाबलेम खड़े ह॥६॥

हमारे लये यु करना या न करना इनम कौन-सा े है? यह हम नह जानते' इस वा का ा भाव है? उ र – इससे अजुनने यह भाव दखलाया है क हमारे लये ा करना े है – यु करना या यु का ाग करना – इस बातका भी हम नणय नह कर सकते; क यु करना तो यका धम माना गया है और उसके फल- प होनेवाले कु लनाशको महान् दोष भी बतलाया गया है। – ' हम जीतगे या हमको वे जीतगे' इस वा का ा भाव है? उ र – इस वा से अजुनने यह भाव दखलाया है क य द एक प म हम यही मान ल क यु करना ही े है, तो फर इस बातका भी पता नह क जीत हमारी होगी या उनक ? – ' जनको मारकर हम जीना भी नह चाहते, वे ही हमारे आ ीय धृतरा के पु मुकाबलेम खड़े ह' इस वा का ा भाव है? उ र – इस वा से अजुनने यह भाव दखलाया है क य द हम यह भी मान ल क जीत हमारी ही होगी, तो भी यु करना े नह मालूम होता; क जनको मारकर हम जीना भी नह चाहते, वे ही दुय धना द हमारे भाई मरनेके लये हमारे सामने खड़े ह। अतएव य द हमारी जीत भी ई तो इनको मारकर ही होगी, इससे हम यह नणय न कर सके ह क हमारे लये ा करना उ चत है ? स – इस कार कत का नणय करनेम अपनी असमथता कट करनेके बाद अब अजुन भगवान् क शरण हण करके अपना न त कत बतलानेके लये उनसे –'

ाथना करते ह –

काप दोषोपहत भावः पृ ा म ां धमस ढू चेताः । य ेयः ा तं ू ह त े श ेऽहं शा ध मां ां प म् ॥७॥

इस लये कायरता प दोषसे उपहत ए भाववाला तथा धमके वषयम मो हत च आ म आपसे पूछता ँ क जो साधन न त क ाणकारक हो , वह मेरे लये क हये ; क म आपका श ँ , इस लये आपके शरण ए मुझको श ा दी जये ॥ ७ ॥

काप दोष' ा है और अजुनने जो अपनेको उससे ' उपहत भाव' कहा है इसका ा ता य है? उ र – ' कृ पण ' श व भ अथ म व त होता है – १. जसके पास पया धन है, परंतु जसक धनम इतनी बल आस और लोभ है क जो दान और भोगा दके ायसंगत और उपयु अवसर पर भी एक पैसा खच नह करना चाहता, उस कं जूसको कृ पण कहते ह। २. मनु -जीवनका शा स त और संतजनानुमो दत धान ल है ' भगवान्के त को जानकर उ ा कर लेना' ; जो मनु इस ल को भुलाकर वषय-भोग म ही अपना जीवन खो देता है, उस ' मूख' को भी कृ पण कहते ह। ु त कहती है – –'

यो वा एतद रं गा व द ा ा गा ग! इस अ वनाशी परमा ाको

ोका ैती स कृपण:। ( ह० उ० ३।८।१०)

हे बना जाने ही जो भी कोई इस लोकसे मरकर जाता है, वह कृ पण है।' भगवान् ने भी भोगै यम आस फलक वासनावाले मनु को ' कृ पण' कहा है ' कृपणा: फलहेतवः '- ( २। ४९)। ३. सामा त: दीन भावका वाचक भी ' कृ पण' श है। यहाँ अजुनम जो ' काप ' है, वह न तो लोभज नत कं जूसी है और न भोगास प कृ पणता ही है; क अजुन भावसे ही अ उदार, दानी एवं इ य वजयी पु ष ह। यहाँ भी वे श म कहते ह क ' मुझे अपने लये वजय, रा या सुखक आकां ा नह है; जनके लये ये व ुएँ अपे त ह, वे सब आ ीयजन तो यहाँ मरनेके लये खड़े ह। इस पृ ीक तो बात ही ा है, म तीन लोक के रा के लये भी दुय धना दको नह मारना चाहता (१।३२-३५)। सम भूम लका न क रा और देवता का आ धप भी मुझे शोकर हत नह कर सकते (२।८)।' जो इतना ाग करनेको तैयार है वह कं जूस या भोगास नह हो सकता। दूसरे, यहाँ ऐसा अथ मानना इस करणके भी सवथा व है। यहाँ अजुनका यह काप एक कारका दै ही है जो क णायु कायरता और शोकके पम कट हो रहा है। संजयने थम ोकम अजुनके लये ' कृपया व म् ' पदका योग करके इस क णाज नत कायरताका ही नदश कया है। तीसरे ोकम यं '



ीभगवान्ने भी ' ै म् ' पदका योग करके इसीक पु क है। अतएव यही तीत होता है क अजुनका यह काप ब ुनाशक आशंकासे उ क णायु कायरता ही है। अजुन आदश य ह, ाभा वक ही शूरवीर ह; उनके लये कायरता दोष ही है, चाहे वह कसी भी कारणसे उ हो। इसीसे अजुन इसे ' काप -दोष' कहते ह। इस काप दोषसे अजुनका अतुलनीय शौय, वीय, धैय, चातुय, साहस और परा मा दसे स य भाव न -सा हो गया है; इसीसे उनके अंग श थल हो रहे ह, मुख सूख रहा है, अंग काँप रहे ह, शरीरम जलन-सी हो रही है और मन मत-सा हो रहा है। क णायु कायरताके आवेशसे अजुन अपनेम इन भाव व ल ण को देखकर कहते ह क ' म काप दोषसे उपहत भाव हो गया ँ ।' – अजुनने अपनेको ' धमस ूढचेता: ' कहा? उ र – धम-अधम या कत -अकत का यथाथ नणय करनेम जसका अ ःकरण सवथा असमथ हो गया हो, उसे ' धमस ूढचेता: ' कहते ह। अजुनका च इस समय भयानक धमसंकटम पड़ा है; वे एक ओर जापालन, ा धम, संर ण आ दक से यु को धम समझकर उसम लगना उ चत समझते ह और दूसरी ओर उनके च क वतमान काप वृ त यु के नाना कारके भयानक प रणाम दखाकर उ भ ावृ , सं ास और वनवासक ओर वृत करना चाहती है। च इतना क णा व है क वह बु को कसी नणयपर प ँ चने ही नह देता, इसीसे अपनेको ककत वमूढ पाकर अजुन ऐसा कहते ह। – ' न तं ेय: ' से ा ता य है? उ र – कौरव क भी - ोण-कणा द व व ात अजेय शूरवीर से संर त अपनी सेनासे कह बड़ी सेनाको देखकर अजुन डर गये ह और यु म अपने वजयक स ावनासे सवथा नराश होकर अपना क ाण यु करनेम है या न करनेम, इस उ े से ' ेय: ' श का योग करके जय-पराजयके स म ीभगवान्से एक न त नणय पूछते ह , ऐसी बात यहाँ नह है। यहाँ तो उनके च म ब -ु ेह जाग उठा है और ब ुनाशज नत एक ब त बड़े पापक स ावना हो गयी है, जसे वे अपने परम क ाणम महान् तब क समझते ह और दूसरी ओर मनम यह भावना भी आ रही है क यधम-स त यु का जो म ाग कर रहा ँ , कह यही अधम हो और मेरे परम क ाणम बाधक हो जाय, ऐसी बात तो नह है। इसीसे वे ' न त ेय' क बात पूछते ह। उनका यह ' न त ेय' जय-पराजयसे स नह रखता, इसका ल भगव ा प परम क ाण है। अजुन यह कहते ह क भगवन्! म कत का नणय करनेम असमथ ँ । आप ही न त पसे बतलाइये – मेरे परम क ाणका साधन कौन-सा है ? – म आपका श ँ , मुझ शरणागतको आप श ा दी जये – इस कथनका ा भाव है? उ र – अजुन भगवान् ीकृ के य सखा थे। आ ा क त क बात दूसरी हो सकती है, परंतु वहारम अजुनके साथ भगवान्का ाय: सभी ल म बराबरीका ही स

था। खाने, पीने, सोने और जाने-आनेम सभी जगह भगवान् उनके साथ समान बताव करते थे और भगवान्के े के त मनम ा और स ान होनेपर भी अजुन उनके साथ बराबरीका ही वहार करते थे। आज अजुनको अपनी ऐसी शोचनीय दशा देखकर यह अनुभव आ क म व ुत: इनसे बराबरी करनेयो नह ँ । बराबरीम सलाह मलती है, उपदेश नह मलता; ेरणा होती है, बलपूवक अनुशासन नह होता। मेरा काम आज सलाह और ेरणासे नह चलता। मुझे तो गु क आव कता है जो उपदेश करे और बलपूवक अनुशासन करके ेयके मागपर लगा दे तथा मेरे शोक-मोहको सवथा न करके मुझे परम क ाणक ा करवा दे और ीकृ से बढ़कर गु मुझे कौन मल सकता है। परंतु गु क उपदेशामृतधारा तभी बरसती है, जब श पी े उसे हण करनेके लये ुत होता है। इसी लये अजुन कहते ह – ' भगवन्! म आपका श ँ ।' श के कई कार होते ह। जो श उपदेश तो गु से हण करते ह परंतु अपने पु षाथका अहंकार रखते ह; या अपने सदगु् को छोड़कर दूसर पर भरोसा रखते ह, वे गु कृ पाका यथाथ लाभ नह उठा सकते। अजुन इसी लये श के साथ ही अपनेम अन शरण क भावना करके कहते ह क भगवन्! म के वल श ही नह ँ आपके शरण भी ँ । ' प ' श का भावाथ है – भगवान् को अ समथ और परम े समझकर उनके त अपनेको समपण कर देना। इसीका नाम ' शरणाग त', ' आ न ेप' या ' आ समपण' है। भगवान् सवश मान्, सव , सवा यामी, अन गुण के अपार समु , सवा धप त, ऐ य, माधुय, धम, शौय, ान, वैरा आ दके अन आकर, ेश, कम, संशय और मा दका सवथा नाश करनेवाले, परम ेमी, परम सुहद,् परम आ ीय, परम गु और परम महे र ह – ऐसा व ास करके अपनेको सवथा नरा य, नरवल , नबु , नबल और नःस मानकर उ के आ य, अवल , ान, श , स और अतुलनीय शरणागत-व लताका ढ़ और अन भरोसा करके अपनेको सब कारसे सदाके लये उ के चरण पर ोछावर कर देना और न नमेष ने से उनके मनोनयना भराम मुखच क ओर नहारते रहनेक तथा जड कठपुतलीक भाँ त न - नर र उनके संकेतपर नाचते रहनेक एकमा लालसासे उनका अन - च न करना ही भगवान्के प होना है। अजुन चाहते ह क म इसी कार भगवान्के शरण हो जाऊँ और इसी भावनासे भा वत होकर वे कहते ह – ' भगवन्! म आपका श ँ और आपके शरण ँ , आप मुझे श ा दी जये।' ' ते ' और ' ाम् ' पद का योग करके अजुन यही कह रहे ह। अजुनक यह शरणाग तक सव म और स ी भावना जब अठारहव अ ायके पसठव और छाछठव ोक म भगवान् के सवग तम उपदेशके भावसे स ी शरणाग तके पम प रणत हो जायगी और अजुन जब अपनेको उनके कथनानुसार चलनेके लये तैयार कर सकगे, तभी गीताका उपदेश समा हो जायगा। व ुत: इसी ोकसे गीताक साधनाका आर होता है, यही उपदेशके उप मका बीज है और ' सवधमान् प र ' ोकम ही इस साधनाक स है, वही उपसंहार है।

इस कार श ा देनेके लये भगवान् से ाथना करके अब अजुन उस ाथनाका हेतु बतलाते ए अपने वचार को कट करते है – न ह प ा म ममापनु ा ोकमु ोषण म याणाम् । अवा भूमावसप मृ ं रा ं सुराणाम प चा धप म् ॥८॥ स



क भू मम न क , धन-धा स रा को और देवता के ामीपनेको ा होकर भी म उस उपायको नह देखता ँ , जो मेरी इ य के सुखानेवाले शोकको दरू कर सक॥ ८॥

इस ोकम अजुनके कथनका ा भाव है? उ र – पूव ोकम अजुनने भगवान्से श ा देनेके लये ाथना क है, इस लये यहाँ यह भाव कट करते ह क आपने पहले मुझे यु करनेके लये कहा है; कतु उस यु का अ धक-से-अ धक फल वजय ा होनेपर इस लोकम पृ ीका न क रा पा लेना है और वचार करनेपर यह बात मालूमहोती है क इस पृ ीके रा क तो बात ही ा, य द मुझे देवता का आ धप भी मल जाय तो वह भी मेरे इस इ य को सुखा देनेवाले शोकको दूर करनेम समथ नह है। अतएव मुझे कोई ऐसा न त उपाय बतलाइये जो मेरी इ य को सुखानेवाले शोकको दूर करके मुझे सदाके लये सुखी बना दे। स – इसके बाद अजुनने ा कया, यह बतलाया जाता है – स य उवाच । एवमु ा षीके शं गुडाके शः पर प । न यो इ त गो व मु ा तू बभूव ह ॥९॥ –

संजय बोले – हे राजन्! न ाको जीतनेवाले अजुन अ यामी ीकृ त इस कार कहकर फर ीगो व भगवान्से ' यु नह क ँ गा ' यह चुप हो गये ॥ १॥

महाराजके कहकर

इस ोकका ा अ भ ाय है? उ र – इस ोकम संजयने धृतरा से यह कहा है क उपयु कारसे भगवान्के शरण होकर श ा देनेके लये उनसे ाथना करके और अपने वचार कट करके अजुन यह कहकर क ' म यु नह क ँ गा' चुप हो गये। – ' गो व ' श का ा अथ है? उ र – ' गो भवदवा ै व ते ल ते इ त गो व :' इस ु के अनुसार वेदवाणीके ारा भगवान्के पक उपल होती है, इस लये उनका नाम ' गो व ' है। गीताम भी कहा है – ' वेदै सवरहमेव वे :' ( १५।१५) – ' स ूण वेद के ारा जाननेयो म ही ँ ।' स – इस कार अजुनके चुप हो जानेपर भगवान् ीकृ ने ा कया, इस ज ासापर संजय कहते ह – तमुवाच षीके शः हस व भारत । –

सेनयो भयोम े वषीद मदं वचः ॥१०॥

हे भरतवंशी धृतरा ! अ यामी ीकृ महाराज दोन सेना के बीचम शोक करते ए उस अजुनको हँ सते ए-से यह वचन बोले ॥ १० ॥ – ' उभयो: सेनयो: म े वषीद म् ' वशेषणके स हत ' तम् ' पदके योगका

ा भाव है? उ र – इससे संजयने यह भाव दखलाया है क जन अजुनने पहले बड़े साहसके साथ अपने रथको दोन सेना के बीचम खड़ा करनेके लये भगवान्से कहा था, वे ही अब दोन सेना म त जनसमुदायको देखते ही मोहके कारण ाकु ल हो रहे ह; उ अजुनसे भगवान् कहने लगे। – ' हँ सते ए-से यह वचन बोले' इस वा का ा भाव है? उ र – इस वा से संजय इस बातका द शन कराते ह क भगवान्ने ा कहा और कस भावसे कहा। अ भ ाय यह है क अजुन उपयु कारसे शूरवीरता कट करनेक जगह उलटा वषाद कर रहे ह तथा मेरे शरण होकर श ा देनेके लये ाथना करके मेरा नणय सुननेके पहले ही यु न करनेक घोषणा भी कर देते ह – यह इनक कै सी गलती है!' इस भावसे मन-ही-मन हँ सते ए भगवान् ( जनका वणन आगे कया जाता है, वे वचन) बोले। स – उपयु कारसे च ाम अजुनने जब भगवान् के शरण होकर अपने महान् शोकक नवृ का उपाय पूछा और यह कहा क इस लोक और परलोकका रा सुख इस लोकक नवृ का उपाय नह है, तब अजुनको अ धकारी समझकर उसके शोक और मोहको सदाके लये न करनेके उ े से भगवान् पहले न और अ न व ुके ववेचनपूवक सां योगक से भी यु करना कत है, ऐसा तपादन करते ए सां न ाका वणन करते ह – ीभगवानुवाच । अशो ान शोच ं ावादां भाषसे । गतासूनगतासूं नानुशोच प ताः ॥११॥ ीभगवान् बोले – हे अजुन! तू न शोक करनेयो मनु के लये शोक करता है और प त के-से वचन को कहता है ; परंतु जनके ाण चले गये ह, उनके लये और जनके ाण नह गये ह , उनके लये भी प तजन शोक नह करते ॥११॥ – अजुनके कौन-से वचन को ल करके भगवान्ने यह बात कही है क जनका

शोक नह करना चा हये, उनके लये तुम शोक कर रहे हो? उ र – दोन सेना म अपने चाचा, ताऊ, बस्-बा व और आचाय आ दको देखते ही उनके नाशक आशंकासे वषाद करते ए अजुनने जो थम अ ायके अ ाईसव, उनतीसव और तीसव ोक म अपनी तका वणन कया है, पतालीसव ोकम यु के लये तैयार होनेक यापर शोक कट कया है और सतालीसव ोकम जो संजयने उनक तका ँ

वणन कया है, उनको ल करके यहाँ भगवान्ने यह बात कही है क ' जनके लये शोक नह करना चा हये, उनके लये तुम शोक कर रहे हो।' यह से भगवान्के उपदेशका उप म होता है, जसका उपसंहार १८।६६ म आ है। – अजुनके कौन-से वचन को ल करके भगवान्ने यह कहा है क तुम प त सरीखी बात कर रहे हो? उ र – पहले अ ायम इकतीसवसे चौवालीसव और दूसरे अ ायम चौथेसे छठे ोकतक अजुनने कु लके नाशसे उ होनेवाले महान् पापका वणन करते ए अहंकारपूवक दुय धना दक नीचता और अपनी धम ताक बात कहकर अनेक कारक यु य से यु का अनौ च स कया है; उ सब वचन को ल करके भगवान्ने यह कहा है क तम प त -सरीखी बात कह रहे हो। – ' गतासून् ' और ' अगतासून् ' कनका वाचक है तथा ' उनके लये प तजन शोक नह करते' इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – जनके ाण चले गये ह , उनको ' गतासु' और जनके ाण न गये ह , उनको ' अगतासु' कहते ह। ' उनके लये प तजन शोक नह करते' इस कथनसे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क जस कार तुम, अपने पता और पतामह आ द मरकर परलोकम गये ए पतर के लये च ा कर रहे हो क यु के प रणामम हमारे कु लका नाश हो जानेपर वणसंकरता फै ल जानेसे हमारे पतरलोग नरकम गर जायँगे इ ा द। तथा सामने खड़े ए ब ु-बा व के लये भी च ा कर रहे हो क इन सबके बना हम रा और भोग को लेकर ही ा करगे। कु लका संहार हो जानेसे याँ हो जायँगी इ ा द। इस कारक च ा प त लोग नह करते। क प त क म एक स दान घन ही न और सत् व ु है, उससे भ कोई व ु ही नह है, वही सबका आ ा है, उसका कभी कसी कार भी नाश नह हो सकता और शरीर अ न है, वह रह नह सकता तथा आ ा शरीरका संयोगवयोग ावहा रक से अ नवाय होते ए भी वा वम क भाँ त क त है; फर वे कसके लये शोक कर और कर। कतु तुम शोक कर रहे हो, इस लये जान पड़ता है तुम प त नह हो, के वल प त क -सी बात ही कर रहे हो। स – पूव ोकम भगवान् ने अजुनसे यह बात कही क जन भी ा द जन के लये शोक करना उ चत नह है, उनके लये तुम शोक कर रहै हो। इसपर यह जाननेक इ ा होती है क उनके लये शोक करना कस कारणसे उ चत नह ह। अत: पहले भगवान् आ ाक न ताका तपादन करके आ से उनके लये शोक करना अनु चत स करते ह – न ेवाहं जातु नासं न ं नेमे जना धपाः । न चैव न भ व ामः सव वयमतः परम् ॥१२॥ न तो ऐसा ही है क म कसी कालम नह था या तू नह था अथवा ये राजालोग नह थे और न ऐसा ही है क इससे आगे हम सब नह रहगे ॥ १२॥

इस ोकम भगवान्के कथनका ा अ भ ाय है ? उ र – इसम भगवान्ने आ पसे सबक न ता स करके यह भाव दखलाया है क तुम जनके नाशक आशंका कर रहे हो, उन सबका या तु ारा-हमारा कभी कसी भी कालम अभाव नह है। वतमान शरीर क उ के पहले भी हम सब थे और पीछे भी रहगे। शरीर के नाशसे आ ाका नाश नह होता; अतएव नाशक आशंकासे इन सबके लये शोक करना उ चत नह है। स   – इस कार आ ाक न ताका तपादन करके अब उसक न वकारताका तपादन करते ए आ ाके लये शोक करना अनु चत स करते ह – दे हनोऽ था देहे कौमारं यौवनं जरा । तथा देहा र ा ध र न मु त ॥१३॥ –



जैसे जीवा ाक इस देहम बालकपन , जवानी और वृ ाव ा होती है, वैसे ही शरीरक ा होती है ; उस वषयम धीर पु ष मो हत नह होता ॥ १३ ॥

इस ोकम भगवान्के कथनका ा अ भ ाय हे? उ र – इसम आ ाको वकारी मानकर एक शरीरसे दूसरे शरीरम जाते-आते समय उसे क होनेक आशंकासे जो अ ानीजन शोक कया करते ह, उसको भगवान्ने अनु चत बतलाया है। वे कहते ह क जस कार बालकपन, जवानी और जरा अव ाएँ वा वम आ ाक नही होत , ूल शरीरक होती ह और आ ाम उनका आरोप कया जाता है, उसी कार एक शरीरसे दूसरे शरीरम जाना-आना भी वा वम आ ाका नह होता, सू शरीरका ही होता है और उसका आरोप आ ाम कया जाता है। अतएव इस त को न जाननेवाले अ ानीजन ही देहा रक ा म शोक करते ह, धीर पु ष नह करते; क उनक म आ ाका शरीरसे कोई स नह है। इस लये तु ारा शोक करना उ चत नह है। स – पूव ोक म भगवान् ने आ ाक न ता और न वकारता तपादन करके उसके लये शोक करना अनु चत स कया; उसे सुनकर यह ज ासा होती है क आ ा न और न वकार हो तो भी ब -ु बा वा दके साथ होनेवाले संयोग- वयोगा दसे सुख-दुःखा दका अनुभव होता है, अतएव शोक ए बना कै से रह सकता है ? इसपर भगवान् सब कारके संयोग- वयोगा दको अ न बतलाकर उनको सहन करनेक आ ा देते ह– मा ा शा ु कौ ेय शीतो सुखदुःखदाः । आगमापा यनोऽ न ा ां त भारत ॥१४॥ –

हे कु ीपु ! सद -गम और सुख-दःु खको देनेवाले इ य और वषय के संयोग तो उ , वनाशशील और अ न ह ; इस लये हे भारत! उनको तू सहन कर ॥ १४ ॥ – ' मा ा शा: ' पद यहाँ कनका वाचक है?

उ र – जनके ारा कसी व ुका माप कया जाय – उसके पका ान ा कया जाय, उसे ' मा ा' कहते ह; अत: ' मा ा' से यहाँ अ ःकरणस हत सभी इ य का ल है और श कहते ह स या संयोगको। अ ःकरण स हत इ य का श , श, प, रस, ग आ द उनके वषय के साथ जो स है उसीको यहाँ ' मा ा शा: ' पदसे कया गया है। – उन सबको ' शीतो सुखदःु खदा: ' कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – शीत-उ और सुख-दुःख श यहाँ सभी के उपल ण ह। अत: वषय और इ य के स को ' शीतो सुखदुःखदा:' कहकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क वे सम वषय ही इ य के साथ संयोग होनेपर शीत-उ , राग- ेष, हष-शोक, सुख-दुःख, अनुकूलता- तकू लता आ द सम को उ करनेवाले ह। उनम न -बु होनेसे ही नाना कारके वकार क उ होती है, अतएव उनको अ न समझकर उनके संगसे तु कसी कार भी वकारयु नह होना चा हये। – इ य के साथ वषय के संयोग को उ , वनाशशील और अ न कहकर अजुनको उ सहन करनेक आ ा देनेका ा अ भ ाय है? उ र – ऐसी आ ा देकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क सुख-दुःख देनेवाले जो इ य के वषय के साथ संयोग ह वे णभंगुर और अ न ह, इस लये उनम वा वक सुखका लेश भी नह है। अत: तुम उनको सहन करो अथात् उनको अ न समझकर उनके आने-जानेम राग- ेष और हष-शोक मत करो। ब -ु बा व का संयोग भी इसीम आ जाता है; क अ ःकरण और इ य के ारा ही अ वषय क भाँ त उनके साथ संयोग- वयोग होता है। अत: यहाँ सभी कारके संयोग- वयोग के प रणाम प सुख-दुःख को सहन करनेके लये भगवान्का कहना है – यह बात समझ लेनी चा हये। स – इन सबको सहन करनेसे ा लाभ होगा ? इस ज ासापर कहते ह – यं ह न थय ेते पु षं पु षषभ । समदुःखसुखं धीरं सोऽमृत ाय क ते ॥१५॥ इ

क हे पु ष े । दःु ख-सुखको समान समझनेवाले जस धीर पु षको ये य और वषय के संयोग ाकुल नह करते , वह मो के यो होता है॥ १५॥

ा अ भ ाय है? उ र – ' ह ' यहाँ हेतुके अथम है। अ भ ाय यह है क इ य के साथ वषय के संयोग को कस लये सहन करना चा हये; यह बात इस ोकम बतलायी जाती है। – ' पु षषभ ' स ोधनका ा भाव है? उ र – ' ऋषभ ' े का वाचक है। अत: पु ष म जो अ धक शूरवीर एवं बलवान् हो, उसे ' पु षषभ ' कहते ह। यहाँ अजुनको ' पु षषभ ' नामसे स ो धत करके भगवान्ने यह –

यहाँ '

ह ' का

भाव दखलाया है क तुम बड़े शूरवीर हो, सहनशीलता तु ारा ाभा वक गुण है, अत: तुम सहजहीम इन सबको सहन कर सकते हो। – ' धीरम् ' पद कसका वाचक है? उ र – ' धीरम् ' पद अ धकांशम परमा ाको ा पु षका ही वाचक होता है, पर कह -कह परमा ाक ा के पा को भी ' धीर' कह दया जाता है। अत: यहाँ ' धीराम् ' पद सां योगके साधनम प रप तपर प ँ चे ए साधकका वाचक है। – ' समदःु खसुखम् ' वशेषणका ा भाव है? उ र – इससे भगवान्ने धीर पु षका ल ण बतलाया है क जस पु षके लये सुख और दुःख सम हो गये ह, उ अ न समझकर जसक उन म भेदबु नह रही है, वही ' धीर' है और वही इनको सहन करनेम समथ है। – ' एते ' पद कनका वाचक है और ' न थय ' का ा भाव है? उ र – वषय के साथ इ य के जो संयोग ह, जनके लये पूव ोकम ' मा ा शा: ' पदका योग कया गया है, उ का वाचक यहाँ ' एते ' पद है और ' न थय ' से यह भाव दखलाया है क वषय के संयोग- वयोगम राग- ेष और हष-शोक न करनेका अ ास करते-करते जब साधकक ऐसी त हो जाती है क कसी भी इ यका कसी भी भोगके साथ संयोग कसी कार उसे ाकु ल नह कर सकता, उसम कसी तरहका वकार उ नह कर सकता, तब यह समझना चा हये क यह ' धीर' और सुख-दुःखम ' समभाववाला' हो गया है। – ' वह मो के यो होता है' इसका ा भाव है? उ र – इससे भगवान्ने यह दखलाया है क उपयु समभाववाला पु ष मो का – परमा ाक ा का पा बन जाता है और उसे शी ही अपरो भावसे परमा ाक ा हो जाती है। स – बारहव और तेरहव ोक म भगवान् ने आ ाक न ता और न वकारताका तपादन कया तथा चौदहव ोकम इ य के साथ वषय के संयोग को अ न बतलाया, कतु आ ा न है और ये संयोग अ न है ? इसका ीकरण नह कया गया ; अतएव इस ोकम भगवान् न और अ न व ुके ववेचनक री त बतलानेके लये दोन के ल ण बतलाते ह – नासतो व ते भावो नाभावो व ते सतः । उभयोर प ोऽ नयो द श भः ॥१६॥ असत् व ुक तो स ा नह है और सत्का अभाव नह है। इस कार इन दोन का ही त त ानी पु ष ारा देखा गया है ॥१६॥ –'

असत: ' पद यहाँ

ा अ भ ाय है?



कसका वाचक है और ' उसक स ा नह है' इस कथनका

उ र – ' असत: ' पद यहाँ प रवतनशील शरीर, इ य और इ य के वषय स हत सम जडवगका वाचक है और ' उसक स ा यानी भाव नह है' इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क वह जस कालम तीत होता है, उसके पहले भी नह था और पीछे भी नह रहेगा; अतएव जस समय तीत होता है उस समय भी वा वम नह है। इस लये य द तुम भी ा द जन के शरीर के या अ कसी जड व ुके नाशक आशंकासे शोक करते हो तो तु ारा यह शोक करना अनु चत है। – ' सत: ' पद यहाँ कसका वाचक है और ' उसका अभाव नह है' इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – ' सत: ' पद यहाँ परमा त का वाचक है, जो सव ापी है और न है। ' उसका अभाव नह है' इस कथनसे यह भाव दखलाया गया है क उसका कभी कसी भी न म से प रवतन या अभाव नह होता। वह सदा एकरस, अख और न वकार रहता है। इस लये य द तुम आ पसे भी ा दके नाशक आशंका करके शोक करते हो, तो भी तु ारा शोक करना उ चत नह है। – ' अनयो: ' वशेषणके स हत ' उभयो: ' पद कनका वाचक है और त दश ानी पु ष ारा उनका त देखा जाना ा है? उ र – ' अनयो: ' वशेषणके स हत ' उभयो: ' पद उपयु ' असत्' और ' सत्' दोन का वाचक है तथा त को जाननेवाले महापु ष ारा उन दोन का ववेचन करके जो यह न य कर लेना है क जस व ुका प रवतन और नाश होता है, जो सदा नह रहती, वह असत् है – अथात् असत् व ुका व मान रहना स व नह और जसका प रवतन और नाश कसी भी अव ाम कसी भी न म से नह होता, जो सदा व मान रहती है, वह सत् है – अथात् सत् का कभी अभाव होता ही नह – यही त दश पु ष ारा उन दोन का त देखा जाना है। स – पूव ोकम जस ' सत् ' त के लये यह कहा गया है क ' उसका अभाव नह है ', वह ' सत् ' त ा है – इस ज ासापर कहते ह – अ वना श तु त येन सव मदं ततम् । वनाशम य ा न क तुमह त ॥१७॥ नाशर हत तो तू उसको जान , जससे यह स ूण जगत् – अ वनाशीका वनाश करनेम कोई भी समथ नह है॥ १७॥

वग



है। इस

सवम्' के स हत ' इदम्' पद यहाँ कसका वाचक है और वह कसके ारा ा है तथा जससे ा है उसे अ वनाशी कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – शरीर, इ य, मन, भोग क साम ी और भोग- ान आ द सम जडवगका वाचक यहाँ ' सवम् ' के स हत ' इदम् ' पद है। वह स ूण जडवग चेतन परमा त से ा है। उस परमा त को अ वनाशी कहकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क पूव ोकम –'

जस ' सत्' त का मने ल ण कया है तथा त - ा नय ने जस त को ' सत्' न त कया है, वह परमा ा ही अ वनाशी नामसे कहा गया है। – इस अ वनाशीका वनाश करनेम कोई भी समथ नह है, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे भगवान्ने यह दखलाया है क आकाशसे बादलके स श इस परमा त के ारा अ सब जडवग ा होनेके कारण उनमसे कोई भी इस परमा त का नाश नह कर सकता; अतएव सदा-सवदा व मान रहनेवाला होनेसे यही एकमा ' सत्' त है। स – इस कार ' सत् ' त क ा ा हो जानेके अन र पूव ' असत् ' व ु ा है, इस ज ासापर कहते ह – अ व इमे देहा न ो ाः शरी रणः । अना शनोऽ मेय त ा ु भारत ॥१८॥ इस नाशर हत , अ मेय , न प जीवा ाके ये सब शरीर नाशवान् कहे गये ह। इस लये हे भरतवंशी अजुन! तू यु कर ॥ १८ ॥

इमे' के स हत ' देहा: ' पद यहाँ कनका वाचक है? और उन सबको ' अ व : ' कहनेका ा अ भ ाय हे? उ र – ' इमे ' के स हत ' देहा: ' पद यहाँ सम शरीर का वाचक है और असत्क ा ा करनेके लये उनको ' अ व : ' कहा है। अ भ ाय यह है क अ ःकरण और इ य के स हत सम शरीर नाशवान् ह। जैसे के शरीर और सम जगत् बना ए ही तीत होते ह, वैसे ही ये सम शरीर भी बना ए ही अ ान-से तीत हो रहे ह; वा वम इनक स ा नह है। इस लये इनका नाश होना अव ावी है, अतएव इनके लये शोक करना थ है। – यहाँ ' देहा: ' पदम ब वचनका और ' शरी रणः ' पदम एकवचनका योग कस लये कया गया है? उ र – इस योगसे भगवान्ने यह दखलाया है क सम शरीर म एक ही आ ा है। शरीर के भेदसे अ ानके कारण आ ाम भेद तीत होता है, वा वम भेद नह है। – ' शरी रणः ' पद यहाँ कसका वाचक है और उसके साथ ' न ', ' अना शन: ' और ' अ मेय ' वशेषण देनेका तथा शरीर के साथ उसका स दखलानेका ा अ भ ाय है? उ र – पूव ोकम जस ' सत्' त से सम जड-वगको ा बतलाया है, उसी त का वाचक यहाँ ' शरी रणः ' पद है तथा इन तीन वशेषण का योग उस ' सत् ' त के साथ इसक एकता करनेके लये ही कया है एवं इसे ' शरीरी' कहकर तथा शरीर के साथ इसका स दखलाकर आ ा और परमा ाक एकताका तपादन कया गया है। – '

अ भ ाय यह है क ावहा रक से जो भ - भ शरीर को धारण करनेवाले, उनसे स रखनेवाले भ - भ आ ा तीत होते ह, वे व ुत: भ - भ नह ह, सब एक ही चेतन त है; जैसे न ाके समय क सृ म एक पु षके सवा कोई व ु नह होती, का सम नाना न ाज नत होता है, जागनेके बाद पु ष एक ही रह जाता है, वैसे ही यहाँ भी सम नाना अ ानज नत है, ानके अन र कोई नाना नह रहता। – हेतुवाचक ' त ात् ' पदका योग करके यु के लये आ ा देनेका यहाँ ा अ भ ाय है? उ र – हेतुवाचक ' त ात् ' पदके स हत यु के लये आ ा देकर भगवान्ने यहाँ यह दखलाया है क जब यह बात स हो चुक क शरीर नाशवान् ह, उनका नाश अ नवाय है और आ ा न है, उसका कभी नाश होता नह , तब यु म क च ा भी शोकका कोई कारण नह है। अतएव अब तुमको यु म कसी तरहक आनाकानी नह करनी चा हये। स – पूव ोकम भगवान् ने आ ाक न ता और न वकारताका तपादन करके अजुनको यु के लये आ ा दी, कतु अजुनने जो यह बात कही थी क ' म इनको मारना नह चाहता और य द वे मुझे मार डाल तो वह मेरे लये ेमकर होगा ' उसका समाधान नह कया। अत: अगले ोक म ' आ ाको मरने या मारनेवाला मानना अ ान है ' , यह कहकर उसका समाधान करते ह – य एनं वे ह ारं य ैनं म ते हतम् । उभौ तौ न वजानीतो नायं ह न ह ते ॥१९॥ [2]

जो इस आ ाको मारनेवाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोन ही नह जानते ; क यह आ ा वा वम न तो कसीको मारता है और न कसीके ारा मारा जाता है ॥ १९ ॥

कौन है?



य द आ ा न मरता है और न कसीको मारता है, तो मरने और मारनेवाला फर

उ र – ूल शरीरसे सू शरीरके वयोगको  ' मरना' कहते ह, अतएव मरनेवाला ूल शरीर है; इसी लये पहले ' अ व : इमे देहा : ' कहा गया । इसी तरह मन- बु के स हत जस ूल शरीरक यासे कसी दूसरे ूल शरीरके ाण का वयोग होता है, उसे ' मारनेवाला' कहते ह । अत: मारनेवाला भी शरीर ही है, आ ा नह ; कतु शरीरके धम को अपनेम अ ारो पत करके अ ानी लोग आ ाको मारनेवाला ( कता) मान लेते ह ( ३।२७), इसी लये उनको उन कम का फल भोगना पड़ता है । स – पूव ोकम यह कहा क आ कसीके ारा नह मारा जाता, इसपर यह ज ासा होती है क आ ा कसीके ारा नह मारा जाता, इसम ा कारण है ? इसके उ रम

भगवान् आ ाम सब कारके वकार का अभाव बतलाते ए उसके पका तपादन करते ह– न जायते यते वा कदा च ायं भू ा भ वता वा न भूयः । अजो न ः शा तोऽयं पुराणो न ह ते ह माने शरीरे ॥२०॥ यह आ ा कसी कालम भी न तो ज ता है और न मरता ही है तथा न यह उ होकर फर होनेवाला ही है ; क यह अज ा , न , सनातन और पुरातन है, शरीरके मारे जानेपर भी यह नह मारा जाता ॥ २० ॥

यापद का ा भाव है? उ र – इनसे भगवान् ने आ ाम उ और वनाश प आ द- अ के दो वकार का अभाव बतलाकर उ आ द छह वकार का अभाव स कया है और इसके बाद ेक वकारका अभाव दखलानेके लये अलग- अलग श का भी योग कया है । – उ आ द छ: वकार कौन- से ह और इस ोकम कन- कन श ारा आ ाम उनका अभाव स कया है? उ र – १- उ ( ज ना), २- अ ( उ होकर स ावाला होना), ३- वृ ( बढ़ना), ४- वप रणाम ( पा रको ा होना), ५- अप य ( य होना या घटना) और ६वनाश ( मर जाना) – ये छ: वकार ह । इनमसे आ ाको ' अज:' ( अज ा) कहकर उसम ' उ ' प वकारका अभाव बतलाया है। ' अयं भू ा भूयः न भ वता ' अथात् यह ज लेकर फर स ावाला नह होता, ब भावसे ही सत् है – यह कहकर ' अ ' प वकारका, ' पुराण: ' ( चरकालीन और सदा एकरस रहनेवाला) कहकर ' वृ ' प वकारका, ' शा त: ' ( सदा एक पम त) कहकर वप रणामका, ' न : ' ( अख स ावाला) कहकर ' य' का और ' शरीरे ह माने न ह ते ' ( शरीरके नाशसे इसका नाश नह होता) – यह कहकर ' वनाश का अभाव दखलाया है। स – उ ीसव ोकम भगवान् ने यह बात कही क आ ा न तो कसीको मारता है और न कसीके ारा मारा जाता है; उसके अनुसार बीसव ोकम उसे वकारर हत बतलाकर इस बातका तपादन कया क वह नह मारा जाता। अब अगले ोकम यह बतलाते ह क वह कसीको मारता नह ? – वेदा वना शनं न ं य एनमजम यम् । कथं स पु षः पाथ कं घातय त ह कम् ॥२१॥ –'

न जायते

यते ' – इन दोन

हे पृथापु अजुन! जो पु ष इस आ ाको नाशर हत , न , अज ा ओर अ य जानता है , वह पु ष कैसे कसको मरवाता है और कैसे कसको मारता है ? ॥ २१ ॥ –

इस ोकम भगवान्के कथनका ा अ भ ाय है?

उ र – इसम भगवान्ने यह भाव दखलाया है क जो पु ष आ पको यथाथ जान लेता है, जसने इस त का भलीभाँ त अनुभव कर लया है क आ ा अज ा, अ वनाशी, अ य और न है वह कै से कसको मारता है और कै से कसको मरवाता है? अथात् मन, बु और इ य के स हत ूल  शरीरके ारा दूसरे शरीरका नाश कये जानेम वह यह कै से मान सकता है क म कसीको मार रहा ँ या दूसरेके ारा कसीको मरवा रहा ँ ? क उसके ानम सव एक ही आ त है जो न मरता है और न मारा जा सकता है, न कसीको मारता है और न मरवाता है; अतएव यह मरना, मारना और मरवाना आ द सब कु छ अ ानसे ही आ ाम अ ारो पत ह, वा वम नह ह। अत: कसीके लये भी कसी कार शोक करना नह बनता। स – यहाँ यह शंका होती है क आ ा न और अ वनाशी है – उसका कभी नाश नह हो सकता, अत: उसके लये शोक करना नह बन सकता और शरीर नाशवान् ह – उसका नाश होना अव ावी है, अत: उसके लये भी शोक करना नह बनता – यह सवथा ठीक है। कतु आ ाका जो एक शरीरसे स छू टकर दूसरे शरीरसे स होता है उसम उसे अ क होता है; अत: उसके लये शोक करना कै से अनु चत है ? इसपर कहते ह – वासां स जीणा न यथा वहाय नवा न गृ ा त नरोऽपरा ण । तथा शरीरा ण वहाय जीणा ा न संया त नवा न देही ॥२२॥

जैसे मनु पुराने व को ागकर दस ू रे नये व को हण करता है, वैसे ही जीवा ा पुराने शरीर को ागकर दस ू रे नये शरीर को ा होता है ॥ २२ ॥

पुराने व के ाग और नवीन व के धारण करनेम मनु को सुख होता है, कतु पुराने शरीरके ाग और नये शरीरके हणम तो ेश होता है। अतएव इस उदाहरणक साथकता यहाँ कै से हो सकती है? उ र – पुराने शरीरके ाग और नये शरीरके हणम अ ानीको ही दुःख होता है, ववेक को नह । माता बालकके पुराने गंदे कपड़े उतारती है और नये पहनाती है तो वह रोता है; परंतु माता उसके रोनेक परवा न करके उसके हतके लये कपड़े बदल ही देती है। इसी कार भगवान् भी जीवके हताथ उसके रोनेक कु छ भी परवा न करके उसके देहको बदल देते ह। अतएव यह उदाहरण उ चत ही है। – भगवान् ने यहाँ शरीर के साथ ' जीणा न ' पदका योग कया है; परंतु यह कोई नयम नह है क वृ होनेपर (शरीर पुराना होनेपर) ही मनु क मृ ु हो। नयी उ के जवान और ब े भी मरते देखे जाते है। इस लये यह उदाहरण यु यु नह जँचता? उ र – यहाँ ' जीणा न ' पदसे अ ी या सौ वषक आयुसे ता य नह है। ार वश युवा या बाल, जस कसी अव ाम ाणी मरता है, वही उसक आयु समझी जाती है और आयुक समा का नाम ही जीणाव ा है। अतएव यह उदाहरण सवथा यु संगत है। ँ ी –

यहाँ ' वासां स ' और ' शरीरा ण ' दोन ही पद ब वचना है। कपड़ा बदलनेवाला मनु तो एक साथ भी तीन-चार पुराने व ागकर नये धारण कर सकता है; परंतु देही यानी जीवा ा तो एक ही पुराने शरीरको छोड़कर दूसरे एक ही नये शरीरको ा होता है। एक साथ ब त-से शरीर का ाग या हण यु से स नह है। अतएव यहाँ शरीरके लये ब वचनका योग अनु चत तीत होता है? उ र – (क) जीवा ा अबतक न जाने कतने शरीर छोड़ चुका है और कतने नये धारण कर चुका है तथा भ व म भी जबतक उसे त - ान न होगा तबतक न जाने कतने असं पुराने शरीर का ाग और नये शरीर को धारण करता रहेगा। इस लये ब वचनका योग कया गया है। (ख) ूल, सू और कारणभेदसे शरीर तीन ह। जब जीवा ा इस शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरम जाता है तब ये तीन ही शरीर बदल जाते ह। मनु जैसा कम करता है, उसके अनुसार ही उसका भाव ( कृ त) बदलता जाता है। सत्, रज, तम – तीन गुणमयी कृ त ही यहाँ कारणशरीर है, इसीको भाव कहते ह। ाय: भावके अनुसार ही अ कालम संक होता है और संक के अनुसार ही सू शरीर बन जाता है। कारण और सू शरीरके स हत ही यह जीवा ा इस शरीरसे नकलकर सू के अनु प ही ूलशरीरको ा होता है। इस लये ूल, सू और कारणभेदसे तीन शरीर के प रवतन होनेके कारण भी ब वचनका योग यु यु ही है। – आ ा तो अचल है, उसम गमनागमन नह होता; फर देहीके दूसरे शरीरम जानेक बात कै से कही गयी? उ र – वा वम आ ा अचल और अ य होनेके कारण उसका कसी भी हालतम गमनागमन नह होता; पर जैसे घड़ेको एक मकानसे दूसरे मकानम ले जानेके समय उसके भीतरके आकाशका अथात् घटाकाशका भी घटके स से गमनागमन-सा तीत होता है, वैसे ही सू शरीरका गमनागमन होनेसे उसके स से आ ाम भी गमनागमनक ती त होती है। अतएव लोग को समझानेके लये आ ाम गमनागमनक औपचा रक क ना क जाती है। यहाँ ' देही ' श देहा भमानी चेतनका वाचक है, अतएव देहके स से उसम भी गमनागमन होता-सा तीत होता है। इस लये देहीके अ शरीर म जानेक बात कही गयी। –व के लये ' गृ ा त ' तथा शरीरके लये ' संया त ' कहा है। एक ही यासे काम चल जाता फर दो तरहका योग कया गया? उ र – ' गृ ा त ' का मु अथ ' हण करना' है और ' संया त ' का मु अथ ' गमन करना' है। व हण कये जाते ह, इस लये यहाँ ' गृ ा त ' या दी गयी है और एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरम जाना तीत होता है, इस लये ' संया त ' कहा गया है। – ' नर: ' और ' देही ' – इन दो पद का योग कया गया, एकसे भी काम चल सकता था? –



उ र – ' नर: ' पद मनु मा का वाचक है और ' देही ' पद सम जीवसमुदायका। अत: दोन ही साथक ह; क व का हण या ाग मनु ही करता है, अ जीव नह , कतु एक शरीरसे दूसरे शरीरम गमनागमन सभी देहा भमानी जीव का होता है, इस लये व के साथ ' नर: ' का तथा शरीरके साथ ' देही ' का योग कया गया है। स – इस कार एक शरीरसे दूसरे शरीरके ा होनेम शोक करना अनु चत स करके , अब भगवान् आ ाका प दु व ेय होनेके कारण पुनः तीन ोक ारा कारा रसे उसक न ता, नराकारता और न वकारताका तपादन करते ए उसके वनाशक आशंकासे शोक करना अनु चत स करते ह – नैनं छ श ा ण नैनं दह त पावकः । न चैनं ेदय ापो न शोषय त मा तः ॥२३॥ इस आ ाको श नह काट सकते , इसको आग नह जला सकती , इसको जल नह गला सकता और वायु नह सुखा सकता ॥ २३ ॥

इस ोकका ा अ भ ाय है? उ र – अजुन श -अ ारा अपने गु जन और भाई-ब ु के नाश होनेक आशंकासे शोक कर रहे थे; अतएव उनके शोकको दूर करनेके लये भगवान्ने इस ोकम पृ ी आ द चार भूत को आ ाका नाश करनेम असमथ बतलाकर न वकार आ ाका न और नराकार स कया है। अ भ ाय यह है क श के ारा शरीरको काटनेपर भी आ ा नह कटता, अ ा ारा शरीरको जला डालनेपर भी आ ा नह जलता, व णा से शरीर गला दया जानेपर भी आ ा नह गलता और वाय ा के ारा शरीरको सुखा दया जानेपर भी आ ा नह सूखता। शरीर अ न एवं साकार व ु है, आ ा न और नराकार है; अतएव कसी भी अ -श ा द पृ ीत ारा या वायु, अ और जलके ारा उसका नाश नह कया जा सकता। अ े ोऽयमदा ोऽयम े ोऽशो एव च । न ः सवगतः ाणुरचलोऽयं सनातनः ॥२४॥ –

क यह आ ा अ े है, यह आ ा अदा , अ े और नःस ेह अशो है तथा यह आ ा न , सव ापी , अचल , र रहनेवाला और सनातन है॥ २४ ॥

पूव ोकम यह बात कह दी गयी थी क श ा दके ारा आ ा न नह कया जा सकता; फर इस ोकम उसे दुबारा अ े , अदा , अ े और अशो कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान्ने आ त का श ा द ारा नाश न हो सकनेम कारणका तपादन कया है। अ भ ाय यह है क आ ा कटनेवाली, जलनेवाली, गलनेवाली और –

सूखने-वाली व ु नह है। वह अख , अ , एकरस और न वकार है; इस लये उसका नाश करनेम श ा द कोई भी समथ नह ह। – अ े ा द श से आ ाका न तपादन करके फर उसे न , सवगत और सनातन कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – अ े ा द श से जैसा अ वना श स होता है वह तो आकाशम भी स हो सकता है; क आकाश अ सम भूत का कारण और उन सबम ा होनेसे न तो पृ ी-त से बने ए श ारा काटा जा सकता है, न अ ारा जलाया जा सकता है, न जलसे गलाया जा सकता है और न वायुसे सुखाया ही जा सकता है। आ ाका अ वना श उससे अ वल ण है – इसी बातको स करनेके लये उसे न , सवगत और सनातन कहा गया है। अ भ ाय यह है क आकाश न नह है; क महा लयम उसका नाश हो जाता है और आ ाका कभी नाश नह होता, इस लये वह न है। आकाश सव ापी नह है, के वल अपने कायमा म ा है और आ ा सव ापी है। आकाश सनातन, सदासे रहनेवाला, अना द नह है और आ ा सनातन – अना द है। इस कार उपयु श ारा आकाशसे आ ाक अ वल णता दखलायी गयी है। – आ ाको ' ाणु' और ' अचल' कहनेका ा भाव है? उ र – इससे आ ाम चलना और हलना दोन या का अभाव दखलाया है। एक ही ानम त रहते ए काँपते रहना ' हलना' है और एक जगहसे दूसरी जगह जाना ' चलना' है। इन दोन या का ही आ ाम अभाव है। वह न हलता है और न चलता ही है; क वह सव ापी है, कोई भी ान उससे खाली नह है। अ ोऽयम च ोऽयम वकाय ऽयमु ते । त ादेवं व द ैनं नानुशो चतुमह स ॥२५॥ यह आ ा अ है, यह आ ा अ च है और यह आ ा वकारर हत कहा जाता है। इससे हे अजुन! इस आ ाको उपयु कारसे जानकर तू शोक करनेके यो नह है अथात् तुझे शोक करना उ चत नह है ॥ २५॥

आ ाको ' अ ' और ' अ च ' कहनेका ा भाव है? उ र – आ ा कसी भी इ यके ारा जाना नह जा सकता, इस लये उसे ' अ ' कहते ह और वह मनका भी वषय नह है, इस लये उसे ' अ च ' कहा गया है। – आ ाको ' अ वकाय' कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – आ ाको ' अ वकाय' कहकर अ कृ तसे उसक वल णताका तपादन कया गया है। अ भ ाय यह है क सम इ याँ और अ ःकरण कृ तके काय ह, वे अपनी कारण पा कृ तको वषय नह कर सकते, इस लये कृ त भी अ और अ च है; कतु वह न वकार नह है, उसम वकार होता है और आ ाम कभी कसी भी अव ाम वकार नह होता। अतएव कृ तसे आ ा अ वल ण है। –

इस आ ाको उपयु कारसे जानकर तुझे शोक करना उ चत नह ह, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इससे यह भाव दखलाया है क आ ाको उपयु कारसे न , सवगत, अचल, सनातन, अ , अ च और न वकार जान लेनेके बाद उसके लये शोक करना नह बन सकता। स – उपयु ोक म भगवान् ने आ ाको अज ा और अ वनाशी बतलाकर उसके लये शोक करना अनु चत स कया ; अब दो ोक ारा आ ाको औपचा रक पसे ज ने-मरनेवाला माननेपर भी उसके लये शोक करना अनु चत है, ऐसा स करते ह – अथ चैनं न जातं न ं वा म से मृतम् । तथा प ं महाबाहो नैवं शो चतुमह स ॥ २-२६॥ –

कतु य द तू इस आ ाको सदा ज नेवाला तथा सदा मरनेवाला मानता हो , तो भी हे महाबाहो! तू इस कार शोक करनेको यो नह है॥ २६ ॥

अ य यहाँ कस अथम ह? और इनके स हत ' इसको तू सदा ज नेवाला और सदा मरनेवाला मानता हो तो भी तुझे शोक करना उ चत नह है' इस वा का ा अ भ ाय है? उ र – ' अथ ' और ' च ' दोन अ य यहाँ औपचा रक ीकृ तके बोधक ह। इनके स हत उपयु वा से भगवान्ने यह भाव दखलाया है क य प वा वम आ ा ज ने और मरनेवाला नह है – यही बात यथाथ है, तो भी, य द तुम इस आ ाको सदा ज नेवाला अथात् ेक शरीरके संयोगम वाह पसे सदा ज नेवाला मानते हो तथा सदा मरनेवाला अथात् ेक शरीरके वयोगम वाह पसे सदा मरनेवाला मानते हो तो इस मा ताके अनुसार भी तु उसके लये इस कार ( जसका वणन पहले अ ायके अ ाईसवसे सतालीसव ोकतक कया गया है) शोक करना नह चा हये। जात ह ुवो मृ ु ुवं ज मृत च । त ादप रहायऽथ न ं शो चतुमह स ॥२७॥ –'

अथ ' और ' च ' दोन

क इस मा ताके अनुसार ज े एक मृ ु न त है और मरे एका ज न त है। इससे भी इस बना उपायवाले वषयम तू शोक करनेको यो नह है ॥ २७ ॥ ह ' का यहाँ ा अ भ ाय है? उ र – ' ह ' हेतुके अथम है। पूव ोकम जस अनु चत बतलाया है, उसी मा ताके अनुसार यु –'

करना

मा ताके अनुसार भगवान्ने शोक पूवक उस बातको इस ोकम

स करते ह।

जसका ज आ है, उसक मृ ु न त है – यह बात तो ठीक है; क ज ा आ सदा नह रहता, इस बातको सभी जानते ह। परंतु यह बात कै से कही क जो मर गया है उसका ज न त है; क जो मु हो जाता है, उसका पुनज नह होता – यह स है (४।९; ५।१७; ८।१५, १६,२१ इ ा द)। उ र – यहाँ भगवान् वा वक स ा क बात नह कह रहे ह, भगवान्का यह कथन तो उन अ ा नय क से है, जो आ ाका ज ना-मरना न मानते ह। उनके मतानुसार जो मरणधमा है,  उसका ज होना न त ही है; क उस मा ताम कसीक मु नह हो सकती। जस वा वक स ा म मु मानी गयी है, उसम आ ाको ज ने-मरनेवाला भी नह माना गया है, ज ना-मरना सब अ ानज नत ही है। – ' त ात् ' पदका ा अ भ ाय है? तथा ' अप रहाय अथ ' का ा भाव है और उसके लये शोक करना अनु चत है? उ र – ' त ात् ' पद हेतुवाचक है। इसका योग करके ' अप रहाय अथ ' से यह दखलाया है क उपयु मा ताके अनुसार आ ाका ज और मृ ु न त होनेके कारण वह बात अ नवाय है, उसम उलट-फे र होना अस व है; ऐसी तम न पाय बातके लये शोक करना नह बनता। अतएव इस से भी तु ारा शोक करना सवथा अनु चत है। स – पूव ोक ारा जो आ ाको न , अज ा, अ वनाशी मानते ह और जो सदा ज ने- मरनेवाला मानते ह, उन दोन के मतसे ही आ ाके लये शोक करना नह बनता – यह बात स क गयी। अब अगले ोकम यह स करते ह क ा णय के शरीर को उ े करके भी शोक करना नह बनता – अ ादी न भूता न म ा न भारत । अ नधना ेव त का प रदेवना ॥२८॥ –

हे अजुन! स ूण ाणी ज से पहले अ कट थे और मरनेके बाद भी अ कट हो जानेवाले ह; केवल बीचम ही कट ह ; फर ऐसी तम ा शोक करना है ? ॥ २८॥ भूता न ' पद यहाँ कनका वाचक है? और उनके साथ ' अ ादी न ', नधना न ' और ' म ा न ' – इन वशेषण के योगका ा भाव है? उ र – ' भूता न ' पद यहाँ ा णमा का वाचक है। उनके साथ ' अ ादी न –'



' '

वशेषण जोड़कर यह भाव दखलाया है क आ दम अथात् ज से पहले इनका वतमान ूलशरीर से स नह था; ' अ नधना न ' से यह भाव दखलाया है क अ म अथात् मरनेके बाद भी ूल शरीर से इनका स नह रहेगा और ' म ा न ' से यह भाव दखलाया है क के वल ज से लेकर मृ ुपय बीचक अव ाम ही ये ह अथात् इनका शरीर के साथ स है।

ऐसी तम ा शोक करना है, इस वा का ा भाव है? उ र – इससे भगवान्ने यह दखलाया है क जैसे क सृ कालसे पहले या पीछे नह है, के वल कालम ही मनु का उसके साथ स -सा तीत होता है उसी कार जन शरीर के साथ के वल बीचक अव ाम ही स होता है, न स नह है। उनके लये ा शोक करना है? महाभारत- ीपवके दूसरे अ ायम वदुरजीने भी यही बात इस कार कही है – –

अदशनादाप तता: पुन ादशनं गता:। नैते तव न तेषां ं त का प रदेवना॥ १३॥

अथात् जनको तुम अपने मान रहे हो, ये सब अदशनसे आये ए थे यानी ज से पहले अ कट थे और पुन: अदशनको ा हो गये। अत: वा वम न ये तु ारे ह और न तुम इनके हो; फर इस वषयम शोक कै सा? स – आ त अ दुब ध होनेके कारण उसे समझानेके लये भगवान् ने उपयु ोक ारा भ - भ कारसे उसके पका वणन कया; अब अगले ोकम उस आ त के दशन, वणन और वणक अलौ ककता और दुलभताका न पण करते ह – आ यव त क देनमा यव द त तथैव चा ः । आ यव ैनम ः णो त ु ा ेनं वेद न चैव क त् ॥ २-२९॥ [3]

कोई एक महापु ष ही इस आ ाको आ यक भाँ त देखता है और वैसे ही दस ू रा कोई महापु ष ही इसके त का आ यक भाँ त वणन करता है तथा दस ू रा कोई अ धकारी पु ष ही इसे आ यक भाँ त सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नह जानता ॥ २९ ॥

कोई एक ही इसे आ यक भाँ त देखता है' इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे भगवान्ने यह दखलाया है क आ ा आ यमय है, इस लये उसे देखनेवाला संसारम कोई वरला ही होता है और वह उसे आ यक भाँ त देखता है। जैसे मनु लौ कक व ु को मन, बु और इ य के ारा इदं बु से देखता है, आ दशन वैसा नह है; आ ाका देखना अ तु और अलौ कक है। जब एकमा चेतन आ ासे भ कसीक स ा ही नह रहती, उस समय आ ा यं अपने ारा ही अपनेको देखता है। उस दशनम ा, और दशनक पुटी नह रहती; इस लये वह देखना आ यक भाँ त है। – ' वैसे ही कोई आ यक भाँ त इसका वणन करता है।' इस वा का ा भाव है? उ र – इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क आ सा ात् कर चुकनेवाले सभी न पु ष दूसर को समझानेके लये आ ाके पका वणन नह कर सकते। जो महापु ष परमा त को भलीभाँ त जाननेवाले और वेद- शा के ाता होते ह, वे ही ँ –'

आ ाका वणन कर सकते ह और उनका वणन करना भी आ यक भाँ त होता है। अथात् जैसे कसीको समझानेके लये लौ कक व ुके पका वणन कया जाता है, उस कार आ ाका वणन नह कया जा सकता, उसका वणन अलौ कक और अ तु होता है। जतने भी उदाहरण से आ त समझाया जाता है, उनमसे कोई भी उदाहरण पूण पसे आ त को समझानेवाला नह है। उसके कसी एक अंशको ही उदाहरण ारा समझाया जाता है; क आ ाके स श अ कोई व ु है ही नह , इस अव ाम कोई भी उदाहरण पूण पसे कै से लागू हो सकता है? तथा प व धमुख और नषेधमुख आ द ब त-से आ यमय संकेत ारा महापु ष उसका ल कराते ह, यही उनका आ यक भाँ त वणन करना है। वा वम आ ा वाणीका अ वषय होनेके कारण श म वाणी ारा उसका वणन नह हो सकता। – ' दूसरा इसको आ यक भाँ त सुनता है' इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क इस आ ाके वणनको सुननेवाला सदाचारी शु च ालु आ क पु ष भी कोई वरला ही होता है और उसका सुनना भी आ यक भाँ त है। अथात् जन पदाथ को वह पहले स , सुख प और रमणीय समझता था तथा जन शरीरा दको अपना प मानता था, उन सबको अ न , नाशवान्, दुःख प और जड तथा आ ाको उनसे सवथा वल ण सुनकर उसे बड़ा भारी आ य होता है; क वह त उसका पहले कभी सुना या समझा आ नह होता तथा कसी भी लौ कक व ुसे उसक समानता नह होती, इस कारण वह उसे ब त ही अ तु मालूम होता है तथा वह उस त को त य होकर सुनता है और सुनकर मु -सा हो जाता है, उसक वृ याँ दूसरी ओर नह जात – यही उसका आ यक भाँ त सुनना है। – ' कोई-कोई सुनकर भी इसको नह जानता', इस वा का ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क जसके अ ःकरणम पूण ा और आ कभाव नह होता, जसक बु शु और सू नह होती – ऐसा मनु इस आ त को सुनकर भी संशय और वपरीत भावनाके कारण इसके पको यथाथ नह समझ सकता; अतएव इस आ त का समझना अन धकारीके लये बड़ा ही दुलभ है। – ' आ यवत् ' पद यहाँ आ ाका वशेषण है या उसे देखने, कहने और सुननेवाल का अथवा देखना, वणन करना और वण करना – इन या का? उ र – ' आ यवत् ' पद यहाँ देखना, सुनना आ द या का वशेषण है; या वशेषण होनेसे उसका भाव कता और कमम अपने-आप ही आ जाता है। स – इस कार आ त के दशन, वणन और वणक अलौ ककता और दुलभताका तपादन करके अब, ' आ ा न ही अव है; अत: कसी भी ाणीके लये शोक करना उ चत नह है ' –   यह बतलाते ए भगवान् सां योगके करणका उपसंहार करते ह – देही न मव ोऽयं देहे सव भारत ।

त ा वा ण भूता न न ं शो चतुमह स ॥३०॥

हे अजुन! यह आ ा सबके शरीर म सदा ही अव ा णय के लये तू शोक करनेको यो नह है ॥ ३० ॥

है। इस कारण स ूण

यह आ ा सबके शरीर म सदा ही अव है' इस वा का ा भाव है? उ र – इस वा म भगवान्ने यह भाव दखलाया है क सम ा णय के जतने भी शरीर ह उन सम शरीर म एक ही आ ा है। शरीर के भेदसे अ ानके कारण आ ाम भेद तीत होता है, वा वम भेद नह है और वह आ ा सदा ही अव है, उसका कभी कसी भी साधनसे कोई भी नाश नह कर सकता। – ' इस कारण स ूण ा णय के लये तू शोक करनेको यो नह है' इस वा का ा भाव है? उ र – इस वा म हेतुवाचक ' त ात् ' पदका योग करके भगवान्ने यह भाव दखलाया है क इस करणम यह बात भलीभाँ त स हो चुक है क आ ा सदा-सवदा अ वनाशी है, उसका नाश करनेम कोई भी समथ नह है; अत: तु कसी भी ाणीके लये शोक करना उ चत नह है; क जब उसका नाश कसी भी कालम कसी भी साधनसे हो ही नह सकता, तब उसके लये शोक करनेका अवकाश ही कहाँ है? अतएव तु कसीके भी नाशक आशंकासे शोक न करके यु के लये तैयार हो जाना चा हये। स – यहाँतक भगवान् ने सां योगके अनुसार अनेक यु य ारा न , शु , बु , सम, न वकार और अकता आ ाके एक , न , अ वना श आ दका तपादन करके तथा शरीर को वनाशशील बतलाकर आ ाके या शरीर के लये अथवा शरीर और अ ाके वयोगके लये शोक करना अनु चत स कया। साथ ही संगवश आ ाको ज ने-मरनेवाला माननेपर भी शोक करनेके अनौ च का तपादन कया और अजुनको यु करनेके लये आ ा दी। अब सात ोक ारा ा धमके अनुसार शोक करना अनु चत स करते ए अजुनको यु के लये उ ा हत करते ह – धमम प चावे न वक तुमह स । ध ा यु ा ेयोऽ य न व ते ॥३१॥ –'

तथा अपने धमको देखकर भी तू भय करनेयो नह है यानी तुझे भय नह करना चा हये ; क यके लये धमयु यु से बढ़कर दस ू रा कोई क ाणकारी कत नह है॥ ३१ ॥ – यहाँ ' अ प ' पदके योगका ा भाव है? उ र – यहाँ ' अ प ' पदका योग करके भगवान्ने यह भाव दखलाया है क आ ाको

न और शरीर को अ न समझ लेनेके बाद शोक करना या यु ा दसे भयभीत होना उ चत नह है, यह बात तो मने तुमको समझा ही दी है; उसके अ त र य द तुम अपने वणधमक

ओर देखो तो भी तु भयभीत नह होना चा हये, क यु से वमुख न होना यका ाभा वक धम है (१८।४३)। – ' ह ' पदका ा अ भ ाय हे ? उ र – ' ह ' पद यहाँ हेतुवाचक है। अ भ ाय यह है क भयभीत नह होना चा हये, इसक पु उ राधम क जाती है। –' यके लये धमयु यु से बढ़कर दूसरा कोई ेय नह है' इस वा का ा भाव है? उ र – इस वा से भगवान्ने यह भाव दखलाया है क जस यु का आर अनी त या लोभके कारण नह कया गया हो एवं जसम अ ायाचरण नह कया जाता हो कतु जो धमसंगत हो, कत पसे ा हो और ायानुकूल कया जाता हो, ऐसा यु ही यके लये अ सम धम क अपे ा अ धक क ाणकारक है। यके लये उससे बढ़कर दूसरा कोई क ाण द धम नह है, क धममय यु करनेवाला य अनायास ही इ ानुसार ग या मो को ा कर सकता है। य या चोपप ं ग ारमपावृतम् । सु खनः याः पाथ लभ े यु मी शम् ॥३२॥ हे पाथ! अपने-आप ा ए और खुले ए गके ार प इस कारके यु को भा वान् यलोग ही पाते ह॥ ३२॥ – ' पाथ ' स ोधनका ा भाव है? उ र – यहाँ अजुनको ' पाथ ' नामसे स ो धत करके भगवान्, उनक माता कु ीने ह नापुरसे आते समय जो संदेश कहलाया था, उसक पुन: ृ त दलाते ह। उस समय

कु ीने भगवान्से कहा था – यदथ

एत न यो वा ो न ो ु ो वृकोदर: ॥ या सूते त कालोऽयमागत:। (महा० , उ ोग० १३७।९-१०)

अथात् ' धनंजय अजुनसे और सदा कमर कसे तैयार रहनेवाले भीमसे तुम यह बात कहना क जस कायके लये य-माता पु उ करती है, अब उसका समय सामने आ गया है।' – यहाँ ' यु म् ' के साथ ' य ोपप म् ' वशेषण देकर उसे ' अपावृतम् ' ' ग ारम् ' कहनेका ा भाव है? उ र–'य ोपप म् ' वशेषण देकर यह भाव दखलाया है क तुमने यह यु जान-बूझकर खड़ा नह कया है। तुम लोग ने तो स करनेक ब त चे ा क , कतु जब कसी कार भी तु ारा धरोहरके पम रखा आ रा बना यु के वापस लौटा देनेको दुय धन राजी नह आ – उसने कह दया क सूईक न क टके – इतनी जमीन भी म पा व को नह दूँगा [4] ( महा०, उ ोग० १२७।२५), तब तुमलोग को बा होकर यु का

आयोजन करना पड़ा; अत: यह यु तु ारे लये ' य ोपप म् '   अथात् बना इ ा कये अपने-आप ा है तथा ' अपावृतम् ' ' ग ारम् ' वशेषण देकर यह दखलाया है क यह खुला आ गका ार है, ऐसे धमयु म मरनेवाला मनु सीधा गम जाता है, उसके मागम कोई भी रोक-टोक नह कर सकता। – ' इस कारके यु को भा वान् य लोग ही पाते ह' इस वा का ा भाव है? उ र – इस वा से भगवान्ने यह भाव दखलाया है क ऐसा धममय यु , जो क अपने-आप कत पसे ा आ है और खुला आ ग ार है, हरेक यको नह मल सकता। यह तो क बड़े भा शाली य को ही मला करता है। अतएव तु ारा बड़ा ही सौभा है जो क तु ऐसा धममय यु अनायास ही मल गया है, अतएव अब तु इससे हटना नह चा हये। स – इस कार धममय यु करनेम लाभ दखलानेके बाद अब उसे न करनेम हा न दखलाते ए भगवान् अजुनको यु के लये उ ा हत करते ह – अथ चे ममं ध सङ् ामं न क र स । ततः धम क त च ह ा पापमवा स ॥३३॥ कतु य द तू इस धमयु यु को नह करेगा तो धम और क तको खोकर पापको ा होगा ॥ ३३॥ – ' अथ ' पदका ा अ भ ाय है? उ र – ' अथ ' पद यहाँ प ा रम है। अ भ ाय यह है क अब कारा रसे यु क

कत ता स क जाती है।

साथ ' इमम् ' और ' ध म् ' – इन दोन वशेषण का योग करके यह कहनेका ा अ भ ाय है क य द तू यु नह करेगा तो धम और क तको खोकर पापको ा होगा? उ र – इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क यह यु धममय होनेके कारण अव कत है, यह बात तु अ ी तरह समझा दी गयी; इसपर भी य द तुम कसी कारणसे यु न करोगे तो तु ारे ारा ' धमका ाग' होगा और नवातकवचा द दानव के साथ यु म वजय पानेके कारण तथा भगवान् शवजीके साथ यु करनेके कारण तु ारी जो संसारम बड़ी भारी क त छायी है, वह भी न हो जायगी। इसके सवा कत का ाग करनेके कारण तु पाप भी होगा ही; अतएव तुम जो पापके भयसे यु का ाग कर रहे हो और भयभीत हो रहे हो, यह सवथा अनु चत है। अक त चा प भूता न कथ य तेऽ याम् । स ा वत चाक तमरणाद त र ते ॥३४॥ –'

सङ् ामम् ' के









तथा सब लोग तेरी ब त कालतक रहनेवाली अपक तका भी कथन करगे और माननीय पु षके लये अपक त मरणसे भी बढ़कर है ॥ ३४ ॥

यहाँ ' अ प ' पदका योग करके यह कहनेका ा भाव है क सब लोग तेरी ब त कालतक रहनेवाली अपक त करगे? उ र – यहाँ ' अ प ' पदका योग करके इस वा से भगवान्ने यह दखलाया है क के वल धम और क तका नाश होगा और तु पाप लगेगा, इतना ही नह ; साथ ही देवता, ऋ ष और मनु ा द सभी लोग तु ारी ब त कारसे न ा भी करगे और वह अपक त ऐसी नह होगी जो थोड़े दन होकर रह जाय; वह अन कालतक बनी रहेगी। अतएव तु ारे लये यु का ाग सवथा अनु चत है। – ' माननीय पु षके लये अपक त मरणसे भी बढ़कर है' इस वा का ा भाव है? उ र – इस वा से भगवान्ने यह दखलाया है क य द कदा चत् तुम यह मानते होओ क अक त होनेम हमारी ा हा न है? तो ऐसी मा ता ठीक नह है। जो पु ष संसारम स हो जाता है; जसे ब त लोग े मानते ह, ऐसे पु षके लये अपक त मरणसे भी बढ़कर दुःखदा यनी आ करती है। अतएव जब वैसी अक त होगी तब तुम उसे सहन न कर सकोगे; क तुम संसारम बड़े शूरवीर और े पु षके नामसे व ात हो, गसे लेकर पातालतक सभी जगह तु ारी त ा है। भया णादुपरतं मं े ां महारथाः । येषां च ं ब मतो भू ा या स लाघवम् ॥ २-३५॥ –

और जनक म तू पहले ब त स ा नत होकर अब लघुताको ा महारथीलोग तुझे भयके कारण यु से हटा आ मानगे ॥ ३५ ॥ –

जनक

होगा , वे

म ' तू ब त स ा नत होकर लघुताको ा होगा' इस वा का

ा भाव है? उ र – उपयु वा से भगवान्ने यह भाव दखलाया है क भी , ोण और श आ द तथा वराट, दुपद, सा क और धृ ु ा द महारथीगण, जो तु ारी ब त त ा करते आये ह, तु बड़ा भारी शूरवीर, महान् यो ा और धमा ा मानते ह, यु का ाग करनेसे तुम उनक म गर जाओगे – वे तुमको कायर समझने लगगे। – ' महारथीलोग तुझे भयके कारण यु से हटा आ मानगे' इस वा का ा भाव है? उ र – इस वा से भगवान्ने महार थय क म अजुनके गर जानेका ही ीकरण कया है। अ भ ाय यह है क वे महारथीलोग यह नह समझगे क अजुन अपने जनसमुदायपर दया करके या यु को पाप समझकर उसका प र ाग कर रहे ह; वे तो यही

समझगे क ये भयभीत होकर अपने ाण बचानेके लये यु का ाग कर रहे ह। इस प र तम यु न करना तु ारे लये कसी तरह भी उ चत नह है। अवा वादां ब द तवा हताः । न व साम ततो दुःखतरं नु कम् ॥ २-३६॥ तेरे वैरीलोग तेरे साम क न ा करते ए तुझे ब त-से न कहनेयो कहगे ; उससे अ धक दःु ख और ा होगा ? ॥३६॥

वचन भी

चौतीसव ोकम यह बात कह ही दी थी क सभी ाणी तु ारी न ा करगे; फर यहाँ यह कहनेम ा वशेषता है क तु ारे श ुलोग तु ारे साम क न ा करते ए तु ब त-से न कहनेयो वचन भी कहगे? उ र – चौतीसव ोकम सवसाधारणके ारा सदा क जानेवाली न ाका वणन है और यहाँ दुय धना द श ु ारा मुँहपर कहे जानेवाले न ायु दुवचन क बात है। वह न ा तो के वल माननीय पु ष के लये ही अ धक दुःखदा यनी होती है, सबके लये नह । कतु अपने मुँहपर श ु के दुवचन को सुनकर तो साधारण मनु को भी भयंकर दुःख होता है। इस लये भगवान्का कहना है क के वल जगत्म तु ारी न ा होगी और तु जो अबतक बड़ा शूरवीर मानते थे वे कायर समझने लगगे, इतनी ही बात नह है; कतु उनमसे जो तु ारा अ हत चाहनेवाले ह, तु ारी हा नसे जनको हष होता है, वे तु ारे वैरी दुय धना द तु ारे बल, परा म और यु कौशल आ दक न ा करते ए तुमपर भाँ त-भाँ तके अस वा ाण क वषा भी करगे, वे कहगे – अजुन कस दनका वीर है, वह तो ज का ही नपुंसक है। उसके गा ीव धनुषको और उसके पौ षको ध ार है। – ' उससे अ धक दुःख और ा होगा' इस वा का ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान्ने उपयु घटनाके प रणामको महान् दुःखमय स कया है। अ भ ाय यह है क इससे बढ़कर दुःख तु ारे लये और ा होगा; अतएव अभी तुम जो यु के ागम सुख समझ रहे हो और यु करनेम दुःख मान रहे हो, यह तु ारी भूल है। यु का ाग करनेम ही तु ारे लये सबसे अ धक दु:ख है। स – उपयु ब त-से हेतु को दखलाकर यु न करनेम अनेक कारक हा नय का वणन करनेके बाद अब भगवान् यु करनेम दोन तरहसे लाभ दखलाते ए अजुनको यु के लये तैयार होनेक आ ा देते ह – हतो वा ा स ग ज ा वा भो से महीम् । त ादु कौ ेय यु ाय कृ त न यः ॥३७॥ –

रा

या तो तू यु म मारा जाकर गको ा होगा अथवा सं ामम जीतकर पृ ीका भोगेगा। इस कारण हे अजुन! तू यु के लये न य करके खड़ा हो जा ॥ ३७ ॥ –

इस ोकका ा भाव है?

उ र – छठे ोकम अजुनने यह बात कही थी क मेरे लये यु करना े है या न करना, तथा यु म हमारी वजय होगी या हमारे श ु क , इसका म नणय नह कर सकता; उसका उ र देते ए भगवान् इस वा से यु करते-करते मारा जानेम अथवा वजय ा कर लेनेम – दोन म ही लाभ दखलाकर अजुनके लये यु का े स करते ह। अ भ ाय यह है क य द यु म तु ारे श ु क जीत हो गयी और तुम मारे गये तो भी अ ी बात है क यु म ाण ाग करनेसे तु ग मलेगा और य द वजय ा कर लोगे तो पृ ीका रा सुख भोगोगे; अतएव दोन ही य से तु ारे लये तो यु करना ही सब कारसे े है। इस लये तुम यु के लये कमर कसकर तैयार हो जाओ। स – उपयु ोकम यु का फल रा सुख या गक ा तक बतलाया ; कतु अजुनने तो पहले ही कह दया था क इस लोकके रा क तो बात ही ा है, म तो लोक के रा के लये भी अपने कु लका नाश नह करना चाहता। अतः जसे रा सुख और गक इ ा न हो उसको कस कार यु करना चा हये यह बात अगले ोकम बतलायी जाती है – सुखदुःखे समे कृ ा लाभालाभौ जयाजयौ । ततो यु ाय यु नैवं पापमवा स ॥३८॥ जय-पराजय , लाभ-हा न और सुख-दःु खको समान समझकर , उसके बाद यु के लये तैयार हो जा ; इस कार यु करनेसे तू पापको नह ा होगा ॥ ३८ ॥ – जय-पराजय, लाभ-हा न और सुख- दुःखको समान समझना ा है ? उ र – यु म होनेवाले जय-पराजय, लाभ-हा न और सुख-दुःखम कसी तरहक भेदबु का न होना अथात् उनके कारण मनम राग- ेष या हष-शोक आ द कसी कारके

वकार का न होना ही उन सबको समान समझना है। – उसके बाद यु के लये तैयार हो जा इस वा का ा अ भ ाय है? उ र – इस वा से भगवान्ने यह भाव दखलाया है क य द तुमको रा सुख और गक इ ा नह है तो यु म होनेवाले वषमभावका सवथा ाग करके उपयु कारसे यु के ेक प रणामम सम होकर उसके बाद तु यु करना चा हये। ऐसा यु सदा रहनेवाली परम शा को देनेवाला है। – ' इस कार यु करनेसे तू पापको ा नह होगा' इस वा का ा भाव है? उ र – इस वा से भगवान्ने अजुनके उन वचन का उ र दया है जनम अजुनने यु म जनवधको महान् पापकम बतलाया है और ऐसा बतलाकर यु न करना ही उ चत स कया है (१।३६, ३९, ४५)। अ भ ाय यह है क उपयु कारसे यु करनेपर तु कसी कारका क च ा भी पाप नह लगेगा अथात् तू शुभाशुभ कमब न प पापसे भी सवथा मु हो जायगा।



यहाँतक सां योगके स ा से तथा ा धमक से यु का औ च स करके यु अजुनको समतापूवक यु करनेके लये आ ा द; अब कमयोगके स ा से यु का औ च बतलानेके लये कमयोगके वणनक ावना करते ह – एषा तेऽ भ हता साङ् े बु य गे मां णु । बुद् ा यु ो यया पाथ कमब ं हा स ॥३९॥ स



हे पाथ! यह बु तेरे लये ानयोगके वषयम कही गयी और अब तू इसको कमयोगके वषयम सुन – जस बु से यु आ तू कम के ब नको भलीभाँ त ाग देगा यानी सवथा न कर डालेगा॥ ३९॥ – यहाँ ' एषा ' वशेषणके स हत ' बु : ' पद कस बु का वाचक है और ' यह

बु तेरे लये ानयोगके वषयम कही गयी' इस कथनका ा भाव है? उ र – पूव ोकम भगवान्ने अजुनको जस समभावसे यु होकर यु करनेके लये कहा है, उसी समताका वाचक यहाँ ' एषा ' पदके स हत ' बु : ' पद है; क ' एषा ' पद अ नकटवत व ुका ल करानेवाला है। अतएव इस कथनसे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क ानयोगके साधनसे यह समभाव कस कार ा होता है, ानयोगीको आ ाका यथाथ प ववेक ारा समझकर कस कार समभावसे यु रहते ए वणा मो चत व हत कम करने चा हये – ये सब बात ारहव ोकसे लेकर तीसव ोकतक बतला दी गय । – ारहव ोकसे तीसव ोकतकके करणम इस समभावका वणन कस कार कया गया है? उ र – आ ाके यथाथ पको न जाननेके कारण ही मनु का सम पदाथ म वषमभाव हो रहा है। जब आ ाके यथाथ पको समझ लेनेपर उसक म आ ा और परमा ाका भेद नह रहता ओर एक स दान घन से भ कसीक स ा नह रहती, तब उसक कसीम भेदबु हो ही कै से सकती है। इसी लए भगवान्ने एकादश ोकम मरने और जी वत रहनेम ममूलक इस वषमभाव या भेदबु के कारण होनेवाले शोकको सवथा अनु चत बतलाकर उस शोकसे र हत होनेके लये संकेत कया। बारहव और तेरहव ोक म आ ाके न और असंग का तपादन करते ए यह दखलाया है क ा णय के मरनेम और जी वत रहनेम जो भेद तीत होता है, यह अ ानज नत है, आ ानी धीर पु ष म यह भेदबु नह रहती; क आ ा सम, न वकार और न है। तदन र शीत-उ , सुखदुःख आ द के ारा भेदबु उ करनेवाले श ा द सम वषय-संयोग को अ न बतलाकर अजुनको उ सहन करनेके लये – उनम सम रहनेके लये कहा (२।१४) और सुखदुःखा दको सम समझनेवाले पु षक शंसा करके उसे परमा ाक ा का पा बतलाया (२।१५)। इसके बाद स ास व ुका नणय करके अजुनको यु के लये आ ा देकर (२। १६-१८) अगले- ोक म आ ाको मरने-मारनेवाला माननेवाल को अ ानी बतलाकर आ ाके न वकार , अकतृ और न का तपादन करते ए यह बात स कर दी क

शरीर के नाशसे आ ाका नाश नह होता; इस लये इस मरने और जीनेम वषमभाव करके तु कसी भी ाणीके लये क च ा भी शोक करना उ चत नह है (२।१९-३०)। इस कार उ करणम स और अस पदाथ के ववेचन ारा आ ाके यथाथ पको जाननेसे होनेवाली समताका तपादन कया गया है। – ' इमाम् ' पद कस बु का वाचक है और ' अब तू इसको योगके वषयम सुन' इस वा का ा भाव है? उ र – ' इमाम् ' पद भी उसी पूव ोकम व णत समभाव प बु का वाचक है। अत: उपयु वा से भगवान्ने यह भाव दखलाया है क वही समभाव कमयोगके साधनम कस कार होता है, कमयोगीको कस कार समभाव रखना चा हये और उस समताका ा फल है – ये सब बात म अब अगले ोकसे तु बतलाना आर करता ँ ; अतएव तू उ सुननेके लये सावधान हो जा। – य द यही बात है तो इकतीसवसे सतीसव ोकतकका करण कस लये है? उ र – वह करण अजुनको यह समझानेके लये है क तुम य हो, यु तु ारा धम है, उसका ाग तु ारे लये सवथा अनु चत है और उसका करना सवथा लाभ द है। और अड़तीसव ोकम यह बात समझायी गयी है क जब यु करना ही है तो उसे ऐसी यु से करना चा हये जससे वह ब नका हेतु न बन सके । इसी लये ानयोग और कमयोग – इन दोन ही साधन म समभावसे यु होना आव क बतलाया गया है और इस ोकम उस समभावका दोन कारके साधन के साथ देहली-दीपक ायसे स दखलाया गया है। – यहाँ ' कमब म् ' पदका ा अथ है और उपयु समबु से उसका नाश कर देना ा है? उ र – ज -ज ा रम कये ए शुभाशुभ कम के सं ार से यह जीव बँधा है तथा इस मनु शरीरम पुन: अहंता, ममता, आस और कामनासे नये-नये कम करके और भी अ धक जकड़ा जाता है। अत: यहाँ इस जीवा ाको बार-बार नाना कारक यो नय म ज मृ ु प संसारच म घुमानेके हेतुभूत ज -ज ा रम कये ए शुभाशुभ कम के सं चत सं ारसमुदायका वाचक ' कमब म् ' पद है। कमयोगक व धसे सम कम म ममता, आस और फले ाका ाग करके तथा स और अ स म सम होकर यानी राग- ेष और हष-शोक आ द वकार से र हत होकर जो इस ज और ज ा रम कये ए तथा वतमानम कये जानेवाले सम कम म फल उ करनेक श को न कर देना – उन कम को भूने ए बीजक भाँ त कर देना है – यही समबु से कमब नको सवथा न कर डालना है। स – इस कार कमयोगके वणनक ावना करके अब उसका रह पूण मह बतलाते हनेहा भ मनाशोऽ वायो न व ते ।



धम

ायते महतो भयात् ॥४०॥

इस कमयोगम आर का अथात् बीजका नाश नह है और उलटा फल प दोष भी नह है ; ब इस कमयोग प धमका थोड़ा-सा भी साधन ज -मृ ु प महान् भयसे र ा कर लेता है ॥ ४०॥

इस कमयोगम आर का नाश नह है – इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क य द मनु इस कमयोगके साधनका आर करके उसके पूण होनेके पहले बीचम ही ाग कर दे तो जस कार कसी खेती करनेवाले मनु के खेतम बीज बोकर उसक र ा न करनेसे या उसम जल न स चनेसे वे बीज न हो जाते ह; उस कार इस कमयोगके आर का नाश नह होता, इसके सं ार साधकके अ ःकरणम त हो जाते ह और वे साधकको दूसरे ज म जबरद ी पुन: साधनम लगा देते ह (६।४३ -४४)। इसका वनाश नह होता, इसी लये भगवान्ने कमयोगको सत् कहा है (१७। २७)। – इसम वाय यानी उलटा फल प दोष भी नह है – इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया है क जहाँ कामनायु कम होता है, वह उसके अ े-बुरे फलक स ावना होती है; इसम कामनाका सवथा अभाव है, इस लये इसम वाय अथात् वपरीत फल भी नह होता। सकामभावसे देव, पतृ, मनु आ दक सेवाम कसी कारणवश ु ट हो जानेपर उनके होनेसे साधकका अ न भी हो सकता है, कतु ाथर हत य , दान, तप, सेवा आ द कम के पालनम ु ट रहनेपर भी उसका वपरीत फल प अ न नह होता। अथवा जैसे रोगनाशके लये सेवन क ई ओष ध अनुकूल न पड़नेसे रोगका नाश करनेवाली न होकर रोगको बढ़ानेवाली हो जाती है, उस कार इस कमयोगके साधनका वपरीत प रणाम नह होता (६।४०)। अथात् य द वह पूण न होनेके कारण इस ज म साधकको परमपदक ा न करा सके तो भी उसके पालन करनेवाले मनु को न तो पूवकृ त पाप के फल प या इस ज म होनेवाले आनुषं गक हसा दके फल प तय ो न या नरक का ही भोग करना पड़ता है और न अपने पूवकृ त शुभ कम के फल प इस लोक या परलोकके सुखभोगसे वं चत ही रहना पड़ता है। वह पु ष पु वान के उ म लोक को ही ा होता है और वहाँ ब त कालतक नवास करके पुन: वशु ीमान के घरम ज लेता है अथवा योगीकु लम ज लेता है और पहलेके अ ाससे पुन: उस साधनम वृ हो जाता है (६।४१ से ४४)। –' वायो न व ते ' का अथ कमयोगम व -बाधा- कावट नह आती, ऐसा ले लया जाय तो ा आप है? उ र – पूवज के पापके कारण वषयभोग का एवं मादी, वषयी और ना क पु ष का संग होनेसे साधनम व -बाधा- कावट तो आ सकती है; कतु न ाम कमका प रणाम बुरा नह होता। इस लये वपरीत फल प दोष नह होता, यही अथ लेना ठीक है। ँ –

वशेषणके स हत ' धम ' पद यहाँ कसका वाचक है? उ र – पूव ोकम ' योग' के नामसे जसका वणन कया गया है उसी कमयोगका वाचक है। – कमयोग कसको कहते ह? उ र – शा व हत उ म याका नाम ' कम' है और समभावका नाम ' योग' है (२। ४८); अत: ममता-आस , काम- ोध और लोभ-मोह आ दसे र हत होकर जो समतापूवक अपने वण, आ म, भाव और प र तके अनुसार शा व हत कत -कम का आचरण करना है, वही कमयोग है। इसीको सम योग, बु योग, तदथकम, मदथकम और म म भी कहते ह। – ' इस ' कमयोग' प धमका थोड़ा-सा भी साधन महान् भयसे र ा कर लेता है' इस वा का ा अ भ ाय है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क यह कमयोगका साधन य द अपनी पूण सीमातक प ँ च जाता है, तब तो वह मनु को उसी ण पर परमा ाक ा करा देता है। अत: इसके पूण साधनके मह का तो कहना ही ा है, पर य द मनु इसका कु छ आं शक साधन कर लेता है अथात् सम क अटल त न होकर य द मनु के ारा थोड़े-से भी कत -कमका आचरण समभावसे हो जाता है और वह थोड़ा-सा भी समभाव य द अ कालम र हो जाता है, तब तो उसी समय मनु को नवाण क ा करा देता है (२।७२); नह तो वह ज ा रम साधकको पुन: साधनम वृ करके परम ग तक ा करा देता है (६।४१-४५)। इस कार यथासमय उसका अव उ ार कर देता है। सकामभावसे हजार वष तक कये ए बड़े-से-बड़े य , दान, तप, तीथसेवन और त, उपवास आ द कम भी मनु का संसारसे उ ार नह कर सकते और समभावसे कये ए शा व हत भ ाटन, यु , कृ ष, वा ण , सेवा और श आ द छोटे-से-छोटे जी वकाके कम भी भावपूण होनेपर णमा म संसारसे उ ार करनेवाले बन जाते ह; क क ाण-साधनम ' कम' क अपे ा ' भाव' क ही धानता है। – जब क यह कमयोगका थोड़ा-सा साधन वृ को ा होनेपर ही महान् भयसे र ा करता है, तब फर थोड़ेका ा मह रहा? उ र – न ामभावका प रणाम संसारसे उ ार करना है। अतएव वह अपने प रणामको स कये बना न तो न होता है और न उसका कोई दूसरा फल ही हो सकता है, अ म साधकको पूण न ाम बनाकर उसका उ ार कर ही देता है – यही उसका मह है। – य द कमयोगका थोड़ा-सा साधन भी महान् भयसे र ा करनेवाला है, तब उसका पूण साधन करनेक ा आव कता है? उ र – थोड़ा-सा साधन भी र ा करनेवाला तो है – इसम कोई स हे नह , पर उसम समयका नयम नह है; पता नह , वह इस ज म उ ार करे या ज ा रम; क वह थोड़ासा साधन मश: वृ को ा होकर पूण होनेपर ही उ ार करेगा। अतएव शी क ाण –'



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चाहनेवाले य शील मनु को तो त रता और उ ाहके साथ पूण पम ही सम ा करनेक चे ा करनी चा हये। – महान् भय कसे कहते ह और उससे र ा करना ा है? उ र – जीव को सबसे अ धक भय मृ ुसे होता है; अत: अन कालतक पुनः-पुन: ज ते और मरते रहना ही महान् भय है। इसी ज -मृ ु प महान् भयको भगवान्ने आगे चलकर मृ ुसंसारसागरके नामसे कहा है (१२।७)। जैसे समु म अन लहर होती ह उसी कार इस संसारसमु म भी ज -मृ ुक अन लहर उठती और शा होती रहती ह। समु क लहर तो चाहे गन भी ली जा सकती ह , पर जबतक परमा ाके त का यथाथ ान नह होता तबतक कतनी बार मरना पड़ेगा? इसक गणना कोई भी नह कर सकता। ऐसे इस मृ ु प संसारसमु से पार कर देना – सदाके लये ज -मृ ुसे छु ड़ाकर इस पंचसे सवथा अतीत स दान घन से मला देना ही महान् भयसे र ा करना है। स – इस कार कमयोगका मह बतलाकर अब उसके आचरणक व ध बतलानेके लये पहले उस कमयोगम परम आव क जो स कमयोगीक न या का ायी समबु है, उसका और कमयोगम बाधक जो सकाम मनु क भ - भ बु याँ ह, उनका भेद बतलाते ह – वसाया का बु रेकेह कु न न । ब शाखा न ा बु योऽ वसा यनाम् ॥ २-४१॥ हे अजुन! इस कमयोगम न या का बु एक ही होती है ; कतु अ र वचारवाले ववेकहीन सकाम मनु क बु याँ न य ही ब त भेद वाली और अन होती ह॥ ४१॥

वशेषणके स हत ' बु : ' पद यहाँ कस बु का वाचक है और वह एक ही है – इस कथनका ा भाव है? उ र – अटल और र न य ही जस बु का प है, उनतालीसव ोकम जस बु से यु होनेका फल कमब नसे मु होना बतलाया है, उस ायी समभाव प न या का बु का वाचक यहाँ ' वसाया का ' वशेषणके स हत ' बु : ' पद है; क इस करणम जगह-जगह इसी अथम ' बु ' श का योग आ है तथा ' वह बु एक ही है' यह कहकर यह भाव दखलाया गया है क इसम के वलमा एक स दान परमा ाका ही न य रहता है। नाना भोग और उनक ा के उपाय को इसके न यम ान नह मलता। इसीको रबु और समबु भी कहते ह। – ' अ वसा यनाम् ' पद कै से मनु का वाचक है और उनक बु य को ब त भेद वाली और अन बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – जनम उपयु न या का बु नह है, अ ानज नत वषमभावके कारण जनका अ ःकरण मो हत हो रहा है, उन ववेकहीन भोगास मनु का वाचक ' अ वसा यनाम् ' पद है। उनक बु य को ब त भेद वाली और अन बतलाकर यह –'

वसाया

का '

दखलाया गया है क सकामभावसे य ा द कम करनेवाले मनु के भ - भ उ े रहते ह; कोई एक कसी भोगक ा के लये कसी कारका कम करता है, तो दूसरा उससे भ क दूसरे ही भोग क ा के लये दूसरे ही कारका कम करता है। इसके सवा वे कसी एक उ े से कये जानेवाले कमम भी अनेक कारके भोग क कामना कया करते ह और संसारके सम पदाथ म और घटना म उनका वषमभाव रहता है। कसीको य समझते ह, कसीको अ य समझते ह। एक ही पदाथको कसी अंशम य समझते ह और कसी अंशम अ य समझते ह। इस कार संसारके सम पदाथ म, य म और घटना म उनक अनेक कारसे वषमबु रहती है और उसके अन भेद होते ह। स – इस कार कमयोगीके लये अव धारण करनेयो न या का बु का और  ाग करनेयो सकाम मनु क बु य का प बतलाकर अब तीन ोक म सकामभावको ा बतलानेके लये सकाम मनु के भाव, स ा और आचारवहारका वणन करते ह – या ममां पु तां वाचं वद वप तः । वेदवादरताः पाथ ना द ी त वा दनः ॥४२॥ कामा ानः गपरा ज कमफल दाम् । या वशेषब लां भोगै यग त त ॥४३॥ भोगै य स ानां तयाप तचेतसाम् । वसाया का बु ः समाधौ न वधीयते ॥४४॥

हे अजुन! जो भोग म त य हो रहे ह, जो कमफलके शंसक वेदवा म ी त रखते ह , जनक बु म ग ही परम ा व ु है और जो गसे बढ़कर दस ू री कोई व ु ही नह है – ऐसा कहनेवाले ह – वे अ ववेक जन इस कारक जस पु त यानी दखाऊ शोभायु वाणीको कहा करते ह जो क ज प कमफल देनेवाली एवं भोग तथा ऐ यक ा के लये नाना कारक ब त-सी या का वणन करनेवाली है, उस वाणी ारा जनका च हर लया गया है, जो भोग और ऐ यम अ आस ह, उन पु ष क परमा ाम न या का बु नह होती ॥ ४२ -४४ ॥ – ' कामा ानः ' पदका ा अथ है? उ र – यहाँ ' काम ' श भोग का वाचक है; उन भोग म अ आस होकर उनका च न करते-करते जो त य हो जाते ह, जो उनके पीछे अपने मनु को सवथा भूले रहते ह – ऐसे भोगास मनु का वाचक ' कामा ानः ' पद है। – ' वेदवादरताः ' का ा अथ है? उ र – वेद म इस लोक और परलोकके भोग क ा के लये ब त कारके भ भ का कम का वधान कया गया है और उन कम के भ - भ फल बतलाये गये ह;

वेदके उन वचन म और उनके ारा बतलाये ए फल प भोग म जनक अ आस है, उन मनु का वाचक यहाँ ' वेदवादरताः ' पद है। वेद म जो संसारम वैरा उ करनेवाले

और परमा ाके यथाथ पका तपादन करनेवाले वचन ह, उनम ेम रखनेवाले मनु का वाचक यहाँ ' वेदवादरताः ' पद नह है;  क जो उन वचन म ी त रखनेवाले और उनको समझनेवाले ह, वे यह नह कहते क ' ग ा ही परम पु षाथ है – इससे बढ़कर कु छ है ही नह ।' अतएव यहाँ ' वेदवादरताः ' पद उ मनु का वाचक है जो इस रह को नह जानते क सम वेद का वा वक अ भ ाय परमा ाके पका तपादन करना है, वेद के ारा जाननेयो एक परमे र ही है (१५।१५) और इस रह को न समझनेके कारण ही जो वेदो सकाम कम म और उनके फलम आस हो रहे ह। –' गपरा: ' पदका ा अथ है? उ र – जो गको ही परम ा व ु समझते ह, जनक बु म गसे बढ़कर कोई ा करनेयो व ु है ही नह , इसी कारण जो परमा ाक ा के साधन से वमुख रहते ह, उनका वाचक ' गपरा: ' पद है। – यहाँ ' ना द ी त वा दन: ' इस वशेषणका ा भाव है? उ र – जो अ ववेक जन भोग म ही रचे पचे रहते ह उनक म ी, पु , धन, मान, बड़ाई, त ा आ द इस लोकके सुख और गा द परलोकके सुख के अ त र मो आ द कोई व ु है ही नह , जसक ा के लये चे ा क जाय। गक ा को ही वे सव प र परम ेय मानते ह और वेद का ता य भी वे इसीम समझते ह; अतएव वे इसी स ा का कथन एवं चार भी करते ह। यही भाव ' ना द ी त वा दन: ' इस वशेषणसे कया गया है। – ऐसे मनु को ' अ वप त: ' ववेकहीन कहनेका ा भाव है? उ र – उनको ववेकहीन कहकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क य द वे स ास व ुका ववेचन करके अपने कत का न य करते तो इस कार भोग म नह फँ सते। अतएव मनु को ववेकपूवक अपने कत का न य करना चा हये। – ' वाचम् ' के साथ ' इमाम् ', ' याम् ' और ' पु ताम् ' वशेषण देकर ा भाव दखलाया है? उ र – ' इमाम् ' और ' याम् ' वशेषण से यह भाव दखलाया गया है क वे अपनेको प त माननेवाले मनु जो दूसर को ऐसा कहा करते ह क गके भोग से बढ़कर अ कु छ है ही नह तथा ज प कमफल देनेवाली जस वेदवाणीका वे वणन करते ह, वही वाणी उनके और उनका उपदेश सुननेवाल के च का अपहरण करनेवाली होती है, तथा ' पु ताम् ' वशेषणसे यह भाव दखलाया है क उस वाणीम य प वा वम वशेष मह नह है, वह नाशवान् भोग के नाममा णक सुखका ही वणन करती है तथा प वह टेसूके फू लक भाँ त ऊपरसे बड़ी रमणीय और सु र होती है, इस कारण सांसा रक मनु उसके लोभनम पड़ जाते है? – यहाँ ' वसाया का ' वशेषणके स हत ' बु : ' पद कसका वाचक है और समा धका अथ परमा ा कै से कया गया है तथा जनका च उपयु पु ता

वाणी ारा हरा गया है एवं जो भोग और ऐ यम अ आस ह, उन पु ष क परमा ाम न या का बु नह होती – इस कथनका ा भाव है? उ र – इकतालीसव ोकम जसके ल ण बतलाये गये ह उसी न या का बु का वाचक यहाँ ' वसाया का ' वशेषणके स हत ' बु : ' पद है। ' समाधीयते अ न् बु : इ त समा ध: ' इस ु के अनुसार यहाँ समा धका अथ परमा ा कया गया है तथा उपयु वा से यहाँ यह भाव दखलाया है क उन मनु का च भोग और ऐ यम आस रहनेके कारण हर समय अ चंचल रहता है और वे अ ाथपरायण होते ह; अतएव उनक परमा ाम अटल और र न यवाली बु नह होती। स – इस कार भोग और ऐ यम आस सकाम मनु म न या का बु के न होनेक बात कहकर अब कमयोगका उपदेश देनेके उ े से पहले भगवान् अजुनको उपमु भोग और ऐ यम अस से र हत होकर समभावसे स होनेके लये कहते ह – ैगु वषया वेदा न ैगु ो भवाजुन । न ो न स ो नय ग ेम आ वान् ॥४५॥ हे अजुन! वेद उपयु कारसे तीन गुण के काय प सम भोग एवं उनके साधन का तपादन करनेवाले ह ; इस लये तू उन भोग एवं उनके साधन म आस हीन , हष-शोका द से र हत , न व ु परमा ाम त योग ेमको न चाहनेवाला और ाधीन अ ःकरणवाला हो ॥४५ ॥ –'

ैगु

वषया: ' पदका

ा अथ है और वेद को '

ैगु

वषया: ' कहनेका

ा भाव है? उ र – स , रज और तम – इन तीन गुण के कायको ' ैगु ' कहते ह। अत: सम भोग और ऐ यमय पदाथ और उनक ा के उपायभूत सम कम का वाचक यहाँ ' ैगु ' श है; उन सबका अंग- ंग स हत जनम वणन हो, उनको ' ैगु वषया: ' कहते ह। यहाँ वेद को ' ैगु वषया: ' बतलाकर यह भाव दखलाया है क वेद म कमका का वणन अ धक होनेके कारण वेद ' ैगु वषय' ह।   – ' न ैगु ' होना ा है? उ र – तीन गुण के काय प इस लोक और परलोकके सम भोग म तथा उनके साधनभूत सम कम म ममता, आस और कामनासे सवथा र हत हो जाना ही ' न ैगु ' होना है। यहाँ पसे सम कम का ाग कर देना ' न ैगु ' होना नह है; क पसे सम कम का और सम वषय का ाग कोई भी मनु नह कर सकता (३।५); यह शरीर भी तो तीन गुण का ही काय है, जसका ाग बनता ही नह । इस लये यही समझना चा हये क शरीरम और उसके ारा कये जानेवाले कम म और उनके फल प सम ँ

भोग म अहंता, ममता, आस और कामनासे र हत होना ही यहाँ ' न ैगु ' अथात् तीन गुण के कायसे र हत होना है। –' ' कनको कहते ह और उनसे र हत होना ा है? उ र – सुख-दुःख, लाभ-हा न, क त-अक त, मान-अपमान और अनुकूल- तकू ल आ द पर र वरोधी यु पदाथ का नाम है और इन सबके संयोग- वयोगम सदा ही सम रहना, इनके ारा वच लत या मो हत न कया जाना अथात् हष-शोक, राग- ेष आ दसे र हत रहना ही इनसे र हत होना है। –' न स ' ा है और उसम त होना ा है? उ र – स दान घन परमा ा ही न स – स व ु है; अतएव न अ वनाशी सव परम पु ष परमे रके पका न - नर र च न करते ए उनम अटलभावसे त रहना ही न व ुम त होना है। –' न स : ' का अथ य द नर र स गुणम त होना मान लया जाय तो ा हा न है? उ र – ऐसा अथ भी बन सकता है, इसम हा नक कोई बात नह है, कतु उपयु अथम और भी अ ा भाव है, क कमयोगका अ म प रणाम सम गुण से अतीत होकर परमा ाको ा कर लेना कहा गया है। – ' योग ेम' कसको कहते ह और अजुनको नय ग ेम होनेके लये कहनेका ा भाव है? उ र – अ ा व ुक ा को योग कहते ह और ा व ुक र ाका नाम ेम है; सांसा रक भोग क कामनाका ाग कर देनेके बाद भी शरीर- नवाहके लये मनु क योग ेमम वासना रहा करती है, अतएव उस वासनाका भी सवथा ाग करानेके लये यहाँ अजुनको ' नय ग ेम' होनेको कहा गया है। अ भ ाय यह है क तुम ममता और आस से सवथा र हत हो जाओ, कसी भी व ुक ा या र ाको चाहनेवाले मत बनो। – ' आ वान् ' कसको कहते ह और अजुनको ' आ वान् ' होनेके लये कहनेका ा भाव है? उ र – इ य के स हत अ ःकरण और शरीरका वाचक यहाँ ' आ ा ' पद है। मन, बु और इ याँ जबतक मनु के वशम नह हो जाते, उसके अपने नह बन जाते, उसके श ु बने रहते ह, तबतक वह ' आ वान् ' नह है। अतएव जसने अपने मन, बु और सम इ य को भलीभाँ त वशम कर लया है उसको ' आ वान् ' यानी ' आ ावाला' कहना चा हये। जसके मन, बु और इ याँ वशम कये ए नह ह, उसको ' सम योग' का ा होना अ क ठन है और जसके मन, बु और इ याँ वशम ह, वह साधन करनेसे सहजम ही सम योगको पा सकता है। इस लये भगवान्ने यहाँ अजुनको ' आ वान् ' होनेके लये कहा है।

पूव ोकम अजुनको यह बात कही गयी क सब वेद तीन गुण के कायका तपादन करनेवाले ह और तुम तीन गुण के काय प सम भोगम और उनके साधन म आस र हत हो जाओ। अब उसके फल प ानका मह बतलाते ह – यावानथ उदपाने सवतः स ुतोदके । तावा वषु वेदेषु ा ण वजानतः ॥४६॥ स



सब ओरसे प रपूण जलाशयके ा हो जानेपर छोटे जलाशयम मनु का जतना योजन रहता है, को त से जाननेवाले ा णका सम वेद म उतना ही योजन रह जाता है॥ ४६॥

इस ोकम जलाशयके ा से ा बात कही गयी है? उ र – इस ोकम जलाशयका ा देकर भगवान्ने ानी महा ा क आ क तृ का वणन कया है। अ भ ाय यह है क जस मनु को अमृतके समान ादु और गुणकारी अथाह जलसे भरा आ जलाशय मल जाता है, उसको जैसे जलके लये (वापी, कू प, तडागा द) छोटे-छोटे जलाशय से कोई योजन नह रहता, उसक जल वषयक सारी आव कताएँ पूण हो जाती ह, वैसे ही जो पु ष सम भोग म ममता, आस का ाग करके स दान घन परमा ाको जान लेता है, जसको परमान के समु पूण परमा ाक ा हो जाती है, उसको आन क ा के लये वेदो कम के फल प भोग से कु छ भी योजन नह रहता। वह सवथा पूणकाम और न तृ हो जाता है, अत: ऐसी तक ा के लये मनु को वेदो कम के फल प भोग म ममता, आस और कामनाका सवथा ाग करके पूणतया ' न ैगु ' हो जाना चा हये। – सब ओरसे प रपूण जलाशयम मनु को जतने जलका योजन होता है, उतना जल वह ले लेता है, इसी कार को जाननेवाला ानी पु ष अपने योजनके अनुसार वेद के अंशको ले लेता है – ऐसा अथ माननेम ा आप है? उ र – ऐसा अथ भी बन सकता है, इसम कोई हा नक बात नह है, कतु उपयु अथका भाव और भी सु र है, क को ा ए ानी पु षका संसारम कोई भी योजन नह रहता (३।१८)। स – इस कार समबु प कमयोगका और उसके फलका मह बतलाकर अब दो ोक म भगवान् कमयोगका प बतलाते ए अजुनको कमयोगम त होकर कम करनेके लये कहते ह – कम ेवा धकार े मा फलेषु कदाचन । मा कमफलहेतुभूमा ते स ोऽ कम ण ॥४७॥ –

तेरा कम करनेम ही अ धकार है , उसके फल म कभी नह । इस लये तू कम के फलका हेतु मत हो तथा तेरी कम न करनेम भी आस न हो ॥४७॥



कन कम का वाचक है और ' तेरा कम करनेम ही अ धकार है' इस कथनसे ा भाव दखलाया गया है? उ र – वण, आ म, भाव और प र तके अनुसार जस मनु के लये जो कम व हत ह, उनका वाचक यहाँ ' कम ण ' पद है। शा न ष पापकम का वाचक ' कम ण ' पद नह है; क पापकम म मनु का अ धकार नह है, उनम तो वह राग- ेषके वशम होकर वृ हो जाता है, यह उसक अन धकार चे ा है। इसी लये वैसे कम करनेवाल को नरका दम दुःख भुगताकर द दया जाता है। यहाँ ' तेरा कम करनेम ही अ धकार है' यह कहकर भगवान्ने ये भाव दखलाये ह – (१) इस मनु शरीरम ही जीवको नवीन कम करनेक त ता दी जाती है; अत: य द वह अपने अ धकारके अनुसार परमे रक आ ाका पालन करता रहे और उन कम म तथा उनके फलम आस का सवथा ाग करके उन कम को परमा ाक ा का साधन बना ले तो वह सहजम ही परमा ाको ा कर सकता है। तु इस समय मनु शरीर ा है, अत: तु ारा कम म अ धकार है; इस लये तु इस अ धकारका सदुपयोग करना चा हये। (२) मनु का कम करनेम ही अ धकार है, उनका पत: ाग करनेम वह त नह है; य द वह अहंकारपूवक हठसे कम के पत: ागक चे ा भी करे तो भी सवथा ाग नह कर सकता (३।५), क उसका भाव उसे जबरद ी कम म लगा देता है (३। ३३;१८।५९, ६०)। ऐसी प र तम उसके ारा उस अ धकारका दु पयोग होता है तथा व हत कम के ागसे उसे शा ा ाके ागका भी द भोगना पड़ता है। अतएव तु कत -कम अव करते रहना चा हये, उनका ाग कदा प नह करना चा हये। (३) जैसे सरकारके ारा लोग को आ -र ाके लये या जाक र ाके लये अपने पास नाना कारके श रखने और उनके योग करनेका अ धकार दया जाता है और उसी समय उनके योगके नयम भी उनको बतला दये जाते ह, उसके बाद य द कोई मनु उस अ धकारका दु पयोग करता है, तो उसे द दया जाता है और उसका अ धकार भी छीन लया जाता है, वैसे ही जीवको ज -मृ ु प संसार-ब नसे मु होनेके लये और दूसर का हत करनेके लये मन, बु और इ य के स हत यह मनु -शरीर देकर इसके ारा नवीन कम करनेका अ धकार दया गया है। अत: जो इस अ धकारका सदुपयोग करता है, वह तो कमब नसे छू टकर परमपदको ा हो जाता हे ओर जो दु पयोग करता है, वह द का भागी होता है तथा उससे वह अ धकार छीन लया जाता है अथात् उसे पुन: सूकर-कू करा द यो नय म ढके ल दया जाता है। इस रह को समझकर मनु को इस अ धकारका सदुपयोग करना चा हये। – कम के फल म तेरा कभी अ धकार नह है, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क मनु कम का फल ा करनेम कभी कसी कार भी त नह है; उसके कौन-से कमका ा फल होगा और वह फल उसको कस ज म और कस कार ा होगा? इसका न तो उसको कु छ पता है और न वह –'

कम ण ' पद यहाँ

अपने इ ानुसार समयपर उसे ा कर सकता है अथवा न उससे बच ही सकता है। मनु चाहता कु छ और है और होता कु छ और ही है। ब त मनु नाना कारके भोग को भोगना चाहते ह, पर इसके लये सुयोग मलना उनके हाथक बात नह है। अनेक तरहके संयोगवयोग वे नह चाहते, पर बलात् हो जाते ह; कम के फलका वधान करना सवथा वधाताके अधीन है; मनु का उसम कु छ भी उपाय नह चलता। अव ही पु े आ द शा ीय य ानु ान के सांगोपांग पूण होनेपर उनके फल ा होनेका न त वधान है और वैसे कम सकाम मनु कर भी सकते ह; परंतु उनका यह व हत फल भी कम-कताके अधीन नह है, देवताके ही अधीन है। इस लये इस कार इ ा करना क अमुक व ुक , धने यक , मानबड़ाई या त ाक अथवा ग आ द लोक क मुझे ा हो, एक कारसे अ ान ही है। साथ ही ये सब अ ही तु तथा अ - काल ायी अ न पदाथ ह, अतएव तुमको तो कसी भी फलक कामना नह करनी चा हये। – तो ा मु क कामना भी नह करनी चा हये? उ र – मु क कामना शुभे ा होनेके कारण मु म सहायक है; य प इस इ ाका भी न होना उ म है, परंतु भगवान्के त और ममको यथाथ पसे जाने बना इस इ ासे र हत होकर और ई रा ाके पालनको कत समझकर हेतुर हत कम का आचरण करना ब त ही क ठन है। अतएव मु क कामना करना अनु चत नह है। मु क इ ा न रखनेसे शी मु क ा होगी, इस कारका भाव भी छपी ई मु क इ ा ही है। – ' कमफलका हेतु बनना' ा है? और अजुनको कमफलका हेतु न बननेके लये कहनेका ा भाव है? उ र – मन, बु और इ य ारा कये ए शा व हत कम म और उनके फलम ममता, आस , वासना, आशा, ृहा और कामना करना ही कमफलका हेतु बनना है; क जो मनु उपयु कारसे कम म और उनके फलम आस होता है उसीको उन कम का फल मलता है; कम म और उनके फलम ममता, आस और कामनाका सवथा ाग कर देनेवालेको नह (१८।१२)। अत: अजुनको कमफलका हेतु न बननेके लये कहकर भगवान् यह भाव दखलाते ह क परम शा क ा के लये तुम अपने कत कम का अनु ान ममता, आस और कामनाका सवथा ाग करके करो। – उपयु कारसे ममता, आस और कामनाका ाग करके कम करनेवाला मनु ा पापकम के फलका भी हेतु नह बनता? उ र – उपयु कारसे कम करनेवाला मनु कसी कारके भी कम के फलका हेतु नह बनता। उसके शुभ और अशुभ सभी कम म फल देनेक श का अभाव हो जाता है; क पापकम म वृ तका हेतु आस ही है, अत: आस , ममता और कामनाका सवथा अभाव हो जानेके बाद नवीन पाप तो उससे बनते नह और पहलेके कये ए पाप ममता, आस -र हत कम के भावसे भ हो जाते ह। इस कारण वह पापकम के फलका हेतु नह बनता और शुभ कम के फलका वह ाग कर देता है, इस कारण उनके भी फलका हेतु नह

बनता। इस कार कम करनेवाले मनु के सम कम वलीन हो जाते ह (४।२३) और वह अनामय पदको ा हो जाता है (२।५१)। – तेरी कम न करनेम भी आस न हो, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क जस कार शा व हत कम से वपरीत न ष कम का आचरण करना कमा धकारका दु पयोग करना है, उसी कार वण, आ म, भाव और प र तके अनुसार जसके लये जो अव कत है, उसका न करना भी उस अ धकारका दु पयोग करना है। व हत कम का ाग कसी कार भी ायसंगत नह है। अत: इनका मोहपूवक ाग करना तामस ाग है (१८।७) और शारी रक ेशके भयसे ाग करना राजस ाग है (१८।८)। व हत कम का अनु ान बना कये मनु कमयोगक स को भी नह पा सकता (३।४), अत: तु ारी कसी भी कारणसे व हत कम का अनु ान न करनेम आस नह होनी चा हये। स – उपयु ोकम यह बात कही गयी क तुमको न तो कम के फलका हेतु बनना चा हये और न कम न करनेम ही आस होना चा हये अथात् कम का ाग भी नह करना चा हये। इसपर यह ज ासा होती है क तो फर कस कार कम करना चा हये? इस लये भगवान् कहते ह – योग ः कु कमा ण स ं ा धन य । सद् सद् ोः समो भू ा सम ं योग उ ते ॥४८॥ हे धन य! तू आस को ागकर तथा स और अ स म समान बु वाला होकर योगम त आ कत -कम को कर , सम ही योग कहलाता है॥ ४८ ॥ – स और अ स म सम होनेपर आस का ाग तो उसम आ ही जाता है,

फर यहाँ अजुनको आस का ाग करनेके लये कहनेका ा भाव है? उ र – इस ोकम भगवान्ने कमयोगके आचरणक या बतलायी है। कमयोगका साधक जब कम म और उनके फलम आस का ाग कर देता है, तब उसम राग- ेषका और उनसे होनेवाले हष-शोका दका अभाव हो जाता है। ऐसा होनेसे ही वह स और अ स म सम रह सकता है। इन दोष के रहते स और अ स म सम नह रहा जा सकता तथा स और अ स म अथात् कये जानेवाले कमके पूण होने और न होनेम तथा उसके अनुकूल और तकू ल प रणामम सम रहनेक चे ा रखनेसे अ म राग- ेष आ दका अभाव होता है। इस कार आस के ागका और समताका पर र घ न स है एवं दोन पर र एक-दूसरेके सहायक ह, इस लये भगवान्ने यहाँ आस का ाग करके और स -अ स म सम होकर कम करनेके लये कहा है। – जब सम का ही नाम योग है, तब स और अ स म सम होकर कम करनेके अ गत ही योगम त होनेक बात आ जाती है; फर योगम त होनेके लये अलग कहनेका ा अ भ ाय है?

उ र – कमक स और अ स म समता रखते- रखते ही मनु क समभावम अटल त होती है और समभावका र हो जाना ही कमयोगक अव ध है। अत: यहाँ योगम त होकर कम करनेके लये कहकर भगवान् ने यह भाव दखलाया है क के वल स और अ स म ही सम रखनेसे काम नह चलेगा, ेक याके करते समय भी तुमको कसी भी पदाथम, कमम या उसके फलम अथवा कसी भी ाणीम वषमभाव न रखकर न समभावम त रहना चा हये । – ' सम ही योग कहलाता है' इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे भगवान् ने ' योग' पदका पा रभा षक अथ बतलाया है। अ भ ाय यह है क यहाँ योग समताका नाम है और कसी भी साधनके ारा सम को ा कर लेना ही योगी बनना है। अतएव तुमको कमयोगी बननेके लये समभावम त होकर कम करना चा हये । स – इस कार कमयोगक या बतलाकर अब सकामभावक न ा और समभाव प बु योगका मह कट करते ए भगवान् अजुनको उसका आ य लेनेके लये आ ा देते ह – दूरेण वरं कम बु योगा न य । बु ौ शरणम कृ पणाः फलहेतवः ॥४९॥ इस सम प बु योगसे सकाम कम अ ही न े ीका है। इस लये हे ण धनंजय ! तू समबु म ही र ाका उपाय ढूँ ढ़ अथात् बु योगका ही आ य हण कर ; क फलके हेतु बननेवाले अ दीन ह ॥ ४९ ॥

कस योगका वाचक है? कमयोगका या ानयोगका? उ र – जसम ममता, आस और कामनाका ाग करके समबु पूवक कत कम का अनु ान कया जाता है, उस कमयोगका वाचक यहाँ  ' बु योगात् ' पद है । क उनतालीसव ोकम ' योगे मां ृणु ' अथात् अब तुम मुझसे इस बु को योगम सुनो, यह कहकर भगवान् ने कमयोगका वणन आर कया है, इस कारण यहाँ ' बु योगात् ' पदका अथ  ' ानयोग' माननेक गुंजाइश नह है। इसके सवा इस ोकम फल चाहनेवाल को कृ पण बतलाया गया है और अगले ोकम बु यु पु षक शंसा करके अजुनको कमयोगके लये आ ा दी गयी है और यह कहा गया है क बु यु मनु कमफलका ाग करके ' अनामय' पदको ा हो जाता है ( २।५१); इस कारण भी यहाँ ' बु योगात् ' पदका करण व ' ानयोग' अथ मानना नह बन सकता; क ानयोगीके लये यह कहना नह बनता क वह कमफलका ाग करके अनामय पदक ा होता है, वह तो अपनेको कमका कता ही नह समझता, फर उसके लये फल ागक बात ही कहाँ रह जाती है? – बु योगक अपे ा सकाम कमको अ ही न ेणीका बतलानेका ा भाव है तथा यहाँ ' कम' पदका अथ न ष कम मान लया जाय तो ा आप है? –'

बु

योगात् ' पद यहाँ

उ र – सकाम कम को बु योगक अपे ा अ नीचा बतलाकर भगवान् ने यह भाव दखलाया है क सकाम कम का फल नाशवान् णक सुखक ा है और कमयोगका फल परमा ाक ा है। अत: दोन म दन और रातक भाँ त महान् अ र है। यहाँ ' कम' पदका अथ न ष कम नह माना जा सकता; क वे सवथा ा ह और उनका फल महान् दुःख क ा है। इस लये उनक तुलना बु योगका मह दखलानेके लये नह क जा सकती। – ' बु ौ ' पद कसका वाचक है और अजुनको उसका आ य लेनेके लये कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – जस समबु का करण चल रहा है, उसीका वाचक यहाँ ' बु ौ ' पद है; उसका आ य लेनेके लये कहकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क उठते-बैठते, चलतेफरते, सोते-जागते और हरेक कम करते समय तुम नर र समभावम त रहनेक चे ा करते रहो, यही क ाण ा का सुगम उपाय है। – कमफलके हेतु बननेवाले अ दीन ह, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया है क जो मनु कम म और उनके फलम ममता, आस और कामना करके कमफल ा के कारण बन जाते ह, वे दीन ह अथात् दयाके पा ह, इस लये तुमको वैसा नह बनना चा हये। स – इस कार समताका आ य लेनेक आ ा देकर अब दो ोक म उस समता प बु से  यु महापु ष क शंसा करते ए भगवान् अजुनको कमयोगका अनु ान करनेक पुन: आ ा देकर उसका फल बतलाते ह – बु यु ो जहातीह उभे सुकृतदु ृ ते । त ा ोगाय यु योगः कमसु कौशलम् ॥५०॥ समबु यु पु ष पु और पाप दोन को इसी लोकम ाग देता है अथात् उनसे मु हो जाता है। इससे तू सम प योगम लग जा ; यह सम प योग ही कम म कुशलता है अथात् कमब नसे छू टनेका उपाय है ॥ ५० ॥

समबु यु पु ष पु और पाप दोन को इसी लोकम ाग देता है' इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क ज -ज ा रम और इस ज म कये ए जतने भी पु कम और पापकम सं ार पसे अ ःकरणम सं चत रहते ह, उन सम कम को समबु से यु कमयोगी इसी लोकम ाग देता है – अथात् इस वतमान ज म ही वह उन सम कम से मु हो जाता है। उसका उन कम से कु छ भी स नह रहता, इस लये उसके कम पुनज प फल नह दे सकते। क नः ाथभावसे के वल लोक हताथ कये ए कम से उसके सम कम वलीन हो जाते ह (४।२३)। इसी कार –'

उसके यमाण पु तथा पापकमका भी ाग हो जाता है; क पापकम तो उसके ारा पसे ही छू ट जाते ह और शा व हत पु कम म फलास का ाग होनेसे वे कम ' अकम' बन जाते ह (४।२०), अतएव उनका भी एक कारसे ाग ही हो गया। – ' इससे तू सम प योगम लग जा' इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क समबु से यु आ योगी जीव ु हो जाता है, इस लये तु भी वैसा ही बनना चा हये। – ' यह सम प योग ही कम म कु शलता है' इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह दखलाया गया है क कम ाभा वक ही मनु को ब नम डालनेवाले होते ह और बना कम कये कोई मनु रह नह सकता, कु छ-न-कु छ उसे करना ही पड़ता है; ऐसी प र तम कम से छू टनेक सबसे अ ी यु सम योग है। इस समबु से यु होकर कम करनेवाला मनु इसके भावसे उनके ब नम नह आता। इस लये कम म ' योग' ही कु शलता है। साधन-कालम समबु से कम करनेक चे ा क जाती है और स ाव ाम सम म पूण त होती है। कमजं बु यु ा ह फलं ा मनी षणः । ज ब व नमु ाः पदं ग नामयम् ॥५१॥ ज

क समबु से यु ानीजन कम से उ होनेवाले फलको प ब नसे मु हो न वकार परम पदको ा हो जाते ह॥ ५१॥ –'

ह ' पद का ा भाव है? ह ' पद हेतुवाचक है। इसका

ागकर

उ र–' योग करके यह भाव दखलाया गया है क समबु पूवक कम का करना कस कारणसे कु शलता है, वह बात इस ोकम बतलायी जाती है। – ' बु यु ा: ' पद कनका वाचक है और उनको ' मनी षणः ' कहनेका ा भाव है? उ र – जो पूव समबु से यु ह अथात् जनम समभावक अटल त हो गयी है, ऐसे कमयो गय का वाचक यहाँ ' बु यु ा: ' पद है। उनको ' मनी षणः ' कहकर यह भाव दखलाया गया है क जो इस कार समभावसे यु होकर अपने मनु ज को सफल कर लेते ह, वे ही वा वम बु मान् और ानी ह; जो सा ात् मु के ार प इस मनु शरीरको पाकर भी भोग म फँ से रहते ह, वे बु मान् नह ह (५।२२)। – उन बु यु मनु का कम से उ होनेवाले फलको ागकर ज प ब नसे मु हो जाना ा है? उ र – समता प योगके भावसे उनका जो ज -ज ा रम और इस ज म कये ए सम कम के फलसे स - व ेद होकर बार-बार ज ने और मरनेके च से सदाके लये छू ट जाना है, यही उनका कम से उ होनेवाले फलका ाग करके ज -ब नसे मु हो

जाना है; क तीन गुण के काय प सांसा रक पदाथ म आस ही पुनज का हेतु है (१३।२१), उसका उनम सवथा अभाव हो जाता है; इस कारण उनका पुनज नह हो सकता। – ऐसे पु ष का न वकार (अनामय) परम पदको ा हो जाना ा है? उ र – जहाँ राग- ेष आ द ेश का, शुभाशुभ कम का, हष-शोका द वकार का और सम दोष का सवथा अभाव है, जो इस कृ त और कृ तके कायसे सवथा अतीत है, जो भगवान्से सवथा अ भ भगवान्का परमधाम है, जहाँ प ँ चे ए मनु वापस नह लौटते, उस परमधामका वाचक ' अनामय' पद है। अत: भगवान्के परमधामको ा हो जाना, स दान घन नगुण- नराकार या सगुण-साकार परमा ाको ा हो जाना, परमग तको ा हो जाना या अमृत को ा हो जाना – यह सब एक ही बात है। वा वम कोई भेद नह है, साधक क मा ताका ही भेद है। स – भगवान् ने कमयोगके आचरण ारा अनामय पदक ा बतलायी; इसपर यह ज ासा हो सकती है क अनामय परमपदक ा मुझे कब और कै से होगी ? इसके लये भगवान् दो ोक म कहते ह – यदा ते मोहक ललं बु तत र त । तदा ग ा स नवदं ोत ुत च ॥५२॥ जस कालम तेरी बु मोह प दलदलको भलीभाँ त पार कर जायगी , उस समय तू सुने ए और सुननेम आनेवाले इस लोक और परलोकस ी सभी भोग से वैरा को ा हो जायगा ॥ ५२ ॥

ह?

–'

मोहक लल' ा है? और बु का उसको भलीभाँ त पार कर जाना कसे कहते

उ र – जन-बा व के वधक आशंकासे ेहवश अजुनके दयम जो मोह उ हो गया था, जसे इसी अ ायके दूसरे ोकम ' क ल' बतलाया गया है, यहाँ ' मोहक लल' से उसीका ल है। और इसी ' मोहक लल' के कारण अजुन ' धमस ूढचेता: ' होकर अपना कत न य करनेम असमथ हो गये थे। यह ' मोहक लल' एक कारका आवरणयु ' मल' दोष है, जो बु को न यभू मतक न प ँ चने देकर अपनेम ही फँ साये रखता है। स ंगसे उ ववेक ारा न -अ न और कत -अकत का न य करके ममता, आस और कामनाके ागपूवक भगव रायण होकर न ामभावसे कम करते रहनेसे इस आवरणयु मलदोषका जो सवथा नाश हो जाना है, यही बु का मोह पी क ललको पार कर जाना है। – ' ुत ' और ' ोत ' – इन दोन श से कनका ल है? और उनसे वैरा को ा होना ा है?

उ र – इस लोक और परलोकके जतने भी भोगै या द आजतक देखने, सुनने और अनुभवम आ चुके ह उनका नाम ' ुत' है और भ व म जो देख,े सुने और अनुभव कये जा सकते ह उ ' ोत ' कहते ह। उन सबको दुःखके हेतु और अ न समझकर उनम जो आस का सवथा अभाव हो जाना है, यही उनसे वैरा को ा होना है। भगवान् कहते ह क मोहके नाश होनेपर जब तु ारी बु स क कारसे ाभा वक तम प ँ च जायगी, तब तु इस लोक और परलोकके सम णक पदाथ से यथाथ वैरा हो जायगा। ु त व तप ा ते यदा ा त न ला । समाधावचला बु दा योगमवा स ॥५३॥ भाँ त-भाँ तके वचन को सुननेसे वच लत ई तेरी बु जब परमा ाम अचल और र ठहर जायगी, तब तू योगको ा हो जायगा अथात् तेरा परमा ासे न संयोग हो जायगा॥ ५३॥ – ' ु त व तप ा बु ' का ा प है? उ र – इस लोक और परलोकके भोगै य और उनक ा के साधन के स म भाँ त-भाँ तके वचन को सुननेसे बु म व ता आ जाती है; इसके कारण वह एक न यपर न ल पसे नह टक सकती, अभी एक बातको अ ी समझती है, तो कु छ ही समय बाद दूसरी बातको अ ी मानने लगती है। ऐसी व और अ न या का बु को यहाँ ' ु त व तप ा बु ' कहा गया है। यह बु का व ेपदोष है। – उसका परमा ाम अचल और र ठहर जाना ा है? उ र – मोह प दलदलसे पार हो जानेके कारण इस लोक और परलोकके भोग से सवथा वर ई बु का जो व ेपदोषसे सवथा र हत हो जाना और एकमा परमा ाम ही ायी पसे न ल टक जाना है यही उसका परमा ाम अचल और र ठहर जाना है। – उस समय ' योग' का ा होना ा है? उ र – यहाँ ' योग' श परमा ाके साथ न और पूण संयोगका वाचक है। क यह मल, व ेप और आवरणदोषसे र हत ववेक-वैरा स और परमा ाम न ल पसे त बु का फल है तथा इसके बाद ही अजुनने परमा ाको ा त पु ष के ल ण पूछे ह इससे भी यही स होता है। – पचासव ोकम तो योगका अथ सम कया गया है और यहाँ उसे परमा ाक ा का वाचक माना गया है; इसका ा ता य है? उ र – वहाँ योग पी साधनके लये चे ा करनेक बात कही गयी है और यहाँ ' रबु ' होनेके बाद फल पम ा होनेवाले योगक बात है। इसीसे यहाँ ' योग' श को परमा ाक ा का वाचक माना गया है। गीताम ' योग' और ' योगी ' श न ल खत कु छ उदाहरण के अनुसार संगानुकूल व भ अथ म आये ह। ँ

योग

(१) कमयोग –

अ० ६।३ – यहाँ योगम आ ढ़ होनेक इ ावालेके लये कम कत बताये गये ह। इस कारण योग श कमयोगका वाचक है। ( २) ानयोग – अ० ६।१९ – वायु-र हत ानम त दीपकक ो तके समान चकअ रताका वणन होनेके कारण यहाँ ' योग' श ानयोगका वाचक है। ( ३) सम योग – अ० २।४८ – योगम त होकर आस र हत हो तथा स अ स म समबु होकर कम के करनेक आ ा होनेसे यहाँ ' योग' श सम योगका वाचक है। (४) भगव भाव पयोग – अ० ९।५ – इसम आ यजनक भाव दखलानेका वणन होनेसे यह श अथवा भावका वाचक है। (५) भ योग – अ० १४।२६ – नर र अ भचार पसे भजन करनेका उ ेख होनेसे यहाँ ' योग' श भ योगका वाचक है। यहाँ तो ' भ योग' श का उ ेख ही आ है। (६) अ ांगयोग – अ० ४।२८ – यहाँ ' योग' श का अथ ' सां योग' अथवा ' कमयोग' नह लया जा सकता; क ये दोन श ापक है। यहाँ य के नामसे जन साधन का वणन है वे सभी इन दोन योग के अ गत आ जाते ह। इस लये ' योग' श का अथ ' अ ांगयोग' ही लेना ठीक मालूम होता है। (७) सां योग – अ० १३।२४ – इसम सां योगके वशेषणके पम आनेसे यह सां योगका वाचक है। इसी कार अ ल म भी संगानुसार समझ लेना चा हये। (१) इ र

योगी



अ० १०।१७ – भावान् ीकृ का स ोधन होनेसे यहाँ ' योगी' श

ई रका वाचक है। (२) आ ानी – अ० ६।३२ – अपने समान सबको देखनेका वणन होनेसे यहाँ ' योगी' श आ ानीका वाचक है। (३) स भ – अ० १२।१४ – परमा ाम मन, बु को अ पत बताये जानेके कारण तथा ' म ' का वशेषण होनेसे यहाँ ' योगी' श स भ का वाचक है। (४) कमयोगी – अ० ५।११ – आस को ागकर आ शु के लये कम करनेका कथन होनेसे यहाँ ' योगी' श कमयोगीका वाचक है। (५) सां योगी – अ० ५।२४ – अभेद पसे क ा इसका फल होनेके कारण यह सां योगीका वाचक है। (६) भ योगी – अ० ८।१४ – अन - च से न - नर र भगवान्के रणका उ ेख होनेसे यहाँ ' योगी' श भ योगीका वाचक है। (७) साधकयोगी – अ० ६।४५ – य से परमग त मलनेका उ ेख होनेसे यहाँ ' योगी' श साधकयोगीका वाचक है। ी

(८)

अ० ६।१० – एका ानम त होकर मनको एका करके आ ाको परमा ाम लगानेक ेरणा होनेसे यहाँ ' योगी' श ानयोगीका वाचक है। (९) सकामकम – अ० ८।२५ – वापस लौटनेका उ ेख होनेसे यहाँ ' योगी' श सकामकम का वाचक है। स – पूव ोक म भगवान्ने यह बात कही क जब तु ारी बु मोह पी दलदलको सवथा पार कर जायगी तथा तुम इस लोक और परलोकके सम भोग से वर हो जाओगे, तु ारी बु परमा म न ल ठहर जायेगी, तब तुम परमा ाको ा हो जाओगे। इसपर परमा ाको ा त स योगीके ल ण और आचरण जाननेक इ ासे अजुन पूछते ह – अजुन उवाच । त का भाषा समा ध के शव । तधीः क भाषेत कमासीत जेत कम् ॥५४॥ ानयोगी



अजुन बोले – हे केशव! समा धम त परमा ाको ा ए रबु पु षका ा ल ण है ? वह रबु पु ष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है ? ॥५४॥

यहाँ ' केशव ' स ोधनका ा भाव है? उ र – क, अ, ईश और व – इन चार के मलनेसे ' केशव ' पद बनता है। अत: क– ा, अ– व ,ु ईश– शव – ये तीन जसके व– वपु अथात् प ह , उसको के शव कहते ह। यहाँ अजुन भगवान्को ' केशव ' नामसे स ो धत करके यह भाव दखलाते ह क आप सम जगत्के सृजन, संर ण और संहार करनेवाले, सवश मान् सा ात् सव परमे र ह; अत: आप ही मेरे का यथाथ उ र दे सकते ह। –' त ' पदके साथ ' समा ध ' वशेषणके योगका ा भाव हे? उ र – पूव ोकम भगवान्ने अजुनसे यह बात कही थी क जब तु ारी बु समा धम अथात् परमा ाम अचल भावसे ठहर जायगी, तब तुम योगको ा होओगे। उसके अनुसार यहाँ अजुन भगवान्से उस स पु षके ल ण जानना चाहते है, जो परमा ाको ा हो चुका है और जसक बु परमा ाम सदाके लये अचल और र हो गयी है। यही भाव करनेके लये ' त ' के साथ ' समा ध ' वशेषणका योग कया गया है। – उपयु अव ा परमा ाको ा स पु षक अ य-अव ा माननी चा हये अथवा स य-अव ा? उ र – दोन ही अव ाएँ माननी चा हये; अजुनने भी यहाँ दोन क ही बात पूछी ह – ' क भाषेत ' और ' क जेत ' से स यक और ' कमासीत ' से अ यक । – ' भाषा ' श का अथ ' वाणी' न करके ' ल ण' कै से कया? –

उ र – रबु पु षक वाणीके वषयम ' क भाषेत ' अथात् वह कै से बोलता है – इस कार अलग कया गया है, इस कारण यहाँ ' भाषा ' श का अथ ' वाणी ' न करके ' भा ते क ते अनया इ त भाषा ' – जसके ारा व ुका प बतलाया जाय, उस ल णका नाम ' भाषा ' है – इस ु अनुसार ' भाषा ' का अथ ' ल ण' कया गया है; च लत भाषाम भी ' प रभाषा' श ल णका ही पयाय है। उसी अथम यहाँ ' भाषा' पदका योग कया गया है। – रबु पु ष कै से बोलता है? कै से बैठता है? कै से चलता है? इन म ा साधारण बोलने, बैठने और चलनेक बात है या और कु छ वशेषता है? उ र – परमा ाको ा स पु षक सभी बात म वशेषता होती है; अतएव उसका साधारण बोलना, बैठना और चलना भी वल ण ही होता है। कतु यहाँ साधारण बोलने, बैठने और चलनेक बात नह है; यहाँ बोलनेसे ता य है – उसके वचन मनके कन भाव से भा वत होते ह? बैठनेसे ता य है – वहारर हत कालम उसक कै सी अव ा होती है? और चलनेसे ता य है – उसके आचरण कै से होते ह? स – पूव ोकम अजुनने परमा ाको ा ए स योगीके वषयम चार बात पूछी ह; इन चार बात का उ र भगवान् ने अ ायक समा पय दया है, बीचम संगवश दूसरी बात भी कही ह। इस अगले ोकम अजुनके पहले का उ र सं ेपम देते ह– ीभगवानुवाच । जहा त यदा कामा वा ाथ मनोगतान् । आ ेवा ना तु ः त दो ते ॥५५॥ ीभगवान् बोले – हे अजुन! जस कालम यह पु ष मनम त स ूण कामना को भलीभाँ त ाग देता है और आ ासे आ ाम ही स ु रहता है, उस कालम वह त कहा जाता है॥ ५५ ॥

वशेषणके स हत ' कामान् ' पद कनका वाचक है? और उनका भलीभाँ त ाग कर देना ा है? उ र – इस लोक या परलोकके कसी भी पदाथके संयोग या वयोगक जो कसी भी न म से कसी भी कारक म या ती कामनाएँ मनु के अ ःकरणम आ करती ह, उन सबका वाचक यहाँ ' सवान् ' वशेषणके स हत ' कामान् ' पद है। इनके वासना, ृहा, इ ा और तृ ा आ द अनेक भेद ह। इन सबसे सदाके लये सवथा र हत हो जाना ही उनका सवथा ाग कर देना है। – वासना, सहा, इ ा और तृ ाम ा अ र है? –'

सवान्

'

उ र – शरीर, ी, पु , धन, मान, त ा आ द अनुकूल पदाथ के बने रहनेक और तकू ल पदाथ के न हो जानेक जो राग – ेषज नत सू कामना है, जसका प वक सत नह होता उसे ' वासना' कहते ह। कसी अनुकूल व ुके अभावका बोध होनेपर जो च म ऐसा भाव होता है क अमुक व ुक आव कता है, उसके बना काम नह चलेगा – इस अपे ा प कामनाका नाम ' ृहा' है। यह कामनाका वासनाक अपे ा वक सत प है। जस अनुकूल व ुका अभाव होता है, उसके मलनेक और तकू लके वनाशक या न मलनेक कट कामनाका नाम ' इ ा' है; यह कामनाका पूण वक सत प है और ी, पु , धन आ द पदाथ यथे ा रहते ए भी जो उनके अ धका धक बढ़नेक इ ा है, उसको ' तृ ा' कहते ह। यह कामनाका ब त ूल प है। – यहाँ ' कामान् ' के साथ ' मनोगतान् ' वशेषण देनेका ा भाव हे? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क कामनाका वास ान मन है (३।४०); अतएव बु के साथ-साथ जब मन परमा ाम अटल र हो जाता है तब इन सबका सवथा अभाव हो जाता है। इस लये यह समझना चा हये क जबतक साधकके मनम रहनेवाली कामना का सवथा अभाव नह हो जाता, तबतक उसक बु र नह है। – आ ासे आ ाम ही स ु रहना ा है? उ र – अ ःकरणम त सम कामना का सवथा अभाव हो जानेके बाद सम - जगत् से सवथा अतीत न , शु , बु परमा ाके यथाथ पको करके जो उसीम न तृ हो जाना है – यही आ ासे आ ाम ही स ु रहना है। तीसरे अ ायके स हव ोकम भी महापु षके ल ण म आ ाम ही तृ और आ ाम ही स ु रहनेक बात कही गयी है। – उस समय वह त कहा जाता है, इस कथनका ा भाव है। उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क कमयोगका साधन करते-करते जब योगीक उपयु त हो जाय, तब समझना चा हये क उसक बु परमा ाम अटल त हो गयी है अथात् वह योगी परमा ाको ा हो चुका है। स – त के वषयम अजुनने चार बात पूछी ह, उनमसे पहला इतना ापक है क उसके बादके तीन का उसम अ भाव हो जाता है। इस से तो अ ायक समा पय उस एक ही का उ र है; पर अ तीन का भेद समझनेके लये ऐसा समझना चा हये क अब दो ोक म ' त कै से बोलता है ' इस दूसरे का उ र दया जाता है – दुःखे नु मनाः सुखेषु वगत ृहः । वीतरागभय ोधः तधीमु न ते ॥५६॥ दःु ख क ा होनेपर जसके मनम उ ेग नह होता , सुख क ा सवथा न: ृह है तथा जसके राग , भय और ोध न हो गये ह, ऐसा मु न ै

म जो रबु

कहा जाता है॥ ५६ ॥

ा भाव है? उ र – इससे रबु मनु के अ ःकरणम उ ेगका सवथा अभाव दखलाया है। अ भ ाय यह है क जसक बु परमा ाके पम अचल र हो जाती है, उस परमा ाको ा ए महापु षको साधारण दुःख क तो बात ही ा है, भारी-से-भारी दुःख भी उस तसे वच लत नह कर सकते (६।२२)। श ारा शरीरका काटा जाना, अ दुःसह सरदी-गरमी, वषा और बजली आ दसे होनेवाली शारी रक पीड़ा, अ त उ ट रोगज नत था, यसे भी य व ुका आक क वयोग, बना कारण ही संसारम महान् अपमान एवं तर ार और न ा दका हो जाना, इसके सवा और भी जतने महान् दुःख के कारण ह, वे सब एक साथ उप त होकर भी उसके मनम क च ा भी उ ेग नह उ कर सकते। इस कारण उसके वचन म भी सवथा उ ेगका अभाव होता है; य द लोकसं हके लये उसके ारा शरीर या वाणीसे कह उ ेगका भाव दखलाया जाय तो वह वा वम उ ेग नह है। – ' सुखेषु वगत ृह: ' का ा भाव है? उ र – इससे रबु मनु के अ ःकरणम ृहा पी दोषका सवथा अभाव दखलाया गया है। अ भ ाय यह है क वह दुःख और सुख दोन म सदा ही सम रहता है (१२। १३; १४।२४), जस कार बड़े-से-बड़ा दुःख उसे अपनी तसे वच लत नह कर सकता, उसी कार बड़े-से-बड़ा सुख भी उसके अ ःकरणम क च ा भी ृहाका भाव नह उ कर सकता; इस कारण उसक वाणीम ृहाके दोषका सवथा अभाव होता है। य द लोकसं हके लये उसके ारा शरीर या वाणीसे कह ृहाका भाव दखलाया जाय तो वह वा वम सदा नह है। – ' वीतरागभय ोधः ' का ा भाव है? उ र – इससे रबु योगीके अ ःकरण और वाणीम आस , भय और ोधका सवथा अभाव दखलाया गया है। अ भ ाय यह है क कसी भी तम कसी भी घटनासे उसके अ ःकरणम न तो कसी कारक आस उ हो सकती है, न कसी कारका जरा भी भय हो सकता है और न ोध ही हो सकता है। इस कारण उसक वाणी भी आस , भय और ोधके भाव से र हत शा और सरल होती है। लोकसं हके लये उसके शरीर या वाणीक या ारा आस , भय या ोधका भाव दखलाया जा सकता है; पर वा वम उसके मन या वाणीम कसी तरहका कोई वकार नह रहता। के वल वाणीको उपयु सम वकार से र हत करके बोलना तो कसी भी धैययु बु मान् पु षके लये भी स व है; पर उसके अ ःकरणम वकार ए बना नह रह सकते, इस कारण यहाँ भगवान्ने ' रबु पु ष कै से बोलता है?' इस के उ रम उसक वाणीक ऊपरी या न बतलाकर उसके मनके भाव का वणन कया है। अत: इससे यह समझना चा हये क रबु योगीक वाणी भी वा वम उसके अ ःकरणके अनु प सवथा न वकार और शु होती है। –'

दःु खेषु अनु

मना: ' का

ऐसा मु न रबु कहा जाता है' – इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क उपयु ल ण से यु योगी ही वा वम ' मु न' अथात् वाणीका संयम करनेवाला है और वही रबु है; जसके अ ःकरण और इ य म वकार भरे ह, वह वाणीका संयमी होनेपर भी रबु नह हो सकता। यः सव ान भ ेह ा शुभाशुभम् । ना भन त न े त ा त ता ॥५७॥ –'



जो पु ष सव ेहर हत आ उस-उस शुभ या अशुभ व ुको ा होता है और न ेष करता है उसक बु र है ॥ ५७॥

ा भाव है? उ र – इससे रबु योगीम अ भ ेहका अथात् ममतापूवक होनेवाली सांसा रक आस का सवथा अभाव दखलाया गया है। अ भ ाय यह है क जस कार सांसा रक मनु अपने ी, पु , भाई, म और कु टु वाल म ममता और आस रखते ह, दन-रात उनम मो हत ए रहते ह तथा उनके हरेक वचनम उस मोहयु ेहके भाव टपकते रहते ह, रबु योगीम ऐसा नह होता। उसका कसी भी ाणीम ममता और आस यु ेम नह रहता। इस लये उसक वाणी भी ममता और आस के दोषसे सवथा र हत, शु ेममयी होती है। आस ही काम- ोध आ द सारे वकार क मूल है। इस लये आस के अभावसे अ सारे वकार का अभाव समझ लेना चा हये। – ' शुभाशुभम् ' पद कसका वाचक है तथा उसके साथ ' तत् ' पदका दो बार योग करके ा भाव दखलाया है? उ र – जनको य और अ य तथा अनुकूल और तकू ल कहते ह, उ का वाचक यहाँ  ' शुभाशुभम् ' पद है। वा वम रबु योगीका संसारक कसी भी व ुम अनुकूल या तकू ल भाव नह रहता; के वल ावहा रक से जो उसके मन, इ य और शरीरके अनुकूल दखलायी देती हो उसे शुभ और जो तकू ल दखलायी देती हो उसे अशुभ बतलानेके लये यहाँ ' शुभाशुभम् ' पद दया गया है। इसके साथ ' तत् ' पदका दो बार योग करके यह भाव दखलाया गया है क ऐसी अनुकूल और तकू ल व ुएँ अन ह, उनमसे जस- जस व ुके साथ उस योगीका संयोग होता है, उस-उसके संयोगम उसका कै सा भाव रहता है – यही यहाँ बतलाया गया है। – ' न अ भन त ' का ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क उपयु शुभाशुभ व ु मसे कसी भी शुभ अथात् अनुकूल व ुका संयोग होनेपर साधारण मनु के अ ःकरणम बड़ा हष होता है, अतएव वे हषम म होकर वाणी ारा बड़ी स ता कट करते ह और उस व ुक ु त कया करते ह; कतु रबु योगीका अ अनुकूल व ुके साथ संयोग होनेपर भी उसके अ ःकरणम क च ा भी हषका वकार नह होता (५।२०)। इस कारण उसक वाणी भी –'

सव अन भ ेह: ' का

होकर न

हषके वकारसे सवथा शू होती है, वह कसी भी अनुकूल व ु या ाणीक हषग भत ु त नह करता। य द उसके शरीर या वाणी ारा लोकसं हके लये कोई हषका भाव कट कया जाता है या ु त क जाती है तो वह हषका वकार नह है। –' न े ' का ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया है क जस कार अनुकूल व ुक ा म साधारण मनु को बड़ा भारी हष होता है, उसी कार तकू ल व ुके ा होनेपर वे उससे ेष करते ह, उनके अ ःकरणम बड़ा ोभ होता है, वे उस व ुक ेषभरी न ा कया करते ह; पर रबु योगीका अ तकू ल व ुके साथ संयोग होनेपर भी उसके अ ःकरणम क च ा भी ेषभाव नह उ होता। उस व ुके संयोगसे कसी कारका जरा-सा भी उ ेग या वकार नह होता। उसका अ ःकरण हरेक व ुक ा म सम, शा और न वकार रहता है (५।२०)। इस कारण वह कसी भी तकू ल व ु या ाणीक ेषपूण न ा नह करता। ऐसे महापु षक वाणी ारा य द लोकसं हके लये कसी ाणी या व ुको कह बुरा बतलाया जाता है या उसक न ा क जाती है तो वह वा वम न ा नह है, क उसका कसीम भी ेषभाव नह है। – उसक बु र है – इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क जो महापु ष उपयु ल ण से स ह , जनके अ ःकरण और इ य म कसी भी व ु या ाणीके संयोग- वयोगम कसी भी घटनासे कसी कारका त नक भी वकार कभी न होता हो, उनको रबु योगी समझना चा हये। – इन दो ोक म बोलनेक बात तो पसे कह नह आयी है; फर यह कै से समझा जा सकता है क इनम ' वह कै से बोलता है।' इस का उ र दया गया है? उ र – यह तो पहले ही कहा जा चुका है क यहाँ साधारण बोलनेक बात नह है। के वल वाणीक बात हो, तब तो कोई भी द ी या पाख ी मनु भी रटकर अ ी-से-अ ी वाणी बोल सकता है। यहाँ तो यथाथम मनके भाव क धानता है। इन दो ोक म बतलाये ए मान सक भाव के अनुसार, इन भाव से भा वत जो वाणी होती है, उसीसे भगवान्का ता य है। इसी लये इनम वाणीक बात न कहकर मान सक भाव क बात कही गयी है। स – ' रबु वाला योगी कै से बोलता है ?' इस दूसरे का उ र समा करके अब भगवान् ' वह कै से बैठता है ?' इस तीसरे का उ र देते ए यह दखलाते ह क त पु षक इ य का सवथा उसके वशम हो जाना और आस से र हत होकर अपने-अपने वषय से उपरत हो जाना ही त पु षका बैठना है – यदा संहरते चायं कू म ऽ ानीव सवशः । इ याणी याथ ा त ता ॥५८॥ औ









और कछु आ सब ओरसे अपने अंग को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पु ष इ य के वषय से इ य को सब कारसे हटा लेता है, तब उसक बु र है (ऐसा समझना चा हये)॥ ५८॥

कछु एक भाँ त इ य क वषय से इ य को सब कारसे हटा लेना ा है? उ र – जस कार कछु आ अपने सम अंग को सब ओरसे संकु चत करके र हो जाता है, उसी कार समा धकालम जो वशम क ई सम इ य क वृ य को इ य के सम भोग से हटा लेना है, कसी भी इ यको कसी भी भोगक ओर आक षत न होने देना तथा उन इ य म मन और बु को वच लत करनेक श न रहने देना है – यही कछु एक भाँ त इ य को इ य के वषय से हटा लेना है। ऊपरसे इ य के ान को बंद करके ूल वषय से इ य को हटा लेनेपर भी इ य क वृ याँ वषय क ओर दौड़ती रहती ह, इसी कारण साधारण मनु म और मनोरा म इ य ारा सू वषय का उपभोग करता रहता है; यहाँ ' सवश: ' पदका योग करके इस कारके वषयोपभोगसे भी इ य को सवथा हटा लेनेक बात कही गयी है। – उसक बु र है – इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे यह भाव दखलाया है क जसक इ याँ सब कारसे ऐसी वशम क ई ह क उनम मन और बु को वषय क ओर आक षत करनेक जरा भी श नह रह गयी है और इस कारसे वशम क ई अपनी इ य को जो सवथा वषय से हटा लेता है, उसीक बु र रहती है। जसक इ याँ वशम नह ह, उसक बु र नह रह सकती; क इ याँ मन और बु को बलात् वषय-सेवनम लगा देती ह। स – पूव ोकम तीसरे का उ र देते ए त के बैठनेका कार बतलाकर अब उसम होनेवाली शंका का समाधान करनेके लये अ कारसे कये जानेवाले इ यसंयमक अपे ा त के इ यसंयमक वल णता दखलाते ह – वषया व नवत े नराहार दे हनः । रसवज रसोऽ परं ा नवतते ॥५९॥ –

इ य के ारा वषय को हण न करनेवाले पु षके भी केवल वषय तो नवृत हो जाते ह, परंतु उनम रहनेवाली आस नवृ नह होती। इस त पु षक तो आस भी परमा ाका सा ा ार करके नवृ हो जाती है॥ ५९ ॥

यहाँ ' नराहार ' वशेषणके स हत ' दे हनः ' पद कसका वाचक है? उ र – संसारम जो भोजनका प र ाग कर देता है, उसे ' नराहार' कहते ह; परंतु यहाँ ' नराहार ' पदका योग इस अथम नह है, क यहाँ ' वषया: ' पदम ब वचनका योग करके सम वषय के नवृ हो जानेक बात कही गयी है। भोजनके ागसे तो के वल ज ा-इ यके वषयक ही नवृ होती है; श , श, प और ग क नवृ नह होती। –

अत: यह समझना चा हये क जस इ यका जो वषय है, वही उसका आहार है – इस से जो सभी इ य के ारा सम इ य के वषय का हण करना छोड़ देता है, ऐसे देहा भमानी मनु का वाचक यहाँ ' नराहार ' वशेषणके स हत ' दे हनः ' पद है। – ऐसे मनु के भी के वल वषय तो नवृत हो जाते ह, परंतु उनम रहनेवाली आस नवृत नह होती, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क वषय का प र ाग कर देनेवाला अ ानी भी ऊपरसे तो कछु एक भाँ त अपनी इ य को वषय से हटा सकता है; कतु उसक उन वषय म आस बनी रहती है, आस का नाश नह होता। इस कारण उसक इ य क वृ याँ वषय क ओर दौड़ती रहती है और उसके अ ःकरणको र नह होने देत । न ल खत उदाहरण से यह बात ठीक समझम आ सकती है। रोग या मृ ुके भयसे अथवा अ कसी हेतुसे वषयास मनु कसी एक वषयका या अ धक वषय का ाग कर देता है। वह जैसे जब जस वषयका प र ाग कर देता है, तब उस वषयक नवृ हो जाती है, वैसे ही सम वषय का ाग करनेसे सम वषय क नवृ भी हो सकती है; परंतु वह नवृ हठ, भय या अ कसी कारणसे आस रहते ही होती है, ऐसी नवृ से व ुत: आस क नवृ नह हो सकती। द ी मनु लोग को दखलानेके लये कसी समय जब बाहरसे दस इ य के श ा द वषय का प र ाग कर देता है तब ऊपरसे तो वषय क नवृ हो जाती है, परंतु आस रहनेके कारण मनके ारा वह इ य के वषय का च न करता रहता है (३।६); अत: उसक आस पूववत् ही बनी रहती है। भौ तक सुख क कामनावाला मनु अ णमा द स य क ा के लये या अ कसी कारके वषय-सुखक ा के लये ानकालम या समा ध-अव ाम दस इ य के वषय का ऊपरसे भी ाग कर देता है और मनसे भी उनका च न नह करता तो भी उन भोग म उसक आस बनी रहती है, आस का नाश नह होता। इस कार पसे वषय का प र ाग कर देनेपर वषय तो नवृ हो सकते ह, पर उनके रहनेवाली आस नवृ नह होती। – यहाँ ' रस' का अथ आ ादन अथवा मनके ारा उपभोग मानकर ' उसका रस नवृ नह होता' इस वा का अथ य द यह मान लया जाय क ऐसा पु ष पसे वषय का ागी होकर भी मनसे उनके उपभोगका आन लेता रहता है, तो ा आप है? उ र – उपयु वा का ऐसा अथ लया तो जा सकता है; कतु इस कार मनके ारा वषय का आ ादन वषय म आस होनेपर ही होता है, अत: ' रस' का अथ ' आस ' लेनेसे यह बात उसके अ गत ही आ जाती है। दूसरी बात यह है क इस कार मनके ारा वषय का उपभोग परमा ाके सा ा ारसे पूव हठ, ववेक एवं वचारके ारा भी रोका जा सकता है; परमा ाका सा ा ार हो जानेपर तो उसके मूल आस का भी नाश हो

जाता है और इसीम परमा ाके सा ा ारक च रताथता है, वषय का मनसे उपभोग हटानेम नह । अत: ' रस' का अथ जो ऊपर कया गया है, वही ठीक है। – ' अ ' पद कसका वाचक है और ' इसक आस भी परमा ाका सा ा ार करके नवृ हो जाती है' इस कथनका ा भाव है? उ र – ' अ ' पद, यहाँ जसका करण चल रहा है उस त योगीका वाचक है तथा उपयु कथनसे यहाँ यह दखलाया गया है क उस त योगीको परमान के समु परमा ाका सा ा ार हो जानेके कारण उसक कसी भी सांसा रक पदाथम जरा भी आस नह रहती। क आस का कारण अ व ा है, [5] उस अ व ाका परमा ाके सा ा ार होनेपर अभाव हो जाता है। साधारण मनु को मोहवश इ य के भोग म सुखक ती त हो रही है, इसी कारण उनक उन भोग म आस है; पर वा वम भोग म सुखका लेश भी नह है। उनम जो कु छ सुख तीत हो रहा है, वह भी उस परम आन प परमा ाके आन के कसी अंशका आभासमा ही है। जैसे अँधेरी रातम चमकनेवाले न म जस काशक ती त होती है वह काश सूयके ही काशका आभास है और सूयके उदय हो जानेपर उनका काश लु हो जाता है, उसी कार सांसा रक पदाथ म तीत होनेवाला सुख आन मय परमा ाके आन का ही आभास है; अत: जस मनु को उस परम आन प परमा ाक ा हो जाती है, उसको इन भोग म सुखक ती त ही नह होती (२।६९) और न उनम उसक क च ा भी आस ही रहती है। क परमा ा एक ऐसी अ तु , अलौ कक, द आकषक व ु है जसके ा होनेपर इतनी त ीनता, मु ता और त यता होती है क अपना सारा आपा ही मट जाता है; फर कसी दूसरी व ुका च न कौन करे? इसी लये परमा ाके सा ा ारसे आस के सवथा नवृ होनेक बात कही गयी है। इस कार आस न रहनेके कारण त- के संयमम के वल वषय क ही नवृ नह होती, मूलस हत आस का भी सवथा अभाव हो जाता है; यह उसक वशेषता हे। स – आस का नाश और इ यसंयम नह होनेसे ा हा न है ? इसपर कहते ह– यततो प कौ ेय पु ष वप तः । इ या ण माथी न हर सभं मनः ॥६०॥ हे अजुन! आस का नाश न होनेके कारण ये मथन भाववाली इ करते ए बु मान् पु षके मनको भी बलात् हर लेती ह॥ ६० ॥ –'

ह ' पदका यहाँ ा भाव है? ह ' पद यहाँ देहली-दीपक

उ र–' ोकके साथ भी स

याँ य

ायसे इस ोकका पूव ोकसे तथा अगले बतलाता है। पछले ोकम यह बात कही गयी क वषय का

के वल पसे ाग करनेवाले पु षके वषय ही नवृत होते ह, उनम उसका राग नवृ नह होता। इसपर यह ज ासा हो सकती है क रागके नवृ न होनेसे ा हा न है? इसके उ रम इस ोकम यह बात कही गयी है क जबतक मनु क वषय म आस बनी रहती है, तबतक उस आस के कारण उसक इ याँ उसे बलात् वषय म वृ कर देती है; अतएव उसक मनस हत बु परमा ाके पम र नह हो पाती और चूँ क इ य इस कार बलात् मनु के मनको हर लेती ह, इसी लये अगले ोकम भगवान् कहते ह क इन सब इ य को वशम करके मनु को समा हत च एवं मेरे परायण होकर ानम त होना चा हये। इस कार ' ह ' पदसे पछले और अगले दोन ोक के साथ इस ोकका स बतलाया गया है। – ' इ या ण ' पदके साथ ' माथी न ' वशेषणके योगका ा भाव हे? उ र – ' माथी न ' वशेषणका योग करके यह दखलाया गया है क जबतक मनु क इ याँ वशम नह हो जात और जबतक उसक इ य के वषय म आस रहती है, तबतक इ याँ मनु के मनको बार-बार वषयसुखका लोभन देकर उसे र नह होने देत , उसका म न ही करती रहती ह। – यहाँ ' यतत: ' और ' वप तः ' –   इन दोन वशेषण के स हत ' पु ष ' पद कस मनु का वाचक है और ' अ प ' पदके योगका ा भाव है? उ र – जो पु ष शा के वण-मननसे और ववेक- वचारसे वषय के दोष को जान लेता है और उनसे इ य को हटानेका य भी करता रहता है, कतु जसक वषयास का नाश नह हो सका है, इसी कारण जसक इ याँ वशम नह ह ऐसे बु मान् य शील साधकका वाचक यहाँ ' यतत: ' और ' वप तः ' – इन दोन वशेषण के स हत ' पु ष ' पद है; इनके स हत ' अ प ' पदका योग करके यहाँ यह भाव दखलाया है क जब ये मथनशील इ याँ वषयास के कारण ऐसे बु मान् ववेक य शील मनु के मनको भी बलात् वषय म वृत कर देती ह तब साधारण लोग क तो बात ही ा है। अतएव त -अव ा ा करनेक इ ावाले मनु को आस का सवथा ाग करके इ य को अपने वशम करनेका वशेष य करना चा हये। स – इस कार इ यसंयमक आव कताका तपादन करके अब भगवान् साधकका कत बतलाते ए पुन: इ यसंयमको त -अव ाका हेतु बतलाते ह – ता न सवा ण संय यु आसीत म रः । वशे ह य े या ण त ा त ता ॥६१॥ इस लये साधकको चा हये क वह उन स ूण इ य को वशम करके समा हत च आ मेरे परायण होकर ानम बैठे ; क जस पु षक इ याँ वशम होती ह, उसीक बु र हो जाती है॥ ६१॥



यहाँ इ य के साथ ' सवा ण' वशेषण देनेका ा अ भ ाय है? उ र – सम इ य को वशम करनेक आव कता दखलानेके लये ' सवा ण ' वशेषण दया गया है, क वशम न क ई एक इ य भी मनु के मन-बु को वच लत करके साधनम व उप त कर देती है (२। ६७)। अतएव परमा ाक ा चाहनेवाले पु षको स ूण इ य को ही भलीभा त वशम करना चा हये। – ' समा हत च ' और ' भगवतपरायण' होकर ानम बैठनेके लये कहनेका ा भाव है? उ र – इ य का संयम हो जानेपर भी य द मन वशम नह होता तो मनके ारा वषयच न होकर साधकका पतन हो जाता है और मन-बु के लये परमा ाका आधार न रहनेसे वे र नह रह सकते। इस कारण समा हत च और भगव रायण होकर परमा ाके ानम बैठनेके लये कहा गया है। छठे अ ायके ानयोगके संगम भी यही बात कही गयी है (६। १४)। इस कार मन और इ य को वशम करके परमा ाके ानम लगे ए मनु क बु र हो जाती है और उसको शी ही परमा ाक ा हो जाती है। – जसक इ याँ वशम होती ह, उसीक बु र हो जाती है – इस कथनका ा भाव है? उ र – ोकके पूवा म इ य को वशम करके संयत च और भगव रायण होकर ानम बैठनेके लये कहा गया, उसी कथनके हेतु पसे इस उतरा का योग आ है। अत: इसका यह भाव समझना चा हये क ममता, आस और कामनाका सवथा ाग करके मन और इ य को संय मत कर बु को परमा ाके पम र करना चा हये, क जसके मनस हत इ याँ वशम क ई होती ह उसी साधकक बु र होती है। जसके मनस हत इ याँ वशम नह ह उसक बु र नह रह सकती। अत: मन और इ य को वशम करना साधकके लये परम आव क है। स – उपयु कारसे मनस हत इ य को वशम न करनेसे और भगव रायण न होनेसे ा हा न है ? यह बात अब दो ोक म बतलायी जाती हैायतो वषया ुंसः स ेषूपजायते । स ा ायते कामः कामा ोधोऽ भजायते ॥६२॥ –

वषय का च न करनेवाले पु षक उन वषय म आस आस से उन वषय क कामना उ होती है और कामनाम व उ होता है॥ ६२॥

वषय का च न करनेवाले मनु क उनम आस कथनका ा भाव है? –



हो जाती है, पड़नेसे ोध

हो जाती है – इस

उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क जस मनु क भोग म सुख और रमणीय बु है, जसका मन वशम नह है और जो परमा ाका च न नह करता, ऐसे मनु का परमा ाम ेम और उनका आ य न रहनेके कारण उसके मन ारा इ य के वषय का च न होता रहता है। इस कार वषय का च न करते-करते उन वषय म उसक अ आस हो जाती है। तब फर उसके हाथक बात नह रहती, उसका मन वच लत हो जाता है। – वषय के च नसे ा सभी पु ष के मनम आस उ हो जाती हे? उ र – जन पु ष को परमा ाक ा हो गयी है, उनके लये तो वषय च नसे आस होनेका कोई ही नह रहता। ' परं वा नवतते ' से भगवान् ऐसे पु ष म आस का अ ाभाव बतला चुके ह। इनके अ त र अ सभीके मन म ूना धक पम आस उ हो सकती है। – आस से कामनाका उ होना ा है? और कामनासे ोधका उ होना ा है? उ र – वषय का च न करते-करते जब मनु क उनम अ आस हो जाती है, उस समय उसके मनम नाना कारके भोग ा करनेक बल इ ा जा त् हो उठती है; यही आस से कामनाका उ होना है तथा उस कामनाम कसी कारका व उप त होनेपर जो उस व के कारणम ेषबु होकर ोध उ हो जाता है; यही कामनासे ोधका उ होना है। ोधा व त स ोहः स ोहा ृ त व मः । ृ त ंशाद् बु नाशो बु नाशा ण त ॥६३॥ ोधसे अ मूढ़भाव उ हो जाता है, मूढ़भावसे ृ तम म हो जाता है, ृ तम म हो जानेसे बु अथात् ानश का नाश हो जाता है और बु का नाश हो जानेसे यह पु ष अपनी तसे गर जाता है॥ ६३॥ – ोधसे उ होनेवाले अ मूढ़भावका ा प है? उ र – जस समय मनु के अ ःकरणम ोधक वृ जा त् होती है, उस समय उसके अ ःकरणम ववेकश का अ अभाव हो जाता है। वह कु छ भी आगा-पीछा नह सोच सकता; ोधके वशम होकर जस कायम वृ होता है उसके प रणामका उसको कु छ भी खयाल नह रहता। यही ोधसे उ स ोहका अथात् अ मूढ़भावका प है। – स ोहसे उ होनेवाले ' ृ त व म ' का ा प है? उ र – जब ोधके कारण मनु के अ ःकरणम मूढ़भाव बढ़ जाता है तब उसक रणश मत हो जाती है, उसे यह ान नह रहता क कस मनु के साथ मेरा ा स है? मुझे ा करना चा हये? ा न करना चा हये? मने अमुक काय कस कार करनेका न य कया था और अब ा कर रहा ँ ? इस लये पहले सोची- वचारी ई बात को वह कामम नह ला सकता, उसक ृ त छन- भ हो जाती है। यही स ोहसे उ ए ृ त व मका प है।

ृ त व मसे बु का न हो जाना और उस बु नाशसे मनु का अपनी तसे गर जाना ा है? उ र – उपयु कारसे ृ तम व म होनेसे अ ःकरणम कसी कत -अकत का न य करनेक श का न रहना ही बु का न हो जाना है। ऐसा होनेसे मनु अपने कत का ागकर अकत म वृ हो जाता है – उसके वहारम कटुता, कठोरता, कायरता, हसा, त हसा, दीनता, जडता और मूढ़ता आ द दोष आ जाते ह। अतएव उसका पतन हो जाता है, वह शी ही अपनी पहलेक तसे नीचे गर जाता है और मरनेके बाद नाना कारक नीच यो नय म या नरकम पड़ता है; यही बु नाशसे उसका अपनी तसे गर जाना है। स – इस कार मनस हत इ य को वशम न करनेवाले मनु के पतनका म बतलाकर अब भगवान् ' त योगी कै से चलता है' इस चौथे का उ र आर करते ए पहले दो ोक म जसके मन और इ याँ वशम होते ह, ऐसे साधक ारा वषयाम वचरण कये जानेका कार और उसका फल बतलाते ह – राग ेष वमु ै ु वषया न यै रन् । आ व ै वधेया ा सादम धग त ॥६४॥ परंतु अपने अधीन कये ए अ ःकरणवाला साधक अपने वशम क ई, राग- ेषसे र हत इ य ारा वषय म वचरण करता आ अ ःकरणक स ताको ा होता है॥ ६४ ॥ – ' तु ' पदका ा भाव है? उ र – पूव ोक म जसके मन, इ य वशम नह ह, ऐसे वषयी मनु क अवन तका वणन कया गया और अब दो ोक म उससे वल ण जसके मन, इ य वशम कये ए ह, ऐसे वर साधकक उ तका वणन कया जाता है। इस भेदका ोतक यहाँ ' तु ' पद है। – ' वधेया ा ' पद कै से साधकका वाचक है? उ र – जसका अ ःकरण भलीभाँ त वशम कया आ है, ऐसे साधकका वाचक यहाँ ' वधेया ा ' पद है। – ऐसे साधकका अपने वशम क ई राग- ेषसे र हत इ य ारा वषय म वचरण करना ा है? उ र – साधारण मनु क इ याँ त होती है, उनके वशम नह होत ; उन इ य म राग- ेष भरे रहते ह। इस कारण उन इ य के वशम होकर भोग को भोगनेवाला मनु उ चत-अनु चतका वचार न करके जस कसी कारसे भोग-साम य के सं ह करने और भोगनेक चे ा करता है और उन भोग म राग- ेष करके सुखी-दुःखी होता रहता है; उसे –



आ ा क सुखका अनुभव नह होता; कतु उपयु साधकक इ याँ उसके वशम होती ह और उनम राग- ेषका अभाव होता है – इस कारण वह अपने वण, आ म और प र तके अनुसार यो तासे ा ए भोग म बना राग- ेषके वचरण करता है; उसका देखना-सुनना, खाना-पीना, उठना-बैठना, बोलना-बतलाना, चलना- फरना और सोना-जागना आ द सम इ य के वहार नय मत और शा - व हत होते ह; उसक सभी या म राग- ेष, कामोध और लोभ आ द वकार का अभाव होता है। यही उसका अपने वशम क ई रागेषर हत इ य ारा वषय म वचरण करना है। – पहले उनसठव ोकम यह कहा जा चुका है क परमा ाका सा ा ार ए बना रागका नाश नह होता और यहाँ राग- ेषर हत होकर वषय म वचरण करनेसे सादको ा होकर रबु होनेक बात कही गयी है। यहाँके इस कथनसे ऐसा तीत होता है क परमा ाक ा से पूव भी राग- ेषका नाश स व है। अतएव इन दोन कथन म जो वरोध तीत होता है उसका सम य कै से होता है? उ र – दोन म कोई वरोध नह है, क वहाँ उनसठव ोकम तो राग- ेषका अ अभाव बताया गया है और यहाँ राग- ेषर हत इ य ारा वषयसेवनक बात कहकर राग- ेषके सवथा अभावक साधना बतायी गयी है। तीसरे अ ायके चालीसव ोकम इ य, मन और बु – इन तीन को ही कामका अ ध ान बताया है। इससे यह स होता है क इ य म राग- ेष न रहनेपर भी मन या बु म सू पसे राग- ेष रह सकते ह। परंतु उनसठव ोकम ' अ ' पदका योग करके रबु पु षम राग- ेषका सवथा अभाव बताया गया है। वहाँ के वल इ य म ही राग- ेषके अभावक बात नह है। – इ य से वषय का संयोग न होने देना यानी बाहरसे वषय का ाग, इ य का संयम और इ य का राग- ेषसे र हत हो जाना – इन तीन म े और भगव ा म वशेष सहायक कौन है? उ र – तीन ही भगवान्क ा म सहायक ह, कतु इनम बा वषय- ागक अपे ा इ यसंयम और इ यसंयमक अपे ा इ य का राग- ेषसे र हत होना वशेष उपयोगी और े है। य प बा वषय का ाग भी भगवान्क ा म सहायक है, परंतु जबतक इ य का संयम और राग- ेषका ाग न हो तबतक के वल बा वषय के ागसे वषय क पूण नवृ नह हो सकती और न कोई स ही ा होती है तथा ऐसी बात भी नह है क बा वषयका ाग कये बना इ यसंयम हो ही नह सकता; क भगवान्क पूजा, सेवा, जप और ववेक, वैरा आ द दूसरे उपाय से सहज ही इ यसंयम हो जाता है एवं इ यसंयम हो जानेपर अनायास ही वषय का ाग कया जा सकता है। इ याँ जसके वशम ह, वह चाहे जब, चाहे जस वषयका ाग कर सकता है। इस लये बा वषय ागक अपे ा इ यसंयम े है।

इस कार इ यसंयम भी भगव ा म सहायक है; परंतु इ य के राग- ेषका ाग ए बना के वल इ यसंयमसे वषय क पूणतया नवृ होकर वा वम परमा ाक ा नह होती और ऐसी बात भी नह है क बा वषय- ाग तथा इ यसंयम ए बना इ य के राग- ेषका ाग हो ही न सकता हो। स ंग, ा ाय और वचार ारा सांसा रक भोग क अ न ताका भान होनेसे तथा ई रकृ पा और भजन- ान आ दसे राग- ेषका नाश हो सकता है और जसके इ य के राग- ेषका नाश हो गया है उसके लये बा वषय का ाग और इ यसंयम अनायास अपने-आप ही होता है। जसका इ य के वषय म रागेष नह है, वह पु ष य द बा पसे वषय का ाग न करे तो वषय म वचरण करता आ ही परमा ाको ा कर सकता है; इस लये इ य का राग- ेषसे र हत होना वषय के ाग और इ यसंयमसे भी े है। – ' सादम् ' पद यहाँ कसका वाचक है? उ र – वशम क ई इ य ारा बना राग- ेषके वहार करनेसे साधकका अ ःकरण शु और हो जाता है, इस कारण उसम आ ा क सुख और शा का अनुभव होता है (१८।३७); उस सुख और शा का वाचक यहाँ ' सादम् ' पद है। इस सुख और शा के हेतु प अ ःकरणक प व ताको और भगवान्के अपण क ई व ु अ ःकरणको प व करने-वाली होती है, इस कारण उसको भी साद कहते ह; परंतु अगले ोकम उपयु पु षके लये ' स चेतस: ' पदका योग कया गया है, अत: यहाँ ' सादम् ' पदका अथ अ ःकरणक आ ा क स ता मानना ही ठीक मालूम होता है। सादे सवदुःखानां हा नर ोपजायते । स चेतसो ाशु बु ः पयव त ते ॥६५॥ अ ःकरणक स ता होनेपर इसके स ूण दःु ख का अभाव हो जाता है और उस स च वाले कमयोगीक बु शी ही सब ओरसे हटकर एक परमा ाम ही भलीभाँ त र हो जाती है॥६५॥

अ ःकरणक स तासे सारे दुःख का अभाव कै से हो जाता है? उ र – पाप के कारण ही मनु को दुःख होता है और कमयोगके साधनसे पाप का नाश होकर अ ःकरण वशु हो जाता है तथा शु अ ःकरणम ही उपयु सा क स ता होती है। इस लये सा क स तासे सारे दुःख का अभाव बतलाना ायसंगत ही है (१८।३६-३७)। – ' सवदःु खानाम् ' पद कनका वाचक है और उनका अभाव हो जाना ा है? उ र – अनुकूल पदाथ के वयोग और तकू ल पदाथ के संयोगसे जो आ ा क, आ धदै वक और आ धभौ तक नाना कारके दुःख सांसा रक मनु को ा होते ह, उन सबका वाचक यहाँ ' दःु खानाम् ' पद है। उपयु साधकको आ ा क सा क –

स ताका अनुभव हो जानेके बाद उसे कसी भी व ुके संयोग- वयोगसे क च ा भी दुःख नह होता। वह सदा आन म म रहता है। यही स ूण दुःख का अभाव हो जाना है। – स च वाले योगीक बु शी ही सब ओरसे हटकर भलीभाँ त परमा ाम र हो जाती है – इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया है क अ ःकरणके प व हो जानेपर जब साधकको आ ा क स ता ा हो जाती है, तब उसका मन णभर भी उस सुख और शा का ाग नह कर सकता। इस कारण उसके अ ःकरणक वृ याँ सब ओरसे हट जाती ह और उसक बु शी ही परमा ाके पम र हो जाती है। फर उसके न यम एक स दान घन परमा ासे भ कोई व ु नह रहती। – अजुनका त स पु षके वषयम था। इस ोकम साधकका वणन है, क इसका फल सादक ा के ारा शी ही बु का र होना बतलाया गया है। अतएव अजुनके चौथे का उ र इस ोकसे कै से माना जा सकता है? उ र – य प अजुनका साधकके स म नह है, परंतु अजुन साधक ह और भगवान् उ स बनाना चाहते ह। अतएव सुगमताके साथ उ समझानेके लये भगवान्ने पहले साधकक बात कहकर अ म इकह रव ोकम उसका स म उपसंहार कर दया है। अजुनके का पूरा उ र तो उस उपसंहारम ही है, उसक भू मकाका आर इ ोक से हो जाता है। अतएव अजुनके चौथे का उ र यह से आर होता है, ऐसा ही मानना उ चत है। स – इस कार मन और इ य को वशम करके अनास भावसे इ य ारा वहार करनेवाले साधकको सुख, शा और त -अव ा ा होनेक बात कहकर अब दो ोक ारा इससे वपरीत जसके मन-इ य जीते ए नह ह, ऐसे वषयास सुख-शा का अभाव दखलाकर वषय के संगसे उसक बु के वच लत हो जानेका कार बतलाते ह – ना बु रयु न चायु भावना । न चाभावयतः शा रशा कु तः सुखम् ॥६६॥ न जीते ए मन और इ य वाले पु षम न या का बु नह होती और उस अयु मनु के अ ःकरणम भावना भी नह होती तथा भावनाहीन मनु को शा नह मलती और शा र हत मनु को सुख कैसे मल सकता है ? ॥६६॥

पद यहाँ कै से मनु का वाचक है? उ र – जसके मन और इ य वशम कये ए नह ह, एवं जसक इ य के भोग म आस है, ऐसे वषयास अ ववेक मनु का वाचक यहाँ ' अयु ' पद है। – अयु म बु नह होती – इस कथनका ा भाव है? –'



अयु

'

उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क इकतालीसव ोकम व णत ' न या का बु ' उसम नह होती; नाना कारके भोग क आस और कामनाके कारण उसका मन व रहता है, इस कारण वह अपने कत का न य करके परमा ाके पम बु को र नह कर सकता। – अयु के अ ःकरणम भावना भी नह होती – इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया है क मन और इ य के अधीन रहनेवाले वषयास मनु म ' न या का बु ' नह होती, इसम तो कहना ही ा है; उसम भावना भी नह होती। अथात् परमा ाके पम बु का र होना तो दूर रहा, वषय म आस होनेके कारण वह परमा - पका च न भी नह कर सकता, उसका मन नर र वषय म ही रमण करता रहता है। – भावनाहीन मनु को शा नह मलती, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह दखलाया गया है क परम आन और शा के समु परमा ाका च न न होनेके कारण अयु मनु का च नर र व रहता है; उसम राग- ेष, कामोध और लोभ-ई ा आ दके कारण हर समय जलन और ाकु लता बनी रहती है। अतएव उसको शा नह मलती। – शा र हत मनु को सुख कै से मल सकता है ? – इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क च म शा का ादुभाव ए बना कह कसी भी अव ाम कसी भी उपायसे मनु को स ा सुख नह मल सकता। वषय और इ य के संयोगम तथा न ा, आल और मादम मसे जो सुखक ती त होती है वह वा वम सुख नह है वह तो दुःखका हेतु होनेसे व ुत: दुःख ही है। इ याणां ह चरतां य नोऽनु वधीयते । तद हर त ां वायुनाव मवा स ॥६७॥ क जैसे जलम चलनेवाली नावको वायु हर लेती है, वैसे ही वषय म वचरती ई इ य मसे मन जस इ यके साथ रहता है वह एक ही इ य इस अयु पु षक बु को हर लेती है ॥६७॥

ा भाव है? उ र – पूव ोकम यह बात कही गयी है क अयु मनु म न ल बु , भावना, शा और सुख नह होते; उसी बातको करनेके लये उन सबके न होनेका कारण इस ोकम बतलाया गया है – इसी भावका ोतक हेतुवाचक ' ह ' पद है। – जलम चलनेवाली नौका और वायुका ा देकर यहाँ ा बात कही गयी है? उ र – ा म नौकाके ानम बु है, वायुके ानम जसके साथ मन रहता है, वह इ य है, जलाशयके ानम संसार प समु है और जलके ानम श ा द सम वषय का समुदाय है। जलम अपने ग ानक ओर जाती ई नौकाको बल वायु दो –'

ह ' पदका

कारसे वच लत करती है – या तो उसे पथ करके जलक भीषण तरंग म भटकाती है या अगाध जलम डु बो देती है; कतु य द कोई चतुर म ाह उस वायुक याको अपने अनुकूल बना लेता है तो फर वह वायु उस नौकाको पथ नह कर सकती, ब उसे ग ानपर प ँ चानेम सहायता करती है। इसी कार जसके मन-इ य वशम नह ह, ऐसा मनु य द अपनी बु को परमा ाके पम न ल करना चाहता है तो भी उसक इ याँ उसके मनको आक षत करके उसक बु को दो कारसे वच लत करती ह। इ य का बु प नौकाको परमा ासे हटाकर नाना कारके भोग क ा का उपाय सोचनेम लगा देना, उसे भीषण तरंग म भटकाना है और पाप म वृत करके उसका अधःपतन करा देना, उसे डु बो देना है। परंतु जसके मन और इ य वशम रहते है उसक बु को वे वच लत नह करते वरं बु प नौकाको परमा ाके पास प ँ चानेम सहायता करते ह। च सठव और पसठव ोक म यही बात कही गयी है। – सब इ य ारा बु के वच लत कये जानेक बात न कहकर एक इ यके ारा ही बु का वच लत कया जाना कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – इससे इ य क बलता दखलायी गयी है। अ भ ाय यह है क सब इ याँ मलकर मनु क बु को वच लत कर द, इसम तो कहना ही ा है; जस इ यके साथ मन रहता है वह एक ही इ य बु को वषयम फँ साकर वच लत कर देती है। देखा भी जाता है क एक कण यके वश होकर मृग, श यके वश होकर हाथी, च -ु इ यके वश होकर पतंग, रसना इ यके वश होकर मछली और ाणे यके वशम होकर मर – इस कार के वल एक-एक इ यके वशम होनेके कारण ये सब अपने ाण खो बैठते ह। इसी तरह मनु क बु भी एक-एक इ यके ारा ही वच लत क जा सकती है। – वहाँ ' य ' और ' तत् ' का स ' मन' के साथ न माना जाय? उ र – यहाँ ' इ याणाम् ' पदम ' नधारणे ष ी ' है, अत: इ य मसे जस एक इ यके साथ मन रहता है उसीके साथ ' यत् ' पदका स मानना उ चत है और ' यत् ' ' तत् ' का न स है, अत: ' तत् ' का स भी इ यके साथ ही होगा। ' अनु वधीयते ' म ' अनु ' उपसग नह , कम वचनीयसं क अ य है, अत: उसके योगम ' यत् ' म तीया वभ ई है और कमकतृ याके अनुसार ' वधीयते ' का कमभूत ' मन: ' पद ही कताके पम यु आ है। इसके अ त र अगले ोकम ' त ात् ' पदका योग करके इ य को वशम करनेवालेक बु र बतलायी गयी है, इस लये भी यहाँ ' यत् ' और ' तत् ' पद का इ यके साथ ही स मानना अ धक यु संगत मालूम होता है। – अके ला मन या अके ली इ य बु के हरण करनेम समथ ह या नह ? उ र – मनके साथ ए बना अके ली इ य बु को नह हर सकती; हाँ मन इ य के बना अके ला भी बु को हर सकता है। स – इस कार अयु पु षक बु के वच लत होनेका कार बतलाकर अब पुन: त -अव ाक ा म सब कारसे इ यसंयमक वशेष आव कता स

करते ए त अव ाका वणन करते ह – त ा महाबाहो नगृहीता न सवशः । इ याणी याथ ा त ता ॥६८॥ क

इस लये हे महाबाहो! जस पु षक इ ई ह, उसीक बु र है ॥६८॥

य के वषय से सब कार न ह

ा अ भ ाय है? उ र – पूव ोकम यह बात कही गयी है क जसके मन और इ य वशम नह ह उस वषयास मनु क इ याँ उसके मनको वषय म आक षत करके बु को वच लत कर देती ह, र नह रहने देत । इस लये मन और इ य को अव वशम करना चा हये, यह भाव दखानेके लये यहाँ ' त ात् ' पदका योग कया गया है। – ' म बाहो ' स ोधनका ा भाव है? उ र – जसक भुजाएँ लंबी, मजबूत और ब ल ह , उसे ' महाबा ' कहते है। यह स ोधन शूरवीरताका ोतक है। यहाँ इस स ोधनका योग करके भगवान्ने यह भाव दखलाया है क तुम बड़े शूरवीर हो, अतएव इ य और मनको वशम कर लेना तु ारे लये कोई बड़ी बात नह है। – इ य के वषय से इ य को सव कारसे ' नगृहीत' कर लेना ा है? उ र – ो ा द सम इ य के जतने भी श ा द वषय ह, उन वषय म बना कसी कावटके वृ हो जाना इ य का भाव है; क अना दकालसे जीव इन इ य के ारा वषय को भोगता आया है, इस कारण इ य क उनम आस हो गयी है। इ य क इस ाभा वक वृ को सवथा रोक देना, उनके वषयलोलुप भावको प रव तत कर देना, उनम वषयास का अभाव कर देना और मन- बु को वच लत करनेक श न रहने देना – यही उनको उनके वषय से सवथा नगृहीत कर लेना है। इस कार जसक इ याँ वशम क ई होती ह, वह पु ष जब ानकालम इ य क या का ाग कर देता है उस समय उसक कोई भी इ य न तो कसी भी वषयको हण कर सकती है और न अपनी सू वृ तय ारा मनम व ेप ही उ कर सकती है। उस समय वे मनम त पू -सी हो जाती ह और ु ानकालम जब वह देखना-सुनना आ द इ य क या करता रहता है, उस समय वे बना आस के नय मत पसे यथायो श ा द वषय को हण करती ह। कसी भी वषयम उसके मनको आक षत नह कर सकती वरं मनका ही अनुसरण करती ह। त पु ष लोकसं हके लये जस इ यके ारा जतने समयतक जस शा स त वषयको हण करना उ चत समझता है, वही इ य उतने ही समयतक उसी वषयको हण करती है; उसके वपरीत कोई भी इ य कसी भी वषयको हण नह कर सकती। इस कार जो इ य पर पूण आ धप कर लेता है; उसक त ताको सवथा न –'

त ात् ' पदका

याँ इ

करके उनको अपने अनुकूल बना लेना है – यही इ य के वषय से इ य को सब कारसे नगृहीत कर लेना है। – अट्ठावनव ोकका और इस ोकका उ रा एक ही है; फर वहाँ पूवा म ' संहरते ' और इस ोकम ' नगृहीता न ' पदका योग करके दोन म ा अ र दखाया गया है? उ र – अट्ठावनव ोकम भगवान् अजुनके ' कमासीत ' ' कै से बैठता है' इस तीसरे का उ र देते ए त पु षक अ य-अव ाका वणन कर रहे ह; इसी लये वहाँ कछु एका ा देकर ' संहरते' पदसे ' वषय से हटा लेना' कहा है। बा पम इ य को वषय से हटा लेना तो साधारण मनु के ारा भी बन सकता है; परंतु वहाँके हटा लेनेम वल णता है, क वह त पु षका ल ण है; अतएव आस र हत मन और इ य का संयम भी इस हटा लेनेके साथ ही है और यहाँ भगवान् त क ाभा वक अव ाका वणन करते ह, इसी लये यहाँ ' नगृहीता न ' पद आया है। वषय क आस से र हत होनेपर ही सब ओरसे मन-इ य का ऐसा न ह होता है। ' न ' उपसग और ' सवश: ' वशेषणसे भी यही स होता है। अत: दोन क वा वक तम कोई अ र न होनेपर भी वहाँ अ य-अव ाका वणन है और यहाँ सब समयक साधारण अव ाका, यही दोन म अ र है। – उसक बु र है, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क जसक मनस हत सम इ याँ उपयु कारसे वशम क ई ह उसीक बु र है; जसके मन और इ याँ वशम नह ह, उसक बु र नह रह सकती। स – इस कार मन और इ यांके सयंम न करनेम हा न और संयम करनेम लाभ दखलाकर तथा त अव ा ा करनेके लये राग- ेषके ागपूवक मनस हत इ य के संयमक वशेष आव कताका तपादन करके त पु षक अव ाका वणन कया। अब साधारण वषयास मनु म और मन-इ य का सयंम करके परमा ाको ा ए रबु संयमी महापु षम ा अ र है, इस बातको रात और दनके ा से समझाते ए उनक ाभा वक तका वणन करते हया नशा सवभूतानां त ां जाग त संयमी । य ां जा त भूता न सा नशा प तो मुनेः ॥६९॥ स ूण ा णय के लये जो रा के समान है, उस न ान प परमान क ा म त योगी जागता है और जस नाशवान् सांसा रक सुखक ा म सब ाणी जागते ह , परमा ाके त को जाननेवाले मु नके लये वह रा के समान है॥ ६९ ॥ –

यहाँ ' संयमी ' पद कसका वाचक है?

उ र – जो मन और इ य को वशम करके परमा ाको ा हो गया है, जसका इस करणम त के नामसे वणन आ है, उसीका वाचक यहाँ ' संयमी ' पद है; क उ रा म उसीके लये ' प त: ' पदका योग कया गया है, जसका अथ ' ानी' होता है। – यहाँ स ूण ा णय क रा के समान ा है और उसम त योगीका जागना ा है? उ र – अ ानी और ा नय के अनुभवम रात और दनके स श अ वल णता है, यह भाव दखलानेके लये रा के पकसे साधारण अ ानी मनु क और ानीक तका वणन कया गया है। इस लये यहाँ रा का अथ सूया के बाद होनेवाली रा नह है, कतु जैसे काशसे पूण दनको उ ू अपने ने दोषसे अ कारमय देखता है, वैसे ही अना द स अ ानके परदेसे अ ःकरण प ने क ववेक- व ान प काशन-श के आवृत रहनेके कारण अ ववेक मनु यं काश न बोध परमान मय परमा ाको नह देख पाते। उस परमा ाक ा प सूयके का शत होनेसे जो परम शा और न आन का अनुभव होता है वह वा वम दनक भाँ त काशमय होते ए भी परमा ाके गुण, भाव, रह और त को न जाननेवाले अ ा नय के लये रा है यानी रा के समान है, क वे उस ओरसे सवदा सोये ए ह, उनको उस परमान का कु छ पता ही नह है, यह परमा ाक ा ही यहाँ स ूण ा णय क रा है, यही रा परमा ाको ा संयमी पु षके लये दनके समान हे। त पु षका जो उस स दान घन परमा ाके पको करके नर र उसीम त रहना है, यही उसका उस स ूण ा णय क रा म जागना है। – स ूण ा णय का जागना ा है? और जसम सब ाणी जागते ह वह परमा ाके त को जाननेवाले मु नके लये रा के समान कै से है? उ र – य प इस लोक और परलोकम जतने भी भोग ह सच नाशवान्, णक, अ न और दुःख प ह, तथा प अना द स अ कारमय अ ानके कारण वषयास मनु उनको न और सुख प मानते ह; उनक म वषयभोगसे बढ़कर और कोई सुख ही नह है; इस कार भोग म आस होकर उ ा करनेक चे ाम लगे रहना और उनक ा म आन का अनुभव करना, यही उन स ूण ा णय का उनम जागना है। यह इ य और वषय के संयोगसे तथा माद, आल और न ासे उ सुखरा क भाँ त अ ान प अ कारमय होनेके कारण वा वम रा ही है; तो भी अ ानी ाणी इसीको दन समझकर इसम वैसे ही जाग रहे ह, जैसे कोई न दम सोया आ मनु के को देखता आ म समझता है क म जाग रहा ँ । कतु परमा त को जाननेवाले ानीके अनुभवम जैसे से जगे ए मनु का के जगत्से कु छ भी स नह रहता; वैसे ही एक स दान घन परमा ासे भ कसी भी व ुक स ा नह रहती, वह ानी इस जगत्के ानम इसके अ ध ान प परमा त को ही देखता है; अतएव उसके लये सम सांसा रक भोग और वषयान रा के समान ह।

इस कार रा के पकसे ानी और अ ा नय क तका भेद दखलाकर अब समु क उपमासे यह भाव दखलाते ह क ानी परम शा को ा होता है और भोग क कामनावाला अ ानी मनु शा को ा नह होता – आपूयमाणमचल त ं समु मापः वश य त् । त ामा यं वश सव स शा मा ो त न कामकामी ॥७०॥ स



जैसे नाना न दय के जल जब सब ओरसे प रपूण , अचल त ावाले , समु म उसको वच लत न करते ए ही समा जाते ह, वैसे ही सब भोग जस त पु षम कसी कारका वकार उ कये बना ही समा जाते ह, वही पु ष परम शा को ा होता है, भोग को चाहनेवाला नह ॥ ७० ॥

त ानीके साथ समु क उपमा देकर यहाँ ा भाव दखलाया गया है? उ र – कसी भी जड व ुक उपमा देकर त पु षक वा वक तका पूणतया वणन करना स व नह है; तथा प उपमा ारा उस तके कसी अंशका ल कराया जा सकता है। अत: समु क उपमासे यह भाव समझना चा हये क जस कार समु ' आपूयमाणम् ' यानी अथाह जलसे प रपूण हो रहा है, उसी कार त अन आन से प रपूण है। जैसे समु को जलक आव कता नह है वैसे ही त पु षको भी कसी सांसा रक सुख-भोगक त नकमा भी आव कता नह है, वह सवथा आ काम है। जस कार समु क त अचल है, भारी-से-भारी आँ धी-तूफान आनेपर या नाना कारसे न दय के जल वाह उसम व होनेपर भी वह अपनी तसे वच लत नह होता, मयादाका ाग नह करता, उसी कार परमा ाके पम त योगीक त भी सवथा अचल होती है, बड़े-से-बड़े सांसा रक सुख-दुःख का संयोग- वयोग होनेपर भी उसक तम जरा भी अ र नह पड़ता, वह स दान घन परमा ाम न - नर र अटल और एकरस त रहता है। – ' सव ' वशेषणके स हत ' कामा: ' पद यहाँ कनका वाचक है और उनका समु म जल क भाँ त त म समा जाना ा है? उ र – यहाँ ' सव ' वशेषणके स हत ' कामा: ' पद ' का इ त कामा: ' अथात् जनके लये कामना क जाय उनका नाम काम होता है – इस ु के अनुसार स ूण इ य के वषय का वाचक है, इ ा का वाचक नह । क त पु षम कामना का तो सवथा अभाव ही हो जाता है, फर उनका उसम वेश कै से बन सकता है? अतएव जैसे समु को जलक आव कता न रहनेपर भी अनेक नद-न दय के जल वाह उसम वेश करते रहते ह, परंतु नदी और सरोवर क भाँ त न तो समु म बाढ़ आती है और न वह अपनी तसे वच लत होकर मयादाका ही ाग करता है, सारे-के -सारे जल वाह उसम बना कसी कारक वकृ त उ कये ही वलीन हो जाते ह, वैसे ही त पु षको कसी भी सांसा रक भोगक क च ा भी आव कता न रहनेपर भी उसे ार के अनुसार –

नाना कारके भोग ा होते रहते ह – अथात् उसके मन, बु और इ य के साथ ार के अनुसार नाना कारके अनुकूल और तकू ल वषय का संयोग होता रहता है। परंतु वे भोग उसम हष-शोक, राग- ेष, काम- ोध, लोभ-मोह, भय और उ ेग या अ कसी कारका कोई भी वकार उ करके उसे उसक अटल तसे या शा मयादासे वच लत नह कर सकते, उनके संयोगसे उसक तम कभी क च ा भी अ र नह पड़ता; वे बना कसी कारका ोभ उ कये ही उसके परमान मय पम त पू होकर वलीन हो जाते ह – यही उनका समु म जल क भाँ त त म समा जाना है। – वही परम शा को ा होता है, भोग को चाहनेवाला नह – इस कथनका ा भाव हे? उ र – इससे यह दखलाया गया है क जो उपयु कारसे आ काम है, जसको कसी भी भोगक जरा भी आव कता नह है, जसम सम भोग ार के अनुसार अपनेआप आ-आकर वलीन हो जाते ह और जो यं कसी भोगक कामना नह करता, वही परम शा को ा होता है, भोग क कामनावाला मनु कभी शा को नह ा होता; क उसका च नर र नाना कारक भोग-कामना से व रहता है और जहाँ व ेप है, वहाँ शा कै से रह सकती है? वहाँ तो पद-पदपर च ा, जलन और शोक ही नवास करते ह। – अट्ठावनवसे लेकर इस ोकतक अजुनके तीसरे का ही उ र माना जाय तो ा आप है; क इस ोकम समु क भाँ त अचल रहनेका उदाहरण दया गया है? उ र – तीसरे का उ र यहाँ नह माना जा सकता, तीसरे का उ र अट्ठावनव ोकसे आर करके इकसठव ोकम समा कर दया गया है; इसी लये उसम ' आसीत ' पद आया हे। इसके बाद संगवश बासठव और तरसठव ोक म वषय- च नसे आस आ दके ारा अधःपतन दखलाकर च सठव ोकसे चौथे का उ र आर करते ह। ' चरन् ' पदसे यह भेद हो जाता है। इसी सल सलेम नौकाके ा से वषयास अयु पु षक वचरती ई इ य मसे कसी एक इ यके ारा बु के हरण कये जानेक बात आयी है। इसम भी ' चरताम् ' पद आया है। इसके अ त र इस ोकम ' सव कामाः वश ' पद से यह कहा गया है क स ूण भोग उसम वेश करते ह। अ य- अव ाम तो वेशके सब ार ही बंद ह, क वहाँ इ याँ वषय के संसगसे र हत ह। यहाँ इ य का वहार है, इसी लये भोग का उसम वेश स व है। उसक परमा ाके पम ' अचल' त है, परंतु वहारम वह अ य नह है। अतएव यहाँ चौथे का उ र मानना ही यु यु है । स –' त कै से चलता है ?' अजुनका यह चौथा परमा ाको ा ए पु षके वषम ही था; कतु यह आचरण वषयक होनेके कारण उसके उ रम ोक च सठसे यहातँक कस कार आचरण करनेवाला मनु शी त बन सकता है, कौन नह बन सकता और जब मनु त हो जाता है उस समय उसक कै सी त हो त है –

ये सब बात बतलायी गय । अब उस चौथे का उ र देते ए आचरणका कार बतलाते ह – वहाय कामा ः सवा ुमां र त नः ृहः । नममो नरह ारः स शा म धग त ॥७१॥



पु षके

जो पु ष समपूण कामना को ागकर ममतार हत , अहंकारर हत और ृहार हत आ वचरता है, वही शा को ा होता है अथात् वह शा को ा है॥ ७१ ॥ –'

सवान् '

वशेषणके स हत ' कामान्' पद कनका वाचक है और उनका ाग

कर देना ा है? उ र – इस लोक और परलोकके सम भोग क सब कारक कामना का वाचक यहाँ ' सवान्' वशेषणके स हत ' कामान्' पद है। इन सब कारके भोग क सम कामना से सदाके लये सवथा र हत हो जाना ही इनका ाग कर देना है। यहाँ ' कामान्' पद श ा द वषय का वाचक नह है, क इसम अजुनके चौथे का उ र दया जाता है और त पु ष कस कार आचरण करता है यह बात बतलायी जाती है; अत: य द यहाँ ' कामान् ' पदका अथ श ा द वषय मान लया जाय तो उनका सवथा ाग करके वचरना नह बन सकता। – ' नरहंकार : ', ' नमम : ' और ' न ृह : ' – इन तीन पद के अलग- अलग ा भाव ह तथा ऐसा होकर वचरना ा है? उ र – मन, बु और इ य के स हत शरीरम जो साधारण अ ानी मनु का आ ा भमान रहता है, जसके कारण वे शरीरको ही अपना प मानते ह, अपनेको शरीरसे भ नह समझते, अतएव शरीरके सुख- दुःखसे ही सुखी- दुःखी होते ह, उस देहा भमानका नाम अहंकार है, उससे सवथा र हत हो जाना – यही ' नरहंकार' अथात् अहंकारर हत हो जाना है। मन, बु और इ य के स हत शरीरम, उसके साथ स रखनेवाले ी, पु , भाई और ब -ु बा व म तथा गृह, धन, ऐ य आ द पदाथ म, अपने ारा कये जानेवाले कम म और उन कम के फल प सम भोग म साधारण मनु का मम रहता है अथात् इन सबको वे अपना समझते ह; इसी भावका नाम  ' ममता' है और इससे सवथा र हत हो जाना ही  ' नमम' अथात् ममतार हत हो जाना है। कसी अनुकूल व ुका अभाव होनेपर मनम जो ऐसा भाव होता है क अमुक व ुक आव कता है, उसके बना काम न चलेगा, इस अपे ाका नाम ृहा है और इस अपे ासे सवथा र हत हो जाना ही ' नः ृह' अथात् ृहार हत होना है। ृहा कामनाका सू प है, इस कारण सम कामना के ागसे इसके ागको अलग बतलाया है। इस कार अहंकार, ममता और ृहासे र हत होकर अपने वण, आ म, कृ त और प र तके अनुसार के वल लोकसं हके लये इ य के वषय म वचरना अथात् देखना-

सुनना, खाना-पीना, सोना- जागना आ द सम शा व हत चे ा करना ही सम कामना का ाग करके अहंकार, ममता और ृहासे र हत होकर वचरण करना है। – यहाँ ' न ृहः ' पदका अथ आस र हत मान लया जाय तो ा आप है? उ र – ृहा आस का ही काय है, इस लये यहाँ ृहाका अथ आस माननेम कोई दोष तो नह है; परंतु ' ृहा' श का अथ व ुत: सू कामना है, आस नह । अतएव आस न मानकर इसे कामनाका ही सू प मानना चा हये। – कामना और ृहासे र हत बतलानेके बाद फर ' नमम: ' और ' नरहंकार: ' कहनेसे ा योजन है? उ र – यहाँ पूण शा को ा स पु षका वणन है। इसी लये उसे न ाम और नः ृहके साथ ही नमम और नरहंकार भी बतलाया गया है; क अ धकांशम न ाम और नः ृह होनेपर भी य द कसी पु षम ममता और अहंकार रहते ह तो वह स पु ष नह है और जो मनु न ाम, नः ृह एवं नमम होनेपर भी अहंकारर हत नह है, वह भी स नह है। अहंकारके नाशसे ही सबका नाश है। जबतक कारण प अहंकार बना है तबतक कामना, ृहा और ममता भी कसी-न- कसी पम रह ही सकती है और जबतक क च ा भी कामना, ृहा, ममता और अहंकार है तबतक पूण शा क ा नह होती। यहाँ ' शा म् अ धग त ' वा से भी पूण शा क ही बात स होती है। इस कारक पूण और न शा ममता और अहंकारके रहते कभी ा नह होती। इस लये न ाम और न: ृह कहनेके बाद भी नमम और नरहंकार कहना उ चत ही है। – ऐसा माननेसे तो एक ' नरहंकार' श ही पया था; फर न ाम, नः ृह और नमम कहनेक आव कता ई? उ र – यह ठीक है क नरहंकार होनेपर कामना, ृहा और ममता भी नह रहती; क अहंकार ही सबका मूल कारण है। कारणके अभावम कायका अभाव अपने-आप ही स है। तथा प पसे समझानेके लये इन श का योग कया गया है। – वह शा को ा है, इस कथनका ा भाव है? उ र – इस ोकम परमा ाको ा ए पु षके वचरनेक व ध बतलाकर अजुनके त वषयक चौथे का उ र दया गया है। अत: उपयु कथनसे यह भाव दखलाया गया है क इस कारसे वषय म वचरनेवाला पु ष ही परमशा प पर परमा ाको ा त है। स – इस कार अजुनके चार का उ र देनेके अन र अब त पु षक तका मह बतलाते ए इस अ ायका उपसंहार करते ह – एषा ा ी तः पाथ नैनां ा वमु त । ा ाम कालेऽ प नवाणमृ त ॥७२॥ ै





हे अजुन! यह को ा पु षक त है, इसको ा होकर योगी कभी मो हत नह होता और अ कालम भी इस ा ी तम त होकर ान को ा हो जाता है ॥ ७२ ॥

और ' ा ी ' इन दोन वशेषण के स हत ' त: ' पद कस तका वाचक है और उसको ा होना ा है? उ र – जो वषयक त हो, उसे ' ा ी त ' कहते ह और जसका करण चलता हो उसका ोतक ' एषा ' पद है; इस लये यहाँ अजुनके पूछनेपर पचपनव ोकसे यहाँतक त पु षक जस तका जगह-जगह वणन कया गया है, जो को ा महापु षक त है, उसीका वाचक ' एषा ' और ' ा ी ' वशेषणके स हत ' त: ' पद है। तथा उपयु कारसे अहंकार, ममता, आस , ृहा और कामनासे र हत होकर सवथा न वकार और न लभावसे स दान घन परमा ाके पम न - नर र नम रहना ही उस तको ा होना है। – इस तको ा होकर योगी कभी मो हत नह होता – इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क ा है? ई र ा है? संसार ा है? माया ा है? इनका पर र ा स है? म कौन ँ ? कहाँसे आया ँ ? मेरा ा कत है? और ा कर रहा ँ ? – आ द वषय का यथाथ ान न होना ही मोह है; यह मोह जीवको अना दकालसे है, इसीके कारण यह इस संसार-च म घूम रहा है। पर जब अहंता, ममता, आस और कामनासे र हत होकर मनु उपयु   ा ी तको ा कर लेता है, तब उसका यह अना द स मोह समूल न हो जाता है, अतएव फर उसक उ नह होती। – अ कालम भी इस तम त होकर योगी ान को ा हो जाता है – इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे यह भाव दखलाया गया है क जो मनु जी वत अव ाम ही इस तको ा कर लेता है, उसके वषयम तो कहना ही ा है, वह तो ान को ा जीव ु है ही; पर जो साधन करते-करते या अक ात् मरणकालम भी इस ा ी तम त हो जाता है अथात् अहंकार, ममता, आस , ृहा और कामनासे र हत होकर अचलभावसे परमा ाके पम त हो जाता है, वह भी ान को ा हो जाता है। – जो साधक कमयोगम ा रखनेवाला है और उसका मन य द कसी कारणवश मृ ुकालम समभावम र नह रहा तो उसक ा ग त होगी? उ र – मृ ुकालम रहनेवाला समभाव तो साधकका उ ार त ाल ही कर देता है, परंतु मृ ुकालम य द समतासे मन वच लत हो जाय तो भी उसका अ ास थ नह जाता; वह योग क ग तको ा होता है और समभावके सं ार उसे बलात् अपनी ओर आक षत कर लेते ह (६।४०-४४) और फर वह परमा ाको ा हो जाता है। – '

एषा

'

ॐ त द त ीम गव ीतासूप नष ु व ायां योगशा े ीकृ ाजुनसंवादे साङ् योगो नाम तीयोऽ ायः ॥ २॥

|| ॐ

अ ायका नाम

ी परमा ने नमः ||

अथ तृतीयोऽ ायः

इस अ ायम नाना कारके हेतु से व हत कम क अव कत ता स क गयी है तथा ेक मनु को अपने- अपने वण- आ मके लये व हत कम कस कार करने चा हये, करने चा हये, उनके न करनेम ा हा न है, करनेम ा लाभ है, कौन- से कम ब नकारक ह और कौन- से मु म सहायक ह – इ ा द बात भलीभाँ त समझायी गयी ह। इस कार इस अ ायम कमयोगका वषय अ ा अ ायय क अपे ा अ धक और व ारपूवक व णत है एवं दूसरे वषय का समावेश ब त ही कम आ है, जो कु छ आ है, वह भी ब त ही स ेपम आ है; इस लये इस अ ायका नाम ' कमयोग' रखा गया है। अ ायका सं ेप

इस अ ायके पहले और दूसरे ोक म अ भ ायको न समझनेके कारण अजुनने भगवान् को मानो उलाहना देते ए उनसे अपना एका क ेय:- साधन बतलानेके लये ाथना क है और उसका उ र देते ए भगवान् ने तीसरेम दो न ा का वणन करके चौथेम कसी भी न ाम पसे कम का ाग आव क नह है, ऐसा स कया है। पाँचवम णमा के लये भी कम का सवथा ाग अस व बतलाकर छठे म के वल ऊपरसे इ य क या न करनेवाले वषय च क मनु को म ाचारी बतलाया है और सातवम मनसे इ य का सयंम करके इ य के ारा अनास भावसे कम करनेवालेक शंसा क है। आठव और नवम कम न करनेक अपे ा कम का करना े बतलाया है तथा कम के बना शरीर नवाहको अस व बतलाकर नः ाथ और अनास भावसे व हत कम करनेक आ ा दी है। दसवसे बारहवतक जाप तक आ ा होनेके कारण कम क अव कत ता स करते ए तेरहवम य श अ से सब पाप का वनाश होना और य न करनेवाल को पापी बतलाया है। चौदहव और प हवम सृ - च का वणन करके सव ापी परमे रको य प साधनम न त त बतलाया है। सोलहवम उस सृ - च के अनुसार न बरतनेवालेक न ा क है। स हव और अठारहम आ न ानी महा ा पु षके लये कत का अभाव बतलाकर कम करने और न करनेम उसके योजनका अभाव बतलाया है और उ ीसवम उपयु हेतु से कम करना आव क स करके एवं न ामकमका फल परमा ाक ा बतलाकर अजुनको अनास भावसे कम करनेक आ ा दी है। तदन र बीसवम जनका दको कम से स ा होनेका माण देकर एवं लोकसं हके लये भी कम करना आव क बतलाकर लोकसं हक साथकता स क है। इ सवम े आचरण और उपदेशके अनुसार लोग चलते ह, ऐसा कहकर बाईसवसे चौबीसवतक भगवान् ने यं अपना ा देते ए कम करनेसे लाभ और न करनेसे हा न बतलायी है। पचीसव और छ ीसवम ानी पु षके लये भी लोकसं हाथ यं कम करना और दूसर से करवाना उ चत बतलाकर स ाईसव और अ ाईसवम कमास

जनसमुदायक अपे ा सां योगीक वल णताका तपादन करते ए उनतीसवम ानीके लये साधारण मनु को वच लत न करनेक बात कही गयी है। तीसवम अजुनको आशा, ममता और स ापका सवथा ाग करके भगवदपणबु से यु करनेक आ ा देकर इकतीसवम उस स ा के अनुसार चलनेवाले ालु पु ष का मु होना और ब ीसवम उसके अनुसार न चलनेवाले दोषद शय का पतन होना बतलाया है। उसके बाद ततीसवम कृ तके अनुसार पसे या न करनेम सम मनु क असमथता स करते ए च तीसवम राग- ेषके वशम न होनक ेरणा क है और पतीसवम परधमक अपे ा धमको क ाणकारक एवं परधमको भयावह बतलाया है। छतीसवम अजुनके यह पूछनेपर क ' बलात् मनु को पापम वृत कौन करता है,' सतीसवम काम प वैरीको सम पापाचरणका मूल कारण बतलाया है और अड़तीसवसे इकतालीसवतक उस कामको अ क भाँ त दु ूर और ानका आवरण करनेवाला महान् श ु बतलाकर एवं उसके नवास ान का वणन करके इ य- संयमपूवक उसका नाश करनेके लये कहा है। फर बयालीसवम इ य, मन और बु से आ ाको अ तशय े बतलाकर ततालीसवम बु के ारा मनका संयम करके कामको मारनेक आ ा देते ए अ ायक समा क है। स – दूसरे अधयायम भगवान् ने ' अशो ान शोच म् ' (२।११) से लेकर ' देही न मव ोऽयम् ' (२।३०) तक आ त का न पण करते ए सां योगका तपादन कया और ' बु य गे मां ृणु ' (२।३९) से लेकर ' तदा योगमवा स ' ( २।५३) तक समबु प कमयोगका वणन कया। इसके प ात् चौव ोकसे अ ायक समा पय अजुनके पूछनेपर भगवान् ने समबु प कमयोगके ारा परम रको ा ए त स पु षके ल ण, आचरण और मह का तपादन कया। वहाँ कमयोगक म हमा कहते ए भगवान् ने सतालीसव और अड़तालीसव ोक म कमयोगका प बतलाकर अजुनको कम करनेके लये कहा; उनचासवम समबु प कमयोगक अपे ा सकाम कमका ान ब त ही नीचा बतलाया, पचासवम समबु यु पु षक शंसा करके अजुनको कमयोगम लगनेके लये कहा, इ ावनवम समबु यु ानी पु षको अनामय पदक ा बतलायी। इस सगंको सुनकर अजुन उसका यथाथ अ भ ाय न त नह कर सके । ' बु ' श का अथ ' ान' मान लेनेसे उ म हो गया, भगवान् के वचन म ' कम' क अपे ा ' ान' क शंसा तीत होने लगी, एवं वे वचन उनको न दखायी देकर मले ए- से जान पड़ने लगे। अतएव भगवान् से उनका ीकरण करवानेक और अपने लये न त ेयःसाधन जाननेक इ ासे अजुन पूछते ह – ायसी चे मण े मता बु जनादन । त कम ण घोरे मां नयोजय स के शव ॥१॥ अजुन बोले – हे जनादन! य द आपको कमक अपे ा ान े मा है तो फर हे के शव! मुझे भयंकर कमम लगाते ह? ॥ १॥ ँ

कमक अपे ा ान े है, ऐसा इससे पूव भगवान् ने कहाँ कहा है? य द नह कहा, तो अजुनके का आधार ा है? उ र – भगवान् ने तो कह नह कहा, कतु अजुनने भगवान् के वचन का मम और त न समझनेके कारण ' दरू ण े वरं कम बु - योगा न य ' से यह बात समझ ली क भगवान् ' बु योग' से ानका ल कराते ह और उस ानक अपे ा कम को अ तु बतला रहे ह। व ुत: वहाँ ' बु योग' श का अथ ' ान' नह है; ' बु योग' वहाँ समबु से होनेवाले ' कमयोग' का वाचक है और ' कम' श सकाम कम का। क उसी ोकम भगवान् ने फल चाहनेवाल को ' कृपणा : फलहेतवः ' कहकर अ दीन बतलाया है और उन सकाम कम को तु बतलाकर ' बु ौ शरणम ' से समबु प कमयोगका आ य हण करनेके लये आदेश दया है; परंतु अजुनने इस त को नह समझा, इसीसे उनके मनम उपयु क अवतारणा ई। –  ' बु ' श का अथ यहाँ भी पूवक भाँ त समबु प कमयोग न लया जाय? उ र – यहाँ तो अजुनका है। वे भगवानके यथाथ ता यको न समझकर ' बु ' श का अथ ' ान' ही समझे ए ह और इसी लये वे उपयु कर रहे ह। य द अजुन बु का अथ समबु प कमयोग समझ लेते तो इस कारके का कोई आधार ही नह रहता। अजुनने ' बु ' का अथ ' ान' मान रखा है, अतएव यहाँ अजुनक मा ताके अनुसार ' बु ' श का अथ ' ान' ठीक ही कया गया है। –  मुझे घोर कमम लगाते ह? इस वा का ा भाव है? उ र – भगवान् के अ भ ायको न समझनेके कारण अजुन यह माने ए ह क जन कम को भगवान् ने अ तु बतलाया है, उ कम म (' त ा ु भारत ' – इस लये तू यु कर, ' कम ेवा धकार े ' – तेरा कमम ही अ धकार है, ' योग : कु कमा ण ' – योगम त होकर कम कर – इ ा द व धवा से) मुझे वृत करते ह। इसी लये वे उपयु वा से भगवान् को मानो उलाहना- सा देते ए पूछ रहे ह क आप मुझे इस यु प भयानक पापकमम लगा रहे ह? –  यहाँ ' जनादन' और ' के शव' नामसे भगवान् को अजुनने स ो धत कया? उ र – ' सवजनैर ते या ते ा भल षत - स ये इ त जनादन : ' इस के अनुसार सब लोग जनसे अपने मनोरथक स के लये याचना करते ह, उनका नाम ' जनादन' होता है तथा ' क'- ा, ' अ'- व ु और ' ईश'- महेश – ये तीन जनके ' व'- वपु अथात् प ह, उनको ' के शव' कहते ह। भगवान् को इन नाम से स ो धत करके अजुन यह सू चत कर रहे ह क ' म आपके शरणागत ँ – मेरा ा कत है, यह बतलानेके लये म आपसे पहले भी याचना कर चुका ँ ( २।७) और अब भी कर रहा ँ ; क आप सा ात् परमे र ह। अतएव मुझ याचना करनेवाले शरणागत जनको अपना न त स ा अव बतलानेक कृ पा क जये।' – 

ा म ेणेव वा ेन बु मोहयसीव मे । तदेकं वद न येन ेयोऽहमा ुयाम् ॥२॥ आप मले ए- से वचन से मेरी बु को मानो मो हत कर रहे ह। इस लये उस एक बातको न त करके क हये जससे म क ाणको ा हो जाऊँ ॥ २॥ –  आप मले ए- से वचन ारा मेरी बु को मानो मो हत कर रहे है, इस वा का ा अ भ ाय है? उ र – जन वचन म कोई साधन न त करके पसे नह बतलाया गया हो, जनम कई तरहक बात का स ण हो, उनका नाम ' ा म ' – ' मले ए वचन' ह। ऐसे वचन से ोताक बु कसी एक न यपर न प ँ चकर मो हत हो जाती है। भगवान् के वचन का ता य न समझनेके कारण अजुनको भी भगवान् के वचन मले ए- से तीत होते थे; क ' बु योगक अपे ा कम अ नकृ है, तू बु का ही आ य हण कर' ( २।४९) इस कथनसे तो अजुनने समझा क भगवान् ानक शंसा और कम क न ा करते ह और मुझे ानका आ य लेनेके लये कहते है तथा ' बु यु पु ष पु - पाप को यह छोड़ देता है' ( २।५०) इस कथनसे यह समझा क पु - पाप प सम कम का पसे ाग करनेवालेको भगवान् ' बु यु ' कहते ह। इसके वपरीत ' तेरा कमम अ धकार है' ( २।४७), ' तू योगम त होकर कम कर' ( २।४८) इन वा से अजुनने यह बात समझी क भगवान् मुझे कम म नयु कर रहे ह; इसके सवा ' न ैगु ो भव ', ' आ वान् भव ' ( २।४५) आ द वा से कमका ाग और ' त ा ु भारत ' ( २।१८), ' ततो यु ाय यु ' ( २।३८), ' त ा ोगाय यु ' ( २।५०) आ द वचन से उ ने कमक ेरणा समझी। इस कार उपयु वचन म उ वरोध दखायी दया। इस लये उपयु वा म उ ने दो बार ' इव ' पदका योग करके यह भाव दखलाया है क य प वा वम आप मुझे और अलगअलग ही साधन बतला रहे ह, कोई बात मलाकर नह कह रहे ह तथा आप मेरे परम य और हतैषी ह, अतएव मुझे मो हत भी नह कर रहे ह वरं मेरे मोहका नाश करनेके लये ही उपदेश दे रहे है; कतु अपनी अ ताके कारण मुझे ऐसा ही तीत हो रहा है क मानो आप मुझे पर रव और मले ए- से वचन कहकर मेरी बु को मोहम डाल रहे ह। –  य द अजुनको दूसरे अ ायके उनचासव और पचासव ोक को सुनते ही उपयु म हो गया था, तो तरपनव ोकम उस करणके समा होते ही उ ने अपने म नवारणके लये भगवान् से पूछ नह लया? बीचम इतना वधान पड़ने दया? उ र – यह ठीक है क अजुनको वह शंका हो गयी थी, इस लये चौवनव ोकम ही उ इस वषयम पूछ लेना चा हये था; कतु तरपनव ोकम जब भगवान् ने यह कहा क ' जब तु ारी बु मोह पी दलदलसे तर जायगी और परमा ाके पम र हो जायगी तब तुम परमा ाम संयोग प योगको ा होओगे'; तब उसे सुनकर अजुनके मनम परमा ाको ा रबु यु पु षके ल ण और आचरण जाननेक बल इ ा जाग उठी। इस कारण उ ने अपनी इस पहली शंकाको मनम रखकर, पहले त के वषयम कर

दये और उनका उ र मलते ही इस शंकाको भगवान् के सामने रख दया। य द वे पहले इस संगको छेड़ देते तो त स ी बात म इससे भी अ धक वधान पड़ जाता। –  उस एक बातको न त करके क हये, जससे म क ाणको ा हो जाऊँ – इस वा का ा भाव है? उ र – इससे अजुन यह भाव दखलाते ह क अबतक आपने मुझे जतना उपदेश दया है उसम वरोध तीत होनेसे म अपने कत का न य नह कर सका ँ । मेरी समझम यह बात नह आयी है क आप मुझे यु के लये आ ा दे रहे ह या सम कम का ाग कर देनेके लये; य द यु करनेके लये कहते ह तो कस कार करनेके लये कहते ह और य द कम का ाग करनेके लये कहते ह तो उनका ाग करनेके बाद फर ा करनेको आ ा देते ह। इस लये आप सब कारसे सोच- समझकर मेरे कत का न य करके मुझे एक ऐसा न त साधन बतला दी जये क जसका पालन करनेसे म क ाणको ा हो जाऊँ । –  यहाँ ' ेय : ' पदका अथ ' क ाण' करनेका ा अ भ ाय है? उ र – यहाँ ेयः ा से अजुनका ता य इस लोक या परलोकके भोग क ा नह है क ' भू मका न क रा और देव का आ धप मेरे शोकको दूर नह कर सकते' ( २।८) यह बात तो उ ने पहले ही कह दी थी। अतएव ेय: ा से उनका अ भ ाय शोक- मोहका सवथा नाश करके शा ती शा और न ान दान करनेवाली न व ुक ा से है, इसी लये यहाँ ' ेय:' पदका अथ ' क ाण' कया गया है। स – इस कार अजुनके पूछनेपर भगवान् उनका न त कत भ धान कमयोग बतलानेके उ े से पहले उनके का उ र देते ए यह दखलाते ह क मेरे वचन ' ा म ' अथात् ' मले ए ' नह ह वरं सवथा और अलग - अलग ह – ीभगवानुवाच । लोके ऽ न् वधा न ा पुरा ो ा मयानघ । ानयोगेन साङ् ानां कमयोगेन यो गनाम् ॥३॥ ीभगवान् बोले – हे न ाप ! इस लोकम दो कारक न ा मेरे ारा पहले कही गयी है। उनमसे सां यो गय क न ा तो ानयोगसे और यो गय क न ा कमयोगसे होती है॥ ३॥ अ ' अ

–  '

न् लोके ' पद कस लोकका वाचक है? न् लोके ' पद इस मनु लोकका वाचक

उ र– है, क ानयोग और कमयोग – इन दोन साधन म मनु का ही अ धकार है। –  ' न ा ' पदका ा अथ है और उसके साथ ' वधा ' वशेषण देनेका ा भाव है? उ र – ' न ा ' पदका अथ ' त ' है। उसके साथ ' वधा ' वशेषण देकर भगवान् ने यह भाव दखलाया है क धानतासे साधनक तके दो भेद होते ह – एक

तम तो मनु आ ा और परमा ाको अभेद मानकर अपनेको से अ भ समझता है और दूसरीम परमे रको सवश मान् स ूण जगत् के कता , हता , ामी तथा अपनेको उनका आ ाकारी सेवक समझता है। कृ तसे उ स ूण गुण ही गुण म बरत रहे ह ( ३।२८ ), मेरा इनसे कु छ भी स नह है – ऐसा समझकर मन , इ य और शरीर ारा होनेवाली सम या म कतापनके अ भमानसे सवथा र हत हो जाना ; कसी भी याम या उसके फलम क च ा भी अहंता , ममता , आस और कामनाका न रहना तथा स दान घन से अपनेको अ भ समझकर नर र परमा ाके पम त हो जाना अथात् भूत ( प) बन जाना ( ५।२४ ; ६।२७ ) – यह पहली न ा है। इसका नाम ान न ा है। इस तको ा हो जानेपर योगी हष , शोक और कामनासे अतीत हो जाता है, उसक सव सम हो जाती है ( १८।५४ ); उस समय वह स ूण जगत् को आ ाम वत् क त देखता है और आ ाको स ूण जगत् म ा देखता है ( ६।२९ ) । इस न ा या तका फल परमा ाके पका यथाथ ान है।

वण , आ म , भाव और प र तके अनुसार जस मनु के लये जन कम का शा म वधान है – जनका अनु ान करना मनु के लये अव कत माना गया है – उन शा व हत ाभा वक कम का ायपूवक , अपना कत समझकर अनु ान करना ; उन कम म और उनके फलम ममता , आस और कामनाका सवथा ाग करके ेक कमक स और अ स म तथा उसके फलम सदा ही सम रहना ( २।४७ - ४८ ) एवं इ य के भोग म और कम म आस न होकर सम संक का ाग करके योगा ढ हो जाना ( ६।४ ) – यह कमयोगक न ा है। तथा परमे रको सवश मान्, सवाधार , सव ापी , सबके सुहद ् और सबके ेरक समझकर और अपनेको सवथा उनके अधीन मानकर सम कम और उनका फल भगवान् के समपण करना ( ३।३० ; ९।२७ २८ ); उनक आ ा और ेरणाके अनुसार उनक पूजा समझकर जैसे वे करवाव , वैसे ही सम कम करना ; उन कम म या उनके फलम क च ा भी ममता , आस या कामना न रखना ; भगवान् के ेक वधानम सदा ही स ु रहना तथा नर र उनके नाम , गुण , भाव और पका च न करते रहना ( १०।९ ;

१२।६ ; १८।५७ ) – यह भ धान कमयोगक न ा है। उपयु कमयोगक तको ा ए पु षम राग - ेष और काम - ोधा द अवगुण का सवथा अभाव होकर उसक सबम समता हो जाती है क वह सबके दयम अपने ामीको त देखता है ( १५।१५ ; १८।६१ ) और स ूण जगत् को भगवान् का ही प समझता है ( ७।७ - १२ ; ९।१६ - १९ ) । इस तका फल भगवान् को ा हो जाना है।

दो कारक न ाएं मेरे ारा पहले कही गयी ह, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क ये दो कारक न ाएँ मने आज तु नयी नह बतलायी ह, सृ के आ दकालम और उसके बाद भ - भ अवतार म म इन दोन न ा का प अलग- अलग बतला चुका ँ वैसे ही तुमको भी मने दूसरे अ ायके ारहव ोकसे लेकर तीसव ोकतक अ तीय आ ाके पका तपादन करते ए सां योगक से यु करनेके लये कहा है ( २।१८) और उनतालीसव ोकम योग वषयक बु का वणन करनेक ावना करके चालीसवसे तरपनव ोकतक फलस हत कमयोगका वणन करते ए योगम त होकर यु ा द कत कम करनेके लये कहा है ( २।४७- ५०); तथा दोन का वभाग करनेके लये उनतालीसव ोकम पसे यह भी कह दया है क इसके पूव मन सां वषयक उपदेश दया है और अब योग वषयक उपदेश कहता ँ । इस लये मेरा कहना ' ा म ' अथात् ' मला आ' नह है। –   ' अनघ ' स ोधनका ा भाव है? – 

उ र – जो पापर हत हो, उसे ' अनघ ' कहते ह। अजुनको ' अनघ' नामसे स ो धत करके भगवान् ने यह भाव दखलाया है क जो पापयु या पापपरायण मनु है, वह तो इनमसे कसी भी न ाको नह पा सकता; पर तुम पापर हत हो, अत: तुम इनको सहज ही ा कर सकते हो, इस लये मने तुमको यह वषय सुनाया है। –  सां यो गय क न ा ानयोगसे और यो गय क कमयोगसे होती है, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया है क उन दोन कारक न ा मसे जो सां यो गय क न ा है, वह तो ानयोगका साधन करते- करते देहा भमानका सवथा नाश होनेपर स होती है और जो कमयो गय क न ा है, वह कमयोगका साधन करते- करते कम म और उनके फलम ममता, आस और कामनाका अभाव होकर स - अ स म सम होनेपर होती है। उपयु इन दोन न ा के अ धकारी पूवसं ार, ा और चके अनुसार, अलग- अलग होते ह और ये दोन न ाएँ तं ह। –  य द कोई मनु ानयोग और कमयोग दोन का एक साथ स ादन करे, तो उसक कौन- सी न ा होती है? उ र – ये दोन साधन पर र भ ह, अत: एक ही मनु एक कालम दोन का साधन नह कर सकता; क सां योगके साधनम आ ा और परमा ाम अभेद समझकर परमा ाके नगुणनराकार स दान घन पका च न कया जाता है और कमयोगम फलास के ागपूवक कम करते ए भगवान् को

सव ापी, सवश मान् और सव र समझकर उनके नाम, गुण, भाव और पका उपा - उपासकभावसे च न कया जाता है। इस लये दोन का अनु ान एक साथ, एक कालम, एक ही मनु के ारा नह कया जा सकता। स – पूव ोकम भगवान् ने जो यह बात कही है क सा ं न ा ानयोगके साधनसे होती है और योग न ा कमयोगके साधनसे होती है, उसी बातको स करनेके लये अब यह दखलाते ह क कत कम का पतः ाग कसी भी न ाका हेतु नह है – न कमणामनार ा ै पु षोऽ ुते । न च सं सनादेव स सम धग त ॥४॥ मनु न तो कम का आर कये बना न मताको यानी योग न ाको ा होता है और न कम के केवल ागमा से स यानी सां न ाको ही ा होता है॥ ४॥

यहाँ ' नै म् ' पद कसका वाचक है और मनु कम का आर कये बना न मताको ा नह होता, इस कथनका ा भाव है? उ र – कमयोगक जो प रप त है – जसका वणन पूव ोकक ा ाम योग न ाके नामसे कया गया है, उसीका वाचक यहाँ ' नै म् ' पद है। इस तको ा पु ष सम कम करते ए भी उनसे सवथा मु हो जाता है, उसके कम ब नके हेतु नह होते ( ४।२२, ४१); इस कारण उस तको ' – 

नै ' अथात् ' न मता' कहते ह। यह त मनु को न ामभावसे कत कम का आचरण करनेसे ही मलती है, बना कम कये नह मल सकती। इस लये कमब नसे मु होनेका उपाय कत - कम का ाग कर देना नह है, ब उनको न ामभावसे करते रहना ही है – यही भाव दखलानेके लये कहा गया है क ' मनु कम का आर कये बना न मताको नह ा होता। ' –  कमयोगका प तो कम करना ही है, उसम कम का आर न करनेक शंका नह होती; फर कम का आर कये बना ' न मता' नह मलती, यह कहनेक ा आव कता थी? उ र – भगवान् अजुनको कम म फल और आस का ाग करनेके लये कहते ह और उसका फल कमब नसे मु हो जाना बतलाते ह ( २।५१); इस कारण वह यह समझ सकते ह क य द म कम न क ँ तो अपने- आप ही उनके ब नसे मु हो जाऊँ गा, फर कम करनेक ज रत ही ा है। इस मक नवृ के लये पहले कमयोगका करण आर करते समय भी भगवान् ने कहा है क ' मा ते संगोऽ कम ण ' अथात् तेरी कम न करनेम आस नह होनी चा हये। तथा छठे अ ायम भी कहा है क ' आ ु मु नके लये कम करना ही योगा ढ होनेका उपाय है' ( ६। ३) इस लये शारी रक प र मके भयसे या अ कसी कारक आस से मनु म जो अ वृ का दोष आ जाता है, उसे कमयोगम बाधक बतलानेके लये ही भगवान् ने ऐसा कहा है। ँ

–  यहाँ '

स म्' पद कसका वाचक है और कम के के वल ागमा से स क ा नह होती, इस कथनका ा भाव है? उ र – जो ानयोगक स यानी प रप त है, जसका वणन पूव ोकक ा ाम ' ान न ा' के नामसे कया गया है तथा जसका फल त ानक ा है, उसका वाचक यहाँ ' स म् ' पद है। इस तपर प ँ चकर साधक भावको ा हो जाता है, उसक म आ ा और परमा ाका क च ा भी भेद नह रहता, वह यं प हो जाता है; इस लये इस तको ' स ' कहते ह। यह ानयोग प स अपने वणा मके अनुसार करनेयो कम म कतापनका अ भमान ागकर तथा सम भोग म ममता, आस और कामनासे र हत होकर नर र अ भ भावसे परमा ाके पका च न करनेसे ही स होती है, कम का पसे ाग कर देनेमा से नह मलती; क अहंता, ममता और आस का नाश ए बना मनु क अ भ भावसे परमा ाम र त नह हो सकती। ब मन, बु और शरीर ारा होनेवाली कसी भी याका अपनेको कता न समझकर उनका ा- सा ी रहनेसे ( १४।१९) उपयु त ा हो जाती है। इस लये सां योगीको भी वणा मो चत कम का पसे ाग करनेक चे ा न करके उनम कतापन, ममता, आस और कामनासे र हत हो जाना चा हये – यही भाव दखलानेके लये यहाँ यह बात कही गयी है क ' के वल कम के ागमा से स ा नह होती।'

और ' स सनात् ' – इन दोन पद का एक ही अ भ ाय है या भ - भ ? य द भ - भ है तो दोन म ा भेद है? उ र – यहाँ भगवान् ने दोन पद का योग भ - भ अ भ ायसे कया है; क ' अनार ात् ' पदसे तो कमयोगीके लये व हत कम के न करनेको योग न ाक ा म बाधक बतलाया है; कतु ' स सनात् ' पदसे सां - योगीके लये कम का पसे ाग कर देना सां न ाक ा म बाधक नह बतलाया गया, के वल यही बात कही गयी है क उसीसे उसे स नह मलती, स क ा के लये उसे कतापनका ाग करके स दान घन म अभेदभावसे त होना आव क है। अतएव उसके लये कम का पत: ाग करना मु बात नह है, भीतरी ाग ही धान है और कमयोगीके लये पसे कम का ाग न करना वधेय है – यही दोन पद के भाव म भेद है। स – इस कार कमयोगीके लये कत कम के न करनेको योग न ाक ा म बाधक और सां योगीके लये स क ा म के वल पसे बाहरी कम के ागको गौण बतलाकर, अब अजुनको कत कम म वृ करनेके उ े से भ - भ हेतु से कम करनेक आव कता स करनेके लये पहले कम के सवथा ागको अश बतलाते ह – न ह क णम प जातु त कमकृ त् । कायते वशः कम सवः कृ तजैगुणैः ॥५॥ –  ' अनार ात् '



नःस ेह कोई भी मनु कसी भी कालम णमा भी बना कम कये नह रहता ; क सारा मनु समुदाय कृ तज नत गुण ारा परवश आ कम करनेके लये बा कया जाता है॥ ५॥

कोई भी मनु कसी भी कालम णमा भी बना कम कये नह रहता, इस वा का ा भाव है? उ र – इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क उठना, बैठना, खाना, पीना, सोना, जागना, सोचना, मनन करना, देखना, ान करना और समा ध होना – ये सब- के - सब कमके अ गत ह। इस लये जबतक शरीर रहता है, तबतक मनु अपनी कृ तके अनुसार कु छ- न- कु छ कम करता ही रहता है। कोई भी मनु णभर भी कभी पसे कम का ाग नह कर सकता। अत: उनम कतापनका ाग कर देना या ममता, आस और फले ाका ाग कर देना ही उनका सवथा ाग कर देना है। –  यहाँ ' क त् ' पदम गुणातीत ानी पु ष भी स लत है या नह ? उ र – गुणातीत ानी पु षका गुण से या उनके कायसे कु छ भी स नह रहता, अत: वह गुण के वशम होकर कम करता है, यह कहना नह बन सकता। इस लये गुणातीत ानी पु ष ' क त् ' पदके अ गत नह आता। तथा प मन, बु और इ य आ दका संघात प जो उसका शरीर लोग क म वतमान है, उसके ारा उसके और लोग के ार ानुसार नाममा के कम तो होते ही ह; कतु कतापनका अभाव होनेके कारण वे कम ँ – 

वा वम कम नह ह। हाँ, उसके मन, बु और इ य आ दके संघातको ' क त् ' के अ गत मान लेनेम कोई आप नह है; क वह गुण का काय होनेसे गुण से अतीत नह है, ब उस शरीरसे सवथा अतीत हो जाना ही ानीका गुणातीत हो जाना है। –  ' सव : ' पद कनका वाचक है और उनका गुण के वशम होकर कम करनेके लये बा होना ा है? उ र – ' सव : ' पद सम ा णय का वाचक होते ए भी यहाँ उसे खास तौरपर मनु समुदायका वाचक समझना चा हये; क कम म मनु का ही अ धकार है। और पूवज के कये ए कम के सं ारज नत भावके परवश होकर जो कम म वृत होना है, यही गुण के वश होकर कम करनेके लये बा होना है। – ' गुणैः ' पदके साथ ' कृ तजै : ' वशेषण देनेका ा अ भ ाय है? उ र – सां शा म गुण क सा ाव ाका नाम कृ त माना गया है, परंतु भगवान् के मतम तीन गुण कृ तके काय ह – इस बातको करनेके लये ही भगवान् ने यहाँ ' गुणैः ' पदके साथ ' कृ तजै : ' वशेषण दया है। इसी  तरह कह ' कृ तस वान् ' ( १३।१९), कह ' क तजान् ' ( १३।२१) , कह ' क तस वा : ' ( १४।५) और कह ' कृ तजै : ' ( १८।४०) वशेषण देकर अ भी जगह- जगह गुण को कृ तका काय बतलाया है। –  यहाँ ' कृ त' श कसका वाचक है?

उ र – सम गुण और वकार के समुदाय प इस जड - जगत् क कारणभूता जो भगवान् क अना द स मूल कृ त है – जसको अ , अ ाकृ त और मह भी कहते ह – उसीका वाचक यहाँ ' कृ त' श है। स – पूव ोकम यह बात कही गयी क कोई भी मनु णमा भी कम कये बना नह रहता ; इसपर यह शंका होती है क इ य क या को हठसे रोककर भी तो मनु कम का ाग कर सकता ह ? अत : ऊपरसे इ य क या का ाग कर देना कम का ाग नह है, यह भाव दखलानेके लये भगवान् कहते ह – कम या ण संय य आ े मनसा रन् । इ याथा मूढा ा म ाचारः स उ ते ॥६॥ जो मूढबु मनु सम इ य को हठपूवक ऊपरसे रोककर मनसे उन इ य के वषय का च न करता रहता है, वह म ाचारी अथात् द ी कहा जाता है॥ ६॥ –  यहाँ ' कम या ण ' पद कन इ य का वाचक है और उनका हठपूवक रोकना ा है? उ र – यहाँ ' कम या ण ' पदका पा रभा षक अथ नह है; इस लये जनके ारा मनु बाहरक या करता है अथात् श ा द वषय को हण करता है, उन ो , चा, च ,ु रसना और ाण तथा वाणी, हाथ, पर, उप और गुदा – इन दस इ य का वाचक है; क गीताम ो ा द पाँच इ य के लये ँ

कह भी ' ाने य' श का योग नह आ है। इसके सवा यहाँ कम य का अथ के वल वाणी आ द पाँच इ याँ मान लेनेसे ो और ने आ द इ य को रोकनेक बात शेष रह जाती है और उसके रह जानेसे म ाचारीका ाँग भी पूरा नह बनता; तथा वाणी आ द इ य को रोककर ो ा द इ य के ारा वह ा करता है, यह बात भी यहाँ बतलानी आव क हो जाती है। कतु भगवान् ने वैसी कोई बात नह कही है एवं अगले ोकम भी कम य ारा कमयोगका आचरण करनेके लये कहा है, परंतु के वल वाणी आ द कम य ारा कमयोगका आचरण नह हो सकता। उसम सभी इ य क आव कता है। इसी लये यहाँ ' कम या ण ' पदको जनके ारा कम कये जायँ ऐसी सभी इ य का वाचक मानना ठीक है और हठसे सुनना, देखना आ द या को रोक देना ही उनको हठपूवक रोकना है। –  य द कोई साधक भगवान् का ान करनेके लये या इ य को वशम करनेके लये हठसे इ य को वषय से रोकनेक चे ा करता है और उस समय उसका मन वशम न होनेके कारण उसके ारा वषय का च न होता है तो ा वह भी म ाचारी है? उ र – वह म ाचारी नह है, वह तो साधक है; क म ाचारीक भाँ त मनसे वषय का च न करना उसका उ े नह है। वह तो मनको भी रोकना ही चाहता है; पर आदत, आस और सं ारवश उसका मन जबरद ी वषय क ओर चला जाता है। अत: उसम उसका कोई दोष नह है, आर कालम ऐसा होना ाभा वक है। ँ

–  यहाँ ' संय ' पदका अथ ' वशम कर लेना' मान लया जाय तो ा हा न है? उ र – इ य को वशम कर लेनेवाला म ाचारी नह होता; क इ य को वशम कर लेना तो योगका अंग है। इस लये यहाँ ' संय ' का अथ जो ऊपर कया गया है, वही ठीक

है।

–  ' इ याथान् ' पद कनका वाचक है? उ र – दस इ य के श ा द सम वषय का वाचक यहाँ ' इ याथान् ' पद है। अ ाय पाँच ोक नवम भी इसी अथम ' इ याथषु ' पदका योग आ है। –  वह म ाचारी कहलाता है, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह दखलाया गया है क उपयु कारसे

इ य को रोकनेवाला मनु मछ लय को धोखा देनेके लये रभावसे खड़े रहनेवाले कपटी बगुलेक भाँ त बाहरसे दूसरा ही भाव दखलाता है और मनम दूसरा ही भाव रखता है; अत: उसका आचरण म ा होनेसे वह म ाचारी है। स – इस कार के वल ऊपरसे इ य को वषय से हटा लेनेको म ाचार बतलाकर, अब आस का ाग करके इ य ारा न ामभावसे कत कम करनेवाले योगीक शंसा करते ह – य या ण मनसा नय ारभतेऽजुन । कम यैः कमयोगमस ः स व श ते ॥७॥

कतु हे अजुन! जो पु ष मनसे इ य को वशम करके अनास आ सम इ य ारा कमयोगका आचरण करता है, वही े है॥ ७॥ –  यहाँ ' तु' पदका ा भाव है? उ र – ऊपरसे कम का ाग करनेवालेक अपे ा पसे कम करते रहकर इ य को वशम रखनेवाले योगीक वल णता बतलानेके लये यहाँ ' तु ' पदका योग कया गया है। –  यहाँ ' इ या ण ' और ' कम यैः ' – इन दोन पद से कौन- सी इ य का हण है? उ र – यहाँ दोन ही पद सम इ य के वाचक ह; क न तो के वल पाँच इ य को वशम करनेसे इ य का वशम करना ही स होता है और न के वल पाँच इ य से कमयोगका अनु ान ही हो सकता है; क देखना, सुनना आ दके बना कमयोगका अनु ान स व नह । इस लये उपयु दोन पद से सभी इ य का हण है। इस अ ायके इकतालीसव ोकम भी भगवान् ने ' इ या ण ' पदके साथ ' नय ' पदका योग करके सभी इ य को वशम करनेक बात कही है। –  यहाँ ' नय ' पदका अथ ' वशमे करना' न लेकर ' रोकना' लया जाय तो ा आप है? उ र – ' रोकना' अथ यहाँ नह बन सकता; क इ य को रोक लेनेपर फर उनसे कमयोगका आचरण नह कया जा सकता।

ा है?

– 

सम इ य ारा कमयोगका आचरण करना

उ र – सम व हत कम म तथा उनके फल प इस लोक और परलोकके सम भोग म राग- ेषका ाग करके एवं स - अ स म सम होकर, वशम क ई इ य के ारा श ा द वषय का हण करते ए जो य , दान, तप, अ यन, अ ापन, जापालन, लेन- देन प ापार और सेवा एवं खाना- पीना, सोना- जागना, चलना- फरना, उठना- बैठना आ द सम इ य के कम शा व धके अनुसार करते रहना है, यही सम इ य से कमयोगका आचरण करना है। दूसरे अ ायके चौसठव ोकम इसीका फल सादक ा और सम दुःख का नाश बतलाया गया है। – ' स व श ते ' का ा भाव है? ा यहाँ कमयोगीको पूव ोकम व णत म ाचारीक अपे ा े बतलाया गया है? उ र – ' स व श ते ' से यहाँ कमयोगीको सम साधारण मनु से े बतलाकर उसक शंसा क गयी है। यहाँ इसका अ भ ाय कमयोगीको पूवव णत के वल म ाचारीक अपे ा ही े बतलाना नह है; क पूव ोकम व णत म ाचारी तो आसुरी स दावाला द ी है। उसक अपे ा तो सकामभावसे व हत कम करनेवाला मनु भी ब त े है; फर दैवी स दायु कमयोगीको म ाचारीक अपे ा े बतलाना तो कसी वे ाक अपे ा सती ीको े बतलानेक भाँ त कमयोगीक ु तम न ा करनेके समान है। अत: यहाँ यही मानना

ठीक है क ' स व श ते ' से कमयोगीको सव े बतलाकर उसक शंसा क गयी है। स – अजुनने जो यह पुछा था क आप मुझे घोर कमम लगाते ह, उसके उ रम ऊपरसे कम का ाग करनेवाले म ाचारीक न ा और कमयोगीक शंसा करके अब उ कम करनेके लये आ ा देते ह – नयतं कु कम ं कम ायो कमणः । शरीरया ा प च ते न सद् ेदकमणः ॥८॥ तू शा व हत कत कम कर ; क कम न करनेक अपे ा कम करना े है तथा कम न करनेसे तेरा शरीर - नवाह भी नह स होगा॥ ८॥

वशेषणके स हत ' कम ' पद कस कमका वाचक है और उसे करनेके लये आ ा देनेका ा अ भ ाय है? उ र – वग, आ म, भाव और प र तक अपे ासे जस मनु के लये जो कम शा म कत बतलाये गये ह, उन सभी शा व हत धम प कत - कम का वाचक यहाँ ' नयतम् ' वशेषणके स हत ' कम ' पद है; उसे करनेके लये आ ा देकर भगवान् ने अजुनके उस मको दूर कया है, जसके कारण उ ने भगवान् के वचन को मले ए समझकर अपना न त कत बतलानेके लये कहा था। – ' नयतम् '

अ भ ाय यह है क तु ारी ज ासाके अनुसार म तु तु ारा न त कत बतला रहा ँ । उपयु कारण से कसी कार भी तु ारे लये कम का पसे ाग करना हतकर नह है, अत: तु शा व हत कत कम प धमका अव मेव पालन करना चा हये। यु करना तु ारा धम है; इस लये वह देखनेम हसा क और ू रतापूण होनेपर भी वा वम तु ारे लये घोर कम नह है, ब न ामभावसे कये जानेपर वह क ाणका हेतु है । इस लये तुम संशय छोड़कर यु करनेके लये खड़े हो जाओ । – कम न करनेक अपे ा कम करना े है, इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे भगवान् ने अजुनके उस मका नराकरण कया है, जसके कारण उ ने यह समझ लया था क भगवान् के मतम कम करनेक अपे ा उनका न करना े है। अ भ ाय यह है क कत कम करनेसे मनु का अ ःकरण शु होता है और उसके पाप का ाय होता है तथा कत कम का ाग करनेसे वह पापका भागी होता है एवं न ा, आल और मादम फँ सकर अधोग तको ा होता है ( १४।१८); अत: कम न करनेक अपे ा कम करना सवथा े है। सकामभावसे या ाय पसे भी कत कम का करना न करनेक अपे ा ब त े है; फर उनका न ामभावसे करना े है, इसम तो कहना ही ा है? – कम न करनेसे तेरा शरीर नवाह भी स नह होगा, इस कथनका ा भाव है?

उ र – इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क सवथा कम का पसे ाग करके तो मनु जी वत भी नह रह सकता, शरीर नवाहके लये उसे कु छ- न- कु छ करना ही पड़ता है; ऐसी तम व हत कमका ाग करनेसे मनु का पतन होना ाभा वक है। इस लये कम न करनेक अपे ा सब कारसे कम करना ही उ म है । स – यहाँ यह ज ासा होती है क शा व हत य , दान और तप आ द शुभ कम भी तो ब नके हेतु माने गये ह; फर कम न करनेक अपे ा कम करना े कै से है? इसपर कहते ह –

य ाथा मणोऽ लोकोऽयं कमब नः । तदथ कम कौ ेय मु स ः समाचर ॥९॥

य के न म कये जानेवाले कम से अ त र दस ू रे कम म लगा आ ही यह मनु समुदाय कम से बँधता है। इस लये हे अजुन ! तू आस से र हत होकर उस य के न म ही भलीभाँ त कत कम कर ॥ ९॥

य के न म कये जानेवाले कम से अ त र दूसरे कम म लगा आ ही यह मनु - समुदाय कम ारा बँधता है इस वा का ा भाव है? उ र – इस वा से भगवान् ने यह भाव दखलाया है क जो कम मनु के कत प य क पर रा सुर त रखनेके लये ही अनास भावसे कये जाते ह कसी फलक कामनासे नह कये –

जाते, वे शा व हत कम ब नकारक नह होते; ब उन कम से मनु का अ ःकरण शु हो जाता है और वह परमा ाको ा हो जाता है । क ु ऐसे लोकोपकारक कम के अ त र जतने भी पु - पाप प कम ह, वे सब पुनज के हेतु होनेसे बाँधनेवाले ह । मनु ाथबु से जो कु छ भी शुभ या अशुभ कम करता है, उसका फल भोगनेके लये उसे कमानुसार नाना यो नय म ज लेना पड़ता है और बार- बार ज ना- मरना ही ब न है, इस लये सकाम कम म या पाप कम म लगा आ मनु उन कम ारा बँधता है। अतएव मनु को कमब नसे मु होनेके लये न ामभावसे के वल कत पालनक बु से ही शा व हत कम करना चा हये। –  ' अयं लोक : ' का ा अ भ ाय है? उ र – मनु का ही कम करनेम अ धकार है तथा मनु यो नम कये ए कम का फल भोगनेके लये ही दूसरी यो नयाँ मलती है, उनम पु - पाप प नये कम नह बनते। इस कारण अ यो नय म कये ए कम बाँधनेवाले नह होते, के वल मनु यो नम कये ए ही कम ब नके हेतु होते ह – यह भाव दखलानेके लये यहां ' अयं लोक : ' पदका योग कया गया है। –  तू आस से र हत होकर य के न म भलीभाँ त कत कम कर, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क अनास भावसे य के न म कये जानेवाले कम मनु को बाँधनेवाले नह होते, ब ऐसे कम करनेवाले मनु के पूवसं चत सम पाप- पु भी वलीन हो जाते ह ( ४।२३); इस लये तुम ममता और आस का सवथा ाग करके के वल शा व हत

कत कम क पर रा सुर त रखनेके उ े से न ामभावसे सम कम का उ ाहपूवक भलीभाँ त आचरण करो। –  उपयु वा म ' मु संग : ' वशेषणके योगका ा भाव है? उ र – ' मु संग : ' वशेषणसे कम म और उनके फलम ममता और आस का ाग करके कम करनेके लये कहा गया है। अ भ ाय यह है क कमफलका ाग करनेके साथ- साथ कम म और उनके फलम ममता और आस का भी ाग करना चा हये। स – पूव ोकम भगवान् ने यह बात कही क य के न म कम करनेवाला मनु कम से नह बँधता ; इस लये यहाँ यह ज ासा होती है क य कसको कहते ह, उसे करना चा हये और उसके लये कम करनेवाला मनु कै से नह बँधता। अतएव इन बात को समझानेके लये भगवान् ाजीके वचन का माण देकर कहते ह – सहय ाः जाः सृ ा पुरोवाच जाप तः । अनेन स व मेष वोऽ कामधुक् ॥१०॥ जाप त ाने क के आ दम य स हत जा को रचकर उनसे कहा क तुमलोग इस य के ारा वृ को ा होओ और यह य तुमलोग को इ त भोग दान करनेवाला हो॥ १०॥ – ' सहय ाः ' वशेषणके स हत ' जा : ' पद यहाँ कनका वाचक है और ' अनेन ' पद कसका वाचक है?

उ र – जनका य म अथात् वणा मो चत शा व हत य , दान, तप और सेवा आ द कम से स होनेवाले धमके पालनम अ धकार है; पूव ोकम ' अयम् ' वशेषणके स हत ' लोक : ' पदसे जनका वणन कया गया है – उन सम मनु का वाचक यहाँ ' सहय ाः ' वशेषणके स हत ' जा : ' पद है और उनके लये वण, आ म, भाव और प र तके भेदसे भ भ य , दान, तप, ाणायाम, इ य- संयम, अ यनअ ापन, जापालन, यु , कृ ष, वा ण और सेवा आ द कत कम से स होनेवाला जो धम प य है – उसका वाचक यहाँ ' अनेन ' पद है। –  तुमलोग इस य के ारा वृ को ा होओ और यह य तुमलोग को इ त भोग दान करनेवाला हो, इस वा का ा भाव है? उ र – इससे भगवान् जाप तने मनु को आशीवाद दया है। उनका अ भ ाय यह है क तुमलोग के लये मने इस धम प य क रचना कर दी है; इसका सांगोपांग पालन करनेसे तु ारी उ त होती रहेगी, तु ारा पतन नह होगा और तुमलोग वतमान तसे ऊपर उठ जाओगे और यह य इस लोकम भी तु ारी सम आव कता क पू त करता रहेगा। देवा ावयतानेन ते देवा भावय ु वः । पर रं भावय ः ेयः परमवा थ ॥११॥ तुमलोग इस य के ारा देवता को उ त करो और वे देवता तुमलोग को उ त कर। इस कार नः ाथभावसे

एक - दस ू रेको उ त करते ए तुमलोग परम क हो जाओगे॥ ११॥

ाणको ा

पद यहाँ कसका वाचक है और उसके ारा देवता को उ त करना ा है? उ र – ' अनेन ' पद जसका करण चल रहा है, उस धम प य का ही वाचक है; कतु यहाँ जस य म वेदम ारा देवता को ह व दया जाता है, उसको उपल ण बनाकर धमपालन प य क अव कत ताका तपादन कया गया है; इस लये उपल ण पसे इसे हवन प य का वाचक समझना चा हये और उस हवन प य के ारा देवता को ह व प ँ चाकर पु करना एवं उनक आव कता क पू त करना ही उनको उ त करना है, ऐसा समझना चा हये। एवं यह वणन उपल णके पम होनेके कारण य का अथ धम समझकर अपने- अपने वणा मके अनुसार कत पालनके ारा ेक ऋ ष, पतर, भूत- ेत, मनु , पशु, प ी आ द सभी ा णय को सुख प ँ चाना, उनक उ त करना भी इसीके अ गत समझना चा हये। –  वे देवतालोग तुमलोग क उ त कर, इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे यह भाव दखलाया है क जस कार य के ारा देवता को पु करना तु ारा कत है, उसी कार तुमलोग क आव कता को पूण करके तुमलोग को उ त करना देवता का भी कत है। इस लये उनको भी मेरा यही उपदेश है क वे अपने कत का पालन करते रह। –  ' अनेन '

नः ाथभावसे एक- दूसरेक उ त करते ए तुमलोग परम क ाणको ा हो जाओगे, इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे ाजीने यह भाव दखलाया है क इस कार अपने- अपने ाथका ाग करके एक- दूसरेको उ त बनानेके लये अपने कत का पालन करनेसे तुमलोग इस सांसा रक उ तके साथ- साथ परमक ाण प मो को भी ा हो जाओगे। अ भ ाय यह है क यहाँ देवता के लये तो ाजीका यह आदेश है क मनु य द तुमलोग क सेवा, पूजा, य ा द न कर तो भी तुम कत समझकर उनक उ त करो और मनु के त यह आदेश है क देवता क उ त और पु के लये ही ाथ ागपूवक देवता क सेवा, पूजा, य ा द कम करो। इसके सवा अ ऋ ष, पतर, मनु , पशु प ी, क ट, पतंग आ दको भी नः ाथभावसे धमपालनके ारा सुख प ँ चाओ। इ ा ोगा वो देवा दा े य भा वताः । तैद ान दायै ो यो भुङ् े ेन एव सः ॥१२॥ य के ारा बढ़ाये ए देवता तुमलोग को बना माँगे ही इ त भोग न य ही देते रहगे। इस कार उन देवता के ारा दये ए भोग को जो पु ष उनको बना दये यं भोगता है वह चोर ही है॥ १२॥ – य के ारा बढ़ाये ए देवता तुमलोग को इ त भोग न य ही देते रहगे, इस वा का ा अ भ ाय है? – 

उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क तुम लोग को अपने कत का पालन करते रहना चा हये, फर तुमलोग से य के ारा बढ़ाये ए देवतालोग तुमको सदा- सवदा सुखभोग और जीवन नवाहके लये आव क पदाथ देते रहगे, इसम स ेहक बात नह है; क वे लोग अपना कत पालन करनेके लये बा ह। –  उनके ारा दये ए भोग को जो मनु उनको बना दये ही भोगता है वह चोर ही है – इस कथनका ा भाव है? उ र – यहाँतक जाप तके वचन का अनुवाद कर अब भगवान् उपयु वा से यह भाव दखलाते ह क इस कार ाजीके उपदेशानुसार वे देवतालोग सृ के आ दकालसे मनु को सुख प ँ चानेके लये – उनक आव कता को पूण करनेके न म पशु, प ी, औषध, वृ , तृण आ दके स हत सबक पु कर रहे ह और अ , जल, पु , फल, धातु आ द मनु ोपयोगी सम व ुएँ मनु को दे रहे ह; जो मनु उन सब व ु को उन देवता का ऋण चुकाये बना – उनका ायो चत उ अपण कये बना यं अपने कामम लाता है, वह वैसे ही कृ त और चोर होता है, जैसे कोई ेहशील माता- पता दसे पाला- पोसा आ पु उनक सेवा न करनेसे एवं उनके मरनेके बाद ा - तपण आ द न करनेस,े कसीके ारा उपकार पाया आ मनु यथासा ुपकार न करनेसे अथवा कोई द क पु पताके ारा ा स का उपभोग करके माता- पताक सेवा न करनेसे कृ त और चोर होता है।

जब क देवतालोग मनु ारा स ु कये जानेपर उनको आव क भोग दान करते ह तो फर उनसे पाये ए भोग को य द मनु उ वापस न भी दे तो वह चोर कै से है? उ र – सृ के आर कालसे ही मनु य के ारा देवता को बढ़ाते आये ह और देवतालोग मनु को इ भोग दान करते आये ह। यह पर रा सृ के आर से ही चली आती है। इस पर रागत आदान- दानम जन मनु ने पहले य ा दके ारा देवता को बढ़ाया है और जो बढ़ा रहे ह वे तो चोर नह ह; परंतु दूसरे मनु के ारा बढ़ाये ए देवता से इ भोग ा करके जो उनके लये य ा द नह करता, उसको चोर बतलाना तो उ चत ही है। जैसे कसी दूसरे मनु के ारा पु क ई गौका दूध य द कोई दूसरा ही मनु यह कहकर पीता है क गौ क सेवा मनु ही करते ह और म भी मनु ँ तो वह चोर समझा जाता है – वैसे ही दूसरे मनु के ारा बढ़ाये ए देवता से भोग ा करके उनको बना दये भोगनेवाला मनु भी चोर माना जाता है। स – इस कार ाजीके वचन का माण देकर भगवान् ने य ा द कम क कत ताका तपादन कया और साथ ही उनका पालन न करनेवालेको चोर बतलाकर उसक न ा क ; अब उन कत कम का आचरण करनेवाले पु ष क शंसा करते ए उनसे वपरीत के वल शर रपोषणके लये ही कम करनेवाले पा पय क न ा करते है – य श ा शनः स ो मु े सव क षैः । भु ते ते घं पापा ये पच ा कारणात् ॥१३॥ – 

य से बचे ए अ को खानेवाले े पु ष सब पाप से मु हो जाते ह और जो पापीलोग अपना शरीरपोषण करनेके लये ही अ पकाते ह, वे तो पापको ही खाते ह॥ १३॥

है?

–  ' य श ा शनः '

पद कन मनु का वाचक

उ र – यहाँ ' य ' श के ारा धान पसे पंचमहाय का ल कराते ए भगवान् उन सभी शा ीय स म क बात कहते ह जो या से स ा दत होते ह। सृ कायके सुचा पसे संचालनम और सृ के जीव का भलीभाँ त भरण- पोषण होनेम पाँच ेणीके ा णय का पर र स है – देवता, ऋ ष, पतर, मनु और अ ाणी। इन पाँच के सहयोगसे ही सबक पु होती है। देवता सम संसारको इ भोग देते ह, ऋ ष- मह ष सबको ान देते ह, पतरलोग स ानका भरणपोषण करते और हत चाहते ह, मनु कम के ारा सबक सेवा करते ह और पशु प ी, वृ ा द सबके सुखके साधन पम अपनेको सम पत कये रहते ह। इन पाँच म यो ता, अ धकार और साधनस होनेके कारण सबक पु का दा य मनु पर है। इसीसे मनु शा ीय कम के ारा सबक सेवा करता है। पंचमहाय से यहाँ लोकसेवा प शा ीय स म ही वव त है। मनु का यह कत है क वह जो कु छ भी कमावे, उसम इन सबका भाग समझे; क वह सबक सहायता और सहयोगसे ही कमाता- खाता है। इसी लये जो य करनेके बाद बचे ए अ को [6]

अथात् इन सबको उनका ा भाग देकर उससे बचे ए अ को खाता है, उसीको शा कार अमृताशी ( अमृत खानेवाला) बतलाते ह। जो ऐसा नह करता, दूसर का मारकर के वल अपने लये ही कमाता- खाता है, वह पाप खाता है। व भ या से उपा जत अ का भोजन उसके पकनेपर ही होता है और उस अ क अ म आ त दये बना दैवय और ब लवै देव स नह होते, इस लये यहाँ हवन और ब लवै देवको धानता दी गयी है। परंतु के वल हवन- बालवै देव प कमसे ही पंच- महाय क पू त नह हो जाती। य से बचे ए अ को खानेवाला वा वम वही है, जो सबको अपनी कमाईका ह ा यथायो देकर फर बचे एको यं कामम लाता है। ऐसे ाथ ागी कमयोगीका वाचक यहाँ ' य श ा शनः ' पद है। –  ' संतः ' पद यहां साधक का वाचक है या स का? उ र – साधक का वाचक है; क स पु ष म पाप नह होते और यहाँ पाप से छू टनेक बात खी गयी है। – ा ' संतः ' पदका योग स पु ष के लये नह हो सकता? और ा स पु ष य नह करते? उ र – स पु ष तो संत ह ही, परंतु इस करणम संत पदका अथ ' नः ाथभावसे कम करनेवाले साधक' ह। और स पु ष भी य करते ह; परंतु वे पाप से छू टनेके लये नह , वरं ाभा वक ही लोकसं हाथ करते ह। –  यहाँ सब पाप से मु होनेका ा भाव लेना चा हये?

उ र – मनु के पूव पाप का संचय है, वतमानम जीवन नवाहके लये कये जानेवाले वैध अथ पाजनम भी मनु से आनुषं गक पाप बनते ह। ' सवार ा ह दोषेण धूमेना रवावृता : ' ( १८।४८) के ायसे हवन, जापालन, यु , खेती, ापार और श आ द ेक जीवनधारणके कायम कु छ- न- कु छ हसा होती ही है। गृह के घरम भी त दन चू ,े च , झाड, ओखली और जल रखनेके ानम हसा होती है। इसके सवा माद आ दके कारण अ ा कारसे भी अनेक पाप बनते रहते ह। जो पु ष नः ाथभावसे के वल लोकसेवाक को सामने रखकर सब जीव को सुख प ँ चानेके लये ही पंचमहाय ा द करता है और इसीम जीवनधारणक उपयो गता मानकर अपने ायोपा जत धनसे यथाश यथायो सबक सेवा प य करके उससे बचे- खुचे अ को के वल उनके सेवाथ जीवनधारण करनेके लये ही साद पसे हण करता है, वह स ु ष भूत और वतमानके सब पाप से छू टकर सनातन पदको ा हो जाता है ( ४।३१); इसी लए ऐसे साधकको संत कहा गया है। अत: यहाँ सब पाप से मु होनेका यही भाव समझना चा हये। घरम होनेवाले न के पाँच पाप से तो वह सकाम पु ष भी छू ट जाता है जो अपने सुखोपभोगक ा के लये शा व धके अनुसार कम करता है और ाय प न हवनब लवै देव आ द कम करके सबका उ दे देता है; पर यहाँ कताके लये ' स : ' पद और ' क षैः ' के साथ ' सव ' वशेषण आनेसे यही समझना चा हये क इस कार [7]

न ामभावसे पंचमहाय ा दका अनु ान करनेवाला संतपु ष तो भूत एवं वतमानके सभी पाप से छू ट जाता है। –  जो अपने शरीरपोषणके लये ही पकाते- खाते ह, उ पापी और उनके भोजनको पाप बतलाया गया? उ र – यहाँ पकाने- खानेके उपल से इ य के ारा भोगे जानेवाले सम भोग क बात कही गयी है। जो पु ष इन भोग का उपाजन और इनका य ाव श उपभोग न ामभावसे के वल लोकसेवाके लये करता है, वह तो उपयु कारसे पाप से छू ट जाता है और जो के वल सकामभावसे सबका ायो चत भाग देकर उपा जत भोग का उपभोग करता है, वह भी पापी नह है। परंतु जो पु ष के वल अपने ही सुखके लये – अपने ही शरीर और इ य के पोषणके लये भोग का उपाजन करता है और अपने ही लये उ भोगता है, वह पु ष पापसे पाप उपाजन करता है और पापका ही उपभोग करता है; क न तो उसक याएँ य ाथ होती है और न वह अपने उपाजनमसे सबको उनका यथायो ा भाग ही देता है। इस लये उसका उपाजन और उपभोग दोन ही पापमय होनेके कारण उसे पापी और उसके भोग को पाप कहा गया है (मनु० ३। ११८) । स – यहाँ यह ज ासा होती है क य न करनेसे ा हा न है ? इसपर सृ च को सुर त रखनेके लये य क आव कताका तपादन करते ह – अ ा व भूता न पज ाद स वः । य ा व त पज ो य ः कमसमु वः ॥१४॥ [8]

कम ो वं व ा रसमु वम् । त ा वगतं न ं य े त तम् ॥१५॥

स ूण ाणी अ से उ होते ह , अनक उ वृ से होती है, वृ य से होती है और य व हत कम से उ होनेवाला है। कमसमुदायको तू वेदसे उ और वेदको अ वनाशी परमा ासे उ आ जान। इससे स होता है क सव ापी परम अ र परमा ा सदा ही य म त त है॥ १४ - १५॥

अ ' श का ा अथ है और सम ाणी अ से उ होते ह, इस वा का ा भाव है? उ र – यहाँ ' अ ' श ापक अथम है। इस लये इसका अथ के वल गे ँ , चना आ द अनाजमा ही नह है; कतु जन भ - भ आहार करनेयो ूल और सू पदाथ से भ भ ा णय के शरीर आ दक पु होती है। उन सम खा पदाथ का वाचक यहाँ ' अ ' श है। अत: सम ाणी अ से उ होते ह – इस वा का यह भाव है क खा पदाथ से ही सम ा णय के शरीरम रज और वीय आ द बनते ह, उस रजवीय आ दके संयोगसे ही भ - भ ा णय क उ होती है तथा उ के बाद उनका पोषण भी खा पदाथ से ही होता है; इस लये सब कारसे ा णय क उ , वृ और पोषणका हेतु अ ही है। ु तम भी कहा है – ' अ ा येव ख मा न भूता न जाय े अ ेन जाता न जीव ' (तै० उ० ३।२) अथात् ये सब ाणी अ से ही उ होते ह और उ होकर अ से ही जीते ह। –  '

– 

अ क उ

वृ से होती है, इस कथनका

ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया है क संसारम ूल और सू जतने भी खा पदाथ ह, उन सबक उ म जल ही धान कारण है; क ूल या सू पसे जलका स सभी जगह रहता है और जलका आधार वृ ही है। –  वृ य से होती है; यह कहनेका ा भाव है? उ र – सृ म जतने भी जीव ह, उन सबम मनु ही ऐसा है जसपर सब जीव के भरण- पोषण और संर णका दा य है। मनु अपने इस दा य को समझकर मन, वाणी, शरीरसे सम जीव के जीवनधारणा द प हतके लये जो याएँ करता है, उन या से स ा दत होनेवाले स मको य कहते ह। इस य म हवन, दान, तप और जी वका आ द सभी कत - कम का समावेश हो जाता है। य प इनम हवनक धानता होनेसे शा म ऐसा कहा गया है क अ म आ त देनेपर वृ होती है और उस वृ से अ क उ के ारा जाक उ होती है; कतु ' य ' श से यहाँ के वल हवन ही वव त नह है। लोकोपकाराथ होने- वाली या से स ा दत स ममा का नाम य है। ' वृ य से होती है' इस वा का यह भाव समझना चा हये क मनु के ारा कये ए कत - पालन प य से ही वृ होती है। हम कहते ह क अमुक देशम य नह होते, वहाँ वषा होती है? इसका उ र यह है क वहाँ भी कसी- न- कसी पम लोकोपकाराथ स म होते ही ह। इसके अ त र एक बात और भी है क सृ के आर से ही य होते रहे ह। उन य के ँ

फल प वहाँ वृ होती है और जबतक पूवा जत य - समूह सं चत रहेगा –   उसक समा नह होगी – तबतक वृ होती रहेगी; परंतु मनु य द य करना बंद कर देगा तो यह संचय धीरेधीरे समा हो जायगा और उसके बाद वृ नह होगी, जसके फल प सृ के जीव का शरीरधारण और भरण- पोषण क ठन हो जायगा; इस लये कत पालन प य मनु को अव करना चा हये। –  य व हत कमसे उ होता है; इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क भ - भ मनु के लये उनके वण, आ म, भाव और प र तके भेदसे जो नाना कारके य शा म बतलाये गये ह, वे सब मन, इ य या शरीरक या ारा ही स ा दत होते ह। बना शा व हत याके कसी भी य क स नह होती। चौथे अ ायके ब ीसव ोकम इसी भावको कया गया है। –  ' ो वम् ' पदम ' ' श का ा अथ है और कमको उससे उ होनेवाला बतलानेका ा भाव है? उ र – गीताम ' ' श का योग करणानुसार ' परमा ा' ( ८। ३, २४), ' कृ त' ( १४।३, ४), ' ा' ( ८।१७; ११।३७), ' वेद' ( ४।३२; १७।२४) और ' ा ण' ( १८।४२) – इन सबके अथम आ है। यहाँ कम क उ का करण है और व हत कम का ान मनु को वेद या वेदानुकूल शा से ही होता है। इस लये यहाँ ' ' श का अथ वेद समझना चा हये। इसके सवाय इस को अ रसे उ बतलाया गया है, इस लये भी

का अथ वेद मानना ही ठीक है; क परमा ा तो यं अ र है और कृ त अना द है, अत: उनको अ रसे उ कहना नह बनता और ा तथा ा णका यहाँ करण नह है। कम को वेदसे उ बतलाकर यहाँ यह भाव दखलाया है क कस मनु के लये कौन- सा कम कस कार करना कत है – यह बात वेद और शा ारा समझकर जो व धवत् याएँ क जाती ह, उ से य स ा दत होता है और ऐसी याएँ वेदसे या वेदानुकूल शा से ही जानी जाती ह। अत: य स ादन करनेके लये ेक मनु को अपने कत का ान ा कर लेना चा हये। –   ' वेदको अ रसे उ होनेवाला' कहनेका ा अ भ ाय है; क वेद तो अना द माने जाते ह? उ र – पर परमे र न ह, इस कारण उनका वधान प वेद भी न है – इसम कु छ भी स ेह नह है। अत: यहाँ वेदको परमे रसे उ बतलानेका यह अ भ ाय नह है क वेद पहले नह था और पीछेसे उ आ है, कतु यह अ भ ाय है क सृ के आ दकालम परमे रसे वेद कट होता है और लयकालम उ म वलीन हो जाता है। वेद अपौ षेय है अथात् कसी पु षका बनाया आ शा नह है। यह भाव दखलानेके लये ही यहाँ वेदको अ रसे यानी अ वनाशी परमा ासे उ होनेवाला बतलाया गया है। अतएव इस कथनसे वेदक अना दता ही स क गयी है। इसी भावसे स हव अ ायके तेईसव ोकम भी वेदको परमा ासे उ बतलाया गया है। ँ

वशेषणके स हत ' ' पद यहाँ कसका वाचक है और हेतुवाचक ' त ात् ' पदका योग करके उसे य म न त त बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – ' सवगतम् ' वशेषणके स हत ' ' पद यहाँ सव ापी, सवश मान् सवाधार परमे रका वाचक है और ' त ात् ' पदके योगपूवक उस परमे रको य म न त त बतलाकर यह भाव दखलाया गया है क सम य क व ध जस वेदम बतलायी गयी है, वह वेद भगवान् क वाणी है। अतएव उसम बतलायी ई व धसे कये जानेवाले य म सम य के अ ध ाता सव ापी परमे र सदा ही यं वराजमान रहते ह, अथात् य सा ात् परमे रक ' मू त' है। इस लये ेक मनु को भगव ा के लये भगवान् के आ ानुसार अपने- अपने कत का पालन करना चा हये। स – इस कार सृ च क त य पर नभर बतलाकर और परमा ाको य म त त कहकर अब उस य प धमके पालनक अव कत ता स करनेके लये उस सृ च के अनुकुल न चलनेवालेक यानी अपना कत - पालन न करनेवालेक न ा करते ह – एवं व ततं च ं नानुवतयतीह यः । अघायु र यारामो मोघं पाथ स जीव त ॥१६॥ –  ' सवगतम् '

हे पाथ ! जो पु ष इस लोकम इस कार पर रासे च लत सृ च के अनुकूल नह बरतता अथात्

अपनेकत का पालन नह करता , वह इ य के ारा भोग म रमण करनेवाला पापायु पु ष थ ही जीता है॥ १६॥ –  यहाँ ' च म् ' पद कसका वाचक है और उसके साथ ' एवं व ततम् ' वशेषण देनेका ा भाव है तथा उसके अनुकूल बरतना ा है? उ र – चौदहव ोकके वणनानुसार ' च म् ' पद यहाँ सृ - पर राका वाचक है, क मनु के ारा क जानेवाली शा व हत या से य होता है, य से वृ होती है, वृ से अ होता है, अ से ाणी उ होते ह, पुन: उन ा णय के ही

अ गत मनु के ारा कये ए कम से य और य से वृ होती है। इस तरह यह सृ पर रा सदासे च क भाँ त चली आ रही है। यही भाव दखलानेके लये ' च म् ' पदके साथ ' एवं व ततम् ' वशेषण दया गया है। अपने- अपने वण, आ म, भाव और प र तके अनुसार जस मनु का जो धम है, जसके पालन करनेका उसपर दा य है, उसके अनुसार अपने कत का सावधानीके साथ पालन करना ही उस च के अनुसार चलना है। अतएव आस और कामनाका ाग करके के वल इस सृ च क सु व ा बनाये रखनेके लये ही जो योगी अपने कत का अनु ान करता है, जसम क च ा भी अपने ाथका स नह रहता, वह उस धम प य म त त परमे रको ा हो जाता है। – इस सृ च के अनुकूल न बरतनेवाले मनु को ' इ याराम' और ' अघायु' कहनेका तथा उसके जीवनको थ

बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – अपने कत का पालन न करना ही उपयु सृ च के अनुकूल न चलना है। अपने कत को भूलकर जो मनु वषय म आस होकर नर र इ य के ारा भोग म ही रमण करता है, जस कसी कारसे भोग के ारा इ य को तृ करना ही जसका ल बन जाता है, उसे ' इ याराम' कहा गया है। इस कार अपने कत का ाग कर देनेवाला मनु भोग क कामनासे े रत होकर इ ाचारी हो जाता है, अपने ाथम रत रहनेके कारण वह दूसरेके हत- अ हतक कु छ भी परवा नह करता – जससे दूसर पर बुरा भाव पड़ता है और सृ क व ाम व उप त हो जाता है। ऐसा होनेसे सम जाको दुःख प ँ चता है। अतएव अपने कत का पालन न करके सृ म दु व ा उ करनेवाला मनु बड़े भारी दोषका भागी होता है तथा वह अपना ाथ स करनेके लये जीवनभर अ ायपूवक धन और ऐ यका सं ह करता रहता है, इस लये उसे ' अघायु' कहा गया है। वह मनु जीवनके धान ल से – संसारम अपने कत पालनके ारा सब जीव को सुख प ँ चाते ए परम क ाण प परमे रको ा कर लेना – इस उ े से सवथा वं चत रह जाता है और अपने अमू मनु जीवनको वषयभोग म रत रहकर थ खोता रहता है; इस लये उसके जीवनको थ बतलाया गया है।



ज ासा होती है क उपयु कारसे सृ च के अनुसार चलनेका दा य कस ेणीके मनु पर है ? इसपर परमा ाको ा स महापु षके सवा इस सृ से स रखनेवाले सभी मनु पर अपने - अपने कत पालनका दा य है – यह भाव दखलानेके लये दो ोक म ानी महापु षके लये कत का अभाव और उसका हेतु बतलाते ह – य ा र तरेव ादा तृ मानवः । आ ेव च स ु काय न व ते ॥१७॥ पर ु जो मनु आ ाम ही रमण करनेवाला और आ ाम ही तृ तथा आ ाम ही स ु हो उसके लये कोई कत नह है॥ १७॥ –   ' तु ' पदका ा अ भ ाय है? उ र – पूव ोक म जनके लये धमपालन अव कत बतलाया गया है एवं धमपालन न करनेसे जनको ' अघायु' कहकर जनके जीवनको थ बतलाया गया है, उन सभी मनु से वल ण शा के शासनसे ऊपर उठे ए ानी महापु ष को अलग करके उनक तका वणन करनेके लये यहाँ ' तु ' पदका योग कया गया है। – ' आ र त : ,' ' आ तृ : ' और ' आ न एव स ु : ' – इन तीन वशेषण के स हत ' य : ' पद कस मनु का वाचक है तथा उसे ' मानव : ' कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – उपयु वशेषण के स हत ' य : ' पद यहाँ स दान घन पूण परमा ाको ा ानी महा ा पु षका स

– यहाँ यह

वाचक है और उसे ' मानव : ' कहकर यह भाव दखलाया है क हरेक मनु ही साधन करके ऐसा बन सकता है, क परमा ाक ा म मनु मा का अ धकार है। –  ' एव ' अ यके स हत ' आ र त : ' वशेषणका ा भाव है? उ र – इस वशेषणसे यह भाव दखलाया है क परमा ाको ा ए पु षक म यह स ूण जगत् से जगे ए मनु के लये क सृ क भाँ त हो जाता है। अत: उसक कसी भी सांसा रक व ुम क च ा भी ी त नह होती और वह कसी भी व ुम रमण नह करता, के वलमा एक परमा ाम ही अ भ भावसे उसक अटल त हो जाती है। इस कारण उसके मन- बु संसारम रमण नह करते। उनके ारा के वल परमा ाके पका ही न य और च न ाभा वक पसे होता रहता है। यही उसका आ ाम रमण करना है। –  ' आ तृ : ' वशेषणका ा भाव हे? उ र – इससे यह भाव दखलाया है क परमा ाको ा पु ष पूणकाम हो जाता है, उसके लये कोई भी व ु ा करनेयो नह रहती तथा कसी भी सांसा रक व ुक उसे क च ा भी आव कता नह रहती, वह परमा ाके पम अन भावसे त होकर सदाके लये तृ हो जाता है। –  ' आ न एव स ु : ' वशेषणका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया है क परमा ाको ा पु ष न - नर र परमा ाम ही संतु रहता है, संसारका कोई

बड़े- से- बड़ा लोभन भी उसे अपनी ओर आक षत नह कर सकता, उसे कसी भी हेतुसे या कसी भी घटनासे क च ा भी अस ोष नह हो सकता, संसारक कसी भी व ुसे उसका कु छ भी स नह रहता, वह सदाके लये हष- शोका द वकार से सवथा अतीत होकर स दान घन परमा ाम नर र स ु रहता है। –  उसके लये कोई कत नह है, इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे यह भाव दखलाया गया है क उपयु वशेषण से यु महापु ष परमा ाको ा है, अतएव उसके सम कत समा हो चुके ह, वह कृ तकृ हो गया है; क मनु के लये जतना भी कत का वधान कया गया है, उस सबका उ े के वलमा एक परम क ाण प परमा ाको ा करना है; अतएव वह उ े जसका पूण हो गया, उसके लये कु छ भी करना शेष नह रहता, उसके कत क समा हो जाती है। –  तो ा ानी पु ष कोई भी कम नह करता? उ र – ानीका मन- इ य स हत शरीरसे कु छ भी स नह रहता, इस कारण वह वा वम कु छ भी नह करता; तथा प लोक म उसके मन, बु और इ य के ारा पूवके अ ाससे ार के अनुसार शा ानुकूल कम होते रहते ह। ऐसे कम ममता, अ भमान, आस और कामनासे सवथा र हत होनेके कारण परम प व और दूसर के लये आदश होते ह, ऐसा होते ए

भी यह बात ानम रखनी चा हये क ऐसे पु षपर शा का कोई शासन नह है। नैव त कृ तेनाथ नाकृ तेनेह क न । न चा सवभूतेषु क दथ पा यः ॥१८॥ उस महापु षका इस व म न तो कम करनेसे कोई योजन रहता है और न कम के न करनेसे ही कोई योजन रहता है। तथा स ूण ा णय म भी इसका क च ा भी ाथका स नह रहता॥ १८॥ –  उस महापु षका कम करनेसे या न करनेसे कोई योजन नह रहता, यह कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – पूव ोकम जो यह बात कही गयी है क ानी पु षको कोई कत नह रहता, उसी बातको पु करनेके लये इस वा म उसके लये कत के अभावका हेतु बतलाते ह। अ भ ाय यह है क वह महापु ष नर र परमा ाके पम स ु रहता है, इस कारण न तो उसे कसी भी कमके ारा कोई लौ कक या पारलौ कक योजन स करना शेष रहता है और न इसी कार कम के ाग ारा ही कोई योजन स करना शेष रहता है; क उसक सम आव कताएँ समा हो चुक ह, अब उसे कु छ भी ा करना शेष नह रहता है। इस कारण उसके लये न तो कम का करना वधेय है और न उनका न करना ही वधेय है, वह शा के शासनसे सवथा मु है। य द उसके मन, इ य के संघात प शरीर ारा कम कये जाते ह तो उसे शा उन कम का

ाग करनेके लये बा नह करता और य द नह कये जाते तो उसे शा कम करनेके लये भी बा नह करता। अतएव ानीके लये यह माननेक कोई आव कता नह है क ान होनेके बाद भी जीव ु का सुख भोगनेके लये ानीको कम के ाग या अनु ान करनेक आव कता है; क ान होनेके अन र मन और इ य के आराम प तु सुखसे उसका कोई स ही नह रहता, वह सदाके लये न ान म म हो जाता है एवं यं आन प बन जाता है। अत: जो कसी सुख- वशेषक ा के लये अपना ' हण' या ' ाग' प कत शेष मानता है, वह वा वम ानी नह है, कतु कसी त वशेषको ही ानक ा समझकर अपनेको ानी माननेवाला है। स हव ोकम बतलाये ए ल ण से यु ानीम ऐसी मा ताके लये ान नह है। इसी बातको स करनेके लये भगवान् ने उ रगीताम भी कहा है – ानामृतेन तृ कृतकृ न चा क त म चे २२ )

यो गन : । स त वत्॥ ( १।

अथात् जो योगी ान प अमृतसे तृ और कृ तकृ हो गया है, उसके लये कु छ भी कत नह है। य द कु छ कत है तो वह त ानी नह है। –  स ूण ा णय म भी इसका क च ा भी ाथका स नह रहता, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क ानीका जैसे कम करने और न करनेसे कोई योजन नह रहता,

वैसे ही उसका ावर- जंगम कसी ाणीसे भी क च ा भी कोई योजन नह रहता। अ भ ाय यह है क जसका देहा भमान सवथा न नह हो गया है एवं जो परमा ाक ा के लये साधन कर रहा है, ऐसा साधक य प अपने सुख- भोगके लये कु छ भी नह चाहता तो भी शरीर नवाहके लये कसी- न- कसी पम उसका अ ा णय से कु छ- न- कु छ ाथका स रहता है। अतएव उसके लये शा के आ ानुसार कम का हण- ाग करना कत है। कतु स दान परमा ाको ा ानीका शरीरम अ भमान न रहनेके कारण उसे जीवनक भी परवा नह रहती; ऐसी तम उसके शरीरका नवाह ार ानुसार अपने- आप होता रहता है। अतएव उसका कसी भी ाणीसे कसी कारके ाथका स नह रहता और इसी लये उसका कोई भी कत शेष नह रहता, वह सवथा कृ तकृ हो जाता है। –  ऐसी तम उसके ारा कम कये जाते ह? उ र – कम कये नह जाते, ार ानुसार लोक- से उसके ारा लोकसं हके लये कम होते ह; वा वम उसका उन कम से कु छ भी स नह रहता। इसी लये उन कम को ' कम' ही नह माना गया है। स – यहाँतक भगवान् ने ब त - से हेतु बतलाकर यह बात स क क जबतक मनु को परम ेय प परमा ाक ा न हो जाय, तबतक उसके लये धमका पालन करना अथात् अपने वणा मके अनुसार व हत कम का अनु ान नः ाथभावसे करना अव कत है और परमा ाको ा ए

पु षके इ य उपयु अनास

लये कसी ारा लोकसं वणनका भावसे कत त अस

कारका कत न रहनेपर भी उसके मन हके लये ार ानुसार कम होते ह। अब ल कराते ए भगवान् अजुनको कम करनेके लये आ ा देते ह – ादस ः सततं काय कम समाचर । ो ाचर म परमा ो त पू षः ॥१९॥

इस लये तू नर र आस से र हत होकर सदा कत कमको भलीभाँ त करता रह। क आस से र हत होकर कम करता आ मनु परमा ाको ा हो जाता है॥ १९॥ –  ' त ात् ' पदका ा भाव है? – ' त ात् ' पद यहाँ पछले

उर ोक से स बतलाता है; इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क यहाँतकके वणनम मने जन- जन कारण से धमपालन करनेक परमाव कता स क है उन सब बात पर वचार करनेसे यह बात कट होती है क सब कारसे धमका पालन करनेम ही तु ारा हत है। इस लये तु अपने वणधमके अनुसार कम करना ही चा हये। –  ' अस : ' पदका ा भाव है? उ र – ' अस : ' पदसे भगवान् अजुनको सम कम म और उनके फल प सम भोग म आस का ाग करके कम करनेके लये कहते ह। आस का ाग कहनेसे कामनाका ाग उसके अ गत ही आ गया, क आस से ही कामना उ ँ

होती है ( २। ६२) । इस लये यहाँ फले ाका ाग अलग नह बतलाया गया। –  ' सततम् ' पदका ा भाव है? उ र – भगवान् पहले यह बात कह आये ह क कोई भी मनु णमा भी बना कम कये नह रह सकता ( ३।५); इससे स होता है क मनु नर र कु छ- न- कु छ करता ही रहता है। इस लये यहाँ ' सततम् ' पदका योग करके भगवान् ने यह भाव दखलाया है क तुम सदा- सवदा जतने भी कम करो, उन सम कम म और उनके फलम आस से र हत होकर उनको करो, कसी समय कोई भी कम आस पूवक न करो। –  ' कम ' पदके साथ ' कायम् ' वशेषण देनेका ा भाव है? उ र – इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क तु ारे लये वण, आ म, भाव और प र तके अनुसार जो कम कत ह, वे ही कम तु करने चा हये; परधमके कम, न ष कम और थ या का कम नह करने चा हये। –  ' समाचर ' याका ा भाव है? उ र – ' आचर ' याके साथ ' सम् ' उपसगका योग करके भगवान् ने यह भाव दखलाया है क उन कम का तुम सावधानीके साथ व धपूवक यथायो आचरण करो। ऐसा न करके असावधानी रखनेसे उन कम म ु ट रह सकती है और उसके कारण तु परम ेयक ा म वल हो सकता है। –  आस से र हत होकर कम करनेवाला पु ष परमा ाको ा हो जाता है, इस कथनका ा भाव है?

उ र – इस कथनसे भगवान् ने उपयु कमयोगका फल बतलाया है। अ भ ाय यह है क उपयु कारसे आस का ाग करके कत कम का आचरण करनेवाला मनु कमब नसे मु होकर परमपु ष परमा ाको ा हो जाता है, इस कमयोगका इतना मह है। इस लये तु सम कम उपयु कारसे ही करने चा हये। स – पूव ोकम भगवान् ने जो यह बात कही क आस से र हत होकर कम करनेवाला मनु परमा ाको ा हो जाग है, उसी बातको पु करनेके लये जनका दका माण देकर पुन : अजुनके लये कम करना उ चत बतलाते ह – कमणैव ह सं स मा ता जनकादयः । लोकसङ् हमेवा प स तुमह स ॥२०॥ जनका द ानीजन भी आस र हत कम ारा ही परम स को ा ए थे। इस लये तथा लोकसं हको देखते ए भी तू कम करनेको ही यो है अथात् तुझे कम करना ही उ चत है॥ २०॥ –  ' जनकादयः ' पदसे कन पु ष का संकेत कया गया है और वे लोग भी कम के ारा ही परम स को ा ए थे, इस कथनका ा भाव है? उ र – भगवान् के उपदेशकालतक सजा जनकक भाँ त ममता, आस और कामनाका ाग करके के वल परमा ाक ा के लये ही कम करनेवाले अ प त, इ ाकु , ाद,

अ रीष आ द जतने भी महापु ष हो चुके थे, उन सबका संकेत ' जनकादयः ' पदसे कया गया है। पूव ोकम जो यह बात कही गयी क आस से र हत मनु परमा ाको ा हो जाता है, उसीको माण ारा स करनेके लये यहाँ यह कही गयी है क पूवकालम जनका द धान- धान महापु ष भी आस र हत कम के ारा ही परम स को ा ए थे। अ भ ाय यह है क आजतक ब त- से महापु ष ममता, आस और कामनाका ाग करके कमयोग ारा परमा ाको ा कर चुके ह; यह कोई नयी बात नह है। अत: यह परमा ाक ा का त और न त माग है, इसम कसी कारका स ेह नह है। –  परमा ाक ा तो त ानसे होती हे, फर यहाँ आस र हत कम को परमा ाक ा म ार बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – आस र हत कम ारा जसका अ ःकरण शु हो जाता है, उसे परमा ाक कृ पासे त ान अपने- आप मल जाता है ( ४।३८), तथा कमयोगयु मु न त ाल ही परमा ाको ा हो जाता है ( ५।६) । इस लये यहाँ आस र हत कम को परमा ाक ा म ार बतलाया गया है। –  ' लोकसं ह' कसे कहते ह तथा यहाँ लोकसं हको देखते ए कम करना उ चत बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – सृ - संचालनको सुर त बनाये रखना, उसक व ाम कसी कारक अड़चन पैदा न करके उसम सहायक बनना लोकसं ह कहलाता है। अथात् सम ा णय के भरण-

पोषण और र णका दा य मनु पर है; अत: अपने वण, आ म, भाव और प र तके अनुसार कत कम का भलीभाँ त आचरण करके जो दूसरे लोग को अपने आदशके ारा दुगुणदुराचारसे हटाकर धमम लगाये रखना है – यही लोकसं ह है। यहाँ अजुनको लोकसं हक ओर देखते ए भी कम करना उ चत बतलाकर भगवान् ने यह भाव दखलाया है क क ाण चाहनेवाले मनु को परम ेय प परमे रक ा के लये तो आस से र हत होकर कम करना उ चत है ही, इसके सवा लोकसं हके लये भी मनु को कम करते रहना उ चत है; इस लये तु लोकसं हको देखकर अथात् य द म कम न क ँ गा तो मुझे आदश मानकर मेरा अनुकरण करके दूसरे लोग भी अपने कत का ाग कर दगे, जससे सृ म व व हो जायगा और इसक व ा बगड़ जायगी; अत: सृ क सु व ा बनाये रखनेके लये मुझे अपने कत का पालन करना चा हये, यह सोचकर भी कम करना ही उ चत है, उसका ाग करना तु ारे लये कसी कार भी उ चत नह है। –  लोकसं हाथ कम परमा ाको ा ानी पु ष ारा ही हो सकते ह या साधक भी कर सकता है? उ र – ानीके लये अपना कोई कत नह होता, इससे उसके तो सभी कम लोक- सं हाथ ही होते ह; परंतु ानीको आदश मानकर साधक भी लोकसं हाथ कम कर सकता है। अव ही वह पूण पसे नह कर सकता; क जबतक अ ानक पूणतया नवृ नह हो जाती, तबतक कसी- न- कसी अंशम

ाथ बना ही रहता है और जबतक ाथका त नक भी स है, तबतक पूण पसे के वल लोकसं हाथकम नह हो सकता। –  जब ानीके लये कोई कत नह है और उसक म कमका कोई मह ही नह है, तब उसका लोकसं हाथ कम करना के वल लोग को दखलानेके लये ही होता होगा? उ र – ानीके लये कोई कत न होनेपर भी वह जो कु छ कम करता है, के वल लोग को दखलानेके लये नह करता, मनम कमका कोई मह न हो और के वल ऊपरसे लोग को दखलानेभरके लये कया जाय, वह तो एक कारका द है। ानीम द रह नह सकता। अतएव वह जो कु छ करता है, लोकसं हाथ आव क और मह पूण समझकर ही करता है; उसम न दखाऊपन है, न आस है, न कामना है और न अहंकार ही है। ानीके कम कस भावसे होते ह, इसको कोई दूसरा नह जान पाता; इसीसे उसके कम म अ वल णता मानी जाती है। स – पूव ोकम भगवान् ने अजुनको लोकसं हक ओर देखते ए कम का करना उ चत बतलाया ; इसपर यह ज ासा होती है क कम करनेसे कस कार लोकसं ह होता है ? अतः यही बात समझानेके लये कहते ह – य दाचर त े देवेतरो जनः । स य माणं कु ते लोक दनुवतते ॥२१॥ े पु ष जो - जो आचरण करता है, अ पु ष भी वैसा - वैसा ही आचरण करते ह। वह जो कुछ माण कर देता ै ै

है सम २१॥

मनु समुदाय उसीके अनुसार बरतने लग जाता है॥

–  यहाँ ' े : ' पद कस मनु का वाचक है? उ र – जो संसारम अ े गुण और आचरण के कारण धमा ा व ात हो गया है, जगत् के अ धकांश लोग जसपर ा और व ास करते है – ऐसे स माननीय महा ा ानीका वाचक यहाँ ' े : ' पद है। –  े पु ष जो- जो कम करता है, दूसरे मनु भी उन- उन कम को ही कया करते ह, इस वा का ा भाव है? उ र – इस वा से भगवान् ने यह भाव दखलाया है क उपयु महा ा य द अपने वण- आ मके धम का भलीभाँ त अनु ान करता है तो दूसरे लोग भी उसक देखा- देखी अपने- अपने वणा मके धमका पालन करनेम ापूवक लगे रहते ह; इससे सृ क व ा सुचा पसे चलती रहती हे, कसी कारक

बाधा नह आती। क ु य द कोई धमा ा ानी महा ा पु ष अपने वणा मके धम का ाग कर देता है तो लोग पर भी यही भाव पड़ता है क वा वम कम म कु छ नह रखा है; य द कम म ही कु छ सार होता तो अमुक महापु ष उन सबको छोड़ते – ऐसा समझकर वे उस े पु षक देखा- देखी अपने वणआ मके लये व हत नयम और धम का ाग कर बैठते ह। ऐसा होनेसे संसारम बड़ी गड़बड़ मच जाती है और सारी व ा टूट जाती है। अतएव महा ा पु षको लोकसं हक ओर ान रखते ए अपने वण- आ मके अनुसार सावधानीके साथ यथायो

सम कम का अनु ान करते रहना चा हये, कम क अवहेलना या ाग नह करना चा हये। –  वह जो कु छ माण कर देता है, मनु समुदाय उसीके अनुसार बरतने लग जाता है – इस वा का ा भाव है? उ र – इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क े पु ष यं आचरण करके और लोग को श ा देकर जस बातको ामा णक कर देता है अथात् लोग के अ ःकरणम व ास करा देता है क अमुक कम अमुक मनु को इस कार करना चा हये और अमुक कम इस कार नह करना चा हये, उसीके अनुसार साधारण मनु चे ा करने लग जाते ह। इस लये माननीय े ानी महापु षको सृ क व ा ठीक रखनेके उ े से बड़ी सावधानीके साथ यं कम करते ए लोग को श ा देकर उनको अपने- अपने कत म नयु करना चा हये और इस बातका पूरा ान रखना चा हये क उसके उपदेश या आचरण से संसारक व ा सुर त रखनेवाले कसी भी वण- आ मके धमक या मानवधमक पर राको क च ा भी ध ा न प ँ चे अथात् उन कम म लोग क ा और च कम न हो जाय। –  जब े महापु षके आचरण का सब लोग अनुकरण करते ह, तब यह कहनेक आव कता ई क वह जो कु छ ' माण' कर देता है, लोग उसीके अनुसार बरतते ह? उ र – संसारम सब लोग के कत एक- से नह होते। देश, समाज और अपने- अपने वणा म, समय एवं तके अनुसार सबके व भ कत होते ह। े महापु षके लये यह स व नह क वह सबके यो कम को अलग- अलग यं

आचरण करके बतलावे। इस लये े महापु ष जन- जन वै दक और लौ कक या को वचन से भी मा णत कर देता है, उसीके अनुसार लोग बरतने लगते ह। इसीसे वैसा कहा गया है। स – इस कार े महापु ष के आचरण को लोकसं हम हेतु बतलाकर अब भगवान् तीन ोक म अपना उदाहरण देकर वणा मके अनुसार व हत कम के करनेक अव कत ताका तपादन करते ह – न मे पाथा कत ं षु लोके षु क न । नानवा मवा ं वत एव च कम ण ॥२२॥ हे अजुन ! मुझे इन तीन लोक म न तो कुछ कत है और न कोई भी ा करनेयो व ु अ ा है, तो भी म कमम ही बरतता ँ ॥ २२॥

भाव है?

–  अजुनको ' पाथ ' श

से स ो धत करनेका ा

उ र – कु ीके दो नाम थे – ' पृथा' और ' कु ी' । बा ाव ाम जबतक वे अपने पता शूरसेनके यहाँ रह तबतक उनका नाम ' पृथा' था और जब वे राजा कु भोजके यहाँ गोद चली गय तबसे उनका नाम ' कु ी' पड़ा। माताके इन नाम के स से ही अजुनको पाथ और कौ ेय कहा जाता है। यहाँ भगवान् अजुनको कमम वृ करते ए परम ेह और आ ीयताके सूचक ' पाथ' नामसे स ो धत करके मानो यह कह रहे ह क ' मेरे ारे भैया! म तु कोई ऐसी बात नह बतला रहा ँ

जो कसी अंशम भी न ेणीक हो; तुम मेरे अपने भाई हो, म तुमसे वही कहता ँ जो म यं करता ँ और जो तु ारे लये परम ेय र है।' –  तीन लोक म मेरा कु छ भी कत नह है, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क मनु का स तो के वल इसी लोकसे है। अत: धम, अथ, काम और मो – इन चार पु षाथ क स के लये उसके कत का वधान इस लोकम होता है; क ु म साधारण मनु नही ँ , यं ही सबके कत का वधान करनेवाला सा ात् परमे र ँ । अत: ग, मृ ुलोक और पाताल इन तीन ही लोक म सदा त ँ । मेरे लये कसी लोकम कोई भी कत शेष नह है। –  मुझे इन तीन लोक म कोई भी ा करनेयो व ु अ ा नह है, इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क इस लोकक तो बात ही ा है, तीन लोक म कह भी ऐसी कोई ा करनेयो व ु नह है; जो मुझे ा न हो; क म सव र पूणकाम और सबक रचना करनेवाला ँ । –  तो भी म कम म ही बरतता ँ इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क मुझे कसी भी व ुक आव कता नह है और मेरे लये कोई भी कत शेष नह है तो भी लोकसं हक ओर देखकर म सब लोग पर दया करके कम म ही लगा आ ँ , कम का ाग नह

करता। इस लये कसी मनु को ऐसा समझकर कम का ाग नह कर देना चा हये क य द मेरी भोग म आस नह है और मुझे कम के फल पम कसी व ुक आव कता ही नह है तो म कम कस लये क ं , या मुझे परमपदक ा हो चुक है तब फर कम करनेक ा ज रत है। क अ कसी कारणसे कम करनेक आव कता न रहनेपर भी मनु को लोकसं हक से कम करना चा हये। य द हं न वतयं जातु कम त तः । मम व ानुवत े मनु ाः पाथ सवशः ॥२३॥ क हे पाथ ! य द कदा चत् म सावधान होकर कम म न बरतूँ तो बड़ी हा न हो जाय ; क मनु सब कारसे मेरे ही मागका अनुसरण करते ह॥ २३॥ –  ' ह ' पदका यहाँ – पूव ोकम भगवान्

ा भाव है? उर ने जो यह बात कही क मेरे लये सवथा कत का अभाव होनेपर भी म कम करता ँ , इसपर यह ज ासा होती है क य द आपके लये कत ही नह है तो फर आप कस लये कम करते ह। अत: दो ोक म भगवान् अपने कमका हेतु बतलाते ह, इसी बातका ोतक यहाँ ' ह ' पद है। –  ' य द ' और ' जातु ' – इन दोन पद के योगका ा भाव है? उ र – इनका योग करके भगवान् ने यह भाव दखलाया है क मेरा अवतार धमक ापनाके लये होता है, इस कारण म कभी कसी भी कालम सावधानीके साथ सांगोपांग सम कम का ँ ँ

अनु ान न क ँ यानी उनक अवहेलना कर दूँ – यह स व नह है; तो भी अपने कम का हेतु समझानेके लये यह बात कही जाती है क ' य द म कदा चत् सावधानीके साथ कम म न बरतूँ तो बड़ी भारी हा न हो जाय; क स ूण जगत् का कता, हता और संचालक एवं मयादापु षो म होकर भी य द म असावधानी करने लगूँ तो सृ च म बड़ी भारी गड़बड़ी मच जाय।' –  मनु सब कारसे मेरे मागका अनुसरण करते ह, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क ब त लोग तो मुझे बड़ा श शाली और े समझते ह और ब त- से मयादापु षो म समझते ह, इस कारण जस कमको म जस कार करता ँ , दूसरे लोग भी मेरी देखा- देखी उसे उसी कार करते ह अथात् मेरी नकल करते ह। ऐसी तम य द म कत कम क अवहेलना करने लगूँ, उनम सावधानीके साथ व धपूवक न बरतूँ तो लोग भी उसी कार करने लग जायँ और ऐसा करके ाथ और परमाथ दोन से वं चत रह जायँ। अतएव लोग को कम करनेक री त सखलानेके लये म सम कम म यं बड़ी सावधानीके साथ व धवत् बरतता ँ , कभी कह भी जरा भी असावधानी नह करता। उ ीदेयु रमे लोका न कु या कम चेदहम् । स र च कता ामुपह ा ममाः जाः ॥२४॥ इस लये य द म कम न क ँ तो ये सब मनु न हो जायँ और म संकरताका करनेवाला होऊँ तथा इस सम जाको न करनेवाला बनूँ॥ २४॥





यहाँ ' य द म कम न क ँ ' यह कहनेक ा आव क पूव ोकम यह बात कह ही दी गयी थी क ' य द म सावधान होकर कम म न बरतू'ँ इस लये इस पुन का ा भाव है? उ र – पूव ोकम ' य द म सावधान होकर कम म न बरतू'ँ इस वा ांशसे तो सावधानीके साथ व धपूवक कम न करनेसे होनेवाली हा नका न पण कया गया है और इस ोकम ' य द म कम न क ँ ' इस वा ांशसे कम के न करनेसे यानी उनका ाग कर देनेसे होनेवाली हा न बतलायी गयी है। इस लये यह पुन नह है। दोन ोक म अलग- अलग दो बात कही गयी ह। –  य द म कम न क ँ तो ये सब मनु न हो जायँ, इस वा का ा भाव है? उ र – इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क य द म कत कम का ाग कर दूँ तो उन शा व हत कम को थ समझकर दूसरे लोग भी मेरी देखा- देखी उनका प र ाग कर दगे और राग- ेषके वश होकर एवं कृ तके वाहम पड़कर मनमाने नीच कम करने लगगे तथा एक- दूसरेका अनुकरण करके सब- के सब ाथपरायण, ाचारी और उ ृ ंखल हो जायगे। ऐसा होनेसे वे सांसा रक भोग म आस होकर अपने- अपने ाथक स के लये एक- दूसरेक हा नक परवा न करके अ ायपूवक शा व लोकनाशक पापकम करने लगगे। इसके फल प उनका मनु - ज हो जायगा और मरनेके बाद उनको नीच यो नय म या नरक म गरना पड़ेगा। –  कता थी?

भाव है?

–  म संकरताका करनेवाला होई, इस कथनका



उ र – यहाँ ' संकर ' पदसे सभी कारक संकरता वव त है। वण, आ म, जा त, समाज, भाव, देश, काल, रा और प र तक अपे ासे सब मनु के अपने- अपने पृथक् पृथक् पालनीय धम होते ह; शा व धका ाग करके नयमपूवक अपने- अपने धमका पालन न करनेसे सारी व ा बगड़ जाती है और सबके धम म संकरता आ जाती है अथात् उनका म ण हो जाता है। इस कारण सब अपने- अपने कत से होकर बुरी तम प ँ च जाते ह – जससे उनके धम, कम और जा तका नाश होकर ाय: मनु ही न हो जाता है। अत: यहाँ भगवान् यह भाव दखलाते ह क य द म शा व हत कत कम का ाग कर दूँ तो फलत: अपने आदशके ारा इन लोग से शा ीय कम का ाग करवाकर इनम धम- नाशक संकरता उ करनेम मुझको कारण बनना पड़े। –  इस सम जाको न करनेवाला बनू,ँ इस कथनका ा भाव है? उ र – जस समय कत हो जानेसे लोग म सब कारक संकरता फै ल जाती है, उस समय मनु भोगपरायण और ाथा होकर भ - भ साधन से एक- दूसरेका नाश करने लग जाते ह, अपने अ ु और णक सुखोपभोगके लये दूसर का नाश कर डालनेम जरा भी नह हचकते। इस कार अ ाचार बढ़ जानेपर उसीके साथ- साथ नयी- नयी दैवी वप याँ भी आने लगती ह – जनके कारण सभी ा णय के लये आव क ँ

खान- पान और जीवनधारणक सु वधाएँ ाय: न हो जाती ह; चार ओर महामारी, अनावृ , जल- लय, अकाल, अ कोप, भूक और उ ापात आ द उ ात होने लगते ह। इससे सम जाका वनाश हो जाता है। अत: भगवान् ने ' म सम जाको न करनेवाला बनू'ँ इस वा से यह भाव दखलाया है क य द म शा व हत कत कम का ाग कर दूँ तो मुझे उपयु कारसे लोग को उ ृ ंखल बनाकर सम जाका नाश करनेम न म बनना पड़े। स – इस कार तीन ोक म कम को सावधानीके साथ न करने और उनका ाग करनेके कारण होनेवाले प रणमका अपने उदाहरणसे वणन करके , लोकसं हक से सबके लये व हत कम क अव कत ताका तपादन करनेके अन र अब भगवान् उपयु लोकसं हक से ानीको कम करनेके लये ेरणा करते ह – स ाः कम व ांसो यथा कु व भारत । कु या ां थास क षुल कसङ् हम् ॥२५॥ हे भारत ! कमम आस ए अ ानीजन जस कार कम करते ह, आस र हत व ान् भी लोकसं ह करना चाहता आ उसी कार कम करे॥ २५॥

उ प र तके

–  यहाँ ' कम ण ' पद कन कम का वाचक है? र – अपने- अपने वण, आ म, भाव और अनुसार शा व हत कत - कम का वाचक यहाँ '

पद है; क भगवान् अ ा नय को उन कम म लगाये रखनेका आदेश देते ह एवं ानीको भी उ क भाँ त कम करनेके लये ेरणा करते ह, अतएव इनम न ष कम या थ कम स लत नह ह। – ' कम ण स ाः ' वशेषणके स हत ' अ व ांस : ' पद यहाँ कस ेणीके अ ा नय का वाचक है? उ र – उपयु वशेषणके स हत ' अ व ांसः ' पद यहाँ शा म, शा व हत कम म और उनके फलम ा, ेम और आस रखनेवाले तथा शा व हत कम का व धपूवक अपनेअपने अ धकारके अनुसार अनु ान करनेवाले सकाम कमठ मनु का वाचक है। इनम कम वषयक आस रहनेके कारण ये न तो क ाणके साधक शु सा क कमयोगी पु ष क ेणीम आ सकते ह और न ापूवक शा व हत कम का आचरण करनेवाले होनेके कारण आसुरी, रा सी और मो हनी कृ तवाले पापाचारी तामसी ही माने जा सकते ह। अतएव इन लोग को उन स गुण म त राजस भाववाले मनु क ेणीम ही समझना चा हये, जनका वणन दूसरे अ ायम बयालीसवसे चौवालीसव ोकतक ' अ वप त : ' पदसे, सातव अ ायम बीसवसे तेईसव ोकतक ' अ मेधसाम् ' पदसे और नव अ ायम बीस, इ स, तेईस और चौबीसव ोक म ' अ देवता भ ा : ' पदसे कया गया है। –  यहाँ ' यथा ' और ' तथा ' – इन दोन पद का योग करके भगवान् ने ा भाव दखलाया है? कम ण '

उ र – ाभा वक ेह, आस और भ व म उससे सुख मलनेक आशा होनेके कारण माता अपने पु का जस कार स ी हा दक लगन, उ ाह और त रताके साथ लालन- पालन करती है, उस कार दूसरा कोई नह कर सकता; इसी तरह जस मनु क कम म और उनसे ा होनेवाले भोग म ाभा वक आस होती है और उनका वधान करनेवाले शा म जसका व ास होता हे, वह जस कार स ी लगनसे ा और व धपूवक शा व हत कम को सांगोपांग करता है, उस कार जनक शा म ा और शा व हत कम म वृ नह है, वे मनु नह कर सकते। अतएव यहाँ ' यथा ' और ' तथा ' का योग करके भगवान् यह भाव दखलाते ह क अहंता, ममता, आस और कामनाका सवथा अभाव होनेपर भी ानी महा ा को के वल लोकसं हके लये कमास मनु क भाँ त ही शा व हत कम का व धपूवक सांगोपांग अनु ान करना चा हये। –  यहाँ ' व ान् ' का अथ त ानी न मानकर शा ानी मान लया जाय तो ा हा न है? उ र – ' व ान् ' के साथ ' अस : ' वशेषणका योग है, इस कारण इसका अथ के वल शा ानी ही नह माना जा सकता; क शा ानमा से कोई मनु आस र हत नह हो जाता। –  ' लोकसं हं चक षुः ' पदसे यह स होता है क ानीम भी इ ा रहती है; ा यह बात ठीक है? उ र – हाँ, रहती है; परंतु यह अ ही वल ण होती है। सवथा इ ार हत पु षम होनेवाली इ ाका ा प होता

है यह समझाया नह जा सकता; इतना ही कहा जा सकता है क उसक यह इ ा साधारण मनु को कमत र बनाये रखनेके लये कहने मा क ही होती है। ऐसी इ ा तो भगवान् म भी रहती है। वा वम तो यह इ ा इ ा ही नही है, अतएव यह ' लोकसं हं चक षुः ' से यह भाव समझना चा हये क कह उसक देखा- देखी दूसरे लोग अपने कत - कम का ाग करके न - न हो जायँ, इस से ानीके ारा के वल लोक हताथ उ चत चे ा होती है; स ा त: इसके अ त र उसके कम का कोई दूसरा उ े नह रहता। न बु भेदं जनयेद ानां कमस नाम् । जोषये वकमा ण व ा ु ः समाचरन् ॥२६॥ परमा ाके पम अटल त ए ानी पु षको चा हये क वह शा व हत कम म आस वाले अ ा नय क बु म म अथात् कम म अ ा उ न करे कतु यं शा व हत सम कम भलीभाँ त करता आ उनसे भी वैसे ही करवावे॥ २६॥ –  ' यु कसका वाचक है? उ र – पूव

: '

वशेषणके स हत '

ोकम व णत परमा ाके त आस र हत त ानीका वाचक यहाँ वशेषणके स हत ' व ान् ' पद है।

व ान् '

पद

पम अटल

' यु

: '

शा व हत कम म आस वाले अ ा नय क बु म म उ न करनेके लये कहनेका ा अ भ ाय है? ा ऐसे मनु को त ानका या कमयोगका उपदेश नह देना चा हये? उ र – कसीक बु म संशय या दु वधा उ कर देना ही बु म म उ करना कहलाता है। अतएव कमास मनु क जो उन कम म, कम वधायक शा म और अ भोग म आ कबु है, उस बु को वच लत करके उनके मनम कम के और शा के त अ ा उ कर देना ही उनक बु म म उ करना है। अत: यहाँ भगवान् ानीको कमास अ ा नय क बु म म उ न करनेके लये कहकर यह भाव दखलाते ह क उन मनु को न ाम- कमका और त ानका उपदेश देते समय ानीको इस बातका पूरा खयाल रखना चा हये क उसके कसी आचार- वहार और उपदेशसे उनके अ ःकरणम कत कम के या शा ा दके त कसी कारक अ ा या संशय उ न हो जाय; क ऐसा हो जानेसे वे जो कु छ शा व हत कम का ापूवक सकामभावसे अनु ान कर रहे ह, उसका भी ानके या न ामभावके नामपर प र ाग कर दगे। इस कारण उ तके बदले उनका वतमान तसे भी पतन हो जायगा। अतएव भगवान् के कहनेका यहाँ यह भाव नह है क अ ा नय को त ानका उपदेश नह देना चा हये या न ामभावका त नह समझाना चा हये; उनका तो यहाँ यही कहना है क अ ा नय के मनम न तो ऐसा भाव उ होने देना चा हये क त ानक ा के लये या त ान ा होनेके – 

बाद कम अनाव क है, न यही भाव पैदा होने देना चा हये क फलक इ ा न हो तो कम करनेक ज रत ही ा है और न इसी मम रहने देना चा हये क फलास पूवक सकामभावसे कम करके ग ा कर लेना ही बड़े- से- बड़ा पु षाथ है, इससे बढ़कर मनु का और कोई कत ही नह है। ब अपने आचरण तथा उपदेश ारा उनके अ ःकरणसे आस और कामनाके भाव को हटाते ए उनको पूववत् ापूवक कम करनेम लगाये रखना चा हये। –  कमास अ ानी तो पहलेसे कम म लगे ए रहते ही ह; फर यहाँ इस कथनका ा अ भ ाय है क व ान् यं कम का भलीभाँ त आचरण करता आ उनसे भी वैसे ही करावे? उ र – अ ानी लोग ापूवक कम म लगे रहते ह, यह ठीक है; परंतु जब उनको त ानक या फलास के ागक बात कही जाती है, तब उन बात का भाव ठीक- ठीक न समझनेके कारण वे मसे समझ लेते ह क त ानक ा के लये या फलास न रहनेपर कम करनेक कोई आव कता नह है, कम का दजा नीचा है। इस कारण कम के ागम उनक च बढ़ने लगती है और अ म वे मोहवश व हत कम का ाग करके आल और मादके वश हो जाते ह। इस लये भगवान् उपयु वा से ानीके लये यह बात कहते ह क उसको यं अनास भावसे कम का सांगोपांग आचरण करके सबके सामने ऐसा आदश रख देना चा हये, जससे कसीक व हत कम म कभी अ ा और अ च न हो सके और वे न ामभावसे या कतापनके

अ भमानसे र हत होकर कम का व धपूवक आचरण करते ए ही अपने मनु - ज को सफल बना सक। स – इस कार दो ोक म ानीके लये लोकसं हको ल म रखते ए शा व हत कम करनेक ेरणा करके अब दो ोक म कमास जनसमुदायक अपे ा सां योगीक वल णताका तपादन करते ह – कृ तेः यमाणा न गुणैः कमा ण सवशः । अह ार वमूढा ा कताह म त म ते ॥२७॥

वा वम स ूण कम सब कारसे कृ तके गुण ारा कये जाते ह तो भी जसका अ ःकरण अहंकारसे मो हत हो रहा है, ऐसा अ ानी ' म कता ँ ' ऐसा मानता है॥ २७॥ –  स ूण कम सब कारसे कृ तके गुण ारा कये जाते ह, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – कृ तसे उ स , रज और तम – ये तीन गुण ही बु , अहंकार, मन, आकाशा द पाँच सू महाभूत, ो ा द दस इ य और श ा द पाँच वषय – इन तेईस त के पम प रणत होते ह। ये सब- के - सब कृ तके गुण ह तथा इनमसे अ ःकरण और इ य का वषय को हण करना – अथात् बु का कसी वषयम न य करना, मनका कसी वषयको मनन करना, कानका श सुनना, चाका कसी व ुको श करना, आँ ख का कसी पको देखना, ज ाका कसी रसको आ ादन करना, ाणका कसी ग को सूँघना, वाणीका श उ ारण

करना, हाथका कसी व ुको हण करना, पैर का गमन करना, गुदा और उप का मल- मू ाग करना – कम है। इस लये उपयु वा से भगवान् ने यह भाव दखलाया है क संसारम जस कारसे और जो कु छ भी या होती है, वह सब कारसे उपयु गुण के ारा ही क जाती है, नगुण- नराकार आ ाका उनसे व ुत: कु छ भी स नह है। –  ' अहंकार वमूढा ा ' कै से मनु का वाचक है? उ र – कृ तके काय प उपयु बु , अहंकार, मन, महाभूत, इ याँ और वषय – इन तेईस त के संघात प शरीरम जो अहंता है – उसम जो ढ़ आ भाव है, उसका नाम अहंकार है। इस अना द स अहंकारके स से जसका अ ःकरण अ मो हत हो रहा है, जसक ववेकश लु हो रही है एवं इसी कारण जो आ - अना व ुका यथाथ ववेचन करके अपनेको शरीरसे भ शु आ ा या परमा ाका सनातन अंश नह समझता – ऐसे अ ानी मनु का वाचक यहाँ ' अहंकार वमूढा ा ' पद है। इस लये यह ान रहे क आस र हत ववेकशील कमयोगका साधन करनेवाले साधकका वाचक ' अहंकार वमूढा ा ' पद नह है; क उसका अ ःकरण अहंकारसे मो हत नह है, ब वह तो अहंकारका नाश करनेक चे ाम लगा आ है। –  उपयु अ ानी मनु ' म कता ँ ' ऐसा मान लेता है, इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे यह भाव दखलाया गया है क वा वम आ ाका कम से स न होनेपर भी अ ानी मनु

तेईस त के इस संघातम आ ा भमान करके उसके ारा कये जानेवाले कम से अपना स ापन करके अपनेको उन कम का कता मान लेता है – अथात् म न य करता ँ , म संक करता ँ , म सुनता ँ , देखता ँ , खाता ँ , पीता ँ , सोता ँ , चलता ँ इ ा द कारसे हरेक याको अपने ारा क ई समझता है। इसी कारण उसका कम से ब न होता है और उसको उन कम का फल भोगनेके लये बार- बार ज - मृ ु प संसारच म घूमना पड़ता है। त व ु महाबाहो गुणकम वभागयोः । गुणा गुणेषु वत इ त म ा न स ते ॥२८॥

पर ु हे महाबाहो! गुण वभाग और कम वभागके त को जाननेवाला ानयोगी स ूण गुण ही गुण म बरत रहे ह, ऐसा समझकर उनम आस नह होता ॥ २८॥ – ' तु ' पदके योगका ा अ भ ाय है? उ र – स ाईसव ोकम व णत अ ानीक तसे ानयोगीक तका अ भेद है, यह दखलानेके लये ' तु'

पदका योग कया गया है। –  गुण वभाग और कम वभाग ा है तथा उन दोन के त को जानना ा है? उ र – स , रज और तम – इन तीन गुण के काय प जो तेईस त है, जनका वणन पूव ोकक ा ाम कया गया है, उन तेईस त का समुदाय ही गुण वभाग है। ान रहे क अ ःकरणके जो सा क, राजस और तामस भाव ह, जनके स से कम के सा क, राजस और तामस – ऐसे तीन भेद माने जाते ह और जनके स से अमुक मनु सा क है, अमुक ँ

राजस और तामस है – ऐसा कहा जाता है, वे गुणवृ याँ भी गुण वभागके ही अ गत ह। उपयु गुण वभागसे जो भ - भ याएँ क जाती ह, जनका वणन पूव ोकक ा ाम कया जा चुका है, जन या म कतृ ा भमान एवं आस होनेसे मनु का ब न होता है, उन सम या का समूह ही कम वभाग है। उपयु गुण वभाग और कम वभाग सब कृ तका ही व ार है। अतएव ये सभी जड, णक, नाशवान् और वकारशील ह, मायामय ह, क भाँ त बना ए ही तीत हो रहे ह। इस गुण वभाग और कम वभागसे आ ा सवथा अलग है, आ ाका इनसे जरा भी स नह है; वह सवथा नगुण, नराकार, न वकार, न शु , मु और ान प है – इस त को भलीभाँ त समझ लेना ही ' गुण वभाग' और ' कम वभाग' के त को जानना है। – ' गुण वभाग' और ' कम वभाग' के त को जाननेवाला ानयोगी स ूण गुण ही गुण म बरत ह, ऐसा समझकर उनम आस नह होता – इस वा का ा भाव है? उ र – इस वा से यह भाव दखलाया गया है क उपयु कारसे गुण वभाग और कम वभागके त जाननेवाला सां योगी मन, बु , इ य और शरीर ारा होनेवाली हरेक याम यही समझता है क गुण के काय प मन, बु इ य आ द करण ही गुण के काय प अपने- अपने वषय म बरत रहे ह, मेरा इनसे कु छ भी स नह है। इस कारण वह कसी भी कमम या कमफल प भोग म आस नह होता अथात् कसी भी कमसे या उसके फलसे अपना कसी कारका भी स ा पत नह

करता। उनको अ न , जड वकारी और नाशवान् तथा अपनेको सदा- सवदा न , शु , बु , न वकार, अकता और सवथा असंग समझता है। पाँचव अ ायके आठव और नव ोक म और चौदहव अ ायके उ ीसव ोकम भी यही बात कही गयी है। स – इस कार कमास मनु क और सां योगीक तका भेद बतलाकर अब आ त को पूणतया समझानेवाले महापु षके लये यह ेरणा क जाती है क वह कमास अ ानी मनु को वच लत न करे – कृ तेगुणस ूढाः स े गुणकमसु । तानकृ वदो म ा ृ व वचालयेत् ॥२९॥ कृ तके गुण से अ मो हत ए मनु गुण म और कम म आस रहते ह, उन पूणतया न समझनेवाले म बु अ ा नय को पूणतया जाननेवाला ानी वच लत न करे॥ २९॥ –  ' कृते : गुणस ूढा : ' यह वशेषण कस

णे ीके मनु का ल कराता है तथा वे गुण और कम म आस रहते ह, इस कथनका ा भाव है? उ र – पचीसव और छ ीसव ोक म जन कमास अ ा नय क बात कही गयी है, यहाँ ' कृते : गुणस ूढा : ' पद उ इस लोक और परलोकके भोग क कामनासे ा और आस पूवक कम म लगे ए स म त रजोगुणी सकामी कमठ मनु का ल करानेवाला है; क परमा ाक ा के लये साधन करनेवाले जो शु सा क मनु ह, वे कृ तके गुण से

मो हत नह ह और जो न ष कम करनेवाले तामसी मनु ह, उनक शा म ा न रहनेके कारण उनका न तो व हत कम म ेम है और न वे व हत कम करते ही ह। इस लये उन तामसी मनु को कम से वच लत न करनेके लये कहना नह बनता, ब उनसे तो शा म ा करवाकर न ष कम छु ड़वाने और व हत कम करवानेक आव कता होती है। तथा वे सकाम मनु गुण म और कम म आस रहते ह – इस कथनसे यह भाव दखलाया गया है क गुण से मो हत रहनेके कारण उन लोग को कृ तसे अतीत सुखका कु छ भी ान नह है, वे सांसा रक भोग को ही सबसे बढ़कर सुखदायक समझते ह; इसी लये वे गुण के काय प भोग म और उन भोग क ा के उपायभूत कम म ही लगे रहते ह, वे उन गुण के ब नसे छू टनेक इ ा या चे ा करते ही नह । –  ' तान् ' पदके स हत ' अकृ वद : ' और ' म ान् ' पदसे ा भाव दखलाया गया है? उ र – इन तीन पद से यह भाव दखलाया गया है क उपयु ेणीके सकाम मनु यथाथ त के न समझनेपर भी शा ो कम म और उनके फलम ा रखनेवाले होनेके कारण कसी अंशम तो समझते ही ह; इस लये अधमको धम और धमको अधम मानकर मनमाना आचरण करनेवाले तामसी पु ष से वे ब त अ े ह। वे सवथा बु हीन नह ह, अ बु वाले ह; इसी लये उनके कम का फल परमा ाक ा न होकर नाशवान् भोग क ा ही होता है।

वत् ' पद कसका वाचक है और वह उन वच लत न करे, इस कथनका ा भाव है? – पूव कारसे गुण वभाग और कम वभागके –  ' कृ

अ ा नय को उर त को पूणतया समझकर परमा ाके पको पूणतया यथाथ जान लेनेवाले ानी महापु षका वाचक यहाँ ' कृ वत् ' पद है और वह उन अ ा नय को वच लत न करे – इस कथनसे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क कम म लगे ए अ धकारी सकाम मनु को ' कम अ ही प र मसा है, कम म रखा ही ा है, यह जगत् म ा है, कममा ही ब नके हेतु ह' ऐसा उपदेश देकर शा व हत कम से हटाना या उनम उनक ा और च कम कर देना उ चत नह है; क ऐसा करनेसे उनके पतनक स ावना है इस लये शा व हत कम म, उनका वधान करनेवाले शा म और उनके फलम उन लोग के व ासको र रखते ए ही उ यथाथ त समझाना चा हये। साथ ही उ ममता, आस और फले ाका ाग करके ा, धैय और उ ाहपूवक सा क कम ( १८।२३) या सा क ाग ( १८।९) करनेक री त बतलानी चा हये, जससे वे अनायास ही उस त को भलीभाँ त समझ सक। स – अजुनक ाथनाके अनुसार भगवान् ने उसे एक न त क ाणकारक साधन बतलानेके उ े से चौथे ोकसे लेकर यहाँतक यह बात स क क मनु कसी भी तम न हो, उसे अपने वण, आ म, भाव और प र तके अनु प व हत कम करते ही रहना चा हये। इस बातको स करनेके लये पूव ोक म भगवान् ने मश : न ल खत बात कही ह –

१ . कम कये बना नै स प कम न ा नह मलती (३।४)। २ . कम का ाग कर देनेमा से ान न ा स नह होती (३।४)। ३ . एक णके लये भी मनु सवथा कम कये बना नह रह सकता (३।५)। ४. बाहरसे कम का ाग करके मनसे वषय का च न करते रहना म ाचार है (३।६)। ५ . मन - इ य को वशम करके न ामभावसे कम करनेवाला ेठ है(३।७)। ६. कम न करनेक अपे ा कम करना े हे (३।८)। ७ . बना कम कये शरीर नवाह भी नह ही सकता (३। ८)। ८. य के लये कये जानेवाले कम ब न करनेवाले नह , ब मु के कारण ह (३।९)। ९. कम करनेके लये जाप तक आ ा है और नः ाथभावसे उसका पालन करनेसे ेयक ा होती है (३। १०,११)। १०. कत का पालन कये बना भोग का उपभोग करनेवाला चोर है (३।१२)। ११. कत - पालन करके य शेषसे शरीर नवाहके लये भोजना द करनेवाला सब पाप से छू ट जाता है (३।१३)। १२ . जो य ा द न करके के वल शरीरपालनके लये भोजन पकाता है, वह पापी है (३।१३)।

१३ . कत कमके ाग ारा सृ च म बाधा प ँ चानेवाले मनु का जीवन थ और पापमय है (३।१६)। १४. अनास भावसे कम करनेसे परमा ाक ा होती है (३।१९)। १५. पूवकालम जनका दने भी कम ारा ही स ा क थी (३।२०)। १६ . दूसरे मनु े महापु षका अनुकरण करते ह, इस लये े महापु षको कम करना चा हये(३।२१)। १७. भगवान् को कु छ भी कत नह है, तो भी वे लोकसं हके लये कम करते ह (३।२२)। १८ . ानीके लये कोई कत नह है, तो भी उसे लोकसं हके लये कम करना चा हये (३।२५)। १९ . ानीको यं व हत कम का ाग करके या कम ागका उपदेश देकर कसी कार भी लोग को कत कमसे वच लत न करना चा हये वरं यं कम करना और दूसर से करवाना चा हये (३।२६)। २० . ानी महापु षको उ चत है क व हत कम का पतः ाग करनेका उपदेश देकर कमास मनु को वच लत न करे ( ३ , २९ ) । इस कार कम क अव कत ताका तपादन करके अब भगवान् अजुनक दूसरे ोकम क ई थनाके अनुसार उसे परम क ाणक ा का ऐका क और सव े न त साधन बतलाते ए यु के लये आ ा देते ह – म य सवा ण कमा ण सं ा ा चेतसा ।

नराशी नममो भू ा यु

वगत रः ॥३०॥

मुझ अ यामी परमा ाम लगे ए च ारा स ूण कम को मुझम अपण करके आशार हत , ममतार हत और स ापर हत होकर यु कर॥ ३०॥ –  ' अ ा चेतसा ' पदम ' चेतस् ' श कस च का वाचक है और ' उसके ारा सम कम को भगवान् म अपण करना' ा है? उ र – सवा यामी परमे रके गुण, भाव और पको

समझकर उनपर व ास करनेवाले और नर र सव उनका च न करते रहनेवाले च का वाचक यहाँ ' चेतस् ' श है। इस कारके च से जो भगवान् को सवश मान्, सवाधार, सव ापी, सव , सव र तथा परम ा , परम ग त, परम हतैषी, परम य, परम सु द् और परम दयालु समझकर, अपने अ ःकरण और इ य स हत शरीरको, उनके ारा कये जानेवाले कम को और जगत् के सम पदाथ को भगवान् के जानकर उन सबम ममता और आस का सवथा ाग कर देना तथा मुझम कु छ भी करनेक श नह है, भगवान् ही सब कारक श दान करके मेरे ारा अपने इ ानुसार यथायो सम कम करवा रहे ह, म तो के वल न म मा ँ – इस कार अपनेको सवथा भगवान् के अधीन समझकर भगवान् के आ ानुसार उ के लये उ क ेरणासे जैसे वे कराव वैसे ही सम कम को कठपुतलीक भाँ त करते रहना, उन कम से या उनके फलसे कसी कारका भी अपना मान सक स न रखकर सब कु छ भगवान् का समझना – यही ' अ ा च से सम कम को भगवान् म समपण कर देना' है।

इसी कार भगवान् म सम कम का ाग करनेक बात बारहव अ ायके छठे ोकम तथा अठारहव अ ायके स ावनव और छाछठव ोक म भी कही गयी है। –  उपयु कारसे सम कम भगवान् म अपण कर देनेपर आशा, ममता और संतापका तो अपने- आप ही नाश हो जाता है; फर यहाँ आशा, ममता और स ापसे र हत होकर यु करनेके लये कहनेका ा भाव है? उ र – भगवान् म अ ा च से सम कम समपण कर देनेपर आशा, ममता और स ाप नह रहते – इसी भावको करनेके लये यहाँ भगवान् ने अजुनको आशा, ममता और स ापसे र हत होकर यु करनेके लये कहा है। अ भ ाय यह है क तुम सम कम का भार मुझपर छोड़कर सब कारसे आशा- ममता, राग- ेष और हष- शोक आ द वकार से र हत हो जाओ और ऐसे होकर मेरी आ ाके अनुसार यु करो। इस लये यह समझना चा हये क कम करते समय या उनका फल भोगते समय जबतक साधकक उन कम म या भोग म ममता, आस या कामना है अथवा उसके अ ःकरणम राग- ेष, हष- शोक आ द वकार होते ह, तबतक उसके सम कम भगवान् के सम पत नह ए ह। स – इस कार अजुनको उनके क ाणका न त साधन बतलाते ए भगवान् उ यु करनेक आ ा देकर अब उसका अनु ान करनेके फलका वणन करने ह – ये मे मत मदं न मनु त मानवाः । ाव ोऽनसूय ो मु े तेऽ प कम भः ॥ ३-३१॥ ई



जो कोई मनु दोष से र हत और ायु होकर मेरे इस मतका सदा अनुसरण करते ह, वे भी स ूण कम से छू ट जाते ह॥ ३१॥ – 

यहाँ ' ये ' के स हत ' मानवा : ' पदके योगका

ा भाव है? उ र – इसके योगसे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क यह साधन कसी एक जा त वशेष या वशेषके लये ही सी मत नह है। इसम मनु मा का अ धकार है। ेक वण आ म, जा त या समाजका मनु अपने कत - कम को उपयु कारसे मुझम समपण करके इस साधनका अनु ान कर सकता है। –   ' ाव : ' और ' अनसूय : ' –   इन दोन पद का ा भाव है? उ र – इन पद के योगसे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क जन मनु क मुझम दोष है, जो मुझे सा ात् परमे र न समझकर साधारण मनु मानते ह और जनका मुझपर व ास नह है, वे इस साधनके अ धकारी नह ह। इस साधनका अनु ान वे ही मनु कर सकते ह, जो मुझम कभी कसी कारक दोष नह करते और सदा ा- भ रखते ह। अतएव इस साधनका अनु ान करनेक इ ावालेको उपयु गुण से स हो जाना चा हये। इनके बना इस साधनका अनु ान करना तो दूर रहा, इसे समझना भी क ठन है। –  ' न म् ' पद ' मतम् ' का वशेषण है या ' अनु त ' का?

उ र – भगवान् का मत तो न है ही, अत: उसका वशेषण मान लेनेम भी कोई हा नक बात नह है, पर यहाँ उसे ' अनु त ' याका वशेषण मानना अ धक उपयोगी मालूम होता है। अ भ ाय यह है क उपयु साधकको सम कम सदाके लये भगवान् म सम पत करके अपनी सारी याएँ उसी भावसे करनी चा हये। –  यहाँ ' अ प ' पदका योग करके ' वे भी स ूण कम से छू ट जाते ह', इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे भगवान् ने अजुनको यह भाव दखलाया है क जब इस साधनके ारा दूसरे मनु भी सम कम से मु हो जाते ह अथात् ज - मरण प कम- ब नसे सदाके लये मु होकर परम क ाण प मुझ परमा ाको ा हो जाते ह, तब तु ारे लये तो कहना ही ा है। स – इस कार भगवान् अपने उपयु मतका अनु ान करनेका फल बतलाकर अब उसके अनुसार न चलनेम हा न बतलाते ह – ये ेतद सूय ो नानु त मे मतम् । सव ान वमूढां ा न ानचेतसः ॥३२॥ पर ु जो मनु मुझम दोषारोपण करते ए मेरे इस मतके अनुसार नह चलते ह, उन मूख को तू स ण ू ान म मो हत और न ए ही समझ॥ ३२॥ – ' तु ' पदका

ा भाव है?

उ र – पूव ोकम व णत साधक से अ वपरीत चलनेवाले मनु क ग त इस ोकम बतलायी जाती है, इसी भावका ोतक यहाँ ' तु' पद है। –  भगवान् म दोषारोपण करते ए भगवान् के मतके अनुसार न बरतना ा है? उ र – भगवान् को साधारण मनु समझकर उनम ऐसी भावना करना या दूसर से ऐसा कहना क ' ये अपनी पूजा करानेके लये इस कारका उपदेश देते ह; सम कम इनके अपण कर देनेसे ही मनु कमब नसे मु हो जाता हो, ऐसा कभी नह हो सकता' आ द- आ द – यह भगवान् म दोषारोपण करना है और ऐसा समझकर भगवान् के कथनानुसार ममता, आस और कामनाका ाग न करना, कम को परमे रके अपण न करके अपनी इ ाके अनुसार कम म बरतना और शा व हत कत कम का ाग कर देना – यही भगवान् म दोषारोपण करते ए उनके मतके अनुसार न चलना है। –  ' अचेतस : ' पद कस ेणीके मनु का वाचक है और उनको स ूण ान म मो हत तथा न ए समझनेके लये कहनेका ा भाव है? उ र – जनके मन दोष से भरे ह, जनम ववेकका अभाव है और जनका च वशम नह है, ऐसे मूख, तामसी मनु का वाचक ' अचेतस : ' पद है। उनको स ूण ान म मो हत और न ए समझनेके लये कहनेका यह भाव है क ऐसे मनु क बु वपरीत हो जाती है, वे लौ कक और पारलौ कक सब कारके सुख- साधन को वपरीत ही समझने लगते ह; इसी कारण वे

वपरीत आचरण म वृ हो जाते ह। इसके फल प उनका इस लोक ओर परलोकम पतन हो जाता है, वे अपनी वतमान तसे भी हो जाते ह और मरनेके बाद उनको अपने कम का फल भोगनेके लये सूकर- कू करा द नीच यो नय म ज लेना पड़ता है या घोर नरक म पड़कर भयानक य णाएँ भोगनी पड़ती ह। स – पूव ोकम यह बात कही गयी क भगवान् के मतके अनुसार न चलनेवाला न हो जाता है; इसपर यह ज ासा होती है क य द कोई भगवान् के मतके अनुसार कम न करके हठपूवक कम का सवथा ाग कर दे तो ा हा न है ? इसपर कहते ह – स शं चे ते ाः कृ ते ानवान प । कृ त या भूता न न हः क क र त ॥३३॥ सभी ाणी कृ तको ा होते ह अथात् अपने भावके परवश ए कम करते ह। ानवान् भी अपनी कृ तके अनुसार चे ा करता है। फर इसम कसीका हठ ा करेगा ॥ ३३॥ –  सभी ाणी कृ तको ा होते ह, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क जस कार सम न दय का जल जो ाभा वक ही समु क ओर बहता है, उसके वाहको हठपूवक रोका नह जा सकता, उसी कार सम ाणी अपनी- अपनी कृ तके अधीन होकर कृ तके वाहम पड़े ए कृ तक ओर जा रहे ह; इस लये कोई भी मनु हठपूवक ँ

सवथा कम का ाग नह कर सकता। हाँ, जस तरह नदीके वाहको एक ओरसे दूसरी ओर घुमा दया जा सकता है, उसी कार मनु अपने उ े का प रवतन करके उस वाहक चालको बदल सकता है यानी राग- ेषका ाग करके उन कम को परमा ाक ा म सहायक बना सकता है। –  ' कृ त' श का यहाँ ा अथ है? उ र – ज - ज ा रम कये ए कम के सं ार जो भावके पम कट होते ह, उस भावका नाम ' कृ त' है। –  यहाँ ' ानवान्' श कसका वाचक है? उ र – परमा ाके यथाथ त को जाननेवाले भगवत्ा महापु षका वाचक यहाँ ' ानवान्' पद है। –  ' अ प ' पदके योगका ा भाव है? उ र – ' अ प ' पदके योगसे यह भाव दखलाया है क जब सम गुण से अतीत ानी भी अपनी कृ तके अनुसार चे ा करता है, तब जो अ ानी मनु कृ तके अधीन हो रहे ह, वे कृ तके वाहको हठपूवक कै से रोक सकते ह। –  ा परमा ाको ा ानी महापु ष के भाव भी भ - भ होते ह? उ र – अव ही सबके भाव भ - भ होते ह, पूव साधन और ार के भेदसे भावम भेद होना अ नवाय है। –  ा ानीका भी पूवा जत कम के सं ार प भावसे कोई स रहता है? य द नह रहता तो इस कथनका ा अ भ ाय है क ानी भी अपनी कृ तके अनुसार चे ा करता है?

उ र – ानीका व ुत: न तो कम- सं ार से कसी कारका कोई स रहता है और न वह कसी कारक कोई या ही करता है; कतु उसके अ ःकरणम पूवा जत ार के सं ार रहते ह और उसीके अनुसार उसके बु , मन और इ य ारा ार - भोग और लोक- सं हके लये बना ही कताके याएँ आ करती है; उ या का लोक से ानीम अ ारोप करके कहा जाता है क ानी भी अपनी कृ तके अनुसार चे ा करता है। ानीक याएँ बना कतापनके होनेसे राग- ेष और अहंता- ममतासे सवथा शू होती ह, अतएव वे चे ामा ह, उनक सं ा ' कम' नह है – यही भाव दखलानेके लये यहाँ ' चे ते ' याका योग कया गया है। –  ानीके अ ःकरणम राग- ेष और हषशोका द वकार होते ही नह या उनसे उसका स नह रहता? य द उसका अ ःकरणके साथ स न रहनेके कारण उस अ ःकरणम वकार नह होते तो शम, दम, त त ा, दया, स ोष आ द स णु भी उसम नह होने चा हये? उ र – ानीका जब अ ःकरणसे ही स नह रहता तब उसम होनेवाले वकार से या स णु से स कै से रह सकता है? क ु उसका अ ःकरण भी अ प व हो जाता है; नर र परमा ाके पका च न करते- करते जब अ ःकरणम मल, व ेप और आवरण – इन तीन दोष का सवथा अभाव हो जाता है, तभी साधकको परमा ाक ा होती है। इस कारण उस अ ःकरणम अ व ामूलक अहंता, ममता, राग- ेष, हष- शोक, द - कपट, काम- ोध, लोभ- मोह आ द वकार नह रह सकते –

इनका उसम सवथा अभाव हो जाता है। अतएव ानी महा ा पु षके उस अ नमल और परम प व अ ःकरणम के वल समता, स ोष, दया, मा, नः ृहता, शा आ द सद् गुण क ाभा वक ू रणा होती है और उ के अनुसार लोकसं हके लये उसके मन, इ य और शरीर ारा शा व हत कम कये जाते ह। दुगुण और दुराचार का उसम अ अभाव हो जाता है। –  इ तहास और पुराण क कथा म ऐसे ब त- से संग आते ह, जनसे ानी स महापु ष के अ ःकरणम भी काम- ोधा द दुगुण का ादुभाव और इ य ारा उनके अनुसार या का होना स होता है; उस वषयम ा समझना चा हये? उ र – उदाहरणक अपे ा व ध- वा बलवान् है और व ध- वा से भी नषेधपरक वा अ धक बलवान् है, इसके सवा इ तहास- पुराण क कथा म जो उदाहरण मलते ह उनका रह ठीक- ठीक समझम आना क ठन भी है। इस लये यही मानना उ चत है क य द कसीके अ ःकरणम सचमुच काम- े धा द दुगुण का ादुभाव आ हो और उनके अनुसार या ई हो तब तो वह भगव ा ानी महा ा ही नह है; क शा म कह भी ऐसे व ध- वा नह मलते जनके बलपर ानी महा ाम कामोधा द अवगुण का होना स होता है, ब उनके नषेधक बात जगह- जगह आयी है। गीताम भी जहाँ- जहाँ महापु ष के ल ण बतलाये गये ह, उनम राग- ेष और काम- ोध आ द दुगुण और दुराचार का सवथा अभाव दखलाया गया है ( ५।२६, २८; १२।१७) । हाँ, य द लोक- सं हके लये आव क होनेपर ँ ँ

उ ने ाँगक भाँ त ऐसी चे ा क हो तो उसक गणना अव ही दोष म नह है। –  फर इसम कसीका हठ ा करेगा? इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यही भाव दखलाया है क कोई भी मनु हठपूवक णमा भी कम कये बना नह रह सकता ( ३।५), कृ त उससे जबरन कम करा लेगी ( १८।५९, ६०); अत: मनु को व हत कमका ाग करके कमब नसे छू टनेका आ ह न रखकर भाव नयत कम करते ए ही कमब नसे छू टनेका उपाय करना चा हये। उसीम मनु सफल हो सकता है, व हत कम के ागसे तो वह े ाचारी होकर उलटा पहलेसे भी अ धक कमब नम जकड़ा जाता है और उसका पतन हो जाता है। –  य द सबको कृ तके अनुसार कम करने ही पड़ते ह, मनु क कु छ भी त ता नह है तो फर व ध- नषेधा क शा का ा उपयोग है? भावके अनुसार मनु को शुभाशुभ कम करने ही पड़गे और उ के अनुसार उसक कृ त बनती जायगी, ऐसी अव ाम मनु का उ ान कै से हो सकता है? उ र – शा व असत् कम होते ह राग- ेषा दके कारण और शा व हत स म के आचरणम ा, भ आ द सद् गुण धान कारण ह। राग- ेष, काम- ोधा द दुगुण का ाग करनेम और ा, भ आ द सद् गुण को जा त् करके उ बढ़ानेम मनु त है। अतएव दुगुण का ाग करके भगवान् म और शा म ा- भ रखते ए भगवान् क स ताके लये कम का आचरण करना चा हये। इस आदशको सामने रखकर कम

करनेवाले मनु के ारा न ष कम तो होते ही नह , शुभ कम होते ह, वे भी मु द ही होते ह, ब नकारक नह । अ भ ाय यह है क कम को रोकनेम मनु त नह है, उसे कम तो करने ही पड़गे, परंतु सद् गुण का आ य लेकर अपनी कृ तका सुधार करनेम सभी त ह। कृ तम सुधार होगा - हीयाएँ अपने- आप ही वशु होती चली जायँगी। अतएव भगवान् क शरण होकर अपने भावका सुधार करना चा हये। इसीसे उ ान हो सकता है। स – इस कार सबको कृ तके अनुसार कम करने पड़ते ह, तो फर कमब नसे छू टनेके लये मनु को ा करना चा हये ? इस ज ासापर कहते ह – इ य े य ाथ राग ेषौ व तौ । तयोन वशमाग े ौ प रप नौ ॥३४॥

इ य - इ यके अथम अथात् ेक इ यके वषयम राग और ेष छपे ए त ह। मनु को उन दोन के वशम नह होना चा हये , क वे दोन ही इसके क ाणमागम व करनेवाले महान् श ु ह॥३४॥ –  यहाँ ' अथ ' पदसे स रखनेवाले ' इ य ' पदका दो बार योग करके ा भाव दखलाया गया है? उ र – ो ा द ाने य, वाणी आ द कम य और अ ःकरण – इन सबका हण करनेके लये एवं उनमसे ेक इ यके ेक वषयम अलग- अलग राग- ेषक त दखलानेके लये यहाँ ' अथ ' पदसे स रखनेवाले ' इ य

पदका दो बार योग कया गया है। अ भ ाय यह है क अ ःकरणके स हत सम इ य के जतने भी भ - भ वषय ह, जनके साथ इ य का संयोग- वयोग होता रहता है, उन सभी वषय म राग और ेष दोन ही अलग- अलग छपे रहते ह। –  यहाँ य द यह अथ मान लया जाय क ' इ यके अथम इ यके राग- ेष छपे रहते ह', तो ा हा न है? उ र – ऐसी क ना कर लेनेपर भी इस अथसे भाव ठीक नह नकलता। क इ याँ भी अनेक ह और उनके वषय भी अनेक ह; फर एक ही इ यके वषयम एक ही इ यके राग- ेष त ह, यह कहना कै से साथक हो सकता है? इस लये ' इ य - इ य ' अथात् ' सव याणाम् ' – इस कार योग मानकर ऊपर बतलाया आ अथ मानना ही ठीक मालूम होता है। –  ेक इ यके वषयम राग और ेष दोन कै से छपे ए ह और उनके वशम न होना ा है? उ र – जस व ,ु ाणी या घटनाम मनु को सुखक ती त होती है, जो उसके अनुकूल होता है, उसम उसक आस हो जाती है – इसीको ' राग' कहते ह और जसम उसे दुःखक ती त होती है, जो उसके तकू ल होता है, उसम उसका ेष हो जाता है। वा वम कसी भी व ुम सुख और दुःख नह ह, मनु क भावनाके अनुसार एक ही व ु कसीको सुख द तीत होती है और कसीको दुःख द। तथा एक ही मनु को जो व ु एक समय सुख द तीत होती है वही दूसरे समय दुःख द तीत होने लग जाती है। अतएव ेक इ यके वषयम राग- ेष छपे '

ए ह यानी सभी व ु म राग और ेष दोन ही रहा करते ह; क जब- जब मनु का उनके साथ संयोग- वयोग होता है तब- तब राग- ेषका ादुभाव होता देखा जाता है। अतएव शा व हत कत कम का आचरण करते ए मन और इ य के साथ वषय का संयोग- वयोग होते समय कसी भी व ,ु ाणी, या या घटनाम य और अ यक भावना न करके , स - अ स , जय- पराजय और लाभ- हा न आ दम समभावसे यु रहना, त नक भी हष- शोक न करना – यही राग- ेषके वशम न होना है। क राग- ेषके वशम होनेसे ही मनु क सबम वषम बु होकर अ ःकरणम हष- शोका द वकार आ करते ह। अत: मनु को परमे रक शरण हण करके इन राग- ेष से सवथा अतीत हो जाना चा हये। –  राग और ेष – ये दोन मनु के क ाणमागम व करनेवाले महान् श ु कै से ह? उ र – मनु अ ानवश राग- ेष – इन दोन के वश होकर वनाशशील भोग को सुखके हेतु समझकर क ाण- मागसे हो जाता है। राग- ेष साधकको धोखा देकर वषय म फँ सा लेते ह और उसके क ाणमागम व उप त करके मनु जीवन प अमू धनको लूट लेते ह। इस कारण वह मनु ज के परम फलसे वं चत रह जाता है और राग- ेषके वश होकर वषयभोग के लये धमका ाग, परधमका हण या नाना कारके न ष कम का आचरण करता है; इसके फल प मरनेके बाद भी उसक दुग त होती है। इसी लये इनको प रप ी यानी सत्- मागम व करनेवाले श ु बतलाया गया है।

–  ये राग- ेष साधकके क बाधा डालते ह? उ र – जस कार अपने न त

ाणमागम कस कार

ानपर जानेके लये राह चलनेवाले कसी मुसा फरको मागम व करनेवाले लुटेर से भट हो जाय और वे म ताका- सा भाव दखलाकर और उसके साथी गाड़ीवान आ दसे मलकर उनके ारा उसक ववेकश म म उ कराकर उसे म ा सुख का लोभन देकर अपनी बात म फँ सा ल और उसे अपने ग ानक ओर न जाने देकर उसके वपरीत जंगलम ले जायँ और उसका सव लूटकर उसे गहरे गड् ढेम गरा द, उसी कार ये राग- ेष क ाणमागम चलनेवाले साधकसे भट करके म ताका भाव दखलाकर उसके मन और इ य म व हो जाते ह और उसक ववेकश को न करके तथा उसे सांसा रक वषय- भोग के सुखका लोभन देकर पापाचारम वृ कर देते ह। इससे उसका साधन म न हो जाता है और पाप के फल प उसे घोर नरक म पड़कर भयानक दुःख का उपभोग करना होता है। स – यहाँ अजुनके मनम यह बात आ सकती है क म यह यु प घोर कम न करके य द भ ावृ से अपना नवाह करता आ शा मय कम म लगा र ँ तो सहज ही राग - ेषसे छू ट सकता ँ , फर आप मुझे यु करनेके लये आ ा दे रहे ह ? इसपर भगवान् कहते ह – ेया धम वगुणः परधमा नु तात् । धम नधनं ेयः परधम भयावहः ॥३५॥

अ ी कार आचरणम लाये ए दूसरेके धमसे गुणर हत भी अपना धम अ त उ म है। अपने धमम तो मरना भी क ाणकारक है और दूसरेका धम भयको देनेवाला है॥ ३५॥ – ' सु - अनु तात् ' वशेषणके स हत ' परधमात् ' पद कस धमका वाचक है और उसक अपे ा गुणर हत धमको अ त उ म बतलानेका ा भाव है? उ र – इस वा म परधम और धमक तुलना करते समय परधमके साथ तो ' सु- अनु त' वशेषण दया गया है और धमके साथ ' वगुण' वशेषण दया गया है। अत: ेक वशेषणका वरोधीभाव उनके साथ अ धक समझ लेना चा हये अथात् परधमको तो सद् गुण- स और ' सु- अनु त' समझना चा हये तथा धमको वगुण और अनु ानक कमी प दोषयु समझ लेना चा हये। साथम यह बात भी ानम रखनी चा हये क वै और य आ दक अपे ा ा णके वशेष धम म अ हसा द सद् गुण क ब लता है, गृह क अपे ा सं ासआ मके धम म सद् गुण क ब लता है, इसी कार शू क अपे ा वै और यके कम अ धक गुणयु ह। अत: ऐसा समझनेसे यहाँ यह भाव नकलता है क जो कम गुणयु ह और जनका अनु ान भी पूणतया कया गया हो, कतु वे अनु ान करनेवालेके लये व हत न हो, दूसर के लये ही व हत ह वैसे कम का वाचक यहाँ ' नु तात् ' वशेषणके स हत ' परधमात् ' पद है। उस परधमक अपे ा गुण- र हत धमको अ त उ म बतलाकर यह भाव दखलाया गया है क जैसे देखनेम कु प और

गुणहीन होनेपर भी ीके लये अपने प तका सेवन करना ही क ाण द है, उसी कार देखनेम सद् गुण से हीन होनेपर तथा अनु ानम अंगवैगु हो जानेपर भी जसके लये जो कम व हत है, वही उसके लये क ाण द है फर जो धम सवगुणस है और जसका सांगोपांग पालन कया जाता है, उसके वषयम तो कहना ही ा है? – ' धम : ' पद कस धमका वाचक है? उ र – वण आ म, भाव और प र तक अपे ासे जस मनु के लये जो कम शा ने नयत कर दये ह उसके लये वही धम है। अ भ ाय यह है क झूठ, कपट, चोरी, हसा, ठगी, भचार आ द न ष कम तो कसीके भी धम नह ह, और का कम भी कसीके लये अव कत नह ह, इस कारण उनक गणना भी यहाँ कसीके धम म नह है। इनके सवा जस वण या आ मके जो वशेष धम बतलाये गये ह, जनम एकके सवा दूसरे वण- आ मवाल का अ धकार नह है, वे उन- उन वणआ मवाल के पृथक् - पृथक् धम ह, जन कम म जमा का अ धकार बतलाया गया है, वे वेदा यन और य ा द कम ज के लये धम है और जनम सभी वण- आ म के ी- पु ष का अ धकार है, वे ई रक भ , स - भाषण, माता- पताक सेवा, मन- इ य का संयम, चयपालन, अ हसा, अ ेय, स ोष, दया, दान, मा, प व ता और वनय आ द सामा धम सबके धम ह। –  जस मनु - समुदायम वणा मक व ा नह है और जो वै दक सनातनधमको नह मानते उनके लये धम और

परधमक व ा कै से हो सकती है? उ र – वा वम तो वणा मक व ा सम मनु समुदायम होनी चा हये और वै दक सनातनधम भी सभी मनु के लये मा होना चा हये। अत: जस मनु - समुदायम वणआ मक व ा नह है, उनके लये धम और परधमका नणय करना क ठन है; तथा प इस समय धमसंकट उप त हो रहा है और गीताम मनु मा के लये उ ारका माग बतलाया गया है, इस आशयसे ऐसा माना जा सकता है क जस मनु का जस जा त या समुदायम ज होता है, जन माता- पताके रज- वीयसे उसका शरीर बनता है, ज से लेकर कत समझनेक यो ता आनेतक जैसे सं ार म उसका पालन- पोषण होता है तथा पूवज के जैसे कम- सं ार होते ह, उसीके अनुकूल उसका भाव बनता है और उस भावके अनुसार ही जी वकाके कम म उसक ाभा वक वृ आ करती है। अत: जस मनु समुदायम वणा मक व ा नह है, उसम उनके भाव और प र तक अपे ासे जसके लये जो व हत कम है अथात् उनक इस लोक और परलोकक उ तके लये कसी महापु षके ारा जो कम उपयु माने गये ह, अ ी नीयतसे कत समझकर जनका आचरण कया जाता है, जो कसी भी दूसरेके धम और हतम बाधक नह ह तथा मनु मा के लये जो सामा धम माने गये ह, वही उसका धम है और उससे वपरीत जो दूसर के लये व हत है और उसके लये व हत नह है वह परधम है। – ' धम : ' पदके साथ ' वगुणः ' वशेषणके योगका ा भाव है?

उ र – ' वगुण : ' पद गुण क कमीका ोतक है। यका धम यु करना, दु को द देना आ द है, उसम अ हसा और शा आ द गुण क कमी मालूम होती है। इसी तरह वै के ' कृ ष' आ द कम म भी हसा आ द दोष क ब लता है, इस कारण ा ण के शा मय कम क अपे ा वे वगुण यानी गुणहीन ह एवं शू के कम वै और य क अपे ा भी न ेणीके ह। इसके सवा उन कम के पालनम कसी अंगका छू ट जाना अनु ानक कमी है। उपयु कारसे धमम गुण क और अनु ानक कमी रहनेपर भी वह परधमक अपे ा क ाण द है, यही भाव दखलानेके लये ' धम : ' के साथ ' वगुण : ' वशेषण दया गया है। –  अपने धमम तो मरना भी क ाण- कारक है, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इससे यह दखलाया गया है क य द धमपालनम कसी तरहक आप न आवे और जीवनभर मनु उसका पालन कर ले तो उसे अपने भावानुसार गक या मु क ा हो जाती है, इसम तो कहना ही ा है; कसी कारक आप आनेपर वह अपने धमसे न डगे और उसके कारण उसका मरण हो जाय तो वह मरण भी उसके लये क ाण करनेवाला हो जाता है। इ तहास और पुराण म ऐसे ब त उदाहरण मलते ह, जनम धमपालनके लये मरनेवाल का एवं मरणपय क ीकार करनेवाल का क ाण होनेक बात कही गयी है। राजा दलीपने ा धमका पालन करते ए एक गौके बदले अपना शरीर सहको सम पत करके अभी ा कया;

राजा श वने शरणागतर ा प धमका पालन करनेके लये एक कबूतरके बदलेम अपने शरीरका मांस बाजको देकर मरना ीकार कया और उससे उनके अभी क स ई; ादने भगव प धमका पालन करनेके लये अनेक कारके मृ ुके साधन को सहष ीकार कया और इससे उनका परम क ाण हो गया। इसी कारके और भी ब त- से उदाहरण मलते ह। महाभारतम कहा गया है – न जातु कामा भया लोभाद ् धम जे ी वत ा प हेतो : । न ो धम : सुखदःु खे न े जीवो न ो हेतुर न : ॥( गारोहण० ५। ६३ )

अथात् ' मनु को कसी भी समय कामसे, भयसे, लोभसे या जीवनर ाके लये भी धमका ाग नह करना चा हये; क धम न है और सुख- दुःख अ न है तथा जीव न है और जीवनका हेतु अ न है।' इस लये मरण- संकट उप त होनेपर भी मनु को चा हये क वह हँ सते- हँ सते मृ ुको वरण कर ले; पर धमका ाग कसी भी हालतम न करे। इसीम उसका सब कारसे क ाण है। –  दूसरेका धम भय देनेवाला है, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इससे यह दखलाया है क दूसरेके धमका पालन य द सुखपूवक होता हो तो भी वह भय देनेवाला है। उदाहरणाथ –

शू और वै य द अपनेसे उ वणवाल के धमका पालन करनेम लग तो उ वण से अपनी पूजा करानेके कारण और उनक वृ ेद करनेके दोषके कारण वे पापके भागी बन जाते ह और फलत: उनको नरक भोगना पड़ता है। इसी कार ा ण- य य द अपनेसे हीन वणवाल के धमका अवल न कर ल तो उनका उस वणसे पतन हो जाता है एवं बना आप कालके दूसर क वृ से नवाह करनेपर दूसर क वृ ेदके पापका भी फल उ भोगना पड़ता है। इसी तरह आ म- धम तथा अ सब धम के वषयम समझ लेना चा हये। अतएव कसी भी मनु को अपने क ाणके लये परधमके हण करनेक आव कता नह है। दूसरेका धम देखनेम चाहे कतना ही गुणस न हो, वह जसका धम है उसीके लये है; दूसरेके लये तो वह भय देनेवाला ही है, क ाण- कारक नह । स – मनु का धम पालन करनेम ही क ाण है, परधमका सेवन और न ष कम का आचरण करनेम सब कारसे हा न है। इस बातको भलीभाँ त समझ लेनेके बाद भी मनु अपने इ ा, वचार और धमके व पापाचारम कस कारण वृत हो जाते ह – इस बातके जाननेक इ ासे अजुन पूछते ह – अजुन उवाच । अथ के न यु ोऽयं पापं चर त पू षः । अ न प वा य बला दव नयो जतः ॥३६॥ [9]

अजुन बोले – हे कृ ! तो फर यह मनु यं न चाहता आ भी बलात् लगाये एक भाँ त कससे े रत होकर ै

पापका आचरण करता है ? ॥ ३६॥ –  इस ोकम अजुनके – भगवान् ने पहले यह

का ा अ भ ाय है? उर बात कही थी क य करनेवाले बु मान् मनु के मनको भी इ याँ बलात् वच लत कर देती ह ( २।६०) । वहारम भी देखा जाता है क बु मान्, ववेकशील मनु म और अनुमानसे पाप का बुरा प रणाम देखकर वचार ारा उनम वृ होना ठीक नह समझता, अत: वह इ ापूवक पापकम नह करता; तथा प बलात् उसके ारा रोगीसे कु प - सेवनक भाँ त पाप- कम बन जाते ह। इस लये उपयु के ारा अजुन भगवान् से इस बातका नणय कराना चाहते ह क इस मनु को बलात् पाप म लगानेवाला कौन है? ा यं परमे र ही लोग को पाप म नयु करते ह, जसके कारण वे उनसे हट नह सकते, अथवा ार के कारण बा होकर उ पाप करने पड़ते ह, अथवा इसका कोई दूसरा ही कारण है। स – इस कार अजुनके पूछनेपर भगवान् ीकृ कहने लगे – ीभगवानुवाच । काम एष ोध एष रजोगुणसमु वः । महाशनो महापा ा वद् ेन मह वै रणम् ॥३७॥ ीभगवान् बोले – रजोगुणसे उ आ यह काम ही ोध है, यह ब त खानेवाला अथात् भोग से कभी न औ





अघानेवाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस वषयम वैरी जान ॥ ३७॥ –  ' काम : ' और ' साथ- साथ दो बार ' एषः ' पदके रजोगुणसमु व : ' वशेषणका स उ र – च तीसव ोकम

इन दोन पद के योगका ा भाव है तथा ' कस पदके साथ है? यह बात कही गयी थी क ेक इ यके वषय म रहनेवाले राग और ेष ही इस मनु को लूटनेवाले डाकू ह; उ दोन के ूल प काम- ोध ह – यह भाव दखलानेके लये तथा इन दोन म भी ' काम' धान है, क यह रागका ूल प है और इसीसे ' ोध' क उ होती है ( २। ६२) – यह दखलानेके लये ' काम : ' और ' ोध : ' इन दोन पद के साथ ' एष : ' पदका योग कया गया है। कामक उ रागसे होती है, इस कारण ' रजोगुणसमु व : ' वशेषण ' काम : ' पदसे ही स रखता है। –  य द ' काम' और ' ोध' दोन ही मनु के श ु ह तो फर भगवान् ने पहले दोन के नाम लेकर फर अके ले कामको ही श ु समझनेके लये कै से कहा? उ र – पहले बतलाया जा चुका है क कामसे ही ोधक उ होती है। अत: कामके नाशके साथ ही उसका नाश अपनेआप ही हो जाता है। इस लये भगवान् ने इस करणम इसके बाद के वल ' काम' का ही नाम लया है। परंतु कोई यह न समझ ले क पाप का हेतु के वल काम ही है, ोधका उनसे कु छ भी स नह ोध : ' –

है; इस लये करणके आर म कामके साथ ोधको भी गना दया है। –  कामक उ रजोगुणसे होती है या रागसे? उ र – रजोगुणसे रागक वृ होती है और रागसे रजोगुणक । अत: इन दोन का एक ही प माना गया है ( १४। ७) । इस लये कामक उ के दोन ही कारण ह। –  कामको ' महाशन : ' यानी ब त खानेवाला कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – इससे यह दखलाया है क यह काम भोग को भोगते- भोगते कभी तृ नह होता। जैसे घृत और धनसे अ बढ़ती है, उसी कार मनु जतने ही अ धक भोग भोगता है, उतनी ही अ धक उसक भोग- तृ ा बढ़ती जाती है। इस लये मनु को यह कभी न समझना चा हये क भोग का लोभन देकर म साम और दाननी तसे काम प वैरीपर वजय ा कर लूँगा, इसके लये तो द नी तका ही योग करना चा हये। –  कामको ' महापा ा ' यानी बड़ा पापी कहनेका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क सारे अनथ का कारण यह काम ही है। मनु को बना इ ा पाप म नयु करनेवाला न तो ार है और न ई र ही है, यह काम ही इस मनु को नाना कारके भोग म आस करके उसे बलात् पाप म वृ कराता है; इस लये यह महान् पापी है। –  इसीको तू इस वषयम वैरी जान, इस कथनका ा भाव है?

उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क जो हम जबरद ी ऐसी तम ले जाय क जसका प रणाम महान् दुःख या मृ ु हो, उसको अपना श ु समझना चा हये और यथास व शी - से- शी उसका नाश कर डालना चा हये। यह ' काम' मनु को उसक इ ाके बना ही जबरद ी पाप म लगाकर उसे ज - मरण प और नरक- भोग प महान् दुःख का भागी बनाता है। अत: क ाण- मागम इसीको अपना महान् श ु समझना चा हये। ई र तो परम दयालु और ा णय के सु द् ह, वे कसीको पाप म कै से नयु कर सकते ह और ार पूवकृ त कम के भोगका नाम है, उसम कसीको पाप म वृ करनेक श नह है। अत: पाप म वृ करनेवाला वैरी दूसरा कोई नह है, यह ' काम' ही है। स – पूव ोकम सम अनथ का मूल और इस मनु को बना इ ाके पाप म लगानेवाला वैरी कामको बतलाया। इसपर यह ज ासा होती है क यह काम मनु का कस कार पाप म वृत करता है ? अत : अब तीन ोक ारा यह समझाते ह क यह मनु के ानको आ ा दत करके उसे अ ा बनाकर पाप के ग मे ढके ल देता है – धूमेना यते व यथादश मलेन च । यथो ेनावृतो गभ था तेनेदमावृतम् ॥३८॥ जस कार धुएँसे अ और मैलसे दपण ढका जाता है तथा जस कार जेरसे गभ ढका रहता है, वैसे ही उस कामके ारा यह ान ढका रहता है॥ ३८॥



धुआँ, मल और जेर – इन तीन के ा से कामके ारा ानको आवृत बतलाकर यहाँ ा भाव दखलाया गया है? उ र – इससे यह दखलाया गया है क यह काम ही मल, व ेप और आवरण – इन तीन दोष के पम प रणत होकर मनु के ानको आ ा दत कये रहता है। यहाँ धुएँके ानम ' व ेप' को समझना चा हये। जस कार धुआँ चंचल होते ए भी अ को ढक लेता है, उसी कार ' व ेप' चंचल होते ए भी ानको ढके रहता है; क बना एका ताके अ ःकरणम ानश का शत नह हो सकती, वह दबी रहती है। मैलके ानम ' मल' दोषको समझना चा हये। जैसे दपणपर मैल जम जानेसे उसम त ब नह पड़ता, उसी कार पाप के ारा अ ःकरणके अ म लन हो जानेपर उसम व ु या कत का यथाथ प तभा सत नह होता। इस कारण मनु उसका यथाथ ववेचन नह कर सकता। एवं जेरके ानम ' आवरण' को समझना चा हये। जैसे जेरसे गभ सवथा आ ा दत रहता है, उसका कोई अंश भी दखलायी नह देता, वैसे ही आवरणसे ान सवथा ढका रहता है। जसका अ ःकरण अ ानसे मो हत रहता है, वह मनु न ा और आल ा दके सुखम फँ सकर कसी कारका वचार करनेम वृ ही नह होता। यह काम ही मनु के अ ःकरणम नाना कारके भोग क तृ ा बढ़ाकर उसे व बनाता है, यही मनु से नाना कारके पाप करवाकर अ ःकरणम मलदोषक वृ करता है और यही उसक न ा, आल और अकम ताम सुख- बु करवाकर उसे ँ – 

सवथा ववेकशू बना देता है। इसी लये यहाँ इसको तीन कारसे ानका आ ादन करनेवाला बतलाया गया है। –  यहाँ ' तेन ' पदका अथ काम और ' इदम् ' पदका अथ ान कस आधारपर कया गया है? उ र – इसके पहले ोकम कामको वैरी समझनेके लये कहा गया है और अगले ोकम भगवान् ने यं कामसे ानको आवृत बतलाकर यह कर दया है क इस ोकम ' तेन ' सवनाम ' काम' का और ' इदम् ' सवनाम ' ान' का वाचक है। इसी आधारपर दोन पद का उपयु अथ कया गया है। स – पूव ोकम ' तेन ' पद ' काम ' का और ' इदम् ' पद ' ान ' का वाचक है – इस बातको करते ए उस कामको अ क भाँ त कभी पूण न होनेवाला बतलाते ह – आवृतं ानमेतेन ा ननो न वै रणा । काम पेण कौ ेय दु ूरेणानलेन च ॥३९॥ और हे अजुन ! इस अ के समान कभी न पूण होनेवाले काम प ा नय के न वैरीके ारा मनु का ान ढका आ है॥ ३९॥ –  ' अनलेन '

और ' द ु

ूरण े '

वशेषण का ा

अ भ ाय है? उ र – ' बस, और कु छ भी नह चा हये, ऐसे तृ के भावका वाचक ' अलम् ' अ य है; इसका जसम अभाव हो, उसे ' अनल' कहते ह। अ म चाहे जतना घृत और धन न डाला

जाय, उसक तृ कभी नह होती; इसी लये अ का नाम ' अनल' है। जो कसी कार पूण न हो, उसे ' दु ूर' कहते ह। अत: यहाँ उपयु वशेषण का योग करके यह भाव दखलाया गया है क यह ' काम' भी अ क भाँ त ' अनल' और ' दु ूर' है। मनु जैस-े जैसे वषय को भोगता है, वैस-े ही- वैसे अ क भाँ त उसका ' काम' बढ़ता रहता है, उसक तृ नह होती। राजा यया तने ब त- से भोग को भोगनेके बाद अ म कहा था – न जातु काम : कामानामुपभोगेन शा ह वषा कृ व व भूय एवा भवधते॥ (

त।

ीम ा० ९।

१९।१४ ) ' वषय के उपभोगसे ' काम' कभी शा नह होता, ब घृतसे अ क भाँ त और अ धक ही बढ़ता जाता है।' –  यहाँ ' ा नन : ' पद कन ा नय का वाचक है और कामको उनका ' न वैरी' बतलानेका ा भाव है? उ र – यहाँ ' ा नन : ' पद यथाथ ानक ा के लये साधन करनेवाले ववेकशील साधक का वाचक है। यह काम प श ु उन साधक के अ ःकरणम ववेक, वैरा और न ामभावको र नह होने देता, उनके साधनम बाधा उ करता रहता है। इस कारण इसको ा नय का ' न वैरी' बतलाया गया है। वा वम तो यह काम सभीको अधोग तम ले जानेवाला होनेके कारण सभीका वैरी है; परंतु अ ववेक मनु वषय को भोगते समय भोग म सुखबु होनेके कारण मसे इसे म के स श समझते ह और इसके त को जाननेवाले ववे कय को यह

ही हा नकर दीखता है। इसी लये इसको अ ववे कय का न वैरी न बतलाकर ा नय का न वैरी बतलाया गया है। –  यहाँ ' काम पेण ' पद कस कामका वाचक है? उ र – जो काम दुगुण क ेणीम गना जाता है, जसका ाग करनेके लये गीताम जगह- जगह कहा गया है ( २।७१; ६। २४), सोलहव अ ायम जसको नरकका ार बतलाया गया है ( १६।२१), उस सांसा रक वषय- भोग क कामना प कामका वाचक यहाँ ' काम पेण ' पद है। भगवान् से मलनेक , उनका भजन- ान करनेक अथवा सा क कम के अनु ान करनेक जो शुभ इ ा है, उसका नाम काम नह है; वह तो मनु के क ाणम हेतु है और इस वषय- भोग क कामना प कामका नाश करनेवाली है, वह साधकक श ु कै से हो सकती है? इस लये गीताम ' काम' श का अथ सांसा रक इ ा न भोग के संयोगवयोगक कामना या भो पदाथ ही समझना चा हये। इसी कार यह भी समझ लेना चा हये क च तीसव ोकम या अ कह जो ' राग' या ' संग' श आये ह, वे भी भगवद-् वषयक अनुरागके वाचक नह ह, कामो ादक भोगास के ही वाचक ह। – ' ानम् ' पद कस ानका वाचक है और इसको कामके ारा ढका आ बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – यहाँ ' ानम् ' पद परमा ाके यथाथ ानका वाचक है और उसको कामके ारा ढका आ बतलाकर यह भाव दखलाया है क जैसे जेरसे आवृत रहनेपर भी बालक उस जेरको चीरकर उसके बाहर नकलनेम समथ होता है और अ जैसे लत होकर अपना आवरण करनेवाले धुएँका नाश कर देता है,

उसी कार जस समय कसी संत महापु षके या शा के उपदेशसे परमा ाके त का ान जा त् हो जाता है, उस समय वह कामसे आवृत होनेपर भी कामका नाश करके यं का शत हो उठता है। अत: काम उसको आवृत करनेवाला होनेपर भी व ुत: उसक अपे ा सवथा बलहीन ही है। स – इस कार कामके ारा ानको आवृत बतलाकर अब उसे मारनेका उपाय बतलानेके उ े से उसके वास ान और उसके ारा जीवा ाके मो हत कये जानेका कार बतलाते है – इ या ण मनो बु र ा ध ानमु ते । एतै वमोहय ेष ानमावृ दे हनम् ॥४०॥ इ याँ, मन और बु – ये सब इसके वास ान कहे जाते ह। यह काम इन मन , बु और इ य के ारा ही ानको आ ा दत करके जीवा ाको मो हत करता है॥ ४०॥

इ य, मन और बु – ये सब इस ' काम' के वास ान कहे जाते ह' इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे यह भाव दखलाया है क मन, बु और इ य मनु के वशम न रहनेके कारण उनपर यह ' काम' अपना अ धकार जमाये रखता है। अत: क ाण चाहनेवाले मनु को अपने मन, बु और इ य मसे इस काम प वैरीको शी ही नकाल देना या वह रोककर उसे न कर देना चा हये; –'



नह तो यह घरम घुसे ए श ुक भाँ त मनु जीवन प अमू धनक न कर देगा। –  यह ' काम' मन, बु और इ य के ारा ही ानको आ ा दत करके जीवा ाको मो हत करता है, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क यह ' काम' मनु के मन, बु और इ य म व होकर उसक ववेकश को न कर देता है और भोग म सुख दखलाकर उसे पाप म वृ कर देता है; जससे मनु का अधःपतन हो जाता है। इस लये शी ही सचेत हो जाना चा हये। यह बात एक क त ा के ारा समझायी जाती है – चेतन सह नामके एक राजा थे। उनके धान म ीका नाम था ानसागर। धान म ीके अधीन एक सहकारी म ी था, उसका नाम था चंचल सह। राजा अपने म ी और सहकारी म ीस हत अपनी राजधानी म पुरीम रहते थे। रा दस जल म बँटा आ था और ेक जलेम एक जलाधीश अ धकारी नयु था। राजा ब त ही वचारशील, कम वण और सुशील थे। उनके रा म सभी सुखी थे। रा दनो दन उ त हो रहा था। एक समय उनके रा म जगमोहन नामक एक ठग का सरदार आया। वह बड़ा ही कु च और जालसाज था, अंदर कपट प जहरसे भरा होनेपर भी उसक बोली ब त मीठी थी। वह जससे बात करता उसीको मोह लेता। वह आया एक ापारीके वेषम और उसने जलाधीश से मलकर उनसे रा भरम अपना ापार चलानेक अनुम त माँगी। जलाधीश को काफ लालच दया। वे लालचम

तो आ गये, परंतु अपने अफसर क अनुम त बना कु छ कर नह सकते थे। जालसाज ापारी जगमोहनक सलाहसे वे सब मलकर उसे अपने अफसर सहकारी म ी चंचल सहके पास ले गये; ठग ापारीने उसको खूब लोभन दया, फलत: चंचल सह भी जगमोहनक मीठी- मीठी बात म फँ स गया। चंचल सह उसे अपने उ अ धकारी ानसागरके पास ले गया। ानसागर था तो बु मान्; परंतु वह कु छ दुबल दयका था, ठीक मीमांसा करके कसी न यपर नह प ँ चता था। इसीसे वह अपने सहकारी चंचल सह और दस जलाधीश क बात म आ जाया करता था। वे इससे अनु चत लाभ भी उठाते थे। आज चंचल सह और जलाधीश क बात पर व ास करके वह भी ठग ापारीके जालम फँ स गया। उसने लाइसस देना ीकार कर लया, पर कहा क महाराज चेतन सहजीक मंजूरी बना सारे रा के लये लाइसस नह दया जा सकता। आ खर ठग ापारीक सलाहसे वह उसे राजाके पास ले गया। ठग बड़ा चतुर था। उसने राजाको बड़े- बड़े लोभन दये। राजा भी लोभम आ गये और उ ने जगमोहनको अपने रा म सव अबाध ापार चलाने और को ठयाँ खोलनेक अनुम त दे दी। जगमोहनने जला- अफसर तथा दोन म य को कु छ दे- लेकर स ु कर लया और सारे रा म अपना जाल फै ला दया। जब सव उसका भाव फै ल गया, तब तो वह बना बाधा जाको लूटने लगा। जलाधीश स हत दोन म ी लालचम पड़े ए थे ही, राजाको भी लूटका ह ा देकर उसने अपने वशम कर लया। और छलकौशल और मीठी- मीठी चकनी- चुपड़ी बात म राजाको तथा

वषयलोलुप सब अफसर को कु मागगामी बनाकर उसने सबको श हीन, अकम और दु सन य बना दया और चुपके चुपके तेजीके साथ अपना बल बढ़ाकर उसने सारे रा पर अपना अ धकार जमा लया। इस कार राजाका सव लूटकर अ म उ पकड़कर नजरकै द कर दया। यह ा है, इसका ीकरण इस कार समझना चा हये। राजा चेतन सह ' जीवा ा' है, धान म ी ानसागर ' बु ' है, सहकारी म ी चंचल सह ' मन' है, म पुरी राजधानी ' दय' है। दस जलाधीश ' दस इ याँ' है, दस जले इ य के ' दस ान' ह, ठग का सरदार जगमोहन ' काम' है। वषयभोग के सुखका लोभन ही सबको लालच देना है। वषयभोग म फँ साकर जीवा ाको स े सुखके मागसे कर देना ही उसे लूटना है और उसके ानको आवृत करके सवथा मो हत कर देना और मनु जीवनके परम लाभसे वं चत रहनेको बा कर डालना ही नजरकै द करना है। अ भ ाय यह है क यह क ाण वरोधी दुजय श ु काम, इ य, मन और बु को वषयभोग प म ा सुखका लोभन देकर उन सबपर अपना अ धकार जमाकर मन, बु और इ य ारा वषय- सुख प लोभसे जीवा ाके ानको ढककर उसे मोहमय संसार प कै दखानेम डाल देता है। और परमा ाक ा प वा वक धनसे वं चत करके उसके अमू मनु जीवनका नाश कर डालता है।

इस कार काम प वैरीके अ ाचारका और वह जहाँ छपा रहकर अ ाचार करता है , उन वास ान का प रचय कराकर, अब भगवान् उस काम प वैरीको मारनेक यु बतलाते ए उसे मार डालनेके लये अजुनको आ ा देते ह – त ा म या ादौ नय भरतषभ । पा ानं ज ह ेनं ान व ाननाशनम् ॥४१॥ स



इस लये हे अजुन ! तू पहले इ य को वशम करके इस ान और व ानका नाश करनेवाले महान् पापी कामको अव ही बलपूवक मार डाल॥ ४१॥

और ' आदौ ' – इन दोन पद का योग करके इ य को वशम करनेके लये कहनेका ा भाव है? उ र – ' त ात् ' पद हेतुवाचक है, इसके स हत ' आदौ ' पदका योग करके इ य को वशम करनेके लये कहकर भगवान् ने यह भाव दखलाया है क ' काम' ही सम अनथ का मूल है और यह पहले इ य म व होकर उनके ारा मन- बु को मो हत करके जीवा ाको मो हत करता है; इसके नवास ान मन, बु और इ याँ ह; इस लये पहले इ य पर अपना अ धकार करके इस काम प श ुको अव मार डालना चा हये। इसके वास ान को रोक लेनेसे ही इस काम प श ुको मारनेम सुगमता होगी। अतएव पहले इ य को और फर मनको रोकना चा हये। –  इ य को कस उपायसे वशम करना चा हये? उ र – अ ास और वैरा – इन दो उपाय से इ याँ वशम हो सकती ह – ये ही दो उपाय मनको वशम करनेके लये – ' त ात् '

बतलाये गये ह ( ६।३५) । वषय और इ य के संयोगसे होनेवाले राजस- सुखको ( १८।३८) तथा न ा, आल और मादज नत तामस- सुखको ( १८।३९) वा वम णक, नाशवान् और दुःख प समझकर इस लोक और परलोकके सम भोग से वर रहना वैरा है। और परमा ाके नाम, प, गुण, च र आ दके वण, क तन, मनन आ दम और नः ाथ भावसे लोकसेवाके काय म इ य को लगाना एवं धारण- श के ारा उनक या को शा के अनुकूल बनाना तथा उनम े ाचा रताका दोष पैदा न होने देनेक चे ा करना अ ास है। इन दोन ही उपाय से इ य को और मनको वशम कया जा सकता है। –  ान और व ान – इन दोन श का यहाँ ा अथ है और कामको इनका नाश करनेवाला बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – भगवान् के नगुण- नतकार त के भाव माहा और रह से यु यथाथ ानको ' ान' तथा सगुण- नराकार और द साकार त के लीला, रह , गुण, मह और भावसे यु यथाथ ानको ' व ान' कहते ह। इस ान और व ानक यथाथ ा के लये दयम जो आकां ा उ होती है, उसको यह महान् काम प श ु अपनी मो हनी श के ारा न - नर र दबाता रहता है अथात् उस आकां ाक जागृ तसे उ ानव ानके साधन म बाधा प ँ चाता रहता है, इसी कारण ये कट नह हो पाते, इसी लये कामको उनका नाश करनेवाला बतलाया गया है। ' नाश' श के दो अथ होते ह – एक तो अ कट कर देना और दूसरा व ुका अभाव कर देना; यहाँ अ कट कर देनेके अथम

ही ' नाश' श का योग आ है; क पूव ोक म भी ानको कामसे आवृत ( ढका आ) बतलाया गया है। ान और व ानको समूल न करनेक तो कामम श नह है, क कामक उ अ ानसे ई है अत: ान- व ानके एक बार कट हो जानेपर तो अ ानका ही समूल नाश हो जाता है, फर तो ानव ानके नाशका कोई ही नह रह जाता। स – पूव ोकम इ य को वशम करके काम प श ुको मारनेके लये कहा गया। इसपर यह शंका होती है क जब इ य, मन और बु पर कामका अ धकार है और उनके ारा कामने जीवा ाको मो हत कर रखा है तो ऐसी तम वह इ य को वशम करके कामको कै से मार सकता है ? इस शंकाको दूर करनेके लये भगवान् आ ाके यथाथ पका ल कराते ए आ बलक ृ त कराते ह – इ या ण परा ा र ये ः परं मनः । मनस ु परा बु य बु ेः परत ु सः ॥४२॥ इ य को ूल शरीरसे पर यानी े , बलवान् और सू कहते ह; इन इ य से पर मन है, मनसे भी पर बु है और जो बु से भी अ पर है वह आ ा है॥ ४२॥ –  इ य को ूल शरीरसे पर कहते ह, यह बात कस आधारपर मानी जा सकती है? उ र – कठोप नषद् म शरीरको रथ और इ य को घोड़े बतलाया है ( १।३।३- ४); रथक अपे ा घोड़े े और चेतन ह ँ

एवं रथको अपनी इ ानुसार ले जा सकते ह। इसी तरह इ याँ ही ूल देहको चाहे जहाँ ले जाती ह, अत: उससे बलवान् और चेतन ह। ूल शरीर देखनेम आता है, इ याँ देखनेम नह आत ; इस लये वे इससे सू भी ह। इसके सवा ूल शरीरक अपे ा इ य क े तासू ता और बलव ा भी देखनेम आती है। – कठोप नषद ् ( १।३।१०- ११) म कहा है क इ य क अपे ा अथ पर है, अथ क अपे ा मन पर है, मनसे बु पर है, बु से मह पर है, सम बु प मह से अ पर है और अ से पु ष पर है; इस पु षसे पर अथात् े और सू कु छ भी नह है। यही सबक अ म सीमा है और यही परमग त है। परंतु यहाँ भगवान् ने अथ, मह और अ को छोड़कर कहा है, इसका ा अ भ ाय है? उ र – भगवान् ने यहाँ इस करणका वणन सार पसे कया है, इस लये उन तीन का नाम नह लया; क कामको मारनेके लये अथ, मह और अ क े ता बतलानेक कोई आव कता नह , के वल आ ाका ही मह दखलाना है। –  कठोप नषद ् म इ य क अपे ा अथ को पर यानी े कै से बतलाया? उ र – वहाँ ' अथ' श का अ भ ाय पंचत ा ाएँ ह। त ा ाएँ इ य से सू ह, इस लये उनको पर कहना उ चत ही है। –  यहाँ भगवान् ने इ य क अपे ा मनको और मनक अपे ा बु को पर अथात् े , सू और बलवान्

बतलाया है, कतु दूसरे अ ायम कहा है क ' य करनेवाले बु मान् पु षके मनको भी मथन भाववाली इ याँ बलात् हर लेती ह' ( २।६०) तथा यह भी कहा है क ' वषय म वचरती ई इ य मसे जसके साथ मन रहता है वह एक ही इ य मनु क बु को हर लेती है' ( २।६७) । इन वचन से मनक अपे ा इ य क बलता स होती है और बु क अपे ा भी मनक सहायतासे इ य क बलता स होती है। इस कार पूवापरम वरोध- सा तीत होता है, इसका समाधान करना चा हये? उ र – कठोप नषद् म रथके ा से यह वषय भलीभाँ त समझाया गया है; वहाँ कहा है क आ ा रथी है, बु उसका सार थ है, शरीर रथ है, मन लगाम है, इ याँ घोड़े ह और श ा द वषय ही माग ह। य प वा वम रथीके अधीन सार थ, सार थके अधीन लगाम और लगामके अधीन घोड़ का होना ठीक ही है, तथा प जसका बु प सार थ ववेक ानसे सवथा शू है, मन प लगाम जसक नयमानुसार पकड़ी ई नह है, ऐसे जीवा ा प रथीके इ य प घोड़े उ ृ ंखल होकर उसे दु घोड़ क भाँ त बलात् उलटे ( वषय) मागम ले जाकर गड् ढेम डाल देते ह। इससे यह स होता है क जबतक बु , मन और इ य पर जीवा ाका आ धप नह होता, वह अपने साम को भूलकर उनके अधीन आ रहता है, तभीतक इ याँ मन और बु को धोखा देकर सबको बलात् उलटे मागम घसीटती ह अथात् इ याँ पहले मनको वषयसुखका लोभन देकर उसे अपने अनुकूल बना लेती ह, मन और इ याँ मलकर बु को अपने अनुकूल बना लेते ह और ये सब मलकर आ ाको भी अपने अधीन [10]

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कर लेते ह; परंतु वा वम तो इ य क अपे ा मन, मनक अपे ा बु और सबक अपे ा आ ा ही बलवान् है; इस लये वहाँ ( कठोप नषद् म) कहा है क जसका बु प सार थ ववेकशील है, मन प लगाम जसक नयमानुसार अपने अधीन है, उसके इ य प घोड़े भी े घोड़ क भाँ त वशम होते ह तथा ऐसे मन, बु और इ य वाला प व ा ा मनु उस परमपदको पाता है जहाँ जाकर वह वापस नह लौटता। गीताम भी जीते ए मन, बु और इ य से यु अपने आ ाको म और बना जीते ए मन, बु और इ य वालेको अपने श ुके समान बतलाया है ( ६।६) । अत: बना जीती ई इ याँ वा वम मनबु क अपे ा नबल होती ई भी बल रहती ह, इस आशयसे दूसरे अ ायका कथन है और यहाँ उनक वा वक त बतलायी गयी है। अतएव पूवापरम कोई वरोध नह है। –  यहाँ ' परत : ' पदका अथ ' अ पर' कया गया है; इसका ा अ भ ाय है? उ र – कठोप नषद् म जहाँ यह वषय आया है, वहाँ बु से पर मह को, उससे पर अ को और अ से भी पर पु षको बतलाया गया है तथा यह भी कहा गया है क यही पराका ा है – पर क अ म अव ध है, इससे पर कु छ भी नह है। उसी ु तके भावको दखलानेके लये यहाँ ' परत : ' का ' अ पर' अथ कया गया है। आ ा सबका आधार, कारण, काशक और ेरक तथा सू , ापक, े और बलवान् होनेके कारण उसे ' अ पर' कहना उ चत ही है। [12]

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यहाँ ' काम' का करण चल रहा है। अगले ोकम भी कामको मारनेके लये भगवान् कहते ह। अत: इस ोकम आया आ ' स : ' कामका वाचक मान लया जाय तो ा हा न है? उ र – यहाँ कामको मारनेका करण अव है, परंतु उसे े बतलानेका करण नह है। उसे मारनेक श आ ाम मौजूद है। मनु य द अपने आ बलको समझ जाय तो वह बु , मन और इ य पर सहज ही अपना पूण अ धकार ापन करके कामको मार सकता है, इस बातको समझानेके लये इस ोकक वृ ई है। य द इ य, मन और बु से ' काम' को अ े माना जायगा तो उनके ारा कामको मारनेके लये कहना ही असंगत होगा। इसके सवा ' स : ' पदका अथ काम मानना कठोप नषद् के वणनसे भी व पड़ेगा। अत: यहाँ ' स : ' पद कामका वाचक नह है, कतु दूसरे अ ायम जसका ल करके कहा है क ' रसोऽ परं ा नवतते ' ( २।५९), उस परत का अथात् न शु - बु प परमा ाका ही वाचक है। स – अब भगवान् पूव ोकके वणनानुसार आ को सव े समझकर काम प वैरीको मारनेके लये आ ा देते ह – एवं बु ेः परं बुद् ा सं ा ानमा ना । ज ह श ुं महाबाहो काम पं दुरासदम् ॥४३॥ – 



इस कार बु से पर अथात् सू , बलवान् और े आ ाको जानकर और बु के ारा मनको वशम

करके हे महाबाहो ! तू इस काम प दज ु य श ुको मार डाल॥ ४३॥ –  यहाँ बु से पर आ ाको समझकर कामको मारनेके लये कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – मनु का ान अना दकालसे अ ान ारा आवृत हो रहा है; इस कारण वे अपने आ - पको भूले ए ह, यं

सबसे े होते ए भी अपनी श को भूलकर काम प वैरीके वशम हो रहे ह। लोक स से और शा ारा सुनकर भी लोग आ ाको वा वम सबसे े नह मानते; य द आ पको भलीभाँ त समझ ल तो राग प कामका सहज ही नाश हो जाय। अतएव आ पको समझना ही इसे मारनेका धान उपाय है। इसी लये भगवान् ने आ ाको बु से भी अ े समझकर कामको मारनेके लये कहा है। आ त ब त ही गूढ़ है। महापु ष ारा समझाये जानेपर कोई सू दश मनु ही इसे समझ सकता है। कठोप नषद् म कहा है क ' सब भूत के अंदर छपा आ यह आ ा उनके नह होता, के वल सू दश पु ष ही अ ती ण और सू बु ारा इसे कर सकते ह।' –  यहाँ ' आ ानम् ' का अथ मन और ' आ ना ' का अथ ' बु ' कस कारणसे कया गया है? उ र – शरीर, इ य, मन, बु और जीव – इन सभीका वाचक आ ा है। उनमसे सव थम इ य को वशम करनेके लये इकतालीसव ोकम कहा जा चुका है। शरीर इ य के अ गत आ ही गया, जीवा ा यं वशम करनेवाला है। अब बचे मन और [14]

बु ; बु को मनसे बलवान् कहा है अत: इसके ारा मनको वशम कया जा सकता है। इसी लये ' आ ानम् ' का अथ ' मन' और ' आ ना ' का अथ ' बु ' कया गया है। –  बु के ारा मनको वशम करनेक ा री त है? उ र – भगवान् ने छठे अ ायम मनको वशम करनेके लये अ ास और वैरा – ये दो उपाय बतलाये ह ( ६।३५) । ेक इ यके वषयम मनु का ाभा वक राग- ेष रहता है, वषय के साथ इ य का स होते समय जब- जब रागेषका अवसर आवे तब- तब बड़ी सावधानीके साथ बु से वचार करते ए राग- ेषके वशम न होनेक चे ा रखनेसे शनै:- शनै: रागेष कम होते चले जाते ह। यहाँ बु से वचारकर इ य के भोग म दुःख और दोष का बार- बार दशन कराकर मनक उनम अ च उ कराना वैरा है और वहारकालम ाथके ागक और ानके समय मनको परमे रके च नम लगानेक चे ा रखना और मनको भोग क वृ से हटाकर परमे रके च नम बार- बार नयु करना अ ास है। –  जब क आ ा यं सबसे बल है तब बु के ारा मनको वशम करके कामको मारनेके लये भगवान् ने कै से कहा है? आ ा यं ही काम प महान् वैरीको मार सकता है? उ र – अव ही आ ाम अन बल है, वह कामको मार सकता है। व ुत: उसीके बलको पाकर सब बलवान् और याशील होते ह परंतु वह अपने महान् बलको भूल रहा है और जैसे बल श शाली स ाट् अ ानवश अपने बलको भूलकर अपनी अपे ा सवथा बलहीन ु नौकर- चाकर के अधीन होकर ँ ँ

उनक हाँ- म- हाँ मला देता है, वैसे ही आ ा भी अपनेको बु , मन और इ य के अधीन मानकर उनके काम े रत उ ृ ंखलतापूण मनमाने काय म मूक अनुम त दे रहा है। इसीसे उन बु , मन और इ य के अ र छपा आ काम जीवा ाको वषय का लोभन देकर उसे संसारम फँ साता रहता है। य द आ ा अपने पको समझकर, अपनी श को पहचानकर बु , मन और इ य को रोक ले, उ मनमाना काय करनेक अनुम त न दे और चोरक तरह बसे ए कामको नकाल बाहर करनेके लये बलपूवक आ ा दे दे, तो न बु , मन और इ य क श है क वे कु छ कर सक और न कामम ही साम है क वह णभरके लये भी वहाँ टक सके । सचमुच यह आ य ही है क आ ासे ही स ा, ू त और श पाकर, उसीके बलसे बलवान् होकर ये सब उसीको दबाये ए ह और मनमानी कर रहे ह। अतएव यह आव क है क आ ा अपने पको और अपनी श को पहचानकर बु , मन और इ य को वशम करे। काम इ म बसता है और ये उ ृ ंखल हो रहे ह। इनको वशम कर लेनेपर काम सहज ही मर सकता है। कामको मारनेका व ुत: अ य आ ाके लये यही तरीका है। इसी लये बु के ारा मनको वशम करके कामको मारनेके लये कहा गया है। –  काम प वैरीको दुजय बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – व ुत: कामम कोई बल नह है। यह आ ाके बलसे बलवान् ए बु , मन और इ य म रहनेके लये जगह पा जानेके कारण ही उनके बलसे बलवान् हो गया हे तथा जबतक

बु , मन और इ य अपने वशम नह हो जाते, तबतक उनके ारा आ ाका बल कामको ा होता रहता है। इसी लये काम अ बल माना जाता है और इसी लये उसे ' दुजय' कहा गया है; परंतु कामका यह दुजय तभीतक है जबतक आ ा अपने पको पहचानकर बु , मन और इ यको अपने वशम न कर ले। –  यहाँ ' महाबाहो' स ोधन कस अ भ ायसे दया गया है? उ र – ' महाबाहो' श बड़ी भुजावाले बलवान् का वाचक है और यह शौयसूचक श है। भगवान् ीकृ कामको ' दुजय' बतलाकर उसे मारनेक आ ा देते ए अजुनको ' महाबाहो' नामसे स ो धत कर आ ाके अन बलक याद दला रहे ह और साथ ही यह भी सू चत कर रहे ह क ' सम अन ा च द श य का अन भा ार म – जसक श का ु - सा अंश पाकर देवता और लोकपाल सम व का संचालन करते ह और जसक श के करोड़व कलांश- भागको पाकर जीव अन श वाला बन सकता है – वह यं म जब तु कामको मारनेम समथ श स मानकर आ ा दे रहा ँ , तब काम कतना ही दुजय और दुधष वैरी न हो, तुम बड़ी आसानीसे उसे मारकर उसपर वजय ा कर सकते हो।' इसी अ भ ायसे यह स ोधन दया गया है। ॐ त द त ीम गव ीतासूप नष ु योगशा े

व ायां

ीकृ ाजुनसंवादे कमयोगो नाम तृतीयोऽ ायः ॥ ३॥

॥ॐ ीपरमा ने नमः॥

अ ायका नाम

अथ चतुथ ऽ ायः

यहाँ ' ान ' श परमाथ - ान अथात् त ानका ' कम ' श कमयोग अथात् योगमागका और ' सं ास ' श सां योग अथात् ानमागका वाचक है ; ववेक ान और शा ान भी ' ान ' श के अ गत ह। इस चौथे अ ायम भगवान् ने अपने अवत रत होनेके रह और त के स हत कमयोग तथा सं ासयोगका और इन सबके फल प जो परमा ाके त का यथाथ ान है, उसका वणन कया है; इस लये इस अ ायका नाम ' ानकम - सं ासयोग ' रखा गया है। अ ायका सं ेप

इस अ ायके पहले और दूसरे ोक म कमयोगक पर रा बतलाकर तीसरेम उसक शंसा क गयी है। चौथेम अजनने भगवान् से ज वषयक कया है, इसपर भगवान् ने पाँचवम अपने और अजुनके ब त ज होनेक बात और उन सबको म जानता ँ तू नह जानता यह बात कहकर छठे , सातव और आठवम अपने अवतारके त . रह , समय और न म का वणन कया है। नव और दसवम भगवान् के ज - कम को द समझनेका और भगवान् के आ त होनेका फल भगवान् क ा बतलाया गया है। ारहवम भगवान् ने अपना भजन करनेवालेको उसी कार भजनेक बात कही है। बारहवम अ देवता क उपासनाका लौ कक फल शी ा होनेका वणन कया है। तेरहव और चौदहवम भगवान् ने अपनेको सम जगत् का कता होते ए भी अकता समझनेके लये कहकर अपने कम क द ता और उसके जाननेका फल कम से न बँधना बतलाते ए पं हवम भूतकालीन मुमु ु का उदाहरण देकर अजुनको न ामभावसे कम करनेक आ ा दी है। सोलहवसे अठारहवतक कम का रह बतलानेक त ा करके कम के त को दु व ेय और उसे जानना आव क बतलाकर कमम अकम और अकमम कम देखनेवालेक शंसा क है और उ ीसवसे तेईसवतक कमम अकम और अकमम कम दशन करनेवाले महापु ष के और साधक के भ - भ ल ण और आचरण का वणन करते ए उनक शंसा क है। चौबीसवसे तीसवतक य , देवय और अभेद दशन प य आ द य का वणन करके सभी य कता को य वे ा और न ाप बतलाया है तथा इकतीसवम उन य से बचे ए अमृतका अनुभव करनेवालेको सनातन क ा होनेक और य न करनेवालेके लये दोन लोक म सुख न होनेक बात कही गयी है। बतीसवम उपयु कारके सभी य को या ारा स ा दत होनेयो बतलाकर ततीसवम मय य क अपे ा ानय को उ म बतलाया है। च तीसव और पतीसवम अजुनको ानी महा ा के पास जाकर त ान सीखनेक बात कहकर त ानक शंसा क है। छ ीसवम ाननौका ारा पापसमु से पार होना बतलाया है। सतीसवम ानको अ क भाँ त

कम को भ करनेवाला बतलाकर, अड़तीसवम ानक महान् प व ताका वणन करते ए शु ा ःकरण कमयोगक अपने - आप त ानके मलनेक बात कही है। उनतालीसवम ा द गुण से यु पु षको ान ा का अ धकारी और ानका फल परम शा बतलाकर चालीसवम अ और अ ालू संशया ा पु षक न ा करते ए इकतालीसवम संशयर हत कमयोगीके कमब नसे मु होनेक बात कही है और बयालीसवम अजुनको ानखड् ग ारा अ ानज नत संशयका सवथा नाश करके कमयोगम डटे रहनेके लये आ ा देते ए यु करनेक ेरण करके इस अ ायका उपसंहार कया है। स – तीसरे अ ायके चौथे ोकसे लेकर उनतीसव ोकतक भगवान् ने ब त कारसे व हत कम के आचरणक आव कताका तपादन करके तीसव ोकम अजुनको भ धान कमयोगक व धसे ममता, आस और कामनाका सवथा ाग करके भगवदपणबु से कम करनेक आ ा दी। उसके बाद इकतीसवसे पतीसव ोकतक उस स ा के अनुसार कम करनेवाल क शंसा और न करनेवाल क न ा करके राग - ेषके वशम न होनेके लये कहते ए धमपालनपर जोर दया। फर छतीसव ोकम अजुनके पूछनेपर सतीसवसे अ ायसमा पय कामको सारे अनथ का हेतु बतलाकर बु के ारा इ य और मनको वशम करके उसे मारनेक आ ा दी; परतुं कमयोगका त बड़ा ही गहन है, इस लये अब भगवान् पुन : उसके स म ब त - सी बात बतलानेके उ े से उसीका करण आर करते ए पहले तीन ोक म उस कमयोगक पर रा बतलाकर उसक अना दता स करते ए शंसा करते ह – ीभगवानुवाच । इमं वव ते योगं ो वानहम यम् । वव ा नवे ाह मनु र ाकवेऽ वीत् ॥१॥ ीभगवान् बोले – मने इस अ वनाशी योगको सूयसे कहा था , सूयने अपने पु वैव त मनुसे कहा और मनुने अपने पु राजा इ ाकु कहा ॥१॥

– यह ' इमम् ' वशेषणके स हत ' योगम् ' पद कस योगका वाचक है –   कमयोगका या सां योगका? उ र – दूसरे अ ायके उनतालीसव ोकम कमयोगका वणन आर करनेक

त ा करके भगवान् ने उस अ ायके अ तक कमयोगका भलीभाँ त तपादन कया। इसके बाद तीसरे अ ायम अजुनके पूछनेपर कम करनेक आव कताम ब त- सी यु याँ बतलाकर तीसव ोकम उ भ स हत कमयोगके अनुसार यु करनेके लये आ ा दी और इस कमयोगम मनको वशम करना ब त आव क समझकर अ ायके अ म भी बु ारा मनको वशम करके काम प श ुको मारनेके लये कहा।

इससे मालूम होता है क तीसरे अ ायके अ तक ाय: कमयोगका ही अंगंग स हत तपादन कया गया है और ' इमम् ' पद जसका करण चल रहा हो, उसीका वाचक होना चा हये। अतएव यह समझना चा हये क यहाँ ' इमम् ' वशेषणके स हत ' योगम् ' पद ' कमयोग' का ही वाचक है। इसके सवा इस योगक पर रा बतलाते ए भगवान् ने यहाँ जन ' सूय' और ' मनु' आ दके नाम गनाये ह, वे सब गृह और कमयोगी ही ह तथा आगे इस अ ायके पं हव ोकम भूतकालीन मुमु ु का उदाहरण देकर भी भगवान् ने अजुनको कम करनेके लये आ ा दी है, इससे भी यहाँ ' इमम् ' वशेषणके स हत ' योगम् ' पदको कमयोगका ही वाचक मानना उपयु मालूम होता है। – तीसरे अ ायके अ म भगवान् ने ' आ ानम् आ ना सं ' – आ ाके ारा आ ाको न करके – इस कथनसे मानो समा ध होनेके लये कहा है और ' युज समाधौ ' के अनुसार ' योग' श का अथ भी समा ध होता ही है; अत: यहाँ योगका अथ मनइ य का संयम करके समा ध हो जाना मान लया जाय तो ा हा न है? उ र – वहाँ भगवान् ने आ ाके ारा आ ाको न करके अथात् बु के ारा मनको वशम करके काम प दुजय श ुका नाश करनेके लये आ ा दी है। कमयोगम न ामभाव ही मु है, वह कामका नाश करनेसे ही स हो सकता है तथा मन और इ य को वशम करना कमयोगीके लये परमाव क माना गया है ( २।६४) । अतएव बु के ारा मन- इ य को वशम करना और कामको मारना – ये सब कमयोगके ही अंग ह और उपयु के उ रके अनुसार वहाँ भगवान् का कहना कमयोगका साधन करनेके लये ही है, इस लये यहाँ योगका अथ हठयोग या समा धयोग न मानकर कमयोग ही मानना चा हये। – इस योगको मने सूयसे कहा था, सूयने मनुसे कहा और मनुने इ ाकु से कहा –   यहाँ इस बातके कहनेका ा उ े है? उ र – मालूम होता है क इस योगक पर रा बतलानेके लये एवं यह योग सबसे थम इस लोकम य को ा आ था – यह दखलाने तथा कमयोगक अना दता स करनेके लये ही भगवान् ने ऐसा कहा है। एवं पर रा ा ममं राजषयो वदुः । स कालेनेह महता योगो न ः पर प ॥२॥ हे पर प अजुन! इस कार पर रासे ा इस योगको राज षय ने जाना; कतु उसके बाद वह योग ब त कालसे इस पृ ीलोकम लु ाय हो गया॥ २॥ – इस कार पर रासे ा इस योगको राज षय ने जाना, इस कथनका ा भाव है?

उ र – इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क एक- दूसरेसे श ा पाकर कई पी ड़य तक े राजालोग इस कमयोगका आचरण करते रहे; उस समय इसका रह समझनेम ब त ही सुगमता थी, परंतु अब वह बात नह रही। – ' राज ष' कसको कहते ह। उ र – जो राजा भी हो और ऋ ष भी हो अथात् जो राजा होकर वेदम के अथका त जाननेवाला हो, उसे ' राज ष' कहते ह। – इस योगको राज षय ने जाना, इस कथनका ा यह अ भ ाय है क दूसर ने उसे नह जाना? उ र – ऐसी बात नह है, क इसम दूसर के जाननेका नषेध नह कया गया है। हाँ, इतना अव है क कमयोगका त समझनेम राज षय क धानता मानी गयी है; इसीसे इ तहास म यह बात मलती है क दूसरे लोग भी कमयोगका त राज षय से सीखा करते थे। अतएव यहाँ भगवान् के कहनेका यही अ भ ाय मालूम होता है क राजालोग पहलेहीसे इस कमयोगका अनु ान करते आये ह और तुम भी राजवंशम उ हो, इस लये तु ारा भी इसीम अ धकार है और यही तु ारे लये सुगम भी होगा। – ब त कालसे वह योग इस लोकम ाय: न हो गया, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान् ने यह दखलाया है क जबतक वह पर रा चलती रही तबतक तो कमयोगका इस पृ ीलोकम चार रहा। उसके बाद - लोग म भोग क आस बढ़ने लगी, - ही- कमयोगके अ धका रय क सं ा घटती गयी; इस कार ास होतेहोते अ म कमयोगक वह क ाणमयी पर रा न हो गयी; इस लये उसके त को समझनेवाले और धारण करनेवाले लोग का इस लोकम ब त काल पहलेसे ही ाय: अभावसा हो गया है। – पहले ोकम तो ' योगम् ' के साथ ' अ यम् ' वशेषण देकर इस योगको अ वनाशी बतलाया और यहाँ कहते ह क वह न हो गया; इस पर र वरोधी कथनका ा अथ है? य द वह अ वनाशी है तो उसका नाश नह होना चा हये और य द नाश होता है, तो वह अ वनाशी कै से? उ र – परमा ाक ा के साधन प कमयोग, ानयोग, भ योग आ द जतने भी साधन ह – सभी न ह; इनका कभी अभाव नह होता। जब परमे र न ह, तब उनक ा के लये उ के ारा न त कये ए अना द नयम अ न नह हो सकते। जब- जब जगत् का ादुभाव होता है, तब- तब भगवान् के सम नयम भी साथ- ही- साथ कट हो जाते ह और जब जगत् का लय होता है, उस समय नयम का भी तरोभाव हो जाता है; परंतु उनका अभाव कभी नह होता। इस कार इस कमयोगक अना दता स करनेके लये

पूव ोकम उसे अ वनाशी कहा गया है। अतएव इस ोकम जो यह बात कही गयी क वह योग ब त कालसे न हो गया है – इसका यही अ भ ाय समझना चा हये क ब त समयसे इस पृ ीलोकम उसका त समझनेवाले े पु ष का अभाव- सा हो गया है, इस कारण वह अ का शत हो गया है, उसका इस लोकम तरोभाव हो गया है, यह नह क उसका अभाव हो गया है, क सत् व ुका कभी अभाव नह होता; सृ के आ दम पूव ोकके कथनानुसार भगवान् से इसका ादुभाव होता है; फर बीचम व भ कारण से कभी उसका अ काश होता है तथा कभी काश और वकास। य होते- होते लयके समय वह अ खल जगत् के स हत भगवान् म ही वलीन हो जाता है। इसीको न या अ होना कहते ह; वा वम वह अ वनाशी है, अतएव उसका कभी अभाव नह होता। स एवायं मया तेऽ योगः ो ः पुरातनः । भ ोऽ स मे सखा चे त रह ं ेतदु मम् ॥३॥

तू मेरा भ और य सखा है, इस लये वही यह पुरातन योग आज मने तुझको कहा है ; क यह बड़ा ही उ म रह है अथात् गु रखनेयो वषय है॥ ३॥

– तू मेरा भ और सखा है, इस कथनका उ र – इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है य सखा हो; अतएव तु ारे सामने अ रह क

ा भाव है? क तुम मेरे चरकालके अनुगत भ बात भी कट कर दी जाती है, हरेक

और मनु के सामने रह क बात कट नह क जाती। – वही यह पुरातन योग आज मने तुझको कहा है, इस वा का ा भाव है? उ र – इस वा म ' स : एव ' और ' पुरातन : ' – इन पद के योगसे इस योगक अना दता स क गयी है; ' ते ' पदसे अजुनके अ धकारका न पण कया गया है और ' अ ' पदसे इस योगके उपदेशका अवसर बतलाया गया है। अ भ ाय यह है क जस योगको मने पहले सूयसे कहा था और जसक पर रा अना द कालसे चली आती है, उसी पुरातन योगको आज इस यु े म तु अ ाकु ल और शरणागत जानकर शोकक नवृ पूवक क ाणक ा करानेके लये मने तुमसे कहा है। शरणाग तके साथ- साथ अ लक ाकु लताभरी ज ासा ही एक ऐसी साधना है जो मनु को परम अ धकारी बना देती है। तुमने आज अपने इस अ धकारको सचमुच स कर दया ( २। ७); ऐसा पहले कभी नह कया था। इसीसे मने इस समय तु ारे सामने यह रह खोला है। – यह बड़ा ही उ म रह है, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क यह योग सब कारके दुःख से और ब न से छु ड़ाकर परमान प मुझ परमे रको सुगमतापूवक ा करा देनेवाला है, इस लये अ ही उ म और ब त ही गोपनीय है; इसके सवा इसका यह भाव भी है क

अपनेको सूया दके त इस योगका उपदेश करनेवाला बतलाकर और वही योग मने तुझसे कहा है, तू मेरा भ है – यह कहकर मने जो अपना ई रभाव कट कया है, यह बड़ी रह क बात है। अत: अन धकारीके सामने यह कदा प कट नह करना चा हये। स – उपयु वणनसे मनु को ाभा वक ही यह शंका हो सकती है क भगवान् ीकृ ा तो अभी ापरयुगम कट ए ह और सूयदेव, मनु एवं इ ाकु ब त पहले हो चुके ह; तब इ ने इस योगका उपदेश सूयके त कै से दया ? अतएव इसके समाधानके साथ ही भगवान् के अवतार - त को भली कार समझनेक इ ासे अजुन पूछते ह – अजुन उवाच । अपरं भवतो ज परं ज वव तः । कथमेत जानीयां मादौ ो वा न त ॥ ४-४॥ अजुन बोले – आपका ज तो अवाचीन – अभी हालका है और सूयका ज ब त पुराना है अथात् क के आ दम हो चुका था ; तब म इस बातको कैसे समझूँ क आपहीने क के आ दम सूयसे यह योग कहा था॥ ४॥

– अजुनक का – य प अजुन इस

ा अ भ ाय है? उर बातको पहलेहीसे जानते थे क ीकृ कोई साधारण मनु नह ह ब द मानव पम कट सवश मान् पूण परमा ा ही ह, क उ ने राजसूय य के समय भी जीसे भगवान् क म हमा सुनी थी ( मह , सभा० ३८।२३, २९) और अ ऋ षय से भी इस वषयक ब त बात सुन रख थ । इसीसे वनम उ ने यं भगवान् से उनके मह क चचा क थी (महा०, वन० १२।११- ४३) । इसके सवा शशुपाल आ दके वध करनेम और अ ा घटना म भगवान् का अद् भुत भाव भी उ ने देखा था। तथा प भगवान् के मुखसे उनके अवतारका रह सुननेक और सवसाधारणके मनम होनेवाली शंका को दूर करानेक इ ासे यहाँ अजुनका है। अजुनके पूछनेका भाव यह है क आपका ज हालम कु छ ही वष पूव ीवसुदेवजीके घर आ है, इस बातको ाय: सभी जानते ह और सूयक उ सृ के आ दम अ द तके गभसे ई थी; ऐसी तम इसका रह समझे बना यह अस व- सी बात कै से मानी जा सकती है क आपने यह योग सृ के आ दम सूयसे कहा था। जससे सूयके ारा इसक पर रा चली; अतएव कृ पा करके मुझे इसका रह समझाकर कृ ताथ क जये। स – इस कार अजुनके पूछनेपर अपने अवतार - त का रह समझानेके लये अपनी सव ता कट करते ए भगवान् कहते ह – ीभगवानुवाच । ब न मे तीता न ज ा न तव चाजुन ।

ता हं वेद सवा ण न ं वे पर प ॥ ४-५॥

ीभगवान् बोले – हे पर प अजुन ! मेरे और तेरे ब त - से ज सबको तू नह जानता , कतु म जानता ँ ॥ ५॥

हो चुके ह। उन

– मेरे और तेरे ब त- से ज र – इससे भगवान् ने यह भाव

हो चुके ह, इस कथनका ा भाव है?? उ दखलाया है क म और तुम अभी ए ह, पहले नह थे – ऐसी बात नह है। हमलोग अना द और न ह। मेरा न प तो है ही; उसके अ त र म म , क प, वराह, नृ सह और वामन आ द अनेक प म पहले कट हो चुका ँ । मेरा यह वसुदेवके घरम होनेवाला ाकट् य अवाचीन होनेपर भी इसके पहले होनेवाले अपने व वध प म मैने असं पु ष को अनेक कारके उपदेश दये ह। इस लये मने जो यह बात कही है क यह योग पहले सूयसे मने ही कहा था, इसम तु कोई आ य और अस ावना नह माननी चा हये; इसका यही अ भ ाय समझना चा हये क क के आ दम मने नारायण पसे सूयको यह योग कहा था। – उन सबको तू नह जानता, कतु म जानता ँ – इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनम भगवान् ने अपनी सव ताका और जीव क अ ताका द शन कराया है। भाव यह है क मने कन- कन कारण से कन- कन प म कट होकर कस- कस समय ा- ा लीलाएँ क ह, उन सबको तुम सव न होनेके कारण नह जानते; तु मेरे और अपने पूवज क ृ त नह है, इसी कारण तुम इस कार कर रहे हो, कतु मुझसे जगत् क कोई भी घटना छपी नह है; भूत, वतमान और भ व सभी मेरे लये वतमान ह। म सभी जीव को और उनक सब बात को भलीभाँ त जानता ँ ( ७।२६), क म सव ँ ; अत: जो यह कह रहा ँ क मने ही क के आ दम इस योगका उपदेश सूयको दया था, इस वषयम तु क च ा भी स हे नह करना चा हये। स – भगवान् के मुखसे यह बात सुनकर क अबतक मेरे ब त - से ज हो चुके ह, यह जाननेक इ ा होती हे क आपका ज कस कार होता है और आपके ज म तथा अ लोग के ज म ा भेद है। अतएव इस बातको समझानेके लये भगवान् अपने ज का त बतलाते ह – अजोऽ प स या ा भूतानामी रोऽ प सन् । कृ त ाम ध ाय स वा ा मायया ॥ ४-६॥ म अज ा और अ वनाशी प होते ए भी तथा सम ा णय का ई र होते ए भी अपनी कृ तको अधीन करके अपनी योगमायासे कट होता ँ ॥ ६॥

– ' अज : ', ' अ या ा ' और ' भूतानामी र : ' – इन पद के और ' सन् ' का योग करके यहाँ ा भाव दखलाया गया है?

साथ ' अ प ' ँ

उ र – इससे भगवान् ने यह दखलाया है क य प म अज ा और अ वनाशी ँ – वा वम मेरा ज और वनाश कभी नह होता, तो भी म साधारण क भाँ त ज ता और वन होता- सा तीत होता ँ ; इसी तरह सम ा णय का ई र होते ए भी एक साधारण - सा तीत होता ँ । अ भ ाय यह है क मेरे अवतार- त को न समझनेवाले लोग जब म म , क प, वराह और मनु ा द पम कट होता ँ , तब मेरा ज आ मानते ह और जब म अ धान हो जाता ँ , उस समय मेरा वनाश समझ लेते ह तथा जब म उस पम द लीला करता ँ , तब मुझे अपने- जैसा ही साधारण समझकर मेरा तर ार करते ह ( ९।११) । वे बेचारे इस बातको नह समझ पाते क ये सवश मान् सव र, न - शु बु - मु - भाव सा ात् पूण परमा ा ही जगत् का क ाण करनेके लये इस पम कट होकर द लीला कर रहे ह; क म उस समय अपनी योगमायाके परदेम छपा रहता ँ ( ७।२५) । – यहाँ ' ाम् ' वशेषणके स हत ' कृ तम् ' पद कसका तथा ' आ मायया ' कसका वाचक है और इन दोन म ा भेद है? उ र – भगवान् क श पा जो मूल- कृ त है, जसका वणन नवम अ ायके सातव और आठव ोक म कया गया है और जसे चौदहव अ ायम ' मह ' कहा गया है, उसी ' मूल कृ त' का वाचक यहाँ ' ाम् ' वशेषणके स हत ' कृ तम् ' पद है। तथा भगवान् अपनी जस योगश से सम जगत् को धारण कये ए ह, जस असाधारण श से वे नाना कारके प धारण करके लोग के स ुख कट होते ह और जसम छपे रहनेके कारण लोग उनको पहचान नह सकते तथा सातव अ ायके पचीसव ोकम जसको योगमायाके नामसे कहा है – उसका वाचक यहाँ ' आ मायया ' पद है। ' मूल कृ त' को अपने अधीन करके अपनी योगश के ारा ही भगवान् अवतीण होते ह। मूल कृ त संसारको उ करनेवाली है, और भगवान् क यह योगमाया उनक अ भावशा लनी, ऐ यमयी श है। यही इन दोन का भेद है। – म अपनी कृ तको अधीन करके अपनी योगमायासे कट होता ँ , इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान् ने साधारण जीव से अपने ज क वल णता दखलायी है। अ भ ाय यह है क जैसे जीव कृ तके वशम होकर अपने- अपने कमानुसार अ ी- बुरी यो नय म ज धारण करते ह और सुख- दुःख भोग करते ह, उस कारका मेरा ज नह है। म अपनी कृ तका अ ध ाता होकर यं ही अपनी योगमायासे समय- समयपर द लीला करनेके लये यथाव क प धारण कया करता ँ ; मेरा वह ज त और द होता है, जीव क भाँ त कमवश नह होता।

– साधारण जीव के

ज ने- मरनेम और भगवान् के कट और अ धान होनेम

ा अ र हे? उ र – साधारण जीव के ज और मृ ु उनके कम के अनुसार होते ह, उनके इ ानुसार नह होते। उनको माताके गभम रहकर क भोगना पड़ता है। ज के समय वे माताक यो नसे शरीरस हत नकलते ह। उसके बाद शनैः- शनैः वृ को ा होकर उस शरीरका नाश होनेपर मर जाते ह। पुन: कमानुसार दूसरी यो नम ज धारण करते ह। कतु भगवान् का कट और अ धान होना इससे अ वल ण है और वह उनक इ ापर नभर है; वे चाहे जब, चाहे जहाँ, चाहे जस पम कट और अ धान हो सकते ह; एक णम छोटेसे बड़े बन जाते ह और बड़ेसे छोटे बन जाते ह एवं इ ानुसार पका प रवतन कर लेते ह। इसका कारण यह है क वे कृ तसे बँधे नह ह, कृ त ही उनक इ ाका अनुगमन करती है। इस लये जैसे ारहव अ ायम अजुनक ाथनापर भगवान् ने पहले व प धारण कर लया, फर उसे छपाकर वे चतुभुज पसे कट हो गये, उसके बाद मनु प हो गये – इसम जैसे एक पसे कट होना और दूसरे पको छपा लेना, ज ना- मरना नह है – उसी कार भगवान् का कसी भी पम कट होना और उसे छपा लेना ज ना- मरना नह है, के वल लीलामा है। – भगवान् ीकृ का ज तो माता देवक के गभसे साधारण मनु क भाँ त ही आ होगा, फर लोग के ज म और भगवान् के कट होनेम ा भेद रहा? उ र – ऐसी बात नह है। ीम ागवतका वह करण देखनेसे इस शंकाका अपनेआप ही समाधान हो जायगा। वहाँ बतलाया गया है क उस समय माता देवक ने अपने स ुख शंख, च , गदा और प धारण कये ए चतुभुज द देव पसे कट भगवान् को देखा और उनक ु त क । फर माता देवक क ाथनासे भगवान् ने शशु प धारण कया। अत: उनका ज साधारण मनु क भाँ त माता देवक के गभसे नह आ, वे अपने- आप ही कट ए थे। ज धारणक लीला करनेके लये ऐसा भाव दखलाया गया था मानो साधारण मनु क भाँ त भगवान् दस महीन तक माता देवक के गभम रहे और समयपर उनका ज आ। स – इस कार भगवान् के मुखसे उनके ज का त सुननेपर यह ज ासा होती है क आप कस - कस समय और कन - कन कारण से इस कार अवतार धारण करते ह। इसपर भगवान् दो ोक म अपने अवतारके अवसर हेतु और उ े बतलाते ह – यदा यदा ह धम ा नभव त भारत । अ ु ानमधम तदा ानं सृजा हम् ॥७॥ [15]

हे भारत ! जब - जब धमक हा न और अधमक वृ होती है, तब - तब ही म अपने पको रचता ँ अथात् साकार पसे लोग के स ुख कट होता ँ ॥ ७॥

– ' यदा ' पदका दो बार योग करके ा भाव दखलाया गया है? उ र – भगवान् के अवतारका कोई न त समय नह होता क अमुक युगम, अमुक वषम, अमुक महीनेम और अमुक दन भगवान् कट ह गे; तथा यह भी नयम नह है क एक युगम कतनी बार कस पम भगवान् कट ह गे। इसी बातको करनेके लये यहाँ ' यदा '

पदका दो बार योग कया गया है। अ भ ाय यह है क धमक हा न और अधमक वृ के कारण जब जस समय भगवान् अपना कट होना आव क समझते ह; तभी कट हो जाते। – वह धमक हा न और पापक वृ कस कारक होती है जसके होनेपर भगवान् अवतार धारण करते ह? उ र – कस कारक धम- हा न और पाप- वृ होनेपर भगवान् अवतार हण करते है उसका प वा वम भगवान् ही जानते ह; मनु इसका पूण नणय नह कर सकता। पर अनुमानसे ऐसा माना जा सकता है क ऋ षक , धा मक, ई र ेमी, सदाचारी पु ष तथा नरपराधी, नबल ा णय पर बलवान् और दुराचारी मनु का अ ाचार बढ़ जाना तथा उसके कारण लोग म सद् गुण और सदाचारका अ ास होकर दुगुण और दुराचारका अ धक फै ल जाना ही धमक हा न और अधमक वृ का प है। स युगम हर क शपुके शासनम जब दुगुण और दुराचार क वृ हो गयी, नरपराधी लोग सताये जाने लगे, लोग के ान, जप, तप, पूजा, पाठ, य , दाना द शुभ कम एवं उपासना बलात् बंद कर दये गये, देवता को मार- पीटकर उनके ान से नकाल दया गया, ाद- जैसे भ को बना अपराध नाना कारके क दये गये, उसी समय भगवान् ने नृ सह प धारण कया था और भ ादका उ ार करके धमक ापना क थी। इसी कार दूसरे अवतार म भी पाया जाता है। प र ाणाय साधूनां वनाशाय च दु ृ ताम् । धमसं ापनाथाय स वा म युगे युगे ॥८॥

साधु पु ष का उ ार करनेके लये , पाप - कम करनेवाल का वनाश करनेके लये और धमक अ ी तरहसे ापना करनेके लये म युग - युगम कट आ करता ँ ॥ ८॥

–'

साधु' श यहाँ कै से मनु का वाचक है और उनका प र ाण या उ ार

करना ा है? उ र – जो पु ष अ हसा, स , अ ेय, चय आ द सम सामा धम का तथा य , दान, तप एवं अ ापन, जापालन आ द अपने- अपने वणा म- धम का भलीभाँ त पालन करते ह; दूसर का हत करना ही जनका भाव है; जो सद् गुण के भ ार और सदाचारी ह तथा ा और ेमपूवक भगवान् के नाम, प, गुण, भाव, लीला दके वण, क तन, रण आ द करनेवाले भ ह – उनका वाचक यहाँ ' साधु' श है। ऐसे पु ष पर जो

दु - दुराचा रय के ारा भीषण अ ाचार कये जाते ह – उन अ ाचार से उ सवथा मु कर देना, उनको उ म ग त दान करना, अपने दशन आ दसे उनके सम सं चत पाप का समूल वनाश करके उनका परम क ाण कर देना, अपनी द लीलाका व ार करके उनके वण, मनन, च न और क तन आ दके ारा सुगमतासे लोग के उ ारका माग खोल देना आ द सभी बात साधु पु ष का प र ाण अथात् उ ार करनेके अ गत ह। – यहाँ ' द ु ृ ताम् ' पद कै से मनु का वाचक है और उनका वनाश करना ा है? उ र – जो मनु नरपराध, सदाचारी और भगवान् के भ पर अ ाचार करनेवाले ह; जो झूठ, कपट, चोरी, भचार आ द दुगुण और दुराचारीके भ ार ह; जो नाना कारसे अ ाय करके धनका सं ह करनेवाले तथा ना क ह; भगवान् और वेद- शा का वरोध करना ही जनका भाव हो गया है – ऐसे आसुर भाववाले दु पु ष का वाचक यहाँ ' द ु ृ ताम् ' पद है। ऐसे दु कृ तके दुराचारी मनु क बुरी आदत छु ड़ानेके लये या उ पाप से मु करनेके लये उनको कसी कारका द देना, यु के ारा या अ कसी कारसे उनका इस शरीरसे स - व ेद करना या करा देना आ द सभी बात उनका वनाश करनेके अ गत ह। – भगवान् तो परम दयालु ह; वे उन दु को समझा- बुझाकर उनके भावका सुधार नह कर देत?े उनको इस कारका द देते ह? उ र – उनको द देने और मार डालनेम ( आसुर शरीरसे उनका स - व ेद करानेम) भी भगवान् क दया भरी है, क उस द और मृ ु ारा भी भगवान् उनके पाप का नाश ही करते ह। भगवान् के द - वधानके स म यह कभी न समझना चा हये क उससे भगवान् क दयालुताम कसी कारक जरा- सी भी ु ट आती है। जैसे अपने ब ेके हाथ, पैर आ द कसी अंगम फोड़ा हो जानेपर माता- पता पहले औषधका योग करते ह; पर जब यह मालूम हो जाता है क अब औषधसे इसका सुधार न होगा, देर करनेसे इसका जहर दूसरे अंग म भी फै ल जायगा, तब वे तुरंत ही अ अंग को बचानेके लये उस दू षत हाथ- पैर आ दका आपरेशन करवाते ह और आव कता होनेपर उसे कटवा भी देते ह। इसी कार भगवान् भी दु क दु ता दूर करनेके लये पहले उनको नी तके अनुसार दुय धनको समझानेक भाँ त समझानेक चे ा करते ह, द का भय भी दखलाते ह; पर जब इससे काम नह चलता, उनक दु ता बढ़ती ही जाती है, तब उनको द देकर या मरवाकर उनके पाप का फल भुगताते ह अथवा जनके पूवसं चत कम अ े होते ह, कतु कसी वशेष न म से या कु संगके कारण जो इस ज म दुराचारी हो जाते ह, उनको अपने ही हाथ मारकर भी मु कर देते ह। इन सभी या म भगवान् क दया भरी रहती है। – धमक ापना करना ा है?

उ र – यं शा ानुकूल आचरणकर, व भ कारसे धमका मह दखलाकर और लोग के दय म वेश करनेवाली अ तम भावशा लनी वाणीके ारा उपदेश- आदेश देकर सबके अ ःकरणम वेद, शा , परलोक, महापु ष और भगवान् पर ा उ कर देना तथा सद् गुण म और सदाचार म व ास तथा ेम उ करवाकर लोग म इन सबको ढ़तापूवक भलीभाँ त धारण करा देना आ द सभी बात धमक ापनाके अ गत ह। – साधु का प र ाण, दु का संहार और धमक ापना – इन तीन क एक साथ आव कता होनेपर ही भगवान् का अवतार होता है या कसी एक या दो न म से भी हो सकता है? उ र – ऐसा नयम नह है क तीन ही कारण एक साथ उप त होनेपर ही भगवान् अवतार धारण कर; कसी भी एक या दो उ े क पू तके लये भी भगवान् अवतार धारण कर सकते ह। – भगवान् तो सवश मान् ह, वे बना अवतार लये भी तो ये सब काम कर सकते ह; फर अवतारक ा आव कता है? उ र – यह बात सवथा ठीक है क भगवान् बना ही अवतार लये अनायास ही सब कु छ कर सकते ह और करते भी ह, कतु लोग पर वशेष दया करके अपने दशन, श और भाषणा दके ारा सुगमतासे लोग को उ ारका सुअवसर देनेके लये एवं अपने ेमी भ को अपनी द लीला दका आ ादन करानेके लये भगवान् साकार पसे कट होते ह। उन अवतार म धारण कये ए पका तथा उनके गुण, भाव, नाम, माहा और द कम का वण, क तन और रण करके लोग सहज ही संसार- समु से पार हो सकते ह। यह काम बना अवतारके नह हो सकता। – म युग- युगम कट होता ँ , इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे भगवान् ने यह दखलाया है क म ेक युगम जब- जब युगधमक अपे ा धमक हा न अ धक हो जाती है तब- तब आव कतानुसार बार- बार कट होता ँ ; एक युगम एक बार ही होता ँ – ऐसा कोई नयम नह है। स – इस कार भगवान् अपने द ज के अवसर हेतु और उ े का वणन करके अब उन ज क और उनम कये जानेवाले कम क द ताको त से जाननेका फल बतलाते ह – ज कम च मे द मेवं यो वे त तः । ा देहं पुनज नै त मामे त सोऽजुन ॥९॥ हे अजुन ! मेरे ज और कम द अथात् नमल और अलौ कक ह – इस कार जो मनु त से जान लेता है, वह शरीरको ागकर फर ज को ा नह होता , कतु मुझे ही ा होता है॥९॥

– भगवान् का ज द र – सवश मान् पूण

है, इस बातको त से समझना ा है? उ परमे र वा वम ज और मृ ुसे सवथा अतीत ह। उनका ज जीव क भाँ त नह है, वे अपने भ पर अनु ह करके अपनी द लीला के ारा उनके मनको अपनी ओर आक षत करनेके लये दशन, श और भाषणा दके ारा उनको सुख प ँ चानेके लये, संसारम अपनी द क त फै लाकर उसके वण, क तन और रण ारा लोग के पाप का नाश करनेके लये तथा जगत् म पापाचा रय का वनाश करके धमक ापना करनेके लये ज - धारणक के वल लीलामा करते ह। उनका वह ज नद ष और अलौ कक है, जगत् का क ाण करनेके लये ही भगवान् इस कार मनु ा दके पम लोग के सामने कट होते ह; उनका वह व ह ाकृ त उपादान से बना आ नह होता – वह द , च य, काशमान, शु और अलौ कक होता है; उनके ज म गुण और कम- सं ार हेतु नह होते; वे मायाके वशम होकर ज धारण नह करते, कतु अपनी कृ तके अ ध ाता होकर योगश से मनु ा दके पम के वल लोग पर दया करके ही कट होते ह – इस बातको भलीभाँ त समझ लेना अथात् इसम क च ा भी अस ावना और वपरीत भावना न रखकर पूण व ास करना और साकार पम कट भगवान् को साधारण मनु न समझकर सवश मान्, सव र, सवा यामी सा ात् स दान घन पूण परमा ा समझना भगवान् के ज को त से द समझना है। इस अ ायके छठे ोकम यही बात समझायी गयी है। सातव अ ायके चौबीसव और पचीसव ोक म और नव अ ायके ारहव तथा बारहव ोक म इस त को न समझकर भगवान् को साधारण मनु समझनेवाल क न ा क गयी है एवं दसव अ ायके तीसरे ोकम इस त को समझनेवालेक शंसा क गयी है। जो पु ष इस कार भगवान् के ज क द ताको त से समझ लेता है, उसके लये भगवान् का एक णका वयोग भी अस हो जाता है। भगवान् म परम ा और अन ेम होनेके कारण उसके ारा भगवान् का अन - च न होता रहता है। – भगवान् के कम द ह, इस बातको त से समझना ा है? उ र – भगवान् सृ - रचना और अवतार- लीला द जतने भी कम करते ह, उनम उनका क च ा भी ाथका स नह है; के वल लोग पर अनु ह करनेके लये ही वे मनु ा द अवतार म नाना कारके कम करते ह ( ३।२२- २३) । भगवान् अपनी कृ त ारा सम कम करते ए भी उन कम के त कतृ भाव न रहनेके कारण वा वम न तो कु छ भी करते ह और न उनके ब नम पड़ते ह। भगवान् क उन कम के फलम क च ा भी ृहा नह होती ( ४।१३- १४)। भगवान् के ारा जो कु छ भी चे ा होती है, लोक हताथ ही होती है ( ४। ८); उनके ेक कमम लोग का हत भरा रहता है। वे अन को ट ा के ामी होते ए भी सवसाधारणके साथ अ भमानर हत दया और ेमपूण समताका वहार करते ह ( ९।२९); जो कोई मनु जस कार उनको भजता है, वे यं उसे उसी कार भजते ह ( ४।११) ; अपने

अन भ का योग ेम भगवान् यं चलाते ह ( ९।२२), उनको द ान दान करते ह ( १०।१०- ११) और भ पी नौकापर बैठे ए भ का संसारसमु से शी ही उ ार करनेके लये यं उनके कणधार बन जाते ह ( १२।७) । इस कार भगवान् के सम कम आस , अहंकार और कामना द दोष से सवथा र हत नमल और शु तथा के वल लोग का क ाण करने एवं नी त, धम, शु ेम और भ आ दका जगत् म चार करनेके लये ही होते ह; इन सब कम को करते ए भी भगवान् का वा वम उन कम से कु छ भी स नह है, वे उनसे सवथा अतीत और अकता ह – इस बातको भलीभाँ त समझ लेना, इसम क च ा भी अस ावना या वपरीत भावना न रहकर पूण व ास हो जाना ही भगवान् के कम को त से द समझना है। इस कार जान लेनेपर उस जाननेवालेके कम भी शु और अलौ कक हो जाते ह –   अथात् फर वह भी सबके साथ दया, समता, धम, नी त, वनय और न ाम ेम- भावका बताव करता है। – भगवान् के ज और कम दोन क द ताको समझ लेनेसे भगवान् क ा होती है या इनमसे कसी एकक द ताके ानसे भी हो जाती है? उ र – दोन मसे कसी एकक द ता जान लेनेसे ही भगवान् क ा हो जाती है ( ४।१४; १०।३); फर दोन क द ता समझ लेनेसे हो जाती है; इसम तो कहना ही ा है। – इस कार जाननेवाला पुनज को नह ा होता, मुझे ही ा होता है – इस कथनका ा भाव है? उ र – वह पुनज को न ा होकर कस भावको ा होता है; उसक कै सी त होती है – इस ज ासाक पू तके लये भगवान् ने यह कहा है क वह मुझको ( भगवान् को) ही ा होता है और जो भगवान् को ा हो गया उसका पुनज नह होता, यह स ा ही है ( ८।१६) । – यहाँ ज - कम क द ता जाननेवालेको शरीर- ागके बाद भगवान् क ा होनेक बात कही गयी; तो ा उसे इसी ज म भगवान् नह मलते? उ र – इस ज म नह मलते, ऐसी बात नह है। वह भगवान् के ज - कम क द ताको जस समय पूणतया समझ लेता है, व ुत: उसी समय उसे भगवान् मल जाते ह; पर मरनेके बाद उसका पुनज नह होता, वह भगवान् के परम धामको चला जाता है – यह वशेष भाव दखलानेके लये यहाँ यह बात कही गयी है क वह शरीर- ागके बाद मुझे ही ा होता है। स – इस कार भगवान् के ज और कम को त से द समझ लेनेका जो फल बतलाया गया है, वह अना द पर रासे चला आ रहा है – इस बातको करनेके लये

भगवान् कहते ह –

वीतरागभय ोधा म या मामुपा ताः । बहवो ानतपसा पूता म ावमागताः ॥१०॥

पहले भी , जनके राग , भय और ोध सवथा न हो गये थे और जो मुझम अन ेमपूवक त रहते थे , ऐसे मेरे आ त रहनेवाले ब त - से भ उपयु ान प तपसे प व होकर मेरे पको ा हो चुके ह॥ १०॥

– ' वीतरागभय ोधाः ' पद कै से पु ष का वाचक है और यहाँ इस वशेषणके योगका ा भाव है? उ र – आस का नाम राग है; कसी कारके दुःखक स ावनासे जो अ ःकरणम घबड़ाहट होती है, उस वकारका नाम ' भय' है और अपना अपकार करनेवालेपर तथा नी तव या अपने मनके व बताव करनेवालेपर होनेवाले उ ेजनापूण भावका नाम ' ोध' है; इन तीन वकार का जन पु ष म सवथा अभाव हो गया हो, उनका वाचक ' वीतरागभय ोधा:'

पद है। भगवान् के द ज और कम का त समझ लेनेवाले मनु का भगवान् म अन ेम हो जाता है, इस लये भगवान् को छोड़कर उनक कसी भी पदाथम जरा भी आस नह रहती; भगवान् का त समझ लेनेसे उनको सव भगवान् का अनुभव होने लगता है और सव भगवद् बु हो जानेके कारण वे सदाके लये सवथा नभय हो जाते ह; उनके साथ कोई कै सा भी बताव न करे, उसे वे भगवान् क इ ासे ही आ समझते ह और संसारक सम घटना को भगवान् क लीला समझते ह – अतएव कसी भी न म से उनके अ ःकरणम ोधका वकार नह होता। इस कार भगवान् के ज और कम का त जाननेवाले भ म भगवान् क दयासे सब कारके दुगुण का सवथा अभाव होता है, यही भाव दखलानेके लये यहाँ ' वीतरागभय ोधा : ' वशेषणका योग कया गया है। – ' म या : ' का ा भाव है? उ र – भगवान् म अन ेम हो जानेके कारण जनको सव एक भगवान्- हीभगवान् दीखने लग जाते ह, उनका वाचक ' म या : ' पद है। इस वशेषणका योग करके यहाँ यह भाव दखलाया गया है क जो भगवान् के ज और कम को द समझकर भगवान् को पहचान लेते ह, उन ानी भ का भगवान् म अन ेम हो जाता है; अत: वे नर र भगवान् म त य हो जाते ह और सव भगवान् को ही देखते ह। – ' मामुपा ताः ' का ा भाव है? उ र – जो भगवान् क शरण हण कर लेते ह, सवथा उनपर नभर हो जाते ह, सदा उनम ही स ु रहते ह, जनका अपने लये कु छ भी कत नह रहता और जो सब कु छ भगवान् का समझकर उनक आ ाका पालन करनेके उ े से उनक सेवाके पम ही सम कम करते ँ

ह – ऐसे पु ष का वाचक ' मामुपा ताः ' पद है। इस वशेषणका योग करके यहाँ यह भाव दखलाया गया है क भगवान् के ानी भ सब कारसे उनके शरणाप होते ह, वे सवथा उ पर नभर रहते ह, शरणाग तके सम भाव का उनम पूण वकास होता है। – ' ानतपसा ' पदका अथ आ ान प तप न मानकर भगवान् के ज कम का ान माननेका ा अ भ ाय है और उस ानतपसे प व होकर भगवान् के पको ा हो जाना ा है? उ र – यहाँ सां योगका संग नह है, भ का करण है तथा पूव ोकम भगवान् के ज - कम को द समझनेका फल भगवान् क ा बतलाया गया है; उसीके माणम यह ोक है। इस कारण यहाँ ' ानतपसा ' पदम ानका अथ आ ान न मानकर भगवान् के ज कम को द समझ लेना प ान ही माना गया है। इस ान प तपके भावसे मनु का भगवान् म अन ेम हो जाता है, उसके सम पाप- ताप न हो जाते ह, अ ःकरणम सब कारके दुगुण का सवथा अभाव हो जाता है और सम कम भगवान् के कम क भाँ त द हो जाते ह, तथा वह कभी भगवान् से अलग नह होता, उसको भगवान् सदा ही रहते ह – यही उन भ का ान प तपसे प व होकर भगवान् के पको ा हो जाना है। स – पूव ोक म भगवान् ने यह बात कही क मेरे ज और कम को जो द समझ लेते ह, उन अन ेमी भ को मेरी ा हो जाती है; इसपर यह ज ासा होती है क उनको आप कस कार ओर कस पम मलते ह? इसपर कहते ह – ये यथा मां प े तां थैव भजा हम् । मम व ानुवत े मनु ाः पाथ सवशः ॥११॥ हे अजुन! जो भ मुझे जस कार भजते ह, म भी उनको उसी कार भजता ँ ; क सभी मनु सब कारसे मेरे ही मागका अनुसरण करते ह ॥११॥ – जो भ मुझे जस कार भजते ह, म भी उनको उसी कार भजता ँ – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क मेरे भ के भजनके कार भ भ होते ह। अपनी- अपनी भावनाके अनुसार भ मेरे पृथक् - पृथक् प मानते ह और अपनी- अपनी मा ताके अनुसार मेरा भजन- रण करते ह, अतएव म भी उनको उनक भावनाके अनुसार उन- उन प म ही दशन देता ँ । ी व ु पक उपासना करनेवाल को ी व ु पम, ीराम पक उपासना करनेवाल को ीराम पम, ीकृ पक उपासना करनेवाल को ीकृ पम ी शव पक उपासना करनेवाल को ी शव पम, देवी पक उपासना करनेवाल को देवी पम और नराकार सव ापी पक उपासना करनेवाल को ँ

नराकार सव ापी पम मलता ँ ; इसी कार जो म , क प, नृ सह वामन आ द अ ा प क उपासना करते ह – उनको उन- उन प म दशन देकर उनका उ ार कर देता ँ । इसके अ त र वे जस कार जस- जस भावसे मेरी उपासना करते ह, म उनके उस- उस कार और उस- उस भावका ही अनुसरण करता ँ । जो मेरा च न करता है उसका म च न करता ँ । जो मेरे लये ाकु ल होता है उसके लये म भी ाकु ल हो जाता ँ । जो मेरा वयोग सहन नह कर सकता, म भी उसका वयोग नह सहन कर सकता । जो मुझे अपना सव अपण कर देता है म भी उसे अपना सव अपण कर देता ँ । जो ाल- बाल क भाँ त मुझे अपना सखा मानकर मेरा भजन करते ह, उनके साथ म म के - जैसा वहार करता ँ । जो न - यशोदाक भाँ त पु मानकर मेरा भजन करते ह, उनके साथ पु के जैसा बताव करके उनका क ाण करता ँ । इसी कार णीक तरह प त समझकर भजनेवाल के साथ प त- जैसा, हनुमान् क भा त ामी समझकर भजनेवाल के साथ ामी- जैसा और गो पय क भाँ त माधुयभावसे भजनेवाल के साथ यतम- जैसा बताव करके म उनका क ाण करता ँ और उनको द लीला- रसका अनुभव कराता ँ । – मनु सब कारसे मेरे ही मागका अनुसरण करते ह, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे भगवान् ने यह दखलाया है क लोग मेरा अनुसरण करते ह इस लये य द म इस कार ेम और सौहादका बताव क ँ गा तो दूसरे लोग भी मेरी देखा- देखी ऐसे ही नः ाथ- भावसे एक- दूसरेके साथ यथायो ेम और सहताका बताव करगे। अतएव इस नी तका जगत् म चार करनेके लये भी ऐसा करना मेरा कत है क जगत् म धमक ापना करनेके लये ही मने अवतार धारण कया है ( ४।८) । स – य द यह बात है तो फर लोग भगवान् को न भजकर अ देवता क उपासना करते ह ? इसपर कहते ह – काङ् ः कमणां स यज इह देवताः । ं ह मानुषे लोके स भव त कमजा ॥१२॥ ह;

इस मनु लोकम कम के फलको चाहनेवाले लोग देवता का पूजन कया करते क उनको कम से उ होनेवाली स शी मल जाती है॥ १२॥

– ' इह मानुषे लोके ' का ा अ भ ाय है? उ र – य ा द कम ारा इ ा द देवता क उपासना करनेका अ धकार मनु यो नम ही है, अ यो नय म नह – यह भाव दखलानेके लये यहाँ ' इह ' और ' मानुषे ' के स हत ' लोके ' पदका योग कया गया है।

– कम का फल चाहनेवालेलोग देवता का पूजन कया करते ह, क उनको कम से उ होनेवाली स शी मल जाती है – इस वा का ा भाव है? उ र – इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क जनक सांसा रक भोग म आस है; जो अपने कये ए कम का फल ी, पु , धन, मकान या मान- बड़ाई पम ा करना चाहते ह – उनका ववेक- ान नाना कारक भोग- वासना से ढका रहनेके कारण वे मेरी उपासना न करके , कामना- पू तके लये इ ा द देवता क ही उपासना कया करते ह ( ७। २०, २१, २२; ९।२३, २४); क उन देवता का पूजन करनेवाल को उनके कम का फल तुरंत मल जाता है। देवता का यह भाव है क वे ाय: इस बातको नह सोचते क उपासकको अमुक व ु देनेम उसका वा वक हत है या नह ; वे देखते ह कमानु ानक व धवत् पूणता। सांगोपांग अनु ान स होनेपर वे उसका फल, जो उनके अ धकारम होता है और जो उस कमानु ानके फल पम व हत है, दे ही देते ह। कतु म ऐसा नह करता, म अपने भ का वा वक हत- अ हत सोचकर उनक भ के फलक व ा करता ँ । मेरे भ

य द सकामभावसे भी मेरा भजन करते ह तो भी म उनक उसी कामनाको पूण करता ँ जसक पू तसे उनका वषय से वैरा होकर मुझम ेम और व ास बढ़ता है। अतएव सांसा रक मनु को मेरी भ का फल शी मलता आ नह दीखता और इसी लये वे म बु मनु कम का फल शी ा करनेक इ ासे अ देवता का ही पूजन कया करते ह। स – नव ोकम भगवान् के द ज और कम को त से जननेका फल भगवान् क ा बतलाया गया। उसके पूव भगवान् के ज क द ताका वषय तो भलीभाँ त समझाया गया, कतु भगवान् के कम क द ताका वषय नह आ; इस लये अब भगवान् दो ोक म अपने सृ - रचना द कम म कतापन, वषमता और ृहाका अभाव दखलाकर उन कम क द ताका वषय समझाते ह – चातुव मया सृ ं गुणकम वभागशः । त कतारम प मां वद् कतारम यम् ॥१३॥ ा ण, य , वै और शू – इन चार वण का समूह गुण और कम के वभागपूवक मेरे ारा रचा गया है। इस कार उस सृ - रचना द कमका कता होनेपर भी मुझ अ वनाशी परमे रको तू वा वम अकता ही जान॥ १३॥

रचना क

– गुणकम ा है और उसके वभाग- पूवक भगवान् गयी है, इस कथनका ा अ भ ाय है?

ारा चार वण के समूहक

उ र – अना दकालसे जीव के जो ज - ज ा र म कये ए कम ह, जनका फलभोग नह हो गया है, उ के अनुसार उनम यथायो स , रज और तमोगुणक ूना धकता होती है। भगवान् जब सृ - रचनाके समय मनु का नमाण करते ह, तब उन-

उन गुण और कम के अनुसार उ ा णा द वण म उ करते ह। अथात् जनम स गुण अ धक होता है उ ा ण बनाते है, जनम स म त रजोगुणक अ धकता होती है उ य, जनम तमो म त रजोगुण अ धक होता है उ वै और जो रजो म त तमः धान होते ह उ शू बनाते ह। इस कार रचे ए वण के लये उनके भावके अनुसार पृथक् पृथक् कम का वधान भी भगवान् ही कर देते ह – अथात् ा ण शम- दमा द कम म रत रह, यम शौय- तेज आ द ह , वै कृ ष- गोर ाम लग और शू सेवापरायण ह ऐसा कहा गया है ( १८।४१- ४४) । इस कार गुणकम वभागपूवक भगवान् के ारा चतुवणक रचना होती है। यही व ा जगत् म बराबर चलती है। जबतक वणशु बनी रहती है, एक ही वणके ी- पु ष के संयोगसे स ान उ होती है, व भ वण के ी- पु ष के संयोगसे वणम संकरता नह आती, तबतक इस व ाम कोई गड़बड़ी नह होती। गड़बड़ी होनेपर भी वण व ा ूना धक पम रहती ही है। यहाँ कम और उपासनाका करण है। उसम के वल मनु का ही अ धकार है, इसी लये यहाँ मनु को उपल ण बनाकर कहा गया है। अतएव यह भी समझ लेना चा हये क देव, पतर और तयक् आ द दूसरी- दूसरी यो नय क रचना भी भगवान् जीव के गुण और कम के अनुसार ही करते ह। इस लये इन सृ - रचना द कम म भगवान् क क च ा भी वषमता नह है, यही भाव दखलानेके लये यहाँ यह बात कही गयी है क मेरे ारा चार वण क रचना उनके गुण और कम के वभागपूवक क गयी है। – ा णा द वण का वभाग ज से मानना चा हये या कमसे? उ र – य प ज और कम दोन ही वणके अंग होनेके कारण वणक पूणता तो दोन से ही होती है परंतु धानता ज क है इस लये ज से ही ा णा द वण का वभाग मानना चा हये; क इन दोन म धानता ज क ही है। य द माता- पता एक वणके ह और कसी कारसे भी ज म संकरता न आवे तो सहज ही कमम भी ाय: संकरता नह आती। परंतु संगदोष, आहारदोष और दू षत श ा- दी ा द कारण से कमम कह कु छ त म भी हो जाय तो ज से वण माननेपर वणर ा हो सकती है। तथा प कम- शु क कम आव कता नह है। कमके सवथा न हो जानेपर वणक र ा ब त ही क ठन हो जाती है। अत: जी वका और ववाहा द वहारके लये तो ज क धानता तथा क ाणक ा म कमक धानता माननी चा हये; क जा तसे ा ण होनेपर भी य द उसके कम ा णो चत नह ह तो उसका क ाण नह हो सकता तथा सामा धमके अनुसार शमदमा दका पालन करनेवाला और अ े आचरणवाला शू भी य द ा णो चत य ा द कम करता है और उससे अपनी जी वका चलाता है तो पापका भागी होता है। – इस समय जब क वण व ा न हो गयी है, तब ज से वण न मानकर मनु के आचरण के अनुसार ही उनके वण मान लये जायँ तो ा हा न है?

उ र – ऐसा मानना उ चत नह है, क थम तो वण व ाम कु छ श थलता आनेपर भी वह न नह ई है, दूसरे जीव का कमफल भुगतानेके लये ई र ही उनके पूवकमानुसार उ व भ वण म उ करते ह। ई रके वधानको बदलनेका मनु म अ धकार नह है। तीसरे आचरण देखकर वणक क ना करना भी अस व ही है। एक ही माता- पतासे उ बालक के आचरण म बड़ी व भ ता देखी जाती है, एक ही मनु दनभरम कभी ा णका- सा तो कभी शू का- सा कम करता है, ऐसी अव ाम वणका न य कै से हो सके गा? फर ऐसा होनेपर नीचा कौन बनना चाहेगा? खान- पान और ववाहा दम अड़चन पैदा ह गी, फलत: वण व व हो जायगा और वण व ाक तम बड़ी भारी बाधा उप त हो जायगी। अतएव के वल कमसे वण नह मानना चा हये। – चौदहव अ ायम भगवान् ने स गुणम त या स गुणक वृ म मरनेवाल को देवलोकक , राजस- भाव या रजोगुणक वृ म मरनेवाल को मनु यो नक एवं तमोगुणी भाववाल या तमोगुणक वृ म मरनेवाल को तयक् - यो नक ा बतलायी है; अत: यहाँ स धानको ा ण, रजः धानको य आ द –   इस कार वभाग मान लेनेसे उस कथनके साथ वरोध आता है? उ र – वा वम कोई वरोध नह है। राजस- भाववाल और रजोगुणक वृ म मरनेवाल को मनु यो नक ा होती है यह स है। इससे मनु यो नक रजोगुणधानता सू चत होती है, परंतु रजोगुण धान मनु यो नम सभी मनु समान गुणवाले नह होते। उनम गुण के अवा र भेद होते ही ह और उसीके अनुसार जो स गुण धान होता है उसका ा णवणम, स म त रजः धानका यवणम, तमो म त रजः धानका वै वणम, रजो म त तमः धानका शू वणम और स - रजके वकाससे र हत के वल तमः धानका उससे भी न को टक यो नय म ज होता है। – नव अ ायके दसव ोकम तो भगवान् ने अपनी कृ तको सम जगत् क रचनेवाली बतलाया है और यहाँ यं अपनेको सृ का रच यता बतलाते ह – इसम जो वरोध तीत होता है, उसका ा समाधान है? उ र – इसम कोई वरोध नह है। उस ोकम भी के वल कृ तको जगत् क रचना करनेवाली नह बतलाया है, अ पतु भगवान् क अ ताम कृ त जगत् क रचना करती है – ऐसा कहा गया है। क कृ त जड होनेके कारण उसम भगवान् क सहायताके बना गुणकम का वभाग करने और सृ के रचनेका साम ही नह है। अतएव गीताम जहाँ कृ तको रचनेवाली बतलाया है, वहाँ यह समझ लेना चा हये क भगवान् के सकाशसे उनक अ ताम ही कृ त जगत् क रचना करती है। और जहाँ भगवान् को सृ का रच यता बतलाया गया है, वहाँ यह समझ लेना चा हये क भगवान् यं नह रचते, अपनी कृ तके ारा ही वे रचना करते ह।

जगत् के रचना द कम का कता होनेपर भी ' तू मुझे अकता ही जान' इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे भगवान् के कम क द ताका भाव कट कया गया है। अ भ ाय यह है क भगवान् का कसी भी कमम राग- ेष या कतापन नह होता। वे सदा ही उन कम से सवथा अतीत ह, उनके सकाशसे उनक कृ त ही सम कम करती है। इस कारण लोक वहारम भगवान् उन कम के कता माने जाते ह; वा वम भगवान् सवथा उदासीन ह, कम से उनका कु छ भी स नह है ( ९।९- १०) – यही भाव दखलानेके लये भगवान् ने यह बात कही है। जब फलास और कतापनसे र हत होकर कम करनेवाले ानी भी कम के कता नह समझे जाते और उन कम के फलसे उनका स नह होता, तब फर भगवान् क तो बात ही ा है; उनके कम तो सवथा अलौ कक ही होते ह। न मां कमा ण ल न मे कमफले ृहा । इ त मां योऽ भजाना त कम भन स ब ते ॥१४॥ कम के फलम मेरी ृहा नह है, इस लये मुझे कम ल नह करते – इस कार जो मुझे त से जान लेता है वह भी कम से नह बँधता॥१४॥ – कम से ल होना ा है? तथा कम के फलम मेरी ृहा नह है इस लये मुझे कम ल नह करते – इस कथनसे भगवान् ने ा भाव दखलाया है। उ र – कम करनेवाले मनु म ममता, आस फले ा और अहंकार रहनेके कारण उसके ारा कये ए कम सं ार पसे उसके अ ःकरणम सं चत हो जाते ह तथा उनके अनुसार उसे पुनज क और सुख- दुःख क ा होती है – यही उसका उन कम से ल होना है। यहाँ भगवान् उपयु कथनसे यह भाव दखलाते ह क कम के फल प कसी भी भोगम मेरी जरा भी ृहा नह है – अथात् मुझे कसी भी व ुक कु छ भी अपे ा नह है ( ३। २२) । मेरे ारा जो कु छ भी कम होते ह – सब ममता, आस , फले ा और कतापनके बना के वल लोक हताथ ही होते ह ( ४।८); मेरा उनसे कु छ भी स नह होता। इस कारण मेरे सम कम द ह और इसी लये वे मुझे ल नह करते अथात् ब नम नह डालते। – उपयु कारसे भगवान् को त से जानना ा है और इस कारसे जाननेवाला मनु कम से नह बँधता? उ र – उपयु वणनके अनुसार जो यह समझ लेना है क व - रचना द सम कम करते ए भी भगवान् वा वम अकता ही ह –   उन कम से उनका कु छ भी स नह है; उनके कम म वषमता लेशमा भी नह है; कमफलम उनक क च ा भी आस , ममता या कामना नह है अतएव उनको वे कमब नम नह डाल सकते – यही भगवान् को उपयु कारसे त त: जानना है। और इस कार भगवान् के कम का रह यथाथ पसे समझ लेनेवाले महा ाके कम भी भगवान् क ही भाँ त ममता, आस फले ा और अहंकारके ँ –

बना के वल लोकसं हके लये ही होते ह; इसी लये वह भी कम से नह बँधता। अतएव यह समझना चा हये क जन मनु क कम म और उनके फल म कामना, ममता तथा आस है, वे व ुत: भगवान् के कम क द ताको जानते ही नह । स – इस कार भगवान् अपने कम क द ता और उनका त जाननेका मह बतलाकर, अब मुमु ु पु ष के उदाहरणपूवक उसी कार न ामभावसे कम करनेके लये अजुनको आ ा देते ह – एवं ा ा कृ तं कम पूवर प मुमु ु भः । कु कमव त ा ं पूवः पूवतरं कृ तम् ॥१५॥ पूवकालके मुमु ु ने भी इस कार जानकर ही कम कये ह। इस लये तू भी पूवज ारा सदासे कये जानेवाले कम को ही कर॥ १५॥ – ' मुमु 'ु कसको कहते ह तथा पूवकालके मुमु ु का उदाहरण देकर इस ोकम ा बात समझायी गयी है? उ र – जो मनु ज - मरण प संसार- ब नसे मु होकर परमान प परमा ाको ा करना चाहता है, जो सांसा रक भोग को दुःखमय और णभंगुर समझकर उनसे वर हो गया है और जसे इस लोक या परलोकके भोग क इ ा नह है – उसे ' मुमु 'ु कहते ह। अजुन भी मुमु ु थे, वे कमब नके भयसे धम प कत कमका ाग करना चाहते थे; अतएव भगवान् ने इस ोकम पूवकालके मुमु ु का उदाहरण देकर यह बात समझायी है क कम को छोड़ देनेमा से मनु उनके ब नसे मु नह हो सकता; इसी कारण पूवकालके मुमु ु ने भी मेरे कम क द ताका त समझकर मेरी ही भाँ त कम म ममता, आस , फले ा और अहंकारका ाग करके न ामभावसे अपने- अपने वणा मके अनुसार उनका आचरण ही कया है। अतएव तुम भी य द कमब नसे मु होना चाहते हो तो तु भी पूवज मुमु ु क भाँ त न ामभावसे धम प कत - कमका पालन करना ही उ चत है, उसका ाग करना उ चत नह । स – इस कार अजुनको भगवान् ने न ामभावसे कम करनेक आ ा दी। कतु कम - अकमका त समझे बना मनु न ामभावसे कम नह कर सकता; इस लये अब भगवान् ममता, आस , फले ा और अहंकारके बना कये जानेवाले द कम का त भलीभाँ त समझानेके लये कमत क दु व ेयता और उसके जाननेका मह कट करते ए उसे कहनेक त ा करते ह – क कम कमकम त कवयोऽ मो हताः । त े कम व ा म य ा ा मो सेऽशुभात् ॥१६॥ ै





कम ा है ? और अकम ा है ? – इस कार इसका नणय करनेम बु मान् पु ष भी मो हत हो जाते ह। इस लये वह कमत म तुझे भलीभाँ त समझाकर क ँ गा , जसे जानकर तू अशुभसे अथात् कमब नसे मु हो जायगा॥ १६॥

यहाँ ' कवय : ' पद कन पु ष का वाचक है और उनका कम- अकमके नणयम मो हत हो जाना ा है? तथा इस वा म ' अ प ' पदके योगका ा अ भ ाय है? उ र – यहाँ ' कवय : ' पद शा के जाननेवाले बु मान् पु ष का वाचक है। शा म भ - भ या से कमका त समझाया गया है, उसे देख- सुनकर भी बु का इस कार ठीक- ठीक नणय न कर पाना क अमुक भावसे क ई अमुक या अथवा याका ाग तो कम है तथा अमुक भावसे क ई अमुक या या उसका ाग अकम है – यही उनका कम- अकमके नणयम मो हत हो जाना है। इस वा म ' अ प ' पदका योग करके यह भाव दखलाया गया है क जब बड़े- बड़े बु मान् भी इस वषयम मो हत हो जाते ह – ठीक- ठीक नणय नह कर पाते, तब साधारण मनु क तो बात ही ा है? अत: कम का त बड़ा ही दु व ेय है। – यहाँ जस कमत का का वणन करनेक भगवान् ने त ा क है, उसका वणन इस अ ायम कहाँ कया गया है? उसको त से जानना ा है और उसे जानकर कमब नसे मु कै से हो जाती है? उ र – उपयु कमत का वणन इस अ ायम अठारहवसे ब ीसव ोकतक कया गया है; उस वणनसे इस बातको ठीक- ठीक समझ लेना क कस भावसे कया आ कौन- सा कम या कमका ाग मनु के पुनज प ब नका हेतु बनता है और कस भावसे कया आ कौन- सा कम या कमका ाग मनु के पुनज प ब नका हेतु न बनकर मु का हेतु बनता है – यही उसे त से जानना है। इस त को समझनेवाले मनु ारा कोई भी ऐसा कम या कमका ाग नह कया जा सकता जो क ब नका हेतु बन सके ; उसके सभी कत - कम ममता, आस फले ा और अहंकारके बना के वल भगवदथ या लोकसं हके लये ही होते ह। इस कारण उपयु कमत को जानकर मनु कमब नसे मु हो जाता है। स – यहाँ भावतः मनु मान सकता है क शा व हत करनेयो कम का नाम कम है और या का पसे ाग कर देना ही अकम है – इसम मो हत होनेक कौन सी बात है और इ जानना ा है ? कतु इतना जान लेनेमा से ही वा वक कम - अकमका नणय नह हो सकता, कम के त को भलीभाँ त समझनेक आव कता है। इस भावको करनेके लये भगवान् कहते ह – कमणो प बो ं बो ं च वकमणः । –

अकमण बो

ं गहना कमणो ग तः ॥१७॥

कमका प भी जानना चा हये और अकमका प भी जानना चा हये तथा वकमका प भी जानना चा हये ; क कमक ग त गहन है ॥ १७ ॥

– कमका प भी जानना चा हये – इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क साधारणत: मनु यही जानते ह क शा व हत कत - कम का नाम कम है; कतु इतना जान लेनेमा से कमका प नह जाना जा सकता, क उसके आचरणम भावका भेद होनेसे उसके पम भेद हो जाता है। अत: कस भावसे, कस कार क ई कौन- सी याका नाम कम है? एवं कस तम कस मनु को कौन- सा शा व हत कम कस कार करना चा हये – इस बातको शा के ाता त महापु ष ही ठीक- ठीक जानते ह। अतएव अपने अ धकारके अनुसार वणा मो चत कत - कम को आचरणम लानेके लये त वे ा महापु ष ारा उन कम को

समझना चा हये और उनक ेरणा और आ ाके अनुसार उनका आचरण करना चा हये । – अकमका प भी जानना चा हये, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क साधारणत: मनु यही समझते ह क मन, वाणी और शरीर ारा क जानेवाली या का पसे ाग कर देना ही अकम यानी कम से र हत होना है; कतु इतना समझ लेनेमा से अकमका वा वक प नह जाना जा सकता; क भावके भेदसे इस कारका अकम भी कम या वकमके पम बदल जाता है और जसको लोग कम समझते ह वह भी अकम या वकम हो जाता है। अत: कस भावसे कस कार क ई कौन- सी या या उसके ागका नाम अकम है एवं कस तम कस मनु को कस कार उसका आचरण करना चा हये, इस बातको त ानी महापु ष ही ठीकठीक जान सकते ह। अतएव कमब नसे मु होनेक इ ावाले मनु को उन महापु ष से इस अकमका प भी भलीभाँ त समझकर उनके कथनानुसार साधन करना चा हये। – वकमका प भी जानना चा हये, इस कथनका ा भाव हे? उ र – इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क साधारणत: झूठ, कपट, चोरी, भचार, हसा आ द पाप- कम का नाम ही वकम है – यह स है; पर इतना जान लेनेमा से वकमका प यथाथ नह जाना जा सकता, क शा के त को न जाननेवाले अ ानी पु को भी पाप मान लेते ह और पापको भी पु मान लेते ह। वण, आ म और अ धकारके भेदसे जो कम एकके लये व हत होनेसे कत ( कम) है, वही दूसरेके लये न ष होनेसे पाप ( वकम) हो जाता है – जैसे सब वण क सेवा करके जी वका चलाना शू के लये व हत कम है, कतु वही ा णके लये न ष कम है; जैसे दान लेकर, वेद पढ़ाकर और य कराकर जी वका चलाना ा णके लये कत - कम है कतु दूसरे वण के

लये पाप है; जैसे गृह के लये ायोपा जत सं ह करना और ऋतुकालम प ीगमन करना धम है, कतु सं ासीके लये कांचन और का मनीका दशन- श करना भी पाप है। अत: झूठ, कपट, चोरी, भचार, हसा आ द जो सवसाधारणके लये न ष ह तथा अ धकार- भेदसे जो भ - भ य के लये न ष है – उन सबका ाग करनेके लये वकमके पको भलीभाँ त समझना चा हये। इसका प भी त वे ा महापु ष ही ठीकठीक बतला सकते ह। – कमक ग त गहन है, इस कथनका तथा ' ह ' अ यके योगका ा भाव है? उ र –' ह ' अ य यहाँ हेतुवाचक है। इसका योग करके उपयु वा से भगवान् ने यह भाव दखलाया है क कमका त बड़ा ही गहन है। कम ा है? अकम ा है? वकम ा है? – इसका नणय हरेक मनु नह कर सकता; जो व ा- बु क से प त और बु मान् ह, वे भी कभी- कभी इसके नणय करनेम असमथ हो जाते ह। अत: कमके त को भलीभाँ त जाननेवाले महापु ष से इसका त समझना आव क है। स – इस कार ोताके अ ःकरणम च ओर ा उ करनेके लये कमत को गहन एवं उसका जानना आव क बतलाकर अब अपनी त ाके अनुसार भगवान् कमका त समझाते ह – कम कम यः प ेदकम ण च कम यः । स बु मा नु ेषु स यु ः कृ कमकृ त् ॥१८॥ बु

जो मनु कमम अकम देखता है और जो अकमम कम देखता है , वह मनु मान् है ओर वह योगी सम कम को करनेवाला है॥ १८॥



कमम अकम देखना ा है तथा इस कार देखनेवाला मनु म बु मान्, योगी और सम कम करनेवाला कै से है? उ र – लोक स म मन, बु , इ य और शरीरके ापारमा का नाम कम है, उनमसे जो शा व हत कत - कम ह उनको कम कहते ह और शा न ष पापकम को वकम कहते ह। शा न ष पापकम सवथा ा है इस लये उनक चचा यहाँ नह क गयी। अत: यहाँ जो शा व हत कत - कम ह, उनम अकम देखना ा है – इसी बातपर वचार करना है। य , दान, तप तथा वणा मके अनुसार जी वका और शरीर नवाह- स ी जतने भी शा व हत कम ह – उन सबम आस फले ा, ममता और अहंकारका ाग कर देनेसे वे इस लोक या परलोकम सुख- दुःखा द फल भुगतानेके और पुनज के हेतु नह बनते ब मनु के पूवकृ त सम शुभाशुभ कम का नाश करके उसे संसार- ब नसे मु करनेवाले होते है – इस रह को समझ लेना ही कमम अकम देखना है। इस कार कमम –

अकम देखनेवाला मनु आस , फले ा और ममताके ागपूवक ही व हत कम का यथायो आचरण करता है। अत: वह कम करता आ भी उनसे ल नह होता, इस लये वह मनु म बु मान् है; वह परमा ाको ा है, इस लये योगी है और उसे कोई भी कत शेष नह रहता – वह कृ तकृ हो गया है, इस लये वह सम कम को करनेवाला है। – अकमम कम देखना ा है? तथा इस कार देखनेवाला मनु म बु मान् योगी और सम कम करनेवाला कै से है? उ र – लोक स म मन, वाणी और शरीरके ापारको ाग देनेका ही नाम अकम है; यह ाग प अकम भी आस फले ा, ममता और अहंकारपूवक कया जानेपर पुनज का हेतु बन जाता है; इतना ही नह , कत - कम क अवहेलनासे या द ाचारके लये कया जानेपर तो यह वकम ( पाप)- के पम बदल जाता है – इस रह को समझ लेना ही अकमम कम देखना है। इस रह को समझनेवाला मनु कसी भी वणा मो चत कमका ाग न तो शारी रक क के भयसे करता हे, न राग- ेष अथवा मोहवश और न मान, बड़ाई, त ा या अ कसी फलक ा के लये ही करता है। इस लये वह न तो कभी अपने कत से गरता है और न कसी कारके ागम ममता, आस , फले ा या अहंकारका स जोड़कर पुनज का ही भागी बनता है; इसी लये वह मनु म बु मान् है। उसका परम पु ष परमे रसे संयोग हो चुका है, इस लये वह योगी है और उसके लये कोई भी कत शेष नह रहता, इस लये वह सम कम करनेवाला है। – कमसे यमाण, वकमसे व वध कारके सं चत कम और अकमसे ार कम लेकर कमम अकम देखनेका य द यह अथ कया जाय क यमाण कम करते समय यह देखे क भ व म यही कम ार - कम ( अकम) बनकर फलभोगके पम उप त ह गे और अकमम कम देखनेका यह अथ कया जाय क ार प फलभोगके समय उन दुःखा द भोग को अपने पूवकृ त यमाण कम का ही फल समझे और इस कार समझकर पापकम का ाग करके शा व हत कम को करता रहे, तो ा आप है? क सं चत, यमाण और ार – कम के ये ही तीन भेद स ह? उ र – ठीक है, ऐसा मानना ब त लाभ द है और बड़ी बु मानी है; कतु ऐसा अथ मान लेनेसे ' कवयोऽ मो हता : ', ' गहना कमणो ग त : ', ' य ा ा मो सेऽशुभात् ' , ' स यु : कृ कमकृत् ', ' तमा ः प तं बुधा : ', ' नैव क रो त स : ' आ द वचन क संग त नह बैठती। अतएव यह अथ कसी अंशम लाभ द होनेपर भी करण- व है। – कमम अकम और अकमम कम देखनेवाला साधक भी मु हो जाता है या स पु ष ही इस कार देख सकता है?

उ र – मु पु षके जो ाभा वक ल ण होते है, वे ही साधकके लये सा होते ह। अतएव मु पु ष तो भावसे ही इस त को जानता है और साधक उनके उपदेश ारा जानकर उस कार साधन करनेसे मु हो जाता है। इसी लये भगवान् ने कहा है क-' म तुझे वह कमत बतलाऊँ गा, जसे जानकर तू कम- ब नसे छू ट जायगा।' स – इस कार कमम अकम और अकमम कमदशनका मह बतलाकर अब पाँच शलोक म भ - भ शैलीसे उपयु कमम अकम और अकमम कमदशनपूवक कम करनेवाले स और साधक पु ष क असंगताका वणन करके उस वषयको करते ह – य सव समार ाः कामस व जताः । ाना द कमाणं तमा ः प तं बुधाः ॥ ४-१९॥ जसके स ूण शा स त कम बना कामना और संक के होते ह तथा जसके सम कम ान प अ के ारा भ हो गये ह, उस महापु षको ानीजन भी प त कहते ह॥ १९॥

– ' समार ाः ' पदका ा अथ है और इसके साथ ' सव ' वशेषण जोड़नेका यहाँ ा अ भ ाय है? उ र – अपने- अपने वणा म और प र तक अपे ासे जसके लये जो य , दान, तप तथा जी वका और शरीर नवाहके यो शा स त क - कम ह, उन सबका वाचक यहाँ ' समार ाः ' पद है। यामा को आर कहते ह; ानीके कम शा न ष या थ नह होते – यह भाव दखलानेके लये ' आर ' के साथ ' सम् ' उपसगका योग कया गया है तथा ' सव ' वशेषणसे यह भाव दखलाया गया है क साधनकालम मनु के सम कम बना कामना और संक के नह होते, कसी- कसी कमम कामना और संक का संयोग भी हो जाता है; पर साधन करते- करते जो स हो गया है, उस महापु षके तो सभी कम कामना और

संक से र हत ही होते ह; उसका कोई भी कम कामना और संक से यु या शा व नह होता। – ' कामसंक व जता : ' इस पदम आये ए ' काम' और ' संक ' श का ा अथ है तथा इनसे र हत कम कौन- से ह? उ र – ी, पु , धन, मकान, मान, बड़ाई, त ा और ग- सुख आ द इस लोक और परलोकके जतने भी वषय ( पदाथ) ह, उनमसे कसीक क च ा भी इ ा करनेका नाम ' काम' है तथा कसी वषयको ममता, अहंकार, राग- ेष एवं रमणीयबु से रण करनेका नाम ' संक ' है। कामना संक का काय है और संक उसका कारण है। वषय का रण करनेसे ही उनम आस होकर कामनाक उ होती है ( २।६२) । जन कम म कसी व ुके संयोग- वयोगक क च ा भी कामना नह है, जनम ममता, अहंकार और

आस का सवथा अभाव है और जो के वल लोक- सं हके लये चे ामा कये जाते ह – वे सब कम काम और संक से र हत ह। – उपयु पदम आये ए ' संक ' श का अथ य द ु रणामा मान लया जाय तो ा हा न है? उ र – कोई भी कम बना ु रणाके नह हो सकता; पहले ु रणा होकर ही मन, वाणी और शरीर ारा कम कये जाते ह। अ कम क तो बात ही ा है, बना ु रणाके तो खाना- पीना और चलना- फरना आ द शरीर नवाहके कम भी नह हो सकते; फर इस ोकम ' समार ाः ' पदसे बतलाये ए शा व हत कम कै से हो सकते ह? इस कारण यहाँ ' संक ' का अथ ु रणामा मानना उ चत तीत नह होता। – ' ाना द कमाणम् ' पदम ' ाना ' श कसका वाचक है? और उसके ारा कम का द हो जाना ा है? उ र – कसी भी साधनके अनु ानसे उ परमा ाके यथाथ ानका वाचक यहाँ ' ाना ' श है। जैसे अ धनको भ कर डालता है, वैसे ही ान भी सम कम को भ कर देता है ( ४।३७) – इस कार अ क उपमा देनेके लये उसे यहाँ ' ाना ' नाम दया गया है। जैसे अ ारा भुने ए बीज के वल नाममा के ही बीज रह जाते ह उनम अंकु रत होनेक श नह रहती, उसी कार ान प अ के ारा जो सम कम म फल उ करनेक श का सवथा न हो जाना है – यही उन कम का ान प अ से भ हो जाना है। – यहाँ ' बुधाः ' पद कनका वाचक है और उपयु कारसे जो ' ाना द कमा' हो गया है उसे वे ' प त' कहते है – इस कथनका ा अ भ ाय है। उ र – ' बुधाः' पद यहाँ त ानी महा ा का वाचक है और उपयु पु षको वे प त कहते ह – इस कथनसे उपयु स योगीक वशेष शंसा क गयी है। अ भ ाय यह है क कम म ममता, आस अहंकार और उनसे अपना कसी कारका कोई योजन न रहनेपर भी उनका पत: ाग न करके लोकसं हके लये सम शा व हत कम को व धपूवक भलीभाँ त करते रहना ब त ही धीरता, वीरता, ग ीरता और बु म ाका काम है; इस लये ानीलोग भी उसे प त ( त ानी महा ा) कहते ह। ा कमफलास ं न तृ ो नरा यः । कम भ वृ ोऽ प नैव क रो त सः ॥ ४-२०॥ जो पु ष सम कम म और उनके फलम आस का सवथा ाग करके संसारके आ यसे र हत हो गया है और परमा ाम न तृ है, वह कम म भलीभाँ त बतता आ भी वा वम कुछ भी नह करता॥ २०॥

– सम

कम म और उनके फलम आस का सवथा ाग करना ा है?

उ र – य , दान और तप तथा जी वका और शरीर नवाहके जतने भी शा व हत कम ह, उनम जो मनु क ाभा वक आस होती है – जसके कारण वह उन कम को कये बना नह रह सकता और कम करते समय उनम इतना संल हो जाता है क ई रक ृ त या अ कसी कारका ानतक नह रहता – ऐसी आस से सवथा र हत हो जाना, कसी भी कमम मनका त नक भी आस न होना – कम म आस का सवथा ाग कर देना है और उन कम से ा होनेवाले इस लोक या परलोकके जतने भी भोग ह – उन सबम जरा भी ममता, आस और कामनाका न रहना, कम के फलम आस का ाग कर देना है। – इस कार आस का ाग करके ' नरा य' और ' न तृ ' हो जाना ा है? उ र – आस का सवथा ाग करके शरीरम अहंकार और ममतासे सवथा र हत हो जाना और कसी भी सांसा रक व ुके या मनु के आ त न होना अथात् अमुक व ु या मनु से ही मेरा नवाह होता है, यही आधार है, इसके बना काम ही नह चल सकता – इस कारके भाव का सवथा अभाव हो जाना ही ' नरा य' हो जाना है। ऐसा हो जानेपर मनु को कसी भी सांसा रक पदाथक क च ा भी आव कता नह रहती, वह पूणकाम हो जाता है; उसे परमान प परमा ाक ा हो जानेके कारण वह नर र आन म म रहता है, उसक तम कसी भी घटनासे कभी जरा भी अ र नह पड़ता। यही उसका ' न तृ ' हो जाना है। – ' कम ण अ भ वृ : अ प न एव क रो त स : ' इस वा म ' अ भ ' उपसगके तथा ' अ प ' और ' एव ' अ य के योगका ा अ भ ाय है ' उ र – ' अ भ ' उपसगसे यह बात दखलायी गयी है क ऐसा मनु भी अपने वणा मके अनुसार शा व हत सब कारके कम भलीभाँ त सावधानी और ववेकके स हत व ारपूवक कर सकता है। ' अ प ' अ यसे यह भाव दखलाया गया है क ममता, अहंकार और फलास यु मनु तो कम का पसे ाग करके भी कमब नसे मु नह हो सकता और यह न तृ पु ष सम कम को करता आ भी उनके ब नम नह पड़ता। तथा ' एव ' अ यसे यह भाव दखलाया गया है क उन कम से उसका जरा भी स नह रहता। अत: वह सम कम करता आ भी वा वम अकता ही बना रहता है। इस कार यह बात कर दी गयी है क कमम अकम और अकमम कम देखनेवाले मु पु षके लये उसके पूणकाम हो जानेके कारण कोई भी कत शेष नह रहता ( ३।१७); उसे कसी भी व ुक , कसी पम भी आव कता नह रहती। अतएव वह जो कु छ कम करता है या कसी यासे उपरत हो जाता है, सब शा स त और बना आस के के वल लोकसं हाथ ही करता है; इस लये उसके कम वा वम ' कम' नह होते।

ोक म यह बात कही गयी क ममता, आस , फले ा और अहंकारके बना के वल लोकसं हके लये शा स त य , दान और तप आ द सम कम करता आ भी ानी पु ष वा वम कु छ भी नह करता। इस लये वह कमब नम नह पड़ता। इसपर यह उठता है क ानीको आदश मानकर उपयु कारसे कम करनेवाले साधक तो न - नै म क आ द कम का ाग नह करते, न ामभावसे सब कारके शा व हत कत कम का अनु ान करते रहते ह – इस कारण वे कसी पापके भागी नह बनते; कतु जो साधक शा व हत य - दाना द कम का अनु ान न करके के वल शरीर नवाहमा के लये आव क शौच - ान और खान - पान आ द कम ही करता है, वह तो पापका भागी होता होगा। ऐसी शंकाक नवृ तके लये भगवान् कहते ह – नराशीयत च ा ा सवप र हः । शारीरं के वलं कम कु व ा ो त क षम् ॥२१॥ जसका अ ःकरण और इ य के स हत शरीर जीता आ है और जसने सम भोग क साम ीका प र ाग कर दया है, ऐसा आशार हत पु ष के वल शरीर- स ी कम करता आ भी पापको नह ा होता॥ २१॥ – ' नराशी : ', ' यत च ा ा ' और ' सवप र हः ' – इन तीन वशेषण के योगका यहाँ ा अ भ ाय है? उ र – जस मनु को कसी भी सांसा रक व ुक कु छ भी आव कता नह है, जो कसी भी कमसे या मनु से कसी कारके भोग- ा क क च ा भी आशा या इ ा नह रखता; जसने सब कारक इ ा, कामना, वासना आ दका सवथा ाग कर दया है – उसे ' नराशी : ' कहते ह; जसका अ ःकरण और सम इ य स हत शरीर वशम है – अथात् जसके मन और इ य राग- ेषसे र हत हो जानेके कारण उनपर श ा द वषय के संगका कु छ भी भाव नह पड़ सकता और जसका शरीर भी जैसे वह उसे रखना चाहता है वैसे ही रहता है – वह चाहे गृह हो या सं ासी ' यत च ा ा ' है और जसक कसी भी व ुम ममता नह है तथा जसने सम भोग साम य के सं हका भलीभाँ त ाग कर दया है, वह सं ासी तो सवथा ' सवप र ह ' है ही। इसके सवा जो कोई दूसरे आ मवाला भी य द उपयु कारसे प र हका ाग कर देनेवाला है तो वह भी ' सवप र ह' है। इन तीन वशेषण का योग करके इस ोकम यह भाव दखलाया गया है क जो इस कार बा व ु से स न रखकर नर र अ रा ाम ही स ु रहता है, वह सां योगी य द य - दाना द कम का अनु ान न करके के वल शरीर- स ी खान- पान आ द कम ही करता है, तो भी वह पापका भागी नह होता। क उसका वह ाग आस या फलक इ ासे अथवा अहंकारपूवक मोहसे कया आ नह है; वह तो आस , फले ा स

– उपयु

और अहंकारसे र हत सवथा शा स त ाग है, अतएव सब कारसे संसारका हत करनेवाला है। – यहाँ ' शारीरम् ' और ' केवलम् ' वशेषण के स हत ' कम' पद कौन- से कम का वाचक है और ' क षम् ' पद कसका वाचक है तथा उसको ा न होना ा है? उ र – ' शारीरम् ' और ' केवलम् ' वशेषण के स हत ' कम' पद यहाँ शौच- ान, खान- पान और शयन आ द के वल शरीर नवाहसे स रखनेवाली या का वाचक है तथा ' क षम् ' पद यहाँ य - दाना द व हत कम के ागसे होनेवाले वाय – पापका तथा शरीर नवाहके लये क जानेवाली या म होनेवाले अ नवाय ' हसा' आ द पाप का वाचक है। उपयु पु षको न तो य ा द कम के अनु ान न करनेसे होनेवाला वाय प पाप लगता है और न शरीर नवाहके लये क जानेवाली या म होनेवाले पाप से ही उसका स होता है; यही उसका ' क ष' को ा न होना है। स – उपयु ोक म यह बात स क गयी क परमा ाको ा स महापु ष का तो कम करने या न करनेसे कोई योजन नह रहता; तथा ानयोगके साधकका हण और ाग शा स त, आस र हत और ममतार हत होता है; अत : वे कम करते ए या उनका ाग करते ए – सभी अव ा म कमब नसे सवथा मु ह। अब भगवान् यह बात दखलाते ह क कमम अकमदशनपूवक कम करनेवाला कमयोगी भी कमब नम नह पड़ता – य ालाभस ु ो ातीतो वम रः । समः स ाव स ौ च कृ ा प न नब ते ॥२२॥ जो बना इ ाके अपने - आप ा ए पदाथम सदा स ु रहता है, जसम ई ाका सवथा अभाव हो गया है, जो हष - शोक आ द से सवथा अतीत हो गया है – ऐसा स और अ स म सम रहनेवाला कमयोगी कम करता आ भी उनसे नह बँधता॥ २२॥

– ' य ालाभ ' ा है और उसम स ु रहना ा है? उ र – अ न ासे या परे ासे ार ानुसार जो अनुकूल या तकू ल पदाथक ा होती है, वह ' य ालाभ' है; इस ' य ालाभ' म सदा ही आन मानना, न कसी अनुकूल पदाथक ा होनेपर उसम राग करना, उसके बने रहने या बढ़नेक इ ा करना; और न तकू लक ा म ेष करना, उसके न हो जानेक इ ा करना और दोन को ही ार या भगवान् का वधान समझकर नर र शा और स च रहना – यही ' य ालाभ' म सदा स ु रहना है। – ' वम रः ' का ा भाव है और इसका योग यहाँ कस लये कया गया है?

उ र – व ा, बु , धन, मान, बड़ाई या अ कसी भी व ु या गुणके स से दूसर क उ त देखकर जो ई ा ( डाह) का भाव होता है – इस वकारका नाम ' म रता' है; उसका जसम सवथा अभाव हो गया हो, वह ' वम र' है। अपनेको व ान् और बु मान् समझनेवाल म भी ई ाका दोष छपा रहता है; जनम मनु का ेम होता है, ऐसे अपने म और कु टु य के साथ भी ई ाका भाव हो जाता है। इस लये ' वम रः ' वशेषणका योग करके यहाँ कमयोगीम हष- शोका द वकार से अलग ई ाके दोषका भी अभाव दखलाया गया है। – से अतीत होना ा है? उ र – हष- शोक और राग- ेष आ द यु वकार का नाम है; उनसे स न रहना अथात् इस कारके वकार का अ ःकरणम न रहना ही उनसे अतीत हो जाना है। – स और अ स का यहाँ ा अथ है और उसम सम रहना ा है? उ र – य , दान और तप आ द कसी भी कत - कमका न व तासे पूण हो जाना उसक स है; और कसी कार व - बाधाके कारण उसका पूण न होना ही अ स है। इसी कार जस उ े से कम कया जाता है, उस उ े का पूण हो जाना स है और पूण न होना ही अ स है। इस कारक स और अ स म भेदबु का न होना अथात् स म हष और आस आ द तथा अ स म ेष और शोक आ द वकार का न होना, दोन म एक- सा भाव रहना ही स और अ स म सम रहना है। – ऐसा पु ष कम करता आ भी नह बँधता, इस कथनका ा भाव है? उ र – कम करनेम मनु का अ धकार है ( २।४७), क य ( कम) स हत जाक रचना करके जाप तने मनु को कम करनेक आ ा दी है ( ३।१०); अतएव उसके अनुसार कम न करनेसे मनु पापका भागी होता है ( ३।१६) । इसके सवा मनु कम का सवथा ाग कर भी नह सकता ( ३।५), अपनी कृ तके अनुसार कु छ- न- कु छ कम सभीको करने पड़ते ह। अतएव इसका यह भाव समझना चा हये क जस कार के वल शरीरस ी कम को करनेवाला प र हर हत सां योगी अ कम का आचरण न करनेपर भी कम न करनेके पापसे ल नह होता, उसी कार कमयोगी व हत कम का अनु ान करके भी उनसे नह बँधता। स – यहाँ यह उठता हे क उपयु कारसे कये ए कम ब नके हेतु नह बनते, इतनी ही बात है या उनका और भी कु छ मह है। इसपर कहते ह – गतस मु ानाव तचेतसः । य ायाचरतः कम सम ं वलीयते ॥२३॥ जसक आस सवथा न हो गयी है, जो देहा भमान और ममतासे र हत हो गया है, जसका च नर र परमा ाके ानम त रहता है – ऐसे केवल य ी ँ



स ादनके लये कम करनेवाले मनु के समा कम भलीभाँ त वलीन हो जाते ह॥ २३॥



आस का सवथा न हो जाना ा है और ' गतसंग

'

पद कसका

वाचक है? उ र – कम म और उनके फल प सम भोग म त नक भी आस या कामनाका न रहना, आस का सवथा न हो जाना है। इस कार जसक आस का अभाव हो गया है, उस कमयोगीका वाचक यहाँ ' गतसंग ' पद है। यही भाव कमम और फलम आस के ागसे तथा स और अ स के सम से पूव ोकम दखलाया गया है। – ' मु ' पदका ा भाव है? उ र – जसका अ ःकरण और इ य के संघात प शरीरम जरा भी आ ा भमान या मम नह रहा है, जो देहा भमानसे सवथा मु हो गया है – उस ानयोगीका वाचक यहाँ ' मु ' पद है। – ' ानाव तचेतसः ' पदका ा भाव है? उ र – ' ानाव तचेतसः ' पद भी सव बु हो जानेके कारण ेक या करते समय जसका च नर र परमा ाके ानम लगा रहता है, ऐसे ानयोगीका ही वाचक है। – ' य ाय आचरत : ' इस पदम ' य ' श कसका वाचक है? और उसके लये कम का आचरण करना ा है? उ र – अपने वण, आ म और प र तके अनुसार जस मनु का जो शा - से व हत कत है, वही उसके लये य है। उस शा व हत य का स ादन करनेके उ े से ही जो कम का करना है – अथात् कसी कारके ाथका स न रखकर के वल लोकसं ह प य क पर रा सुर त रखनेके लये ही जो कम का आचरण करना है, वही य के लये कम का आचरण करना है। तीसरे अ ायके नव ोकम आया आ ' य ाथात् ' वशेषणके स हत ' कमण : ' पद भी ऐसे ही कम का वाचक है। – ' सम म् ' वशेषणके स हत ' कम' पद यहाँ कन कम का वाचक है और उनका वलीन हो जाना ा है? उ र – इस ज और ज ा रम कये ए जतने भी कम सं ार पसे मनु के अ ःकरणम सं चत रहते ह और जो उसके ारा उपयु कारसे नवीन कम कये जाते ह, उन सबका वाचक यहाँ ' सम म् ' वशेषणके स हत ' कम' पद है; उन सबका अभाव हो जाना अथात् उनम कसी कारका ब न करनेक श का न रहना ही उनका वलीन हो जाना है। इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क उपयु कारसे कम करनेवाले पु षके कम उसको बाँधनेवाले नह होते, इतना ही नह ; कतु जैसे कसी घासक ढेरीम आगम जलाकर गराया

आ घास यं भी जलकर न हो जाता है और उस घासक ढेरीको भी भ कर देता है – वैसे ही आस , फले ा, ममता और अ भमानके ाग प अ म जलाकर कये ए कम पूवसं चत सम कम के स हत वलीन हो जाते ह फर उसके कसी भी कमम कसी कारका फल देनेक श नह रहती। स – पूव ौकम यह बात कही गयी क य के लये कम करनेवाले पु षके सम कम वलीन हो जाते ह। वहाँ के वल अ म ह वका हवन करना ही य है और उसके स ादन करनेके लये क जनेवाली या ही य के लये कम करना है, इतनी ही बात नह है; वण, आ म, भाव और प र तके अनुसार जसका जो कत है; वही उसके लये य है और उसका पालन करनेके लये आव क या का नः ाथबु से लोकसं हाथ करना ही उस य के लये कम करना है – इसी भावको सु करनेके लये अब भगवान् सात ोक म भ - भ यो गय ारा कये जानेवाले परमा ाक ा पके साधन प शा व हत कत कम का व भ य के नामसे वणन करते ह – ापणं ह व ा ौ णा तम् । ैव तेन ग ं कमसमा धना ॥२४॥ भी उस

जस य म अपण अथात् ुवा आ द भी है और हवन कये जानेयो है तथा प कताके ारा प अ म आ त देना प या भी है – कमम त रहनेवाले योगी ारा ा कये जानेयो फल भी ही है॥ २४॥

– इस र – इस

ोकम य के पकसे ा भाव दखलाया गया है? उ ोकम ' सव ख दं ' ( छा ो उ० ३।१४।१) के अनुसार सव दशन प साधनको य का प दया गया है। अ भ ाय यह है क कता, कम और करण आ दके भेदसे भ - भ पम तीत होनेवाले सम पदाथ को पसे देखनेका जो अ ास है – यह अ ास प कम भी परमा ाक ा का साधन होनेके कारण य ही है। इस य म ुवा, ह व, हवन करनेवाला और हवन प याएँ आ द भ - भ व ुएँ नह होत ; उसक म सब कु छ ही होता है; क ऐसा य करनेवाला योगी जन मन, बु आ दके ारा सम जगत् को समझनेका अ ास करता है, वह उनको, अपनेको, इस अ ास प याको या अ कसी भी व ुको से भ नह समझता, सबको प ही देखता है; इस लये उसक उनम कसी कारक भी भेदबु नह रहती। – इस पकम ' अपणम् ' पदका अथ य द हवन करनेक या मान ली जाय तो ा आप है? उ र – ' तम् ' पद हवन करनेक याका वाचक है। अत: ' अपणम् ' पदका अथ भी या मान लेनेसे पुन का दोष आता है। नव अ ायके सोलहव ोकम भी ' तम् '

पदका ही अथ ' हवनक या' माना गया है। अत: जसके ारा कोई व ु अ पत क जाय, ' अ ते अनेन ' – इस ु के अनुसार ' अपणम्' पदका अथ जसके ारा घृत आ द अ म छोड़े जाते ह, ऐसे ुवा आ द पा मानना ही उ चत मालूम पड़ता है। – कमम त होना ा है और उसके ारा ा कये जानेयो फल भी ही है, इस कथनका ा भाव है? उ र – नर र सव बु करते रहना, कसीको भी से भ नह समझना – यही कमम त होना है तथा इस कारके साधनका फल नःस ेह पर परमा ाक ही ा होती है, उपयु साधन करनेवाला योगी दूसरे फलका भागी नह होता – यही भाव दखलानेके लये ऐसा कहा गया है क उसके ारा ा कया जानेयो फल भी ही है। स – इस कार कम प य का वणन करके अब अगले ोकम देवपूजन प य का और आ ा - परमा ाके अभेददशन प य का वमन करते ह – दैवमेवापरे य ं यो गनः पयुपासते । ा ावपरे य ं य ेनैवोपजु त ॥२५॥ दस ू रे योगीजन देवता के पूजन प य का ही भलीभाँ त अनु ान कया करते ह और अ योगीजन पर परमा ा प अ म अभेददशन प य के ारा ही आ प य का हवन कया करते ह॥ २५॥

– यहाँ ' यो गन : '

पद कन यो गय का वाचक है और उसके साथ ' अपरे ' वशेषणका योग कस लये कया गया है? उ र – यहाँ ' यो गन : ' पद ममता, आस और फले ाका ाग करके शा व हत य ा द कम करनेवाले साधक का वाचक है तथा इन साधक को पूव ोकम व णत कम करनेवाल से अलग करनेके लये यानी इनका साधन पूव साधनसे भ है और दोन साधन के अ धकारी भ - भ होते ह, इस बातको करनेके लये यहाँ ' यो गनः ' पदके साथ ' अपरे ' वशेषणका योग कया गया है। – ' दैवम् ' वशेषणके स हत ' य म् ' पद कस कमका वाचक है और उसका भलीभाँ त अनु ान करना ा है तथा इस ोकके पूवा म भगवान् के कथनका ा अ भ ाय है? उ र – ा, शव, श , गणेश, सूय, च मा, इ और व णा द जो शा स त देव ह – उनके लये हवन करना, उनक पूजा करना, उनके म का जप करना, उनके न म से दान देना और ा ण- भोजन करवाना आ द सम कम का वाचक यहाँ ' दैवम् ' वशेषणके स हत ' य म् ' पद है और अपना कत समझकर बना ममता, आस और फले ाके के वल परमा ाक ा के उ े से इन सबका ा- भ पूवक शा व धके अनुसार पूणतया अनु ान करना ही दैवय का भलीभाँ त अनु ान करना है। इस ोकके पूवा म

भगवान् ने यह भाव दखलाया है क जो इस कारसे देवोपासना करते ह, उनक या भी य के लये ही कम करनेके अ गत है। – प अ म य के ारा य को हवन करना ा है? उ र – अना द स अ ानके कारण शरीरक उपा धसे आ ा और परमा ाका भेद अना दकालसे तीत हो रहा है; इस अ ानज नत भेद- ती तको ाना ास ारा मटा देना अथात् शा और आचायके उपदेशसे सुने ए त ानका नर र मनन और न द ासन करते- करते न व ानान घन, गुणातीत पर परमा ाम अभेदभावसे आ ाको एक कर देना – वलीन कर देना ही प अ म य के ारा य को हवन करना है। इस कारका य करनेवाले ानयो गय क म एक नगुण- नराकार स दान घन के सवा अपनी या अ कसीक भी क च ा स ा नह रहती, इस. गुणमय संसारसे उनका कु छ भी स नह रहता। उनके लये संसारका अ अभाव हो जाता है। – पूव ोकम व णत कमसे इस अभेददशन प य का ा भेद है? उ र – दोन ही साधन सां यो गय ारा कये जाते ह और दोन म ही अ ानीय पर परमा ा है, इस कारण दोन क एकता- सी तीत होती है तथा दोन का फल अ भ भावसे स दान घन क ा होनेके कारण वा वम कोई भेद भी नह है, के वल साधनक णालीका भेद है; उसीको करनेके लये दोन का वणन अलग- अलग कया गया है। पूव ोकम व णत साधनम तो ' सव ख दं ' ( छा ो उ० ३।१४।१) इस ु तवा के अनुसार सव बु करनेका वणन है और उपयु साधनम सम जगत् के स का अभाव करके आ ा और परमा ाम अभेददशनक बात कही गयी हे। स – इस कार दैवय और अभेददशन प य का वणन करनेके अन र अब इ यसंयम प य का और वषयहवन प य का वणन करते ह – ो ादीनी या े संयमा षु जु त । श ादी षयान इ या षु जु त ॥२६॥ अ योगीजन ो आ द सम इ य को संयम प अ य म हवन कया करते ह और दस वषय को इ य प अ य म हवन कया करते ू रे योगीलोग श ा द सम ह॥ २६॥

संयमको अ बतलानेका ा भाव है और उसम ब वचनका योग कस लये कया गया है? उ र – इ यसंयम प साधनको य का प देनेके लये यहाँ संयमको अ बताया गया है और ेक इ यका संयम अलग- अलग होता है, इस बातको करनेके लये उसम ब वचनका योग कया गया है। –

– संयम – दूसरे

प अ य म ो आ द इ य को हवन करना ा हे? उर अ ायम कहा गया है क इ याँ बड़ी मथनशील ह, ये बलात् साधकके मनको डगा देती ह ( २।६०); इस लये सम इ य को अपने वशम कर लेना – उनक त ताको मटा देना, उनम मनको वच लत करनेक श न रहने देना तथा उ सांसा रक भोग म वृ न होने देना ही इ य को संयम प अ य म हवन करना है। ता य यह है क ो , चा, ने , ज ा और ना सकाको वशम करके ाहार करना – श , श, प, रस और ग आ द बाहर- भीतरके वषय से ववेकपूवक उ हटाकर उपरत होना ही ो आ द इ य का संयम प अ य म हवन करना है। इसका सु भाव दूसरे अ ायके अ ावनव ोकम कछु एके ा से बतलाया गया है। – तीसरे अ ायके छठे ोकम जस इ यसंयमको म ाचार बतलाया गया है उसम और यहांके इ यसंयमम ा भेद है? उ र – वहाँ के वल इ य को देखने- सुनने तथा खाने- पीने आ द बा वषय से रोक लेनेको ही संयम कहा गया है, इ य को वशम करनेको नह ; क वहाँ मनसे इ य के वषय का च न करते रहनेक बात है। कतु यहाँ वैसी बात नह है, यहाँ इ य को वशम कर लेनेका नाम ' संयम' है। वशम क ई इ य म मनको वषय म वृ करनेक श नहा रहती। इस लये जो इ य को वशम कये बना ही के वल द ाचारसे इ य को वषय से रोक रखता है, परंतु मनसे वषय का च न करता रहता है और जो परमा ाक ा करनेके लये इ य को वशम कर लेता है उसके मनसे वषय का च न नह होता; नर र परमा ाका ही च न होता है। यही म ाचारीके संयमका और यथाथ संयमका भेद है। – ोकके उ राधम ' इ य' श के साथ ' अ ' श का समास कस लये कया गया है? और ' इ या षु ' पदम ब वचनके योगका ा अ भ ाय है? उ र – आस र हत इ य ारा न ामभावसे वषयसेवन प साधनको य का प देनेके लये यहाँ ' इ य' श के साथ ' अ ' श का समास कया गया है और ेक इ यके ारा अनास भावसे अलग- अलग वषय का सेवन कया जाता है, इस बातको करनेके लये उसम ब वचनका योग कया गया है। – श ा द वषय को इ य प अ य म हवन करना ा है? उ र – वशम क ई और राग- ेषसे र हत इ य के ारा वण, आ म और प र तके अनुसार यो तासे ा वषय का हण करके उनको इ य म वलीन कर देना ( २।६४) अथात् उनका सेवन करते समय या दूसरे समय अ ःकरणम या इ य म कसी कारका वकार उ करनेक श न रहने देना ही श ा द वषय को इ य प अ य म हवन करना है। अ भ ाय यह है क कान के ारा न ा और ु तको या अ कसी कारके अनुकूल या तकू ल श को सुनते ए, ने के ारा अ े- बुरे को देखते ए, ज ाके

ारा अनुकूल और तकू ल रसको हण करते ए – इसी कार अ सम इ य ारा भी ार के अनुसार यो तासे ा सम वषय का अनास भावसे सेवन करते ए अ ःकरणम समभाव रखना, भेदबु ज नत राग- ेष और हष- शोका द वकार का न होने देना – अथात् उन वषय म जो मन और इ य को व ( वच लत) करनेक श है, उसका नाश करके उनको इ य म वलीन करते रहना – यही श ा द वषय का इ य प अ य म हवन करना है। क वषय म आस , सुख और रमणीय बु न रहनेके कारण वे वषयभोग साधकपर अपना भाव नह डाल सकते, वे यं अ म घासक भाँ त भ हो जाते ह। स – अब आ संयमयोग प य का वणन करते ह – सवाणी यकमा ण ाणकमा ण चापरे । आ संयमयोगा ौ जु त ानदी पते ॥२७॥ दस ू या को और ाण क सम ू रे योगीजन इ य क स ण ानसे का शत आ संयमयोग प अ म हवन कया करते ह॥ २७॥

या

को

यहाँ ' आ संयमयोग' कस योगका वाचक है और उसके साथ ' अ ' श का समास कस लये कया गया है तथा ' ानदी पते ' वशेषणका ा भाव है? उ र – यहाँ ' आ संयमयोग' समा धयोगका वाचक है। उस समा धयोगको य का प देनेके लये उसके साथ ' अ ' श का समास कया गया है तथा सुषु से समा धक भ ता दखलानेके लये – अथात् समा ध- अव ाम ववेक- व ानक जागृ त रहती है, शू ताका नाम समा ध नह है – यह भाव दखलाने और य के पकम उस समा धयोगको लत अ क भाँ त ानसे का शत बतलानेके लये ' ानदी पते ' वशेषणका योग कया गया है। – उपयु समा धयोगका प ा है? तथा उसम इ य क स ूण या को और ाण क स ूण या को हवन करना ा है? उ र – ानयोग अथात् ेयम मनका नरोध दो कारसे होता है – एकम तो ाण का और इ य का नरोध करके उसके बाद मनका ेय व ुम नरोध कया जाता है और दूसरेम, पहले मनके ारा ेयका च न करते- करते ेयम मनक एका ता प ानाव ा होती है। तदन र ानक गाढ़ त होकर ेयम मनका नरोध हो जाता है; यही समा ध- अव ा है। उस समय ाण क और इ य क स ूण या अपने- आप क जाती है। यहाँ इस दूसरे कारसे कये जानेवाले ानयोगका वणन है। इस लये परमा ाके सगुण- साकार या नगुण- नराकार- कसी भी पम अपनी- अपनी मा ता और भावनाके अनुसार व धपूवक मनका नरोध कर देना ही समा धयोगका प है। –



इस कारके ानयोगम जो मनो न हपूवक इ य क देखना, सुनना, सूँघना, श करना, आ ादन करना एवं हण करना, ाग करना, बोलना और चलना- फरना आ द तथा ाण क ास- ास और हलना- डु लना आ द सम या को वलीन करके समा ध हो जाना है – यही आ संयम- योग प अ म इ य क और ाण क सम या का हवन करना है। स – इस कार समा धयोगके साधनको य का प देकर अब अगले ोकम वज ,तपोय , योगय और ा ाय प ानय का सं ेपम वणन करते ह – य ा पोय ा योगय ा थापरे । ा ाय ानय ा यतयः सं शत ताः ॥२८॥

कई पु ष स ी य करनेवाले ह , कतने ही तप ा प य करनेवाले ह तथा दस ू रे कतने ही योग प य करनेवाले ह और कतने ही अ हसा द ती ण त से यु य शील पु ष ा ाय प ानय करनेवाले ह॥ २८॥

ी य कस याका वाचक है? इसे करनेका अ धकार कनको है तथा यहाँ ' य ा : ' पदके योगका ा भाव है? उ र – अपने- अपने वणधमके अनुसार ायसे ा को ममता, आस और फले ाका ाग करके यथायो लोकसेवाम लगाना अथात् उपयु भावसे बावली, कु एँ , तालाब, म र, धमशाला आ द बनवाना; भूख,े अनाथ, रोगी, दुःखी, असमथ, भ ु आ द मनु क यथाव क अ , व , जल, औषध, पु क आ द व ु ारा सेवा करना; व ान् तप ी वेदपाठी सदाचारी ा ण को गौ, भू म, व , आभूषण आ द पदाथ का यथायो अपनी श के अनुसार दान करना – इसी तरह अ सब ा णय को सुख प ँ चानेके उ े से यथाश का य करना ' य ' है। इस य के करनेका अ धकार के वल गृह को ही हे; क का सं ह करके परोपकारम उसके य करनेका अ धकार सं ास आ द अ आ म म नह है। यहाँ भगवान् ने ' य ' श का योग करके यह भाव दखलाया है क परमा ाक ा के उ े से लोकसेवाम लगानेके लये नः ाथभावसे कम करना भी य ाथ कम करनेके अ गत है। – ' तपोय ' कस कमको कहते ह? और इसम कसका अ धकार है? उ र – परमा ाक ा के उ े से अ ःकरण और इ य को प व करनेके लये ममता, आस और फले ाके ागपूवक त- उपवासा द करना, धमपालनके लये क सहन करना, मौन धारण करना, अ और सूयके तेजको तथा वायुको सहन करना, एक व या दो व से अ धकका ाग कर देना, अ का ाग कर देना, के वल फल या दूध खाकर ही शरीरका नवाह करना; वनवास करना आ द जो शा - व धके अनुसार त त ा- स ी ँ ँ –



याएँ ह – उन सबका वाचक यहाँ ' तपोय ' है। इसम वान आ मवाल का तो पूण अ धकार है ही, दूसरे आ मवाले मनु भी शा व धके अनुसार इसका पालन कर सकते ह। अपनी- अपनी यो ताके अनुसार सभी आ मवाले इसके अ धकारी ह। – यहाँ ' योगय ' श कस कमका वाचक है तथा यहाँ ' योगय ा : ' पदके योगका ा भाव है? उ र – यहाँ वा वम ' योगय ' कस कमका वाचक है, यह तो भगवान् ही जानते ह; क इसके वशेष ल ण यहाँ नह बतलाये गये ह। कतु अनुमानसे यह तीत होता है क च वृ - नरोध प जो अ ांगयोग है स वत: उसीका वाचक यहाँ ' योगय ' श है। अतएव यहाँ ' योगय ा : ' पदके योगका यह भाव समझना चा हये क ब त- से साधक परमा ाक ा के उ े से आस , फले ा और ममताका ाग करके इस अ ांगयोग प य का ही अनु ान कया करते ह। उनका वह योगसाधना प कम भी य ाथ कमके अ गत है, अतएव उन लोग के भी सम कम वलीन होकर उनको सनातन क ा हो जाती है। – उपयु अ ांगयोगके आठ अंग कौन- कौन- से ह? उ र – पातंजलयोगदशनम इनका वणन इस कार आता है – ' यम नयमासन ाणायाम यम, नयम, आसन,

ाहारधारणा -

ाणायाम,

ानसमाधयोऽ ाव ा न। ' ( २।२९ )

ाहार, धारणा, ान और समा ध – ये योगके

आठ अंग ह। इनम यम, नयम, आसन, ाणायाम, ाहार – ये पाँच ब हरंग और धारणा, ान, समा ध – ये तीन अ रंग साधन ह। ' यमेक संयम : ' ( योग० ३।४) इन तीन के समुदायको ' संयम' कहते ह। ' अ हसास ा ेय चयाप र हा यमा : । ' ( योग० २।३०) कसी भी ाणीको कसी कार क च ा कभी क न देना ( अ हसा); हतक भावनासे कपटर हत य श म यथाथ भाषण ( स ); कसी कारसे भी कसीके हकको न चुराना और न छीनना ( अ ेय); मन, वाणी और शरीरसे स ूण अव ा म सदासवदा सब कारके मैथुन का ाग करना ( चय); और शरीर नवाहके अ त र भो साम ीका कभी सं ह न करना ( अप र ह) – इन पाँच का नाम यम है। ' शौचस ोषतपः ा ाये र णधाना न नयमा : । ' ( योग० २। ३२) सब कारसे बाहर और भीतरक प व ता ( शौच); य- अ य, सुख- दुःख आ दके ा होनेपर सदा- सवदा स ु रहना ( स ोष); एकादशी आ द त- उपवास करना ( तप); क ाण द शा का अ यन तथा ई रके नाम और गुण का क तन ( ा ाय); सव ँ

ई रके अपण करके उनक आ ाका पालन करना ( ई र णधान) इन पाँच का नाम नयम है। ' रसुखमासनम् ' ( योग० २।४६) सुखपूवक रतासे बैठनेका नाम आसन है। ' त न् स त ास ासयोग त व े द : ाणायाम : ।' ( योग २।४९) आसनके स हो जानेपर ास और ासक ग तके रोकनेका नाम ाणायाम है। बाहरी वायुका भीतर वेश करना ास है और भीतरक वायुका बाहर नकलना ास है; इन दोन के रोकनेका नाम ाणायाम है। ' बा ा र वृ दशकालसं ा भः प र ो दीघसू : । ' योग० २।५०) देश, काल और सं ा ( मा ा) – के स से बा , आ र और वृ वाले – ये तीन णायाम दीध और सू होते ह। भीतरके ासको बाहर नकालकर बाहर ही रोक रखना ' बा कु क' कहलाता है। इसक व ध यह है – आठ णव ( ॐ) से रेचक करके सोलहसे बा कु क करना और फर चारसे पूरक करना – इस कारसे रेचक- पूरकके स हत बाहर कु क करनेका नाम बा वृ ाणायाम है। बाहरके ासको भीतर ख चकर भीतर रोकनेको ' आ र कु क' कहते ह। इसक व ध यह है क चार णवसे पूरक करके सोलहसे आ र कु क करे, फर आठसे रेचक करे। इस कार पूरक- रेचकके स हत भीतर कु क करनेका नाम आ रवृ ाणायाम है। बाहर या भीतर, जहाँ कह भी सुखपूवक ाण के रोकनेका नाम वृ ाणायाम है। चार णवसे पूरक करके आठसे रेचक करे; इस कार पूरक- रेचक करते- करते सुखपूवक जहाँ कह ाण को रोकनेका नाम वृ ाणायाम है। इनके और भी ब त- से भेद ह; जतनी सं ा और जतना काल पूरकम लगाया जाय, उतनी ही सं ा और उतना ही काल रेचक और कु कम भी लगा सकते ह। ाणवायुके लये ना भ, दय, क या ना सकाके भीतरके भागतकका नाम ' आ र देश' है और नासापुटसे बाहर सोलह अंगुलतक ' बाहरी देश' है। जो साधक पूरक ाणायाम करते समय ना भतक ासको ख चता है, वह सोलह अंगुलतक बाहर फके ; जो दयतक अंदर ख चता है; वह बारह अंगुलतक बाहर फके ; जो क तक ासको ख चता है, वह आठ अंगुल बाहर नकाले और जो ना सकाके अंदर ऊपरी अ म भागतक ही ास ख चता है, वह चार अंगुल बाहरतक ास फके । इसम पूव – पूवसे उ र – उ रवालेको ' सू ' और पूव- पूववालेको ' दीघ' समझना चा हये। ाणायामम सं ा और कालका पर र घ न स होनेके कारण इनके नयमम त म नह होना चा हये। [16]

जैसे चार णवसे पूरक करते समय एक सेक समय लगा तो सोलह णवसे कु क करते समय चार सेक और आठ णवसे रेचक करते समय दो सेक समय लगना चा हये। म क गणनाका नाम ' सं ा या मा ा' है, उसम लगनेवाले समयका नाम ' काल' है। य द सुखपूवक हो सके तो साधक ऊपर बतलाये काल और मा ाको दुगुनी, तगुनी, चौगुनी या जतनी चाहे यथासा बढ़ा सकता है। काल और मा ाक अ धकता एवं ूनतासे भी ाणायाम दीघ और सू होता है। ' बा ा र वषया ेपी चतुथ : ।'( योग० २।५१) श , श, प, रस और ग जो इ य के बाहरी वषय ह और संक वक ा द जो अ ःकरणके वषय ह, उनके ागसे – उनक उपे ा करनेपर अथात् वषय का च न न करनेपर ाण क ग तका जो त: ही अवरोध होता है, उसका नाम चतुथ ाणायाम है। पूवसू म बतलाये ए ाणायाम म ाण के नरोधसे मनका संयम है और यहाँ मन और इ य के संयमसे ाण का संयम है। यहाँ ाण के कनेका कोई न द ान नह है –   जहाँ कह भी क सकते ह तथा काल और सं ाका भी वधान न' । है। ' वषयास योगे च पानुकार इवे याणां ाहार : । ' ( योग० २।५४) अपने- अपने वषय के संयोगसे र हत होनेपर इ य का च के - से पम अव त हो जाना ाहार है। ' देशब धारणा। ' (योग० ३।१) च को कसी एक देश- वशेषम र करनेका नाम धारणा है। अथात् ूल- सू या बा - आ र – कसी एक ेय ानम च को बाँध देना, र कर देना या लगा देना धारणा कहलाता है। यहाँ वषय परमे रका है; इस लये धारणा, ान और समा ध परमे रम ही करने चा हये। 'त यैकतानता ानम्। '( योग ३।२) उस पूव ेय व ुम च वृ क एकतानताका नाम ान है। अथात् च वृ का गंगाके वाहक भाँ त या तैलधारावत् अ व पसे ेय व ुम ही लगा रहना ान कहलाता है। ' तदेवाथमा नभासं पशू मव समा ध : । ' (योग० ३।३) जस समय के वल ेय पका ही भान होता है और अपने पके भानका अभावसा रहता है, उस समय वह ान ही समा ध हो जाता है। ान करते- करते जब योगीका च ेयाकारको ा हो जाता है और वह यं भी ेयम त य- सा बन जाता है, ेयसे भ अपने- आपका भी ान उसे नह - सा रह जाता है – उस तका नाम समा ध है।

ानम ाता, ान, ेय – यह पुटी रहती है। समा धम के वल अथमा व ु – ेय व ु ही रहती है अथात् ाता, ान, ेय तीन क एकता हो जाती है। – स ाईसव ोकम बतलाये ए आ संयमयोग प य म और इसम ा अ र है? उ र – वहाँ धारणा- ान- समा ध प अ रंग साधनक धानता है; यम, नयम, आसन, ाणायाम, ाहारक नह । ये सब अपने- आप ही उनम आ जाते ह और यहाँ सभी साधन को मसे करनेके लये कहा गया है। – यहाँ ' योग' श से कमयोग और ानयोग न लेकर अ ांगयोग लया गया? उ र – भगव ा म साधन होनेके कारण यहाँ सभी य कमयोग और ानयोग – इन दो न ा के अ गत ही आ जाते ह। इस लये यहाँ ' योग' श से मु तासे के वल ानयोग या कमयोग नह लया जा सकता। – ' यतयः ' पदका अथ चतुथा मी सं ासी न करके य शील पु ष करनेका ा अ भ ाय है? उ र – ा ाय प ानय का अनु ान सभी आ मवाले कर सकते ह, इस लये यहाँ ' यतयः ' पदका अथ य शील कया गया है। यह बात अव है क सं ास- आ मम गृह क भाँ त न - नै म क और जी वका आ दके कम करना कत नह है, इस कारण वे इसका अनु ान अ धकतासे कर सकते ह। पर उनम भी जो य शील होते ह, वे ही ऐसा कर सकते ह; अत: ' यतयः ' पदका यहाँ ' य शील' अथ लेना ही ठीक मालूम होता है। इसके सवा चया मम भी ा ायक धानता है और ा ाय प ानय करनेवाल के लये ही ' यतयः ' पदका योग आ है; इस लये भी उसका अथ यहाँ सं ासी नह कया गया। – ' सं शत ता : ' पदका ा अथ है और इसको ' यतयः ' पदका वशेषण न मानकर ोकके पूवा म उ खत तपोय करने- वाल से भ कारके त करनेवाले पु ष का वाचक माननेम ा आप है? उ र – ज ने अ हसा, स , अ ेय, चय और अप र ह आ द सदाचारका पालन करनेके नयम भलीभाँ त धारण कर रखे ह तथा जो राग- ेष और अ भमाना द दोष से र हत ह ऐसे पु ष को ' सं शत ता : ' कहते ह। ' सं शत ता : ' पदम ' य ' श नह है, इस लये उसे भ कारका तय करनेवाल का वाचक न मानकर ' यतयः ' का वशेषण मानना ही उ चत मालूम होता है। – ' ा ाय ानय ' कस कमका वाचक है और उसे ' ा ायय ' न कहकर ' ा ाय ानय ' कहनेका ा अ भ ाय हे?

उ र – जन शा म भगवान् के त का, उनके गुण, भाव और च र का तथा उनके साकार- नराकार, सगुण- नगुण पका वणन है – ऐसे शा का अ यन करना, भगवान् क ु तका पाठ करना, उनके नाम और गुण का क तन करना तथा वेद और वेदांग का अ यन करना ा ाय है। ऐसा ा ाय अथ ानके स हत होनेसे तथा ममता, आस और फले ाके अभावपूवक कये जानेसे ' ा ाय ानय ' कहलाता है। इस पदम ा ायके साथ ' ान' श का समास करके यह भाव दखलाया है क ा ाय प कम भी ानय ही है इस लये गीताके अ यनको भी भगवान् ने ' ानय ' नाम दया है ( १८।७०) । स – य ा द चार कारके य का सं ेपम वणन करके अब दो ोक म ाणायाम प य का वणन करते ए सब कारके य करनेवाले साधक क शंसा करते ह –

अपाने जु त ाणं ाणेऽपानं तथापरे । ाणापानगती द् ा ाणायामपरायणाः ॥२९॥ अपरे नयताहाराः ाणा ाणेषु जु त । सवऽ ेते य वदो य पतक षाः ॥३०॥

दस ू रे कतने ही योगीजन अपानवायुम ाणवायुको हवन करते ह, वैसे ही अ योगीजन ाणवायुम अपानवायुको हवन करते ह तथा अ कतने ही नय मत आहार करनेवाले ाणायामपरायण पु ष ाण और अपानक ग तको रोककर ाण को ाण म ही हवन कया करते ह। ये सभी साधक य ारा पाप का नाश कर देनेवाले और य को जाननेवाले ह॥ २९ - ३ ०॥

– यहाँ ' जु त ' याके – ाणायामके साधनको

योगका ा भाव है? उर य का प देनेके लये ' जु त ' याका योग कया गया है। अ भ ाय यह है क ाणायाम प साधन करना भी य ही है। अतएव ममता, आस और फले ाके ागपूवक, परमा ाक ा के उ े से ाणायाम करना भी य ाथ कम होनेसे मनु को कमब नसे मु करनेवाला और परमा ाक ा करानेवाला है। – अपानवायुम ाणवायुका हवन करना ा है? उ र – योगका वषय बड़ा ही दु व ेय और गहन है। इसे अनुभवी योगीलोग ही जानते ह अ र वे ही भलीभाँ त समझा सकते ह। अतएव इस वषयम जो कु छ नवेदन कया जाता है, वह शा से यु य ारा समझी ई बात ही लखी जाती है। शा म ाणायामके ब तसे भेद बतलाये गये ह; उनमसे कसको ल बनाकर भगवान् का कहना है यह व ुत: भगवान् ही जानते ह। ान रहे क शा म अपानका ान गुदा और ाणका ान दय बतलाया गया है। बाहरक वायुका भीतर वेश करना ास कहलाता है इसीको अपानक ग त मानते ह;

क अपानका ान अध: है और बाहरक वायुके भीतर वेश करते समय उसक ग त शरीरम नीचेक ओर रहती है। इसी तरह भीतरक वायुका बाहर नकलना ास कहलाता है, इसीको ाणक ग त मानते है; क ाणका ान ऊपर है और भीतरक वायुके ना सका ारा बाहर नकलते समय उसक ग त शरीरम ऊपरक ओर होती है। उपयु ाणायाम प य म अ ानीय अपानवायु है और ह वः ानीय ाणवायु है। अतएव यह समझना चा हये क जसे पूरक ाणायाम कहते ह, वही यहाँ अपानवायुम ाणवायुका हवन करना है। क जब साधक पूरक ाणायाम करता है तो बाहरक वायुको ना सका ारा शरीरम ले जाता है, तब वह बाहरक वायु दयम त ाणवायुको साथ लेकर ना भमसे होती ई अपानम वलीन हो जाती है। इस साधनम बार- बार बाहरक वायुको भीतर ले जाकर वह रोका जाता है, इस लये इसे आ र कु क भी कहते ह। – ाणवायुम अपानवायुको हवन करना ा है? उ र – इस दूसरे ाणायाम प य म अ ानीय ाणवायु है और ह वः ानीय अपानवायु है। अत: समझना चा हये क जसे रेचक ाणायाम कहते ह, वही यहाँपर ाणवायुम अपानवायुका हवन करता है। क जब साधक रेचक ाणायाम करता है तो वह भीतरक वायुको ना सका ारा शरीरसे बाहर नकालकर रोकता है; उस समय पहले दयम त. ाणवायु बाहर आकर त हो जाती है और पीछेसे अपानवायु आकर उसम वलीन होती है। इस साधनम बार- बार भीतरक वायुको बाहर नकालकर वह रोका जाता है, इस कारणसे इसे बा कु क भी कहते ह। – ' नयताहाराः ' वशेषणका ा अथ हे? उ र – जो योगशा म बतलाये ए नयम के अनुसार ाणायामके उपयु सा क ( १७।८) और प र मत भोजन करनेवाले ह अथा न तो योगशा के नयमसे अ धक खाते ह और न उपवास ही करते ह, ऐसे पु ष को ' नयताहाराः ' कहते ह; क उपयु आहार करनेवालेका ही योग स होता ( ६।१७), अ धक भोजन करनेवालेका सवथा भोजनका ाग कर देनेवालेका योग स नह होता ( ६।१६) । – ' ाणायामपरायणा : ' वशेषणका ा अथ हे? उ र – जो ाण के नयमन करनेम अथात् बार- बार ाण को रोकनेका अ ास करनेम त र ह और इसीको परमा ाक ा का धान साधन मानते ह , ऐसे पु ष के ' ाणायामपरायणा : ' कहते ह। – यहाँ ' नयताहाराः ' और ' ाणायामपरायणा : ' इन दोन वशेषण का स तीन कारके ाणायाम करनेवाल से न मानकर के वल ाण म ाण का हवन करनेवाल के साथ माननेका ा अ भ ाय है? ा दूसरे साधक नयताहारी और ाणायामपरायण नह होते?

उ र – उपयु ाणायाम प य करनेवाले सभी योगी नयताहारी और ाणायामपरायण कहे जा सकते ह। अतएव इन दोन वशेषण का स सबके साथ माननेम भावत: कोई आप क बात नह है, परंतु उपयु ोक म दोन ही वशेषण तीसरे साधकके ही समीप पड़ते ह। इस कारण ा ाम इन वशेषण का स ' के वल कु क' करने- वाल से ही माना गया है। कतु भावत: ाणम अपानका हवन करनेवाले और अपानम ाणका हवन करनेवाले साधक के साथ भी इन वशेषण का स समझ सकते ह। – तीसव ोकम ' ाण' श म ब वचनका योग कया गया है? तथा ाण और अपानक ग तको रोककर ाण को ाण म हवन करना ा हे? उ र – शरीरके भीतर रहनेवाली वायुके पाँच भेद माने जाते ह – ाण, अपान, समान, उदान और ान। इनम ाणका ान दय, अपानका गुदा, समानका ना भ, उदानका क और ानका सम शरीर माना गया है। इन पाँच वायुभेद को ' पंच ाण' भी कहते ह। अतएव यहाँ पाँच वायुभेद को जीतकर इन सबका नरोध करनेके साधनको य का प देनेके लये ाणश म ब वचनका योग कया गया है। इस साधनम अ और हवन करनेयो दोन के ानम ाण को ही रखा गया है। इस लये समझना चा हये क जस ाणायामम ाण और अपान – इन दोन क ग त रोक दी जाती है अथात् न तो पूरक ाणायाम कया जाता है और न रेचक, कतु ास और ास को बंद करके ाण- अपान आ द सम वायुभेद को अपने- अपने ान म ही रोक दया जाता है – वही यहाँ ाण और अपानक ग तको रोककर ाण का ाण म हवन करना है। इस साधनम न तो बाहरक वायुको भीतर ले जाकर रोका जाता है और न भीतरक वायुको बाहर लाकर; अपने- अपने ान म त पंचवायुभेद को वह रोक दया जाता है। इस लये इसे ' के वल कु क' कहते ह। – उपयु वध ाणायाम प य म जप करना आव क है या नह ? य द आव क है तो णव ( ॐ) का ही जप करना चा हये या कसी दूसरे नामका भी जप कया जा सकता है? उ र – णव ( ॐ) स दान घन पूण परमा ाका वाचक है ( १७।२३); कसी भी उ म याके ार म इसका उ ारण करना कत माना गया है ( १७।२४) । इस लये इस करणम जतने भी य का वणन है, उन सभीम भगवान् के नामका स अव जोड़ देना चा हये। हाँ, यह बात अव है क णवके ानम ीराम, ीकृ , ी शव आ द जस नामम जसक च और ा हो, उसी नामका योग कया जा सकता है। क उस पर परमा ाके सभी नाम का फल ाके अनुसार लाभ द होता है। यहाँ सभी साधन को य का प दया गया है और बना म के य को तामस माना गया है ( १७।१३); इस लये भी म ानीय भगव ामका योग परमाव क है। उपयु ाणायाम प य म एक, दो, तीन आ द सं ाके योगसे या चुटक के योगसे मा ा आ दका ान रखा जानेसे

म क कमी रह जाती है; इस लये वह सा क य नह होता। अत: यही समझना चा हये क ाणायाम प य म नामका जप परमाव क है। साथ- साथ इ - देवताका ान भी करते रहना चा हये। – उपयु सभी साधक य ारा पाप का नाश कर देनेवाले और य को जाननेवाले ह, इस कथनका ा भाव है? उ र – तेईसव ोकम जो यह बात कही गयी थी क य के लये कम का अनु ान करनेवाले पु षके सम कम वलीन हो जाते ह, वही बात इस कथनसे क गयी है। अ भ ाय यह है क चौबीसव ोकसे लेकर यहाँतक जन य करनेवाले साधक पु ष का वणन आ है, वे सभी ममता, आस और फले ासे र हत होकर य ाथ उपयु साधन का अनु ान करके उनके ारा पूवसं चत कमसं ार- प सम शुभाशुभ कम का नाश कर देनेवाले ह; इस लये वे य के त को जाननेवाले ह। जो मनु उपयु साधन मसे कतने ही साधन को सकामभावसे कसी सांसा रक फलक ा के लये करते ह, वे य प न करनेवाल से ब त अ े ह, परंतु य के त को समझकर य ाथ कम करनेवाले नह ह, अतएव वे कमब नसे मु नह होते। स – इस कार य करनेवाले साधक क शंसा करके अब उन य के करनेसे होनेवाले लाभ और न करनेसे होनेवाली हा न दखलाकर भगवान् उपयु कारसे य करनेक आव कताका तपादन करते ह – य श ामृतभुजो या सनातनम् । नायं लोकोऽ य कु तोऽ ः कु स म ॥३१॥ हे कु े अजुन ! य से बचे ए अमृतका अनुभव करनेवाले योगीजन सनातन पर परमा ाको ा होते ह। और य न करनेवाले पु षके लये तो यह मनु लोक भी सुखदायक नह है , फर परलोक कैसे सुखदायक हो सकता है ? ॥ ३१॥

– यहाँ य से बचा आ अमृत ा है और उसका अनुभव करना ा है? र – लोक स म देवता के न म अ म घृता द पदाथ का हवन करना य

उ है और उससे बचा आ ह व ा ही य श अमृत है। इसी तरह ृ तकार ने जन पंचमहाय ा दका वणन कया है उनम देवता, ऋ ष, पतर, मनु और अ ा णमा के लये यथाश व धपूवक अ का वभाग कर देनेके बाद बचे ए अ को य श अमृत कहा है; कतु यहाँ भगवान् ने उपयु य के पकम परमा ाक ा के ान, संयम, तप, योग, ा ाय, ाणायाम आ द ऐसे साधन का भी वणन कया है जनम अ का स नह है। इस लये यहाँ उपयु साधन का अनु ान करनेसे साधक का अ ःकरण शु होकर उसम जो साद प स ताक उपल होती है ( २।६४- ६५; १८।३६- ३७), वही य से बचा आ

अमृत है, क वह अमृत प परमा ाक ा म हेतु है तथा उस वशु भावसे उ सुखम न तृ रहना ही यहाँ उस अमृतका अनुभव करना है। – उपयु परमा ा के साधन प य का अनु ान करनेवाले पु ष को सनातन पर क ा इसी ज म हो जाती है या ज ा रम होती है? उ र – यह उनके साधनक तपर नभर है। जसके साधनम भावक कमी नह होती, उसको तो इसी ज म और ब त ही शी सनातन पर क ा हो जाती है; जसके साधनम कसी कारक ु ट रह जाती है, उसको उस कमीक पू त होनेपर होती है, परंतु उपयु साधन थ कभी नह होते, साधक को परमा ाक ा प फल अव मलता है ( ६।४०) – यही भाव दखलानेके लये यहाँ यह सामा बात कही है क वे लोग सनातन पर को ा होते ह। – सनातन पर क ा से सगुण क ा मानी जाय या नगुणक ? उ र – सगुण और नगुण दो नह ह, स दान घन परमे र ही सगुण है और वे ही नगुण ह। अपनी भावना और मा ताके अनुसार साधक क म ही सगुण और नगुणका भेद है, वा वम नह । सनातन पर क ा होनेके बाद कोई भेद नह रहता। – यहाँ ' अय ' पद कस मनु का वाचक है और उसके लये यह लोक भी सुखदायक नह है, फर परलोक तो कै से सुखदायक हो सकता है – इस कथनका ा भाव है? उ र – जो मनु उपयु य मसे या इनके सवा जो और भी अनेक कारके साधन प य शा म व णत ह, उनमसे कोई- सा भी य – कसी कार भी नह करता, उस मनु - जीवनके कत का पालन न करनेवाले पु षका वाचक यहाँ ' अय ' पद है। उसको यह लोक भी सुखदायक नह है, फर परलोक तो कै से सुखदायक हो सकता है – इस कथनसे यह भाव दखलाया गया है क उपयु साधन का अ धकार पाकर भी उनम न लगनेके कारण उसको मु तो मलती ही नह , ग भी नह मलता और मु के ार प इस मनु शरीरम भी कभी शा नह मलती; क परमाथ- साधनहीन मनु न - नर र नाना कारक च ा क ालासे जला करता है; फर उसे दूसरी यो नय म तो, जो के वल भोगयो नमा ह और जनम स े सुखक ा का कोई साधन ही नह है, शा मल ही कै से सकती है? मनु - शरीरम कये ए शुभाशुभ कम का ही फल दूसरी यो नय म भोगा जाता है। अतएव जो इस मनु - शरीरम अपने कत का पालन नह करता, उसे कसी भी यो नम सुख नह मल सकता। – इस लोकम शा व हत उ म कम न करनेवाल को और शा वपरीत कम करने- वाल को भी ी, पु , धन, मान, बड़ाई, त ा आ द इ व ु क ा प सुखका

मलना तो देखा जाता है; फर यह कहनेका ा अ भ ाय है क य न करनेवालेको यह मनु लोक भी सुखदायक नह है? उ र – उपयु इ व ु क ा प सुखका मलना भी पूवकृ त शा व हत शुभ कम का ही फल है, पाप कम का नह । इस सुखको वतमान ज म कये ए पाप कम का या शुभ कम के ागका फल कदा प नह समझना चा हये। इसके सवा, उपयु सुख वा वम सु भी नह है। अतएव भगवान् के कहनेका यहाँ यही अ भ ाय है क साधनर हत मनु को इस मनु - शरीरम भी ( जो क परमान प परमा ाक ा का ार है) उसक मूखताके कारण सा क सुख या स ा सुख नह मलता, वरं नाना कारक भोगवासनाके कारण नर र शोक और च ा के सागरम ही डू बे रहना पड़ता है। – पु का माता- पता दक सेवा करना, ीका प तक सेवा करना, श का गु क सेवा करना और इसी कार शा व हत अ ा शुभ कम का करना य ाथ कम करनेके अ गत है या नह और उनको करनेवाला सनातन को ा हो सकता है या नह ? उ र – उपयु सभी कम धम- पालनके अ गत ह, अतएव जब धमपालन प य क पर रा सुर त रखनेके लये परमे रक आ ा मानकर नः ाथभावसे कये जानेवाले यु और कृ ष- वा ण ा द प कम भी य के अ गत ह और उनको करनेवाला मनु भी सनातन को ा हो जाता है, तब माता- पता द गु जन को, गु को और प तको परमे रक मू त समझकर या उनम परमा ाको ा समझकर अथवा उनक सेवा करना अपना कत समझकर उ को सुख प ँ चानेके लये जो नः ाथभावसे उनक सेवा करना है, वह य के लये कम करना है और उससे मनु को सनातन क ा हो जाती है – इसम तो कहना ही ा है? – इस करणम जो भ - भ य के नामसे भ - भ कारके साधन बतलाये गये ह, वे ानयोगीके ारा कये जानेयो ह या कमयोगीके ारा? उ र – चौबीसव ोकम जो ' य ' और पचीसव ोकके उ रा म जो आ ापरमा ाका अभेददशन प य बतलाया गया है, उन दोन का अनु ान तो ानयोगी ही कर सकता है, कमयोगी नह कर सकता; क उनम साधक परमा ासे भ नह रहता। उनको छोड़कर शेष सभी य का अनु ान ानयोगी और कमयोगी दोन ही कर सकते ह, उनम दोन के लये ही कसी कारक अड़चन नह है। स – सोलहव शलोकम भगवान् ने यह बात कही थी क म तु वह कमत बतलाऊँ गा जसे जानकर तुम अशुभसे मु हो जाओगे। उस त ाके अनुसार अठारहव ोकसे यहाँतक उस कमत वणन करके अब उसका उपसंहार करते ह – एवं ब वधा य ा वतता णो मुखे । कमजा ता वानेवं ा ा वमो से ॥३२॥ ी







इसी कार और भी ब त तरहके य वेदक वाणीम व ारसे कहे गये ह। उन सबको तू मन , इ य और शरीरक कया ारा स होनेवाले जान , इस कार त से जानकर उनके अनु ान ारा तू कमब नसे सवथा मु हो जायगा॥ ३२॥

– इसी कार और भी ब त तरहके य वेदक वाणीम व ारसे कहे गये ह, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क मने जो तुमको ये साधन प य बतलाये ह, इतने ही य नह ह, कतु इनके सवा और भी तीक उपासना द ब त कारके य यानी परमा ाक ा के साधन वेदम बतलाये गये ह; उन सबका अनु ान अ भमान, ममता, आस और फले ाके ागपूवक करनेवाले सभी साधक य के लये ही कम

करनेवाले ह। अतएव उपयु य को करनेवाले पु ष क भाँ त वे भी कमब नम न पड़कर सनातन पर को ा हो जाते ह। – यहाँ य द ' ' श का अथ ा या परमे र मान लया जाय और उसके अनुसार य को वेदवाणीम व ृत न मानकर ाके मुखम या परमे रके मुखम व ृत मान लया जाय तो ा आप है? क ' जाप त ाने य स हत जाको उ कया' यह बात तीसरे अ ायके दसव ोकम आयी है और ' परमे रके ारा ा ण, वेद और य क रचना क गयी है' यह बात स हव अ ायके तेईसव ोकम कही गयी है? उ र – जाप त ाक उ भी परमे रसे ही होती है; इस कारण ासे उ होनेवाले वेद, ा ण और य ा दको ासे उ बतलाना अथवा परमे रसे उ बतलाना दोन एक ही बात है। इसी तरह भ - भ य का व ारपूवक वणन वेद म है और वेद का ाकट् य ासे आ है तथा ाक उ परमे रसे; इस कारण य को परमे रसे या ासे उ बतलाना अथवा वेद से उ बतलाना भी एक ही बात है। कतु अ य को वेदसे उ बतलाया गया है ( ३।१५) और उनका व ारपूवक वणन भी वेद म है; इस लये ' ' श का अथ वेद मानकर जैसा अथ कया गया है, वही ठीक मालूम होता है। – उन सबको तू मन, इ य और शरीरक या ारा स होनेवाले जान – इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे भगवान् ने कम के स म तीन बात समझनेके लये कही ह – ( १) यहाँ जन साधन प य का वणन कया गया है एवं इनके सवा और भी जतने कत कम प य शा म बतलाये गये ह, वे सब मन, इ य और शरीरक या ारा ही होते ह। उनमसे कसीका स के वल मनसे है, कसीका मन और इ य से एवं कसीकसीका मन, इ य और शरीर – इन सबसे है। ऐसा कोई भी य नह है, जसका इन तीन मसे कसीके साथ स न हो। इस लये साधकको चा हये क जस साधनम शरीर,

इ य और ाण क याका या संक - वक आ द मनक याका ाग कया जाता है उस ाग प साधनको भी कम ही समझे और उसे भी फल- कामना, आस तथा ममतासे र हत होकर ही करे; नह तो वह भी ब नका हेतु बन सकता है। ( २) ' य ' नामसे कहे जानेवाले जतने भी शा व हत कत कम और परमा ाक ा के भ - भ साधन ह, वे कृ तके काय प मन, इ य और शरीरक या ारा ही होनेवाले ह; आ ाका उनसे कु छ भी स नह है। इस लये कसी भी कम या साधनम ानयोगीको कतापनका अ भमान नह करना चा हये। ( ३) मन, इ य और शरीरक चे ा प कम के बना परमा ाक ा या कमब नसे मु नह हो सकती ( ३।४); कमब नसे छू टनेके जतने भी उपाय बतलाये गये ह, वे सब मन, इ य और शरीरक या ारा ही स होते ह। अत: परमा ाक ा और कमब नसे मु होनेक इ ावाले मनु को ममता, अ भमान, फले ा और आस के ागपूवक कसी- न- कसी साधनम अव ही त र हो जाना चा हये। – इस कार त से जानकर तू कमब नसे सवथा मु हो जायगा, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान् ने यह बात कही है क अठारहव ोकसे यहाँतक मने जो तुमको कम का त बतलाया है, उसके अनुसार सम य को उपयु कारसे भलीभाँ त त से जानकर तुम कमब नसे मु हो जाओगे; क इस त को समझकर कम करनेवाले पु षके कम ब नकारक नह होते, ब पूवसं चत कम का भी नाश करके म दायक हो जाते ह। स – उपयु करणम भगवान् ने कई कारके य का वणन कया और यह बात भी कही क इनके सवा और भी ब त - से य वेद - शा म बतलाये गये ह ; इस लये यहाँ यह ज ासा होती है क उन य मसे कौन - सा य े है। इसपर भगवान् कहते ह – ेया मया ा ानय ः पर प । सव कमा खलं पाथ ाने प रसमा ते ॥३३॥ हे पर प अजुन ! मय य क अपे ा ानय अ स ूण कम ानम समा हो जाते ह॥ ३३॥

– यहाँ

े है, तथा याव ा

मय य कस य का वाचक है और ानय कस य का? तथा मय य क अपे ा ानय को े बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – जस य म क अथात् सांसा रक व ुक धानता हो, उसे मय य कहते ह। अत: अ म घृत, चीनी, दही, दूध, तल, जौ, चावल, मेवा, च न, कपूर, धूप और ँ

सुग यु ओष धयाँ आ द ह वका व धपूवक हवन करना, दान देना; परोपकारके लये कु आँ , बावली, तालाब, धमशाला आ द बनवाना, ब लवै देव करना आ द जतने सांसा रक पदाथ से स रखनेवाले शा व हत शुभ कम ह – वे सब मय य के अ गत ह। उपयु साधन म इसका वणन दैव- य , वषय- हवन प य और य के नामसे आ है। इनसे भ जो ववेक, वचार और आ ा क ानसे स रखनेवाले साधन ह, वे सब ानय के अ गत ह। यहाँ मय य से ानय को े बतलाकर भगवान् ने यह भाव दखलाया है क य द कोई साधक अपने अ धकारके अनुसार शा व हत अ हो , ा णभोजन, दान आ द शुभ कम का अनु ान न करके के वल आ संयम, शा ा यन, त वचार और योगसाधन आ द ववेक- व ानस ी शुभ कम मसे कसी एकका भी अनु ान करता है तो यह नह समझना चा हये क वह शुभ कम का ागी है, ब यही समझना चा हये क वह उनक अपे ा भी े काय कर रहा है; क य भी ममता, आस और फले ाका ाग कर ानपूवक कये जानेपर ही मु का हेतु होता है, नह तो उलटा ब नका हेतु बन जाता है और उपयु साधन म लगे ए मनु तो पसे भी वषय का ाग करते ह। उनके काय म हसा द दोष पसे भी नह है – इससे भी वे उ म ह। यथाथ ान ( त ान)- क ा म भावक धानता है, सांसा रक व ु के व ारक नह । इसी लये यहाँ मय य क अपे ा ानय को े बतलाया है। – यहाँ ' अ खलम् ' और ' सवम् ' वशेषणके स हत ' कम' पद कसका वाचक है और ' याव ा स ूण कम ानम समा हो जाते ह' इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – उपयु करणम जतने कारके साधन प कम बतलाये गये ह तथा इनके सवा और भी जतने शुभ कम प य वेद- शा म व णत ह ( ४।३२), उन सबका वाचक यहाँ ' अ खलम् ' और ' सवम् ' वशेषण के स हत ' कम ' पद है। अत: याव ा स ूण कम ानम समा हो जाते ह, इस कथनसे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क इन सम साधन का बड़े- से- बड़ा फल परमा ाका यथाथ ान ा करा देना है। जसको यथाथ ान ारा परमा ाक ा हो जाती है उसे कु छ भी ा होना शेष नह रहता। – इस ोकम आये ए ' ानय ' और ' ान' इन दोन श का एक ही अथ है या अलग- अलग? उ र – दोन का एक अथ नह हे; ' ानय ' श तो यथाथ ान ा के लये कये जानेवाले ववेक, वचार और संयम- धान साधन का वाचक है और ' ान' श सम साधन के फल प परमा ाके यथाथ ान ( त ान)- का वाचक है। इस कार दोन के अथम भेद है।

इस कार ानय क और उसके फल प ानक शंसा करके अब भगवान् दो ोक म ानको ा करनेके लये अजुनको आ ा देते ए उसक ा का माग और उसका फल बतलाते ह – त णपातेन प र ेन सेवया । उपदे ते ानं ा नन द शनः ॥३४॥ उस ानको तू त दश ा नय के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँ त द वत् णाम करनेस,े उनक सेवा करनेसे और कपट छेड़कर सरलतापूवक करनेसे वे परमा त को भलीभाँ त जाननेवाले ानी महा ा तुझे उस त ानका उपदेश करगे॥ ३४॥ – यहाँ ' तत् ' पद कसका वाचक है? उ र – सम साधन के फल प जस त ानक पूव ोकम शंसा क गयी है और जो परमा ाके पका यथाथ ान है, उसका वाचक यहाँ ' तत् ' पद है। – उस ानको जाननेके लये कहनेका ा भाव है? उ र – इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क परमा ाके यथाथ त को बना जाने मनु ज - मरण प कमब नसे नह छू ट सकता, अत: उसे अव जान लेना चा हये। – यहाँ त दश ा नय से ानको जाननेके लये कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – भगवान् के बार- बार परमा त क बात कही जानेपर भी उसके न समझनेसे अजुनम ाक कु छ कमी स होती है। अतएव उनक ा बढ़ानेके लये अ ा नय से ान सीखनेके लये कहकर उ चेतावनी दी गयी है। – ' णपात' कसको कहते ह? उ र – ा- भ पूवक सरलतासे द वत् णाम करना ' णपात' कहलाता है। – ' सेवा' कसको कहते ह? उ र – ा- भ पूवक महापु ष के पास नवास करना, उनक आ ाका पालन करना, उनके मान सक भाव को समझकर हरेक कारसे उनको सुख प ँ चानेक चे ा करना – ये सभी सेवाके अ गत ह। – ' प र ' कसको कहते ह। उ र – परमा ाके त को जाननेक इ ासे ा और भ भावसे कसी बातको पूछना ' प र ' है। अथात् म कौन ँ ? माया ा है? परमा ाका ा प है? मेरा और परमा ाका ा स है? ब न ा है? मु ा है? और कस कार साधन करनेसे परमा ाक ा होती है? – इ ा द अ ा वषयक सम बात को ा, भ और सरलतापूवक पूछना ही ' प र ' है; तक और वत ासे करना ' प र ' नह है। – णाम करनेस,े सेवा करनेसे और सरलतापूवक करनेस,े त ानी तुझे ानका उपदेश करगे – इस कथनका ा अ भ ाय है? ा ानीजन इन सबके बना ानका स



उपदेश नह करते? उ र – उपयु कथनसे भगवान् ने ानक ा म ा, भ और सरलभावक आव कताका तपादन कया है। अ भ ाय यह है क ा- भ र हत मनु को दया आ उपदेश उसके ारा हण नह होता; इसी कारण महापु ष को णाम, सेवा और आदरस ारक कोई आव कता न होनेपर भी, अ भमानपूवक, उ तासे, परी ाबु से या कपटभावसे करनेवालेके सामने त ानस ी बात कहनेम उनक वृ नह आ करती। अतएव जसे त ान ा करना हो, उसे चा हये क ा- भ पूवक महापु ष के पास जाकर उनको आ समपण करे, उनक भलीभाँ त सेवा करे और अवकाश देखकर उनसे परमा ाके त क बात पूछे। ऐसा करनेसे जैसे बछड़ेको देखकर वा भावसे गौके न म और ब ेके लये माँके न म दूधका ोत बहने लग जाता है, वैसे ही ानी पु ष के अ ःकरणम उस अ धकारीको उपदेश करनेके लये ानका समु उमड़ आता है। इस लये ु तम भी कहा है– (मु

' त

ानाथ स गु मेवा भग

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कोप नषद १।२।१२) अथात् उस त ानको जाननेके लये वह ( ज ासु साधक) स मधा – यथाश भट हाथम लये ए नर भमान होकर वेद- शा के ाता त ानी महा ा पु षके पास जावे। – यहाँ ' ा नन : ' के साथ ' त द शन : ' वशेषण देनेका और उसम ब वचनके योगका ा भाव है? उ र – ' ा नन : ' के साथ ' त द शन : ' वशेषण देकर भगवान् ने यह भाव दखलाया है क परमा ाके त को भलीभाँ त जाननेवाले वेदवे ा ानी महापु ष ही उस त ानका उपदेश दे सकते ह, के वल शा के ाता या साधारण मनु नह तथा यहाँ ब वचनका योग ानी महापु षको आदर देनेके लये कया गया है, यह कहनेके लये नह क तु ब त- से त ानी मलकर ानका उपदेश करगे। य ा ा न पुनम हमेवं या स पा व । येन भूता शेषेण ा थो म य ॥ ४-३५॥ जसको जानकर फर तू इस कार मोहको नह ा होगा तथा हे अजुन ! जस ानके ारा तू स ूण भूत को नःशेषभावसे पहले अपनेम और पीछे मुझ स दान घन परमा ाम देखेगा॥ ३५॥

– यहाँ ' यत् ' पद कसका वाचक है? उसको जानना कारसे मोहको नह ा होगा' इस कथनका ा अ भ ाय है?



ा है? तथा ' फर इस

उ र – यहाँ ' यत् ' पद पूव ोकम व णत ानी महापु ष ारा उप द त ानका वाचक है और उस उपदेशके अनुसार परमा ाके पको भलीभाँ त कर लेना ही उस ानको जानना है। तथा ' फर इस कारसे मोहको नह ा होगा' इस कथनसे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क इस समय तुम जस कार मोहके वश होकर शोकम नम हो रहे हो ( १।२८- ४७; २।६, ८) महापु ष ारा उप द ानके अनुसार परमा ाका सा ात् कर लेनेके बाद पुन: तुम इस कारके मोहको नह ा होओगे। क जैसे रा के समय सब जगह फै ला आ अ कार सूय दय होनेके बाद नह रह सकता, उसी कार परमा ाके पका यथाथ ान हो जानेके बाद ' म कौन ँ ? संसार ा है? माया ा है? ा है?' इ ा द कु छ भी जानना शेष नह रहता। फलत: शरीरको आ ा समझकर उससे स रखनेवाले ा णय म और पदाथ म ममता करना, शरीरक उ - वनाशसे आ ाका ज - मरण समझकर उन सबके संयोग- वयोगम सुखी- दुःखी होना तथा अ कसी भी न म से रागेष और हष- शोक करना आ द मोहज नत वकार जरा भी नह हो सकते। लौ कक सूय तो उदय होकर अ भी होता है और उसके अ होनेपर फर अ कार हो जाता है; परंतु यह ानसूय एक बार उदय होनेपर फर कभी अ होता ही नह । परमा ाका यह त ान न और अचल है, इसका कभी अभाव नह होता; इस कारण परमा ाका त ान होनेके बाद फर मोहक उ हो ही नह सकती। ु त कहती है – य

न् सवा ण भूता ा ैवाभू जानत : । त को मोह : क : शोक एक मनुप त : ॥ (ईशावा ोप नषद् ७ )

अथात् जस समय त ानको ा ए पु षके लये सम ाणी आ प ही हो जाते ह, उस समय उस एक दश पु षको कौन- सा शोक और कौन- सा मोह हो सकता है? अथात् कु छ भी नह हो सकता। – ानके ारा स ूण भूत को नःशेषभावसे आ ाके अ गत देखना ा है? उ र – महापु ष से परमा ाके त - ानका उपदेश पाकर आ ाको सव ापी, अन प समझना तथा सम ा णय म भेद- बु का अभाव होकर सव आ भाव हो जाना – अथात् जैसे से जगा आ मनु के जगत् को अपने अ गत ृ तमा देखता है, वा वम अपनेसे भ अ कसीक स ा नह देखता, उसी कार सम जगत् को अपनेसे अ भ और अपने अ गत समझना स ूण भूत को नःशेषतासे आ ाके अ गत देखना है ( ६।२९) । इस कार आ ान होनेके साथ ही मनु के शोक और मोहका सवथा अभाव हो जाता है। – इस कार आ दशन हो जानेके बाद स ूण भूत को स दान घन परमा ाम देखना ा है?

उ र – स ूण भूत को स दान घन परमा ाम देखना पूव आ दशन प तका फल है; इसीको परमपदक ा , नवाण- क ा और परमा ाम व हो जाना भी कहते ह। इस तको ा ए पु षका अहंभाव सवथा न हो जाता है; उस समय उस योगीक परमा ासे पृथक् स ा नह रहती, के वल एक स दान घन ही रह जाता है। उसका सम भूत को परमा ाम त देखना भी शा - से कहनेमा को ही है; क उसके लये ा और का भेद ही नह रहता, तब कौन देखता है और कसको देखता है? यह त वाणीसे सवथा अतीत है, इस लये वाणीसे इसका के वल संकेतमा कया जाता है, लोक म उस ानीके जो मन, बु और शरीर आ द रहते ह, उनके भाव को लेकर ही ऐसा कहा जाता है क वह सम ा णय को स दान घन म देखता है; क व ुत: उसक बु म स ूण जगत् जलम बरफ, आकाशम बादल और णम आभूषण क भाँ त प ही हो जाता है, कोई भी पदाथ या ाणी से भ नह रह जाता। छठे अ ायके स ाईसव ोकम जो योगीका ' भूत' हो जाना तथा उनतीसव ोकम ' योगयु ा ा ' और सव समदश योगीका जो सब भूत को आ ाम त देखना और सब भूत म आ ाको त देखना बतलाया गया है, वह तो यहाँ ' स आ न ' से बतलायी ई पहली त है और उस अ ायके अ ाईसव ोकम जो - सं श प अ सुखक ा बतलायी गयी है, वह यहाँ ' अथो म य ' से बतलायी ई उस पहली तक फल पा दूसरी त है। अठारहव अ ायम भी भगवान् ने ानयोगके वणनम चौवनव ोकम योगीका भूत होना बतलाया है और पचपनवम ान प पराभ के ारा उसका परमा ाम व होना बतलाया है। वही बात यहाँ दखलायी गयी है। स – इस कार गु जन से त ान सीखनेक व ध और उसका फल बतलाकर अब उसका माहा बतलाते ह – अ प चेद स पापे ः सव ः पापकृ मः । सव ान वेनैव वृ जनं स र स ॥३६॥ य द तू अ सब पा पय से भी अ धक पाप करनेवाला है ; तो भी तू ान प नौका ारा नःसंदेह स ूण पाप-समु से भलीभाँ त तर जायगा॥ ३६॥ – इस ोकम ' चेत् ' और ' अ प ' पद का योग करके ा भाव दखलाया

गया है?

उ र – इन पद के योगसे भगवान् ने अजुनको यह बतलाया है क तुम वा वम पापी नह हो, तुम तो देवी स दाके ल ण से यु ( १६।५) तथा मेरे य भ और सखा हो ( ४।३); तु ारे अंदर पाप कै से रह सकते ह। परंतु इस ानका इतना भाव और माहा है क य द तुम अ धक- से- अ धक पापकम होओ तो भी तुम इस ान प नौकाके ारा उन

समु के समान अथाह पाप से भी अनायास तर सकते हो। बड़े- से- बड़े पाप भी तु अटका नह सकते। – जसका अ ःकरण शु नह आ है, ऐसा अ पापा ा मनु तो ानका अ धकारी भी नह माना जा सकता; तब फर वह ाननौका ारा पाप से कै से तर जाता है? उ र – ' चेत् ' और ' अ प ' – पद का योग होनेसे यहाँ इस शंकाक गुंजाइश नह है, क भगवान् के कहनेका यहाँ यह भाव है क पापी ानका अ धकारी नह होता, इस कारण उसे ान प नौकाका मलना क ठन है; पर मेरी कृ पासे या महापु ष क दयासे – कसी भी कारणसे य द उसे ान ा हो जाय तो फर वह चाहे कतना ही बड़ा पापी न हो, उसका त ाल ही पाप से उ ार हो जाता है। – यहाँ पाप से तरनेक बात कहनेका ा भाव है, क सकामभावसे कये ए पु कम भी तो मनु को बाँधनेवाले ह? उ र – पु कम भी सकामभावसे कये जानेपर ब नके हेतु होते ह; अत: सम कमब न से सवथा छू टनेपर ही सम पाप से तर जाता है, यह ठीक ही है। कतु पु कम का ाग करनेम तो मनु त है ही, उनके फलका ाग तो वह जब चाहे तभी कर सकता है; परंतु ानके बना पाप से तर जाना उसके हाथक बात नह है। इस लये पाप से तरना कह देनेसे पु कम के ब नसे मु होनेक बात उसके अ गत ही आ जाती है। – ान प नौकाके ारा स ूण पापसमु से भलीभाँ त तर जाना ा है? उ र – जस कार नौकाम बैठकर मनु अगाध जलरा शपर तैरता आ उसके पार चला जाता है, उसी कार ानम त होकर ( ानके ारा) अपनेको सवथा संसारसे असंग, न वकार, न और अन समझकर पहलेके अनेक ज म तथा इस ज म कये ए सम पापसमुदायको जो अ त मण कर जाना है – अथात् सम कमब न से सदाके लये सवथा मु हो जाना है, यही ान प नौकाके ारा स ूण पापसमुदायसे भलीभाँ त तर जाना है। – इस ोकम ' एव ' पदका ा भाव है? उ र – ' एव ' पद यहाँ न यके अथम है। उसका भाव यह है क काठक नौकाम बैठकर जलरा शपर तैरनेवाला मनु तो कदा चत् उस नौकाके टूट जानेसे या उसम छेद हो जाने अथवा तूफान आनेसे नौकाके साथ- ही- साथ यं भी जलम डू ब सकता है। पर यह ान प नौका न है; इसका अवल न करनेवाला मनु नःस ेह पाप से तर जाता है, उसके पतनक जरा भी आशंका नह रहती। स – कोई भी ा परमाथ वषयको पूण पसे नह समझा सकता, उसके एक अंशको ही समझानेके लये उपयोगी होता है; अतएव पूव ोकम बतलाये ए ानके मह को अ के ा से पुनः करते ह –

यथैधां स स म ोऽ भ सा ु तेऽजुन । ाना ः सवकमा ण भ सा ु ते तथा ॥३७॥

ान प अ

क हे अजुन! जैसे लत अ धन को भ मय कर देता है, वैसे ही स ूण कम को भ मय कर देता है॥ ३७॥

– इस

ोकम अ क उपमा देते ए ान प अ के ारा स ूण कम का भ मय कया जाना बतलाकर ा बात कही गयी है? उ र – इससे यह बात समझायी गयी है क जस कार लत अ सम का ा द धनके समुदायको भ प बनाकर उसे न कर देता है, उसी कार त ान प अ जतने भी शुभाशुभ कम ह, उन सबको – अथात् उनके फल प सुख- दुःख भोग के तथा उनके कारण प अ व ा और अहंता- ममता, राग- ेष आ द सम वकार के स हत सम कम को न कर देता है। ु तम भी कहा है – भ ते दय े सवसंशया : । ीय े चा कमा ण त ृ े परावरे॥

(मु

कोप नषद २।२।८ ) ानीके जड- चेतनक

अथात् उस परावर परमा ाका सा ा ार हो जानेपर इस एकता प दय का भेदन हो जाता है; जड देहा दम जो अ ानसे आ ा भमान हो रहा है, उसका तथा सम संशय का नाश हो जाता है; फर परमा ाके प ानके वषयम कसी कारका क च ा भी संशय या म नह रहता और सम कम फलस हत न हो जाते ह। इस अ ायके उ ीसव ोकम ' ाना - द कमाणम् ' वशेषणसे भी यही बात कही गयी है। इस ज और ज ा रम कये ए सम कम सं ार पसे मनु के अ ःकरणम एक त रहते ह, उनका नाम ' सं चत' कम है। उनमसे जो वतमान ज म फल देनेके लये ुत हो जाते ह उनका नाम ' ार ' कम है और वतमान समयम कये जानेवाले कम को ' यमाण' कहते ह। उपयु त ान प अ के कट होते ही सम पूवसं चत सं ार का अभाव हो जाता है। मन, बु और शरीरसे आ ाको असंग समझ लेनेके कारण उन मन, इ य और शरीरा दके साथ ार भोग का स होते ए भी उन भोग के कारण उसके अ ःकरणम हष- शोक आ द वकार नह हो सकते। इस कारण वे भी उसके लये न हो जाते ह और यमाण कम म उसका कतृ ा भमान तथा ममता, आस और वासना न रहनेके कारण उनके सं ार नह बनते; इस लये वे कम वा वम कम ही नह ह। इस कार उसके सम कम का नाश हो जाता है और जब कम ही न हो जाते ह, तब उनका फल तो हो ही कै से सकता है? ओर बना सं चत सं ार के उसम राग- ेष तथा ँ

हष- शोक आ द वकार क वृ याँ भी कै से हो सकती ह? अतएव उसके सम वकार और सम कमफल भी कम के साथ ही न हो जाते ह। स – इस कार च तीसव शलोकसे यहाँतक त ानी महापु ष क सेवा आ द करके त ानको ा करनेके लये कहकर भगवान् ने उसके फलका वणन करते ए उसका माहा बतलाया। इसपर यह ज ासा होती है क यह त ान ानी महापु ष से वण करके व धपूवक मनन और न द ासना द ानयोगके साधन ारा ही ा कया जा सकता है या इसक का कोई दूसरा माग भी ह; इसपर अगले ोकम पुनः उस ानक म हमा कट करते ए भगवान् कमयोगके ारा भी वही ान अपने- आप ा होनेक बात कहते ह – न ह ानेन स शं प व मह व ते । त यं योगसं स ः कालेना न व त ॥३८॥

इस संसारम ानके समान प व करनेवाला नःसंदेह कुछ भी नह है। उस ानको कतने ही कालसे कमयोगके ारा शु ा ःकरण आ मनु अपने - आप ही आ ाम पा लेता है॥ ३८॥

इस संसारम ानके समान प व करनेवाला नःसंदेह कु छ भी नह है, इस वा का ा भाव है? उ र – इस वा से यहाँ यह भाव दखलाया गया है क इस जगत् म य , दान, तप, सेवा- पूजा, त- उपवास, ाणायाम, शम- दम, संयम और जप- ान आ द जतने भी साधन तथा गंगा, यमुना, वेणी आ द जतने भी तीथ मनु के पाप का नाश करके उसे प व करनेवाले ह, उनमसे कोई भी इस यथाथ ानक बराबरी नह कर सकता; क वे सब इस त ानके साधन ह और यह ान उन सबका फल ( सा ) है; वे सब इस ानक उ म सहायक होनेके कारण ही प व माने गये ह। इससे मनु परमा ाके   यथाथ पको भलीभाँ त जान लेता है; उसम झूठ, कपट, चोरी, जारी आ द पाप का, राग- ेष, हष- शोक, अहंता- ममता आ द सम वकार का और अ ानका सवथा अभाव हो जानेसे वह परम प व बन जाता है। उसके मन, इ य और शरीर भी अ प व हो जाते ह; इस कारण ापूवक उस महापु षका दशन, श, व न, च न आ द करनेवाले तथा उसके साथ वातालाप करनेवाले दूसरे मनु भी प व हो जाते ह। इस लये संसारम परमा ाके त ानके समान प व व ु दूसरी कु छ भी नह है। – ' इह ' पदके योगका ा भाव है? उ र – ' इह ' पदके योगसे यह भाव दखलाया गया है क कृ तके काय प इस जगत् म ानके समान कु छ भी नह है, सबसे बढ़कर प व करनेवाला ान ही है। कतु जो इस कृ तसे सवथा अतीत, सव ापी, सवश मान्, सवलोक- महे र, गुण के समु , सगुण–

नगुण, साकार- नराकार- प परमे र इस कृ तके अ ह, जनके पका सा ात् करानेवाला होनेसे ही ानक प व ता है, वे सबके सु द,् सवाधार परमा ा तो परम प व ह; उनसे बढ़कर यहाँ ानको प व नह बतलाया गया है। क परमा ाके समान ही दूसरा कोई नह है, तब उनसे बढ़कर कोई कै से हो सकता है? इस लये अजुनने कहा भी है – ' परं परं धाम प व ं परमं भवान्। ' ( १०।१२) अथात् आप पर , परमधाम और परम प व ह तथा भी जीने भी कहा है – ' प व ाणां प व ं यो मंगलानां च मंगलम्। ' अथात् वे परमे र प व करनेवाल म अ तशय प व और क ाण म भी परम क ाण प ह ( महा०, अनु० १४९।१०) । – ' योगसं स ः ' पद कसका वाचक है और ' वह उस ानको अपने- आप ही आ ाम पा लेता है' इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – कतने ही कालतक कमयोगका आचरण करते- करते राग- ेषके न हो जानेसे जसका अ ःकरण हो गया है, जो कमयोगम भलीभाँ त स हो गया है, जसके सम कम ममता, आस और फले ाके बना भगवान् क आ ाके अनुसार भगवान् के ही लये होते ह – उसका वाचक यहाँ ' योगसं स ः ' पद है। अतएव इस कार योगसं स पु ष उस ानको अपने- आप आ ाम पा लेता है – इस वा से यह भाव समझना चा हये क जस समय उसका साधन अपनी सीमातक प ँ च जाता है उसी ण परमे रके अनु हसे उसके अ ःकरणम अपने- आप उस ानका काश हो जाता है। अ भ ाय यह है क उस ानक ा के लये उसे न तो कोई दूसरा साधन करना पड़ता है और न ान ा करनेके लये ा नय के पास नवास ही करना पड़ता है; बना कसी दूसरे कारके साधन और सहायताके के वल कमयोगके साधनसे ही उसे वह ान भगवान् क कृ पासे अपने- आप ही मल जाता है। स – इस कार त ानक म हमा कहते ए उसक ा के सां योग और कमयोग – दो उपाय बतलाकर, अब भगवान् उस ानक ा के पा का न पण करते ए उस ानका फल परम शा क ा बतलाते ह – ावाँ भते ानं त रः संयते यः । ानं ल ा परां शा म चरेणा धग त ॥३९॥ जते य, साधनपरायण और ा होकर वह बना वल के – त जाता है॥ ३९॥

–'

कथनका ा भाव है?

ावान् ' पद कै से मनु

ावान् मनु ानको ा होता है तथा ानको ाल ही भगव ा प परम शा को ा हो

का वाचक है और वह ानको ा होता है, इस

उ र – वेद, शा , ई र और महापु ष के वचन म तथा परलोकम जो क भाँ त व ास है एवं उन सबम परम पू ता और उ मताक भावना है – उसका नाम ा है; और ऐसी ा जसम हो, उसका वाचक ' ावान् ' पद है। अत: उपयु कथनका यहाँ यह भाव है क ऐसा ावान् मनु ही ानी महा ा के पास जाकर णाम, सेवा और वनययु आ दके ारा उनसे उपदेश ा करके ानयोगके साधनसे या कमयोगके साधनसे उस त ानको ा कर सकता है; ार हत मनु उस ानक ा का पा नह होता। – बना ाके भी मनु महापु ष के पास जाकर णाम, सेवा और कर सकता है; फर ानक ा म ाको धानता देनेका ा अ भ ाय है? उ र – बना ाके उनक परी ाके लये, अपनी व ा दखलानेके लये और मान- त ाके उ े से या द ाचरणके लये भी मनु महा ा के पास जाकर णाम, सेवा और तो कर सकता है, पर इससे उसको ानक ा नह होती; क बना ाके कये ए य , दान, तप आ द सभी साधन को थ बतलाया गया है ( १७।२८) । इस लये ानक ा म ा ही धान हेतु है। जतनी अ धक ासे ानके साधनका अनु ान कया जाता है, उतना ही अ धक शी वह साधन ान कट करनेम समथ होता है। – ान- ा म य द ाक धानता है, तब फर यहाँ ावान् के साथ ' त र : ' वशेषण देनेक ा आव कता थी? उ र – साधनक त रताम भी ा ही कारण है और त रता ाक कसौटी है। ाक कमीके कारण साधनम अकम ता और आल आ द दोष आ जाते ह। इससे अ ास त रताके साथ नह होता। ाके त को न जाननेवाले साधक लोग अपनी थोड़ीसी ाको भी ब त मान लेते ह; पर उससे कायक स नह होती, तब वे अपने साधनम त रताक ु टक ओर ान न देकर यह समझ लेते ह क ा होनेपर भी भगव ा नह होती। कतु ऐसा समझना उनक भूल है। वा वम बात यह है क साधनम जतनी ा होती है, उतनी ही त रता होती है। जैसे एक मनु का धनम ेम है, वह कोई ापार करता है। य द उसको यह व ास होता है क इस ापारसे मुझे धन मलेगा, तो वह उस ापारम इतना त र हो जाता है क खाना- पीना, सोना, आराम करना आ दके त म होनेपर तथा शारी रक ेश होनेपर भी उसे उसम क नह मालूम होता; ब धनक वृ से उ रो र उसके च म स ता ही होती है। इसी कार अ सभी बात म व ाससे ही त रता होती है। इस लये परम शा और परम आन दायक, न व ानान घन परमा ाक ा का सा ात् ार जो परमा ाके त का ान है, उसम और उसके साधनम ा होनेके बाद साधनम अ तशय त रताका होना ाभा वक ही है। य द साधनम त रताक कमी है तो

समझना चा हये क ाक अव कमी है। इसी बातको जनानेके लये ' ावान्' के साथ ' त र : ' वशेषण दया गया है। – ा और त रता दोन होनेपर तो ानक ा होनेम कोई शंका ही नह रहती, फर ावान् के साथ दूसरा वशेषण ' संयते यः ' देनेक ा आव कता थी? उ र – इसम कोई स हे नह क ापूवक ती अ ास करनेसे पाप का नाश एवं संसारके वषयभोग म वैरा होकर मनस हत इ य का संयम हो जाता है और फर परमा ाके पका यथाथ ान भी हो जाता है; कतु इस बातके रह को न जाननेवाला साधक थोड़े- से अ ासको ही ती अ ास मान लेता है; उससे कायक स होती नह , इस लये वह नराश होकर उसको छोड़ बैठता है। अतएव साधकको सावधान करनेके लये ' संयते यः ' वशेषण देकर यह बात बतलायी गयी है क जबतक इ य और मन अपने काबूम न आ जायँ तबतक ापूवक क टब होकर उ रो र ती अ ास करते रहना चा हये; क ापूवक ती अ ासक कसौटी इ यसंयम ही है। जतना ही ापूण ती अ ास कया जाता है, उ रो र उतना ही इ य का संयम होता जाता है। अतएव इ यसंयमक जतनी कमी है, उतनी ही साधनम कमी समझनी चा हये और साधनम जतनी कमी है उतनी ही ाम ु ट समझनी चा हये – इसी बातको जनानेके लये ' संयते यः ' वशेषण दया गया है। – ानको ा होकर वह बना वल के – त ाल ही भगव ा प परम शा को ा हो जाता हे, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क जैसे सूय दय होनेके साथ ही उसी ण अ कारका नाश होकर सब पदाथ हो जाते ह, उसी कार परमा ाके त का ान होनेपर उसी ण अ ानका नाश होकर परमा ाके पक ा हो जाती है ( ५।१६) । अ भ ाय यह है क अ ान और उसके काय प वासना के स हत राग- ेष, हष- शोक आ द वकार का तथा शुभाशुभ कम का अ अभाव, परमा ाके त का ान एवं परमा ाके पक ा – ये सब एक ही कालम होते ह और व ानान घन परमा ाक सा ात् ा को ही यहाँ परम शा के नामसे कहा गया है स – इस कार ावान् को ानक ा और उस ानसे परम शा क ा बतलाकर अब ा और ववेकहीन संशया ाक न ा करते ह – अ ा धान संशया ा वन त । नायं लोकोऽ न परो न सुखं संशया नः ॥४०॥ ववेकहीन और ार हत संशययु मनु परमाथसे अव हो जाता है। ऐसे संशययु मनु के लये न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है॥ ४०॥

– ' अ ः ' और ' अ

धान : ' इन दोन

वशेषण के स हत ' संशया ा ' पद हो जाता है – इस कथनका ा भाव

कै से मनु का वाचक है और वह परमाथसे अव है? उ र – जसम स - अस और आ - अना - पदाथ का ववेचन करनेक श नह है इस कारण जो कत - अकत आ दका नणय नह कर सकता, ऐसे ववेकानर हत मनु का वाचक यहाँ ' अ ः ' पद है; जसक ई र और परलोकम, उनक ा के उपाय बतलानेवाले शा म, महापु ष म और उनके ारा बतलाये ए साधन म एवं उनके फलम ा नह है – उसका वाचक ' अ धान : ' पद है तथा ई र और परलोकके वषयम या अ कसी भी वषयम जो कु छ भी न य नह कर सकता, ेक वषयम संशययु रहता है – उसका वाचक ' संशया ा ' पद है। जस संशया ा मनु म उपयु अ ता और अ ालुता – ये दोन दोष ह उसका वाचक यहाँ ' अ ः ' और ' अ धान : ' – इन दोन वशेषण के स हत ' संशया ा ' पद है। ' वह परमाथसे अव हो जाता है।' इस कथनसे यह भाव दखाया गया है क वेद- शा और महापु ष के वचन को तथा उनके बतलाये ए साधन को ठीक- ठीक न समझ सकनेके कारण तथा जो कु छ समझम आवे उसपर भी व ास न होनेके कारण जसको हरेक वषयम संशय होता रहता है जो कसी कार भी अपने कत का न य नह कर पाता, हर हालतम संशययु रहता है वह मनु अपने मनु - जीवनको थ ही खो बैठता है, उससे हो सकनेवाले परम लाभसे सवथा वं चत रह जाता है। कतु जसम हरेक वषयको यं ववेचन करनेक श है और जसक वेद- शा और महापु ष के वचन म ा है वह इस कार न नह होता, वह उनक सहायतासे अजुनक भाँ त अपने संशयका सवथा नाश करके कत परायण हो सकता है और कृ तकृ होकर मनु - ज को सफल बना सकता है। तथा जसम यं ववेचन करनेक श नह है ऐसा अ मनु भी य द ालु हो तो ाके कारण महपु ष के कथनानुसार संशयर हत होकर साधनपरायण हो सकता है और उनक कृ पासे उसका भी क ाण हो सकता है ( १३।२५), परंतु जस संशययु पु षम न ववेकश है और न ा ही है उसके संशयके नाशका कोई उपाय नह रह जाता, इस लये जबतक उसम ा या ववेक नह आ जाता उसका अव पतन हो जाता है। – ' संशययु मनु के लये न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है' इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे यह भाव दखाया है क संशययु मनु के वल परमाथसे हो जाता है इतनी ही बात नह है, जबतक मनु म संशय व मान रहता है, वह उसका नाश नह कर लेता, तबतक वह न तो इस लोकम यानी मनु - शरीरम रहते ए धन, ऐ य या यशक ा कर सकता है, न परलोकम यानी मरनेके बाद गा दक ा कर सकता है और न कसी कारके सांसा रक सुख को ही भोग सकता है; क जबतक मनु कसी भी

वषयम संशययु रहता है, कोई न य नह कर लेता, तबतक वह उस वषयम सफलता नह पा सकता। अत: मनु को ा और ववेक ारा इस संशयका अव ही नाश कर डालना चा हये। स – इस कार अ ववेक और अ ाके स हत संशयको ान ा म बाधक बतलाकर, अब ववेक ारा संशयका नाश करके कमयोगका अनु ान करनेम अजुनका उ ाह उ करनेके लये संशयर हत तथा वशम कये ए अ ःकरणवाले कमयोगीक शंसा करते ह– योगसं कमाणं ानस संशयम् । आ व ं न कमा ण नब धन य ॥४१॥ हे धनंजय ! जसने कमयोगक व धसे सम कम का परमा ाम अपण कर दया है और जसने ववेक ारा सम संशय का नाश कर दया है, ऐसे वशम कये ए अ ःकरणवाले पु षको कम नह बाँधते॥ ४१॥

– ' योगस

कमाणम् ', इस पदम ' योग' श

का अथ ानयोग मानकर इस पसे ाग करनेवाला मान लया

पदका अथ ानयोगके ारा शा व हत सम कम का जाय तो ा आप है? उ र – यहाँ पसे कम के ागका करण नह है। इस ोकम जो यह बात कही गयी है क ' योग ारा कम का सं ास करनेवाले मनु को कम नह बाँधते', इसी बातको अगले ोकम ' त ात् ' पदसे आदश बतलाते ए भगवान् ने अजुनको योगम त होकर यु करनेके लये आ ा दी है। य द इस ोकम ' योगस कमाणम् ' पदका पसे कम का ाग अथ भगवान् को अ भ ेत होता तो भगवान् ऐसा नह कहते। इस लये यहाँ ' योगस कमाणम् ' का अथ पसे कम का ाग कर देनेवाला न मानकर कमयोगके ारा सम कम म और उनके फलम ममता, आस और कामनाका सवथा ाग करके उन सबको परमा ाम अपण कर देनेवाला ागी ( ३।३०; ५।१०) मानना ही उ चत है; क उ पदका अथ करणके अनुसार ऐसा ही जान पड़ता है। – ' ानसं छ संशयम् ' पदम ' ान' श का ा अथ है? गीताम ' ान' श कन- कन ोक म कन- कन अथ म व त आ है? उ र – उपयु पदम ' ान' श कसी भी व ुके पका ववेचन करके त षयक संशयका नाश कर देनेवाली ववेकश का वाचक है। ' ा अवबोधने ' इस धा थके अनुसार ानका अथ ' जानना' है। अत: गीताम करणके अनुसार ' ान' श न ल खत कारसे भ - भ अथ म व त आ है।

(क)

बारहव अ ायके बारहव ोकम ानक अपे ा ानको और उससे भी कमफलके ागको े बतलाया है। इस कारण वहाँ ानका अथ शा और े पु ष ारा होनेवाला ववेक ान है। ( ख) तेरहव अ ायके स हव ोकम ेयके वणनम वशेषणके पम ' ान' श आया है। इस कारण वहाँ ानका अथ परमे रका न व ानान घन प ही है। ( ग) अठारहव अ ायके बयालीसव ोकम ा णके ाभा वक कम क गणनाम ' ान' श आया है, उसका अथ शा का अ यना ापन माना गया है। (घ) इस अ ायके छ ीसवसे उनतालीसव ोकतक आये ए सभी ' ान' श का अथ परमा ाका त ान है; क उसको सम कमकलापको भ कर डालनेवाला, सम पाप से तार देनेवाला, सबसे बढ़कर प व , योग स का फल और परमा शा का कारण बतलाया है। इसी तरह पाँचव अ ायके सोलहव ोकम परमा ाके पको सा ात् करानेवाला और चौदहव अ ायके पहले और दूसरे ोक म सम ान म उ म बतलाया जानेके कारण ' ान' का अथ त ान है। दूसरी जगह भी संगसे ऐसा ही समझ लेना चा हये। (ङ) अठारहव अ ायके इ सव ोकम नाना व ु को और जीव को भ भ जाननेका ार होनेसे ' ान' श का अथ ' राजस ान' है। ( च) तेरहव अ ायके ारहव ोकम त ानके साधनसमुदायका नाम ' ान' है। ( छ) तीसरे अ ायके तीसरे ोकम ' योग' श के साथ रहनेसे ' ान' श का अथ ानयोग यानी सां योग है। इसी तरह दूसरी जगह भी संगानुसार ' ान' श सां योगके अथम आया है। और भी ब त- से ल पर संगानुसार ' ान' श का योग व भ अथ म आ है, उसे वहाँ देखना चा हये। – ' ानसं छ संशयम् ' पदम ' ान' श का अथ य द ' त ान' मान लया जाय तो ा हा न है? उ र – त ानक ा होनेपर सम संशय का समूल नाश होकर त ाल ही परमा ाक ा हो जाती है, फर परमा ाक ा के लये कसी दूसरे साधनक आव कता नह रहती। इस लये यहाँ ानका अथ त ान मानना ठीक नह है; क त ान कमयोगका फल है और इसके अगले ोकम भगवान् अजुनको ानके ारा अ ानज नत संशयका नाश करके कमयोगम त होनेके लये कहते है। इस लये यहाँ जैसा अथ कया गया है, वही ठीक मालूम होता है। – ववेक ान ारा सम संशय का नाश कर देना ा है? उ र – ई र है या नह , है तो कै सा है, परलोक है या नह , य द है तो कै से है और कहाँ है, शरीर, इ य, मन और बु ये सब आ ा ह या आ ासे भ है, जड ह या चेतन, ापक

ह या एकदेशीय, कता- भो ा जीवा ा है या कृ त, आ ा एक है या अनेक, य द वह एक है तो कै से है और अनेक है तो कै से, जीव त है या परत , य द परत है तो कै से है और कसके परत है, कम- ब नसे छू टनेके लये कम को पसे छोड़ देना ठीक है या कमयोगके अनुसार उनका करना ठीक है, अथवा सां योगके अनुसार साधन करना ठीक है – इ ा द जो अनेक कारक शंकाएँ तकशील मनु के अ ःकरणम उठा करती ह उ का नाम संशय है। इन सम शंका का ववेक ानके ारा ववेचन करके एक न य कर लेना अथात् कसी भी वषयम संशययु न रहना और अपने कत को नधा रत कर लेना, यही ववेक ान ारा सम संशय का नाश कर देना है। – ' आ व म् ' पदका यहाँ ा भाव है? उ र – आ श वा इ य के स हत अ ःकरणपर जसका पूण अ धकार है, अथात् जनके मन और इ य वशम कये ए ह – अपने काबूम ह, उस मनु के लये यहाँ ' आ व म् ' पदका योग कया गया है। – उपयु वशेषण से यु पु षको कम नह बाँधते, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया है क उपयु पु षके शा व हत कम ममता, आस और कामनासे सवथा र हत होते ह; इस कारण उन कम म ब न करनेक श नह रहती। स – इस कार कमयोगीक शंसा करके अब अजुनको कमयोगम त होकर यु करनेक आ ा देकर भगवान् इस अ ायका उपसंहार करते ह त ाद ानस ूतं ं ाना सना नः । छ ैनं संशयं योगमा त ो भारत ॥४२॥ इस लये हे भरतवंशी अजुन ! तू दयम त इस अ ानज नत अपने संशयका ववेक ान प तलवार ारा छे दन करके सम प कमयोगम त हो जा और यु के लये खड़ा हो जा॥ ४२॥

– ' त ात् ' पदका यहाँ ा भाव है? र – हेतुवाचक ' त ात् ' पदका योग करके

उ भगवान् ने अजुनको कमयोगम त होनेके लये उ ा हत कया है। अ भ ाय यह है क पूव ोकम व णत कमयोगम त मनु कमब नसे मु हो जाता है, इस लये तु वैसा ही बनना चा हये। – ' भारत ' स ोधनका ा भाव है?

उ र – ' भारत ' स ोधनसे स ो धत करके भगवान् राज ष भरतका च र याद दलाते ए यह भाव दखलाते ह क राज ष भरत बड़े भारी कमठ, साधनपरायण, उ ाही पु ष थे। तुम भी उ के कु लम उ ए हो; अत: तु भी उ क भाँ त वीरता, धीरता और गंभीरतापूवक अपने कत का पालन करनेम त र रहना चा हये। – ' एनम् ' पदके स हत ' संशयम् ' पद यहाँ कस संशयका वाचक है और उसके साथ ' अ ानस ूतम् ' और ' म् ' इन वशेषण के योगका ा भाव है? उ र – इकतालीसव ोकम ' ान - सं छ संशयम् ' पदम जस संशयका उ ेख आ है; तथा जसका प उसी ोकक ा ाम व ारपूवक बतलाया गया है – उसीका वाचक यहाँ ' एनम् ' पदके स हत ' संशयम् ' पद है। उसके साथ ' अ ानस ूतम् ' वशेषण देकर भगवान् ने यह भाव दखलाया है क इस संशयका कारण अ ववेक है। अत: ववेक ारा अ ववेकका नाश होते ही उसके साथ- साथ संशयका भी नाश हो जाता है। ' म् ' वशेषण देकर यह भाव दखलाया है क इसका ान दय यानी अ ःकरण है; अत: जसका अ ःकरण अपने वशम है, उसके लये इसका नाश करना सहज है। – अजुनको उस संशयका छे दन करनेके लये कहनेका ा अ भ ाय है? ा अजुनके अ ःकरणम भी ऐसा संशय था? उ र – पहले यु को उ चत समझकर ही अजुन लड़नेके लये तैयार होकर रणभू मम आये थे और उ ने भगवान् से दोन सेना के बीचम अपना रथ खड़ा करनेको कहा था; फर जब उ ने दोन सेना म उप त अपने ब -ु बा व को मरनेके लये तैयार देखा तो मोहके कारण वे च ाम हो गये और यु को पापकम समझने लगे ( १।२८- ४७) । इसपर भगवान् के ारा यु करनेके लये कहे जानेपर भी ( २।३) वे अपना कत न य न कर सके और ककत वमूढ़ होकर कहने लगे क ' म गु जन के साथ कै से यु कर सकूँ गा ( २।४); मेरे लये ा करना े है और इस यु म कसक वजय होगी, इसका कु छ भी पता नह है ( २। ६) तथा मेरे लये जो क ाणका साधन हो, वही आप मुझे बतलाइये, मेरा च मो हत हो रहा है ( २।७) ।' इससे यह बात हो जाती है क अजुनके अ ःकरणम संशय व मान था, उनक ववेकश मोहके कारण कु छ दबी ई थी; इसीसे वे अपने कत का न य नह कर सकते थे। इसके सवा छठे अ ायम अजुनने कहा है क मेरे इस संशयका छेदन करनेम आप ही समथ ह ( ६।३९) और गीताका उपदेश सुन चुकनेके बाद कहा है क अब म स ेहर हत हो गया ँ ( १८।७३) एवं भगवान् ने भी जगह- जगह ( ८।७; १२।८) अजुनसे कहा है क म जो कु छ तु कहता ँ , उसम संशय नह है; इसम तुम शंका न करो। इससे भी यही स होता है क अजुनके अ ःकरणम संशय था और उसीके कारण वे अपने धम प यु का ाग करनेके लये तैयार हो गये थे। इस लये भगवान् यहाँ उ उनके दयम त संशयका छेदन करनेके ँ

लये कहकर यह भाव दखलाते ह क म तु जो आ ा दे रहा ँ , उसम कसी कारक शंका न करके उसका पालन करनेके लये तु तैयार हो जाना चा हये। – यहाँ अजुनको अपने आ ाका संशय छे दन करनेके लये कहनेका ा भाव है? उ र – इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क तुम मेरे भ और सखा हो, अत: तु उ चत तो यह है क दूसर के अ ःकरणम भी य द कोई शंका हो तो उनको समझाकर उसका छेदन कर डालो; पर ऐसा न कर सको तो तु कम- से- कम अपने संशयका छेदन तो कर ही डालना चा हये। – योगम त हो जा और यु के लये खड़ा हो जा, यह कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान् ने अ ायका उपसंहार करते ए यह भाव दखलाया है क म तु जो कु छ भी कहता ँ , तु ारे हतके लये ही कहता ँ , अत: उसम शंकार हत होकर तुम मेरे कथनानुसार कमयोगम त होकर फर यु के लये तैयार हो जाओ। ऐसा करनेसे तु ारा सब कारसे क ाण होगा। ॐ त द त ीम गव ीतासूप नष ु व ायां योगशा े ीकृ ाजुनसंवादे ानकमसं ासयोगो नाम चतुथ ऽ ायः ॥ ४॥

|| ॐ

ी परमा ने नमः ||

अथ प मो ायः

इस पंचम अ ायम कमयोग - न ा और सां योग - न ाका वणन है, सां - योगका ही पयायवाची श ' सं ास ' है । इस लये इस अ ायका नाम ' कम - सं ासयोग ' रखा गया है। अ ायका सं ेप इस अ ायके पहले ोकम ' सां योग ' और ' कमयोग ' क े ताके स म अजुनका है। दुसरेम का उ र देते ए भगवान् ने सां योग और कमयोग दोन को ही क ाणकारक बतलाकर ' कमसं ास ' क अपे ा ' कमयोग ' को े बतलाया है, तीसरेम कमयोगीका मह बतलाकर चौथे और पाँचवम ' सां योग ' और ' कमयोग ’ – दोन का फल एक ही होनेके कारण, दोन क एकताका तपादन कया है। छठे म कमयोगके बना सां योगका स ादन क ठन बतलाकर कमयोगका फल अ वल ही क ा होना कहा है। सातवम कमयोगीक न ल ताका तपादन करके आठव और नवम सां योगीके अकतापनका नदश कया है। तदन र दसव और ारहवम भगवदपणबु से कम करनेवालेक और कम - धान कमयोगीक शंसा करके कमयो गय के कम को आ शुि दम हेतु बतलाया है और बारहवम कमयो गय को नै क शा क एवं सकामभावसे कम करनेवाल को ब नक ा होती है, ऐसा कहा है। तेरहवम सां योगीक त बतलाकर चौदहव और पं हवम परमे रको कम , कतापन और कम के फल - संयोगका न रचनेवाला तथा कसीके भी पु - पापको हण न करनेवाला कहकर यह बतलाया है क अ ानके ारा ानके ढके जानेसे ही सब जीव मो हत हो रहे ह। सोलहवम ानका मह बतलाकर स हवम ानयोगके एका साधनका वणन कया है, फर अठारहवसे बीसवतक पर परमा ाम नर र अ भ भावसे त रहनेवाले ापु ष क सम और तका वणन करके उनको परमग तका ा होना बतलाया है। इ सवम अ य आन क ा का साधन और उसक ा बतलायी गयी है। बाईसवम भोग को दु:खके कारण और वनाशशील बतलाकर तथा ववेक मनु के लये उनम आस न होनेक बात कहकर तेईसम काम - ोधके वेगको सहन कर सकनेवाले पु षको योगी और सुखी बतलाया है। चौबीसवसे छ ीसवतक सां योगीक अ म त और नवाण को ा ानी महापु ष के ल ण बतलाकर स ाईसव और अ ाईवम फलस हत ानयोगका सं वणन कया गया है और अ म उनतीसव ोकम भगवान् को सम अ ायका नाम

य के भो ा, सवलोकमहे र और ा णमा के परमसु द जान लेनेका फल परम शा क ा बतलाकर अ ायका उपसंहार कया गया है।

तीसरे और चौथे अ ायम अजुनने भगवान् के ीमुखसे अनेक कारसे कमयोगक शंसा सुनी और उसके स ादनक ेरणा तथा आ ा ा क । साथ ही यह भी सुना क ' कमयोगके ारा भगव पका त ान अपने - आप ही हो जाता है ' ( ४।३८ ); चौथे अ ायके अ म भी उ भगवान् के ारा कमयोगके स ादनक ही आ ा मली। परतुं बीच - बीचम उ ने भगवान् के ीमुखसे ही ' ापणं ह वः ', ' ा ावपरे य ं य ेनैवोपजु त :' , ' त णपातेन ' आ द वचन ारा ानयोग अथात् कमसं ासक भी शंसा सुनी। इससे अजुन यह नणय नह कर सके क इन दोन मसे मेरे लये कौन - सा साधन े है। अतएव अब भगवान् के ीमुखसे ही उसका नणय करानेके उ े से अजुन उनसे करते हअजुन उवाच । सं ासं कमणां कृ पुनय गं च शंस स । य ेय एतयोरेकं त े ू ह सु न तम् ॥१॥ स



अजुन बोले

कमयोगक



हे कृ

!

आप कम के सं ासक और फर

शंसा करते ह। इस लये इन दोन मसे जो एक मेरे लये भली

भाँ त न त क

ाणकारक साधन हो , उसको क हये॥१॥

– यहाँ ' कृ

' स ोधनका

ा अ भ ाय है ? उ र – 'कृष् ' धातुका अथ है आकषण करना , ख चना और 'ण ' आन का वाचक है। भगवान् न ान प ह इस लये वे सबको अपनी ओर आक षत करते ह। इसीसे उनका नाम 'कृ ' है। यहाँ भगवान् को 'कृ ' नामसे स ो धत करके अजुन यह भाव दखलाते ह क आप सवश मान् सव परमे र ह , अत : मेरे इस का उ र देनेम आप ही पूण समथ ह।



ा यहाँ 'कम -सं ास ' का अथ कम का

पत : ाग है

?

उ र – चौथे अ ायम भगवान् ने कह भी कम के पत : ागक शंसा नह क और न अजुनको ऐसा करनेके लये कह आ ा ही दी ; ब इसके वपरीत ान - ानपर न ाम - भावसे कम करनेके लये कहा है (४।१५ , ४२ )। अतएव यहाँ कम -सं ासका अथ कम का पत : ाग नह है। कम -सं ासका अथ है – 'स ूण कम म कतापनके अ भमानसे र हत होकर ऐसा समझना क गुण ही गुण म बरत रहे ह (३।२८ ), तथा नर र परमा ाके पम एक भावसे त रहना और सवदा सव रखना (४।२४ )', यहाँ यही ानयोग है – यही कम -सं ास है। चौथे अ ायम इसी कारके ानयोगक शंसा क गयी है और उसीके आधारपर अजुनका यह है । भगवान् ने यहाँ अजुनके का उ र देते ए 'सं ास ' और 'कमयोग ' दोन को ही क ाणकारक बतलाया है और चौथे तथा पाँचव ोक म इसी 'सं ास ' को 'सां ' एवं पुन : छठे ोकम इसीको 'सं ास ' कहकर यह कर दया है क यहाँ 'कम -सं ास ' का अथ सां योग या ानयोग है, कम का पत : ाग नह है। इसके अ त र भगवान् के मतसे कम के पत : ागमा से ही क ाण भी नह होता (३।४ ) और कम का पत : सवथा ाग होना स व भी नह है (३।५ ; १८।११ )। इस लये यहाँ कम -सं ासका अथ ानयोग ही मानना चा हये , कम का पत : ाग नह । – अजुनने तीसरे अ ायके आर म यह पूछा ही था क ' ानयोग ' और कमयोग ' – इन दोन म मुझको एक साधन बतलाइये , जससे म क ाणको ा कर सकूँ । फर यहाँ उ ने दुबारा वही कस अ भ ायसे कया ?

उ र – व ँ अजुनने ' ानयोग ' और 'कमयोग ' के वषयम नह पूछा था , वहाँ तो अजुनके का यह भाव था क 'य द आपके मतम कमके अपे ा ान े है तो फर मुझे घोर कमम लगा रहे ह ? आपके वचन को म समझ नह रहा ँ , वे मुझे म त -से तीत होते है अतएव मुझको एक बात बतलाइये। ' पर ु यहाँ तो अजुनका ही दूसरा है। यहाँ अजुन न तो कमक अपे ा ानको े समझ रहे ह और न भगवान् के वचन को वे म त -से ही मान रहे ह। वरन वे यं इस बातको ीकार करते ए ही पूछ रहे ह – 'आप ' ानयोग ' और 'कमयोग ' दोन क शंसा कर रहे ह और दोन को पृथक् -पृथक् बतला रहे ह (३।३ ) पर ु अब यह बतलाइये क इन दोन मसे मेरे लये कौन -सा साधन ेय र है ?' इससे स है क अजुनने यहाँ तीसरे अ ायवाला दुबारा नह कया है । – भगवान् ने जब तीसरे अ ायके उ ीसव और

तीसव ोक म तथा चौथे अ ायके प हव और बयालीसव ोक म अजुनको कमयोगके अनु ानक पसे आ ा दे दी थी , तब फर वे यहाँ यह बात कस योजनसे पूछ रहे ह ? उ र – यह तो ठीक है। पर ु भगवान् ने चौथे अ ायम चौबीसवसे तीसव ोकतक कमयोग और ानयोग – दोन ही न ा के अनुसार कई कारके व भ साधन का य के नामसे वणन कया और वहाँ मय य क अपे ा ानय क शंसा क (४।३३ ) और त दश ा नय से ानका उपदेश ा करनेके लये ेरणा और शंसा क (४।३४,३५ ) फर यह भी कहा क 'कमयोगसे पूणतया स आ मनु

त ानको यं ही ा कर लेता है ' (४।३८ )। इस कार दोन ही साधन क शंसा सुनकर अजुन अपने लये कसी एक कत का न य नह कर सके । इस लये यहाँ वे य द भगवान् का न त मत जाननेके लये ऐसा करते ह तो उ चत ही करते है। यहाँ अजुन भगवान् से तया यह पूछना चाहते ह क 'आन क ीकृ ! आप ही बतलाइये , मुझे यथाथ त ानक ा , त ा नय ारा वण -मनन आ द साधनपूवक ' ानयोग ' क व धसे करनी चा हये या आस र हत होकर न ामभावसे भगवद पत कम का स ादन करके 'कमयोग ' क व धसे ? स

उ र देते ह –

– अब भगवान् अजुनके

इस

का

ीभगवानुवाच । सं ासः कमयोग नः ेयसकरावुभौ । तयो ु कमसं ासा मयोगो व श ते ॥२॥

कमयोग –

ीभगवान् बोले – कम - सं ास और ये दोन ही परम क ाणके करनेवाले ह ,

पर ु उन दोन म भी कम - सं ाससे कमयोग साधनम सुगम होनेसे े है॥२॥

– यहाँ 'सं

ास ' पदका ा अथ है ? उ र – 'सम् ' उपसगका अथ है 'स क् कारसे ' और ' ास ' का अथ है ' ाग '। ऐसा पूण ाग ही सं ास है। यहाँ मन , वाणी और शरीर ारा होने वाली स ूण या म कतापनेके अ भमानका और शरीर तथा सम संसारम अहंता –ममताका पूणतया ाग ही 'सं ास ' श का अथ है। गीताम 'सं ास ' और 'सं ासी ' श का संगानुसार व भ अथ म योग आ है। कह कम के भगवदपण करनेको 'सं ास ' कहा है (३।३० ; १२।६ ; १८।५७ ) तो कह का कम के ागको ( १८।२ ); कह मनसे कम के ागको (५।१३ ) तो कह कमयोगको (६।२ ); कह कम के पत : ागको (३।४ ; १८।७ ), तो कह सां योग अथात् ान न ाको (५।६ ; १८।४९ ) 'सं ास ' कहा है। इसी कार कह कमयोगीको

'सं

ासी

' (६।१ , १८।१२ ) और 'सं ास योगयु ा ा ' (९।२८ ) कहा गया है। इससे यह स होता है क गीताम 'सं ास ' श सभी जगह एक ही

अथम व त नह आ है। करणके अनुसार उसके पृथकृ -पृथक् अथ होते ह। यहाँ 'सां योग ' और 'कमयोग ' का तुलना क ववेचन है। भगवान् ने चौथे और पाँचव ोक म 'सं ास ' को ही 'सां ' कहकर भलीभाँ त ीकरण भी कर दया है। अतएव यहाँ 'सं ास ' श का अथ 'सां योग ' ही मानना यु है।

भगवान् के ारा 'सं ास ' (सां योग ) अ र कमयोग – दोन को क ाणकारक बतलाये जानेका यहाँ य द यह अ भ ाय मान लया जाय क ये दोन स लत होकर ही क ाण प फल दान करते ह, तो ा आप है ? –

उ र – सां योग और कमयोग – इन दोन साधन का स ादन एक कालम एक ही पु षके ारा नह कया जा सकता , क कमयोगी साधनकालम कमको , कमफलको , परमा ाको अ र अपनेको भ - भ मानकर कमफल और आस का ाग करके ई रापण – बु से सम कम करता है ( ३। ३० ; ५।१०; ९।२७ -२८ ; १२।१० और १८।५६ -५७ )। और सां योगी मायासे उ स ूण गुण ही गुण म बरत रहे ह (३।२८ ) अथवा इ याँ ही इ य के अथ म बरत रही ह (५।८ -९ ) ऐसा समझकर मन , इ य और शरीर ारा होनेवाली स ूण या म कतापनके अ भमानसे र हत होकर के वल सव ापी स दान घन परमा ाके पम

अ भ भावसे त रहता है। कमयोगी अपनेको कम का कता मानता है (५।११ ), सां योगी कता नह मानता (५।८ -९ ), कमयोगी अपने कम को भगवान् के अपण करता है (९।२७ -२८ ), सां योगी मन और इ य के ारा होनेवाली अहंतार हत या को कम ही नह मानता (१८।१७ )। कमयोगी परमा ाको अपनेसे पृथक् मानता है (१२।६ -७ ), सां योगी सदा अभेद मानता है (१८।२० ), कमयोगी कृ त और कृ तके पदाथ क स ा ीकार करता है (१८।६१ ), सां योगी एक के सवा कसीक भी स ा नह मानता (१३।३० )। कमयोगी कमफल और कमक स ा मानता है ; सां योगी न तो से भ कम और उनके फलक स ा ही

मानता है और न उनसे अपना कोई स ही समझता है। इस कार दोन क साधन - णाली और मा ताम पूव और प मक भाँ त महान् अ र है। ऐसी अव ाम दोन न ा का साधन एक पु ष एक कालम नह कर सकता। इसके अ त र , य द दोन साधन मलकर ही क ाणकारक होते तो , न तो अजुनका यह पूछना ही बनता क इनमसे जो एक सु न त क ाणकारक साधन हो वही मुझे बतलाइये और न भगवान् का यह उ र देना ही बनता क कम -सं ासक अपे ा कमयोग े है और जो ान सां यो गय को मलता है वही कमयो गय को भी मलता है। अतएव यही मानना उ चत है क दोन न ाएँ त ह। य प दोन का एक ही फल यथाथ

त ान ारा परम क ाण प परमे रको ा कर लेना है , तथा प अ धका रभेदसे साधनम सुगम होनेके कारण अजुनके लये सां योगक अपे ा कमयोग ही े है। – जब सं ास ( ानयोग ) और कमयोग – दोन ही अलग -अलग त पसे परम क ाण करनेवाले ह तो फर भगवान् ने यहाँ सां योगक अपे ा कमयोगको े बतलाया ? उ र – कमयोगी कम करते ए भी सदा सं ासी ही है , वह सुखपूवक अनायास ही संसारब नसे छूट जाता है (५।३ )। उसे शी ही परमा ाक ा हो जाती है (५।६ )। ेक अव ाम भगवान् उसक र ा करते ह (९।२२ ) और कमयोगका थोड़ा -सा भी साधन

ज -मरण प महान् भयसे उ ार कर देता है (२।४० )। कतु ानयोगका साधन ेशयु हे (१२।५ ), पहले कमयोगका साधन कये बना उसका होना भी क ठन है (५।६ )। इ सब कारण से ानयोगक अपे ा कमयोगको े बतलाया गया है ।

सां योगक अपे ा कमयोगको े बतलाया। अब उसी बातको स करनेके लये अगले शलोकम कमयोगीक शंसा करते ह – ेयः स न सं ासी यो न े न काङ् त । न ो ह महाबाहो सुखं ब ा मु ते ॥३॥ स



हे अजुन ! जो पु ष न कसीसे ेष करता है और न कसीक आकां ा करता है, वह कमयोगी सदा सं ासी ही समझनेयो है, क राग - ेषा द से र हत पु ष सुखपूवक संसारब नसे मु हो जाता है॥ ३॥

यहाँ 'कमयोगी ' को ' न -सं ासी ' कहनेका ा अ भ ाय है ? उ र – कमयोगी न कसीसे ेष करता है और न कसी व ुक आकां ा करता है , वह से सवथा अतीत हो जाता है। वा वम सं ास भी इसी तका नाम है। जो रागेषसे र हत है , वही स ा सं ासी है। क उसे न तो सं ास -आ म हण करनेक –

आव कता है और न सां योगक ही। अतएव यहाँ कमयोगीको ' न -सं ासी ' कहकर भगवान् उसका मह कट करते ह क सम कम करते ए भी वह सदा सं ासी ही है और सुख - पूवक अनायास ही कमब नसे छूट जाता है । – कमयोगी कमब नसे सुखपूवक कै से छूट जाता है ? उ र – मनु के क ाणमागम व करनेवाले अ बल श ु राग - ेष ही ह। इ के कारण मनु कमब नम फँ सता है। कमयोगी इनसे र हत होकर भगवदथ कम करता है , अतएव वह भगवान् क दयाके भावसे अनायास ही कमब नसे मु हो जाता है।



ब नसे छूटना कसे कहते ह

?

उ र – अ ानमूलक शुभाशुभ कम और उनके फल ही ब न ह। इनसे बँधा होनेके कारण ही जीव अनवरत ज और मृ ुके च म भटकता रहता है। इस ज -मरण प संसारसे सदाके लये स छूट जाना ही ब नसे छूटना है। साधनम सुगम होनेके कारण सां योगक अपे ा कमयोगको े स करके अब भगवान् दसू रे ोकम दोन न ा का जो एक ही फल नः ेयस - परम क ाण बतला चुके ह उसीके अनुसार दो स



ोक म दोन न ा क फलम एकताका तपादन करते ह – साङ् योगौ पृथ ालाः वद न प ताः । एकम ा तः स गुभयो व ते फलम् ॥४॥

उपयु सं ास और कमयोगको मूखलोग पृथक् - पृथक् फल देनेवाले कहते ह न क प तजन , क दोन मसे एकम भी स क् कारसे त पु ष दोन के फल प परमा ाको ा होता है ॥४॥ – 'सां

योग ' और 'कमयोग ' को भ बतलानेवाले बालक – मूख ह – इस कथनसे भगवान् का ा अ भ ाय है ?

उ र – 'सां योग ' और 'कमयोग ' दोन ही परमाथत के ान ारा परमपद प क ाणक ा म हेतु ह। इस कार दोन का फल एक होनेपर भी जो लोग कमयोगका दसू रा फल मानते ह और सां योगका दसू रा , वे फलभेदक क ना करके दोन साधन को पृथक् -पृथक् माननेवाले लोग बालक ह। क दोन क साधन णालीम भेद होनेपर भी फलम एकता होनेके कारण व ुत : दोन म एकता ही है। – कमयोगका तो परमाथ ानके ारा परमपदक ा प फल बतलाना उ चत ही है क म उनको वह बु योग देता ँ , जससे वे मुझे ा होते ह (१०।१० ); उनपर दया करनेके लये ही म ान प दीपकके

ारा उनका अ कार दरू कर देता ँ (१०।११ ); कमयोगसे शु ा ःकरण होकर अपने -आप ही उस ानको ा कर लेता है (४।३८ ), इ ा द भगवान् के वचन से यह स ही है। परंतु सां योग तो यं ही त ान है। उसका फल त ानके ारा मो का ा होना कै से माना जा सकता है ? उ र – 'सां योग ' परमाथत ानका नाम नह है , त ा नय से सुने ए उपदेशके अनुसार कये जानेवाले उसके साधनका नाम है। क तेरहव अ ायके चौबीसव ोकम ानयोग , सां योग और कमयोग – ये तीन आ दशनके अलग -अलग त साधन बताये गये ह। इस लये सां योगका फल परमाथ - ानके ारा

मो क ा बतलाना उ चत ही है। भगवान् ने अठारहव अ ायम उनचासव ोकसे पचपनवतक ान न ाका वणन करते ए भूत होनेके प ात् अथात् ब म अ भ भावसे त प सां योगको ा होनेके बाद उसका फल त ान प पराभ और उससे परमा ाके पको यथाथ जानकर उसम व हो जाना बतलाया है। इससे यह हो जाता है क सां योगके साधनसे यथाथ त ान होता है, तब मो क ा होती है। – 'प त ' श का ा अथ होता है ?

उ र – परमाथ -त ान प बु का नाम प ा है और वह जसम हो , उसे 'प त ' कहते ह। अतएव यथाथ त ानी स महापु षका नाम 'प त ' है। – एक ही न ाम पूणतया त पु ष दोन के फलको कै से ा कर लेता है ? उ र – दोन न ा का फल एक ही है और वह है परमाथ ानके ारा परमा ाक ा । अतएव यह कहना उ चत ही है क एकम पूणतया त पु ष दोन के फलको ा कर लेता है। य द कमयोगका फल सां योग होता और सां योगका फल परमा -सा ा ार प मो क ा होती तो दोन म फलभेद होनेके कारण ऐसा कहना

नह बनता। क ऐसा माननेसे सां योगम पूण पसे त पु ष कमयोगके फल प सां योगम तो पहलेसे ही त है फर वह कमयोगका फल ा ा करेगा ? और कमयोगम भलीभाँ त त पु ष य द सां योगम त होकर ही परमा ाको पाता है तो वह सां योगका फल सां योगके ारा ही पाता है, फर यह कहना कै से साथक होगा क एक ही न ाम भलीभाँ त त पु ष दोन के फलको ा कर लेता है। इस लये यही तीत होता है क दोन न ाएं त ह और दोन का एक ही फल है। इस कार माननेसे ही भगवान् का यह कथन साथक होता है क दोन मसे कसी एक न ाम भलीभाँ त त पु ष दोन के फलको ा कर लेता है।

तेरहव अ ायके चौबीसव ोकम भी भगवान् ने दोन को ही आ सा ा ारका त साधन माना है। – पहले ोकम अजुनने कम -सं ास और कमयोगके नामसे कया और दसू रे ोकम भगवान् ने भी उ श से दोन को क ाणकारक बतलाते ए उ र दया , फर उसी करणम यहाँ 'सां ' और 'योग ' के नामसे दोन के फलक एकता बतलानेका ा अ भ ाय है ? उ र – 'कम -सं ास ' का अथ 'कम को पसे छोड़ देना ' और कमयोगका अथ 'जैसे -तैसे कम करते रहना ' मानकर लोग मम न पड़ जायँ , इस लये उन दोन का श ा रसे वणन करके भगवान् यह कर

देते ह क कम-सं ासका अथ है – 'सां ' और कमयोगका अथ है – स और अ स म सम प 'योग ' (२।४८ )। अतएव दसू रे श का योग करके भगवान् ने यहाँ कोई नयी बात नह कही है। – यहाँ ' अ प ' से ा भाव नकलता है ? उ र – भलीभाँ त कये जानेपर दोन ही साधन अपना फल देनेम सवथा त और समथ ह , यहाँ 'अ प ' इसी बातका ोतक है। य ाङ् ैः ा ते ानं त ोगैर प ग ते । एकं साङ् ं च योगं च यः प त स प त ॥५॥

ानयो गय ारा जो परमधाम ा कया जाता है, कमयो गय ारा भी वही ा कया जाता है। इस लये जो पु ष ानयोग और कमयोगको फल पम एक देखता है, वही यथाथ देखता है॥५॥

जब सां योग और कमयोग दोन सवथा त माग है और दोन क साधन- णालीम भी पूव और प म जानेवाल के मागक भाँ त पर र भेद है , (जैसा क दस ू रे ोकक ा ाम बतलाया गया है ) तब दोन कारके साधक को एक ही फल कै से मल सकता है ? उ र – जैसे कसी मनु को भारतवषसे अमे रकाको जाना है , तो वह य द –

ठीक रा ेसे होकर यहाँसे पूव -ही -पूव दशाम जाता रहे तो भी अमे रका प ँ च जायगा और प म -ही -प मक ओर चलता रहे तो भी अमे रका प ँ च जायगा। वैसे ही सां योग और कमयोगक साधन - णालीम पर र भेद होनेपर भी जो मनु कसी एक साधनम ढ़तापूवक लगा रहता है वह दोन के ही एकमा परम ल परमा ातक प ँ च ही जाता है । स – सां योग और कमयोगके फलक एकता बतलाकर अब कमयोगक साधन वषयक वशेषताको करते है – सं ास ु महाबाहो दःु खमा ुमयोगतः ।

योगयु ो मु न न चरेणा धग त ॥६॥

परंतु हे अजुन ! कमयोगके बना सं ास अथात् मन , इ य और शरीर ारा होनेवाले स ूण कम म कतापनका ाग ा होना क ठन है और भगव पको मनन करनेवाला कमयोगी पर परमा ाको शी ही ा हो जाता है ॥६॥

अ भ ाय है ?

– 'तु '

उर

का यहाँ



यहाँ 'तु ' इस वल णताका ोतक है क सं ास (सां योग ) और कमयोगका फल एक होनेपर –

भी साधनम कमयोगक अपे ा सां योग क ठन है। – यहाँ भगवान् ने अजुनके लये 'महाबाहो ' स ोधन देकर कौन -सा भाव कया है ? उ र – जसके 'बा ' महान् ह , उसे 'महाबा ' कहते ह। भाई और म को भी 'बा ' कहते ह। अतएव भगवान् इस स ोधनसे यह भाव दखलाते ए अजुनको उ ा हत करते ह क तु ारे भाई महान् धमा ा यु ध र ह और म सा ात् परमे र म ँ फर तु कस बातक च ा है ? तु ारे लये तो सभी कारसे अ तशय सुगमता है।

जब सां योग और कमयोग दोन ही त माग ह तब फर यहाँ यह बात कै से कही गयी क कमयोगके बना सं ासका ा होना क ठन है ? उ र – त साधन होनेपर भी दोन म जो सुगमता और क ठनताका भेद है उसीको करनेके लये भगवान् ने ऐसा कहा है। मान ली जये , एक मुमु ु पु ष है और वह यह मानता है क 'सम -जगत् के स श म ा है, एकमा ही स है'। यह सारा पंच मायासे उसी म अ ारो पत है। व ुत : दसू री कोई स ा है ही नह ; परंतु उसका अ ःकरण शु नह है, उसम राग - ेष तथा काम - ोधा द दोष वतमान ह। वह य द अ ःकरणक शु के लये कोई चे ा न करके –

के वल अपनी मा ताके भरोसेपर ही सां योगके साधनम लगना चाहेगा तो उसे दसू रे अ ायके ारहव ोकसे तीसवतकम और अठारहव अ ायके उनचासव ोकसे पचपनवतकम बतलायी ई 'सां न ा ' सहज ही नह ा हो सके गी। क जबतक शरीरम अहंभाव है, भोग म ममता है और अनुकूलता - तकू लताम राग - ेष वतमान ह, तबतक ान न ाका साधन होना अथात् स ूण कम म कतृ ा भमानसे र हत होकर नर र स दान घन नगुण नराकार के पम अ भ भावसे त रहना तो दरू रहा , इसका समझम आना भी क ठन है। इसके अ त र अ ःकरण अशु होनेके कारण मोहवश जगत् के नय णकता और

कमफलदाता भगवान् म और ग -नरका द कमफल म व ास न रहनेसे उसका प र म -सा शुभकम को ाग देना और वषयास आ द दोष के कारण पापमय भोग म फँ सकर क ाणमागसे हो जाना भी ब त स व है। अतएव इस कारक धारणावाले मनु के लये , जो सां योगको ही परमा -सा ा ारका उपाय मानता है , यह परम आव क है क वह सां योगके साधनम लगनेसे पूव न ामभावसे य , दान , तप आ द शुभकमका आचरण करके अपने अ ःकरणको राग - ेषा द दोष से र हत प रशु कर ले , तभी उसका सां योगका साधन न व तासे स ा दत हो सकता है और तभी उसे सुगमताके साथ सफलता भी मल

सकती है। यहाँ इसी अ भ ायसे कमयोगके बना सं ासका ा होना क ठन बतलाया है। – यहाँ 'मु न : ' वशेषणके साथ 'योगयु : ' का योग कसके लये कया गया है और वह पर परमा ाको शी ही कै से ा हो जाता है ? उ र – जो सब कु छ भगवान् का समझकर स -अ स म समभाव रखते ए , आस और फले ाका ाग करके भगवदा ानुसार सम कत कम का आचरण करता है और ा -भ पूवक , नाम -गुण और भावस हत ीभगवान् के पका च न करता है , उस भ यु कमयोगीके लये 'मु न :' वशेषणके साथ 'योगयु :' का

योग आ है । ऐसा कमयोगी भगवान् क दयासे परमाथ ानके ारा शी ही पर परमा ाको ा हो जाता है । – यहाँ 'मु न : ' पदका अथ वा यंमी या जते य साधक मान लया जाय तो ा आप है ? उ र – भगवान् के पका च न करनेवाला कमयोगी वा ंयमी और जते य तो होता ही है , इसम आप क कौन -सी बात है ? – ' ' श का अथ सगुण परमे र है या नगुण परमा ा ? उ र – सगुण और नगुण परमा ा व ुत : व भ व ु नह है । एक ही

परमपु षके दो प ह। अतएव यही समझना चा हये क ' ' श का अथ सगुण परमे र भी है और नगुण परमा ा भी।

अब उपयु कमयोगीके ल ण का वणन करते ए उसके कम म ल न होनेक बात कहते ह – योगयु ो वशु ा ा व जता ा जते यः । सवभूता भूता ा कु व प न ल ते ॥७॥ स



जसका मन अपने वशम है , जो जते य एवं वशु अ ःकरणवाला है और स ूण ा णय का आ प परमा ा

ही जसका आ ा है, ऐसा कमयोगी कम करता आ भी ल नह होता॥ ७॥

योगयु ः ' के साथ ' व जता ा ', ' जते य :' और ' वशु ा ा ' ये वशेषण कस अ भ ायसे दये गये ह ? उ र – मन और इ याँ य द साधकके वशम न ह तो उनक ाभा वक ही वषय म वृ होती है और अ ःकरणम जबतक राग - ेषा द मल रहता है तबतक स और अ स म समभाव रहना क ठन होता है। अतएव जबतक मन और इ याँ भलीभाँ त वशम न हो जायँ और अ ःकरण पूण पसे प रशु न हो जाय तबतक साधकको वा वक कमयोगी नह कहा जा सकता। –'

इसी लये यहाँ उपयु वशेषण देकर यह समझाया गया है क जसम ये सब बात ह वही पूण कमयोगी है और उसीको शी ही क ा होती है। – 'सवभूता भूता ा ' ाय है ?

इस पदका ा अ भ उर – ासे लेकर पय स ूण ा णय का आ प परमे र ही जसका आ ा यानी अ यामी है , जो उसीक ेरणाके अनुसार स ूण कम करता है तथा भगवान् को छोड़कर शरीर , मन , बु और अ कसी भी व ुम जसका मम नह है वह 'सवभूता भूता ा ' है।

यहाँ 'अ प ' का योग कस हेतुसे कया गया है ? उ र – सां योगी अपनेको कसी भी कमका कता नह मानता ; उसके मन , बु और इ य ारा सब या के होते रहनेपर भी वह यही समझता है क 'म कु छ भी नह करता , गुण ही गुण म बरत रहे ह, मेरा इनसे कु छ भी स नह है। ' इस लये उसका तो कमसे ल न होना ठीक ही है, परंतु अपनेको कता समझनेवाला कमयोगी भी भगवान् के आ ानुसार और भगवान् के लये सब कम को करता आ भी कम म फले ा और आस न रहनेके कारण उनसे नह बँधता। यह उसक वशेषता है। इसी –

अ भ ायसे 'अ प ' श का योग कया गया है । स – दस ू रे ोकम कमयोग और सां योगक सू पसे फलम एकता बतलाकर सां योगक अपे ा सुगमताके कारण कमयोगको े बतलाया। फर तीसरे ोकम कमयोगीक शंसा करके , चौथे और पाँचव ोक म दोन के फलक एकताका और त ता का भलीभाँ त तपादन कया। तदन र छठे ोकके पूवा म कमयोगके बना सा ंयोगका स ादन क ठन बतलाकर उ रा म कमयोगक सुगमताका तपादन करते ए सातव ोकम कमयोगीके ल ण बतलाये। इससे यह बात स ई क दोन साधन का फल एक होनेपर भी दोन साधन

पर र भ ह। अत : दोन का प जाननेक इ ा होनेसे भा वान् पहले, आठव और नव ोक म सां योगीके वहारकालके साधनका प बतलाते ह – नैव क रोमी त यु ो म ेत त वत् । प ृ ृश ग प सन् ॥८॥ लप सृज गृ ु ष मष प । इ याणी याथषु वत इ त धारयन् ॥९॥

त को जाननेवाला सां योगी तो देखता आ , सुनता आ , श करता आ , सूँघता आ , भोजन करता आ , गमन

करता आ , सोता आ , ास लेता आ , बोलता आ , ागता आ , हण करता आ तथा आँ ख को खोलता और मूँदता आ भी सब इ याँ अपने - अपने अथ म बरत रही ह – इस कार समझकर नःस ेह ऐसा माने क म कुछ भी नह करता ँ ॥८ - ९॥

यहाँ 'त वत् ' और ' यु : ' इन दोन वशेषण पद के योगका ा अ भ ाय है? उ र – स ूण - पंच णभंगुर और अ न होनेके कारण मृगतृ ाके जल या के संसारक भाँ त मायामय है , के वल एक स दान घन ही स है। उसीम यह सारा पंच मायासे अ ारो पत है – –

इस कार न ा न -व ुके त को समझकर जो पु ष नर र नगुण - नराकार स दान घन पर परमा ाम अ भ भावसे त रहता है , वही 'त वत् ' और 'यु ' है। सां योगके साधकको ऐसा ही होना चा हये। यही समझानेके लये ये दोन वशेषण दये गये ह । – यहाँ देखने -सुनने आ दक सब याएँ करते रहनेपर भी म कु छ भी नह करता , इसका ा भाव है ? उ र – जैसे से जगा आ मनु समझता है क कालम के शरीर , मन , ाण और इ य ारा मुझे जन या के होनेक ती त होती थी , वा वम

न तो वे याएँ होती थ और न मेरा उनसे कु छ भी स ही था ; वैसे ही त को समझकर न वकार अ य परमा ाम अ भ भावसे त रहनेवाले सां योगीको भी ाने य , कम य , ाण और मन आ दके ारा लोक से क जानेवाली देखने -सुनने आ दक सम या के करते समय यही समझना चा हये क ये सब मायामय मन , ाण और इ य ही अपने -अपने मायामय वषय म वचर रहे ह। वा वम न तो कु छ हो रहा है और न मेरा इनसे कु छ स ही है। – तब तो जो मनु राग - ेष और काम - ोधा द दोष के रहनेपर भी अपनी मा ताके अनुसार सां योगी बने ए ह , वे भी कह सकते ह क हमारे मन -इ यके

ारा जो कु छ भी भली -बुरी याएँ होती ह , उनसे हमारा कु छ भी स नह है। ऐसी अव ाम यथाथ सा योगीक पहचान कै से होगी ? उ र – कथनमा से न तो कोई सां योगी ही हो सकता है और न उसका कम से स ही छूट सकता है। स े और वा वक सां योगीके ानम तो स ूण पंच क भाँ त मायामय होता है , इस लये उसक कसी भी व ुम क चत् भी आस नह रहती। उसम राग - ेषका सवथा अभाव हो जाता है और काम , ोध , लोभ , मोह , अहंकार आ द दोष उसम जरा भी नह रहते। ऐसी अव ाम न ष ाचरणका कोई भी हेतु न रहनेके कारण उसके वशु मन और

इ य ारा जो भी चे ाएँ होती ह सब शा ानुकूल और लोक हतके लये ही होती ह। वा वक सां योगीक यही पहचान है। जबतक अपने अंदर राग - ेष और काम - ोधा दका कु छ भी अ जान पड़े तबतक सां योगके साधकको अपने साधनम ु ट ही समझनी चा हये। – सां योगी शरीर नवाहमा के लये के वल खान -पान आ द आव क या ही करता है या वणा मानुसार शा ानुकूल सभी कम करता है ? उ र – कोई खास नयम नह है। वण , आ म , कृ त , ार , संग और अ ासका भेद होनेके कारण सभी

सां यो गय के कम एक -से नह होते। यहाँ 'प न् ', ' ृ न् ' ' ृशन् ', ' ज न् ', और 'अ न् ' – इन पाँच पद से आँ ख , कान , चा , ाण और रसना – इन पाँच ाने य क सम याएँ मसे बतलायी गयी ह। 'ग न् ', 'गृ न् ' और ' लपन् ' से पैर , हाथ और वाणीक एवं ' वसृजन् ' से उप और गुदाक , इस कार पाँच कम य क याएँ बतलायी गयी ह। ' सन् ' पद ाण -अपाना द पाँच ाण क या का बोधक है। वैसे ही 'उ णन् ', ' न मषन् ' पद कू म आ द पाँच वायुभेद क या के बोधक ह और ' पन् ' पद अ ःकरणक या का बोधक है। इस कार स ूण इ य , ाण और अ ःकरणक या का उ ेख होनेके

कारण सां योगीके ारा उसके वण आ म , कृ त , ार और संगके अनुसार शरीर - नवाह तथा लोकोपकाराथ , शा ानुकूल खान -पान , ापार , उपदेश , लखना , पढ़ना , सुनना , सोचना आ द सभी याएँ हो सकती ह। – तीसरे अ ायके अ ाईसव ोकम कहा गया है क 'गुण ही गुण म बरतते ह ' तथा तेरहव अ ायके उनतीसव ोकम 'सम कम कृ त ारा कये ए ' बतलाये गये ह और यहाँ कहा गया है क 'इ याँ ही इ य के अथ म बरतती ह ' – इस तीन कारके वणनका ा अ भ ाय है ?

उ र – इ य और उनके सम वषय स ा द तीन गुण के काय ह और तीन गुण कृ तके काय है। अतएव , चाहे सब कम को कृ तके ारा कये ए बतलाया जाय , अथवा गुण का गुण म या इ य का इ य के अथ म बरतना कहा जाय , बात एक ही है। स ा क पु के लये ही संगानुसार एक ही बात तीन कारसे कही गयी है। – इ य के साथ -साथ ाण और मन स ी या का वणन करके भी के वल ऐसा ही माननेके लये कहा क 'इ याँ ही इ य के अथ म बरतती ह '? उ र – या म इ य क ही धानता है। ाणको भी इ य के नामसे

वणन कया गया है अ र मन भी आ र करण होनेसे इ य ही है। इस कार 'इ य ' श म सबका समावेश हो जाता है इस लये ऐसा कहनेम कोई आप नह है। – यहाँ 'एव ' का योग कस उ े से कया गया है ? उ र – कम म कतापनका सवथा अभाव बतलानेके लये यहाँ 'एव ' पदका योग कया गया है। अ भ ाय यह है क सां योगी कसी भी अंशम कभी अपनेको कम का कता नह माने।

साधनका



इस कार सां योगीके प बतलाकर अब दसव और –

ारहव ोक म कमयो गय के साधनका फलस हत प बतलाते ह – ाधाय कमा ण स ं ा करो त यः । ल ते न स पापेन प प मवा सा ॥१०॥ जो पु ष सब कम को परमा ाम अपण करके और आस को ाग कर कम करता है, वह प ष जलसे कमलके प ेक भाँ त पापसे ल नह होता॥१०॥

स ूण कम को परमा ाम अपण करना ा है ? उ र – ई रक भ , देवता का पूजन , माता - पता द गु जन क –

सेवा , य , दान और तप तथा वणा मानुकूल अथ पाजन -स ी और खान -पाना द शरीर नवाह -स ी जतने भी शा व हत कम ह , उन सबको ममताका सवथा ाग करके , सब कु छ भगवान् का समझकर , उ के लये , उ क आ ा और इ ाके अनुसार , जैसे वे कराव वैसे ही कठपुतलीक भाँ त करना ; परमा ाम सब कम का अपण करना है। – आस को छोड़कर कम करना ा है ? उ र – ी , पु , धन , गृह आ द भोग क सम साम य म , गा द लोक म , शरीरम , सम या म एवं मान , बड़ाई ओर त ा आ दम सब कारसे

आस का ाग करके उपयु कारसे कम करना ही आस छोड़कर कम करना है। – कमयोगी तो शा व हत स म ही करता है , वह पाप -कम तो करता ही नह और बना पाप -कम कये पापसे ल होनेक आशंका नह होती , फर यह कै से कहा गया क वह पाप से ल नह होता ? उ र – व हत कम भी सवथा नद ष नह होते , आर मा म ही हसा दके स से कु छ - न -कु छ पाप हो ही जाते ह। इसी लये भगवान् ने 'सवार ा ह दोषेण धूमेना रवावृता : ' (१८।४८ ) कहकर कम के आर को सदोष बतलाया है। अतएव

जो मनु फल -कामना और आस के वश होकर भोग और आरामके लये कम करता है , वह पाप से कभी बच नह सकता। कामना और आस ही मनु के ब नम हेतु ह , इस लये जसम कामना और आस का सवथा अभाव हो गया है , वह पु ष कम करता आ भी पापसे ल नह होता - यह कहना ठीक ही है। कायेन मनसा बुद् ा के वलै र यैर प । यो गनः कम कु व स ं ा शु ये ॥११॥



कमयोगी मम बु र हत केवल य , मन , बु और शरीर ारा भी

आस को ागकर अ ःकरणक शु लये कम करते ह ॥११॥

के

यहाँ 'केवलैः ' इस वशेषणका ा अ भ ाय है ? इसका स के वल इ य से ही है या मन , बु और शरीरसे भी ? उ र – यहाँ 'केवलैः ' यह वशेषण ममताके अभावका ोतक है और यहाँ इ य के वशेषणके पम दया गया है। क ु मन , बु और शरीरसे भी इसका स कर लेना चा हये। अ भ ाय यह है क कमयोगी मन , बु , शरीर और इ य म ममता नह रखते ; वे इन सबको भगवान् क ही व ु समझते ह और लौ कक ाथसे सवथा र हत –

होकर न ामभावसे भगवान् क ेरणाके अनुसार , जैसे वे कराते ह वैसे ही , सम कत कम करते रहते ह। – सब कम को म अपण करके अनास पसे उनका आचरण करनेके लये तो दसव ोकम भगवान् ने कह ही दया था , फर यहाँ दबु ारा वही आस के ागक बात कस योजनसे कही ? उ र – कम को म अपण करने तथा आस का ाग करनेक बात तो भगवान् ने अव ही कह दी थी ; पर ु वह भ धान कमयोगीका वणन है। जैसे इसी अ ायके आठव और नव ोकम सां योगीके मन , बु , इ य , ाण और

शरीर ारा होनेवाली सम याएँ कस भाव और कस कारसे होती ह – यह बतलाया था , वैसे ही कम धान कमयोगीक याएँ कस भाव और कस कारसे होती ह – यह बात समझानेके लये भगवान् कहते ह क कमयोगी मन , बु , इ य और शरीरा दम एवं उनके ारा होनेवाली कसी भी याम ममता और आस न रखकर अ ःकरणक शु के लये ही कम करते ह। इस कार कम धान कमयोगीके कमका भाव और कार बतलानेके लये ही यहाँ पुन : आस के ागक बात कही गयी है। स

करनेवाला भ

इस कारसे कम धान कमयोगी पाप से ल –

नह होता और कम धान कमयोगीका अ ःकरण शु हो जाता है, यह सुननेपर इस बातक ज ासा होती है क कमयोगका यह अ ःकरण शु प इतना ही फल है, या इसके अ त रक कु छ वशेय फल भी है ? एवं इस कार कम न करके सकामभावसे शुमकम करनेम ा हा न है ? अतएव अब इसी बातको पसे समझानेके लये भगवान् कहते ह – यु ः कमफलं ा शा मा ो त नै क म् । अयु ः कामकारेण फले स ो नब ते ॥१२॥ कमयोगी कम के फलका ाग करके भगव ा प शा को ा होता

है और सकामपु ष कामनाक ेरणासे फलम आस होकर बँधता है॥१२॥ – आठव

ोकम 'यु ' श का अथ सां योगी कया गया है। फर यहाँ उसी 'यु ' श का अथ कमयोगी कै से कया गया ? उ र – श का अथ करणके अनुसार आ करता है। इसी ायसे गीताम 'यु ' श का भी योग संगानुसार भ - भ अथ म आ है। 'यु ' श 'युज् ' धातुसे बनता है, जसका अथ जुड़ना होता है। दसू रे अ ायके इकसठव ोकम 'यु ' श 'संयमी ' के अथम आया है, छठे अ ायके आठव ोकम भगवता 'त ानी ' के लये

, स हव ोकम आहार - वहारके साथ होनेसे 'औ च ' के अथम और अठारहव ोकम ' ानयोगी ' के अथम यु आ है, तथा

सातव अ ायके बाईसव ोकम वही ाके साथ होनेसे संयोगका वाचक माना गया है। इसी कार इस अ ायके आठव ोकम वह सां योगीके अथम आया है। वहाँ सम इ याँ अपने -अपने अथ म बरत रही ह, ऐसा समझकर अपनेको कतापनसे र हत माननेवाले त पु षको 'यु ' कहा गया है ; इस लये वहाँ उसका अथ 'सां योगी ' मानना ही ठीक है। पर ु यहाँ 'यु ' श सब कम के फलका ाग करनेवालेके लये आया है , अतएव यहाँ इसका अथ 'कमयोगी ' ही मानना होगा।



यहाँ 'नै क शा ' प शा ' कै से कया

का अथ 'भगवत ा गया ? उ र – 'नै क ' श का अथ ' न ासे उ होनेवाली ' होता है। इसके अनुसार कमयोग न ासे स होनेवाली भगवत ा प शा को 'नै क शा ' कहना उ चत ही है। – यहाँ 'अयु ' श का अथ मादी , आलसी या कम नह करनेवाला न करके 'सकामपु ष ' कै से कया गया ? उ र – कामनाके कारण फलम आस होनेवाले पु षका वाचक होनेसे यहाँ

'अयु

ठीक है।

'श

का अथ सकाम पु ष मानना ही –

यहाँ 'ब न ' का ा

अ भ ाय है ? उ र – सकामभावसे कये ए कम के फल प बार -बार देव -मनु ा द यो नय म भटकना ही ब न है।

क ' कमयोगी ' कमफलसे न बँधकर परमा ाक ा प शा को ा होता है और ' सकामपु ष ' फलम आस होकर ज मरण प ब नम पड़ता है, कतु यह नह बतलाया क सा ंयोगीका ा होता ह ? स

– यहाँ यह बात कही गयी

अतएव अब सां योगीक –

त बतलाते ह

सवकमा ण मनसा सं ा े सुखं वशी । नव ारे पुरे देही नैव कु व कारयन् ॥ १३॥

अ ःकरण जसके वशम है ऐसा सां योगका आचरण करनेवाला पु ष न करता आ और न करवाता आ ही नव ार वाले शरीर प घरम सब कम को मनसे ागकर आन पूवक स दान घन परमा ाके पम त रहता है ॥१३॥ – जब सां

योगी शरीर , इ य और अ ःकरणको मायामय समझता है

इनसे उसका कु छ स ही नह रह जाता , तब उसे 'देही ' और 'वशी ' कहा गया ? उ र – य प सां योगीका उसक अपनी से शरीर , इ य और अ ःकरणसे कु छ भी स नह रहता ; वह सदा स दान घन परमा ाम ही अ भ पसे त रहता है ; तथा प लोक म तो वह शरीरधारी ही दीखता है। इसी लये उसको 'देही ' कहा गया है। इसी कार चौदहव अ ायके बीसव ोकम गुणातीतके वणनम भी 'देही ' श आया है। तथा लोक से उसके मन , बु और इ य क चे ाएँ नय मत पसे शा ानुकूल और लोकसं हके उपयु होती ह; इस लये उसे 'वशी ' कहा है। ,

– यहाँ 'एव '

कस भावका

ोतक है ? उ र – सां योगीका शरीर और इ य म अहंभाव न रहनेके कारण उनके ारा होनेवाले कम का वह कता नह बनता और मम न रहनेके कारण वह करवानेवाला भी नह बनता। अत : ' न कुवन् ' और ' न कारयन् ' के साथ 'एव ' का योग करके यह भाव दखलाया है क सां योगीम अहंता -ममताका सवथा अभाव होनेके कारण वह कसी कार भी शरीर , इ य और मन आ दके ारा होनेवाले कम का करनेवाला या करवानेवाला कभी नह बनता।

– यहाँ 'नव ारे पुरे आ े ' अथात् 'नौ ार वाले शरीर प पुरम रहता है ' ऐसा अ य न करके 'नव ारे पुरे सवकमा ण मनसा सं ' अथात् 'नौ ारवाले शरीर प पुरम सब कम को मनसे छोड़कर ' इस कार अ य कया गया ?

उ र – नौ ारवाले शरीर प पुरम रहनेका तपादन करना सां योगीके लये कोई मह क बात नह है , ब उसक तके व है। शरीर प पुरम तो साधारण मनु क भी त है ही , इसम मह क कौन -सी बात है? इसके व शरीर प पुरम यानी इ या द ाकृ तक व ु म कम के ागका तपादन करनेसे सां योगीका वशेष मह कट होता है ;

क सां योगी ही ऐसा कर सकता है , साधारण मनु नह कर सकता। अतएव जो अ य कया गया है , वही ठीक है। – यहाँ इ या दके कम को इ या दम छोड़नेके लये न कहकर नौ ारवाले शरीरम छोड़नेके लये कहा ? उ र – दो आँ ख , दो कान , दो ना सका और एक मुख , ये सात ऊपरके ार तथा उप और गुदा , ये दो नीचेके ार – इ य के गोलक प इन नौ ार का संकेत कये जानेसे यहाँ व ुत : सब इ य के कम को इ य म ही छोड़नेके लये कहा गया है । क इ या द सम कमकारक का शरीर ही आधार है अतएव शरीरम छोड़नेके

लये कहना कोई दसू री बात नह है। जो बात आठव और नव ोकम कही गयी है वही यहाँ कही गयी है। के वल श का अ र है। वहाँ इ य क या का नाम बतलाकर कहा है यहाँ उनके ान क ओर संकेत करके कहा है। इतना ही भेद है। भावम कोई भेद नह है। – यहाँ मनसे कम को छोड़नेके लये कहनेका ा अ भ ाय है ? उ र – पसे सब कम का ाग कर देनेपर मनु क शरीरया ा भी नह चल सकती। इस लये मनसे - ववेक -बु के ारा कतृ -कार यतृ का ाग करना ही सां योगीका ाग है, इसी भावको करनेके लये मनसे ाग करनेके लये कहा है।

ोकाथम कहा गया है – वह 'स दान घन परमा ाके पम त रहता है ' पर ु मूल ोकम ऐसी कोई बात नह आयी है ; फर अथम यह वा ऊपरसे जोड़ा गया ? उ र – 'आ े ' – त रहता है, इस याको आधारक आव कता है। मूल ोकम उसके उपयु श न रहनेपर भावसे अ ाहार कर लेना उ चत ही है। यहाँ सां योगीका करण है और सां योगी व ुत : स दान घन परमा ाके पम ही सुखपूवक त हो सकता है, अ नह । इसी लये ऊपरसे यह वा जोड़ा गया है। –

जब क आ ा वा वम कम करनेवाला भी नह है और इ या दसे करवानेवाला भी नह है, तो फर सब मनु अपनेको कम का कता मानते ह और वे कमफलके भागी होते ह – स



न कतृ ं न कमा ण लोक सृज त भुः । न कमफलसंयोगं भाव ु वतते ॥ १४॥

परमे र मनु के न तो कतापनक , न कम क और न कमफलके संयोगक ही रचना करते ह ; कतु भाव ही बत रहा है॥ १४॥

– यहाँ '

भु ' पद कसका वाचक है ? तथा मनु के कतापन , कम और कमफलके संयोगक रचना सृ कता परमे र नह करते ह। इस कथनका ा भाव है ? उ र – स ूण जगत् क उ , त और संहार करनेवाले सवश मान् परमे रका वाचक यहाँ ' भु ' पद है। क शा म जहाँ कह भी परमे रको सृ -रचना द कम का कता बतलाया गया है, वहाँ सगुण परमे रके संगम ही बतलाया गया है। परमे र मनु के कतापनक रचना नह करते , इस कथनका यह भाव है क मनु का जो कम म कतापन है वह भगवान् का बनाया आ नह है। अ ानी मनु अहंकारके

वशम होकर अपनेको उनका कता मान लेते ह (३।२७ )। मनु के कम क रचना भगवान् नह करते , इस कथनका यह भाव है क अमुक शुभ या अशुभ कम अमुक मनु को करना पड़ेगा , ऐसी रचना भगवान् नह करते , क ऐसी रचना य द भगवान् कर द तो व ध नषेध -शा ही थ हो जाय तथा उसक कोई साथकता ही नह रहे। कमफलके संयोगक रचना भी भगवान् नह करते , इस कथनका यह भाव है क कम के साथ स मनु का ही अ ानवश जोड़ा आ है। कोई तो आस वश उनका कता बनकर और कोई कमफलम आस होकर अपना स कम के साथ जोड़ लेते ह ।

य द इन तीन क रचना भगवान् क क ई होती तो मनु कमब नसे छूट ही नह सकता , उसके उ ारका कोई उपाय ही नह रह जाता। अत : साधक मनु को चा हये क कम का कतापन पूव कारसे कृ तके अपण करके (५।८ -९ ) या भगवान् के अपण करके (५।१० ) अथवा कम के फल और आस का सवथा ाग करके (५।१२ ) कम से अपना स - व ेद करले (४।२० )। यही सब भाव दखलानेके लये यह कहा है क परमे र मनु के कतापन , कम और कमफलक रचना नह करते। – यहाँ भाव ही बतता है इसका ा योजन है ?

उ र – आ ाका कतापन , कम और कम के फलसे वा वम कोई स नह है और परमे र भी कसीके कतृ आ दक रचना नह करते तो फर ये सब कै से देखनेम आ रहे ह – इस ज ासापर यह बात कही गयी है क सत् , रज और तम तीन गुण , राग - ेष आ द सम वकार , शुभाशुभ कम और उनके सं ार , इन सबके पम प रणत ई कृ त अथात् भाव ही सब कु छ करता है। ाकृ त जीव के साथ इसका अना द स संयोग है। इसीसे उनम कतृ भाव उ हो रहा है अथात् अहंकारसे मो हत होकर वे अपनेको उनका कता मान लेते ह (३।२७ ) तथा इसीसे कम और कमफलसे भी उनका स हो जाता है और वे उनके ब नम पड़ जाते ह। वा वम आ ाका

इनसे कोई स अ भ ाय है ।

नह है

,

यही इसका

जो साधक सम कम को और कमफल को भगवानूके अपण करके कमफलसे अपना स - व ेद कर लेते ह, उनके शुभाशुभ कम के फलके भागी ा भगवान् होते ह ? इस ज ासापर कहते ह – नाद े क च ापं न चैव सुकृतं वभुः । अ ानेनावृतं ानं तेन मु ज वः ॥१५॥ स



सव ापी परमे र भी न कसीके पापकमको और न कसीके शुभकमको ही हण करता है ; क ु अ ानके ारा ान

ढका आ है, उसीसे सब अ ानी मनु मो हत हो रहे ह॥१५॥

यहाँ ' वभु : ' पद कसका वाचक है और वह कसीके पु -पापको हण नह करता , इस कथनका ा अ भ ाय है ? उ र – ' वभु : ' पद सबके दयम रहनेवाले ( १३।१७ ; १५।१५ ; १८।६१ ) और संपूण जगत् का अपने संक ारा संचालन करनेवाले , सवश मान् सगुण नराकार परमे रका वाचक है। वह कसीके पु -पाप को हण नह करते , इस कथनसे यह भाव दखलाया गया है क य प सम कम उ क श से मनु ारा कये जाते –

ह। सबको श , बु और इ याँ आ द उनके कमानुसार वे ही दान करते ह , तथा प वे उनके ारा कये ए कम को हण नह करते। अथात् यं उन कम के फलके भागी नह बनते। – इसी अ ायके अ म ोकम और नव अ ायके चौबीसव ोकम तो भगवान् ने यं यह कहा है क स ूण य और तप का भो ा म ँ । फर यहाँ यह बात कै से कही क भगवान् कसीके शुभकम भी हण नह करते ? उ र – सारा व सगुण परमे रका प है। इस लये देवता दके पम भगवान् ही सब य के भो ा ह। कतु ऐसा होनेपर भी

वा वम भगवान् कम और कमफलसे सवथा स र हत ह। इसी भावको करनेके लये यहाँ यह बात कही गयी है क भगवान् कसीके पु -पापको हण नह करते। अ भ ाय यह है क देव , मनु आ दके पम सम य के भो ा होनेपर भी तथा भ ारा अपण क ई व ुएँ और या को ीकार करते ए भी वा वम उन सबसे उसी कार स र हत ह , जैसे ज लेकर भी भगवान् अज ह (४।६ ), सृ क रचना द कम करते ए भी अकता ही ह (४।१३ )। अत : यहाँ यह कहना उ चत ही है क भगवान् कसीके शुभकमको हण नह करते। – अ ान ारा ान ढका आ है , उसीसे सब जीव मो हत हो रहे ह, इस

कथनका ा अ भ ाय है ? उ र – यहाँ यह शंका होती है क य द वा वम मनु का या परमे रका कम से और उनके फलसे स नह है तो फर संसारम जो मनु यह समझते ह क 'अमुक कम मने कया है ', 'यह मेरा कम है ', 'मुझे इसका फल मलेगा ', यह ा बात है ? इसी शंकाका नराकरण करनेके लये कहते ह क अना द स अ ान ारा सब जीव का यथाथ ान ढका आ है। इसी लये वे अपने और परमे रके पको तथा कमके त को न जाननेके कारण अपनेम और ई रम कता , कम और कमफलके स क क ना करके मो हत हो रहे ह।

ानेन तु तद ानं येषां ना शतमा नः । तेषामा द व ानं काशय त त रम् ॥१६॥

पर ु जनका वह अ ान परमा ाके त ान ारा न कर दया गया है उनका वह ान सूयके स श उस स दान घन परमा ाको का शत कर देता है ॥१६॥

अ भ ाय है ?



यहाँ

'तु '

का



उ र – पं हव ोकम यह बात कही क अ ान ारा ानके आवृत हो जानेके कारण सब मनु मो हत हो रहे ह। यहाँ उन साधारण मनु से आ त के जाननेवाले

ा नय को पृथक् करनेके लये 'तु ' का योग कया गया है। – यहाँ 'अ ानम् ' के साथ 'तत् ' के योगका ा अ भ ाय है ? उ र – पं हव ोकम जस अ ानका वणन है, जस अ ानके ारा अना दकालसे सब जीव का ान आवृत है, जसके कारण मो हत ए सब मनु आ ा और परमा ाके यथाथ पको नह जानते , उसी अ ानक बात यहाँ कही जाती है। इसी बातको करनेके लये अ ानके साथ 'तत् ' वशेषण दया गया है। अ भ ाय यह है क जन पु ष का वह अना द स अ ान

परमा ाके यथाथ ान ारा न कर दया गया है वे मो हत नह होते। – यहाँ सूयका ा देनेका ा अ भ ाय है ? उ र – जस कार सूय अ कारका सवथा नाश करके मा को का शत कर देता है वैसे ही यथाथ ान भी अ ानका सवथा नाश करके परमा ाके पको भलीभाँ त का शत कर देता है। जनको यथाथ ानक ा हो जाती है , वे कभी , कसी भी अव ाम मो हत नह होते।

यथाथ ानसे परमा ाक ा होती है, यह बात सं ेपम कहकर अब छ ीसव ोकतक ानयोग ारा परमा ाको स



ा होनेके साधन तथा परमा ाको ा स पु ष के ल ण, आचरण, मह और तका वणन करनेके उ े से पहले यहाँ ानयोगके एका साधन ारा परमा ाक ा बतलाते ह – त ु य दा ान ा राय णाः । ग पुनरावृ ान नधूतक षाः ॥१७॥

जनका मन त प ू हो रहा है, जनक बु त प ू हो रही है और स दान धन परमा ाम ही जनक नर र एक भावसे त है , ऐसे त रायण पु ष ानके ारा पापर हत होकर अपुनरावृ को अथात् परमग तको ा होते ह ॥१७॥

मनका त पू होना ा है और सां योगके अनुसार कस तरह अ ास करते - करते मन त पू होता है ? उ र – सां योग ( ानयोग ) का अ ास करनेवालेको चा हये क आचाय और शा के उपदेशसे स ूण जगत् को मायामय और एक स दान घन परमा ाको ही स व ु समझकर तथा स ूण अना व ु के च नको सवथा छोड़कर , मनको परमा ाके पम न ल त करनेके लये उनके आन मय पका च न करे। बार -बार आन क आवृ करता आ ऐसी धारणा करे क पूण आन , अपार आन , शा आन , घन आन , अचल आन , ुव आन , न आन , –

बोध प आन , ान प आन , परम आन , महान् आन , अन आन , सम आन , अ च आन , च य आन , एकमा आन -ही - आन प रपूण है , आन से भ अ कोई व ु ही नह है इस कार नर र मनन करते -करते स दान घन परमा ाम मनका अ भ –भावसे न ल हो जाना मनका त पू होना है। – बु का त प ू होना ा है और मन त पू होनेके बाद कस तरहके अ ाससे बु त पू होती है ? उ र – उपयु कारसे मनके त पू हो जानेपर बु म स दान घन परमा ाके पका के स श न य हो जाता है ,

उस न यके अनुसार न द ासन ( ान ) करते करते जो बु क भ स ा न रहकर उसका स दान घन परमा ाम एकाकार हो जाना है , वही बु का त पू हो जाना है। – 'त ा ' अथात् स दान घन परमा ाम एक भावसे त कस अव ाका नाम है तथा मन और बु दोन के त पू हो जानेके बाद वह कै से होती है ? उ र – जबतक मन और बु उपयु कारसे परमा ाम एकाकार नह हो जाते , तबतक सां योगीक परमा ाम अ भ -भावसे त नह होती ; क मन और बु आ ा और परमा ाके भेद मम मु कारण ह। अतएव उपयु कारसे मन

-बु

के परमा ाम एकाकार हो जानेके बाद साधकक से आ ा और परमा ाके भेद मका नाश हो जाना एवं ाता , ान और ेयक पुटीका अभाव होकर के वलमा एक व ु स दान घन परमा ाका ही रह जाना सां योगीका त होना अथात् परमा ाम एक भावसे त होना है। – 'त रायणाः ' यह पद कनका वाचक हे ? उ र – उपयु कारसे आ ा और परमा ाके भेद मका नाश हो जानेपर जब सां योगीक स दान घन परमा ाम अ भ भावसे न ल त हो जाती है, तब व ुत : परमा ाके अ त र अ कसीक

स ा रहती ही नह । उसके मन , बु , ाण आ द सब कु छ परमा प ही हो जाते ह। इस कार स दान घन परमा ाके सा ात् अपरो ान ारा उनम एकता ा कर लेनेवाले पु ष का वाचक यहाँ 'त रायणा : ' पद है। – यहाँ 'तत् ' श का अथ स दान घन परमा ा कै से कया गया ? उ र – पूव ोकम 'परम् ' के साथ 'तत् ' वशेषण आया है। वहाँ यथाथ ान ारा जस परमत का सा ा ार होना बतलाया गया है, उसीसे इस ोकका 'तत् ' श स रखता है। अतएव करणके

अनुसार उसका अथ 'स दान घन परमा ा ' करना ही उ चत है। – यहाँ ' ान नधूतक षाः ' पदम आया आ ' ान ' श कस ानका वाचक है ? 'क ष ' श का और ' नधूत ' श का ा अथ है ? उ र – सोलहव ोकम जस ानको अ ानका नाशक और परमा ाको का शत करनेवाला बतलाया है, उस यथाथ त ानका वाचक यहाँ ' ान ' श है। शुभाशुभ कम तथा राग - ेषा द अवगुण एवं व ेप और आवरण , इन सभीका वाचक 'क ष ' श है, क ये सभी आ ाके ब नम हेतु होनेके कारण 'क ष ' अथात् पाप

ही ह। इन सबका भलीभाँ त न हो जाना , ' नधूत ' श का अथ है। अ भ ाय यह है क उपयु कारके साधनसे ा यथाथ ानके ारा जनके मल , व ेप और आवरण प सम पाप भलीभाँ त न हो गये ह, जनम उन पाप का लेशमा भी नह रहा है, जो सवथा पापर हत हो गये ह , वे ' ान नधूतक ष ' ह।                 – यहाँ 'अपुनरावृ को ा होना ' ा है ? उ र – जस पदको ा होकर योगी पुन : नह लौटता , जसको सोलहव ोकम 'त रम् ' के नामसे कहा है, गीताम जसका वणन कह 'अ य सुख ', कह ' नवाण ' कह 'उ म सुख ', कह 'परमग त ', कह 'परमधाम ', कह 'अ यपद ' और कह

'द

परमपु ष ' के नामसे आया है, उस यथाथ ानके फल प परमा ाको ा होना ही अपुनरावृ को ा होना है।

परमा ाक ा का साधन बतलाकर अब परमा ाको ा स पु ष के ' समभाव ' का वणन करते ह – व ा वनयस े ा णे ग व ह न। शु न चैव पाके च प ताः समद शनः ॥१८॥ स

वे



ानीजन व ा और वनययु बा णम तथा गौ , हाथी , कु े और चा ालम भी समदश ही होते ह ॥१८॥



यहाँ 'प

ता : '

पद

कन पु ष का वाचक है ? उ र – 'प ता : ' यह पद त ानी महा ा स पु ष का वाचक है। – व ा वनयस ा णम तथा गौ हाथी , कु े , और चा ालम समदशनका ा भाव है ? उ र – त ानी स पु ष का वषमभाव सवथा न हो जाता है। उनक म एक स दान घन पर परमा ासे अ त र अ कसीक स ा नह रहती , इस लये उनका सव समभाव हो जाता है। इसी बातको समझानेके लये मनु म उ म -से -उ म े ा ण , नीच -से -नीच

चा ाल एवं पशु म उ म गौ , म म हाथी और नीच -से -नीच कु ेका उदाहरण देकर उनके सम का द शन कराया गया है। इन पाँच ा णय के साथ वहारम वषमता सभीको करनी पड़ती है। जैसे गौका दधू सभी पीते ह , पर कु तयाका दधू कोई भी मनु नह पीता। वैसे ही हाथीपर सवारी क जा सकती है, कु ेपर नह क जा सकती। जो व ु शरीर - नवाहाथ पशु के लये उपयोगी होती है , वह मनु के लये नह हो सकती। े ा णका पूजन -स ारा द करनेक शा क आ ा है , चा ालके लये नह है। अत : इनका उदाहरण देकर भगवान् ने यह समझायी है क जनम ावहा रक

अ नवाय है उनम भी ानी पु ष का समभाव ही रहता है। कभी कसी भी कारणसे कह भी उनम वषमभाव नह होता। – ा सव समभाव हो जानेके कारण ानी पु ष सबके साथ वहार भी एक -सा ही करते है ? उ र – ऐसी बात नह है। सबके साथ एक - सा वहार तो कोई कर ही नह सकता। शा म बतलाये ए ाययु वहारका भेद तो सबके साथ रखना ही चा हये। ानी पु ष क यह वशेषता है क वे लोक से वहारम यथायो आव क भेद रखते ह – ा णके साथ ा णो चत , चा ालके साथ चा ालो चत , इसी तरह गौ

हाथी और कु े आ दके साथ यथायो सद् वहार करते ह; परंतु ऐसा करनेपर भी उनका ेम और परमा भाव सबम समान ही रहता है। जैसे मनु अपने म क , हाथ और पैर आ द अंग के साथ भी बतावम ा ण , य , वै और शू ा दके स श भेद रखता है, जो काम म क और मुखसे लेता है , वह हाथ और पैर से नह लेता। जो हाथ -पैर का काम है , वह सरसे नह लेता और सब अंग के आदर , मान एवं शौचा दम भी भेद रखता है तथा प उनम आ भाव -अपनापन समान होनेके कारण वह सभी अंग के सुख -दःु खका अनुभव समानभावसे ही करता है और सारे शरीरम उसका ेम एक -सा ही रहता है, ेम ,

और आ भावक से कह वषमता नह रहती। वैसे ही त ानी महापु षक सव हो जानेके कारण लोक से वहारम यथायो भेद रहनेपर भी उसका आ भाव और ेम सव सम रहता है। और इसी लये , जैसे कसी भी अंग म चोट लगनेपर या उसक स ावना होनेपर मनु उसके तीकारक चे ा करता है, वैसे ही त ानी पु ष भी वहारकालम कसी भी जीव या जीवसमुदायपर वप पड़नेपर बना भेदभावके उसके तीकारक यथायो चे ा करता है।

इस कार त ानीके समभावका वणन करके अब समभावको का स



प बतलाते ए उसम त महापु ष क म हमाका वणन करते ह – इहैव तै जतः सग येषां सा े तं मनः । नद षं ह समं त ाद् ण ते ताः ॥१९॥

जनका मन समभावम त है , उनके ारा इस जी वत अव ाम ही स ुण संसार जीत लया गया है, क स दान घन परमा ा नद ष और सम है, इससे वे स दान घन परमा ाम ही त ह ॥११॥

जनका मन समताम त है, उ ने यह संसारको जीत लया – इस कथनका ा अ भ ाय है ? –

उ र – इस कथनसे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क जनका मन उपयु कारसे समताम त हो गया है अथात् जनक सव समबु हो गयी है, उ ने यह – इसी वतमान जीवनम संसारको जीत लया ; वे सदाके लये ज -मरणसे छूटकर जीव ु हो गये। लोक म उनका शरीर रहते ए भी वा वम उस शरीरसे उनका कु छ भी स नह रहा। – को ' नद ष ' और 'सम ' बतलानेका ा अ भ ाय है तथा ' ह ' और 'त ात् ' का योग कस लये कया गया है ?

उ र – स , रज और तम – इन तीन गुण म सब कारके दोष भरे ह और सम संसार तीन गुण का काय होनेसे दोषमय है। इन गुण के स से ही वषमभाव तथा राग , ेष , मोह आ द सम अवगुण का ादभु ाव होता है। ' ' नामसे कहा जानेवाला स दान घन परमा ा इन तीन गुण से सवथा अतीत है। इस लये वह ' नद ष ' और 'सम ' है। इसी तरह त ानी भी तीन गुण से अतीत हो जाता है। अत : उसके राग , ेष , मोह , ममता , अहंकार आ द सम अवगुण का और वषमभाव सवथा नाश होकर उसक त समभावम हो जाती है। 'ही ' और 'त ात् ' इन हेतुवाचक श के योगका यह अ भ ाय है क समभाव का ही प है ;

इस लये जनका मन समभावम त है वे म ही त ह। य प लोग को वे गुणमय संसार और शरीरम त दीखते ह , तथा प उनक त समभावम होनेके कारण वा वम उनका इस गुणमय संसार और शरीरसे कु छ भी स नह है ; उनक त तो म ही है। – तमोगुण और रजोगुणको तो सम दोष का भ ार बतलाना उ चत ही है क गीताम ान - ानपर भगवान् ने इ सम अनथ के हेतु बतलाकर इनका ाग करनेके लये कहा है ; क ु स गुण तो भगवान् क ा म सहायक है उसक गणना रज और तमके साथ करके उसे भी सम दोष का भ ार कै से कहा ?

उ र – य प रज और तमक अपे ासे स गुण े है तथा मनु क उ तम सहायक भी है तथा प अहंकारयु सुख एवं ानके स से भगवान् ने इसको भी ब नका हेतु बतलाया है (१४।६ )। व ुत : तीन गुण से स छूटे बना साधक सवथा नद ष नह होता और उसक त पूणतया समभावम नह होती। इस लये यहाँ गुणातीतके संगम स गुणको भी सदोष बतलाना अनु चत नह है। अब नगुण नराकार स दान घन को ा समदश स पु षके , ल ण बतलाते ह – स





े यं ा नो जे ा चा यम् । रबु रस ूढो वद् ण तः ॥२०॥

जो पु ष यको ा होकर ह षत नह हो और अ यको ा होकर उ न हो , वह रबु संशयर हत ब वे ा पु ष स दान घन पर परमा ाम एक भावसे न त है ॥२०॥

य और अ यक ा म ह षत और उ न होनेका ा अ भ ाय है ? उ र – जो पदाथ मन , बु , इ य और शरीरके अनुकूल होता है , उसे लोग ' य ' –

कहते ह । अ ानी पु ष क ऐसे अनुकूल पदाथा दम आस रहती हे , इस लये वे उनके ा होनेपर ह षत होते ह। पर ु त ानीक त समभावम हो जानेके कारण उसक कसी भी व ुम लेशमा भी आस नह रहती ; इस लये जब उसे ार के अनुसार कसी अनुकूल पदाथक ा होती है , अथात् उसके मन , बु , इ य और शरीरके साथ कसी य पदाथका संयोग होता है तब वह ह षत नह होता। क मन , इ य और शरीर आ दम उसक अहंता , ममता और आस का सवथा अभाव हो गया है। इसी कार जो पदाथ मन , बु , इ य और शरीरके तकू ल होता है उसे लोग 'अ य ' कहते ह और अ ानी पु ष का ऐसे पदाथ म

ेष होता है , इस लये वे उनक ा म घबड़ा उठते ह और उ बड़े भारी दःु खका अनुभव होता है। क ु ानी पु षम ेषका सवथा अभाव हो जाता है ; इस लये उसके मन , इ य और शरीरके साथ अ तकू ल पदाथका संयोग होनेपर भी वह उ यानी दःु खी नह होता। – यहाँ ' रबु : ' इस वशेषण -पदका ा अ भ ाय है ? उ र – भाव यह है क त ानी स पु षक म एक के सवा संसारम और कसीक स ा ही नह रहती। अत : उसक बु सदा र रहती है। लोक से नाना कारके मान -अपमान , सुख -दःु ख आ दक ा होनेपर भी कसी भी कारणसे उसक

बु क तसे कदा प वच लत नह होती ; वह ेक अव ाम सदा सवदा एक स दान घन म ही अचलभावसे त रहती है। – ' अस ूढ़ः ' कहनेका ा अ भ ाय है ? उ र – ानी पु षके अ ःकरणम संशय , म और मोहका लेश भी नह रहता। उसके स ूण संशय अ ानस हत न हो जाते ह। –' वत् ' का ा अ भ ाय है ? उ र – स दान घन -त को वह भलीभाँ त जान लेता है। ' ' ा है

'जगत् '

ा है ' ' और 'जगत् ' का ा स है, 'आ ा ' और 'परमा ा ' ा है , 'जीव ' और 'ई र ' का ा भेद है इ ा द स ी कसी भी बातका जानना उसके लये बाक नह रहता। का प उसे हो जाता है। इसी लये उसे ' वत् ' कहा जाता है। – '



त : '

कहनेका ा अ भ ाय है ? उ र – ऐसा पु ष जा त् , , सुषु – इन तीन अव ा म सदा म ही त है। अ भ ाय यह हे क कभी कसी भी अव ाम उसक त शरीरम नह होती। के साथ उसक एकता हो जानेके

कारण कभी कसी भी कारणसे उसका से वयोग नह होता। उसक सदा एक -सी त बनी रहती है। इसीसे उसे ' ण त : ' कहा गया है।

इस कार म त पु के ल ण बतलाये गये ; अब ऐसी त ा करनेके साधन और उसके फलक ज ासा होनेपर कहते ह – बा श स ा ा व ा न य ुखम् । स योगयु ा ा सुखम यम ुते ॥२१॥ स



बाहरके वषय म आस अ ःकरणवाला साधक आ ाम

र हत त जो

ानज नत सा क आन है, उसको ा होता है ; तदन र वह स दान घन पर परमा ाके ान प योगम अ भ भावसे त पु ष अ य आन का अनुभव करता है ॥२१॥ – 'बा

श स लये कहा गया है ?

ा ा

कस पु षके उ र – श , श , प , रस और ग आ द जो इ य के वषय ह उनको 'बा - श ' कहते ह ; जस पु षने ववेकके ारा अपने मनसे उनक आस को बलकु ल न कर डाला है, जसका सम भोग म पूण वैरा है और जसक उन सबम उपर त हो गयी है, वह '

पु ष ' बा श स ा ा ' अथात् बाहरके वषय म आस र हत अ ःकरणवाला है। – आ ाम त आन को ा होनेका ा अ भ ाय है ? उ र – 'आ ा ' श यहाँ अ ःकरणका वाचक है। उस अ ःकरणके अंदर सव ापी स दान घन परमा ाके न और सतत ानसे उ सा क आन का अनुभव करते रहना ही उस आन को ा होना है। इ य के भोग को ही सुख प माननेवाले मनु को यह ानज नत सुख नह मल सकता। बाहरके भोग म व ुत : सुख है ही नह ; सुखका के वल आभासमा है। उसक अपे ा वैरा का सुख कह बढ़कर है और

वैरा सुखक अपे ा भी उपर तका सुख तो ब त ऊँ चा है। पर ु परमा ाके ानम अटल त ा होनेपर जो सुख ा होता है वह तो इन सबसे बढ़कर है। ऐसे सुखको ा होना ही आ ाम त आन को पाना है। – यहाँ ' योगयु ा ा ' कसको कहा है और ' स : ' का योग करके कसका संकेत कया गया है ? उ र – उपयु कारसे जो पु ष इ य के सम वषय म आस र हत होकर उपर तको ा हो गया है तथा परमा ाके ानक अटल तसे उ महान् सुखका अनुभव करता है , उसे ' योगयु ा ा ' अथात् पर परमा ाके

ान प योगम अभेदभावसे त कहा है। और पहले बतलाये ए दोन ल ण के साथ इस ' योगयु ा ा ' क एकताका संकेत करनेके लये 'स : 'का योग कया गया है। – अ य आन ा है और उसको अनुभव करनेका ा भाव है ? उ र – सदा एकरस रहनेवाला परमान - प अ वनाशी परमा ा ही 'अ य सुख ' है। और न - नर र ान करते -करते उस परमा ाको जो अ भ भावसे कर लेना है यही उसका अनुभव करना है। इस 'सुख ' क तुलनाम कोई -सा भी सुख नह ठहर सकता। सांसा रक भोग म जो

सुखक ती त होती है, वह तो सवथा नग और णक है। उसक अपे ा वैरा और उपर तके सुख - ानज नत सुखम हेतु होनेके कारण अ धक ायी ह और ' ानज नत सुख ' परमा ाक सा ात् ा का कारण होनेसे उनक अपे ा भी अ धक ायी है ; पर ु साधनकालके इन सुख मसे कसीको भी अ य नह कहा जा सकता ; 'अ य आन ' तो परमा ाका प ही है ।

इस कार इ य के वषय म आि के ागको परमा ाक   ा म हेतु बतलाकर अब इस ोकम इ य के भोग को दःु खका कारण और अ न स



बतलाते ए भगवान् उनम आस र हत होने के लये संकेत करते ह – ये ह सं शजा भोगा दःु खयोनय एव ते । आ व ः कौ ेय न तेषु रमते बुधः ॥२२॥

जो ये इ य तथा वषय के संयोगसे उ होनेवाले सब भोग ह, वे य प वषयी पु ष को सुख प भासते ह तो भी दःु खके ही हेतु ह और आ द - अ वाले अथात् अ न ह। इस लये हे अजुन ! बु मान् ववेक पु ष उनम नह रमता॥ २२॥

इ य और वषय के संयोगसे ा होनेवाले भोग के वल दःु खके ही –

हेतु ह , इस कथनका ा अ भ ाय है ? उ र – जैसे पतंगे अ ानवश प रणाम न सोचकर दीपकक लौको सुखका कारण समझते ह और उसे ा करनेके लये उड़ -उड़कर उसक ओर जाते तथा उसम पड़कर भयानक ताप सहते और अपनेको द कर डालते ह , वैसे ही अ ानी मनु भोग को सुखके कारण समझकर तथा उनम आस होकर उ भोगनेक चे ा करते ह और प रणामम महान् दःु ख को ा होते ह। वषय को सुखके हेतु समझकर उ भोगनेसे उनम आस बढ़ती है, आस से काम - ोधा द अनथ क उ होती है और फर उनसे भाँ त -भाँ तके दगु ुण और दरु ाचार आ -आकर उ चार ओरसे घेर लेते ह। प रणाम

यह होता है क उनका जीवन पापमय हो जाता है और उसके फल प उ इहलोक और परलोकम व वध कारके भयानक ताप और यातनाएँ भोगनी पड़ती ह। वषयभोगके समय मनु मवश जन ी - संगा द भोग को सुखका कारण समझता है , वे ही प रणामम उसके बल , वीय , आयु तथा मन , बु , ाण और इ य क श का य करके और शा व होनेपर तो परलोकम भीषण नरकय णा दक ा कराकर महान् दःु खके हेतु बन जाते है। इसके अ त र एक बात यह है क अ ानी मनु जब दसू रेके पास अपनेसे अ धक भोग -साम ी देखता है तब उसके मनम

ई ाक आग जल उठती है और वह उससे जलने लगता है। सुख प समझकर भोगे ए वषय कह ार वश न हो जाते ह तो उनके सं ार बार -बार उनक ृ त कराते ह और मनु उ याद कर -करके शोकम होता , रोता - बलखता और पछताता है। इन सब बात पर वचार करनेसे यही स होता है क वषय के संयोगसे ा होनेवाले भोग वा वम सवथा दःु खके ही कारण है , उनम सुखका लेश भी नह है। अ ानवश मसे ही वे सुख प तीत होते ह। इसी लये उनको भगवान् ने 'के वल दःु खके हेतु ' बतलाया है।

भोग को 'आ द -अ वाले ' बतलानेका ा अ भ ाय है ? उ र – इ य के भोग को क या बजलीक चमकक भाँ त अ न और णभंगुर बतलानेके लये ही उ 'आ द -अ वाले ' कहा गया है। व ुत : इनम सुख है ही नह ; पर ु य द अ ानवश सुख प तीत होनेके कारण कोई इ कसी अंशम सुखके कारण मान , तो वह सुख भी न नह है णक ही है। क जो व ु यं अ न होती है उससे न सुख नह मल सकता। दसू रे अ ायके चौदहव ोकम भी भगवान् ने इ य के वषय को उ वनाशशील होनेके कारण अ न बतलाया है। –

'कौ ेय ' ?

– यहाँ अजुनको भगवान् ने

स ोधन देकर ा सू चत कया है

उ र – अजुनक माता कु ीदेवी बड़ी ही बु मती , संयमशील , ववेकवती और वषय - भोग से वर रहनेवाली थ ; नारी होनेपर भी उ ने अपना सारा जीवन वैरा यु धमाचरण और भगवान् क भ म ही बताया। अतएव इस स ोधनसे भगवान् अजुनको माता कु ीके मह क याद दलाते ए यह सू चत करते ह क 'अजुन ! तुम उ धमशीला कु ीदेवीके पु हो , तु ारे लये तो इन वषय म आस होनेक कोई स ावना ही नह है। '

अ ानी मनु वषय भोग म रमता है और ववेक पु ष उनम नह रमता , इसम ा कारण है ? उ र – वषय -भोग वा वम अ न , णभंगुर और दःु ख प ही ह पर ु ववेकहीन अ ानी पु ष इस बातको न जान -मानकर उनम रमता है और भाँ त - भाँ तके ेश भोगता है ; पर ु बु मान् ववेक पु ष उनक अ न ता और णभंगुरतापर वचार करता है तथा उ काम - ोध , पाप -ताप आ द अनथ म हेतु समझता है और उनक आस के ागको अ य सुखक ा म कारण समझता है, इस लये वह उनम नह रमता। –

व भोग को काम ोधा दके न म से दःु खके हेतु बतलाकर अब मनु - शरीरका मह दखलाते ए भगवान् काम - ोधा द दजु य श ु पर वजय ा कर लेनेवाले पु षक शंसा करते ह – श ोतीहैव यः सोढु ं ा शरीर वमो णात् । काम ोधो वं वेगं स यु ः स सुखी नरः ॥२३॥ स



जो साधक इस मनु - शरीरम , शरीरका नाश होनेसे पहले - पहले ही काम ोधसे उ होनेवाले वेगको सहन करनेम समथ हो जाता है वही पु ष योगी है ओर वही सुखी है॥२३॥

यहाँ 'इह ' और 'एव ' इन अ य का योग कस अ भ ायसे कया गया है। उ र – इन दोन का योग मनु -शरीरका मह कट करनेके लये कया गया है। देवा द यो नय म वला सता और भोग क भरमार है तथा तयगा द यो नय म जडताक वशेषता है ; अतएव उन सब यो नय म काम - ोधपर वजय ा करनेका साधन नह हो सकता। 'इह ' और 'एव ' का योग करके भगवान् मानो सावधान करते ए कहते ह क शरीर -नाशके पहले -पहले इस मनु -शरीरम ही साधनम त र होकर काम - ोधके वेगको शा के साथ सहन करनेक श ा कर लेनी चा हये। असावधानी –

और लापरवाहीसे य द यह दलु भ मनु -जीवन वषयभोग के बटोरने और भोगनेम ही बीत गया तो फर सर धुन -धुनकर पछताना पड़ेगा । के नोप नषद् म कहा है – इह चेदवेदीदथ स म चे द वेदी हती वन : । (२।५ )



अथात् 'य द इस मनु -शरीरम ही भगवान् को जान लया तो अ ी बात है, य द इस शरीरम न जाना तो बड़ी भारी हा न है। ' ' का

– ' ा ाय है ?

रीर वमो णात्

ाअभ उ र – इससे यह बतलाया गया है क शरीर नाशवान् है – इसका वयोग होना न त है और यह भी पता नह क यह कस णम

न हो जायगा ; इस लये मृ ुकाल उप त होनेसे पहले -पहले ही काम - ोधपर वजय ा कर लेनी चा हये , साथ ही साधन करके ऐसी श ा कर लेनी चा हये जससे क बार -बार घोर आ मण करनेवाले ये काम - ोध - पी महान् श ु अपना वेग उ करके जीवनम कभी वच लत ही न कर सक। जैसे समु म सब न दय के जल अपने -अपने वेगस हत वलीन हो जाते ह , वैसे ही ये काम - ोधा द श ु अपने वेगस हत वलीन होकर न ही हो जायँ – ऐसा य करना चा हये। – काम - ोधसे उ होनेवाले वेग ा ह और उ सहन करनेम समथ होना कसे कहते ह ?

उ र – (पु षके लये ) ी , ( ीके लये ) पु ष , (दोन हीके लये ) पु , धन , मकान या गा द जो कु छ भी देखे -सुने ए मन और इ य के वषय ह , उनम आस हो जानेके कारण उनको ा करनेक जो इ ा होती है , उसका नाम 'काम ' है और उसके कारण अ :करणम होनेवाले नाना कारके संक - वक का जो वाह है , वह कामसे उ होनेवाला 'वेग ' है। इसी कार मन , बु और इ य के तकू ल वषय क ा होनेपर अथवा इ - ा क इ ापू तम बाधा उप त होनेपर उस तके कारण भूत पदाथ या जीव के त ेषभाव उ होकर अ ःकरणम जो 'उ ेजना 'का भाव आता है , उसका नाम ' ोध ' है ; और

उस ोधके कारण होनेवाले नाना कारके संक - वक का जो वाह है , वह ोधसे उ होनेवाला वेग है। इन वेग को शा पूवक सहन करनेक अथात् इ काया त न होने देनेक श ा कर लेना ही इनको सहन करनेम समथ होना है। – यहाँ 'यु : ' वशेषण कसके लये दया गया है ? उ र – बार -बार आ मण करके भी काम - ोधा द श ु जसको वच लत नह कर सकते - इस कार जो काम - ोधके वेगको सहन करनेम समथ ै उस मन -इ य को वशम रखनेवाले सां योगके साधक पु षके लये ही 'यु : ' वशेषण दया गया है ?

ऐसे पु षको 'सुखी ' कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – संसारम सभी मनु सुख चाहते ह , पर ु वा वक सुख ा है और कै से मलता है , इस बातको न जाननेके कारण वे मसे भोग म ही सुख समझ बैठते ह , उ क कामना करते ह और उ को ा करनेक चे ा करते ह। उसम बाधा आनेपर वे ोधके वश हो जाते ह। पर ु नयम यह है क काम - ोधके वशम रहनेवाला मनु कदा प सुखी नह हो सकता। जो कामनाके वश है वह ी -पु और धन - माना दक ा के लये और जो ोधके वश है वह दसू र का अ न करनेके लये भाँ त - भाँ तके अनथ म और पाप म वृत होता है। प रणामम वह इस –

लोकम रोग , शोक , अपमान , अपयश , आकु लता , भय , अशा , उ ेग और नाना कारके ताप को तथा परलोकम नरक और पशु -प ी , कृ म -क टा द यो नय म भाँ त भाँ तके ेश को ा होता है। (१६।१८ , १९ , २० ) इस कार वह सुख न पाकर सदा दःु ख ही पाता है। पर ु जन पु ष ने भोग को दःु खके हेतु और णभंगुर समझकर काम ोधा द श ु पर भली भाँ त वजय ा कर ली है और जो उनके पंजेसे पूण पेण छूट गये ह , वे सदा सुखी ही रहते ह। इसी अ भ ायसे ऐसे पु षको 'सुखी ' कहा गया है। – यहाँ 'नर : ' इस पदका योग कस लये कया गया है ?

उ र – स ा 'नर ' वही है जो काम - ोधा द दगु ुण को जीतकर भोग म वैरा वान् और उपरत होकर स दान घन परमा ाको ा कर ले। 'नर ' श व ुत : ऐसे ही मनु का वाचक है , फर आकारम चाहे वह ी हो या पु ष ! अ ान - वमो हत मनु आस वश आपातरमणीय वषय के लोभनम फँ सकर परमा ाको भूल जाता है और काम - ोधा दके परायण होकर नीच पशु और पशाच क भाँ त आहार , न ा , मैथुन और कलहम ही वृ रहता है। वह 'नर ' नह है वह तो पशुसे भी गया बीता बना स ग -पूँछका अशोभन , नक ा और जगत् को दःु ख देनेवाला ज ु वशेष है। परमा ाको ा स े 'नर ' के गुण और आचरणको ल

बनाकर जो साधक काम - ोधा द श ु पर वजय ा कर चुकते है वे भी 'नर ' ही ह इसी भावसे यहाँ 'नर ' श का योग कया गया है। जसने काम - ोधको जीत लया है तथा जसे 'यु ' और 'सुखी ' कहा गया है , उस पु षको साधक ही मानना चा हये ? उसे स मान लया जाय तो ा हा न है ? उ र – के वल काम - ोधपर वजय ा कर लेनेमा से ही कोई स नह हो जाता ( १६।२२ )। स म तो काम - ोधा दक ग भी नह रहती। यह बात इसी अ ायके छ ीसव ोकम भगवान् ने कही है। फर यहाँ उसे 'सुखी ' ही बतलाया गया है , –

य द वह 'अ य सुख ' को ा करनेवाला स पु ष होता तो उसके लये यहाँ 'परम सुखी ' या अ कोई वल ण वशेषण दया जाता। यहाँ वह उसी 'सा क ' सुखका अनुभव करनेवाला पु ष है जो इ सव ोकके पूवा के अनुसार परमा ाके ानम ा होता है। इस लये इस ोकम व णत पु षको साधक ही समझना चा हये।

उपयु कारसे बा वषयभोग को णक और दखु का कारण समझकर तथा आस का ाग करके जो काम - ोधपर वजय ा कर चुका है, अब ऐसे सां योगीक अ म तका फलस हत वणन कया जाता है – स



योऽ ःसुखोऽ राराम था व यः । स योगी नवाणं भूतोऽ धग त ॥२४॥

तरे

जो पु ष अ रा ाम ही सुखवाला है, आ ाम ही रमण करनेवाला है तथा जो आ ाम ही ानवाला है, वह स दान घन पर परमा ाके साथ एक भावको ा सां योगी शा ाको ा होता है ॥ २४॥

भाव है ?

– 'अ ःसुख : ' का



उ र – यहाँ 'अ : ' श स णू जगत् के अ ः त परमा ाका वाचक है, अ ःकरणका नह । इसका यह अ भ ाय है क

जो पु ष बा वषयभोग प सांसा रक सुख को क भाँ त अ न समझ लेनेके कारण उनको सुख नह मानता क ु इन सबके अ ः त परम आन - प परमा ाम ही 'सुख ' मानता है वही 'अ ःसुख : ' अथात् परमा ाम ही सुखवाला है । – ' अ राराम :' कहनेका ा अथ है ? उ र – जो बा वषय -भोग म स ा और सुख -बु न रहनेके कारण उनम रमण नही करता , इन सबम आस र हत होकर के वल परमा ाम ही रमण करता है अथात् परमान प परमा ाका ही नर र

अ भ भावसे च न करता रहता है वह ' अ राराम ' कहलाता है। – 'अ त : ' का ा अ भ ाय है ? उ र – परमा ा सम ो तय क भी परम ो त है (१३।१७ )। स ूण जगत् उसीके काशसे का शत है। जो पु ष नर र अ भ -भावसे ऐसे परम ान प परमा ाका अनुभव करता आ उसीम त रहता है , जसक म एक व ानान प परमा ाके अ त र अ कसी भी बा व ुक भ स ा ही नह रही है, वही 'अ त ' है।

जनक म यह सारा जगत् स भासता है , न ावश देखनेवाल क भाँ त जो अ ानके वश होकर जगत् का ही च न करते रहते ह , वे 'अ त ' नह ह , क परम ान प परमा ा उनके लये अ है। – यहाँ 'एव ' का ा अथ है और उसका कस श के साथ स है ? उ र – यहाँ 'एव ' अ क ावृ करनेवाला है। तथा इसका स 'अ ःसुख : ', 'अ राराम : ' और 'अ त : ' इन तीन के साथ है। अ भ ाय यह है क बा पंचसे उस योगीका कु छ

भी स नह है ; क वह परमा ाम ही सुख , र त और ानका अनुभव करता है। – ' भूतः ' का ा अ भ ाय है? उ र – यहाँ ' भूतः ' पद सां योगीका वशेषण है। सां योगका साधन करनेवाला योगी अहंकार , ममता और काम - ोधा द सम अवगुण का ाग करके नर र अ भ भावसे परमा ाका च न करते -करते जब प हो जाता है , जब उसका के साथ क च ा भी भेद नह रहता , तब इस कारक अ म तको ा सां योगी ' भूतः ' कहलाता है।

नवाणम् ' यह पद कसका वाचक है और उसक ा ा है ? –'

उ र – ' नवाणम् ' पद स दान घन , नगुण , नराकार , न वक एवं शा परमा ाका वाचक है और अ भ भावसे हो जाना ही उसक ा है। सां योगीक जस अ म अव ाका ' भूत ' श से नदश कया गया है , यह उसीका फल है ! ु तम भी कहा है – ' ैव सन् ा े त ' (बृहदार क उ० ४।४।६ ) अथात् 'वह ही होकर को ा होता है। ' इसीको परम शा क ा , अ य सुखक ा , ा , मो ा और परमग तक ा कहते ह।

इस कर जो पर परमा ाको हो गये ह, उन पु ष के ल य दो शलोकम बतलाते ह – स



लभ े नवाणमृषयः ीणक षाः । छ ैधा यता ानः सवभूत हते रताः ॥२५॥

जनके सब पाप न हो गये ह, जनके सब संशय ानके ारा नवृ हो गये ह , जो स ूण ा णय के हतम रत ह और जनका जीता आ मन न लभावसे परमा ाम त है, वे वे ा पु ष शा को ा होते ह॥२५॥

यहाँ ' ीणक षाः ' वशेषण देनेका ा अ भ ाय है ? उ र – इस ज और ज ा रम कये ए कम के सं ार , राग - ेषा द दोष तथा उनक वृ य के पुंज , जो मनु के अ ःकरणम इक े रहते ह , ब नम हेतु होनेके कारण सभी क ष – पाप ह। परमा ाका सा ा ार हो जानेपर इन सबका नाश हो जाता है। फर उस पु षके अ ःकरणम दोषका लेशमा भी नह रहता। इस कार 'मल ' दोषका अभाव दखलानेके लये ' ीणक षाः ' वशेषण दया गया है। – ' छ ैधा : ' वशेषणका ा अ भ ाय है ? –

उ र – ' ैध ' श संशय या दु वधाका वाचक है इसका कारण है – अ ान। परमा ाके पका यथाथ ान हो जानेपर स ूण संशय अपने कारण अ ानके स हत न हो जाते ह। परमा ाको ा ऐसे पु षके नमल अ ःकरणम , लेशमा भी व ेप और आवरण - पी दोष नह रहते। इसी भावको दखलानेके लये ' छ ैधा : ' वशेषण दया गया है। – 'यता ानः ' पदका ा भाव है ? उ र – जसका वशम कया आ मन चंचलता आ द दोष से सवथा र हत होकर

परमा ाके पम त पू हो जाता है उसको 'यता ा ' कहते ह। वशेषण देनेका

– 'सवभूत हते रता : ' ा अ भ ाय है ?

उ र – परमा ाका अपरो ान हो जानेके बाद अपने -परायेका भेद नह रहता , फर उसक स ूण ा णय म आ बु हो जाती है। इस लये अ ानी मनु जैसे अपने शरीरको आ ा समझकर उसके हतम रत रहता है, वैसे ही सबम समभावसे आ बु होनेके कारण ानी महापु ष ाभा वक ही सबके हतम रत रहता है। इसी भावको दखलानेके लये 'सवभूत हते रता : ' वशेषण दया गया है।

यह कथन भी लोक से के वल ानीके आदश वहारका द शन करानेके लये ही है। व ुत : ानीके न यम न तो एक के अ त र सवभूत क पृथकृ स ा ही रहती है और न वह अपनेको सबके हतम रत रहनेवाला ही समझता है। – यहाँ 'ऋषय : ' पदका अथ ' वे ा ' कै से कया गया ? उ र – ग थक 'ऋष् ' धातुका भावाथ ान या त ाथ -दशन है। इसके अनुसार यथाथ त को भलीभाँ त समझनेवालेका नाम 'ऋ ष ' होता है। अतएव यहाँ 'ऋ ष ' का अथ वे ा ही मानना ठीक है। ' ीणक षाः ', ' छ ैधा : ' और

'यता ानः '

करते ह। :।

वशेषण भी इसी अथका समथन

ु त कहती है – भ ते दय ं थ

े सवसंशया

ीय े चा कमा ण त ृ े परावरे॥ (मु क उ० २।२।८ ) अथात् 'परावर प परमा ाका सा ा ार हो जानेपर इस ानी पु षके दयक खुल जाती है, स ूण संशय न हो जाते ह और सम कम का य हो जाता है। ' काम ोध वयु ानां यतीनां यतचेतसाम् ।

अ भतो नवाणं वतते व दता नाम् ॥ ५-२६॥

काम - ोधसे र हत , जीते ए च वाले , पर परमा ाका सा ा ार कये ए ानी पु ष के लये सब ओरसे शा पर परमा ा ही प रपूण ह ॥२६॥

काम - ोधसे र हत बतलानेका ा अ भ ाय है ? ा ानी महा ाके मन - इ य ारा काम - ोधक कोई या ही नह होती ? उ र – ानी महापु ष का अ ःकरण सवथा प रशु हो जाता है , इस लये उसम काम - ोधा द वकार लेशमा भी नह रहते। ऐसे महा ा के मन और इ य ारा जो कु छ भी या होती है , सब –

ाभा वक ही दसू र के हतके लये ही होती है। वहारकालम आव कतानुसार उनके मन और इ य ारा य द शा ानुकूल काम - ोधका बताव कया जाय तो उसे नाटकम ाँग धारण करके अ भनय करनेवालेके बतावके स श के वल लोकसं हके लये लीलामा ही समझना चा हये। – यहाँ 'य त ' श का ा अथ है ? उ र – मल , व ेप और आवरण – ये तीन दोष ानम महान् तब क प होते ह। इन तीन दोष का सवथा अभाव ानीम ही होता है। यहाँ 'काम ोध वयु ानाम् ' से मलदोषका , 'यतचेतसाम् ' से व ेपदोषका

और ' व दता नाम् ' से आवरणदोषका सवथा अभाव दखलाकर परमा ाके पूण ानक ा बतलायी गयी है। इस लये 'य त ' श का अथ यहां सां योगके ारा परमा ाको ा आ संयमी त ानी मानना उ चत है। – ानी पु ष के लये सब ओरसे शा पर ही प रपूण ह , इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – परमा ाको ा ानी महापु ष के अनुभवम ऊपर -नीचे , बाहर -भीतर , यहाँ -वहाँ सव न - नर र एक व ानान घन पर परमा ा ही व मान है। एक अ तीय परमा ाके सवा अ कसी

भी पदाथक स ा ही नह है , इसी अ भ ायसे कहा गया है क उनके लये सभी ओरसे परमा ा ही प रपूण ह।

योग – दोन साधन ारा परमा ाक ा और परमा को ा महापु ष के ल ण कहे गये। उ दोन ही कारके साधक के लये वैरा पूवक मन - इ य को बसम करके ानयोगका साधन करना उपयोगी है; अत : अब सं ेपम फलस हत ानयोगका वणन करते ह – शा ृ ा ब हबा ां ु ैवा रे ुवोः । स

– कमयोग और सां

ाणापानौ समौ कृ ा नासा रचा रणौ ॥२७॥ यते यमनोबु मु नम परायणः । वगते ाभय ोधो यः सदा मु एव सः ॥२८॥

बाहरके वषय - भोग को न च न करता आ बाहर ही नकालकर और ने क को भृकुटीके बीचम त करके तथा ना सकाम वचरनेवाले ाण और अपानवायुको सम करके , जसक इ याँ , मन और बु जीती ई ह – ऐसा जो मो परायण मु न इ ा , भय और ोधसे र हत हो गया है वह सदा मु ही है ॥२७ २८॥

नकालनेका

– बाहरके ा अ भ ाय है ?

वषय को बाहर

उ र – बा वषय के साथ जीवका स अना दकालसे चला आ रहा है और उसके अ ःकरणम उनके असं च भरे पडे़ ह। वषय म सुखबु और रमणीय बु होनेके कारण मनु अनवरत वषय - च न करता रहता है और पूवसं चत सं ार जग -जगकर उसके मनम आस और कामनाक आग भड़काते रहते ह। इस लये कसी भी समय उसका च शा नह हो पाता। यहाँतक क वह कभी , ऊपरसे वषय का ाग करके एका देशम ान करनेको बैठता है तो उस समय भी , वषय के सं ार उसका प नह छोड़ते। इस लये वह परमा ाका ान नह

कर पाता। इसम धान कारण है – नर र होनेवाला वषय - च न। और यह वषय - च न तबतक बंद नह होता , जबतक वषय म सुखबु बनी है। इस लये यहाँ भगवान् कहते ह क ववेक और वैरा के बलसे स ूण बा वषय को णभंगुर , अ न , दःु खमय और दःु ख के कारण समझकर उनके सं ार प सम च को अ ःकरणसे नकाल देना चा हये – उनक ृ तको सवथा न कर देना चा हये ; तभी च सु र और शा होगा । – ने क को भृकुटीके बीचम लगानेके लये कहा ? उ र – ने के ारा चार ओर देखते रहनेसे तो ानम ाभा वक ही व

-व

ेप होता है और उ बंद कर लेनेसे आल और न ाके वश हो जानेका भय है। इसी लये ऐसा कहा गया है । इसके सवा योगशा स ी कारण भी ह। कहते ह क भृकुटीके म म दल आ ाच है । इसके समीप ही स कोश ह, उनम अ म कोशका नाम 'उ नी ' है ; वहाँ प ँ च जानेपर जीवक पुनरावृ नह होती। इसी लये योगीगण आ ाच म र कया करते ह। – यहाँ ' ाणापानौ ' ाण और अपानवायुके साथ 'नासा रचा रणौ ' वशेषण देनेका ा अ भ ाय है ?

उ र – यहाँ ाण और अपानक ग तको सम करनेके लये कहा गया है न क उनक ग तको रोकनेके लये। इसी कारण 'नासा रचा रणौ ' वशेषण दया गया है। – ाण और अपानको सम करना ा है और उनको कस कार सम करना चा हये ? उ र – ाण और अपानक ाभा वक ग त वषम है। कभी तो वे वाम ना सकाम वचरते ह और कभी द ण ना सकाम। वामम चलनेको इडानाडी़म चलना और द णम चलनेको पगलाम चलना कहते है। ऐसी अव ाम मनु का च चंचल रहता है। इस कार वषमभावसे वचरनेवाले ाण

और अपानक ग तको दोन ना सका म समान भावसे कर देना उनको सम करना ह। यही उनका सुषु ा म चलना है। सुषु ा नाड़ीपर चलते समय ाण और अपानक ग त ब त ही सू और शा रहती है। तब मनक चंचलता और अशा अपने -आप ही न हो जाती है और वह सहज ही परमा ाके ानम लग जाता है। ाण और अपानको सम करनेके लये पहले वाम ना सकासे अपानवायुको भीतर ले जाकर ाणवायुको द ण ना सकासे बाहर नकालना चा हये। फर अपान वायुको द ण ना सकासे भीतर ले जाकर ाणवायुको वाम ना सकासे बाहर नकालना चा हये। इस कार ाण और अपानके सम करनेका अ ास करते

समय परमा ाके नामका जप करते रहना तथा वायुको बाहर नकालने और भीतर ले जानेम ठीक बराबर समय लगाना चा हये और उनक ग तको समान और सू करते रहना चा हये। इस कार लगातार अ ास करते -करते जब दोन क ग त सम , शा और सू हो जाय , ना सकाके बाहर और भीतर क ा द देशम उनके शका ान न हो , तब समझना चा हये क ाण और अपान सम और सू हो गये ह। –  इ य , मन , और बु को जीतनेका ा प है ? और उ कै से एवं जीतना चा हये ? उ र – इ याँ चाहे जब , चाहे जस वषयम चली जाती ह , मन सदा

चंचल रहता हे और अपनी आदतको छोड़ना ही नह चाहता एवं बु एक परम न यपर अटल नह रहती -यही इनका त या उ ृ ंखल हो जाना है। ववेक और वैरा पूवक अ ास ारा इ सु ृ ंखल , आ ाकारी और अ मुखी या भगव बना लेना ही इनको जीतना है। ऐसा कर लेनेपर इ याँ तासे वषय म न रमकर हमारे इ ानुसार जहाँ हम कहगे वह क रहगी , मन हमारे इ ानुसार एका हो जायगा और बु एक इ न यपर अचल और अटल रह सके गी। ऐसा माना जाता है और यह ठीक ही है क इ य पर वजय ा कर लेनेसे ाहार (इ यवृ य का संयत होना ), मनको वशम कर लेनेपर धारणा ( च का एक देशम र करना ) और बु को अपने अधीन

बना लेनेपर ान (बु को एक ही न यपर अचल रखना ) सहज हो जाता है । इस लये ानयोगम इन तीन को वशम कर लेना ब त ही आव क है । –  ' मो परायण : ' पद कसका वाचक है ? उ र – जसे परमा ाक ा , परमग त , परमपदक ा या मु कहते ह उसीका नाम मो है। यह अव ा मन -वाणीसे परे है। इतना ही कहा जा सकता है क इस तम मनु सदाके लये सम कमब न से सवथा छूटकर अन और अ तीय परम क ाण प और परमान प हो जाता है। इस मो या परमा ाक ा के लये जस मनु ने अपने

इ य , मन और बु को सब कारसे त य बना दया है, जो न - नर र परमा ाक ा के य म ही संल है , जसका एकमा उ े के वल परमा ाको ही ा करना है और परमा ाके सवा कसी भी व ुको ा करनेयो नह समझता , वही 'मो परायण ' है। –  यहाँ ' मु न : ' पद कसके लये आया है ? उ र – 'मु न ' मननशीलको कहते ह , जो पु ष ानकालक भाँ त वहारकालम भी - परमा ाक सव ापकताका ढ़ न य होनेके कारण -सदा

परमा ाका ही मनन करता रहता हे , वही 'मु न ' है। ' इस

–  ' वगते

ाभय ोध : ा है ?

वशेषणका अ भ ाय उ र – इ ा होती है - कसी भी अभावका अनुभव होनेपर ; भय होता है अ न क आशंकासे तथा ोध होता है कामनाम व पड़नेपर अथवा मनके अनुकूल काय न होनेपर। उपयु कारसे ानयोगका साधन करते -करते जो पु ष स हो जाता है , उसे सव , सवदा और सवथा परमा ाका अनुभव होता है वह कह उनका अभाव देखता ही नह , फर उसे इ ा कस बातक होती ? जब एक परमा ाके अ त र दसू रा कोई है ही

नह और न स सनातन अन अ वनाशी परमा ाके पम कभी कोई त होती ही नह , तब अ न क आशंकाज नत भय भी होने लगा ? और परमा ाक न एवं पूण ा हो जानेके कारण जब कोई कामना या मनोरथ रहता ही नह , तब ोध भी कसपर और कै से हो ? अतएव इस तम उसके अ ःकरणम न तो वहारकालम और न म , कभी कसी अव ाम भी , कसी कारक इ ा ही उ होती है , न कसी भी घटनासे कसी कारका भय ही होता है और न कसी भी अव ाम ोध ही उ होता है । –  यहाँ 'एव ' का योग कस अथम है और ऐसा पु ष 'सदा मु ही है ' इस कथनका ा अ भ ाय है ?

उ र – 'एव ' यह अ य न यका बोधक है। जो महापु ष उपयु साधन ारा इ ा , भय और ोधसे सवथा र हत हो गया है वह ानकालम या वहारकालम शरीर रहते या शरीर छूट जानेपर सभी अव ा म सदा मु ही है -संसारब नसे सदाके लये सवथा छूकर परमा ाको ा हो चुका है इसम कु छ भी स ेह नह है। अजुनके का उ र देते ए भगवान् ने कमयोग और सां योगके पका तपादन करके दोन साधन ारा परमा ाक ा और स पु ष के   ल ण बतलाये। फर दोन न ा के लये उपयोगी स

-

होनेसे ानयोगका भी सं ेपम वणन कया। अब जो मनु इस कार मन इ य पर वजय ा करके कमयोग, सां योग या ानयोगका साधन करनेम अपनेको समथ नह समझता हो, ऐसे साधकके लये सुगमतासे परमपदक ा करानेवाले भ योगका सं ेपम वणन करते ह – भो ारं य तपसां सवलोकमहे रम् । सु दं सवभूतानां ा ा मां शा मृ त ॥२९॥ मेरा भ मुझको सब य और तप का भोगनेवाला , स ूण लोक के ई र का भी ई र तथा स ूण भूत ा णय का सु द ् अथात् ाथर हत दयालु

और ेमी , ऐसा त से जानकर शा ा होता है ॥ २१ ॥

को

–  'य ' और 'तप ' चा हये , भगवान् उनके भो

से ा समझना ा कै से ह और उनको भो ा जाननेसे मनु को शा कै से मलती है ? उ र – अ हसा , स आ द धम का पालन , देवता , ा ण , माता - पता आ द गु जन का सेवन -पूजन , दीन -दःु खी , गरीब और पी ड़त जीव क ेह और आदरयु सेवा और उनके दःु खनाशके लये कये जानेवाले उपयु साधन एवं य , दान आ द जतने भी शुभ कम ह, सभीका समावेश 'यज् ' और 'तप ' श म समझना चा हये।

भगवान् सबके आ ा ह (१०।२० ); अतएव देवता , ा ण , दीन -दःु खी आ दके पम त होकर भगवान् ही सम सेवा -पूजा द हण कर रहे ह। इस लये वे ही सम य और तप के भो ा ह (९।२४ )। भगवान् के त और भावको न जाननेके कारण ही मनु जनक सेवा -पूजा करते ह , उन देव -मनु ा दको ही य और सेवा आ दके भो ा समझते है, इसीसे वे अ और वनाशी फलके भागी होते ह (७।२३ ) । उनको यथाथ शा नह मलती। परंतु जो पु ष भगवान् के त और भावको जानता है वह सबके अंदर आ पसे वरा जत भगवान् को ही देखता है। इस कार ा णमा म भगवद् बु हो जानेके कारण जब वह उनक सेवा करता है तब उसे

यही अनुभव होता है क म देव - ा ण या दीन -दःु खी आ दके पम अपने परम पूजनीय , परम ेमा द सव ापी ीभगवान् क ही सेवा कर रहा ँ । मनु जसको कु छ भी े या स ा समझता है, जसम थोड़ी भी ा भ होती है, जसके त कु छ भी आ रक स ा ेम होता है, उसक सेवाम उसको बड़ा भारी आन और वल ण शा मलती हे। ा पतृभ पु अपने पताक , ेहमयी माता पु क और ेम तमा प ी अपने प तक सेवा करनेम कभी थकते ह? ा स े श या अनुयायी मनु अपने ेय गु या पथदशक महा ाक सेवासे कसी भी कारणसे हटना चाहते ह ? जो पु ष या ी जनके लये

गौरव , भाव या ेमके पा होते है , उनक सेवाके लये उनके अंदर ण - णम नयी -नयी उ ाह -लहरी उ होती है ; ऐसा मन होता है क इनक जतनी सेवा क जाय उतनी ही थोड़ी है। वे इस सेवासे यह नह समझते क हम इनका उपकार कर रहे ह; उनके मनम इस सेवासे अ भमान नह उ होता , वर ऐसी सेवाका अवसर पाकर वे अपना सौभा समझते ह और जतनी ही सेवा बनती है , उनम उतनी ही वनयशीलता और स ी न ता बढ़ती है। वे अहसान तो ा कर , उ पद -पदपर यह डर रहता है क कह हम इस सौभा से वं चत न हो जायँ। वे ऐसा इसी लये करते ह क इससे उ अपने च म अपूव शा का अनुभव होता है; परंतु यह शा उ सेवासे

हटा नह देती क उनका च नर र आन ा तरेकसे छलकता रहता हे और वे इस आन से न अघाकर उ रो र अ धक -से -अ धक सेवा ही करना चाहते ह। जब सांसा रक गौरव , भाव और ेमम सेवा इतनी स ी , इतनी लगनभरी और इतनी शा द होती है , तब भगवान् का जो भ सबके पम अ खल जगतके परमपू , देवा धदेव , सवश मान् , परम गौरव तथा अ च भावके न धाम अपने परम यतम भगवान् को पहचानकर अपनी वशु सेवावृ को दयके स े व ास और अ वरल ेमक नर र उ क ओर बहनेवाली प व और सुधामयी मधुर धाराम पूणतया डु बा डु बाकर उनक पूजा करता है तब उसे कतना

और कै सा अलौ कक आन तथा कतनी और कै सी अपूव द शा मलती होगी - इस बातको कोई नह बतला सकता। जनको भगव ृ पासे ऐसा सौभा ा होता है वे ही व ुत : इसका अनुभव कर सकते ह।   –  भगवान् को 'सवलोकमहे र ' समझना ा है और ऐसा समझनेवालेको शा कै से मलती हे ? उ र – इ , व ण , कु बेर , यमराज आ द जतने भी लोकपाल ह तथा व भ ा म अपने -अपने ा का नय ण करनेवाले जतने भी ई र ह भगवान् उन सभीके ामी और महान् ई र ह। इसीसे ु तम कहा है – ' तमी राणां परमं महे रम् ' 'उन ई र के

भी परम महे रको ' ( ेता तार उ० ६।७ ) अपनी अ नवचनीय मायाश ारा भगवान् अपनी लीलासे ही स ूण अन को ट ा क उ , त और संहार करते ए सबको यथायो नय णम रखते ह और ऐसा करते ए भी वे सबसे ऊपर ही रहते ह। इस कार भगवान् को सवश मान् , सव नय ा , सवा और सव रे र समझना ही उ 'सवलोक -महे र ' समझना है। इस कार समझनेवाला भ भगवान् के महान् भाव और रह से अ भ होनेके कारण णभर भी उ नह भूल सकता। वह सवथा नभय और न होकर उनका अन च न करता है। शा म व डालनेवाले काम - ोधा द श ु उसके पास भी नह

फटकते। उसक म भगवान् से बढ् कर कोई भी नह होता। इस लये वह उनके च नम संल होकर न - नर र परम शा और आन के महान् समु भगवान् के ानम ही डू बा रहता है।   –  भगवान् सब ा णय के सुहद् कस कार ह और उनको सुहद् जाननेसे शा कै से मलती है ? उ र – स ूण जगत् म कोई भी ऐसी व ु नह है जो भगवान् को न ा हो और जसके लये भगवान् का कह कसीसे कु छ भी ाथका स हो। भगवान् तो सदा सवदा सभी कारसे पूणकाम ह (३।२२ ); तथा प दयामय प होनेके कारण वे

ाभा वक ही सबपर अनु ह करके सबके हतक व ा करते ह और बार -बार अवतीण होकर नाना कारके ऐसे व च च र करते ह, ज गा -गाकर ही लोग तर जाते ह । उनक ेक याम जगत् का हत भरा रहता है। भगवान् जनको मारते या द देते ह उनपर भी दया ही करते ह, उनका कोई भी वधान दया और ेमसे र हत नह होता। इसी लये भगवान् सब भूत के सुहद् ह । लोग इस रह को नह समझते इसीसे वे लौ कक से इ -अ न क ा म सुखी - दःु खी होते रहते ह और इसीसे उ शा नह मलती। जो पु ष इस बातको जान लेता है और व ास कर लेता है क 'भगवान् मेरे अहैतुक ेमी ह , वे जो कु छ भी करते है मेरे

मंगलके लये ही करते ह। ' वह ेक अव ाम जो कु छ भी होता है उसको दयामय परमे रका ेम और दयासे ओत - ोत मंगल वधान समझकर सदा ही स रहता है। इस लये उसे अटल शा मल जाती है। उसक शा म कसी कारक भी बाधा उप त होनेका कोई कारण ही नह रह जाता। संसारम य द कसी साधारण मनु के त , कसी श शाली उ पद अ धकारी या राजा -महाराजाका सु द् भाव हो जाता है और वह मनु य द इस बातको जान लेता है क अमुक े श स पु ष मेरा यथाथ हत चाहते ह और मेरी र ा करनेको ुत ह तो – य प उ पद अ धकारी या राजा -महाराजा सवथा ाथर हत भी नह होते

, सवश

मान् भी नह होते और सबके ामी भी नह होते तथा प – वह अपनेको ब त भा वान् समझकर एक कारसे नभय और न होकर आन म म हो जाता है, फर य द सवश मान् सवलोकमहे र सव नय ा सवा यामी , सवदश , अन अ च गुण के समु , परम ेमी परमे र अपनेको हमारा सुहद् बतलाव और हम इस बातपर व ास करके उ अपना सुहद् मान ल तो हम कतना अलौ कक आन और कै सी अपूव शा मलेगी ? इसका अनुमान लगाना भी क ठन है।   –  इस कार जो भगवान् को य -तप के भो ा , सम लोक के महे र और सम ा णय के सु द् –

इन तीन ल ण से यु जानता है वही शा को ा होता है या इनमसे कसी एकसे यु समझनेवालेको भी शा मल जाती है ? उ र – भगवान् को इनमसे कसी एक ल णसे यु समझनेवालेको भी शा मल जाती है, फर तीन ल ण से यु समझनेवालेक तो बात ही ा है ? क जो कसी एक ल णको भलीभाँ त समझ लेता है वह अन भावसे कये बना रह ही नह सकता। भजनके भावसे उसपर भगव ृ पा बरसने लगती है और भगव ृ पासे वह अ ही शी भगवान् के प , भाव , त तथा गुण को समझकर पूण शा को ा हो जाता है।

अहा ! उस समय कतना आन और कै सी शा ा होती होगी , जब मनु जानता होगा क 'स ूण देवता और मह षय से पू जत भगवान् , जो सम य तप के एकमा भो ा ह और स ूण ई र के तथा अ खल ा के परम महे र ह, मेरे परम ेमी म ह ! कहाँ ु तम और नग म , और कहाँ अपनी अन अ च म हमाम न त महान् महे र भगवान् ! अहा ! मुझसे अ धक सौभा वान् और कौन होगा ?' और उस समय वह हदयक कस अपूव कृ त ताको लेकर , कस प व भावधारासे स होकर , कस आन ाणवम डू बकर भगवान् के पावन चरण म सदाके लये लोट पड़ता होगा!

भगवान् सब य और तप के भो ा , सब लोक के महे र और सब ा णय के परम सुहद् है – इस बातको समझनेका ा उपाय है ? कस साधनसे मनु इस कार भगवान् के प , भाव , त और गुण को भलीभाँ त समझकर उनका अन भ हो सकता है ? उ र – ा और ेमके साथ महापु ष का संग , सत् शा का वण -मनन और भगवान् क शरण होकर अ उ ुकताके साथ उनसे ाथना करनेपर उनक दयासे मनु भगवान् के प , भाव , त और गुण को समझकर उनका अन भ हो सकता है ।   – 

भगवान् ने अपने कस ?

  – 

यहाँ 'माम् ' पदसे पका ल कराया है

उ र – जो परमे र अज , अ वनाशी और स ूण ा णय के महान् ई र होते ए भी समय -समयपर अपनी कृ तको ीकार करके लीला करनेके लये योगमायासे संसारम अवतीण होते ह और जो ीकृ पम अवतीण होकर अजुनको उपदेश दे रहे ह , उ नगुण , सगुण , नराकार , साकार और अ प , सव प , पर परमा ा , सवश मान् , सव ापी , सवाधार और सवलोकमहे र सम परमे रको ल करके 'माम् ' पदका योग कया गया है।

ॐत दत ीम गव ीतासूप नष ु व ायां योगशा े ीकृ ाजुनसंवादे सं ासयोगो नाम प मोऽ ायः ॥ ५॥

|| ॐ

ी परमा ने नमः ||

अथ ष ोऽ ायः

और 'सां योग ' - इन दोन ही साधन म उपयोगी होनेके कारण इस छठे अ ायम ानयोगका भलीभां त वणन कया गया है। ानयोगम शरीर, इ य, मन और बु का संयम करना परम आव क है। तथा शरीर, इ य, मन और बु - इ सबको 'आ ा ' के नामसे कहा जाता है और इस अ ायम इ के संयमका वशेष वणन है, इस लये इस अ ायका नाम 'आ संयमयोग ' रखा गया है। अ ायका सं ेप इस अ ायके पहले ोकम कमयोगीक शंसा क गयी है। दूसरेम 'सं ास ' और 'कमयोग ' क एकताका तपादन करके तीसरेम कमयोगके साधनका वणन ह। चौथेम योगा ढ़ पु षके ल ण बतलाकर पाँचवम पूव मनु को योगा ढ़ा ा ा करनेके लये उ ा हत करके उसके कत का न पण कया गया ह। छठे म 'आप ही अपना म है और आप ही अपना श ु है ', इस पूव बातका रह खोलकर, सातवम शरीर, मन, इ या दके जीतनेका फल बतलाया गया है। आठव और नवम परमा को ा ए पु षके ल ण का और मह का वणन है। दसवम ानयोगके लये ेरणा करके फर ारहवसे चौदहवतक मश : ान, आसन, तथा ानयोगक व धका न पण कया गया है। पं हवम ानयोगका फल बतलाकर सोलहव और स हवम ानयोगके उपयु आहार - वहार तथा शयना दके नयम और उनका फल बतलाया गया है। अठारहवम ानयोगक अ म तको ा ए पु षके ल ण बतलाकर, उ ीसवम दीपकके ा से योगीके च क तका वणन कया गया है। इसके प ात् बीसवसे बाईसवतक ानयोगके ारा परमा ाको ा पु षक त का वणन करके , तेईसवम उस तका नाम 'योग ' बतलाकर, उसे ा करनेके लये ेरणा क गयी है। चौबीसव और पचीसवम अभेद पसे परमा ाके ानयोगके साधनक णाली बतलाकर छ ीसम वषय म वचरनेवाले मनको बार -बार ख च -ख चकर परमा ाम लगानेक ेरणा क गयी है। स ाईसव और अ ाईसम ानयोगके फल प 'आ क सुख ' क ा बतलायी गयी है। उनतीसवम सां योगीके वहारकालक त बतलाकर तीसवम भ योगका साधन करनेवाले योगीक अ म तका और उसके सव भगव शनका वणन कया गया है। इकतीसवम भ ारा भगवान् को ा ए तथा ब ीसवेम सां योग ारा परमा ाको ा ए पु के अ ायका नाम

'कमयोग '

ल ण और मह का न पण कया गया है। ततीसवम अजुनने मनक चंचलताके कारण सम योगक रताको क ठन बतलाकर च तीसवम मनके न हको भी अ क ठन बतलाया है। पतीसवम भगवान् ने अजुनक उ को ीकार करके मनके न हका उपाय बतलाया है। छ ीसवम मनके वशम न करनेपर योगक दु ा ता बतलाकर, वशम करनेसे ा होनेक बात कही गयी है। इसके बाद सतीसव और अड़तीसवेम योग क ग तके स म अजुनके ह और उनतालीसवम अजुनने संशय - नवारनके लये भगवान् से ाथना क है। तदन र चालीसवसे पतालीसवतक के उ रम भगवान् के ारा मशः योग पु ष क दुग त न होनेका, गा द लोक म जाने तथा प व धनवान के घर ज लेनेका वैरा वान् योग का, ानवान् यो गय के घर म ज का और पूव देहके बु संयोगको अनायास ही ा करनेका, प व ध नय के घर ज लेनेवाले योग का भी पूवा ासके बलसे ओर आक षत कये जानेका , योगक ज ासाके मह का और अ म यो गय के कु लम ज लेनेवाले योग को परम ग त ा होनेका वणन कया गया है। इसके बाद छयालीसवम योगीक म हमा बतलाकर अजुनको योगी बननेके लये आ ा दी गयी है और सतालीसवम सब यो गय मसे अन ेमसे ापूवक भगवान् का भजन करनेवाले योगीक शंसा करके अ ायका उपसंहार कया गया ह।

पाँचव अ ायके आर म अजुनने ' कमस ास ' ( सां ' कमयोग ' इन दोनोमसे कौन - सा एक साधन मेरे लये सु न त क ाण द है? - यह बतलानेके लये भगवान् से ाथना क थी। इसपर भगवान् ने दोन साधन को क ाण द बतलाया और फलम दोन क समानता होनेपर भी साधनम सुगमता होनेके कारण ' कमसं ास ' क अपे ा ' कमयोग ' क े ताका तपादन कया। तदन र दोन साधन के प उनक व ध और उनके फलका भलीभाँ त न पण करके दोन के लये ही अ उपयोगी एवं परमा ाक ा का धान उपाय समझकर सं ेपम ानयोगका भी वणन कया। परतुं दोन मसे कौन - सा साधन करना चा हये, इस बातको न तो अजुनको श म आ ा ही क गयी और न ानयोगका ही अंग ंग स हत व ारसे वणन आ। इस लये अब ानयोगका अंग स हत व ृत वणन करनेके लये छठे अ ायका आर करते ह और सबसे पहले अजनको स योग) और

-

भ यु कमयोगम वृत करनेके उ े से कमयोगक शंसा करते ए ही करणका आर करते ह –

ीभगवानुवाच । अना तः कमफलं काय कम करो त यः । स सं ासी च योगी च न नर न चा यः ॥१॥

ीभगवान् बोले - जो पु ष कमफलका आ य न लेकर करनेयो कम करता है, वह सं ासी तथा योगी है ; और केवल अ का ाग करनेवाला सं ासी नह है तथा केवल या का ाग करनेवाला योगी नह है॥१॥

– यहाँ कमफलके

आ यका ाग बतलाया गया , आस के ागक कोई बात इसम नह आयी , इसका ा कारण है ? उ र - जस पु षक भोग म या कम म आस होती है , वह कमफलके आ यका सवथा ाग कर ही नह सकता। आस होनेपर ाभा वक ही कमफलक कामना होती है। अतएव कमफलके आ यका जसम ाग है , उसम आस का ाग भी समझ लेना चा हये। ेक ानपर सभी श का योग नह आ करता। ऐसे ल पर उसी वषयम अ कही ई बातका अ ाहार कर लेना चा हये। जहाँ फलका ाग बतलाया जाय परंतु आस के ागक चचा न हो (२।५१ , १८।

११ ), वहाँ आस का भी ाग समझ लेना चा हये। इसी कार जहाँ आस का ाग कहा जाय पर फल - ागक बात न हो (३।१९ , ६।४ ), वहाँ फलका ाग भी समझ लेना चा हये। – कमफलके आ यको ागनेका ा भाव है ? उ र – ी , पु , धन , मान और बड़ाई आ द इस लोकके और गसुखा द परलोकके जतने भी भोग ह , उन सभीका समावेश 'कमफल ' म कर लेना चा हये। साधारण मनु जो कु छ भी कम करता है, कसी -न - कसी फलका आ य लेकर ही करता है। इस लये उसके कम उसे बार -बार ज -मरणके च रम गरानेवाले होते ह। अतएव इस लोक और परलोकके स ूण भोग को अ न , णभंगुर और दुःख म हेतु समझकर , सम कम म ममता , आस और फले ाका सवथा ाग कर देना ही कमफलके आ यका ाग करना है। – करनेयो कम कौन -से ह और उ कै से करना चा हये ? उ र – अपने -अपने वणा मके अनुसार जतने भी शा व हत न -नै म क य , दान , तप , शरीर नवाह -स ी तथा लोकसेवा आ दके लये कये जानेवाले शुभ कम ह , सभी करने -यो कम ह। उन सबको यथा व ध तथा

यथायो आल र हत होकर , अपनी श के अनुसार कत बु से उ ाहपूवक सदा करते रहना चा हये। – उपयु पु ष सं ासी भी है और योगी भी है इस कथनका ा भाव है ? उ र – इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क ऐसा कमयोगी पु ष सम संक का ागी होता है और उस यथाथ ानको ा हो जाता है जो सां योग और कमयोग दोन ही न ा का चरम फल है, इस लये वह 'सं ा स ' और 'यो ग ' दोन ही गुण से यु माना जाता है। – 'न नर : ' का ा भाव है ? उ र – अ का ाग करके सं ास -आ म हण कर लेनेवाले पु षको ' नर ' कहते ह। यहाँ 'न नर : ' कहकर भगवान् यह भाव दखलाते है क जसने अ को ागकर सं ास -आ मका तो हण कर लया है, परंतु जो ानयोग (सां योग ) के ल ण से यु नह है, वह व ुत : सं ासी नह है, क उसने के वल अ का ही ाग कया है, सम या म कतापनके अ भमानका ाग तथा ममता , आस और देहा भमानका ाग नह कया। – 'न च अ य : ' का ा भाव है ?

उ र – सम या का सवथा ाग करके ' ान ' हो जानेवाले पु षको 'अ य ' कहते है। यहाँ 'न च अ य : ' से भगवान् ने यह भाव दखलाया है क जो सब या का ाग करके ान लगाकर तो बैठ गया है, परंतु जसके अ ःकरणम अहंता , ममता , राग , ेष , कामना आ द दोष वतमान ह , वह भी वा वम योगी नह है ; क उसने भी के वल बाहरी या का ही ाग कया है। ममता , अ भमान , आस , कामना और ोध आ दका ाग नह कया। – जस पु षने अ का सवथा ाग करके सं ास -आ म हण कर लया है और जसम ानयोग (सां योग ) के सम ल ण (५।८ , ९ , १३ , २४ , २५ , २६ के अनुसार ) भलीभाँ त कट ह, ा वह सं ासी नह है ? उर– नह ? ऐसे ही महापु ष तो आदश सं ासी ह। इसी कारके सं ासी महा ा का मह कट करनेके लये ही तो ानयोगके ल ण का जनम वकास होता है, उन अ आ मवाल को भी सं ासी कहकर उनक शंसा क जाती है। इसके अ त र उ सं ासी बतलानेका और ार ही ा हो सकता है ? – इसी कार सम या का ाग करके जो पु ष नर र ान रहता है तथा जनके अ ःकरणम ममता ,

राग , ेष और काम - ोधा दका सवथा अभाव हो गया है , वह सवसंक का सं ासी भी ा योगी नह है? उ र – ऐसे सवसंक के ागी महा ा ही तो आदश योगी ह।

पहले ोकम कमफलका आ य न लेकर कम करनेवाले को सं ासी और योगी बतलाया। उसपर यह शंका हो सकती है क य द ' सं ास ' और ' योग ' दोन भ - भ थ ह तो उपयु साधक दोन से स कै से हो सकता ह ? अतः इस शंकाका नराकरण करनेके लये दूसरे ोकम ' सं ास ' और ' योग ' क एकताका तपादन करते है – स



यं सं ास म त ा य गं तं व पा व । न सं स ो योगी भव त क न ॥२॥

हे अजुन ! जसको सं ास ऐसा कहते है उसीको तू योग जान। क संक का ाग न करनेवाला कोई भी पु ष योगी नह होता॥२॥

जसको 'सं ास ' कहते ह उसीको तू 'योग ' जान , इस कथनका ा अ भ ाय है ? –

उ र – यहाँ 'सं ास ' श का अथ है – शरीर , इ य और मन ारा होनेवाली स ूण या म कतापनका भाव मटाकर के वल परमा ाम ही अ भ भावसे त हो जाना। यह सां योगक पराका ा है। तथा 'योग ' श का अथ है – ममता , आस और कामनाके ाग ारा होनेवाली 'कमयोग ' क पराका ा प नै - स । दोन म ही संक का सवथा अभाव हो जाता है और सां योगी जस पर परमा ाको ा होता है , कमयोगी भी उसीको ा होता है, हस कार दोन म ही सम संक का ाग है और दोन का एक ही फल है; इस लये ऐसा कहा गया है। – यहाँ 'संक ' का ा अथ है और उसका 'सं ास ' ा है ? उ र – ममता और राग - ेषसे संयु सांसा रक पदाथ का च न करनेवाली जो अ ःकरणक वृ है , उसको 'संक ' कहते है। इस कारक वृ का सवथा अभाव कर देना ही उसका 'सं ास ' है। – संक का ाग न करनेवाला कोई भी पु ष योगी नह होता , इस कथनका ा अ भ ाय है ?

उ र – संक का पूण पसे ाग ए बना च का परमा ासे पूण संयोग नह होता, इस लये संक का ाग सभीके लये आव क है। कोई एक साधक एका देशम आसन - ाणायामा दके ारा परमा ाके ानका अ ास करते ह , दूसरे न ामभावसे सदा -सवदा के वल भगवान् के लये ही भगवदा ानुसार कम करनेक चे ा करते ह , तीसरे समय -समयपर ानका भी अ ास करते ह और न ामभावसे कम भी करते ह। इनमेसे क भी साधकको, जबतक वे संक का सवथा ाग नह कर देते , योगा ढ या योगी नह कहा जा सकता। साधक तभी योगा ढ होता है, जब वह सम कम म और वषय म आस र हत होकर संपूण संक का ाग कर चुकता है। सां योगी भी व ुतः तभी स ा सं ासी होगा , जब उसके च म संक मा का अभाव हो जायगा। इसी लये ोकके पूवा म दोन को एक समझनेके लये कहा गया है। स – कमयोगक शंसा करके अब उसका साधन बतलाते ह –

आ ोमुनेय गं कम कारणमु ते । योगा ढ त वै शमः कारणमु ते ॥३॥

योगम आ ढ़ होनेक इ ावाले मननशील पु षके लये योगक ा म न ामभावसे कम करना ही हेतु कहा जाता है और योगा ढ़ हो जानेपर उस योगा ढ़ पु षका जो सवसंक का अभाव है वही क ाणम हेतु कहा जाता है॥ ३॥



यहाँ 'मुन:े ' इस पदसे कस पु षका हण

करना चा हये ? उ र – 'मुन:े ' यह पद यहाँ उस पु षके लये वशेषण पम आया है जो परमा ाक ा म हेतु प योगा ढ़ -अव ाको ा करना चाहता है। अतएव इससे भावसे ही परमा ाके पका च न करनेवाले मननशील साधकका हण करना चा हये। – योगा ढ़ -अव ाक ा म कौन -से कम हेतु ह ? उ र – वण , आ म और अपनी तके अनुकूल जतने भी शा व हत कम ह, फल और आस का ाग करके कये जानेपर वे सभी योगा ढ़ -अव ाक ा म हेतु हो सकते ह।

योगा ढ़ -अव ाक ा म कम को हेतु बतलाया ? कम का ाग करके एका म ानका अ ास करनेसे भी तो योगा ढ़ाव ा ा हो सकती है ? उ र – एका म परमा ाके ानका अ ास करना भी तो एक कार कम ही है। और इस कार ानका अ ास करनेवाले साधकको भी शौच , ान तथा खान -पाना द शरीर - नवाहके यो या तो करनी ही पड़ती है। इस लये अपने वण , आ म , अ धकार और तके अनुकूल जस समय जो कत -कम ह , फल और आस का ाग करके उनका आचरण करना योगा ढ़ -अव ाक ा म हेतु है – यह कहना ठीक ही है। इसी लये तीसरे अ ायके चौथे ोकम भी कहा है क कम का आर कये बना मनु नै अथात् योगा ढ़ -अव ाको नह ा हो सकता। – यहाँ 'शम : ' इस पदका अथ पत : या का ाग न मानकर सव -संक का अभाव माना गया ? उ र – दूसरे और चौथे ोकम संक के ागका करण है। 'शम : ' पदका अथ भी मनको वशम करके शा करना होता है। अठारहव अ ायके बयालीसव ोकम भी 'शम ' श का इसी अथम योग आ है। और मन वशम होकर शा –

हो जानेपर ही संक का सवथा अभाव होता है। इसके अ त र , कम का पत : सवथा ाग हो भी नह सकता। अतएव यहाँ 'शम : 'का अथ सवसंक का अभाव मानना ही ठीक है। – योगा ढ़ पु षके 'शम ' को कम का कारण माना जाय तो ा हा न है ? उ र –  'शम ' श सवसंक के अभाव प शा का वाचक है। इस लये वह कमका कारण नह बन सकता। योगा ढ़ पु ष ारा जो कु छ चे ा होती है उनम तो उनके और लोग के ार ही हेतु ह। अत : 'शम ' को कमका हेतु मानना यु संगत नह है। उसे तो परमा ाक ा का हेतु मानना ही ठीक है।

पूव ोकम ' योगा ढ़ ' श आया। उसका ल ण जानेनेक आकां ा होनेपर योगा ढ़ पु षके ल ण बतलाते ह – स



यदा ह ने याथषु न कम नुष ते । सवस सं ासी योगा ढ दो ते ॥४॥

जस कालम न तो इ य के भोग म और न कम म ही आस होता है , उस कालम सवसंक का ागी पु ष योगा ढ़ कहा जाता है॥४॥

यहाँ इ य के वषय म और कम म के वल आस का ाग बतलाया , कामनाका ाग नह बतलाया। इसका ा कारण है ? उ र – आस से ही कामना उ होती है (२।६२ )। य द वषय म और कम म आस न रहे तो कामनाका अभाव तो अपने -आप ही हो जायगा। कारणके बना काय हो ही नह सकता। अतएव आस के अभावम कामनाका अभाव भी समझ लेना चा हये। – 'सवसंक सं ास ' का ा अथ है ? और सम संक का ाग हो जानेके बाद कसी भी वषयका हण या कमका स ादन कै से स व है ? उ र – यहाँ 'संक के ाग ' का अथ ु रणामा का सवथा ाग नह है , य द ऐसा माना जाय तो योगा ढ़ -अव ाका वणन ही अस व हो जाय। जसे वह अव ा ा नह है , वह तो उसका त नह जानता , और जसे ा है , वह बोल नह सकता। फर उसका वणन ही कौन करे ? इसके अ त र , चौथे अ ायके उ ीसव ोकम भगवान् ने ही कहा है क ' जस महापु षके सम कम कामना और संक के बना ही भलीभाँ त होते ह , उसे प त कहते ह। ' और वहाँ जस महापु षक ऐसी शंसा क गयी है , वह योगा ढ़ नह है –

ऐसा नह कहा जा सकता। ऐसी अव ाम यह नह माना जा सकता क संक र हत पु षके ारा कम नह होते। इससे यही स होता है क संक के ागका अथ ु रणा या वृ मा का ाग नह है। ममता , आस और ेषपूवक जो सांसा रक वषय का च न कया जाता है , उसे 'संक ' कहते ह। ऐसे संक का पूणतया ाग ही 'सवसंक सं ास ' है। ऐसा ाग कम के सुचा पसे स ादन होने म कोई बाधा नह देता। जनक बु म भगवान् के सवा कसीक त ही नह रह गयी है, उनके ारा भगवद् बु से जो वषय का हण या ाग होता है उसे संक ज नत नह कहा जा सकता। ऐसे ाग और हण प कम तो ानी महा ा के ारा भी हो सकते ह। ऐसे ही महा ाके लये भगवान् ने कहा है क 'वह सब कारसे बरतता आ भी मुझम ही बरतता है ' (६।३१ )। –

मनु कम करता है और उनम श ा द वषय म आस यथे था , कम म आस आव कता थी ? –

भोग क ा के लये ही आस होता है। अतएव का अभाव बता देना ही का अभाव बतलानेक ा

उ र – भोग म आस का ाग होनेपर भी कम म आस रहना स व है , क जनका कोई फल नह है , ऐसे थ कम म भी मादी मनु क आस देखी जाती है। अतएव आस का सवथा अभाव दखलानेके लये ऐसा कहना ही चा हये। स – परमपदक ा म हेतु प योगा ढ़ - अव ा ा वणन करके अब उसे ा करनेके लये उ ा हत करते ए भगवान् मनु का कत बतलाते ह –

उ रेदा ना ानं ना ानमवसादयेत् । आ ैव ा नो ब ुरा ैव रपुरा नः ॥५॥

अपने ारा अपना संसार - समु से उ ार करे और अपनेको अधोग तम न डाले , क यह मनु आप ही तो अपना म है और आप ही अपना श ु है॥५॥

अपने ारा अपना उ ार करना ा है ? और अपनेको अधोग तम डालना ा है ? उ र – जीव अ ानके वश होकर अना दकालसे इस दुःखमय -संसार -सागरम गोते लगाता है और नाना कारक भली -बुरी यो नय म भटकता आ भाँ त-भाँ तके भयानक क सहता रहता है। जीवक इस दीन -दशाको देखकर दयामय भगवान् उसे साधनोपयोगी देव -दुलभ मनु -शरीर दान करके एक ब त सु र अवसर देते ह , जसम वह चाहे तो साधनाके ारा एक ही ज म संसार -समु से नकलकर सहज ही परमान प परमा ाको ा कर ले। इस लये मनु को चा हये क वह मानव -जीवनके दुलभ अवसरको थ न जाने दे और कमयोग , सां योग तथा भ योग आ द कसी भी साधनम लगकर अपने ज को सफल बना ले। यही अपने ारा अपना उ ार करना है। –

इसके वपरीत राग - ेष , काम - ोध और लोभ -मोह आ द दोष म फँ सकर भाँ त-भाँ तके दु म करना और उनके फल प मनु -शरीरके परमफल भगव ा से वं चत रहकर पुन : शूकर -कू करा द यो नय म जानेका कारण बनना अपनेको अधोग तम ले जाना है। उप नषद् म ऐसे मनु को आ ह ारा कहकर उनक दुग तका वणन कया गया है। [17] यहाँ भगवान् ने अपने ारा ही अपना उ ार करनेक बात कहकर जीवको यह आ ासन दया है क 'तुम यह न समझो क ार बुरा है, इस लये तु ारी उ त होगी ही नह । तु ारा उ ान -पतन ार के अधीन नह है , तु ारे ही हाथम है। साधना करो और अपनेको अवन तके ग से े नकालकर उ तके शखरपर ले जाओ। ' अतएव मनु को बड़ी ही सावधानी तथा त रताके साथ सदा - सवदा अपने उ ानक , अभी जस तम है उससे ऊपर उठनेक , राग - ेष , काम - ोध , भोग , आल , माद और पापाचारका

सवथा ाग करके शम , दम , त त ा , ववेक और वैरा ा द सद् गुण का सं ह करनेक , वषय च न छोड़कर ा और ेमके साथ भगव न करनेक और भजन - ान तथा सेवा -स ंगा दके ारा भगवान् को ा करनेक साधना करनी चा हये और जबतक भगव ा हो जाय तबतक एक णके लये भी , जरा भी पीछे हटना तथा कना नह चा हये। भगव ृ पाके बलपर धीरता , वीरता और ढ़ न यके साथ अपनेको जरा भी न डगने देकर उ रो र उ तके पथपर ही अ सर होते रहना चा हये।

मनु अपने भाव और कम म जतना ही अ धक सुधार कर लेता है , वह उतना ही उ त -होता है। भाव और कम का सुधार ही उ त या उ ान है ; तथा इसके वपरीत भाव और कम म दोष का बढ़ना ही अवन त या पतन है।

यह मनु आप ही अपना म छ और आप ही अपना श ु है , इस कथनका ? भाव है ? उ र – इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क मनु सांसा रक स के कारण आस वश् जन लोग को अपना म मानता है , वे ते ब नम हेतु होनेसे व ुत : म ही नह ह। संत महा ा और नः ाथ साधक , जो ब नसे छुड़ानेम सहायक होते ह , वे अव ही स े म ह, परंतु उनक यह मै ी भी मनु को तभी ा होती है जब पहले वह यं अपने मनसे उनके त ा और ेम करता है तथा उ , स ा म मानता है और उनके बतलाये ए मागके अनुसार चलता है। इस से वचार करनेपर यही स होता है –

क यह आप ही अपना म है। इसी कार यह भी न त है क मनु अपने मनम कसीको श ु मानता है, तभी उसक हा न होती है। नह तो कोई भी मनु कसीक कु छ भी पारमा थक हा न नह कर सकता। इस लये श ु भी व ुत : वह यं ही है। वा वम जो अपने उ ारके लये चे ा करता है, वह आप ही अपना म है और जो इसके वपरीत करता है, वही अपना श ु है। इस लये अपनेसे भ दसू रा कोई भी अपना म या श ु नह है।

यह बात कही गयी क मनु आप ही अपना म है और आप ही अपना श ु है। अब उसीको करनेके लये यह बतलाते ह क कन ल ण से यु मनु स



आप ही अपना म है और कन ल ण से युक आप ही अपना श ु है – ब ुरा ा न येना ैवा ना जतः । अना न ु श ु े वतता ैव श ुवत् ॥६॥

जस जीवा ा ारा मन और इ य स हत शरीर जीता आ है, उस जीवा ाका तो वह आप ही म है और जसके ारा मन तथा इ य स हत शरीर नह जीता गया है, उसके लये वह आप ही श ुके स श श ुताम बतता है॥६॥

मन और इ य स हत शरीरको जीतना ा है ? ये कस कार जीते –

जा सकते ह ? जीते ए शरीर , इ य और मनके ा ल ण है ? एवं इनको जीतनेवाला मनु आप ही अपना म कै से है ? उ र – शरीर , इ य और मनको भलीभाँ त अपने वशम कर लेना ही इनको जीतना है। ववेकपूवक अ ास और वैरा के ारा ये वशम हो सकते है। परमा ाक ा के लये मनु जन साधन म अपने शरीर , इ य और मनको लगाना चाहे , उनम जब वे अनायास ही लग जायँ और उसके ल से वपरीत मागक ओर ताक ही नह , तब समझना चा हये क ये वशम हो चुके ह। जस मनु के शरीर , इ य और मन वशम हो जाते ह , वह अनायास ही संसार -समु से अपना उ ार कर लेता है एवं परमान प

परमा ाको ा करके कृ ताथ हो जाता है; इसी लये वह यं अपना म है। – जसके शरीर , इ य और मन जीते ए नह ह , उसको 'अना ा ' कहनेका ा अ भ ाय है ? एवं उसका श ुक भां त श ुताका आचरण ा है ? उ र – शरीर , इ य और मन – इन सबका नाम आ ा है। ये सब जसके अपने नह ह, उ ृ ंखल ह और यथे वषय म लगे रहते है ; जो इन सबको अपने ल के अनुकूल इ ानुसार क ाणके साधनम नह लगा सकता , वह 'अना ा ' है – आ वान् नह है। ऐसा मनु यं मन , इ याँ आ दके वश होकर कु प करनेवाले रोगीक

भाँ त अपने ही क ाणसाधनके वपरीत आचरण करता है। वह अहंता , ममता , राग - ेष , काम , ोध , लोभ , मोह आ दके कारण माद , आल और वषयभोग म फँ सकर पाप -कम के क ठन ब नम पड़ जाता है। जैसे श ु कसीको सुखके साधनसे वं चत करके दःु ख भोगनेको बा करता है वैसे ही वह अपने शरीर , इ य और मनको क ाणके साधनम न लगाकर भोग म लगाता है तथा अपन -आपको बार -बार नरका दम डालकर और नाना कारक यो नय म भटकाकर अन कालतक भीषण दःु ख भोगनेके लये बा करता है। य प अपने -आपम कसीका ेष न होनेके कारण वा वम कोई भी अपना बुरा नह चाहता , तथा प अ ान वमो हत मनु

आस के वश होकर दःु खको सुख और अ हतको हत समझकर अपने यथाथ क ाणके वपरीत आचरण करने लगता है – इसी बातको दखलानेके लये ऐसा कहा गया है क वह श ुक भाँ त श ुताका आचरण करता है।

जसने मन और इ य स हत शरीरको जीत लया है वह आप ही अपना म है, इस बातको करनेके लये अब शरीर इ य और मन प आ ाको वशम करनेका फल बतलाते है – जता नः शा परमा ा समा हतः । स



शीतो सुखदःु खेषु तथा मानापमानयोः ॥७॥

सरदी - गरमी और सुख - दःु खा दम तथा मान और अपमानम जसके अ ःकरणक वृ याँ भलीभाँ त शा ह, ऐसे ाधीन आ ावाले पु षके ानम स दान घन परमा ा स क कारसे त ह अथात उसके ानम परमा ाके सवा अ कुछ है ही नह ॥७॥

शीत -उ , सुख -दःु ख और मान - अपमानम च क वृ य का शा रहना ा है ? उ र – यहाँ शीत -उ , सुख -दःु ख और मान - अपमान श उपल ण पसे ह। अतएव इस संगम शरीर, इ य और मनसे –

स रखनेवाले सभी सांसा रक पदाथ का, भाव का और घटना का समावेश समझ लेना चा हये। कसी भी अनुकूल या तकू ल पदाथ , भाव , या घटनाका संयोग या वयोग होनेपर अ ःकरणम राग , ेष , हष , शोक , इ ा , भय , ई ा , असूया , काम , ोध और व ेपा द कसी कारका कोई वकार न हो ; हर हालतम सदा ही च सम और शा रहे ; इसीको 'शीतो , सुख -दःु ख और मान -अपमानम च क वृ य का भलीभाँ त शा रहना ' कहते ह। – ' जता नः ' पदका ा अथ है और इसका योग कस लये कया गया है ?

उ र – शरीर , इ य और मनको जसने पूण पसे अपने वशम कर लया है , उसका नाम ' जता ा ' है; ऐसा पु ष सदा -सवदा सभी अव ा म शा या न वकार रह सकता है और संसार -समु से अपना उ ार करके परमा ाको ा कर सकता है , इस लये वह यं अपना म है। यही भाव दखलानेके लये यहाँ ' जता नः ' पदका योग कया गया है। – यहाँ 'परमा ा ' पद कसका वाचक है और 'समा हत : ' का ा अ भ ाय है ? उ र – 'परमा ा ' पद स दान घन पर का वाचक है और

पदसे यह दखलाया गया है क उपय ल ण वाले पु षके लये परमा ा सदा -सवदा और सव प रपूण है। 'समा हत : '

मन - इ य के स हत शरीरको वशम करनेका फल परमा ाक ा बतलाया गया। अत : परमा ाको ा ए पु षके ल ण जाननेक इ ा होनेपर अब दो ोक ारा उसके ल ण का वणन करते ए उसक शंसा करते ह – ान व ानतृ ा ा कू ट ो व जते यः । यु इ ु ते योगी समलो ा का नः ॥८॥ स



जसका अ ःकरण ान व ानसे तृ है, जसक त वकारर हत है, जसक इ याँ भलीभाँ त जीती ई ह और जसके लये म ी , प र और सुवण समान ह , वह योगी यु अथात् भगवत् ा है, ऐसे कहा जाता है॥८॥

यहाँ ' ान व ानतृ ा ा ' पदसे कस पु षका ल है ? उ र – परमा ाके नगुण - नराकार त के भाव तथा माहा आ दके रह स हत यथाथ ानको ' ान ' और सगुण नराकार एवं साकार त के लीला , रह , मह , गुण और भाव आ दके यथाथ ानको ' व ान ' कहते ह। जस पु षको परमा ाके –

नगुण -सगुण , नराकार -साकार त का भलीभाँ त ान हो गया है , जसका अ ःकरण उपयु दोन त के यथाथ ानसे भलीभाँ त तृ हो गया है , जसम अब कु छ भी जाननेक इ ा शेष नह रह गयी है वह ' ान व ान तृ ा ा ' है। – यहाँ 'कूट : ' पदका ा अ भ ाय है ? उ र – सुनार या लोहार के यहाँ रहनेवाले लोहेके 'अहरन ' या ' नहाई ' को 'कू ट ' कहते ह ; उसपर सोना , चाँदी , लोहा आ द रखकर हथौड़ेसे कू टा जाता है। कू टते समय उसपर बार -बार गहरी चोट पड़ती है फर भी वह हलता -डु लता नहा, बराबर अचल रहता

है। इसी कार जो पु ष तरह -तरहके बड़े -से -बड़े दःु ख के आ पड़नेपर भी अपनी तसे त नक भी वच लत नह होता , जसके अ ःकरणम जरा भी वकार उ नह होता और जो सदा -सवदा अचलभावसे परमा ाके पम त रहता है उसे 'कू ट ' कहते है। – ' व जते यः ' का ा भाव है ? उ र – संसारके स ूण वषय को मायामय और णक समझ लेनेके कारण जसक कसी भी वषयम जरा भी आस नह रह गयी है और इस लये जसक इ याँ वषय म कोई रस न पाकर उनसे नवृ हो गयी ह तथा लोक -सं हके लये वह अपने

इ ानुसार उ यथायो जहाँ लगाता है वह लगती ह, न तो तासे कह जाती ह और न उसके मनम कसी कारका ोभ ही उ करती है – इस कार जसक इ याँ अपने अधीन ह, वह पु ष ' व जते य ' है। –  'समलो ा का न : ' का ा भाव है ? उ र – म ी , प र और सुवण आ द सम पदाथ म परमा -बु हो जानेके कारण जसके लये तीन ही सम हो गये ह ; जो अ ा नय क भाँ त सुवणम आस नह होता और म ी , प र आ दसे ेष नह करता , सबको एक ही समान समझता है वह 'समलो ा कांचन ' है।

सु

ायुदासीनम े ब ुषु । साधु प च पापेषु समबु व श ते ॥९॥

सु द , म , वैरी , उदासीन , म , े और ब ुगण म , धमा ा म और पा पय म भी समान भाव रखनेवाला अ े है॥९॥

है ? अपे और पर 'म

– 'सु

द् ' और ' म ' म ा भेद

उ र – स और उपकार आ दक ा न करके बना ही कारण भावत : ेम हत करनेवाले , 'सु द् ' कहलाते ह तथा र ेम और एक -दसू रेका हत करनेवाले ' कहलाते ह।

– 'अ र ' (बैरी) ा अ र है ?

और ' े

'

ेषपा ) म उ र – कसी न म से बुरा करनेक इ ा या चे ा करनेवाला 'वैरी ' है और भावसे ही तकू ल आचरण करनेके कारण जो ेषका पा हो , वह ' े ' कहलाता है। – 'म ' और 'उदासीन ' म ा भेद है ? उ र – पर र झगड़ा करनेवाल म मेल करनेक चे ा करनेवालेको और प पात छोड़कर उनके हतके लये ाय करनेवालेको 'म ' कहते ह तथा उनसे कसी कारका भी स न रखनेवालेको 'उदासीन ' कहते ह। (



यहाँ

'अ प '

का



अ भ ाय है ? उ र – सु द,् म , उदासीन , म और साधु -सदाचारी पु ष म एवं अपने कु टु य म मनु का ेम होना ाभा वक है। ऐसे ही वैरी , े और पा पय के त ेष और घृणाका होना ाभा वक है। ववेकशील पु ष म भी इन लोग के त ाभा वक राग - ेष -सा देखा जाता है। ऐसे पर र अ व भाववाले मनु के त राग - ेष और भेद -बु का न होना ब त ही क ठन बात है, उनम भी जसका समभाव रहता है उसका अ समभाव रहता है इसम तो कहना ही ा है। यह भाव दखलानेके लये 'अ प ' का योग कया गया है।

– 'समबु

: '

का



अ भ ाय है ? उ र – सव परमा -बु हो जानेके कारण उन उपयु अ वल ण भाववाले म , वैरी , साधु और पापी आ दके आचरण , भाव और वहारके भेदका जसपर कु छ भी भाव नह पड़ता , जसक बु म कसी समय , कसी भी प र तम , कसी भी न म से भेदभाव नह आता उसे 'समबु ' समझना चा हये।

ोकम यह बात कही गयी क जसने शरीर इ य और मन प आ ाको जीत लया है वह आप ही अपना म ह। फर सातव ोकम उस ' जता ा ' स

– छठे

पु षके लये परमा को ा होना तथा आठव और नव ोक म परमा ाको ा पु षके ल ण बतलाकर उसक शंसा क गयी। इसपर यह ज ासा होती है क जता ा पु षको परमा ाक ा के लये ा करना चा हये, वह कस साधनसे परमा ाको शी ा कर सकता है, इस लये ानयोगका करण आर करते ह – योगी यु ीत सततमा ानं रह स तः । एकाक यत च ा ा नराशीरप र हः ॥१०॥ मन और इ य स हत शरीरको वशम रखनेवाला , आशार हत और सं हर हत योगी अकेला ही एका ानम

त होकर आ ाको नर र परमा ाम लगावे॥१०॥ ?।

– ' नराशीः '

का

ा भाव है

उ र – इस लोक और परलोकके भो -पदाथ क जो कसी भी अव ाम , कसी कार भी , क च ा भी इ ा या अपे ा नह करता , वह ' नराशी : ' है। – 'अप र ह : ' का ा अ भ ाय है ? उ र – भोग -साम ीके सं हका नाम प र ह है , जो उससे र हत हो उसे 'अप र ह ' कहते ह। वह य द गह हो तो कसी भी व ुका ममतापूवक सं ह न रखे और य द

चारी , वान या सं ासी हो तो पसे भी कसी कारका शा तकू ल सं ह न करे। ऐसे पु ष कसी भी आ मवाले ह 'अप र ह ' ही ह। – यहाँ 'योगी ' पद कसका वाचक है ? उ र – यहाँ भगवान् ानयोगम लगनेके लये कह रहे ह; अत : 'योगी ' ानयोगके अ धकारीका वाचक है , न क स योगीका। – यहाँ 'एकाक ' वशेषण कस लये दया गया है ? उ र – ब त -से मनु के समूहम तो ानका अ ास अ क ठन है ही , एक भी

दसू रे पु षका रहना बातचीत आ दके न म से ानम बाधक हो जाता है। अतएव अके ले रहकर ानका अ ास करना चा हये। इसी लये 'एकाक ' वशेषण दया गया है। – एका ानम त होनेके लये कहनेका ा अ भ ाय है ? उ र – वन , पवत , गुफा आ द एका देश ही ानके लये उपयु है। जहाँ ब त लोग का आना -जाना हो , वैसे ानम ानयोगका साधन नह बन सकता। इसी लये ऐसा कहा गया है। – यहाँ 'आ ा ' श कसका वाचक है और उसको परमा ाम लगाना ा है ?

उ र – यहाँ ' आ ा ' श मन -बु प अ ःकरणका वाचक है और मन -बु को परमा ाम त य कर देना ही उसको परमा ाम लगाना है। – 'सततम् ' का ा अ भ ाय है ?

उ र – 'सततम् ' पद 'यु ीत ' याका वशेषण है और नर रताका वाचक है। इसका अ भ ाय यह है क ान करते समय जरा भी अ राय न आने देना चा हये। इस कार नर र परमा ाका ान करते रहना चा हये , जसम ानका तार टूटने ही न पावे। जता ा पु षको ानयोगका साधन करनेके लये कहा गया स



अब उस ानयोगका व ारपूवक वणन करते ए पहले ान और आसनका वणन करते ह – शुचौ देशे त ा रमासनमा नः । ना ुि तं ना तनीचं चैला जनकु शो रम् ॥११॥

शु भू मम , जसके ऊपर मश : कुशा , मृगछाला और व बछे ह , जो न ब त ऊँचा है और न ब त नीचा , ऐसे अपने आसनको र ापन करके – ॥११॥ – 'शुचौ देशे ' का

ा भाव है ? उतर – ानयोगका साधन करनेके लये ऐसा ान होना चा हये , जो भावसे ही शु हो और झाड़ -बुहारकर , लीप -पोतकर

अथवा धो -प छकर और नमल बना लया गया हो। गंगा , यमुना या अ कसी प व नदीका तीर , पवतक गुफा , देवालय , तीथ ान अथवा बगीचे आ द प व वायुम लयु ान मसे जो सुगमतासे ा हो सकता हो और , प व तथा एका हो – ानयोगके लये साधकको ऐसा ही कोई एक ान चुन लेना चा हये। – यहाँ 'आसनम् ' पद कसका वाचक है और उसके साथ 'ना ुि तम् ', 'ना तनीचम् ' और 'चैला जनकुशो रम् ' इस कार तीन वशेषण देनेका ा अ भ ाय है ? उ र – काठ या प रके बने ए पाटे या चौक को जसपर मनु र भावसे बैठ

सकता हो – यहाँ आसन कहा गया है। वह आसन य द ब त ऊँ चा हो तो ानके समय व पम आल या न ा आ जानेपर उससे गरकर चोट लगनेका डर रहता है ; और य द अ नीचा हो तो जमीनक सरदी – गरमीसे एवं च टी आ द सू जीव से व होनेका डर रहता है। इस लये 'ना ुि तम् ' और 'ना तनीचम् ' वशेषण देकर यह बात कही गयी है क वह आसन न ब त ऊँ चा होना चा हये और न ब त नीचा ही। काठ या प रका आसन कड़ा रहता है, उसपर बैठनेसे पैर म पीड़ा होनेक स ावना है ; इस लये 'चैला जनकुशो रम् '' वशेषण देकर यह बात समझायी गयी है क उसपर पहले कु शा , फर मृगचम और उसपर कपड़ा बछाकर उसे कोमल

बना लेना चा हये। मृगचमके [18] नीचे कु शा रहनेसे वह शी खराब नह होगा और ऊपर कपड़ा रहनेसे उसके रोम शरीरम नह लगगे। इसी लये तीन के बछानेका वधान कया गया है। – 'आ नः ' का ा अ भ ाय है ? उ र – उपयु आसन अपना ही होना चा हये। ानयोगका साधन करनेके लये कसी दसू रेके आसनपर नह बैठना चा हये। –  ' रं त ा ' का ा अ भ ाय है ? उ र – काठ या प रके बने ए उपयु आसनको पृ ीपर भलीभाँ त जमाकर

टका देना चा हये , जससे वह हलने -डु लने न पावे ; क आसनके हलने -डु लनेसे या खसक जानेसे साधनम व उप त होनेक स ावना है।

प व ानम आसन ापन करनेके बाद ानयोगके साधकको ा करना चा हये उसे बतलाते ह – त ैका ं मनः कृ ा यत च े य यः । उप व ासने यु ा ोगमा वशु ये ॥१२॥ स





उस आसनपर बैठकर च और यक या को वशम रखते ए

मनको एका करके अ ःकरणक शु लये योगका अ ास करे॥१२॥

के

यहाँ आसनपर बैठनेका कोई खास कार न बतलाकर सामा भावसे ही बैठनेके लये कहनेका ा अ भ ाय है ? उ र – ' ानयोगके ' साधनके लये बैठनेम जन नयम क आव कता है , उनका ीकरण अगले ोकम कया गया हे। उनका पालन करते ए, जो साधक क, स या प आ द आसन मसे जस आसनसे सुखपूवक अ धक समयतक र बैठ सकता हो उसके लये वही उपयु है। इसी लये यहाँ कसी आसन - वशेषका वणन न करके सामा भावसे बैठनेके लये ही कहा गया है। –

– 'यत च े ाय है ?



यः '

का

ाअभ उ र – च श अ ःकरणका बोधक है। मन और बु से जो सांसा रक वषय का च न और न य कया जाता है उसका सवथा ाग करके उनसे उपरत हो जाना ही अ :करणक याको वशम कर लेना है। तथा 'इ य ' ो आ द दस इ य का बोधक है। इन सबको सुनने , देखने आ दसे रोक लेना ही उनक या को वशम कर लेना है। – मनको एका करना ा है ? उ र – ेय व ुम मनक वृ य को भलीभाँ त लगा देना ही उसको एका करना

है। यहाँ करणके अनुसार परमा ा ही ेय व ु ह। अतएव यहाँ उ म मन लगानेके लये कहा गया है। इसी लये चौदहव ोकम 'म ः ' वशेषण देकर भगवान् ने इसी बातको कया है। – अ ःकरणक शु के लये ानयोगका अ ास करना चा हये , इस कथनका ा अ भ ाय है ? उ र – इसका अ भ ाय यह है क ानयोगके अ ासका उ े कसी कारक सांसा रक स या ऐ यको ा करना नह होना चा हये। एकमा परमा ाको ा करनेके उ े से ही अ ःकरणम त राग - ेष आ द अवगुण और पाप का तथा व ेप

एवं अ ानका नाश करनेके लये ानयोगका अ ास करना चा हये। – योगका अ ास करना ा है ?

उर

उपयु कारसे आसनपर बैठकर , अ ःकरण और इ य क या को वशम रखते ए और मनको परमे रम लगाकर नर र अ व भावसे परमा ाका ही च न करते रहना – यही 'योग ' का अ ास करना हे। –

ऊपरके ोकम आसनपर बैठकर ानयोगका साधन करनेके लये कहा गया। अब उसीका ीकरण करनेके लये आसनपर कै से बैठना चा हये, साधकका भाव स



कै सा होना चा हये, उसे कन - कन नयम का पालन करना चा हये और कस कार कसका ान करना चा हये इ ा द बात दो ोक म बतलाई जाती ह  – समं काय शरो ीवं धारय चलं रः । स े ना सका ं ं दश ानवलोकयन् ॥१३॥ काया , सर और गलेको समान एवं

अचल धारण करके और र [19] होकर , अपनी ना सकाके अ भागपर जमाकर , अ दशा को न देखता आ – ॥१३॥

काया , सर और गलेको 'सम ' और 'अचल ' धारण करना ा है ? –

उ र – यहाँ जंघासे ऊपर और गलेसे नीचेके ानका नाम 'काया ' है , गलेका नाम ' ीवा ' है और उसके ऊपरके अंगका नाम ' सर ' है। कमर या पेटको आगे -पीछे या दा हने -बाय कसी ओर भी न कु ाना , अथात् रीढ़क ह ीको सीधी रखना , गलेको भी कसी ओर न कु ाना और सरको भी इधर -उधर न घुमाना – इस कार तीन को एक सूतम सीधा रखते ए जरा भी न हलने -डु लने देना , यही इन सबको 'सम ' और 'अचल ' धारण करना है। – काया आ दके अचल धारण करनेके लये कह देनेके बाद फर र होनेके लये कहा गया ? ा इसम कोई नयी बात है ?

उ र – काया , सर और गलेको सम और अचल रखनेपर भी हाथ -पैर आ द दसू रे अंग तो हल ही सकते ह। इसी लये र होनेको कहा गया है। अ भ ाय यह है क ानके समय हाथ -पैर को कसी भी आसनके नयमानुसार रखा जा सकता है, पर उ ' र ' अव रखना चा हये। कसी भी अंगका हलना ानके लये उपयु नह है, अत : सब अंग को अचल रखते ए सब कारसे र रहना चा हये। –  'ना सकाके अ भागपर जमाकर अ दशा को न देखता आ ' इस कथनका ा अ भ ाय है ?

उ र – को अपने नाकक नोकपर जमाये रखना चा हये। न तो ने को बंद करना चा हये और न इधर -उधर अ कसी अंगको या व ुको ही देखना चा हये। ना सकाके अ भागको भी मन लगाकर 'देखना ' वधेय नह है। व ेप और न ा न हो इस लये के वल मा को ही वहाँ लगाना है। मनको तो परमे रम लगाना है, न क नाकक नोकपर ! – इस कार आसन लगाकर बैठनेके लये भगवान् ने कहा ? उ र – ानयोगके साधनम न ा , आल , व ेप एवं शीतो ा द व माने गये है। इन दोष से बचनेका यह ब त ही अ ा उपाय है। काया , सर और गलेको

सीधा तथा ने को खुला रखनेसे आल और न ाका आ मण नह हो सकता। नाकक न कपर लगाकर इधर -उधर अ व ु को न देखनेसे बा व ेप क स ावना नह रहती और आसनके ढ़ हो जानेसे शीतो ा द इ से भी बाधा होनेका भय नह रहता। इस लये ानयोगका साधन करते समय इस कार आसन लगाकर बैठना ब त ही उपयोगी है। इसी लये भगवान् ने ऐसा कहा है। – इन तीन ोक म जो आसनक व ध बतलायी गयी है, वह सगुण परमे रके ानके लये है या नगुण के ? उ र – ान सगुणका हो या नगुण का , वह तो च और अ धकार -भेदक

बात है। आसनक यह व ध तो सभीके लये आव क है। शा ा ा वगतभी चा र ते तः । मनः संय म ो यु आसीत म रः ॥१४॥

चारीके तम त , भयर हत तथा भलीभाँ त शा अ ःकरणवाला सावधान योगी मनको रोककर मुझम च वाला और मेरे परायण होकर त होवे॥१४॥

रहना ा है ?



यहाँ

चारीके तम



उतर – चयका ता क अथ दसू रा होनेपर भी , वीयधारण उसका एक धान अथ है और यहाँ वीयधारण अथ ही संगानुकूल भी है। मनु के शरीरम वीय ही एक ऐसी अमू व ु है जसका भलीभाँ त संर ण कये बना शारी रक , मान सक अथवा आ ा क – कसी कारका भी बल न तो ा होता है और न उसका संचय ही होता है। इसी लये आयसं ृ तके चार आ म म चय थम आ म है, जो तीन आ म क न व है। चय -आ मम चारीके लये ब त -से नयम होते ह , जनके पालनसे वीयधारणम बड़ी भारी सहायता मलती है। चयके पालनसे य द वा वम वीय भलीभाँ त धारण हो जाय तो उस वीयसे शरीरके अंदर एक वल ण व ुत्

-श

उ होती है और उसका तेज इतना श शाली होता है क उस तेजके कारण अपने -आप ही ाण और मनक ग त र हो जाती है और च का एकतान वाह ेय व ुक ओर ाभा वक ही होने लगता है। इस एकतानताका नाम ही ान हे। आजकल चे ा करनेपर भी लोग जो ान नह कर पाते , उनका च ेय व ुम नह लगता , इसका एक मु तम कारण यह भी है क उ ने वीयधारण नह कया है। य प ववाह होनेपर अपनी प ीके साथ संयमपूण नय मत जीवन बताना भी चय ही है और उससे भी ानम बड़ी सहायता मलती है ; परंतु जसने पहलेसे ही चारीके नयम का सुचा पसे पालन कया है और

ानयोगक साधनाके समयतक जसके शु का बा पम कसी कार भी रण नह आ है उसको ानयोगम ब त शी और बड़ी सु वधाके साथ सफलता मल सकती हे। मनु ृ त आ द म तथा अ ा शा म चारीके लये पालनीय त का बड़ा सु र वधान कया गया है, उनम धान थे ह – ' चारी न ान करे , उबटन न लगावे , सुरमा न डाले , तेल न लगावे , इ -फु लेल आ द सुग त व ु का वहार न करे , फू ल के हार और गहने न पहने , नाचना -गाना -बजाना न करे, जूते न पहने , छाता न लगावे , पलंगपर न सोवे, जूआ न खेले , य को न देखे , ी - स ी चचातक कभी न करे , नय मत सादा भोजन करे , कोमल व न पहने

देवता , ऋ ष और गु का पूजन -सेवन करे , कसीसे ववाद न करे , कसीक न ा न करे , स बोले , कसीका तर ार न करे , अ हसा तका पूण पालन करे , काम , ोध और लोभका सवथा ाग कर दे , अके ला सोवे , वीयपात कभी न होने दे और इन सब त का भलीभाँ त पालन करे। ये चारीके त ह। भगवान् ने यहाँ ' चा र त ' क बात कहकर आ मधमक ओर भी संकेत कया है। जो अ आ मी लोग ानयोगका साधन करते ह उनके लये भी वीयधारण या वीयसंर ण ब त ही आव क है और वीयधारणम उपयु नयम बड़े सहायक ह। यही चारीका त है और ढ़तापूवक इसका पालन करना ही उसम त होना है। ,

– ' वगतभी : '

का



अ भ ाय हे ? उ र – परमा ा सव ह और ानयोगी परमा ाका ान करके उ देखना चाहता है , फर वह डरे ? अतएव ान करते समय साधकको नभय रहना चा हये। मनम जरा भी भय रहेगा तो एका और नजन ानम ाभा वक ही च म व ेप हो जायगा। इस लये साधकको उस समय मनम यह ढ़ स धारणा कर लेनी चा हये क परमा ा सवश मान् ह और सव ापी होनेके कारण यहाँ भी सदा ह ही , उनके रहते कसी बातका भय नह है। य द कदा चत् ार वश ान करते -करते मृ ु हो जाय , तो उससे भी प रणामम परम क ाण ही होगा।

स ा ान -योगी इस वचारपर ढ़ रहता है, इसीसे उसे ' वगतभी : ' कहा गया है। – ' शा ा ा ' का ा अ भ ाय है ? उ र – ान करते समय मनसे राग - ेष , हष -शोक और काम - ोध आ द द ू षत वृ य को तथा सांसा रक संक - वक को सवथा दरू - कर देना चा हये। वैरा के ारा मनको सवथा नमल और शा करके ानयोगका साधन करना चा हये। यही भाव दखलानेके लये ' शा ा ा ' वशेषण दया गया है। – 'यु : ' वशेषणका ा अ भ ाय है ?

उ र –  ान करते समय साधकको न ा , आल और माद आ द व से बचनेके लये खूब सावधान रहना चा हये। ऐसा न करनेसे मन और इ याँ उसे धोखा देकर ानम अनेक कारके व उप त कर सकती ह। इसी बातको दखलानेके लये 'यु : ' वशेषण दया गया है। – मनको रोकना ा है ? उ र – एक जगह न कना और रोकते - रोकते भी बलात् वषय म चले जाना मनका भाव है। इस मनको भलीभाँ त रोके बना ानयोगका साधन नह बन सकता। इस लये ान करते समय मनको बा वषय से भलीभाँ त हटाकर उसे अपने ल म पूण पसे

न कर देना यानी भगवान् म त य कर देना ही यहाँ मनको रोकना है। – 'म ः ' का ा भाव है ? उ र – ेय व ुम च के एकतान वाहका नाम ान है ; वह ेय व ु ा होनी चा हये , यही बतलानेके लये भगवान् कहते ह क तुम अपने च को मुझम लगाओ। च सहज ही उस व ुम लगता है जसम यथाथ ेम होता है ; इस लये ानयोगीको चा हये क वह परम हतैषी , परम सुहद् , परम ेमा द परमे रके गुण , भाव , त और रह को समझकर , स ूण जगत् से ेम हटाकर , एकमा उ को अपना ेय बनावे

और अन भावसे च को उ म लगानेका अ ास करे। – भगवान् के परायण होना ा है ? उ र – जो परमे रको अपना ेय बनाकर उनके ानम च लगाना चाहते ह वे उ के परायण भी ह गे ही। अतएव 'म र : ' पदसे भगवान् यह भाव दखलाते ह क ानयोगके साधकको यह चा हये क वह मुझको (भगवान् को ) ही परम ग त , परम ेय , परम आ य और परम महे र तथा सबसे बढ़कर ेमा द मानकर नर र मेरे ही आ त रहे और मुझीको अपना एकमा परम र क , सहायक , ामी तथा जीवन , ाण और

सव मानकर मेरे ेक वधानम परम स ु रहे। इसीका नाम 'भगवान् के परायण होना ' है। – इस ोकम बतलाया आ ान सगुण परमे रका है या नगुण का ? और उस ानको भेदभावसे करनेके लये कहा गया है या अभेदभावसे ? उ र – इस ोकम 'म ः ' और 'म र : ' पद का योग आ है। अतएव यहाँ नगुण के तथा अभेदभावके ानक बात नह है। इस लये यह समझना चा हये क यहाँ उपा और उपासकका भेद रखते ये सगुण परमे रके ानक ही री त बतलायी गयी है। – यहाँ सगुणके ानक री त बतलाई गयी है यह तो ठीक है ; परंतु यह

सगुण ान सवश मान् सवाधार परमे रके नराकार पका है या भगवान् ीशंकर , ी व ु , ीराम , ीकृ - भृ त साकार प मसे कसी एकका है ? उ र – भगवान् के गुण , भाव , त और रह को [20] समझकर मनु अपनी च , भाव और अ धकारके अनुसार जस पम सुगमतासे मन लगा सके , वह उसी पका ान कर सकता है। क भगवान् एक है और सभी प उनके है। अतएव ऐसी क ना नह करनी चा हये क यहाँ अमुक प वशेषके ानके लये ही कहा गया है। अब यहाँ साधक क जानकारीके लये ानके कु छ प का वणन कया जाता है।

ान

भगवान् ीशंकरका

ान

हमालयके गौरीशंकर - शखरपर सवथा एका देशम भगवान् शव ान लगाये प ासनसे वरा जत ह ; उनका शरीर अ गौरवण है, उसपर हलक -सी ला लमा छायी है। उनके शरीरका ऊपरका भाग न ल , सीधा और समु त है। वशाल भालपर भ का सु र पु शो भत हो रहा है, पगलवणका जटाजूट चुडा़के समान ऊँ चा करके सपके ारा बाँधा आ है। दोन कान म ा माला है। ओढ़ी ई रीछक काली मृगछालाक ामता नीलक क भासे और भी घनीभूत हो रही है। उनके तीन ने क ना सकाके अ भागपर सु र हे और उन नीचेक ओर कु े ए र और न ने से उ ल ो त नकलकर

इधर - उधर छटक रही है। दोन हाथ गोदम रखे ए ह , ऐसा जान पड़ता है मानो कमल खल गया हो। उ ने समा ध -अव ाम देहके अंदर रहनेवाले वायुसमूहको न कर रखा है , जसे देखकर जान पड़ता है मानो वे जलपूण और आड रर हत बरसनेवाले बादल ह अथवा तरंगहीन शा महासागर ह या नवात देशम त न ल ो तमय दीपक ह। भगवान् ी व

ुका

ान

अपने दयकमलपर या अपने सामने जमीनसे कु छ ऊँ चेपर त एक र वणके सह दल कमलपर भगवान् ी व ु सुशो भत ह। नीलमेघके समान मनोहर नीलवण है , सभी अंग परम सु र ह और भा त -भाँ तके आभूषण से वभू षत ह। ीअंगसे द ग

नकल रही है। अ त शा और महान् सु र मुखार व है। वशाल और मनोहर चार लंबी भुजाएँ है। अ सु र और रमणीय ीवा है, परम सु र गोल कपोल ह , मुखम ल मनोहर म मुसकानसे सुशो भत है , लाल - लाल ह ठ और अ त सु र नुक ली ना सका है। दोन कान म मकराकृ त कु ल झलमला रहे ह। मनोहर चबुक है। कमलके समान वशाल और फु त ने ह और उनसे ाभा वक ही दया , ेम , शा , समता , ान , आन और काशक अज धारा बह रही है। उ त कं धे ह। मेघ ाम नील -प वण शरीरपर सुवणवण पीता र शोभायमान है। ल ीजीके नवास ान व ः लम ीव का चल है। दा हने ऊपरके हाथम सु र अ उ ल

करण से यु च है, नीचेके हाथम कौमोदक गदा है, बाय ऊपरके हाथम सु र ेत वशाल और वजयी पांचज शंख है और नीचेके हाथम सु र र वण कमल सुशो भत है। गलेम र का हार है, दयपर तुलसीयु वनमाला , वैजय ी माला और कौ ुभम ण वभू षत ह। चरण म र ज टत बजनेवाले नूपुर ह और म कपर देदी मान करीट है। वशाल , उ त और काशमान ललाटपर मनोहर ऊ पु तलक है, हाथ म र के कड़े , कमरम र ज टत करधनी , भुजा म बाजूबंद और हाथ क अँगु लय म र क अँगू ठयाँ सुशो भत है। काले -घुँघराले के श बड़े ही मनोहर ह। चार ओर करोड़ सूय का -सा परंतु

शीतल काश छा रहा है तथा उसमसे ेम और आन का अपार सागर उमड़ा चला आ रहा है। भगवान् ीरामका

ान

अ सु र म णर मय रा सहासन है, उसपर भगवान् ीरामच ीसीताजीस हत वरा जत ह। नवीन दवू ादलके समान ामवण है, कमलदलके समान वशाल ने ह, बड़ा ही सु र मुखम ल है, वशाल भालपर ऊ पु तलक है। घुँघराले काले के श ह। म कपर सूयके समान काशयु मुकुट सुशो भत है, मु नमनमोहन महान् लाव है, द अंगपर पीता र वरा जत है। गलेम र के हार और द पु क माला है। देहपर च न लगा है। हाथ म धनुष -बाण लये ह, लाल ह ठ ह, उनपर मीठी मुसकानक छ ब छा

रही है। बाय ओर ीसीताजी वरा जत ह। इनका उ ल णवण है, नीली साड़ी पहने ए ह, करकमलम र कमल धारण कये ह। द आभूषण से सब अंग वभू षत ह। बड़ी ही अपूव और मनोरम झाँक है। भगवान् ीकृ

(१ )

का

ान

वृ ावनम ीयमुनाजीका तीर है, अशोक वृ के नये -नये प से सुशो भत का ल ीकुं जम भगवान् ीकृ अपने सखा के साथ वराजमान ह, नवीन मेघके समान ाम आभायु नीलवण है। ामशरीरपर सुवणवण पीत व ऐसा जान पड़ता है मानो ाम घनघटाम इ धनुष

शो भत हो। गलेम सु र वनमाला है, उससे सु र पु क और तुलसीजीक सुग आ रही है। दयपर वैजय ी माला सुशो भत है। सु र काली घुँघरालीली अलक ह, जो कपोल तक लटक ई ह। अ रमणीय और भुवन मोहन मुखार व है। बड़ी ही मधुर हँ सी हँ स रहे ह। म कपर मोरक पाँख का मुकुट पहने ह। कान म कु ल झलमला रहे ह, सु र गोल कपोल कु ल के काशसे चमक रहे ह। अंग -अंगसे सु रता नखर रही है। कान म कनेरके फू ल धारण कये ए ह। अद् भुत धातु से और च - व च नवीन प व से शरीरको सजा रखा है। व ः लपर ीव का च है, गलेम कौ ुभम ण है। भ ह खची ई ह, लाल -लाल ह ठ बड़े ही कोमल और सु र ह। बाँके

और वशाल कमल -से ने ह, उनमसे आन और ेमक व ुत् -धारा नकल - नकलकर सबको अपनी ओर आक षत कर रही है, जसके कारण सबके दय म आन और ेमका समु -सा उमड़ रहा है। मनोहर भंग पसे खड़े ह तथा अपनी चंचल और कोमल अंगु लय को वंशीके छ पर फराते ए बड़े ही मधुर रसे उसे बजा रहे ह। भगवान् ीकृ

(२ )

का

ान

कु े का रणांगण है , चार ओर वीर के समूह यु के लये यथायो खड़े है। वहाँ अजुनका परम तेजोमय वशाल रथ है। रथक वशाल जाम च मा और तारे चमक

रहे ह। जापर महावीर ीहनुमानजी वराजमान ह , अनेक पताकाएँ फहरा रही है। रथपर आगेके भागपर भगवान् ीकृ वराजमान ह , नील ामवण है। सु रताक सीमा ह , वीरवेष ह , कवच पहने ए ह , देहपर पीता र शोभा पा रहा है। मुखम ल अ शा है। ानक परम दी से सब अंग जगमगा रहे ह। वशाल और र ाभ ने से ानक ो त नकल रही है। एक हाथम घोड़ क लगाम है और दसू रा हाथ ानमु ासे सुशो भत है। बड़ी ही शा और धीरताके साथ अजुनको गीताका महान् उपदेश दे रहे ह। होठ पर मधुर मुसकान छटक रही है। ने से संकेत कर -करके अजुनक शंका का समाधान कर रहे ह।

कारसे कये ए ानयोगके साधनका फल बतलाते ह – यु ेवं सदा ानं योगी नयतमानसः । शा नवाणपरमां म ं ाम धग त ॥१५॥ स

– उपयु

वशम कये ए मनवाला योगी इस कार आ ाको नर र मुझ परमे रके पम लगाता आ मुझम रहनेवाली परमान क पराका ा प शा को ा होता है॥१५॥

यहाँ 'योगी ' के साथ वशेषण देनेका ा अ भ ाय

– ' नयतमानसः ' है ?

उतर – जसका मन -अ ःकरण भलीभाँ त वशम कया आ है , उसे ' नयतमानस ' कहते है। ऐसा साधक ही उपयु कारसे ानयोगका साधन कर सकता है , यही बात दखलानेके लये 'योगी ' के साथ ' नयतमानसः ' वशेषण दया गया है। – इस कार आ ाको नर र परमे रके पम लगाना ा है ? उ र – उपयु कारसे मन -बु के ारा नर र तैलधाराक भाँ त अ व भावसे भगवान् के पका च न करना और उसम अटलभावसे त य हो जाना ही आ ाको परमे रके पम लगाना है।

– 'मुझम

रहनेवाली परमान क पराका ा प शा को ा होता है ' इस कथनका ा अ भ ाय हे ? उ र – यह उसी शा का वणन है जसे ने क शा (५।१२ ), शा ती शा (९।३१ ) और परा शा ( १८।६२ ) कहते ह और जसका परमे रक ा , परम द पु षक ा , परम ग तक ा आ द नाम से वणन कया जाता है। यह शा अ तीय अन आन क अव ध है और यह परम दयालु , परम सु द,् आन न ध , आन प भगवान् म न - नर र अचल और अटलभावसे नवास करती है। ानयोगका साधक इसी शा को ा करता है।

ानयोगका कार और फल बतलाया गया , अब ानयोगके लये उपयोगी आहार वहारऔर शयना दके नयम कस कारके होने चा हये यह जाननेक आकां ापर भगवान् उसे दो ोक म कहते ह स





ना त ु योगोऽ न चैका मन तः । न चा त शील जा तो नैव चाजुन ॥१६॥

हे अजुन ! यह योग न तो ब त खानेवालेका , न बलकुल न खानेवालेका , न ब त शयन करनेके भाववालेका और न सदा जागनेवालेका ही स होता है॥१६॥



यहाँ 'योग ' श

कसका

वाचक है ? उ र – परमा ाक ा के जतने भी उपाय ह सभीका नाम 'योग ' है। कतु यहाँ ' ानयोग ' का संग है, इस लये यहाँ 'योग ' श को उस ' ानयोग ' का वाचक समझना चा हये , जो स ूण दःु ख का आ क नाश करके परमान और परम शा के समु परमे रक ा करा देनेवाला है। – ब त खानेवालेका और बलकु ल ही न खानेवालेका ानयोग नह स होता ? उ र – ठँू स -ठँू सकर खा लेनेसे न द और आल बढ़ जाते ह ; साथ ही पचानेक

श से अ धक , पेटम प ँ चा आ अ भा त -भाँ तके रोग उ करता है। इसी कार जो अ का सवथा ाग करके कोरे उपवास करने लगता है, उसक इ य - ाण और मनक श का बुरी तरह हास हो जाता है ; ऐसा होनेपर न तो आसनपर ही र पसे बैठा जा सकता है और न परमे रके पम मन ही लगाया जा सकता है। इस कार ानके साधनम व उप त हो जाता है। इस लये ानयोगीको न तो आव कतासे और पचानेक श से अ धक खाना ही चा हये और न कोरा उपवास ही करना चा हये। – ब त सोनेवाले और सदा जागनेवालेका ानयोग स नह होता , इसम ा हेतु है ?

उ र – उ चत मा ाम न द ली जाय तो उससे थकावट दरू होकर शरीरम ताजगी आती है ; परंतु वही न द य द आव कतासे अ धक ली जाय तो उससे तमोगुण बढ़ जाता है, जससे अनवरत आल घेरे रहता है और र होकर बैठनेम क मालूम होता है। इसके अ त र अ धक सोनेम मानव -जीवनका अमू समय तो न होता ही है। इसी कार सदा जागते रहनेसे थकावट बनी रहती है। कभी ताजगी नह आती। शरीर , इ य और ाण श थल हो जाते ह, शरीरम कई कारके रोग उ हो जाते ह और सब समय न द तथा आल सताया करते ह। इस कार ब त सोना और सदा जागते रहना दोन ही ानयोगके साधनम व करनेवाले होते ह।

अतएव ानयोगीको , शरीर रहे और ानयोगके साधनम व उप त न हो – इस उ े से अपने शरीरक त , कृ त , ा और अव ाका खयाल रखते ए न तो आव कतासे अ धक सोना ही चा हये और न सदा जागते ही रहना चा हये। यु ाहार वहार   यु चे कमसु । यु ावबोध योगो भव त दःु खहा ॥१७॥

दःु ख का नाश करनेवाला योग तो यथायो आहार - वहार करनेवालेका , कम म यथायो चे ा करनेवालेका और यथायो सोने तथा जागनेवालेका ही स होता है॥१७॥

यु आहार - वहार करनेवाला कसे कहते ह ? उ र – खान -पानक व ु का नाम आहार है और चलने - फरनेक याका नाम वहार है। ये दोन जसके उ चत पम और उ चत प रमाणम ह , उसे यु आहार - वहार करनेवाला कहा करते ह। खाने -पीनेक व ुएँ ऐसी होनी चा हये जो अपने वण और आ म -धमके अनुसार स और ायके ारा ा ह ,   शा ानुकूल , सा क ह (१७।८ ), रजोगुण और तमोगुणको बढ़ानेवाली न ह , प व ह , अपनी कृ त , त और चके तकू ल न ह तथा योगसाधनम सहायता देनेवाली ह । उनका प रमाण भी उतना ही प र मत होना चा हये , जतना अपनी श , –

ा आव उतना आव

और साधनक से हतकर एवं क हो। इसी कार घूमना - फरना भी ही चा हये   जतना अपने लये क और हतकर हो। ऐसे नय मत और उ चत आहार - वहारसे शरीर , इ य और मनम स गुण बढ़ता है तथा उनम नमलता , स ता और चेतनताक वृ हो जाती है , जससे ानयोग सुगमतासे स होता है। – कम म 'यु चे ा ' करनेका ा भाव है ? उतर – वण , आ म , अव ा , त और वातावरण आ दके अनुसार जसके लये शा म जो कत कम बतलाये गये ह ,

उ का नाम कम है। उन कम का उ चत पम और उ चत मा ाम यथायो सेवन करना ही कम म यु चे ा करना है। जैसे ई र -भ , देवपूजन , दीन -दु खय क सेवा , माता - पता -आचाय आ द गु जन का पूजन , य , दान , तप तथा जी वका -स ी कम यानी श ा , पठन -पाठन , ापार आ द कम और शौच - ाना द याएँ – ये सभी कम वे ही करने चा हये , जो शा व हत ह , साधुस त ह , कसीका अ हत करनेवाले न ह , ावल नम सहायक ह , कसीको क प ँ चाने या कसीपर भार डालनेवाले न ह और ानयोगम सहायक ह तथा इन कम का प रमाण भी उतना ही होना चा हये , जतना जसके लये

आव क हो , जससे ायपूवक शरीर नवाह होता रहे और ानयोगके लये भी आव कतानुसार पया समय मल जाय। ऐसा करनेसे शरीर , इ य और मन रहते ह और ानयोग सुगमतासे स होता है। – यु सोना और जागना ा है? उतर – दनके समय जागते रहना , रातके समय पहले तथा पछले पहरम जागना और बीचके दो पहर म सोना – साधारणतया इसीको उ चत सोना -जागना माना जाता है। तथा प यह नयम नह है क सबको बीचके छ : घंटे सोना ही चा हये। ानयोगीको अपनी कृ त और शरीरक तके अनुकूल व ा

कर लेनी चा हये। रातको पाँच या चार ही घंटे सोनेसे काम चल जाय , ानके समय न द या आल न आवे और ा म कसी कार गड़बड़ी न हो तो छ : घंटे न सोकर पाँच या चार ही घंटे सोना चा हये। 'यु ' श का यही भाव समझना चा हये क आहार , वहार , कम , सोना और जागना शा से तकू ल न हो और उतनी ही मा ाम हो जतना जसक कृ त , ा और चके खयालसे उपयु और आव क हो। – 'योग ' के साथ ' दःु खहा ' वशेषण देनेका ा अ भ ाय है ?

उ र – ' ानयोग ' स हो जानेपर ानयोगीको परमान और परमशा के अन सागर परमे रक ा हो जाती है जससे उसके स ूण दःु ख अपने कारणस हत सदाके लये न हो जाते ह। फर न तो उसे कभी भूलकर भी ज -मरण प संसार -दःु खका सामना करना पड़ता है और न उसे कभी म भी च ा , शोक , भय और उ ेग आ द ही होते है। वह सवथा और सवदा आन के महान् शा - सागरम नम रहता है। दःु खका आ क नाश करनेवाले इस फलका नदश करनेके लये ही 'योग ' के साथ 'दःु खहा ' वशेषण दया गया है।

ानयोगम उपयोगी आहार - वहार आ द नयम का वणन करनेके बाद, अब नगुण नराकारके ानयोगीक अ म तका ल ण बतलाते ह – यदा व नयतं च मा ेवाव त ते । नः ृहः सवकामे ो यु इ ु ते तदा ॥१८॥ स



अ वशम कया आ च जस कालम परमा ाम ही भलीभाँ त त हो जाता है, उस कालम स ूण भोग से ृहार हत पु ष योगयु है, ऐसा कहा जाता है॥१८॥ – ' च म् ' के

साथ ' व नयतम् ' वशेषण देनेका ा योजन है ? और उसका

परमा ाम ही भलीभाँ त त होना ा है ? उ र – भलीभाँ त वशम कया आ च ही परमा ाम अटल पसे त हो सकता है, यही बात दखलानेके लये ' व नयतम् ' वशेषण दया गया है। ऐसे च का माद , आल और व ेपसे सवथा र हत होकर एकमा परमा ाम ही न लभावसे त हो जाना – एक परमा ाके सवा कसी भी व ुक जरा भी ृ त न रहना – यही उसका परमा ाम भलीभाँ त त होना है। – स ूण भोग से ृहार हत होना ा है ? उ र – परमशा और परमान के महान् समु एकमा परमा ाम ही अन

त हो जानेके कारण एवं इस लोक और परलोकके अ न , णक और नाशवान् स ूण भोग म सवथा वैरा हो जानेके कारण कसी भी सांसा रक व ुक क च ा भी आव कता या आकां ाका न रहना ही – स ूण भोग से ृहार हत होना है। – 'यु : ' पदका ा अ भ ाय है ? उ र – यहाँ 'यु : ' पद ानयोगक पूण तका बोधक है। अ भ ाय यह है क साधन करते -करते जब योगीम उपयु दोन ल ण भलीभाँ त कट हो जाय तब समझना चा हये क वह

है।

ानयोगक अ म

तको ा हो चुका

वशम कया आ च ानकालम जब एकमा परमा ाम ही अचल त हो जाता है उस समय उस च क कै सी अव ा हो जाती है यह जाननेक आकां ा होनेपर कहते ह – यथा दीपो नवात ो ने ते सोपमा ृता । यो गनो यत च यु तो योगमा नः ॥१९॥ स



जस कार वायुर हत ानम त दीपक चलायमान नह होता , वैसी ही उपमा

परमा ाके ानम लगे ए योगीके जीते ए च क कही गयी है॥११॥

यहाँ 'दीप ' श कसका वाचक है ओर न लताका भाव दखलानेके लये पवत आ द अचल पदाथ क उपमा न देकर जीते ए च के साथ दीपकक उपमा देनेका ा अ भ ाय है ? उ र – यहाँ 'दीप ' श काशमान दीप शखाका वाचक है। पवत आ द पदाथ काशहीन ह, एवं भावसे ही अचल ह , इस लये उनके साथ च क समानता नह है। परंतु दीप शखा च क भाँ त काशमान और चंचल है , इस लये उसीके साथ मनक समानता है। जैसे वायु न लगनेसे दीप शखा –

हलती -डु लती नह , उसी कार वशम कया आ च भी ानकालम सब कारसे सुर त होकर हलता -डु लता नह , वह अ वचल दीप शखाक भां त समभावसे का शत रहता है। इसी लये पवत आ द काशर हत अचल पदाथ क उपमा न देकर दीपकक उपमा दी गयी है। – च के साथ 'यत ' श न जोड़कर के वल ' च ' कह देनेसे भी वही अथ हो सकता था , फर 'यत च 'के योग करनेका ा अ भ ाय है ? उ र – जीता आ च ही इस कार परमा ाके पम अचल ठहर सकता है, वशम न कया आ नह ठहर सकता – इसी

बातको दखलानेके लये 'यत ' श गया है।

दया

इस कार ानयोगक अ म तको ा ए पु षके और उसके जीते ए च के ल ण बतला देनेके बाद अब तीन ोक म ानयोग ारा स दान परमा ाको ा पु षक थका वणन करते ह – य ोपरमते च ं न ं योगसेवया । य चैवा ना ानं प ा न तु त ॥२०॥ स

अव अव



योगके अ ाससे न च जस ाम उपराम हो जाता है और जस ाम परमा ाके ानसे शु ई सू

बु ारा परमा ाको सा ात् करता आ स दान घन परमा ाम ही स ु रहता है॥२०॥

वाचक है च का

– 'योगसेवा ' श कसका और 'योगसेवासे ' होनेवाले ' न ' ा अ भ ाय है ?

उ र – ानयोगके अ ासका नाम 'योगसेवा ' है। उस ानयोगका अ ास करते -करते जब च एकमा परमा ाम ही भलीभाँ त त हो जाता है , तब वह ' न ' कहलाता है। – इस कार परमा ाके पम न ए च का उपरत होना ा है ?

उ र – जस समय योगीका च परमा ाके पम सब कारसे न हो जाता है, उसी समय उसका च संसारसे सवथा उपरत हो जाता है; फर उसके अ ःकरणम संसारके लये कोई ान ही नह रह जाता। य प लोक म उसका च समा धके समय संसारसे उपरत और वहारकालम संसारका च न करता आ -सा तीत होता है क ु वा वम उसका संसारसे कु छ भी स नह रहता – यही उसके च का सदाके लये संसारसे उपरत हो जाना है। – यहाँ 'य ' कसका वाचक है ?

उ र – जस अव ाम ानयोगके साधकका परमा ासे संयोग हो जाता है अथात् उसे परमा ाका हो जाता है और संसारसे उसका स सदाके लये छूट जाता है, तथा तेईसव ोकम भगवान् ने जसका नाम 'योग ' बतलाया है उसी अव ा वशेषका वाचक यहाँ 'य ' है। – यहाँ 'एव ' का ा अ भ ाय है ? उ र – 'एव ' का योग यहाँ परमा - दशनज नत आन से अ त र अ सांसा रक स ोषके हेतु का नराकरण करनेके लये कया गया है। अ भ ाय यह है क परमान और परमशा के समु परमा ाका

सा ा ार हो जानेपर योगी सदा -सवदा उसी आन म स ु रहता है, उसे कसी कारके भी सांसा रक सुखक क च ा भी आव कता नह रहती। – जस ानसे परमा ाका सा ा ार होता है उस ानका अ ास कै से करना चा हये ? उ र – एका ानम पहले बतलाये ए कारसे आसनपर बैठकर मनके सम संक का ाग करके इस कार धारणा करनी चा हये एक व ान -आन घन पूण परमा ा ही है। उसके सवा कोई व ु है ही नह , के वल एकमा वही प रपूण है। उसका

यह ान भी उसीको है क वही ान प है। वह सनातन , न वकार , असीम , अपार , अन , अकल और अनव है। मन , बु , अहंकार , ा , दशन , आ द जो कु छ भी ह, सब उस म ही आरो पत ह और व ुत : प ही ह। वह आन मय है और अवणनीय है। उसका वह आन मय प भी आन मय है। वह आन प पूण है, न है, सनातन है, अज है, अ वनाशी है, परम है , चरम है, सत् है, चेतन है , व ानमय है, कू ट है, अचल है, ुव है, अनामय है, बोधमय है, अन है और शा है। इस कार उसके आन पका च न करते ए बार -बार ऐसी ढ़ धारणा करते रहना चा हये क उस आन पके अ त र और कु छ है ही नह ।

य द कोई संक उठे तो उसे भी आन मयसे ही नकला आ , आन मय ही समझकर आन मयम ही वलीन कर दे। इस कार धारणा करते -करते जब सम संक आन मय बोध प परमा ाम वलीन हो जाते ह और एक आन घन परमा ाके अ त र कसी भी संक का अ नह रह जाता , तब साधकक आन मय परमा ाम अचल त हो जाती है। इस कार न - नय मत ान करते -करते अपनी और संसारक सम स ा जब से अ भ हो जाती है, जब सभी कु छ परमान और परम शा प बन जाता है, तब साधकको परमा ाका वा वक सा ा ार सहज ही हो जाता है।



सुखमा कं य द् बु ा मती यम् । वे य न चैवायं त ल त त तः ॥२१॥

य से अतीत , केवल शु ई सू बु ारा हण करनेयो जो अन आन है ; उसको जस अव ाम अनुभव करता है और जस अव ाम त यह योगी परमा ाके पसे वच लत होता ही नह ॥२१॥

'आ 'बु ?

कम् ा म् '

साथ 'अती यम् ' और वशेषण देनेका ा अ भ ाय है – ',

यहाँ सुखके

उ र – अठारहव अ ायम छ ीसवसे उनतालीसव ोकतक जन सा क , राजस और तामस , तीन कारके सुख का वणन है , उनसे इस परमा प सुखक अ वल णता दखलानेके लये ही उपयु वशेषण दये गये ह। परमा प सुख सांसा रक सुख क भाँ त णक , नाशवान् , दःु ख का हेतु और दःु ख म त नह होता। वह सा क सुखक अपे ा भी महान् और वल ण , सदा एकरस रहनेवाला और न है ; क वह परमा ाका प ही है , उससे भ कोई दसू रा पदाथ नह है। यही भाव दखलानेके लये 'आ कम् ' वशेषण दया गया है। वह सुख वषयज नत राजस सुखक भाँ त इ य ारा भोगा जानेवाला नह

है , वह इ यातीत पर परमा ा ही यहाँ सुखके नामसे कहे गये ह – यही भाव दखलानेके लये 'अती यम् ' वशेषण दया गया है। वह सुख यं ही न ान प है। मायाक सीमासे सवथा अतीत होनेके कारण बु वहाँतक नह प ँ च सकती तथा प जैसे मलर हत दपणम आकाशका त ब पड़ता है , वैसे ही भजन - ान और ववेक -वैरा ा दके अ ाससे अचल ,सू और शु ई बु म उस सुखका त ब पड़ता है। इसी लये उसे 'बु ा ' कहा गया है। परमा ाके ानसे होनेवाला सा क सुख भी इ य से अतीत , बु ा और अ य सुखम हेतु होनेसे अ सांसा रक सुख क अपे ा अ वल ण है। क ु

वह के वल ानकालम ही रहता है, सदा एकरस नह रहता ; और वह च क ही एक अव ा वशेष होती है, इस लये उसे 'आ क ' या 'अ य सुख ' नह कहा जा सकता। परमा ाका पभूत यह सुख तो उस ानज नत सुखका फल है। अतएव यह उससे अ वल ण है। इस कार तीन वशेषण देकर यहाँ यह कया गया है क सा क सुखक भाँ त यह सुख अनुभवम आनेवाला नह है। यह तो ाता , ान और ेयक एकता हो जानेपर अपने - आप कट होनेवाले परमा ाका प ही है। – 'त से वच लत न होने ' का ा ता य है और यहाँ 'एव ' का योग कस अ भ ायसे आ है ?

उ र – 'त ' श परमा ाके पका ही वाचक है और उससे कभी अलग न होना ही – असे वच लत नह होना है। 'एव ' से यह भाव नकलता है क परमा ाका सा ा ार हो जानेपर योगीक उनम सदाके लये अटल त हो जाती है फर वह कभी कसी भी अव ाम , कसी भी कारणसे , परमा ासे अलग नह होता। यं ल ा चापरं लाभं म ते ना धकं ततः । य ि तो न दःु खेन गु णा प वचा ते ॥२२॥ परमा ाक ा प जस लाभको ा होकर उससे अ धक दस ू रा कुछ भी लाभ नह मानता और

परमा ा प जस अव ाम त योगी बड़े भारी दःु खसे भी चलायमान नह होता ॥ २२॥

यहाँ 'यम् ' पद कसका वाचक है और उसे ा कर लेनेके बाद दसू रे लाभको उससे अ धक नह मानता , इस कथनका ा अ भ ाय है ? उ र – अगले ोकम जसे दःु ख के संयोगका वयोग कहा है , उस योगके नामसे कही जानेवाली परमा -सा ा ार प अव ा वशेषका ही वाचक यहाँ 'यम् ' पद है। इस तम योगीको परमान और परमशा के नधान परमा ाक ा हो जानेसे वह पूणकाम हो जाता है। उसक म –

इस लोक और परलोकके स ूण भोग , लोक का रा और ऐ य , व ापी मान और बड़ाई आ द जतने भी सांसा रक सुखके साधन ह, सभी णभंगुर , अ न , रसहीन , हेय , तु और नग हो जाते ह। अत : वह संसारक कसी भी व ुको ा करनेयो ही नह मानता , फर अ धक माननेक तो गुंजाइश ही कहाँ है। – बड़े भारी दःु खसे भी चलायमान नह होता , इसका ा भाव है ? उ र – परमा ाको ा योगीको जैसे बड़े -स -बड़े भोग और ऐ य रसहीन एवं तु तीत होते ह और जैसे वह उनक ा क इ ा नह करता तथा न ा होने

या न हो जानेपर लापरवाह रहता है, अपनी तसे जरा भी - वच लत नह होता , उसी कार महान् दःु ख क ा म भी अ वच लत रहता है। यहाँ 'दःु खेन ' के साथ 'गु णा ' वशेषण देकर तथा 'अ प ' का योग करके भगवान् ने यह भाव दखलाया है क साधारण दःु ख क तो कोई बात ही नह , उ तो धैयवान् और त त ु पु ष भी सहन कर सकता है ; इस तको ा योगी तो अ भयानक और असहनीय दःु ख म भी अपनी तपर सवथा अटल , अचल रहता है। श ारा शरीरका काटा जाना , अ दःु सह सरदी -गरमी , वषा और बजली आ दसे होनेवाली शारी रक पीड़ा , अ त उ ट रोगज नत था , यसे भी य व ुका

अचानक वयोग और संसारम अकारण ही महान् अपमान , तर ार और न ा आ द जतने भी महान् दःु ख के कारण ह , सब एक साथ उप त होकर भी उसको अपनी तसे जरा भी नह डगा सकते। इसका कारण यह है क परमा ाका सा ा ार हो जानेके बाद वा वम उस योगीका इस शरीरसे कोई स नह रह जाता ; वह शरीर के वल लोक म उसका समझा जाता है। ार के अनुसार उसके शरीर , इ य और मनके साथ सांसा रक व ु का संयोग - वयोग होता है – शीत -उ , मान -अपमान , ु त - न ा आ द अनुकूल और तकू ल भोगपदाथ क ा और वनाश हो सकता है ; पर ु सुख - दःु खका कोई भो ा न रह जानेके कारण उसके

अ ःकरणम कभी कसी भी अव ाम , कसी भी न म वश , कसी भी कारका क च ा भी वकार नह हो सकता। उसक परमा ाम न अटल त -क - बनी रहती है।

बीसव , इ सव और बाईसव ोक म परमा क ा प जस तके मह और ल ण का वणन कया गया, अब उस तका नाम बतलाते ए उसे ा करनेके लये ेरणा करते ह – तं व ाद् दःु खसंयोग वयोगं योगसं तम् । स न येन यो ो योगोऽ न व चेतसा ॥२३॥ स



जो दःु ख प संसारके संयोगसे र हत है तथा जसका नाम योग है, उसको जानना चा हये। वह योग न उकताये ए अथात् धैय और उ ाहयु च से न यपूवक करना कत है॥२३॥

दःु ख प संसारके संयोगसे र हत त ा है ? ा उस तको ा योगी सदा ानाव ाम ही त रहता है ? उसके शरीर , इ य और अ ःकरण ारा संसारका काय नह होता ? उ र – दःु ख प संसारसे सदाके लये स व ेद हो जाना ही उसके संयोगसे र हत हो जाना है। उस तम योगीके शरीर , इ य और मन ारा चलना , फरना , देखना , –

सुनना या मनन और न य करना आ द काय होते ही नह ह – ऐसी बात नह है। उसके शरीर , इ य , मन और बु सभीसे ार ानुसार सम कम होते ह ; पर ु उसके ानम एकमा परमा ाके सवा अ कु छ भी न रह जानेके कारण उसका उन कम से व ुत : कु छ भी स नह रहता। उसक यह त ानकालम और ु ानकालम सदा एक -सी ही रहती है। – यहाँ के वल 'दःु ख वयोगम् ' कह देनेसे ही काम चल सकता था , फर 'दःु ख - संयोग वयोगम् ' कहकर 'संयोग ' श अ धक देनेका ा अ भ ाय है ?

उर

ा और का संयोग अथात् पंचसे आ ाका जो अ ानज नत अना द स है वही बार -बार ज -मरण प दःु खक ा म मूल कारण है। उसका अभाव हो जानेपर ही दःु ख का भी सदाके लये अभाव हो जाता है – यही बात दखानेके लये 'संयोग ' श का योग कया गया है। पातंजलयोगदशनम भी कहा है – ' हेयं दःु खमनागतम् ' (२।१६ ) 'भ व म ा होनेवाले ज -मरण प महान् दःु खका नाम 'हेय ' है। ' ' ृ योः संयोगो हेयहेतु : ' (२। १७ )। ' ा और का संयोग ही हेयका कारण है। ' 'त हेतुर व ा ' (२।२४ )। 'उस संयोगका कारण अ ान है। ' –

'तदभावा ंयोगाभावो हानं तद ्

शे :

कैव म् ' (२।२५ ) 'उस (अ व ा )के अभाव ( वनाश )से ा और के संयोगका भी अभाव ( वनाश ) हो जाता है; उसीका नाम 'हान ' (हेयका ाग ) है और यही ाक कै व प त है। '

यहाँ 'तम् ' के साथ वशेषण देनेका ा अ भ ाय

– 'योगसं तम् ' है ?

उ र – ऊपरके तीन ोक म परमा ाक ा प जस अव ाके मह और ल ण का वणन कया गया है , उसका नाम 'योग ' है – यही भाव दखलानेके लये 'तम् ' के साथ 'योगसं तम् ' वशेषण दया गया है।



यहाँ

' व ात् '

का



अ भ ाय है ? उ र – ' व ात् ' का यह अ भ ाय है क 'य ोपरमते च म् ' (६। २० ) से लेकर यहाँतक जस तका वणन कया गया है उसे ा करनेके लये स महा ा पु ष के पास जाकर एवं शा का अ ास करके उसके प , मह और साधनक व धको भलीभाँ त जानना चा हये। – 'अ न व चेतसा ' का ा भाव है ? उ र – साधनका फल न होनेके कारण थोड़ा -सा साधन करनेके बाद मनम जो ऐसा भाव आया करता है क 'न जाने

यह काम कबतक पूरा होगा , मुझसे हो सके गा या नह ' – उसीका नाम ' न व ता ' अथात् साधनसे ऊब जाना है। ऐसे भावसे र हत जो धैय और उ ाहयु च है , उसे 'अ न व च ' कहते है। अत : इसका यह भाव है क साधकको अपने च से न व ताका दोष सवथा दरू कर देना चा हये। योगसाधनम अ च उ करनेवाले और धैय तथा उ ाहम कमी करनेवाले भाव को अपने च म उठने ही न देना चा हये और फर ऐसे च से योगका साधन करना चा हये। – यहाँ न यपूवक योगसाधन करना कत है, इस कथनका ा भाव है ?

उ र – ' न य ' यहाँ व ास और ाका वाचक है। अ भ ाय यह है क योगीको योगसाधनम , उसका वधान करनेवाले शा म , आचाय म और योगसाधनके फलम पूण पसे ा और व ास रखना चा हये , एवं योगसाधनको ही अपने जीवनका मु कत मानकर और परमा ाक ा प योग स को ही ेय बनाकर ढ़तापूवक त रताके साथ उसके साधनम संल हो जाना चा हये। परमा ाको ा पु षक तका नाम ' योग ' है, यह कहकर उसे ा करना न त कत बतलाया गया ; अब दो ोक म उसी तक ा के लये स



अभेद पसे परमा ाके ानयोगका साधन करनेक री त बतलाते ह – स

भवा ामां ा सवानशेषतः । मनसैवे य ामं व नय सम तः ॥२४॥

संक से उ होनेवाली स ूण कामना को नःशेष पसे ागकर और मनके ारा इ य के समुदायको सभी ओरसे भलीभाँ त रोककर –॥२४॥

यहाँ कामना को संक से उ बतलाया गया है और दसू रे अ ायके बासठव ोकम कामनाक उ आस से बतलायी है। इस भेदका ा कारण है ? –

उ र – वहाँ संक से आस क और आस से कामनाक उ बतलायी है। इससे वहाँ भी मूल कारण संक ही है। अतएव वहाँके और यहाँके कथनम कोई भेद नह है। – सब कामनाएँ कौन -सी है ? और उनका नःशेषत : ाग ा है ? उ र – इस लोक और परलोकके भोग क जतनी और जैसी – ती , म या म कामनाएँ ह, यहाँ 'सवान् कामान् ' वा उन सभीका बोधक है। इसम ृहा , इ ा , तृ ा , आशा और वासना आ द कामनाके सभी भेद आ जाते ह और इस कामनाक उ

संक से बतलायी गयी है, इस लये 'आस ' भी इसीके अ गत आ जाती है। स ूण कामना के नःशेष पसे ागका अथ ह – कसी भी भोगम कसी कारसे भी जरा भी वासना , आस , ृहा , इ ा , लालसा , आशा या तृ ा न रहने देना। बरतनमसे घी नकाल लेनेपर भी जैसे उसम घीक चकनाहट शेष रह जाती है अथवा ड बयामसे कपूर , के सर या क ुरी नकाल लेनेपर भी जैसे उसम उनक ग रह जाती है, वैसे ही कामना का ाग कर देनेपर भी उसका सू अंश शेष रह जाता है। उस शेष बचे ए सू अंशका भी ाग कर देना – कामनाका नःशेषत : ाग है।

मनके ारा इ यसमुदायको भलीभाँ त रोकनेका ा अथ है ? उ र – इ य का भाव ही वषय म वचरण करना है। पर ु ये कसी वषयको हण करनेम तभी समथ होती ह , जब मन इनके साथ रहता है। मन य द दबु ल होता है तो ये उसे जबरद ी अपने साथ ख चे रखती ह। पर ु नमल और न या का बु क सहायतासे जब मनको एका कर लया जाता है, तब मनका सहयोग न मलनेसे ये वषय - वचरणम असमथ हो जाती ह। इसी लये ारहवसे लेकर तेरहव ोकके वणनके अनुसार ानयोगके साधनके लये आसनपर बैठकर योगीको यह चा हये क वह ववेक और वैरा क सहायता से मनके ारा सम –

इ य को स ूण बा वषय से सब कारसे सवथा हटा ले, कसी भी इ यको कसी भी वषयम जरा भी न जाने देकर उ सवथा अ मुखी बना दे। यही मनके ारा इ य -समुदायका भलीभाँ त रोकना है। शनैः शनै परमेद् बुद् ा धृ तगृहीतया । आ सं ं मनः कृ ा न क द प च येत् ॥२५॥

म - कमसे अ ास करता आ उपर तको ा हो तथा धैययु बु के ारा मनको परमा ाम त करके परमा ाके सवा और कुछ भी च न न करे॥२५॥

शनै:-शनैः उपर तको ा होना तथा धैययु बु के ारा मनको परमा ाम त करना ा है ? उ र – पछले ोकम मनके ारा इ य को बा वषय से सवथा हटा लेनेक बात कही गयी है , पर ु जबतक मन वषय का च न करता है, तबतक न तो वह परमा ाम अ ी तरह एका हो सकता है और न वह इ य को भलीभाँ त वषय से ख च ही सकता है। वषय - च न करना मनका अना द -कालका अ ास है , उसे चर -अ वषय च नसे हटाकर परमा ाम लगाना है। मनका यह भाव है क उसका जस व ुम लगनेका अ ास हो जाता है , उसम वह तदाकार हो जाता है , उससे सहज ही हटना नह –

चाहता। उसको हटानेका उपाय है – पहलेके अ ाससे व नया ती अ ास करना और कभी न ऊबनेवाली , ल के न यपर ढ़तासे डटी रहनेवाली धीरजभरी बु के ारा उसे फु सलाकर , डाँटकर , रोककर और समझाकर नये अ ासम लगाना। धीरज छोड़ देनेसे या ज ी करनेसे काम नह चलता। बु ढ़ रही और अ ास जारी रहा , तो कु छ ही समयम मन पहले वषयसे सवथा हटकर नये वषयम तदाकार हो जायगा ; फर इससे यह वैसे ही नह हटेगा , जैसे अभी उससे नह हटता है। इसी लये भगवान् शनैः-शनै: उपरत होने तथा धैययु बु से मनको परमा ाम त करनेके लये कहकर यही भाव दखला रहे ह क जैसे छोटा ब ा हाथम कची या चाकू

पकड़ लेता है तब माता जैसे समझा -बुझाकर और आव क होनेपर डाँट -डपटकर भी धीरे -धीरे उसके हाथसे चाकू या कची छीन लेती है, वैसे ही ववेक और वैरा से यु बु के ारा मनको सांसा रक भोग क अ न ता और णभंगुरता समझाकर और भोग म फँ स जानेसे ा होनेवाले ब न और नरका द यातना का भय दखलाकर उसे वषय - च नसे सवथा र हत कर देना चा हये। यही शनैः -शनैः उपर तको ा होना है। जबतक मन वषय - च नका सवथा ाग न कर दे तबतक साधकको चा हये क त दन आसनपर बैठकर पहले इ य को बा वषय से रोके , पीछे बु के ारा शनैः -शनै : मनको वषय च नसे र हत करनेक

चे ा करे और इसीके साथ -साथ धैयवती बु के ारा उसे परमा ाम त करता रहे। परमा ाके त और रह को न जाननेके कारण जस बु म ाभा वक ही आस , संशय और म रहते है , वह बु न र होती है और न धैयवती ही होती है। और ऐसी बु अपना भाव डालकर मनको परमा ाके ानम र भी नह कर सकती। क ु स ंग ारा परमा ाके त और रह को समझकर जब बु र हो जाती है , तब वह वगको वषय न करके परमा ाम ही रमण करती है। उस समय उसक म एक परमा ाके सवा और कु छ भी नह रह जाता। तब वह मनको भलीभाँ त वषय से हटाकर उसे परमा ाके च नम नयु करके मश : उसे

तदाकार कर देती है। यही धैययु बु के ारा मनका परमा ाम त कर देना है। – परमा ाके सवा और कु छ भी च न न करे – इसका ा भाव है ? उ र – मन जबतक परमा ाम न होकर सवथा त पू नह होता अथात् जबतक परमा ाक ा नह हो जाती , तबतक मनका ेय व ुम (परमा ाम ) ही नर र लगे रहना न त नह है। इसी लये ती अ ासक आव कता होती है। अतएव भगवान् का यहाँ यह भाव तीत होता है क साधक जब ान करने बैठे और अ ासके ारा जब उसका मन परमा ाम र हो जाय , तब फर ऐसा सावधान रहे क जसम मन एक णके लये भी परमा ासे हटकर दसू रे

वषयम न जा सके । साधकक यह सजगता अ ासक ढ़ताम बड़ी सहायक होती है। त दन ान करते -करते - अ ास बढ़े , -ही - मनको और भी सावधानीके साथ कह न जाने देकर वशेष पसे वशेष कालतक परमा ाम र रखे। – ानके समय मनको परमा ाके पम कै से लगाना चा हये ? उ र – पहले बतलाये ए कारसे अ ास करता आ साधक एका म बैठकर ानके समय मनको सवथा न वषय करके एकमा परमा ाके पम लगानेक चे ा करे। मनम जस कसी व ुक ती त हो , उसको क नामा जानकर तुरंत ही ाग दे।

इस कार च म ु रत व ुमा का ाग करके मश : शरीर , इ य , मन और बु क स ाका भी ाग कर दे। सबका अभाव करते -करते जब सम पदाथ च से नकल जायँगे , तब सबके अभावका न य करनेवाली एकमा वृ रह जायगी। यह वृ शुभ और शु है, पर ु ढ़ धारणाके ारा इसका भी बाध करना चा हये या सम पंचका अभाव हो जानेके बाद यह अपने -आप ही शा हो जायगी ; इसके बाद जो कु छ बच रहता है, वही अ च त है। वह के वल है और सम उपा धय से र हत अके ला ही प रपूण है। उसका न कोई वणन कर सकता है, न च न। अतएव इस कार - पंच और शरीर , इ य , मन , बु और अहंकारका

अभाव करके , अभाव करनेवाली वृ का भी अभाव करके अ च त म त होनेक चे ा करनी चा हये।

मनको परमा ाम र करके परमा ाके सवा अ कु छ भी च न न करनेक बात कही गयी ; पर ु य द कसी साधकका च पूवा ासवश बलात् वषय क ओर चला जाय तो उसे ा करना चा हए ? इस ज ासापर कहते ह – यतो यतो न र त मन लम रम् । तत तो नय ैतदा ेव वशं नयेत् ॥२६॥ स



यह र न रहनेवाला और चंचल मन जस - जस श ा द वषयके न म से संसारम वचरता है, उस - उस वषयसे रोककर यानी हटाकर इसे बार - बार परमा ाम ही न करे॥२६॥

है ?



इस ोकका ा अ भ ाय

उ र – मन बड़ा ही अ र और चंचल है, यह सहजम कह भी र नह होना चाहता। फर नये अ ाससे तो यह बार -बार भागता है। साधक बड़े य से मनको परमा ाम लगाता है , वह सोचता है मन परमा ाम लगा है; पर ु णभरके बाद ही देखता है तो पता चलता है, न मालूम वह कहाँ

– कतनी

दरू चला गया। इस लये पछले ोकम कहा है क साधक सावधान रहे और परमा ाको छोड़कर इसे दसू रा च न करने ही न दे ; पर ु सावधान रहते -रहते भी जरा -सा मौका पाते ही यह चटसे नकल जायगा और ऐसा नकलकर भागेगा क कु छ देरतक तो पता ही न चलेगा क यह कब और कहाँ गया। परमा ाको छोड़कर वषय क ओर भागकर जानेम अ ान तो असली कारण है ही , जससे मो हत होकर यह आन और शा के अन समु स दान घन परमा ाको छोड़कर अ न , णभंगुर और दःु खजनक वषय म दौड़ -दौड़कर जाता है और उनम रमता है; पर ु उसक अपे ा अ गौण होनेपर भी साधनक से धान कारण है –' वषय

-च

नका चरकालीन अ ास '। इस लये भगवान् . कहते ह क ानके समय साधकको ही पता चले क मन अ वषय म गया , ही बड़ी सावधानी और ढ़ताके साथ बना कसी मुला हजेके तुरंत उसे पकड़कर लावे और परमा ाम लगावे। य बार -बार वषय से हटा -हटाकर उसे परमा ाम लगानेका अ ास करे। मन चाहे हजार अनुनय - वनय करे , चाहे जैसी खुशामद करे और चाहे जतना लोभ , ेम या डर दखावे , उसक एक भी न सुने। उसे कु छ भी ढलाई मली क उसक उ ृ ंखलता बढ़ी। इस अव ाम मनक बात सुनकर उसे जरा भी कह कने देना रोगीको मोहवश कु प देकर या ब ेको पैनी छुरी स पकर उसे हाथसे खो देनेके समान ही होता

है। सावधानी ही साधना है। साधक य द इस अव ाम असावधान और अश हो रहेगा तो उसका ानयोग सफल नह होगा। अतएव उसे खूब सावधान रहना चा हये और मनको पुनः -पुन : वषय से हटाकर परमा ाम लगाना चा हये। – पछले ोकम और इसम दोन म ही 'आ ा ' श का अथ 'परमा ा ' कया गया है। इसका ा कारण है ? उ र – यहाँ आ ा और परमा ाके अभेदका करण है। इसी बातको करनेके लये 'आ ा ' श का अथ 'परमा ा ' कया गया है।

च को सब ओरसे हटाकर एक परमा ाम ही र करनसे ा होगा, इसपर कहते ह – शा मनसं ेनं यो गनं सुखमु मम् । उपै त शा रजसं भूतमक षम् ॥२७॥ स



क जसका मन भली कार शा है, जो पापसे र हत है और जसका रजोगुण शा हो गया है, ऐसे इस स दान घन के साथ एक भाव ए योगीको उ म आन ा होता है॥२७॥

वाचक ?

– ' शा मनसम् '

पद कसका

उ र – ववेक और वैरा के भावसे वषय - च न छोड़कर चंचलता तथा व ेपसे र हत होकर जसका च सवथा र और सु स हो गया है तथा इसके फल प जसक परमा ाके पम अचल त हो गयी है ऐसे योगीको ' शा मना : ' कहते ह। – 'अक षम् ' का ा अथ है ?

उ र – मनु को अधोग तम ले जानेवाले जो तमोगुण और तमोगुणके काय प माद , आल , अ त न ा , मोह , दगु ुण , दरु ाचार आ द जतने भी 'मल ' पी दोष ह, सभीका समावेश 'क ष ' श म कर लेना चा हये। इस क ष अथात् पापसे जो सवथा र हत है वही 'अक ष ' है।

– यहाँ 'अक

षम् ' पदका अथ पु कम ' दोन से

य द 'पापकम और सकाम र हत मान तो कोई हा न है ? उ र – सकाम पु कम का अभाव 'शा रजसम् ' पदम आ जाता है, इस लये 'अक षम् ' पदसे के वल पापकमका अभाव मानना चा हये। – 'शा रजसम् ' पद कसका वाचक है ? उ र – आस , ृहा, कामना , लोभ , तृ ा और सकामकम – इन सबक रजोगुणसे ही उ होती है (१४।७ ,१२ ), और यही रजोगुणको बढ़ाते भी है। अतएव जो पु ष इन सबसे र हत है, उसीका वाचक

पद है। चंचलता प व ेप भी रजोगुणका ही काय है, पर ु उसका वणन ' शा मनसम् ' म आ गया है। इससे यहाँ पुन : नह बतलाया गया। – ' भूतम् ' का ा अथ है ? उ र – म देह नह , स दान घन ँ – इस कारका अ ास करते -करते साधकक स दान घन परमा ाम ढ़ त हो जाती है। इस कार अ भ भावसे म त पु षको ' भूत ' कहते है। – यह ' भूतम् ' पद साधकका वाचक है या स पु षका ? उ र – ' भूतम् ' पद उ ेणीके अभेदमाग य साधकका वाचक है। ऐसे 'शा रजसम् '

साधकके रजोगुण और तमोगुण तो शा हो गये ह , पर ु वह गुण से सवथा अतीत नह हो गया है। वह अपनी से तो के पम ही त है, पर ु व ुत : को ा नह है। इस कार के पम ढ़ त हो जानेपर शी ही त ानके ारा क ा हो जाती है। इसी कारण अगले ोकम इस तका फल 'आ क सुखक ा ' बतलाया गया है। यह 'आ क सुखक ा ' ही क ा है। पाँचव अ ायके चौबीसव ोकम भी इसी अथम ' भूतः ' पद आया है और वहाँ उसका फल ' नवाण क ा ' बतलाया गया है। अठारहव अ ायके चौवनव ोकम भी ' भूत ' पु षको पराभ (त ान ) क

ा बतलाकर उसके अन र परमा ाक ा बतलायी गयी है (१८।५५ )। अतएव यहाँ ' भूतम् ' पद स पु षका वाचक नह है। – 'उ म सुखक ा ' से ा अ भ ाय है ? उ र – तमोगुण और रजोगुणसे अतीत शु स म त साधकके न व ानान घन परमा ाके ानम अ भ भावसे त हो जानेपर उसे जो ानज नत सा क आन मलता है, उसीको यहाँ 'उ म सुख ' कहा गया है। पाँचव अ ायके इ सवके पूवा म जसे 'सुख ' कहा गया है तथा चौबीसव ोकम जसे

'अ

ःसुख ' कहा गया है उसीका पयायवाची श यहाँ ' उ म सुख ' है।

परमा ा ा अभेद पसे ान करनेवाले भूत योगीक त बतलाकर, अब उसका फल बतलाते ह – यु ेवं सदा ानं योगी वगतक षः । सुखेन सं शम ं सुखम ुते ॥२८॥ स



वह पापर हत योगी इस कार नर र आ ाको परमा ाम लगाता आ सुखपूवक पर परमा ाक ा प अन आन का अनुभव करता है॥२८॥

– ' वगतक षः ' वशेषणके साथ यहाँ 'योगी ' श कसका वाचक है ?

उ र – पछले ोकम 'अक षम् ' का जो अथ कया गया है , वही अथ ' वगतक षः ' का है। ऐसा पापर हत उ ेणीका साधक , जो अभेदभावसे परमा ाके पका ान करता है , उसीको यहाँ 'योगी ' बतलाया गया है। – इस कार आ ाको नर र परमा ाम लगानेका ा भाव है ? उ र – पहले पचीसव ोकम बतायी ई री तसे के च नसे र हत होकर ढ़ न यके साथ साधकका नर र अभेद पसे परमा ाम त हो जाना अथात् प बना

रहना ही उपयु लगाना हे।

कारसे आ ाको परमा ाम

बारहव अ ायके पाँचव ोकम तो परमा ाक ा प नगुण वषयक ग तका दःु खपूवक ा होना बतलाया गया है और यहाँ ऐसा कहा गया है क 'अ पर क ा सुखपूवक हो जाती है ' इसम ा कारण है ? उ र – जसको 'म देह ँ ' ऐसा देहा भमान है , उसको अ वषयक ग तका ा होना सचमुच अ क ठन है , बारहव अ ायम 'देहव ः ' श से देहा भमानीको ल करके ही वैसा कहा गया है। परंतु यहाँके साधकके लये पूव - ोकम ' भूत ' होनेक –

बात कहकर भगवान् ने कर दया है क जब सां योगका साधक देहा भमानसे र हत होकर म त हो जाता है , जब साधकम देहा भमान नह रहता , उसक के पम अभेद पसे त हो जाती है तब उसको क ा सुखपूवक होती ही है। अतएव अ धका रभेदसे दोन ही ल का कथन सवथा उ चत है। – पर परमा ाक ा प अन आन का अनुभव करता है –इस कथनका ा अ भ ाय है ? उ र – जगत् म जतने भी बड़े -से -बड़े सुख माने जाते ह , वा वम उनम स ा सुख कोई है ही नह । क उनम एक भी

ऐसा नह है , जो सबसे बढ़कर महान् हो और न एक -सा बना रहे। इसीसे ु त कहती है –

यो वै भूमा त ुखं ना े सुखम , भूमैव सुखं भूमा ेव व ज ा सत : । (छा ो –उ० ७।२३।१ ) 'जो भूमा (महान्

नर तशय ) है , वही सुख है , अ म सुख नह है। भूमा ही सुख है और भूमाको ही वशेष पसे जाननेक चे ा करनी चा हये '। 'अ ' और 'भूमा ' ा है , इसको बतलाती ई ु त फर कहती है – ना

य ना त ना जाना त स भूमाऽथ य ा

ृ णो त -

ृ णो तदमृतमथ यद ७।२४।१ )

जाना त तद ं यो वै भूमा ं त म्। (छा ो -उ०

'जहाँ अ को नह देखता , अ को नह सुनता , अ को नह जानता , वह भूमा है और जहाँ अ को देखता है , अ को सुनता है , अ को जानता है , वह अ है। जो भूमा है, वही अमृत है और जो अ है , वह मरणशील (न र ) है। '

जो आज है और कल न हो जायगा , वह तो यथाथम सुख ही नह है। पर ु य द उसको कसी अंशम सुख मान भी तो वह अ ही तु और नग है। मह ष या व सुख का तुलना क ववेचन करते

ए कहते ह – सम भूम लका सा ा , मनु लोकका पूण ऐ य और ी , पु , धन , जमीन , ा , स ान , क त आ द सम भो पदाथ जसको ा ह , वह मनु म सबसे बढ़कर सुखी है ; क मनु का यही परम आन है। उससे सौ गुना पतृलोकका आन है, उससे सौ गुना ग वलोकका आन है , उससे सौगुना अपने कमफलसे देवता बने ए लोग का आन है , उससे सौगुना आजान देवता का आन है, उससे सौगुना जाप तलोकका आन है और उससे सौगुना लोकका आन है। वही पापर हत अकाम ो यका परम आन है क तृ ार हत ो य - लोक ही है (बृहदार क -उ० ४।३।३३ )। जो को सा ात् ा है

उसको तो वह अन असीम अ च आन ा है, जसक कसीके साथ तुलना ही नह हो सकती। ऐसा वह नर तशय आन पर परमा ाको ा पु षका अपना प ही होता है। यही इस कथनका अ भ ाय है। इसी अन आन मय आन को इ सव ोकम 'आ क सुख ' और पाँचव अ ायके इ सव ोकम 'अ य सुख ' बतलाया गया है।

इस कार अभेदभावसे साधन करनेवाले सां योगीके ानका और उसके फलका वणन करके अब उस साधकके वहारकालक तका वणन करते ह – स



सवभूत मा ानं सवभूता न चा न । ई ते योगयु ा ा सव समदशनः ॥२९॥

सव ापी अन चेतनम एक भावसे त प योगसे यु आ ावाला तथा सबम समभावसे देखनेवाला योगी आ ाको स ूण भूत म त और स ूण भूत को आ ाम क

त देखता है॥२९॥ [21] – 'योगयु

ा ा'

पद कसका

वाचक है ? उ र – स दान , नगुण - नराकार म जसक अ भ भावसे त हो गयी है, ऐसे ही भूत योगीका वाचक यहाँ

पद है। इसीका वणन पाँचव अ ायके इ सव ोकम ' योगयु ा ा ' के नामसे तथा पाँचवके चौबीसव , छठे के स ाईसव और अठारहवके चौवनव ोकम ' भूत ' के नामसे आ है। – ऐसे योगीका सबम समभावसे देखना ा है ? उ र – पांचव अ ायके अठारहव और इसी अ ायके ब ीसव ोक म ानी महा ाके समदशनका वणन आया है, उसी कारसे यह योगी सबके साथ शा ानुकूल यथायो सद् वहार करता आ न - नर र सभीम अपने पभूत एक ही अख 'योगयु

ा ा'

चेतन आ ाको देखता है। यही उसका सबम समभावसे देखना है। – आ ाको सब भूत म त और सब भूत को आ ाम क त देखना ा है ? उ र – एक अ तीय स दान घन पर परमा ा ही स त है , उनसे भ यह स ूण जगत् कु छ भी नह है। इस रह को भलीभाँ त समझकर उनम अ भ भावसे त होकर जो के वगम ा पु षक भाँ त चराचर स ूण ा णय म एक अ तीय आ ाको ही अ ध ान पम प रपूण देखना है अथात् 'एक अ तीय आ ा ही इन सबके पम दीख रहा है, वा वम उनके सवा अ

कु छ है ही नह । ' इस बातको जो भलीभाँ त अनुभव करना है यही स ूण भूत म आ ाको देखना है। इसी तरह जो सम चराचर ा णय को आ ाम क त देखना है यानी जैसे से जगा आ मनु के जगत् को या नाना कारक क ना करनेवाला मनु क त को अपने ही संक के आधारपर अपनेम देखता है वैसे ही देखना , स ूण भूत को आ ाम क त देखना है। इसी भावको करनेके लये भगवान् ने आ ाके साथ 'सवभूत म् ' वशेषण देकर आ ाको भूत म त देखनेक बात कही , कतु भूत को आ ाम त देखनेक बात न कहकर के वल देखनेके लये ही कहा।

इस कार सां योगका साधन करनेवाले योगीका और उसक सव समदशन प अ म तका वणन करनेके बाद अब भ योगका साधन करनेवाले योगीक अ म तका और उसके सव भगव शनका वणन करते हँ – यो मां प त सव सव च म य प त। त ाहं न ण ा म स च मे न ण त ॥३०॥ स



जो पु ष स ण भूत म सबके आ प मुझ वासुदेवको ही ापक देखता है और स ूण भूत को मुझ वासुदेवके अ गत देखता है, उसके लये म अ नह

होता और वह मेरे लये अ ३०॥ –स

नह होता ॥

ूण भूत म वासुदेवको और वासुदेवम स ूण भूत को देखना ा है ? उ र – जैसे बादलम आकाश और आकाशम बादल है, वैसे ही स ूण भूत म भगवान् वासुदेव ह और वासुदेवम स ूण भूत ह – इस कार अनुभव करना ही ऐसा देखना है। – ऐसा देखना काय -कारणक से है या ा - ापकक अथवा आधेय -आधारक से ? उ र – सभी य से ऐसा देखा जा सकता है ; क बादल म आकाशक भाँ त भगवान् वासुदेव ही इस स ूण चराचर संसारके

महाकारण ह , वही सबम ा ह और वही सबके एकमा आधार ह। – वे परमे र आकाशक भाँ त स ूण चराचर संसारके महाकारण कै से ह और सव ापी तथा सवाधार कस कार ह ? उ र – 'आकाशा ायु :, वायोर ः, अ ेरापः '

(तै

रीय - उ० २।१ ) इस ु तके अनुसार आकाशसे वायु , वायुसे तेज और तेजसे जल प बादलक उ ई। आकाश पंच महाभूत म पहला और इन सबका कारण है। इसक उ का मूलकारण पर रासे कृ त है, कृ त ही परमे रक अ ताम सबक रचना करती है ; और वह कृ त परमे रक

एक श - वशेष है, इस लये यह परमे रसे भ नह है। इस से स ूण चराचर जगत् उ से उ होता है। अतएव वे ही इसके महाकारण ह। भगवान् ने यं भी कहा है – अहं सव भवो मत : सव वतते। (१०। ८ )

'म सबको उ

करनेवाला ँ और मेरे सकाशसे ही सब चे ा करते ह। ' इसी कार जैसे आकाश बादल के सभी अंश म सवथा प रपूण - ा है, वैसे ही परमे र सम चराचर संसारम ा ह। 'मया तत मदं सव जगद मू तना ' (९। ४ ) 'मुझ अ मू त परमा ासे यह सारा जगत् ा है। '

और जैसे बादल का आधार आकाश है , आकाशके बना बादल रह ही कहाँ ? एक बादल ही – वायु , तेज , जल आ द कोई भी भूत आकाशके आ य बना नह ठहर सकता। वैसे ही इस स ूण चराचर व के एकमा परमाधार परमे र ही ह ( १०। ४२ )। – सम जगत् म भगवान् के साकार - पको और भगवान् के साकार पम सम जगतको कै से देखा जा सकता है ? उ र – जस कार एक ही चतुर ब पया नाना कारके वेष धारण करके आता है और जो उस ब पयेसे और उसक बोलचाल आ दसे प र चत है, वह सभी प म उसे पहचान लेता है, वैसे ही सम जगत् म

जतने भी प ह , सब ीभगवान् के ही वेष ह। हम उ पहचानते नह ह , इसीसे उनको भगवान् से भ समझकर उनसे डरते -सकु चाते ह , तथा उनक सेवा नह करना चाहते ; जो सम जगत् के सब ा णय म उनको पहचान लेते ह, वे चाहे वेष - भेदके कारण बाहरसे वहारम भेद रख परंतु दयसे तो उनक पूजा ही करते ह। हमारे पता या यतम ब ु कसी भी पम आव , य द हम उ पहचान लेते ह तो फर ा उनके सेवा -स ारम कु छ ु ट रखते ह ? इसी लये गो ामी तुलसीदासजी महाराजने कहा – ' सीय राममय सब जग जानी। ' ' करउँ नाम जो र जुग पानी॥ '

जैसे ीबलदेवजीने जम बछड़ , गोप - बालक और उनक सब साम य म ीकृ के दशन कये थे , [22] और जैसे जगो पयाँ अपनी ेमक आँ ख से सवदा और सव ीकृ को देखा करती थ , [23] वैसे ही भ को सव भगवान् ीकृ , राम , व ु शंकर , श आ द जो प जसका इ हो , उसी भगवान् के साकार पके दशन करने चा हये। यही भगवान् के साकार पको सम जगत म देखना है। इसी कार , जैसे अजुनने भगवान् ीकृ के द शरीरम [24] , यशोदा मैयाने

बालक प भगवान् ीकृ के मुखम [25] और भ काकभुशु जीने भगवान् ीरामके उदरम [26] सम व को देखा था वैसे ही भगवान् के कसी भी पके अ गत सम व को देखना चा हये। यही भगवान् के सगुण पम सम जगत् को देखना है। – उसके लये म अ नह होता और वह मेरे लये अ नह होता , इस कथनका ा अ भ ाय है ? उ र – पहले के उ रके अनुसार जो सम जगत् म भगवान् को और भगवान् म सब जगत् को देखता है उसक से भगवान् कभी ओझल नह होते और वह भगवान् क

से कभी ओझल नह होता। अ भ ाय यह है क सौ य , माधुय , ऐ य , औदाय आ दके अन समु , रसमय और आन मय भगवान् के देव - दलु भ स दान पके सा ात् दशन हो जानेके बाद भ और भगवान् का संयोग सदाके लये अ व हो जाता है। – भगवान् के सगुण साकार पके दशनका साधन आर म कस कार करना चा हये और उस साधनक अ म त कै सी होती है ? उ र – सबसे पहली बात है – सगुण साकार पम ा होना। सगुण साकार पके उपासकको यह न य करना होगा क 'मेरे इ देव सवश मान् और सव प र ह; वे ही

नगुण -सगुण सब कु छ ह। ' य द साधक अपने इ क अपे ा अ कसी भी पको ऊँ चा मानता है तो उसको अपने इ क उपासनासे सव फल नह मल सकता। इसके बाद , भगवान् के जस पम अपनी इ बु ढ़ हो उसक कसी अपने मनके अनुकूल मू त या च पटको स ुख रखकर और उसम और चेतन -बु करके अ ा और ेमके साथ उसक व धवत् पूजा करनी चा हये और वन - ाथना तथा ान आ दके ारा उ रो र ेम बढ़ाते रहना चा हये। पूजाके समय ढ़ ाके ारा साधकको ऐसी ती त करनी चा हये क भगवान् क मू त जड -मू त नह है , वरं ये सा ात् चलते - फरते , हँ सते -बोलते और खाते -पीते चेतन भगवान् ह। य द

साधकक ा स ी होगी , तो उस व हम ही उसके लये भगवान् का चेतन अचावतार हो जायगा और नाना कारसे अपनी भ व लताका प रचय देकर साधकके जीवनको सफल और आन मय बना देगा। [27] इसके बाद भगव ृ पासे उसको अपने इ के दशन भी हो सकते है। दशनके लये कोई न त समयक अव ध नह है। साधकक उ ा और भगव ृ पापर नभरता , जैसी और जस प रमाणम होती है उसीके अनुसार शी या वल से उसे दशन हो सकते ह। दशन होनेके बाद भगव ृ पासे चाहे जब और चाहे जहाँ – सवदा और सव दशन भी हो सकते ह। सा ात्

भगव शन होनेपर साधकक कै सी त होती है , इसको तो वही जानता है , जसे दशन ए ह , दसू रा कु छ भी नह बता सकता। साकार भगवान् के दशन सव ह – इसके लये जो साधन कये जाते ह , उसक एक णाली यह भी है क जस पम अपना इ भाव हो , उसके व हक या च पटक उपयु कारसे पूजा तो करनी ही चा हये। साथ ही एका म त दन नयमपूवक उसके ानका अ ास करके च म उस पक ढ़ धारणा कर लेनी चा हये। कु छ धारणा हो जानेपर एका ानम बैठकर और आँ ख खुली रखकर आकाशम मान सक मू तक रचना करके उसे देखनेका अ ास करना चा हये। भगव ृ पाका आ य करके व ास , ा और

न यके साथ बार -बार ऐसा अ ास कया जायगा तो कु छ ही समयके बाद आकाशम इ क सवागपूण हँ सती -बोलती ई -सी मू त दीखने लगेगी। यह अ ास -सा बात है। च क वृ तय को अपने इ पके आकारवाली बना देनेका अ ास स हो जानेपर जब कभी भी उ पका अन च न होगा , तभी साधक जहाँ चाहेगा वह आँ ख के सामने इ का प कट हो सकता हे। इस अ ासके ढ़ हो जानेपर चलते - फरते वृ , बेल , मनु , पशु , प ी आ द जो भी पदाथ दीख , मनके ारा उनके पको हटाकर उनक जगह इ मू तक ढ़ धारणा करनी चा हये। ऐसा करते -करते यहाँतक हो सकता है क साधक ेक व ुम , उस

व ुके ानम अपने इ क मान सक मू तके दशन अनायास ही कर सकता है। इसके बाद भगव ृ पासे उसे भगवान् के वा वक दशन भी हो सकते ह और फर वह और यथाथ पम सव भगवान् को देख सकता है।

भगव शनसे भगवान् के सा ा ारक बात कहकर उस भगवत् ा पु षके ल ण और मह का न पण करते ह – सवभूत तं यो मां भज ेक मा तः । सवथा वतमानोऽ प स योगी म य वतते ॥३१॥ स

– सव

जो पु ष एक भावम त होकर स ूण भूत म आ पसे त मुझ स दान घन वासुदेवको भजता है, वह योगी सब कारसे बरतता आ भी मुझम ही बरतता है॥३१॥ – एक भावम

?

त होना ा है

उ र – सवदा और सव अपने एकमा इ देव भगवान् का ान करते -करते साधक अपनी भ तको सवथा भूलकर इतना त य हो जाता है क फर उसके ानम एक भगवान् के सवा और कु छ रह ही नह जाता। भगव ा प ऐसी तको भगवान् म एक भावसे त होना कहते ह।

भजना

– ा है ?

सब भूत म

त भगवान् को

उ र – जैसे भाप , बादल , कु हरा , बूँद और बफ आ दम सव जल भरा है, वैसे ही स ूण चराचर व म एक भगवान् ही प रपूण ह – इस कार जानना और देखना ही सब भूत म त भगवान् को भजना है। इस कार भजन करनेवाले पु षको भगवान् ने सव म महा ा कहा है (७। ११ )। – वह योगी सब कारसे बरतता आ भी मुझम ही बरतता है इस कथनका ा भाव है ? उ र – जस पु षको भगवान् ीवासुदेवक ा हो गयी है उसको

पसे सब कु छ वासुदेव ही दखलायी देता है। ऐसी अव ाम उस भ के शरीर , वचन और मनसे जो कु छ भी याएँ होती ह , उसक म सब एकमा भगवान् के ही साथ होती ह। वह हाथ से कसीक सेवा करता है तो वह भगवान् क ही सेवा करता है, कसीको मधुरवाणीसे सुख प ँ चाता है तो वह भगवान् को ही सुख प ँ चाता है, कसीको देखता है तो वह भगवान् को ही देखता है, कसीके साथ कह जाता है तो वह भगवान् के साथ भगवान् क ओर ही जाता है। इस कार वह जो कु छ भी करता है सब भगवान् म ही और भगवान् के ही साथ करता है। इसी लये यह कहा गया है क वह सब कारसे बरतता आ (सब कु छ करता आ ) भी भगवान् म ही बरतता है।

सब भगवान् ही ह , इस कारका अनुभव हो जानपर उसके ारा लोको चत यथायो वहार कै से हो सकते ह –

?

उ र – छूरी , कची , कड़ाही , तार , स कचे , हथौड़े तलवार और बाण आ दम एक लोहेका अनुभव होनेपर भी जैसे उन सबका यथायो वहार कया जाता है वैसे ही भगव ा भ के ारा सव और सबम भगवान् को देखते ए ही सबके साथ शा ानुकूल यथायो वहार हो सकता है। अव ही साधारण मनु के और उसके वहारम ब त बड़े मह का अ र हो जाता है। साधारण मनु के ारा दसू र के साथ बड़ी सावधानीसे ब त अ ा वहार कये जानेपर

भी उनम भगवद् बु न होकर परबु होनेसे तथा छोटा या बड़ा अपना कु छ -न -कु छ ाथ होनेसे उसके ारा ऐसा वहार होना स व है , जससे उनका अ हत हो जाय ; परंतु सव सबम भगव शन होते रहनेके कारण उस भ के ारा तो ाभा वक ही सबका हत ही होता है। उसके ारा ऐसा कोई काय कसी भी अव ाम नह बन सकता , जससे व ुत : कसीका क चत् भी अ हत होता हो। [28] – यहाँ भगवान् के सब कारसे बरतता आ आ द वा का य द यह अथ मान लया जाय क 'वह अ ा -बुरा , पाप -पु , सब कु छ करता आ भी मुझम ही बरतता है ' तो ा आप हे ?

उ र – ऐसा अथ नह माना जा सकता , क भगवत् - ा ऐसे महा ा पु षके ारा पापकम तो हो ही नह सकते। भगवान् ने कहा है क 'सम अनथ का मूल कारण महापापी काम है ' (३।३७ ) और 'इस कामनाक उ आस से होती हे ' (२।६२ ), एवं 'परमा ाका सा ा ार हो जानेके बाद इस रस पी आस का सवथा अभाव हो जाता है ' (२।५९ )। ऐसी अव ाम भगव ा पु षके ारा न ष कम (पाप ) का होना स व नह है। इसके सवा भगवान् के इन वचन के अनुसार क ' े पु ष ( ानी ) जैसा आचरण करता है , अ ा लोग भी उसीका अनुसरण करते है ' (३।२१ ), ानीपर ाभा वक ही एक दा य आ जाता है , इस

कारणसे भी उसके ारा पापकम का बनना स व नह है।

इस कार भ योग ारा भगवान् को ा ए पु षके मह का तपादन करके अब सां योग ारा परमा ाको ा ए पु षके समदशनका और मह का तपादन करते ह – आ ौप ेन सव समं प त योऽजुन । सुखं वा य द वा दःु खं स योगी परमो मतः ॥३२॥ स



हे अजुन ! जो योगी अपनी भाँ त स ूण भूत म सम देखता है और सुख अथवा

दःु खको भी सबम सम देखता है, वह योगी परम े माना गया है॥३२॥ –

अपनी भाँ त स ूण भूत म

सम देखना ा है ? उ र – जैसे मनु अपने सारे अंग म अपने आ ाको समभावसे देखता है , वैसे ही स ूण चराचर संसारम अपने -आपको समभावसे देखना – अपनी भाँ त स ूण भूत म सम देखना है। – चराचर स ूण संसारम सुख -दःु खको अपनी भाँ त सम देखना ा है ? उ र – जस कार अपने सारे अंग म आ भाव समान होनेके कारण मनु उनम होनेवाले सुख -दःु ख को समानभावसे देखता है

उसी कार स ूण चराचर संसारम आ भाव समान हो जानेके कारण जो उनम तीत होनेवाले सुख -दःु खको समानभावसे देखना है , वही अपनी भाँ त सबके सुख -दःु खको सम देखना है। अ भ ाय यह है क सव आ हो जानेके कारण सम वराट व उसका प बन जाता है। जगत् म उसके लये दसू रा कु छ रहता ही नह । इस लये जैसे मनु अपने -आपको कभी कसी कार जरा भी दःु ख प ँ चाना नह चाहता तथा ाभा वक ही नर र सुख पानेके लये ही अथक चे ा करता रहता है और ऐसा करके न वह कभी अपनेपर अपनेको कृ पा करनेवाला मानकर बदलेम कृ त ता चाहता है , न कोई अहसान करता है ओर न अपनेको 'कत - परायण ' समझकर ,

अ भमान ही करता है , वह अपने सुखक चे ा इसी लये करता है क उससे वैसा कये बना रहा ही नह जाता , यह उसका सहज भाव होता है ; ठीक वैसे ही वह योगी सम व को कभी कसी कार क चत् भी दःु ख न प ँ चाकर सदा उसके सुखके लये सहज भावसे ही चे ा करता है। (पा ा जगत् म , 'सम संसारके लोग अपनेको पर र भाई समझने लग ' यह ' व - ब ु का ' स ा ब त ऊँ चा माना जाता है और व ुत : यह ऊँ चा है भी। कतु भाई -भाईम ाथक भ तासे कसी -न - कसी अंशम कलह होनेक स ावना रहती ही है ; पर जहाँ आ भाव है – यह भाव है क 'वह मै ही ँ ' वहाँ ाथभेद नह रह सकता और

ाथभेदके नाशसे पर र कलहक कोई आशंका नह रह सकती। गीताक श ाको आज पा ा जगत् के व ान् भी इ सब स ा के कारण सबसे ऊँ ची मानने लगे ह। ) – ऐसे परमा ा योगी महापु षको सम चराचर जगत् के सुख -दःु खका वा वम अनुभव होता है अथवा के वल ती तमा होती है ? उ र – न अनुभव ही कह सकते ह और न ती त ही। जब उसक म एकस दान घन परमा ाके सवा दसू री कसी व ुका अ ही नह रह गया , तब दसू रा अनुभव तो कस बातका होता ' और के वल ती तमा ही होती तो उसके ारा दःु ख

न प ँ चाने और सुख प ँ चानेक चे ा ही कै से बनती ' अतएव उस समय उसका व ुत : ा भाव और कै सी होती है, इसको वही जानता है। वाणीके ारा उसके भाव और कोणको नह कया जा सकता। फर भी समझनेके लये यह कहा जा सकता है क उसको परमा ासे भ कसी व ुका कभी अनुभव नह होता , लोक म के वल ती तमा होती है ; तथा प उसके काय बड़े ही उ म , सु ंखल और सु व त होते ह। – य द वा वम अनुभव नह होता तो फर लोक म तीत होनेवाले दःु ख क नवृ के लये उसके ारा चे ा कै से होती है ?

उ र – यही तो उसक वशेषता है। कायका स ादन उ म -से -उ म पम हो परंतु न तो उसके लये यथाथम उन काय क स ा ही हो और न उसका उनम कु छ योजन ही रहे। तथा प ूल पम समझनेके लये ऐसा कहा जा सकता है क जैसे ब त -से छोटे ब े खेलते - खेलते तु और नग कं कड़ -प र , म ीके ढेल अथवा तनक के लये आपसम लड़ने लग और अ ानवश एक -दस ू रेको चोट प ँ चाकर दःु खी हो जायँ तथा जैसे उनके इस झगडे़को सवथा थ और तु समझनेपर भी बु मान् पु ष उनके बीचम आकर उ अ ी तरह समझाव -बुझाव , उनक अलग -अलग बात सुन और उनक दःु ख नवृ के लये बड़ी ही बु मानीके साथ

चे ा कर , वैसे ही परमा ा योगी पु ष भी दःु खम पड़े ए व क दःु ख नवृ के लये चे ा करते ह। जन महापु ष का जगत् के धन , मान , त ा , क त आ द कसी भी व ुसे कु छ भी योजन नह रहा , जनक म कु छ भी ा करना शेष नह रहा और व ुत : जनके लये एक परमा ाको छोड़कर अ कसीक स ा ही नह रह गयी , उनक अकथनीय तको कसी भी ा के ारा समझना अस व है; उनके लये कोई भी लौ कक ा पूणाशम लागू पड़ता ही नह । ा तो कसी एक अंश - वशेषको ल करानेके लये ही दये जाते ह। – 'योगी ' के साथ 'परम : ' वशेषण देनेका ा अ भ ाय है ?

उ र – 'परम : ' वशेषण देकर भगवान् यह सू चत करते ह क यहाँ जस 'योगी ' का वणन है , वह साधक नह है , ' स ' योगी है। यह रण रखना चा हये क परमा ाको ा पु षम – चाहे वह कसी भी मागसे ा आ हो – 'समता ' अ आव क है। भगवान् ने जहाँ -जहाँ परमा ाको ा पु षका वणन कया हे , वहाँ 'समता ' को ही धान ान दया है। कसी पु षम अ ा ब त -से सद् गुण ह , परंतु य द 'समता ' न हो , तो यही समझना चा हये क उसे परमा ाक ा अभी नह ई है; क समताके बना राग - ेषका आ क अभाव और स ूण ा णय म सहज सु दताका भाव नह हो सकता। जनको

'समता '

योगी ह।

ा है वे ही परमा ाको ा



भगवान् के समतास ी उपदेशको सुनकर अजुन मनक चंचलताके कारण उसम अपनी अचल त होना ब त क ठन समझकर कह रहे ह – अजुन उवाच । योऽयं योग या ो ः सा ेन मधुसूदन । एत ाहं न प ा म च ल ाि त राम् ॥३३॥ स



अजुन बोले – हे मधुसूदन ! जो यह योग आपने समभावसे कहा है, मनके चंचल

होनेसे म इसक न ँ ॥३३॥

तको नह देखता

– 'अयं योग : ' 'योग ' कहा गया है ?

से कौन -सा

उ र – कमयोग , भ योग , ानयोग या ानयोग आ द साधन क पराका ा प समताको ही यहाँ 'योग ' कहा गया है। – इस 'योग ' से यहाँ ' ानयोग ' नह माना जा सकता , क मनक चंचलता तो ानयोगम ही बाधक है ? उ र – अ ाईसव ोकतकके करणको देखते ए तो ानयोग मानना ही ठीक है , परंतु इकतीसव और ब ीसव

ोक का वणन भगव ा पु ष क वहारदशाका है और अजुनका 'सम ' के ल से कया आ है, इससे यहाँ योगका अथ 'सम योग ' माना गया है। – इस 'समता ' क र तम मनक चंचलताको बाधक माना गया है ? उ र – 'चंचलता ' च के व ेपको कहते ह , व ेपम धान कारण ह – राग - ेष ; और जहाँ राग - ेष ह वहाँ 'समता ' नह रह सकती। क 'राग - ेष ' से 'समता ' का अ वरोध है। इसी लये 'समता ' क तम मनक चंचलताको बाधक माना गया है।

सम योगम मनक चंचलताको बाधक बतलाकर अब अजुन मनके न हको अ क ठन बतलाते ह – च लं ह मनः कृ मा थ बलवद् ढम् । त ाहं न हं म े वायो रव सुदु रम् ॥३४॥ स



क हे ीकृ ! यह मन बड़ा चंचल , मथन भाववाला , बड़ा ढ़ और बलवान् है। इस लये उसका वशम करना म वायुके रोकनेक भाँ त अ द ु र मानता ँ ॥३४॥

पछले

चंचलताक बात तो अजुन ोकम कह ही चुके ह, यहाँ उसीको –

फरसे कहनेका ा कारण है ? उ र – वहाँ अजुनने 'सम ' योगक र तम मनक चंचलताको बाधक बतलाया था , इससे ाभा वक ही उनसे कहा जा सकता था क 'मनको वशम कर लो , चंचलता दरू हो जायगी '; पर ु अजुन मनको वशम करना अ क ठन समझते ह, इसी लये उ ने यहाँ पुन : मनको चंचल बतलाया है। – 'मन ' के साथ ' मा थ ' वशेषण देनेका ा कारण है ? उ र – इससे अजुन कहते ह क मन दीप शखाक भाँ त चंचल तो है ही , परंतु मथानीके स श मथनशील भी है। जैसे दधू

-दहीको

मथानी मथ डालती है वैसे ही मन भी शरीर और इ य को बलकु ल ु कर देता है। – दस ू रे अ ायके साठव ोकम इ य को मथनशील बतलाया है, यहाँ मनको बतलाते ह। इसका ा कारण है ?

उ र – वषय के संगसे दोन ही एक -दस ू रेको ु करनेवाले ह और दोन मलकर तो बु को भी ु कर डालते ह (२।६७ )। इसी लये दोन को ' माथी ' कहा गया है। – मनको 'बलवत् ' बतलाया गया है ?

उ र –इसी लये बतलाया गया है क यह र न रहकर सदा इधर -उधर भटकनेवाला और शरीर तथा इ य को बलो डालनेवाला तो है ही , साथ ही यह उ गजराजक भाँ त बड़ा बलवान् भी है। जैसे बड़े परा मी हाथीपर बार - बार अंकुश - हार होनेपर भी कु छ असर नह होता , वह मनमानी करता ही रहता है वैसे ही ववेक पी अंकुशके ारा बार -बार हार करनेपर भी यह बलवान् मन वषय के बीहड़ वनसे नकलना नह चाहता। – मनको ढ़ बतलानेका ा भाव है ? उ र – यह चंचल , माथी और बलवान् मन त ुनाग (गोह ) के स श अ

ढ़ भी है। यह जस वषयम रमता है उसको इतनी मजबूतीसे पकड़ लेता है क उसके साथ तदाकार -सा हो जाता है। इसको ' ढ़ ' बतलानेका यही भाव है। – मनको वशम करना म वायुके रोकनेक भाँ त अ दु र मानता ँ – अजुनके इस कथनका ा अ भ ाय है ? उ र – इससे अजुन यह कहते ह क जो इतना चंचल और दधु ष है , उस मनको रोकना मेरे लये अ ही क ठन है। इसी क ठनताको स करनेके लये वे वायुका उदाहरण देकर बतलाते ह क जैसे शरीरम नर र चलनेवाले ासो ास पी वायुके वाहको हठ , वचार , ववेक और बल आ द

साधन के ारा रोक लेना अ क ठन है , उसी कार म इस वषय म नर र वचरनेवाले , चंचल , मथनशील , बलवान् और ढ़ मनको रोकना भी अ क ठन समझता ँ । – 'कृ ' स ोधनका ा अ भ ाय है ? उ र –   भ के च को अपनी ओर आक षत करनेके कारण भी भगवान् का नाम 'कृ ' है। अजुन इस स ोधनके ारा मानो यह ाथना कर रहे ह क 'हे भगवन् ! मेरा यह मन बड़ा ही चंचल है , म अपनी श से इसको वशम करना अ क ठन समझता ँ और आपका तो ाभा वक गुण ही है मनको बरबस अपनी ओर ख च लेना। आपके लये

यह आसान काम है। अतएव कृ पा करके मेरे मनको भी आप अपनी आकृ कर ली जये! '

मनो न हके स म अजुनक उ को ीकार करते ए भगवान् मनको वशम करनेके उपाय बतलाते ह – ीभगवानुवाच । असंशयं महाबाहो मनो दु न हं चलम् । अ ासेन तु कौ ेय वैरा ेण च गृ ते ॥ ६-३५॥ [29] स



ीभगवान् बोले - हे महाबाहो ! नःस ेह मन चंचल और क ठनतासे वशम होनेवाला है ; परंतु हे कु ीपु अजुन ! यह अ ास और वैरा से वशम होता है॥३५॥

नःस ेह मन चंचल और क ठनतासे वशम होनेवाला है – भगवान् के इस कथनका ा अ भ ाय है ? उ र – इससे भगवान् अजुनक उ का समथन करके मनक चंचलता और उसके न हक क ठनताको ीकार करते ह। – यहाँ 'तु ' ा भाव है ? उ र – य प मनका वशम होना बड़ा क ठन है , परंतु अ ास और वैरा से यह सहज ही वशम हो सकता है। यही दखलाने और आ ासन देनेके लये 'तु ' का योग कया गया है। – अ ास ा है ? –

उ र – मनको कसी ल - वषयम तदाकार करनेके लये , उसे अ वषय से ख च -ख चकर बार -बार उस वषयम लगानेके लये कये जानेवाले य का नाम ही अ ास है। यह संग परमा ाम मन लगानेका है , अतएव परमा ाको अपना ल बनाकर च वृ य के वाहको बार -बार उ क ओर लगानेका य करना यहाँ 'अ ास ' है। [30] – च वृ य को परमा ाक ओर लगानेका अ ास कै से करना चा हये ? उ र – परमा ा ही सव प र , सवश मान् , सव र और सबसे बढ़कर एकमा परमत ह तथा उ को ा करना जीवनका परम ल है – इस बातक ढ़

धारणा करके अ ास करना चा हये। अ ासके अनेक कार शा म बतलाये गये ह। उनमसे कु छ ये ह – (१ ) ा और भ के साथ धैयवती बु क सहायतासे मनको बार -बार स दान घन म लगानेका अ ास करना (६।२६ )। (२ ) जहाँ मन जाय , वह सवश मान् अपने इ देव परमे रके पका च न करना। (३ ) भगवान् क मानसपूजाका अ ास करना। (४ ) वाणी , ास , नाडी , क और मन आ दमसे कसीके भी ारा ीराम , कृ ,

शव , व ,ु सूय , श आ दके कसी भी अपने परम इ के नामको परम ेम और ाके साथ पर परमा ाका ही नाम समझकर न ामभावसे उसका नर र जप करना। (५ ) शा के भगवत् -स ी उपदेश का ा और भ के साथ बार -बार मनन करना और उनके अनुसार य करना। (६ ) भगव ा महा ा पु ष का संग करके उनके अमृतमय वचन को ा -भ पूवक सुनना और तदनुसार चलनेक चे ा करना (१३।२५ )। (७ ) मनक चंचलताका नाश होकर वह भगवान् म ही लग जाय , इसके लये

दयके स े कातरभावसे बार -बार भगवान् से ाथना करना। इनके अ त र और भी अनेक कार है। परंतु इतना रण रखना चा हये क अ ास तभी सफल होगा , जब वह अ आदर -बु से , ा और व ासपूवक बना वरामके लगातार और लंबे समयतक कया जायगा। [31] आज एक साधनम मन लगानेक चे ा क , कल दसू रा कया , कु छ दन बाद और कु छ करने लगे , कह भी व ास नह जमाया ; आज कया , कल नह , दो -चार दन बाद फर कया , फर छोड़ दया ; अथवा कु छ समय करनेके बाद जी ऊब गया , धीरज

जाता रहा और उसे ाग दया। इस कारके अ ाससे सफलता नह मलती। – वैरा का ा प है ? उ र – इस लोक और परलोकके स ूण पदाथ मसे जब आस और सम कामना का पूणतया नाश हो जाता है तब उसे 'वैरा ' कहते ह। [32] वैरा वान् पु षके च म सुख या दःु ख दोन हीसे कोई वशेष वकार नह होता। वह उस अचल और अटल आ रक अनास या पूण वैरा को ा होता है जो कसी भी हालतम उसके च को कसी ओर नह खचने देता। – 'वैरा ' कै से हो सकता है ?

उ र – वैरा के अनेक साधन ह, उनमसे कु छ ये ह – (१ ) संसारके पदाथ म वचारके ारा रमणीयता , ेम और सुखका अभाव देखना। (२ ) उ ज -मृ ु , जरा , ा ध आ द दःु ख , दोष से यु , अ न और भयदायक मानना। (३ ) संसारके और भगवान् के यथाथ त का न पण करनेवाले सत् -शा का अ यन करना। (४ ) परम वैरा वान् पु ष का संग करना , संगके अभावम उनके वैरा पूण च और च र का रण -मनन करना।

टूटे ए वशाल महल , वीरान ए नगर और गाँव के खँडहर को देखकर जगत् को णभंगुर समझना। (६ ) एकमा क ही अख अ तीय स ाका बोध करके अ सबक भ स ाका अभाव समझना। (७ ) अ धकारी पु ष के ारा भगवान् के अकथनीय गुण , भाव , त , ेम , रह तथा उनक लीला -च र का एवं द सौ य -माधुयका बार -बार वण करना , उ जानना और उनपर पूण ा करके मु होना। इसी कारके और भी अनेक साधन ह। (५ ) संसारके

मनको वशम करनेके लये अ ास और वैरा दोन ही साधन क आव कता है या एकसे भी मन वशम हो सकता है ? उ र – दोन क आव कता है। 'अ ास ' च नदीक धाराको भगवान् क ओर ले जानेवाला सु र माग है और 'वैरा ' उसक वषया भमुखी ग तको रोकनेवाला बाँध है। परंतु यह रण रखना चा हये क ये दोन एक -दसू रेके सहायक ह। अ ाससे वैरा बढ़ता है और वैरा से अ ासक वृ होती है। अतएव एकका भी अ ी तरह आ य लेनेसे मन वशम हो सकता है। –

यहाँ अजुनको 'महाबाहो ' स ोधन कस लये दया गया हे ? उ र – अजुन व व ात वीर थे। देव , दानव और मनु – सभी े णय के महान् यो ा को अजुनने अपने बा बलसे परा कया था। यहाँ भगवान् उनको इस वीरताका रण कराकर मानो उ ा हत कर रहे ह क 'तु ारे जैसे अतुल परा मी वीरके लये मनको इतना बलवान् मानकर उससे डरना और उ ाह छोड़ना उ चत नह है। साहस करो , तुम उसे जीत सकते हो। ' –

भगवान् ने मनको वशम करनेके उपाय बतलाये। यहाँ यह ज ासा स



होती है क मनको वशम न कया जाय तो ा हा न है ? इसपर भगवान् कहते ह – असंयता ना योगो दु ाप इ त मे म तः । व ा ना तु यतता श ोऽवा ुमुपायतः ॥३६॥ जसका मन वशम कया आ नह है, ऐसे पु ष ारा योग द ु ा है और वशम कये ए मनवाले य शील पु ष ारा साधनसे उसका ा होना सहज है – यह मेरा मत है॥३६॥

मनको वशम न करनेवाले पु षके ारा इस सम योगका ा होना अ क ठन है ? –

उ र – जो अ ास और वैरा के ारा अपने मनको वशम नह कर लेते , उनके मनपर राग - ेषका अ धकार रहता है और राग - ेषक ेरणासे वह बंदरक भाँ त संसारम ही इधर उधर उछलता -कू दता रहता है। जब मन भोग म इतना आस होता है तब उसक बु भी ब शाखावाली और अ र ही बनी रहती है (२।४५ -४४)। ऐसी अव ाम उसे 'सम योग ' क ा कै से हो सकती है ? इसी लये ऐसा कहा गया है। – वशम हो जानेपर मनके ा ल ण होते ह ? उ र – वशम हो जानेपर इसक चंचलता , मथनशीलता , बलव ा और

क ठन आ हका रता दरू हो जाती है। सीधे , सरल , शा और अनुगत श क भाँ त यह इतना आ ाकारी हो जाता है क फर जब , जहाँ और जतनी देरतक इसे लगाया जाय , यह चुपचाप लग जाता है। न वहाँ लगनेम जरा भी आनाकानी करता है, न इ य क बात सुनकर कह जाना चाहता है, न अपनी इ ासे हटता है, न ऊबता है और न उप व ही मचाता है। बड़ी शा के साथ इ व ुम इतना घुल - मल जाता है क फर सहजम यह भी पता नह लगता क इसका अलग अ भी है या नह । यही मनका वा वम वशम होना है। – 'तु ' के योगका ा भाव है ?

उ र – मनको वशम न करनेवाले पु षसे , वशम करनेवालेक वल णता दखलानेके लये ही उसका योग कया गया है। – मनको वशम कर चुकनेवाले पु षको ' य शील ' होनेके लये कहनेका ा भाव है ? उ र – मनके वशम हो जानेके बाद भी य द य न कया जाय – उस मनको परमा ाम पूणतया लगानेका ती साधन न कया जाय ; तो उससे सम योगक ा अपने आप नह हो जाती। अत : ' य ' क आव कता स करनेके लये ही ऐसा कहा गया है।

मनके वशम हो जानेपर सम प योगक ा के साधन ा ह ? उ र – अनेक साधन ह, उनमसे कु छ ये ह – (१ ) कामना और स ूण वषय को ागकर ववेक और वैरा से यु , प व , र और परमा मुखी बु के ारा मनको न - नर र व ानान घन परमा ाके पम लगाकर उसके सवा और कसीका भी च न न करना (६।२५ )। (२ ) स ूण चराचर जगत् के बाहर भीतर , ऊपर -नीचे , सब ओर एकमा सव ापक न व ानान घन परमा ाको ही प रपूण देखना , अपने स हत सम –

पंचको भी परमा ाका ही प समझना और जैसे आकाशम त बादल के ऊपर , नीचे , बाहर , भीतर एकमा आकाश ही प रपूण हो रहा है तथा वह आकाश ही उसका उपादान कारण भी है वैसे ही अपने स हत इस सारे ा को सब ओरसे परमा ाके ारा ओत - ोत और परमा ाका ही प समझना (१३।१५ )। (३ ) शरीर , इ य और मन ारा संसारम कु छ भी या हो रही है, वह गुण के ारा ही हो रही है, अथात् इ याँ अपने -अपने अथ म बरत रही ह, ऐसा समझकर अपनेको सब या से सवथा पृथक् ा – सा ी समझना और न व ानान घन परमा ाम अ भ भावसे त होकर सम बु के ारा

अपने उस नराकार अन चेतन पके अंतगत संक के आधारपर त वगको णभंगुर देखना (५।८ -९ ; १४।१९ )। (४ ) भगवान् के ीराम , कृ , शव , व ु , सूय , श या व प आ द कसी भी पको सव प र सवा यामी , सव ापी , सव , सवश मान् एवं परम दयालु , ेमा द परमा ाका ही प समझकर अपनी चके अनुसार उनके च पट या तमाक ापना करके अथवा मनके ारा अपने दयम या बाहर , भगवान् को के स श न य करके , अ तशय ा और भ के साथ नर र उनम मन लगाना तथा प -पु -फला दके ारा अथवा अ ा

उ चत कार से उनक सेवा -पूजा करना एवं उनके नामका जप करना। (५ ) स और अ स म समभाव रखते ए , आस एवं फले ाका ाग करके शा व हत कत -कम का आचरण करना (२।४८ )। (६ ) ा -भ पूवक सब कु छ भगवान् का समझकर के वल भगवान् के लये ही य , दान , तप और सेवा आ द शा ो कम का आचरण करना (१२।१० )। (७ ) स ूण कम को एवं अपने -आपको भगवान् म अपण करके , ममता और आस से र हत होकर नर र भगवान् का रण करते ए, कठपुतलीक भाँ त; भगवान्

जैसे भी , जो कु छ भी कराव , स ताके साथ करते रहना (१८। ५७) इनके सवा और भी ब त -से साधन ह तथा जो साधन मनको वशम करनेके बतलाये गये ह मनके वशम होनेके बाद , ा और ेमके साथ परमा ाक ा के उ े से करते रहनेपर उनके ारा भी सम योगक ा हो सकती है।

योग स के लये मनको वशम करना परम आव क बतलाया गया। इसपर यह ज ासा होती है क जसका मन वशम नह है कतु योगम ा होनेके कारण जो भगव ा के लये साधन करता है, उसक स



मरनेके बाद ा ग त होती हे? इसीके लये अजुन पूछते ह – अजुन उवाच । अय तः योपेतो योगा लतमानसः । अ ा योगसं स कां ग त कृ ग त ॥३७॥ अजुन बोले – हे ीकृ ! जो योगम ा रखनेवाला है, कतु संयमी नह है, इस कारण जसका मन अ कालम योगसे वच लत हो गया है , ऐसा साधक योगक स को अथात् भगव ा ा ारको न ा होकर कस ग तको ा होता है॥ ३७॥

यहाँ 'अय तः ' का अथ ' य - र हत ' न करके 'असंयमी ' कया गया ? उ र – पछले ोकम जसका मन वशम नह है उस 'असंयता ा ' के लये योगका ा होना क ठन बतलाया गया है। वही बात अजुनके इस का बीज है। इसके सवा , ालु पु ष ारा य न होनेक शंका भी नह होती ; इसी कार वशम कये ए मनके वच लत होनेक भी शंका नह क जा सकती। इ सब कारण से ' य न करनेवाला ' अथ न करके ' जसका मन जीता आ नह है ' ऐसे साधकके ल से 'असंयमी ' अथ कया गया है। –

यहाँ 'योग ' श कसका वाचक है , उससे मनका वच लत हो जाना ा है ? एवं ायु मनु के मनका उस योगसे वच लत हो जानेम ा कारण है? उ र – यहाँ 'योग ' श परमा ाक ा के उ े से कये जानेवाले सां योग , भ योग , ानयोग , कमयोग आ द सभी साधन से होनेवाले समभावका वाचक है। शरीरसे ाण का वयोग होते समय जो समभावसे या परमा ाके पसे मनका वच लत हो जाना है , यही मनका योगसे वच लत हो जाना है और इस कार मनके वच लत होनेम मनक चंचलता , आस , कामना , शरीरक पीड़ा और बेहोशी आ द ब त -से कारण हो सकते ह। –

पद कस स का वाचक है और उसे न ा होना ा है ? उ र – सब कारके योग के प रणाम प समभावका फल जो परमा ाक ा है उसका वाचक यहाँ 'योगसं स म् ' पद है तथा मरणकालम समभाव प योगसे या भगवान् के पसे मनके वच लत हो जानेके कारण परमा ाका सा ात् न होना ही उसे ा न होना है। – यहाँ 'योगसे वच लत होने ' का अथ मृ ुके समय समतासे वच लत हो जाना न मानकर य द अजुनके का यह अ भ ाय मान लया जाय क 'जो साधक – 'योगसं स

म् '

कमयोग , ानयोग आ दका साधन करते -करते उस साधनको छोड़कर वषयभोग म लग जाता है , उसक ा ग त होती है ?' तो ा हा न है ? उ र – अजुनके का उ र देते समय भगवान् ने मरनेके बादक ग तका वणन कया है और उस साधकके दसू रे ज क ही बात कही है , इससे यह हो जाता है क यहाँ अजुनका मृ ुकालके स म ही है। इसके सवा 'ग त ' श भी ाय : मरनेके बाद होनेवाले प रणामका ही सूचक है , इससे भी यहाँ अ कालका करण मानना उ चत जान पड़ता है। क ोभय व ा मव न त।

अ त ो महाबाहो वमूढो प थ ॥ ३८॥

णः

हे

महाबाहो ! ा वह भगव ा के मागम मो हत और आ यर हत पु ष छ - भ बादलक भाँ त दोन ओरसे होकर न तो नह हो जाता ? ॥ ३८॥

भगव ा के मागम मो हत होना एवं आ यर हत होना ा है? उ र – मनक चंचलता तथा ववेक और वैरा क कमीके कारण भगव ा के साधनसे मनका वच लत हो जाना और फलत : परमा ाक ा न होना तथा फलक कामनाका ाग कर देनेके कारण शुभकमके –

फल प गा द लोक का न मलना ही पु षका भगव ा के मागम मो हत एवं आ यर हत होना है। – छन - भ बादलक भाँ त उभय होकर न हो जानेका ा भाव है ? उ र – यहाँ अजुनका अ भ ाय यह है क जीवनभर फले ाका ाग करके कम करनेसे गा द भोग तो उसे मलते नह और अ समयम परमा ाक ा के साधनसे मन वच लत हो जानेके कारण भगव ा भी नह होती। अतएव जैसे बादलका एक टुकड़ा उससे पृथकृ होकर पुन : दसू रे बादलसे संयु न होनेपर न - हो जाता है , वैसे ही वह साधक गा द लोक और परमा ा -दोन क

ा से वं चत होकर न तो नह हो जाता यानी उसक कह अधोग त तो नह होती ? स – इस कार शंका उप त करके अब अजुन उसक नवृ के लये भगवान् से ाथना करते ह – एत े संशयं कृ छे ुमह शेषतः । द ः संशय ा छे ा न पु प ते ॥३९॥ है ीकृ ! मेरे इस संशयको स ूण पसे छे दन करनेके लये आप ही यो ह, क आपके सवा दस ू रा इस संशयका छे दन करनेवाला मलना स व नह है॥३१॥



अजुनके इस कथनका

ीकरण क जये ? उ र – यहाँ अजुन मृ ुके बादक ग त जानना चाहते ह। यह एक ऐसा रह है जसका उद् घाटन बु और तकके बलपर कोई नह कर सकता। इसको वही जान सकते ह जो कमके सम प रणाम , सृ के स ूण नयम और सम लोक के रह से पूण प र चत ह । लोक -लोका र के देवता , सव वचरण करनेक साम वाले ऋ ष -मु न और तप ी तथा व भ लोक क घटनाव लय को देख और जान सकनेक साम वाले योगी कसी अंशतक इन बात को जानते ह ; परंतु उनका ान भी सी मत ही होता है। इसका पूण रह तो सबके एकमा ामी ीभगवान् ही

जानते ह। भगवान् ीकृ के भावको अजुन पहलेसे ही जानते थे। फर भगवान् ने अभी -अभी जो चौथे अ ायम अपनेको 'ज के जाननेवाले ' (४।५ ), 'अज ा , अ वनाशी तथा सब ा णय के ई र ' (४।६ ), 'गुणकमानुसार सबके रच यता ' (४।१३ ) और पाँचव अ ायके अ म 'सब लोक के महान् ई र ' बतलाया , इससे भगवान् ीकृ के परमे र म अजुनका व ास और भी बढ़ गया। इसीसे वे यह कहकर क – 'आपके सवा मुझे दसू रा कोई नह मल सकता जो मेरे इस संशयको पूण पसे न कर सके , इस संदेहका समूल नाश करनेके लये तो आप ही यो ह ' – भगवान् म अपना व ास कट करते ए ाथना कर रहे ह क आप सवा यामी , सव

सवश मान् , स ूण मयादा के नमाता और नयं णकरता सा ात् परमे र ह। अन को ट ा के अन जीव क सम ग तय के रह का आपको पूरा पता है और सम लोक -लोका र क कालम होनेवाली सम घटनाएँ आपके लये सदा ही ह। ऐसी अव ाम योग पु ष क ग तका वणन करना आपके लये ब त ही आसान बात है। जब आप यं यहाँ उप त ह तो म और कससे पूछूँ और व ुत : आपके सवा इस रह को दसू रा बतला ही कौन सकता है ? अतएव कृ पापूवक आप ही इस रह को खोलकर मेरे संशयजालका छेदन क जये। ,

अजुनने यह बात पूछी थी क वह योगसे वच लत आ साधक उभय होकर न तो नह हो जाता ? भगवान् अब उसका उ र देते ह – ीभगवानुवाच । पाथ नैवेह नामु वनाश व ते । न ह क ाणकृ द् दगु त तात ग त ॥४०॥ स



ीभगवान् बोले – हे पाथ पु षका न तो इस लोकम नाश होता न परलोकम ही। क हे आ ो ारके लये अथात् भगव लये कम करनेवाला कोई भी दग ु ा तको ा नह होता॥४०॥

! उस है और ारे ! ा के मनु

योगसे वच लत ए साधकका इस लोक या परलोकम कह भी नाश नह होता , इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – वतमान तसे पतन हो जाना ही न होना है। अत : मरनेके बाद य द उसका ज इस मनु लोकम होता है तो यहाँ भी उसका पहलेक तसे पतन नह होता उ ान ही होता है। और य द गा द अ लोक म ज होता है तो वहाँ भी पतन नह होता , उ ान ही होता है। इस कारण उसका इस लोकम या परलोकम कह भी वनाश नह होता है। वह जहाँ रहता है वह परमा ाके मागम आगे ही बढ़ता रहता है। इससे भगवान् ने अजुनके उभय वषयक शंकाका सं ेपम –

उ र दया है। अ भ ाय यह है क वह न तो इस लोक या परलोकके भोग से वं चत रहता है और न योग स प परमा ा से ही वं चत रहता है। – ' ह ' अ य यहाँ कस अथम है और उसके साथ यह कहनेका क 'क ाणके लये साधन करनेवाले कसी भी मनु क दगु त नह होती ' ा अ भ ाय है ? उ र – ' ह ' अ य यहाँ हेतुवाचक है। और इसके स हत उपयु कथनसे भगवान् ने साधक को यह आ ासन दया है क जो साधक अपनी श के अनुसार ापूवक क ाणका साधन करता है, उसक कसी भी कारणसे कभी शूकर , कू कर , क ट , पतंग

आ द नीच यो नय क ा प या कु ीपाक आ द नरक क ा प दगु त नह हो सकती। – भगव ा के लये कम करनेवाला कोई भी पु ष दगु तको ा नह होता –ऐस कहा गया है क ु यह कर स व है; क मनु के पूवकृ त पाप तो रहते ही है। उसके फल प मृ ुके अन र उनक दगु त भी हो सकती हे ? उ र – पूवकृ त पाप रहते ए भी भगव ा के लये अथात् आ ो ारके लये कम करनेवाले कसीक भी दगु त नह होती यह ठीक ही है। मान ली जये एक पु ष ऋणी है ; उसको कसीके पये देने है परंतु वह

बेईमान नह है। उसके पास जो कु छ था , उसने सव अपने महाजनको दे दया है और जो कु छ भी कमाता है उसे भी शु नीयतसे देता आ रहा है और देना चाहता है , ऐसी अव ाम दयालु महाजन उसे कै द नह करवाता। जबतक उसक नीयत ठीक रहती है उसे अवकाश देता है। इसी कार भगवान् भी भगव ा के लये साधन करनेवाले पु षक शु भावना देखकर उसके पाप के फलको रोककर उसे साधन करके सब ब न से छूटनेका मौका देते ह। जब साधारण महाजन ही ऋणीको ऋण चुकानेके लये अवसर देते ह तब परमदयालु भगवान् साधकको ऐसा अवसर द – इसम आ य ही ा है।

राजा भरत तो आ ो ारके लये ही साधन करते थे तो भी उनको मरणके अन र ह रणक यो न ा ई – ऐसी बात पुराण म सुनी जाती हे। अत : य द ऐसा नयम है क क ाणके लये साधन करनेवाल क मरणके अन र दगु त नह होती तो भरतक के से ई ? उ र – भरत ब त अ े साधक थे इसम स ेह नह , परंतु दयाके कारण मोहवश एक ह रणके ब ेम उनक आस और ममता हो गयी। अत : अ कालम उनका ल छूट गया और ह रणके ब ेका च न बना रहा , इस लये उ ह रणक यो न ा ई; क अ कालम जसका च न रहता है उसे मनु अव ा होता है यह बल –

नयम है (८।६ )। उसका प रणाम भी होना ही चा हये , परंतु भरतको पशु -यो न ा होनेपर भी वह दगु त नह समझी जाती ; क पशु -यो नम भी उ पूवज का रण बना रहा और वे मोह , आस छोड़कर अ े -अ े साधक के समान परम ववेकसे यु रहे और सूखे प े खाते ए , संयमपूण प व जीवन बताकर दसू रे ही ज म ा णका शरीर ा करके पूवा ासके बलसे (६।४४ ) शी ही परम ग तको ा हो गये। इससे उपयु स ा म कोई बाधा नह आती। इस इ तहाससे तो यह श ा हण करनी चा हये क भगवत् - ा का ल कभी न छूटने पावे।

संसारम ऐसे ब त -से मनु देखे जाते ह जो क ाणके लये स ंग और भजन - ाना द साधन भी करते ह और उनके ारा पापकम भी होते रहते ह, उनक ा ग त होती है ? उ र – उनक भी दगु त नह होती ; क जनक शा म और महापु ष म ा होती है , उ इस बातपर पूण व ास हो जाता है क पाप के फल प भयानक दःु ख क और घोर नरक -य णा क ा होगी। इस लये वे भावदोषसे होनेवाले पाप से भी बचनेक चे ा करते रहते ह। साथ -ही -साथ भजन - ानका अ ास चालू रहनेसे उनके अ ःकरणक भी शु होती चली जाती है। ऐसी अव ाम उनके ारा जान -बूझकर पाप –

कये जानेका कोई खास कारण नह रह जाता। अतएव भाववश य द कोई पापाचारी होते ह तो स ंग और भजन - ानके भावसे वे भी पापाचरणसे छूटकर शी ही धमा ा बन जाते ह। उनका मश : उ ान ही होता है , पतन नह हो सकता (९। ३० -३१ )। – 'तात ' स ोधनका यहाँ ा अ भ ाय है ? उ र – 'तात ' स ोधन देकर भगवान् ने यहाँ अजुनको यह आ ासन दया है क 'तुम मेरे परम य सखा और भ हो , फर तु कस बातका डर है ? जब मेरी ा के लये साधन करनेवालेक भी दगु त नह होती , उसे

उ म ग त ही ा होती है , तब तु ारे लये तो कहना ही ा है ?'

पु षक दगु त तो नह होती फर उसक ा ग त होती है। यह जाननेक इ ा होनेपर भगवान् कहते ह – ा पु कृ तां लोकानु ष ा शा तीः समाः । शुचीनां ीमतां गेहे योग ोऽ भजायते ॥४१॥ स

– योग

योग पु ष पु वान के लोक को अथात् गा द उ म लोक को ा होकर , उनम ब त वष तक नवास करके फर शु आचरणवाले ीमान् पु ष के घरम ज लेता है॥४१॥

– 'योग

कसे कहते ह ? उ र – ानयोग , भ योग , ानयोग और कमयोग आ दका साधन करनेवाले जस पु षका मन व ेप आ द दोष से या वषयास अथवा रोगा दके कारण अ कालम ल से वच लत हो जाता है , उसे 'योग ' कहते ह। – यहाँ कहा गया है क योग पु ष पु वान के लोक को ा होता है और ीमान के घरम ज लेता है। इससे यह हो गया क वह नरका द लोक को और नीच यो नय को तो नह ा होता , पर ु पु वान के गा द लोक म तथा ध नय के घर म भोग क अ धकता होती है, इस कारण '

भोग म आस होकर भोग क ा के लये आगे चलकर उसका पापकम म वृ होना तो स व ही है। और य द ऐसा हो सकता है तो ये दोन ग तयाँ प रणामम उसके पतनम ही हेतु होती है , इस लये कारा रसे यह भी दगु त ही है ? उ र – मृ ुलोकसे ऊपर लोकतक जतने भी लोक ह , सभी पु वान के लोक ह। उनमसे योग पु ष योग पी महान् पु के भावसे ऐसे लोक म नह जाते , जहाँ वे भोग म फँ सकर दगु तको ा हो जायँ और न ऐसे अप व (हीन गुण ओर हीन आचरणवाले ) ध नय के घर म ही ज लेते ह जो उनक दगु तम हेतु ह । इसी लये ' ीमताम् ' के साथ 'शुचीनाम् '

वशेषण लगाकर प व शु े गुण और वशु आचरणवाले ध नय के घर ज लेनेक बात कही गयी है। अत : यह कारा रसे भी दगु त नह है। – ब त वष तक पु वान के लोक म रहनेम ा हेतु है ? उ र – भोग म आस ही उन लोक म ब त वष तक रहनेका कारण है ; क कम और उनके फलम ममता और आस रखना ही कमफलका हेतु बनना है (२।४७ )। अत : जस साधकके अ ःकरणम जतनी -सी आस छपी रहती है उतने ही समयतक उसे अपने शुभकम का फल भोगनेके लये वहाँ रहना पड़ता ह - जनम आस

अ धक होती है, वे अपे ाकृ त अ धक समयतक वहाँ रहते ह और जनम कम होती हे , वे कम समयतक। जनम भोगास नह होती , वे वैरा वान् योग तो वहाँ न जाकर सीधे यो गय के कु ल म ही ज लेते ह।

पु ष क ग त बतलाकर अब आस र हत उ ेणीके योग पु ष क वशेष ग तका वणन करते ह स



– साधारण योग

अथवा यो गनामेव कु ले भव त धीमताम् । एत दलु भतरं लोके ज यदी शम् ॥४२॥

अथवा वैरा वान् पु ष उन लोक म न जाकर ानवान् यो गय के ही कुलम ज लेता है। परंतु इस कारका जो यह ज है सो संसारम नःस ेह अ दल ु भ हे॥४२॥ – 'अथवा ' का कया गया है ?

योग कस लये

उ र – योग पु ष मसे जनके मनम वषयास होती है , वे तो गा द लोक म और प व ध नय के घर म ज लेते ह ; पर ु जो वैरा वान पु ष होते ह , वे न तो कसी लोकम जाते ह और न उ ध नय के घर म ही ज लेना पड़ता है। वे तो सीधे ानवान् स यो गय के घर म ही ज लेते

ह। पूवव णत योग से इ पृथकृ करनेके लये 'अथवा ' का योग कया गया है। – गा द पु लोक क ा तो सब योग को होनी ही चा हये। वहाँके सुख को भोगनेके बाद उनमसे कु छ तो प व ध नय के घर म ज लेते ह और कु छ यो गय के घर म। 'अथवा ' से य द यह भाव मान लया जाय तो ा आप है ? उ र – ऐसा मानना उ चत नह है। क जन पु ष का भोग म यथाथ वैरा है , उनके लये गा द लोक म जाकर ब त वष तक वहाँ नवास करना और भोग भोगना तो द के स श ही है। इस कार भगव ा म

वल होना वैरा का फल नह हो सकता। इस लये उपयु अथका मानना ही ठीक है। – यो गय के कु ल म ऐसे वैरा वान् पु ष ज लेते है , इससे स है क वे योगी अव ही गृह होते ह ; क ज गृह ा मम ही हो सकता है। और 'धीमताम् ' का अथ करते ए ऐसे यो गय को ानी बतलाया गया है , तो ा गृह भी ानी हो सकते ह ? उ र – भगव का यथाथ ान सभी आ म म हो सकता है। गीताम यह बात भलीभाँ त मा णत है (३।२०; ४।१९; १८।५६ )। अ ा शा म भी इसके अनेक उदाहरण मल सकते है। मह ष व स , या व ,

ास , जनक , अ प त और रै आ द महापु ष ने गृह ा मम रहते ए ही ान ा कया था। – 'यो गनाम् ' पदम आये ए योगी श का अथ ' ानवान् ' योगी न मानकर 'साधक योगी ' मान लया जाय तो ा आप है। उ र – ऐसा माननेसे 'धीमताम् ' श थ हो जायगा। इसके अ त र भगवान् ने 'दल ु भतरम् ' पदसे भी यह सू चत कया है क ऐसा ज प व ीमान के घर क अपे ा भी अ दलु भ है। अतएव यहाँ 'धीमताम् ' वशेषणसे यु 'यो गनाम् ' पदम आये ए

'योगी '

श का अथ ' ानवान् स योगी ' मानना ही ठीक है। – यो गय के कु लम होनेवाले ज को अ दलु भ बतलाया गया ? उ र – परमाथ साधन (योगसाधन ) क जतनी सु वधा यो गय के कु लम ज लेनेपर मल सकती है उतनी गम , ीमान के घरम अथवा अ कह भी नह मल सकती। यो गय के कु लम तदनुकूल वातावरणके भावसे मनु ार क जीवनम ही योगसाधनम लग सकता है , दसू री बात यह है क ानीके कु लम ज लेनेवाला अ ानी नह रहता , यह स ा ु तय से भी मा णत है। [33] य द महा ा पु ष क म हमा और

भावक से देखा जाय तो महा ा के कु लम ज होनेपर तो कहना ही ा है , महा ा का संग ही दलु भ , अग एवं अमोघ माना गया। [34] इसी लये ऐसे ज को अ दलु भ बतलाना उ चत ही है।

यो गकु लम ज लेनेवाले योग पु षक उस ज म जैसी प र त होती है, अब उसे बतलाते ह – त तं बु संयोगं लभते पौवदे हकम् । यतते च ततो भूयः सं स ौ कु न न ॥४३॥ स



वहाँ उस पहले शरीरम सं ह कये ए बु - संयोगको अथात् समबु प

योगके सं ार को अनायास ही ा हो जाता है और हे कु न न ! उसके भावसे वह फर परमा ाक ा प स के लये पहलेसे भी बढ़कर य करता है॥४३॥

यहाँ 'त ' पद के वल यो गय के कु लम ज का ही नदश करता है अथवा प व ीमान् एवं ानवान् योगी -दोन के घर म ज का ? उ र – पछले ही ोकम यो गकु लका वणन आ चुका है तथा उस कु लम ज लेनेम देवा द शरीर का वधान भी नह है। अतएव यहाँ 'त ' से यो गकु लका नदश मानना ही उ चत तीत होता है। –

तो ा प व ीमान के घर ज लेनेवाले साधक 'बु संयोग ' को ा नह होते ? उ र – वे भी पूवा ासके भाव ारा वषयभोग से हटाये जाकर भगवान् क ओर ख चे जाते ह – यह बात अगले ोकम क गयी है। – पहले शरीरम सं ह कये ए 'बु के संयोग ' को ा होना ा है ? उ र – कमयोग , भ योग , ानयोग और ानयोग आ द साधन मसे कसी भी साधन ारा जतना 'समभाव ' पूवज म ा हो चुका है उसका इस ज म –

अनायास ही जा त् हो जाना 'बु के संयोग ' को ा करना है। – 'तत : ' पदका यहाँ ा अ भ ाय है ? उ र – 'तत : '  पदके योगसे यहाँ यह भाव दखलाया गया है क यो गकु लम ज होने और वहाँ पूवसं ार से स हो जानेके कारण वह योग पु ष पुन : अनायास ही योगसाधनम लग जाता है।

ीमान के घरम ज लेनेवाले योग पु षक प र तका वणन करते ए योगको जाननेक इ ाका मह बतलाते है – स

– अब प व

पूवा ासेन तेनैव यते वशोऽ प सः । ज ासुर प योग श ा तवतते ॥४४॥

वह ीमान के घरम ज लेनेवाला योग पराधीन आ भी उस पहलेके अ ाससे ही न ेह भगवान् क ओर आक षत कया जाता है, तथा समबु प योगका ज ासु भी वेदम कहे ए सकामकम के फलको उ ंघन कर जाता है॥४४॥

यहाँ 'स : ' का अ भ ाय ीमान के घरम ज लेनेवाला योग माना गया ? –

उ र – यो गकु लम ज लेनेवाले वैरा वान् पु षके लये भोग के वश होनेक शंका नह हो सकती , अतएव उसके लये 'अवश :, अ प ' इन पद का योग अनुकूल नह जान पड़ता। इसके सवा यो गकु लम अनायास स ंग लाभ होनेके कारण , उसके लये एकमा पूवा ासको ही भगवान् क ओर आक षत होनेम हेतु बतलाना उपयु भी नह है। अतएव यह वणन ीमान के घरम ज लेनेवाले योग पु षके स म ही मानना उ चत तीत होता है। – यहाँ 'अवश : ' के साथ 'अ प ' के योगका ा अ भ ाय है ?

उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क य प प व सदाचारी धनवान का घर साधारण ध नय के घरक भाँ त भोग म फँ सानेवाला नह है, क ु वहाँ भी य द कसी कारणसे योग पु ष ी , पु , धन और मान -बड़ाई आ द भोग के वशम हो जाय , तो भी पूवज के अ ासके बलसे वह भगव ा के साधनक ओर लग जाता है। – 'पूवा ासेन ' पदके साथ 'एव ' के योगका ा अ भ ाय है ? उ र – भोग के वश ए पु षको वषय -जालसे छुड़ाकर भगवान् क ओर आक षत करनेम पूवज के अ ासके सं ार

ही धान हेतु ह , इसी अ भ ायसे 'पूवा ासेन ' पदके साथ 'एव ' का योग आ है। – ' ज ासु : ' के साथ 'अ प ' के योगका ा अ भ ाय है ? उ र – 'समबु प योग ' क शंसा करनेके लये यहाँ 'अ प ' का योग कया गया है। अ भ ाय यह है क जो योगका ज ासु है, योगम ा रखता है और उसे ा करनेक चे ा करता है, वह मनु भी वेदो सकामकमके फल प इस लोक और परलोकके भोगज नत सुखको पार कर जाता है तो फर ज ज ा रसे योगका अ ास करनेवाले योग पु ष के वषयम तो कहना ही ा है।

इस कार ीमान के घरम ज लेनेवाले योग क ग तका वणन करके तथा योगके ज ासुक म हमा बतलाकर अब यो गय के कु लम ज लेनेवाले योग क ग तका पुनः तपादन करते ह – य ा तमान ु योगी संशु क षः । अनेकज सं स तो या त परां ग तम् ॥४५॥ स



पर ु य पूवक अ ास करनेवाला योगी तो पछले अनेक ज के सं ारबलसे इसी ज म सं स होकर स ूण पाप से र हत हो फर त ाल ही परमग तको ा हो जाता है॥४५॥

– ?

यहाँ 'तु 'का ा अ भ ाय है

उ र – ीमान के घरम ज लेनेवाल क और योगके ज ासुक अपे ा यो गकु लम ज लेनेवाले योग पु षक ग तक वल णता दखलानेके लये ही 'तु ' का योग कया गया है। – 'योगी ' के साथ ' य ाद ् यतमान : ' वशेषण देनेका ा अ भ ाय है ? उ र – ततालीसव ोकम यह बात कही गयी है क यो गय के कु लम ज लेनेवाला योग पु ष उस ज म योग स क ा के लये अ धक य करता है। इस ोकम उसी योगीको

परमग तक ा बतलायी जाती है, इसी बातको करनेके लये यहाँ 'योगी ',के साथ ' य ाद ् यतमान : ' वशेषण दया गया है; क उसके य का फल वहाँ उस ोकम नह बतलाया गया था , उसे यहाँ बतलाया गया है। – 'अनेकज सं स : 'का ा अ भ ाय है ? उ र – ततालीसव ोकम यह बात कही गयी है क यो गकु लम ज लेनेवाला योग पूवज म कये ए योगा ासके सं ार को ा हो जाता है, यहाँ उसी बातको करनेके लये 'अनेकज सं स : ' वशेषण दया गया है। अ भ ाय यह है क

पछले अनेक ज म कया आ अ ास और इस ज का अ ास दोन ही उसे योग स क ा करानेम अथात् साधनक पराका ातक प ँ चानेम हेतु ह, क पूवसं ार के बलसे ही वह वशेष य के साथ इस ज म साधनका अ ास करके साधनक पराका ाको ा करता है। – 'संशु क ष : ' का ा भाव है ? उ र – जसके सम पाप सवथा धुल गये ह , उसे 'संशु क ष : ' कहते ह। इससे यह भाव दखलाया गया है क इस कार अ ास करनेवाले योगीम पापका लेश भी नह रहता।

– 'तत : ' का

ा भाव है ? उ र – 'तत : ' पद यहाँ त ात् के अथम आया है। इसका योग करके यह भाव दखलाया गया है क साधनक पराका ा प सं स को ा होनेके प ात् त ाल ही परमग तक ा हो जाती है, फर जरा भी वल नह होता। – 'परमग त ' क ा ा है ?

उ र – पर परमा ाको ा होना ही परमग तक ा है ; इसीको परमपदक ा , परमधामक ा और नै क शा क ा भी कहते है।

योग क ग तका वषय समा करके अब भगवान् योगीक म हमा कहते ए अजुनको योगी बननेके लये आ ा देते ह – तप ोऽ धको योगी ा न ोऽ प मतोऽ धकः । क म ा धको योगी त ा ोगी भवाजुन ॥४६॥ स



योगी तप य से े है, शा ा नय से भी े माना गया है और सकामकम करनेवाल से भी योगी े है ; इससे हे अजुन ! तू योगी हो॥४६॥

वाचक है ?



यहाँ 'तप ी ' श कसका

उ र – सकामभावसे धमपालनके लये इ य -संयमपूवक या का या वषय -भोग का ाग करके जो मन , इ य और शरीरस ी सम क को सहन कया जाता है वही 'तप ' है और उसे करनेवालेको यहाँ तप ी कहा गया है। – यहाँ ' ानी ' का ा अ भ ाय है ? उ र – यहाँ ' ानी ' न तो भगव ा त ानी पु षका वाचक है और न परमा ाक ा के लये ानयोगका साधन करनेवाले ानयोगीका ही वाचक है। यहाँ तो ' ानी ' के वल शा और आचायके उपदेशके अनुसार

ववेक -बु ारा सम पदाथ को समझनेवाले शा पु षका वाचक है। – 'यहाँ ' कम का ा अ भ ाय है ? उ र – य , दान , पूजा सेवा आ द शा व हत शुभकम को ी , पु , धन और गा दक ा के लये सकामभावसे करनेवालेका नाम 'कम ' ह। – जब तप ा करनेवाले और शा ान -स ादन करनेवाले भी सकामभावसे यु ही ह ; तब उ भी कम के अ गत ही मानना उ चत था ; पर ु ऐसा न मानकर उ अलग बतलाया गया ?

उ र – यहाँ 'कम 'का योग इतने ापक अथम नह आ है। सकामभावसे य -दाना द शा व हत या करनेवालेका नाम ही कम है। इसम याक ब लता है। तप ीम याक धानता नह , मन और इ यके संयमक धानता है और शा ानीम शा ीय बौ क आलोचनाक धानता है। भगवान् ने इसी वल णताको ानम रखकर ही कम म तप ी और शा ानीका अ भाव न करके उनका अलग नदश कया है। – इस ोकम 'योगी ' श का ा अ भ ाय है ?

उ र – ानयोग , ानयोग , भ योग और कमयोग आ द कसी भी साधनसे साधनक पराका ा प 'सम योग ' को ा ए पु षका नाम यहाँ ' योगी ' है। – ानयोग और कमयोग – ये दो ही न ाएं मानी गयी ह ; फर भ योग , ानयोग ा इनसे पृथक् है ? उ र – भ योग कमयोगके ही अ गत है। जहाँ भ धान कम होता है , वहाँ उसका नाम भ योग है और जहाँ कम धान है वहाँ उसे कमयोग कहते हँ । ानयोग दोन ही न ा म सहायक साधन है। वह अभेद -बु से कया जानेपर ानयोगम

और भेद -बु से कया जानेपर कमयोगम सहायक होता है।

पूव ोकम योगीको सव े बतलाकर भगवान् ने अजुनको योगी बननेके लये कहा। कतु ानयोग, ानयोग, भ योग और कमयोग आ द साधन मसे अजुन को कौन-सा साधन करना चा हए? इस बातका ीकरण नह कया। अत : अब भगवान् अपनेम अन ेम करनेवाले भ योगीक शंसा करते ए अजुनको अपनी ओर आक षत करते ह – यो गनाम प सवषां म तेना रा ना । ावा जते यो मां स मे यु तमो मतः ॥४७॥ स



स ूण यो गय म भी जो ावान् योगी मुझम लगे ए अ रा ासे मुझको नर र भजता है वह योगी मुझे परम े मा है॥४७॥

यहाँ 'यो गनाम् ' पदके साथ 'अ प ' के योगका और 'सवषाम् ' यह वशेषण देनेका ा अ भ ाय है ? उ र – चौथे अ ायम चौबीसवसे तीसव ोकतक भगव ा के जतने भी साधन य के नामसे बतलाये गये ह , उनके अ त र और भी भगव ा के जन - जन साधन का अबतक वणन कया गया है , उन सबक पराका ाका नाम 'योग ' होनेके कारण व भ साधन करनेवाले ब त कारके 'योगी ' –

हो सकते ह। उन सभी कारके यो गय का ल करानेके लये यहाँ 'यो गनाम् ' पदके साथ 'अ प ' पदका योग करके 'सवषाम् ' वशेषण दया गया है। – ' ावान् ' पु षके ा ल णह? उ र – जो भगवान् क स ाम , उनके अवतार म, उनके वचन म , उनके अ च ान द गुण म तथा नाम और लीलाम एवं उनक म हमा , श , भाव और ऐ य आ दम के स श पूण और अटल व ास रखता हो उसे ' ावान् ' कहते ह। – 'म तेन ' वशेषणके साथ 'अ रा ा ' पद कसका वाचक है ?

उ र – इससे भगवान् यह दखलाते है क मुझको ही सव े , सवगुणाधार , सवश मान् और महान् यतम जान लेनेसे जसका मुझम अन ेम हो गया है और इस लये जसका मन -बु प अ ःकरण अचल , अटल और अन भावसे मुझम ही त हो गया है , उस अ ःकरणको 'म त अ रा ा ' या मुझम लगा आ अ रा ा कहते ह। – यहाँ अन ेमसे भगवान् म त रहनेवाले मन -बु को ही 'मद् गत अ रा ा ' कहा गया है ? भय और ेष आ द कारण से भी तो मन -बु भगवान् म लग सकते ह ?

उ र – लग सकते ह और कसी भी कारणसे मन -बु के परमा ाम लग जानेका फल परम क ाण ही है। परंतु यहाँका संग ेमपूवक भगवान् म मन -बु लगानेका है ; भय और ेषपूवक नह । क भय आर ेषसे जसके मन -बु भगवान् म लग जाते ह , उसको न तो ावान् ही कहा जा सकता है और न परम योगी ही माना जा सकता है। इसके बाद सातव अ ायके आर म ही भगवान् ने 'म ास मना : ' कहकर अन ेमका ही संकेत कया है। इसके अ त र गीताम ान - ानपर (७।१७ ; ९।१४ ; १०।१० ) ेमपूवक ही भगवान् म मन -बु लगानेक शंसा क गयी है। अतएव यहाँ ऐसा ही मानना उ चत है।

यहाँ 'माम् ' पद भगवान् के सगुण पका वाचक है या नगुणका ? उ र – यहाँ 'माम् ' पद नर तशय ान , श , ऐ य , वीय और तेज आ दके परम आ य , सौ य , माधुय और औदायके अन समु , परम दयालु , परम सु द परम ेमी , द अ च ान प , न , स , अज और अ वनाशी , सवा यामी , सव , सवश मान् सव द गुणालंकृत , सवा ा , अ च मह से म हमा त च - व च लीलाकारी, लीलामा से कृ त ारा स ूण जगत् क उ , त और संहार करनेवाले तथा रससागर , रसमय , आन -क , सगुण - नगुण प सम पु षो मका वाचक है। –

– यहाँ 'भजते ' इस

यापदका

ा भाव है ? उ र – सब कार और सब ओरसे अपने मन -बु को भगवान् म लगाकर परम ा और ेमके साथ , चलते - फरते , उठते -बैठते , खाते -पीते , सोते -जागते , ेक या करते अथवा एका म त रहते , नर र ीभगवान् का भजन - ान करना ही 'भजते ' का अथ है। – वह मुझे परम े मा है – भगवान् के इस कथनका ा भाव है ? उ र – ीभगवान् यहाँपर अपने ेमी भ क म हमाका वणन करते ए मानो कहते ह क य प मुझे तप ी , ानी और कम

आ द सभी ारे ह और इन सबसे भी वे योगी मुझे अ धक ारे ह जो मेरी ही ा के लये साधन करते ह, परंतु जो मेरे सम पको जानकर मुझसे अन ेम करता है, के वल मुझको ही अपना परम ेमा द मानकर , कसी बातक अपे ा , आकां ा और परवा न रखकर अपने अ रा ाको दन -रात मुझम ही लगाये रखता है , मातृपरायण शशुक भाँ त जो मुझको छोड़कर और कसीको जानता ही नह , वह तो मेरे दयका परम धन है। अप - ेहसे जसका दय प रपूण है, जसको दन -रात अपने ारे ब ेक ओर देखते रहनेम ही न नया आन मलता है, ऐसी वा - ेहमयी अन माता के दय मेरे जस अ च ान ेममय दयसागरक एक बूँदके

बराबर भी नह ह, उसी अपने दयसे म उसक ओर देखता रहता ँ , और उसक ेक चे ा मुझको अपार सुख प ँ चानेवाली होती है। सारे जगत् को अना दकालसे जतने कारके जो -जो आन मलते आ रहे ह वे सब तो मुझ आन सागरक एक बूँदक भी तुलनाम नह आ सकते। ऐसा अन आन का अपार अ ु ध होकर भी म अपने उस 'म ता रा ा ' भ क चे ा देख -देखकर परम आन को ा होता रहता ँ । उसक ा बड़ाई क ँ ? वह मेरा अपना है, मेरा ही है, उससे बढ़कर मेरा यतम और कौन है ? जो मेरा यतम है, वही तो े है, इस लये मेरे मनम वही सव म भ है और वही सव म योगी है।

ॐत दत ीम गव ीतासूप नष ु व ायां योगशा े ीकृ ाजुनसंवादे आ संयमयोगो नाम ष ोऽ ायः ॥६॥

|| ॐ

ी परमा ने नमः ||

अथ स मोऽ ायः

ीम गव ीताके अठारह अ ाय म य प कमयोग, भ योग और ानयोगके मसे छ: - छ: अ ाय के तीन षट्क माने जाते ह, परंतु इसका अ भ ाय यह नह है क इन षट्क म के वल एक ही योगका वणन हो और दूसरेक चचा ही न आयी हो। जस षट्कम जस योगका धानतासे वणन होता है, उसीके अनुसार उसका नाम रख लया जाता ह। पहले षट्कका थम अ ाय तो ावना पम है, उसम तो इनमसे कसी भी योगका वषय नह है। दूसरेम ारहवसे तीसव ोकतक सां योग ( ानयोग) का वषय है, इसके बाद उनतालीसव ोकसे लेकर तीसरे अ ायके अ तक ाय: कमयोगका व ृत वणन है॥ चौथे और पाँचव अ ाय म कमयोग और ानयोगका मला आ वणन है तथा छठे अ ायम धान पसे ानयोगका वणन है; साथ ही संगानुसार कमयोग आ दका भी वणन कया गया है। इस कार य प इस षट्कम सभी वषय का म ण है, तथा प दोन षट्कक क अपे ा इसम कमयोगका वणन अ धक है। इसी से इसको कमयोग धान षट्क माना जाता ह। सातव अ ायसे लेकर बारहव अ ायतकके बीचके संगवश कह - कह वषय क चचा होनेपर भी सभी अ ाय म धानतासे भ योगका ही वशद वणन है, इस लये इस षट्कको तो भ धान मानना उ चत ही है। अ म षट्कम तेरहव और चौदहव अ ाय म ही ानयोगका करण है। पंदहवेम भ योगका वणन है; सोलहवम दैवी और आसुरी संपत् क ा ा है; स हवम ा आहार और य , दान, तप आ दका न पण है और अठारहव अ ायम गीताका उपसंहार होनेसे उसम कम, भ और ान तीन ही योग का वणन है तथा अ म शरणाग त- धान भ योगम उपदेशका पयवसान कया गया है। इतना होनेपर भी यह बात तो माननी ही पड़ेगी क ानयोगका जतना वणन इस अ म षट्कम कया गया है, उतना पहले और दूसरेम नह है। इसी लये इसको ानयोग धान कहा जा सकता है। अ ायका नाम परमा ाके नगुण नराकार त के भाव, माहा आ दके रह स हत पूण पसे जान लेनेका नाम ' ान' और सगुण नराकार एवं साकार त के लीला, रह , मह , गुण और भाव आ दके षट् कका

ीकरण

ानका नाम ' व ान' है। इन ान और व ानके स हत भगवान् के पको जानना ही सम भगवान् को जानना है। इस अ ायम इसी सम भगवान् के पका, उसके जाननेवाले अ धका रय का और साधन का वणन ह – इसी लये इस अ ायका नाम ' ान व ानयोग' रखा गया ह। अ ायका सं ेप इस अ ायके पहले ोकम भगवान् ने अजुनको सम पका वणन सुननेके लये आ ा दी है; तथा दूसरेम व ानस हत ानका वणन करनेक त ा करते ए उसक शंसा करके तीसरेम भगव पको त से जाननेक दुलभताका तपादन कया गया है। चौथे और पाँचवम अपनी अपरा और परा कृ तका प बतलाकर, छठे म उ दोन कृ तय को समपूण भूत का कारण और अपनेको सबका महाकारण बतलाया है। सातवम सम जगत् को अपना ही प बतलाकर मालाका ा देते ए सार पसे अपनी ापकता बतलायी है, फर आठवसे बारहवतक अपनी सव ापकताका व ारके साथ वणन कया है। तेरहवम अपनेको ( भगवान् को) त से न जाननेके कारणका न पण करके चौदहवम अपनी मायाक अ दु रताका वणन करते ए उससे तरनेका उपाय बतलाया है। पं हवम पापा ा मूढ़ मनु ारा भजन न होनेक बात कहकर सोलहवम अपने चार कारके पु ा ा भ क बात कही है। स हवम ानी भ क े ताका न पण करके अठारहवम सभी भ को उदार और ानीको अपना आ ा बतलाया है। उ ीसवम ानी भ क दुलभताका वणन कया है। बीसवम अ देवोपासक क बात कहकर इ सवम अ देवता म ा र करनेका और बाईसवम उनक उपासनाके फलका न पण कया गया है। तेईसवम अ देवता क उपासनाके फलको नाशवान् बतलाकर अपनी उपासनाका अपनी ा प महान् फल बतलाया है। चौबीसव और पचीसवम अपने गुण, भाव और पको न जाननेके हेतुका वणन करके छ ीसवम यह कहा है क म सबको जानता ँ , परतु मुझको कोई नह जानता। स ाईसवम न जननेका कारण बतलाते ए अ ाईसवम अपनेको भजनेवाले ढ़ ती े भ के ल ण का वणन कया है। तदन र उनतीसवम भगवान् का आ य लेकर य करनेवालेको ा होनेक बात कहकर तथा तीसव ोकम अपने सम पको जाननेक म हमाका न पण करके अ ायका उपसंहार कया है।

छठे अ ायके अ म ोकम भगवान् ने कहा हे क – ' अ रा ाको मुझम लगाकर जो ा और ेमके साथ मुझको भजता है, वह सब कारके यो गय म उ म योगी है। ' परतुं भगवान् के प गुण और भावको मनु जबतक नह जान पाता, तबतक उसके ारा अ रा ासे नर र भजन होना ब त क ठन है; साथ ही भजनका कार जनना भी आव क है। इस लये अब भगवान् अपने गुण भावके स हत सम पका तथा व वध कार से यु भ योगका वणन करनेके लये सातव अ ायका आर करते ह और सबसे पहले दो ोक म अजुनको उसे सावधानीके साथ सुननेके लये ेरणा करके ान - व ानके कहनेक त ा करते ह – स



ीभगवानुवाच । म ास मनाः पाथ योगं यु दा यः । असंशयं सम ं मां यथा ा स त ृ णु ॥१॥

ीभगवान् बोले – हे पाथ ! अन ेमसे मुझम आस च तथा अन भावसे मेरे परायण होकर योगम लगा आ तू जस कारसे स ूण वभू त , बल , ऐ या द गुण से यु , सबके आ प मुझको संशयर हत जानेगा , उसको सुन॥१॥

कसको कहते ह? उ र – इस लोक और परलोकके कसी भी भोगके त जसके मनम त नक भी आस नह रह गयी है तथा जसका मन सब ओरसे हटकर एकमा परम ेमा द सवगुणस परमे रम इतना अ धक आस हो गया है क जलके जरा- से वयोगम परम ाकु ल हो जानेवाली मछलीके समान जो णभर भी भगवान् के वयोग और व रणको सहन नह कर सकता, उसे भगवान् ' म ास मना : ' कहते ह। – ' मदा य : ' कसको कहते ह? उ र – जो पु ष संसारके स ूण आ य का ाग करके सम आशा और भरोस से मुँह मोड़कर एकमा भगवान् पर ही नभर रहता है और सवश मान् भगवान् को ही परम आ य तथा परम ग त जानकर एकमा उ के भरोसेपर सदाके लये न हो गया है, उसे भगवान् ' मदा य : ' कहते ह। – ' योगं यु न् ' से ा अ भ ाय है? –'

म ास

मना : '

उ र – यहाँ भ योगका करण है। अतएव मन और बु को अचलभावसे भगवान् म र करके न - नर र ा- मे पूवक उनका च न करना ही ' योगं यु न् ' का अ भ ाय है। – सम भगवान् को संशयर हत जाननेका ा अ भ ाय है? उ र – भगवान् इतने और उतने ही नह ह; अन को ट ा सब उ म ओत- ोत ह, सब उनके ही प ह। इन ा म और इनके परे जो कु छ भी है, सब उ म है। वे न है, स ह, सनातन ह, वे सवगुणस , सवश मान्, सव , सव ापी, सवाधार और सव प ह तथा यं ही अपनी योगमायासे जगत् के पम कट होते ह। व ुत: उनके अ त र अ कु छ है ही नह ; - अ और सगुण- नगुण सब वे ही ह। इस कार उन भगवान् के पको न ा और अस पसे समझ लेना ही सम भगवान् को संशयर हत जानना है।

ानं तेऽहं स व ान मदं व ा शेषतः । य ा ा नेह भूयोऽ ात मव श ते ॥२॥

म तेरे लये इस व ानस हत त ानको स ूणतया क ँ गा संसारम फर और कछ भी जाननेयो शेष नह रह जाता॥२॥

,

जसको जानकर

यहाँ ' ान' और ' व ान' कसके वाचक ह? उ र – भगवान् के नगुण नराकार त का जो भाव, माहा और रह स हत यथाथ ान है, उसे ' ान' कहते ह। इसी कार उनके सगुण नराकार और द साकार त के लीला, रह , गुण, मह और भावस हत यथाथ ानका नाम ' व ान' है। – इस ान- व ानका वणन इस अ ायम कहाँ कया गया है? उ र – इस अ ायम जो कु छ भी उपदेश दया गया है, सारा- का- सारा ही ानव ानक ा म साधन प है। इस लये, जैसे तेरहव अ ायम सातव ोकसे ारहवतक ानके साधन को ' ान' कहा गया है उसी कार इस सम अ ायको ही ान- व ानके उपदेशसे पूण होनेके कारण ान- व ान प ही समझना चा हये। – आगे कहेजानेवाले व ानस हत ानको जान लेनेके बाद संसारम कु छ भी जानना बाक नह रह जाता, यह बात कै से कही? –

उ र – ान और व ानके ारा भगवान् के सम पक भलीभाँ त उपल हो जाती है। यह व - ा तो सम पका एक ु - सा अंशमा है। जब मनु भगवान् के सम पको जान लेता है, तब भावत: ही उसके लये कु छ भी जानना बाक नह रह जाता। भगवान् ने दसव अ ायके अ म यं कहा है क ' हे अजुन! तुझे ब त जाननेसे ा योजन है, म अपने तेजके एक अंशसे इस स ूण जगत् को धारण करके त ँ ।' इस लये यहाँ यह कहना उ चत ही है। स

अपने उस

अपने सम पके ान - व ानको कहनेक त ा करके अब भगवान् पको त से जाननेक दुलभताका तपादन करते ह – –

मनु ाणां सह ेषु क त त स ये । यतताम प स ानां क ां वे त तः ॥ ७-३॥

हजार मनु म कोई एक मेरी ा के लये य करता है और उन य करनेवाले यो गय म भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको त से अथात् यथाथ पसे जानता है॥३॥

यहाँ ' मनु ' श के योगका ा भाव है? उ र – ' मनु ' श के योगसे एक तो यह भाव है क मनु यो न बड़ी ही दुलभ है, भगवान् क बड़ी भारी कृ पासे इसक ा होती है; क इसम सभीको भगव ा के लये साधन करनेका ज स अ धकार है। जा त, वण, आ म और देशक व भ ताका कोई भी तब नह है। इसके सवा एक भाव यह भी है क मनु ेतर जतनी भी यो नयाँ ह, उनम नवीन कम करनेका अ धकार नह है; अतएव उनम ाणी भगव ा के लये साधन नह कर सकता। पशु, प ी, क ट- पतंगा द तयकु यो नय म तो साधन करनेक श और यो ता ही नह हे। देवा द यो नय म श होनेपर भी वे भोग क अ धकता और खास करके अ धकार न होनेसे साधन नह कर पाते। तयक् या देवा द यो नय म कसीको य द परमा ाका ान हो जाता है तो उसम भगवान् क या महापु ष क वशेष दयाका ही भाव और मह समझना चा हये। – हजार मनु म कोई एक ही भगव ा के लये साधन करते ह, इसका ा कारण है? –

उ र – भगव ृ पाके फल प मनु - शरीर ा होनेपर भी ज - ज ा रके सं ार से भोग म अ आस और भगवान् म ा- ेमका अभाव या कमी रहनेके कारण अ धकांश मनु तो इस मागक ओर मुँह ही नह करते। जसके पूवसं ार शुभ होते ह, भगवान्, महापु ष और शा म जसक कु छ ा- भ होती है तथा पूवपु के पुंजसे और भगव ृ पासे जसको स ु ष का संग ा हो जाता है, हजार मनु मसे ऐसा कोई वरला ही इस मागम वृ होकर य करता है। – भगवान् क ा के लये य करनेवाले मनु म कोई एक ही भगवान् को त से जानता है, इसका ा कारण है? सभी नह जानते? उ र – इसका कारण यह है क पूवसं ार, ा, ी त, स ंग और चे ाके तारत से सबका साधन एक- सा नह होता। अहंकार, मम , कामना, आस और संगदोष आ दके कारण नाना कारके व भी आते ही रहते ह। अतएव ब त थोड़े ही पु ष ऐसे नकलते ह जनक ा- भ और साधना पूण होती है और उसके फल प इसी ज म वे भगवान् का सा ा ार कर पाते ह। – य करनेवाल के साथ ' स ' वशेषण कस अ भ ायसे दया गया है? उ र – इसका यह अ भ ाय समझना चा हये क भोग म पड़े ए वषयास मनु क अपे ासे परमा ाक ा प परम स के लये जो य करता है वह भी स ही है। यहाँतक भगवान् ने अपने सम पके ान - व ान कहनेक त ा और उसक शंसा क , अब ान - व ानके करणका आर करते ए पहले अपनी ' अपरा ' और ' परा ' कृ तय का प बतलाते ह – स



भू मरापोऽनलो वायुः खं मनो बु रेव च । अह ार इतीयं मे भ ा कृ तर धा ॥४॥ अपरेय मत ां कृ त व मे पराम् । जीवभूतां महाबाहो ययेदं धायते जगत् ॥५॥

पृ ी , जल , अ , वायु , आकाश , मन , बु और अहंकार भी – इस कार यह आठ कारसे वभा जत मेरी कृ त है। यह आठ कारके भेद वाली तो अपरा अथात् मेरी

जड कृ त है और हे महाबाहो ! इससे दस ू रीको , जससे यह स ूण जगत् धारण कया जाता है , मेरी जीव पा परा अथात् चेतन कृ त जान॥४ - ५॥

यहाँ पृ ी, जल, अ , वायु और आकाशसे ा समझना चा हये? उ र – ूल भूत के और श ा द पाँच वषय के कारण प जो सू पंचमहाभूत ह, सां और योगशा म ज पंचत ा ा कहा है, उ पाँच का यहाँ ' पृ ी' आ द नाम से वणन कया गया है। – यहाँ मन, बु और अहंकारसे ा लेना चा हये? उ र – मन, बु और अहंकार – तीन अ ःकरणके ही भेद ह; अतएव इनसे ' सम अ ःकरण' समझना चा हये। – तेरहव अ ायके पाँचव ोकम अ कृ तके काय ( भेद) तेईस बतलाये गये ह, उसके अनुसार कृ तको तेईस भेद म वभ कहना चा हये था; फर यहाँ उसे के वल आठ भेद म वभ कै से कहा? उ र – श ा द पाँच वषय सू पंच महाभूत के और दस इ याँ अ ःकरणके काय ह। इस लये पं ह भेद का इन आठ भेद म ही अ भाव हो जाता है। उस कार उसे तेईस भेद म और इस कार आठ भेद म वभ कहना एक ही बात है। – इस कृ तका नाम ' अपरा' कस लये रखा गया है? उ र – तेरहव अ ायम भगवान् ने जस अ मूल कृ तके तेईस काय बलताये ह, उसीको यहाँ आठ भेद म वभ बतलाया है। यह ' अपरा कृ त' ेय तथा जड होनेके कारण ाता चेतन जीव पा ' परा कृ त' से सवथा भ और नकृ है; यही संसारक हेतु प है और इसीके ारा जीवका ब न होता है। इसी लये इसका नाम ' अपरा' है। – जीव प चेतन त तो पुँ ग है, यहाँ ' कृ त' नामसे कहकर उसे ी लग बतलाया गया? उ र – जीवा ाम व ुत: ी , पुं व या नपुंसक का भेद नह है – इसी बातको दखलानेके लये उस एक ही चेतन त को कह पुँ ग ' पु ष' ( १५।१६) और ' े ' ( १३। –

१) तथा कह नपुंसक ' अ ा ' ( ७। २९, ८। ३) कहा गया है। उसीको यहाँ ी लग ' परा कृ त' कहा है। – यहाँ ' जगत्' श कसका वाचक है? और वह जीव पा परा कृ तके ारा धारण कया जाता है ऐसा कहा गया? उ र – सम जीव के शरीर, इ य, ाण तथा भो - व ुएँ और भोग ानमय इस स ूण कृ तका नाम जगत् है। ऐसा यह जगत्- प जड त चेतन त से ा है अत: उसीने इसे धारण कर रखा है, क वह इसक अपे ा सब कारसे े और सू है। बना चेतनके संयोगके इस जगत् का उ , वकास और धा रत होना स व नह है। इसी लये ऐसा कहा गया है।

परा और अपरा प बतलाकर अब भगवान् यह बतलाते ह क ये दोन कृ तयाँ ही चराचर समपूण भूत का कारण ह और म इन दोन कृ तय स हत सम जगत् का महाकारण ँ – स



एत ोनी न भूता न सवाणी ुपधारय । अहं कृ जगतः भवः लय था ॥६॥

हे अजुन ! तू ऐसा समझ क स ूण भूत इन दोन

कृ तय से ही उ

होनेवाले

ह और म स ूण जगत् का भव तथा लय ँ अथात् स ूण जगत् का मूलकारण ँ ॥ ६॥

यहाँ ' सवा ण ' वशेषणके स हत ' भूता न ' पद कसका वाचक है? तथा अपरा और परा- ये दोन कृ तयाँ उसक यो न कै से ह? उ र – ावर और जंगम यानी अचर और चर जतने भी छोटे- बड़े सजीव ाणी ह, यहाँ ' भूता न ' पद उन सभीका वाचक है। सम सजीव ा णय क उ , त और वृ इन ' अपरा' ( जड) और ' परा' ( चेतन) कृ तय के संयोगसे ही होती ह। इस लये उनक उ म ये ही दोन कारण ह। यही बात तेरहव अ ायके छ ीसव ोकम े - े के नामसे कही गयी है। – ' स ूण जगत्' कसका वाचक है? तथा भगवान् ने जो अपनेको उसका भव और लय बतलाया है इसका ा अ भ ाय है? –

उ र – इस जड- चेतन और चराचर सम व का वाचक ' जगत्' श है; इसक उ , त और लय भगवान् से ही और भगवान् म ही होते ह। जैसे बादल आकाशसे उ होते ह, आकाशम रहते ह और आकाशम ही वलीन हो जाते ह तथा आकाश ही उनका एकमा कारण और आधार है, वैसे ही यह सारा व भगवान् से ही उ होता है, भगवान् म ही त है और भगवान् म ही वलीन हो जाता है। भगवान् ही इसके एकमा महान् कारण और परम आधार ह। इसी बातको नव अ ायके चौथे, पाँचव और छठे ोक म भी कया गया है। यहाँ यह बात याद रखनी चा हये क भगवान् आकाशक भाँ त जड या वकारी नह ह। ा तो के वल समझानेके लये आ करते ह। व ुत: भगवान् का इस जगत् के पम कट होना उनक लीलामा है । स – इस कार भगवान् ही सम व के परम कारण और परमाधार ह, तब भावतः ही यह भगवान् का प है और उ से ा है। अब इसी बातको करनेके लये भगवान् कहते ह –

म ः परतरं ना द धन य । म य सव मदं ोतं सू े म णगणा इव ॥७॥

हे धनंजय! मुझसे भ

दस ू रा कोई भी परम कारण नह है। यह स ूण जगत्

सू म सू के म नय के स श मुझम गुँथा आ है॥७॥

मुझसे भ दूसरा कोई भी परम कारण नह है, इस कथनका ा भाव है? उ र –   इससे यह भाव दखाया गया है क जैसे महाकाश बादलका कारण और आधार है और उसका काय बादल उसी महाकाशका प है, वा वम वह अपने कारणसे कु छ भ व ु नह है, वैसे ही परमा ा इस जगत् के कारण और आधार होनेसे यह जगत् भी उ का प है, उनसे भ दूसरी व ु नह है। अत: परा और अपरा कृ त सब भूत क कारण होते ए भी सबका परम कारण परमा ा है, दूसरा कोई नह है। – सू म सू के म नय क भाँ त यह जगत् भगवान् म कै से गुँथा आ है? उ र – जैसे सूतक डोरीम उसी सूतक गाँठ लगाकर उ म नये मानकर माला बना लेते ह और जैसे उस डोरीम और गाँठ के म नय म सव के वल सूत ही ा रहता है, उसी –

कार यह सम संसार भगवान् म गुँथा आ है। मतलब यह क भगवान् ही सबम ओत- ोत ह।

सूत और सूतके म णय के ा से भगवान् ने अपनी सव पता और सव ापकता स क । अब भगवान् अगले चार ोको ारा इसीको भलीभाँ त करनेके लये उन धान - धान सभी व ु के नाम लेते ह, जनसे इस व क त है; और सार पसे उन सभीको अपनेसे ही ओत - ोत बतलाते ह – स



रसोऽहम ु कौ ेय भा श शसूययोः । णवः सववेदेषु श ः खे पौ षं नृषु ॥८॥

हे अजुन ! म जलम रस ँ , च मा और सूयम काश ँ , स ूण वेद म आकाशम श

और पु ष म पु ष

कार ँ

,

ँ ॥८॥

इस ोकका ीकरण क जये? उ र – जो त जसका आधार है और जसम ा है वही उसका जीवन और प है तथा उसीको उसका सार कहते ह। इसीके अनुसार भगवान् कहते ह – हे अजुन! जलका सार रस- त म ँ , च मा और सूयका सार काश- त म ँ , सम वेद का सार णव- त ' ॐ' म ँ , आकाशका सार श - त म ँ और पु ष का सार पौ ष- त भी म ँ । –

पु ो ग ः पृ थ ां च तेज ा वभावसौ । जीवनं सवभूतेषु तप ा तप षु ॥९॥

म पृ ीम प व ग तप

और अ

म तेज ँ तथा स ूण भूत म उनका जीवन ँ और

य म तप ँ ॥९॥

इस ोकका ता य ा है? उ र – पछले ोकके अनुसार ही यहाँ भी भगवान् ेक व ुम सार पसे अपनी ापकता और आधार दखलाते ए कहते ह क पृ ीका सार ग - त , अ का सार तेज- त , सम भूत का सार जीवन- त और तप य का सार तप- त भी म ही ँ । – यहाँ ' ग : ' के साथ ' पु : ' वशेषण देनेका ा अ भ ाय है? –

उ र – इससे यह बात दखलायी गयी है क यहाँ ' ग ' श से वषय प ग का ल नह है, पृ ीक कारण पा ग त ा ाका ल है। इसी कार रस और श म भी समझ लेना चा हये। – ' सवभूत' श कसका वाचक है और ' जीवन' श का ा अ भ ाय है? उ र – ' सवभूत' श सम चराचर सजीव ा णय का वाचक है और जीवन- त उस ाणश का नाम है जससे सम सजीव ाणी अनु ा णत ह तथा जसके भावसे वे नज व पदाथ से वल णताको ा ह।

बीजं मां सवभूतानां व पाथ सनातनम् । बु बु मताम तेज ेज नामहम् ॥ १०॥

हे अजुन ! तू स ूण भूत का सनातन बीज मुझको ही जान। म बु और तेज

मान क बु

य का तेज ँ ॥१०॥

यहाँ ' सनातन बीज' कसको कहा गया है? और भगवान् ने उसको अपना प कस कारणसे बतलाया? उ र – जो सदासे हो तथा कभी न न हो, उसे ' सनातन' कहते ह। भगवान् ही सम चराचर भूत ा णय के परम आधार ह और उ से सबक उ होती है। अतएव वे ही सबके ' सनातन बीज' ह और इसी लये ऐसा कहा है। नव अ ायके अठारहव ोकम इसीको ' अ वनाशी बीज' और दसवके उनतालीसवम ' सब भूत का बीज' बतलाया गया है। – बु मान क बु और तेज य का तेज म ँ , इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – स ूण पदाथ का न य करनेवाली और मन- इ य को अपने शासनम रखकर उनका संचालन करनेवाली अ ःकरणक जो प रशु बोधमयी श है, उसे बु कहते ह; जसम वह बु अ धक होती है, उसे बु मान् कहते ह; यह बु श भगवान् क अपरा कृ तका ही अंश है, अतएव भगवान् कहते ह क बु मान का सार बु - त म ही ँ । और इसी कार सब लोग पर भाव डालनेवाली श वशेषका नाम तेजस् है; यह तेज जसम वशेष होता है उसे लोग ' तेज ी' कहते ह। यह तेज भी भगवान् क अपरा कृ तका ही एक अंश है, इस लये भगवान् ने इन दोन को अपना प बतलाया है। –

बलं बलवतां चाहं कामराग वव जतम् । ो े ो

धमा व ो भूतेषु कामोऽ भरतषभ ॥११॥

हे भरत े ! म बलवान का आस और कामना से र हत बल अथात् साम ँ और सब भूत म धमके अनुकूल अथात् शा के अनुकूल काम ँ ॥११॥

इस ोकका ीकरण क जये। उ र – जस बलम कामना, राग, अहंकार तथा ोधा दका संयोग है, वह तो आसुर बल है। जस बलका वणन आसुरी स दाम कया गया ह ( १६।१८) और जसके ागनेक बात कही है ( १८।५३) । इसी कार धम व काम भी आसुरी स दाका धान गुण होनेसे सम अनथ का मूल ( ३।३७), नरकका ार और ा है ( १६।२१) । काम- रागयु ' बल' से और धम व ' काम' से वल ण वशु ' बल' और वशु ' काम' ही उपादेय ह। भगवान् ' भरतषभ' स ोधन देकर यह संकेत कर रहे ह क ' तू भरतवंशम े है; तेरे अंदर न तो यह आसुर बल है और न वह अधममूलक दू षत ' काम' ही है। तेरे अंदर तो कामना और आस से र हत शु बल है। और धमसे अ व वशु ' काम' हे।' बलवान का ऐसा शु बल- त और भूत ा णय का वह वशु काम- त म ही ँ । –

इस कार धान - धान व ु म सार पसे अपनी ापकता बतलाते ए भगवान् ने कारा रसे सम जगत् म अपनी सव ापकता और सव पता स कर दी, अब अपनेको ही गुणमय जगत् का मूल कारण बतलाकर इस संगका उपसंहार करते ह। स

-

ये चैव सा का भावा राजसा ामसा ये । म एवे त ता न हं तेषु ते म य ॥१२॥

और भी जो स गुणसे उ होनेवाले भाव ह और जो रजोगुणसे तथा तमोगुणसे होनेवाले भाव ह, उन सबको तू ' मुझसे ही होनेवाले ह ' ऐसा जान। परंतु वा वम उनम म और वो मुझम नह ह॥१२॥

सा क, राजस और तामस भाव कसके वाचक ह एवं उन सबको ' भगवान् से होनेवाले ' समझना ा है? उ र – मन, बु , अहंकार, इ य, इ य के वषय, त ा ाएँ , महाभूत और सम गुण- अवगुण तथा कम आ द जतने भी भाव ह, सभी सा क, राजस और तामस भाव के अ गत ह। इन सम पदाथ का वकास और व ार भगवान् क ' अपरा कृ त' से होता है। –

और वह कृ त भगवान् क है, अत: भगवान् से भ नह है, उ के लीला- संकेतसे कृ तके ारा सबका सृजन, व ार और उपसंहार होता रहता है – इस कार जान लेना ही उन सबको ' भगवान् से होनेवाले' समझना है। – उपयु सम गुणमय भाव य द भगवान् से ही होते ह तो फर वे मुझम और म उनम नह ँ इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – जैसे आकाशम उ होनेवाले बादल का कारण और आधार आकाश है, परंतु आकाश उनसे सवथा न ल है। बादल आकाशम सदा नह रहते और अ न होनेसे व ुत: उनक र स ा भी नह है; पर आकाश बादल के न रहनेपर भी सदा रहता है। जहाँ बादल नह है, वहाँ भी आकाश तो है ही; वह बादल के आ त नह है। व ुत: बादल भी आकाशसे भ नह ह, उसीम उससे उ होते ह। अतएव यथाथम बादल क भ स ा न होनेसे वह कसी समय भी बादल म नह है, वह तो सदा अपने- आपम ही त है। इसी कार य प भगवान् भी सम गुणमय भाव के कारण और आधार ह, तथा प वा वम वे गुण भगवान् म नह ह और भगवान् उनम नह ह। भगवान् तो सवथा और सवदा गुणातीत ह तथा न अपने- आपम ही त ह। इसी लये वे कहते ह क ' उनम म और वे मुझम नह है' । इसका ीकरण नव अ ायके चौथे और पाँचव ोक म देखना चा हये। भगवान् नेयह दखलाया क सम जगत् मेरा ही प है और मुझसे ही ा है। यहाँ यह ज ासा होती हे क इस कार सव प रपूण और अ समीप होनेपर भी लोग भगवान् ने नह पहचानते ? इसपर भगवान् कहते ह – स



भगुणमयैभावैरे भः सव मदं जगत् । मो हतं ना भजाना त मामे ः परम यम् ॥१३॥

संसार –

गुण के काय प सा क , राजस और तामस – इन तीन कारके भाव से यह सब ा णसमुदाय मो हत हो रहा है, इसी लये इन तीन गुण से परे मुझ अ वनाशीको

नह जानता॥१३॥

गुण के काय प इन तीन कारके भाव से यह सब संसार मो हत हो रहा है– इसका ा अ भ ाय है? –

उ र – पछले ोकम जन भाव का वणन कया गया है, यहाँ उ वध भाव से जगत् के मो हत होनेक बात कही जा रही है। ' भः ' और ' गुणमयै : ' वशेषण से यही दखलाया गया है क वे सब भाव ( पदाथ) तीन गुण के अनुसार तीन भाग म वभ ह और गुण के ही वकार ह। एवं ' जगत्' श से सम सजीव ा णय का ल कराया गया है, क नज व पदाथ के मो हत होनेक बात तो कही ही नह जा सकती। अतएव भगवान् के कथनका यहाँ यह अ भ ाय तीत होता है क ' जगत् के सम देहा भमानी ाणी– यहाँतक क मनु भी – अपने- अपने भाव, कृ त और वचारके अनुसार, अ न और दुःखपूण इन गुणमय भाव को ही न और सुखके हेतु समझकर इनक क त रमणीयता और सुख पताक के वल ऊपरसे ही दीखनेवाली चमक- दमकम जीवनके परम ल को भूलकर, मेरे ( भगवान् के ) गुण, भाव, त , प और रह के च न और ानसे वमुख होकर वपरीत भावना और अस ावना करके मुझम अ ा करते ह। तीन गुण के वकार म रचे- पचे रहनेके कारण उनक ववेक इतनी ूल हो गयी है क वे वषय के सं ह करने और भोगनेके सवा जीवनका अ कोई कत या ल ही नह समझते।' – तीन गुण से परे मुझ अ वनाशीको नह जानता– इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे भगवान् यह दखलाते ह क उन वषय- वमो हत मनु क ववेक तीन गुण के वनाशशील रा से आगे जाती ही नह ; इस लये वे इन सबसे सवथा अतीत, अ वनाशी मुझको नह जान सकते। पं हव अ ायके अठारहव ोकम भी भगवान् ने अपनेको र पु षसे सवथा अतीत बतलाया है। वहाँ ' र' पु षके नामसे जस त का वणन है, उसीको इस करणम ' अपरा कृ त' और ' गुणमयभाव' कहा है। वहाँ जसको ' अ र पु ष' बतलाया है, यहाँ उसी त को ' परा कृ त' और मो हत होनेवाला ा णसमुदाय कहा है और वहाँ जसको ' पु षो म' कहा है, उसीका यहाँ ' माम् ' पदसे वणन कया गया है। इस कार भगवान् को पु षो म न जानना ही गुण से अतीत और अ वनाशी न जानना है। भगवान् ने सारे जगत् को गुणमय भाव से मो हत बतलाया ? इस बातको सुनकर अजुनको यह जाननेक इ ा ई क फर इससे छू टनेका कोई उपाय है या नह ? अ यामी दयामय भगवान् इस बातको समझकर अब अपनी मायाको दु र बतलाते ए उससे तरनेका उपाय सू चत कर रहे है – स



ैी े



दैवी ेषा गुणमयी मम माया दुर या । मामेव ये प े मायामेतां तर ते ॥१४॥ क यह अलौ कक अथात् अ त अद ् भुत

गुणमयी मेरी माया बड़ी द ु र है ;

परंतु जो पु ष केवल मुझको ही नर र भजते ह वे इस मायाको उ अथात् संसारसे तर जाते ह॥१४॥

ंघन कर जाते ह

मायाके साथ ' एषा ', ' दैवी ', ' गुणमयी ' और ' दरु या ' वशेषण देनेका और इसे ' मम ' ( मेरी) कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – ' एषा ' यह पद व ुका नदशक है और कृ त काय पम ही है। इससे यह समझना चा हये क जस कृ तका पछले ोकम गुणमय भाव के नामसे काय पम वणन कया गया है, उसीको यहाँ ' माया' नामसे बतलाया गया है। गुण और गुण का काय प यह सारा जड पंच इस मायाम ही है, इसीसे इसको ' गुणमयी' कहा गया है। यह माया बाजीगरी या दानव क मायाक तरह साधारण नह है, यह भगवान् क अपनी अन साधारण अ व च श है; इसीसे इसको ' दैवी ' बतलाया गया है। और अ म भगवान् ने इस दैवी मायाको मेरी ( मम ) कहकर तथा इसे ' दरु या ' बताकर यह सू चत कया है क मै इसका ामी ँ , मेरे शरण ए बना मनु इस मायासे सहज ही पार नह पा सकता। इस लये यह अ ही दु र है। – जो के वल मुझको ही नर र भजते है– इस कथनका ा भाव है? उ र – जो एकमा भगवान् को ही अपना परम आ य, परमग त, परम य और परम ा मानते है तथा सब कु छ भगवान् का या भगवान् के ही लये है– ऐसा समझकर जो शरीर, ी, पु , धन, गृह क त आ दम मम और आस का ाग करके , उन सबको भगवान् क ही पूजाक साम ी बनाकर तथा भगवान् के रचे ए वधानम सदा स ु रहकर, भगवान् क आ ाके पालनम त र और भगवान् के रणपरायण होकर अपनेको सब कारसे नर र भगवान् म ही लगाये रखते ह, वे ही पु ष नर र भगवान् का भजन करनेवाले समझे जाते ह। इसीका नाम अन शरणाग त है। इस कारके शरणागत भ ही मायासे तरते ह। – मायासे तरना कसे कहते ह? –

उ र – काय और कारण पा अपरा कृ तका ही नाम माया है। मायाप त परमे रके शरणागत होकर उनक कृ पासे इस मायाके रह को पूण पसे जानकर इसके स से सवथा छू ट जाना और मायातीत परमे रको ा कर लेना ही मायासे तरना है। भगवान् ने मायाक दु रता दखलाकर अपने भजनको उससे तरनेका उपाय बतलाया। इसपर यह उठता है क जब ऐसी बात है तब सब लोग नर र आपका भजन नह करते ? इसपर भगवान् कहते ह – स



न मां दु ृ तनो मूढाः प े नराधमाः । माययाप त ाना आसुरं भावमा ताः ॥ ७-१५॥

मायाके ारा जनका ान हरा जा चुका है ऐसे आसुर मनु

भावको धारण कये ए

म नीच , द ू षत कम करनेवाले मूढ़लोग मुझको नह भजते॥१५॥

इस ोकका ीकरण क जये? उ र – भगवान् कहते ह क जो ज - ज ा रसे पाप करते आये ह और इस ज म भी जो जान- बूझकर पाप म ही वृ है ऐसे दु ृ ती– पापा ालोग; तथा ' कृ त ा है, पु ष ा है, भगवान् ा है और भगवान् के साथ जीवका और जीवके साथ भगवान् का ा स है?' इन बात को जानना तो दूर रहा, जो यह भी नह जानते या नह जानना चाहते क मनु - ज का उ े भगव ा है और भजन ही उसका धान कत है, ऐसे ववेकहीन मूढ़ मनु तथा जनके वचार और कम नीच ह– वषयास , माद तथा आल क अ धकतासे जो के वल वषयभोग म जीवन न करते रहते ह और उ को ा करनेके उ े से नर र न त– नीच कम म ही लगे रहते ह, ऐसे ' नराधम' नीच , तथा मायाके ारा जनका ान हरा जा चुका है– वपरीत भावना और अ ाक अ धकतासे जनका ववेक न - हो गया है और इस लये जो वेद, शा , गु पर राके सदुपदेश, ई र, कमफल और पुनज म व ास न करके म ा कु तक एवं ना कवादम ही उलझे रहकर दूसर का अ न करते है ऐसे अ ानीजन; और इन सब दुगुण के साथ ही जो द , दप, अ भमान, कठोरता, काम, ोध, लोभ, मोह आ द आसुर भाव का आ य लये ए ह, ऐसी आसुरी कृ तके मूढ़लोग मुझको कभी नह भजते। –

पूव ोकम भगवान् ने यह बतलाया क पापा ा आसुरी कृ तवाले मूढ़लोग मेरा भजन नह करते ? इससे यह ज ासा होती है क फर कै से मुनु आपका भजन करते ह इसपर भगवान् कहते ह – स



चतु वधा भज े मां जनाः सुकृ तनोऽजुन । आत ज ासुरथाथ ानी च भरतषभ ॥१६॥

हे भरतवं शय म े अजुन ! उ म कम करनेवाले अथाथ ानी – ऐसे चार कारके भ जन मुझको भजते ह॥१६॥

आत

,

ज ासु और

ा अथ है और यह कसका वशेषण है? उ र – ज - ज ा रसे शुभ कम करते- करते जनका भाव सुधरकर शुभ कमशील बन गया है और पूवसं ार के बलसे अथवा मह ंगके भावसे जो इस ज म भी भगवदा ानुसार शुभ कम ही करते ह– उन शुभ कम करनेवाल को ' सुकृती' कहते ह। शुभ कम से भगवान् के भाव और मह का ान होकर भगवान् म व ास बढ़ता है और व ास होनेपर भजन होता है। इससे यह सू चत होता है क ' सुकृ तन : ' वशेषणका स चार कारके भ से है अथात् भगवान् को व ासपूवक भजनेवाले सभी भ ' सुकृती' ही होते ह,, फर चाहे वे कसी भी हेतुसे भज। – अथाथ भ के ा ल ण ह? उ र – ी, पु , धन, मान, बड़ाई, त ा और ग- सुख आ द इस लोक और परलोकके भोग मसे जसके मनम एकक या ब त क कामना है, परंतु कामनापू तके लये जो के वल भगवान् पर ही नभर करता है और इसके लये जो ा और व ासके साथ भगवान् का भजन करता है, वह अथाथ भ है। सु ीव- वभीषणा द भ अथाथ माने जाते ह, इनम धानतासे ुवका नाम लया जाता है। ाय ुव मनुके पु उ ानपादके सुनी त और सु च नामक दो रा नयाँ थ । सुनी तसे ुवका और सु चसे उ मका ज आ था। राजा उ ानपाद सु चपर अ धक ेम करते थे। एक दन बालक ुव आकर पताक गोदम बैठने लगा, तब सु चने उसका तर ार करके उसे उतार दया और कहा क ' तू अभागा है जो तेरा ज सुनी तके गभसे आ है, राज सहासनपर –'

सुकृ तन : ' पदका

,

बैठना होता तो मेरे गभसे ज लेता। जा, ीह रक आराधना कर; तभी तेरा मनोरथ सफल होगा।' वमाताके भ नापूण वहारसे उसे बड़ा दुःख आ, वह रोता आ अपनी माँ सुनी तके पास गया और उससे सब हाल उसने कह सुनाया। सुनी तने कहा–' बेटा! तेरी माता सु चने ठीक ही कहा है । भगवान् क आराधनाके बना तेरा मनोरथ पूण नह होगा।' माताक बात सुनकर रा ा के उ े से बालक ुव भगवान् का भजन करनेके लये घरसे नकल पड़ा। रा ेम नारदजी मले, उ ने उसे लौटानेक चे ा क , रा दलानेक बात कही; परंतु वह अपने न यपर डता ही रहा। तब उ ने उसे ' ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ' इस ादशा र म का और चतुभुज भगवान् व ुके ानका उपदेश देकर आशीवाद दया। ुव यमुनाजीके तटपर मधुकरम जाकर तप करने लगे। उ तपसे डगानेके लये नाना कारके भय और लोभके कारण सामने आये, परंतु वे अपने तपर अटल रहे। तब भगवान् ने उनक एक न भ से स होकर उ दशन दया। देव ष नारदजीके ारा संवाद पाकर राजा उ ानपाद अपने पु उ म तथा दोन रा नय के साथ उ लवाने चले। तपोमू त ुव उ मागम आते ए मले। राजाने ह थनीसे उतरकर उनको गले लगा लया। तदन र बड़े उ व तथा समारोहके साथ ह थनीपर चढ़ाकर उ नगरम लाया गया। अ म राजाने ुवको रा सौपकर यं वान - आ म हण कर लया। – आत भ के ा ल ण ह? उ र – जो शारी रक या मान सक स ाप, वप , श ुभय, रोग, अपमान, चोर, डाकू और आतता यय के अथवा ह जानवर के आ मण आ दसे घबड़ाकर उनसे छू टनेके लये पूण व ासके साथ दयक अ डग ासे भगवान् का भजन करता है वह आत भ है। आत भ म गजराज, जरास के ब ी राजागण आ द ब त- से माने जाते ह; परंतु सती ौपदीका नाम मु तया लया जाता है। ौपदी राजा दुपदक पु ी थ ; ये य वेदीसे उ ई थ । इनके शरीरका रंग बड़ा ही सु र ामवण था, इससे इ ' कृ ा' कहते थे। ौपदी अन गुणवती, बड़ी प त ता, आदश गृ हणी और भगवान् क स ी भ ा थ । ौपदी ीकृ को पूण स दान घन परमे र समझती थ और भगवान् भी उनके सामने अपनी अ रंग लीला को भी छपाकर नह रखते थे। जस वृ ावनके प व गोपी- ेमक द बात गोप- रम णय के प त- पु ोतकको मालूम

नह थ , उन लीला का भी ौपदीको पता था; इसी लये चीर- हरणके समय ौपदीने भगवान् को ' गोपी- जन य' कहकर पुकारा था। जब दु दुःशासन दुय धनक आ ासे एकव ा ौपदीको सभाम लाकर बलपूवक उनक साड़ी ख चने लगा और कसीसे भी र ा पानेका कोई भी ल ण न देख ौपदीने अपनेको सवथा असहाय समझकर अपने परम सहायक, परम ब ु परमा ा ीकृ का रण कया। उ यह ढ़ व ास था क मेरे रण करते ही भगवान् अव आवगे, मेरी कातर पुकार सुननेपर उनसे कभी नह रहा जायगा। ौपदीने भगवान् का रण करके कहा– गो व ारकावा सन् कृ गोपीजन य। कौरवैः प रभूतां मां क न जाना स के शव॥ हे नाथ हे रमानाथ जनाथा तनाशन। कौरवाणवम ा मामु र जनादन॥ कृ कृ महायो गन् व ा न् व भावन। प ां पा ह गो व कु म ेऽवसीदतीम्॥ ( महा० सभा० ६८) ' हे गो व ! हे ारकावा सन्! हे ीकृ ! हे गोपीजन य! हे के शव! ा तुम नह जान रहे हो क कौरव मेरा तर ार कर रहे ह? हे नाथ! हे ल ीनाथ! हे जनाथ! हे दुःखनाशन! हे जनादन! कौरव- समु म डू बती ई मुझको बचाओ। हे कृ ! हे कृ ! हे महायो गन्! हे व ा न्! हे व भावन! हे गो व ! कौरव के हाथ म पड़ी ई मुझ शरणागत दुः खनीक र ा करो।' तब ौपदीक पुकार सुनते ही जगदी र भगवान् का दय वीभूत हो गया और वे – ा श ासनं पद् ां कृ पालु: कृ पया गात्। ' कृ पालु भगवान् कृ पापरवश हो श ा छोड़कर पैदल ही दौड़ पड़े।' कौरव क दानवी सभाम भगवान् का व ावतार हो गया! ौपदीके एक व से दूसरा और दूसरेसे तीसरा– इस कार भ - भ रंग के व नकलने लगे, व का वहाँ ढेर लग गया। ठीक समयपर य ब ुने प ँ चकर अपनी ौपदीक लाज बचा ली, दुःशासन थककर जमीनपर बैठ गया!

ज ासु भ के ा ल ण ह? उ र – धन, ी, पु , गृह आ द व ु क और रोग- संकटा दक परवा न करके एकमा परमा ाको त से जाननेक इ ासे ही जो एक न होकर भगवान् क भ करता है ( १४।२६), उस क ाणकामी भ को ज ासु कहते ह। ज ासु भ म परी त् आ द अनेक के नाम ह, परंतु उ वजीका नाम वशेष स है। ीम ागवतके एकादश म अ ाय सातसे तीसतक भगवान् ीकृ ने उ वजीको बड़ा ही द ानका उपदेश दया है, जो उ वगीताके नामसे स है। – ानी भ के ा ल ण ह? उ र – जो परमा ाको ा कर चुके ह, जनक म एक परमा ा ही रह गये ह – परमा ाके अ त र और कु छ है ही नह और इस कार परमा ाको ा कर लेनेसे जनक सम कामनाएँ नःशेष पसे समा हो चुक ह तथा ऐसी तम जो सहज भावसे ही परमा ाका भजन करते ह, वे ानी ह ( १२।१३- १९) । नव अ ायके तेरहव और चौदहव ोक म तथा दसव अ ायके तीसरे और पं हव अ ायके उ ीसव ोकम जनका वणन है वे न ाम अन ेमी साधकभ भी ानी भ के अ गत ह। ा नय म शुकदेवजी, सनका द, नारदजी और भी जी आ द स ह। बालक ाद भी ानीभ माने जाते ह, जनको माताके गभम ही देव ष नारदजीके ारा उपदेश ा हो गया था। ये दै राज हर क शपुके पु थे। हर क शपु भगवान् से ेष रखता था और ये भगवान् के भ थे। इससे हर क शपुने इ ब त ही सताया, साँप से डँ साया, हा थय से कु चलवाया, मकानसे गरवाया, समु म फकवाया, आगम डलवाया और गु ने उ मारनेक चे ा क ; परंतु भगवान् इ बचाते गये। इनके लये भगवान् ने ीनृ सहदेवके पम कट होकर हर क शपुका वध कया। कसी भी भयसे न डरना तो ादक ान तका सूचक है ही; पर गु गृहम इ ने बालकपनम ही अपने सहपा ठय को जो द उपदेश दया है, उससे भी इनका ानी होना स हो जाता है। भागवत और व ुपुराणम इनक सु र कथा पढ़नी चा हये। – यहाँ ' च ' का योग करके ा सू चत कया गया है? –

उ र – ' च ' का योग करके भगवान् ने अथाथ , आत और ज ासु भ क अपे ा ानीक वल णता और े ता सू चत क है। स हव, अठारहव और उ ीसव ोक म जो ानीक म हमा कही गयी है, उसीका संकेत ' च ' के ारा यहाँ सू पम कया गया है। – चार कारके भ म एकक अपे ा दूसरे उ म कौन ह और है? उ र – भगवान् पर ढ़ व ास करके , कसी भी कारसे भगवान् का भजन करनेवाले सभी उ म ह। इसी लये भगवान् ने चार को ही इस ोकम ' सुकृती' और अठारहव ोकम ' उदार' कहा है। परंतु यहाँके वणनके अनुसार अपे ाकृ त तारत से देखनेपर ऐसा तीत होता है क ' अथाथ ' क अपे ा ' आत' उ म ह, ' आत' क अपे ा ' ज ासु' और ' ज ासु' क अपे ा ' ानी' उ म ह। क ' अथाथ ' सांसा रक भोग को सुखम हेतु समझकर उनक कामनासे भगवान् को भजते ह; वे भगवान् के भावको पूणतया नह जानते, इसीसे भगवान् म उनका पूण ेम नह होता और इसीसे वे भोग क आकां ा करते ह। आत भ सुखभोगके लये तो भगवान् से कभी कु छ नह माँगते। इससे य प यह स है क अथाथ क अपे ा उनका भगवान् म अ धक ेम है तथा प उनका ेम शरीर- सुख और मान- बड़ाई आ दम कु छ बँटा आ अव है; इसीसे वे घोर संकट पड़नेपर या अपमा नत होनेपर उससे बचनेके लये भगवान् को पुकारते ह। ज ासु भ न भोग- सुख चाहते ह और न लौ कक वप य से घबराते ह, वे के वल भगवान् के त को ही चाहते ह। इससे यह स हे क सांसा रक भोग म तो वे आस नह ह, परंतु मु क कामना उनम भी बनी ही ई है; अतएव उनका ेम भी ' अथाथ ' और ' आत' क अपे ा वल ण और अ धक होनेपर भी ' ानी' क अपे ा ून ही है। परंतु ' सम भगवान्' के पत को जाननेवाले ानी भ तो बना कसी अपे ाके ाभा वक ही भगवान् को न ाम ेमभावसे न - नर र भजते ह, अतएव वे सव म ह। – यहाँ अजुनको भगवान् ने ' भरतषभ ' नामसे स ो धत कया है, इसम ा हेतु है। उ र – अजुनको ' भरतवं शय म े ' कहकर भगवान् यह सू चत करते ह क तुम सुकृती हो; अतः तुम तो मेरा भजन कर ही रहे हो। चार कारके भ क बात कहकर अब उनम ानी भ के ेमक शंसा और अ ा भ क अपे ा उसक े ताका न पण करते ह – स



े ं





तेषां ानी न यु एकभ व श ते । यो ह ा ननोऽ थमहं स च मम यः ॥१७॥ उनम न है, अ

मुझम एक भावसे

क मुझको त से जाननेवाले य है॥१७॥

त अन

ेमभ

ानीको म अ

वाला ानी भ य ँ और वह

अतउ म ानी मुझे

ानीके साथ जो ' न यु : ' और ' एकभ : ' वशेषण दये गये ह, इनका ा अ भ ाय है? उ र – संसार, शरीर और अपने- आपको सवथा भूलकर जो अन भावसे न - नर र के वल भगवान् म ही त है, उसे ' न यु ' कहते ह; और जो भगवान् म ही हेतुर हत और अ वरल ेम करता है, उसे ' एकभ ' कहते ह; भगवान् के त को जाननेवाले ानी भ म ये दोन बात पूण पसे होती ह, इस लये ये वशेषण दये गये ह । – ानीको म अ य ँ और ानी मुझे अ य है – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – जनको भगवान् के यथाथ त और रह क स क् उपल हो चुक है, जनको सव , सब समय और सब कु छ भगव प ही दीखता है, जनक म एक भगवान् के अ त र और कु छ रह ही नह गया है, भगवान् को ही एकमा परम े और परम यतम जान लेनेके कारण जनके मन- बु स ूण आस और आकां ा से सवथा र हत होकर एकमा भगवान् म ही त ीन हो रहे है – इस कार अन ेमसे जो भगवान् क भ करते ह, उनको भगवान् कतने य ह, यह कौन बतला सकता है? ज ने इस लोक और परलोकके अ य, सुख द तथा सांसा रक मनु क से दुलभ- से- दुलभ माने जानेवाले भोग और सुख क सम अ भलाषा का भगवान् के लये ाग कर दया है, उनक म भगवान् का कतना मह है और उनको भगवान् कतने ारे ह – दूसरे कसीके ारा इसक क ना भी नह क जा सकती। इसी लये भगवान् कहते ह क ' उनके लये म अ य ँ ।' और जनको भगवान् अ तशय य ह वे भगवान् को तो अ तशय य ह गे ही। क थम तो भगवान् ाभा वक ही यं ेम- प ह – यहाँतक क उ ेम- रस- समु से ेमक बूँद पाकर जगत् म सब लोग सुखी होते ह। दूसरे, उनक यह घोषणा है क ' जो मुझको जैसे भजते –

[35]

ह, उनको म वैसे ही भजता ँ ।' तब भगवान् उनसे अ ेम कर, इसम ा आ य है? इसी लये भगवान् कहते है क वे मुझे अ य ह। इस ोकम भगवान् के गुण, भाव, रह और त को भलीभाँ त जाननेवाले भगव ा ेमी भ के ेमक तथा उ को टके साधक अन ेमी भ के ेमक पराका ा दखलाते ए उनक शंसा क गयी है।

भगवान् ने ानी भ को सबसे े और अ य बतलाया। इसपर यह शंका हो सकती है क ा दूसरे भ े और य नह ह ? इसपर भगवान् कहते ह – स



उदाराः सव एवैते ानी ा ैव मे मतम् । आ तः स ह यु ा ा मामेवानु मां ग तम् ॥१८॥

ये सभी उदार ह, परंतु ानी तो सा ात् मेरा वह म त मन - बु वाला ानी भ अ त उ म ग त

प ही है, ऐसा मेरा मत है, प मुझम ही अ ी कार

क त

है॥१८॥

ये सभी उदार ह इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – यहाँ जन चार कारके भ का संग है, उनम ानीके लये तो कोई बात ही नह है; अथाथ , आत और ज ासु भ भी सवथा एक न ह, उनका भगवान् म ढ़ और परम व ास है। वे इस बातका भलीभाँ त न य कर चुके ह क भगवान् सवश मान् ह, सव ह, सव र ह, परम दयालु ह और परम सुहद् ह; हमारी आशा और आकां ा क पू त एकमा उ से हो सकती है। ऐसा मान और जानकर, वे अ सब कारके आ य का ाग करके अपने जीवनको भगवान् के ही भजन- रण, पूजन और सेवा आ दम लगाये रखते ह। उनक एक भी चे ा ऐसी नह होती, जो भगवान् के व ासम जरा भी ु ट लानेवाली हो। उनक कामनाएँ सवथा समा नह हो गयी है, परंतु वे उनक पू त कराना चाहते ह एकमा भगवान् से ही। जैसे कोई प त ता ी अपने लये कु छ चाहती तो है, परंतु चाहती है एकमा अपने यतम प तसे ही; न वह दूसरेक ओर ताकती है, न व ास करती है और न जानती ही हे। इसी कार वे भ भी एकमा भगवान् पर ही भरोसा रखते है। इसी लये भगवान् कहते ह क वे सभी उदार ( े ) ह। इसी लये तेईसव ोकम भगवान् ने कहा है – ' मेरे भ चाहे जैसे भी –

मुझे भजते ह , अ म वे मुझको ही ा होते ह।' नवम अ ायम भी भगवान् क भ का ऐसा ही फल बतलाया गया है ( ९।२५) । – यहाँ ' तु ' के योगका ा अ भ ाय है? उ र – चार ही कारके भ उ म और भगवान् को य ह। परंतु इनम पहले तीन क अपे ा ानीम जो वल णता है, उसको करनेके लये ही ' तु ' का योग कया गया है। – ानी तो मेरा प ही है, ऐसा मेरा मत है – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – यहाँ भगवान् यह दखला रहे ह क ानी भ म और मुझम कु छ भी अ र नह है। भ है सो म ँ , और म ँ सो भ है। – ' यु ा ा ' श का ा अथ है और उसका अ त उ म ग त प भगवान् म अ ी कार त होना ा है? उ र – जनके मन- बु भलीभाँ त भगवान् म त य हो गये ह, उ ' यु ा ा ' कहते ह और ऐसे पु षका एकमा भगवान् को ही सव म और परम ग त समझकर न - नर र उनम एक भावसे अचल त हो जाना अथात् उनको ा हो जाना ही अ त उ म ग त प भगवान् म अ ी तरह त होना है। स



अब उस ानी भ क दुलभता बतलानेके लये भगवान् कहते ह –

ब नां ज नाम े ानवा ां प ते । वासुदेवः सव म त स महा ा सुदलु भः ॥१९॥

ब त ज के अ के ज म त ानको ा पु ष , सब कुछ वासुदेव ही है इस कार मुझको भजता है, वह महा ा अ दल ु भ है॥११॥



यहाँ ' ब नां जमनाम े ' का ा अ भ ाय है? उ र – जस ज म मनु भगवान् का ानी भ बन जाता है, वही उसके ब त- से ज के अ का ज है। क भगवान् को इस कार त से जान लेनेके प ात् उसका पुन: ज नह होता; वही उसका अ म ज होता है। –

भ है?

य द यह अथ मान लया जाय क ब त ज तक सकामभावसे भगवान् क करते- करते उसके बाद मनु भगवान् का ऐका क ानी भ होता है, तो ा हा न –

उ र – ऐसा मान लेनेसे भगवान् के अथाथ , आत और ज ासु भ के ब त- से ज अ नवाय हो जाते है। परंतु भगवान् ने ान- ानपर अपने सभी कारके भ को अपनी ा का होना बतलाया है ( ७।२३; ९।२५) और वहाँ कह भी ब त ज क शत नह डाली है। अव ही ा और ेमक कमीसे श थल साधन होनेपर अनेक ज भी हो सकते ह, परंतु य द ा और ेमक मा ा बड़ी ई हो और साधनम ती ता हो तो एक ही ज म भगव ा हो सकती है। इसम कालका नयम नह है । – यहाँ ' ानवान् ' श का योग कसके लये आ है? उ र – भगवान् ने इसी अ ायके दूसरे ोकम व ानस हत जस ानके जाननेक शंसा क थी, जस ेमी भ ने उस व ानस हत ानको ा कर लया है तथा तीसरे ोकम जसके लये कहा है क कोई एक ही मुझे त से जानता है, उसीके लये यहाँ ' ानवान् ' श का योग आ है। इसी लये अठारहव ोकम भगवान् ने उसको अपना प बतलाया है। – सब कु छ वासुदेव ही है – इस कार भगवान् का भजन करना ा है? उ र – स ूण जगत् भगवान् वासुदेवका ही प है, वासुदेवके सवा और कु छ है ही नह , इस त का और अटल अनुभव हो जाना और उसीम न त रहना – यही सब कु छ वासुदेव है, इस कारसे भगवान् का भजन करना है। – वह महा ा अ दुलभ है – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इसका यह अ भ ाय है क जगत् म थम तो लोग क भजनक ओर च ही नह होती, हजार म कसीक कु छ होती है तो वह अपने भावके वश श थल य होकर भजन छोड़ बैठता है। कोई य द कु छ वशेष य करता भी है तो वह ा- भ क कमीके कारण कामना के वाहम उसको बहाता रहता है, इस कारण वह भी भगवान् को त से जान ही नह पाता। इससे यह स है क जगत् म भगवान् को त से जाननेवाले महापु ष कोई वरले ही होते ह। अतएव यही समझना चा हये क इस कारके महा ा अ ही दुलभ ह।

ऐसे महा ा य द कसीको ा हो जायँ तो उसका ब त बड़ा सौभा समझना चा हये। देव ष नारदजीने कहा है – ' मह ंग ु दुलभोऽग ोऽमोघ ।' ( भ सू ३१) ' महापु ष का संग दुलभ, अग और अमोघ है।'

प हव ोकम आसुरी कृ तके दु ृ त लोग के भगवान् को न भजनेक और सोलहवसे उ ीसवतक सुकृती पु ष के ारा भगवान् को भजनेक बात कही गयी। अब भगवान् उनक बात कहते ह जो सुकृती होनेपर भी कामनाके वश अपनी - अपनी कृ तके अनुसार अ ा देवाता क उपासना करते ह – स



कामै ै ै त ानाः प ेऽ देवताः । तं तं नयममा ाय कृ ा नयताः या ॥२०॥

उन - उन भोग क कामना ारा जनका ान हरा जा चुका है, वे लोग अपने भावसे े रत होकर उस - उस नयमको धारण करके अ देवता को भजते ह अथात् पूजते ह॥२०॥

यहाँ ' उन' श का दो बार योग करनेका ा अ भ ाय है? और कामना ारा ानका हरा जाना ा है? उ र – ' उन' श का दो बार योग करके यही दखलाया गया है क इस कार सबक कामना एक- सी नह होती। उन भोगकामना के मोहसे मनु म यह ववेक नह रहता क ' म कौन ँ , मेरा ा कत है, ई र और जीवका ा स है, मनु - ज क ा कस लये ई है, अ शरीर से इसम ा वशेषता है और भोग म न भूलकर भजन करनेम ही अपना क ाण है।' इस कार इस ववेक- श का वमो हत हो जाना ही कामनाके ारा ानका हरा जाना है। – पं हव ोकम जनको ' माययाप त ाना : ' कहा गया है उनम और यहाँ जनको ' तै : तै : कामैः त ाना : ' कहा है, उनम ा भेद है? उ र – पं हव ोकम जनका वणन है, उनको भगवान् ने पापा ा, मूढ़, नराधम और आसुर भाववाले बतलाया है; वे आसुरी कृ तवाले होनेके कारण तमः धान ह और नरकके –

भागी ह ( १६।१६,१९)। तथा यहाँ भ - भ कामना से जनका ान हरा गया बतलाया है, वे देवता क पूजा करनेवाले भ ालु एवं देवलोकके भागी ( ७।२३,९।२५), रजो म त सा क माने गये ह; अत: दोन म बड़ा भारी अ र है । – ' अपना भाव' कसका वाचक है और ' उससे े रत होना' ा है? उ र – ज - ज ा रम कये ए कम से सं ार का संचय होता है और उस सं ारसमूहसे जो कृ त बनती है उसे ' भाव' कहा जाता है। भाव ेक जीवका भ होता है। उस भावके अनुसार जो अ ःकरणम भ - भ देवता का पूजन करनेक भ - भ इ ा उ होती है, उसीको ' उससे े रत होना' कहते ह! – उस- उस नयमको धारण करके अ देवता का भजना ा है? उ र – सूय, च मा, अ , इ , म त्, यमराज और व ण आ द शा ो देवता को भगवान् से भ समझकर जस देवताक , जस उ े से क जानेवाली उपासनाम जप, ान, पूजन, नम ार ास, हवन, त, उपवास आ दके जो- जो भ - भ नयम ह, उन- उन नयम को धारण करके बड़ी सावधानीके साथ उनका भलीभाँ त पालन करते ए उन देवता क आराधना करना ही उस- उस नयमको धारण करके अ देवता को भजना है। कामना और इ देवक भ ताके अनुसार पूजा दके नयम म भेद होता है, इसी लये ' उस' श का योग दो बार कया गया है। साथ ही एक बात और भी है – भगवान् से अलग मानकर उनक पूजा करनेसे ही वह अ देवताक पूजा होती है। य द देवता को भगवान् का ही प समझकर, भगवान् के आ ानुसार न ामभावसे या भगव ी थ उनक पूजा क जाय तो वह अ देवता क न होकर भगवान् क ही पूजा हो जाती है और उसका फल भी भगव ा ही होता है।

अब दो ोक म देवोपासक को उनक उपासनाका कै से और ा फल मलता है, इसका वणन करते ह – स



यो यो यां यां तनुं भ ः या चतु म त । त त ाचलां ां तामेव वदधा हम् ॥२१॥

जो - जो सकाम भ जस - जस देवताके पको ासे पूजना चाहता है उस - उस भ क ाको म उसी देवताके त र करता ँ ॥२१॥ –'



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पदके साथ ' य : ' का औ२ ' तनुम् ' के साथ ' याम् ' का दुबारा योग

करनेक ा अ भ ाय है? उ र – ' यः ' का दो बार योग करके भ क और ' याम् ' का दो बार योग करके देवता क अनेकता दखलायी है। अ भ ाय यह है क सकाम भ भी ब त कारके होते ह और उनक अपनी- अपनी कामना और कृ तके भेदसे उनके इ देवता भी पृथकृ - पृथकृ ही होते है। – देवताके पको ासे पूजना चाहता है – इसका ा भाव है? उ र – देवता क स ाम, उनके भाव और गुण म तथा पूजन- कार और उसके फलम पूरा व ास करके ापूवक जस देवताक जैसी मू तका वधान हो, उसक वैसे ही धातु, का , म ी, पाषाण आ दक मू त या च पटक व धपूवक ापना करके अथवा मनके ारा मान सक मू तका नमाण करके जस म क जतनी सं ाके जपपूवक जन साम य से जैसी पूजाका वधान हो, उसी म क उतनी ही सं ा जपकर उ साम य से उसी वधानसे पूजा करना, देवता के न म अ म आ त देकर य ा द करना, उनका ान करना, सूय, च ,अ आद देवता का पूजन करना और इन सबको यथा व ध नम ारा द करना – यही ' देवता के पको ासे पूजना' है। – ' ताम् ' इस पदका ' ाम् ' के साथ स न करके उसे ' तनुम् ' ( देवताके प) का बोधक माना गया? उ र – पूवाधम जन ' यां याम् ' पद का ' तनुम् ' ( देवताके प) से स है उ के साथ एका य करनेके लये ' ताम् ' को भी ' तनुम् ' का ही बोधक मानना उ चत जान पड़ता है। ाके साथ उसका स माननेपर भी भावम कोई अ र नह आता, क वैसा माननेसे भी उस ाको देवता वषयक मानना पड़ेगा। – यहाँ ' एव ' का ा अ भ ाय है?

उ र – ' एव ' का योग करके भगवान् यह बात दखलाते ह क जो भ जस देवताका पूजन करना चाहता है उसक ाको म उसी इ देवताके त र कर देता ँ ।

स तया या यु ाराधनमीहते । लभते च ततः कामा यैव व हता तान् ॥२२॥

वह पु ष उस ासे यु मेरे ारा ही वधान कये ए उन इ

होकर उस देवताका पूजन करता है और उस देवतासे त भोग को नःस ेह ा करता है॥२२॥

इस ोकम भगवान् के कथनका ा अ भ ाय है? उ र – यहाँ भगवान् यह भाव दखलाते ह क मेरी ा पत क ई उस ासे यु होकर वह यथा व ध उस देवताका पूजन करता है, तब उस उपासनाके फल प उ देवताके ारा उसे वही इ त भोग मलते ह जो मेरे ारा पहलेसे ही नधा रत होते ह। मेरे वधानसे अ धक या कम भोग दान करनेक साम देवता म नह है। अ भ ाय यह है क देवता क कु छ वैसी ही त समझनी चा हये जो कसी बड़े रा म कानूनके अनुसार काय करनेवाले व भ वभाग के सरकारी अफसर क होती हे। वे कसीको उसके कायके बदलेम कु छ देना चाहते ह तो उतना ही दे सकते ह जतना कानूनके अनुसार उसके कायके लये उसको मलनेका वधान है और जतना देनेका उ अ धकार है। – इस ोकम ' हतान् ' पदको ' कामान् ' का वशेषण मानकर य द यह अथ कया जाय क वे ' हतकर' भोग को देते ह तो ा हा न है? उ र – ऐसा अथ करना उ चत नह तीत होता, क ' काम' श वा भोगपदाथ कसीके लये यथाथम हतकर होते ही नह । –

अब उपयु अ देवता क उपासनाके फलको वनाशी बतलाकर भगवदुपासनाके फलक मह ाका तपादन करते ह – स



अ व ु फलं तेषां त व मेधसाम् । देवा ेवयजो या म ा या माम प ॥२३॥

देवता

परंतु उन अ बु वाल का वह फल नाशवान् है तथा वे देवता को पूजनेवाले को ा होते ह और मेरे भ चाहे जैसे ही भज , अ म वे मुझको ही ा होते

ह॥२३॥

पं हव ोकम जनको मूढ़ बतलाया गया है, उनम और इन देवता क उपासना करनेवाले ' अ बु ' मनु म ा अ र है? और इ ' अ बु ' कहनेका ा अ भ ाय है। उ र – पं हव ोकम भगवान् क भ न करके पापाचरण करनेवाले नराधम को आसुर भावसे यु और मूढ़ बतलाया गया है। यहाँ ये पापाचरणसे र हत और शा व धसे देवता क उपासना करनेवाले होनेके कारण उन लोग क अपे ा कह े है और आसुर भावको ा तथा सवथा मूढ़ भी नह ह; परंतु कामना के वशम होकर अ देवता को भगवान् से पृथक् मानकर, भोगव ु के लये उनक उपासना करते ह, इस लये भ क अपे ा न ेणीके और ' अ बु ' तो ह ही। य द इनक बु अ न होती तो ये इस बातको अव समझते क सब देवता के पम भगवान् ही सम पूजा को और आ तय को हण करते ह तथा भगवान् ही सबके एकमा परम अधी र है ( ५।२९; ९।२४) । इस बु क अ ताके कारण ही इतने महान् प र मसे कये जानेवाले य ा द वशाल कम का इ ब त ही ु और वनाशी फल मलता है। य द ये बु मान् होते तो भगवान् के भावको समझकर भगवान् क उपासनाके लये ही इतना प र म करते, अथवा सम देवता को भगवान् से अ भ समझकर भगव ा तके लये उनक उपासना करते, तो इतने ही प र मसे, ये उस महान् और दुलभ फलको ा करके कृ तकृ हो जाते। यही भाव दखलानेके लये इ अ बु कहा गया है। – देवता को ा होना ा है? ा देवता का पूजन करनेवाले सभी भ उनको ा होते ह? और देवोपासनाके फलको अ वत् बतलाया गया है? उ र – जन देवता क उपासना क जाती है, उन देवता के लोकम प ँ चकर देवता के सामी , सा तथा वहाँके भोग को पा लेना ही देवता को ा होना है। देवोपासनाका बड़े- से- बड़ा फल यही है, परंतु सभी देवोपासक को यह फल भी नह मलता। ब त- से लोग तो – जो ी, पु , धन और मान- त ा आ द तु और णक भोग के लये उपासना करते ह – अपनी- अपनी कामनाके अनुसार उन भोग को पाकर ही रह जाते ह। कु छ, जो देवताम वशेष ा बढ़ जानेसे भोग क अपे ा देवताम अ धक ी त करके उपासना करते ह तथा मरणकालम ज उन देवता क ृ त होती है, वे देवलोकम जाते ह। परंतु यह खयाल –

रखना चा हये क वे देवता, उनके ारा मलनेवाले भोग तथा उनके लोक – सभी वनाशशील ह। इसी लये उस फलको ' अ वत् ' कहा गया है। – भगवान् को ा होना ा है, भगवान् के आता द सभी भ भगवान् को कै से ा हो जाते ह, एवं इस वा म ' अ प ' के योगसे ा भाव दखलाया गया है? उ र – भगवान् के न द परमधामम नर र भगवान् के समीप नवास करना अथवा अभेदभावसे भगवान् म एक को ा हो जाना, दोन हीका नाम ' भगव ा ' है। भगवान् के ानी भ क म तो स ूण जगत् भगवान् का ही प है, अत: उनको तो भगवान् न ा ह ही; उनके लये तो कु छ कहना ही नह है। ज ासु भ भगवान् को त से जानना चाहते ह, अत: उ भी भगवान् का त ान होते ही भगव ा हो जाती है। रहे अथाथ और आत, सो वे भी भगवान् क दयासे भगवान् को ही ा हो जाते है। भगवान् परम दयालु और परम सुहद् ह। वे जस बातम भ का क ाण होता है, जस कार वह शी उनके समीप प ँ चता है वही काम करते ह। जस कामनाक पू तसे या जस संकटके नवारणसे भ का अ न होता हो, मोहवश भ के याचना करनेपर भी भगवान् उस कामनाक पू त अथवा संकटका नवारण नह करते; और जसक पू तसे उनम भ का व ास और ेम बढ़ता है उसीक पू त करते ह। अतएव भगवान् के भ कामनाक पू तके साथ- साथ आगे चलकर भगवा ो भी ा कर लेते ह। इसी भावसे इस ोकम ' अ प ' का योग कया गया है। भगवान् का भाव ही ऐसा है क जो एक बार कसी भी उ े से भ के ारा भगवान् से स जोड़ लेता है, फर य द वह उसे तोड़ना भी चाहता है तो भगवान् उसे नह तोड़ने देते। भगवान् क भ क यही म हमा है क वह भ को उसक इ त व ु दान करके अथवा उस व ुसे प रणामम हा न होती हो तो उसे न करके भी न नह होती। वह उसके अंदर छपी रह जाती है और अवकाश पाते ही उसे भगवान् क ओर ख च ले जाती है। एक बार कसी भी कारणसे मली ई भ अनेक ज बीतनेपर भी तबतक उसका प नह छोड़ती, जबतक क उसे भगवान् क ा नह करा देती। और भगवान् क ा होनेके प ात् तो भ के छू टनेका ही नह रहता; फर तो भ , भ और भगवान् क एकता ही हो जाती है। स – जब भगवान् इतने ेमी और दयासागर ह क जस - कसी कारसे भी भजनेवालेको अपने पक ा करा ही देते ह तो फर सभी लोग उनको नह भजते ,

इस ज ासापर कहते ह –

अ ं माप ं म े मामबु यः । परं भावमजान ो ममा यमनु मम् ॥२४॥

बु हीन पु ष मेरे अनु म अ वनाशी परम भावको न जानते ए मन - इ य से परे मुझ स दान धन परमा ाको मनु क भाँ त ज कर भावको ा मानते ह॥२४॥

यहाँ ' अबु य : ' पद कै से मनु का वाचक है और भगवान् के ' अनु म अ वनाशी परमभावको न जानना' ा है? उ र – भगवान् के गुण, भाव, नाम, प और लीला आ दम जनका व ास नह है तथा जनक मोहावृत और वषय वमो हत बु तकजाल से समा है, वे मनु ' बु हीन' ह । उ के लये ' अबु य : ' का योग कया गया है, ऐसे लोग क बु म यह बात आती ही नह क सम जगत् भगवान् क ही वध कृ तय का व ार है और उन दोन कृ तय के परमाधार होनेसे भगवान् ही सबसे उ म ह, उनसे उ म और कोई हे ही नह । उनके अ च और अकथनीय प, भाव, मह तथा अ तमगुण मन एवं वाणीके ारा यथाथ पम समझे और कहे नह जा सकते। अपनी अन दयालुता और शरणागतव लताके कारण जगत् के ा णय को अपनी शरणाग तका सहारा देनेके लये ही भगवान् अपने अज ा, अ वनाशी और महे र- भाव तथा साम के स हत ही नाना प म कट होते ह और अपनी अलौ कक लीला से जगत् के ा णय को परमान के महान् शा महासागरम नम कर देते ह। भगवान् का यही न , अनु म और परम भाव है तथा इसको न समझना ही ' उनके अनु म अ वनाशी परमभावको नह समझना' है। – मुझे अ से आ मानते ह, इस वा का ा अ भ ाय है? उ र – भगवान् के नगुण- सगुण दोन ही प न और द ह। वे अपने अ च और अलौ कक द प, भाव, भाव और गुण को लये ए ही मनु आ द प म अवतार धारण करते ह। मनु ा दके प म उनका ादुभाव होना ही ज है और अ धान हो जाना ही परमधामगमन है। अ ा णय क भाँ त शरीर- संयोग- वयोग प ज - मरण उनके नह होते। इस रह को न समझनेके कारण बु हीन मनु समझते ह क जैसे अ सब ाणी ज से पहले अ थे अथात् उनक कोई स ा नह थी, अब ज लेकर ए ह; इसी –

कार यह ीकृ भी ज से पहले नह था। अब वसुदेवके घरम ज लेकर आ है। अ मनु म और इसम अ र ही ा है? अथात् कोई भेद नह है। यह भाव दखानेके लये ऐसा कहा है क बु हीन मनु मुझे अ से आ मानते ह। – य द यह अथ मान लया जाय क ' बु हीन' मनु मुझ अ को अथात् नगुण- नराकार परमे रको सगुण- साकार मनु पम कट होनेवाला मानते ह तो ा हा न है? उ र – यहाँ यह अथ मानना उपयु नह जँचता, क भगवान् के नगुण- सगुण, नराकार- साकार सभी प शा स त ह। यं भगवान् ने कहा है क ' म अज ा अ वनाशी परमे र ही अपनी कृ तको ीकार करके साधु के प र ाण, दु के वनाश और धमसं ापना दके लये समय- समयपर कट होता ँ ' ( ४। ६- ७- ८) । अत: उनको बु हीन माननेपर भगवान् के इस कथनसे वरोध आता है और अवतारवादका ख न होता है, जो गीताको कसी कार भी मा नह है। – य द यहाँ इसका यह अथ मान लया जाय क ' बु हीन मनु ' मुझ ' माप म् ' अथात् मनु पम कट ए सगुण- साकार परमे रको अ अथात् नगुण- नराकार समझते ह, तो ा हा न है? उ र – यह अथ भी नह जँचता है; क जो परमे र सगुण- साकार पम कट ह वे नगुण- नराकार भी है। इसी लये इस यथाथ त को समझनेवाला पु ष बु हीन कै से माना जा सकता है। भगवान् ने यं कहा है क मुझ अ ( नराकार) – पसे यह सम जगत् ा है( ९।४) । अतएव जो अथ कया गया है, वही ठीक मालूम होता है।

मनु



इस कार मनु के पम कट सवश मान परमे रको लोग साधारण समझते ह ? इसपर कहते ह – –

नाहं काशः सव योगमायासमावृतः । मूढोऽयं ना भजाना त लोको मामजम यम् ॥२५॥

अपनी योगमायासे छपा आ म सबके नह होता , इस लये यह अ ानी जनसमुदाय मुझ ज र हत अ वनाशी परमे रको नह जानता अथात् मुझको ज ने मरनेवाला समझता है॥२५॥

ा है?

–'

योगमाया

'

श कसका वाचक है? और भगवान् का उससे समावृत होना

उ र – चौथे अ ायके छठे ोकम भगवान् ने जसको ' आ माया' कहा है, जस योगश से भगवान् द गुण के स हत यं मनु ा द प म कट होते ए भी लोक म ज धारण करनेवाले साधारण मनु - से ही तीत होते ह, उसी मायाश का नाम ' योगमाया' है। भगवान् जब मनु ा द पम अवतीण होते ह तब जैसे ब पया कसी दूसरे ाँगम लोग के सामने आता है उस समय अपना असली प छपा लेता है वैसे ही अपनी उस योगमायाको चार ओर फै लाकर यं उसम छपे रहते ह; यही उनका योगमायासे आवृत होना है। – ' म सबके नह होता' इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क भगवान् अपनी योगमायासे छपे रहते ह, साधारण मनु क उस मायाके परदेसे पार नह हो सकती। इस कारण अ धकांश मनु उनको अपने- जैसा ही साधारण मनु मानते ह। अतएव भगवान् सबके नह होते। जो भगवान् के ेमी भ होते ह तथा उनके गुण, भाव, प और लीलाम पूण ा और व ास रखते ह, जनको भगवान् अपना प रचय देना चाहते ह के वल उ के वे होते ह। – जीवका तो मायासे आवृत होना ठीक है, पर ु भगवान् का मायासे आवृत होना कै से माना जा सकता है? उ र – जैसे सूयका बादल से ढक जाना कहा जाता है; पर ु वा वम सूय नह ढक जाता, लोग क पर ही बादल का आवरण आता है। य द सूय वा वम ढक जाता तो उसका ा म कह काश नह होता। वैसे ही भगवान् व ुत: मायासे आवृत नह होते, य द वे आवृत होते तो कसी भी भ को उनके यथाथ दशन नह होते! के वल मूढ के लये ही उनका आवृत होना कहा जाता? यथाथम सूयका उदाहरण भी भगवान् के साथ नह घटता, क अन के साथ कसी भी सा क तुलना हो ही नह सकती। लोग को समझानेके लये ही ऐसा कहा जाता है। – यहाँ ' अयम् ' और ' मूढ़ : ' वशेषण के स हत जो ' लोक : ' पद आया है यह कसका वाचक है? यह पं हव ोकम जन आसुरी कृ तवाले मूढ का वणन है, उनका वाचक

है या बीसव ोकम जनके ानको कामनाके ारा हरण कया आ बतलाया गया है, उन अ देवता के उपासक का? उ र – यहाँ ' अयम् ' वशेषण होनेसे यह तीत होता है क ' लोक : ' पदका योग के वल भगवान् के भ को छोड़कर शेष पापी, पु ा ा – सभी ेणीके साधारण अ ानी मनु - समुदायके लये कया गया है, कसी एक ेणी- वशेषके अ भ ायसे नह । – ' अ ानी जनसमुदाय मुझ ज र हत अ वनाशी परमे रको नह जानता' इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – यहाँ यह भाव दखलाया गया है क ा और ेमके अभावके कारण भगवान् के गुण, भाव, प, लीला, रह और म हमाको न जानकर साधारण अ ानी मनु इसी मम पड़े रहते ह क ये ीकृ भी हमारे ही- जैसे मनु ह तथा हमारी ही भाँ त ज ते और मरते ह। वे इस बातको नह समझ पाते क ये ज - मृ ुसे अतीत न , स , व ानान घन सा ात् परमे र ह।

भगवान् ने अपनेको योगमायासे आवृत बतलाया। इससे कोई यह न समझ ले क जैसे मोटे परदेके अंदर रहनेवालेको बाहरवाले नह देख सकते और वह बाहरवाल को नह देख सकता इसी कार य द लोग नह जानते तो भगवान् भी लोग को नह जानते ह गे – इस लये और साथ ही यह दखलानेके लये क योगमाया मेरे ही अधीन और मेरी ही श वशेष है, वह मेरे द ानको आवृत नह कर सकती, भगवान् कहते ह – स



वेदाहं समतीता न वतमाना न चाजुन । भ व ा ण च भूता न मां तु वेद न क न ॥२६॥

हे अजुन ! पूवम

तीत ए और वतमानम

म जानता ँ , परंतु मुझको कोई भी

ा-भ

त तथा आगे होनेवाले सब भूत को

र हत पु ष नह जानता॥२६॥

यहाँ ' भूता न ' पद कसका वाचक है? तथा ' पूवम तीत ए, वतमानम त और आगे होनेवाले सब भूत को म जानता ँ ' इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – देवता, मनु , पशु और क ट- पतंगा द जतने भी चराचर ाणी है, उन सबका वाचक ' भूता न ' पद है। भगवान् कहते ह क वे सब अबसे पूव अन क - क ा र म कब –

कन- कन यो नय म कस कार उ होकर कै से रहे थे और उ ने ा- ा कया था तथा वतमान क म कौन, कहाँ, कस यो नम कस कार उ होकर ा कर रहे ह और भ व क म कौन कहाँ कस कार रहगे, इन सब बात को म जानता ँ । यह कथन भी लोक से ही है; क भगवान् के लये भूत, भ व और वतमानकालका भेद नह है। उनके अख ान पम सभी कु छ सदा- सवदा है। उनके लये सभी कु छ सदा वतमान है। व ुत: सम काल के आ य महाकाल वे ही ह, इस लये उनसे कु छ भी छपा नह है। – यहाँ ' तु ' के योगका ा अ भ ाय है? उ र – जीव से भगवान् क अ वशेषता दखलानेके लये ' तु ' का योग कया गया है। – ' क न ' पद कसका वाचक है? और अथम उसके साथ ' ा- भ र हत पु ष' यह वशेषण जोड़नेका ा अ भ ाय है? उ र – इसी अ ायके तीसरे ोकम भगवान् कह चुके ह ' कोई एक मुझे त से जानता है' और इसी अ ायके तीसव ोकम भी कहा है-' अ धभूत, अ धदैव और अ धय स हत मुझको जानते ह।' इसके अ त र ारहव अ ायके चौवनव ोकम भी भगवान् ने कहा है – ' अन भ के ारा मनु मुझको त से जान सकता है, मुझे देख सकता है और मुझम वेश भी कर सकता है।' इस लये यहाँ यह समझना चा हये क भगवान् के भ के अ त र जो साधारण मूढ़ मनु ह, उनम भगवान् को कोई भी नह जान पाता। ' क न' पद ऐसे ही मनु को ल करता है और इसी भावको करनेके लये अथम ' ाभ र हत पु ष' वशेषण लगाया गया है। अगले ोकम राग- ेषज नत मोहको ही न जाननेका कारण बतलाया है, इससे भी यही स है क राग- ेषर हत भ गण भगवान् को जान सकते ह।

ा - भ र हत मूढ़ मनु मसे कोई भी भगवान् को नह जानता, इसम ा कारण है? यही बतलानेके लये भगवान् कहते ह – स



इ ा ेषसमु ेन मोहेन भारत । सवभूता न स ोहं सग या पर प ॥ ७-२७॥

हे भरतवंशी अजुन ! संसारम इ ा और ेषसे उ मोहसे स ूण ाणी अ अ ताको ा हो रहे ह॥२७॥ –'

ा है?



ा - ेष ' श

कसके वाचक ह और उनसे उ

सुख

-

दःु खा द

होनेवाला



ु प मोह

उ र – जनको भगवान् ने मनु के क ाणमागम व डालनेवाले श ु ( प रप ी) बतलाया है ( ३।३४) और काम- ोधके नामसे ( ३।३७) जनको पाप म हेतु तथा मनु का वैरी कहा है – उ राग- ेषका यहाँ ' इ ा' और ' ेष ' के नामसे वणन कया है। इन ' इ ा- ेष' से जो हष- शोक और सुख- दुःखा द उ होते ह, वे इस जीवके अ ानको ढ़ करनेम कारण होते ह; अतएव उ का नाम ' प मोह' है। – ' सवभूता न ' पद कनका वाचक है और उनका मो हत होना ा है? उ र – स ी ा- भ के साथ भगवान् का भजन करनेवाले भ को छोड़कर शेष सम जन- समुदायका वाचक यहाँ ' सवभूता न ' पद है। उनका जो इ ा- ेष- ज नत हषशोक और सुख- दुःखा द प मोहके वश होकर अपने जीवनके परम उ े को भूलकरकर भगवान् के भजन- रणक जरा भी परवा न करना और दुःख तथा भय उ करनेवाले नाशवान् एवं णभंगुर भोग को ही सुखका हेतु मानकर उ के सं ह और भोगक चे ा करनेम अपने अमू जीवनको न करते रहना है – यही उनका मो हत होना है । भूता न ' के साथ ' सव ' श का योग होनेसे ऐसा म हो सकता है क सभी ाणी मोहसे मो हत हो रहे ह, कोई भी उससे बचा नह हे, अतएव ऐसे मक नवृ के लये भगवान् कहते हे – स

–'

येषां गतं पापं जनानां पु कमणाम् । ते मोह नमु ा भज े मां ढ ताः ॥२८॥

परंतु न ामभावसे गया है, वे राग - ेषज नत ह॥२८॥ –

े कमका आचरण करनेवाले जन पु ष का पाप न हो प मोहसे मु ढ न यी भ मुझको सब कारसे भजते

यहाँ ' तु ' के योगका ा अ भ ाय है?

उ र – साधारण जन- समुदायसे भगवान् के े भ क वशेषता दखलानेके लये यहाँ ' तु ' का योग कया गया है। – न ामभावसे े कम का आचरण करनेवाले जन पु ष का पाप न हो गया है – यह कथन कन पु ष के लये है? उ र – जो लोग ज - ज ा रसे शा व हत य , दान और तप आ द े कम तथा भगवान् क भ करते आ रहे ह, तथा पूवसं ार और उ म संगके भावसे जो इस ज म भी न ामभावसे े कम का आचरण तथा भगवान् का भजन करते ह और अपने दुगुणदुराचारा द सम दोष का सवथा नाश हो जानेसे जो प व ा ःकरण हो गये ह, उन पु ष के लये उ कथन है । – मोहसे मु होना ा है ' उ र – राग- ेषसे उ होनेवाले सुख- दुःख और हष- शोक आ द के समुदाय प मोहसे सवथा र हत हो जाना, अथात् सांसा रक सुख- दुःखा दसे संयोग- वयोग होनेपर कभी, कसी अव ाम, च के भीतर कसी कारका भी वकार न होना ' मोहसे मु होना' है। – ' दढ ू ता : ' का ा अ भ ाय है? उ र – जो बड़े- से- बड़े लोभन और व - बाधा के आनेपर भी कसीक कु छ भी परवा न कर भजनके बलसे सभीको पदद लत करते ए अपने ा- भ मय वचार और नयम पर अ ढ़तासे अटल रहते ह, जरा भी वच लत नह होते, उन ढ़ न यी भ को ' ढ़ त' कहते ह। – भगवान् को सब कारसे भजना ा है? उ र – भगवान् को ही सव ापी, सवाधार, सवश मान्, सबके आ ा और परम पु षोतम समझकर अपने बाहरी और भीतरी सम करण को ा- भ पूवक उ क सेवाम लगा देना अथात् बु से उनके त का न य, मनसे उनके गुण, भाव, प ओर लीलारह का च न, वाणीसे उनके नाम और गुण का क तन, सरसे उनको नम ार, हाथ से उनक पूजा और दीन- दुःखी आ दके पम उनक सेवा, ने से उनके व हके दशन, चरण से उनके

म र और तीथा दम जाना तथा अपनी सम व ु को नःशेष पसे के वल उनके ही अपण करके सब कार के वल उ का हो रहना – यही सब कारसे उनको भजना है। स



अब भगवान् का भजन करनेवाल के भजनका कार और फल बतलाते ह –

जरामरणमो ाय मामा यत ये । ते त दुः कृ म ा ं कम चा खलम् ॥२९॥

जो मेरे शरण होकर जरा और मरणसे छू टनेके लये य को, समपूण अ ा को , समपूण कमको जानते ह॥२१॥

करते ह, वे पु ष उस

जरा- मरणसे छू टनेके लये भगवान् क शरण होकर ' य करना' ा है? उ र – जबतक ज से छु टकारा नह मलता, तबतक वृ ाव ा और मृ ुसे छु टकारा मलना अस व है और ज से छु टकारा तभी मलता है, जब जीव अ ानज नत कमब नसे सवथा मु होकर भगवान् को ा हो जाता है। भगवान् क ा सब कामना का ाग करके ढ़ न यके साथ भगवान् का न - नर र भजन करनेसे ही होती है और ऐसा भजन मनु से तभी होता है जब वह स ंगका आ य लेकर पाप से छू ट जाता है तथा आसुर भाव का सवथा ाग कर देता है। भगवान् ने इसी अ ायम कहा है–' आसुर भाववाले नीच और पापी मूढ़ मनु मुझको नह भजते ( ७।१५) ;' इसी लये स ाईसव ोकम भी भगवान् को न जाननेका कारण बतलाते ए कहा गया है क ' राग- ेषज नत सुख- दुःखा द के मोहम पड़े ए जीव सवथा अ ानम डू बे रहते ह।' ऐसे मनु के मन नाना कारक भोग- कामना से भरे रहते ह, उनके मनम अ ा सब कामना का नाश होकर ज - मरणसे छु टकारा पानेक इ ा ही नह जागती। इसी लये अ ाईसव ोकम भगवान् को पूण पसे जाननेके अ धकारीका नणय करते ए उसे ' पापर हत, पु कमा, सुख- दुःखा द से मु और ढ़ न यी होकर भगवान् को भजनेवाला' बतलाया गया है। ऐसे न ाप दय पु षके मनम ही यह शुभ कामना जा त् होती है क म ज - मरणके च रसे छू टकर कै से शी - से- शी पर परमा ाको जान लूँ और ा कर लूँ। इसी लये भगवान् कहते ह क ' जो संसारके सब वषय के आ यको छोड़कर ढ़ व ासके साथ एकमा मेरा ही आ य लेकर नर र मुझम ही मनबु को लगाये रखते है, वे मेरे शरण होकर य करनेवाले ह। –

वशेषणके स हत ' ' पद कसका वाचक है? ' कृ ' वशेषणके स हत ' अ ा ' पद कसका वाचक है? और ' अ खल' वशेषणके स हत ' कम' पद कसका वाचक है? एवं इन सबको जानना ा है? उ र – ' तत् ' वशेषणके स हत ' ' पदसे नगुण, नराकार स दान घन पर परमा ाका नदश है। उ पर परमा ाके त को भली- भाँ त अनुभव करके उसे सा ात् कर लेना ही उसको जानना है। इस अ ायम जस त का भगवान् ने ' परा कृ त' के नामसे वणन कया है एवं पं हव अ ायम जसे ' अ र' कहा गया है, उस सम ' जीवसमुदाय' का वाचक ' कृ ' वशेषणके स हत ' अ ा ' पद है। और एक स दान घन परमा ा ही जीव के पम अनेकाकार दीख रहे ह। वा वम जीवसमुदाय प स ूण ' अ ा ' स दान घन परमा ासे भ नह है, इस त को जान लेना ही उसे जानना है, एवं जससे सम भूत क और स ूण चे ा क उ होती है, भगवान् के उस आ दसंक प ' वसग' का नाम ' कम' हे ( इसका वशेष ववेचन आठव अ ायके तीसरे ोकक ा ाम कया गया है) तथा भगवान् का संक होनेसे यह कम भगवान् से अ भ ही है, इस कार जानना ही ' अ खल कम' को जानना है। –'

तत् '

सा धभूता धदैवं मां सा धय ं च ये वदुः । याणकालेऽ प च मां ते वदुयु चेतसः ॥३०॥



जो पु ष अ धभूत और अ धदैवके स हत तथा अ धय के स हत ( सबका प ) मुझे अ कालम भी जानते ह वे यु च वाले पु ष मुझे जानते ह अथात् ा

हो जाते ह॥३०॥

अ धभूत', ' अ धदैव' और ' अ धय ' श कन- कन त के वाचक ह और इन सबके स हत सम भगवान् को जानना ा है? उ र – इस अ ायम जसको भगवान् ने ' अपरा कृ त' और पं हव अ ायम जसको ' र पु ष' कहा है, उस वनाशशील सम जडवगका नाम ' अ धभूत' है। आठव अ ायम जसे ' ा' कहा है, उस सू ा ा हर गभका नाम ' अ धदैव' है और नवम अ ायके चौथे, पाँचव तथा छठे ोक म जसका वणन कया गया है, उस सम ा णय के अ ःकरणम अ यामी पसे ा रहनेवाले भगवान् के अ पका नाम ' अ धय ' है । –'

उनतीसव ोकम व णत ' ', जीवसमुदाय प ' अ ा ', भगवान् का आ दसंक प ' कम' तथा उपयु जडवग प ' अ धभूत', हर गभ प ' अ धदेव' और अ यामी प ' अ धय ' – सब एक भगवान् के ही प ह। यही भगवान् का सम प है। अ ायके आर म भगवान् ने इसी सम पको बतलानेक त ा क थी। फर सातव ोकम ' मुझसे भ दूसरा कोई भी परम कारण नह हे', बारहवम ' सा क, राजस और तामस भाव सब मुझसे ही होते ह' और उ ीसवम ' सब कु छ वासुदेव ही है' कहकर इसी सम का वणन कया है तथा यहाँ भी उपयु श से इसीका वणन करके अ ायका उपसंहार कया गया है। इस सम को जान लेना अथात् जैसे परमाणु, भाप, बादल, धूम, जल और बफ सभी जल प ही ह, वैसे ही , अ ा , कम, अ धभूत, अ धदैव और अ धय – सब कु छ वासुदेव ही ह – इस कार यथाथ पसे अनुभव कर लेना ही सम को या भगवान् को जानना है। – ' याणकाले ' के साथ ' अ प ' के योगका यहाँ ा भाव है? उ र – इससे भगवान् ने यह भाव दखलाया है क जो ' वासुदेव : सव म त ' के अनुसार उपयु कारसे मुझ सम को पहले जान लेते ह, उनके लये तो कहना ही ा है; जो अ कालम भी मुझे सम पसे जान लेते ह, वे भी मुझे यथाथ ही जानते ह, अथात् ा हो जाते ह। दूसरे अ ायके अ म ा ी तक म हमा कहते ए भी इसी कार ' अ प ' का योग कया गया है।

ॐ त द त ीम गव ीतासूप नष ु व ायां योगशा े ीकृ ाजुनसंवादे ान व ानयोगो नाम स मोऽ ायः ॥७॥

|| ॐ

ी परमा ने नमः ||

अथ अथा मोऽ ायः

र' और ' ' दोन श भगवान्के सगुण और नगुण दोन ही प के वाचक ह (८।३, ११, २१, २४) तथा भगवान्का नाम 'ॐ' है उसे भी 'अ र' और ' ' कहते ह (८।१३)। इस अ ायम भगवान्के सगुण- नगुण पका और कारका वणन है, इस लये इस अ ायका नाम 'अ र योग' रखा गया है। अ ायका सं ेप इस अ ायके पहले और दूसरे ोक म ा अ ा आ द वषयक अजुनके सात ह; फर तीसरेसे पाँचवतक भगवान् सात का सं ेपम उ र देकर छठे म अ कालके च नका मह दखलाते ए सातवम अजुनको नर र अपना च न करनेक आ ा देते ह। आठवसे दसवतक योगक व धसे भ पूवक भगवान्के सगुणनराकार पका च न करते ए ाण ाग करनेका कार और उसके फलका वणन कया है। ारहवसे तेरहवतक परमा ाके नगुण पक शंसा करते ए अ कालम योगधारणाक व धसे नगुण के जप- ानका कार और उसके फलका वणन करके चौदहवम भगवान्ने अपनी ा का सुगम उपाय अन नर र च न करना बतलाया है। पं हवम और सोलहवम भगव ा से पुनज का अभाव और अ सम लोक को पुनरावृ तशील बतलाकर सतरहवसे उ ीसवतक ाके रात- दनका प रमाण बतलाते ए सम ा णय क उ त और लयका वणन कया है। बीसवम एक अ से परे दूसरे सनातन अ का तपादन करके इ सव और बाईसवम उसीका 'अ र', 'परमग त', 'परमधाम', एवं 'परमपु ष' –  इन नाम से तपादन करते ए अन भ को उस परम पु षक ा का उपाय बतलाया गया है। तदन र तेईसवसे ीसवतक शु और कृ ग तका फलस हत वणन करके स ाईसवम उन दोन ग तय को जाननेवाले योगीक शंसा करते ए अजुनको योगी बननेके लये आ ा दी गयी है और अ ाईसव शलोकम अ ायम व णत त को जाननेका फल बतलाकर अ ायका उपसंहार कया गया है। स – सातव अ ायम पहलेसे तीसरे ोकतक भगवान्ने अपने सम पका त सुननेके लये अजुनको सावधान करते ए उसके कहनेक त ा और जाननेवाल क शंसा क । फर स ाईसव ोकतक अनेक कारसे उस त को समझाकर न जाननेके कारणको भी भलीभाँ त अ ायका नाम

'अ

समझाया और अ म ा, अ ा , कम, अ धभूत, अ धदैव, और अ धय के स हत भगवान्के सम पको जाननेवाले भ क म हमाका वणन करते ए उस अ ायका उपसंहार कया। उनतीसव और तीसव ोक म व णत , अ ा , कम, अ धभूत, अ धदैव और अ धय – इन छह का तथा याणकालम भगवान्को जाननेक बातका रह भलीभाँ त न समझनेके कारण इस आठव अ ायके आर म पहले दो शलोकम अजुन उपयु सात वषय को समझनेके लये भगवान्से सात करते ह –

अजुन उवाच । क तद् कम ा ं क कम पु षो म । अ धभूतं च क ो म धदैवं कमु ते ॥१॥

अजुनने कहा-हे पु षो म! वह ा है? अ ा ा है? कम अ धभूत नामसे ा कहा गया है और अ धदैव कसको कहते ह॥१॥ – 'वह

ा है?

ा है?' अजुनके इस का ा अ भ ाय है? उ र – ' ' श वेद, ा, नगुण परमा ा, कृ त और कार आ द अनेक त के लये व त होता है; अत: उनमसे यहाँ ' ' श कस त के ल से कहा गया है, यह जाननेके लये अजुनका है। – 'अ ा ा है?' इस का ा अ भ ाय है? उ र –  शरीर, इ य, मन, बु , जीव और परमा ा आ द अनेक त को 'अ ा ' कहते ह ।उनमसे यहाँ 'अ ा ' नामसे भगवान् कस त क बात कहते है? यह जाननेके लये अजुनका यह है। – 'कम ा है?' इस का ा अ भ ाय है? उ र –  'कम' श यहाँ य -दाना द शुभकमका वाचक है या यामा का? अथवा ार आ द कम का वाचक है या ई रक सृ -रचना प कमका? इसी बातको जाननेके लये यह कया गया है। – 'अ धभूत' नामसे ा कहा गया है? इस का ा अ भ ाय है?

उ र –  'अ धभूत' श का अथ यहाँ पंचमहाभूत है या सम ा णमा है अथवा सम वग है या यह कसी अ त का वाचक है? इसी बातको जाननेके लये ऐसा कया गया है। – 'अ धदैव' कसको कहते ह?' इस का ा अ भ ाय है? उ र –  'अ धदैव' श से यहाँ कसी अ ध ातृ- देवता वशेषका ल है या अ , हर गभ, जीव अथवा अ कसीका? यही जाननेके लये कया गया है। – यहाँ 'पु षो म ' स ोधन कस अ भ ायसे दया गया है। उ र –  'पु षो म ' स ोधनसे अजुन यह सू चत करते ह क आप सम पु ष म े , सव , सवश मान्, सबके अ ध ाता और सवाधार ह। इस लये मेरे इन का जैसा यथाथ उ र आप दे सकते ह, वैसा दूसरा कोई नह दे सकता।

अ धय ः कथं कोऽ देहऽे धुसूदन । याणकाले च कथं ेयोऽ स नयता भः ॥२॥

यु

हे मधुसूदन! यहाँ अ धय कौन है? और वह इस शरीरम कैसे है? तथा च वाले पु ष ारा अ समयम आप कस कार जाननेम आते ह॥२॥ – यहाँ 'अ धय ' के

वषयम अजुनके का ा अ भ ाय है? उ र –  'अ धय ' श य के कसी अ ध ातृ-देवता वशेषका वाचक है या अ यामी परमे रका अथवा अ कसीका? एवं वह 'अ धय ' नामक त मनु ा द सम ा णय के शरीरम कस कार रहता है और उसका 'अ धय ' नाम है? इ सब बात को जाननेके लये अजुनका यह है। – ' नयता भः ' का ा अ भ ाय है तथा अ कालम आप कै से जाननेम आते ह? इस का ा अ भ ाय है? उ र – भगवान्ने सातव अ ायके तीसव ोकम 'यु चेतस: ' पदका योग करके जन पु ष को ल कया था, उ के लये अजुन यहाँ ' नयता भः ' पदका योग करके पूछ रहे ह क 'यु चेतस: ' पदसे जन पु ष के लये आप कह रहे ह, वे पु ष अ कालम अपने च को कस कार आपम लगाकर आपको जानते ह? अथात् वे ाणायाम, जप,

च न, ान या समा ध आ द कस साधनसे आपका यथाथ ान ा करते ह? इसी बातको जाननेके लये अजुनने यह कया है। स

अजुनके सात मसे भगवान् अब पहले का उ र अगले ोकम मश: सं ेपसे देते ह – –

,

अ ा और कम वषयक तीन

ीभगवानुवाच । अ रं परमं भावोऽ ा मु ते । भूतभावो वकरो वसगः कमसं तः ॥३॥

ीभगवान्ने कहा – परम अ र ' ' है, अपना प अथात् जीवा ा 'अ ा ' नामसे कहा जाता है तथा भूत के भावको उ करनेवाला जो ाग है, वह 'कम' नामसे कहा गया है॥३॥ – परम अ

र ' ' है इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र –  अ रके साथ 'परम' वशेषण देकर भगवान् यह बतलाते ह क सातव अ ायके उनतीसव ोकम यु ' ' श नगुण नराकार स दान घन परमा ाका वाचक है; वेद, ा और कृ त आ दका नह । जो सबसे े और सू होता है उसीको 'परम' कहा जाता है। ' ' और 'अ र' के नामसे जन सब त का नदश कया जाता है, उन सबम सबक अपे ा े और पर एकमा स दान घन पर परमा ा ही है; अतएव 'परम अ र' से यहाँ उसी पर परमा ाका ल है। यह परम परमा ा और भगवान् व ुत: एक ही त है। – भाव 'अ ा ' कहा जाता है – इसका ा ता य है? उ र –  ' ो भाव: भाव: ' इस ु अनुसार अपने ही भावका नाम भाव है। जीव पा भगवान्क चेतन परा कृ त प आ त ही जब आ -श वा शरीर, इ य, मन- बु या द प अपरा कृ तका अ ध ाता हो जाता है, तब उसे ' अ ा ' कहते ह। अतएव सातव अ ायके उनतीसव ोकम भगवान्ने 'कृ ' वशेषणके साथ जो 'अ ा ' श का योग कया है, उसका अथ 'चेतन जीवसमुदाय' समझना चा हये। भगवान्क अंश पा चेतन

परा कृ त व ुत: भगवान्से अ भ होनेके कारण वह 'अ ा ' नामक स ूण जीवसमुदाय भी यथाथम भगवान्से अ भ और उनका प ही है। – भूत के भावको उ करनेवाला वसग- ाग ही कमके नामसे कहा गया है, इसका ा ता य हे ' उ र –  'भूत' श चराचर ा णय का वाचक है। इन भूत के भावका उ व और अ ुदय जस ागसे होता है, जो सृ - तक आधार है, उस ' ाग' का नाम ही कम है। महा लयम व के सम ाणी अपने-अपने कम-सं ार के साथ भगवान्म वलीन हो जाते ह । फर सृ के आ दम भगवान् जब यह संक करते ह क 'म एक ही ब त हो जाऊँ ', तब पुन: उनक उ होती है। भगवान्का यह 'आ द संक ' ही अचेतन कृ त प यो नम चेतन प बीजक ापना करना है। यही जड-चेतनका संयोग है। यही महान् वसजन है और इसी वसजन या ागका नाम ' वसग' है। इसीसे भूत के व भ भाव का उ व होता है। इसी लये भगवान्ने कहा है - 'स व: सवभूतानां ततो भव त भारत। ' (१४।३) 'उस जड- चेतनके संयोगसे सब भूत क उ होती है।' यही भूत के भावका उ व है। अतएव यहाँ यह समझना चा हये क भगवान्के जस आ द संक से सम भूत का उ व और अ ुदय होता है, उसका नाम ' वसग' है। और भगवान्के इस वसग प महान् कमसे ही जड-अ य कृ त त होकर याशीला होती है तथा उससे महा लयतक व म अन कम क अख धारा बह चलती है। इस लये इस ' वसग' का नाम ही 'कम' है। सातव अ ायके उनतीसव ोकम भगवान्ने इसीको 'अ खल कम' कहा है। भगवान्का यह भूत के भावका उ व करनेवाला महान् ' वसजन' ही एक महान् सम -य है। इसी महान् य से व वध लौ कक य क उ ावना ई है और उन य म जो ह व आ दका उ ग कया जाता है, उसका नाम भी ' वसग' ही रखा गया है। उन य से भी जाक उ होती है। मनु ृ तम कहा हैअ ौ ा ा तः स गा द मुप त ते। आद ा

ायते वृ वृ रे ं तत: जा: ॥

(३।७६)

अथात् 'वेदो व धसे अ म दी ई आ त सूयम त होती है, सूयसे वृ होती है, वृ से अ होता है और अ से जा होती है।' यह 'कम' नामक वसग व ुत: भगवान्का ही आ द संक है, इस लये यह भी भगवान्से अ भ ही है।



– अब भगवान् अ धभूत, अ धदैव ओर अ धय

वषयक

का उ र मश: देते ह –

अ धभूतं रो भावः पु ष ा धदैवतम् । अ धय ोऽहमेवा देहे देहभृतां वर ॥४॥

उ - वनाशधमवाले सब पदाथ अ धभूत ह, हरणमय पु ष अ धदैव है और हे देहधा रय म े अजुन! इस शरीरम म वासुदेव ही अ यामी पसे अ धय ँ ॥४॥

रभाव' अ धभूत ह, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र –  अपरा कृ त और उसके प रणामसे उ जो वनाशशील त है, जसका त ण य होता है, उसका नाम ' रभाव' है। इसीको तेरहव अ ायम ' े ' (शरीर) के नामसे और पं हव अ ायम ' र' पु षके नामसे कहा गया है। यह ' रभाव' शरीर, इ य, मन, बु , अहंकार, भूत तथा वषय के पम हो रहा है और जीव के आ त है अथात् जीव पा चेतन परा कृ तने इसे धारण कर रखा है; इसका नाम 'अ धभूत' है। सातव अ ायम भगवान् अपरा कृ तको भी अपनी ही कृ त बतला चुके ह। इस लये यह ' रभाव' भी भगवान्का ही है। अतएव यह भी उनसे अ भ है। भगवान्ने यं ही कहा है क 'सत्-असत् सब म ही ँ ।' (९।१९) – ' हर मय पु ष' कसको कहा गया है और वह अ धदैव कै से है? उ र – 'पु ष' श यहाँ ' थम पु ष' का वाचक है; इसीको सू ा ा, हर गभ, जाप त या ा कहते ह। जड-चेतना क स ूण व का यही ाण-पु ष है, सम देवता इसीके अंग ह, यही सबका अ ध ाता, अ धप त और उ ादक है; इसीसे इसका नाम 'अ धदैव' है। यं भगवान् ही अ धदैवके पम कट होते ह। इस लये यह भी उनसे अ भ ही है। – इस शरीरम म ही 'अ धय ' ँ – इस कथनका ा भाव है? उ र –  अजुनने दो बात पूछी थ – 'अ धय ' कौन है? और वह इस शरीरम कै से है? दोन का भगवान्ने एक ही साथ उ र दे दया है। भगवान् ही सब य के भो ा और भु ह (५।२९; ९।२४) और सम फल का वधान वे ही करते ह (७।२२), इस लये वे कहते ह क 'अ धय म यं ही ँ । यहाँ 'एव' के योगसे यह भाव समझना चा हये क 'अ धभूत' और 'अ धदैव' भी मुझसे भ नह ह। भगवान्ने यह तो कह दया क 'अ धय ' म ँ परंतु यह अ धय शरीरम कै से है, इसके उ रम भगवान्ने 'इस शरीरम' (अ देह)े इतना ही संकेत कया –'

है। अ यामी ापक प ही देहम रहता है इसी लये ोकके अथम 'अ यामी' श जोड़कर ीकरण कर दया गया है। भगवान् ापक-अ यामी पसे सभीके अ र ह, इसी लये भगवान्ने इसी अ ायके आठव और दसव ोक म ' द पु ष' तथा बीसव ोकम 'सनातन अ ' कहकर बाईसव ोकम उसक ापकता और सवाधारताका वणन कया है। नवम अ ायके चौथेम भी अ पक ापकता दखलायी गयी है। यहाँ भगवान्ने अपने उस अ सू और ापक पको 'अ धय ' कहा है और उसके साथ अपनी अ भ ता कट करनेके लये 'अ धय ' म ही ँ ' यह घोषणा कर दी है। – 'देहभृतां वर ' इस स ोधनका ा अ भ ाय है? उ र –  यहाँ भगवान्ने अजुनको 'देहभृतां वर ' (देहधा रय म े ) कहकर यह सू चत कया है क तुम मेरे भ हो, इस लये मेरी बात को संकेतमा से ही समझ सकते हो; अतएव 'अ धय म ही ँ ' इतने संकेतसे तु यह जान लेना चा हये क 'यह सब कु छ म ही ँ ।' तु ारे लये यह समझना कोई बड़ी बात नह है। स

इस कार अजुनके छ: का उ र आर करते हँ – –

का उ र देकर अब भगवान् अ कालस

ी सातव

अ काले च मामेव र ु ा कलेवरम् । यः या त स म ावं या त ना संशयः ॥५॥

जो पु ष अ कालम भी मुझको ही है, वह मेरे सा ात्

पको ा

रण करता आ शरीरको

ाग कर जाता

होता है – इसम कुछ भी संशय नह है॥५॥

– यहाँ 'अ काले ' इस पदके

साथ 'च ' के योग करनेका ा अ भ ाय है? उ र –  यहाँ 'च ' अ य 'अ प ' के अथम यु आ है। इससे अ कालका वशेष मह कट कया गया है। अत: भगवान्के कहनेका यहाँ यह भाव है, क जो सदा-सवदा मेरा अन च न करते ह उनक तो बात ही ा है, जो इस मनु -ज के अ म णतक भी मेरा च न करते ए शरीर ागकर जाते ह उनको भी मेरी ा हो जाती है। – 'माम् ' पद कसका वाचक है?

उ र –  जस सम पके वणनक भगवान्ने सातव अ ायके थम ोकम त ा क थी, जसका वणन सातव अ ायके तीसव ोकम कया है, 'माम् ' पद यहाँ उसी सम का वाचक है। सम म भगवान्के सभी प आ जाते ह इस लये य द कोई कसी एक प वशेषका भगवदबु् से रण करता है तो वह भी भगवान्का ही रण करता है। तथा भगवान्के भ - भ अवतार से स रखनेवाले नाम, गुण, भाव और लीला-च र आ द भी भगवान्क ृ तम हेतु ह, अत: उनको याद करनेसे साथ-साथ भगवान्क ृ त भी अपनेआप हो जाती है; अत: नाम, गुण, भाव और लीला- च र आ दका रण करना भी भगवान्का ही रण है। –  'एव ' का ा अ भ ाय है? उ र –  यहाँ 'माम् '  और ' रन् ' के बीचम 'एव ' पद देकर भगवान् यह बतलाते ह क वह माता- पता, भाई-ब ,ु ी-पु , धन-ऐ य, मान- त ा और ग आ द कसीका भी रण न करके के वल मेरा ही रण करता है। रण च से होता है और 'एव ' पद दूसरे च नका सवथा अभाव दखलाकर यह सू चत करता है क उसका च के वल एकमा भगवान्म ही लगा है। – यहाँ म ावक ा का ा अ भ ाय है? सायु ा द मु य मसे कसी मु को ा हो जाना है या नगुण को ा होना? उ र –  यह बात साधकक इ ापर नभर है; उसक जैसी इ ा होती है उसीके अनुसार वह भगव ावको ा होता है। क सभी बात भगव ावके अ गत ह। – इसम कु छ भी संशय नह है – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र –  इस वा से यह भाव दखलाया गया है क अ कालम भगवान्का रण करने- वाला मनु कसी भी देश और कसी भी कालम न मरे एवं पहलेके उसके आचरण चाहे जैसे भी न रहे ह , उसे भगवान्क ा नःस ेह हो जाती है। इसम जरा भी शंका नह है। यहाँ यह बात कही गयी क भगवान्का रण करते ए मरनेवाला भगवान्को ही ा होता है। इसपर यह ज ासा होती है क के वल भगवान्के रणके स





म ही यह वशेष नयम है या सभीके स

म है? इसपर कहते ह –

यं यं वा प र ावं ज े कलेवरम् । तं तमेवै त कौ ेय सदा त ावभा वतः ॥६॥

हे कु ीपु अजुन! यह मनु आ शरीरका

अ कालम जस- जस भी भावको

ाग करता है, उस-उसको ही ा

होता है;

रण करता

क वह सदा उसी भावसे

भा वत रहा है॥६॥ – यहाँ 'भाव' श

कसका वाचक है? और उसे रण करना ा है? उ र – ई र, देवता, मनु , पशु, प ी, क ट, पतंग, वृ , मकान, जमीन आ द जतने भी चेतन और जड पदाथ ह, उन सबका नाम 'भाव' है। अ कालम कसी भी पदाथका च न करना, उसे रण करना है। – 'अ काल' कस समयका वाचक है? उ र – जस अ म णम इस ूल देहसे ाण, इ य, मन और बु स हत जीवा ाका वयोग होता है, उस णको अ काल कहते ह। – तेरहव अ ायके इ सव ोकम तथा चौदहव अ ायके चौदहव, पं हव और अठारहव ोक म भगवान्ने स , रज, तम–इन तीन गुण को अ ी-बुरी यो नय क ा म हेतु बतलाया है और यहाँ अ कालके रणको कारण माना गया है–यह ा बात है? उ र – मनु जो कु छ भी कम करता है, वह सं ार पसे उसके अ ःकरणम अं कत हो जाता है। इस कारके असं कम-सं ार अ ःकरणम भरे रहते ह; इन सं ार के अनुसार ही, जस समय जैसा सहकारी न म मल जाता है; वैसी ही वृ और ृ त होती है। जब सा क कम क अ धकतासे सा क सं ार बढ़ जाते ह, उस समय मनु स गुण धान हो जाता है और उसीके अनुसार ृ त भी सा क होती है। इसी कार राजस-तामस कम क अ धकतासे राजस, तामस सं ार के बढ़नेपर वह रजोगुण या तमोगुण धान हो जाता है और उसके अनुसार ृ त होती है। इस तरह कम, गुण और ृ त तीन क एकता होनेके कारण इसमसे कसीको भी भावी यो नक ा म हेतु बतलाया जाय तो कोई दोष नह है; क व ुत: बात एक ही है।

अ समयम देव, मनु , पशु, वृ आ द सजीव पदाथ का रण करते ए मरनेवाला उन-उन यो नय को ा हो जाता है, यह बात तो ठीक है; कतु जो मनु जमीन, मकान आ द नज व जड पदाथ का च न करता आ मरता है वह उनको कै से ा होता है? उ र – जमीन, मकान आ दका च न करते-करते मरनेवालेको अपने गुण और कमानुसार अ ी-बुरी यो न मलती है और उस यो नम वह अ समयक वासनाके अनुसार जमीन, मकान आ द जड पदाथ को ा होता है। अ भ ाय यह है क वह जस यो नम ज ेगा, उसी यो नम उन रण कये ए जमीन, मकान आ दसे उसका स हो जायगा। जैसे मकानका मा लक मकानको अपना समझता है, वैसे ही उसम घ सला बनाकर रहनेवाले प ी और बल बनाकर रहनेवाले चूहे और च टी आ द जीव भी उसे अपना ही समझते ह; अत: यह समझना चा हये क ेक यो नम ेक जड व ुक ा कारा रसे हो सकती है। – 'सदा त ावभा वत: ' से ा अ भ ाय है? उ र – मनु अ कालम जस भावका रण करता आ शरीर ाग करता है वह उसी भावको ा होता है–यह स ा ठीक है। परंतु अ कालम कस भावका रण होता है, यह बतलानेके लये ही भगवान् 'सदा त ावभा वत: ' कहते ह। अथात् अ कालम ाय: उसी भावका रण होता है जस भावसे च सदा भा वत होता है। जैसे वै लोग कसी औषधम बार-बार कसी रसक भावना दे-देकर उसको उस रससे भा वत कर लेते ह वैसे ही पूवसं ार, संग, वातावरण, आस , कामना, भय और अ यन आ दके भावसे मनु जस भावका बार-बार च न करता है, वह उसीसे भा वत हो जाता है। 'सदा' श से भगवान्ने नर रताका नदश कया है। अ भ ाय यह है क जीवनम सदा-सवदा बार-बार दीघकालतक जस भावका अ धक च न कया जाता है उसीका ढ अ ास हो जाता है। यह ढ़ अ ास ही 'सदा त ावसे भा वत' होना है और यह नयम है क जस भावका ढ़ अ ास होता हे उसी भावका अ कालम ाय: अनायास ही रण होता है। – ा सभीको अ कालम जीवनभर अ धक च न कये ए भावका ही रण होता हे? उ र –  अ धकांशको तो ऐसा ही होता है। परंतु कह -कह जडभरतके च म ह रणके ब ेक भावनाक भाँ त मृ -ु समयके समीपवत कालम कया आ अ कालका च न भी पुराने अ ासको दबाकर ढ़ पम कट हो जाता है और उसीका रण करा देता है। –

पदका अ य दूसरी कार करके य द यह अथ मान लया जाय क मनु अ कालम जस- जस भी भावका रण करता आ शरीरको छोड़कर जाता है, नर र उस भावसे भा वत होते-होते उस-उसको ही ा हो जाता है, तो ा हा न है? उ र –  इसम हा नक तो कोई बात ही नह है। इससे तो यह बात भी हो जाती है क मनु मरनेके साथ तुरंत ही अ कालम रण कये ए भावको पूणतया ा नह होता। मरनेके बाद सू पसे अ ःकरणम अं कत ए उस भावसे भा वत होता-होता न त समयपर ही उस भावको पूणतया ा होता है। कसी मनु का छाया च (फोटो) लेते समय जस ण फोटो ( च ) ख चा जाता है उस णम वह मनु जस कारसे त होता है, उसका वैसा ही च उतर जाता है; उसी कार अ कालम मनु जैसा च न करता है वैसे ही पका फोटो उसके अ ःकरणम अं कत हो जाता है। उसके बाद फोटोक भाँ त अ सहकारी पदाथ क सहायता पाकर उस भावसे भा वत होता आ वह समयपर ूल पको ा हो जाता है। यहाँ अ ःकरण ही कै मरेका ेट है, उसम होनेवाला रण ही त ब है और अ सू शरीरक ा ही च खचना है; अतएव जैसे च लेनेवाला सबको सावधान करता है और उसक बात न मानकर इधर-उधर हलने-डु लनेसे च बगड़ जाता है, वैसे ही स ूण ा णय का च उतारनेवाले भगवान् मनु को सावधान करते है क 'तु ारा फोटो उतरनेका समय अ समीप है, पता नह वह अ म ण कब आ जाय; इस लये तुम सावधान हो जाओ, नह तो च बगड़ जायगा।' यहाँ नर र परमा ाके पका च न करना ही सावधान होना है और परमा ाको छोड़कर अ कसीका च न करना ही अपने च को बगाड़ना है। – 'त ावभा वत: '

अ कालम जसका रण करते ए मनु मरता है, उसीको ा होता है; और अ कालम ाय: उसी भावका रण होता है, जसका जीवनम अ धक रण कया जाता है। यह नणय हो जानेपर भगव ा चाहनेवालेके लये अ कालम भगवान्का रण रखना अ आव क हो जाता है और अ काल अचानक ही कब आ जाय, इसका कु छ पता नह है; अतएव अब भगवान् नर र भजन करते ए ही यु करनेके लये अजुनको आदेश करते ह – स





त ा वषु कालेषु मामनु र यु च । म पतमनोबु मामेवै संशयः ॥ ८-७॥ इस लये हे अजुन! तू सब समयम नर र मेरा मुझम अपण कये ए मन-बु

से यु

– यहाँ 'त ात् ' पदका

रण कर और यु

भी कर। इस कार

होकर तू नःस ेह मुझको ही ा

होगा॥७॥

ा अ भ ाय है? उ र –  उपयु दो ोक म कहे ए अथके साथ इस ोकका स दखलानेके लये यहाँ 'त ात् ' पदका योग कया गया है। अ भ ाय यह है क यह मनु -शरीर णभंगुर है, कालका कु छ भी भरोसा नह है तथा जसका अ धक च न होता है वही भाव अ म रण होता है ।य द भगवान्का रण नर र नह होगा और वषयभोग का रण करते- करते ही शरीरका वयोग हो जायगा तो भगव ा का ार प यह मनु जीवन थ ही चला जायगा। इस लये नर र भगवान्का रण करना चा हये। – यहाँ भगवान्ने जो अजुनको सब कालम अपना रण करनेके लये कहा, सो तो ठीक ही है; कतु यु करनेके लये कहनेका ा अ भ ाय है?? उ र –  अजुन य थे, धमानुसार उनको यु का अवसर ा हो गया था। धमयु यके लये वणधम है; इस लये यहाँ 'यु ' श को वणा मधमका पालन करनेके लये क जानेवाली सभी या का उपल ण समझना चा हये। भगवान्क आ ा समझकर न ामभावसे वणा मधमका पालन करनेके लये जो कम कये जाते ह, उनसे अ ःकरणक शु होती है। इसके सवा कत कमके आचरणक आव कताका तपादन करनेवाले और भी ब त-से मह पूण कारण तीसरे अ ायके चौथेसे तीसव ोकतक दखलाये गये ह, उनपर वचार करनेसे भी यही स होता है क मनु को वणा मधमके अनुसार कत कम अव ही करने चा हये। यही भाव दखलानेके लये यहाँ यु करनेको कहा गया है। – यहाँ 'च ' के योगका ा अ भ ाय है? उ र –  'च ' का योग करके भगवान्ने यु को गौणता और रणको धानता दी है। भाव यह हे क यु आ द वणधमके कम तो योजन और वधानके अनुसार नयत समयपर ही कये जाते ह और वैसे ही करने भी चा हये, परंतु भगवान्का रण तो मनु को हर समय हर हालतम अव करना चा हये।

– भगवान्का

नर र च न और यु आ द वणधमके कम, दोन एक साथ कै से

हो सकते है? उ र –  हो सकते ह; साधक क भावना, च और अ धकारके अनुसार इसक भ भ यु याँ है। जो भगवान्के गुण और भावको भलीभाँ त जाननेवाला अन ेमी भ है, जो स ूण जगत्को भगवान्के ारा ही र चत और वा वम भगवान्से अ भ तथा भगवान्क डा ली समझता है, उसे ाद और गो पय क भाँ त ेक परमाणुम भगवान्के दशन क भाँ त होते रहते ह; अतएव उसके लये तो नर र भगत रणके साथ-साथ अ ा कम करते रहना ब त आसान बात है। तथा जसका वषयभोग म वैरा होकर भगवान्म मु ेम हो गया है, जो न ाम भावसे के वल भगवान्क आ ा समझकर भगवान्के लये ही वणधमके अनुसार कम करता है, वह भी नर र भगवान्का रण करता आ अ ा कम कर सकता है। जैसे अपने पैर का ान रखती ई नटी बाँसपर चढ़कर अनेक कारके खेल दखलाती है, अथवा जैसे हडलपर पूरा ान रखता आ मोटर- ाइवर दूसर से बातचीत करता है और वप से बचनेके लये रा ेक ओर भी देखता रहता है, उसी कार नर र भगवान्का रण करते ए वणा मके सब काम सुचा पसे हो सकते ह। – मन-बु को भगवान्म सम पत कर देना ा है? उ र –  बु से भगवान्के गुण, भाव, प, रह और त को समझकर परम ाके साथ अटल न य कर लेना ओर मनसे अन ा- ेमपूवक गुण, भावके स हत भगवान्का नर र च न करते रहना – यही मन-बु को भगवान्म सम पत कर देना है। छठे अ ायके अ म भी 'मदगते ् ना रा ना ' पदसे यही बात कही गयी है।

पाँचव ोकम भगवान्का च न करते-करते मरनेवाले मनु क ग तका वणन करके अजुनके सातव का सं ेपम उ र दया गया, अब उसी का व ारपूवक उ र देनेके लये अ ासयोगके ारा मनको वशम करके भगवान्के 'अ धय ' पका अथाथ सगुण नराकार द अ पका च न करनेवाले यो गय क अ कालीन ग तका तीन ो ारा वणन करते ह – स



अ ासयोगयु ेन चेतसा ना गा मना । परमं पु षं द ं या त पाथानु च यन् ॥८॥

हे पाथ! यह नयम है क परमे रके

ानके अ ास प योगसे यु

जानेवाले च से नर र च न करता आ मनु अथात् परमे रको ही ा होता है॥ ८॥ –

परम

काश

, दस ू री ओर न

प द

पु षको

यहाँ 'अ ासयोग' श कसका वाचक है और च का उस अ ासयोगसे

यु होना ा है? उ र –  यम, नयम, आसन, ाणायाम, ाहार धारणा और ानके अ ासका नाम 'अ ासयोग' है। ऐसे अ ासयोगके ारा जो च भलीभाँ त वशम होकर नर र अ ासम ही लगा रहता है, उसे 'अ ासयोगयु ' कहते ह। – 'ना गामी' कै से च को समझना चा हये? उ र –  जो च कसी पदाथ वशेषके च नम लगा दये जानेपर णभरके लये भी उसके च नको छोड़कर दूसरे पदाथका च न नह करता-जहाँ लगा है, वह लगातार एक न होकर लगा रहता है, उस च को ना गामी अथात् दूसरी ओर न जानेवाला कहते ह। यहाँ परमे रका वषय है, इससे यह समझना चा हये क वह च परमे रम ही लगा रहता है। – अनु च न करना कसे कहते ह? उ र –  अ ासम लगे ए और दूसरी ओर न जानेवाले च के ारा परमे रके नराकार पका जो नर र ान करते रहना है, इसीको ' अनु च न' कहते ह। – यहाँ 'परमम् ' ओर ' द म् ' इन वशेषण के स हत 'पु षम् ' इस पदका योग कसके लये कया गया है और उसे ा होना ा है? उ र –  इसी अ ायके चौथे ोकम जसको 'अ धय ' कहा है और बाईसव ोकम जसको 'परम पु ष' बतलाया है, भगवान्के उस सृ , त और संहार करनेवाले सगुण नराकार सव ापी अ ान पको यहाँ ' द परम पु ष' कहा गया है। उसका च न करते-करते उसे यथाथ पम जानकर उसके साथ त पू हो जाना ही उसको ा होना है। स



द पु

ा बतलाकर अब उसका

ो ीं

प बतलाते ह –



क व पुराणमनुशा सतार मणोरणीयंसमनु रे ः । सव धातारम च प मा द वण तमसः पर ात् ॥९॥ जो पु ष सव , अना द, सबके नय ा, सू

से भी अ त सू

, सबके धारण-

पोषण करनेवाले अ च प, सूयके स श न चेतन काश प और अ व ासे अ त परे, शु स दान घन परमे रका रण करता है॥ १॥ – इस

ोकका ा भाव है? उ र –  परम द पु षके पका मह तपादन करते ए ीभगवान् कहते ह क वह परमा ा सदा सब कु छ जानता है। भूत, वतमान और भ व क , ूल, सू और कारण – कसी भी जगत्क ऐसी कोई भी या अ बात नह , जसको वह यथाथ पम न जानता हो; इस लये वह सव (क वम्) है। वह सबका आ द है; उससे पहले न कोई था, न आ और न उसका कोई कारण ही है; वही  सबका कारण और सबसे पुरातन है; इस लये वह सनातन (पुराणम्) है। वह सबका ामी है, सवश मान् है और सवा यामी है; वही सबका नय णकता है और वही सबके शुभाशुभ कमफल का यथायो वभाग करता है; इसी लये वह सबका नय ा (अनुशा सतारम्) है। इतना श मान होनेपर भी वह अ ही सू है, जतने भी सू -से-सू त ह वह उन सबसे बढ़कर सू है और सबम सदा ा है, इसी कारण सू दश पु ष क सू -से-सू बु ही उसका अनुभव करती है; इसी लये वह सू तम (अणोरणीयांसम्) है। इतना सू होनेपर भी सम व - ा का आधार वही है, वही सबका धारण, पालन और पोषण करता है; इस लये वह धाता (सव धातारम्) है। सदा सबम ा और सबके धारण-पोषणम लगे रहनेपर भी वह सबसे इतना परे और इतना अती य है क मनके ारा उसके यथाथ पका च न ही नह कया जा सकता; मन और बु म जो च न और वचार करनेक श आती है, उसका मूल ोत वही है - ये उसीक जीवनधाराको लेकर जी वत और कायशील ह; वह नर र इनको और सबको देखता है तथा इनम श संचार करता रहता है कतु ये उसको नह देख पाते; इसी लये वह अ च प (अ च पम् ) है। अ च होनेपर भी वह काशमय है और सदा-सवदा सबको काश देता रहता है; जैसे सूय यं काश प है और अपने काशसे स ूण जगत्को का शत करता है, वैसे ही वह यं काश परमपु ष अपनी अख ानमयी द ो तसे सदा-सवदा सबको का शत करता है; इसी लये वह सूयके स श न चेतन काश प (आ द वणम्)

है। और ऐसा द , न और अन ानमय काश ही जसका प है, उसम अ व ा या अ ान प अ कारक क ना ही नह क जा सकती; जैसे सूयने कभी अ कारको देखा ही नह , वैसे ही उसका प भी सदा-सवदा अ ानतमसे सवथा र हत है; ब घोर रा के अ अ कारको भी जैसे सूयका पूवाभास ही न कर देता है; वैसे ही घोर वषयी पु षका अ ान भी उसके व ानमय काशक उ ल करण पाकर न हो जाता है; इसी लये वह अ व ासे अ त परे (तमस: पर ात्) है। ऐसे शु स दान घन परमे रका पु षको सदा रण करना चा हये। – जब भगवान्का उपयु प अ च है, उसका मन-बु से च न ही नह कया जा सकता, तब उसके रण करनेक बात कै से कही गयी? उ र –  यह स है क अ च - पक यथाथ उपल मन-बु को नह हो सकती। परंतु उसके जो ल ण यहाँ बतलाये गये ह, इन ल ण से यु समझकर उसका बारबार रण और मनन तो हो ही सकता है और ऐसा रण- मनन ही पक यथाथ उपल म हेतु होता है। इसी लये उसके रणक बात कही गयी है और यह कहना उ चत ही है। [36]

स बतलाते ह –



परम द पु षका

प बतलाकर अब साधनक व ध और फल

याणकाले मनसाऽचलेन भ ा यु ो योगबलेन चैव । ुवोम े ाणमावे स क् स तं परं पु षमुपै त द म् ॥१०॥

वह भ यु पु ष अ कालम भी योगबलसे भृकुटीके म म ाणको अ ी कार ा पत करके, फर न ल मनसे रण करता आ उस द प परम पु ष परमा ाको ही ा होता है॥१०॥ – यहाँ 'भ

ा अ भ ाय है? उ र –  'भ ा यु : ' का अथ है भ से यु । भगव षयक अनुरागका नाम भ है; जसम भ होती है वही भ से यु है।अनुराग या ेम कसी-न- कसी ेमा दम होता है। इससे यह समझना चा हये क यहाँ नगुण- नराकार क अहं हा यु

: ' का

उपासनाका अथात् ानयोगका संग नह है, उपा -उपासकभावसे क जानेवाली भ का संग है। – योगबल ा है, भृकुटीके म के ान कौन-सा है और ाण को वहाँ अ ी तरह ापन करना कसे कहते ह तथा वह कस कार कया जाता है? उ र –  आठव ोकम बतलाया आ अ ासयोग (अ ांगयोग) ही 'योग' है योगा ाससे उ जो यथायो ाण-संचालन और ाण नरोधका साम है उसका नाम 'योगबल' है। दोन भ ह के बीचम जहाँ योगशा के जाननेवाले पु ष 'आ ाच ' बतलाया करते है, वही भृकुटीके म का ान है। कहते ह क यह आ ाच दल है। इसम कोण यो न है। अ , सूय और च इसी कोणम एक होते ह। जानकार योगी पु ष महा याणके समय योगबलसे ाण को यह लाकर र पसे न कर देते ह। इसीका नाम अ ी तरह ाण का ापन करना है। इस कार आ ाच म ाण का नरोध करना साधन सापे है। इस आ ाच के समीप स कोश ह, जनके नाम ह – इ ,ु बो धनी, नाद, अधच का, महानाद, (सोमसूया पणी) कला और उ नी; ाण के ारा उ नी कोशम प ँ च जानेपर जीव परम पु षको ा हो जाता है। फर उसका पराधीन होकर ज लेना बंद हो जाता है। वह या तो ज लेता ही नह , लेता है तो लोकोपकारके लये े ासे या भगव द ासे। इस साधनक णाली कसी अनुभवी योगी महा ासे ही जानी जा सकती है। कसीक भी के वल पु क पढ़कर योगसाधना नह करनी चा हये, वैसा करनेसे लाभके बदले हा नक ही अ धक स ावना है। –  'अचल मन' के ा ल ण है? उ र –  आठव ोकम जस अथम मनको 'ना गामी' कहा है, यहाँ उसी अथम 'अचल' कहा गया है। भाव यह है क जो मन ेय व ुम त होकर वहाँसे जरा भी नह हटता, उसे 'अचल' कहते ह (६।१९)। – 'परम द पु ष' के ा ल ण ह? उ र –  परम द पु षके ल ण का वणन आठव और नव ोक म देखना चा हये।

ोकम भगवान्का च न करते-करते मरनेवाले साधारण मनु क ग तका सं ेपम वणन कया गया, फर आठवसे दसव ोकतक भगवान्के 'अ धय ' नामक सगुण नराकार द अ पका च न करनेवाले यो गय क अ कालीन ग तके स म बतलाया, अब ारहव ोकसे तैरहवतक परम अ र नगुण नराकार पर क उपासना करनेवाले यो गय क अ कालीन ग तका वणन करनेके लये पहले उस अ र क शंसा करके उसे बतलानेक त ा करते ह – स

– पाँचव

यद रं वेद वदो वद वश य तयो वीतरागाः । य द ो चय चर त े पदं सङ् हेण व े ॥११॥ वेदके जाननेवाले व ान जस स

दाना घन प परमपदको अ वनाशी कहते

ह, आस र हत य शील सं ासी महा ाजन जसम वेश करते ह और जस परमपदको चाहनेवाले चारीलोग चयका आचरण करते ह, उस परम पदको म तेरे लये सं ेपसे क ँ गा॥११॥ – 'वेद वद: ' पदका

ा भाव है? उ र –  जससे परमा ाका ान होता है, उसे वेद कहते ह; यह वेद इस समय चार सं हता के और ऐतरेया द ा णभागके पम ा है। वेदके ाण और वेदके आधार ह – पर परमा ा। वे ही वेदके ता य ह (१५।१५)। उस ता यको जो जानते ह और जानकर उसे ा करनेक अ वरत साधना करते है तथा अ म ा कर लेते ह वे ानी महा ा पु ष ही वेद वत्-वेदके यथाथ ाता ह। – 'वेदको जाननेवाले जसे अ वनाशी बतलाते ह' इस वा का ा भाव है? उ र –  'यत्' पदसे स दान घन पर का नदश है। यहाँ यह भाव दखलाया गया है क वेदके जाननेवाले ानी महा ा पु ष ही उस के वषयम कु छ कह सकते ह, इसम अ लोग का अ धकार नह है। वे महा ा कहते ह क यह 'अ र' है अथात् यह एक ऐसा महान् त है जसका कसी भी अव ाम कभी भी कसी भी पम य नह होता; यह सदा अ वन र, एकरस और एक प रहता है। बारहव अ ायके तीसरे ोकम जस अ अ रक उपासनाका वणन है, यहाँ भी यह उसीका संग है। – 'वीतरागाः ' वशेषणके साथ 'यतयः ' पद कनका वाचक है?

उ र –  जनम आस का सवथा अभाव हो गया है वे 'वीतराग' ह और ऐसे वीतराग, ती वैरा वान्, परमा ाक ा के पा , म त एवं उ ेणीके साधन से स जो सं ासी महा ा ह, उनका वाचक यहाँ 'यतयः ' पद है। – 'यत् वश ' का ा अ भ ाय है? उ र –  इसका श ाथ है, जसम वेश करते ह। अ भ ाय यह है क यहाँ 'यत् ' पद उस स दान घन परमा ाको ल करके कहा गया है, जसम उपयु साधन करते-करते साधनक शेष सीमापर प ँ चकर य तलोग अभेदभावसे वेश करते ह। यहाँ यह रण रखना चा हये क इस वेशका अथ 'कोई आदमी बाहरसे कसी घरम घुस गया' ऐसा नह है। परमा ा तो अपना प होनेसे न ा ही है इस न ा त म जो अ ा का म हो रहा है – उस अ व ा प मका मट जाना ही उसम वेश करना है। –  ' जसको चाहनेवाले चयका आचरण करते ह' इस वा का ा अ भ ाय है? उ र –  'यत् ' पद उसी का वाचक है, जसके स म वेद वद् लोग उपदेश करते ह और 'वीतराग य त' जसम अभेदभावसे वेश करते ह। यहाँ इस कथनसे यह भाव समझना चा हये क उसी को ा करनेके लये चारी चय तका पालन करते है। ' चय' का वा वक अथ है, म अथवा के मागम संचरण करना – जन साधन से ा के मागम अ सर आ जा सकता है, उनका आचरण करना। ऐसे साधन ही चारीके त कहलाते ह, जो चय- आ मम आ मधमके पम अव पालनीय ह; और साधारणतया तो अव ाभेदके अनुसार सभी साधक को यथाश उनका अव पालन करना चा हये। चयम धान त है – ब कु ा संर ण और संशोधन। इससे वासना के नाश ारा क ा म बड़ी सहायता मलती है। ऊ रेता नै क चा रय का तो वीय कसी भी अव ाम अधोमुखी होता ही नह , अतएव वे तो के मागम अनायास ही आगे बढ़ जाते ह। इनसे न रम वे ह जनका ब ु अधोगामी तो होता है परंतु वे मन, वचन और शरीरसे मैथुनका सवथा ाग करके उसका संर ण कर लेते ह। यह भी एक कारसे चय ही है। इसीके लये ग डपुराणम कहा है – [37]

कमणा मनसा वाचा सवाव

ासु सवदा।

सव मैथुन ागो

चय च ते॥

(पू० खं० आ० का० अ० २३८।६)

सब जगह सब तरहक तम सवदा मन, वाणी और कमसे मैथुनका ाग चय कहलाता है। आ म व ाका ल भी क ही ा है। चय सबसे पहला आ म है। उसम वशेष सावधानीके साथ चयके नयम का पालन करना आव क है। इसी लये कहा गया है क क इ ा करनेवाले ( चारी) चयका आचरण करते ह। – 'वह पद म तुझे सं ेपसे क ँ गा' इस वा का ा अ भ ाय है? उ र –  इस वा से भगवान्ने यह त ा क है क उपयु वा म जस पर परमा ाका नदश कया गया है, वह कौन है और अ कालम कस कार साधन करनेवाला मनु उसको ा होता है – यह बात म तु सं ेपसे क ँ गा। [38]

पूव ोकम जस वषयका वणन करनेक ोक म उसीका वणन हरते ह – स



त ा क थी, अब दो

सव ारा ण संय मनो द न च । मू ा।धाया नः ाणमा तो योगधारणाम् ॥१२॥ ओ म ेका रं ाहर ामनु रन् । यः या त ज ेहं स या त परमां ग तम् ॥१३॥

सब इ य के ार को रोककर तथा मनको ेशम र करके, फर उस जीते ए मनके ारा ाणको म कम ा पत करके, परमा स ी योगधारणाम त होकर जो पु ष 'ॐ' इस एक अ र प को उ ारण करता आ और उसके अथ प मुझ नगुण का च न करता आ शरीरको होता है॥१२-१३॥ – यहाँ सब

ाग कर जाता है, वह पु ष परमग तको ा

ार का रोकना ा है? उ र –  ो ा द पाँच ाने य और वाणी आ द पाँच कम य – इन दस इ य के ारा वषय का हण होता है, इस लये इनको ' ार' कहते ह। इसके अ त र इनके रहनेके ान (गोलक ) को भी ' ार' कहते ह। इन इ य को बा वषय से हटाकर अथात् देखने-

सुनने आ दक सम या को बंद करके , साथ ही इ य के गोलक को भी रोककर इ य क वृ को अ मुख कर लेना ही सब ार का संयम करना है। इसीको योगशा म ' ाहार' कहते ह। – यहाँ ' श े ' कस ानका नाम है और मनको शे म र करना ा है? उ र – ना भ और क –इन दोन ान के बीचका ान, जसे दयकमल भी कहते है और जो मन तथा ाण का नवास ान माना गया है, शे है; और इधर- उधर भटकनेवाले मनको संक - वक से र हत करके दयम न कर देना ही उसको शे म र करना है। – ाण को म कम ा पत करनेके लये कहनेका ा अ भ ाय है? उ र –  मनको दयम रोकनेके बाद ाण को ऊ गामी नाडीके ारा दयसे ऊपर उठाकर म कम ा पत करनेके लये कहा गया है, ऐसा करनेसे ाण के साथ-साथ मन भी वह जाकर त हो जाता है। – योगधारणाम त रहना ा है? और 'योगधारणाम् ' के साथ 'आ नः ' पद देनेका ा अ भ ाय है? उ र – उपयु कारसे इ य का संयम और मन तथा ाण का म कम भलीभाँ त न ल हो जाना ही योगधारणाम त रहना है। 'आ नः ' पदसे यह बात दखलायी गयी है क यहाँ परमा ासे स रखनेवाली योगधारणाका वषय है अ देवता द वषयक च नसे या कृ तके च नसे स रखनेवाली धारणाका वषय नह है। – यहाँ कारको 'एका र' कै से कहा? और इसे ' ' कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – दसव अ ायके पचीसव ोकम भी कारको 'एक अ र' कहा है ( गराम ेकम रम्)। इसके अ त र यह अ तीय अ वनाशी पर परमा ाका नाम है और नाम तथा नामीम वा वम अभेद माना गया है; इस लये भी कारको 'एक अ र' और ' ' कहना उ चत ही है। कठोप नषदम ् भी कहा है– एतद ् ेवा रं

एतद ् ेवा रं परम्।

एतद ् ेवा रं ा ा यो य द

तत

तत्॥ (१।२।१६)

'यह अ

र ही है, यह अ र ही परम है; इसी अ रको जानकर ही जो जसक इ ा करता है उसे वही ा हो जाता है।' – वाणी आ द इ य के और मनके क जानेपर तथा ाण के म कम ा पत हो जानेपर कारका उ ारण कै से हो सके गा? उ र – यहाँ वाणीसे उ ारण करनेके लये नह कहा गया है। उ ारण करनेका अथ मनके ारा उ ारण करना ही है। – यहाँ 'माम् ' पद कसका वाचक है और उसका रण करना ा है? उ र – यहाँ ानयोगीके अ कालका संग होनेसे 'माम् ' पद स दान घन नगुणनराकार का वाचक है। चौथे ोकम 'इस शरीरम 'अ धय ' म ही ँ ' इस कथनसे भगवान्ने जस कार अ धय के साथ अपनी एकता दखलायी है, उसी कार यहाँ ' ' के साथ अपनी एकता दखलानेके लये 'माम् ' पदका योग कया है। – मनसे कारका उ ारण और उसके अथ प का च न, दोन काम एक साथ कै से होते ह? उ र – मनके ारा दोन काम एक साथ अव ही हो सकते ह। परमा ाके नाम 'ॐ' का मनसे उ ारण करते ए, साथ-साथ का च न करनेम कोई आप नह आती। मनसे नामका उ ारण तो नामीके च नम उलटा सहायक होता है। मह ष पतंज लजीने भी कहा है ' ानकालम स वतक समा धतक श , अथ और त षयक ानका वक मनम रहता है' (योगदशन १।४१)। अत: जसका च न कया जाता है उसीके वाचक नामका मनके संक म रहना तो ाभा वक है और उ ने यह भी कहा है क– त वाचक: णव:। त प दथभावनम्। (योगदशन १।२७-२८) 'उसका नाम णव (ॐ) हे।' 'उस ॐका जप करते ए उसके अथ परमा ाका च न करना चा हये।' – यहाँ परमग तको ा होना ा हे? उ र –  नगुण- नराकार को अभेद-भावसे ा हो जाना, परम ग तको ा होना है; इसीको सदाके लये आवागमनसे मु होना, मु लाभ कर लेना, मो को ा होना

अथवा ' नवाण

को' ा होना कहते ह। – आठवसे दसव ोकतक सगुण- नराकार ई रक उपासनाका करण है और ारहवसे तेरहवतक नगुण- नराकार क उपासनाका। इस कार यहाँ भ - भ दो करण माने गये? 'य द छह ोक का एक ही करण मान लया जाय तो ा हा न है? उ र – आठवसे दसव ोकतकके वणनम उपा परम पु षको सव , सबके नय ा, सबके धारण-पोषण करनेवाले और सूयके स श यं काश प बतलाया है। ये सभी सव ापी भगवान्के द गुण ह। परंतु ारहवसे तेरहव ोकतक एक भी ऐसा वशेषण नह दया गया है जससे यहाँ नगुण नराकारका संग माननेम त नक भी आप हो सकती हो। इसके अ त र , उस करणम उपासकको 'भ यु ' कहा गया हे, जो भेदोपासनाका ोतक है तथा उसका फल द परमपु ष (सगुण परमे र) क ा बतलाया गया है। यहाँ अभेदोपासनाका वणन होनेसे उपासकके लये कोई वशेषण नह दया गया है और इसका फल भी परम ग त ( नगुण ) क ा बतलाया है। इसके अ त र ारहव ोकम नये करणका आर करनेक त ा भी क गयी है। साथ ही दोन करण को एक मान लेनेसे योग वषयक वणनक पुन का भी दोष आता है। इन सब कारण से यही तीत होता है क इन छह ोक म एक ही करण नह है। दो भ - भ करण ह।

कार नराकार-सगुण परमे रके और नगुण- नराकार के उपासक यो गय क अ कालीन ग तका कार और फल बतलाया गया; कतु अ कालम इस कारका साधन वे ही पु ष कर सकते ह, ज ने पहलेसे योगका अ ास करके मनको अपने आधीन कर लया ह। साधारण मनु के ारा अ कालम इस कार सगुण- नराकारका और नगुण- नराकारका साधन कया जाना ब त ही क ठन है अतएव सुगमतासे परमे रक ा का उपाय जाननेक इ ा होनेपर अब भगवान् अपने न - नर र रणको अपनी ा का सुगम उपाय बतलाते ह – स

– इस

अन चेताः सततं यो मां र त न शः । त ाहं सुलभः पाथ न यु यो गनः ॥१४॥

हे अजुन! जो पु ष मुझम अन च होकर सदा ही नर र मुझ पु षो मको रण करता है, उस न - नर र मुझम यु ए योगीके लये म सुलभ ँ , अथात् उसे

सहज ही ा

हो जाता ँ ॥१४॥ – यहाँ 'अन चेता: ' का

ा अ भ ाय है? उ र –  जसका च अ कसी भी व ुम न लगकर नर र अन ेमके साथ के वल परम ेमी परमे रम ही लगा रहता हो, उसे 'अन चेता: ' कहते ह। – यहाँ 'सततम् ' और ' न शः ' इन दो पद के योगका ा भाव है? उ र –  'सततम् ' पदसे यह दखलाया है क एक णका भी वधान न पड़कर लगातार रण होता रहे और ' न शः ' पदसे यह सू चत कया है क ऐसा लगातार रण आजीवन सदा-सवदा होता ही रहे, इसम एक दनका भी नागा न हो। इस कार दो पद का योग करके भगवान्ने जीवनभर न - नर र रणके लये कहा है। इसका यही भाव समझना चा हये। – यहाँ 'माम् ' पद कसका वाचक है और उसको रण करना ा है? उ र –  यह न ेमपूवक रण करनेका संग है और इसम 'त ', 'अहम् ' आ द भेदोपासनाके सूचक पद का योग आ है। अतएव यहाँ 'माम् ' पद सगुण साकार पु षो म भगवान् ीकृ का वाचक है। परंतु जो ी व ु और ीराम या भगवान्के दूसरे पको इ माननेवाले ह उनके लये वह प भी 'माम् ' का ही वा है। तथा परम ेम और ाके साथ नर र भगवान्के पका अथवा उनके नाम, गुण, भाव और लीला आ दका च न करते रहना ही उसका रण करना है। – ऐसे भ के लये भगवान् 'सुलभ' ह? उ र –  अन भावसे भगवान्का च न करनेवाला ेमी भ जब भगवान्के वयोगको नह सह सकता, तब 'ये यथा मां प े तां थैव भजा हम्' (४।११) के अनुसार भगवान्को भी उसका वयोग अस हो जाता है; और जब भगवान् यं मलनेक इ ा करते ह, तब क ठनताके लये कोई ान ही नह रह जाता। इसी हेतुसे ऐसे भ के लये भगवान्को सुलभ बतलाया गया है। – न - नर र रण करनेवाले भ के लये भगवान् सुलभ ह यह तो मान लया; परंतु भगवान्का न - नर र रण ा सहज ही हो सकता है?

उ र –  जनक भगवान्म और भगव ा महापु ष म परम ा और ेम है, जनको यह ढ़ व ास हो जाता है क न - नर र च न करनेसे भगवान्का मलना सुलभ है, उनके लये तो भगव ृ पासे न - नर र भगवान्का रण होना सहज ही है। अव ही, जनम ा- ेमका अभाव है, जो भगवान्के गुण- भावको नह जानते और जनको मह ंगका सौभा ा नह है, उनके लये न - नर र भगव न होना क ठन है।

भगवान्के न - नर र च नसे भगव ा क सुलभताका तपादन कया, अब उनके पुनज न होनेक बात कहकर यह दखलाते ह क भगव ा महापु ष का भगवान्से फर कभी वयोग नह होता – स



मामुपे पुनज दुःखालयमशा तम् । ना ुव महा ानः सं स परमां गताः ॥१५॥

परम स को ा महा ाजन मुझको ा पुनज को नह ा होते॥१५॥ – 'परम

होकर दःु ख के धर एवं

णभंगुर

स ' ा है और 'महा ा' श का योग कसके लये कया गया है? उ र –  अ तशय ा और ेमके साथ न - नर र भजन- ानका साधन करतेकरते जब साधनक वह पराका ा प त ा हो जाती है, जसके ा होनेके बाद फर कु छ भी साधन करना शेष नह रह जाता और त ाल ही उसे भगवान्का सा ा ार हो जाता है – उस पराका ाक तको 'परम स ' कहते ह; और भगवान्के जो भ इस परम स को ा ह, उन ानी भ के लये 'महा ा' श का योग कया गया है। – 'पुनज ' ा है और उसे 'दुःख का घर' तथा 'अशा त' ( णभंगुर) कस लये बतलाया गया है? उ र –  जीव जबतक भगवान्को ा नह हो जाता तबतक कमवश उसका एक यो नको छोड़कर दूसरी यो नम ज लेना मट नह सकता। इस लये मरनेके बाद कमपरवश होकर देवता, मनु , पशु, प ी आ द यो नय मसे कसी भी यो नम ज लेना ही पुनज कहलाता है। और ऐसी कोई भी यो न नह है जो दुःखपूण और अ न न हो। जीवनक अ न ताका माण तो मृ ु है ही; परंतु जीवनम जन व ु से संयोग होता है, उनम भी कोई व ु ऐसी नह है जो सदा एक-सी रहनेवाली हो; और जससे सदा संयोग बना रहे। जो व ु

आज सुख देनेवाली तीत होती है, कल उसीका पा र हो जानेपर अथवा उसके स म अपना भाव बदल जानेपर वह दुःख द हो जाती है। जसको जीवनम मनु सुख द ही मानता है ऐसी व ुका भी जब नाश होता है या जब उसको छोड़कर मरना पड़ता है, तब वह भी दुःखदा यनी ही हो जाती है। इसके साथ-साथ ेक व ु या तम कमीका बोध और उसके वनाशक आशंका तो सदा दुःख देनेवाली होती ही हे। सुख प दीखनेवाली व ु के सं ह और भोगम आस वश जो पाप कये जाते ह, उनका प रणाम भी नाना कारके क और नरक-य णा क ा भी होता है। इस कार पुनज म गभसे लेकर मृ ुपय दुःखही-दुःख होनेके कारण उसे दुःख का घर कहा गया है और कसी भी यो नका तथा उस यो नम ा भोग का संयोग सदा न रहनेवाला होनेसे उसे अशा त ( णभंगुर) बतलाया गया है। – उपयु महा ा पु ष का पुनज नह होता? उ र –  इसी लये नह होता क उन अन ेमी भ को भगवान्क ा हो जाती है। यह नयम है क एक बार जसको सम सुख के अन सागर, सबके परमाधार, परम आ य, परमा ा, परमपु ष भगवान्क ा हो जाती है, उसका फर कभी कसी भी प र तम भगवान्से वयोग नह होता। इसी लये भगव ा हो जानेके बाद फरसे संसारम ज नह लेना पड़ता, ऐसा कहा गया है।

ा महा ा पु षका पुनज नह होता इस कथनसे यह कट होता है क दूसरे जीव का पुनज होता है। अत: यहाँ यह जाननेक इ ा होती है क कस लोकतक प ँ चे ए जीव को वापस लौटना पड़ता है। इसपर भगवान् कहते ह – स

– भगव

आ भुवना ोकाः पुनराव तनोऽजुन । मामुपे तु कौ ेय पुनज न व ते ॥१६॥

हे अजुन! लोकपय सब लोक पुनरावत ह, परंतु हे कु ीपु ! मुझको ा होकर पुनज नह होता; क म कालातीत ँ और ये सब ा दके लोक कालके ारा सी मत होनेसे अ न ह॥१६॥ – यहाँ '

लोक ' श कस लोकका वाचक है, 'आ ' अ यके योगका ा अ भ ाय है और 'लोका: ' पदसे कन- कन लोक का ल है?

उ र –  जो चतुमुख ा सृ के आ दम भगवान्के ना भकमलसे उ होकर सारी सृ क रचना करते ह, जनको जाप त, हर गभ और सू ा ा भी कहते ह तथा इसी अ ायम जनको 'अ धदैव' कहा गया है (८।४), वे जस ऊ लोकम नवास करते ह, उस लोक वशेषका नाम ' लोक' है। और 'लोका: ' पदसे भ - भ लोकपाल के ान वशेष 'भू: ', 'भुव :', ' : ' आ द सम लोक का ल है। तथा 'आ ' अ यके योगसे उपयु लोकके स हत उससे नीचेके जतने भी व भ लोक ह उन सबको ले लया गया है। –  'पुनरावत ' कन लोक को कहते ह? उ र –  बार-बार न होना और उ होना जनका भाव हो एवं जनम नवास करनेवाले ा णय का मु होना न त न हो, उन लोक को 'पुनरावत ' कहते ह। लोकपय सब लोक को पुनरावत बतलाया परतुं वे पुनरावत कै से ह – इस ज ासापर अब भगवान् ाके दन-रातक अव धका वणन करके सब लोक क अ न ता स करते ह – स



सह युगपय महयद् णो वदुः । रा युगसह ा ां तेऽहोरा वदो जनाः ॥१७॥

ाका जो एक दन है, उसको एक हजार चतुयुगीतकक अव धवाला और रा को भी एक हजार चतुयुगीतकक अव धवाली जो पु ष त से जानते ह, वे योगीजन कालके त को जाननेवाले ह॥१७॥ – 'सह

युग' श कतने समयका वाचक है और उस समयको जो ाके दनरातका प रमाण बतलाया गया है – इसका ा अ भ ाय है? उ र –  यहाँ 'युग' श ' द युग' का वाचक है – जो स युग, ेता, ापर और क लयुग चार युग के समयको मलानेपर होता है। यह देवता का युग है इस लये इसको ' द युग' कहते ह। इस देवता के समयका प रमाण हमारे समयके प रमाणसे तीन सौ साठ गुना अ धक माना जाता है। अथात् हमारा एक वष देवता का चौबीस घंटेका एक दन-रात, हमारे तीस वष देवता का एक महीना और हमारे तीन सौ साठ वष उनका एक द वष होता है। ऐसे बारह हजार द वष का एक द युग होता है। इसे 'महायुग' और 'चतुयुगी' भी कहते ँ ।इस सं ाके जोड़नेपर हमारे ४३,२०,००० वष होते ह। द वष के हसाबसे बारह सौ द वष का हमारा क लयुग, चौबीस सौका ापर, छ ीस सौका ेता और अड़तालीस सौ वष का

स युग होता है। कु ल मलाकर १२, ००० वष होते ह। यह एक द युग है। ऐसे हजार द युग का ाका एक दन होता है और उतने युग क एक रा होती है। इसे दूसरी तरह सम झये। हमारे युग के समयका प रमाण इस कार है – क लयुग- ४,३२,००० वष ापर८,६४,०० ० वष (क लयुगसे दुगुना) ेता१२,९६,००० वष (क लयुगसे तगुना) स युग- १७,२८,००० वष (क लयुगसे चौगुना) कु ल जोड़- ४३,२०, ०० ० वष यह एक द युग आ। ऐसे हजार द युग का अथात् हमारे ४,३२,००,००,००० (चार अरब ब ीस करोड़) वषका ाका एक दन होता है और इतनी ही बड़ी उनक रा होती है। मनु ृ त थम अ ायम च सठसे तह रव ोकतक इस वषयका वशद वणन है। ाके दनको 'क ' या 'सग' और रा को ' लय' कहते ह। ऐसे तीस दन-रातका ाका एक महीना, ऐसे बारह महीन का एक वष और ऐसे सौ वष क ाक पूणायु होती है। ाके दन-रा का प रमाण बतलाकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क इस कार ाका जीवन और उनका लोक भी सी मत तथा कालक अव धवाला है, इस लये वह भी अ न ही है और जब वही अ न है, तब उसके नीचेके लोक और उनम रहनेवाले ा णय के शरीर अ न ह , इसम तो कहना ा है? – जो लोग ाके दन-रातका प रमाण जानते ह, वे कालके त को जाननेवाले ह – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र –  ाके दन-रा क अव ध जान लेनेपर मनु को लोक और उसके अ वत सभी लोक क अ न ताका ान हो जाता है। तब वह इस बातको भलीभाँ त समझ लेता है क जब लोक ही अ न है तब वहाँके भोग तो अ न और वनाशी ह ही ।और जो व ु अ न और वनाशी होती है, वह ायी सुख दे नह सकती। अतएव इस लोक और परलोकके भोग म आस होकर उ ा करनेक चे ा करना और मनु जीवनको मादम लगाकर उसे थ खो देना बड़ी भारी मूखता है। मनु जीवनक अव ध ब त ही थोड़ी है (९। ३३)। अत: भगवान्का ेमपूवक नर र च न करके शी - से-शी उ ा कर लेना ही बु मानी है और इसीम मनु ज क सफलता है। जो इस कार समझते ह, वे ही दनरा प कालके त को जानकर अपने अमू समयक सफलताका लाभ उठानेवाले ह।

ाके दन-रा का प रमाण बतलाकर अब उस दन और रातके आर म बार-बार होनेवाली सम भूत क उ त और लयका वणन करते ए उन सबक अ न ताका कथन करते ह – स



अ ाद् यः सवाः भव हरागमे । रा ागमे लीय े त वै ा सं के ॥१८॥

स ूण चराचर भूतगण ाके दनके वेशकालम अ से अथात् ाके सू शरीरसे उ होते ह और ाक रा के वेशकालम उस अ नामक ाके सू शरीरम ही लीन हो जाते ह॥ १८॥ – यहाँ 'सवा: ' वशेषणके स हत ' य: ' पद कनका वाचक है? उ र –  जो व ु इ य के ारा जानी जा सके , उसका नाम ' ' है। भूत ाणी सब जाने जा सकते ँ अतएव देव, मनु , पतर, पशु प ी आ द यो नय म जतने भी पम त देहधारी ाणी ह, उन सबका वाचक यहाँ 'सवा: ' वशेषणके स हत ' य: ' पद है। – 'अ ' श से कसका ल है और ाके दनके आगमम उस अ से य का उ होना ा है? उ र –  कृ तका जो सू प रणाम है, जसको ाका सू शरीर भी कहते ह, ूल पंचमहाभूत के उ होनेसे पूवक जो त है उस सू अपरा कृ तका नाम यहाँ 'अ ' है। ाके दनके आगमम अथात् जब ा अपनी सुषु -अव ाका ाग करके जा त्- अव ाको ीकार करते ह, तब उस सू कृ तम वकार उ होता है और वह ूल पम प रणत हो जाती है एवं उस ूल- पम प रणत कृ तके साथ सब ाणी अपनेअपने कमानुसार व भ प म स हो जाते ह। यही अ से य का उ होना है। – रा का आगम ा है? और उस समय अ से उ सब पुन: उसीम लीन हो जाते ह, इसका ा अ भ ाय है?

उ र –  एक हजार द युग के बीत जानेपर जस णम ा जा त्-अव ाका ाग करके सुषु -अव ाको ीकार करते ह उस थम णका नाम ाक रा का आगम है। उस समय ूल पम प रणत कृ त सू अव ाको ा हो जाती है और सम देहधारी ाणी भ - भ ूल शरीर से र हत होकर कृ तक सू अव ाम त हो जाते ह। यही उस अ म सम य का लय होना है। आ ा अज ा और अ वनाशी है इस लये वा वम उसक उ और लय नह होते। अतएव यहाँ यही समझना चा हये क कृ तम त ा णय से स रखनेवाले कृ तके सू अंशका ूल पम प रणत हो जाना ही उनक उ है और उस ूलका पुन: सू पम लय हो जाना ही उन ा णय का लय होना है। – यहाँ जस 'अ ' को 'सू कृ त' कहा गया है इसम और नवम अ ायके सातव तथा आठव ोक म जस कृ तका वणन है, उसम पर र ा भेद है? उ र – पत: कोई भेद नह है, एक ही कृ तका अव ाभेदसे दो कारका पृथक् पृथक् वणन है। अ भ ाय यह है क इस ोकम 'अ ' नामसे उस अपरा कृ तका वणन है, जसको सातव अ ायके चौथे ोकम आठ भेद म वभ बतलाया गया है और नवम अ ायके सातव तथा आठव ोक म उस मूल कृ तका वणन है जो अपने अ नवचनीय पम त है और जसके आठ भेद नह ए ह। यह मूल- कृ त ही जब कारण- अव ासे सू -अव ाम प रणत होती है तब यही आठ भेद म वभ अपरा कृ तके नामसे कही जाती है। य प क रा के आर म सम भूत अ म लीन हो जाते ह, तथा प जबतक वे परम पु ष परमे रको ा नह होते, तबतक उनका पुनज से पड नह छू टता, वे आवागमनके च रम घूमते ही रहते ह। इसी भावको दखलानेके लये भगवान् कहते ह– स



भूत ामः स एवायं भू ा भू ा लीयते । रा ागमेऽवशः पाथ भव हरागमे ॥१९॥

हे पाथ! वही यह भूतसमुदाय उ हो-होकर वेशकालम लीन होता है और दनके वेशकालम फर उ – यहाँ 'भूत ामः ' पद

कृ तके वशम आ रा के होता है॥१९॥

कसका वाचक है तथा उसके साथ 'स: ', 'एव ' और 'अयम् ' पद के योगका ा अ भ ाय है? उ र –  'भूत ाम: ' पद यहाँ चराचर ा णमा के समुदायका वाचक है; उसके साथ 'स: ', 'एव ' और 'अयम् ' पद का योग करके यह भाव दखलाया गया है क जो भूत ाणी ाक रा के आर म अ म लीन होते ह, ज पूव ोकम 'सवा: य: ' के नामसे कहा गया है वे ही ाके दनके आर म पुन: उ हो जाते ह। अ म लीन हो जानेसे न तो वे मु होते है और न उनक भ स ा ही मटती है। इसी लये ाक रा का समय समा होते ही वे सब पुन: अपने-अपने गुण और कम के अनुसार यथायो ूल शरीर को ा करके कट हो जाते ह। भगवान् कहते ह क क -क ा रसे जो इस कार बार- बार अ म लीन और पुन: उसीसे कट होता रहा है, तु दीखनेवाला यह ावर- जंगम भूतसमुदाय वही है; कोई नया उ नह आ है। – 'भू ा ' पदके दो बार योगका ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क इस कार यह भूतसमुदाय अना दकालसे उ हो-होकर लीन होता चला आ रहा है। ाक आयुके सौ वष पूण होनेपर जब ाका शरीर भी मूल कृ तम लीन हो जाता है और उसके साथ-साथ सब भूतसमुदाय भी उसीम लीन हो जाते ह, (९।७) तब भी इनके इस च रका अ नह आता। ये उसके बाद भी उसी तरह पुनः-पुन: उ होते रहते हँ (९। ८)। जबतक ाणीको परमा ाक ा नह हो जाती, तबतक वह बार-बार इसी कार उ हो-होकर कृ तम लीन होता रहेगा। – 'अवश: ' पदका ा अ भ ाय हे? उ र – 'अवश: ' पद 'भूत ाम: ' का वशेषण है। जो कसी दूसरेके अधीन हो, त न हो, उसे अवश या परवश कहते ह। ये अ से उ और पुन: अ म ही लीन होनेवाले सम ाणी अपने-अपने भावके वश ह अथात् अना द स भ - भ गुण और कम के अनुसार जो इन सबक भ - भ कृ त है, उस कृ त या भावके वश होनेके

कारण ही इनका बार-बार ज और मरण होता है; इसी लये तेरहव अ ायके इ सव ोकम भगवान्ने कहा है क ' कृ तम त पु ष ही कृ तज गुण को अथात् सुखदुःख को भोगता है एवं कृ तका संग ही इसके अ ी-बुरी यो नय म ज लेनेका कारण है।' इससे यह हो जाता है क जो जीव कृ तसे उस पार प ँ चकर परमा ाको ा हो गया है, उसका पुनज नह होता। – भावके पराधीन सम भूत ाणी जो बार-बार उ होते ह उ उनके अपने- अपने गुण और कम के अनुसार ठीक-ठीक व ाके साथ उ करनेवाला कौन है? कृ त, परमे र, ा अथवा कोई और ही? उ र –  यहाँ ाके दन-रातका संग होनेसे यही समझना चा हये क ा ही सम ा णय को उनके गुण-कमानुसार शरीर से स करके बार-बार उ करते ह। महा लयके बाद जस समय ाक उ नह होती, उस समय तो सृ क रचना यं भगवान् करते ह, परंतु ाके उ होनेके बाद सबक रचना ा ही करते ह। नव अ ायम ( ोक ७ से १०) और चौदहव अ ायम ( ोक ३,४) जो सृ - रचनाका संग है, वह महा लयके बाद महासगके आ दकालका है और यहाँका वणन ाक रा के ( लयके ) बाद ाके दनके (सगके ) आर समयका है।

ाक रा के अर म जस अ म सम भूत लीन होते ह और दनका अर होते ही जससे उ होते ह, वही अ क सव े है? या उससे बढ़कर कोई दूसरा और है? इस ज ासापर कहते ह – स



पर ा ु भावोऽ ोऽ ोऽ ा नातनः । यः स सवषु भूतेषु न ु न वन त ॥२०॥

उस अ से भी अ त परे दस ू रा अथात् वल ण जो सनातन अ वह परम द पु ष सब भूत के न होनेपर भी न नह होता॥२०॥

भाव है,

यहाँ 'त ात् ' वशेषणके साथ 'अ ात् ' पद कस 'अ ' पदाथका वाचक है? उससे भ दूसरा 'अ भाव' ा है? तथा उसे 'पर: ', 'अ : ' और 'सनातन: ' कहनेका ा अ भ ाय है? –

उ र –  अठारहव ोकम जस 'अ ' म सम य (भूत- ा णय ) का लय होना बतलाया गया है, उसी व ुका वाचक यहाँ 'त ात् ' वशेषणके स हत 'अ ात् ' पद है; उससे भ दूसरा 'अ भाव' (त ) वह है जसका इस अ ायके चौथे ोकम 'अ धय ' नामसे, नव ोकम 'क व', 'पुराण' आ द नाम से, आठव और दसव ोक म 'परम द पु ष' के नामसे, बाईसव ोकम 'परम पु ष' के नामसे और नवम अ ायके चौथे ोकम 'अ मू त' के नामसे वणन कया गया है। पूव 'अ ' से इस 'अ ' को 'पर' और 'अ ' बतलाकर उससे इसक अ े ता और वल णता स क गयी है। अ भ ाय यह है क दोन व ु का प 'अ ' होनेपर भी, दोन एक जा तक व ु नह है। वह पहला 'अ ' जड, नाशवान् और ेय है; परंतु यह दूसरा चेतन, अ वनाशी और ाता है। साथ ही यह उसका ामी, संचालक और अ ध ाता है; अतएव यह उससे अ े और वल ण है। अना द और अन होनेके कारण इसे 'सनातन' कहा गया है। – वह सनातन अ सब भूत के न होनेपर भी न नह होता' - इस वा म 'सब भूत ' से कसका ल है? उनका नाश होना और उस समय उस सनातन अ का न न होना व ुत: ा है? उ र –  ासे लेकर ाके दन-रा म उ और वलीन होनेवाले अपने-अपने मन, इ य, शरीर, भो व ु और वास ान के स हत जतने भी चराचर ाणी ह 'सब भूत ' से यहाँ उन सभीका ल है। महा लयके समय ूल और सू शरीरसे र हत होकर जो ये अ ाकृ त माया नामक मूल – कृ तम लीन हो जाते ह, वही इनका नाश है। उस समय भी उस कृ तके अ ध ाता सनातन अ परम द पु ष परमे र कृ त- स हत उन सम जीव को अपनेम लीन करके अपनी ही म हमाम त रहते ह, यही उनका सम भूत के न होनेपर भी न न होना है। आठव और दसव ोक म अ धय क उपासनाका फल परम द पु षक ा , तेरहव ोकम परम अ र नगुण क उपासनाका फल परमग तक ा और चौदहव ोकम सगुण-साकार भगवान् ीकृ क उपासनाका फल भगवान्क ा बतलाया गया है। इससे तीन म कसी कारके भेदका म न हो जाय, इस उ े से अब सबक एकताका तपादन करते ए उनक ा के बाद पुनज का अभाव दखलाते ह – स







अ ोऽ र इ ु मा ः परमां ग तम् । यं ा न नवत े त ाम परमं मम ॥२१॥

जो अ 'अ र' इस नामसे कहा गया है, उसी अ र नामक अ भावको परमग त कहते ह तथा जस सनातन अ भावको ा होकर मनु वापस नह आते, वह मेरा परम धाम हे ॥२१॥ – यहाँ 'अ

: ' और 'अ र: ' पद

कसके वाचक ह? उ र –  जसे पूव ोकम 'सनातन अ भाव' के नामसे और आठव तथा दसव ोक म 'परम द पु ष' के नामसे कहा है, उसी अ धय पु षके वाचक यहाँ 'अ : ' और  'अ र: ' पद ह । – 'परम ग त' श कसका वाचक है? उ र –  यहाँ 'परम' वशेषण होनेसे यह भाव है क जो मु सव म ा व ु है, जसे ा कर लेनेके बाद और कु छ भी ा करना शेष नह रह जाता एवं जसके ा होते ही स ूण दुःखका सदाके लये अ अभाव हो जाता है, उसका नाम 'परमग त' है । इस लये जस नगुण- नराकार परमा ाको 'परम अ र' और ' ' कहते ह उसी स दान घन का वाचक 'परमग त' श है (८।१३)। – यहाँ 'परम धाम' श कसका वाचक है और उसके साथ अ , अ र तथा परमग तक एकता करनेका और जसे ा होकर वापस नह आते-इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र –  भगवान्का जो न धाम है, वह भी स दान मय, द , चेतन और भगवान्का ही प होनेके कारण वा वम भगवान्से अ भ ही है; अत: यहाँ 'परम धाम' श भगवान्के न धाम, उनके प एवं भगव ाव – इन सभीका वाचक है। अ भ ाय यह है क भगवान्के न धामक , भगव ावक और भगवान्के पक ा म कोई वा वक भेद नह है। इसी तरह अ अ रक ा म तथा परमग तक ा म और भगवान्क ा म भी व ुत: कोई भेद नह है। इसी बातको समझानेके लये यह कहा गया हे क जसको ा करके मनु नह लौटता, वही मेरा परम धाम है; उसीको अ , अ र तथा परम ग त भी कहते ह। साधनाके भेदसे साधक क म फलका भेद है। इसी कारण उसका भ - भ नाम से वणन

कया गया है। यथाथम व ुगत कु छ भी भेद न होनेके कारण यहाँ उन सबक एकता दखलायी गयी है। स – इस कार सनातन अ क पु षक परमग त और परम धामके दखलाकर, अब उस सनातन अ परम पु षक ा का उपाय बतलाते ह –

पु षः स परः पाथ भ ा ल न या । य ा ः ा न भूता न येन सव मदं ततम् ॥२२॥

साथ एकता

हे पाथ! जस परमा ाके अ गत सवभूत ह ओर जस स दान घन परमा ासे यह सब जगत् प रपूण है वह सनातन अ परम पु ष तो अन भ से ही ा होने यो है ॥ २२ ॥ – ' जस परमा ाके अ गत सवभूत ह' और ' जस परमा ासे यह सब जगत् प रपूण है' - इन दोन वा का ा अ भ ाय है? उ र –  थम वा से यह समझना चा हये क जैसे वायु, तेज, जल और पृ ी, चार भूत आकाशके अ गत ह, आकाश ही उनका एकमा कारण और आधार है, उसी कार सम चराचर ाणी अथात् सारा जगत् परमे रके ही अ गत है, परमे रसे ही उ है और परमे रके ही आधारपर त है। दूसरे वा से यह बात समझनी चा हये क जस कार वायु, तेज, जल, पृ ी - इन सबम आकाश ा है, उसी कार यह सारा जगत् अ परमे रसे ा है, यही बात नवम अ ायके चौथे, पाँचव और छठे ोक म व ारपूवक दखलायी गयी है। – 'पर: पु ष: ' कसका वाचक है? उ र –  यहाँ 'पर: पु ष: ' सव ापी 'अ धय ' का वाचक है। इसी अ ायके आठव, नव और दसव ोक म जस सगुण- नराकारक उपासनाका करण है तथा बीसव ोकम जस अ पु षक बात कही गयी है यह करण भी उसीक उपासनाका है। उसी परमे रम सम भूत क त और उसीक सबम ा बतलायी गयी है। – आठवसे दसव ोकतक इस अ पु षक उपासनाका करण आ चुका है फर उसे यहाँ दुबारा लानेका ा अ भ ाय है?

उ र –  य प दोन ही जगह अ पु षक ही उपासनाका वणन है - इसम कोई स हे नह , पर ु इतना भेद है क वहाँ आठव, नव और दसव ोक म तो योगी पु ष ारा ा कये जानेवाले के वल अ कालीन साधनका फलस हत वणन है और यहाँ सवसाधारणके लये सदा- सवदा क जा सकनेवाली अन - भ का और उसके ारा उसी परमा ाक ा का वणन है। इसी अ भ ायसे उस उपासनाके करणको यहाँ पुन: लाया गया है। – 'अन भ ' कसको कहते ह और उसके ारा परम पु षका ा होना ा है? उ र – सवाधार, सवा यामी, सवश मान् परमे रम ही सब कु छ समपण करके उनके वधानम सदा परम स ु रहना और सब कारसे अन ेमपूवक न - नर र उनका रण करना ही अन -भ है। इस अन भ के ारा साधक अपने उपा देव परमे रके गुण, भाव और त को भलीभाँ त जानकर उनम त य हो जाता है और शी ही उसका सा ा ार करके कृ तकृ हो जाता है। यही साधकका उस परमे रको ा कर लेना है। सातव का उ र देते ए भगवान्ने अ कालम कस कार मनु परमा ाको ा होता है, यह बात भलीभाँ त समझायी। संगवश यह बात भी कही क भगव ा न होनेपर लोकतक प ँ चकर भी जीव अवागमनके च रसे नह छू टता। पर ु वहाँ यह बात नह कही गयी क जो वापस न लौटनेवाले ानको ा होते ह, वे कस रा ेसे और कै से जाते ह तथा इसी कार जो वापस लौटनेवाले ान को ा होते ह, वे कस रा ेसे जाते ह। अत: उन दोन माग का वणन करनेके लये भगवान् ावना करते ह – स

– अजुनके

य काले नावृ मावृ चैव यो गनः । याता या तं कालं व ा म भरतषभ ॥२३॥

हे अजुन! जस कालम शरीर ागकर गये ए योगीजन तो वापस न लौटनेवाली गीतको और जस कालम गये ए वापस लौटनेवाली ग तको ही ा होते ह, उस कालको अथात् दोन माग को क ँ गा॥२३॥ – यहाँ 'काल' श

कसका वाचक है? उ र –  यहाँ 'काल' श उस मागका वाचक है जसम काला भमानी भ - भ देवता का अपनी-अपनी सीमातक अ धकार है।

– यहाँ 'काल' श

का अथ 'समय' मान लया जाय तो ा हा न है? उ र –  छ ीसव ोकम इसीको 'शु ' और 'कृ ' दो कारक 'ग त' के नामसे और स ाईसव ोकम 'सू त' के नामसे कहा है। वे दोन ही श मागवाचक ह। इसके सवा 'अ : ', ' ो त: ' और 'धूम: ' पद भी समयवाचक नह ह। अतएव चौबीसव और पचीसव ोक म आये ए 'त ' पदका अथ 'समय' मानना उ चत नह होगा। इसी लये यहाँ 'काल' श का अथ काला भमानी देवता से स रखनेवाला 'माग' मानना ही ठीक है। – य द यही बात है तो संसारम लोग दन, शु प और उ रायणके समय मरना अ ा समझते ह? उ र –  लोग का समझना भी एक कारसे ठीक ही है, क उस समय उस-उस काला भमानी देवता के साथ त ाल स हो जाता है। अत: उस समय मरनेवाला योगी ग ानतक शी और सुगमतासे प ँ च जाता है। पर इससे यह नह समझ लेना चा हये क रा के समय मरनेवाला तथा कृ प म और द णायनके छ: महीन म मरनेवाला अ चमागसे नह जाता। ब यह समझना चा हये क चाहे जस समय मरनेपर भी, वह जस मागसे जानेका अ धकारी होगा, उसी मागसे जायगा। इतनी बात अव है क य द अ चमागका अ धकारी रा म मरेगा तो उसका दनके अ भमानी देवताके साथ स दनके उदय होनेपर ही होगा, इस बीचके समयम वह 'अ : ' के अ भमानी देवताके अ धकारम रहेगा। य द कृ प म मरेगा तो उसका शु प ा भमानी देवतासे स शु प आनेपर ही होगा, इसके बीचके समयम वह दनके अ भमानी देवताके अ धकारम रहेगा। इसी तरह य द द णायनम मरेगा तो उसका उ रायणा भमानी देवतासे स उ रायणका समय आनेपर ही होगा, इसके बीचके समयम वह शु प ा भमानी देवताके अ धकारम रहेगा। इसी कार द णायन मागके अ धकारीके वषयम भी समझ लेना चा हये। – यहाँ 'यो गन: ' पदके योगका ा अ भ ाय है? उ र –  'यो गन: ' पदके योगसे यह बात समझनी चा हये क जो साधारण मनु इसी लोकम एक यो नसे दूसरी यो नम बदलनेवाले ह या जो नरका दम जानेवाले ह, उनक ग तका यहाँ वणन नह है। यहाँ जो 'शु ' ओर 'कृ ' इन दो माग के वणनका करण है, वह य , दान, तप आ द शुभकम और उपासना करनेवाले े पु ष क ग तका ही वणन है।

– ' याता: ' पदका ा क है?

ा अ भ ाय है? और भगवान्ने यहाँ 'व

ाम'

पदसे ा

कहनेक त उ र – ' याता: ' पद जानेवाल का वाचक है। जो मनु अ कालम शरीरको छोड़कर उ लोक म जानेवाले ह, उनका वणन करनेके उ े से इसका योग आ है। जस रा ेसे गया आ मनु वापस नह लौटता और जस रा ेसे गया आ वापस लौटता है, उन दोन रा का ा भेद है, वे दोन रा े कौन-कौन से ह, तथा उन रा पर कन- कनका अ धकार है – 'व ा म ' पदसे भगवान्ने इन सब बात के कहनेक त ा क है।

ोकम जन दो माग का वणन करनेक त ा क गयी, उनमसे जस मागसे गये ए साधक वापस नह लौटते, उसका वणन पहले कया जता है – स

– पूव

अ तरहः शु ः ष ासा उ रायणम् । त याता ग वदो जनाः ॥२४॥

जस मागम

ो तमय अ

अ भमानी देवता है, दनका अ भमानी देवता है,

शु प का अ भमानी देवता है, और उ रायणके छ: महीन का अ भमानी देवता है, उस मागम मरकर गये ए वे ा योगीजन उपयु देवता ारा मसे ले जाये जाकर को ा होते ह॥२४॥ –'

ो त: ' और 'अ : ' – ा है? उ मागम उसका

ये दोन पद कस देवताके वाचक ह तथा उस कतना अ धकार है और वह इस वषयम ा

देवताका प करता है? उ र –  यहाँ ' ो त: ' पद 'अ : ' का वशेषण है और 'अ : ' पद अ अ भमानी देवताका वाचक है। उप नषद म इसी देवताको 'अ चः ' कहा गया है। इसका प द काशमय है, पृ ीके ऊपर समु स हत सब देशम इसका अ धकार है तथा उ रायणमागम जानेवाले अ धकारीका दनके अ भमानी देवतासे स करा देना ही इसका काम है। उ रायण-मागसे जानेवाला जो उपासक रा म शरीर ाग करता है उसे यह रातभर अपने अ धकारम रखकर दनके उदय होनेपर दनके अ भमानी देवताके अधीन कर देता है और जो दनम मरता है उसे तुरंत ही दनके अ भमानी देवताको स प देता है।

पद कस देवताका वाचक है, उसका ा प है, उसका कहाँतक अ धकार है एवं वह इस वषयम ा करता है? उ र –  'अह: ' पद दनके अ भमानी देवताका वाचक है, इसका प अ अ भमानी देवताक अपे ा ब त अ धक द काशमय है। जहाँतक पृ ी-लोकक सीमा है अथात् जतनी दूरतक आकाशम पृ ीके वायुम लका स है, वहाँतक इसका अ धकार है और उ रायणमागम जानेवाले उपासकको शु प के अ भमानी देवतासे स करा देना ही इसका काम है। अ भ ाय यह है क उपासक य द कृ प म मरता है तो शु प आनेतक उसे यह अपने अ धकारम रखकर और य द शु प म मरता है तो तुरंत ही अपनी सीमातक ले जाकर उसे शु प के अ भमानी देवताके अधीन कर देता है। – यहाँ 'शु : ' पद कस देवताका वाचक है, उसका कै सा प है, कहाँतक अ धकार है एवं ा काम है? उ र –  पहलेक भाँ त 'शु : ' पद भी शु प ा भमानी देवताका ही वाचक है। इसका प दनके अ भमानी देवतासे भी अ धक द काशमय है। भूलोकक सीमासे बाहर अ र लोकम- जन लोक म पं ह दनके दन और उतने ही समयक रा होती है, वहाँतक इसका अ धकार है। और उ रायणमागसे जानेवाले अ धकारीको अपनी सीमासे पार करके उ रायणके अ भमानी देवताके अधीन कर देना इसका काम है। यह भी पहलेवाल क भाँ त य द साधक द णायनम इसके अ धकारम आता है तो उ रायणका समय आनेतक उसे अपने अ धकारम रखकर और य द उ रायणम आता है तो तुरंत ही अपनी सीमासे पार करके उ रायण-अ भमानी देवताके अ धकारम स प देता है। – 'ष ासा उ रायणम् ' पद कस देवताका वाचक है? उसका कै सा प है, कहाँतक अ धकार है एवं ा काम है? उ र –  जन छ: महीन म सूय उ र दशाक ओर चलते रहते ह, उस छमाहीको उ रायण कहते है। उस उ रायण-काला भमानी देवताका वाचक यहाँ 'ष ासा उ रायणम् ' पद है। इसका प शु प ा भमानी देवतासे भी बढ़कर द काशमय है । अ र लोकके ऊपर जन लोक म छ: महीन के दन एवं उतने ही समयक रा होती है, वहाँतक इसका अ धकार है और उ रायणमागसे परमधामको जानेवाले अ धकारीको अपनी सीमासे पार करके , उप नषद म व णत- (छा ो -उ० ४।१५।५; तथा ५।१०।१,२; – 'अह: '

बृहदार क-उ० ६।२।१५) संव रके अ भमानी देवताके पास प ँ चा देना इसका काम है। वहाँसे आगे संव रका अ भमानी देवता उसे सूयलोकम प ँ चाता है । वहाँसे मश: आ द ा भमानी देवता च ा भमानी देवताके अ धकारम और वह व त्-अ भमानी देवताके अ धकारम प ँ चा देता है । फर वहाँपर भगवान्के परमधामसे भगवान्के पाषद आकर उसे परमधामम ले जाते ह और तब उसका भगवान्से मलन हो जाता हे। ान रहे क इस वणनम आया आ 'च ' श हम दीखनेवाले च लोकका और उसके अ भमानी देवताका वाचक नह है। – यहाँ ' वद: ' पद कौन-से मनु का वाचक है? उ र –  यहाँ ' वद: ' पद नगुण के त को या सगुण परमे रके गुण, भाव, त और पको शा और आचाय के उपदेशानुसार ापूवक परो भावसे जाननेवाले उपासक का तथा न ामभावसे कम करनेवाले कमयो गय का वाचक है। यहाँका ' वद: ' पद पर परमा ाको ा ानी महा ा का वाचक नह है, क उनके लये एक ानसे दूसरे ानम गमनका वणन उपयु नह है। ु तम भी कहा है – 'न त ाणा ु ाम ' (बृहदार क-उ० ४।४।६) 'अ ैव समवलीय े ' (बृहदार क-उ० ३।२।११) ' ैव सन् ा े त ' (बृहदार क-उ० ४।४।६) अथात् ' क उसके ाण उ ा को नह ा होते', 'शरीरसे नकलकर अ नह जाते', 'यह पर लीन हो जाते ह', 'वह आ ही को ा कर लेता है।' जसको सगुण परमा ाका सा ा ार हो गया है, ऐसा भ उपयु मागसे भगवान्के परमधामको भी जा सकता है अथवा भगवान्के पम लीन भी हो सकता है। यह उसक चपर नभर है। – यहाँ ' ' श कसका वाचक है? और उसको ा होना ा है? उ र –  यहाँ ' ' श सगुण परमे रका वाचक है। उनके कभी नाश न होनेवाले न धाम, जसे स लोक, परमधाम, साके तलोक, गोलोक, वैकु लोक एवं लोक भी कहते ह, वहाँ प ँ चकर भगवान्को कर लेना ही उनको ा होना है। यहाँ यह रण रखना चा हये क यह लोक इस अ ायके सोलहव ोकम व णत पुनरावत लोक नह है।

इस कार वापस न लौटनेवाल के मागका वणन करके अब जस मागसे गये ए साधक वापस लौटते ह उसका वणन कया जता है – स



धूमो रा था कृ ः ष ासा द णायनम् । त चा मसं ो तय गी ा नवतते ॥२५॥

जस मागम धूमा भमानी देवता है, रा -अ भमानी देवता है तथा कृ

प का

अ भमानी देवता है और द णायनके छ: महीन का अ भमानी देवता है, उस मागम मरकर गया आ सकाम कम करनेवाला योगी उपयु देवता ारा मसे ले गया आ च माक ो तको ा होकर गम अपने शुभकम का फल भोगकर वापस आता है॥ २५॥

पद कस देवताका वाचक है? उसका प कै सा होता है, उसका कहाँतक अ धकार है और ा काम है? उ र –  यहाँ 'धूम: ' पद धूमा भमानी देवताका अथात् अ कारके अ भमानी देवताका वाचक है। उसका प अ कारमय होता है। अ - अ भमानी देवताक भाँ त पृ ीके ऊपर समु स हत सम देशम इसका भी अ धकार है तथा द णायन- मागसे जानेवाले साधक को रा -अ भमानी देवताके पास प ँ चा देना इसका काम है। द णायन- मागसे जानेवाला जो साधक दनम मर जाता है उसे यह दनभर अपने अ धकारम रखकर रा का आर होते ही रा -अ भमानी देवताको स प देता है और जो रा म मरता है उसे तुरंत ही रा -अ भमानी देवताके अधीन कर देता है। – 'रा : ' पद कसका वाचक है, उसका प कै सा है, अ धकार कहाँतक है और ा काम है? उ र – यहाँ 'रा : ' पदको भी रा के अ भमानी देवताका ही वाचक समझना चा हये। इसका प अ कारमय होता है। दनके अ भमानी देवताक भाँ त इसका अ धकार भी जहाँतक पृ ीलोकक सीमा है वहाँतक है। भेद इतना ही है क पृ ी-लोकम जस समय जहाँ दन रहता है वहाँ दनके अ भमानी देवताका अ धकार रहता है और जस समय जहाँ रा रहती है वहाँ रा -अ भमानी देवताका अ धकार रहता है। द णायन-मागसे जानेवाले साधकको पृ ीलोकक सीमासे पार करके अ र म कृ प के अ भमानी देवताके अधीन कर देना इसका काम है। य द वह साधक शु प म मरता है तब तो उसे कृ प आनेतक –  'धूम: '

अपने अ धकारम रखकर और य द कृ प म मरता है तो तुरंत ही अपने अ धकारसे पार करके कृ प ा भमानी देवताके अधीन कर देता है। – यहाँ 'कृ : ' पद कसका वाचक है? उसका प कै सा होता है, कहाँतक अ धकार है और ा काम है? उ र – कृ प ा भमानी देवताका वाचक यहाँ 'कृ : ' पद है। इसका प भी अ कारमय होता है। पृ ीम लक सीमाके बाहर अ र लोकम, जहाँतक पं ह दनका और उतने ही समयक रा होती है वहाँतक इसका भी अ धकार है। भेद इतना ही है क जस समय जहाँ उस लोकम शु प रहता है, वहाँ शु प ा भमानी देवताका अ धकार रहता है, और जहाँ कृ प रहता है, वहाँ कृ प ा भमानी देवताका अ धकार रहता है। द णायनमागसे गम जानेवाले साधक को द णायना भमानी देवताके अधीन कर देना इसका काम है। जो द णायन-मागका अ धकारी साधक उ रायणके समय इसके अ धकारम आता है, उसे द णायनका समय आनेतक अपने अ धकारम रखकर और जो द णायनके समय आता है उसे तुरंत ही यह अपने अ धकारसे पार करके द णायना भमानी देवताके पास प ँ चा देता है। – यहाँ 'ष ासा द णायनम् ' पद कसका वाचक है, उसका प कै सा है, कहाँतक अ धकार है और ा काम है? उ र –  जन छ: महीन म सूय द ण दशाक ओर चलते रहते ह, उस छमाहीको द णायन कहते ह। उसके अ भमानी देवताका वाचक यहाँ 'द णायनम् ' पद है। इसका प भी अ कारमय होता है। अ र -लोकके ऊपर जन लोक म छ: महीन का दन और छ: महीन क रा होती है, वहाँतक इसका भी अ धकार है। भेद इतना ही है क उ रायणके छ: महीन म उसके अ भमानी देवताका वहाँ अ धकार रहता है और द णायनके छ: महीन म इसका अ धकार रहता है। द णायन-मागसे गम जानेवाले साधक को अपने अ धकारसे पार करके उप नषद म व णत पतृलोका भमानी देवताके अ धकारम प ँ चा देना इसका काम है। वहाँसे पतृलोका भमानी देवता साधकको आकाशा भमानी देवताके पास और वह आकाशा भमानी देवता च माके लोकम प ँ चा देता है (छा ो उ०५।१०।४; बृहदार क उ०६1२।१६)। यहाँ च माका लोकउपल णमा है; अत: ाके लोकतक जतने भी पुनरागमन-शील लोक ह, च लोकसे उन सभीको समझ लेना चा हये।

ान रहे क उप नषद म व णत यह पतृलोक वह पतृलोक नह है, जो अ र के अ गत है और जहाँ पं ह दनका दन और उतने ही रा होती है। – द णायन-मागसे जानेवालेको 'योगी' कहा? उ र –  गा दके लये पु कम करनेवाला पु ष भी अपनी ऐ हक भोग क वृ तका नरोध करता है, इस से उसे भी 'योगी' कहना उ चत है। इसके सवा योग पु ष भी इस मागसे गम जाकर, वहाँ कु छ कालतक नवास करके वापस लौटते ह। वे भी इसी मागसे जानेवाल म ह। अत: उनको 'योगी' कहना उ चत ही है। यहाँ 'योगी' श का योग करके यह बात भी दखलायी गयी है क यह माग पापकम करनेवाले तामस मनु लये नह है, उ लोक क ा के अ धकारी शा ीय कम करनेवाले पु ष के लये ही है (२। ४२,४३,४४ तथा १। २०,२१ आ द)। – द णायन-मागसे जानेवाले साधक को ा होनेवाली च माक ोत ा है? और उसे ा होना ा है? उ र –  च माके लोकम उसके अ भमानी देवताका प शीतल काशमय है। उसीके जैसे काशमय पका नाम ' ो त' है और वैसे ही पको ा हो जाना च माक ो तको ा होना है। वहाँ जानेवाला साधक उस लोकम शीतल काशमय द देवशरीर पाकर अपने पु कम के फल प द भोग को भोगता है। – उ च माक ो तको ा होकर वापस लौटना ा है और वह साधक वहाँसे कस मागसे और कस कार वापस लौटता है? उ र –  वहाँ रहनेका नयत समय समा हो जानेपर इस मृ ुलोकम वापस आ जाना ही वहाँसे लौटना है। जन कम के फल प ग और वहाँके भोग ा होते ह उनका भोग समा हो जानेसे जब वे ीण हो जाते ह, तब ाणीको बा होकर वहाँसे वापस लौटना पड़ता है। वह च लोकसे आकाशम आता है, वहाँसे वायु प हो जाता है, फर धूमके आकारम प रणत हो जाता है, धूमसे बादलम आता हे, बादलसे मेघ बनता है, इसके अन र जलके पम पृ ीपर बरसता है, वहाँ गे ँ जौ, तल, उड़द आ द बीज म या वन तय म व होता है। उनके ारा पु षके वीयम व होकर ीक यो नम स चा जाता है और अपने कमानुसार यो नको पाकर ज हण करता है। (छा ो -उ ५।१०।५,६,७; बृहदार क-उ० ६।२।१६)।

– इस

कार उ रायण और द णायन – दोन माग का वणन करके अब उन दोन को सनातन माग बतलाकर इस वषयका उपसंहार करते ह – स

शु कृ े गती ते े जगतः शा ते मते । एकया या नावृ म यावतते पुनः ॥२६॥

क जगत्के ये दो कारके – शु और कृ अथात् देवयान और पतृयान माग सनातन माने गये ह। इनम एकके ारा गया आ – जससे वापस नह लौटना पड़ता, उस परम ग तको ा होता है और दस ू रेके ारा गया आ फर वापस आता है अथात् ज -मृ क ु ो ा होता है॥२६॥

यहाँ 'जगत: ' पद कसका वाचक है और दोन ग तय के साथ उसका ा स है एवं इन दोन माग को 'शा त' कहनेका ा अ भ ाय है? उ र –  यहाँ 'जगत: ' पद ऊपर-नीचेके लोक म वचरनेवाले सम चराचर ा णय का वाचक है क सभी ाणी अ धकार ा होनेपर दोन माग के ारा गमन कर सकते ह। चौरासी लाख यो नय म भटकते-भटकते कभी-न-कभी भगवान् दया करके जीवमा को मनु -शरीर देकर अपने तथा देवता के लोक म जानेका सुअवसर देते ह। उस समय य द वह जीवनका सदुपयोग करे तो दोन मसे कसी एक मागके ारा ग ानको अव ा कर सकता है। अतएव कारा रसे ा णमा के साथ इन दोन माग का स है। ये माग सदासे ही सम ा णय के लये है और सदैव रहगे। इसी लये इनको 'शा त' कहा है। य प महा लयम जब सम लोक भगवान्म लीन हो जाते ह, उस समय ये माग और इनके देवता भी लीन हो जाते ह, तथा प जब पुन: सृ होती है, तब पूवक भाँ त ही इनका पुन: नमाण हो जाता है। अत: इनको 'शा त' कहनेम कोई आप नह है। – इन माग के 'शु ' और 'कृ ' नाम रखनेका ा अ भ ाय है? उ र –  परमे रके परमधामम जानेका जो माग है वह काशमय- द है। उसके अ ध ातृदेवता भी सब काशमय ह; और उसम गमन करनेवाल के अ ःकरणम भी सदा ही ानका काश रहता है; इस लये इस मागका नाम 'शु ' रखा गया है। और जो ाके लोकतक सम देवलोक म जानेका माग है, वह शु मागक अपे ा अ कारयु है। उसके अ ध ातृदेवता भी अ कार प ह तथा उसम गमन करनेवाले लोग भी अ ानसे मो हत रहते है। इस लये उस मागका नाम 'कृ ' रखा गया है। –

– 'अनावृ '

है?

श कसका वाचक है और उसके योगका यहाँ ा अ भ ाय

उ र –  जहाँ जाकर साधक वापस नह लौटता, जो भगवान्का परमधाम है, उसीका वाचक यहाँ 'अनावृ ' श है। चौबीसव ोकम शु मागसे जानेवाल को क ा बतलायी गयी है। वहाँ जानेके बाद मनु पुनज को नह पाता, अतएव उसे अनावृ भी कहते ह – यही बात करनेके लये यहाँ पुन: 'अनावृ ' श का योग कया गया है। – 'पुन: आवतते ' का ा भाव है? उ र –  इससे भगवान्ने कृ मागके ारा ा होनेवाले सभी लोक को पुनरावृ तशील बतलाया है। भाव यह है क कृ मागसे गया आ मनु जन- जन लोक को ा होता है, वे सब-के -सब लोक वनाशशील ह। इस लये इस मागसे गये ए मनु को लौटकर मृ ुलोकम वापस आना पड़ता है। अब उन दोन माग को जाननेवाले योगीक शंसा करके अजुनको योगी बननेके लये कहते ह – स



नैते सृती पाथ जान ोगी मु त क न । त ा वषु कालेषु योगयु ो भवाजुन ॥२७॥

हे पाथ! इस कार इन दोन माग को त से जानकर कोई भी योगी मो हत नह होता। इस कारण हे अजुन! तू सब कालम समबु प योगसे यु हो अथात् नर र मेरी ा के लये साधन करनेवाला हो॥२७॥

जानना

– ा है?

यहाँ 'एते ' वशेषणके स हत 'सृती ' पद कसका वाचक है और उसको

उ र –  पूव ोक म जन दो माग का वणन आ है, उ दोन माग का वाचक यहाँ 'एते ' वशेषणके स हत 'सृती ' पद है। सकामभावसे शुभ कम का आचरण और देवोपासना करनेवाला पु ा ा पु ष कृ मागसे जाकर अपने कमानुसार देवलोकको ा होता है और पु का य होनेपर वहाँसे वापस लौट आता है (९।२०, २१)। न ामभावसे कम पासना करनेवाले कमयोगी तथा कतृ ा भमानका ाग करनेवाले सां योगी दोन ही शु मागसे

भगवान्के परमधामको ा हो जाते ह, उ वहाँसे फर कभी वापस नह लौटना पड़ता – इस बातको ापूवक अ ी कार समझ लेना ही इन दोन माग को त से जानना है। – यहाँ 'योगी ' का ा अ भ ाय है और 'क न ' वशेषण देकर ा भाव दखलाया गया है एवं उसका मो हत न होना ा है? उ र –  कमयोग, ानयोग, भ योग और ानयोग आ द जतने कारके परमे रक ा के उपायभूत योग बतलाये गये ह, उनके अनुसार चे ा करनेवाले सभी साधक 'योगी' है ।उनमसे जो कोई भी उपयु दोन माग को त से जान लेता है, वही मो हत नह होता – यही बात समझानेके लये 'क न ' का योग कया गया है। उपयु योगसाधनाम लगा आ भी मनु इन माग का त न जाननेके कारण भाववश इस लोक या परलोकके भोग म आस होकर साधनसे हो जाता है, यही उसका मो हत होना है। क ु जो इन दोन माग को त से जानता है वह फर लोकपय सम लोक के भोग को नाशवान् और तु समझ लेनेके कारण कसी भी कारके भोग म आस नह होता एवं नर र परमे रक ा के ही साधनम लगा रहता है। यही उसका मो हत न होना है। – यहाँ 'त ात् ' पदसे ा न नकलती है और अजुनको सब समय योगयु होनेके लये कहनेका ा अ भ ाय है? उ र –  यहाँ 'त ात् ' पदसे भगवान् यह नत कर रहे ह क भगव ा के साधन प योगका इतना मह है क उससे यु रहनेवाला योगी दोन माग का त भलीभाँ त समझ लेनेके कारण कसी कारके भी भोग म आस होकर मो हत नह होता; इस लये तुम भी सदा-सवदा योगयु हो जाओ; के वल मेरी ही ी तके लये नर र भ धान कमयोगम ापूवक त र रहो। इस अ ायके सातव ोकम भी भगवान्ने ऐसी ही आ ा दी है, क अजुन इसीके अ धकारी थे। यहाँ भगवान्ने जो अजुनको सब कालम योगयु होनेके लये कहा है, इसका यह भाव है क मनु -जीवन ब त थोड़े ही दन का है, मृ ुका कु छ भी पता नहा है क कब आ जाय। य द अपने जीवनके ेक णको साधनम लगाये रखनेका य नह कया जायगा तो साधन बीच-बीचम छू टता रहेगा। और य द कह साधनहीन अव ाम मृ ु हो जायगी तो योग होकर पुन: ज हण करना पड़ेगा। अतएव मनु को भगवत्- ा के साधनम न नर र लगे ही रहना चा हये।

भगवान्ने अजुनको योगयु होनेके लये कहा। अब योगयु पु षक म हमा और इस अ ायम व णत रह को समझकर उसके अनुसार साधन करनेका फल बतलाते ए इस अ ायका उपसंहार करते ह – स



वेदेषु य ेषु तपःसु चैव दानेषु य ु फलं द म् । अ े त त व मदं व द ा योगी परं ानमुपै त चा म् ॥२८॥

योगी पु ष इस रह को त से जानकर वेद के पढ़नेम तथा य , तप और

दाना दके करनेम जो पु फल कहा है, उस सबको नःस ेह उ सनातन परमपदको ा होता है॥२८॥ – यहाँ 'योगी '

ंघन कर जाता है और

कसका वाचक है? उ र –  भगव ा के लये जतने कारके साधन बतलाये गये ह, उनमसे कसी भी साधनम ा-भ पूवक नर र लगे रहनेवाले पु षका वाचक यहाँ 'योगी' है। – 'इदम् ' पद कसका वाचक है और उसको त से जानना ा है? उ र –  इस अ ायम व णत सम उपदेशका वाचक यहाँ 'इदम् ' पद है। और इसम दी ई श ाको अथात् भगवान्के सगुण- नगुण और साकार- नराकार पक उपासनाको, भगवान्के गुण, भाव और माहा को एवं कस कार साधन करनेसे मनु परमा ाको ा कर सकता है, कहाँ जाकर मनु को लौटना पड़ता है और कहाँ प ँ च जानेके बाद पुनज नह होता, इ ा द जतनी बात इस अ ायम बतलायी गयी ह, उन सबको भलीभाँ त समझ लेना ही उसे त से जानना है। – यहाँ 'वेद', 'य ', 'तप' और 'दान' श कनके वाचक ह? उनका पु फल ा है और उसे उ ंघन करना ा है? उ र –  यहाँ 'वेद' श अंग स हत चार वेद का और उनके अनुकूल सम शा का, 'य ' शा व हत पूजन, हवन आ द सब कारके य का; 'तप' त, उपवास, इ यसंयम, धमपालन आ द सभी कारके शा व हत तप का और 'दान' अ दान, व ादान, े दान आ द सब कारके शा व हत दान एवं परोपकारका वाचक है। ा-भ पूवक सकामभावसे वेद- शा का ा ाय तथा य , दान और तप आ द शुभ कम का अनु ान करनेसे जो पु -संचय होता है उस पु का जो लोकपय भ - भ देवलोक क और वहांके

भोग क ा प फल वेदशा म बतलाया गया है वही पु फल हे। एवं जो उन सब लोक को और उनके भोग को णभंगुर तथा अ न समझकर उनम आस न होना और उनसे सवथा उपरत हो जाना है, यही उनको उ ंघन कर जाना है। – 'आ म् ' और 'परम् ' वशेषणके स हत ' ानम् ' पद कसका वाचक है और उसे ा होना ा है? उ र –  इस अ ायम जो भगवान्के परमधामके नामसे कहा गया है, जहाँ जाकर मनु पुन: इस संसारच म नह आता, जो सबका आ द सबसे परे और े है, उसीका वाचक यहाँ 'परम् ' और 'आ म् ' वशेषणके स हत ' ानम् ' पद है; उसे त से जानकर उसम चले जाना ही उसे ा हो जाना है। इसीको परम ग तक ा , द पु षक ा , परमपदक ा और भगव ावक ा भी कहते ह।

ॐ त द त ीम गव ीतासूप नष ु व ायां योगशा े ीकृ ाजुनसंवादे अ र योगो नामा मोऽ ायः ॥ ८॥

|| ॐ

ी परमा ने नमः ||

अथ नवमोऽ ायः

इस अ ायम भगवान्ने जो उपदेश दया है उसको उ ने सब व ा का और सम गु रखने यो भाव का राजा बतलाया ह॥ इस लये इस अ ायका कम 'राज व ाराजगु योग' रखा गया है। अ ायका सं ेप इस अ ायके पहले और दूसरे ोक म अजुनको पुन: व ानस हत ानका उपदेश करनेक त ा करके उसका माहा बतलाया है, तीसरेम उस उपदेशम ा न रखनेवाल के लये ज मरण प संसारच क ा बतलायी गयी है। चौथेसे छठे तक नराकार पक ापकता और नलपताका वणन करते ए भगवान्क ई रीय योगश का द शन कराकर उसी पम सम भूत क त वायु और आकाशके ा पूवक बतलायी गयी है। तदन र सातवसे दसवतक महा लयके समय सम ा णय का भगवान्क कृ तम लय होना और क के आ दम पुन: भगवान्के सकाशसे कृ त ारा उनका रचा जाना एवं इन सब कम को करते ए भी भगवान्का उनसे न ल रहना बतलाया गया है। ारहव और बारहवम भगवान्के भावको न जाननेके कारण उनका तर ार करनेवाल क न ा करके तेरहव और चौदहवम भगवान्के भावको जाननेवाले अन भ के भजनका कार बतलाया गया है। प हवम एक भावसे ानय के ारा क उपासना करनेवाले ानयो गय का और व प परमे रक उपासना करनेवाल का वणन कया गया ह॥ तदन र सोलहवसे उ ीसवतक भगवान्ने अपने गुण, भाव और वभू तस हत पका वणन करते ए कायकारण प सम जगत्को भी अपना प बतलाया है। बीसव और इ सवम गभोगके लये य ा द कम करनेवाल के आवागमनका वणन करके बाईसवम न ामभावसे न नर र च न करनेवाले अपने भ का योग ेम यं वहन करनेक त ा क है। तेईसवसे पचीसवतक अ देवता क उपासकको भी कारा रसे अ व धपूवक अपनी उपासना बतलाकर तथा भगवान्को त से न जाननेक बात कहकर उसका फल उन-उन देवता क ा और अपनी उपासनाका फल अपनी ा बतलाया है। छ ीसवम भगव क सुगमता दखलाकर स ाईसवम अजुनको सब कम भगवदपण करनेके लये कहा है और अ ाईसवम उसका फल अपनी ा बतलाया है। उनतीसवम अपनी समताका वणन करके अ ायका नाम

तीसव और इकतीसवम दुराचारी होनेपर भी अन भ के भगवान्के भजनका मह दखलाया है। ब ीसम अपनी शरणाग तसे ी, वै , शू और चा ाला दको भी परम ग त प फलक ा बतलायी है। ततीसव और च तीसवम पु शील ा ण और राज ष भ जन क बड़ाई करके शरीरको अ न बतलाते ए अजुनको अपनी शरण होनेके लये कहकर अंग स हत शरणाग तके पका न पण करके अ ायका उपसंहार कया है। स – सातव अ ायके आर म भगवान्ने व ानस हत ानका वणन करनेक त ा क थी। उसके अनुसार उस वषयका वणन करते ए अ म , अ ा , कम, अ धभूत, अ धदैव और अ धय के स हत भगवान्को जाननेक एवं अ कालके भगव नक बात कही। इसपर आठव अ ायम अजुनने उन त को और अ कालक उपासनाके वषयको समझनेके लये सात कर दये। उनमेसे छः का उ र तो भगवान्ने सं ेपम तीसरे और चौथे ोक म दे दया कतु सातव के उ रम उ ने जस उपदेशका आर कया उसम सारा-का-सारा आठवाँ अ ाय पूरा हो गया। इस कार सातव अ ायम आर कये ए व ानस हत ानका सांगोपांग वणन न होनेके कारण उसी वषयको भलीभाँ त समझानेके उ े से भगवान् इस नवम अ ायका आर करते ह। तथा सातव अ ायम व णत उपदेशके साथ इसका घ न स दखलानेके लये पहले ोकम पुनः उसी व ानस हत ानका वणन करनेक त ा करते ह –

ीभगवानुवाच । इदं तु ते गु तमं व ा नसूयवे । ानं व ानस हतं य ा ा मो सेऽशुभात् ॥१॥

ीभगवान् बोले – तुझ दोष र हत भ के लये इस परम गोपनीय व ानस हत ानको पुन: भलीभाँ त क ँ गा, जसको जानकर तू दुःख प संसारसे मु हो जायगा॥१॥ – 'अनसूयवे ' पदका ा अथ है और यहाँ अजुनको 'अ ुयू' कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – गुणवान के गुण को न मानना, गुण म दोष देखना, उनक न ा करना एवं उनपर म ा दोष का आरोपण करना 'असूया' है। जसम भावसे ही यह 'असूया' दोष

बलकु ल ही नह होता, उसे 'अ ुयू' कहते ह। यहाँ भगवान्ने अजुनको 'अ ुय'ू कहकर यह भाव दखलाया है क जो मुझम ा रखता है और असूयादोषसे र हत है, वही इस अ ायम दये ए उपदेशका अ धकारी है। इसके वपरीत मुझम दोष रखनेवाला अ ालु मनु इस उपदेशका पा नह है। अठारहव अ ायके सढ़सठव ोकम भगवान्ने श म कहा हे क 'जो मुझम दोष करता हे, उसे गीताशा का उपदेश नह सुनाना चा हये।' – यहाँ 'इदम् ' पद कसका वाचक है? और जसके कहनेक त ा क है, वह व ानस हत ान ा है? उ र – सातव, आठव और इस नव अ ायम भाव और मह आ दके रह स हत जो नगुण- नराकार त का तथा लीला, रह , मह और भाव आ दके स हत सगुण नराकार और साकार त का एवं उनक उपल करानेवाले उपदेश का वणन आ है, उन सवका वाचक यहाँ 'इदम् ' पद है और वही व ानस हत ान है। – इसे 'गु तमम् ' कहनेका ा अ भ ाय हे? उ र – संसारम और शा म जतने भी गु रखनेयो रह के वषय माने गये ह, उन सबम सम प भगवान् पु षो मके त , ेम, गुण, भाव, वभू त और मह आ दके साथ उनक शरणाग तका प सबसे बढ़कर गु रखनेयो है, यही भाव दखलानेके लये इसे 'गु तम' कहा गया है। पं हव अ ायके बीसव और अठारहव अ ायके च सठव ोकम भी इस कारके वणनको भगवान्ने 'गु तम' कहा है। – यहाँ 'अशुभ' श कसका वाचक है और उससे मु होना ा है? उ र – सम दुख का, उनके हेतुभूत कम का, दुगुण का, ज -मरण प संसारब नका और इन सबके कारण प अ ानका वाचक यहाँ 'अशुभ' श है। इन सबसे सदाके लये स ूणतया छू ट जाना और परमान प परमे रको ा हो जाना ही 'अशुभसे मु ' होना है। [39]



भगवान्ने जस व ानस हत ानके उपदेशक त ा क , उसके त उ ा और उस उपदेशके अनुसार आचरण करनेम अ धक उ ाह करनेके लये भगवान् अब उसका यथाथ माहा सुनाते ह –

स – ा, ेम, सुननेक



राज व ा राजगु ं प व मदमु मम् । ावगमं ध सुसुखं कतुम यम् ॥२॥

यह व ानस हत ान सब व ा का राजा, सब गोप नय का राजा, अ त प व , अ त उ म, फलवाला, धमयु , साधन करनेम बड़ा सुगम और अ वनाशी है॥ २॥ – इस

ोकम आया आ 'इदम् ' पद कसका वाचक है? और उसे 'राज व ा' तथा 'राजगु ' कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – पूव ोकम व ानस हत जस ानके कहनेक त ा क गयी है उसीका वाचक यहाँ 'इदम् ' पद है। संसारम जतनी भी ात और अ ात व ाएँ ह, यह उन सबम बढ़कर है; जसने इस व ाका यथाथ अनुभव कर लया है उसके लये फर कु छ भी जानना बाक नह रहता। इस लये इसे राज व ा अथात् सब व ा का राजा कहा गया है। इसम भगवान्के सगुण- नगुण और साकार- नराकार पके त का, उनके गुण, भाव और मह का, उनक उपासना व धका और उसके फलका भलीभाँ त नदश कया गया है। इसके अ त र इसम भगवान्ने अपना सम रह खोलकर यह त समझा दया है क म जो ीकृ पम तु ारे सामने वरा जत ँ , इस सम जगत्का कता, हता सबका आधार, सवश मान्, पर परमे र और सा ात् पु षो म ँ । तुम सब कारसे मेरी शरण आ जाओ। इस कारके परम गोपनीय रह क बात अजुन-जैसे दोष हीन परम ावान् भ के सामने ही कही जा सकती है, हरेकके सामने नह । इसी लये इसे राजगु अथात् सब गोपनीय का राजा बतलाया गया है। – इसे 'प व ' और 'उ म' कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – यह उपदेश इतना पावन करनेवाला है क जो कोई भी इसका ापूवक वण-मनन और इसके अनुसार आचरण करता है, यह उसके सम पाप और अवगुण का समूल नाश करके उसे सदाके लये परम वशु बना देता है। इसी लये इसे 'प व ' कहा गया है। और संसारम जतनी भी उ म व ुएँ ह, यह उन सबक अपे ा अ े है; इस लये इसे 'उ म' कहा गया है। – इसके लये ' ावगमम् ' और 'ध म् ' वशेषण देनेका ा अ भ ाय है?

उ र – व ानस हत इस ानका फल ा ा द कम क भाँ त अ नह है। साधक इसक ओर आगे बढ़ता है, -ही- उसके दुगुण , दुराचार और दुःख का नाश होकर, उसे परम शा और परम सुखका अनुभव होने लगता है; जसको इसक पूण पसे उपल हो जाती है वह तो तुरंत ही परम सुख और परम शा के समु , परम ेमी, परम दयालु और सबके सु द, सा ात् भगवान्को ही ा हो जाता है। इसी लये यह ' ावगम' है। तथा वण और आ म आ दके जतने भी व भ धम बतलाये गये ह, यह उन सबका अ वरोधी और ाभा वक ही परम धममय होनेके कारण उन सबक अपे ा सव े है। इस लये यह 'ध ' है। – इसे 'अ यम् ' और 'कतु सुसुखम् ' कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – जैसे सकामकम अपना फल देकर समा हो जाता है और जैसे सांसा रक व ा एक बार पढ़ लेनेके बाद, य द उसका बार-बार अ ास न कया जाय तो न हो जाती है – भगवान्का यह ान- व ान वैसे न नह हो सकता। इसे जो पु ष एक बार भलीभाँ त ा कर लेता है, वह फर कभी कसी भी अव ाम इसे भूल नह सकता। इसके अ त र इसका फल भी अ वनाशी है; इस लये इसे 'अ य' कहा गया है। और कोई यह न समझ बैठे क जब यह इतने मह क बात है तो इसके अनुसार आचरण करके इसे ा करना ब त ही क ठन होगा, इसी लये भगवान् यहाँ 'कतु सुसुखम्' इन पद का योग करके कहते ह क यह साधनम ब त ही सुगम है। अ भ ाय यह है क इस अ ायम कये ए उपदेशके अनुसार भगवान्क शरणाग त ा करना ब त ही सुगम है, क इसम न तो कसी कारके बाहरी आयोजनक आव कता है और न कोई आयास ही करना पड़ता है। स होनेके बादक बात तो दूर रही, साधनके आर से ही इसम साधक को शा और सुखका अनुभव होने लगता है। जब व ानस हत ानक इतनी म हमा है ओर इसका साधन भी इतना सुगम है तो फर सभी मनु इसे धारण नह करते 'इस ज ासापर अ ाको ही इसम धान कारण दखलानेके लये भगवान् अब इसपर ा न करनेवाले मनु क न ा करते ह –





अ धानाः पु षा धम ा पर प । अ ा मां नवत े मृ ुसंसारव न ॥३॥

हे पर प! इस उपयु धमम संसारच म मण करते रहते ह॥३॥ – 'अ ा है?

न करना

'

ार हत पु ष मुझको न ा

होकर मृ ु प

वशेषणके स हत 'धम ' पद कस धमका वाचक है तथा उसम



उ र – पछले ोकम जस व ानस हत ानका माहा बतलाया गया है और इसके आगे पूरे अ ायम जसका वणन है उसीका वाचक यहाँ 'अ ' वशेषणके स हत 'धम ' पद है। इस संगम वणन कये ए भगवान्के प, भाव, गुण और मह को, उनक ा के उपायको और उसके फलक स न मानकर उसम अस ावना और वपरीत भावना करना और उसे के वल रोचक उ समझना आ द जो व ास वरो धनी भावनाएँ ह – वे ही सब उसम ा न करना है। – 'अ धाना: ' पद कस ेणीके मनु का वाचक है? उ र – जो लोग भगवान्के प, गुण, भाव और मह आ दम व ास न होनेके कारण भगवान्क उपयु भ का कोई साधन नह करते और अपने दुलभ मनु -जीवनको भोग के भोग और उनक ा के व वध उपाय म ही थ न करते ह, उनका वाचक यहाँ 'अ धाना: ' पद है। – ार हत पु ष मुझको न ा होकर मृ ु प संसारच म मण करते ह – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – यह अ भ ाय है क चौरासी लाख यो नय म भटकते-भटकते कभी भगवान्क दयासे जीवको इस संसारच से छू टकर परमे रको ा करनेके लये मनु का शरीर मलता है। ऐसे भगव ा के अ धकारी दुलभ मनु शरीरको पाकर भी जो लोग भगवान्के वचन म ा न रखनेके कारण भजन- ान आ द साधन नह करते, वे भगवान्को न पाकर फर उसी ज - मृ ु प संसारच म पड़कर पूवक भाँ त भटकने लगते ह। पूव ोकम भगवान्ने जस व ानस हत ानका उपदेश करनेक त ा क थी तथा जसका माहा वणन कया था, अब उसका आर करते ए वे सबसे पहले दो ोक म भावके साथ अपने अ पका वणन करते है – स





मया तत मदं सव जगद मू तना । म ा न सवभूता न न चाहं ते व तः ॥४॥

मुझ नराकार परमा ासे यह सब जगत् जलसे बरफके स श प रपूण है और सब भूत मेरे अ गत संक के आधार त ह, कतु वा वम म उनम त नह ँ ॥४॥

कस पका ल है? उ र – आठव अ ायके चौथे ोकम जसे 'अ धय ', आठव और दसव ोक म 'परम द पु ष', नव ोकम 'क व', 'पुराण' आ द, बीसव और इ सव ोक म 'अ अ र' और बाईसव ोकम भ ारा ा होनेयो 'परम पु ष' बतलाया है उसी सव ापी सगुण- नराकार पके ल से यहाँ 'अ मू तना ' पदका योग आ है। – 'इदम् ' और 'सवम् ' वशेषण के स हत 'जगत् ' पद कसका वाचक है? उ र – इन वशेषण के स हत 'जगत्' पद यहाँ स ूण जड-चेतन पदाथ के स हत इस सम ा का वाचक है। –अ मू त भगवान्से सम जगत् कस कार ा है? उ र – जैसे आकाशसे वायु, तेज, जल, पृ ी, सुवणसे गहने और म ीसे उसके बने ए बतन ा रहते ह, उसी कार यह सारा व इसक रचना करनेवाले सगुण परमे रके नराकार पसे ा है। ु त कहती – ईशा वा मदँस ् व य ञच जग ां जगत्। (ईशोप नपद ् १) 'इस संसारम जो कु छ जुड-चेतन पदाथसमुदाय है वह सब ई रसे ा है।' – 'सवभूता न ' पद कसका वाचक है और इन सब भूत को भगवान्म त बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – यहाँ 'भूता न' पद सम शरीर, इ य, मन, बु तथा उनके वषय और वास ान के स हत सम चराचर ा णय का वाचक है। भगवान् ही अपनी कृ तको ीकार करके सम जगत्क उ , त और लय करते है; उ ने ही इस सम जगतको अपने कसी अंशम धारण कर रखा है (१०। ४२), और एकमा वे ही सबके ग त, भता, नवास ान, – 'अ

मू तना ' पदसे भगवान्के

आ य, भव, लय, ान और नधान ह (९। १८)। इस कार सबक त भगवान्के अधीन है। इसी लये सब भूत को भगवान्म त बतलाया गया है। – य द यह सारा जगत् भगवान्से प रपूण है तब फर 'म उन सब भूत म त नह ँ ' इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – बादल म आकाशक भाँ त सम जगत्के अंदर अणु-अणुम ा होनेपर भी भगवान् उससे सवथा अतीत और स र हत ह। सम जगत्का नाश होनेपर भी, बादल के नाश होनेपर आकाशक भाँ त भगवान् -के - रहते ह। जगत्के नाशसे भगवान्का नाश नह होता तथा जस जगह इस जगत्क ग भी नह है, वहाँ भी भगवान् अपनी म हमाम त ही ह। यही भाव दखलानेके लये भगवान्ने यह बात कही है क वा वम म उन भूत म त नह ँ । अथात् म अपने-आपम ही न त ँ। – 'म उन भूत म त नह ँ ', भगवान्के इस कथनका य द न ल खत भाव माना जाय तो ा आप है? जैसे के वे सब जीव और पदाथ ा पु षके अंदर होनेसे वह पु ष उ के अंदर सी मत होकर त नह है, बाहर भी है, वैसे ही सारा जगत् भगवान्के एक अंशम होनेके कारण भगवान् उसके अंदर सव ा होनेपर भी उसीम सी मत नह ह। दूसरे, जैसे देखनेवाले पु षको के सब पदाथ ाव ाम दीखनेपर भी क यासे और पदाथ से व ुत: उसका कु छ भी स नह है, वह क सृ से सवथा अतीत और स र हत है; वह से पहले भी था, कालम भी है और का नाश हो जानेके बाद भी रहेगा-वैसे ही भगवान् सवदा रहते ह, स ूण जगतका नाश होनेपर भी उनका नाश नह होता। ब जहाँ जगत्क ग भी नह है वहाँ भी भगवान् तो अपनी म हमाम आप त ह ही। इस कार उससे सवथा अतीत और नलप होनेसे वे उसम त नह ह। तीसरे, जैसे के सब पदाथ व ुत: ा पु षसे अ भ और उसके प होनेके कारण वह उसके अंदर नह है, ब वह-ही-वह है, उसी कार सम जगत् भी भगवान्से अ भ उनका प ही होनेके कारण वे उसके अंदर त नह ह, ब वे-ही-वे ह।

इस तरह जगत्के आधार एवं उससे अतीत होनेसे और जगत् उनका प ही होनेसे, वे जगत्म त नह ह। इसी लये भगवान्ने यहाँ यह भाव दखलाया है क म जगत्के अणुअणुम ा होनेपर भी व ुत: उनम नह ँ – वरं अपनी ही म हमाम अटल त ँ । उ र – कोई आप नह है। अभेद ानक से यह भाव भी ब त ठीक हे। परंतु यहाँ उसका संग नह है।

न च म ा न भूता न प मे योगमै रम् । भूतभृ च भूत ो ममा ा भूतभावनः ॥५॥

वे सब भूत मुझम त नह ह; कतु मेरी ई रीय योगश को देख क भूत का धारण-पोषण करनेवाला और भूत को उ करनेवाला भी मेरा आ ा वा वम भूत म त नह है॥५॥

पूव ोकम सब भूत को भगवान्ने अपनेम त बतलाया और इस ोकम कहते ह क वे सब भूत मुझम त नह ह। इस व उ का यहाँ ा अ भ ाय है? उ र – यहाँ इस व उ का योग करके और साथ ही अजुनको अपनी ई रीय योगश देखनेके लये कहकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क 'अजुन! तुम मेरी असाधारण योगश को देखो! यह कै सा आ य है क आकाशम बादल क भाँ त सम जगत् मुझम त भी है और नह भी है। बादल का आधार आकाश है परंतु बादल उसम सदा नह रहते। व ुत: अ न होनेके कारण उनक र स ा भी नह है। अत: वे आकाशम नह ह। इसी कार यह सारा जगत्, मेरी ही योगश से उ है और म ही इसका आधार ँ , इस लये तो सब भूत मुझम त ह; परंतु ऐसा होते ए भी म इनसे सवथा अतीत ँ , ये मुझम सदा नह रहते और इनक मुझसे भ स ा नह है इस लये ये मुझम त नह है। अतएव जबतक मनु क म जगत् है तबतक सब कु छ मुझम ही है; मेरे सवा इस जगत्का कोई दूसरा आधार है ही नह । जब मेरा सा ात् हो जाता है तब उसक म मुझसे भ कोई व ु रह नह जाती, उस समय मुझम यह जगत् नह है। – इस व उ के स म भगवान्का न ल खत अ भ ाय माना जाय तो ा दोष है? –

इस व उ से भगवान् अपने पूव- क थत स ा क ही पु कर रहे ह। जब क सृ क भाँ त सारा जगत् भगवान्के संक के आधारपर ही है, व ुत: भगवान्से भ कोई स ा है ही नह , तब यह कहना ठीक ही है क वे सब भूत भी मुझम नह है। फर यह सारी सृ दीखती कै से है, इसका रह ा है, इस शंकाके नवारणाथ भगवान् कहते ह-'हे अजुन! यह मेरी असाधारण योगश का चम ार है, देखो! कै सा आ य है। सारा जगत् मुझम दीखता भी है और व ुत: मेरे सवा और कु छ है भी नह ।' अ भ ाय यह है क जबतक मनु क म जगत् है तबतक सब कु छ मुझम ही त है मेरे सवा इस जगत्का कोई अ आधार है ही नह । और वा वम म ही सब कु छ ँ मेरे अ त र अ कु छ भी नह है। जब साधकको मेरा सा ात् हो जाता है, तब उसे यह बात हो जाती है; फर उसक म मुझसे भ और कोई व ु रहती ही नह । इस लये वे सब भूत व ुत: मुझम त नह ह। उ र – कोई दोष नह है। अभेद ानक से यह भी ठीक ही है। परंतु यहाँ उसका संग नह है। – 'ऐ रम् ' और 'योगम् ' पद कसके वाचक ह? और इनको देखनेके लये कहकर भगवान्ने इस ोकम कही ई कस बातको देखनेके लये कहा है? उ र – सबके उ ादक और सबम ा रहते ए तथा सबका धारण-पोषण करते ए भी सबसे सवथा न ल रहनेक जो अदभु् त भावमयी श है, जो ई रके अ त र अ कसीम हो ही नह सकती, उसीका यहाँ 'ऐ रम् योगम् ' इन पद ारा तपादन कया गया है। इन दो ोक म कही ई सभी बात को ल म रखकर भगवान्ने अजुनको अपना 'ई रीय योग' देखनेके लये कहा है। – 'भूतभृत् ' और 'भूतभावन: ' इन दोन पद का ा अ भ ाय है? 'मम आ ा' पद कसके वाचक ह और 'भूत ः न ' का ा अ भ ाय है? उ र – जो भूत का धारण-पोषण करे, उसे 'भूतभृत'् कहते ह और जो भूत को उ करे, उसे 'भूतभावन' कहते ह। 'मम आ ा' से भगवान्के सगुण नराकार पका नदश है। ता य यह है क भगवान्के इस सगुण नराकार पसे ही सम जगत्क उ और उसका धारण-पोषण होता है इस लये उसे 'भूतभावन' और 'भूतभृत्' कहा गया है। इतना होनेपर भी वा वम भगवान् इस सम जगत्से अतीत ह, यही दखलानेके लये 'भूत ः न ' (वह भूत म त नह है) ऐसा कहा गया है।

पूव ोक म भगवान्ने सम भूत को अपने अ पसे ा और उसीम त बतलाया। अत: इस वषयको जाननेक इ ा होनेपर अब ा ारा भगवान् उसका ीकरण करते ह – स



यथाकाश तो न ं वायुः सव गो महान् । तथा सवा ण भूता न म ानी ुपधारय ॥६॥

जैसे आकाशसे उ वैसे ही मेरे संक

ारा उ

सव

वचरनेवाला महान् वायु सदा आकाशम ही

होनेसे स ूण भूत मुझम

– यहाँ वायुको 'सव

त है,

त ह, ऐसा जान॥५॥

ग' और 'महान्' कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – भूत ा णय के साथ वायुका सा दखलानेके लये उसे 'सव ग' और 'महान्' कहा गया है। अ भ ाय यह है क जस कार वायु सव वचरनेवाला है, उसी कार सब भूत भी नाना यो नय म मण करनेवाले ह, और जस कार वायु 'महान्' अथात् अ व ृत है, उसी कार भूतसमुदाय भी ब त व ारवाला है। – यहाँ ' न म् ' पदका योग करके वायुके सदा आकाशम त बतलानेका ा अ भ ाय हे? उ र – वायु आकाशसे ही उ होता है, आकाशम ही त रहता हे ओर आकाशम ही लीन हो जाता है – यही भाव दखलानेके लये ' न म् ' पदका योग कया गया है। अ भ ाय यह है क सब अव ा म और सब समय वायुका आधार आकाश ही है। – जैसे वायु आकाशम त है, उसी कार सब भूत मुझम त ह –इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – आकाशक भाँ त भगवान्को सम, नराकार, अकता, अन , असंग और न वकार तथा वायुक भाँ त सम चराचर भूत को भगवान्से ही उ , उ म त और उ म लीन होनेवाले बतलानेके लये ऐसा कहा गया है। जैसे वायुक उ , त और लय आकाशम ही होनेके कारण वह कभी कसी भी अव ाम आकाशसे अलग नही रह सकता, सदा ही आकाशम त रहता है एवं ऐसा होनेपर भी आकाशका वायुसे और उसके गमना द वकार से कु छ भी स नह है, वह सदा ही उससे अतीत है, उसी कार सम ा णय क उ , त और लय भगवान्के संक के आधार होनेके कारण सम

भूतसमुदाय सदा भगवान्म ही त रहता है; तथा प भगवान् उन भूत से सवथा अतीत ह और भगवान्म सदा ही सब कारके वकार का सवथा अभाव है।

व ानस हत ानका वणन करते नराकार पका त समझानेके लये उसक तपादन कया? अब अपने भूतभावन पका त समझानेके लये पहले दो ोक ारा क के आ दम उनक उ का कार बतलाते ह – स



ए भगवान्ने यहाँतक भावस हत अपने ापकता, असंगता और न वकारताका ीकरण करते ए सृ रचना द कम का अ म सब भूत का लय और क के

सवभूता न कौ ेय कृ त या मा मकाम् । क ये पुन ा न क ादौ वसृजा हम् ॥७॥

हे अजुन! क लीन होते ह और क – 'क

के अ म सब भूत मेरी कृ तको ा

होते ह अथात् कृ तम

के आ दम उनको म फर रचता ँ ॥७॥

य' कस समयका वाचक है? उ र – ाके एक दनको 'क ' कहते ह और उतनी ही बड़ी उनक रा होती है। इस अहोरा के हसाबसे जब ाके सौ वष पूरे होकर ाक आयु समा हो जाती है, उस कालका वाचक यहाँ 'क य' है; वही क का अ है। इसीको 'महा लय' भी कहते ह। – 'सवभूता न ' पद कसका वाचक है? उ र – शरीर, इ य, मन, बु , सम भोगव ु और वास ानके स हत चराचर ा णय का वाचक 'सवभूता न ' पद है। – ' कृ तम् ' पद कसका वाचक है? उसके साथ 'मा मकाम् ' वशेषण देनेका ा अ भ ाय है और उस कृ तको ा होना ा है? उ र – सम जगत्क कारणभूता जो मूल- कृ त है, जसे चौदहव अ ायके तीसरे-चौथे ोक म 'मह ' कहा है तथा जसे अ ाकृ त या धान भी कहते ह, उसका वाचक यहाँ ' कृ तम् ' पद है। वह कृ त भगवान्क श है, इसी बातको दखलानेके लये उसके साथ 'मा मकाम् ' यह वशेषण दया गया है। क के अ म सम शरीर, इ य, मन, बु , भोगसाम ी और लोक के स हत सम ा णय का कृ तम लय हो जाना – अथात्

उनके गुणकम के सं ार- समुदाय प कारण-शरीरस हत उनका मूल कृ तम वलीन हो जाना ही 'सब भूत का कृ तको ा होना' है। – आठव अ ायके अठारहव और उ ीसव ोक म जस 'अ ' से सब भूत क उ बतलायी गयी है और जसम सबका लय होना बतलाया गया है, उस 'अ ' म और इस कृ तम ा भेद है? तथा वहाँके लयम और यहाँके लयम ा अ र है? उ र – वहाँ 'अ ' श कृ तके नराकार-सू पका वाचक है, मूलकृ तका नह । उसम सम भूत अपने 'सू -शरीर' के स हत लीन होते ह और इसम 'कारणशरीर' के स हत लीन होते ह। उसम ा लीन नह होते, वे सोते ह; और इसम यं ा भी लीन हो जाते ह। इस कार वहाँके लयम और यहाँके महा लयम ब त अ र है। – सातव अ ायके छठे ोकम तो भगवान्ने सम जगत्का ' लय' यं अपनेको बतलाया है और यहाँ सबका कृ तम लीन होना कहते ह। इन दोन म कौन-सी बात ठीक है। उ र – दोन ही ठीक ह। व ुत: दोन जगह एक ही बात कही गयी हे। पहले कहा जा चुका है क कृ त भगवान्क श है और श कभी श मान्से भ नह होती। अतएव कृ तम लय होना भगवान्म ही लीन होना है। इस लये यहाँ कृ तम लीन होना बतलाया है और कृ त भगवान्क है तथा वह भगवान्म ही त हे, इस लये भगवान् ही सम जगत्के लय- ान ह। इस कार दोन का अ भ ाय एक ही है। – 'क ा द' श कस समयका वाचक है और उस समय भगवान्का सब भूत को रचना ा है? उ र – क का अ होनेके बाद यानी ाके सौ वषके बराबर समय पूरा होनेपर जब पुन: जीव के कम का फल भुगतानेके लये जगत्का व ार करनेक भगवान्क इ ा होती है, उस कालका वाचक 'क ा द' श है। इसे महासगका आ द भी कहते ह। उस समय जो भगवान्का सब भूत क उ के लये अपने संक के ारा हर गभ ाको उनके लोकस हत उ कर देना है, यही उनका सब भूत को रचना है।

कृ त ामव वसृजा म पुनः पुनः । भूत ाम ममं कृ मवशं कृ तेवशात् ॥८॥

अपनी

कृ तको अंगीकार करके

भावके बलसे परत

ए इस स ूण

भूतसमुदायको बार-बार उनके कम के अनुसार रचता ँ ॥८॥

वशेषणके स हत ' कृ तम्' पद कसका वाचक है? और भगवान्का उसको अंगीकार करना ा हे? उ र – पछले ोकम जस मूल- कृ तम सब भूत का लय होना बतलाया है, उसीका वाचक यहाँ ' ाम् ' वशेषणके स हत ' कृ तम्' पद है। तथा सृ रचना द कायके लये भगवान्को जो श पसे अपने अंदर त कृ तको रण करना है, वही उसे ीकार करना है। – 'इमम् ' और 'कृ म् ' वशेषण के स हत 'भूत ामम् ' पद कसका वाचक हे और उसका भावके बलसे परत होना ा हे? उ र – पहले 'सवभूता न ' के नामसे जनका वणन हो चुका है उन सम चराचर भूत के समुदायका वाचक 'इमम् ' और 'कृ म् ' वशेषण के स हत 'भूत ामम् ' पद है। उन भ - भ ा णय का जो अपने-अपने गुण और कम के अनुसार बना आ भाव है, वही उनक कृ त है। भगवान्क कृ त सम - कृ त है और जीव क कृ त उसीक एक अंशभूता - कृ त है। उस - कृ तके ब नम पड़े रहना ही उसके बलसे परत होना है। जो मनु भगवान्क शरण हण करके उस कृ तके ब नको काट डालते ह वे उसके वशम नह रहते (७। १४), वे कृ तके पार भगवान्के पास प ँ चकर भगवान्को ा हो जाते ह। – यहाँ 'पुन: ' पदके दो बार योग करनेका और ' वसृजा म ' पदका ा अ भ ाय है? उ र – 'पुन: ' पदका दो बार योग करके तथा ' वसृजा म ' पदसे भगवान्ने यह बात दखलायी है क जबतक जीव अपनी उस कृ तके वशम रहते ह, तबतक म उनको बार- बार इसी कार ेक क के आ दम उनके भ - भ गुणकम के अनुसार नाना यो नय म उ करता रहता ँ । – ' ाम् '

ब नम



इस कार जगत्-रचना द सम कम करते ए भी भगवान् उन कम के नह पड़ते, अब यही त समझानेके लये भगवान् कहते ह – –

न च मां ता न कमा ण नब धन य । उदासीनवदासीनमस ं तेषु कमसु ॥९॥

हे अजुन! उन कम म आस वे कम नह बाँधते॥१॥

र हत और उदासीनके स श

त मुझ परमा ाको

– 'उन

कम ' से कौन-से कम का ल है तथा उनम भगवान्का 'आस र हत और उदासीनके स श त रहना' ा है? उ र – समपूण जगत्क उ , पालन और संहार आ दके न म भगवान्के ारा जतनी भी चे ाएँ होती ह, जनका पूव ोक म सं ेपम वणन हो चुका है, 'उन कम ' से यहाँ उ सब चे ा का ल है। भगवान्का उन कम म या उनके फलम कसी कार भी आस न होना – 'आस र हत रहना' है; और के वल अ ता- मा से कृ त ारा ा णय के गुणकमानुसार उनक उ आ दके लये क जानेवाली चे ाम कतृ ा भमानसे तथा प पातसे र हत होकर न ल रहना – 'उन कम म उदासीनके स श त रहना' है। – भगवान्कनेजो अपनेको 'आस - र हत' ओर 'उदासीनके स श त' बतलाया है और यह कहा है क वे कम मुझे नह बाँधते, इसका ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क कम और उनके फलम आस न होने एवं उनम कतृ ा भमान और प पातसे र हत रहनेके कारण ही वे कम मुझे बाँधनेवाले नह होते। अ लोग के लये भी ज -मरण, हष- शोक और सुख-दुःख आ द कमफल प ब न से छू टनेका यही सरल उपाय है। जो मनु इस त को समझकर इस कार कतृ ा भमानसे और फलास से र हत होकर कम करता है, वह अनायास ही कमब नसे मु हो जाता है। स

इस पदसे भगवान्म जो कतापनका अभाव करनेके लये कहते ह –

– ' उदासीनवदासीनम् '

दखलाया गया, अब उसीको





मया ेण कृ तः सूयते सचराचरम् । हेतुनानेन कौ ेय जग प रवतते ॥१०॥

हे अजुन! मुझ अ ध ाताके सकाशसे कृ त चराचरस हत सवजगत् को रचती है और इस हेतुसे ही यह संसारच घूम रहा है॥१०॥ – 'मया ' पदके

साथ 'अ ेण ' वशेषण देनेका ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क जगत्-रचना द काय के करनेम म के वल अपनी कृ तको स ा- ू त देनेवाले अ ध ाताके पम त रहता ँ और मुझ अ ध ातासे स ा- ू त पाकर मेरी कृ त ही जगत्-रचना द सम याएँ करती है। – भगवान्क अ ताम कृ त सचराचर जगत्को कस कार उ करती हे? उ र – जस कार कसान अपनी अ ताम पृ ीके साथ यं बीजका स कर देता है, फर पृ ी उन बीज के अनुसार भ - भ पौध को उ करती है, उसी कार भगवान् अपनी अ ताम चेतनसमूह प बीजका कृ त पी भू मके साथ स कर देते ह (१४। ३)। इस कार जड-चेतनका संयोग कर दये जानेपर यह कृ त सम चराचर जगत्को कमानुसार भ - भ यो नय म उ कर देती है। यह ा के वल समझानेके लये ही दया गया है, व ुत: भगवान्के साथ ठीकठीक नह घटता, क कसान अ , अ श और एकदेशीय है तथा वह अपनी श देकर जमीनसे कु छ करवा भी नह सकता। परंतु भगवान् तो सव , सवश मान् और सव ापी ह तथा उ क श तथा स ा- ू त पाकर कृ त स ूण जगत्को उ करती है। – इसी हेतुसे यह संसारच घूम रहा है इसका ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान्ने यह दखलाया है क मुझ भगवान्क अ ता और कृ तका कतृ –इ दोन के ारा चराचरस हत सम जगत्क उ , त और संहार आ द सम याएँ हो रही ह। – चौथे अ ायके तेरहव ोकम और इस अ ायके आठव ोकम भगवान्ने यह कहा हे क ' म उन भूत को भ - भ प म रचता ँ ' और इस ोकम यह कहते ह क

'चराचर

है?

ा णय के स हत सम जगत्को कृ त रचती है।' इन दोन वणन का ा अ भ ाय

उ र – जहाँ भगवान्ने अपनेको जगत् का रच यता बतलाया है वहाँ यह बात भी समझ लेनी चा हये क व ुत: भगवान् यं कु छ नह करते, वे अपनी श कृ तको ीकार करके उसीके ारा जगत् क रचना करते ह और जहाँ कृ तको सृ -रचना द काय करनेवाली कहा गया है, वहाँ उसीके साथ यह बात भी समझ लेनी चा हये क भगवान्क अ ताम उनसे स ा- ू त पाकर ही कृ त सब कु छ करती है। जबतक उसे भगवान्का सहारा नह मलता तबतक वह जड कृ त कु छ भी नह कर सकती। इसी लये आठव ोकम यह कहा है क 'म अपनी कृ तको ीकार करके जगत् क रचना करता ँ ' और इस ोकम यह कहते ह क 'मेरी अ ताम कृ त जग रचना करती है।' व ुत: दो तरहक यु य से एक ही त समझाया गया है। अपनी त ाके अनुसार व ानस हत ानका वणन करते ए भगवान्ने चौथेसे छठे ोकतक भावस हत सगुण- नराकार पका त समझाया। फर सातवसे दसव ोकतक सृ -रचना द सम कम म अपनी असंगता ओर न वकारता दखलाकर उन कम क द ताका त बतलाया। अब अपने सगुन-साकार पका मह , उसक भ का काश और उसके गुण और भावका त समझानेके लये पहले दो ोक म उसके भावको न जाननेवाले असुर- कृ तके मनु क न ा करते ह – स



अवजान मां मूढा मानुष तनुमा तम् । परं भावमजान ो मम भूतमहे रम् ॥११॥

मेरे परमभावको न जाननेवाले मूढ़ लोग मनु का शरीर धारण करनेवाले मुझ स ूण भूत के महान् ई रको तु समझते ह अथात् अपनी योगमायासे संसारके उ ारके लये मनु पम वचरते ए मुझ परमे रको साधारण मनु मानते ह॥११॥

जानना

– 'परम् ' ा है?

वशेषणके स हत 'भावम् ' पद कसका वाचक है और उसको न

उ र – चौथेसे छठे ोकतक भगवान्के जस 'सव ापक ' आ द भावका वणन कया गया है जसको 'ऐ र योग' कहा है तथा सातव अ ायके चौबीसव ोकम जस

'परमभाव' को न जाननेक बात कही है, भगवान्के उस सव म भावका ही वाचक यहाँ 'परम ' वशेषणके स हत 'भावम् ' पद है। सवाधार, सव ापी, सवश मान् और सबके हता-कता परमे र ही सब जीव पर अनु ह करके सबको अपनी शरण दान करने और धम-सं ापन, भ -उ ार आ द अनेक लीला-काय करनेके लये अपनी योगमायासे मनु पम अवतीण

ए ह (४।६,७,८) – इस रह को न समझना और इसपर व ास न करना ही उस परम भावको न जानना है। – 'मूढा: ' पद कस ेणीके मनु को ल करके कहा गया है और उनके ारा मनु -शरीरधारी भूतमहे र भगवान्क अव ा करना ा है? उ र – अगले ोकम जनको रा स और असुर क कृ तका आ य लेनेवाले कहा है, सातव अ ायके पं हव ोकम जनका वणन आ है और सोलहव अ ायके चौथे तथा सातवसे बीसव ोकतक जनके व वध ल ण बतलाये गये ह, ऐसे ही आसुरी स दावाले मनु के लये 'मूढाः ' पदका योग आ है। भगवान्के उपयु भावको न जाननेके कारण ासे लेकर क टपय सम ा णय के महान् ई र भगवान्को अपने-जैसा ही एक साधारण मनु मानना एवं इसी कारण उनक आ ा आ दका पालन न करना तथा उनपर अनगल दोषारोपण करना–यही उनक अव ा करना है। [40]

मोघाशा मोघकमाणो मोघ ाना वचेतसः । रा सीमासुर चैव कृ त मो हन ताः ॥१२॥

वे थ आशा, थ कम और थ ानवाले व आसुरी और मो हनी कृ तको ही धारण कये रहते ह॥१२॥ – 'मोघाशा: ' पदका

च अ ानीजन रा सी,

ा अथ है? उ र – जनक आशाएँ (कामनाएँ ) थ ह , उनको 'मोघाशा: ' कहते ह। भगवान्के भावको न जाननेवाले आसुर मनु ऐसी नरथक आशा करते रहते ह, जो कभी पूण नह होत (१६।१० से १२) इसी लये उनको 'मोघाशा: ' कहते ह। – 'मोघकमाण: ' पदका ा अ भ ाय है? उ र – जनके य , दान और तप आ द सम कम थ ह –शा ो फल देनेवाले न ह , उनको 'मोघकमाण: ' कहते ह। भगवान् और शा पर व ास न करनेवाले वषयी पामर

लोग शा व धका ाग करके अ ापूवक जो मनमाने य ा द कम करते ह, उन कम का उ इस लोक या परलोकम कु छ भी फल नह मलता। इसी लये उनको 'मोघकमाण: ' कहा गया है। (१६।१७, २३; १७।२८) – 'मोघ ाना: ' पदका ा अ भ ाय है? उ र – जनका ान थ हो, ता क अथसे शू हो और यु यु न हो (१८। २२), उनको 'मोघ ाना: ' कहते ह। भगवान्के भावको न जाननेवाले मनु सांसा रक भोग को स और सुख द समझकर उ के परायण रहते ह। वे मवश समझते ह क इन भोग को भोगना ही परम सुख है, इससे बढ् कर और कु छ भी नह है (१६।११)। इसी कारण वे स े सुखक ा से वं चत रह जाते ह। इसी लये उ 'मोघ ानाः ' कहा है। ऐसे लोग अपनी ानश का दु पयोग करके उसे थ ही न करते ह। – ' वचेतस: ' पदका ा अ भ ाय है? उ र – जनका च व हो, संसारक भ - भ व ु म आस रहनेके कारण र न रहता हो, उ ' वचेतस: ' कहते ह। आसुरी कृ तवाले मनु का मन त ण भाँ त-भाँ तक क नाएँ करता रहता ह (१६।१३ से १६)। इस लये उ ' वचेतस: ' कहा गया है। – 'रा सीम् ', 'आसुरीम् ' और 'मो हनीम् ' – इन वशेषण के स हत ' कृ तम् ' पदका ा भाव है? और उसको धारण कये रहना ा है? उ र – रा स क भाँ त बना ही कारण ेष करके जो दूसर के अ न करनेका और उ क प ँ चानेका भाव है, उसे 'रा सी कृ त' कहते ह। काम और लोभके वश होकर अपना ाथ स करनेके लये दूसर को ेश प ँ चाने और उनके हरण करनेका जो भाव है उसे 'आसुरी कृ त' कहते ह। और माद या मोहके कारण कसी भी ाणीको दुःख प ँ चानेका जो भाव है उसे 'मो हनी कृ त' कहते ह। ऐसे दु भावका ाग करनेके लये चे ा न करना वरं उसीको उ म समझकर पकड़े रहना ही 'उसे धारण करना' है। भगवान्के भावको न जाननेवाले मनु ाय: ऐसा ही करते है इसी लये उनको उ कृ तय के आ त बतलाया है। – यहाँ 'एव ' के योगसे ा ता य है?

उ र – 'एव ' से यह भाव दखलाया गया है क वे ऐसे आसुर भावके ही आ त रहते ह, दैवी कृ तका आ य कभी नह लेते। भगवान्का भाव न जाननेवाले आसुरी कृ तके मनु क न ा करके अब सगुण पक भ का त समझानेके लये भगवान्के भावको जाननेवाले, दैवी कृ तके आ त, उ ेणीके अन भ के ल ण बतलाते ह – स



महा ान ु मां पाथ दैव कृ तमा ताः । भज न मनसो ा ा भूता दम यम् ॥१३॥

परंतु हे कु ीपु । दैवी कृ तके आ त महा ाजन मुझको सब भूत का सनातन कारण और नाशर हत अ र प जानकर अन मनसे यु होकर नर र भजते ह॥१३॥ – यहाँ 'तु ' के

योगका ा अ भ ाय है? उ र – ारहव और बारहव ोक म जन न ेणीके मूढ़ और आसुर मनु का वणन कया गया है, उनसे सवथा वल ण उ ेणीके पु ष का इस ोकम वणन है – यही भाव दखलानेके लये 'तु ' का योग कया गया है। – 'दैवीम् ' वशेषणके स हत ' कृ तम् ' पद कसका वाचक है और 'उसके आ त होना' ा है? उ र – देव अथात् भगवान्से स रखनेवाले और उनक ा करा देनेवाले जो सा क गुण और आचरण ह, सोलहव अ ायम पहलेसे तीसरे ोकतक जनका अभय आ द छ ीस नाम से वणन कया गया है, उन सबका वाचक यहाँ 'दैवीम् ' इस वशेषणके साथ ' कृ तम् ' पद है। उनको भलीभाँ त धारण कर लेना ही 'दैवी कृ तके आ त होना' है। – 'महा ानः ' पदका योग कस ेणीके पु ष के लये कया गया है? उ र – जनका आ ा महान् हो, उ 'महा ा' कहते ह। महान् आ ा वही है जो अपने महान् ल भगवान्क ा के लये सब कारसे भगवान्क ओर लग गया है; अतएव यहाँ 'महा ानः ' पदका योग उन न ाम अन ेमी भगव के लये कया गया है, जो भग ेमम सदा सराबोर रहते ह और भगव ा के सवथा यो ह।

यहाँ 'माम् ' पद भगवान्के कस पका वाचक है तथा उनको 'सब भूत का आ द' और 'अ वनाशी' समझना ा है? उ र – 'माम् ' पद यहाँ भगवान्के सगुण पु षो म पका वाचक है। उस सगुण परमे रसे ही शरीर, इ य, मन, बु , भोगसाम ी और स ूण लोक के स हत सम चराचर ा णय क उ , पालन और संहार होता है (७।६; ९।१८; १०।२,४,५,६,८) – इस त को स क् कारसे समझ लेना ही भगवान्को 'सब भूत का आ द' समझना है। और वे भगवान् अज ा तथा अ वनाशी ह, के वल लोग पर अनु ह करनेके लये ही लीलासे मनु आ द पम कट और अ धान होते है; उ को अ र, अ वनाशी पर परमा ा कहते ह, और सम भूत का नाश होनेपर भी भगवान्का नाश नह होता (८।२०)– इस बातको यथाथत: समझना ही 'भगवान्को अ वनाशी समझना' है। – 'अन मनस: ' पद कस अव ाम प ँ चे ए भ का वाचक है और वे भगवान्को के से भजते है? उ र – जनका मन भगवान्के सवा अ कसी भी व ुम नह रमता और णमा का भी भगवान्का वयोग जनको अस तीत होता है, ऐसे भगवान्के अन ेमी भ का वाचक यहाँ 'अन मनस: ' पद है। ऐसे भ अगले ोकम तथा दसव अ ायके नव ोकम बतलाये ए कारसे नर र भगवान्को भजते रहते ह। –



– अब पूव

ोकम व णत भगव ेमी भ के भजनका कार बतलाते ह –

सततं क तय ो मां यत ढ ताः । नम मां भ ा न यु ा उपासते ॥१४॥

वे ढ़ न यवाले भ जन नर र मेरे नाम और गुण का क तन करते ए तथा मेरी ा के लये य करते ए और मुझको बार-बार णाम करते ए सदा मेरे ानम यु होकर अन ेमसे मेरी उपासना करते ह॥१४॥ – ' ढ ताः ' पदका

ा अ भ ाय है? उ र – जनका त या न य ढ़ होता है, उनको ' ढ ताः ' कहते ह। भगवान्के ेमी भ का न य, उनक ा, उनके वचार और नयम– सभी अ ढ़ होते ह। बड़ी-से-बड़ी

वप य और बल व के समूह भी उ अपने साधन और वचारसे वच लत नह कर सकते। इसी लये उनको ' ढ ता: ' ( ढ़ न यवाले) कहा गया है। – 'सततम् ' पदका ा अ भ ाय है? इसका स के वल 'क तय : ' के साथ है या 'यत ः ' और 'नम : ' के साथ भी हे? उ र – 'सततम् ' पद यहाँ ' न - नर र' समयका वाचक है। और इसका खास स उपासनाके साथ है। क तन-नम ारा द सब उपासनाके ही अंग होनेके कारण कारा रसे उन सबके साथ भी इसका स है। अ भ ाय यह है क भगवान्के ेमी भ कभी क तन करते ए, कभी नम ार करते ए, कभी सेवा आ द य करते ए तथा सदासवदा भगवान्का च न करते ए नर र उनक उपासना करते रहते ह। – भगवान्का क तन करना ा है? उ र – कथा, ा ान आ दके ारा भ के सामने भगवान्के गुण, भाव, म हमा और च र आ दका वणन करना; अके ले अथवा दूसरे ब त-से लोग के साथ मलकर, भगवान्को अपने स ुख समझते ए राम, कृ , गो व , ह र, नारायण, वासुदेव, के शव, माधव, शव आ द उनके प व नाम का जप अथवा उ रसे क तन करना; भगवान्के गुण, भाव और च र आ दका ा एवं ेमपूवक, धीरे-धीरे या जोरसे, खड़े या बैठे, वा -नृ के साथ अथवा बना वा -नृ के , गायन करना और द ो तथा सु र पद के ारा भगवान्क ु त- ाथना करना आ द भगव ाम-गुणगान स ी सभी चे ाएँ क तनके अ गत ह। – 'यत : ' पदका ा अ भ ाय है? उ र – भगवान्क पूजा करना, सबको भगवान्का प समझकर उनक सेवा करना और भगवान्के भ ारा भगवान्के गुण, भाव और च र आ दका वण करना आ द भगवान्क भ के जन अंग का अ पद से कथन नह कया गया है उन सबको उ ाह और त रताके साथ करते रहना 'यत ः ' पदसे समझ लेना चा हये। – भगवान्को बार-बार णाम करना ा है? उ र – भगवान्के म र म जाकर ा-भ पूवक अचा- व ह प भगवान्को सा ांग णाम करना; अपने घरम भगवान्क तमा या च पटको, भगवान्के नाम को,

भगवान्के चरण और चरण-पादुका को, भगवान्के त , रह , ेम, भाव और उनक मधुर लीला का जनम वणन हो – ऐसे सब को एवं सबको भगवान्का प समझकर या सबके दयम भगवान् वरा जत ह – ऐसा जानकर स ूण ा णय को यथायो वनयपूवक ाभ के साथ गदगद ् होकर मन, वाणी और शरीरके ारा नम ार करना – 'यही भगवान्को णाम करना' है। – ' न यु ा: ' पदका ा भाव है? उ र – जो चलते- फरते, उठते-बैठते, सोते-जागते और सब कु छ करते समय तथा एका म ान करते समय न - नर र भगवान्का च न करते रहते ह उ ' न यु ा: ' कहते ह। – 'भ ा ' पदका ा अ भ ाय है और उसके ारा भगवान्क उपासना करना ा है? उ र – ायु अन ेमका नाम भ है। इस लये ा और अन ेमके साथ उपयु साधन को नर र करते रहना ही भ ारा भगवान्क उपासना करना है।

भगवान्के गु भाव आ दको जाननेवाले अन ेमी भ के भजनका कार बतलाकर अब भगवान् उनसे भ णे ीके उपासक क उपासनाका कार बतलाते ह – स



ानय ेन चा े यज ो मामुपासते । एक ेन पृथ ेन ब धा व तोमुखम् ॥१५॥

दस ू रे ानयोगी मुझ नगुण- नराकार

करते ए भी मेरी उपासना करते ह और दस ू रे मनु परमे रक पृथक् भावसे उपासना करते ह॥१५॥ – 'अ े ' पदका

का ानय के ारा अ भ भावसे पूजन ब त कारसे

त मुझ वराट्



योग कस अ भ ायसे कया गया है? उ र – यहाँ 'अ े' पदका योग ानयो गय को पूव भ क ेणीसे पृथक् करनेके लये कया गया है। अ भ ाय यह है क पूव भ से भ जो ानयोगी ह वे आगे बतलाये ए कारसे उपासना कया करते ह। – यहाँ 'माम् ' पदका अथ नगुण- नराकार कया गया है?

उ र – ानय से नगुण- नराकार क ही उपासना होती है; यहाँ 'माम् ' पदका योग करके भगवान्ने स दान घन नगुण के साथ अपनी अ भ ताका तपादन कया है। इसी कारण 'माम् ' का अथ नगुण- नराकार कया गया है। – ानय का ा प है? और उसके ारा एक भावसे 'माम् '  पदके ल नगुण का पूजन करते ए उसक उपासना करना ा है। उ र – तीसरे अ ायके तीसरे ोकम जस ' ानयोग' का वणन है, यहाँ भी ' ानय ' का वही प है। उसके अनुसार शरीर, इ य और मन ारा होनेवाले सम कम म, मायामय गुण ही गुण म बरत रहे ह – ऐसा समझकर कतापनके अ भमानसे र हत रहना; स ूण वगको मृगतृ ाके जलके स श या के संसारके समान अ न समझना; तथा एक स दान घन नगुण- नराकार पर परमा ाके अ त र अ कसीक भी स ा न मानकर नर र उसीका वण, मनन और न द ासन करते ए उस स दान घन म न अ भ भावसे त रहनेका अ ास करते रहना – यही ानय के ारा पूजन करते ए उसक उपासना करना है। – 'च ' के योगका ा भाव है? उ र – उपयु ानय के ारा पूजन करते ए उपासना करनेवाल से भ ेणीके उपासक को पृथकृ करनेके लये ही यहाँ 'च ' का योग कया गया है। – ब त कारसे त भगवान्के वराट् पक पृथ ावसे उपासना करना ा है? उ र – सम व उस भगवान्से ही उ आ है और भगवान् ही इसम ा ह। अत: भगवान् यं ही व पम त ह। इस लये च , सूय, अ , इ और व ण आ द व भ देवता तथा और भी सम ाणी भगवान्के ही प ह ऐसा समझकर जो उन सबक अपने कम ारा यथायो न ामभावसे सेवा-पूजा करना है (१८। ४६), यही 'ब त कारसे त भगवान्के वराट् पक पृथ ावसे उपासना करना' है। सम व क उपासना भगवान्क ही उपासना कै से है – यह समझानेके लये अब चार ोक ारा भगवान् इस बातका तपादन करते ह क सम जुगत् मेरा ही प है –              स









अहं तुरहं य ः धाहमहमौषधम् । म ोऽहमहमेवा महम रहं तम् ॥१६॥

तु म ँ , य म ँ , हवन प

धा म ँ , ओष ध म ँ , म

म ँ , मृत म ँ , अ

म ँ और

या भी म ही ँ ॥१६॥ – इस

ोकका ा भाव है? उ र – इस ोकम भगवान्ने यह दखलाया है क देवता और पतर के उ े से कये जानेवाले जतने भी ौत- ात कम और उनके साधन ह, सब म ही ँ । ौत कमको ' तु' कहते ह। पंचमहाय ा द ात कम 'य ' कहलाते ह और पतर के न म दान कया जानेवाला अ ' धा' कहलाता है। भगवान् कहते ह क ये ' तु' 'य ' और ' धा' म ही ँ । एव इन कम के लये योजनीय जतनी भी वन तयाँ, अ तथा रोगनाशक जड़ी-बूटयाँ ह, वे सब भी म ँ । जन म के ारा ये सब कम स होते ह और जनका व भ य ारा व भन भाव से जप कया जाता है, वे सब म भी म ँ । य के लये जन मृता द साम य क आव कता होती है, वे सब ह व भी म ँ ; गाहप , आहवनीय ओर द णा आ द सभी कारके अ भी म ँ और जससे य कम स होता है, वह हवन या भी म ही ँ । अ भ ाय यह क य , ा आ द शा ीय शुभकमम योजनीय सम व ुएँ, त ी म , जसम य ा द कये जाते ह, वे अ ध ान तथा मन, वाणी, शरीरसे होनेवाली त षयक सम चे ाएँ – ये सब भगवान्के ही प ह। इसी बातको स करनेके लये ेकके साथ 'अहम् ' पदका योग कया गया है और 'एव ' का योग करके इसीक पु क गयी है क भगवान्के सवा अ कु छ भी नह है; इस कार व भ प म दीखनेवाले सब कु छ भगवान् ही ह, भगवान्का त न समझनेके कारण ही सब व ुएँ उनसे पृथक् दीखती ह।

पताहम जगतो माता धाता पतामहः । वे ं प व मो ार ऋ ाम यजुरेव च ॥१७॥

इस स ूण जगत्का धाता अथात् धारण करनेवाला एवं कम के फलको देनेवाला, पता, माता, पतामह, जाननेयो , प व , कार तथा ऋ ेद, सामवेद और यजुवद भी म ही ँ ॥१७॥

वशेषणके स हत 'जगत: ' पद कसका वाचक है तथा भगवान् उसके पता, माता, धाता और पतामह कै से ह? – 'अ

'

उ र – यहाँ 'जगत: ' पद चराचर ा णय के स हत सम व का वाचक है। यह सम व भगवान्से ही उ आ है, भगवान् ही इसके महाकारण ह। इस लये भगवान्ने अपनेको इसका पता-माता कहा है। भगवान् अपने एक अंशम इस सम जगत्को धारण कये ए ह (१०।४२) एवं वे ही सब कारके कमफल का यथायो वधान करते ह, इस लये उ ने अपनेको इसका 'धाता ' कहा है और जन ा आ द जाप तय से सृ क रचना होती है उनको भी उ करनेवाले भगवान् ही ह; इसी लये उ ने अपनेको इसका ' पतामह ' बतलाया है। – 'वे म्' पद कसका वाचक है और यहाँ भगवान्का अपनेको 'वे ' कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – जाननेयो व ुको 'वे ' कहते ह। सम वेद के ारा जाननेयो परमत एकमा भगवान् ही ह (१५।१५), इस लये भगवान्ने अपनेको 'वे ' कहा है। – 'प व ' श का ा अथ है? और भगवान्का अपनेको प व कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – जो यं वशु हो और सहज ही दूसर के पाप का नाश करके उ भी वशु बना दे, उसे 'प व ' कहते ह। भगवान् परम प व ह और भगवान्के दशन, भाषण और रणसे मनु परम प व हो जाते ह। इसके अ त र जगत्म जप, तप, त, तीथ आ द जतने भी प व करनेवाले पदाथ ह वे सब भगवान्के ही प ह तथा उनम जो प व करनेक श है वह भी भगवान्क ही है – यही भाव दखलानेके लये भगवान्ने अपनेको 'प व ' कहा है। – ' कार' कसे कहते ह और यहाँ भगवान्ने अपनेको कार बतलाया है? उ र – 'ॐ' भगवान्का नाम है, इसीको णव भी कहते ह। आठव अ ायके तेरहव ोकम इसे बतलाया है तथा इसीका उ ारण करनेके लये कहा गया है। यहाँ नाम तथा नामीका अभेद तपादन करनेके लये ही भगवान्ने अपनेको कार बतलाया है। –'ऋक् ', 'साम ' और 'यजु: ' – ये तीन पद कनके लये आये ह और भगवान्का इनको अपना प बतलानेम ा अ भ ाय है? उ र – ये तीन पद तीन वेद के वाचक ह। वेद का ाकट्य भगवान्से आ है तथा सारे वेद से भगवान्का ान होता है, इस लये सब वेद को भगवान्ने अपना प बतलाया है।

– यहाँ 'च ' और 'एव ' के

योगका ा अ भ ाय है? उ र – 'च ' अ यसे इस ोकम व णत सम पदाथ का समाहार कया गया है और 'एव ' से भगवान्के सवा अ व ुमा क स ाका नराकरण कया गया है। अ भ ाय यह है क इस ोकम व णत सभी पदाथ भगवान्के ही प ह, उनसे भ कोई भी व ु नह है।

ग तभता भुः सा ी नवासः शरणं सु त् । भवः लयः ानं नधानं बीजम यम् ॥१८॥

ा होने यो परम धाम, भरण-पोषण करनेवाला, सबका ामी, शुभाशुभका देखने-वाला, सबका वास ान, शरण लेनेयो , ुपकार न चाहकर हत करनेवाला, सबक उ - लयका हेत, तका आधार, नधान और अ वनाशी कारण भी म ही ँ ॥१८॥ – 'ग त: ' पदका

ा अ भ ाय है? उ र – ा करनेक व ुका नाम 'ग त' है। सबसे बढ़कर ा करनेक व ु एकमा भगवान् ही ह, इसी लये उ ने अपनेको 'ग त' कहा है। 'परा ग त', 'परमा ग त', 'अ वनाशी पद' आ द नाम भी इसीके ह। – 'भता ' पदका ा अ भ ाय है? उ र – पालन-पोषण करनेवालेको 'भता ' कहते ह। स ूण जगत्का र ण और पालन करनेवाले भगवान्ही ह, इसी लये उ ने अपनेको 'भता ' कहा है। – ' भु: ' पदका ा अ भ ाय है? उ र – शासन करनेवाला ामी ' भु' कहलाता है। भगवान् ही सबके एकमा परम भु ह। ये ई र के महान् ई र, देवता के परम दैवत, प तय के परम प त, सम भुवन के ामी और परम पू परमदेव ह ( ेता तर उ० ६।७); तथा सूय, अ , इ , वायु और मृ ु आ द सब इ के भयसे अपनी-अपनी मयादाम त ह (कठ० उ० २।३।३);। इस लये भगवान्ने अपनेको ' भु' कहा है। – 'सा ी ' पदका ा अ भ ाय है?

उ र – भगवान् सम लोक को, सब जीव को और उनके शुभाशुभ सम कम को जानने और देखनेवाले ह। भूत, वतमान और भ व म कह भी, कसी भी कारका ऐसा कोई भी कम नह है जसे भगवान् न देखते ह ; उनके -जैसा सव अ कोई भी नह है, वे सव ताक सीमा है। इस लये उ ने अपनेक 'सा ी' कहा है। – ' नवास: ' पदका ा अथ है? उ र – रहनेके ानका नाम ' नवास' है। उठते-बैठते, सोते-जागते, चलते- फरते, ज ते- मरते, सम जीव सदा-सवदा और सवथा के वल भगवान्म ही नवास करते ह, इस लये भगवान्ने अपनेको ' नवास' कहा है। – 'शरणम्' पदका ा अ भ ाय है? उ र – जसक शरण ली जाय उसे 'शरणम्' कहते ह। भगवान्के समान शरणागतव ल, णतपाल और शरणागतके दुःख का नाश करनेवाला अ कोई भी नह है। वा ीक यरामायणम कहा हैसकृदेव प ाय सवा ी त च याचते। अभयं सवभूते ो ददा ेतद ् तं मम॥ (६।१८।३३)

अथात् 'एक बार भी 'म तेरा ँ ' य कहकर मेरी शरणम आये ए और मुझसे अभय चाहनेवालेको म सभी भूत से अभय कर देता ँ यह मेरा त है।' इसी लये भगवान्ने अपनेको 'शरण' कहा है। – 'सु त् ' पदका ा अ भ ाय है? उ र – ुपकार न चाहकर बना ही कसी कारणके ाभा वक ही हत चाहने एवं हत करनेवाले दयालु और ेमी पु षको 'सु त्' कहते ह। भगवान् सम ा णय के बना ही कारण उपकार करनेवाले परम हतैषी और सबके साथ अ तशय ेम करनेवाले परम ब ु ह, इस लये उ ने अपनेको 'सु त्' कहा है। पाँचव अ ायके अ म भी भगवान्ने कहा है क 'मुझे सम ा णय का सुहद् जानकर मनु परमशा को ा हो जाता है (५।२९)। ' – ' भव: ', ' लय: ' और ' ानम् ' - इन तीन पद का ा अ भ ाय है? उ र – सम जगत्क उ के कारणको ' भव', तके आधारको ' ान' और लयके कारणको ' लय' कहते ह। इस स ूण जगत्क उ , त और लय भगवान्के

ही संक मा से होते ह; इस लये उ ने अपनेको ' भव', ' लय' और ' ान' कहा है। – ' नधानम् ' पदका ा अ भ ाय है? उ र – जसम कोई व ु ब त दन के लये रखी जाती हो, उसे ' नधान' कहते ह। महा लयम सम ा णय के स हत अ कृ त भगवान्के ही कसी एक अंशम धरोहरक भाँ त ब त समयतक अ य-अव ाम त रहती है, इस लये भगवान्ने अपनेको ' नधान' कहा है। – 'अ यम् ' वशेषणके स हत 'बीजम् ' पदका ा अ भ ाय है? उ र – जसका कभी नाश न हो उसे 'अ य' कहते ह। भगवान् सम चराचर भूत ा णय के अ वनाशी कारण ह। सबक उ उ से होती है, वे ही सबके परम आधार ह। इसीसे उनको 'अ य बीज' कहा है। सातव अ ायके दसव ोकम उ को 'सनातन बीज' और दसव अ ायके उनतालीसव ोकम 'सब भूत का बीज' बतलाया गया है। – इस ोकम भगवान्ने एक बार भी 'अहम् ' पदका योग नह कया, इसका ा कारण है? उ र – अ ोक म आये ए तु, य , धा, औषध, म , घृत, ऋक् , यजु आ द ब त-से श ऐसे ह जो भावत: ही भगवान्से भ व ु के वाचक ह। अतएव उन व ु को अपना प बतलानेके लये भगवान्ने उनके साथ 'अहम् ' पदका योग कया है। परंतु इस ोकम जतने भी श आये ह सब-के -सब भगवान्के वशेषण ह; इसके अ त र पछले ोकम आये ए ' अहन् 'के साथ इस ोकका अ य होता है। इस लये इसम 'अहम् ' पदके योगक आव कता नह है।

तपा हमहं वष नगृ ा ु ृजा म च । अमृतं चैव मृ ु सदस ाहमजुन ॥१९॥

म ही सूय पसे तपता ँ , वषाका आकषण करता ँ और उसे बरसाता ँ । हे अजुन! म ही अमृत और मृ ु ँ और सत्-असत् भी म ही ँ ॥१८॥

कथनका

– म ही सूय ा अ भ ाय है?

पसे तपता ँ , तथा वषाको आक षत करता और बरसाता ँ – इस

उ र – इस कथनसे भगवान्ने यह भाव दखलाया हे क अपनी करण ारा सम जग ो उ ता और काश दान करनेवाला तथा समु आ द ान से जलको उठाकर रोक रखनेवाला तथा उसे लोक हताथ मेघ के ारा यथासमय यथायो वतरण करनेवाला सूय भी मेरा ही प हे? – 'अमृतम् ' पदका ा अ भ ाय है? उ र – जसके पान कर लेनेपर मनु मृ ुके वश न होकर अमर हो जाता है, उसे अमृत कहते ह। देवलोकके जस अमृतक बात कही जाती है उस अमृतके पानसे य प देवता का मरण मृ ुलोकके जीव के समान नह होता, इनसे अ वल ण होता है, परंतु यह बात नह क उसके पानसे नाश ही न हो। ऐसे परम अमृत तो एक भगवान् ही ह, जनक ा हो जानेपर मनु सदाके लये मृ ुके पाशसे मु हो जाता हे। इसी लये भगवान्ने अपनेको 'अमृत' कहा है और इसी लये मु को भी 'अमृत' कहते ह। – 'मृ :ु ' पद कसका वाचक है और भगवान्का उसे अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – सबका नाश करनेवाले 'काल' को 'मृ ु' कहते ह। सृ -लीलाके सुचा पसे चलते रहनेम सग और संहार दोन क ही परम आव कता है और ये दोन ही काय लीलामय भगवान् करते ह; वे ही यथासमय लोक का संहार करनेके लये महाकाल प धारण कये रहते ह। भगवान्ने यं कहा है क 'म लोक को य करनेके लये बढ़ा आ महाकाल ँ ' (११।३२)। इसी लये भगवान्ने 'मृ ु' को अपना प बतलाया है। – 'सत् ' और 'असत् ' पद कनके वाचक ह और उनको अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – जसका कभी अभाव नह होता, उस अ वनाशी आ ाको सत् कहते ह और नाशवान् अ न व ुमा का नाम 'असत्' है। इ दोन को पं हव अ ायम 'अ र' और ' र' पु षके नामसे कहा गया है। ये दोन ही भगवान्क 'परा' और 'अपरा' कृ त ह और वे कृ तयाँ भगवान्से अ भ ह, इस लये भगवान्ने सत् और असत् को अपना प कहा है। तैरहवसे पं हव ोकतक अपने सगुण- नगुण और वराट पक उपासना का वणन करके उ ीसव ोकतक सम व को अपना प बतलाया। स



सम व मेरा ही प होनेके कारण इ ा द अ देव क उपासना भी कारा रसे मेरी ही उपासना है, परतु ऐसा न जानकर पृथक-पृथकृ भावसे उपासना करनेवाल को मेरी ा न होकर वनाशी फल ही मलता है। इसी बातको दखलानेके लये अब दो शलोक म भगवान् उस उपासनाका फलस हत वणन करते ह –

ै व ा मां सोमपाः पूतपापा य ै र ा ग त ाथय े । ते पु मासा सुरे लोकम द ा व देवभोगान् ॥२०॥

तीन वेद म वधान कये ए सकामकम को करनेवाले, सोमरसको पीनेवाले,

पापर हत पु ष मुझको य के ारा पूजकर गक पु के फल प गलोकको ा होकर गम द २०॥

ा चाहते ह; वे पु ष अपने देवता के भोग को भोगते ह॥

– ' ै व ा: ', 'सोमपा: ' और 'पूतपापा: ' इन तीन मनु के वशेषण ह?

पद का ा अथ है तथा ये

कस ेणीके उ र – ऋक् , यजु और साम – इन तीन वेद को 'वेद यी' अथवा व ा कहते ह। इन तीन वेद म व णत नाना कारके य क व ध और उनके फलम ा- ेम रखनेवाले एवं उसके अनुसार सकामकम करनेवाले मनु को ' ै व ' कहते ह। य म सोमलताके रसपानक जो व ध बतलायी गयी है उस व धसे सोमलताके रसपान करनेवाल को 'सोमपा' कहते ह। उपयु वेदो कम का व धपूवक अनु ान करनेसे जनके ग ा म तब क प पाप न हो गये ह, उनको 'पूतपाप' कहते ह। ये तीन वशेषण ऐसी ेणीके मनु के लये ह, जो भगवान्क सव पतासे अन भ ह और वेदो कमका पर ेम और ा रखकर पापकम से बचते ए सकामभावसे य ा द कम का व धपूवक अनु ान कया करते ह। – 'पूतपापा: ' से य द यह अथ मान लया जाय क जनके सम पाप सवथा धुल गये है वे 'पूतपाप' ह तो ा हा न है? उ र – अगले ोकम पु का य होनेपर उनका पुन: मृ ुलोकम लौट आना बतलाया गया है। य द उनके सभी पाप सवथा न हो गये होते तो पु कम के य होनेपर उसी ण उनक मु हो जानी चा हये थी। जब पाप- पु दोन हीका अभाव हो गया, तो फर ज म कोई कारण ही नह रह गया; ऐसी अव ाम पुनरागमनका ही नह उठना चा हये था। परंतु उनका पुनरागमन होता है; इस लये जैसा अथ कया गया है वही ठीक है।

– यहाँ 'माम् ' पद

कनका वाचक है और उनको य ारा पूजना ा है? उ र – यहाँ 'माम् ' पद भगवान्के अंगभूत इ ा द देवता का वाचक है, शा व धके अनुसार ापूवक य और पूजा आ दके ारा भ - भ देवता का पूजन करना ही 'मुझको य ारा पूजना' है। यहाँ भगवान्के इस कथनका यह भाव है क इ ा द देव मेरे ही अंगभूत होनेसे उनका पूजन भी कारा रसे मेरा ही पूजन है। कतु अ ानवश सकाम मनु इस त को नह समझते; इस लये उनको मेरी ा नह होती। –  ' ग तम् '  पद कसका वाचक है? उसके लये ाथना करना ा है? उ र – गक ा को ' ग त' कहते ह। उपयु वेद व हत कम ारा देवता का पूजन करके उनसे ग- ा क याचना करना ही उसके लये ाथना करना है। – 'पु म् ' वशेषणके स हत 'सुरे लोकम् ' पद कस लोकको ल करके कहा गया है और वहाँ 'देवता के द भोग का भोगना' ा है? उ र – य ा द पु कम के फल पम ा होनेवाले इ लोकसे लेकर लोकपय जतने भी लोक ह उन सबको ल करके यहाँ 'पु म् ' वशेषणके स हत 'सुरे लोकम् ' पदका योग कया गया है। अत: 'सुरे लोकम् ' पद इ लोकका वाचक होते ए भी उसे उपयुत सभी लोक का वाचक समझना चा हये। अपने-अपने पु कमानुसार उन लोक म जाकर – जो मनु लोकम नह मल सकते, ऐसे तेजोमय और वल ण देव-भोग का मन और इ य ारा भोग करना ही 'देवता के द भोग को भोगना' है।

ते तं भु ा गलोकं वशालं ीणे पु े म लोकं वश । एवं यीधममनु प ा गतागतं कामकामा लभ े ॥२१॥

वे उस वशाल गलोकको भोगकर पु ीण होनेपर मृ ुलोकको ा होते ह। इस कार गके साधन प तीन वेद म कहे ए सकामकमका आ य लेनेवाले और भोग क कामनावाले पु ष बार-बार आवागमनको ा होते ह, अथात् पु के भावसे गम जाते ह और पु ीण होनेपर मृ ुलोकम आते ह॥२१॥ –

गलोकको वशाल कहनेका ा अ भ ाय है?

उ र – गा द लोक के व ारका, वहाँक भो व ु का, भोग कार का, भो व ु क सुख पताका और भोगनेयो शारी रक तथा मान सक श और परमायु आ द सभीका व वध कारका प रमाण मृ ुलोकक अपे ा कह वशद और महान् है। इसी लये उसको ' वशाल' कहा गया है। – पु का य होना और मृ ुलोकको ा होना ा है? उ र – जन पु कम का फल भोगनेके लये जीवको गलोकक ा होती है, उन पु कम के फलका भोग समा हो जाना ही 'उनका य हो जाना' है; और उस ग वषयक पु फलक समा होते ही दूसरे बचे ए पु -पाप का भोग करनेके लये पुन: मृ ुलोकम गराया जाना ही 'मृ ुलोकको ा होना' है। – ' यीधमम् ' पद कस धमका वाचक है और उसका आ य लेना ा है? उ र – ऋक् , यजुः, साम – इन तीन वेद म जो गक ा के उपायभूत धम बतलाये गये ह, उनका वाचक ' यीधमम् ' पद है। ग ा के साधन प उन धम का यथा व ध पालन करना और ग-सुखको ही सबसे बढ़कर ा करनेयो व ु मानना ' यीधम' का आ य लेना है। भगवान्के प-त को न जाननेवाले सकाम मनु अन च से भगवान्क शरण हण नह करते, भोगकामनाके वशम होकर उपयु धमका आ य लेते ह। इसी कारण उनके कम का फल अ न होता है और इसी लये उ फर म लोकम लौटना पड़ता है। कतु जो पु ष गसुख दान करनेवाले इन धम का आ य छोड़कर एकमा भगवान्के ही शरणागत हो जाते ह, वे सा ात् भगवान्को ा करके सब ब न से सवथा छू ट जाते ह। इस लये उन कृ तकृ पु ष का फरसे जगत्म ज नह होता। – 'कामकामा: ' पदका ा अथ हे? यह कन पु ष का वशेषण है तथा 'गतागत' (आवागमन) को ा होना ा है? उ र – 'काम' सांसा रक भोग का नाम है, और उन भोग क कामना करनेवाले मनु के लये 'कामकामा: ' पदका योग आ है। यह उपयु ग ा के साधन प वेद व हत सकामकम और उपासनाका अनु ान करनेवाले मनु का वशेषण है, और ऐसे मनु का जो

अपने कम का फल भोगनेके लये बार-बार नीचे और उँ चे लोक म भटकते रहना है वही 'गतागत' को ा होना है।

ोक म य ारा देवता का पूजन करनेवाले सकामी मनु के देवपूजनका फल आवागमन बतलाकर अब भगवान् उनसे भ अपने अन ेमी न ाम भ क उपासनाका फल उनका योग ेम वहन करना बतलाते ह – स

– पहले दो

अन ा य ो मां ये जनाः पयुपासते । तेषां न ा भयु ानां योग ेमं वहा हम् ॥२२॥

जो अन ेमी भ जन मुझ परमे रको नर र च न करते ए न ामभावसे भजते ह, उन न - नर र मेरा च न करनेवाले पु ष का योग ेम म यं ा कर देता ँ ॥२२॥ – 'अन ा: ' पद कै से भ

का वशेषण है? उ र – जनका संसारके सम भोग से ेम हटकर के वलमा भगवान्म ही अटल और अचल ेम हो गया है, भगवान्का वयोग जनके लये अस है, जनका भगवान्से भ दूसरा कोई भी उपा देव नह है और जो भगवान्को ही परम आ य, परम ग त और परम ेमा द मानते ह– ऐसे अन ेमी एक न भ का वशेषण 'अन ा: ' पद है। – यहाँ 'माम् ' पद कनका वाचक है और उनका ' च न करते ए न ामभावसे भजन करना ' ा है? उ र – यहाँ 'माम्' पद सगुण भगवान् पु षो मका वाचक है। उनके गुण, भाव, त और रह को समझकर, चलते- फरते, उठते-बैठते, सोते-जागते और एका म साधन करते, सब समय नर र अ व पसे उनका च न करते ए, उ क आ ानुसार न ामभावसे उ क स ताके लये चे ा करते रहना यही उनका ' च न करते ए भजन करना' है। – न - नर र च न करनेवाले भ का योग ेम वहन करना ा है? उ र – अ ा क ा का नाम 'योग' और ा क र ाका नाम ' ेम' है। अत: भगवान्क ा के लये जो साधन उ ा है, सब कारके व -बाधा से बचाकर उसक र ा करना और जस साधनक कमी है, उसक पू त करके यं अपनी ा करा देना

– यही उन

मे ी भ का योग ेम चलाना है। भ ादका जीवन इसका सु र उदाहरण है। हर क शपु ारा उसके साधनम बड़े-बड़े व उप त कये जानेपर भी सब कारसे भगवान्ने उसक र ा करके अ म उसे अपनी ा करवा दी। – भगवान् साधनस ी योग ेमका वहन करते ह – यह तो ठीक ही है, परंतु ा जीवन नवाहोपयोगी लौ कक योग ेमका भी वे वहन करते ह? उ र – जब स ूण व के छोटे-बड़े अन जीव का भरण-पोषण भगवान् ही करते है; कोई भजता है या नह – इस बातक परवा न करके जब ाभा वक ही परम सु दभावसे ् सम व के योग ेमका सारा भार भगवान्ने उठा रखा है, तब अन भ का जीवनभार वे उठा ल – इसम तो कहना ही ा है? बात यह है क जो अन भ न - नर र के वल भगवान्के च नम ही लगे रहते ह, भगवान्को छोड़कर दूसरे कसी भी वषयक कु छ भी परवा नह करते – ऐसे न ा भयु भ क सारी देख-भाल भगवान् ही करते ह। जैसे मातृपरायण छोटा शशु के वल माताको ही जानता है, उसक कौन-कौन-सी ऐसी व ुएँ ह जनक र ा होनी चा हये और उसे कब कन- कन व ु क आव कता होगी, इस बातक वह कभी कोई च ा नह करता; माता ही यह ान रखती है क इसक कौन-कौन-सी व ुएँ सँभालकर रखनी चा हये, माता ही यह वचार करती है क इसके लये कब कस व ुक आव कता होगी और माता ही उन-उन व ु क र ा करती है, तथा ठीक समयपर उसके लये आव क व ु का ब करती है। इसी कार न ा भयु अन भ के जीवनम लौ कक या पारमा थक कस- कस व ुक र ा आव क है, और कस- कसक ा आव क है, इसका न य भी भगवान् करते ह और उन-उन ा व ु क र ा तथा अ ा क ा भी भगवान् ही करा देते ह। जो मातृपरायण बालक माताक देख-रेखम होता है, माता जैसे उस ब ेका बु क ओर ान न देकर उसका जसम वा वक हत होता है, वही करती है– उससे भी ब त बढ़कर भगवान् भी अपने भ का जसम यथाथ हत होता है, वही करते ह। ऐसे भ के लये कब कस व ुक आव कता होगी और कन- कन व ु क र ा आव क है, इसका न य भगवान् ही करते ह और भगवान्का न य क ाणसे ओत- ोत होता है और भगवान् ही र ा तथा ा का भार वहन करते ह। लौ कक-पारमा थकका कोई ही नह है तथा न अमुक व ुक ा -अ ा का है। जन व ु के ा होनेम या रहनेम मनु भगवान्को

भूलकर वषय-भोग म फँ स जाता है, जनसे व ुत: उसके योग ेमक हा न होती है, उनका ा न होना और न रहना ही स े योग ेमक ा है; तथा जन व ु के न होनेस,े जनक र ा न होनेसे भगवान्क ृ तम बाधा प ँ चती है और इस लये उसका वा वक क ाणके साथ योग होनेम तथा क ाणक र ा होनेम बाधा उप त होती है, उनके ा होने और सुर त रहनेम ही स ा योग ेम है। अन न ा भयु भ के वा वक क ाणका और स े योग ेमका भार भगवान् वहन करते ह – इसका ता य यही है क उसका क ाणके साथ योग कन व ु क ा म और कनके संर णम है इस बातपर ल रखते ए भगवान् ही यं उनक ा कराते ह और भगवान् ही उनक र ा करते ह, चाहे वे लौ कक ह या साधन स ी! इससे यह न य समझना चा हये क जो पु ष भगवान्के ही परायण होकर अन च से उनका ेमपूवक नर र च न करते ए ही सब काय करते ह, अ कसी भी वषयक कामना, अपे ा और च ा नह करते, उनके जीवन नवाहका सारा भार भी भगवान्पर रहता है; वे ही सवश मान्, सव , सवदश , परम सु द् भगवान् अपने भ का सब कारका योग ेम चलाते ह; इस लये उसम कभी भूल नह होती और उसका वपरीत प रणाम नह हो सकता। भगवान्का चलाया आ 'योग ेम ' ब त ही सुख, शा , ेम और आन देनेवाला होता है और भ को ब त शी भगवान्के सा ात् करानेम परम सहायक होता है। इसी लये यहाँ योगका अथ – भगव पक ा और ेमका अथ – उस भगव ा के लये कये जानेवाले साधन क र ा कया गया है।

ोक म भगवान्ने सम व को अपना प बताया फर य ो ारा क जानेवाली देवपूजाको कारा रसे अपनी ही पूजा बताकर उसका फल आवागमनके च म पड़ना और अपने अन भ क उपासनाका फल उसे अपनी ा करा देना कै से बताया? इसपर कहते ह – स

– पूव

येऽ देवता भ ा यज े या ताः । तेऽ प मामेव कौ ेय यज व धपूवकम् ॥२३॥

हे अजुन! य प ासे यु जो सकाम भ दस ू रे देवता को पूजते ह, वे भी मुझको ही पूजते ह; कतु उनका वह पूजन अ व धपूवक अथात् अ ानपूवक है॥२३॥

या कया गया है? –'

ताः '

का ा अ भ ाय है? तथा यहाँ इस वशेषणका योग

कस लये उ र – वेद-शा म व णत देवता, उनक उपासना और गा दक ा प उसके फलपर जनका आदरपूवक ढ़ व ास हो, उनको यहाँ ' या ताः ' कहा गया है और इस वशेषणका योग करके यह भाव दखलाया गया है क जो बना ाके द पूवक य ा द कम ारा देवता का पूजन करते ह, वे इस ेणीम नह आ सकते; उनक गणना तो आसुरी कृ तम है। – ऐसे मनु का अ देवता क पूजा करना ा है? और वह भगवान्क 'अ व धपूवक पूजा' है? उ र – जस कामनाक स के लये जस देवताक पूजाका शा म वधान है, उस देवताक शा ो य ा द कम ारा ापूवक पूजा करना 'अ देवता क पूजा करना' है। सम देवता भी भगवान्के ही अंगभूत ह, भगवान् ही सबके ामी ह और व ुत: भगवान् ही उनके पम कट ह – इस त को न जानकर उन देवता को भगवान्से भ समझकर सकाम भावसे जो उनक पूजा करना है, यही भगवान्क 'अ व धपूवक' पूजा है। – अ देवता क पूजाके ारा भगवान्क व धपूवक पूजा कस कार क जा सकती है और उसका फल ा है? उ र – अ देवता भी भगवान्के ही अंगभूत होनेके कारण सब भगवान्के ही प ह, ऐसा समझकर भगवान्क ा के लये न ामभावसे उन देवता क शा ो कारसे ापूवक पूजा करना, उन देवता क पूजाके ारा भगवान्क ' व धपूवक पूजा करना' है; और इसका फल भी भगवान्क ही ा है। राजा र देवने अ त थ एवं अ ागत को भगवान्का प समझकर यं भूखका क सहन करके अ दान ारा न ामभावसे भगवान्क पूजा क थी। इसके फल प उनको भगवान्क ा हो गयी। इसी कार कोई भी मनु जो देवता, गु , ा ण, माता- पता, अ त थ, अ ागत आ द सम ा णय को भगवान्का प समझकर भगवान्क स ताके लये उ क आ ाके अनुसार उन सबक सेवा आ दका काय करता है, उसक वह सेवा व धपूवक भगवान्क सेवा होती है और उसका फल भगवान्क ा ही होता है।

इस त को समझे बना जो सकामबु से ा- ेमपूवक अ देवता क यथायो सेवा-पूजा आ द क जाती है, वह सेवा-पूजा भी य प होती तो है भगवान्क ही, क भगवान् ही सब य के भो ा और सबके महे र ह और भगवान् ही सव प ह, तथा प भावक ूनताके कारण वह भगवान्क व धपूवक सेवा नह समझी जाती। इसी लये उसका फल भी भगव ा न होकर ग- ा ही होता है। भगव पक अन भ ताके कारण फलम इतना महान् भेद हो जाता है।

देवता के पूजन करनेवाल क पूजा भगवान्क व धपूवक पूजा नह है, यह कहकर अब वैसी पूजा करनेवाले मनु भगव ा प फलसे वं चत रहते हँ , इसका पसे न पण करते ह – स

–अ

अहं ह सवय ानां भो ा च भुरेव च । न तु माम भजान त ने ात व ते ॥२४॥

क स ूण य का भो ा ओर ामी भी म ही ँ ; परंतु वे मुझ परमे रको त से नह जानते, इसीसे गरते ह अथात् पुनज को ा होते ह॥२४॥ – भगवान् ही सब य

के भो ा और भु कै से ह? उ र – यह सारा व भगवान्का ही वराट प होनेके कारण भ - भ य -पूजा द कम के भो ा पम माने जानेवाले जतने भी देवता ह, सब भगवान्के ही अंग ह, तथा भगवान् ही उन सबके आ ा ह (१०।२०)। अत: उन देवता के पम भगवान् ही सम य ा द कम के भो ा ह। भगवान् ही अपनी योगश के ारा स ूण जगत् क उ , त और लय करते ए सबको यथायो नयमम चलाते ह; वे ही इ , व ण, यमराज, जाप त आ द जतने भी लोकपाल और देवतागण ह – उन सबके नय ा ह; इस लये वही सबके भु अथात् महे र ह (५।२९)। – यहाँ 'तु ' का ा अ भ ाय है? उ र – 'तु ' यहाँ 'परंत'ु के अथम है। अ भ ाय यह है क ऐसा होते ए भी वे भगवान्के भावको नह जानते, यह उनक कै सी अ ता है।

यहाँ 'ते ' पद कन मनु को ल करता है, तथा उनका भगवान्को त से नह जानना ा है? उ र – यहाँ 'ते ' पद पूव ोकम व णत कारसे अ देवता क पूजा ारा अ व धपूवक भगवान्क पूजा करनेवाले सकाम मनु को ल करता है तथा सोलहवसे उ ीसव ोकतक भगवान्के गुण, भावस हत जस पका वणन आ है, उसको न जाननेके कारण भगवान्को सब य के भो ा और सम लोक के महान् ई र न समझना – यही उनको त से न जानना है। – 'अत: ' पदका ा अ भ ाय है और उसके साथ ' व ' याका योग करके ा भाव दखलाया गया है? उ र – 'अत: ' पद हेतुवाचक है। इसके साथ ' व ' याके योगका यहाँ यह अ भ ाय है क इसी कारण अथात् भगवान्को त से न जाननेके कारण ही वे मनु भगव ा प अ उ म फलसे वं चत रहकर ग ा प अ फलके भागी होते ह और आवागमनके च रम पड़े रहते है। –

भगवान्के भ आवागमनको ा नह होते और अ देवता के उपासक आवागमनको ा होते ह, इसका ा कारण है? इस ज ासापर उपा के प और उपासकके भावसे उपासनाके फलम भेद होनेका नयम बतलाते ह – स



या देव ता देवा तॄ ा पतृ ताः । भूता न या भूते ा या म ा जनोऽ प माम् ॥२५॥

देवता को पूजनेवाले देवता को ा होते है, पतर को पूजनेवाले पतर को ा होते ह, भूत को पूजनेवाले भूत को ा होते ह और मेरा पूजन करनेवाले भ मुझको ही ा होते ह। इसी लये मेरे भ का पुनज नह होता॥२५॥

है?

–'देव ता: ' पद

कन मनु का वाचक है? और उनका देव को ा होना ा

उ र – देवता क पूजा करना, उनक पूजाके लये बतलाये ए नयम का पालन करना, उनके न म य ा दका अनु ान करना, उनके म का जप करना और उनके न म

ा ण-भोजन कराना-इ ा द सभी बात 'देवता के त' ह। इनका पालन करनेवाले मनु का वाचक 'देव ता: ' पद है। ऐसे मनु को अपनी उपासनाके फल प जो उन देवता के लोक क , उनके स श भोग क अथवा उनके -जैसे पक ा होती है, वही देव को ा होना है। – तीसरे अ ायके ारहव ोकम, चौथे अ ायके पचीसव ोकम तो देवपूजनको क ाणम हेतु बतलाया है और यहाँ (२०,२१,२४ म) उसका फल अ न गक ा एवं आवागमनके च रम पड़ना बतलाते ह; इसका ा कारण है? उ र – तीसरे और चौथे अ ाय म न ामभावसे देवपूजन करनेका वषय है; इस कारण उसका फल परम क ाण बतलाया गया है; क न ामभावसे क ई देवपूजा अ ःकरणक शु म हेतु होनेसे उसका फल परम क ाण ही होता है। कतु यहाँ सकामभावसे क जानेवाली देवपूजाका करण है। अत: इसका फल उन देवता क ा तक ही बतलाया जा सकता है। वे अ धक-से-अ धक उन उपा देवता क आयुपय गा द लोक म रह सकते ह। अतएव उनका पुनरागमन न त है। – ' पतृ ता: ' पद कन मनु का वाचक है और उनका पतर को ा होना ा है? उ र – पतर के लये यथा व ध ा - तपण करना, उनके न म ा ण को भोजन कराना, हवन करना, जप करना, पाठ-पूजा करना तथा उनके लये शा म बतलाये ए त और नयम का भलीभाँ त पालन करना आ द पतर के त ह और इन सबके पालन करनेवाल का वाचक ' पतृ ता: ' पद है। जो मनु सकामभावसे इन त का पालन करते ह, वे मरनेके बाद पतृलोकम जाते ह और वहाँ जाकर उन पतर के -जैसे पको ा करके उनके जैसे भोग भोगते ह। यही पतर को ा होना है। ये भी अ धक-से-अ धक द पतर क आयुपय ही वहाँ रह सकते ह। अ म इनका भी पुनरागमन होता है। यहाँ देव और पतर क पूजाका नषेध नह समझना चा हये। देव- पतृ-पूजा तो यथा व ध अपने-अपने वणा मके अ धकारानुसार सबको अव ही करनी चा हये; परंतु वह पूजा य द सकामभावसे होती है तो अपना अ धक-से-अ धक फल देकर न हो जाती है और य द कत बु से भगवत्-आ ा मानकर या भगवत्-पूजा समझकर क जाती है तो वह

भगव ा प महान् फलम कारण होती है। इस लये यहाँ समझना चा हये क देव- पतृकम तो अव ही कर, परंतु उनम न ामभाव लानेका य कर। – 'भूते ा: ' पद कन मनु का वाचक है और उनका भूत को ा होना ा है? उ र – जो ेत और भूतगण क पूजा करते ह, उनक पूजाके नयम का पालन करते ह, उनके लये हवन या दान आ द जो भी कु छ करते ह, उनका वाचक 'भूते ा: ' पद है। ऐसे मनु का जो उन-उन भूत- ेता दके समान प-भोग आ दको ा होना है, वही उनको ा होना है। भूत ेत क पूजा तामसी है तथा अ न फल देनेवाली है, इस लये उसको नह करना चा हये। – यहाँ 'म ा जन: ' पद कनका वाचक है और उनका भगवान्को ा होना ा है? उ र – जो पु ष भगवान्के सगुण नराकार अथवा साकार – कसी भी पका सेवनपूजन और भजन- ान आ द करते ह, सम कम उनके अपण करते ह, उनके नामका जप करते ह, गुणानुवाद सुनते और गाते ह और इसी कार भगवान्क भ - वषयक व वध भाँ तके साधन करते ह, उनका वाचक यहाँ 'म ा जन: ' पद है। और उनका भगवान्के द लोकम जाना, भगवान्के समीप रहना, उनके ही-जैसे द पको ा होना अथवा उनम लीन हो जाना – यही भगवान्को ा होना है। – इस वा म 'अ प ' पदके योगका ा भाव है? उ र – 'अ प ' पदसे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क मेरे नराकार, साकार, कसी भी पक न ामभावसे उपासना करनेवाला मुझको ा होता है –इसम तो कहना ही ा है, कतु सकामभावसे उपासना करनेवाला भी मुझे ा होता है। स

– भगवान्क

कोई क ठनता नह है ब भगवान् कहते ह –

भ का भगव ा प महान् फल होनेपर भी उसके साधनम उसका साधन ब त ही सुगम है – यही बात दखलानेके लये

प ं पु ं फलं तोयं यो मे भ ा य त । ं

तदहं भ ुप तम ा म यता नः ॥२६॥

जो कोई भ मेरे लये ेमसे प , पु , फल, जल आ द अपण करता है, उस शु बु न ाम ेमी भ का ेमपूवक अपण कया आ वह प -पु ा द म सगुण पसे कट होकर ी तस हत खाता ँ ॥२६॥ – 'यः ' पदके

योगका ा भाव है? उ र – इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क कसी भी वण, आ म और जा तका कोई भी मनु प , पु , फल, जल आ द मेरे अपण कर सकता है। बल, प, धन, आयु, जा त, गुण और व ा आ दके कारण मेरी कसीम भेदबु नह है; अव ही अपण करनेवालेका भाव वदुर ओर शबरी आ दक भाँ त सवथा शु और ेमपूण होना चा हये। – पूजाक अनेक साम य मसे के वल प , पु , फल और जलके ही नाम लेनेका ा अ भ ाय है? और इन सबका भ पूवक भगवान्को अपण करना ा ह? उ र – यहाँ प , पु , फल और जलका नाम लेकर यह भाव दखलाया गया है क जो व ु साधारण मनु को बना कसी प र म, हसा और यके अनायास मल सकती है – ऐसी कोई भी व ु भगवान्के अपण क जा सकती है। भगवान् पूणकाम होनेके कारण व ुके भूखे नह ह, उनको तो के वल ेमक ही आव कता है। 'मुझ-जैसे साधारण-से-साधारण मनु ारा अपण क ई छोटी-से-छोटी व ु भी भगवान् सहष ीकार कर लेते ह यह उनक कै सी मह ा है!' इस भावसे भा वत होकर ेम व ल च से कसी भी व ुको भगवान्के समपण करना, उसे भ पूवक भगवान्के अपण करना है। – ' यता नः ' पदका ा अथ है? और इसके योगका ा अ भ ाय है? उ र – जसका अ ःकरण शु हो, उसे ' यता ा' कहते ह। इसका योग करके भगवान्ने यह भाव दखलाया है क य द अपण करनेवालेका भाव शु न हो तो बाहरसे चाहे जतने श ाचारके साथ, चाहे जतनी उ म-स-उ म साम ी मुझे अपण क जाय, म उसे कभी ीकार नह करता। मने दुय धनका नम ण अ ीकार करके भाव शु होनेके कारण वदुरके घरपर जाकर ेमपूवक भोजन कया, सुदामाके चउर का बड़ी चके साथ भोग लगाया, ौपदीक बटलोईम बचे ए 'प े' को खाकर व को तृ कर दया, गजे ारा अपण कये ए 'पु ' को यं वहाँ प ँ चकर ीकार कया, शबरीक कु टयापर जाकर उसके दये ए

'फल ' का भोग लगाया और र

देवके 'जल' को ीकार करके उसे कृ ताथ कया। इसी कार ेक भ क ेमपूवक अपण क ई व ुको म सहष ीकार करता ँ । इन भ का वशेषत: इस संगसे स रखनेवाली घटना का सं ववरण मश: इस कार है – वदरु

बारह वषका वनवास और एक वषका अ ातवास पूरा करके जब पा व ने दुय धनसे अपने रा क माँग क , तब दुय धनने रा देनेसे साफ इनकार कर दया। इसपर पा व क ओरसे यं भगवान् ीकृ दूत बनकर कौरव के यहाँ गये। बाहरी श ाचार दखलानेके लये दुय धनने उनके ागतक बड़ी तैयारी क थी। जब भोजनके लये कहा, तब भगवान्ने अ ीकार कर दया। दुय धनके कारण पूछनेपर भगवान्ने कहा – 'भोजन दो कारसे कया जाता है। या तो जहाँ ेम हो, वहाँ जो कु छ भी मले, बड़े आन से खाया जाता है। या जब भूखके मारे ाण जाते ह तब चाहे जहाँ चाहे जस भावसे जो कु छ मले उसीसे उदरपू त करनी पड़ती है। यहाँ दोन ही बात नह ह। ेम तो आपम है ही नह , और भूख म नह मरता । इतना कहकर भगवान् बना ही बुलाये भ वदुरजीके घर चल दये। पतामह भी , ोणाचाय, कृ पाचाय, बा ीक आ द बड़े-बूढ़े लोग ने वदुरके घर जाकर ीकृ से अपने-अपने घर चलनेके लये भी अनुरोध कया; पर ु भगवान् कसीके यहाँ नह गये और उ ने वदुरजीके घरपर ही उनके अ ेमसे दये ए पदाथ का भोग लगाकर उ कृ ताथ कया। (महा०, उ ोग० ९१) [41]

'दय ु धनक मेवा

ागी, साग वदरु घर खायो'

स ही है। सुदामा

सुदामाजी भगवान् ीकृ च के बा कालके सखा थे। दोन उ ैनम सा ीप नजी महाराजके घर एक साथ ही पढे़ थे। सुदामा वेदवे ा, वषय से वर , शा और जते य थे। व ा पढ़ चुकनेपर दोन सखा अपने-अपने घर चले गये। सुदामा बड़े ही गरीब थे। एक समय ऐसा आ क लगातार कई दन तक इस ा णप रवारको अ के दशन नह ए। भूखके मारे बेचारी ा णीका मुख सूख गया, ब क दशा

देखकर उसक छाती भर आयी। वह जानती थी क ारकाधीश भगवान् ीकृ च मेरे ामीके सखा ह। उसने डरसे काँपते-काँपते प तको सब हालत सुनाकर ारका जानेके लये अनुरोध कया। वह प तके न ामभावको भी जानती थी, इससे उसने कहा – ' भो! म जानती ँ क आपको धनक र ीभर भी चाह नह है, परंतु धन बना गृह ीका नवाह होना बड़ा क ठन है। अतएव मेरी समझसे आपका अपने य म के पास जाना ही आव क और उ चत है।' सुदामाने सोचा क ा णी दुःख से घबड़ाकर धनके लये मुझे वहाँ भेजना चाहती है। उ इस कायके लये म के घर जानेम बड़ा संकोच आ। वे कहने लगे – 'पगली! ा तू धनके लये मुझे वहाँ भेजती है? ा ा ण कभी धनक इ ा कया करते ह? अपना तो काम भगवान्का भजन ही करना है। भूख लगनेपर भीख माँग ही सकते ह। ' ा णीने कहा – 'यह तो ठीक है, परंतु यहाँ भीख भी तो नसीब नह होती। मेरे फटे चथड़े और भूखसे छटपटाते ब के मुँहक ओर तो दे खये! मुझे धन नह चा हये। म नह कहती क आप उनके पास जाकर रा या ल ी माँग। अपनी इस दीन दशाम एक बार वहाँ जाकर आप उनसे मल तो आइये।' सुदामाने जानेम ब त आनाकानी क ; परंतु अ म यह वचारकर क चलो इसी बहाने ीकृ च के दुलभ दशनका परम लाभ होगा, सुदामाने जानेका न य कर लया। परंतु खाली हाथ कै से जायँ? उ ने ीसे कहा – हे क ा ण! य द कु छ भट देने यो साम ी घरम हो तो लाओ।' प तक बात तो ठीक थी, परंतु वह बेचारी ा देती? घरम अ क कनी भी तो नह थी। ा णी चुप हो गयी। परंतु आ खर यह सोचकर क कु छ दये बना सुदामा जायँगे नह , वह बड़े संकोचसे पड़ो सनके पास गयी। आशा तो नह थी, परंतु पड़ो सनने दया करके चार मु ी चउरे उसे दे दये। ा णीने उनको एक मैल-े कु चैले फटे चथड़ेम बाँधकर ीकृ क भटके लये प तको दे दया। सुदामाजी ारका प ँ चे। पूछते-पूछते भगवान्के महल के दरवाजेपर गये। यहाँपर क ववर नरो मजीने बड़ा सु र वणन कया है। वे लखते ह, ारपाल सुदामाजीको आदरसे वह बैठाकर संवाद देने भुके पास गया और वहाँ जाकर उसने कहासीस पगा न झगा तन पै भु! जाने को आ ह, बसै के ह गामा। धोती फटी-सी, लटी दप ु टी, अ पायँ उपानह क न ह सामा॥

ार खडो़

ज दब ु ल, दे ख

र ो च क सो बसुधा अ भरामा। पूछत दीनदयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा॥

भगवान् 'सुदामा' श सुनते ही सारी सुध-बुध भूल गये और हड़बड़ाकर उठे । मुकुट वह रह गया, पीता र कह गर पड़ा, पादुका भी नह पहन पाये और दौड़े ारपर! भगवान्ने दूरसे ही सुदामाका बुरा हाल देखकर कहा – ऐसे बहाल बवाइन स , पग कंटक जाल गड़े पु न जोये। हाय! महादख ु पाये सखा! तुम आये इतै न, कतै दन खोये॥ दे ख सुदामा क दीन दसा, क ना क रके क ना न ध रोये। पानी परात को हाथ छू यो न ह, नैनन के जल स पग धोये॥ (नरो

म क व) परातका पानी छू नेक भी आव कता नह ई। सरकारने अपने आँ सु क धारासे ही सुदामाके पद पखार डाले और उ छातीसे चपटा लया। तदन र भगवान् उ आदरस हत महलम ले गये और वहाँ अपने द पलंगपर बैठाया, तथा यं अपने हाथ से पूजनक साम ीका सं ह कर, अपने ही हाथ से उनके चरण को धोकर, उस जलको यं लोक-पावन होते ए भी अपने म कपर धारण कया। तदन र भगवान्ने य म के शरीरम द ग यु च न, अगर, कुं कु म लगाया और सुग त धूप, दीप आ दसे पूजन करके उ द भोजन कराया। पान-सुपारी दी। ा ण सुदामाका शरीर अ म लन और ीण था। देहभरम ान- ानपर नस नकली ई थ । वे

एक फटा-पुराना कपड़ा पहने ए थे। परंतु भगवान्के य सखा होनेके नाते सा ात् ल ीका अवतार णीजी अपनी सखी दे वय स हत र द यु जन-चामर हाथ म लये परम द र भ कु ा णक बड़ी चावसे सेवा-पूजा करने लग । भगवान् ीकृ सुदामाका हाथ अपने हाथम लेकर लड़कपनक मनोहर बात करने लगे। कु छ देरके बाद भगवान्ने य म क ओर ेमपूण से देखते ए हँ सकर कहा क 'भाई! तुम मेरे लये कु छ भट भी लाये हो? भ क ेमपूवक दी ई जरा-सी व ुको भी म ब त मानता ँ , क म ेमका भूखा ँ । अभ के ारा दी ई अपार साम ी भी मुझे स ु नह कर सकती।' प ं पु ं फलं तोयं यो मे भ ा य त। तदहं भक ुप तम ा म यता नः॥ ( ीम ागवत १०।८१।४) भगवान्के इतना कहनेपर भी सुदामा चउरीक पोटली भगवान्को नह दे सके । भगवान्क अतुल राजस और वैभव देखकर उ चउरा देनेम सुदामाको बड़ी ल ा ई। तब सब ा णय के अ रक बात जानने-वाले ह रने ा णके आनेका कारण समझकर वचार कया क 'यह मेरा न ाम भ और य सखा है। इसने धनक कामनासे पहले भी कभी मेरा भजन नह कया और न अब भी इसे कसी तरहक कामना है। परंतु यह अपनी प त ता प ीक ाथनासे मेरे पास आया है अतएव इसे म वह (भोग और मो प) स दूँगा, जो देवता को भी दुलभ है। ' य वचार कर भगवान्ने 'यह ा है?' कहकर ज ीसे सुदामाके बगलम दबी ई चउर क पोटली जबरद ी ख च ली। पुराना फटा कपड़ा था, पोटली खुल गयी और चउरे चार ओर बखर गये। भगवान् बड़े ेमसे कहने लगेन ेतदप ु नीतं मे परम ीणनं सखे। तपयन

मां व मेते पृथुकत ु लाः॥ (

ीम ागवत १०।८१।९)

'हे

सखे! आपके ारा लाया आ यह चउर का उपहार मुझको अ स करनेवाला है। ये चउरे मुझको और (मेरे साथ ही) सम व को तृ कर दगे।' य कहकर भगवान् उन बखरे ए चउर को बीन-बीनकर उ चबाने लगे। भ के ेमपूवक लाये ए उपहारका इस कार भोग लगाकर भगवान्ने अपने अतुलनीय ेमका प रचय दया। कु छ दन बड़े आन पूवक वहाँ रहकर सुदामा अपने घर लौटे। इधर घरका पा र हो गया था। भगवान्क लीलासे टूटी मड़ैया णमहलके पम प रणत हो चुक थी। सुदामाने भगवान्क लीला समझकर उसे ीकार कया। उ ने मन-ही-मन कहा – ' ध है! मेरे सखा ऐसे ह क याचकको बना बताये गु पसे सब कु छ देकर उसका मनोरथ पूण करते ह। परंतु मुझे धन नह चा हये, मेरी तो बार-बार यही ाथना है क – ज ज ा रम वही ीकृ मेरे सु द,् सखा तथा म ह और म उनका अन भ र ँ । म इस स को नह चाहता, मुझको तो ेक ज म उन सवगुणस भगवान्क वशु भ और उनके भ का प व संग मलता रहे। वे दया करके ही धन नह दया करते, क धनके गवसे धनवान का अधःपतन हो जाता है। इस लये वे अपने अदूरदश भ को स , रा और ऐ य नह देते।' सुदामा आजीवन अनास भावसे घरम रहे और उ ने अपना सब समय भगवान्के भजनम ही बताया। ौपदी

पा व वनम रहकर अपने दुःखके दन काट रहे थे, परंतु दुय धनक खलम ली अपनी दु ताके कारण उनके वनाशक ही बात सोच रही थी। दुय धनने एक बार दुवासा मु नको स करके उनसे यह वर माँगा क – 'हमारे धमा ा बड़े भाई महा ा यु ध र अपने भाइय स हत वनम रहते ह। एक दन आप अपने दस हजार श स हत उनके यहाँ भी जाकर अ त थ होइये। परंतु इतनी ाथना है क वहाँ सब लोग के भोजन कर चुकनेपर जब यश नी ौपदी खा-पीकर सुखसे आराम कर रही हो, उसी समय जाइयेगा।' दुय धनने दु म लीक सलाहसे यह सोचा क ौपदीके खा चुकनेपर उस दनके लये सूयके दये ए पा से अ मलेगा नह , इससे कोपन- भाव दुवासा पा व को शाप देकर भ कर डालगे और इस कार सहज ही अपना काम सध जायगा। सरल दय दुवासा दुय धनके इस कपटको नह समझे, इस लये वे उसक बात मानकर पा व के यहाँ का कवनम जा प ँ चे। पा व ौपदीस हत भोजना द काय से नवृत होकर सुखसे बैठे वातालाप कर रहे थे। इतनेहीम दस

हजार श स हत दुवासाजी वहाँ जा प ँ चे। यु ध रने भाइय स हत उठकर ऋ षका ागतस ार कया और भोजनके लये ाथना क । दुवासाजीने ाथना ीकार क और वे नहानेके लये नदीतीरपर चले गये। इधर ौपदीको बड़ी च ा ई। परंतु इस वप से यब ु ीकृ के सवा उनक ारी कृ ाको और कौन बचाता? उसने भगवान्का रण करते ए कहा – 'हे कृ ! हे गोपाल! हे अशरण-शरण! हे शरणागतव ल! अब इस वप से तु बचाओ' – दःु शासनादहं पूव सभायां मो चता यथा। तथैव संकटाद ा ामु तु महाहसी॥ (महा०, वन० २६३।१६)

'तुमने पहले कौरव क

राजसभाम जैसे दु दुःशासनके हाथसे मुझे छु ड़ाया था, वैसे ही तु इस वप से भी मुझे उबारना चा हये।' उस समय भगवान् ारकाम णीजीके पास महलम थे। ौपदीक ु त सुनते ही उसे संकटम जान भ व ल भगवान् णीको ागकर बड़ी ही ती ग तसे ौपदीक ओर दौड़े! अ च ग त परमे रको आते ा देर लगती? वे तुरंत ौपदीके पास आ प ँ चे। ौपदीके मानो ाण आ गये! उसने णाम करके सारी वप भगवान्को कह सुनायी। भगवान्ने कहा – 'यह सब बात पीछे करना। मुझे बड़ी भूख लगी है; मुझे शी कु छ खानेको दो।' ौपदीने कहा – ' भगवन्! खानेके फे रम पड़कर तो मने तु याद ही कया है। म भोजन कर चुक ँ , अब उस पा म कु छ भी नह है।' भगवान् बड़े वनोदी ह, कहने लगेकृ शी ं ग 'हे

मम

े न नमकालोऽयम ु

मेणातुरे म य।

ालीमान य ा दशय॥ (महा०, वन० २६३।२३)

ौपदी! इस समय म भूख और रा ेक थकावटसे ाकु ल हो रहा ँ ; यह मेरे साथ वनोदका समय नह है। ज ी जाओ और सूयका दया आ बतन लाकर मुझे दखलाओ।' बेचारी ौपदी ा करती? पा लाकर सामने रख दया। भगवान्ने ती ण से देखा और एक सागका प ा ढूँ ढ़ नकाला। भगवान् बोले – 'तुम कह रही थी न क कु छ भी नह है, इस प ेसे तो भुवन तृ हो जायगा।' य भो ा भगवान्ने 'प ा' उठाया और मुँहम डालकर कहाव ा ा ीयतां देव ु ा त य भुक्। (महा०, वन० २६३।२५)

इस प ेसे सारे व के आ ा य भो ा भगवान् तृ हो जायँ। साथ ही सहदेवसे कहा क – 'जाओ ऋ षय को भोजनके लये बुला लाओ।' उधर नदीतटपर दूसरा ही गुल खल रहा था, स ा करते-करते ही ऋ षय के पेट फू ल गये और डकार आने लगी थ । श ने दुवासासे कहा – ' महाराज! हमारा तो गलेतक पेट भर गया है, वहाँ जाकर हम खायगे ा?' दुवासाक भी यही दशा थी, वे बोले – 'भैया! भगो यहाँसे ज ी! ये पा व बड़े ही धमा ा, व ान् और सदाचारी ह तथा भगवान् ीकृ के अन भ ह, वे चाह तो हम वैसे ही भ कर सकते ह जैसे ईके ढेरको आग! म अभी अ रीषवाली घटना भूला नह ँ , ीकृ के शरणागत से मुझे बड़ा भारी डर लगता है।' दुवासाके ये वचन सुन श म ली य -त भाग गयी। सहदेवको कह कोई न मला। अब भगवान्ने पा व से और ौपदीसे कहा – 'लो अब तो मुझे ारका जाने दो। तुमलोग धमा ा हो, जो कोई नर र धम करनेवाले ह उ कभी दुःख नह होता' – धम न ा ु ये के च ते सीद क ह चत्। (महा०, वन० २६३।४४) गजराज गजराज कू ट पवतपर रहता था। एक दन वह गरमीसे ाकु ल होकर अनेक बड़ेबड़े हा थय और ह थ नय के साथ व णदेवके ऋतुमान् नामक बगीचेम अ व ृत सु र सरोवरके तटपर प ँ चा। तदन र वह सरोवरके अंदर घुस गया और अमृततु जल पीकर ह थ नय और उनके छोटे-छोटे ब के साथ खेलने लगा। उस सरोवरम एक महान् बलवान् ाह रहता था। ाहने गजराजका पैर पकड़ लया। गजराजने अपना सारा बल लगाकर उससे पैर छु ड़ानेक चे ा क , परंतु वह न छु ड़ा सका। इधर ाह उसे जलके अंदर ख चने लगा। साथके हाथी और ह थ नयाँ सूँड़-से-सूँड़ मलाकर गजराजको बचानेके लये बाहर ख चने लगे, पर ु उनक एक भी नह चली। ब त समयतक यह लड़ाई चलती रही। अ म वह कातर होकर भगवान्क शरण हो गया। उसने कहा – य: क नेशो ब लनोऽ कोरागात् च

वेगाद भधावतो भृशम्।

भीतं प ं प रपा त य याृ ुः धाव रणं तमीम ह॥ (

ीम ागवत ८।२।३३)

'जो

ब त तेजीके साथ इधर-उधर दौड़ते ए इस च वेगवाले महाबली कराल काल पी सपके भयसे भीत होकर शरणम आये ए ाणीक र ा करता है, तथा जसके भयसे मृ ु भी ( ा णय को मारनेके लये) इत त: दौड़ता रहता है – ऐसा जो कोई ई र है, उसक हम शरण जाते ह।' फर गजराजने मन-ही-मन भगवान्क बड़ी ही सु र ु त क ; भगवान्ने भ क पुकार सुनी और सुनते ही वे भ को बचानेके लये अधीर हो उठे । यहाँ एक क वक बड़ी ही सु र उ हैपय ं वसृजन् गणानगणयन् भूषाम ण व र ु ानोऽ प गदागदे त नगदन् प ामनालोकयन्। नग प र दं खगप त चारोहमाणोऽवतु ाह मत पु वसमु ाराय नारायण:॥ ' ाहके चंगुलम फँ से ए गजराजको बचानेके लये पलंगको छोड़ते ए, पाषद क परवा न करते ए, कौ ुभम णको भुलाकर, उठते-उठते ही 'गदा', 'गदा' इस कार पुकारते ए, ल ीजीको भी न देखते ए और ग ड़जीपर बना कु छ बछाये नंगी पीठ ही चढ़कर जानेवाले भगवान् नारायण हमारी र ा कर।' ग ड़क पीठपर चढ़कर भगवान् वहाँ जा प ँ चे। गजे ने आकाशम ग ड़पर त भगवान्के दशन कये और कुं डसे एक कमलका 'पु ' ऊपरको उठाकर अ क से आत रसे कहा – हे नारायण, हे सबके गु ! आपको नम ार है।' भगवान्ने भ के ेमपूवक दये ए कमलके पु को ीकार कया। अपने सुदशन च से ाहका सर काटकर गजे को महान् संकटसे छु ड़ाया। शबरी

शबरी भीलनी थी। हीन जा तक थी। परंतु थी भगवान्क परम भ । उसने अपने जीवनका ब त-सा अंश द कार म छप- छपकर ऋ षय क सेवा करनेम बताया था। जधरसे ऋ ष ान करने जाते, उस रा ेको झाड़ना, कँ करीली जमीनपर बालू बछाना, जंगलसे काट-काटकर धन लाकर उनके आ म म रख देना – यही उसका काम था। मतंग मु नने उसपर कृ पा क । भगवान्के नामका उपदेश कया और लोक जाते समय वे उससे कह गये क 'भगवान् राम तेरी कु टयापर पधारगे। उनके दशनसे ही तू कृ ताथ हो जायगी। तबतक यह रहकर भजन कर।'

शबरीको भजनक लगन लग गयी और उसका जीवन रामक बाट जोहनेम ही बीतने लगा। - दन बीतने लगे, -ह - शबरीक उ ा बढ़ने लगी। यह सोचकर क – अब भु पधारते ही ह गे, कह भुके पैरम काँटा न गड़ जाय, वह ज ी-ज ी जाकर दूरतक रा ा बुहार आती। पानी छड़कती। आँ गनको गोबरसे लीपती और भगवान्के वराजनेके लये म ी-गोबरक सु र चौक बनाकर रखती। जंगलम जा-जाकर चाख-चाखकर जस पेड़के फल मीठे होते, तोड़-तोड़कर लाती और दोन म भरकर रखती। दन-पर- दन बीतने लगे। उसका रोजका यही काम था। न मालूम वह दनम कतनी बार रा ा बुहारती, कतनी बार चौका लगाती और चौक बनाती तथा फल चुन-चुनकर लाती। आ खर भगवान् उसक कु टयापर पधारे। शबरी कृ तकृ हो गयी! ीरामच रतमानसम गोसा जी लखते ह – सबरी दे ख राम हँ आए। मु न के वचन समु झ जयँ भाए॥ सर सज लोचन बा

बसाला। जटा मुकुट सर उर बनमाला॥

ाम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई॥ ेम मगन मुख बचन न आवा। पु न पु न पद सरोज सर नावा॥

शबरी आन सागरम डू ब गयी। ेमके आवेशम उसक वाणी क गयी और वह बारबार भगवान्के पावन चरणकमल म म क टेक-टेककर णाम करने लगी। फर उसने भगवान्का पूजन कया। फल सामने रखे। भगवान्ने उसक भ क बड़ाई करते ए उसक पूजा ीकार क और उसके दये ए ेमभरे फल का भोग लगाकर उसे कृ ताथ कर दया! उसके फल म भगवान्को कतना अपूव ाद मला, इसका वणन करते ए ीतुलसीदासजी कहते ह – घर, गु गृह,

य-सदन, सासुरे भई जब जहँ प नाई।

तब तहँ क ह सबरी के फल न क



च माधुरी न पाई॥ [42]

देव

महाराज र देव संकृ तनामक राजाके पु थे। ये बड़े ही तापी और दयालु थे। र देवने गरीब को दुःखी देखकर अपना सव दान कर डाला। इसके बाद वे कसी तरह क ठनतासे अपना नवाह करने लगे। पर उ जो कु छ मलता था, उसे यं भूखे रहनेपर भी वे

गरीब को बाँट दया करते थे। इस कार राजा सवथा नधन होकर सप रवार अ क सहने लगे। एक समय पूरे अड़तालीस दनतक राजाको भोजनक कौन कहे, जल भी पीनेको नह मला। भूख- ाससे पी ड़त बलहीन राजाका शरीर काँपने लगा। अ म उनचासव दन ातःकाल राजाको घी, खीर, हलवा और जल मला। अड़तालीस दनके लगातार अनशनसे राजा प रवारस हत बड़े ही दुबल हो गये थे। सबके शरीर काँप रहे थे। र देव भोजन करना ही चाहते थे क एक ा ण अ त थ आ गया। करोड़ पय मसे नामके लये लाख पये दान करना बड़ा सहज है परंतु भूखे पेट अ दान करना बड़ा क ठन काय है। पर सव ह रको ा देखनेवाले भ र देवने वह अ आदरसे ापूवक ा ण प अ त थनारायणको बाँट दया। ा ण- देवता भोजन करके तृ होकर चले गये। उसके बाद राजा बचा आ अ प रवारको बाँटकर खाना ही चाहते थे क एक शू अ त थने पदापण कया। राजाने भगवान् ीह रका रण करते ए बचा आ कु छ अ उस द र - नारायणक भट कर दया। इतनेम ही कई कु को साथ लये एक और मनु अ त थ होकर वहाँ आया और कहने लगा – 'राजन्! मेरे ये कु े और म भूखा ँ , भोजन दी जये।' ह रभ राजाने उसका भी स ार कया और आदरपूवक बचा आ सारा अ कु स हत उस अ त थ भगवान्के समपण कर उसे णाम कया। अब, एक मनु क ास बुझ सके – के वल इतना-सा जल बच रहा था। राजा उसको पीना ही चाहते थे क अक ात् एक चा ालने आकर दीन रसे कहा – 'महाराज! म ब त ही थका आ ँ , मुझ अप व नीचको पीनेके लये थोड़ा-सा जल दी जये।' चा ालके दीनवचन सुनकर और उसे थका आ जानकर राजाको बड़ी दया आयी और उ ने ये अमृतमय वचन कहेन कामयेऽहं ग तमी रा राम यु ामपुनभवं वा। आ त प ेऽ खलदेहभाजाम ः तो येन भव दुःखा:॥ ु ृट् मो गा प र म दै ं म: शोक वषादमोहा:। सव नवृ ा: कृ पण ज ो जजी वषोज वजलापणा े॥

ीम ागवत १।२१। १२-१३) 'म परमा ासे अ णमा आ द आठ स य से यु उ म ग त या मु नह चाहता; म के वल यही चाहता ँ क म ही सब ा णय के अ ःकरणम त होकर उनका दुःख भोग क ँ , जससे वे लोग दुःखर हत हो जायँ।' इस मनु के ाण जल बना नकल रहे ह, यह ाणर ाके लये मुझसे दीन होकर जल माँग रहा है 'जीनेक इ ावाले इस दीन ाणीको यह जीवन प जल अपण करनेसे मेरी भूख, ास, थकावट, शारी रक क , दीनता, ा , शोक, वषाद और मोह आ द सब मट गये।' इतना कहकर ाभा वक दयालु राजा र देवने यं ासके मारे मृत ाय रहनेपर भी उस चा ालको वह जल आदर और स तापूवक दे दया। फलक कामना करनेवाल को फल देनेवाले भुवननाथ भगवान् ा, व ु ओर महेश ही महाराज र देवक परी ा लेनेके लये मायाके ारा ा णा द प धरकर आये थे। राजाका धैय और उसक भ देखकर वे परम स हो गये और उ ने अपना-अपना यथाथ प धारणकर राजाको दशन दया। राजाने तीन देव का एक ही साथ दशन कर उ णाम कया और उनके कहनेपर भी कोई वर नह माँगा। क राजाने आस और कामना ागकर अपना मन के वल भगवान् वासुदेवम लगा रखा था। य परमा ाके अन भ र देवने अपना च पूण पसे के वल ई रम लगा दया ओर परमा ाके साथ त य हो जानेके कारण गुणमयी माया उनके सामनेसे के समान लीन हो गयी! र देवके प रवारके अ सब लोग भी उनके संगके भावसे नारायणपरायण होकर यो गय क परम ग तको ा ए। – 'भ ुप तम् ' का ा अथ है? और उसके योगका ा अ भ ाय है? उ र – उपयु प , पु आ द कोई भी व ु जो ेमपूवक समपण क जाती है उसे 'भ ुप त' कहते ह। इसके योगसे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क बना ेमके दी ई व ुको म ीकार नह करता। और जहाँ ेम होता हे तथा जसको मुझे व ु अपण करनेम और मेरे ारा उसके ीकार हो जानेम स ा आन होता है, वहाँ उस भ के ारा अपण कये जानेपर ीकार कर लेनेक बात ही कौन-सी है? पु मयी जगो पका के घर क तरह उन भ के घर म घुस-घुसकर म उनक साम य का भोग लगा जाता ँ । व ुत: म ेमका भूखा ँ , व ु का नह ! (

– 'अहम् ' और 'अ

ा म ' का

ा भाव है? उ र – इनके योगसे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क इस कार शु भावसे ेमपूवक समपण क ई व ु को म यं उस भ के स ुख कट होकर खा लेता ँ अथात् जब मनु ा दके पम अवतीण होकर संसारम वचरता ँ , तब तो उस पम वहाँ प ँ चकर और अ समयम उस भ के इ ानुसार पम कट होकर उसक दी ई व ुका भोग लगाकर उसे कृ ताथ कर देता ँ ।

य द ऐसी ही बात है तो मुझे ा करना चा हये, इस ज ासापर भगवान् अजुनको उसका क बतलाते ह – स



य रो ष यद ा स य हु ो ष ददा स यत् । य प स कौ ेय त ु मदपणम् ॥२७॥

हे अजुन! तू जो कम करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, वह सब मेरे अपण कर॥२७॥

पदके साथ-साथ 'करो ष ', 'अ ा स ', 'जुहो ष ', 'ददा स ' और 'तप स ' – इन पाँच या के योगका यहाँ ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान्ने सब कारके कत -कम का समाहार कया है। अ भ ाय यह है क य , दान और तपके अ त र जी वका- नवाह आ दके लये कये जानेवाले वण, आ म और लोक वहारके कम तथा भगवान्का भजन, ान आ द जतने भी शा ीय कम ह, उन सबका समावेश 'य रो ष' म, शरीर-पालनके न म कये जानेवाले खान-पान आ द कम का 'यद ा स ' म, पूजन और हवनस ी सम कम का 'य ुहो ष' म, सेवा और दानस ी सम कम का 'य दा स ' म और संयम तथा तप स ी सम कम का समावेश 'य प स ' म कया गया है (१७।१४- १७)। – उपयु सम कम को भगवान्के अपण करना कसे कहते है? उ र – साधारण मनु क उन कम म ममता और आस होती है तथा वह उनम फलक कामना रखता है। अतएव सम कम म ममता, आस और फलक इ ाका ाग कर देना और यह समझना क सम जगत्, भगवान्का है, मेरे मन, बु , शरीर तथा इ य भी – 'यत् '

भगवान्के ह और म यं भी भगवान्का ँ , इस लये मेरे ारा जो कु छ भी य ा द कम कये जाते ह, वे सब भगवान्के ही ह। कठपुतलीको नचानेवाले सू धारक भाँ त भगवान् ही मुझसे यह सब कु छ करवा रहे ह और वे ही सब प म इन सबके भो ा भी ह; म तो के वल न म मा ँ – ऐसा समझकर जो भगवान्के आ ानुसार भगवान्क ही स ता- लये न ामभावसे उपयु कम का करना है, यही उन कम को भगवान्के अपण करना है। – पहले कसी दूसरे उ े से कये ए कम को पीछे से भगवान्को अपण करना, कम करते-करते बीचम ही भगवान्के अपण कर देना, कम समा होनेके साथ-साथ भगवान्के अपण कर देना अथवा कम का फल ही भगवान्के अपण करना – इस कारका अपण, वा वम अपण करना है या नह ? उ र – इस कारसे करना भी भगवान्के ही अपण करना है। पहले इसी कार होता है। ऐसा करते-करते ही उपयु कारसे पूणतया भगवदपण होता है। स



ज ासापर कहते ह –

इस कार सम कम को आपके अपण करनेसे

ा होगा, इस

शुभाशुभफलैरेवं मो से कमब नैः । सं ासयोगयु ा ा वमु ो मामुपै स ॥२८॥

इस कार, जसम सम कम मुझ भगवान्के अपण होते ह – ऐसे सं ासयोगसे यु च वाला तू शुभाशुभ फल प कमब नसे मु हो जायगा और उनसे मु होकर मुझको ही ा होगा॥२८॥ – 'एवम् ' पदके

स हत 'सं ास- योगयु ा ा ' का ा अ भ ाय है? उ र – 'एवम् ' पदके योगका यह भाव है क यहाँ 'सं ासयोग' पद सां योग अथात् ानयोगका वाचक नह है कतु पूव ोकके अनुसार सम कम को भगवान्के अपण कर देना ही यहाँ 'सं ासयोग' है। इस लये ऐसे सं ासयोगसे जसका आ ा यु हो, जसके मन और बु म पूव ोकके कथनानुसार सम कम भगवान्के अपण करनेका भाव सु ढ़ हो गया हो, उसे 'सं ासयोगयु ा ा ' समझना चा हये।

शुभाशुभफल प कमब नसे मु होना ा है और उनसे मु होकर भगवान्को ा होना ा है? उ र – भ - भ शुभाशुभ कम के अनुसार ग, नरक और पशु-प ी एवं मनु ा द लोक के अंदर नाना कारक यो नय म ज लेना तथा सुख-दुःख का भोग करना यही शुभाशुभ फल है, इसीको कमब न कहते ह; क कम का फल भोगना ही कमब नम पड़ना है। उपयु कारसे सम कम भगवान्के अपण कर देनेवाला मनु कमफल प पुनज से और सुख-दुःख के भोगसे मु हो जाता है, यही शुभाशुभ फल प कमब नसे मु हो जाना है। मरनेके बाद भगवान्के परमधामम प ँ च जाना या इसी ज म भगवान्को ा कर लेना ही उस कमब नसे मु होकर भगवान्को ा होना है। – ोकके कथनानुसार भगवदपण कम करनेवाला मनु अशुभकम तो करता ही नह , फर अशुभके फलसे छू टनेक बात यहाँ कै से कही गयी? उ र – इस कारके साधनम लगनेसे पहले, पूवके अनेक ज म और इस ज म भी उसके ारा जतने अशुभ कम ए ह एवं 'सवार ा ह दोषेण धूमेना रवावृता: ' के अनुसार व हत कम के करनेम जो आनुषं गक दोष बन जाते ह – उन सबसे भी कम को भगवदपण करनेवाला साधक मु हो जाता है। यही भाव दखलानेके लये शुभ और अशुभ दोन कारके कमफल से मु होनेक बात कही गयी है। – शुभ कम का फल ब नकारक बतलाया गया? उ र – पूव ोकके कथनानुसार जब सम शुभ कम भगवान्के अपण हो जाते ह, तब तो उनका फल भगव ा ही होता है। परंतु सकामभावसे कये ए शुभकम इस लोक और परलोकम भोग प फल देनेवाले होते ह। जन कम का फल भोग ा है वे पुनज म डालनेवाले और भोगे ा तथा आस से भी बाँधनेवाले होते ह। इस लये उनके फलको ब नकारक बतलाना ठीक ही है। परंतु इससे यह नह समझना चा हये क शुभ कम ा ह। शुभ कम तो करने ही चा हये, परंतु उनका कोई फल न चाहकर उ भगवदपण करते रहना चा हये। ऐसा करनेपर उनका फल ब नकारक न होकर भगव ा ही होगा। स – उपयु कारसे भगवान्क भ करनेवालेको भगवान्क ा होती है, दूसर को नह होती – इस कथनसे भगवान्म वषमताके दोषक आशंका हो सकती है। अतएव उसका नवारण करते ए भगवान् कहते है – –

ो ं



े े ो

समोऽहं सवभूतेषु न मे े ोऽ न यः । ये भज तु मां भ ा म य ते तेषु चा हम् ॥२९॥



म सब भूत म समभावसे ापक ँ न कोई मेरा अ य है और न य है; पर ु जो मुझको ेमसे भजते ह वे मुझम ह और म भी उनम कट ँ ॥२९॥ – 'म सब भूत म सम ँ ' तथा 'मेरा कोई अ ाय है?

य या य नह है' – इस कथनका

ाअभ उ र – इस कथनसे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क म ासे लेकर पय सम ा णय म अ यामी पसे समानभावसे ा ँ । अतएव मेरा सबम समभाव है कसीम भी मेरा राग- ेष नह है। इस लये वा वम मेरा कोई भी अ य या य नह है। – भ से भगवान्को भजना ा है तथा 'वे मुझम ह और म भी उनम कट ँ ', इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – भगवात्के साकार या नराकार – कसी भी पका ा और ेमपूवक नर र च न करना; उनके नाम, गुण, भाव, म हमा और लीला-च र का वण, मनन और क तन करना; उनको नम ार करना; प , पु आ द यथे साम य के ारा उनक ेमपूवक पूजा करना और अपने सम कम उनके समपण करना आ द सभी या का नाम भ पूवक भगवान्को भजना है। जो पु ष इस कार भगवान्को भजते ह, भगवान् भी उनको वैसे ही भजते ह। वे जैसे भगवान्को नह भूलते, वैसे ही भगवान् भी उनको नह भूल सकते – यही भाव दखलानेके लये भगवान्ने उनको अपनेम बतलाया है। और उन भ का वशु अ ःकरण भगव ेमसे प रपूण हो जाता है, इससे उनके दयम भगवान् सदा-सवदा दीखने लगते ह। यही भाव दखलानेके लये भगवान्ने अपनेको उनम बतलाया है। अ भ ाय यह है क इसी अ ायके चौथे और पाँचव ोक के अनुसार भगवान्का नराकार प सम चराचर ा णय म ा और सम चराचर ाणी उनम सदा त होनेपर भी भगवान्का अपने भ को अपने दयम वशेष पसे धारण करना और उनके दयम यं पसे नवास करना भ क भ के कारण ही होता है। इसीसे भगवान्ने दुवासाजीसे कहा है-

साधवो दयं म ं साधूनां दयं

हम्।

ीम ागवत ९।४।६८) 'साधु (भ ) मेरे दय ह और म उनका दय ँ । वे मेरे सवा और कसीको नह जानते तथा म उनको छोड़कर और कसीको क चत् भी नह जानता।' जैसे समभावसे सब जगह काश देनेवाला सूय दपण आ द पदाथ म त ब त होता है, का ा दम नह होता, तथा प उसम वषमता नह है, वैसे ही भगवान् भी भ को मलते ह, दूसर को नह मलते – इसम उनक वषमता नह है, यह तो भ क ही म हमा है। स – भगवान् भजन करनेवाल म अपना समभाव द शत करते ए अब अगले दो ोक म दुराचारीको भी शा त शा ा होनेक घोषणा करके अपनी भ क वशेष म हमा दखलाते ह – मद

े न जान

नाहं ते ो मनाग प॥ (

अ प चे दु रु ाचारो भजते मामन भाक् । साधुरेव स म ः स व सतो ह सः ॥३०॥

य द कोई अ तशय दरु ाचारी भी अन भावसे मेरा भ होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही माननेयो है; क वह यथाथ न यवाला है। अथात् उसने भलीभाँ त न य कर लया है क परमे रके भजनके समान अ कुछ भी नह है॥३०॥ – 'अ प ' का

योग कस अ भ ायसे कया गया हे? उ र – 'अ प ' के ारा भगवान्ने अपने समभावका तपादन कया है। अ भ ाय यह है क सदाचारी और साधारण पा पय का मेरा भजन करनेसे उ ार हो जाय – इसम तो कहना ही ा है, भजनसे अ तशय दुराचारीका भी उ ार हो सकता है। – 'चेत् ' अ यका योग यहाँ कया गया? उ र – 'चेत् ' अ य 'य द' के अथम है। इसका योग करके भगवान्ने यह भाव दखलाया है क ाय: दुराचारी मनु क वषय म और पाप म आस रहनेके कारण वे मुझम ेम करके मेरा भजन नह करते। तथा प कसी पूव शुभ सं ारक जागृ त, भगव ावमय वातावरण, शा के अ यन और महा ा पु ष के स ंगसे मेरे गुण, भाव, मह और

रह का वण करनेसे य द कदा चत् दुराचारी मनु क मुझम ा-भ हो जाय और वह मेरा भजन करने लगे तो उसका भी उ ार हो जाता है। – 'सुदरु ाचार: ' पद कै से मनु का वाचक है और उसका 'अन भाक् ' होकर भगवान्को भजना ा है? उ र – जनके आचरण अ दू षत ह , खान-पान और चाल-चलन ह , अपने भाव, आस और बुरी आदतसे ववश होनेके कारण जो दुराचार का ाग न कर सकते ह , ऐसे मनु का वाचक यहाँ 'सुदरु ाचार: ' पद हे। ऐसे मनु का जो भगवान्के गुण, भाव आ दके सुनने और पढ़नेसे या अ कसी कारणसे भगवान्को सव म समझ लेना और एकमा भगवान्का ही आ य लेकर अ तशय ा- ेमपूवक उ को अपना इ देव मान लेना है – यही उनका 'अन भाक् ' होना है। इस कार भगवान्का भ बनकर जो उनके पका च न करना, नाम, गुण, म हमा और भावका वण, मनन और क तन करना, उनको नम ार करना, प -पु आ द यथे व ु उनके अपण करके उनका पूजन करना तथा अपने कये ए शुभ कम को भगवान्के समपण करना है – यही 'अन भाक् ' होकर भगवान्का भजन करना है। – ऐसे मनु को 'साधु' समझनेके लये कहकर उसे जो यथाथ न यवाला बतलाया है इसम भगवान्का ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान् यह दखलाते ह क मेरा भ य द दुराचार के सवथा ागक इ ा और चे ा करनेपर भी भाव और अ ासक ववशतासे कसी दुराचारका पूणतया ाग न कर सकता हो, तो भी उसे दु न समझकर साधु ही समझना चा हये। क उसने जो यह ढ़ न य कर लया है क 'भगवान् प ततपावन, सबके सुहद,् सवश मान्, परम दयालु, सव , सबके ामी और सव म ह एवं उनका भजन करना ही मनु -जीवनका परम कत है; इससे सम पाप और पापवासना का समूल नाश होकर भगव ृ पासे मुझको अपने-आप ही भगव ा हो जायगी।' यह ब त ही उ म और यथाथ न य है। जसका ऐसा न य है वह मेरा भ है; और मेरी भ के तापसे वह शी ही पूण धमा ा हो जायगा। अतएव उसे पापी या दु न मानकर साधु ही मानना उ चत है। – सातव अ ायके पं हव ोकम तो भगवान्ने कहा है क 'दु ृ ती (दुराचारी) मनु मुझे नह भजते' और यहाँ दुराचारीके भजनका फल बतलाते ह। इस कार भगवान्के वचन म वरोध-सा तीत होता है, इसका ा समाधान है?

उ र – वहाँ जन दुराचा रय का वणन कया गया है वे के वल पाप ही नह करते। उनका न तो भगवान्म व ास है, न वे भगवान्को जानते ह और न पाप-कम से बचना ही चाहते ह। इसी लये उन ना क और मूढ़ पु ष के लये 'माययाप त ाना: ', 'नराधमाः ' और 'आसुरं भावमा ताः ' इ ा द वशेषण दये गये ह परंतु यहाँ जनका वणन है, इनसे पाप तो बनते ह पर ये उन पाप से छू टनेके लये ह। इनक भगवान्के गुण, भाव, प और नामम भ है तथा इ ने ढ़ व ासके साथ यह न य कर लया है क 'एकमा प ततपावन परम दयालु परमे र ही सबक अपे ा परम े ह। वे ही हमारे परम इ देव ह, उनका भजन करना ही मनु जीवनका परम कत है। उ क कृ पासे हमारे पाप का समूल नाश हो जायगा और हमको उनक सहज ही ा हो जायगी।' इसी लये इनको 'स व सत: ' और 'अन भाक् ' भ बतलाया गया है। अतएव इनके ारा भजन होना ाभा वक ही है। और ना क का भगवान्म व ास नह होता, इस लये उनके ारा भजन होना स व नह है। अतएव भगवान्के दोन वचन म कोई वरोध नह है। संगभेदसे दोन ही कथन ठीक ह।

ं भव त धमा ा श ा नग त । कौ ेय तजानी ह न मे भ ः ण त ॥३१॥

वह शी ही धमा ा हो जाता है और सदा रहनेवाली परम शा है। हे अजुन! तू न यपूवक स

जान क मेरा भ

को ा

होता

न नह होता॥३१॥

उपयु कारसे भगवान्का भजन करनेवाले भ का शी ही धमा ा बन जाना ा है? तथा 'श त् शा \' को ा होना ा है? उ र – इसी ज म ब त ही शी सब कारके दुगुण और दुराचार से र हत होकर सोलहव अ ायके पहले, दूसरे और तीसरे ोक म व णत दैवी स दासे यु हो जाना अथात् भगवान्क ा का पा बन जाना ही शी धमा ा बन जाना है। और जो सदा रहनेवाली शा है, जसक एक बार ा हो जानेपर फर कभी अभाव नह होता, जसे नै क शा (५।१२), नवाणपरमा शा (६।१५) और परमा शा (१८। ६२) कहते ह, परमे रक ा प उस शा को ा हो जाना ही 'श त् शा ' को ा होना है। –

है?

– ' त जानी ह '

पदका ा अथ है और इसके योगका यहाँ ा अ भ ाय

उ र – ' त ' उपसगके स हत ' ा ' धातुसे बना आ ' त जानी ह ' पद है। इसका अथ ' त ा करो' या ' ढ़ न य करो' होता है। यहाँ इसके योगसे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क 'अजुन! मने जो तु अपनी भ का और भ का यह मह बतलाया है, उसम तु क च ा भी संशय न रखकर उसे सवथा स समझना और ढ़तापूवक धारण कर लेना चा हये।' – 'मेरा भ न नह होता' इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – यहाँ ' ' उपसगके स हत 'न त ' याका भावाथ पतन होना है। अत: यहाँ भगवान्के कहनेका यह अ भ ाय है क मेरे भ का मश: उ ान ही होता रहता है, पतन नह होता। अथात् वह न तो अपनी तसे कभी गरता है और न उसको नीच यो न या नरका दक ा प दुग तक ही ा होती है; वह पूव कथनके अनुसार मश: दुगुण दुराचार से सवथा र हत होकर शी ही धमा ा बन जाता है और परमशा को ा हो जाता है। – ऐसे कसी भ का उदाहरण भी हे? ब

मंगल

उ र – अनेक उदाहरण ह। अभी हालका उदाहरण भ रसपूण ' ीकृ कणामृत' का के रच यता ी ब मंगलजीका है। द णके कृ वेणी नदीके तटपर एक ामम रामदासनामक भ ा ण नवास करते थे, ब मंगल उ के पु थे। पढ़े- लखे थे; शा , श , साधु भाव थे; परंतु पताके मरनेपर कु संगम पड़कर ये अ ही दुराचारी हो गये। वे ाके यहाँ पड़े रहना और दन-रात पापकमम रत रहना ही इनका काम हो गया। च ाम णनामक एक वे ापर ये अनुर थे। वे ा नदीके उस पार रहती थी। पताका ा था, इस लये ये दनम उसके घर नह जा सके । तन घरम था, पर मन वहाँ लगा था। ा का काम समा होते-होते शाम हो गयी। ये जानेको तैयार ए। लोग ने कहा, आज पताका ा है, मत जाओ। परंतु उनक कौन सुनता? दौड़े नदी तटपर प ँ चे। तूफान आ गया। मूसलधार पानी बरसने लगा। के वट ने डरकर नाव को कनारे बाँधकर पेड़ का आ य लया। बड़ी भयावनी रात हो गयी। इ ने के वट को समझाया, लालच दया; परंतु जान देनेको कौन तैयार

होता? इनक तो लगन ही दूसरी थी। कु छ भी आगा-पीछा न सोचकर ये नदीम कू द पड़े। कसी ीक सड़ी लाश बही जा रही थी, अँधेरेम कु छ सूझता तो था ही नह । फर ये तो उस समय कामा थे। इ ने समझा, लकड़ी है और उसे पकड़ लया। न मुदका खयाल, न दुग का; दैवयोगसे पार प ँ च गये और दौड़कर च ाम णके घर प ँ चे। घरका दरवाजा बंद था, पर इनक छटपटाहट तो अजीब थी। इ ने दीवाल फाँदकर अंदर जाना चाहा। हाथ बढ़ाया। एक रेशमका-सा कोमल र ा हाथ लग गया, वह था काला नाग सप; फन दीवालपर था, नीचेक ओर लटक रहा था। ये उसक पूँछ पकड़कर ऊपर चढ़ गये। भगवान्क लीला थी, साँपने इ काटा नह । इ ने जाकर च ाम णको जगाया। वह इ देखते ही सहमी-सी रह गयी। उसने कहा – 'तुम इस भयावनी रातम नदीपार होकर बंद घरम कै से आये?' ब मंगलने काठपर चढ़कर नदी पार होने और र ेक सहायतासे दीवालपर चढ़नेक कथा सुनायी! वृ थम चुक थी। च ाम ण दीपक हाथम लेकर बाहर आयी, देखती है तो दीवालपर भयानक काला नाग लटक रहा है और नदीके तीरपर सड़ा मुदा पड़ा है। ब मंगलने भी देखा और देखते ही वे काँप उठे । च ाम णने भ ना करके कहा क 'तू ा ण है? अरे! आज तेरे पताका ा था, परंतु एक हाड़- माँसक पुतलीपर तू इतना आस हो गया क अपने सारे धम-कमको तलांज ल देकर इस डरावनी रातम मुद और साँपक सहायतासे यहाँ दौड़ा आया! तू आज जसे परम सु र समझकर इस तरह पागल हो रहा है उसक भी एक दन तो वही दशा होनेवाली है जो तेरे आँ ख के सामने इस सड़े मुदक है! ध ार है तेरी इस नीच वृ को! अरे! य द तू इसी कार उस मनमोहन ामसु रपर आस होता – य द उससे मलनेके लये य छटपटाकर दौड़ता तो अबतक उसको पाकर अव ही कृ ताथ हो चुका होता! वे ाके उपदेशने जादूका काम कया। ब मंगलक दयत ी नवीन सुर से बज उठी। ववेकक आग धधकने लगी, उसने उसके क षको जला दया। अ ःकरणक शु होते ही भगवत्- ेमका समु उमड़ा और उनक आँ ख अ ु क अज -धारा बहने लगी। ब मंगलने च ाम णके चरण पकड़ लये और कहा क 'माता! तूने आज मुझको ववेक देकर कृ ताथ कर दया।' मन-ही-मन च ाम णको गु मानकर णाम कया। इसके बाद रातभर च ाम ण उनको भगवान् ीकृ क लीला गा-गा कर सुनाती रही। ब मंगलपर उसका बड़ा ही भाव पड़ा। वे ातःकाल होते ही जग ाम ण ीकृ के प व च नम नम होकर उ क भाँ त च ाम णके घरसे नकल पड़े। ब मंगलके जीवन-नाटकका परदा बदल गया। ब मंगल कृ वेणी नदीके तटपर रहने-वाले महा ा सोम ग रके पास गये

और उनसे गोपाल-म राजक दी ा पाकर भजनम लग गये। वे भगवान्का नाम-क तन करते ए वचरण करने लगे। मनम भगवान्के दशनक लालसा जाग उठी; परंतु अभी दुराचारी भावका सवथा नाश नह आ था। बुरे अ ाससे ववश होकर उनका मन फर एक युवतीक ओर लगा। ब मंगल उसके घरके दरवाजेपर जा बैठे। घरके मा लकने बाहर आकर देखा क एक म लनमुख ा ण बाहर बैठा है। उसने कारण पूछा। ब मंगलने कपट छोड़कर सारी घटना सुना दी और कहा क 'म एक बार उस युवतीको ाण भरकर देख लेना चाहता ँ , तुम उसे यहाँ बुलवा दो।' युवती उसी सेठक धमप ी थी। सेठने सोचा क इसम हा न ही ा हे, य द उसके देखनेसे ही इसक तृ होती हो तो अ ी बात है। साधु- भाव सेठ अपनी प ीको बुलानेके लये अंदर गया। इधर ब मंगलके मन-समु म तरह-तरहक तरंग का तूफान उठने लगा। ब मंगल भगवान्के भ बन चुके थे, उनका पतन कै से होता? दीनव ल भगवान्ने अ ाना ब मंगलको ववेकच ु दान कये; उनको अपनी अव ाका यथाथ भान हो गया, दय शोकसे भर गया और न मालूम ा सोचकर उ ने पासके बेलके पेड़से दो काँटे तोड़ लये। इतनेम ही सेठक धमप ी वहाँ आ प ँ ची, ब मंगलने उसे फर देखा और मनही-मन अपनेको ध ार देकर कहने लगे क 'अभागी आँ ख'! य द तुम न होती तो आज मेरा इतना पतन होता? इतना कहकर ब मंगलने, चाहे यह उनक कमजोरी हो या और कु छ, उस समय उन चंचलने को द देना ही उ चत समझा और त ाल उन दोन काट को दोन आँ ख म भ क लया! आँ ख से धरक धार बहने लगी! ब मंगल हँ सते और नाचते ए तुमुल ह र नसे आकाशको गुँजाने लगे। सेठको और उनक प ीको बड़ा दुःख आ, परंतु वे बेचारे न पाय थे। ब मंगलका बचा-खुचा च -मल भी आज सारा न हो गया और अब तो वे उस अनाथके नाथको अ त शी पानेके लये अ ही ाकु ल हो उठे । परम यतम ीकृ के वयोगक दा ण थासे उनक फू टी औख ने चौबीस घंटे आँ सु क झड़ी लगा दी। न भूखका पता है न ासका, न सोनेका ान है और न जागनेका! 'कृ -कृ ' क पुकारसे दशा को गुँजाते ए ब मंगल जंगल-जंगल और गाँव-गाँवम घूम रहे ह। जस दीनब ुके लये जानबूझकर आँ ख फोड़ी, जस यतमको पानेके लये ऐशआरामपर लात मारी, वह मलनेम इतना वल करे – यह भला कसीसे कै से सहन हो? ऐसी दशाम ेममय ीकृ कै से न रह सकते ह? एक छोटे-से गोप-बालकके वेशम भगवान् ब मंगलके पास आकर अपनी मु नमन- मो हनी मधुर वाणीसे बोले, 'सूरदासजी! आपको

बड़ी भूख लगी होगी। म कु छ मठाई लाया ँ , जल भी लाया ँ ; आप इसे हण क जये।' ब मंगलके ाण तो बालकके उस मधुर रसे ही मोहे जा चुके थे, उसके हाथका दुलभ साद पाकर तो उनका दय हषके हलोर से उछल उठा! ब मंगलने बालकसे पूछा, 'भैया! तु ारा घर कहाँ है? तु ारा नाम ा है? तुम ा कया करते हो?' बालकने कहा 'मेरा घर पास ही है। मेरा कोई खास नाम नह ; जो मुझे जस नामसे पुकारता है म उसीसे बोलता ँ , गाय चराया करता ँ । मुझसे जो ेम करते ह म भी उनसे ेम करता ँ ।' ब मंगल बालकक मधुर वाणी सुनकर वमु हो गये। बालक जाते-जाते कह गया क 'म रोज आकर आपको भोजन करवा जाया क ँ गा।' ब मंगलने कहा, 'बड़ी अ ी बात है, तुम रोज आया करो।' बालक चला गया और ब मंगलका मन भी साथ लेता गया। बालक रोज आकर भोजन करा जाता। ब मंगलने यह तो नह समझा क मने जसके लये फक रीका बाना लया और आँ ख म काँटे चुभाये, यह बालक वही है; परंतु उस गोप बालकने उनके दयपर इतना अ धकार अव जमा लया क उनको दूसरी बातका सुनना भी अस हो उठा! एक दन ब मंगल मन-ही-मन वचार करने लगे क 'सारी आफत छोड़कर यहाँतक आया, यहाँ यह नयी आफत लग गयी। ीके मोहसे का तो इस बालकके मोहम फँ स गया'। य सोच ही रहे थे क वह र सक बालक उनके पास आ बैठा और अपनी दीवाना बना देनेवाली वाणीसे बोला, 'बाबाजी! चुपचाप ा सोचते हो? वृ ावन चलोगे?' वृ ावनका नाम सुनते ही ब मंगलका दय हरा हो गया, परंतु अपनी असमथता कट करते ए बोले क 'भैया! म अंधा, वृ ावन कै से जाऊँ ?' बालकने कहा, 'यह लो मेरी लाठी, म इसे पकड़े-पकड़े तु ारे साथ चलता ँ ।' ब मंगलका चेहरा खल उठा, लाठी पकड़कर भगवान् भ के आगे-आगे चलने लगे। ध दयालुता! भ क लाठी पकड़कर माग दखाते ह। थोड़ी-सी देरम बालकने कहा, 'लो'! वृ ावन आ गया, अब म जाता ँ '। ब मंगलने बालकका हाथ पकड़ लया। हाथका श होते ही सारे शरीरम बजली-सी दौड़ गयी, सा क काशसे सारे ार का शत हो उठे ; ब मंगलने द पायी और उ ने देखा क बालकके पम सा ात् मेरे ामसु र ही ह। ब मंगलका शरीर पुल कत हो गया, आँ ख से ेमके आँ सु क अनवरत धारा बहने लगी। भगवान्का हाथ उ ने और भी जोरसे पकड़ लया और कहा क अब पहचान लया है, ब त दन के बाद पकड़ सका ँ । भो! अब नह छोड़नेका! भगवान्ने कहा, 'छोड़ते हो क नह ?' ब मंगलने कहा, 'नह , कभी नह , कालम भी नह । '

भगवान्ने जोरसे झटका देकर हाथ छु ड़ा लया। भला, जसके बलसे बला ता होकर मायाने सारे जगत्को पदद लत कर रखा है, उसके बलके सामने बेचारे अंधे ब मंगल ा कर सकते थे? पर उ ने एक ऐसी डोरीसे उनको बाँध लया था क जससे छू टकर जाना उनके लये बड़ी टेढ़ी बात थी। हाथ छु ड़ाते ही ब मंगलने कहा – 'जाते हो? पर रण रखो!' ह मु

यातोऽ स बला ृ

कमदभु ् तम्।

दया द नया स पौ षं गणया म ते॥ 'हे कृ

। तुम बलपूवक मुझसे हाथ छु ड़ाकर जाते हो इसम ा आ य है? म तु ारी वीरता तो तब समझूँ जब तुम मेरे दयसे नकलकर जाओ।' ब मंगल अ दुराचारी थे, भ बने और पतनका कारण सामने आनेपर भी बच गये तथा अ म भगवान्को ा करके कृ ताथ हो गये। वृ ावन जाते समय इ ने रा ेम भावावेशके समय जन मधुर प क रचना क है उ का नाम ' ीकृ कणामृत' है। उसके पहले ही ोकम च ाम णको गु बताकर उनक व ना क हैच ाम णजय त सोम ग रगु म श ागु

भगवा

य ादक

त प

खप

मौ लः।

वशेखरेषु

लीला यंवररसं लभते जय ी:॥ 'मेरे मोहको दूर करनेवाली

च ाम ण वे ा और दी ागु सोम ग रक जय हो! तथा सरपर मयूर प धारण करनेवाले मेरे श ागु भगवान् ीकृ क जय हो! जनके चरण पी क वृ के प के शखर म वजयल ी लीलासे यंवरसुखका लाभ करती है (अथात् भ क इ ाको पूण करनेवाले जनके चरण म वजयल ी सदा अपनी इ ासे नवास करती है)!' ीशुकदेवजीक भाँ त ी ब मंगलजीने भी भगवान् ीकृ क मधुमयी लीलाका आ ादन कया था, इसीसे इनका एक नाम 'लीलाशुक' भी है।

इस कार सदाचा रता और दुराचा रताके कारण होनेवाली वषमताका अपनेम अभाव दखलाकर अब दो ोक म भगवान् अ ी-बुरी जा तके कारण होनेवाली वषमताका अपनेम अभाव दखलाते ए शरणाग त प भ का मह तपादन करके अजुनको भजन करनेक आ ा देते ह – स



मां ह पाथ पा येऽ प ःु पापयोनयः । यो वै ा था शू ा ेऽ प या परां ग तम् ॥३२॥

हे अजुन! ी, वै , शू तथा पापयो न – चा शरण होकर परमग तको ही ा होते ह॥३२॥

ाला द जो कोई भी ह , वे भी मेरी

– 'पापयोनय: ' पद यहाँ

कसका वाचक है? उ र – पूवज के पाप के कारण चा ाला द यो नय म उ ा णय को 'पापयो न' माना गया है। इनके सवा शा के अनुसार ण, भील, खस, यवन आ द े जा तके मनु भी 'पापयो न' ही माने जाते ह। यहाँ 'पापयो न' पद इ सबका वाचक है। भगवान्क भ के लये कसी जा त या वणके लये कोई कावट नह है। वहाँ तो शु ेमक आव कता है। ऐसी जा तय म ाचीन और अवाचीन कालम भगवान्के अनेक ऐसे महान् भ हो चुके ह, ज ने अपनी भ के तापसे भगवान्को ा कया था। इनम नषादजातीय गुह आ दके नाम तो अ स ह। [43]

नषादराज गुह

नषादजातीय गुह ृंगवेरपुरम भील के राजा थे। ये भगवान्के बड़े ही भ थे। भगवान् ीरघुनाथजी जब ीसीताजी और ल णजी-स हत वन पधारे, तब उ ने इनका आ त ीकार कया था। भगवान् इनको अपना सखा मानते थे। इसीसे भरतजीने इनको अपने दयसे लगा लया था – करत दंडवत दे ख ते ह भरत ली उर लाइ। मन ँ लखन सन भट भइ ेभु न दयँ समाइ॥

ा हा न है?

– य द 'पापयोनय:' पदको

ी, वै और शू का वशेषण मान लया जाय तो

उ र – वै क गणना ज म क गयी है। उनको वेद पढ़नेका और य ा द वै दक कम के करनेका शा म पूण अ धकार दया गया है। अत: ज होनेके कारण वै को 'पापयो न' कहना नह बन सकता। इसके अ त र छा ो ोप नषदम् जहाँ जीव क कमानु प ग तका वणन हे, यह कहा गया है कत इह रमणीयचरणा अ ाशो ह य े रमणीयां यो नमाप ेरन् ा णयो न वा ययो न वा वै यो न वाथ य इह कपूयचरणा अ ाशो ह य े कपूयां यो नमाप ेर वयो न वा सूकरयो न वा चा ालयो न वा॥ (अ ाय ५, ख १०, मं० ७) 'उन जीव म जो इस लोकम रमणीय आचरणवाले अथात् पु

ा ा होते ह, वे शी ही उ मयो न – ा णयो न, ययो न अथवा वै यो नको ा करते ह और जो इस संसारम कपूय (अधम) आचरणवाले अथात् पापकमा होते ह, वे अधम यो न अथात् कु ेक , सूकरक या चा ालक यो नको ा करते ह।' इससे यह स है क वे क गणना 'पापयो न' म नह क जा सकती। अब रही य क बात – सो ा ण, य और वै क य का अपने प तय के साथ य ा द वै दक कम म अ धकार माना गया है। इस कारणसे उनको भी पापयो न कहना नह बन सकता। सबसे बड़ी अड़चन तो यह पड़ेगी क भगवान्क भ से चा ाल आ दको भी परमग त मलनेक बात, जो क सवशा स त है और जो भ के मह को कट करती है, वह कै से रहेगी, अतएव 'पापयोनय: ' पद ी, वै और शू का वशेषण न मानकर शू क अपे ा भी हीनजा तके मनु का वाचक है – ऐसा मानना ही ठीक तीत होता है। ी, वै और शू म भी अनेक भ ए ह, संकेतमा बतलानेके लये यहाँ य प ी, समा ध और संजयक चचा क जाती हे – [44]

य प ी

वृ ावनम कु छ ा ण य सखा ने जाकर उनसे अ माँगा। या इनक प य के पास गये; वे ीकृ लेकर ीकृ के समीप गय । एक

कर रहे थे। भगवान् ीकृ क अनुम तसे उनके क ऋ षय ने उनको फटकार कर नकाल दया। तब वे का नाम सुनते ही स हो गय और भोजन-साम ी ा णने अपनी प ीको नह जाने दया, जबरद ी

पकड़कर बंद कर दया। उसका ेम इतना उमड़ा क वह भगवान्के सुने ए पका ान करती ई देह छोड़कर सबसे पहले ीकृ को ा हो गयी ( ीम ागवत १०। २३)। समा ध

समा ध ु मण नामक धनी वै के पु थे। इनको इनके ी-पु ने धनके लोभसे घरसे नकाल दया था। ये वनम चले गये, वहाँ सुरथ नामक राजासे इनक भट ई। वे भी म य , सेनाप तय और जन से ही धोखा खाकर वनम भाग आये थे। दोन क एक-सी ही दशा थी। आ खर दोन ने ही स दान मयी भगवतीक शरण ली और वे दोन वषय क आस का ाग करके भगवतीक आराधना करने लगे। तीन वष आराधना करनेपर उ भगवतीने दशन दये और वर माँगनेको कहा। राजा सुरथके मनम भोग-वासना शेष थी, इससे उ ने भोग क याचना क । परंतु समा धका मन वैरा यु था, वे संसारक णभंगुरता और दुःख पताको जान चुके थे, अतएव उ ने भगव के ानक याचना क । भगवतीक कृ पासे उनका अ ान न हो गया और उनको भगव के ानक ा हो गयी (माक ये पुराण १८। ९३; वैवतपुराण ० ६२। ६३)। संजय

संजय गाव ण नामक सूतके पु थे। ये बड़े शा , श , ान व ानस , सदाचारी, नभय, स वादी, जते य, धमा ा, भाषी और ीकृ के परम भ तथा उनको त से जाननेवाले थे। अजुनके साथ संजयक लड़कपनसे म ता थी, इसीसे अजुनके अ ःपुरम संजयको चाहे जब वेश करनेका अ धकार ा था। जस समय संजय कौरव क ओरसे पा व के यहाँ गये, उस समय अजुन अ ःपुरम थे; वह भगवान् ीकृ और देवी ौपदी तथा स भामा थ । संजयने वापस लौटकर वहाँका बड़ा सु र वणन कया है (महा०, उ ोग० ५९)। महाभारत-यु म भगवान् वेद ासजीने इनको द दी थी, जसके भावसे इ ने धृतरा को यु का सारा हाल सुनाया था। मह ष ास, संजय, वदुर और भी आ द कु छ ही ऐसे महानुभाव थे, जो भगवान् ीकृ के यथाथ पको पहचानते थे। धृतरा के पूछनेपर संजयने कहा था क 'म ीपु ा दके मोहम पड़कर अ व ाका सेवन नह करता, म भगवान्के अपण कये बना वृथा

धमका आचरण नह करता, म शु भाव और भ योगके ारा ही जनादन ीकृ के पको यथाथ जानता ँ ।' भगवान्का प और परा म बतलाते ए संजयने कहा – 'उदार दय ीवासुदेवके च का म भाग पाँच हाथ व ारवाला है, परंतु भगवान्के इ ानुकूल वह चाहे जतना बड़ा हो सकता है। वह तेजःपुंजसे का शत च सबके सारासार बलक थाह लेनेके लये बना है। वह कौरव का संहारक और पा व का यतम है। महाबलवान् ीकृ ने लीलासे ही भयानक रा स नरकासुर, श रासुर और अ भमानी कं स- शशुपालका वध कर दया; परम ऐ यवान् सु र- े ीकृ मनके संक से ही पृ ी, अ र और गको अपने वशम कर सकते ह '।......एक ओर सारा जगत् हो और दूसरी ओर अके ले ीकृ ह तो सार पम वही उस सबसे अ धक ठहरगे। वे अपनी इ ामा से ही जगत्को भ कर सकते ह परंतु उनको भ करनेम सारा व भी समथ नह है। यत: स ं यती धम यतो ीराजवं यत:। ततो भव त गो व ो यत: कृ

तो जय:॥ (महा० उ ोग० ६८।१)

जहाँ स है, जहाँ धम है, जहाँ ई र वरोधी कायम ल ा है और जहाँ हदयक सरलता होती है, वह ीकृ रहते ह, और जहाँ ीकृ रहते ह, वह नःस ेह वजय है। सवभूता ा पु षो म ीकृ लीलासे पृ ी, अ र और गका संचालन कया करते ह; वे ीकृ सब लोग को मो हत करते ए-से पा व का बहाना करके तु ारे अधम मूख-पु को भ करना चाहते ह। भगवान् ीकृ अपने भावसे काल- च , जगत्- च और युग-च को सदा घुमाया करते ह। म यह स कहता ँ क भगवान् ीकृ ही काल, मृ ु और ावरजंगम प जगत्के एकमा अधी र ह। जैसे कसान अपने ही बोये ए खेतको (पक जानेपर) काट लेता है, उसी कार महायोगे र ीकृ सम जगत्के पालनकता होनेपर भी यं उसका संहार प कम भी करते ह। वे अपनी महामायाके भावसे सबको मो हत करते ह परंतु जो मनु उनक शरण हण कर लेते ह, वे मायासे कभी मोहको ा नह होते' – ये तमेव प े न ते मु मानवा:। (महा०, उ ोग० ६८।१५) फर इ ने भगवान् ीकृ के नाम और उनके बड़े सु र अथ धृतरा को सुनाये। संजयने भी महाभारत-यु के न होने देनेक ब त चे ा क , परंतु वे उसे रोक नह सके । धृतरा जब वन जाने लगे तो संजय भी उ के साथ चले गये। – यहाँ दो बार 'अ प ' के योगका ा भाव है?

उ र – यहाँ 'अ प ' का दो बार योग करके भगवान्ने ऊँ ची-नीची जा तके कारण होनेवाली वषमताका अपनेम सवथा अभाव दखलाया है। भगवान्के कथनका यहाँ यह अ भ ाय तीत होता है क ा ण और य क अपे ा हीन समझे जानेवाले ी, वै और शू एवं उनसे भी हीन समझे जानेवाले चा ाल आ द कोई भी ह , मेरी उनम भेदबु नह है। मेरी शरण होकर जो कोई भी मुझको भजते ह उ को परमग त मल जाती है। – यहाँ 'भगवान्क शरण होना', ा है? उ र – भगवान्पर पूण व ास करके च तीसव ोकके कथनानुसार ेमपूवक सब कारसे भगवान्क शरण हो जाना अथात् उनके ेक वधानम सदा स ु रहना, उनके नाम, प, गुण, लीला आ दका नर र वण, क तन और च न करते रहना, उ को अपनी ग त, भता, भु आ द मानना, ा- भ पूवक उनका पूजन करना, उ नम ार करना, उनक आ ाका पालन करना और सम कम उ के समपण कर देना आ द भगवान्क शरण होना है। – इस कार भगवान्क शरण हो जानेवाले भ का 'परम ग त' को ा होना ा है? उ र – सा ात् परमे रको ा हो जाना ही परम ग तको ा होना है। अ भ ाय यह है क उपयु कारसे भगवान्क शरण हण करनेवाले ी-पु ष कसी भी जा तके न ह , उनको भगवान्क ा हो जाती है।

क पुन ा णाः पु ा भ ा राजषय था । अ न मसुखं लोक ममं ा भज माम् ॥३३॥

फर इसम तो कहना ही शरण होकर परम ग तको ा मनु शरीरको ा

ा है, जो पु शील ा ण तथा राज ष भ जन मेरी होते ह। इस लये सुखर हत और णभंगुर इस

होकर नर र मेरा ही भजन कर॥३३॥

– ' कम् ' और 'पुन: ' के

योगका ा अ भ ाय है? उ र – ' कम् ' और 'पुन: ' का योग करके भगवान्ने यह भाव दखलाया है क जब उपयु अ दुराचारी (९।३०), और चा ाल आ द नीच जा तके मनु भी (९।३२), मेरा भजन करके परम ग तको ा हो जाते ह, तब फर जनके आचार- वहार और वण अ

उ म ह ऐसे मेरे भ पु शील ा ण और राज षलोग मेरी शरण होकर परमग तको ा हो जायँ – इसम तो कहना ही ा है! – 'पुणयाः ' पदका ा अथ है और यह वशेषण ा ण का है या ा ण और राज ष – दोन का? उ र – जनका भाव और आचरण प व और उ म हो, उनको 'पु ' (प व ) कहते ह। यह वशेषण ा ण का है; क जो राजा होकर ऋ षय -जैसे शु भाव और उ म आचरण वाले ह , उ को 'राज ष' कहते ह। अत: उनके साथ 'पु ा: ' वशेषण देनेक आव कता नह है। – 'भ ा: ' पदका स कसके साथ है? उ र – 'भ ा: ' पदका स ा ण और राज ष दोन के ही साथ है क यहाँ भ के ही कारण उनको परम ग तक ा बतलायी गयी है। ा ण और राज षय म तो अग णत भ ए ह। इनक म हमाका द शन करानेमा के लये यहाँ मह ष सुती ण और राज ष अ रीषक चचा क जाती है। सुती ण

मह ष सुती ण द कार म रहते थे, ये अग जीके श थे। ये बड़े तप ी, तेज ी और भ थे। इ ने दु नामक एक वै का, जो अपने पाप के कारण पशाच हो गया था, उ ार कया था ( ०, ० २२)। ये भगवान् ीरामजीके अन भ थे। जब इ ने सुना क भगवान् ीरघुनाथजी जग ननी ीजानक जीस हत इधर ही पधार रहे ह तो इनके आन क सीमा न रही। ये भाँ त भाँ तके मनोरथ करते ए सामने चले। ेमम बेसुध हो गये। म कौन ँ कह जा रहा ँ , यह कौन दशा है, रा ा है क नह , सब भूल गये। कभी पीछे घूमकर फर आगे चलने लगते, कभी भुके गुण गा-गाकर नाचने लगते। भगवान् ीरघुनाथजी पेडक आड़म छपकर भ क ेमो ाद-दशाको देख रहे थे। मु नका अ ेम देखकर भवभयहारी भगवान् मु नके दयम कट हो गये। दयम भगवान्के दशन पाकर सुती णजी रा ेके बीचम ही अचल होकर बैठ गये। हषके मारे उनका शरीर पुल कत हो गया। तब ीरघुनाथजी उनके पास आकर उनक ेमदशा देखकर ब त ही स ए।

(

ीरघुनाथजीने मु नको ब त कारसे जगाया; परंतु मु न नह जागे। उ भुके ानका सुख ा हो रहा था। जब ीरामजीने अपना वह प दयसे हटा लया, तब ाकु ल होकर उठे । आँ ख खोलते ही उ ने अपने सामने ीसीताजी और ल णजीस हत ामसु र सुखधाम ीरामजीको देखा। तप ाका फल ा हो गया। वे ध हो गये। ीरामच रतमानस- अर का ) अ रीष

राज ष अ रीष वैव त मनुके पौ महाराज नाभागके तापी पु थे। ये च वत स ाट् थे। पर ु वे इस बातको जानते थे क यह सारा ऐ य म देखे ए पदाथ क भाँ त असत् है, इस लये उ ने अपना सारा जीवन परमा ाके चरण म अपण कर दया था। उनक सम इ याँ मनस हत सदा-सवदा भगवान्क सेवाम ही लगी रहती थ । एक समय राजाने रानीसमेत ीकृ क ी तके लये एक वषक एकाद शय के तका नयम लया। अ म एकादशीके दूसरे दन व धवत् भगवान्क पूजा क गयी। राजा पारण करना ही चाहते थे क ऋ ष दुवासा अपने श स हत पधारे। राजाने सब कारसे दुवासाजीका स ार कर उनसे भोजन करनेके लये ाथना क । ऋ षने भोजन करना ीकार कया और वे म ा नका न कम करनेके लये यमुनाजीके तटपर चले गये। ादशी के वल एक ही घडी़ बाक थी। ादशीम पारण न होनेसे त-भंग होता है। राजाने ा ण से व ा लेकर ीह रके चरणोदकसे पारण कर लया और भोजन करानेके लये दुवासाजीक बाट देखने लगे। दुवासाजी अपनी न या से नवृत होकर राजम रम लौटे और अपने तपोबलसे राजाके पारण कर लेनेक बात जानकर अ ोधसे ौरी चढ़ाकर अपराधीक तरह हाथ जोड़े सामने खड़े ए राजासे कहने लगे – 'अहो! इस धनमदसे अ अधम राजाक धृ ता और धमके नरादरको तो देखो! अब यह व ुका भ नह है। यह तो अपनेको ही ई र मानता है। मुझ अ त थको नम ण देकर इसने मुझे भोजन कराये बना ही यं भोजन कर लया! इसे अभी इसका फल चखाता ँ ।' य कहकर दुवासाजीने म कसे एक जटा उखाड़कर जोरसे उसे पृ ीपर पटका, जससे त ाल काला के समान कृ ा नामक एक भयानक रा सी कट हो गयी और वह अपने चरण क चोटसे पृ ीको कं पाती ई तलवार हाथम लये राजाक ओर झपटी। परंतु भगवान्पर ढ़ भरोसा रखनेवाले अ रीष -के - वहाँ खड़े रहे, वे न पीछे हटे

और न उ कसी कारका भय ही आ। जो सम संसारम परमा ाको ापक समझता है वह कससे डरे और कै से डरे? कृ ा अ रीषतक प ँ च ही नह पायी थी क भगवान्के सुदशनच ने कृ ाको उसी ण ऐसे भ कर दया जैसे च दावानल कु पत सपको भ कर डालता है। अब सुदशन ऋ ष दुवासाक खबर लेनेके लये उनके पीछे चला। दुवासा बड़े घबड़ाये और ाण लेकर भागे। च उनके पीछे-पीछे चला। दुवासा दस दशा और चौदह भुवन म भटके । परंतु कह भी उ ठहरनेको ठौर नह मली। कसीने भी उ आ य और अभयदान नह दया। अ म बेचारे वैकु म गये और भगवान् ी व ुके चरण म पड़कर गड़ गड़ाते ए बोले – 'हे भो! मने आपके भावको न जानकर आपके भ का अपमान कया है मुझे इस अपराधसे छु ड़ाइये। आपके नामक तनमा से ही नरकके जीव भी नरकके क से छू ट जाते ह अतएव मेरा अपराध मा क जये।' भगवान्ने कहा – 'हे ा ण। म भ के अधीन ँ , त नह ँ । मुझे भ जन बड़े य ह, मेरे दयपर उनका पूण अ धकार है। ज ने मुझको ही अपनी परमग त माना है उन अपने परमभ स ु ष के सामने म अपने आ ा और स ूण ी (या अपनी ल ी)-को भी कु छ नह समझता। जो भ (मेरे लये) ी, पु , वर प रवार, धन, ाण, इस लोक और परलोक सबको ाग कर के वल मेरा ही आ य लये रहते ह, उ म कै से छोड़ सकता ँ ? जैसे प त ता ी अपने शु ेमसे े प तको वशम कर लेती है उसी कार मुझम च लगानेवाले सव समदश भ जन भी अपनी शु भ से मुझे अपने वशम कर लेते ह। काल पाकर न होनेवाले गा द लोक क तो गनती ही ा है, मेरी सेवा करनेपर उ जो चार कारक (सालो , सामी , सा और सायु ) मु मलती है, उसे भी वे हण नह करते! मेरे ेमके सामने वे सबको तु समझते ह।' अ म भगवान्ने कहा – 'तु अपनी र ा करनी हो तो हे न्! तु ारा क ाण हो, तुम उसी महाभाग राजा अ रीषके समीप जाओ और उससे मा माँगो; तभी तुमको शा मलेगी।' भगवान्क आ ा पाकर दुवासाजी लौट चले। इधर भ शरोम ण अ रीषक व च अव ा थी। जबसे दुवासाजीके पीछे च चला था तभीसे राज ष अ रीष ऋ षके स ापसे स हो रहे थे। अ रीषजीने मनम सोचा, ा ण भूखे गये ह ओर मेरे ही कारण उ मृ ुभयसे होकर इतना दौड़ना पड़ रहा है; इस अव ाम मुझे भोजन करनेका ा

अ धकार है? य वचारकर राजाने उसी णसे अ ाग दया और वे के वल जल पीकर रहने लगे। दुवासाजीके लौटकर आनेम पूरा एक वष बीत गया, परंतु अ रीषजीका त नह टला। दुवासाजीने आते ही राजाके चरण पकड़ लये। राजाको बड़ा संकोच आ। उ ने बड़ी वनयके साथ सुदशनक ु त करते ए कहा, 'य द मेरे मनम दुवासाजीके त जरा भी ेष न हो और सब ा णय के आ ा ीभगवान् मुझपर स ह तो आप शा हो जायँ और ऋ षको संकटसे मु कर!' सुदशन शा हो गया। दुवासाजी भय पी अ से जल रहे थे, अब वे ए और उनके चेहरेपर हष और कृ त ताके च पसे कट हो गये! ( ीम ागवत, नवम , अ ाय ४-५) – इस सुखर हत और णभंगुर शरीरको पाकर तू मेरा ही भजन कर – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – मनु देह ब त ही दुलभ है। यह बड़े पु बलसे और खास करके भगवान्क कृ पासे मलता है और मलता है के वल भगव ा के लये ही। इस शरीरको पाकर जो भगव ा के लये साधन करता है, उसीका मनु जीवन सफल होता है। जो इसम सुख खोजता है, वह तो असली लाभसे वं चत ही रह जाता है। क यह सवथा सुखर हत हे, इसम कह सुखका लेश भी नह हे। जन वषयभोग के स को मनु सुख प समझता हे, वह बार- बार ज -मृ ुके च रम डालनेवाला होनेके कारण व ुत: दुःख प ही है। अतएव इसको सुख प न समझकर यह जस उ े क स के लये मला है, उस उ े को शी -सेशी ा कर लेना चा हये। क यह शरीर णभंगुर है; पता नह , कस ण इसका नाश हो जाय! इस लये सावधान हो जाना चा हये। न इसे सुख प समझकर वषय म फँ सना चा हये और न इसे न समझकर भजनम देर ही करनी चा हये। कदा चत् अपनी असावधानीम यह थ ही न हो गया तो फर सवा पछतानेके और कु छ भी उपाय हाथम नह रह जायगा। ु त कहती है – इह चेदवेदीदथ स म न चे दहावेदी हती वन :। (के नोप नषद ् २।५) 'य द इस मनु ज म परमा ाको जान लया तब तो ठीक है और य द उसे इस ज म नह जाना तब तो बड़ी भारी हा न हे।' इसी लये भगवान् कहते ह क ऐसे शरीरको पाकर न - नर र मेरा भजन ही करो। णभर भी मुझे मत भूलो।

– 'माम् ' ा हेतु हे?

पद कसका वाचक है तथा उसको भजना ा है और भजनके लये

आ ा देनेम उ र – 'माम् ' पद यहाँ सगुण परमे रका वाचक है और अगले ोकम बतलायी ई व धसे भगवान्के परायण हो जाना अथात् अपने मन, बु , इ य और शरीर आ दको भगवान्के ही समपण कर देना उनका भजन करना है। और भजनसे ही भगवान्क ा शी होती है तथा भगव ा म ही मनु जीवनके उ े क सफलता है, इसी हेतुसे भजन करनेके लये कहा गया है।

पछले ोक म भगवान्ने अपने भजनका मह दखलाया और अ म अजुनको भजन करनेके लये कहा। अतएव अब भगवान् अपने भजनका अथात् शरणाग तका कार बतलाते ए अ ायक समा करते ह – स



म ना भव म ो म ाजी मां नम ु । मामेवै स यु ैवमा ानं म रायणः ॥३४॥

मुझम मनवाला हो, मेरा भ बन, मेरा पूजन करनेवाला हो, मुझको णाम कर। इस कार आ ाको मुझम नयु करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही ा होगा॥ ३४॥ – भगवान्म मनवाला होना

ा है? उ र – भगवान् ही सवश मान्, सव , सवलोकमहे र सवातीत सवमय, नगुणसगुण, नराकार-साकार, सौ य, माधुय और ऐ यके समु और परम ेम प ह – इस कार भगवान्के गुण, भाव, त और रह का यथाथ प रचय हो जानेसे जब साधकको यह न य हो जाता है क एकमा भगवान् ही हमारे परम ेमा द ह, तब जगत्क कसी भी व ुम उसक जरा भी रमणीय-बु नह रह जाती। ऐसी अव ाम संसारके कसी दुलभ-से-दुलभ भोगम भी उसके लये कोई आकषण नह रहता। जब इस कारक त हो जाती है, तब ाभा वक ही इस लोक और परलोकक सम व ु से उसका मन सवथा हट जाता है और वह अन तथा परम ेम और ाके साथ नर र भगवान्का ही च न करता रहता है। भगवान्का यह ेमपूण च न ही उसके ाण का आधार होता है वह णमा क भी उनक

व ृ तको सहन नह कर सकता। जसक ऐसी त हो जाती है उसीको भगवान्म मनवाला कहते ह। – भगवान्का भ होना ा है? उ र – भगवान् ही परमग त ह, वे ही एकमा भता और ामी ह, वे ही परम आ य और परम आ ीय संर क ह, ऐसा मानकर उ पर नभर हो जाना, उनके ेक वधानम सदा ही स ु रहना, उ क आ ाका अनुसरण करना, भगवान्के नाम, प, गुण, भाव, लीला आ दके वण क तन, रण आ दम अपने मन, बु और इ य को नम रखना और उ क ी तके लये ेक काय करना – इसीका नाम भगवान्का भ बनना है। – भगवान्का पूजन करना ा है? उ र – भगवान्के म र म जाकर उनके मंगलमय व हका यथा व ध पूजन करना, सु वधानुसार अपने-अपने घर म इ प भगवान्क मू त ा पत करके उसका व धपूवक ा और ेमके साथ पूजन करना, अपने दयम या अ र म अपने सामने भगवान्क मान सक मू त ा पत करके उसक मानस- पूजा करना, उनके वचन का, उनक लीलाभू मका और च पट आ दका आदर-स ार करना, उनक सेवाके काय म अपनेको संल रखना, न ामभावसे य ा दके अनु ानके ारा भगवान्क पूजा करना, माता- पता, ा ण साधुमहा ा और गु जन को तथा अ सम ा णय को भगवान्का ही प समझकर या अ यामी- पसे भगवान् सबम ा ह, ऐसा जानकर सबका यथायो पूजन, आदर-स ार करना और तन-मन-धनसे सबको यथायो सुख प ँ चानेक तथा सबका हत करनेक यथाथ चे ा करना – ये सभी याएँ भगवान्क पूजा ही कहलाती ह। – 'माम्' पद कसका वाचक है और उसको नम ार करना ा है? – जन परमे रके सगुण, नगुण, नराकार, साकार आ द अनेक प ह। जो व ु पसे सबका पालन करते ह, ा पसे सबक रचना करते ह और पसे सबका संहार करते ह; जो भगवान् युग-युगम म , क प, वाराह, नृ सह, ीराम, ीकृ आ द द प म अवतीण होकर जगत्म व च लीलाएँ करते ह; जो भ क इ ाके अनुसार व भ प म कट होकर उनको अपनी शरण दान करते ह – उन सम जगत्के कता, हता, वधाता, सवाधार, सवश मान् सव ापी, सव , सवसु द,् सवगुणस , परम पु षो म, सम भगवान्का वाचक यहां 'माम्' पद है।

उनके साकार या नराकार पको, उनक मू तको, च पटको, उनके चरण, चरणपादुका या चरण च को, उनके त , रह , ेम, भाव और उनक मधुर लीला का ा ान करनेवाले सत्-शा को, माता- पता, ा ण, गु , साधु-संत और महापु ष को तथा व के सम ा णय को उ का प समझकर या अ यामी पसे उनको सबम ा जानकर ा-भ स हत, मन, वाणी और शरीरके ारा यथायो णाम करना – यही भगवान्को नम ार करना है। – 'आ ानम् ' पद कसका वाचक है और उसे उपयु कारसे भगवान्म यु करना ा है? उ र – मन, बु और इ य के स हत शरीरका वाचक यहाँ 'आ ा' पद है; तथा इन सबको उपयु कारसे भगवान्म लगा देना ही आ ाको उसम यु करना है। – भगवान्के परायण होना ा है? उ र – इस कार सब कु छ भगवान्को समपण कर देना और भगवान्को ही परम ा , परम ग त, परम आ य और अपना सव समझना, भगवान्के परायण होना है। – 'एव ' के योगका ा अ भ ाय है तथा भगवान्को ा होना ा है? उ र – 'एव ' पद अवधारणके अथम है। अ भ ाय यह है क उपयु कारसे साधन करके तुम मुझको ही ा होओगे, इसम कु छ भी संशय नह है। तथा इसी मनु -शरीरम ही भगवान्का सा ा ार हो जाना, भगवान्को त से जानकर उनम वेश कर जाना अथवा भगवान्के द लोकम जाना, उनके समीप रहना अथवा उनके -जैसे प आ दको ा कर लेना – ये सभी भगव ा ही ह।

ॐ त द त ीम गव ीतासूप नष ु व ायां योगशा े ीकृ ाजुनसंवादे राज व ाराजगु योगो नाम नवमोऽ ायः ॥ ९॥

|| ॐ

ी परमा ने नमः ||

अथ दशमोऽ ायः

इस अ ायम धान पसे भगवान्क वभू तय क ही वणन है, इस लये इस अ ायका नाम ' वभू तयोग' रखा गया है। अ ायका सं ेप इस अ ायके पहले ोकम भगवान्ने पुन: परम े उपदेश दान करनेक त ा करके उसे सुननेके लये अजुनसे अनुरोध कया है। दूसरे और तीसरेम 'योग' श वा अपने भावका वणन करके उसके जाननेका फल बतलाया है। चौथेसे छठे तक वभू तय का सं ेपम वणन करके सातवम अपनी वभू त और योगको त से जाननेका फल बतलाया है। आठव और नवम अपने बु मान् अन ेमी भ के भजनका कार बतलाकर दसव और ारहवम उसके फलका वणन कया है। तदन र बारहवसे प हवतक अजुनने भगवान्क ु त करके सोलहवसे अठारहवतक वभू तय का और योगश का पुन: व ारपूवक वणन करनेके लये भगवान्से ाथना क है। उ ीसवम भगवान्ने अपनी वभू तय के व ारको अन बतलाकर धान- धान वभू तय का वणन करनेक त ा करके बीसवसे उनतालीसवतक उनका वणन कया ह। चालीसवम अपनी द व ारको अन बतलाकर इस करणक समा क है। तदन र इकतालीसव और बयालीसव ोक म 'योग' श वा अपने भावका वणन करके अ ायका उपसंहार कया है। स – सातव अ ायसे लेकर नव अ ायतक व ानस हत ानका जो वणन कया गया उसके ब त ग ीर हो जानेके कारण अब पुन: उसी वषयको दूसरे कारसे भलीभाँ त समझानेके लये दसव अ ायका आर कया जाता है। यहाँ पहले ोकम भगवान् पूव वषयका ही पुन: वणन करनेक त ा करते ह – अ ायका नाम

ीभगवानुवाच । भूय एव महाबाहो णु मे परमं वचः । य ऽे हं ीयमाणाय व ा म हतका या ॥१॥

ीभगवान् बोले – हे महाबाहो! फर भी मेरे परम रह और भावयु सुन, जसे म तुझ अ तशय ेम रखनेवालेके लये हतक इ ासे क ँ गा॥१॥ – 'भूयः ' और 'एव ' पदका

ा अ भ ाय है?

वचनको

उ र – 'भूयः ' पदका अथ 'पुन:' या ' फर' होता है और 'एव' पद यहाँ 'अ प' के अथम आया है। इनका योग करके भगवान् यह भाव दखला रहे ह क सातवसे नव अ ायतक मने जस वषयका तपादन कया है उसी वषयको अब कारा रसे फर भी कह रहा ँ । – 'परम वचन' का ा भाव है? और उसे पुन: सुननेके लये कहनेका ा अ भ ाय हे? उ र – जो उपदेश परम पु ष परमा ाके परम गोपनीय गुण, भाव और त का रह खोलनेवाला हो और जससे उन परमे रक ा हो, उसे 'परम वचन' कहते ह। अतएव इस अ ायम भगवान्ने अपने गुण, भाव और त का रह समझानेके लये जो उपदेश दया है, वही 'परम वचन' है और उसे फरसे सुननेके लये कहकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क मेरी भ का त अ ही गहन है; अत: उसे बार-बार सुनना परम आव क समझकर, बड़ी सावधानीके साथ ा और ेमपूवक सुनना चा हये। – ' ीयमाणाय ' वशेषणका और ' हतका या ' पदका योग करके भगवान्ने ा भाव दखलाया है? उ र – ' ीयमाणाय' वशेषणका योग करके भगवान्ने यह दखलाया है क हे अजुन! तु ारा मुझम अ तशय ेम है, मेरे वचन को तुम अमृततु समझकर अ ा और ेमके साथ सुनते हो; इसी लये म कसी कारका संकोच न करके बना पूछे भी तु ारे सामने अपने परम गोपनीय गुण, भाव और त का रह बार-बार खोल रहा ँ । यह तु ारे ेमका ही फल है। तथा ' हतका या ' पदके योगसे यह भाव दखलाया है क तु ारे ेमने मेरे भावम तु ारी हतकामना भर रखी है; इस लये म जो कु छ भी कह रहा ँ , ाभा वक ही वे ही बात कह रहा ँ , जो के वल तु ारे हत-ही- हतसे भरी ह। पहले ोकम भगवान्ने जस वषयपर कहनेक त ा क है; उसका वणन आर करते ए वे पहले पाँच शलोकम योगश वा भावका और अपनी वभू तका सं वणन करते ह – स



न मे वदुः सुरगणाः भवं न महषयः । अहमा द ह देवानां महष णां च सवशः ॥२॥

मेरी उ को अथात् लीलासे कट होनेको न देवतालोग जानते ह और न मह षजन ही जानते ह, क म सब कारसे देवता का और मह षय का भी आ दकारण ँ ॥२॥ – यहाँ ' भवम् '

पदका ा अथ है और उसे सम देवसमुदाय और मह षजन भी नह जानते, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – भगवान्का अपने अतुलनीय भावसे जगत्का सृजन, पालन और संहार करनेके लये ा, व ु और के पम; दु के वनाश, भ के प र ाण, धमके सं ापन तथा नाना कारक च - व च लीला के ारा जगत्के ा णय के उ ारके लये ीराम, ीकृ , ीम , ीक प आ द द अवतार के पम; भ को दशन देकर उ कृ ताथ करनेके लये उनके इ ानु प नाना प म तथा लीलावै च क अन धारा वा हत करनेके लये सम व के पम जो कट होना है – उसीका वाचक यहाँ ' भवमू ' पद है। उसे देवसमुदाय और मह षलोग नह जानते, इस कथनसे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क म कस- कस समय कन- कन प म कन- कन हेतु से कस कार कट होता ँ – इसके रह को साधारण मनु क तो बात ही ा है, अती य वषय को समझनेम समथ देवता और मह षलोग भी यथाथ पसे नह जानते। – यहाँ 'सुरगणाः ' पद कनका वाचक है और 'महषय: ' से कन- कन मह षय को समझना चा हये? उ र – 'सुरगणाः ' पद एकादश , आठ वसु, बारह आ द , जाप त, उनचास म दगण ् , अ नीकु मार और इ आ द जतने भी शा ीय देवता के समुदाय ह – उन सबका वाचक है। तथा 'महषय: ' पदसे यहाँ स मह षय को समझना चा हये। – देवता का और मह षय का म सब कारसे आ द ँ इस कथनका यहाँ ा अ भ ाय है? उ र – इस कथनसे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क जन देवता और मह षय से इस सारे जगत्क उ ई है, वे सब मुझसे ही उ ए ह; उनका न म और उपादान कारण म ही ँ और उनम जो व ा, बु , श , तेज आ द भाव ह – वे सब भी उ मुझसे ही मलते ह।









यो मामजमना द च वे लोकमहे रम् । अस ूढः स म षु सवपापैः मु ते ॥३॥

जो मुझको अज ा अथात् वा वम ज र हत अना द, और लोक का महान् ई र त से जानता है, वह मनु म ानवान् पु ष स ूण पाप से मु हो जाता है॥३॥ – भगवान्को अज

ा, अना द और लोक का महे र जानना ा है? उ र – भगवान् अपनी योगमायासे नाना प म कट होते ए भी अज ा ह (४। ६), अ जीव क भाँ त उनका ज नह होता, वे अपने भ को सुख देने और धमक ापना करनेके लये के वल ज धारणक लीला कया करते ह – इस बातको ा और व ासके साथ ठीक-ठीक समझ लेना तथा इसम जरा भी स ेह न करना – यही 'भगवान्को अज ा जानना' है। तथा भगवान् ही सबके आ द अथात् महाकारण ह, उनका आ द कोई नह है; वे न ह तथा सदासे ह अ पदाथ क भाँ त उनका कसी काल वशेषसे आर नह आ है – इस बातको ा और व ासके साथ ठीक-ठीक समझ लेना – 'भगवान्को अना द जानना' है। एवं जतने भी ई रको टम गने जानेवाले इ , व ण, यम, जाप त आ द लोकपाल ह –   भगवान् उन सबके महान् ई र ह; वे ही सबके नय ा, ेरक, कता, हता, सब कारसे सबका भरण-पोषण और संर ण करनेवाले सवश मान् परमे र ह – इस बातको ापूवक संशयर हत ठीक-ठीक समझ लेना, 'भगवान्को लोक का महान् ई र जानना' है। – ऐसे पु षको 'मनु म अस ूढ' बतलाकर जो यह कहा गया है क 'वह स ूण पाप से मु हो जाता है', इसका ा अ भ ाय है? उ र – भगवान्को उपयु कारसे अज ा, अना द और लोकमहे र जाननेका फल दखलानेके लये ऐसा कहा गया है। अ भ ाय यह है क जगत्के सब मनु म जो पु ष उपयु कारसे भगवान्के भावको ठीक-ठीक जानता है वही वा वम भगवान्को जानता है और जो भगवान्को जानता है, वही 'अस ूढ' है; शेष तो सब स ूढ ही ह। और जो भगवान्के त को भलीभाँ त समझ लेता है वह ाभा वक ही अपने मनु -जीवनके अमू समयको सब कारसे नर र भगवान्के भजनम ही लगाता है (१५।१९), वषयी लोग क भाँ त भोग को सुखके हेतु समझकर उनम फँ सा नह रहता। इस लये वह इस ज और पूवज के सब कारके पाप से सवथा मु होकर सहज ही परमा ाको ा हो जाता है।

बु

ानमस ोहः मा स ं दमः शमः । ं ं ो ो ं े

सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥४॥ अ हसा समता तु पो दानं यशोऽयशः । भव भावा भूतानां म एव पृथ धाः ॥५॥

न य करनेक श , यथाथ ान, अस ूढता, मा, स , इ य का वशम करना, मनका न ह तथा सुख-दःु ख, उ - लय और भय-अभय तथा अ हसा, समता, स ोष, तप, दान, क त और अपक त – ऐसे ये ा णय के नाना कारके भाव मुझसे ही होते ह॥४-५॥

ह?

– 'बु ', '

ान' और 'अस ोह' – ये तीन श भ - भ कन भाव के वाचक

उ र – कत -अकत , ा -अ ा और भले-बुरे आ दका नणय करके न य करनेवाली जो वृ है, उसे 'बु ' कहते ह। कसी भी पदाथको यथाथ जान लेना ' ान' है; यहाँ ' ान' श साधारण ानसे लेकर भगवान्के प ानतक सभी कारके ानका वाचक है। भोगास मनु को न और सुख द तीत होनेवाले सम सांसा रक भोग को अ न , णक और दुःखमूलक समझकर उनम मो हत न होना – यही 'अस ोह' है। – ' मा' और 'स ' कसके वाचक ह? उ र – बुरा चाहना, बुरा करना, धना द हर लेना, अपमान करना, आघात प ँ चाना, कड़ी जबान कहना या गाली देना, न ा या चुगली करना, आग लगाना, वष देना, मार डालना और या अ म त प ँ चाना आ द जतने भी अपराध हँ , इनमसे एक या अ धक कसी कारका भी अपराध करनेवाला कोई भी ाणी न हो, अपनेम बदला लेनेका पूरा साम रहनेपर भी उससे उस अपराधका कसी कार भी बदला लेनेक इ ाका सवथा ाग कर देना और उस अपराधके कारण उसे इस लोक या परलोकम कोई भी द न मले – ऐसा भाव होना ' मा' है। इ य और अ ःकरण ारा जो बात जस पम देखी, सुनी और अनुभव क गयी हो, ठीक उसी पम दूसरेको समझानेके उ े से हतकर य श म उसको कट करना 'स ' है।

– 'दम' और 'शम' श

कसके वाचक ह? उ र – वषय क ओर दौड़नेवाली इ य को उनसे रोककर अपने अधीन बना लेना – उ मनमानी न करने देना 'दम' कहलाता है। और मनको भलीभाँ त संयत करके उसे अपने अधीन बना लेनेको 'शम' कहते ह। – 'सुख' और 'दुःख' का ा अथ है? उ र – य (अनुकूल) व ुके संयोगसे और अ य ( तकू ल) के वयोगसे होनेवाले सब कारके सुख का वाचक यहाँ 'सुख' है। इसी कार यके वयोगसे और अ यके संयोगसे होनेवाले आ धभौ तक आ धदै वक और आ ा क' – सब कारके दुःख का वाचक यहाँ 'दुःख' श है। – 'भव ' और 'अभाव ' तथा 'भय' और 'अभय' श का ा अथ है? उ र – सगकालम सम चराचर जगत्का उ होना 'भव' है, लयकालम उसका लीन हो जाना 'अभाव' है। कसी कारक हा न या मृ ुके कारणको देखकर अ ःकरणम उ होनेवाले भावका नाम 'भय' है और सव एक परमे रको ा समझ लेनेसे अथवा अ कसी कारणसे भयका जो सवथा अभाव हो जाना है वह 'अभय' है। – 'अ हसा', 'समता' और 'तु ' क प रभाषा ा है? उ र – कसी भी ाणीको कसी भी समय कसी भी कारसे मन, वाणी या शरीरके ारा जरा भी क न प ँ चानेके भावको 'अ हसा' कहते ह। सुख-दुःख, लाभ-हा न, जय-पराजय, न ा- ु त, मान-अपमान, म -श ु आ द जतने भी या, पदाथ और घटना आ द वषमताके हेतु माने जाते ह, उन सबम नर र रागेषर हत समबु रहनेके भावको 'समता' कु हते ह। जो कु छ भी ा हो जाय, उसे ार का भोग या भगवान्का वधान समझकर सदा स ु रहनेके भावको 'तु ' कहते ह। – तप दान, यश और अयश – इन चार का अलग-अलग अथ ा है? उ र – धम-पालनके लये क सहन करना 'तप' है, अपने को दूसर के हतके लये वतरण करना 'दान' है, जगत्म क त होना 'यश' है और अपक तका नाम 'अयश' है। [45]

है?



ा णय के नाना कारके भाव मुझसे ही होते ह, इस कथनका ा अ भ ाय

उ र – इस कथनसे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क व भ ा णय के उनक कृ तके अनुसार उपयु कारके जतने भी व भ भाव होते ह, वे सब मुझसे ही होते ह, अथात् वे सब मेरी ही सहायता, श और स ासे होते ह। – यहाँ इन दो ोक म सुख, भव, अभय और यश – इन चार ही भाव के वरोधी भाव दुःख, अभाव, भय और अपयशका वणन कया गया है। मा, स , दम और अ हसा आ द भाव के वरोधी भाव का वणन नह कया गया? उ र – दुःख अभाव, भय और अपयश आ द भाव जीव को ार का भोग करानेके लये उ होते ह; इस लये इन सबका उ व कमफलदाता और जगत्के नय णकता भगवान्से ठीक ही है। परंतु मा, स , दम और अ हसा आ दके वरोधी ोध, अस , इ य का दास और हसा आ द दुगुण और दुराचार भगवान्से नह उ होते। वरं गीताम ही दूसरे ान म इन दुगुण-दुराचार क उ का मूल कारण – अ ानज नत 'काम' बतलाया गया है (३।३७) और इ मूलस हत ाग देनेक ेरणा क गयी है। इस लये स आ द सदगु् ण और सदाचार के वरोधी भाव का वणन यहाँ नह कया गया है।

महषयः स पूव च ारो मनव था । म ावा मानसा जाता येषां लोक इमाः जाः ॥६॥

सात महा षजन, चार उनसे भी पूवम होनेवाले सनका द तथा ाय व ु आद चौदह मनु – ये मुझम भाववाले सब-के-सब मेरे संक से उ ए ह, जनक संसारम यह स ूण जा है॥६॥ –स

मह षय के ा ल ण ह? और वे कौन-कौन ह? उ र – स षय के ल ण बतलाते ए कहा गया है – एतान् भावानधीयाना ये चैत ऋषयो मता:। स ैते स

भ ैव गुणैः स षय:

ृता:॥

दीघायुषो म कृत ई रा द च ष ु :।

वृ ा: 'तथा देव षय के

धमाणो गो

वतका ये॥

(वायुपुराण ६१।९३-९४)

इन (उपयु ) भाव का जो अ यन ( रण) करनेवाले ह, वे ऋ ष माने गये ह; इन ऋ षय म जो दीघायु, म कता, ऐ यवान् द - यु गुण- व ा और आयुम वृ धमका (सा ा ार) करने-वाले और गो चलानेवाले ह – ऐसे सात गुण से यु सात ऋ षय को ही स ष कहते ह।' इ से जाका व ार होता है और धमक व ा चलती है। ये स ष ेक म रम भ - भ होते ह। यहाँ जन स षय का वणन है उनको भगवान्ने 'मह ष' कहा है और उ संक से उ बतलाया है। इस लये यहाँ उ का ल है जो ऋ षय से भी उ रके ह। ऐसे स षय का उ ेख महाभारत-शा पवम मलता है; इनके लये सा ात् परम पु ष परमे रने देवता स हत ाजीसे कहा है – [46]

[47]

मरी चर रा ा ः पुल

: पुलह:

तुः।

व स इ त स ैते मानसा न मता ह ते॥ एते वेद वदो मु

ा वेदाचाया क

वृ ध मण ैव ाजाप े च क (महा०, शा

'मरी च, अं गरा, अ , पुल ाजीके ) ारा ही अपने मनसे रचे

० ३४०। ६९ -७०)

ता:। ता:॥

पुलह, तु और व स – ये सात मह ष तु ारे ( ए ह। ये सात वेदके ाता ह इनको मने मु वेदाचाय बनाया है। ये वृ मागका संचालन करनेवाले ह और (मेरे ही ारा) जाप तके कमम नयु कये गये ह।' इस क के सव थम ाय ुव म रके स ष यही ह (ह रवंश० ७।८,९)। अतएव यहाँ स षय से इ का हण करना चा हये। – यहाँ स मह षय से इस वतमान म रके व ा म , जमद , भर ाज, गौतम, अ , व स और क प – इन सात को मान लया जाय तो ा आप है? उ र – इन व ा म आ द स मह षय म अ और व स के अ त र अ पाँच न तो भगवान्के ही मानस पु ह और न ाके ही। अतएव यहाँ इनको न मानकर उ को [48]

,

मानना ठीक है।

– 'च ार: पूव ' से

कनको लेना चा हये? उ र – सबसे पहले होनेवाले सनक, सन न, सनातन और सन मार – इन चार को लेना चा हये। ये भी भगवान्के ही प ह और ाजीके तप करनेपर े ासे कट ए ह। ाजीने यं कहा है – त ं तपो व वधलोक ससृ या मे आदौ सना ा

तपस: स चतुःसनोऽभूत्। स

व वन महा त ं

स ग् जगाद मुनयो यदच ता न्॥ (

'मने

ीम ागवत २।७।५)

व वध कारके लोक को उ करनेक इ ासे जो सबसे पहले तप कया, उस मेरी अख त तप ासे ही भगवान् यं सनक, सन न, सनातन और सन ु मार – इन चार 'सन' नामवाले प म कट ए और पूवक म लयकालके समय जो आ त के ानका चार इस संसारम न हो गया था, उसका इ ने भलीभाँ त उपदेश कया, जससे उन मु नय ने अपने दयम आ त का सा ा ार कया।' – इसी ोकम कहा है – ' जनक सब लोक म यह जा है', परंतु 'च ार: पूव' का अथ सनका द मह ष मान लेनेसे इसम वरोध आता है; क सनका दक तो कोई जा नह है? उ र – सनका द सबको ान दान करनेवाले नवृ धमके वतक आचाय ह। अतएव उनक श ा हण करनेवाले सभी लोग श के स से उनक जा ही माने जा सकते ह। अतएव इसम कोई वरोध नह है। – 'मनव: ' पद कनका वाचक है? उ र – ाके एक दनम चौदह मनु होते ह, ेक मनुके अ धकारकालको 'म र' कहते ह। इकह र चतुयुगीसे कु छ अ धक कालका एक म र होता है। मानवी वषगणनाके हसाबसे एक म र तीस करोड़ सड़सठ लाख बीस हजार वषसे और द -वषगणनाके

हसाबसे आठ लाख बावन हजार वषसे कु छ अ धक कालका होता है ( व ुपुराण १।३)। ेक म रम धमक व ा और लोक-र णके लये भ - भ स ष होते ह। एक म रके बीत जानेपर जब मनु बदल जाते ह तब उ के साथ स ष, देवता, इ और मनुपु भी बदल जाते ह। वतमान क के मनु के नाम ये ह – ाय ुव, ारो चष, उ म, तामस, रैवत, चा षु , वैव त, साव ण, द साव ण, साव ण, धमसाव ण, साव ण, देवसाव ण और इ साव ण।' चौदह मनु का एक क बीत जानेपर सब मनु भी बदल जाते ह। – इन स मह ष आ दके साथ 'म ावा: ' वशेषण देनेका ा अ भ ाय है? उ र – ये सभी भगवान्म ा और ेम रखनेवाले ह, यही भाव दखलानेके लये इनके लये 'म ावा: ' यह वशेषण दया गया है। – स षय क और सनका दक उ तो ाजीके मनसे ही मानी गयी है। यहाँ भगवान्ने उनको अपने मनसे उ कै से कहा? उ र – इनक जो ाजीसे उ होती है, वह व ुत: भगवान्से ही होती है; क यं भगवान् ही जगतक रचनाके लये ाका प धारण करते ह। अतएव ाके मनसे उ होनेवाल को भगवान् 'अपने मनसे उ होनेवाले' कह तो इसम भी कोई वरोधक बात नह है। [49]

कार दूसरे और तीसरे ोक ारा भगवान्के योग ( भाव) – का और चौथेसे छठे तक उनक वभू तय का वणन कया गया, उसे जाननेका फल अगले शलोकम बतलाया जाता है – स

– इस

एतां वभू त योगं च मम यो वे त तः । सोऽ वक ेन योगेन यु ते ना संशयः ॥७॥

जो पु ष मेरी इस परमै य प वभू तको और योगश को त से जानता है, वह न ल भ योगसे यु हो जाता है – इसम कुछ भी संशय नह है॥ ७॥ – यहाँ 'एताम् '

वशेषणके स हत ' वभू तम् ' पद कसका वाचक है और 'योगम् ' पदसे ा कहा गया है तथा इन दोन को त से जानना ा है?

उ र – पछले तीन ोक म भगवान्ने जन बु आ द भाव को और मह ष आ दको अपनेसे उ बतलाया है तथा सातव अ ायम 'जलम म रस ँ ' (७। ८) एवं नव अ ायम ' तु म ँ ', 'य म ँ ' (९।१६) इ ा द वा से जन- जन पदाथ का, भाव का और देवता आ दका वणन कया है – उन सबका वाचक यहाँ 'एताम् ' वशेषणके स हत ' वभू तम् ' पद है। भगवान्क जो अलौ कक श है जसे देवता और मह षगण भी पूण पसे नह जानते (१०।२,३); जसके कारण यं सा क, राजस और तामस भाव के अ भ न म ोपादान कारण होनेपर भी भगवान् सदा उनसे ारे बने रहते ह और यह कहा जाता है क 'न तो वे भाव भगवान्म है और न भगवान् ही उनम ह' (७।१२); जस श से स ूण जगत्क उ , त और संहार आ द सम कम करते ए भगवान् स ूण जगत्को नयमम चलाते ह, जसके कारण वे सम लोक के महान् ई र, सम भूत के सुहद,् सम य ा दके भो ा, सवाधार और सवश मान् ह; जस श से भगवान् इस सम जगत्को अपने एक अंशमे धारण कये ए ह (१०।४२) और युग-युगम अपने इ ानुसार व भ काय के लये अनेक प धारण करते ह तथा सब कु छ करते ए भी सम कम से, स ूण जगत्से एवं ज ा द सम वकार से सवथा नलप रहते ह और नवम अ ायके पाँचव ोकम जसको 'ऐ र योग' कहा गया है – उस अदभु् त श ( भाव) – का वाचक यहाँ 'योगम्' पद है। इस कार सम जगत् भगवान्क ही रचना है और सब उ के एक अंशम त ह। इस लये जगत्म जो भी व ु श स तीत हो, जहाँ भी कु छ वशेषता दखलायी दे, उसे – अथवा सम जगत्को ही भगवान्क वभू त अथात् उ का प समझना एवं उपयु कारसे भगवान्को सम जगत्के कता-हता, सवश मान् सव र, सवाधार, परम दयालु, सबके सुहद् और सवा यामी मानना – यही 'भगवान्क वभू त और योगको त से जानना' है। – 'अ वक ेन ' वशेषणके स हत 'योगेन ' पद कसका वाचक है और उससे यु हो जाना ा है? उ र – भगवान्क जो अन भ है (११।५५), जसे 'अ भचा रणी भ ' (१३। १०) और 'अ भचारी भ योग' (१४।२६) भी कहते है; सातव अ ायके पहले ोकम जसे 'योग' के नामसे पुकारा गया है और नवम अ ायके तेरहव, चौदहव तथा च तीसव और इसी अ ायके नव ोक म जसका प बतलाया गया है – उस 'अ वचल भ योग' का

वाचक यहाँ 'अ वक यु हो जाना है।

ेन '

वशेषणके स हत 'योगेन '   पद है और उसम संल रहना ही उससे

भगवान्के भाव और वभू तय के ानका फल अ वचल भ योगक ा बतलायी गयी, अब दो ोक म उस भ योगक ा का म बतलाते हँ – स



अहं सव भवो म ः सव वतते । इ त म ा भज े मां बुधा भावसम ताः ॥८॥

म वासुदेव ही स ूण जगत्क उ का कारण ँ और मुझसे ही सब जगत् चे ा करता है – इस कार समझकर ा और भ से यु बु मान् भ जन मुझ परमे रको ही नर र भजते ह॥८॥ – भगवान्को स

णू जगत्का ' भव' समझना ा है? उ र – स ूण जगत् भगवान्से ही उ है अत: भगवान् ही सम जगत्के उपादान और न म कारण ह; इस लये भगवान् ही सव म ह, यह समझना भगवान्को सम जगत्को भव समझना है। – स ूण जगत् भगवान्से ही चे ा करता है – यह समझना ा है? उ र – भगवान्के ही योगबलसे यह सृ - च चल रहा है; उ क शासन-श से सूय, च मा, तारागण और पृ ी आ द नयमपूवक घूम रहे ह; उ के शासनसे सम ाणी अपने-अपने कमानुसार अ ी-बुरी यो नय म ज धारण करके अपने-अपने कम का फल भोग रहे ह – इस कारसे भगवान्को सबका नय ा और वतक समझना ही 'स ूण जगत् भगवान्से चे ा करता है' यह समझना है। – 'भावसम ता: ' वशेषणके स हत 'बुधाः ' पद कै से भ का वाचक है? उ र – जो भगवान्के अ तशय ेमसे यु ह, भगवान्म जनक अटल ा है, जो भगवान्के गुण और भावको भलीभाँ त व ासपूवक समझते ह – भगवान्के उन बु मान् भ का वाचक 'भावसम ता: ' वशेषणके स हत 'बुधा: ' पद है। – उपयु कारसे समझकर भगवान्को भजना ा है?

उ र – उपयु कारसे भगवान्को स ूण जगत्का कता, हता और वतक समझकर अगले ोकम कहे ए कारसे अ तशय ा और ेमपूवक मन, बु और सम इ य ारा नर र भगवान्का रण और सेवन करना ही भगवान्को भजना है।

म ा म त ाणा बोधय ः पर रम् । कथय मां न ं तु च रम च ॥९॥

नर र मुझम मन लगानेवाले और मुझम ही ाण को अपण करनेवाले भ

जन

मेरी भ क चचाके ारा आपसम मेरे भावको जनाते ए तथा गुण और भावस हत मेरा कथन करते ए ही नर र स ु होते ह और मुझ वासुदेवम ही नर र रमण करते ह॥ ९॥

ा अ भ ाय है? उ र – भगवान्को ही अपना परम ेमी, परम सु द परम आ ीय, परम ग त और परम य समझनेके कारण जनका च अन भावसे भगवान्म लगा आ है (८।१४; ९।२२); भगवान्के सवा कसी भी व ुम जनक ी त, आस या रमणीय बु नह है; जो सदासवदा ही भगवान्के नाम, गुण, भाव, लीला और पका च न करते रहते ह और जो शा व धके अनुसार कम करते ए उठते-बैठते, सोते-जागते, चलते- फरते, खाते-पीते, वहारकालम और ानकालम कभी णमा भी भगवान्को नह भूलते, ऐसे न - नर र च न करनेवाले भ के लये ही यहाँ भगवान्ने 'म ा: ' वशेषणका योग कया है। – 'म त ाणा: ' का ा भाव है? उ र – जनका जीवन और इ य क सम चे ाएँ के वल भगवान्के ही लये ह; जनको णमा का भी भगवान्का वयोग अस है, जो भगवान्के लये ही ाण धारण करते ह; खाना-पीना चलना- फरना, सोना- जागना आ द जतनी भी चे ाएँ ह, उन सबम जनका अपना कु छ भी योजन नह रह गया है – जो सब कु छ भगवान्के लये ही करते ह, उनके लये भगवान्ने 'म त ाणा: ' का योग कया है। – 'पर रं बोधय : ' का ा भाव है? उ र – भगवान्म ा-भ रखनेवाले ेमी भ का जो अपने-अपने अनुभवके अनुसार भगवान्के गुण, भाव, त , लीला, माहा और रह को पर र नाना कारक – 'म

ा: ' का

यु य से समझानेक चे ा करना है, यही पर र भगवान्का बोध कराना है। – भगवान्का कथन करना ा है? उ र – ा-भ पूवक भगवान्के नाम, गुण, भाव, लीला और पका क तन और गायन करना तथा कथा- ा ाना द ारा लोग म चार करना और उनक ु त करना आ द सब भगवान्का कथन करना है। – उपयु कारसे सब कु छ करते ए न स ु रहना ा हे? उ र – ेक या करते ए नर र परम आन का अनुभव करना ही ' न स ु रहना' है। इस कार स ु रहनेवाले भ क शा , आन और स ोषका कारण के वल भगवान्के नाम, गुण, भाव, लीला और प आ दका वण, मनन और क तन तथा पठनपाठन आ द ही होता है। सांसा रक व ु से उसके आन और स ोषका कु छ भी स नह रहता। – उपयु कारसे सब कु छ करते ए भगवान्म नर र रमण करना ा है? उ र – भगवान्के नाम, गुण, भाव, लीला, प, त और रह का यथायो वण, मनन और क तन करते ए एवं उनक च, आ ा और संकेतके अनुसार के वल उनम ेम होनेके लये ही ेक या करते ए, मनके ारा उनको सदा-सवदा वत् अपने पास समझकर नर र ेमपूवक उनके दशन, श और उनके साथ वातालाप आ द डा करते रहना – यही भगवान्म नर र रमण करना है।

उपयु कारसे भजन करनेवाले भ के त भगवान् ा करते ह, अगले दो ोक म यह बतलाते ह – स



तेषां सततयु ानां भजतां ी तपूवकम् । ददा म बु योगं तं येन मामुपया ते ॥१०॥

उन नर र मेरे त

ान आ दम लगे ए और ेमपूवक भजनेवाले भ

ान प योग देता ँ , जससे वे मुझको ही ा – 'तेषाम् ' पद

कनका वाचक है?

होते ह॥१०॥

को म वह

उ र – पूवके दो ोक म 'बुधा: ' और 'म ा: ' आ द पद से जन भ का वणन कया गया है, उ न ाम अन ेमी भ का वाचक यहाँ 'तेषाम् ' पद है। – 'सततयु ानाम् ' का ा अ भ ाय है? उ र – पूवा ोकम 'म ा: ', 'म त ाणा: ', 'पर रं मां बोधय : ' और 'कथय : ' से जो बात कही गयी ह, उन सबका समाहार 'सततयु ानाम् ' पदम कया गया है। – ' ी तपूवकं भजताम् ' का ा अ भ ाय है? उ र – पूव ोकम ' न ं तु च रम च 'म जो बात कही गयी है उसका समाहार यहाँ ' ी तपूवक भजताम् ' म कया गया है। अ भ ाय यह है क पूव ोकम भगवान्के जन भ का वणन आ है वे भोग क कामनाके लये भगवान्को भजनेवाले नही हँ , कतु कसी कारका भी फल न चाहकर के वल न ाम अन ेमभावपूवक ही भगवान्का, उस ोकम कहे ए कारसे, नर र भजन करनेवाले ह। – ऐसे भ को भगवान् जो बु योग दान करते ह – वह ा है और उससे भगवान्को ा हो जाना ा है? उ र – भगवान्का जो भ के अ ःकरणम अपने भाव और मह ा दके रह स हत नगुण- नराकार त को तथा लीला, रह , मह और भाव आ दके स हत सगुण- नराकार और साकार त को यथाथ पसे समझनेक श दान करना है – वही 'बु योगका दान करना' है। इसीको भगवान्ने सातव ओर नव अ ायम व ानस हत ान कहा है और इस बु योगके ारा भगवान्को कर लेना ही भगवान्को ा हो जाना है। [50]

तेषामेवानुक ाथमहम ानजं तमः । नाशया ा भाव ो ानदीपेन भा ता ॥११॥

हे अजुन! उनके ऊपर अनु ह करनेके लये उनके अ ःकरणम त म यं ही उनके अ ानज नत अ कारको काशमय त ान प दीपकके ारा न कर देता ँ ॥ ११॥

नाश कर देता

– उन भ पर अनु ह करनेके लये म ँ , इस कथनका ा अ भ ाय है?

यं ही उनके अ ानज नत अ कारका

उ र – इस कथनसे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क अपने भ पर अनु ह करनेके लये म यं ही उनके अ ानज नत अ कारका नाश कर देता ँ , इसके लये उनको कोई दूसरा साधन नह करना पड़ता। – 'अ ानजम् ' वशेषणके स हत 'तम: ' पद कसका वाचक है और उसे म उनके आ भावम त आ नाश करता ँ , भगवान्के इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – अना द स अ ानसे उ जो आवरणश है – जसके कारण मनु भगवान्के गुण, भाव और पको यथाथ नह जानता – उसका वाचक यहाँ 'अ ानजम् ' वशेषणके स हत 'तम: ' पद है। 'उसे म भ के आ भावम त आ नाश करता ँ ' इस कथनसे भगवान्ने भ क म हमा और अपनेम वषमताके दोषका अभाव दखलाया है। भगवान्के कथनका अ भ ाय यह है क म सबके दयदेशम अ यामी पसे सदा-सवदा त रहता ँ , तो भी लोग मुझे अपनेम त नह मानते; इसी कारण म उनका अ ानज नत अ कार नाश नह कर सकता। परंतु मेरे ेमी भ मुझे अपना अ यामी समझते ए पूव ोक म कहे ए कारसे नर र मेरा भजन करते ह, इस कारण उनके अ ानज नत अ कारका म सहज ही नाश कर देता ँ । – 'भा ता ' वशेषणके स हत ' ानदीपेन ' पद कसका वाचक है और उसके ारा 'अ ानज नत अ कारका नाश करना' ा है? उ र – पूव ोकम जसे बु योग कहा गया है; जसके ारा भाव और म हमा आ दके स हत नगुण- नराकारत का तथा लीला, रह , मह और भाव आ दके स हत सगुण- नराकार और साकारत का प भलीभाँ त जाना जाता है; जसे सातव और नव अ ायम व ानस हत ानके नामसे कहा है – ऐसे संशय, वपयय आ द दोष से र हत ' द बोध' का वाचक यहाँ 'भा ता ' वशेषणके स हत ' ानदीपेन ' पद है। उसके ारा भ के अ ःकरणम भगव ानके तब क आवरण-दोषका सवथा अभाव कर देना ही 'अ ानज नत अ कारका नाश करना ' है। – इस ानदीप (बु योग) के ारा पहले अ ानका नाश होता है या भगवान्क ा होती है? उ र –  ' ानदीप' के ारा य प अ ानका नाश और भगवान्क ा – दोन एक ही साथ हो जाते ह, तथा प य द पूवापरका वभाग कया जाय तो यही समझना चा हये क

पहले अ ानका नाश होता है और फर उसी ण भगवान्क ा भी हो जाती है।

सातव अ ायके पहले ोकम अपने सम पका ान करानेवाले जस वषयको सुननेके लये भगवान्ने अजुनको अ ा दी थी तथा दूसरे ोकम जस व ानस हत ानको पूणतया कहनेक त ा क थी – उसका वणन भगवान्ने सातव अ ायम कया। उसके बाद आठव अ ायम अजुनके सात का उ र देते ए भी भगवान्ने उसी वषयका ीकरण कया, कतु वहाँ कहनेक शैली दूसरी रही इस लये नवम अ ायके आर म पुन: व ानस हत ानका वणन करनेक त ा करके उसी वषयको अंग- ंग सा हत भलीभाँ त समझाया। तदन र दूसरे श म पुन: उसका ीकरण करनेके लये दसव अ ायके पहले शलोकम उसी वषयको पुन: कहनेक त ा क और पाँच ोक ारा अपनी योगश और वभू तय का वणन करके सातव ोकम उनके जाननेका फल अ वचल भ कयोगक ा बतलायी। फर आठव और नव ोक म भ योगके ारा भगवान्के भजनम लगे ए भ के भाव और आचरणका वणन कया और दसव तथा ारहवम उसका फल अ नज नत अ कारका नाश और भगवान्क ा करा देनेवाले बु योगक ा बतलाकर उस वषयका उपसंहार कर दया। इसपर भगवान्क वभू त और योगको त से जानना भगव ा म परम सहायक है, यह बात समझकर अब सात ोक म अजुन पहले भगवान्क ु त करके भगवान्से उनक योगश और वभू तय का व ारस हत वणन करनेके लये ाथना करते ह – स



अजुन उवाच । परं परं धाम प व ं परमं भवान् । पु षं शा तं द मा ददेवमजं वभुम् ॥१२॥ आ ामृषयः सव देव षनारद था । अ सतो देवलो ासः यं चैव वी ष मे ॥१३॥

अजुन बोले – आप परम , परम धाम और परम प व ह क आपको सब ऋ ष-गण सनातन, द पु ष एवं देव का भी आ ददेव, अज ा और सव ापी कहते ह। वैसे ही देव ष नारद तथा अ सत और देवल ऋ ष तथा मह ष ास भी कहते ह और यं आप भी मेरे त कहते ह॥१२-१३॥

– आप 'परम

', 'परम धाम' और 'परम प व ' ह – अजुनके

इस कथनका ा

अ भ ाय है? उ र – इस कथनसे अजुनने यह भाव दखलाया है क जस नगुण परमा ाको 'परम ' कहते ह वे आपके ही प ह तथा आपका जो न धाम है वह भी स दान मय द और आपसे अ भ होनेके कारण आपका ही प है तथा आपके नाम, गुण, भाव, लीला और प के वण, मनन और क तन आ द सबको सवथा परम प व करनेवाले ह; इस लये आप 'परम प व ' ह। – 'सव ' वशेषणके स हत 'ऋषय: ' पद कन ऋ षय का वाचक है एवं वे आपको 'सनातन द पु ष', 'आ ददेव', ' वभु' और 'अज ा' कहते ह – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – 'सव ' वशेषणके स हत 'ऋषय: ' पद यहाँ माक ये , अं गरा आ द सम ऋ षय का वाचक है और अपनी मा ताके समथनम अजुन उनके कथनका माण दे रहे ह। अ भ ाय यह है क वे लोग आपको सनातन- न एकरस रहनेवाले, य वनाशर हत, द - त: काश और ान प, सबके आ ददेव तथा अज ा- उ प वकारसे र हत और सव ापी बतलाते ह। अत: आप 'परम ', 'परम धाम' और 'परम प व ' ह – इसम कु छ भी स हे नह है। – देव शके ा ल ण है और ऐसे देव ष कौन-कौन ह? उ र – देव षके ल ण ये ह – [51]

[52]

देवलोक त ा

ेया देवषय: शुभा:॥

देवषय था े च तेषां व भूतभ भव स ु ा ु तपसेह म

ा म ल णम्।

ानं स ा भ ा तं तथा॥ यं ये तु स

स ा ये गभ यै

ा ये च वै

यम्।

णो दतम्॥

ाहा रणो ये च ऐ यात् सवगा ये।

इ ेते ऋ ष भयु

ा देव जनृपा ु ये॥

(वायुपुराण ६१।८८,९०,९१,९२)

' जनका

देवलोकम नवास है, उ शुभ देव ष समझना चा हये। इनके सवा वैसे ही जो दूसरे और भी देव ष ह, उनके ल ण कहता ँ । भूत, भ व त् और वतमानका ान होना तथा सब कारसे स बोलना – देव षका ल ण है। जो यं भलीभाँ त ानको ा ह तथा जो यं अपनी इ ासे ही संसारसे स ह, जो अपनी तप ाके कारण इस संसारम व ात ह, ज ने ( ादा दको) गभम ही उपदेश दया है, जो म के व ा ह और जो ऐ य ( स य ) -के बलसे सव सब लोक म बना कसी बाधाके जा-आ सकते ह और जो सदा ऋ षय से घरे रहते ह, वे देवता, ा ण और राजा – ये सभी देव ष ह।' देव ष अनेक ह जनमसे कु छके नाम ये ह – देवष धमपु ो तु नरनारायणावुभौ। बाल ख

ाः

तोः पु ा: कदम: पुलह

पवतो नारद ैव क ऋष 'धमके

तु॥

प ा जावुभौ।

देवान् य ा े त ा ेवषय:

ृताः॥

(वायुपुरण ६१।८३, ८४, ८५)

दोन पु नर और नारायण, तुके पु बाल ख ऋ ष, पुलहके पु कदम, पवत और नारद तथा क पके दोन वादी पु अ सत और व र – ये चूँ क देवता को अधीन रख सकते ह, इस लये इ 'देव ष ' कहते ह।' – देव ष नारद, अ सत, देवल और ास कौन ह? अजुनने खास तौरसे इ के नाम गनाये और इ ने भगवान् ीकृ क म हमाम ा कहा था? उ र – देव ष नारद, अ सत, देवल और ास – ये चार ही भगवान्के यथाथ त के जाननेवाले, उनके महान् ेमी भ और परम ानी मह ष ह। ये अपने कालके ब त ही स ा तथा महान् स वादी महापु ष माने जाते ह, इसीसे इनके नाम खास तौरपर गनाये गये ह और भगवान्क म हमा तो ये न ही गाया करते ह। इनके जीवनका धान काय है भगवान्क म हमाका ही व ार करना। महाभारतम भी इनके तथा अ ा ऋ ष-मह षय के भगवान्क म हमा गानेके कई संग आये ह। भगवान् ीकृ के स म कस ऋ षने ा कहा था, इसका सं ेपसे भी पवम ही पतामह भी ने वणन कया है। [53]

[54]

– आप

यं भी मुझसे कह रहे है – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इस कथनसे अजुन यह भाव दखलाते ह क के वल उपयु ऋ षलोग ही कहते ह यह बात नह है; यं आप भी मुझसे अपने अतुलनीय भावक बात इस समय भी कह रहे ह (४।६ से १ तक; ५।२९; ७।७ से १२ तक; ९।४ से ११ और १६ से १९ तक, तथा १०। २,३,८)। अत: म जो आपको सा ात् परमे र समझता ँ यह ठीक ही है।

सवमेत तं म े य ां वद स के शव । न ह ते भगव वदुदवा न दानवाः ॥१४॥

हे केशव। जो कुछ भी मेरे त आप कहते ह, इस सबको म स मानता ँ । हे भगवन्! आपके लीलामय पको न तो दानव जानते ह और न देवता ही॥१४॥ – यहाँ 'के शव' स

ोधनका ा अ भ ाय है? उ र – ा, व ु और महेश – इन तीन श य को मश: 'क' ' अ' और 'ईश' (के श) कहते ह और ये तीन जसके वपु यानी प ह , उसे 'के शव' कहते ह। अत: यहाँ अजुन ीकृ को के शव कहकर यह भाव दखलाते ह क आप सम जगत्क उ , पालन और संहार आ द करनेवाले सा ात् परमे र ह, इसम मुझे कु छ भी स ेह नह है। – यहाँ 'एतत् ' और 'यत् ' पद भगवान्के कस कथनका संकेत करते ह और उस सबको स मानना ा है? उ र – सातव अ ायके आर से लेकर इस अ ायके ारहव ोकतक भगवान्ने जो अपने गुण, भाव, प, म हमा, रह और ऐ य आ दक बात कही ह, जनसे ीकृ का अपनेको सा ात् परमे र ीकार करना स होता है – उन सम वचन का संकेत करनेवाले 'एतत् ' और 'यत् ' पद ह; तथा भगवान् ीकृ को सम जगत्के हता, कता, सवाधार, सव ापी, सवश मान, सबके आ द, सबके नय ा, सवा यामी, देव के भी देव, स दान घन, सा ात् पूण परमा ा समझना और उनके उपदेशको स मानना तथा उसम क च ा भी स हे न करना उन सब वचन को स मानना है। – 'भगवन् ' स ोधनका ा अ भ ाय है? उ र – व ुपुराणम कहा है-

ऐ य

सम

धम

ानवैरा यो ैव ष

यशस:

य:।

ां भग इतीरणा॥ (६।५।७४)

'स

णू ऐ य, स ूण धम, स ूण यश, स ूण ी, स ूण ान और समूण वैरा छह का नाम 'भग' है। ये सब जसम ह , उसे भगवान् कहते ह। वह यह भी कहा है – उ वे



इन

लयं चैव भूतानामाग त ग तम्। व ाम व ां च स वा

ो भगवा न त॥ (६।५।७८)

'उ और लयको, भूत के आने और जानेको तथा व ा और अ व ाको जो जानता है, उसे 'भगवान्' कहना चा हये।' अतएव यहाँ अजुन ीकृ को 'भगवन् ' स ोधन देकर यह भाव दखलाते ह क आप सवँ यस और सव , सा ात् परमे र ह – इसम कु छ भी स ेह नह

है।

– यहाँ '

– इस कथनका

म् ' पद ाय है?

कसका वाचक है तथा उसे देवता और दानव नह जानते

ाअभ उ र – जगत्क उ , त और संहार करनेके लये, धमक ापना और भ को दशन देकर उनका उ ार करनेके लये, देवता का संर ण और रा स का संहार करनेके लये एवं अ ा कारण से जो भगवान् भ - भ लीलामय प धारण करते ह, उन सबका वाचक यहाँ ' म् ' पद है। उनको देवता और दानव नह जानते – यह कहकर अजुनने यह भाव दखलाया है क मायासे नाना प धारण करनेक श रखनेवाले दानवलोग तथा इ यातीत वषय का करनेवाले देवतालोग भी आपके उन द लीलामय प को, उनके धारण करनेक द श और यु को, उनके न म को और उनक लीला के रह को नह जान सकते; फर साधारण मनु क तो बात ही ा है?

यमेवा ना ानं वे ं पु षो म । भूतभावन भूतेश देवदेव जग ते ॥१५॥

हे भूत को उ करनेवाले! हे भूत के ई र! हे देव के देव! हे जगत्के पु षो म! आप यं ही अपनेसे अपनेको जानते ह॥१५॥

ामी! हे

और 'पु षो म ' – इन पाँच स ोधन का ा अथ है और यहाँ एक ही साथ पाँच स ोधन के योगका ा अ भ ाय है? उ र – जो सम ा णय को उ करता है उसे 'भूतभावन' कहते ह; जो सम ा णय को नयमम चलानेवाला सबका शासक हो – उसे 'भूतेश' कहते ह; जो देव का भी पूजनीय देव हो, उसे 'देवदेव' कहते ह; सम जगत्के पालन करनेवाले ामीको 'जग त' कहते ह तथा जो र और अ र दोन से उ म हो उसे 'पु षो म' कहते ह। यहाँ अजुनने इन पाँच स ोधन का योग करके यह भाव दखलाया है क आप सम जगत्को उ करनेवाले, सबके नय ा, सबके पूजनीय, सबका पालन-पोषण करनेवाले तथा 'अपरा' और 'परा' कृ त नामक जो र और अ रपु ष ह, उनसे उ म सा ात् पु षो म भगवान् ह । – आप यं ही अपनेसे अपनेको जानते ह, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इस कथनसे अजुनने यह भाव दखलाया है क आप सम जगत्के आ द ह; आपके गुण, भाव, लीला, माहा और प आ द अप र मत ह – इस कारण आपके गुण, भाव, लीला, माहा , रह और प आ दको कोई भी दूसरा पु ष पूणतया नह जान सकता, यं आप ही अपने भाव आ दको जानते ह। और आपका यह जानना भी उस कारका नह है जस कार मनु अपनी बु -श के ारा शा ा दक सहायतासे अपनेसे भ कसी दूसरी व ुके पको जानते ह। आप यं ान प ह, अत: अपने ही ारा अपनेको जानते ह। आपम ाता, ान और ेयका कोई भेद नह है। – 'भूतभावन ', 'भूतेश ', 'देवदेव ',  'जग ते '

व ुमह शेषेण द ा ा वभूतयः । या भ वभू त भल का नमां ं ा त स ॥१६॥

इस लये आप ही उन अपनी द वभू तय के ारा आप इन सब लोक को

वभू तय को समपूणतासे कहनेम समथ ह, जन ा करके त ह॥१६॥

वशेषणके स हत 'आ वभूतय: ' पद कन वभू तय का वाचक? है और उनको आप ही पूणतया कहनेम समथ ह – इस कथनका ा भाव है? – ' द ाः '

उ र – सम लोक म जो पदाथ तेज, बल, व ा, ऐ य गुण और श आ दसे स ह, उन सबका वाचक यहाँ ' द ा: ' वशेषणके स हत 'आ वभूतय: ' पद है। तथा उनको पूणतया आप ही कहनेम समथ ह, इस कथनका यह अ भ ाय है क वे सब वभू तयाँ आपक ह – इस लये एवं आपके सवा दूसरा कोई इनको पूणतया जानता ही नह – इस लये भी आपके अ त र दूसरा कोई भी उनका पूणतया वणन नह कर सकता; अतएव कृ पया आप ही उनका वणन क जये। – जन वभू तय ारा आप इन सम लोक को ा कये ए त ह – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इस कथनसे अजुनने यह भाव दखलाया है क म के वल इसी लीकम त आपक द वभू तय का वणन नह सुनना चाहता; म आपक उन सम व भ वभू तय का पूरा वणन सुनना चाहता ँ जनसे व भ प म आप गा द सम लोक म प रपूण हो रहे ह।

कथं व ामहं यो ग ां सदा प र च यन् । के षु के षु च भावेषु च ोऽ स भगव या ॥१७॥

हे योगे र! म कस कार नर र च न करता आ आपको जानूँ और हे भगवन! आप कन- कन भाव म मेरे ारा च न करनेयो

ह॥१७॥

– इस

ोकम अजुनके का ा अ भ ाय है? उ र – अजुनने इसम भगवान्से दो बात पूछी ह – (१) ा और ेमके साथ नर र आपका च न करता र ँ और गुण, भाव तथा त के स हत आपको भलीभाँ त जान सकूँ – ऐसा कोई उपाय बतलाइये। (२) जड-चेतन जतने भी चराचर पदाथ ह, उनम म कन- कनको आपका प समझकर उनम च लगाऊँ – इसक ा ा क जये। अ भ ाय यह है क कन- कन पदाथ म कस कारसे नर र च न करके सहज ही भगवान्के गुण, भाव, त और रह को समझा जा सकता है – इसके स म अजुन पूछ रहे ह।

व रेणा नो योगं वभू त च जनादन । ो े

भूयः कथय तृ ह

तो ना मेऽमृतम् ॥१८॥

हे जनादन! अपनी योगश को और वभू तको फर भी व ारपूवक क हये, क आपके अमृतमय वचन को सुनते ए मेरी तृ नह होती अथात् सुननेक उ ा बनी ही रहती है॥१८॥ – यहाँ 'जनादन ' स

ोधनका ा अ भ ाय है? उ र – सभी मनु अपनी-अपनी इ त व ु के लये जससे याचना कर, उसे 'जनादन ' कहते ह। यहाँ अजुन भगवान्को जनादन नामसे पुकारकर यह भाव दखलाते ह क आपसे सभी मनु अपनी इ -व ु को चाहते ह और आप सबको सब कु छ देनेम समथ ह; अतएव म भी आपसे जो कु छ ाथना करता ँ , कृ पा करके उसे भी पूण क जये। – यहाँ 'योगम् ' और ' वभू तम् ' पद कनके वाचक ह? तथा उन दोन को फरसे व ारपूवक कहनेके लये ाथना करनेका ा अ भ ाय है? उ र – जस अपनी ई रीय श के ारा भगवान् यं इस जगत्के पम कट होकर अनेक प म व ृत होते ह, उस श का नाम 'योग' है और उन व भ प के व ारका नाम ' वभू त' है। इसी अ ायके सातव ोकम भगवान्ने इन दोन श का योग कया है, वहाँ इनका अथ व ारपूवक लखा जा चुका है। उस ोकम इन दोन को त से जाननेका फल अ वचल भ योगक ा होना बतलाया गया है। अतएव अजुन इन ' वभू त' और 'योग' दोन का रह भलीभाँ त जाननेक इ ासे बार-बार व ारपूवक वणन करनेके लये भगवान्से ाथना करते ह। – यहाँ अजुनके इस कथनका ा अ भ ाय है क 'आपके अमृतमय वचन को सुनते-सुनते मेरी तृ ही नह होती?' उ र – इससे अजुन यह भाव दखलाते ह क आपके वचन म ऐसी माधुरी भरी है, उनसे आन क वह सुधाधारा बह रही है, जसका पान करते-करते मन कभी अघाता ही नह । इस द अमृतका जतना ही पान कया जाता है, उतनी ही उसक ास बढ़ती जा रही है। मन करता है क यह अमीरस नर र ही पीता र ँ । अतएव भगवन्। यह मत सो चये क 'अमुक बात तो कही जा चुक है अथवा ब त कु छ कहा जा चुका है, अब और ा कह।' बस, दया करके यह द अमृत बरसाते र हये।

स – अजुनके ारा योग और वभू तय का व ारपूवक पूव पसे वणन करनेके लये ाथना क जानेपर भगवान् पहले अपने व ारक अन ता बतलाकर धानतासे अपनी वभू तय का वणन करनेक त ा करते ह –

ीभगवानुवाच । ह ते कथ य ा म द ा ा वभूतयः । ाधा तः कु े ना ो व र मे ॥१९॥

ीभगवान् बोले – हे कु धानतासे क ँ गा;

े ! अब म जो मेरी द

क मेरे व ारका अ

वभू तयाँ ह, उनको तेरे लये

नह है॥११॥

ोधन ा भाव है? उ र – अजुनको 'कु े ' नामसे स ो धत करके भगवान् यह भाव दखलाते ह क तुम कु कु लम सव े हो, इस लये मेरी वभू तय का वणन सुननेके अ धकारी हो। – ' द ा: ' वशेषणके स हत 'आ वभूतय: ' पदका ा अथ है और उन सबको अब धानतासे क ँ गा – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – जब सारा जगत् भगवान्का प है, तब साधारणतया तो सभी व ुएँ उ क वभू त ह; परंतु वे सब-के -सब द वभू त नह ह। द वभू त उ व ु या ा णय को समझना चा हये, जनम भगवान्के तेज, बल, व ा, ऐ य, ा और श आ दका वशेष वकास हो। भगवान् यहाँ ऐसी ही वभू तय के लये कहते ह क मेरी ऐसी वभू तयाँ अन ह, अतएव सबका तो पूरा वणन हो ही नह सकता। उनमसे जो धान- धान ह, यहाँ म उ का वणन क ँ गा। – मेरे व ारका अ नह है – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान् अजुनके अठारहव ोकम कही ई उस बातका उ र दे रहे ह, जसम अजुनने व ारपूवक (पूण पसे) वभू तय का वणन करनेके लये ाथना क थी। भगवान् कहते ह क मेरी सारी वभू तय का तो वणन हो ही नह सकता; मेरी जो धान- धान वभू तयाँ ह, उनका भी पूरा वणन स व नह है। – 'कु

े 'स

[55]

अब अपनी त ाके अनुसार भगवान् बीसवसे उनतालीसव पहले अपनी वभू तय का वणन करते ह – स



ोकतक

अहमा ा गुडाके श सवभूताशय तः । अहमा द म ं च भूतानाम एव च ॥२०॥



हे अजुन! म सब भूत के दयम और अ भी म ही ँ ॥२०॥

त सबका आ ा ँ तथा स ूण भूत का आ द,

– 'गुडाकेश ' स

ोधनका ा अ भ ाय है? उ र –  'गुडाकेश ' न ाको कहते ह। उसके ामीको 'गुडाकेश ' कहते ह। भगवान् अजुनको 'गुडाकेश ' नामसे स ो धत करके यह भाव दखलाते ह क तुम न ापर वजय ा कर चुके हो। अतएव मेरे उपदेशको धारण करके अ ान न ाको भी जीत सकते हो। – 'सवभूताशय त: ' वशेषणके स हत 'आ ा ' पद कसका वाचक है और वह 'आ ा ' म ँ , इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – सम ा णय के दयम त जो 'चेतन' है जसको परा ' कृ त' और ' े ' भी कहते ह (७।५;१३।१), उसीका वाचक यहाँ 'सवभूताशय त: ' वशेषणके स हत 'आ ा ' पद है। वह भगवान्का ही अंश होनेके कारण (१५।७) व ुत: भगव प ही है (१३।२)। इसी लये भगवान्ने कहा है क 'वह आ ा म ँ । ' – 'भूतानाम् ' पद कसका वाचक है और उनका आ द, म और अ म ँ – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – चराचर सम देहधारी ा णय का वाचक यहाँ 'भूतानाम् ' पद है। सम ा णय का सृजन, पालन और संहार भगवान्से ही होता है। सब ाणी भगवान्से ही उ होते ह; उ म त ह और लयकालम भी उ म लीन होते है; भगवान् ही सबके मूल कारण और आधार ह – यही भाव दखलानेके लये भगवान्ने अपनेको उन सबका आ द, म और अ बतलाया है।

आ द ानामहं व ु तषां र वरंशुमान् । मरी चम ताम न ाणामहं शशी ॥२१॥

म अ द तके बारह पु म व ु और ो तय म करण वाला सूय ँ तथा म उनचास वायुदेवता का तेज [56] और न का अ धप त च मा ँ ॥२१॥ – यहाँ 'आ द ' श ाय है?

कनका वाचक है और उनम ' व ु' म ँ – इस कथनका

ाअभ उ र – अ द तके धाता, म , अयमा, श , व ण, अंश, भग, वव ान्, पूषा, स वता, ा और व ु नामक बारह पु को ादश आ द कहते ह। इनम जो व ु ह, वे इन सबके राजा ह; और अ सबसे े ह। इसी लये भगवान्ने व ुको अपना प बतलाया है। – ो तय म करण वाला सूय म ँ – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – सूय, च मा, तारे, बजली और अ आ द जतने भी काशमान पदाथ ह – उन सबम सूय धान ह; इस लये भगवान्ने सम ो तय म सूयको अपना प बतलाया है। – 'वायुदेवता का 'मरी च' श -वा तेज म ँ ' इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – द तपु उनचास म दगण ् द त देवीके भगवद् ान प तके तेजसे उ ह। उस तेजके ही कारण इनका गभम वनाश नह हो सकता था। इस लये उनके इस तेजको भगवान्ने अपना प बतलाया है। – 'न का अ धप त च मा म ँ ' इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – अ नी, भरणी और कृ का आ द जो स ाईस न ह, उन सबके ामी और स ूण तारा-म लके राजा होनेसे च मा भगवान्क धान वभू त है। इस लये यहाँ उनको भगवान्ने अपना प बतलाया है। [57]

[58]

वेदानां सामवेदोऽ देवानाम वासवः । इ याणां मन ा भूतानाम चेतना ॥२२॥

म वेद म सामवेद ँ , देव म इ जीवनी श

ँ ॥२२॥

ँ, इ

य म मन ँ और भूत ा णय क चेतना अथात्

– 'वेद म सामवेद म ँ ', इस कथनका

ा अ भ ाय है? उ र – ऋक् , यजुः, साम और अथव – इन चार वेद म सामवेद अ मधुर संगीतमय तथा परमे रक अ रमणीय ु तय से यु है; अत: वेद म उसक धानता है। इस लये भगवान्ने उसको अपना प बतलाया है। – 'देव म म इ ँ ', इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – सूय, च मा, अ , वायु आ द जतने भी देवता ह, उन सबके शासक और राजा होनेके कारण इ सबम धान ह, अतः उनको भगवान्ने अपना प बतलाया है। – 'इ य म म मन ँ '; इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – च ,ु ो , चा, रसना, ाण, वाक् , हाथ, पैर, उप और गुदा तथा मन – इन ारह इ य म मन अ दस इ य का ामी, ेरक, उन सबसे सू और े होनेके कारण सबम धान है। इस लये उसको भगवान्ने अपना प बतलाया है। – 'भूत ा णय क चेतना म ँ ' इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – सम ा णय क जो ानश है, जसके ारा उनको दुःख-सुखका और सम पदाथ का अनुभव होता है, जो अ ःकरणक वृ वशेष है। तेरहव अ ायके छठे ोकम जसक गणना े के वकार म क गयी है, उस ानश का नाम 'चेतना' है। यह ा णय के सम अनुभव क हेतुहा धान श है इस लये इसको भगवान्ने अपना प बतलाया है।

ाणां श र ा व ेशो य र साम् । वसूनां पावक ा मे ः शख रणामहम् ॥२३॥

वसु

है?

म एकादश म शंकर ँ और य तथा रा स म धनका मअ ँ और शखरवाले पवत म सुमे पवत ँ ॥२३॥ – एकादश

ामी कुबेर ँ । म आठ

कौन ह और उनम शंकरको अपना प बतलानेका ा अ भ ाय

उ र – हर, ब प, क, अपरा जत, वृषाक प, श ,ु कपद , रैवत, मृग ाध, शव और कपाली – ये ारह कहलाते ह। इनम श ु अथात् शंकर सबके अधी र (राजा) ह [59]

तथा क ाण दाता और क ाण प ह। इस लये उ भगवान्ने अपना प कहा है। – य -रा स म धनप त कु बेरको अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – कु बेर य -रा स के राजा तथा उनम े ह और धना के पदपर आ ढ़ स लोकपाल ह, इस लये भगवान्ने उनको अपना प बतलाया है। – आठ वसु कौन-से ह और उनम पावक (अ ) - को अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – धर, ुव, सोम, अह:, अ नल, अनल, ुष और भास – इन आठ को वसु कहते ह। इनम अनल (अ ) वसु के राजा ह और देवता को ह व प ँ चानेवाले ह। इसके अ त र वे भगवान्के मुख भी माने जाते ह। इसी लये अ (पावक) को भगवान्ने अपना प बतलाया है। – शखरवाल म मे म ँ , इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – सुमे पवत न और ीप का के तथा सुवण और र का भ ार माना जाता है; उसके शखर अ पवत क अपे ा ऊँ चे ह। इस कार शखरवाले पवत म धान होनेसे सुमे को भगवान्ने अपना प बतलाया है। [60]

[61]

पुरोधसां च मु ं मां व पाथ बृह तम् । सेनानीनामहं ः सरसाम सागरः ॥२४॥

पुरो हत म मु खया बृह जलाशय म समु ँ ॥२४॥ – बृह

त मुझको जान। हे पाथ! म सेनाप तय म

और

तको अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – बृह त देवराज इ के गु , देवता के कु लपुरो हत और व ा-बु म सव े ह तथा संसारके सम पुरो हत म मु और आं गरस के राजा माने गये ह। इस लये भगवान्ने उनको अपना प कहा है। – कौन ह और सेनाप तय म इनको भगवान्ने अपना प बतलाया? [62]

उ र – का दूसरा नाम का तके य है। इनके छ: मुख और बारह हाथ ह। ये महादेवजीके पु और देवता के सेनाप त ह। संसारके सम सेनाप तय म ये धान ह, इसी लये भगवान्ने इनको अपना प बतलाया है। – जलाशय म समु को अपना प बतलानेका ा भाव है? उ र – पृ ीम जतने भी जलाशय ह, उन सबम समु बड़ा और सबका राजा माना जाता है; अत: समु क धानता है। इस लये सम जलाशय म समु को भगवान्ने अपना प बतलाया है। [63]

[64]

महष णां भृगुरहं गराम ेकम रम् । य ानां जपय ोऽ ावराणां हमालयः ॥२५॥

म मह षय म भृगु और श म एक अ र अथात् जपय और र रहनेवाल म हमालय पहाड़ ँ ॥२५॥

कार ँ । सब कारके य म

– मह ष कौन-कौन ह? और उनके

ा ल ण ह? उ र – मह ष ब त-से ह, उनके ल ण और उनमसे धान दसके नाम ये ह – ई रा: य ा

यमुदभू ् ता मानसा

ण: सुता:।

ह ते मानैमहान् प रगत: पुर:॥

य ा ष

ये धीरा महा ं सवतो गुण:ै ।

त ा हषय: ो भृगुमरी चर मनुद ो व स णो मानसा

ा बु े: परमद शन:॥ अ रा: पुलह: पुल

े त ते दश॥

ेत उदभू ् ता:

वतत ऋषेय ान् महां

यमी रा:। ा हषय:॥

(वायुपुरण ५९।८२-८३, ८१-१०)

ाके ये मानस पु ऐ यवान् ( स य से स हनन न हो (अथात् जो अप रमेय हो) और जो सव '

तु:।

)

एवं यं उ ह। प रमाणसे जसका ा होते ए भी सामने ( ) हो, वही

महान् है। जो बु के पार प ँ चे ए (भगव ा ) व जन गुण के ारा उस महान् (परमे र)का सब ओरसे अवल न करते ह, वे इसी कारण ('महा म् ऋष इ त महषय:' इस ु के अनुसार) मह ष कहलाते ह। भृगु, मरी च, अ , अं गरा, पुलह तु, मनु, द , व स और पुल य – ये दस मह ष ह। ये सब ाके मनसे यं उ ए ह और ऐ यवान् ह। चूँ क ऋ ष ( ाजी)-से इन ऋ षय के पम यं महान् (परमे र) ही कट ए, इस लये ये मह ष कहलाये।' – मह षय म 'भृग'ु को अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – मह षय म भृगुजी मु ह। ये भगवान्के भ , ानी और बड़े तेज ी ह; इसी लये इनको भगवान्ने अपना प बतलाया है। – ' गराम् ' पदका ा अथ है, 'एकम- रम् ' से ा लेना चा हये और उसे भगवान्का प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – कसी अथका बोध करानेवाले श को 'गी: ' (वाणी) कहते ह और कार ( णव)-को 'एक अ र' कहते है (८।१३)। जतने भी अथबोधक श ह, उन सबम णवक धानता है क ' णव' भगवान्का नाम है (१७।२३)। णवके जपसे भगवान्क ा होती है। नाम और नामीम अभेद माना गया है। इस लये भगवान्ने ' णव' को अपना प बतलाया है। – सम य म जपय को अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – जपय म हसाका सवथा अभाव है और जपय भगवान्का करानेवाला है। मनु ृ तम भी जपय क ब त शंसा क गयी है। इस लये सम य म जपय क धानता है, यह भाव दखलानेके लये भगवान्ने जपय को अपना प बतलाया है। – ावर म हमालयको अपना प बतलानेका ा भाव है? उ र – र रहनेवाल को ावर कहते ह। जतने भी पहाड़ ह सब अचल होनेके कारण ावर है। उनम हमालय सव म है। वह परम प व तपोभू म है और मु म सहायक है। भगवान् नर-नारायण वह तप ा कर चुके ह। साथ ही, हमालय सब पवत का राजा भी है। इस लये उसको भगवान्ने अपना प बतलाया है। [65]

[66]



ः सववृ ाणां देवष णां च नारदः । ं ं ो

ग वाणां च रथः स ानां क पलो मु नः ॥२६॥

म सब वृ म पीपलका वृ , देव षय म नारद मु न, ग व म च रथ और स क पल मु न ँ ॥२६॥ – वृ



म पीपलके वृ को अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – पीपलका वृ सम वन तय म राजा और पूजनीय माना गया है। इस लये भगवान्ने उसको अपना प बतलाया है। – देव ष कनको कहते ह और उनम नारदको अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – देव षके ल ण बारहव, तेरहव ोक क टीकाम दये गये ह, उ वहाँ पढ़ना चा हये। ऐसे देव षय म नारदजी सबसे े ह। साथ ही वे भगवान्के परम अन भ , महान् ानी और नपुण म ा ह। इसी लये नारदजीको भगवान्ने अपना प बतलाया है। नारदजीके स म भी बारहव, तेरहव ोक क ट णीम देखना चा हये। – च रथ ग वको अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – ग व एक देवयो न वशेष है; ये देवलोकम गान, वा और नाट्या भनय कया करते ह। गम ये सबसे सु र और अ पवान् माने जाते ह। 'गु क-लोक' से ऊपर और ' व ाधर-लोकै ' से नीचे इनका 'ग व- लोक' है। देवता और पतर क भाँ त ग व भी दो कारके होते ह – म और द । जो मनु मरकर पु बलसे ग वलोकको ा होते ह वे 'म ' ह और जो क के आर से ही ग व ह उ ' द ' कहते है। द ग व क दो े णयाँ ह – 'मौनेय' और ' ाधेय'। मह ष क पक दो प य के नाम थे – मु न और ाधा। इ से अ धकांश अ रा और ग वक उ ई। भीमसेन, उ सेन, सुपण, व ण, गोप त, धृतरा , सूयवचा, स वाक् , अकपण, युत, भीम, च रथ, शा ल शरा, पज , क ल और नारद – ये सोलह देव-ग व 'मु न' से उ होनेके कारण 'मौनेय' कहलाये। और स , पूण, ब ह पूणायु, चारी, र तगुण, सुपण, व ावसु, सुच , भानु, अ तबा , हाहा, और तु ु – ये चौदह ' ाधा' से उ होनेके कारण ' ाधेय' कहलाये (महाभारत- आ दपव ६५)। इनम हाहा, , व ावसु, तु ु और च रथ आ द धान ह और इनम भी च रथ सबके अ धप त माने जाते ह। च रथ द संगीत- व ाके पारदश और अ ही नपुण ह। इसीसे [67]

भगवान्ने इनको अपना प बतलाया है। इनक कथाएँ अ पुराण, माक ये पुराण महाभारत-आ दपव, वायुपुराण आ दम ह। – स कसको कहते ह और उन सबम क पल मु नको अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – जो सव कारक ूल और सू जगत्क स य को ा ह तथा धम, ान, ऐ य और वैरा आ द े गुण से पूणतया स ह , उनको स कहते ह। ऐसे हजार स ह, जनम भगवान् क पल सव धान ह। भगवान् क पल सा ात् ई रके अवतार ह। महायोगी कदम मु नक प ी देव तको ान दान करनेके लये इ ने उ के गभसे अवतार लया था। इनके ाकट्यके समय यं ाजीने आ मम आकर ीदेव तजीसे था – अयं स गणाधीशः साङ् लोके क पल इ ा (

'ये

ाचाय सुस तः।

ां ग ा ते क तवधन:॥

ीम ागवत ३।२४।१९)

स गण के अधी र और सां के आचाय ारा पू जत होकर तु ारी क तको बढावगे, और लोकम 'क पल' नामसे स ह गे।' ये भावसे ही न ान, ऐ य, धम वैरा आ द गुण से स ह। इनक बराबरी करनेवाला भी दूसरा कोई स नह , फर इनसे बढ़कर तो कोई हो ही कै से सकता है? इसी लये भगवान्ने सम स म क पल मु नको अपना प बतलाया है।

उ ैः वसम ानां व माममृतो वम् । ऐरावतं गजे ाणां नराणां च नरा धपम् ॥२७॥

घोड़ म अमृतके साथ उ होनेवाला उ ैः वा नामक घोड़ा, ऐरावत नामक हाथी और मनु म राजा मुझको जान॥२७॥ – घोड म उ



हा थय म

ैः वा घोड़ेको अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – उ ैः वाक उ अमृतके लये समु का म न करते समय अमृतके साथ ई थी। अत: यह चौदह र म गना जाता है और सम घोड़ का राजा समझा जाता है। इसी लये इसको भगवान्ने अपना प बतलाया है।

– गजे

म ऐरावत नामक हाथीको अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – ब त-से हा थय म जो े हो, उसे गजे कहते ह। ऐसे गजे म भी ऐरावत हाथी, जो इ का वाहन है, सव े और 'गज' जा तका राजा माना गया है। इसक उ भी उ ैः वा घोड़ेक भाँ त समु म नसे ही ई थी। इस लये इसको भगवान्ने अपना प बतलाया है। – मनु म राजाको अपना प कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – शा ो ल ण से यु धमपरायण राजा अपनी जाको पाप से हटाकर धमम वृ करता है और सबक र ा करता है; इस कारण अ मनु से राजा े माना गया है। ऐसे राजाम भगवान्क श साधारण मनु क अपे ा अ धक रहती है। इसी लये भगवान्ने राजाको अपना प कहा है। – साधारण राजा को न लेकर यहाँ य द ेक म रम होनेवाले मनु को ल, जो अपने-अपने समयके मनु के अ धप त होते ह, तो ा आप है? इस म रके लये जाप तने वैव त मनुको मनु का अ धप त बनाया था, यह कथा स है। मनु ाणाम धप त च े वैव तं मनुम्। (वायुपुराण ७०।१८)

उ र – कोई आप नह है। वैव त मनुको भी 'नरा धप' माना जा सकता है।

आयुधानामहं व ं धेनूनाम कामधुक् । जन ा क पः सपाणाम वासु कः ॥२८॥

म श म व और गौ म कामधेनु ँ । शा ो हेतु कामदेव ँ , और सप म सपराज वासु क ँ ॥२८॥ –श

री तसे स ानक उ

का

म व को अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – जतने भी श ह, उन सबम व अ े है; क व म दधी च ऋ षके तपका तथा सा ात् भगवान्का तेज वराजमान है और उसे अमोघ माना गया है ( ीम ागवत ६।११।१९-२०), इस लये व को भगवान्ने अपना प बतलाया है। – दूध देनेवाली गाय म कामधेनुको अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है?

उ र – कामधेनु सम गौ म े द गौ है, यह देवता तथा मनु सभीक सम कामना को पूण करनेवाली है और इसक उ भी समु म नसे ई है; इस लये भगवान्ने इसको अपना प बतलाया है। – क पके साथ ' जन: ' वशेषण देनेका ा अ भ ाय है? उ र – 'क प ' श कामदेवका वाचक हे। इसके साथ ' जन: ' वशेषण देकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क जो धमानुकूल स ानो के लये उपयोगी है, वही 'काम' मेरी वभू त है। यही भाव सातव अ ायके ारहव ोकम भी – कामके साथ 'धमा व :' वशेषण देकर दखलाया गया है। अ भ ाय यह है क इ याराम मनु के ारा वषयसुखके लये उपभोगम आनेवाला काम नकृ है, वह धमानुकूल नह है; परंतु शा व धके अनुसार स ानक उ के लये इ यजयी पु ष के ारा यु होनेवाला काम ही धमानुकूल होनेसे े है। अत: उसको भगवान्क वभू तय म गना गया है। – सप म वासु कको अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – वासु क सम सप के राजा और भगवान्के भ होनेके कारण सप म े माने गये ह; इस लये उनको भगवान्ने अपना प बतलाया है।

अन ा नागानां व णो यादसामहम् । पतॄणामयमा चा यमः संयमतामहम् ॥२९॥

म नाग म शेषनाग और जलचर का अ धप त व णदेवता ँ और पतर म अयमा नामक पतर तथा शासन करनेवाल म यमराज म ँ ॥२९॥ – नाग म शेषनागको अपना

प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – शेषनाग सम नाग के राजा और हजार फण से यु ह तथा भगवान्क श ा बनकर और न उनक सेवाम लगे रहकर उ सुख प ँ चानेवाले, उनके परम अन भ और ब त बार भगवान्के साथ-साथ अवतार लेकर उनक लीलाम स लत रहनेवाले ह, तथा इनक उ भी भगवान्से ही मानी गयी है इस लये भगवान्ने उनको अपना प बतलाया है। – जलचर के अ धप त व णको अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? [68]

उ र – व ण सम जलचर के और जल- देवता के अ धप त, लोकपाल, देवता और भगवान्के भ होनेके कारण सबम े माने गये ह। इस लये उनको भगवान्ने अपना प बतलाया है। – पतर म अयमाको अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – क वाह, अनल, सोम, यम, अयमा, अ ा और ब हषद् – ये सात पतृगण ह। इनम अयमा नामक पतर सम पतर म धान होनेसे उनम े माने गये ह। इस लये उनको भगवान्ने अपना प बतलाया है। – नयमन करनेवाल म यमक अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – म और देव- जगत्म, जतने भी नयमन करनेवाले अ धकारी ह, यमराज उन सबम बढ़कर ह। इनके सभी द , ाय और धमसे यु , हतपूण और पापनाशक होते ह। ये भगवान्के ानी भ और लोकपाल भी ह। इसी लये भगवान्ने इनको अपना प बतलाया है। [69]

[70]

ाद ा दै ानां कालः कलयतामहम् । मृगाणां च मृगे ोऽहं वैनतेय प णाम् ॥३०॥

म दै म ाद और गणना करनेवाल का समय ँ तथा पशु और प य म म ग ड ँ ॥३०॥ – दै

म मृगराज सह

म ादको अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – द तके वंशज को दै कहते ह। उन सबम ाद उ म माने गये ह; क वे सवसदगु् णस , परम धमा ा और भगवान्के परम ालु, न ाम, अन ेमी भ ह तथा दै के राजा ह। इस लये भगवान्ने उनको अपना प बतलाया है। – यहाँ 'काल' श कसका वाचक है? और उसे अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – यहाँ 'काल' श ण, घड़ी, दन, प , मास आ द नाम से कहे जानेवाले समयका वाचक है। यह ग णत व ाके जाननेवाल का गणनाका आधार है। इस लये कालको भगवान्ने अपना प बतलाया।

सह तो हसक पशु है, इसक गणना भगवान्ने अपनी वभू तय म कै से क ? उ र – सह सब पशु का राजा माना गया है। वह सबसे बलवान्, तेज ी, शूरवीर और साहसी होता है। इस लये भगवान्ने सहको अपनी वभू तय म गना है। – प य म ग डको अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – वनताके पु ग डजी प य के राजा और उन सबसे बड़े होनेके कारण प य म े माने गये ह। साथ ही ये भगवान्के वाहन, उनके परम भ और अ परा मी ह। इस लये ग डको भगवान्ने अपना प बतलाया है। –

पवनः पवताम रामः श भृतामहम् । झषाणां मकर ा ोतसाम जा वी ॥३१॥

म प व करनेवाल म वायु और श धा रय म और न दय म ीभागीरथी गंगाजी ँ ॥३१॥ – 'पवताम् ' पदका अथ य द वेगवान् मान

ीराम ँ तथा मछ लय म मगर ँ

लया जाय तो ा आप है? उ र – य प ाकरणक से 'वेगवान्' अथ नह बनता परंतु टीकाकार ने यह अथ भी माना है। इस लये कोई मान तो मान भी सकते ह। वायु वेगवान म (ती ग तसे चलनेवाल म) भी सव े माना गया है और प व करनेवाल म भी। अत: दोन कारसे ही वायुक े ता है। – यहाँ 'राम' श कसका वाचक है और उनको अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र –  'राम' श दशरथपु भगवान् ीरामच जीका वाचक है। उनको अपना प बतलाकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क भ - भ युग म भ - भ कारक लीला करनेके लये म ही भ - भ प धारण करता ँ । ीरामम और मुझम कोई अ र नह है, यं म ही ीराम पम अवतीण होता ँ । – मछ लय म मगरको अपनी वभू त बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – जतने कारक मछ लयाँ होती ह उन सबम मगर ब त बड़ा और बलवान् होता है; इसी वशेषताके कारण मछ लय म मगरको भगवान्ने अपनी वभू त बतलाया है।

– न दय म जा

वी (गंगा)-को अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – जा वी अथात् ीभागीरथी गंगाजी सम न दय म परम े ह; ये ीभगवान्के चरणोदकसे उ , परम प व ह। पुराण और इ तहास म इनका बड़ा भारी माहा बतलाया गया है। इसके अ त र यह बात भी है क एक बार भगवान् व ु यं ही व प होकर बहने लगे थे और ाजीके कम लुम जाकर गंगा प हो गये थे। इस कार सा ात् व होनेके कारण भी गंगाजीका अ माहा है। इसी लये भगवान्ने गंगाको अपना प बतलाया है। [71]

[72]

सगाणामा दर म ं चैवाहमजुन । अ ा व ा व ानां वादः वदतामहम् ॥३२॥

हे अजुन! सृ य का आ द, और अ तथा म , भी म ही ँ । म व ा म अ ा व ा अथात् व ा और पर र ववाद करनेवाल का त नणयके लये कया जानेवाला वाद ँ ॥३२॥ – बीसव फर सग का आ द, म

ोकम भगवान्ने अपनेको भूत का आ द, म और अ बतलाया है; यहाँ और अ बतलाते ह। इसम ा पुन का दोष नह आता? उ र – पुन का दोष नह है; क वहाँ 'भूत' श चेतन ा णय का वाचक है और यहाँ 'सग' श जड-चेतन सम व ु और सम लोक के स हत स ूण सृ का वाचक है। – सम व ा म अ ा व ा-को अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – अ ा व ा या व ा उस व ाको कहते ह जसका आ ासे स है, जो आ त का काश करती है और जसके भावसे अनायास ही का सा ा ार हो जाता है। संसारम ात या अ ात जतनी भी व ाएँ ह, सभी इस व ासे नकृ ह; क उनसे अ ानका ब न टूटता नह , ब और भी ढ़ होता है। परंतु इस व ासे अ ानक गाँठ सदाके लये खुल जाती है और परमा ाके पका यथाथ सा ा ार हो जाता है। इसीसे यह सबसे े है और इसी लये भगवान्ने इसको अपना प बतलाया है।

–  'वाद' को

वभू तय म बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – शा ाथके तीन प होते ह – ज , वत ा और वाद। उ चत-अनु चतका वचार छोड़कर अपने प के म न और दूसरेके प का ख न करनेके लये जो ववाद कया जाता है, उसे 'ज ' कहते ह; के वल दूसरे प का ख न करनेके लये कये जानेवाले ववादको ' वत ा' कहते ह और जो त - नणयके उ े से शु नीयतसे कया जाता है उसे 'वाद' कहते ह। 'ज ' और ' वत ा' से ेष, ोध, हसा और अ भमाना द दोष क उ होती है; और 'वाद' से स के नणयम और क ाण-साधनम सहायता ा होती है। 'ज ' और ' वत ा' ा है तथा 'वाद' आव कता होनेपर ा है। इसी वशेषताके कारण भगवान्ने 'वाद' को अपनी वभू त बतलाया है।

अ राणामकारोऽ ः सामा सक च । अहमेवा यः कालो धाताहं व तोमुखः ॥३३॥

म अ र म अकार ँ और समास म नामक समास ँ । अ य काल अथात् कालका भी महाकाल तथा सब ओर मुखवाला, वराट प, सबका धारण-पोषण करनेवाला भी म ही ँ ॥३३॥ –अ

र म अकारको अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – र और ंजन आ द जतने भी अ र ह उन सबम अकार सबका आ द है और वही सबम ा है। ु तम भी कहा है'अकारो वै सवा वाक्' (ऐतरेय,

ा० पू० ३।६)। 'सम वाणी अकार है।' इन कारण से अकार सब वण म े है, इसी लये भगवान्ने उसको अपना प बतलाया है। – सब कारके समास म समासको अपनी वभू त बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – समासम दोन पद के अथक धानता होनेके कारण, वह अ समास से े है; इस लये भगवान्ने उसको अपनी वभू तय म गना है। [73]

तीसव ोकम जस 'काल' को भगवान्ने अपना प बतलाया है, उसम और इस ोकम बतलाये ए 'काल' म ा भेद है? उ र – तीसव ोकम जस 'काल' का वणन है, वह क , युग, वष, अयन, मास, दन, घड़ी और ण आ दके नामसे कहे जानेवाले 'समय' का वाचक है। वह कृ तका काय है, महा लयम वह नह रहता इसी लये वह 'अ य' नह है। और इस ोकम जस 'काल' का वणन है वह सनातन, शा त, अना द, अन और न पर परमा ाका सा ात् प है इसी लये इसके साथ 'अ य' वशेषण दया गया है। अतएव तीसव ोकम व णत 'काल' से इसम ब त अ र है। वह कृ तका काय है और यह कृ तसे सवथा अतीत है। – सब ओर मुखवाला धाता अथात् सबका धारण-पोषण करनेवाला मै ँ , इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इस कथनसे भगवान्ने वराट् के साथ अपनी एकता दखलायी है। अ भ ाय यह है क जो सबका धारण-पोषण करनेवाला सव ापी व प परमे र है, वह मै ही ँ , मुझसे भ वह कोई दूसरा नह है। –

[74]

मृ ुः सवहर ाहमु व भ व ताम् । क तः ीवा नारीणां ृ तमधा धृ तः मा ॥३४॥

म सबका नाश करनेवाला मृ ु और उ होनेवाल का उ य म क त, ी, वाक्, ृ त, मेधा, धृ त और मा ँ ॥३४॥ – सबका नाश करनेवाले मृ

हेतु ँ तथा

कु ो अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – भगवान् ही मृ ु प होकर सबका संहार करते ह। इस लये यहाँ भगवान्ने मृ ुको अपना प बतलाया है। नवम अ ायके उ ीसव ोकम भी कहा है क 'मृ ु और अमृत म ही ँ ।' – अपनेको उ होनेवाल का उ तहेतु बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – जस कार मृ ु प होकर भगवान् सबका नाश करते ह अथात् उनका शरीरसे वयोग कराते ह, उसी कार भगवान् ही उनका पुन: दूसरे शरीर से स कराके उ उ

करते ह – यही भाव दखलानेके लये भगवान्ने अपनेको उ होनेवाल का उ तहेतु बतलाया है। – क त, ी, वाक् , ृ त मेधा, धृ त और मा – ये सात कौन ह और इनको अपनी वभू त बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – ाय ुव मनुक क ा सू त जाप त द को ाही थ , उनसे चौबीस क ाएँ ई। क त, मेधा, धृ त, ृ त और मा उ मसे ह। इनम क त, मेधा और धृ तका ववाह धमसे आ; ृ तका अं गरासे और मा मह ष पुलहको ाही गय । मह ष भृगुक क ाका नाम ी है, जो द क ा ा तके गभसे उ ई थ । इनका पा ण हण भगवान् व ुने कया और वाक् ाजीक क ा थ । इन सात के नाम जन गुण का नदश करते ह – ये सात उन व भ गुण क अ ध ातृदेवता ह तथा संसारक सम य म े मानी गयी ह। इसी लये भगवान्ने इनको अपनी वभू त बतलाया है।

बृह ाम तथा सा ां गाय ी छ सामहम् । मासानां मागशीष ऽहमृतूनां कु सुमाकरः ॥३५॥

तथा गायन करनेयो ु तय म म बृह ाम और छ महीन म मागशीष और ऋतु म वस म ँ ॥३५॥

म गाय ी छ

– सामवेदको तो भगवान्ने पहले ही अपना प बतला यहाँ 'बृह ाम ' को अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है?

ँ तथा

दया है (१०।२२), फर

उ र – सामवेदके 'रथ र' आ द साम म बृहत् साम ('बृहत्' नामक साम) धान होनेके कारण सबम े है, इसी कारण यहाँ  'बृह ाम ' को अपना प बतलाया है। – छ म गाय ी छ को अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – वेद क जतनी भी छ ोब ऋचाएँ ह, उन सबम गाय ीक ही धानता है। ु त ृ त, इ तहास और पुराण आ द शा म जगह-जगह गाय ीक म हमा भरी है। गाय ीक इस े ताके कारण ही भगवान्ने उसको अपना प बतलाया है। – महीन म मागशीषको अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? [75]

[76]

उ र – महाभारतकालम महीन क गणना मागशीषसे ही आर होती थी (महा०, अनुशासन- १०६ और १०९)। अत: यह सब मास म थम मास है, तथा इस मासम कये ए त-उपवास का शा म महान् फल बतलाया गया है। नये अ क इ (य )-का भी इसी महीनेम वधान है। वा ीक य रामायणम इसे संव रका भूषण बतलाया गया है। इस कार अ ा मास क अपे ा इसम कई वशेषताएँ ह, इस लये भगवान्ने इसको अपना प बतलाया है। – ऋतु म वस -ऋतुको अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – वस सब ऋतु म े और सबका राजा है। इसम बना ही जलके सब वन तयाँ हरी-भरी और नवीन प तथा पु से सम त हो जाती ह। इसम न अ धक गरमी रहती है और न सरदी। इस ऋतुम ाय: सभी ा णय को आन होता है। इसी लये भगवान्ने इसको अपना प बतलाया है। [77]

ूतं छलयताम तेज ेज नामहम् । जयोऽ वसायोऽ स ं स वतामहम् ॥३६॥

म छल करनेवाल म जूआ और भावशाली पु ष का भाव ँ । म जीतनेवाल का वजय ँ , न य करनेवाल का न य और सा क पु ष का सा क भाव ँ ॥३६॥

तू अथा जूआ तो ब त बुरी चीज है और शा म इसका बड़ा नषेध है, इसको भगवान्ने अपना प बतलाया? और य द भगवान्का ही प है तो फर इसके खेलनेम ा आप है? उ र – संसारम उ म, म म और नीच – जतने भी जीव और पदाथ ह सभीम भगवान् ा ह और भगवान्क ही स ा ू तसे सब चे ा करते ह। ऐसा एक भी पदाथ नह है जो भगवान्क स ा और श से र हत हो। ऐसे सब कारके सा क, राजस और तामस जीव एवं पदाथ म जो वशेष गुण, वशेष भाव और वशेष चम ारसे यु है, उसीम भगवान्क स ा और श का वशेष वकास है। इसी से यहाँ भगवान्ने ब त ही सं ेपम देवता, दै , मनु , पशु, प ी और सप आ द चेतन; तथा व , इ य, मन, समु आ द जड पदाथ के साथ-साथ जय, न य, तेज, नी त, ान आ द भाव का भी वणन कया है। थोड़ेम सबका वणन हो जाय, इसीसे धान- धान सम वभाग के नाम बतलाये ह। अ भ ाय यह है क जस- जस , पदाथ, या या भावका मनसे च न होने लगे उस-उसम मेरा ही –

च न करना चा हये। इसीसे छल करनेवाल म जूएको भगवान्ने अपना प बताया है। उसे उ म बतलाकर उसम वृ करनेके उ े से नह । भगवान्ने तो महान् ू र और हसक सह और मगरको एवं सहज ही वनाश करनेवाले अ को तथा सवसंहारकारी मृ ुको भी अपना प बतलाया है। उसका अ भ ाय यह थोड़े ही है क कोई भी मनु जाकर सह या मगरके साथ खेल,े आगम कू द पड़े अथवा जान-बूझकर मृ ुके मुँहम घुस जाय। इनके करनेम जो आप है वही आप जूआ खेलनेम है। – ' भाव', ' वजय', ' न य' और 'सा कभाव' को अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – ये चार ही गुण भगव ा म सहायक ह, इस लये भगवान्ने इनको अपना प बतलाया है। इन चार को अपना प बतलाकर भगवान्ने यह भाव भी दखलाया है क तेज ी ा णय म जो तेज या भाव है वह वा वम मेरा ही है। जो मनु उसे अपनी श समझकर अ भमान करता है वह भूल करता है। इसी कार वजय ा करनेवाल का वजय, न य करनेवाल का न य और सा क पु ष का सा कभाव – ये सब गुण भी मेरे ही ह। इनके न म से अ भमान करना भी बड़ी भारी मूखता है। इसके अ त र इस कथनम यह भाव भी है क जन- जनम उपयु गुण ह , उनम भगवान्के तेजक अ धकता समझकर उनको े मानना चा हये। [78]

वृ ीनां वासुदेवोऽ पा वानां धन यः । मुनीनाम हं ासः कवीनामुशना क वः ॥३७॥

वृ वं शय म वासुदेव अथात् म यं तेरा सखा, पा व म धनंजय अथात् तू, मु नय म वेद ास और क वय म शु ाचाय क व भी म ही ँ ॥३७॥ – वृ

वं शय म वासुदेव म ही ँ , इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इस कथनसे भगवान्ने अवतार और अवतारीक एकता दखलायी है। कहनेका भाव यह है क म अज ा अ वनाशी, सब भूत का महे र, सवश मान्, पूण पु षो म ही यहाँ वसुदेवके पु के पम लीलासे कट आ ँ (४।६)। अतएव जो मनु मुझे साधारण मनु समझते ह वे भारी भूल करते ह।

पा व म अजुनको अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है क पाँच पा व म तो धमराज यु ध र ही सबसे बड़े तथा भगवान्के भ और धमा ा थे? उ र – नःस हे यु ध र पा व म सबसे बड़े धमा ा और भगवान्के परम भ थे, तो भी अजुन ही सब पा व म े माने गये ह। इसका कारण यह है क नर-नारायण-अवतारम अजुन नर पसे भगवान्के साथ रह चुके ह। इसके अ त र वे भगवान्के परम य सखा और उनके अन ेमी भ ह। इस लये अजुनको भगवान्ने अपना प बतलाया है। – मु नय म ासको अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – भगवान्के पका और वेदा द शा का मनन करनेवालेको 'मु न ' कहते ह। भगवान् वेद ास सम वेद का भलीभाँ त च न करके उनका वभाग करनेवाले, महाभारत, पुराण आ द अनेक शा के रच यता, भगवान्के अंशावतार और सवसदगु् णस ह। अतएव मु नम लम उनक धानता होनेके कारण भगवान्ने उ अपना प बतलाया है। – क वय म शु ाचायको अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – जो प त और बु मान् हो, उसे क व कहते ह। शु ाचायजी भागव के अ धप त, सब व ा म वशारद, संजीवनी व ाके जाननेवाले और क वय म धान ह, इस लये इनको भगवान्ने अपना प बतलाया है। –

[79]

[80]

द ो दमयताम नी तर जगीषताम् । मौनं चैवा गु ानां ानं ानवतामहम् ॥३८॥

म दमन करनेवाल का द इ ावाल क नी त ँ , गु रखनेयो म ही ँ ॥३८॥ – दमन करनेवाल के

अथात् दमन करनेक श ँ , जीतनेक भाव का र क मौन ँ और ानवान का त ान

द को अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – द (दमन करनेक श ) धमका ाग करके अधमम वृ उ ृ ंखल मनु को पापाचारसे रोककर स मम वृ करता है। मनु के मन और इ य आ द भी इस दमन-श के ारा ही वशम होकर भगवान्क ा म सहायक बन सकते ह। दमन-श से सम ाणी अपने-अपने अ धकारका पालन करते ह। इस लये जो भी देवता, राजा और

शासक आ द ायपूवक दमन करनेवाले ह, उन सबक उस दमन-श को भगवान्ने अपना प बतलाया है। – वजय चाहनेवाल क नी तको अपना प बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – 'नी त' श यहाँ ायका वाचक है। ायसे ही मनु क स ी वजय होती है। जस रा म नी त नह रहती, अनी तका बताव होने लगता है, वह रा भी शी न हो जाता है अतएव नी त अथात् ाय वजयका धान उपाय है। इस लये वजय चाहनेवाल क नी तको भगवान्ने अपना प बतलाया है। – मौनको अपना प बतलानेका ा भाव है? उ र – जतने भी गु रखनेयो भाव ह, वे मौनसे (न बोलनेस)े ही गु रह सकते ह। बोलना बंद कये बना उनका गु रखा जाना क ठन है। इस कार गोपनीय भाव के र क मौनक धानता होनेसे मौनको भगवान्ने अपना प बतलाया है। – यहाँ ' ानवताम् ' पद कन ा नय का वाचक है? और उनके ानको अपना प बतलानेका ा भाव है? उ र – ' ानवताम् ' पद पर परमा ाके पका सा ात् कर लेनेवाले यथाथ ा नय का वाचक है। उनका ान ही सव म ान है। इस लये उसको भगवान्ने परमा ाका प बतलाया है। तेरहव अ ायके स हव ोकम भी भगवान्ने अपनेको ान प बतलाया है।

य ा प सवभूतानां बीजं तदहमजुन । न तद वना य ा या भूतं चराचरम् ॥३९॥

और हे अजुन! जो सब भूत क उ का कारण है, वह भी म ही ँ ; अचर कोई भी भूत नह है जो मुझसे र हत हो॥३१॥ – सम ाय है?

चराचर ा णय का बीज ा है? और उसे अपना

क ऐसा चर और

प बतलानेका

ाअभ उ र – भगवान् ही सम चराचर भूत ा णय के परम आधार ह और उ से सबक उ होती है। अतएव वे ही सबके बीज या महान् कारण ह। इसीसे सातव अ ायके दसव

ोकम उ सब भूत का 'सनातन बीज' और नवम अ ायके अठारहव ोकम 'अ वनाशी बीज' बतलाया गया है। इसी लये भगवान्ने उसको यहाँ अपना प बतलाया है। – ऐसा कोई भी चर या अचर ाणी नह है, जो मुझसे र हत हो – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान्ने अपनी सव ापकता और सव पता दखलायी है। अ भ ाय यह है क चर या अचर जतने भी ाणी ह उन सबम म ा ँ ; कोई भी ाणी मुझसे र हत नह है। अतएव सम ा णय को मेरा प समझकर और मुझे उनम ा समझकर जहाँ भी तु ारा मन जाय वह तुम मेरा च न करते रहो। इस कार अजुनके उस का क 'आपको कन- कन भाव म च न करना चा हये?' (१०। १७) भी इससे उ र हो जाता है।

उ ीसव ोकम भगवान्ने अपनी द वभू तय को अन बतलाकर धानतासे उनका वणन करनेक त ा क थी, उसके अनुसार बीसवसे उनतालीसव ोकतक उनका वणन कया। अब पुनः अपनी द वभू तय क अन ता दखलाते ए उनका उपसंहार करते ह – स



ना ोऽ मम द ानां वभूतीनां पर प । एष तू शे तः ो ो वभूते व रो मया ॥४०॥

हे परंतप! मेरी द वभू तय का अ नह है, मने अपनी वभू तय का यह व ार तो तेरे लये एकदेशसे अथात् सं ेपसे कहा है॥४०॥ – मेरी

द वभू तय का अ नह है। इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क मेरी साधारण वभू तय क तो बात ही ा है; जो द वभू तयाँ ह उनक भी सीमा नह है। जैसे जल और पृ ीके परमाणु क गणना नह क जा सकती, उसी कार मेरी वभू तय क भी गणना नह हो सकती। वे इतनी ह क न तो कोई भी उ जान सकता है और न उनका वणन ही कर सकता है। अन ा म मेरी अन वभू तयाँ ह, उनका कोई भी पार नह पा सकता। – यह वभू तय का व ार मने एक- देशसे अथात् सं ेपसे कहा है, इस कथनका ा अ भ ाय है?

उ र – इस कथनसे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क मने अपनी द वभू तय का जो कु छ भी व ार तु बतलाया है वह उन द वभू तय के एकदेश (अंशमा ) -का ही वणन है और पूरा वणन तो अ ही क ठन है। अतएव अब म इस वणनका यह उपसंहार करता हँ । अठारहव ोकम अजुनने भगवान्से उनक वभू त और योगश का वणन करनेक ाथना क थी, उसके अनुसार भगवान् अपनी द वभू तय का वणन समा करके अब सं ेपम अपनी योग- श का वणन करते ह – स



य भू तम ं ीमदू जतमेव वा । त देवावग ं मम तेज ऽशस वम् ॥४१॥

जो-जो भी वभू तयु अथात् ऐ ययु , का यु उस- उसको तु मेरे तेजके अंशक ही अ भ जान॥४१॥ – 'यत् यत्' तथा ' वभू तमत्', '

और श

यु

व ु है,

ीमत्' और 'ऊ जतम्' वशेषण के स हत 'स म्' पद कसका वाचक है और उसको भगवान्के तेजके अंशक अ भ समझना ा है? उ र – जो भी ाणी या कोई जड व ु ऐ यस , शोभा और का आ द गुण से स एवं बल, तेज, परा म या अ कसी कारक श से यु ह, उन सबका वाचक यहाँ उपयु वशेषण स हत 'स म् ' पद है और जसम उपयु ऐ य, शोभा, श , बल और तेज आ द सब-के -सब या उनमसे कोई एक भी तीत होता हो, उस ेक ाणी और ेक व ुको भगवान्के तेजका अंश समझना ही उसको भगवान्के तेजके अंशक अ भ समझना है। अ भ ाय यह है क जस कार बजलीक श से कह रोशनी हो रही है, कह पंखे चल रहे है, कह जल नकल रहा है, कह रे डयोम दूर-दूरके गाने सुनायी पड़ रहे ह – इस कार भ - भ अनेक ान म और भी ब त काय हो रहे ह, परंतु यह न य है क जहाँ-जहाँ ये काय होते ह, वहाँ-वहाँ बजलीका ही भाव काय कर रहा है, व ुत: वह बजलीके ही अंशक अभ है। उसी कार जस ाणी या व ुम जो भी कसी तरहक वशेषता दखलायी पड़ती है, उसम भगवान्के ही तेजके अंशक अ भ समझनी चा हये।

इस कार मु -मु व ु म अपनी योगश पी तेजके अंशक अ भ का वणन करके अब भगवान् यह बतला रहे ह क सम जगत् मेरी योगश के एक अंशसे ही धारण कया आ है – स



अथवा ब नैतेन क ातेन तवाजुन । व ाह मदं कृ मेकांशेन तो जगत् ॥४२॥

अथवा हे अजुन! इस ब त जाननेसे तेरा अपनी योगश के एक अंशमा से धारण करके

ा योजन है। म इस स ूण जगत्को त ँ ॥४२॥

– यहाँ 'अथवा ' श

के योगका ा भाव है? उ र –  'अथवा ' श प ा रका बोधक है। बीसवसे उनतालीसव ोकतक भगवान्ने अपनी धान- धान वभू तय का वणन करके और इकतालीसव ोकम अपने तेजक अ भ के ान को बतलाकर जो बात समझायी है, उससे भी भ अपने वशेष भावक बात अब कहते ह – यही भाव दखलानेके लये यहाँ  'अथवा ' श का योग कया गया है। – इस ब त जाननेसे तेरा ा योजन है? इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इस कथनसे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क तु ारे पूछनेपर मने धानधान वभू तय का वणन तो कर दया, कतु इतना ही जानना यथे नह है। सार बात यह है जो म अब तु बतला रहा ँ , इसको तुम अ ी कार समझ लो; फर सब कु छ अपने- आप ही समझम आ जायगा, उसके बाद तु ारे लये कु छ भी जानना शेष नह रहेगा। – 'इदम् ' और 'कृ ् ' वशेषण के स हत 'जगत् ' पद कसका वाचक है? और उसको भगवान्क योगश के एक अंशसे धारण कया आ बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – यहाँ 'इदम् ' और 'कृ ् ' वशेषण के स हत 'जगत् ' पद मन, इ य और शरीरस हत सम चराचर ाणी तथा भोगसाम ी, भोग ान और सम लोक के स हत ा का वाचक है। यह ा भगवान्के कसी एक अंशम उ क योगश से धारण कया आ है, यही भाव दखलानेके लये भगवान्ने इस जगत्के स ूण व ारको अपनी योगश के एक अंशसे धारण कया आ बतलाया है।

ॐ त द त ीम गव ीतासूप नष ु व ायां योगशा े ी ं े ोो ो

ीकृ ाजुनसंवादे वभू तयोगो नाम दशमोऽ ायः ॥ १०॥

|| ॐ

ी परमा ने नमः ||

अथैकादशोऽ ायः

इस अ ायम अजुनके ाथना करनेपर भगवान्ने उनको अपने व पके दशन करवाये ह। अ ायके अ धकांशम के वल व पका और उसके वनका ही करण है, इस लये इस अ ायका नाम ' व पदशनयोग' रखा गया है। अ ायका सं ेप इस अ ायम पहलेसे चौथे ोकतक अजुनने भगवान्क और उनके उपदेशक शंसा करके व पके दशन करानेके लये भगवान्से ाथना क है। पांचवसे आठवतक भगवान्ने अपने अंदर देवता, मनु , पशु, प ी आ द सम चराचर ा णय तथा अनेक आ य द स हत स ूण जगत्को देखनेक आ ा देकर अ म द दान करनेक बात कही है। नवम संजयने भगवान्के ारा अजुनको व प दखलानेक बात कहकर दसवसे तैरहवतक अजुनको कै सा प दखलायी दया – इसका वणन कया है। चौदहवम उस पको देखकर अजुनके व त और ह षत होकर ाके साथ भगवान्को णाम करके बोलनेक बात कही है। तदन र पं हवसे इकतीसवतक अजुनने व पका वन, उसके भावका वणन और उसम दखलायी देनेवाले का वणन करके अ म भगवान्से अपना वा वक प रचय देनेके लये ाथना क है। ब ीसवसे च तीसवतक भगवान्ने अपनेको लोक का नाश करनेवाला 'काल' तथा भी - ोणा द सम वीर को पहले ही अपने ारा मारे ए बतलाकर अजुनको उ ा हत करते ए न म मा बनकर यु करनेक आ ा दी है। इसके बाद पतीसवम भगवान्के वचन सुनकर आ य और भयम नम अजुनके बोलनेका कार बताकर छ ीसवसे छयालीसवतक भगवान्क ु त, उनको नम ार, उनसे मा-याचना और द चतुभुज पका दशन करानेके लये ाथना करनेका वणन है। सतालीसव और अड़तालीसवम भगवान्ने अपने व पक म हमा और उसके दशनक दुलभता बतलाकर उनचासवम अजुनको आ ासन देते ए चतुभुज प देखनेक आ ा दी है। पचासवम चतुभुज पके दशन कराकर फर मनु प होनेका संजयने वणन कया है। इ ावनवम अजुनने भगवान्का सौ मानव प देखकर सचेत और कृ तगत होनेक बात कही है। तदन र बावनव और तरपनवम भगवान्ने अपने चतुभुज पके दशनको दुलभ बतलाकर चौवनवम अ ायका नाम

अन -भ के ारा उस पका दशन, ान और ा होना सुलभ बतलाया है। फर पचपनवम अन भ का प और उसका फल बतलाकर अ ायका उपसंहार कया है। स – दसव अ ायके सातव ोकतक भगवान्ने अपने वभू त तथा योगश का और उनके जाननेके माहा का सं ेपम वणन करके ारहव ोकतक भ योग और उसके फलका न पण कया। इसपर बारहवसे अठारहव ोकतक अजुनने भगवान्क ु त करके उनसे द वभू तय का और योगश का व ृत वणन करनेके लये ाथना क । तब भगवान्ने चालीसव ोकतक अपनी वभू तय का वणन समा करके अ म योगश का भाव बतलाते ए सम ा को अपने एक अंशम धारण कया आ कहकर अ ायका उपसंहार कया। इस संगको सुनकर अजुनके मनम उस महान् पको ( जसके एक अंशम सम व त हे) देखनेक इ ा उ हो गयी। इसी लये इस ारहव अ ायके आर म पहले चार ोक म भगवान्क और उनके उपदेशक शंसा करते ए अजुन उनसे व पका दशन करानेके लये ाथना करते ह –

अजुन उवाच । मदनु हाय परमं गु म ा सं तम् । य यो ं वच ेन मोहोऽयं वगतो मम ॥१॥

अ ा

अजुन बोले – मुझपर अनु ह करनेके लये आपने जो परम गोपनीय वषयक वचन अथात् उपदेश कहा, उससे मेरा यह अ ान न हो गया है॥१॥ – 'मदनु हाय ' पदके

योगका ा अ भ ाय है? उ र – दसव अ ायके ार म ेम-समु भगवान्ने 'अजुन! तु ारा मुझम अ ेम है, इसीसे म ये सब बात तु ारे हतके लये कह रहा ँ ' ऐसा कहकर अपना जो अलौ कक भाव सुनाया, उसे सुनकर अजुनके दयम कृ त ता, सुख ओर ेमक तरंग उछलने लग । उ ने सोचा, 'अहा! इन सवलोकमहे र भगवान्क मुझ तु पर कतनी कृ पा है, जो ये मुझ ु को अपना ेमी मान रहे ह और मेरे सामने अपने मह क कै सी-कै सी गोपनीय बात खुले श म कट करते ही जा रहे ह।' अब तो उ मह षय क कही ई बात का रण हो आया और उ ने परम व ासके साथ भगवान्का गुणगान करते ए पुन: योगश और वभू तय का व ार सुनानेके लये ेमभरी ाथना क – भगवान्ने ाथना सुनी और अपनी

वभू तय तथा योगका सं वणन सुनाया। अजुनके दयपर भगव ृ पाक मुहर लग गयी। वे भगव ृ पाके अपूव दशन कर आन मु हो गये। साधकको जबतक अपने पु षाथ, साधन या अपनी यो ताका रण होता है तबतक वह भगव ृ पाके परमलाभसे वं चत-सा ही रहता है। भगव ृ पाके भावसे वह सहज ही साधनके उ रपर नह चढ़ सकता। परंतु जब उसे भगव ृ पासे ही भगव ृ पाका भान होता है और वह वत् यह समझ जाता है क जो कु छ हो रहा है, सब भगवान्के अनु हसे ही हो रहा है, तब उसका दय कृ त तासे भर जाता है और वह पुकार उठता है 'ओहो, भगवन्! म कसी भी यो नह ँ । म तो सवथा अन धकारी ँ । यह सब तो आपके अनु हक ही लीला है।' ऐसे ही कृ त तापूण दयसे अजुन कह रहे ह क भगवन्! आपने जो कु छ भी मह और भावक बात सुनायी ह, म इसका पा नह ँ । आपने अनु ह करनेके लये ही यह परम गोपनीय अपना रह मुझको सुनाया है। 'मदनु हाय ' पदके योगका यही अ भ ाय है। – 'परमम् ', 'गु म् ', 'अ ा - सं तम्' – इन तीन वशेषण के स हत 'वच: ' पद भगवान्के कौन-से उपदेशका सूचक है तथा इन वशेषण का ा भाव है? उ र – दसव अ ायके पहले ोकम जन परम वचन को भगवान्ने पुन: कहनेक त ा क है और उस त ाके अनुसार ारहव ोकतक जो भगवान्का उपदेश है एवं उसके बाद अजुनके पूछनेपर पुन: बीसवसे बयालीसव ोकतक भगवान्ने जो अपनी वभू तय का और योगश का प रचय दया है तथा सातवसे नव अ ायतक व ानस हत ानके कहनेक त ा करके भगवान्ने जो अपने गुण, भाव, ऐ य और पका त और रह समझाया है – उस सभी उपदेशका वाचक यहाँ 'परमम् ', 'गु म् ', 'अ ा - सं तम्' – इन तीन वशेषण के स हत 'वच: ' पद है। जन- जन करण म भगवान्ने अपने गुण, भाव और त का न पण करके अजुनको अपनी शरणम आनेके लये ेरणा क है और पसे यह बतलाया है क म ीकृ जो तु ारे सामने वरा जत ँ , वही सम जगत्का कता, हता नगुण सगुण, नराकार, साकार, मायातीत, सव-श मान्, सवाधार परमे र ँ । उन करण को भगवान्ने यं 'परम गु ' बतलाया है। अतएव यहाँ उ वशेषण का अनुवाद करके अजुन यह भाव दखलाते ह क आपका यह उपदेश अव ही परम गोपनीय है।

यहाँ 'अयम् ' वशेषणके स हत 'मोह: ' पद अजुनके कस मोहका वाचक है और उपयु उपदेशके ारा उसका नाश हो जाना ा है? उ र – अजुन जो भगवान्के गुण, भाव, ऐ य और पको पूण पसे नह जानते थे – यही उनका मोह था। अब उपयु उपदेशके ारा भगवान्के गुण, भाव, ऐ य, रह और पको कु छ समझकर वे जो यह जान गये ह क ीकृ ही सा ात् परमे र ह – यही उनके मोहका न होना है। –

भवा यौ ह भूतानां तु ौ व रशो मया । ः कमलप ा माहा म प चा यम् ॥२॥

क हे कमलने ! मने आपसे भूत क उ तथा आपक अ वनाशी म हमा भी सनी है॥२॥

भाव है?

– मन आपसे भूत क



और लय व ारपूवक सुने ह

और लय व ारपूवक सुने ह, इस कथनका ा

उ र – इससे अजुनने यह भाव दखलाया है क आपसे ही सम चराचर ा णय क उ होती है, आप ही उनका पालन करते ह और वे सब आपम ही लीन होते ह – यह बात मने आपके मुखसे (सातव अ ायसे लेकर दसव अ ायतक) व ारके साथ बार-बार सुनी है। – तथा आपक अ वनाशी म हमा भी सुनी है, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इससे अजुनने यह भाव दखलाया है क के वल भूत क उ और लयक ही बात आपसे सुनी हो, ऐसी बात नह है; आपक जो अ वनाशी म हमा है, अथात् आप सम व का सृजन, पालन और संहार आ द करते ए भी वा वम अकता ह, सबका नयमन करते ए भी उदासीन ह, सव ापी होते ए भी उन-उन व ु के गुण-दोषसे सवथा न ल ह, शुभाशुभ कम का सुख-दुःख प फल देते ए भी नदयता और वषमताके दोषसे र हत ह, कृ त, काल और सम लोकपाल के पम कट होकर सबका नयमन करनेवाले सवश मान् भगवान् ह – इस कारके माहा य को भी उन-उन करण म बार-बार सुना है।

एवमेत था मा ानं परमे र । ु म ा म ते पमै रं पु षो म ॥३॥

हे परमे र! आप अपनेको जैसा कहते ह, यह ठीक ऐसा ही है; परंतु हे पु षो म! आपके ान, ऐ य, श , बल, वीय और तेजसे यु ऐ र- पको म देखना चाहता ँ ॥३॥

र' और 'पु षो म ' – इन दोन स ोधन का ा अ भ ाय है? उ र – 'परमे र' स ोधनसे अजुन यह भाव दखलाते ह क आप ई र के भी महान् ई र ह और सवसमथ ह; अतएव म आपके जस ऐ र- पके दशन करना चाहता ँ , उसके दशन आप सहज ही करा सकते ह। तथा 'पु षो म ' स ोधनसे यह भाव दखलाते ह क आप र और अ र दोन से उ म सा ात् भगवान् ह। अतएव मुझपर दया करके मेरी इ ा पूण क जये। – आप अपनेको जैसा कहते ह, यह ठीक ऐसा ही है – इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे अजुनने यह भाव दखलाया है क अपने गुण, भाव, त और ऐ यका वणन करते ए आपने अपने वषयम जो कु छ कहा है – वह पूण पसे यथाथ है, उसम मुझे क च ा भी शंका नह है। – 'ऐ रम् ' वशेषणके स हत ' पम् ' पद कस पका वाचक है और उसे देखना चाहता ँ – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – असीम और अन ान, श , बल, वीय और तेज आ द ई रीय गुण और भाव जसम दखलायी देते ह तथा सारा व जसके एक अंशम हो, ऐसे पका वाचक यहाँ 'ऐ रम् ' वशेषणके स हत ' पम् ' पद है। और 'उसे म देखना चाहता ँ ' इस कथनसे अजुनने यह भाव दखलाया है क ऐसा अदभु् त प मने कभी नह देखा; आपके मुखसे उसका वणन सुनकर (१०। ४२) उसे देखनेक मेरे मनम अ उ ट इ ा उ हो गयी है, उस पके दशन करके म कृ तकृ हो जाऊँ गा – म ऐसा मानता ँ । – य द अजुनको भगवान्के कथनम पूण व ास था, कसी तरहक शंका थी ही नह , तो फर उ ने वैसा प देखनेक इ ा ही कट क ? उ र – जैसे कसी स वादीके पास पारस, च ाम ण या अ कोई अदभत ् व ु हो और उसके बतलानेपर सुननेवाले मनु को यह पूण व ास भी हो जाय क इनके पास अमुक – 'परमे

व ु अव है, इसम कु छ भी संदेह नह है; तथा प वह अदभु् त व ु पहले कभी देखी ई न होनेके कारण य द उसके मनम उसे देखनेक उ ट इ ा हो जाय और वह उसे कट कर दे तो इससे व ासम कमी होनेक कौन-सी बात है? इसी कार, भगवान्के उस अलौ कक पको अजुनने पहले कभी नह देखा था, इस लये उसे देखनेक उनके मनम इ ा जा त् हो गयी और उसको उ ने कट कर दया तो इसम उनका व ास कम था – यह नह समझा जा सकता। ब व ास था तभी तो देखनेक इ ा कट क ।

म से य द त ं मया ु म त भो । योगे र ततो मे ं दशया ानम यम् ॥४॥

हे भो! य द मेरे ारा आपका वह प देखा जाना श है – ऐसा आप मानते ह, तो हे योगे र! उस अ वनाशी पका मुझे दशन कराइये॥४॥ – ' भो ' और 'योगे र ' – इन दो स

ोधन का ा अ भ ाय है? उ र – ' भो ' स ोधनसे अजुनने यह भाव दखलाया है क आप सबक उ , त और लय तथा अ यामी पसे शासन करनेवाले होनेके कारण सवसमथ ह। इस लये य द म आपके उस पके दशनका सुयो अ धकारी नह ँ तो आप कृ पापूवक अपने साम से मुझे सुयो अ धकारी बना सकते ह। तथा 'योगे र ' वशेषण देकर यह भाव दखलाया है क आप स ूण योग के ामी ह। अतएव य द आप चाह तो मुझको अपना वह प अनायास ही दखला सकते ह। जब साधारण योगी भी अनेक कारसे अपना ऐ य दखला सकता है तब आपक तो बात ही ा है? – 'य द मेरे ारा आपका वह प देखा जा सकता है, ऐसा आप मानते ह, तो वह मुझे दखलाइये' इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इस कथनसे अजुनने यह भाव दखलाया है क आपका जो भाव म आपके ीमुखसे सुन चुका ँ , वह व ुत: वैसा ही है। इसम जरा भी स ेह नह है। और यह भी ठीक है क आपने य द उस पके दशन मुझको नह कराये तो उससे यह स नह हो जायगा क दशन करानेका आप योगे रे रम साम नह है और न कसी भी अंशम मेरा व ास ही कम होगा। पर ु इतना अव है क मेरे मनम आपके उस पके दशनक लालसा अ बल है। आप अ यामी ह, देख ल – जान ल क मेरी वह लालसा स ी और उ ट है या नह । य द आप उस लालसाको स ी पाते ह तब तो भो! म उस पके दशनका अ धकारी हो

जाता ँ । क आप तो भ -वांछाक त ह, उसके मनक इ ा ही देखते ह, अ यो ताको नह देखते। इस लये य द उ चत समझ तो कृ पा करके अपने उस पके दशन मुझे कराइये।

परम ालु और परम मे ी अजुनके इस कार ाथना करनेपर तीन ोक म भगवान् अपने व पका वणन करते ए उसे देखनेके लये अजुनको आ ा देते ह – स



ीभगवानुवाच । प मे पाथ पा ण शतशोऽथ सह शः । नाना वधा न द ा न नानावणाकृ ती न च ॥५॥

ीभगवान् बोले-हे पाथ! अब तू मेरे सैकड़ -हजार नाना कारके और नाना वण तथा नाना आकृ तवाले अलौ कक प को देख॥५॥ –

यहाँ 'शतश: ' और 'सह

शः '

इन सं ावाचक दो पद के योग करनेका

ा भाव है? उ र – इनका योग करके भगवान्ने अपने प क असं ता कट क है। भगवान्के कथनका अ भ ाय यह है क इस मेरे व पम एक ही जगह तुम असं प को देखो। – 'नाना वधा न ' का ा भाव है? उ र – 'नाना वधा न ' पद ब त-से भेद का बोधक है। इसका योग करके भगवान्ने व पम दीखनेवाले प के जा तगत भेदक अनेकता कट क है – अथात् देव, मनु और तयक् आ द सम चराचर जीव के नाना भेद को अपनेम देखनेके लये कहा है। – 'नानावणाकृती न ' का ा अ भ ाय है? उ र – 'वण' श लाल, पीले, काले आ द व भ रंग का और 'आकृ त' श अंग क बनावटका वाचक है। जन प के वण और उनके अंग क बनावट पृथकृ -पृथकृ अनेक कारक ह , उनको 'नानावणाकृ त' कहते ह। उ के लये 'नानावणाकृती न ' का योग आ है। अतएव इस पदका योग करके भगवान्ने यह भाव दखलाया है क इन प के वण और उनके अंग क बनावट भी नाना कारक है, यह भी तुम देखो। – ' द ा न ' का ा अ भ ाय है?

उ र – अलौ कक और आ यजनक व ुको द कहते ह। ' द ा न ' पदका योग करके भगवान्ने यह भाव दखलाया है क मेरे शरीरम दीखनेवाले ये भ - भ कारके असं प सब-के -सब द है – मेरी अदभु् त योगश के ारा र चत होनेसे अलौ कक और आ यजनक ह।

प ा द ा सू ु ान नौ म त था । ब पूवा ण प ा या ण भारत ॥६॥

हे भरतवंशी अजुन! मुझम आ द

को अथात् अ द तके

ादश पु को, आठ

वसु को, एकादश को, दोन अ नीकुमार को और उनचास म दगण को देख तथा ् और भी ब त-से पहले न देखे ए आ यमय प को देख॥६॥

आ द , वसु , , अ नीकु मार और म दगण ् को देखनेके लये कहनेका ा अ भ ाय हे? उ र – उपयु सभी श धान- धान देवता के वाचक ह। इनका नाम लेकर भगवान्ने सभी देवता को अपने वराट् पम देखनेके लये अजुनको आ ा दी है। इनमसे आ द और म दगण ् क ा ा दसव अ ायके इ सव ोकम तथा वसु और क तेईसवम क जा चुक है। इस लये यहाँ उसका व ार नह कया गया है। अ नीकु मार दोन भाई देव-वै ह। – 'अ पूवा ण ' और 'ब न ' इन दोन वशेषण के स हत 'आ या ण ' पदका ा अथ है और उनको देखनेके लये कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – जो पहले कभी देखे ए न ह , उ 'अ पूव' कहते ह । जो अदभु् त अथात् देखनेमा से 'आ य' उ करनेवाले ह , उ 'आ य' (आ यजनक) कहते है। 'ब न ' वशेषण अ धक सं ाका बोधक है। ऐसे ब त-से पहले कसीके ारा भी न देखे ए आ यजनक प को देखनेके लये कहकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क जन व ु को तुमने या अ कसीने आजतक कभी नह देखा है, उन सबको भी तुम मेरे इस वराट् पम देखो। –

[81]

इहैक ं जग ृ ं प ा सचराचरम् । मम देहे गुडाके श य ा द् ु म स ॥७॥

हे अजुन! अब इस मेरे शरीरम एक जगह

त चराचरस हत स ूण जगत्को देख

तथा और भी जो कुछ देखना चाहता हो सो देख॥७॥ – 'गुडाकेश ' स

ोधनका ा अ भ ाय है? उ र – यहाँ अजुनको 'गुडाकेश ' नामसे स ो धत करके भगवान् यह भाव दखलाते ह क तुम न ाके ामी हो, अत: सावधान होकर मेरे पको भलीभाँ त देखो ता क कसी कारका संशय या म न रह जाय। – 'अ ' पदका ा अ भ ाय है? उ र – 'अ ' पद यहाँ 'अब' का वाचक है। इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क तुमने मेरे जस पके दशन करनेक इ ा कट क है, उसे दखलानेम जरा भी वल नह कर रहा ँ , इ ा कट करते ही म अभी दखला रहा ँ । – 'सचराचरम् ' और 'कृ म्' वशेषण के स हत 'जगत् ' पद कसका वाचक है तथा 'इह ' और 'एक म् ' पदका योग करके भगवान्ने अपने कौन-से शरीरम और कस जगह सम जगत्को देखनेके लये कहा है? उ र – पशु, प ी, क ट, पतंग और देव, मनु आ द चलने- फरनेवाले ा णय को 'चर' कहते ह; तथा पहाड़ वृ आ द एक जगह र रहनेवाल को 'अचर' कहते ह। ऐसे सम ा णय के तथा उनके शरीर, इ य भोग ान और भोगसाम य के स हत सम ा का वाचक यहाँ 'कृ म्' और 'सचराचरम् ' इन दोन वशेषण के स हत 'जगत् ' पद है। 'इह ' पद 'देहे ' का वशेषण है। इसके साथ 'एक म् ' पदका योग करके भगवान्ने अजुनको यह भाव दखलाया है क मेरा यह शरीर जो क सारथीके पम तु ारे सामने रथपर वरा जत है, इसी शरीरके एक अंशम तुम सम जगत्को त देखो। अजुनको भगवान्ने दसव अ ायके अ म ोकम जो यह बात कही थी क म इस सम जगत्को एक अंशम धारण कये त ँ , उसी बातको यहाँ उ दखला रहे ह। – और भी जो कु छ तू देखना चाहता है सो देख – इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क इस वतमान स ूण जगत्को देखनेके अ त र और भी मेरे गुण, भाव आ दके ोतक कोई , अपने और दूसर के जय-

पराजयके अथवा जो कु छ भी भूत, भ व और वतमानक घटनाएँ देखनेक तु ारी इ ा हो, उन सबको तुम इस समय मेरे शरीरके एक अंशम देख सकते हो।

इस कार तीन ोक म बार-बार अपना अ तु प देखनेके लये आ ा देनेपर भी जब अजुन भगवान्के पको नह देख सके तब उसके न देख सकनेके कारणको जाननेवाले अ यामी भगवान् अजुनको द देनेक इ ा करके कहने लगे – स



न तु मां श से ु मनेनैव च षु ा । द ं ददा म ते च ःु प मे योगमै रम् ॥८॥

पर ु मुझको तू इन अपने ाकृत ने म तुझे द

ारा देखनेम नःस ेह समख नह हे; इसीसे

अथात् अलौ कक च ु देता ँ ; उससे तू मेरी ई रीय योगश – यहाँ 'तु ' पदके

को देख॥८॥

साथ-साथ यह कहनेका ा अ भ ाय है क तू मुझे इन अपने (साधारण) ने ारा नह देख सकता? उ र – इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क तुम मेरे अदभु् त योगश से यु द पके दशन करना चाहते हो, यह तो बड़े आन क बात है और म भी तु अपना वह प दखलानेके लये तैयार ँ । परंतु भाई! इन साधारण ने ारा मेरा वह अलौ कक प देखा नह जा सकता, उसको देखनेके लये जस श क आव कता है, वह तु ारे पास नह है। – भगवान्ने जो अजुनको द दी थी, वह द ा थी? उ र – भगवान्ने अजुनको व पका दशन करनेके लये अपने योगबलसे एक कारक योगश दान क थी, जसके भावसे अजुनम अलौ कक साम का ादुभाव हो गया – उस द पको देख सकनेक यो ता ा हो गयी। इसी योगश का नाम द है। ऐसी ही द ीवेद ासजीने संजयको भी दी थी । – य द यह मान लया जाय क भगवान्ने अजुनको ऐसा ान दया क जससे अजुन इस सम व को भगवान्का प मानने लगे और उस ानका नाम ही यहाँ द है, तो ा हा न है? उ र – यहाँके संगको पढ़कर यह नह माना जा सकता क ानके ारा अजुनका इस -जगत्को भगव प ' थी। ू समझ लेना ही ' व पदशन' था और वह ान ही ' द

सम व को ानके ारा भगवान्के एक अंशम देखनेके लये तो अजुनको दसव अ ायके अ म ही कहा जा चुका था और उसको उ ने ीकार भी कर लया था। इस कार ीकार कर लेनेके बाद भी अजुन जब भगवान्से बल, वीय, श और तेजसे यु उनके ई रीय पको देखनेक इ ा करते ह और भगवान् भी अपने ीकृ पके अ र ही एक ही जगह सम व को दखला रहे ह, तब यह कै से माना जा सकता है क वह ान ारा समझा जानेवाला प था? इसके अ त र भगवान्ने जो व पका वणन कया है, उससे भी यह स होता है क अजुन भगवान्के जस पम सम ा के और भ व म होनेवाली यु स ी घटना को और उनके प रणामको देख रहे थे, वह प उनके सामने था; इससे यही मानना पड़ता है क जस व म अजुन अपनेको खड़े देख रहे थे, वह व भगवान्के शरीरम दखलायी देनेवाले व से भ था। ऐसा न होता तो उस वराट् पके ारा जगत्के गलोकसे लेकर पृ ीतकके आकाशको और सब दशा को ा देखना स व ही न था। भगवान्के उस भयानक पको देखकर अजुनको आ य, मोह, भय, स ाप और द मा द भी हो रहे थे; इससे भी यही बात स होती है क भगवान्ने उपदेश देकर ानके ारा इस - जगत्को अपना प समझा दया हो, ऐसी बात नह थी। ऐसा होता तो अजुनको भय, स ाप, मोह और द मा द होनेका कोई कारण नह रह जाता। – यह मान लया जाय तो ा आप है क जेसे आजकल रे डयो आ द य ारा दूर देशके श सुने तथा देखे जा सकते ह, वैसे ही भगवान्ने उ कोई ऐसा य दे दया हो जससे वे एक ही जगह खड़े सम व को बना कसी बाधाके देख सके ह और उस य को ही द कहा गया हो? उ र – रे डयो आ द य ारा एक कालम एक जगह दूर देशके वे ही श और सुने और देखे जा सकते ह जो एकदेशीय ह और उस समय वतमान ह । उनसे एक ही य से एक ही कालम एक ही जगह सब देश क घटनाएँ नह देखी-सुनी जा सकत । न उनसे लोग के मनक बात देखी जा सकती ह और न भ व म होनेवाली घटना के ही। इसके अ त र यहाँके संगम ऐसी कोई बात नह है जससे यह स हो सके क अजुनने कसी य ारा भगवान्के व पको देखा था। अतएव ऐसा मानना सवथा यु व है। हाँ, रे डयो आ द य के आ व ारसे आजकलके अ व ासी लोग को कसी सीमातक समझाया

जा सकता है क जब रे डयो आ द भौ तक य ारा दूर देशक घटनाएँ सुनी-देखी जा सकती ह तब भगवान्क दान क ई योगश ारा उनके व पका देखा जाना कौन बड़ी बात है? अव ही यहाँ यह भी ान रखना चा हये क यह भगवान्का कोई ऐसा मायामय मनोयोग नह था जसके भावसे अजुन बना ही ए ऐसी घटना को के क भाँ त देख रहे थे। अजुन जस पको देख रहे थे वह स था और उसके देखनेका एकमा साधन था – भगवत्-कृ पासे मली ई योगश प द ! – 'ऐ रम् ' वशेषणके स हत 'योगम् ' पद कसका वाचक है और उसे देखनेके लये कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – अजुनको जस पके दशन ए थे, वह द था। भगवान्ने अपनी अदभु् त योगश से ही कट करके उसे अजुनको दखलाया था। अत: उसके देखनेसे ही भगवान्क अदभु् त योगश के दशन आप ही हो जाते ह। इसी लये यहाँ 'ऐ रम् ' वशेषणके स हत 'योगम् ' पद भगवान्क अदभु ् त योगश के स हत उसके ारा कट कये ए भगवान्के वराट् पका वाचक है; और उसे देखनेके लये कहकर भगवान्ने अजुनको अपने वराट् पके दशन ारा योगश को देखनेके लये कहा है। – अजुनको

द देकर भगवान्ने जस कारका अपना द वराट् प दखलाया था, अब पाँच ोक ारा संजय उसका वणन करते ह – स

स य उवाच । एवमु ा ततो राज हायोगे रो ह रः । दशयामास पाथाय परमं पमै रम् ॥९॥

संजय बोले – हे राजन्! महायोगे र और सब पाप के नाश करनेवाले भगवान्ने इस कार कहकर उसके प ात् अजुनको परम ऐ ययु द प दखलाया॥१॥

यहाँ संजयने भगवान्के लये 'महायोगे र: ' और 'ह र: ' इन दो वशेषण का योग करके ा भाव दखलाया है? उ र – जो महान् यानी बड़े-से-बड़े योगे र ह उनको 'महायोगे र' तथा सब पाप और दुख के हरण करनेवालेको 'ह र' कहते ह। इन दोन वशेषण का योग करके संजयने भगवान्क अदभु् त श -साम क ओर ल कराते ए धृतरा को सावधान कया है। उनके –

कथनका भाव यह है क ीकृ कोई साधारण मनु नह ह, वे बड़े-से-बड़े योगे र और सब पाप तथा दुःख के नाश करनेवाले सा ात् परमे र ह। उ ने अजुनको अपना जो द व प दखलाया था, जसका वणन करके म अभी आपको सुनाऊँ गा, वह प बड़े-से-बड़े योगी भी नह दखला सकते; उसे तो एकमा यं परमे र ही दखला सकते ह। – ' पम् ' के साथ 'परमम् ' और 'ऐ रम् ' इन दोन वशेषण के योगका ा अ भ ाय है? उ र – जो पदाथ शु , े और अलौ कक हो, उसक वशेषताका ोतक 'परम' वशेषण हे और जसम ई रके गुण, भाव एवं तेज दखलायी देते ह तथा जो ई रक द योगश से स हो, उसे 'ऐ र' कहते ह। भगवान्ने अपना जो वराट् प अजुनको दखलाया था, वह अलौ कक, द , सव े और तेजोमय था, साधारण जगत्क भाँ त पांचभौ तक पदाथ से बना आ नह था; भगवान्ने अपने परम य भ अजुनपर अनु ह करके अपना अदभु् त भाव उसको समझानेके लये ही अपनी अदभु् त योगश के ारा उस पको कट करके दखलाया था। इ भाव को कट करनेके लये संजयने ' पम् ' पदके साथ इन दोन वशेषण का योग कया है।

अनेकव नयनमनेका तु दशनम् । अनेक द ाभरणं द ानेको तायुधम् ॥१०॥ द मा ा रधरं द ग ानुलेपनम् । सवा यमयं देवमन ं व तोमुखम् ॥११॥

अनेक मुख और ने से यु , अनेक अदभु ् त दशन वाले, ब त-से द भूषण से यु और ब त-से द श को हाथ म उठाये ए, द माला और व को धारण कये ए और द ग का सारे शरीरम लेप कये ए, सब कारके आ य से यु , सीमार हत और सब ओर मुख कये ए वराट् पके परमदेव परमे रको अजुनने देखा॥ १०-११॥

ा अथ है? उ र – जसके नाना कारके असं मुख और आँ ख ह , उस पको 'अनेकव नयन' कहते ह। अजुनने भगवान्का जो प देखा, उसके धान ने तो च मा और सूय बतलाये गये – 'अनेकव

नयनम् ' का

है (११।१९); पर ु उसके अ र दखलायी देनेवाले और भी असं व भ मुख और ने थे, इसीसे भगवान्को अनेक मुख और नयन से यु बतलाया गया है। – 'अनेका तु दशनम् 'का ा अथ है? उ र – जो पहले कभी न देखे ए ह , जनका ढंग व च और आ यजनक हो, उनको 'अदभु् त दशन' कहते ह। जस पम ऐसे असं अदभु् त दशन ह , उसे 'अनेकादभु ् तदशन' कहते ह। भगवान्के उस वराट् पम अजुनने ऐसे असं अलौ कक व च देखे थे, इसी कारण उनके लये यह वशेषण दया गया है। – 'अनेक द ाभरणम्' का ा अथ है? उ र – आभरण गहन को कहते है। जो गहने लौ कक गहन से वल ण, तेजोमय और अलौ कक ह – उ ' द ' कहते ह। तथा जो प ऐसे असं द आभूषण से वभू षत हो, उसे 'अनेक द ाभरण' कहते है। भगवान्का जो प अजुनने देखा था, वह नाना कारके असं तेजोमय द आभूषण से यु था; इस कारण भगवान्के साथ यह वशेषण दया गया है। – ' द ानेको तायुधम् 'का ा अथ है? उ र – जनसे यु कया जाय, उन श का नाम 'आयुध' ह और जो आयुध अलौ कक तथा तेजोमय ह उनको ' द ' कहते ह – जैसे भगवान् व ुके च , गदा और धनुष आ द ह। इस कारके असं द श भगवान्ने अपने हाथ म उठा रखे थे, इस लये उ ' द ानेको तायुध' कहा है। – ' द मा ा रधरम् ' का ा अथ है? उ र – जसने ब त उ म तेजोमय अलौ कक मालाएँ और व को धारण कर रखा हो, उसे ' द मा ा रधर' कहते ह। व प भगवान्ने अपने गलेम ब त-सी सु र-सु र तेजोमय अलौ कक मालाएँ धारण कर रखी थ तथा वे अनेक कारके ब त ही उ म तेजोमय अलौ कक व से सुस त थे, इस लये उनके साथ यह वशेषण दया गया है। – ' द ग ानुलेपनम् ' का ा अथ है?

उ र – च न आ द जो लौ कक ग ह उनसे वल ण अलौ कक ग को ' द ग ' कहते ह। ऐसे द ग का अनुभव ाकृ त इ य से न होकर द इ य ारा ही कया जा सकता है; जसके सम अंग म इस कारका अ मनोहर द ग लगा हो, उसको ' द ग ानुलेपन' कहते ह। – 'सवा यमयम् ' का ा अथ है? उ र – भगवान्के उस वराट् पम उपयु कारसे मुख, ने , आभूषण, श , माला, व और ग आ द सभी आ यजनक थे; इस लये उ 'सवा यमय' कहा गया है। – 'अन म् ' का ा अ भ ाय है? उ र – जसका कह अ , कसी ओर भी ओर-छोर न हो, उसे 'अन ' कहते ह। अजुनने भगवान्के जस व पके दशन कये, वह इतना ल ा-चौड़ा था जसका कह भी अ न था; इस लये उसको 'अन ' कहा है। – ' व तोमुखम् ' का ा अ भ ाय है? उ र – जसके मुख सब दशा म ह , उसे ' व तोमुख' कहते ह। भगवान्के वराट् पम दखलायी देनेवाले असं मुख सम व म सब ओर थे, इस लये उ ' व तोमुख' कहा है। – 'देवम्' पदका ा अथ है और इसके योगका ा अ भ ाय है? उ र – जो काशमय और पू ह , उ देव कहते ह। यहाँ 'देवम् ' पदका योग करके संजयने यह भाव दखलाया है क परम तेजोमय भगवान् ीकृ को अजुनने उपयु वशेषण से यु देखा। वणन

– उपयु कया जाता है –



वराट् प परमदेव परमे रका काश कै सा था, अब उसका

द व सूयसह भवे गु पदु ता । य द भाः स शी सा ा ास महा नः ॥१२॥

आकाशम हजार सूय के एक साथ उदय होनेसे उ व

प परमा ाके काशके स श कदा चत् ही हो॥१२॥

जो काश हो, वह भी उस



भगवान्के काशके साथ हजार सूय के काशका सा

बतानेका



अ भ ाय है? उ र – इसके ारा वराट् प भगवान्के द काशको न पम बतलाया गया है । अ भ ाय यह है क जस कार हजार तारे एक साथ उदय होकर भी सूयक समानता नह कर सकते, उसी कार हजार सूय य द एक साथ आकाशम उदय हो जायँ तो उनका काश भी उस वराट् प भगवान्के काशक समानता नह कर सकता। इसका कारण यह है क सूय का काश अ न , भौ तक और सी मत है; पर ु वराट् प भगवान्का काश न , द , अलौ कक और अप र मत है ।

उस काशमय अदभु् त देखा, अब यह बतलाया जाता हे – स

– भगवान्के

पम अजुनने सारे व को कस कार

त ैक ं जग ृ ं वभ मनेकधा । अप वे देव शरीरे पा व दा ॥१३॥

पा ु पु अजुनने उस समय अनेक कारसे वभ अथात् पृथक् -पृथक् स ूण जगत्को देव के देव ीकृ भगवान्के उस शरीरम एक जगह त देखा॥१३॥ – यहाँ 'तदा ' पद

कस समयका वाचक है? उ र – जस समय भगवान्ने अजुनको द देकर अपनी असाधारण योगश के स हत वराट् प देखनेके लये आ ा दी (११।८), उसी समयका वाचक यहाँ 'तदा ' पद है। – 'जगत् ' पदके साथ 'अनेकधा वभ म् ' और 'कृ म् ' वशेषण देकर ा भाव दखलाया गया है? उ र – इन वशेषण का योग करके यहाँ यह भाव दखलाया गया है क देवतामनु , पशु-प ी, क ट-पतंग और वृ आ द भो ीवग, पृ ी, अ र , ग और पाताल आ द भो ान एवं उनके भोगनेयो असं साम य के भेदसे वभ – इस सम ा को अजुनने भगवान्के शरीरके एक देशम देखा, अथात् इसके कसी एक अंशको देखा हो या इसके सम भेद को व भ भावसे पृथकृ -पृथकृ न देखकर मले-जुले ए देखा हो – ऐसी बात नह है, सम व ारको -का- पृथकृ -पृथक् देखा।

योगका ा भाव है? उ र – दसव अ ायके अ म भगवान्ने जो यह बात कही थी क इस स ूण जगत्को म एक अंशम धारण कये ए त ँ उसीको यहाँ अजुनने देखा। इसी बातको करनेके लये 'एक म् ' अथात् 'एक देशम त' पदका योग कया गया है। – 'त ' पद कसका वशेषण है और इसके योगका ा अ भ ाय है? उ र – 'त ' पद पूवके वणनसे स रखता है और यहाँ यह देव के देव भगवान्के शरीरका वशेषण है। इसका योग करके यह भाव दखलाया गया है क देवता के भी देवता, सव े , ा द देवता के भी पू भगवान् ीकृ के उपयु पम पा ु पु अजुनने सम जगत्को एक जगह त देखा। – 'एक



– इस

म् ' के

कार अजुन ारा भगवान्का वराट् प देखे जानेके प ात् ा आ,

इस ज ासापर कहते ह –

ततः स व या व ो रोमा धन यः । ण शरसा देवं कृ ता लरभाषत ॥१४॥

उसके अन र वह आ यसे च कत और पुल कतशरीर अजुन काशमय व परमा ाको ा-भ स हत सरसे णाम करके हाथ जोड़कर बोला – ॥१४॥ – 'तत: ' पदका



ा अ भ ाय है? उ र – 'तत: ' पद 'त ात्' का वाचक है। इसका योग करके यह भाव दखलाया गया है क अजुनने जब भगवान्के उपयु अदभु् त भावशाली पके दशन कये, तब उनम इस कारका प रवतन हो गया। – 'धन य: ' के साथ ' व या व :' और ' रोमा ' इन दो वशेषण के योगका ा अ भ ाय है? उ र – ब त-से राजा पर वजय ा करके अजुनने धनसं ह कया था, इस लये उनका एक नाम 'धनंजय' हो गया था। यहाँ उस 'धन य: ' पदके साथ-साथ ' व या व : ' और ' रोमा ' इन दोन वशेषण का योग करके अजुनके हष और आ यक अ धकता दखलायी गयी है। अ भ ाय यह है क भगवान्के उस पको देखकर अजुनको इतना महान् हष

और आ य आ, जसके कारण उसी ण उनका सम शरीर पुल कत हो गया। उ ने इससे पूव भगवान्का ऐसा ऐ यपूण प कभी नह देखा था; इस लये इस अलौ कक पको देखते ही उनके दयपटपर सहसा भगवान्के अप र मत भावका कु छ अंश अं कत हो गया, भगवान्का कु छ भाव उनक समझम आया। इससे उनके हष और आ यक सीमा न रही। – 'देवम् ' पद कसका वाचक है तथा ' शरसा ण ' और 'कृता ल: ' का ा भाव है? उ र – यहाँ 'देवम् ' पद भगवान्के तेजोमय वराट् पका वाचक है। और ' शरसा ण ' तथा 'कृता ल: ' इन दोन पद का योग करके यह भाव दखलाया गया है क अजुनने जब भगवान्का ऐसा अन आ यमय से यु परम काशमय और असीम ऐ यसम त महान् प देखा तब उससे वे इतने भा वत ए क उनके मनम जो पूवजीवनक म ताका एक भाव था, वह सहसा वलु -सा हो गया; भगवान्क म हमाके सामने वे अपनेको अ तु समझने लगे। भगवान्के त उनके दयम अ पू भाव जा त् हो गया और उस पू भावके वाहने बजलीक तरह ग त उ करके उनके म कको उसी ण भगवान्के चरण म टका दया और वे हाथ जोड़कर बड़े ही वन भावसे ाभ पूवक भगवान्का वन करने लगे। स

दीख पड़नेवाले

– उपयु

कारसे हष और आ यसे च कत अजुन अब भगवान्के व पम का वणन करते ए उस व पका वन करते ह –

अजुन उवाच । प ा म देवां व देव देहे सवा था भूत वशेषस ान् । ाणमीशं कमलासन मृष सवानुरगां द ान् ॥१५॥

अजुन बोले – हे देव! म आपके शरीरम स ूण देव को तथा अनेक भूत के समुदाय को, कमलके आसनपर वरा जत ाको, महादेवको और समपूण ऋ षय को तथा द सप को देखता ँ ॥१५॥ – यहाँ 'देव ' स

ोधनका ा अ भ ाय है? उ र – भगवान्के तेजोमय अदभु् त पको देखकर अजुनका भगवान्म जो ाभ यु अ पू भाव हो गया था, उसीको दखलानेके लये यहाँ 'देव ' स ोधनका

योग कया गया है।

– 'तव देहे ' का

ा अ भ ाय है? उ र – इन दोन पद का योग करके अजुनने यह भाव दखलाया है क आपका जो शरीर मेरे सामने उप त है, उसीके अ र म इन सबको देख रहा ँ । – जब अजुनने यह बात कह दी क म आपके शरीरम सम चराचर ा णय के व भ समुदाय को देख रहा ँ , तब सम देव को देख रहा ँ – यह अलग कहनेक ा आव कता रह गयी? उ र – जगत्के सम ा णय म देवता सबसे े माने जाते ह, इसी लये उनका नाम अलग लया है। – ा और शव तो देव के अंदर आ ही गये, फर उनके नाम अलग लये गये और ाके साथ 'कमलासन म् ' वशेषण दया गया? उ र – ा और शव देव के भी देव ह तथा ई रको टम ह, इस लये उनके नाम अलग लये गये ह। एवं ाके साथ 'कमलासन म् ' वशेषण देकर अजुनने यह भाव दखलाया है क म भगवान् व ुक ना भसे नकले ए कमलपर वरा जत ाको देख रहा ँ अथात् उ के साथ आपके व ु पको भी आपके शरीरम देख रहा ँ । – सम ऋ षय को और द सप को अलग बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – मनु लोकके अंदर सब ा णय म ऋ षय को और पाताललोकम वासु क आ द द सप को े माना गया है। इसी लये उनको अलग बतलाया है। यहाँ ग, म और पाताल तीन लोक के धान- धान य के समुदायक गणना करके अजुनने यह भाव दखलाया है क म भुवना क सम व को आपके शरीरम देख रहा ँ ।

अनेकबा दरव ने ं प ा म ां सवतोऽन पम् । ना ं न म ं न पुन वा द प ा म व े र  व प ॥१६॥

हे स ूण व के ा मन्! आपको अनेक भुजा, पेट, मुख और ने से यु तथा सब ओरसे अन प वाला देखता ँ । हे व प! म आपके न अ को देखता ँ , न म को और न आ दको ही॥१६॥

– ' व े र ' और ' व

प ' इन दोन

स ोधन का ा अ भ ाय है? उ र – इन दोन स ोधन का योग करके अजुनने यह भाव दखलाया है क आप ही इस सम व के कता, हता और सबको अपने- अपने काय म नयु करनेवाले सबके अधी र ह और यह सम व व ुत: आपका ही प है, आप ही इसके न म और उपादान कारण ह। – 'अनेकबा दरव ने म् ' का ा अथ है? उ र – इससे अजुनने यह दखलाया है क आपको इस समय म जस पम देख रहा ँ उसके भुजा, पेट, मुख और ने असं ह; उनक कोई कसी भी कारसे गणना नह कर सकता। – 'सवत: अन पम् ' का ा भाव है? उ र – इससे अजुनने यह भाव दखलाया है क आपको इस समय म सब ओरसे अनेक कारके पृथकृ -पृथक् अग णत प से यु देख रहा ँ अथात् आपके इस एक ही शरीरम मुझे ब त-से भ - भ अन प चार ओर फै ले ए दीख रहे है। – आपके आ द, म और अ को नह देख रहा ँ – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इस कथनसे अजुनने यह भाव दखलाया है क आपके इस वराट् पका म कह भी आ द और अ नह देख रहा ँ अथात् मुझे यह नह मालूम हो रहा है क यह कहाँसे कहाँतक फै ला आ है और इस कार आ द-अ का पता न लगनेके कारण म यह भी नह समझ रहा ँ क इसका बीच कहाँ है; इस लये म आपके म को भी नह देख रहा ँ । मुझे तो आगे-पीछे दा हने-बाय और ऊपर-नीचे-सब ओरसे आप सीमार हत दखलायी पड़ रहे ह। कसी ओरसे भी आपक कोई सीमा नह दीखती।

करी टनं ग दनं च णं च तेजोरा श सवतो दी म म् । प ा म ां दु नरी ं सम ाद् दी ानलाक ु तम मेयम् ॥१७॥

आपको म मुकुटयु , गदायु और च यु तथा सब ओरसे काशमान तेजके पुंज, लत अ और सूयके स श ो तयु , क ठनतासे देखे जानेयो और सब ओरसे अ मेय प देखता ँ ॥१७॥

– ' करी टनम् ', 'ग दनम्' और 'च

णम् 'का

ा अ भ ाय है? उ र – जसके सरपर करीट अथात् अ शोभा और तेजसे यु मुकुट वरा जत हो, उसे ' करीटी' कहते ह; जसके हाथम 'गदा' हो, उसे 'गदी' कहते ह और जसके पास 'च ' हो उसे 'च ' कहते ह। इन तीन पद का योग करके अजुनने यह भाव दखलाया है क म आपके इस अदभु् त पम भी आपको महान् तेजोमय मुकुट धारण कये तथा हाथ म गदा और च लये ए ही देख रहा ँ । – 'सवत: दी म म् ' और 'तेजोरा शम् ' का ा अ भ ाय है? उ र – जसका द काश ऊपर-नीचे, बाहर- भीतर एवं सब दशा म फै ला आ हो – उसे 'सवतो दी मान्' कहते ह तथा काशके समूहको 'तेजोरा श' कहते ह। इन दोन पद का योग करके अजुनने यह भाव दखलाया है क आपका यह वराट् प मुझको मू तमान् तेजपुंज तथा सब ओरसे परम काशयु दखलायी दे रहा है। – 'सवतः दी म म् ' और 'तेजोरा शम् ' यह वशेषण दे चुकनेके बाद उसी भावके ोतक 'दी ानलाक ु तम् ' पदके योगक ा आव कता है? उ र – भगवान्का वह वराट् प परम काशयु और मू तमान् तेजपुंज, कै से था, अ और सूयक उपमा देकर इसी बातका ठीक-ठीक अनुमान करा देनेके लये 'दी ानलाक ु तम् ' पदका योग कया गया है। अजुन इससे यह भाव दखला रहे ह क जैसे लत अ और काशपुंज सूय काशमान तेजक रा श है, वैसे ही आपका यह वराट् प उनसे भी असं गुना अ धक काशमान तेजपुंज है। अथात् अ और सूयका वह तेज तो कसी एक ही देशम दखलायी पड़ता है, पर ु आपका तो यह वराट् शरीर सभी ओरसे उनसे भी अन गुना अ धक तेजोमय दीख रहा है । – 'द ु नरी म् ' का ा भाव है और य द भगवान्का वह प दु नरी था, तो अजुन कै से उसको देख रहे थे? उ र – अ अदभु् त काशसे यु होनेके कारण ाकृ त ने उस पके सामने खुले नह रह सकते। अतएव सवसाधारणके लये उसको 'दु नरी ' बतलाया गया है। अजुनको तो भगवान्ने उस पको देखनेके लये ही द दी थी और उसीके ारा वे उसको देख रहे थे। इस कारण दूसर के लये दु नरी होनेपर भी उनके लये वैसी बात नह थी।

– 'सम ात् अ मेयम् 'का

ा अ भ ाय है? उ र – जो मापा न जा सके या कसी भी उपायसे जसक सीमा न जानी जा सके , वह 'अ मेय' है। जो सब ओरसे अ मेय है, उसे 'सम ात् अ मेय' कहते ह। इसका योग करके अजुनने यह भाव दखलाया है क आपके गुण, भाव, श और पको कोई भी ाणी कसी भी उपायसे पूणतया नह जान सकता।

म रं परमं वे दत ं म व परं नधानम् । म यः शा तधमगो ा सनातन ं पु षो मतो मे ॥१८॥ आप ही जाननेयो

परम अ र अथात् पर

परमा ा ह, आप ही इस जगत्के

परम आ य ह, आप ही अना द धमके र क ह और आप ही अ वनाशी सनातन पु ष ह। ऐसा मेरा मत है॥१८॥ – 'वे दत म् ' और 'परमम् '

वशेषणके स हत 'अ

रम् ' पद

कसका वाचक है

और उसका ा भाव है? उ र – जस जाननेयो परमत को मुमु ु पु ष जाननेक इ ा करते ह, जसके जाननेके लये ज ासु साधक नाना कारके साधन करते ह, आठव अ ायके तीसरे ोकम जस परम अ रको बतलाया गया है – उसी परम त प स दान घन नगुण नराकार पर परमा ाका वाचक यहाँ 'वे दत म् ' और 'परमम् ' वशेषण के स हत 'अ रम् ' पद है; और इससे अजुनने यह भाव दखलाया है क आपका वराट् प देखकर मुझे यह ढ़ न य हो गया क वह पर परमा ा नगुण भी आप ही ह। – ' नधानम् ' पदका ा अथ है और भगवान्को इस जगत्का परम नधान बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – जस ानम कोई व ु रखी जाय, वह उस व ुका नधान अथवा आधार(आ य) कहलाता है। यहाँ अजुनने भगवान्को इस जगत्का नधान कहकर यह भाव दखलाया है क कारण और कायके स हत यह स ूण जगत् आपम ही त है, आपने ही इसे धारण कर रखा है; अतएव आप ही इसके आ य ह। – 'शा तधम ' कसका वाचक है और भगवान्को उसके 'गो ा ' बतलानेका ा अ भ ाय है?

उ र – जो सदासे चला आता हो और सदा रहनेवाला हो, उस सनातन (वै दक) धमको 'शा तधम' कहते ह। भगवान् बार-बार अवतार लेकर उसी धमक र ा करते ह, इस लये भगवान्को अजुनने 'शा तधमगो ा ' कहा है। – 'अ य' और 'सनातन' वशेषण के स हत 'पु ष' श के योगका ा अ भ ाय है? उ र – जसका कभी नाश न हो, उसे 'अ य' कहते ह; तथा जो सदासे हो और सदा एकरस बना रहे उसे 'सनातन' कहते ह। इन दोन वशेषण के स हत 'पु ष' श का योग करके अजुनने यह बतलाया है क जनका कभी नाश नह होता – ऐसे सम जगत्के हता, कता, सवश मान, समपूण वकार से र हत, सनातन परम पु ष सा ात् परमे र आप ही ह ।

अना दम ा मन वीयमन बा ं श शसूयने म् । प ा म ां दी ताशव ं तेजसा व मदं तप म् ॥१९॥

आपको आ द, अ ओर म से र हत, अन साम से यु , अन भुजावाले, च - सूय प ने वाले, लत अ प मुखवाले और अपने तेजसे इस जगत्को संत करते ए देखता ँ ॥१९॥ – सोलहव

ोकम अजुनने यह कहा था क म आपके आ द, म और अ को नह देख रहा ँ फर यहाँ इस कथनसे क 'म आपको आ द, म और अ से र हत देख रहा ँ ' पुन का-सा दोष तीत होता है। अत: इसका ा भाव है? उ र – वहाँ अजुनने भगवान्के वराट् पको असीम बतलाया है और यहाँ उसे उ आ द छ: वकार से र हत न बतलाया है। इस लये पुन का दोष नह है। इसका अथ इस कार समझना चा हये क 'आ द' श उ का, 'म ' उ और वनाशके बीचम होनेवाले त, वृ , य और प रणाम – इन चार भाव वकार का और 'अ ' श वनाश प वकारका वाचक है। ये तीन जसम न ह , उसे 'अना दम ा ' कहते ह। अतएव यहाँ अजुनके इस कथनका यह भाव है क म आपको उ आ द छ: भाव वकार से सवथा र हत देख रहा ँ । – 'अन वीयम्' का ा भाव है?

उ र – 'वीय' श साम , बल, तेज और श आ दका वाचक है। जसके वीयका अ न हो, उसे 'अन वीय' कहते ह। यहाँ अजुनने भगवान्को 'अन वीय' कहकर यह भाव दखलाया है क आपके बल, वीय, साम और तेजक कोई भी सीमा नह है। – 'अन बा म् ' का ा भाव है? उ र – जसक भुजा का पार न हो, उसे 'अन बा ' कहते ह। इससे अजुनने यह भाव दखलाया है क आपके इस वराट् पम म जस देखता ँ उसी ओर मुझे अग णत भुजाएँ दखलायी दे रही ह। – 'श शसूयने म् ' का ा अथ है? उ र – इससे अजुनने यह भाव दखलाया है के च मा और सूयको म आपके दोन ने के ानम देख रहा ँ । अ भ ाय यह है क आपके इस वराट् पम मुझे सब ओर आपके असं मुख दखलायी दे रहे ह; उनम जो आपका धान मुख है, उस मुखपर ने के ानम म च मा और सूयको देख रहा ँ । – 'दी ताशव म् ' का ा भाव है? उ र – ' ताश' अ का नाम है तथा लत अ को 'दी ताश' कहते ह; और जसका मुख उस लत अ के स श काशमान और तेजपूण हो, उसे 'दीपा ताशव ' कहते ह। इससे अजुनने यह भाव दखलाया है क आपके धान मुखको म सब ओरसे लत अ क भाँ त तेज और काशसे यु देख रहा ँ । – 'अपने तेजसे जगत्को संत करते ए देखता ँ ' इसका ा अ भ ाय है? उ र – इससे अजुनने यह बतलाया है क मुझे ऐसा दखलायी दे रहा है, मानो आप अपने तेजसे इसी सारे व को- जसम म खड़ा ँ – संत कर रहे ह।

ावापृ थ ो रदम रं ह ा ं यैकेन दश सवाः । ा तु ं पमु ं तवेदं लोक यं थतं महा न् ॥२०॥

हे महा न्! यह ग और पृ ीके बीचका समपूण आकाश तथा सब दशाएँ एक आपसे ही प रपूण ह; तथा आपके इस अलौ कक और भयंकर पको देखकर तीन लोक अ त थाको ा हो रहे ह॥२०॥

– इस

ोकका ा ता य है? उ र – 'महा न् ' स ोधनसे भगवान्को सम व के महान् आ ा बतलाकर अजुन यह कह रहे ह क आपका यह वराट् प इतना व ृत है क ग और पृ ीके बीचका यह स ूण आकाश और सभी दशाएँ उससे ा हो रही ह। ऐसा कोई ान मुझे नह दीखता, जहाँ आपका यह प न हो। साथ ही म यह देख रहा ँ क आपका यह अदभु् त और अ उ प इतना भयानक है क ग, म और अ र – इन तीन लोक के जीव इसे देखकर भयके मारे अ ही – पी ड़त हो रहे ह। उनक दशा अ ही शोचनीय हो गयी है।

अमी ह ां सुरस ा वश के च ीताः ा लयो गृण । ी ु ा मह ष स स ाः वु ां ु त भः पु ला भः ॥२१॥

वे ही देवता के समूह आपम वेश करते ह और कुछ भयभीत होकर हाथ जोड़े आपके नाम और गुण का उ ारण करते ह तथा मह ष और स के समुदाय 'क ाण हो' ऐसा कहकर उ म-उ म

कहनेका



– 'सुरस ा: ' के ा अ भ ाय है?

ारा आपक

ु त करते ह॥२१ ॥

साथ 'अमी ' वशेषण देकर 'वे ही आपम वेश कर रहे ह' यह

उ र – 'सुरस ा: ' पदके साथ परो वाची 'अमी ' वशेषण देकर अजुनने यह भाव दखलाया है क म जब गलोक गया था, तब वहाँ जन- जन देवसमुदाय को मने देखा था – म आज देख रहा ँ क वे ही आपके इस वराट् पम वेश कर रहे ह। – कतने ही भयभीत होकर हाथ जोड़े आपके नाम और गुण का उ ारण कर रहे ह – इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे अजुनने यह भाव दखलाया है क ब त-से देवता को भगवान्के उ पम वेश करते देखकर शेष बचे ए देवता अपनी ब त देरतक बचे रहनेक स ावना न जानकर डरके मारे हाथ जोड़कर आपके नाम और गुण का बखान करते ए आपको स करनेक चे ा कर रहे ह। – 'मह ष स स ा: ' कनका वाचक है और वे 'सबका क ाण हो' ऐसा कहकर पु ल ो ारा आपक ु त करते ह, इस कथनका ा अ भ ाय है?

उ र – मरी च, अं गरा, भृगु आ द मह षय के और ाता ात स जन के जतने भी व भ समुदाय ह – उन सभीका वाचक यहाँ 'मह ष स स ा: ' पद है। वे 'सबका क ाण हो' ऐसा कहकर पु ल ो ारा आपक ु त करते ह –  इस कथनसे अजुनने यह भाव दखलाया है क आपके त का यथाथ रह जाननेवाले होनेके कारण वे आपके इस उ पको देखकर भयभीत नह हो रहे ह; वरं सम जगत्के क ाणके लये ाथना करते ए अनेक कारके सु र भावमय ो ारा ा और ेमपूवक आपका वन कर रहे ह – ऐसा म देख रहा ँ ।

ा द ा वसवो ये च सा ा व ेऽ नौ म त ो पा । ग वय ासुर स स ा वी े ां व ता ैव सव ॥२२॥ जो

ारह

और बारह आ द

तथा आठ वसु, सा गण, व ेदेव,

अ नीकुमार तथा म ण और पतर का समुदाय तथा ग व, य , रा स और स समुदाय ह – वे सब ही व त होकर आपको देखते ह॥२२॥

के

और 'म

त: '

– ' ा: ', 'आ द ा: ', 'वसव: ', 'सा ा: ', ' व े ', 'अ नौ ' – ये सब अलग-अलग कन- कन देवता के वाचक ह?

उ र – ारह , बारह आ द , आठ वसु और उनचास म त् – इन चार कारके देवता के समूह का वणन तो दसव अ ायके इ सव और तेईसव ोक क ा ा और उसके ट णीम तथा अ नीकु मार का ारहव अ ायके छठे ोकक ट णीम कया जा चुका है – वहाँ देखना चा हये। मन, अनुम ा ाण, नर, यान, च , हय, नय, हंस, नारायण, भव और वभु – ये बारह सा देवता ह और तु, द , व, स , काल, काम, धु न, कु वान्, भवान् और रोचमान – ये दस व ेदेव ह। आ द और आ द देवता के आठ गण (समुदाय) ह, उ मसे सा और व ेदेव भी दो व भ गण है ( ा पुराण ७१। २)। – 'ऊ पा :' पद कनका वाचक है? उ र – जो ऊ (गरम) अ खाते ह , उनको 'ऊ पाः ' कहते ह। मनु ृ तके तीसरे अ ायके दो सौ सतीसव ोकम कहा है क पतरलोग गरम अ ही खाते ह। अतएव यहाँ 'ऊ पाः ' पद पतर के समुदायका वाचक समझना चा हये। [82]

[83]

[84]

– 'ग वय ासुर स स ा: ' यह पद

कन- कन समुदाय का वाचक है? उ र – क पजीक प ी मु न और ाधासे तथा अ र ासे ग व क उ मानी गयी है, ये राग-रा ग नय के ानम नपुण ह और देवलोकक वा -नृ कलाम कु शल समझे जाते ह। य क उ मह ष क पक खसा नामक प ीसे मानी गयी है। भगवान् शंकरके गण म भी य लोग ह। इन य के और उ म रा स के राजा कु बेर माने जाते ह। देवता के वरोधी दै , दानव और रा स को असुर कहते ह । क पजीक ी ' द तसे' उ होनेवाले 'दै ' और 'दनु ' से उ होनेवाले 'दानव' कहलाते है। रा स क उ व भ कारसे ई है। क पल आ द स जन को ' स ' कहते ह। इन सबके व भ अनेक समुदाय का वाचक यहाँ 'ग वय ासुर स स ा: ' पद है। – वे सब व त होकर आपको देख रहे है इस कथनका ा अ भ ाय हे? उ र – इस कथनसे अजुनने यह भाव दखलाया है क उपयु सभी देवता, पतर, ग व, य , असुर और स के भ - भ समुदाय आ यच कत होकर आपके इस अदभु् त पक ओर देख रहे ह – ऐसा मुझे दखलायी देता है।

पं मह े ब व ने ं महाबाहो ब बा पादम् । ब दरं ब दं ाकरालं ा लोकाः थता थाहम् ॥२३॥

हे महाबाहो! आपके ब त मुख और ने वाले, ब त हाथ, जंघा और पैर वाले, ब त उदर वाले और ब त-सी दाढ़ के कारण अ वकराल महान् पको देखकर सब लोग ाकुल हो रहे ह तथा म भी ाकुल हो रहा ँ ॥२३॥ – सोलहव ोकम अजुनने यह कह दया था क म आपके वराट् पको अनेक भुजा , उदर , मुख और ने से यु देख रहा ँ ; फर इस ोकम पुन: उसीके लये 'ब व ने म् ', 'ब बा पादम् ' और 'ब दरम् ' वशेषण देनेक ा आव कता है?

उ र – सोलहव ोकम अजुनने के वल उस पको देखनेक ही बात कही थी और यहाँ उसे देखकर अ लोक के और यं अपने ाकु ल हो जानेक बात कह रहे ह, इसी कारण उस पका पुन: वणन कया है।

इस

– तीन लोक के थत होनेक ोकम पुन: कहनेका ा अ भ ाय है?

बात भी बीसव ोकम कह दी गयी थी फर

उ र – बीसव ोकम वराट् पके असीम व ार (लंबाई-चौड़ाई) और उसक उ ताको देखकर के वल तीन लोक के ही ाकु ल होनेक बात कही गयी है और इस ोकम अजुन उसको अनेक हाथ, पैर, जंघा, मुख, ने , पेटसे यु और ब त-से दाढ़ के कारण अ वकराल देखकर अपने ाकु ल होनेक भी बात कह रहे है; इस लये पुन का दोष नह है।

नभः ृशं दी मनेकवण ा ाननं दी वशालने म् । ा ह ां थता रा ा धृ त न व ा म शमं च व ो ॥ २४॥

क हे व ो! आकाशको श करनेवाले, देदी मान, अनेक वण से यु तथा फैलाये ए मुख और काशमान वशाल ने से यु आपको देखकर भयभीत अ ःकरणवाला म धीरज और शा – यहाँ

नह पाता ँ ॥२४॥

व ु स ोधनका ा अ भ ाय है? उ र – भगवान्को व ु नामसे स ो धत करके अजुन यह दखलाते ह क आप सा ात् व ु ही पृ ीका भार उतारनेके लये कृ पम कट ए ह। अत: आप मेरी ाकु लताको दूर करनेके लये इस व पका संवरण करके व ु पसे कट हो जाइये। – बीसव ोकम ग और पृ ीके बीचका आकाश भगवान्से ा बतलाकर उसक सीमार हत लंबाईका वणन कर ही चुके थे, फर यहाँ 'नभ: ृशम् ' वशेषण देनेक आव कता ई? उ र – बीसव ोकम वराट पक लंबाई-चौड़ाईका वणन करके तीन लोक के ाकु ल होनेक बात कही गयी है; और इस ोकम उसक असीम लंबाईको देखकर अजुनने अपनी ाकु लताका तथा धैय और शा के नाशका वणन कया है; इस कारण यहाँ 'नभ: ृशम् ' वशेषणका योग कया गया है। – स हव ोकम 'दी म म् ' वशेषण दया ही गया था, फर यहाँ 'दी न्' वशेषण देनेक ा आव कता थी?

उ र – वहाँ के वल भगवान्के पको देखनेक बात कही गयी थी और यहाँ उसे देखकर धैय शा के भंग होनेक बात कही गयी है। इसी लए उस पका पुन: वणन कया गया है। – अजुनने अपने ाकु ल होनेक बात भी तेईसव ोकम कह दी थी, फर इस ोकम ' थता रा ा ' वशेषण देकर ा भाव दखलाया है? उ र – वहाँ के वल ाकु ल होनेक बात ही कही थी। यहाँ अपनी तको भलीभाँ त कट करनेके लये वे पुन: कहते ह क म के वल ाकु ल ही नह हो रहा ँ , आपके फै लाये ए मुख और लत ने से यु इस वकराल पको देखकर मेरी धीरता और शा भी जाती रही है।

दं ाकराला न च ते मुखा न वै कालानलस भा न । दशो न जाने न लभे च शम सीद देवेश जग वास ॥२५॥

दाढ के कारण वकराल और लयकालक अ के समान लत आपके मुख को देखकर म दशा को नह जानता ँ और सुख भी नह पाता ँ । इस लये हे देवेश! हे जग

वास! आप स

ह ॥२५॥

तेईसव ोकम भगवान्के वराट् पका वशेषण 'ब दं ाकरालम् ' दे ही दया था, फर यहाँ पुन: उनके मुख का वशेषण 'दं ाकराला न ' देनेक ा आव कता है? उ र – वहाँ उस पको देखकर अजुनने अपने ाकु ल होनेक बात कही थी और यहाँ द म और सुखके अभावक बात वशेष पसे कह रहे ह; इस लये उसी वशेषणका पुन: मुख के साथ योग कया गया है। – 'देवेश ' और 'जग वास ' – इन दो स ोधन का योग करके भगवान्से स होनेके लये ाथना करनेका ा अ भ ाय है? उ र – 'देवेश ' और 'जग वास ' इन दोन स ोधन का योग करके अजुन यह भाव दखलाते ह क आप सम देवता के ामी, सव ापी और स ूण जगत्के परमाधार ह – इस बातको तो मने पहलेसे ही सुन रखा था; और मेरा व ास भी था क आप ऐसे ही ह। आज मने आपका वह वराट् प देख लया। अब तो आपके 'देवेश ' और 'जग वास ' होनेम कोई स हे ही नह रह गया। और स होनेके लये ाथना करनेका यह –

भाव है क ' भो! आपका भाव तो मने देख ही लया। परंतु आपके इस वराट् पको देखकर मेरी बड़ी ही शोचनीय दशा हो रही है; मेरे सुख, शा और धैयका नाश हो गया है; यहाँतक क मुझे दशा का भी ान नह रह गया है। अतएव दया करके अब आप अपने इस वराट् पको शी समेट ली जये।'

अमी च ां धृतरा पु ाः सव सहैवाव नपालस ैः । भी ो ोणः सूतपु थासौ सहा दीयैर प योधमु ैः ॥२६॥ व ा ण ते रमाणा वश दं ाकराला न भयानका न । के च ल ा दशना रेषु स ृ े चू णतै मा ै ः ॥२७॥

वे सभी धृतरा के पु राजा के समुदायस हत आपम वेश कर रहे ह और भी पतामह, ोणाचाय तथा वह कण और हमारे प के भी धान यो ा के स हत सबके-सब आपके दाढ़ के कारण वकराल भयानक मुख म बड़े वेगसे दौड़ते ए वेश कर रहे ह और कई एक चूण ए सर स हत आपके दाँत के बीचम लगे ए दीख रहे ह॥२६-२७॥ – 'धृतरा ाय है?

पु ा: ',

के साथ 'अमी ', 'सव ' और 'एव ' इन पद के योगका

ाअभ उ र – 'अमी ' से यह भाव दखलाया है क धृतरा के पु जन दुय धना दको म अभी- अभी अपने सामने यु के लये तैयार खड़े देख रहा था, उ को अब म आपम वेश होकर न होते देख रहा ँ । तथा 'सव ' और 'एव ' से यह भाव दखलाया है क वे दुय धना द सारे-के -सारे ही आपके अंदर वेश कर रहे ह, उन एक सौमसे एक भी बचा हो, ऐसी बात नह है। – 'अव नपालस ै ः ' और 'सह ' पदका ा अ भ ाय है? उ र – 'अव नपाल' श राजा का वाचक है और ऐसे राजा के व त-से समूह का वाचक 'अव नपालस ै ः ' पद है। उसका और 'सह ' पदका योग करके अजुनने यह दखलाया है क के वल धृतरा पु को ही म आपके अंदर व होते नह देख रहा ँ ; उ के साथ म उन सब राजा के समूह को भी आपके अंदर वेश करते देख रहा ँ जो दुय धनक सहायता करनेके लये आये थे। – भी और ोणके नाम अलग गनानेका ा अ भ ाय है?

उ र – पतामह भी और गु ोण कौरव-सेनाके सव धान महान् यो ा थे। अजुनके मतम इनका परा होना या मारा जाना ब त ही क ठन था। यहाँ उन दोन के नाम लेकर अजुन यह कह रहे ह क 'भगवन्। दूसर के लये तो कहना ही ा है; म देख रहा ँ भी और ोणसरीखे महान् यो ा भी आपके भयानक वकराल मुख म वेश कर रहे ह।' – सूतपु के साथ 'असौ ' वशेषण देकर ा भाव दखलाया है? उ र – वीरवर कणसे अजुनक ाभा वक त ता थी। इस लये उनके नामके साथ 'असौ ' वशेषणका योग करके अजुन यह भाव दखलाते ह क अपनी शूरवीरताके दपम जो कण सबको तु समझते थे, वे भी आज आपके वकराल मुख म पड़कर न हो रहे ह। – 'अ प ' पदके योगका ा भाव है तथा 'सह ' पदका योग करके 'अ दीयैः ' एवं 'योधमु ैः ' इन दोन पद से ा बात कही गयी है? उ र – 'अ प ' तथा म आये ए अ ा पद का य ग करके अजुनने यह भाव दखलाया है क के वल श ु प के वीर ही आपके अंदर नह वेश कर रहे है; हमारे प के जो मु -मु वीर यो ा ह श ुप के वीर के साथ-साथ उन सबको भी म आपके वकराल मुख म वेश करते देख रहा ँ । – ' रमाणा: ' पद कनका वशेषण है और इसके योगका ा भाव है तथा 'मुखा न' के साथ 'दं ाकराला न ' और 'भयानका न ' वशेषण देकर ा भाव दखलाया है? उ र – ' रमाणा: ' पूव ोकम व णत दोन प के सभी यो ा का वशेषण है। 'दं ाकराला न ' उन मुख का वशेषण है जो बड़ी-बड़ी भयानक दाढ़ के कारण ब त वकराल आकृ तके ह ; और 'भयानका न ' का अथ है – जो देखनेमा से भय उ करनेवाले ह । यहाँ इन पद का योग करके अजुनने यह भाव दखलाया है क पछले ोकम व णत दोन प के सभी यो ा को म बड़े वेगके साथ दौड़-दौड़कर आपके बड़ी-बड़ी दाढ़ के कारण वकराल और भयानक मुख म वेश करते देख रहा ँ , अथात् मुझे यह दीख रहा है क सभी वीर चार ओरसे बड़े वेगके साथ दौड़-दौड़कर आपके भयंकर मुख म व होकर न हो रहे ह। – कतने ही चू णत म क स हत आपके दाँत म फँ से ए दीखते ह, इस कथनका ा न भ ाय है?

उ र – इससे अजुनने यह भाव दखलाया है क उन सबको के वल आपके मुख म व होते ही नह देख रहा ँ , उनमसे कतन को ऐसी बूरी दशाम भी देख रहा ँ क उनके म क चूण हो गये ह और वे बुरी तरहसे आपके दाँत म फं से ए है। दोन सेना के यो ा को अजुन कस कार भगवान्के वकराल मुख म व होते देख रहे ह, अब दो ोक म उसका पहले न दय के जलके ा से और तदन र पतंग के ा से ीकरण कर रह ह – स



यथा नदीनां बहवोऽ ुवेगाः समु मेवा भमुखा व । तथा तवामी नरलोकवीरा वश व ा भ व ल ॥२८॥

जैसे न दय के ब त-से जलके वाह ाभा वक ही समु के ही स ुख दौड़ते ह अथात् समु म वेश करते ह, वैसे ही वे नरलोकके वीर भी आपके लत मुख म वेश कर रहे ह॥२८॥ – इस ोकम न दय के समु म वेश लये 'नरलोकवीरा: ' वशेषण कस अ भ ायसे अ भ व ल ' वशेषण देनेका ा अ भ ाय हे?

करनेका ा देकर वेश होनेवाल के दया गया है तथा मुख के साथ '

उ र – इस ोकम उन भी - ोणा द े शूरवीर पु ष के वेश करनेका वणन कया गया है, जो भगवान्क ा के लये साधन कर रहे थे तथा जनको बना ही इ ाके यु म वृ होना पड़ा था और जो यु म मरकर भगवान्को ा करनेवाले थे। इसी हेतुसे उनके लये 'नरलोकवीरा: ' वशेषण दया गया है। वे भौ तक यु म जैसे महान् वीर थे वैसे ही भगव ा के साधन प आ ा क यु म भी काम आ द श ु के साथ बड़ी वीरतासे लड़नेवाले थे। उनके वेशम नदी और समु का ा देकर अजुनने यह भाव दखलाया हे क जैसे न दय के जल ाभा वक ही समु क ओर दौड़ते ह और अ म अपने नाम- पको ागकर समु ही बन जाते है, वैसे ही ये शूरवीर भ जन भी आपक ओर मुख करके दौड़ रहे ह और आपके अ र अ भ भावसे वेश कर रहे ह। यहाँ मुख के साथ 'अ भ व ल ' वशेषण देकर यह भाव दखलाया गया है क जैसे समु म सब ओरसे जल-ही-जल भरा रहता है; और न दय का जल उसम वेश करके उसके साथ एक को ा हो जाता है, वैसे ही आपके सब मुख भी सब ओरसे अ ो तमय ह

और उनम वेश करनेवाले शूरवीर भ जन भी आपके मुख क महान् बा पको जलाकर यं ो तमय होकर आपम एकताको ा हो रहे ह।

ो तम अपने

यथा दी ं लनं पत ा वश नाशाय समृ वेगाः । तथैव नाशाय वश लोका वा प व ा ण समृ वेगाः ॥२९॥ जैसे पतंग मोहवश न होनेके लये

लत अ

म अ तवेगसे दौड़ते ए वेश

करतै ह, वैसे ही ये सब लोग भी अपने नाशके लये आपके मुख म अ तवेगसे दौड़ते ए वेश कर रहे ह॥२९॥

इस ोकम लत अ और पतंग का ा देकर भगवान्के मुख म सब लोक के वेश करनेक बात कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – इस ोकम पछले ोकम बतलाये ए भ से भ उन सम साधारण लोग के वेशका वणन कया गया है, जो इ ापूवक यु करनेके लये आये थे; इसी लये लत अ और पतंग का ा देकर अजुनने यह भाव दखलाया है क जैसे मोहम पड़े ए पतंग न होनेके लये ही इ ापूवक बड़े वेगसे उड़-उड़कर अ म वेश करते ह, वैसे ही ये सब लोग भी आपके भावको न जाननेके कारण मोहम पड़े ए ह और अपना नाश करनेके लये ही पतंग क भाँ त दौड़-दौड़कर आपके मुख म व हो रहे ह। –

सेना के लोग के वेशका ा ारा वणन करके अब उन लोगको भगवान् कस कार न कर रहे ह, इसका वणन कया जाता है – स

– दोन

ले ल से समानः सम ा ोका म ा दनै ल ः । तेजो भरापूय जग म ं भास वो ाः तप व ो ॥३०॥ आप उन संपूण लोक को लत मुख ारा ास करते ए सब ओरसे बार-बार चाट रहे ह, हे व ो! आपका उ काश समपूण जगत्को तेजके ारा प रपूण करके तपा रहा है॥३०॥ – इस

ोकका ा भाव है?

उ र – भगवान्के महान् उ पको देखकर यहाँ भयभीत अजुन उस अ भयानक पका वणन करते ए कह रहे ह क जनसे अ क भयानक लपट नकल रही ह, अपने उन वकराल मुख से आप सम लोक को नगल रहे ह और इतनेपर भी अतृ भावसे बार-बार अपनी जीभ लपलपा रहे ह। तथा आपके अ उ काशके भयानक तेजसे सारा जगत् अ स हो रहा है। अजुनने तीसरे और चौथे ोक म भगवान्से अपने ऐ यमय पका दशन करानेके लये ाथना क थी, उसीके अनुसार भगवान्ने अपना व प अजुनको दखलाया; परणु भगवान्के इस भयानक उ पको देखकर अजुन ब त डर गये और उनके मनम इस बातके जाननेक इ ा उ हो गयी क ये ीकृ व ुत: कौन ह? तथा इस महान् उ पके ारा अब ये ा करना चाहते ह? इसी लये वे भगवान्से पूछ रहे ह – स



आ ा ह मे को भवानु पो नमोऽ ु ते देववर सीद । व ातु म ा म भव मा ं न ह जाना म तव वृ म् ॥३१॥

मुझे बतलाइये क आप उ पवाले कौन ह? हे देव म े ! आपको नम ार हो। आप स होइये। आ दपु ष आपको म वशेष पसे जानना चाहता ँ , कम आपक वृ को नह जानता॥३१॥

अजुन यह तो जानते ही थे क भगवान् ीकृ ही अपनी योग-श से मुझे यह अपना व प दखला रहे ह, फर उ ने यह कै से पूछा क आप उ पधारी कौन ह? उ र – अजुन इतना तो जानते थे क यह उ प ीकृ का ही है; पर ु इस भयंकर पको देखकर उनके मनम यह जाननेक इ ा हो गयी क ये ीकृ व ुत: ह कौन, जो इस कारका भयंकर प भी धारण कर सकते ह। इसी लये उ ने यह भी कहा है क आप आ दपु षको म वशेष पसे जानना चाहता ँ । – 'देववर ' स ोधन देकर भगवान्को नम ार करनेका और स होनेके लये कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – जो देवता म सव े हो उसे 'देववर ' कहते ह। अत: भगवान्को 'देववर ' नामसे स ो धत करके अजुन उनके ई र को करके उनको नम ार कर रहे ह, तथा –

उनके भयानक पको देखकर अजुन भयभीत हो गये थे। अत: उनसे स होनेक ाथना कर रहे ह। – आपक वृ को म नह जानता, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इससे अजुनने यह भाव दखलाया है क यह इतना भयंकर प – जसम कौरव प के और हमारे ाय: सभी यो ा न होते दखलायी दे रहे ह – आप मुझे कस लये दखला रहे ह; तथा अब नकट भ व म आप ा करना चाहते ह – इस रह को म नह जानता। अतएव अब आप कृ पा करके इसी रह को खोलकर बतलाइये।

इस कार अजुनके पूछनेपर भगवान् अपने उ प धारण करनेका कारण ानुसार उ र देते ह –





बतलाते ए

ीभगवानुवाच । कालोऽ लोक यकृ वृ ो लोका माहतु मह वृ ः । ऋतेऽ प ां न भ व सव येऽव ताः नीके षु योधाः ॥ ३२॥

ीभगवान् बोले – म लोक का नाश करनेवाला बढ़ा आ महाकाल ँ । इस समय इन लोक को न करनेके लये वृ आ ँ । इस लये जो तप य क सेनाम त यो ा लोग ह वे सब तेरे बना भी नह रहगे अथात् तेरे यु न करनेपर भी इन सबका नाश हो जायगा॥३२॥

है?



म लोक का नाश करनेवाला बढ़ा आ काल ँ , इस कथनका ा अ भ ाय

उ र – इस कथनसे भगवान्ने अजुनके पहले का उ र दया है, जसम अजुनने यह जानना चाहा था क आप कौन ह। भगवान्के कथनका अ भ ाय यह है क म स ूण जगतका सृजन, पालन और संहार करनेवाला सा ात् परमे र ँ । अतएव इस समय मुझको तुम इन सबका संहार करनेवाला सा ात् काल समझो। – इस समय म इन लोक को न करनेके लये वृ आ ँ इस कथनका ा अ भ ाय है?

उ र – इस कथनसे भगवान्ने अजुनके उस का उ र दया है, जसम अजुनने यह कहा था क 'म आपक वृ तको नह जानता'। भगवान्के कथनका अ भ ाय यह है क इस समय मेरी सारी चे ाएँ इन सब लोग का नाश करनेके लये ही हो रही ह, यही बात समझानेके लये मने इस वराट् पके अंदर तुझको सबके नाशका भयंकर दखलाया है। – जो तप य क सेनाम उप त यो ा लोग ह, वे तेरे बना भी नह रहगे, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इस कथनसे भगवान्ने यह दखलाया है क गु , ताऊ, चाचे, मामे और भाई आ द आ ीय जन को यु के लये तैयार देखकर तु ारे मनम जो कायरताका भाव आ गया है और उसके कारण तुम जो यु से हटना चाहते हो – यह उ चत नह है; क य द तुम यु करके इनको न भी मारोगे तब भी ये बचगे नह । इनका तो मरण ही न त है । जब म यं इनका नाश करनेके लये वृ ँ , तब ऐसा कोई भी उपाय नह है जससे इनक र ा हो सके । इस लये तुमको यु से हटना नह चा हये, तु ारे लये तो मेरी आ ाके अनुसार यु म वृ होना ही हतकर है। – अजुनने तो भगवान्के वराट् पम अपने और श ुप के सभी यो ा को मरते देखा था, फर भगवान्ने यहाँ के वल कौरवप के यो ा क बात कै से कही? उ र – अपने प के यो ागण का अजुनके ार मारा जाना स व नह है, अतएव 'तुम न मारोगे तो भी वे तो मरगे ही' ऐसा कथन उनके लये नह बन सकता। इसी लये भगवान्ने यहाँ के वल कौरवप के वीर के वषयम कहा है। इसके सवा अजुनको उ ा हत करनेके लये भी भगवान्के ारा ऐसा कहा जाना यु संगत है। भगवान् मानो यह समझा रहे ह क श ुप के जतने भी यो ा ह वे सब एक तरहसे मरे ही ए ह; उ मारनेम तु कोई प र म नह करना पड़ेगा। इस कार अजुनके का उ र देकर अब भगवान् दो ोक ारा यु करनेम सब कारसे लाभ दखलाकर अजुनको यु के लये उ ा हत करते ए आ ा देते ह – स



त ा मु यशो लभ ज ा श ून् भुङ् रा ं समृ म् । मयैवैते नहताः पूवमेव न म मा ं भव स सा चन् ॥३३॥

रा

अतएव तू उठ! यश ा कर और श ु को जीतकर धन-धा से स को भोग। ये सब शूरवीर पहलेहीसे मेरे ही ारा मारे ए ह। हे स सा चन्! तू तो

केवल न म मा बन जा॥३३॥ –

यहाँ

'त ात् '

पदके स हत

'उ

'

याका योग करके

ा भाव

दखलाया गया है? उ र – 'त ात् ' के साथ 'उ ' याका योग करके भगवान्ने यह भाव दखलाया है क जब तु ारे यु न करनेपर भी ये सब नह बचगे, नःसंदेह मरगे ही, तब तु ारे लये यु करना ही सब कारसे लाभ द है। अतएव तुम कसी कारसे भी यु से हटो मत, उ ाहके साथ खड़े हो जाओ। – यश-लाभ करने और श ु को जीतकर समृ रा भोगनेके लये कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क इस यु म तु ारी वजय न त है; अतएव श ु को जीतकर धन-धा से स महान् रा का उपभोग करो और दुलभ यश ा करो, इस अवसरको हाथसे न जाने दो। – 'स सा चन् ' नामसे स ो धत करके यह कहनेका ा अ भ ाय है क ये पहलेसे ही मेरे ारा मारे ए ह, तुम तो के वल न म मा बन जाओ? उ र – जो बाय हाथसे भी बाण चला सकता हो, उसे 'स साची' कहते ह। यहाँ अजुनको 'स साची' नामसे स ो धत करके और न म मा बननेके लये कहकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क तुम तो दोन ही हाथ से बाण चलानेम अ नपुण हो, तु ारे लये इन शूरवीर पर वजय ा करना कौन-सी बड़ी बात है। फर इन सबको तो व ुत: तु मारना ही ा पड़ेगा, तुमने देख ही लया क सब-के -सब मेरे ारा पहलेहीसे मारे ए ह। तु ारा तो सफ नामभर होगा। अतएव अब तुम इ मारनेम जरा भी हचको मत। मार तो मने रखा ही है, तुम तो के वल न म मा बन जाओ। न म मा बननेके लये कहनेका एक भाव यह भी है क इ मारनेपर तु कसी कारका पाप होगा, इसक भी स ावना नह है; क तुम तो ा धमके अनुसार कत पसे ा यु म इ मारनेम एक न म भर बनते हो। इससे पापक बात तो दूर रही,

तु ारे ारा उलटा ा धमका पालन होगा । अतएव तु अपने मनम कसी कारका संशय न रखकर, अहंकार और ममतासे र हत होकर उ ाहपूवक यु म ही वृत होना चा हये।

ोणं च भी ं च जय थं च कण तथा ान प योधवीरान् । मया हतां ं ज ह मा थ ा यु जेता स रणे सप ान् ॥ ३४॥

ोणाचाय और भी पतामह तथा जय थ और कण तथा और भी ब त-से मेरे ारा मारे ए शूरवीर यो ा को तू मार। भय मत कर। न ेह तू यु म वै रय को जीतेगा। इस लये यु कर॥३४॥

ोण, भी , जय थ और कण – इन चार के अलग-अलग नाम लेनेका ा अ भ ाय है; तथा 'अ ान् ' वशेषणके स हत 'योधवीरान् ' पदसे कनका ल कराया गया है; और इन सबको अपने ारा मारे ए बतलाकर मारनेके लये कहनेका ा ता य है? उ र – ोणाचाय धनुवद तथा अ ा श ा योगक व ाम अ पारंगत और यु कलाम परम नपुण थे। यह बात स थी क जबतक उनके हाथम श रहेगा, तबतक उ कोई भी मार नह सके गा। इस कारण अजुन उ अजेय समझते थे; और साथ ही गु होनेके कारण अजुन उनको मारना पाप भी मानते थे। भी पतामहक शूरता जग स थी। परशुराम-सरीखे अजेय वीरको भी उ ने छका दया था। साथ ही पता शा नुका उ यह वरदान था क उनक बना इ ाके मु ु भी उ नह मार सके गी । इन सब कारण से अजुनक यह धारणा थी क पतामह भी पर वजय ा करना सहज काय नह है, इसीके साथ-साथ वे पतामहका अपने हाथ वध करना पाप भी समझते थे। उ ने कई बार कहा भी है, म इ नह मारना चाहता। जय थ यं बडे़ वीर थे और भगवान् शंकरके भ होनेके कारण उनसे दुलभ वरदान पाकर अ दुजय हो गये थे। फर दुय धनक ब हन दुःशलाके ामी होनेसे ये पा व के भी बहनोई लगते थे। ाभा वक ही सौज और आ ीयताके कारण अजुन उ भी मारनेम हचकते थे। कणको भी अजुन कसी कार भी अपनेसे कम वीर नह मानते थे। संसारभरम स था क अजुनके यो त ी कण ही ह। ये यं बड़े ही वीर थे और परशुरामजीके ारा दुलभ श व ाका इ ने अ यन कया था। –

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इसी लये इन चार के पृथकृ -पृथक् नाम लेकर और 'अ ान् ' वशेषणके साथ 'योधवीरान् ' पदसे इनके अ त र भगद , भू र वा और श भृ त जन- जन यो ा को अजुन ब त बड़े वीर समझते थे और जनपर वजय ा करना आसान नह समझते थे, उन सबका ल कराते ए उन सबको अपने ारा मारे ए बतलाकर और उ मारनेके लये आ ा देकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क तुमको कसीपर भी वजय ा करनेम कसी कारका भी संदेह नह करना चा हये। ये सभी मेरे ारा मारे ए ह। साथ ही इस बातका भी ल करा दया है क तुम जो इन गु जन को मारनेम पापक आशंका करते थे, वह भी ठीक नह है। क यधमानुसार इ मारनेके जो तुम न म बनोगे, इसम तु कोई भी पाप नह होगा वरं धमका ही पालन होगा। अतएव उठो और इनपर वजय ा करो। – 'मा थ ा: ' का ा भाव है? उ र – इससे भगवान्ने अजुनको आ ासन दया है क मेरे उ पको देखकर तुम जो इतने भयभीत और थत हो रहे हो, यह ठीक नह है। म तु ारा य वही कृ ँ । इस लये तुम न तो जरा भी भय करो और न स ही होओ। – यु म श ु को तू नःस हे जीतेगा, इस लये यु कर – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – अजुनके मनम जो इस बातक शंका थी क न जाने यु म हम जीतगे या हमारे ये श ु ही हमको जीतगे (२।६), उस शंकाको दूर करनेके लये भगवान्ने ऐसा कहा है। भगवान्के कथनका अ भ ाय यह है क यु म न य ही तु ारी वजय होगी, इस लये तु उ ाहपूवक यु करना चा हए।

इस कार भगवान्के मुखसे सब बात सुननेके बाद अजुनक कै सी प र त ई और उ ने ा कया – इस ज ासापर संजय कहते ह – स



स य उवाच । एत ु ा वचनं के शव कृ ता लवपमानः करीटी । नम ृ ा भूय एवाह कृ ं सग दं भीतभीतः ण ॥३५॥

संजय बोले – केशव भगवान्के इस वचनको सुनकर मुकुटधारी अजुन हाथ जोड़कर काँपता आ नम ार करके, फर भी अ भयभीत होकर णाम करके भगवान् ीकृ के त गदगद ् वाणीसे बोले – ॥३५॥

भाव है?

– भगवान्के

वचन को सुनकर अजुनके भयभीत और क त होनेके वणनका ा

उ र – इससे संजयने यह भाव दखलाया है क ीकृ के उस घोर पको देखकर अजुन इतने ाकु ल हो गये क भगवान्के इस कार आ ासन देनेपर भी उनका डर दूर नह आ; इस लये वे डरके मारे काँपते ए ही भगवान्से उस पका संवरण करनेके लये ाथना करने लगे। – अजुनका नाम ' करीटी' पड़ा था? उ र – अजुनके म कपर देवराज इ का दया आ सूयके समान काशमय द मुकुट सदा रहता था, इसीसे उनका एक नाम ' करीटी' पड़ गया था। – 'कृता लः ' वशेषण देकर पुन: उसी अथके वाचक 'नम ृ ा ' और ' ण ' इन दो पद के योगका ा भाव है? उ र – 'कृता ल: ' वशेषण देकर और उ दोन पद का योग करके संजयने यह भाव दखलाया है क भगवान्के अन ऐ यमय पको देखकर उस पके त अजुनक बड़ी स ा हो गयी थी और वे डरे ए थे ही। इसीसे वे हाथ जोड़े ए बार-बार भगवान्को नम ार और णाम करते ए उनक ु त करने लगे। – 'भूय: ' पदका ा अ भ ाय है? उ र – 'भूय: ' से यह दखलाया है क जैसे अजुनने पहले भगवान्क ु त क थी, भगवान्के वचन को सुननेके बाद वे पुन: उसी कार भगवान्क ु त करने लगे। – 'सगदगदम् ' पदका ा अथ है और यह कसका वशेषण है? तथा यहाँ ् इसका योग कस अ भ ायसे कया गया है? उ र – 'सगदगदम् ' पद या वशेषण है और अजुनके बोलनेका ढंग समझानेके लये ् ही इसका योग कया गया है। अ भ ाय यह है क अजुन जब भगवान्क ु त करने लगे तव [86]

आ य और भयके कारण उनका दय पानी- पानी हो गया, ने म जल भर आया, क क गये और इसी कारण उनक वाणी गदगद ् हो गयी। फलत: उनका उ ारण अ और क णापूण हो गया।

अब छ ीसवसे छयालीसव ोकतक अजुन ारा कये ए भगवान्के वन, नम ार और मायाचनास हत ाथनाका वणन है, उसम थम ' ाने' पदका योग करके जगत्के ह षत होने आ दका औ च बतलाते ह – स



अजुन उवाच । ाने षीके श तव क ा जग नुर ते च । र ां स भीता न दशो व सव नम च स स ाः ॥३६॥

अजुन बोले – हे अ या मन्! यह यो ही है क आपके नाम, गुण और भावके क तनसे जगत् अ त ह षत हो रहा है और अनुरागको भी ा हो रहा है तथा भयभीत रा सलोग दशा म भाग रहे ह और सब स गण के समुदाय नम ार कर रहे ह॥३६॥

ा अ भ ाय है? उ र – ' ाने ' अ य है और इसका औ च के अथम योग आ है। अ भ ाय यह है क आपके क तना दसे जो जगत् ह षत हो रहा है और ेम कर रहा है, साथ ही रा सगण आपके अदभु् त प और भावको देखकर डरके मारे इधर-उधर भाग रहे ह एवं स के सब-के सब समुदाय आपको बार-बार नम ार कर रहे ह – यह सब उ चत ही है ऐसा होना ही चा हये; क आप सा ात् परमे र ह। – यहाँ ' क ा ' पदका ा अथ है; तथा उससे जगत् ह षत हो रहा है और अनुराग कर रहा है – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – 'क त' श यहाँ क तनका वाचक हे। उसके साथ ' ' उपसगका योग करेके उ रसे क तन करनेका भाव कट कया गया है। अ भ ाय यह है क आपके नाम, प, गुण, भाव और माहा के उ रसे क तन ारा यह चराचरा क सम जगत् अ स हो रहा है और सभी ाणी ेमम व ल हो रहे ह। –'

ाने ' पदका

भगवान्के वराट् प के वल अजुन ही देख रहे थे या सारा जगत्? य द सारा जगत् नह देख रहा था तो सबके ह षत होनेक , अनुराग करनेक और रा स के भागनेक एवं स के नम ार करनेक बात अजुनने कै से कही? उ र – भगवान्के ारा दान क ई द से के वल अजुन ही देख रहे थे, सारा जगत् नह । जगत्का ह षत और अनुर होना, रा स का डरकर भागना और स का नम ार करना –  ये सब उस वराट् पके ही अंग ह। अ भ ाय यह है क यह वणन अजुनको दखलायी देनेवाले वराट् पका ही है, बाहरी जगत्का नह । उनको भगवान्का जो वराट् प दीखता था, उसीके अंदर ये सब दखलायी पड़ रहे थे। इसीसे अजुनने ऐसा कहा है। स – पूव ोकम जो ' ाने ' पदका योग करके स समुदाय का नम ार आ द करना उ चत बतलाया गया था, अब चार ोक म भगवान्के भावका वणन करके उसी बातको स करते ए अजुनके बार-बार नम ार करनेका भाव दखलाते ह – –

क ा ते न नमेर हा न् गरीयसे णोऽ ा दक । अन देवेश जग वास म रं सदस रं यत् ॥३७॥

हे महा न्! ाके भी आ दकता और सबसे बड़े आपके लये ये कैसे नम ार न कर; क हे अन ! हे देवेश! हे जग वास! जो सत्, असत् और उनसे परे अ र अथात् स दान घन है, वह आप ही ह॥३७॥ – 'महा न् ', 'अन

', 'देवेश ' दखलाया है?

और 'जग

वास ' –

इन चार स ोधन का

योग करके अजुनने ा भाव उ र – इनका योग करके अजुन नम ार आ द या का औ च स कर रहे ह। अ भ ाय यह है क आप सम चराचर ा णय के महान् आ ा ह, अ र हत है – आपके प, गुण और भाव आ दक सीमा नह है; आप देवता के भी ामी ह और सम जगत्के एकमा परमाधार है। यह सारा जुगत् आपम ही त है तथा आप इसम ा ह। अतएव इन सबका आपको नम ार आ द करना सब कारसे उ चत ही है। – 'गरीयसे ' और ' णोऽ ा दक ' का ा भाव है? उ र – इन दोन पद का योग भी नम ार आ दका औ च स करनेके उ े से ही कया गया है। अ भ ाय यह है क आप सबसे बड़े और े तम ह; जगत्क तो बात ही ा

है, सम जगत्क रचना करनेवाले ाके भी आ द रच यता आप ही ह। अतएव सबके परम पू और परम े होनेके कारण इन सबका आपको नम ारा द करना उ चत ही है। – जो 'सत्', 'असत्' और उससे परे 'अ र' है – वह आप ही ह, इस कथनका ा भाव है? उ र – जसका कभी अभाव नह होता, उस अ वनाशी आ ाको 'सत्' और नाशवान् अ न व ुमा को 'असत्' कहते ह; इ को सातव अ ायम परा और अपरा कृ त तथा पं हव अ ायम अ र और र पु ष कहा गया है। इनसे परे परम अ र स दान घन परमा -त है। अजुन अपने नम ारा दके औ च को स करते ए कह रहे ह क यह सब आपका ही प है। अतएव आपको नम ार आ द करना सब कारसे उ चत है।

मा ददेवः पु षः पुराण म व परं नधानम् । वे ा स वे ं च परं च धाम या ततं व मन प ॥३८॥

आप आ ददेव और सनातन पु ष ह, आप इस जगत्के परम आ य और जाननेवाले तथा जाननेयो और परम धाम ह। हे अन प! आपसे यह सब जगत् ा अथात् प रपूण है॥३८॥ – आप आ ददेव और सनातन पु

ष ह, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे भगवान्क ु त करते ए अजुनने यह बतलाया है क आप सम देव के भी आ ददेव ह और सदासे और सदा ही रहनेवाले सनातन न पु ष परमा ा ह। – आप इस जगत्के परम आ य ह, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे अजुनने यह भाव दखलाया है क यह सारा जगत् लयकालम आपम ही लीन होता है और सदा आपके ही कसी एक अंशम रहता है; इस लये आप ही इसके परम आ य ह। – 'वे ा ' पदका ा अ भ ाय है? उ र – इससे अजुनने यह भाव दखलाया है क आप इस भूत, वतमान और भ व सम जगत्को यथाथ तथा पूण पसे जाननेवाले, सबके न ा ह; इस लये आप सव ह, आपके स श सव कोई नह है।

– 'वे म् ' पदका

ा भाव है? उ र – 'वे म् ' पदसे अजुनने यह भाव दखलाया है क जो जाननेके यो है, जसको जानना मनु ज का परम उ े है, तेरहव अ ायम बारहवसे स हव ोकतक जस ेय त का वणन कया गया है – वे सा ात् पर परमे र आप ही ह। – 'परम् ' वशेषणके स हत 'धा म' पदका ा अ भ ाय है? उ र – इससे अजुनने यह भाव दखलाया है क जो मु पु ष क परम ग त है, जसे ा होकर मनु वापस नह लौटता; वह सा ात् परम धाम आप ही ह। – 'अन प ' स ोधनका ा भाव है? उ र – जसके प अन अथात् असं ह , उसे 'अन प ' कहते ह। अतएव इस नामसे स ो धत करके अजुनने यह भाव दखलाया है क आपके प असीम और अग णत ह, उनका पार कोई पा ही नह सकता । – यह सम जगत् आपसे ा है, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इससे अजुनने यह भाव दखलाया है क सारे व के ेक परमाणुम आप ा ह, इसका कोई भी ान आपसे र हत नह है।

वायुयमोऽ व णः शशा ः जाप त ं पतामह । नमो नम ेऽ ु सह कृ ः पुन भूयोऽ प नमो नम े ॥३९॥ आप वायु, यमराज, अ

, व ण, च मा, जाके

पता ह। आपके लये हजार बार नम नम ार! नम ार!!॥३१॥

ार! नम

ामी

ा और

ाके भी

ार हो!! आपके लये फर भी बार-बार

वायु, यमराज, अ , व ण, च मा और जाप त ा आप ही ह – यह कहनेका ा भाव है? उ र – इस कथनसे अजुनने यह भाव दखलाया है क जनके नाम मने गनाये ह इनके स हत जतने भी नम ार करनेयो देवता ह – वे सब आपके ही प ह। अत: आप ही सब कारसे सबके ारा नम ार करनेके यो ह। – आप ' पतामह' अथात् ाके भी पता ह, इस कथनका ा अ भ ाय है? –

उ र – इस कथनसे अजुनने यह दखलाया है क सम जगत्को उ करनेवाले क प, द जाप त तथा स ष आ दके पता होनेसे ा सबके पतामह ह और उन ाको भी उ करनेवाले आप ह; इस लये आप सबके पतामह ह। इस लये भी आपको नम ार करना सवथा उ चत ही है। – 'सह कृ ः ' पदके स हत बार-बार 'नम: ' पदके योगका ा भाव है? उ र – 'सह कृ ः ' पदके स हत बार-बार 'नम: ' पदका योग करके यह भाव दखलाया गया है क अजुन भगवान्के त स ान और अपने भयके कारण हजार बार नम ार करते-करते अघाते ही नह ह, वे उनको नम ार ही करना चाहते ह।

नमः पुर ादथ पृ त े नमोऽ ु ते सवत एव सव । अन वीया मत व म ं सव समा ो ष ततोऽ स सवः ॥४०॥

हे अन साम वाले! आपके लये आगेसे और पीछे से भी नम ार! हे सवा न्! आपके लये सब ओरसे ही नम ार हो। क अन परा मशाली आप सब संसारको ा

कये ए ह, इससे आप ही सव प ह॥४०॥ – 'सव ' स

ोधनका योग करके आगे- पीछे और सब ओरसे नम ार करनेका

ा भाव है? उ र – 'सव ' नामसे स ो धत करके अजुनने यह भाव दखलाया है क आप सबके आ ा, सव ापी और सव प ह; इस लये म आपको आगे-पीछे, ऊपर-नीचे, दा हने-बाय – सभी ओरसे नम ार करता ँ । क ऐसा कोई ान है ही नह , जहाँ आप न ह । अतएव सव त आपको म सब ओरसे णाम करता ँ । – 'अ मत व म: ' का ा भाव है? उ र – इस वशेषणका योग करके अजुनने यह भाव दखलाया है क साधारण मनु क भाँ त आपका व म प र मत नह है, आप अप र मत परा मशाली ह। अथात् आप जस कारसे श ा दके योगक लीला कर सकते ह, वैसे योगका कोई अनुमान भी नह कर सकता।

– आप सब संसारको ाय है?

ा कये ए ह, इससे आप सव प ह – इस कथनका

ाअभ उ र – अजुन पहले 'सव' नामसे भगवान्को स ो धत कर चुके ह। अब इस कथनसे उनक सवताको स करते ह। अ भ ाय यह है क आपने इस स ूण जगत्को ा कर रखा है। व म ु से भी ु तम अणुमा भी ऐसी कोई जगह या व ु नह है, जहाँ और जसम आप न ह । अतएव सब कु छ आप ही ह। वा वम आपसे पृथकृ जगत् कोई व ु ही नह है, यही मेरा न य है।

इस कार भगवान्क ु त और णाम करके अब भगवान्के गुण, रह और माहा को यथाथ न जाननेके कारण वाणी और या ारा कये गये अपराध को मा करनेके लये दो ोक म भगवान्से अजुन ाथना करते ह – स



सखे त म ा सभं यदु ं हे कृ हे यादव हे सखे त । अजानता म हमानं तवेदं मया मादा णयेन वा प ॥४१॥ य ावहासाथमस ृ तोऽ स वहारश ासनभोजनेषु । एकोऽथवा ुत त म ं त ामये ामहम मेयम् ॥४२॥

आपके इस भावको न जानते ए, आप मेरे सखा ह ऐसा मानकर ेमसे अथवा मादसे भी मने 'हे कृ !', 'हे यादव!', 'हे सखे!' इस कार जो कुछ बना सोचे-समझे हठात् कहा है; और हे अ ुत! आप जो मेरे ारा वनोदके लये वहार, श ा, आसन और भोजना दम अकेले अथवा उन सखा के सामने भी अपमा नत कये गये ह – वह सब अपराध अ मेय४१-४२॥

प अथात् अ च

भाववाले आपसे म

मा करवाता ँ ॥

वशेषणके स हत 'म हमानम् ' पदका ा भाव है? उ र – वराट् पका दशन करते समय अजुनने जो भगवान्के अतुलनीय तथा अ मेय ऐ य, गौरव, गुण और भावको देखा – उसीको ल करके 'म हमानम् ' पदके साथ 'इदनम् ' वशेषण दया गया है। – 'इदम् '

– 'मया ' के

साथ 'अजानता ' वशेषण देनेका ा भाव है? उ र – 'अजानता ' पद यहाँ हेतुगभ वशेषण है। 'मया ' के साथ इसका योग करनेका यह अ भ ाय है क आपका जो माहा मने अभी देखा है, उसे यथाथ न जाननेके कारण ही मने आपके साथ अनु चत वहार कया है। अतएव अनजानम कये ए मेरे अपराध को आप अव ही मा कर द। – 'सखा इ त म ा ', ' णयेन ' और ' मादात् ' इन पद के योगका ा भाव है? उ र – इससे अजुनने यह भाव दखलाया है क आपक अ तम और अपार म हमाको न जाननेके कारण ही मने आपको अपनी बराबरीका म मान रखा था। और इसी लये मने बातचीतम कभी आपके महान् गौरव और सवपू मह का खयाल नह रखा। अत: ेम या मादसे मेरे ारा न य ही बड़ी भूल ई। बड़े-से-बड़े देवता और मह षगण जन आपके चरण क व ना करना अपना सौभा समझते ह, मने उन आपके साथ बराबरीका बताव कया । अब आप इसके लये अपनी दयालुतासे मुझको मा दान क जये। – ' सभम् ' पदका योग करके 'है कृ ', 'हे यादव ', 'हे सखे ' इन पद के योगका ा भाव है? उ र – अजुन ेम या मादवश जन अपराध का अपने ारा होना मानते ह, यहाँ इन पद का योग करके वे उ का ीकरण कर रहे ह । वे कहते ह क ' भो! कहाँ आप और कहाँ म। म इतना मूढ़म त हो गया क आप परम पूजनीय परमे रको म अपना म ही मानता रहा और कसी भी आदरसूचक वशेषणका योग न करके सदा बना सोचे-समझे 'कृ ', 'यादव' और 'सखे' आ द कहकर आपको तर ारपूवक पुकारता रहा। मेरे इन अपराध को आप मा क जये।! – 'अ ुत ' स ोधनका ा भाव है? उ र – अपने मह और पसे जसका कभी पतन न हो, उसे 'अ ुत' कहते ह। यहाँ भगवान्को 'अ ुत'नामसे स ो धत करके अजुन यह भाव दखला रहे ह क मने अपने वहार-बताव ारा आपका जो अपमान कया है अव ही वह मेरा बड़ा अपराध है; कतु भगवन्! मेरे ऐसे वहार से व ुत: आपक कोई हा न नह हो सकती। संसारम ऐसी कोई भी

या नह हो सकती, जो आपको अपनी म हमासे जरा भी डगा सके । कसीक साम नह , जो आपका कोई अपमान कर सके । क आप सदा ही अ ुत है! – 'यत् ' और 'च ' के योगका ा भाव है? उ र – पछले ोकम अजुनने जन अपराध का ीकरण कया है इस ोकम वे उनसे भ अपने वहा ारा होनेवाले दूसरे अपराध का वणन कर रहे ह – यह भाव दखलानेके लये पुन: 'यत् ' का और पछले ोकम व णत अपराध के साथ इस ोकम बतलाये ए सम अपराध का समाहार करनेके लये 'च' का योग कया गया है। – 'अवहासाथम् ' का ा भाव है? उ र – ेम, माद और वनोद – इन तीन कारण से मनु वहारम कसीके मानापमानका खयाल नह रखता, ेमम नयम नह रहता, मादम भूल होती है और वनोदम यथाथताका सुर त रहना क ठन हो जाता है। कसी स ा पु षके अपमानम ये तीन कारण मलकर भी हेतु हो सकते ह और पृथकृ -पृथक् भी। इनमसे ' ेम' और ' माद' इन कारण के वषयम पछले ोकम अजुन कह चुके ह। यहाँ 'अवहासाथम् ' पदसे तीसरे कारण 'हँ सीमजाक' का ल करा रहे ह। – ' वहारश ासनभोजनेषु ', 'एक: ' और 'त म म् ' इन पद का योग करके 'अस ृ तोऽ स ' कहनेका ा अ भ ाय है। उ र – इनके ारा अजुन उन अवसर का वणन कर रहे ह; जनम वे अपने ारा भगवान्का अपमान होना मानते ह। वे कहते ह क एक साथ चलते- फरते, बछौनेपर सोते, ऊँ चे-नीचे या बराबरीके आसन पर बैठते और खाते-पीते समय मेरे ारा आपका जो बार-बार अनादर कया गया है – फर वह चाहे एका म कया गया हो या सब लोग के सामने – म अब उसको बड़ा अपराध मानता ँ और ऐसे ेक अपराधके लये आपसे मा चाहता ँ । – 'तत् ' पद कसका वाचक है तथा ' ाम् ' के साथ 'अ मेयम् ' वशेषण देकर ' ामये ' याके योगका ा भाव है? उ र – 'तत् ' पद यहाँ इकतालीसव और बयालीसव ोक म जन अपराध का अजुनने वणन कया है, वैसे सम अपराध का वाचक है; तथा ' ाम् ' पदके साथ 'अ मेयम् ' वशेषण देकर ' ामये ' याका योग करके अजुनने भगवान्से उन सम अपराध को मा [87]

करनेके लये ाथना क है। अजुन कह रहे ह क भो! आपका प और मह अ च है। उसको पूण पसे तो कोई भी नह जान सकता। कसीको उसका थोड़ा-ब त ान होता है तो वह आपक कृ पासे ही होता है। यह आपके परम अनु हका ही फल है क म – जो पहले आपके भावको नह जानता था; और इसी लये आपका अनादर कया करता था – अब आपके भावको कु छ-कु छ जान सका ँ । अव ही ऐसी बात नह है क मने आपका सारा भाव जान लया है; सारा जाननेक बात तो दूर रही – म तो अभी उतना भी नह समझ पाया ँ जतना आपक दया मुझे समझा देना चाहती है। पर ु जो कु छ समझा ँ , उसीसे मुझे यह भलीभाँ त मालूम हो गया है क आप सवश मान् सा ात् परमे र ह। मने जो आपको अपनी बराबरीका म मानकर आपसे जैसा बताव कया, उसे म अपराध मानता ँ ; और ऐसे सम अपराध के लये म आपसे मा चाहता ँ ।

इस कार अपराध मा करनेके लये ाथना करके अब दो ोक म अजुन भगवान्के भावका वणन करते ए अपराध मा करनेक यो ताका तपादन करके भगवान्से स होनेके लये पुन: ाथना करते ह – स



पता स लोक चराचर म पू गु गरीयान् । न मोऽ धकः कु तोऽ ो लोक येऽ तम भाव ॥ ४३॥

आप इस चराचर जगत्के पता और सबसे बड़े गु एवं अ त पूजनीय ह, हे अनुपम भाववाले! तीन लोक म आपके समान भी दस ू रा कोई नह है, फर अ धक तो कैसे हो सकता है॥४३॥ – आप इस चराचर जगत्के ाय है?

पता, बड़े- से-बड़े गु और पू ह – इस कथनका

ाअभ उ र – इस कथनसे अजुनने अपराध मा करनेके औ च का तपादन कया है। वे कहते ह – 'भगवन्! यह सारा जगत् आपहीसे उ है, अतएव आप ही इसके पता ह; संसारम जतने भी बड़े-बड़े देवता, मह ष और अ ा समथ पु ष ह – उन सबम सबक अपे ा बड़े ाजी ह; क सबसे पहले उ का ादुभाव होता है; और वे ही आपके न ानके ारा सबको यथायो श ा देते ह। परंतु हे भो! वे ाजी भी आपहीसे उ होते ह और

उनको वह ान भी आपहीसे मलता है। अतएव हे सव र! सबसे बड़े, सब बड़ से बड़े और सबके एकमा महान् गु आप ही ह। सम जगत् जन देवता क और मह षय क पूजा करता है उन देवता के और मह षय के भी परम पू तथा न व नीय ा आ द देवता और व स ा द मह ष य द णभरके लये आपके पूजन या वनका सुअवसर पा जाते ह तो अपनेको महान् भा वान् समझते ह। अतएव सब पूजनीय के भी परम पूजनीय आप ही ह, इस लये मुझ ु के अपराध को मा करना आपके लये सभी कारसे उ चत है। – 'अ तम भाव ' स ोधनके साथ 'तीन लोक म आपके समान भी दूसरा कोई नह है तो फर अ धक कै से हो सकता है' इस कथनका ा अ भ ाय हे? उ र – जसके भावक कोई तुलना न हो, उसे 'अ तम भाव' कहते ह। इसका योग करके आगे कहे ए वा से अजुनने यह भाव दखलाया है क व - ा म ऐसा कोई भी नह है जसक आपके अ च यान महान् गुण से, ऐ यसे और मह से तुलना हो सके । आपके समान तो बस, आप ही ह। और जब आपके समान भी दूसरा कोई नह है तब आपसे बढ़कर कोई है – ऐसी तो क ना भी नह हो सकती। ऐसी तम, हे दयामय! आप य द मेरे अपराध को मा न करगे तो कौन करेगा?

त ा ण णधाय कायं सादये ामहमीशमी म् । पतेव पु सखेव स ुः यः यायाह स देव सोढु म् ॥४४॥

अतएव हे भु! म शरीरको भलीभाँ त चरण नवे दत कर, णाम करके, ु त करनेयो आप ई रको स होनेके लये ाथना करता ँ । हे देव! पता जैसे पु के, सखा जैसे सखाके और प त जैसे यतमा प ीके अपराध सहन करते ह – वैसे ही आप भी मेरे अपराधको सहन करनेयो ह॥ ४४॥ – 'त ात् ' पदके

योगका ा भाव है? उ र – पछले ोकम जो भगवान्के महाम हम गुण का वणन कया गया है उन गुण को भगवान्के स होनेम हेतु बतलानेके लये 'त ात् ' पदका योग कया है। अ भ ाय यह है क आप इस कारके मह और भावसे यु ह अतएव मुझ-जैसे दीन शरणागतपर दया करके स होना तो, म समझता ँ आपका भाव ही है। इसी लये म साहस करके आपसे वनयपूवक यह ाथना करता ँ क आप मुझपर स होइये।

– ' ाम् ' पदके नवे दत करके , णाम करके , भाव दखलाया है?

साथ 'ईषम् ' और 'ई म् ' वशेषण देकर 'म शरीरको चरण म आपसे स होनेके लये ाथना करता ँ ' इस कथनसे ा

उ र – जो सबका नयमन करनेवाले ामी ह , उ 'ईश' कहते ह और जो ु तके यो ह , उ 'ई ' कहते ह। इन दोन वशेषण का योग करके अजुन यह भाव दखलाते ह क हे भो! इस सम जगत्का नयमन करनेवाले – यहांतक क इ , आ द , व ण, कु बेर और यमराज आ द लोक नय ा देवता को भी अपने नयमम रखनेवाले आप सबके एकमा महे र ह। और आपके गुणगौरव तथा मह का इतना व ार है क सारा जगत् सदा-सवदा आपका वन करता रहे तब भी उसका पार नह पा सकता; इस लये आप ही व ुत: ु तके यो ह। मुझम न तो इतना ान है और न वाणीम ही बल है क जससे म वन करके आपको स कर सकूँ । म अबोध भला आपका ा वन क ँ ? म आपका भाव बतलानेम जो कु छ भी क ँ गा, वह वा वम आपके भावक छायाको भी न छू सके गा; इस लये वह आपके भावको घटानेवाला ही होगा। अत: म तो बस, इस शरीरको ही लकड़ीक भाँ त आपके चरण ा म लुटाकर सम अंग के ारा आपको णाम करके आपक चरणधू लके सादसे ही आपक स ता ा करना चाहता ँ । आप कृ पा करके मेरे सब अपराध को भुला दी जये और मुझ दीनपर स हो जाइये। – पता-पु क , म - म क और प त- प ीक उपमा देकर अपराध मा करनेक यो ता स करनेका ा भाव है? उ र – इकतालीसव और बयालीसव ोक म बतलाया जा चुका है क माद, वनोद और ेम – इन तीन कारण से मनु ारा कसीका अपराध बनता है। यहाँ अजुन उपयु तीन उपमा देकर भगवान्से यह ाथना करते ह क तीन ही हेतु से बने ए मेरे अपराध आपको सहन करने चा हये। अ भ ाय यह है क जैसे अ ानम मादवश कये ए पु के अपराध को पता मा करता है, हंसी-मजाक कये ए म के अपराध को म सहता है और ेमवश कये ए यतमा प ीके अपराध को प त मा करता है – वैसे ही मेरे तीन ही कारण से बने ए सम अपराध को आप मा क जये। कार भगवान्से अपने अपराध के लये मा-याचना करके अब अजुन दो शलोकम भगवान्से चतुभुज पका दशन करानेके लये ाथना करते ह – स

– इस





ं ो े

अ पूव षतोऽ ा भयेन च थतं मनो मे । तदेव मे दशय देव पं सीद देवेश जग वास ॥४५॥

म पहले न देखे ए आपके इस आ यमय पको देखकर ह षत हो रहा ँ और मेरा मन भयसे अ त ाकुल भी हो रहा है, इस लये आप उस अपने चतुभुज व ु पको ही मुझे दखलाइये! हे देवेश! हे जग वास! सन होइये॥४५॥

का ा भाव है और उसे देखकर ह षत होनेक और साथ ही भयसे ाकु ल होनेक बात कहकर अजुनने ा भाव दखलाया है? उ र – जो प पहले कभी न देखा आ हो उस आ यजनक पको 'अ पूव' कहते ह। अतएव यहाँ अजुनके कथनका भाव यह है क आपके इस अलौ कक पम जब म आपके गुण, भाव और ऐ यक ओर देखकर वचार करता ँ तब तो मुझे बड़ा भारी हष होता है क 'अहो! म बड़ा ही सौभा शाली ँ जो सा ात् परमे रक मुझ तु पर इतनी अन दया और ऐसा अनोखा ेम है क जससे वे कृ पा करके मुझको अपना यह अलौ कक प दखला रहे हँ , परंतु इसीके साथ जब आपक भयावनी वकराल मू तक ओर मेरी जाती है तब मेरा मन भयसे काँप उठता है और म अ ाकु ल हो जाता ँ । अजुनका यह कथन सहेतुक है। अ भ ाय यह है क इसी लये म आपसे वनीत ाथना करता ँ क आप अपने इस पको शी संवरण कर ली जये। – 'एव ' पदके स हत 'तत् ' पदका योग करके देव प दखलानेके लये ाथना करनेका ा अ भ ाय है? उ र – 'तत् ' पद परो वाची है। साथ ही यह उस व ुका भी वाचक है जो पहले देखी ई हो कतु अब न हो; तथा 'एव ' पद उससे भ पका नराकरण करता है। अतएव अजुनके कथनका अ भ ाय यह होता है क आपका जो वैकु धामम नवास करनेवाला देव प अथात् व ु प है, मुझको उसी चतुभुज पके दशन करवाइये। के वल 'तत् ' का योग होनेसे तो यह बात भी मानी जा सकती थी क भगवान्का जो मनु ावतारका प है, उसीको दखलानेके लये अजुन ाथना कर रहे ह; क ु पके साथ 'देव' पद रहनेसे वह ही मानुष पसे भ देवस ी पका वाचक हो जाता हे। – 'देवेश ' और 'जग वास ' स ोधनका ा भाव है? – 'अ

पूवम् '

उ र – जो देवता के भी ामी ह , उ 'देवेश ' कहते ह तथा जो जगत्के आधार और सव ापी ह उ 'जग वास ' कहते ह। इन दोन स ोधन का योग करके अजुनने यह भाव दखलाया है क आप सम देव के ामी सा ात् सवाधार सव ापी परमे र ह, अत: आप ही उस अपने देव पको कट कर सकते ह। – ' सीद ' पदका ा भाव है? उ र – ' सीद ' पदसे अजुन भगवान्को स होनेके लये कहते ह। अ भ ाय यह है क आप शी ही इस वकराल पको समेटकर मुझे अपना चतुभुज प दखलानेक कृ पा क जये।

करी टनं ग दनं च ह ं इ ा म ां ु महं तथैव । तेनैव पेण चतुभुजेन सह बाहो भव व मूत ॥४६॥

म वैसे ही आपको मुकुट धारण कये ए तथा गदा और च हाथम लये ए देखना चाहता ँ , इस लये हे व प! हे सह बाहो! आप उसी चतुभुज पसे कट होइये॥४६॥ – 'तथा ' के

साथ 'एव ' के योगका ा अ भ ाय है? उ र – महाभारत-यु म भगवान्ने श - हण न करनेक त ा क थी और अजुनके रथपर वे अपने हाथ म चाबुक और घोड़ क लगाम थामे वराजमान थे। परंतु इस समय अजुन भगवान्के इस भुज पको देखनेसे पहले उस चतुभुज पको देखना चाहते ह, जसके हाथ म गदा और च ा द है; इसी अ भ ायसे 'तथा ' के साथ 'एव ' पदका योग आ है। – 'तेन एव ' पद से ा अ भ ाय है? उ र – पूव ोकम आये ए 'तत् देव पम् एव ' को ल करके ही अजुन कहते है क आप वही चतुभुज प हो जाइये। यहाँ 'एव ' पदसे यह भी नत होता है क अजुन ाय: सदा भगवान्के भुज पका ही दशन करते थे, परंतु यहाँ 'चतुभुज प' को ही देखना चाहते ह। – चतुभुज प ीकृ के लये कहा गया है या देव प कहनेसे ी व ुके लये? उ र – ी व ुके लये कहा गया है, इसम न ल खत कई हेतु ह –

( १)

य द चतुभुज प ीकृ का ाभा वक प होता तो फर 'ग दनम् ' और 'च ह म् ' कहनेक कोई आव कता न थी, क अजुन उस पको सदा देखते ही थे। वरं 'चतुभुज' कहना भी न योजन था; अजुनका इतना ही कहना पया होता क म अभी कु छ देर पहले जो प देख रहा था, वही दखलाइये। (२) पछले ोकम 'देव पम् ' पद आया है जो आगे इ ावनव ोकम आये ए 'मानुष पम् ' से सवथा वल ण अथ रखता है; इससे भी स है क देव पसे ी व ुका ही कथन कया गया है। (३) आगे पचासव ोकम आये ए ' कं पम् ' के साथ 'भूय: ' और 'सौमयवपुः ' के साथ 'पुन: ' पद आनेसे भी यहाँ पहले चतुभुज और फर भुज मानुष प दखलाया जाना स होता है। (४) आगे बावनव ोकम 'सुददु शम् ' पदसे यह दखलाया गया है क यह प अ दुलभ है और फर कहा गया है क देवता भी इस पको देखनेक न आकां ा करते ह। य द ीकृ का चतुभुज प ाभा वक था, तब तो वह प मनु को भी दीखता था; फर देवता उसक सदा आकां ा करने लगे? य द यह कहा जाय क व पके लये ऐसा कहा गया है तो ऐसे घोर व पक देवता को क ना भी होने लगी, जसक दाढ़ म भी ोणा द चूण हो रहे ह। अतएव यही तीत होता है क देवतागण वैकु वासी व पके दशनक ही आकां ा करते ह। (५) वराट् पक म हमा अड़तालीसव ोकम 'न वेदय ा यनै: ' इ ा दके ारा गायी गयी, फर तरपनव ोकम 'नाहं वेदैन तपसा ' आ दम पुन: वैसी ही बात आती है। य द दोन जगह एक ही वराट् पक म हमा है तो इसम पुन दोष आता है; इससे भी स है क मानुष प दखलानेके पहले भगवान्ने अजुनको चतुभुज देव प दखलाया; और उसीक म हमाम तरपनवाँ ोक कहा गया। (६) इसी अ ायके चौबीसव और तीसव ोकम अजुनने ' व ो ' पदसे भगवान्को स ो धत भी कया है। इससे भी उनके व ु प देखनेक आकां ा तीत होती है। इन हेतु से यही स होता है क यहाँ अजुन भगवान् ीकृ से चतुभुज व ु प दखलानेके लये ाथना कर रहे है।

– 'सह बाहो ' ाय हे?

और ' व

मूत '

स ोधन देकर चतुभुज होनेके लये कहनेका

ाअभ उ र – अजुनको भगवान् जो हजार हाथ वाले वराट् पसे दशन दे रहे ह, उस पको समेटकर चतुभुज प होनेके लये अजुन इन नाम से स ोधन करके भगवान्से ाथना कर रहे ह।

अजुनक ाथनापर अब अगले दो ोक म भगवान् अपने व पक म हमा और दुलभताका वणन करते ए उनचासव ोकम अजुनको आ ासन देकर चतुभुज प देखनेके लये कहते ह – स



ीभगवानुवाच । मया स ेन तवाजुनेदं पं परं द शतमा योगात् । तेजोमयं व मन मा ं य े द ेन न पूवम् ॥४७॥

ीभगवान् बोले – हे अजुन! अनु हपूवक मने अपनी योगशा के भावसे यह मेरा परम तेजोमय, सबका आ द और सीमार हत वराट् प तुझको दखलाया है, जसे तेरे अतर

दसरे कसीने पहले नह देखा था॥४७॥ – 'मया ' के

साथ ' स ेन ' वशेषण देनेका ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क तु ारी भ और ाथनासे स होकर तुमपर दया करके अपना गुण, भाव और त समझानेके लये मने तुमको यह अलौ कक प दखलाया है। ऐसी तम तु भय, दुःख और मोह होनेका कोई कारण ही नह था; फर तुम इस कार भयसे ाकु ल हो रहे हो? – 'आ योगात् ' का ा भाव है? उ र – इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क मेरे इस वराट् पके दशन सब समय और सबको नह हो सकते। जस समय म अपनी योगश से इसके   दशन कराता ँ , उसी समय होते ह। वह भी उसीको होते ह, जसको द ा हो; दूसरेको नह । अतएव इस पका दशन ा करना बड़े सौभा क बात है।

के साथ 'इदम् ', 'परम् ', 'तेजोमयम् ', 'आ म् ', 'अन म् ' और ' व म् ' वशेषण देनेका ा भाव है? उ र – इन वशेषण के योगसे भगवान् अपने अलौ कक और अदभु् त वराट् पका मह अजुनको समझा रहे है। वे कहते ह क मेरा यह प अ उ ृ और द है, असीम और द काशका पुंज है, सबको उ करनेवाला, सबका आ द है, असीम पसे व ृत है, कसी ओरसे भी इसका कह ओर-छोर नह मलता। तुम जो कु छ देख रहे हो, यह पूण नह है। यह तो मेरे उस महान् पका अंशमा है। – मेरा यह प 'तेरे सवा दूसरेके ारा पहले नह देखा गया' भगवान्ने इस कार कै से कहा, जब क वे इससे पहले यशोदा माताको अपने मुखम और भी ा द वीर को कौरव क सभाम अपने वराट् पके दशन करा चुके ह? उ र – यशोदा माताको अपने मुखम और भी ा द वीर को कौरव क सभाम जन वराट् प के दशन कराये थे, उनम और अजुनको दीखनेवाले इस वराट् पम ब त अ र है। तीन के भ - भ वणन ह। अजुनको भगवान्ने जस पके दशन कराये, उसम भी और ोण आ द शूरवीर भगवान्के लत मुख म वेश करते दीख पड़ते थे। ऐसा वराट् प भगवान्ने पहले कभी कसीको नह दखलाया था। अतएव भगवान्के कथनम कसी कारक भी असंग त नह है। – ' पम् '

न वेदय ा यनैन दानैन च या भन तपो भ ैः । एवं पः श अहं नृलोके ु ं द ने कु वीर ॥४८॥ हे अजुन! मनु लोकम इस कार व पवाला म न वेद और य के अ यनसे, न दानसे, न या से और न उ तप से ही तेरे अ त र दस ू रेके ारा देखा जा सकता ँ ॥४८॥ – 'वेदय ा यनै: ', 'दानैः ', '

या भः ' और 'उ ैः तपो भः '– इन पद का नह है – इस कथनका ा अ भ ाय है?

एवं इनसे भगवान्के वराट् पका देखा जाना श उ र – वेदवे ा अ धकारी आचायके ारा अंग-उपांग स हत वेद को पढ़कर उ भलीभाँ त समझ लेनेका नाम 'वेदा यन' है। य याम सु नपुण या क पु ष क सेवाम

रहकर उनके ारा य व धय को पढ़ना और उ क अ ताम व धवत् कये जानेवाले य को देखकर य स ी सम या को भलीभाँ त जान लेना 'य का अ यन' है। धन, स , अ , जल, व ा, गौ, पृ ी आ द कसी भी अपने क व ुका दूसर के सुख और हतके लये स दयसे जो उ यथायो दे देना है– इसका नाम 'दान' है। ौत- ात य ा दका अनु ान और अपने वणा मधमका पालन करनेके लये कये जानेवाले सम शा व हत कम को ' या' कहते ह। कृ -चा ायणा द त, व भ कारके कठोर नयम का पालन, मन और इ य का ववेक और बलपूवक दमन तथा धमके लये शारी रक या मान सक क ठन ेश का सहन अथवा शा व धके अनुसार क जानेवाली अ व भ कारक तप ाएँ – इ सबका नाम 'उ तप' है। इन सब साधन के ारा भी अपने वराट् पके दशनको अस व बतलाकर भगवान् उस पक मह ा कट करते ए यह कह रहे ह क इस कारके महान् य से भी जसके दशन नह हो सकते, उसी पको तुम मेरी स ता और कृ पाके सादसे देख रहे हो – यह तु ारा महान् सौभा है। इस समय तु जो भय, दुःख और मोह हो रहा है – यह उ चत नह है। – वराट् पके दशनको अजुनके अ त र दूसर के लये अश बतलाते समय 'नृलोके ' पदका योग करनेका ा भाव है? ा दूसरे लोक म इसके दशन अश नह ह? उ र – वेद-य ा दके अ यन, दान, तप तथा अ ा व भ कारक या का अ धकार मनु लोकम ही है। और मनु शरीरम ही जीव भ - भ कारके नवीन कम करके भाँ त-भाँ तके अ धकार ा करता है। अ ा सब लोक तो धानतया भोग- ान ही ह। मनु लोकके इसी मह को समझानेके लये यहाँ 'नृलोके ' पदका योग कया गया है। अ भ ाय यह है क जब मनु लोकम भी उपयु साधन ारा दूसरा कोई मेरे इस पको नह देख सकता, तब अ ा लोक म और बना कसी साधनके कोई नह देख सकता- इसम तो कहना ही ा है?

ोधनका ा भाव है? उ र – इसका योग करके भगवान्ने यह भाव दखलाया है क तुम कौरव म े वीरपु ष हो, तु ारे-जैसे वीरपु षके लये इस कार भयभीत होना शोभा नह दे सकता; इस लये भी तु भय नह करना चा हये। – 'कु

वीर ' स

मा ते था मा च वमूढभावो ा पं घोरमी ङ् ममेदम् । पेतभीः ीतमनाः पुन ं तदेव मे प मदं प ॥४९॥

मेरे इस कारके इस वकराल पको देखकर तुझको ाकुलता नह होनी चा हये और मूढ़भाव भी नह होना चा हये। तू भयर हत और ी तयु मनवाला होकर उसी मेरे इस शंख-च -गदा-प यु चतुभुज पको फर देख॥४९॥

मेरे इस वकराल पको देखकर तुझको ाकु लता और मूढ़भाव नह होना चा हये, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इस कथनसे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क मने जो स होकर तु इस परम दुलभ वराट् पके दशन कराये ह, इससे तु ारे अंदर ाकु लता और मूढ़भावका होना कदा प उ चत न था। तथा प जब इसे देखकर तु था तथा मोह हो रहा है और तुम चाहते हो क म अब इस पको संवरण कर लूँ, तब तु ारे इ ानुसार तु सुखी करनेके लये अब म इस पको तु ारे सामनेसे छपा लेता ँ ; तुम मो हत और डरके मारे थत न होओ। – ' म् ' के साथ ' पेतभीः ' ओर ' ीतमनाः ' वशेषण देनेका ा अ भ ाय है? उ र – ' म् ' के साथ ' पेतभीः ' ओर ' ीतमनाः ' वशेषण देकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क जस पसे तु भय और ाकु लता हो रही थी, उसको संवरण करके अब म तु ारे इ त चतुभुज पम कट होता ँ ; इस लये तुम भयर हत और स -मन हो जाओ। – ' पम् ' के साथ 'तत् ' और 'इदम् ' वशेषण देनेका ा अ भ ाय है? तथा 'पुन: ' पदका योग करके उस पको देखनेके लये कहनेका ा भाव है? –

उ र – 'तत् ' और 'इदम् ' वशेषण देकर यह भाव दखलाया है क जस चतुभुज देव पके दशन मने तुमको पहले कराये थे एवं अभी जसके दशनके लये तुम ाथना कर रहे हो, अब तुम उसी पको देखो; यह वही प अब तु ारे सामने है। अ भ ाय यह है क अब तु ारे सामनेसे वह व प हट गया है और उसके बदले चतुभुज प कट हो गया है, अतएव अब तुम नभय होकर स मनसे मेरे इस चतुभुज पके दशन करो। 'पुन: ' पदके योगसे यहाँ यह तीत होता है क भगवान्ने अजुनको अपने चतुभुज पके दशन पहले भी कराये थे, पतालीसव और छयालीसव ोक म क ई अजुनक ाथनाम 'तत् एव' और 'तेन एव' पद के योगसे भी यही भाव होता है। इस कार चतुभुज पका दशन करनेके लये अजुनको आ ा देकर भगवान्ने ा कया, अब संजय धृतरा से वही कहते ह – स



स य उवाच । इ जुनं वासुदेव थो ा कं पं दशयामास भूयः । आ ासयामास च भीतमेनं भू ा पुनः सौ वपुमहा ा ॥५०॥

संजय बोले – वासुदेवभगवान्ने अजुनके त इस कार कहकर फर वैसे ही अपने चतुभुज पको दखलाया और फर महा ा ीकृ ने सौ मू त होकर इस भयभीत अजुनको धीरज दया॥५०॥ – 'वासुदेव: ' पदका

ा अ भ ाय है? उ र – भगवान् ीकृ महाराज वसुदेवजीके पु पम कट ए ह और आ पसे सबम नवास करते ह। इस लये उनका नाम वासुदेव है। – ' पम् ' के साथ ' कम् ' वशेषण लगानेका और 'दशयामास ' याके योगका ा अ भ ाय है? उ र – ' कं पम् ' का अथ है अपना नजी प। वैसे तो व प भी भगवान् ीकृ का ही है और वह भी उनका क य ही है तथा भगवान् जस मानुष पम सबके सामने कट रहते थे – वह ीकृ प भी उनका क य ही है, क ु यहाँ ' पम् ' के साथ ' कम् ' वशेषण देनेका अ भ ाय उ दोन से भ कसी तीसरे ही पका ल करानेके लये होना

चा हये। क व प तो अजुनके सामने ुत था ही, उसे देखकर तो वे भयभीत हो रहे थे; अतएव उसे दखलानेक तो यहाँ क ना भी नह क जा सकती। और मानुष पके लये यह कहनेक आव कता नह रहती क उसे भगवान्ने दखलाया (दशयामास ); क व पको हटा लेनेके बाद भगवान्का जो ाभा वक मनु ावतारका प है, वह तो -काअजुनके सामने रहता ही, उसम दखलानेक ा बात थी, उसे तो अजुन यं ही देख लेते। अतएव यहाँ ' कम् ' वशेषण और 'दशयामास ' याके योगसे यही भाव तीत होता है क नरलीलाके लये कट कये ए सबके स ुख रहनेवाले मानुष पसे और अपनी योगश से कट करके दखलाये ए व पसे भ जो न वैकु धामम नवास करनेवाला भगवान्का द चतुभुज नजी प है – उसीको देखनेके लये अजुनने ाथना क थी और वही प भगवान्ने उनको दखलाया। – 'महा ा ' पदका और 'सौ वपु: ' होकर भयभीत अजुनको धीरज दया, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – जनका आ ा अथात् प महान् हो, उ महा ा कहते ह। भगवान् ीकृ सबके आ प ह, इस लये वे महा ा ह। कहनेका अ भ ाय यह है क अजुनको अपने चतुभुज पका दशन करानेके प ात् म ा ीकृ ने 'सौ वपु: ' अथात् परम शा ामसु र मानुष पसे यु होकर भयसे ाकु ल ए अजुनको धैय दया।

इस कार भगवान् ीकृ ने अपने व पको संवरण करके , चतुभुज पके दशन देनेके प ात् जब ाभा वक मानुषसपसे यु होकर अजुनको आ ासन दया, तब अजुन सावधान होकर कहने लगे – स



अजुन उवाच । दे ं मानुषं पं तव सौ ं जनादन । इदानीम संवृ ः सचेताः कृ त गतः ॥५१॥

अजुन बोले– हे जनादन! आपके इस अ त शा मनु पको देखकर अब म र च हो गया ँ और अपनी ाभा वक तको ा हो गया ँ ॥५१॥ – ' पम् ' के

साथ 'सौ

म् ' और 'मानुषम् '

वशेषण देनेका ा अ भ ाय है?

उ र – भगवान्का जो मानुष प था वह ब त ही मधुर, सु र और शा था; तथा पछले ोकम जो भगवान्के सौ वपु हो जानेक बात कही गयी है, वह भी मानुष पको ल करके ही कही गयी है – इसी बातको करनेके लये यहाँ ' पम् ' के साथ 'सौ म् ' और 'मानुषम् ' – इन दोन वशेषण का योग कया गया है। – 'सचेताः संवृ : ' और ' कृ त गत: ' का ा भाव है? उ र – भगवान्के वराट् पको देखकर अजुनके मनम भय, था और मोह आ द वकार उ न हो गये थे – उन सबका अभाव इन पद के योगसे दखलाया गया है। अ भ ाय यह है क आपके इस ामसु र मधुर मानुष पको देखकर अब म र च हो गया ँ , अथात् मेरा मोह, म और भय दूर हो गया और म अपनी वा वक तको ा हो गया ँ । अथात् भय और ाकु लता एवं क आ द जो अनेक कारके वकार मेरे मन, इ य और शरीरम उ हो गये थे – उन सबके दूर हो जानेसे अब म पूववत् हो गया ँ । कार अजुनके वचन सुनकर अब भगवान् दो ोक ारा अपने चतुभुज देव पके दशनक दुलभता और उसक म हमाका वणन करते ह – स

– इस

ीभगवानुवाच । सुददु श मदं पं वान स य म । देवा अ प न ं दशनकाङ् णः ॥५२॥

ीभगवान् बोले – मेरा जो चतुभुज प तुमने देखा है, यह सुददु श है अथात् इसके दशन बड़े ही दल ु भ ह। देवता भी सदा इस पके दशनक आकां ा करते रहते ह॥५२॥ – ' पम् ' के

साथ 'सुददु शम् ' और 'इदम् ' वशेषण देनेका ा अ भ ाय है? उ र – 'सुददु शम् ' वशेषण देकर भगवान्ने अपने चतुभुज द पके दशनक दुलभता और उसक मह ा दखलायी है। तथा 'इदम् ' पद नकटवत व ुका नदश करनेवाला होनेसे इसके ारा व पके प ात् दखलाये जानेवाले चतुभुज पका संकेत कया गया है। अ भ ाय यह है क मेरे जस चतुभुज, मायातीत, द गुण से यु न पके तुमने दशन कये ह, उस पके दशन बड़े ही दुलभ ह; इसके दशन उसीको हो सकते ह जो मेरा अन भ होता है और जसपर मेरी कृ पाका पूण काश हो जाता है।

– देवतालोग भी ाय है? तथा इस वा

सदा इस पका दशन करनेक इ ा रखते ह, इस कथनका ाअभ म 'अ प ' पदके योगका ा भाव है? उ र – इस कथनसे भी भगवान्ने अपने चतुभुज पके दशनक दुलभता और उसक मह ा ही कट क है। तथा 'अ प ' पदके योगसे यह भाव दखलाया है क जब देवतालोग भी सदा इसके देखनेक इ ा रखते ह, क ु सब देख नह पाते तो फर मनु क तो बात ही ा है?

नाहं वेदैन तपसा न दानेन न चे या । श एवं वधो ु ं वान स मां यथा ॥५३॥

जस कार तुमने मुझको देखा है – इस कार चतुभुज पवाला म न वेद से, न तपसे, न दानसे और न य से ही देखा जा सकता ँ ॥५३॥

नवम अ ायके स ाईसव और अ ाईसव ोक म यह कहा गया है क तुम जो कु छ य करते हो, दान देते हो और तप करते हो – सब मेरे अपण कर दो; ऐसा करनेसे तुम सब कम से मु हो जाओगे और मुझे ा हो जाओगे तथा स हव अ ायके पचीसव ोकम यह बात कही गयी है क मो क इ ावाले पु ष ारा य , दान और तप प याएँ फलक इ ा छोड़कर क जाती ह; इससे यह भाव नकलता है क य , दान और तप मु म और भगवान्क ा म अव ही हेतु ह। क ु इस ोकम भगवान्ने यह बात कही है क मेरे चतुभुज पके दशन न तो वेदके अ यना ापनसे ही हो सकते ह और न तप, दान और य से ही। अतएव इस वरोधका समाधान ा है? उ र – इसम कोई वरोधक बात नह है क कम को भगवान्के अपण करना अन भ का एक अंग है। पचपनव ोकम अन भ का वणन करते ए भगवान्ने यं 'म मकृत् ' (मेरे लये कम करनेवाला) पदका योग कया है और चौवनव ोकम यह घोषणा क है क अन भ के ारा मेरे इस पको देखना, जानना और ा करना स व है। अतएव यहाँ यह समझना चा हये क न ामभावसे भगवदथ और भगवदपणबु से कये ए य , दान और तप आ द कम भ के अंग होनेके कारण भगवान्क ा म हेतु ह– सकामभावसे कये जानेपर नह । अ भ ाय यह है क उपयु य ा द याएँ भगवान्का दशन करानेम भावसे समथ नह ह। भगवान्के दशन तो ेमपूवक भगवान्के शरण होकर न ामभावसे कम करनेपर भगव ृ पासे ही होते ह। –

– यहाँ 'एवं वध: ' और 'मां यथा '

वान स ' के योगसे य द यह बात मान ली जाय क भगवान्ने जो अपना व प अजुनको दखलाया था, उसीके वषयम म वेद ारा नह देखा जा सकता आ द बात भगवान्ने कही ह, तो ा हा न है?

उ र – व पक म हमाम ाय: इ पद का योग अड़तालीसव ोकम हो चुका है; इस ोकको पुन: उसी व पक म हमा मान लेनेसे पुन का दोष आता है। इसके अ त र , उस व पके लये तो भगवान्ने कहा है क यह तु ारे अ त र दूसरे कसीके ारा नह देखा जा सकता; और इसके देखनेके लये अगले ोकम उपाय भी बतलाते ह। इस लये जैसा माना गया है, वही ठीक है। य द उपयु उपाय से आपके दशन नह हो सकते तो कस उपायसे हो सकते ह, ऐसी ज ासा होनेपर भगवान् कहते ह – स



भ ा न या श अहमेवं वधोऽजुन । ातुं ु ं च त ेन वे ु ं च पर प ॥५४॥

पर ु हे परंतप अजुन! अन भ के ारा इस कार चतुभुज पवाला म देखनेके लये, त से जाननेके लये तथा वेश करनेके लये अथात् एक भावसे ा होनेके लये भी श ँ ॥५४॥

जसके ारा भगवान्का द चतुभुज प देखा जा सकता है, जाना जा सकता है और उसम वेश कया जा सकता है – वह अन भ ा है? उ र – भगवान्म ही अन ेम हो जाना तथा अपने मन, इ य और शरीर एवं धन, जन आ द सव को भगवान्का समझकर भगवान्के लये भगवान्क ही सेवाम सदाके लये लगा देना – यही अन भ है, इसका वणन अगले ोकम अन भ के ल ण म व ारपूवक कया गया है। – सां योगके ारा भी तो परमा ाको ा होना बतलाया गया है, फर यहाँ के वल अन भ को ही भगवान्के देखे जाने आ दम हेतु कर बतलाया गया हे? उ र – सां योगके ारा नगुण क ा बतलायी गयी है; और वह सवथा स है। पर ु सां योगके ारा सगुण-साकार भगवान्के द चतुभुज पके भी दशन हो –

जायँ, ऐसा नह कहा जा सकता। क सां योगके ारा साकार पम दशन देनेके लये भगवान् बा नह ह। यहाँ करण भी सगुण भगवान्के दशनका ही है। अतएव यहाँ के वल अन भ को ही भगव शन आ दम हेतु बतलाना उ चत ही है।

अन भ के ारा भगवान्को देखना, जानना और एक भावसे ा करना सुलभ बतलाया जानेके कारण अन भ का प जाननेक आकां ा होनेपर अब अन भ के ल ण का वणन कया जाता है – स



म मकृ रमो म ः स व जतः । नवरः सवभूतेषु यः स मामे त पा व ॥५५॥

हे अजुन! जो पु ष केवल मेरे ही लये स ूण कत कम को करनेवाला है, मेरे परायण है, मेरा भ है, आस र हत है और स ूण भूत ा णय म वैरभावसे र हत है – वह अन भ यु पु ष मुझको ही ा होता है॥५५॥

ा भाव है? उ र – जो मनु ाथ, ममता और आस को छोड़कर, सब कु छ भगवान्का समझकर, अपनेको के वल न म मा मानता आ य , दान, तप और खान-पान, वहार आ द सम शा व हत कत कम को न ामभावसे भगवान्क ही स ताके लये भगवान्क आ ानुसार करता है – वह 'म मकृत् ' अथात् भगवान्के लये भगवान्के कम को करनेवाला है। – 'म रम: ' का ा भाव है? उ र – ज भगवान्को ही परम आ य, परमग त, एकमा शरण लेनेयो , सव म, सवाधार, सवश मान्, सबके सु द, परम आ ीय और अपने सव समझता है तथा उनके कये ए ेक वधानम सदा सु स रहता है – वह 'म रम: ' अथात् भगवान्के परायण है। – 'म ः ' का ा भाव है? उ र – भगवान्म अन ेम हो जानेके कारण जो भगवान्म ही त य होकर न नर र भगवान्के नाम, प, गुण, भाव और लीला आ दका वण, क तन और मनन आ द करता रहता है; इनके बना जसे णभर भी चैन नह पड़ती; और जो भगवान्के दशनके लये – 'म

मकृत् ' का

अ है।



ाके साथ नर र लाला यत रहता है – वह 'म

ः'

अथात् भगवान्का भ

– 'स व जतः ' का

ा भाव है? उ र – शरीर, ी, पु , घर, धन, कु टु तथा मान-बड़ाई आ द जतने भी इस लोक और परलोकके भो पदाथ ह– उन स ूण जड-चेतन पदाथ म जसक क च ा भी आस नह रह गयी है; भगवान्को छोड़कर जसका कसीम भी ेम नह है – वह 'स व जतः ' अथात् आस र हत है। – 'सवभूतेषु नवर: ' का ा भाव है? उ र – सम ा णय को भगवान्का ही प समझने, अथवा सबम एकमा भगवान्को ा समझनेके कारण कसीके ारा कतना भी वपरीत वहार कया जानेपर भी जसके मनम वकार नह होता; तथा जसका कसी भी ाणीम क च ा भी ेष या वैरभाव नह रह गया है – वह 'सवभूतेषु नवर: ' अथात् सम ा णय म वैरभावसे र हत है। – 'य: ' और 'स: ' कसके वाचक ह और 'वह मुझको ही ा होता है' इस कथनका ा भाव है? उ र – 'य: ' और 'स: ' पद उपयु ल ण वाले भगवान्के अन भ के वाचक ह और वह मुझको ही ा होता है – इस कथनका भाव चौवनव ोकके अनुसार सगुण भगवान्के दशन कर लेना, उनको भलीभाँ त त से जान लेना और उनम वेश कर जाना है। अ भ ाय यह है क उपयु ल ण से यु जो भगवान्का अन भ है वह भगवान्को ा हो जाता है।

ॐ त द त ीम गव ीतासूप नष ु व ायां योगशा े ीकृ ाजुनसंवादे व पदशनयोगो नामैकादशोऽ ायः ॥११॥

|| ॐ

ी परमा ने नमः ||

ादशोऽ ायः

इस बारहव अ ायम अनेक कारके साधन स हत भ का वणन करके भगव के ल ण बतलाये गये ह। इसका उप म और उपसंहार भगवान्क भ म ही आ है। के वल तीन ोक म ानके साधनका वणन है, वह भी भगव और ानयोगक पर र तुलना करनेके लये ही है; अतएव इस अ ायका नाम 'भ योग' रखा गया है। अ ायका सं ेप इस अ ायके पहले ोकम सगुण-साकार और नगुण- नराकारके उपासक म कौन े है, यह जाननेके लये है। दूसरेम अजुनके का उ र देते ए भगवान्ने सगुण-साकारके उपासक को यु तम ( े ) बतलाया है। तीसरे-चौथेम नगुणनराकार परमा ाके वशेषण का वणन करके उसक उपासनाका फल भी भगव ा बतलाया है और पाँचवम देहा भमानी मनु के लये नराकारक उपासना क ठन बतलायी है। छठे और सातवम भगवान्ने यह बतलाया है क सब कम को मुझम अपण करके अन भावसे नर र मुझ सगुण परमे रका च न करनेवाले भ का उ ार यं म करता ँ । आठवम भगवान्ने अजुनको मन-बु अपनेम अपण करनेके लये आ ा दी है और उसका फल अपनी ा बतलाया है। तदन र नवसे ारहवतक उपयु साधन न कर सकनेपर अ ासयोगका साधन करनेके लये, उसम भी असमथ होनेपर भगवदथ कम करनेके लये और उसम भी असमथ होनेपर सम कम का फल ाग करनेके लये मश: कहा है। बारहवम कमफल ागको सव े बतलाकर उसका फल त ाल ही शा क ा होना बतलाया है। त ात् तेरहवसे उ ीसवतक भगवान्ने अपने य ानी महा ा भ के ल ण बतलाये ह और बीसवम उन ानी महा ा भ के ल ण को आदश मानकर ापूवक वैसा ही साथन करनेवाले भ को अ य बतलाया है। स – दूसरे अ ायसे लेकर छठे अ ायतक भगवान्ने जगह-जगह नगुण क और सगुण-साकार परमे रक उपासनाक शंसा क है। सातव अ ायसे ारहव अ यतक तो वशेष पसे सगुण-साकार भगवान्क उपासनाका मह दखलाया है। इसीके साथ पाँचव अ ायम सतरहवसे छ ीसव ोकतक, छठे अ ायम चौबीसवसे उनतीसवतक, आठव अ ायका नाम

अ ायम ारहवसे तैरहवतक तथा इसके सवा और भी कतनी ही जगह नगुण- नराकारक उपासनाका मह भी दखलाया है। आ खर ारहव अ ायके अ म सगुण-साकार भगवान्क अन भ का फल भगव ा बतलाकर 'म मकृ त्' से आर होनेवाले इस अ म ोकम सगुण-साकार प भगवान्के भ क वशेष पसे बड़ाई क । इसपर अजुनके मनम यह ज ासा ई क नगुण- नराकार क और सगुण-साकार भगवान्क उपासना करनेवाले दोन कारके उपासक म उ म उपासक कौन है, इसी ज ासाके अनुसार अजुन पूछ रहे ह –

अजुन उवाच । एवं सततयु ा ये भ ा ां पयुपासते । ये चा रम ं तेषां के योग व माः ॥ १२-१॥

अजुन बोले – ज अन ेमी भ जन पूव कारसे नर र आपके भजनानम लगे रहकर आप सगुण प परमे रको और दस ू रे जो केवल अ वनाशी स दान घन नराकार को ही अ त े भावसे भजते ह – उन दोन कारके उपासक म अ त उ म योगवे ा कौन ह?॥१॥ – 'एवम् ' पदका

ा अ भ ाय है? उ र – 'एवम् ' पदसे अजुनने पछले अ ायके पचपनव ोकम बतलाये ए अन भ के कारका नदश कया है। – ' ाम् ' पद यहाँ कसका वाचक है और नर र भजन- ानम लगे रहकर उसक े उपासना करना ा है? उ र – ' ाम् ' पद य प यहाँ भगवान् ीकृ का वाचक है, तथा प भ - भ अवतार म भगवान्ने जतने सगुण प धारण कये ह एवं द धामम जो भगवान्का सगुण प वराजमान है – जसे अपनी-अपनी मा ताके अनुसार लोग अनेक प और नाम से बतलाते ह – यहां ' ाम् ' पदको उन सभीका वाचक मानना चा हये; क वे सभी भगवान् ीकृ से अ भ ह। उन सगुण भगवान्का नर र च न करते ए परम ा और ेमपूवक न ामभावसे जो सम इ य को उनक सेवाम लगा देना है, यही नर र भजन- ानम लगे रहकर उनक े उपासना करना है।

वशेषणके स हत 'अ म् ' पद यहाँ कसका वाचक है? उ र – 'अ रम् ' वशेषणके स हत 'अ म् ' पद यहाँ नगुण- नराकार स दान घन का वाचक है। य प जीवा ाको भी अ र और अ कहा जा सकता है, पर अजुनके का अ भ ाय उसक उपासनासे नह है; क उसके उपासकका सगुण भगवान्के उपासकसे उ म होना स व नह है और पूव संगम कह उसक उपासनाका भगवान्ने वधान भी नह कया है। – उन दोन कारके उपासक म उ म योगवे ा कौन ह ?-इस वा का ा भाव है? उ र – इस वा से अजुनने यह पूछा है क य प उपयु कारसे उपासना करनेवाले दोन ही े ह – इसम कोई स ेह नह है, तथा प उन दोन क पर र तुलना करनेपर दोन कारके उपासक मसे कौन-से उ म ह – यह बतलाइये। – 'अ रम् '

इस कार असुनके पूछपर उसके उ रम भगवान् सगुण-साकारके उपासकक को उ म बतलाते ह – स



ीभगवानुवाच । म ावे मनो ये मां न यु ा उपासते । या परयोपेताः ते मे यु तमा मताः ॥ १२-२॥

जो भ

ीभगवान् बोले – मुझम मनको एका करके नर र मेरे भजन- ानम लगे ए जन अ तशय े ासे यु होकर मुझ सगुण प परमे रको भजते ह, वे

मुझको यो गय म अ त उ म योगी मा

ह॥२॥

– भगवान्म मनको एका उपासना करना ा है?

करके नर र उ के भजन- ानम लगे रहकर उनक

उ र – गो पय क भाँ त सम कम करते समय परम ेमा द, सवश मान् सवा यामी, स ूण गुण के समु भगवान्म मनको त य करके उनके गुण, भाव और पका सदा-सवदा ेमपूवक च न करते रहना ही मनको एका करके नर र उनके ानम त रहते ए उनक उपासना करना है। [88]

– अ तशय



ाका ा प है? और उससे यु होना ा है? उ र – भगवान्क स ाम, उनके अवतार म, वचन म, उनक श म, उनके गुण, भाव, लीला और ऐ य आ दम अ स ानपूवक जो से भी बढ़कर व ास है – वही अ तशय ा है और भ ादक क भाँ त सब कारसे भगवान्पर नभर हो जाना ही उपयु ासे यु होना है। – 'वे मुझे उ म योगवे ा मा हे' इसका ा भाव है? उ र – इस वा से भगवान्ने यह भाव दखलाया है क दोन कारके उपासक म जो मुझ सगुण परमे रके उपासक ह, उ को म उ म योगवे ा मानता ँ । स – पूव ोकम सगुण-साकार बतलाया, इसपर यह ज ासा हो सकती है क तो योगवे ा नह ह? इसपर कहते ह –

परमे रके उपासक को उ म योगवे ा ा नगुण- नराकार के उपासक उ म

ये रम नद म ं पयुपासते । सव गम च कू ट मचल ुवम् ॥३॥ स य े य ामं सव समबु यः । ते ा ुव मामेव सवभूत हते रताः ॥४॥

पर ु जो पु ष इ य के समुदायको भली कार वशम करके मन-बु से परे सव ापी, अकथनीय प और सदा एकरस रहनेवाले, न , अचल, नराकार, अ वनाशी स दान धन को नर र एक भावसे ान करते ए भजते ह, वे स ूण भूत के हतम रत और सबम समान भाववाले योगी मुझको ही ा होते ह॥३-४॥

ा अथ है? उ र – जो मन-बु का वषय न हो, उसे 'अ च म् ' कहते ह। – 'सव गम् ' का ा अथ है? उ र – जो आकाशक भाँ त सव ापी हो – कोई भी जगह जससे खाली न हो, उसे 'सव ग' कहते ह। – 'अ च

म् ' का

ा अथ है? उ र – जसका नदश नह कया जा सकता हो – कसी भी यु या उपमासे जसका प समझाया या बतलाया नह जा सकता हो, उसे 'अ नद ' कहते ह। ' – 'कूट म् ' का ा अथ है? उ र – जसका कभी कसी भी कारणसे प रवतन न हो, जो सदा एक-सा रहे, उसे 'कू ट ' कहते ह। – ' ुवम् ' का ा अथ है? उ र – ज न और न त हो – जसक सताम कसी कारका संशय न हो और जसका कभी अभाव न हो, उसे. ' ुव' कहते ह। – 'अचलम् ' का ा अथ है? उ र – जो हलन-चलनक यासे सवथा र हत हो उसे 'अचल' कहते ह। – 'अ म् ' का ा अथ है? उ र – जो कसी भी इ यका वषय न हो अथात् जो इ य ारा जाननेम न आ सके , जसका कोई प या आकृ त न हो, उसे 'अ ' कहते ह। – 'अ रम् ' का ा अथ है? उ र – जसका कभी कसी भी कारणसे वनाश न हो, उसे 'अ र' कहते ह । – इन सब वशेषण के योगका ा भाव है? और उस क े उपासना करना ा है? उ र – उपयु वशेषण से नगुण- नराकार के पका तपादन कया गया है; इस कार उस पर का उपयु प समझकर अ भ भावसे नर र ान करते रहना ही उसक उ म उपासना करना है। –'सवभूत हते रता: ' का ा भाव है? उ र – 'सेवभूत हते रता: ' से यह भाव दखलाया है क जस कार अ ववेक मनु अपने हतम रत रहता है, उसी कार उन नगुण-उपासक का स ूण ा णय म आ भाव हो – 'अ नद

म् ' का

जानेके कारण वे समान भावसे सबके हतम रत रहते ह। – 'सव समबु यः ' का ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया है क उपयु कारसे नगुण- नराकार क उपासना करनेवाल क कह भेदबु नह रहती। सम जगत्म एक से भ कसीक स ा न रहनेके कारण उनक सब जगह समबु हो जाती है। – वे मुझे ही ा होते ह – इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे भगवान्ने को अपनेसे अ भ बतलाया है। अ भ ाय यह है क उपयु उपासनाका फल जो नगुण क ा है, वह मेरी ही ा है; क मुझसे भ नह है और म से भ नह ँ । वह म ही ँ , यही भाव भगवान्ने चौदहव अ ायके स ाईसव ोकम ' णो ह त ाहम् ' अथात् म क त ा ँ , इस कथनसे दखलाया है। – जब दोन को ही परमे रक ा होती है तब फर दूसरे ोकम सगुण उपासक को े बतलानेका ा भाव है? उ र – ारहव अ ायम भगवान्ने कहा है क अन भ के ारा मनु मुझे देख सकता है, त से जान सकता है और ा कर सकता है।(११। ५४) इससे मालूम होता है क परमा ाको त से जानना और ा होना – ये दोन तो नगुण उपासकके लये भी समान ही ह; परंतु नगुण-उपासक को सगुण पम दशन देनेके लये भगवान् बा नह ह; और सगुणउपासकको भगवान्के दशन भी होते ह – यही उसक वशेषता है।

कार न ध-उपासना और उसके फलका तपादन करनेके प ात् अब देहा भमा नय के लये अ ग तक ा को क ठन बतलाते ह – स

उन स वशेष है, है॥५॥

– इस

ेशोऽ धकतर ेषाम ास चेतसाम् । अ ा ह ग तदुःखं देहव रवा ते ॥५॥ दान घन नराकार

म आस

क देहा भमा नय के ारा अ

च वाले पु ष के साधनम प र म

वषयक ग त दःु खपूवक ा

क जाती

– 'तेषाम् ' पदके स हत 'अ ास चेतसाम् ' म अ धक है, इस कथनका ा भाव है?

पद कनका वाचक है? और

उनको प र उ र – पूव ोक म जन नगुण-उपासक का वणन है, जनका मन नगुण- नराकार स दान घन म ही आस है – उनका वाचक यहाँ 'तेषाम् ' के स हत 'अ ास चेतसाम् ' पद है। उनको प र म अ धक है, यह कहकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क नगुण का त बड़ा ही गहन है; जसक बु शु , र और सू होती है, जसका शरीरम अ भमान नह होता वही उसे समझ सकता है, साधारण मनु क समझम यह नह आता। इस लये नगुण-उपासनाके साधनके आर कालम प र म अ धक होता है। – देहा भमा नय के ारा अ वषयक ग त दुःखपूवक ा क जाती है – इस कथनका ा भाव है? उ र – उपयु कथनसे भगवान्ने पूवा म बतलाये ए प र मका हेतु दखलाया है। अ भ ाय यह है क देहम अ भमान रहते नगुण का त समझम आना ब त क ठन है। इस लये जनका शरीरम अ भमान है उनको वैसी त बड़े प र मसे ा होती है। – यहाँ तो अ क उपासनाम अ धकतर प र म बतलाया है और नव अ ायके दूसरे ोकम 'कतुम् ', 'सुसुखम् ' पद से ान- व ानको सुगम बतलाकर चौथे, पाँचव और छठे ोक म अ का ही वणन कया है; अत: दोन जगहके वणनम जो वरोधसा तीत होता है, इसका ा समाधान है? उ र – वरोध नह है, क नव अ ायम ' ान' और ' व ान' श सगुण भगवान्के गुण, भाव और त से वशेष स रखते ह; अत: वहाँ सगुण- नराकारक उपासनाको ही करनेम सुगम बतलाया है। वहाँ चौथे ोकम आया आ 'अ ' श सगुण- नराकारका वाचक है, इसी लये उसे सम भूत को धारण- पोषण करनेवाला, सबम ा और वा वम असंग होते ए भी सबक उ आ द करनेवाला बतलाया है। – छठे अ ायके चौबीसवसे स ाईसव ोकतक नगुण उपासनाका कार बतलाकर अ ाईसव ोकम उस कारका साधन करते-करते सुखपूवक परमा ा प अ ान का लाभ होना बतलाया है, उसक संग त कै से बैठेगी?

उ र – वहाँका वणन, जसके सम पाप तथा रजोगुण और तमोगुण शा हो गये ह, जो ' भूत' हो गया है अथात् जो म अ भ भावसे त हो गया है – ऐसे पु षके लये है, देहा भमा नय के लये नह । अत: उसको सुखपूवक क ा बतलाना उ चत ही है। – ा नगुण-उपासक को ही साधन-कालम अ धक प र म होता है, सगुणउपासक को नह होता? उ र – सगुण-उपासक को नह होता। क एक तो सगुणक उपासना सुगम है, दूसरे वे भगवान्पर ही नभर रहते ह; इस लये यं भगवान् उनक सब कारसे सहायता करते ह। ऐसी अव ाम उनको प र म कै से हो? इस कार नगुण- नराकार क उपासनासे देहा भमा नय के लये परमा ाक ा क ठन बतलानेके उपरा अब दो ोक ारा सगुण परमे रक उपासनासे परमे रक ा शी और अनायास होनेक बात कहते ह – स



ये तु सवा ण कमा ण म य सं म रः । अन ेनैव योगेन मां ाय उपासते ॥६॥

पर ु जो मेरे परायण रहनेवाले भ सगुण प परमे रको ही अन – 'तु ' पदका यहाँ



जन स ूण कम को मुझम अपण करके मुझ

योगसे नर र च न करते ए भजते ह॥६॥

ा अ भ ाय है? उ र – 'तु ' पद यहाँ नगुण-उपासक क अपे ा सगुण-उपासक क वल णता दखलानेके लये है। – भगवान्के परायण होना ा है? उ र – भगवान्पर नभर होकर भाँ त-भाँ तके दुःख क ा होनेपर भी भ ादक भाँ त नभय और न वकार रहना; उन दुःख को भगवान्का भेजा आ पुर ार समझकर सुख प ही समझना तथा भगवान्को ही परम ेमी, परमग त, परम सु द् और सब कारसे शरण लेनेयो समझकर अपने-आपको भगवान्के समपण कर देना – यही भगवान्के परायण होना है। – स ूण कम को भगवान्के समपण करना ा है?

उ र – कम के करनेम अपनेको पराधीन समझकर भगवान्क आ ा और संकेतके अनुसार कठपुतलीक भाँ त सम कम करते रहना; उन कम म न तो ममता और आस रखना और न उनके फलसे कसी कारका स रखना; शा ानुकूल ेक याम ऐसा ही भाव रखना क म तो के वल न म मा ँ , मेरी कु छ भी करनेक श नह है, भगवान् ही अपने इ ानुसार मुझसे सम कम करवा रहे ह – यही सम कम का भगवान्के समपण करना है। – अन भ योग ा है? और उसके ारा भगवान्का च न करते ए उनक उपासना करना ा है? उ र – एक परमे रके सवा मेरा कोई नह है, वे ही मेरे सव ह – ऐसा समझकर जो भगवान्म ाथर हत तथा अ ासे यु अन ेम करना है – जस ेमम ाथ, अ भमान और भचारका जरा भी दोष नह है; जो सवथा पूण और अटल है; जसका क चत् अंश भी भगवान्से भ व ुम नह है और जसके कारण णमा क भी भगवान्क व ृ त अस हो जाती है – उस अन ेमको 'अन भ योग' कहते ह। और ऐसे भ योग ारा नर र भगवान्का च न करते ए, जो उनके गुण, भाव और लीला का वण, क तन, उनके नाम का उ ारण और जप आ द करना है – यही अन भ योगके ारा भगवान्का च न करते ए उनक उपासना करना है।

तेषामहं समु ता मृ ुसंसारसागरात् । भवा म न चरा ाथ म ावे शतचेतसाम् ॥७॥

हे अजन! उन मुझम च लगानेवाले ेमी भ

का म शी ही मृ ु प संसार-

॥७ ॥ – 'तेषाम् ' पदके स हत 'म ावे शतचेतसाम् ' पद कनका वाचक है? उ र – पछले ोकम मन-बु को सदाके लये भगवान्म लगा देनेवाले जन अन ेमी सगुण-उपासक का वणन आया है, उ ेमी भ का वाचक यहाँ 'तेषाम् ' के स हत 'म ावे शतचेतसाम् ' पद है। – 'मृ ु प संसार-सागर' ा है? और उससे भगवान्का उपयु भ को शी ही उ ार कर देना ा है? समु से उ ार करनेवाला होता ँ

उ र – इस संसारम सभी कु छ मृ ुमय है; इसम पैदा होनेवाली एक भी चीज ऐसी नह है जो कभी णभरके लये भी मृ ुके थपेड़ से बचती हो। और जैसे समु म असं लहर उठती रहती ह, वैसे ही इस अपार संसार-सागरम अनवरत ज -मृ ु पी तरंग उठा करती ह। समु क लहर क गणना चाहे हो जाय; पर जबतक परमे रक ा नह होती, तबतक जीवको कतनी बार ज ना और मरना पड़ेगा– इसक गणना नह हो सकती। इसी लये इसको 'मृ ु प संसार-सागर' कहते ह। उपयु कारसे मन-बु को भगवान्म लगाकर जो भ नर र भगवान्क उपासना करते ह, उनको भगवान् त ाल ही ज -मृ ुसे सदाके लये छु ड़ाकर यह अपनी ा करा देते है अथवा मरनेके बाद अपने परमधामम ले जाते ह–यहाँतक क जैसे के वट कसीको नौकाम बैठाकर नदीसे पार कर देता है, वैसे ही भ पी नौकापर त भ के लये भगवान् यं के वट बनकर उसक सम क ठनाइय और वप य को दूर करके ब त शी उसे भीषण संसार-समु के उस पार अपने परमधामम ले जाते ह। यही भगवान्का अपने उपयु भ को मृ ु प संसारसे पार कर देना है। इस कार पूव ोक म नगुण-उपासनाक अपे ा सगुण-उपासनाक सुगमताका तपादन कया गया। इस लये अब भगवान् अजुनको उसी कार मन, बु लगाकर सगुण-उपासना करनेक आ ा देते ह – स



म ेव मन आध म य बु नवेशय । नव स स म ेव अत ऊ न संशयः ॥८॥

मुझम मनको लगा और मुझम ही बु

को लगा; इसके उपरा

तू मुझम ही

नवास करेगा, इसम कुछ भी संशय नह है॥८॥ – बु

और मनको भगवान्म लगाना कसे कहते है? उ र – जो स ूण चराचर संसारको ा करके सबके दयम त ह और जो दयालुता, सव ता, सुशीलता तथा सु दता आ द अन गुण के समु ह–उन परम द , ेममय और आन मय, सवश मान्, सव म, शरण लेनेके यो परमे रके गुण, भाव और लीलाके त तथा रह को भलीभाँ त समझकर उनका सदा-सवदा और सव अटल न य रखना – यही बु को भगवान्म लगाना है। तथा इस कार अपने परम ेमा द

पु षो मभगवान्के अ त र अ सम वषय से आस को सवथा हटाकर मनको के वल उ म त य कर देना और न - नर र उपयु कारसे उनका च न करते रहना– यही मनको भगवान्म लगाना है। इस कार जो अपने मन-बु को भगवान्म लगा देता है वह शी ही भगवान्को ा हो जाता है। – भगवान्म मन-बु लगानेपर य द मनु को न य ही भगवान्क ा हो जाती है, तो फर सब लोग भगवान्म मन-बु नह लगाते? उ र – गुण, भाव और लीलाके त और रह को न जाननेके कारण भगवान्म ा- ेम नह होता और अ ानज नत आस के कारण सांसा रक वषय का च न होता रहता है। संसारम अ धकांश लोग क यही त है, इसीसे सब लोग भगवान्म मन-बु नह लगाते। – जस अ ानज नत आस से लोग म सांसा रक भोग के च नक बुरी आदत पड़ रही है, उसके छू टनेका ा उपाय है? उ र – भगवान्के गुण, भाव और लीलाके त और रह को जानने और माननेसे यह आदत छू ट सकती है। – भगवान्के गुण, भाव, लीलाके त और रह का ान कै से हो सकता है? उ र – भगवान्के गुण, भाव और लीलाके त और रह को जाननेवाले महापु ष का संग, उनके गुण और आचरण का अनुकरण तथा भोग, आल और मादको छोड़कर उनके बतलाये ए मागका व ासपूवक त रताके साथ अनुसरण करनेसे उनका ान हो सकता है।

यहाँ यह ज ासा हो सकती है क य द म उपयु बु न लगा सकूँ तो मुझे ा करना चा हये। इसपर कहते ह – स



कारसे आपम मन-

अथ च ं समाधातुं न श ो ष म य रम् । अ ासयोगेन ततो मा म ा ंु धन य ॥९॥

य द तू मनको मुझम अचल ापन करनेके लये समथ नह है तो हे अजुन! अ ास प योगके ारा मुझको ा होनेके लये इ ा कर॥९॥ – इस

ोकका ा भाव है? उ र – भगवान् अजुनको न म बनाकर सम जगत्के हताथ उपदेश कर रहे ह। संसारम सब साधक क कृ त एक-सी नह होती, इसी कारण सबके लये एक साधन उपयोगी नह हो सकता। व भ कृ तके मनु के लये भ - भ कारके साधन ही उपयु होते ह। अतएव भगवान् इस ोकम कहते ह क य द तुम उपयु कारसे मुझम मन और बु के र ापन करनेम अपनेको असमथ समझते हो, तो तु अ ासयोगके ारा मेरी ा क इ ा करनी चा हये। – अ ासयोग कसे कहते ह और उसके ारा भगव ा के लये इ ा करना ा है? उ र – भगवान्क ा के लये भगवान्म नाना कारक यु य से च को ापन करनेका जो बार-बार य कया जाता है, उसे 'अ ासयोग' कहते ह। भगवान्के जस नाम, प, गुण और लीला आ दम साधकक ा और ेम हो–उसीम के वल भगव ा के उ े से ही बार-बार मन लगानेके लये य करना अ ासयोगके ारा भगवान्को ा करनेक इ ा करना है। भगवान्म मन लगानेके साधन शा म अनेक कारके बतलाये गये ह, उनमसे न ल खत क तपय साधन सवसाधारणके लये वशेष उपयोगी तीत होते ह– (१) सूयके सामने आँ ख मूँदनेपर मनके ारा सव समभावसे जो एक काशका पुंज तीत होता है, उससे भी हजार गुना अ धक काशका पुंज भगव पम है – इस कार मनसे न य करके परमा ाके उस तेजोमय ो तः पम च लगानेके लये बार-बार चे ा करना। (२) जैसे दयासलाईम अ ापक है वैसे ही भगवान् सव ापक ह यह समझकर जहाँ-जहाँ मन जाय वहाँ-वहाँ ही गुण और भावस हत सवश मान् परम ेमा द परमे रके पका ेमपूवक पुनः-पुन: च न करते रहना।

(३) जहाँ-जहाँ मन जाय, वहाँ-वहाँसे उसे हटाकर भगवान्

व ु, शव, राम और कृ आ द जो भी अपने इ देव ह – उनक मान सक या धातु आ दसे न मत मू तम अथवा च पटम या उनके नाम-जपम ा और ेमके साथ पुनः-पुन: मन लगानेका य करना। (४) मरके गुंजारक तरह एकतार कारक न करते ए उस नम परमे रके पका पुनः-पुन: च न करना। (५) ाभा वक ास- ासके साथ-साथ भगवान्के नामका जप न - नर र होता रहे – इसके लये य करना। (६) परमा ाके नाम, प, गुण, च र और भावके रह को जाननेके लये त षयक शा का पुनः-पुन: अ ास करना। (७) चौथे अ ायके उनतीसव ोकके अनुसार ाणायामका अ ास करना। इनमसे कोई-सा भी अ ास य द ा और व ास तथा लगनके साथ कया जाय तो मश: स ूण पाप और व का नाश होकर अ म भगव ा हो जाती है। इस लये बड़े उ ाह और त रताके साथ अ ास करना चा हये। साधक क त, अ धकार तथा साधनक ग तके तारत से फलक ा म देर-सबेर हो सकती हे। अतएव शी फल न मले तो क ठन समझकर, ऊबकर या आल के वश होकर न तो अपने अ ासको छोड़ना ही चा हये और न उसम कसी कार कमी ही आने देनी चा हये। ब उसे बढ़ाते रहना चा हये।

ज ासा होती है क य द इस कार अ ासयोग भी म न कर सकूँ तो मुझे ा करना चा हये। इसपर कहते ह– स

– यहाँ यह

अ ासेऽ समथ ऽ स म मपरमो भव । मदथम प कमा ण कु व मवा स ॥१०॥

य द तू उपयु

अ ासम भी असमथ है तो केवल मेरे लये कम करनेके ही

परायण हो जा। इस कार मेरे न म कम को करता आ भी मेरी ा ा होगा॥१०॥ – य द तू अ

ासम भी असमथ है– इस कथनका ा भाव है?

प स

को ही

उ र – इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क य प तु ारे लये व ुत: मन लगाना या उपयु कारसे 'अ ासयोग ' के ारा मेरी ा करना कोई क ठन बात नह है, तथा प य द तुम अपनेको इसम असमथ मानते हो तो कोई बात नह ; म तु तीसरा उपाय बतलाता ँ । भाव-भेदसे भ - भ साधक के लये भ - भ कारके साधन ही उपयोगी आ करते ह। – 'म म ' श कौन-से कम का वाचक है और उनके परायण होना ा है? उ र – यहाँ 'म म ' श उन कम का वाचक है जो के वल भगवान्के लये ही होते ह या भगवत्-सेवा-पूजा वषयक होते ह; तथा जन कम म अपना जरा भी ाथ, मम और आस आ दका स नह होता। ारहव अ ायके अ म ोकम भी 'म मकृत् ' पदम 'म म ' श आया है वहाँ भी इसक ा ा क गयी है। एकमा भगवान्को ही अपना परम आ य और परम ग त मानना और के वल उ क स ताके लये परम ा और अन ेमके साथ मन, वाणी और शरीरसे उनक सेवा-पूजा आ द तथा य , दान और तप आ द शा व हत कम को अपना कत समझकर नर र करते रहना– यही उन कम के परायण होना है। – मेरे लये कम करता आ भी मेरी ा प स को ा हो जायगा–इस वा का ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क इस कार कम का करना भी मेरी ा का एक त और सुगम साधन है। जैसे भजन- ान पी साधन करनेवाल को मेरी ा होती है, वैसे ही मेरे लये कम करनेवाल को भी म ा हो सकता ँ । अतएव मेरे लये कम करना पूव साधन क अपे ा कसी अंशम भी न ेणीका साधन नह है। ज ासा हो सकती है क य द उपयु लये म कम भी न कर सकूँ तो मुझे ा करना चा हये? इसपर कहते ह – स

– यहाँ अजुनको यह

अथैतद श ोऽ स कतु म ोगमा तः । सवकमफल ागं ततः कु यता वान् ॥११॥

कारसे आपके

य द मेरी ा प योगके आ त होकर उपयु साधनको करनेम भी तू असमथ है तो मन-बु आ दपर वजय ा करनेवाला होकर सब कम के फलका ाग कर॥ ११॥ – 'य द

मेरी ा प योगके आ त होकर उपयु साधन करनेम भी तू असमथ है' – इस वा का ा अ भ ाय है? उ र – इस वा से भगवान्ने यह भाव दखलाया है क वा वम उपयु कारसे भ यु कमयोगका साधन करना तु ारे लये क ठन नह , सुगम है। तथा प य द तुम उसे क ठन मानते हो तो म तु अब एक अ कारका साधन बतलाता ँ । – 'यता वान् ' कसको कहते ह और अजुनको 'यता वान् ' होनेके लये कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – 'आ ा' श मन, बु और इ य के स हत शरीरका वाचक है; अत: जसने मन, बु और इ य के स हत शरीरपर वजय ा कर ली हो, उसे 'यता वान् ' कहते ह। मन और इ य आ द य द वशम नह होते तो वे मनु को बलात् भोग म फँ सा देते ह और ऐसा होनेपर सम कम के फल प भोग क कामना और आस का ाग नह हो सकता। अतएव 'सवकमफल ाग' के साधनम आ संयमक परम आव कता समझकर यहाँ अजुनको 'यता वान् ' बननेके लये कहा गया है। – छठे से लेकर दसव ोकतक बतलाये ए साधन म 'यता वान् ' होनेके लये न कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – छठे , सातव और आठव ोक म अन भ योगके साधक का वणन है; वैसे अन ेमी भ का संसारके भोग म ेम न रहनेके कारण उनके मन, बु आ द ाभा वक ही संसारसे वर रहकर भगवान्म लगे रहते ह। इस कारण उन ोक म 'यता वान् ' होनेके लये नह कहा गया। नव ोकम 'अ ासयोग' बतलाया गया है और भगवान्म मन-बु लगानेके लये जतने भी साधन ह, सभी अ ासयोगके अ गत आ जाते ह – इस कारणसे वहाँ 'यता वान् ' होनेके लये अलग कहनेक आव कता नह है। और दसव ोकम भ यु कमयोगका वणन है, उसम भगवान्का आ य है और साधकके सम कम भी भगवदथ ही होते ह। अतएव

उसम भी 'यता वान् ' होनेके लये अलग कहना योजनीय नह है। पर ु इस ोकम जो 'सवकमफल ाग' प कमयोगका साधन बतलाया गया है, इसम मन-बु को वशम रखे बना काम नह चल सकता; क वणा मो चत सम ावहा रक कम करते ए य द मन, बु और इ याँ वशम न ह तो उनक भोग म ममता, आस और कामना हो जाना ब त ही सहज है और ऐसा होनेपर 'सवकमफल ाग' प साधन बन नह सकता । इसी लये यहाँ 'यता वान् ' पदका योग करके मन-बु आ दको वशम रखनेके लये वशेष सावधान कया गया है। – 'सवकम' श यहाँ कन कम का वाचक है और उनका फल ाग करना ा है? उ र – य , दान, तप, सेवा और वणा मानुसार जी वका तथा शरीर नवाहके लये कये जानेवाले शा स त सभी कम का वाचक यहाँ 'सवकम' श है; उन कम को यथायो करते ए, इस लोक और परलोकके भोग क ा प जो उनका फल है– उसम ममता, आस और कामनाका सवथा ाग कर देना ही सवकम का फल ाग करना है। यहाँ यह रण रखना चा हये क झूठ, कपट, भचार, हसा और चोरी आ द न ष कम 'सवकम' म स लत नह ह। भोग म आस और उनक कामना होनेके कारण ही ऐसे पापकम होते ह और उनके फल प मनु का सब तरहसे पतन हो जाता है। इसी लये उनका पसे ही सवथा ाग कर देना बतलाया गया है और जब वैसे कम का ही सवथा नषेध है, तब उनके फल ागका तो संग ही कै से आ सकता है? – भगवान्ने पहले मन-बु को अपनेम लगानेके लये कहा, फर अ ासयोग बतलाया, तदन र मदथ कमके लये कहा और अ म सवकमफल ागके लये आ ा दी और एकम असमथ होनेपर दूसरेका आचरण करनेके लये कहा; भगवान्का इस कारका यह कथन फलभेदक से है अथवा एकक अपे ा दूसरेक सुगम बतलानेके लये है या अ धका रभेदसे है? उ र – न तो फलभेदक से है क सभीका एक ही फल भगव ा है; और न एकक अपे ा दूसरेक सुगम ही बतलानेके लये है, क उपयु साधन एक-दूसरेक अपे ा उ रो र सुगम नह है। जो साधन एकके लये सुगम है वही दूसरेके लये क ठन हो

सकता है। इस वचारसे यह समझम आता है क इन चार साधन का वणन के वल, अ धका रभेदसे ही कया गया है। – इन चार साधन मसे कौन-सा साधन कै से मनु के लये उपयोगी है? उ र – जस पु षम सगुण भगवान्के ेमक धानता है, जसक भगवान्म ाभा वक ा है, उनके गुण, भाव और रह क बात तथा उनक लीलाका वणन जसको भावसे ही य लगता है – ऐसे पु षके लये आठव ोकम बतलाया आ साधन सुगम और उपयोगी है। जस पु षका भगवान्म ाभा वक ेम तो नह है, क ु ा होनेके कारण जो हठपूवक साधन करके भगवान्म मन लगाना चाहता है– ऐसी कृ तवाले पु षके लये नव ोकम बतलाया आ साधन सुगम और उपयोगी है। जस पु षक सगुण परमे रम ा है तथा य , दान, तप आ द कम म जसका ाभा वक ेम है और भगवान्क तमा दक सेवा-पूजा करनेम जसक ा है–ऐसे पु षके लये दसव ोकम बतलाया आ साधन सुगम और उपयोगी है। और जस पु षका सगुण-साकार भगवान्म ाभा वक ेम और ा नह है, जो ई रके पको के वल सव ापी नराकार मानता है, ावहा रक और लोक हतके कम करनेम ही जसका ाभा वक ेम है तथा कम म ा और च अ धक होनेके कारण जसका मन नव ोकम बतलाये ए अ ासयोगम भी नह लगता– ऐसे पु षके लये इस ोकम बतलाया आ साधन सुगम और उपयोगी है। – छठे ोकके कथनानुसार सम कम को भगवान्म अपण करना, दसव ोकके कथनानुसार भगवान्के लये भगवान्के कम को करना तथा इस ोकके कथनानुसार सम कम के फलका ाग करना – इन तीन कारके साधन म ा भेद है? तीन का फल अलग-अलग है या एक? उ र – सम कम को भगवान्म अपण करना, भगवान्के लये सम कम करना और सब कम के फलका ाग करना– ये तीन ही 'कमयोग' ह; और तीन का ही फल परमे रक ा है, अतएव फलम कसी कारका भेद नह है। के वल साधक क भावना और उनके साधनक णालीके भेदसे इनका भेद कया गया है। सम कम को भगवान्म अपण करना

और भगवान्के लये सम कम करना– इन दोन म तो भ क धानता है; सवकमफल ागम के वल फल- ागक धानता है। यही इनका मु भेद है। 'सवकम' भगवान्के अपण कर देनेवाला पु ष समझता है क म भगवान्के हाथक कठपुतली ँ , मुझम कु छ भी करनेक साम नह है; मेरे मन, बु और इ या द जो कु छ ह– सब भगवान्के ह और भगवान् ही इनसे अपने इ ानुसार सम कम करवाते ह, उन कम से और उनके फलसे मेरा कु छ भी स नह है। इस कारके भावसे उस साधकका कम म और उनके फलम क च ा भी राग- ेष नह रहता; उसे जो कु छ भी ार ानुसार सुख-दुःख के भोग ा होते ह, उन सबको वह भगवान्का साद समझकर सदा ही स रहता है। अतएव उसका सबम समभाव होकर उसे शी ही भगवान्क ा हो जाती है। भगवदथ कम करनेवाला मनु पूव साधकक भाँ त यह नह समझता क 'म कु छ नह करता ँ और भगवान् ही मुझसे सब कु छ करवा लेते ह।' वह यह समझता है क भगवान् मेरे परम पू , परम ेमी और परम सु द् ह; उनक सेवा करना और उनक आ ाका पालन करना ही मेरा परम कत है। अतएव वह भगवान्को सम जगत्म ा समझकर उनक सेवाके उ े से शा ारा ा उनक आ ाके अनुसार य , दान और तप, वणा मके अनुकूल आजी वका और शरीर नवाहके सम कम तथा भगवान्क पूजा-सेवा दके कम म लगा रहता है। उसक ेक या भगवान्क आ ानुसार और भगवान्क ही सेवाके उ े से होती है (११।५५), अत: उन सम या और उनके फल म उसक आस और कामनाका अभाव होकर उसे शी ही भगवान्क ा हो जाती है। के वल 'सवकम के फलका ाग' करनेवाला पु ष न तो यह समझता है क मुझसे भगवान् कम करवाते ह और न यही समझता है क म भगवान्के लये सम कम करता ँ । वह यह समझता है क कम करनेम ही मनु का अ धकार है, उसके फलम नह , (२।४७ से ५१ तक) अत: कसी कारका फल न चाहकर य , दान, तप, सेवा तथा वणा मके अनुसार जी वका और शरीर नवाहके खान-पान आ द सम शा व हत कम को करना ही मेरा कत है। अतएव वह सम कम के फल प इस लोक और परलोकके भोग म ममता, आस और कामनाका सवथा ाग कर देता है (१८।९); इससे उसम राग, ेषका सवथा अभाव होकर उसे शी ही परमा ाक ा हो जाती है।

इस कार तीन के ही साधनका भगव ा - प एक फल होनेपर भी साधक क मा ता और साधन णालीम भेद होनेके कारण तीन तरहके साधन अलग-अलग बतलाये गये ह।

छठे ोकसे आठवतक अन ानका फलस हत वणन करके नवसे ारहव ोकतक एक कारके साधनम असमथ होनेपर दूसरा साधन बतलाते ए अ म 'सवकमफल ाग' प साधनका वणन कया गया, इससे यह शंका हो सकती है क 'कमफल ाग' प साधन पूव अ साधन क अपे ा न ेणीका होगा; अत: ऐसी शंकाको हटानेके लये कमफलके ागका मह अगले ोकम बतलाया जाता है – स



ये ो ह ानम ासा ानाद् ानं व श ते । ाना मफल ाग ागा ा रन रम् ॥१२॥

ममको न जानकर कये त

ए अ ाससे

ान



है,

ानसे मुझ परमे रके

पका ान े है और ानसे भी सब कम के फलका ाल ही परम शा होती है॥१२॥

ाग

े है;



ागसे

यहाँ 'अ ास' श कसका वाचक है और ' ान' श कसका? तथा अ ासक अपे ा ानको े बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – यहाँ 'अ ास' श नव ोकम बतलाये ए अ ासयोगमसे के वल अ ासमा का वाचक है अथात् सकामभावसे ाणायाम, मनो न ह, ो -पाठ, वेदा यन, भगव ाम-जप आ दके लये बार-बार क जानेवाली ऐसी चे ा का नाम यहाँ 'अ ास' है, जनम न तो ववेक ान है न ान है और न कमफलका ाग ही है। अ भ ाय यह है क नव ोकम जो योग यानी न ामभाव और ववेक ानका फल भगव ा क इ ा है, वह इसम नह है; क ये दोन जसके अ गत ह , ऐसे अ ासके साथ ानक तुलना करना और उसक अपे ा अ ासर हत ानको े बतलाना नह बन सकता। इसी कार यहाँ ' ान' श भी स ंग और शा से उ उस ववेक- ानका वाचक है जसके ारा मनु आ ा और परमा ाके पको तथा भगवान्के गुण, भाव, लीला आ दको समझता है एवं संसार और भोग क अ न ता आ द अ आ ा क बात को भी समझता है पर ु जसके साथ न तो अ ास है, न ान है और न कमफलक इ ाका ाग –

ही है। क ये सब जसके अ गत ह उस ानके साथ अ ास, ान और कमफलके ागका तुलना क ववेचन करना और उसक अपे ा ानको तथा कमफलके ागको े बतलाना नह बन सकता। उपयु अ ास और ान दोन ही अपने-अपने ानपर भगव ा म सहायक ह; ा-भ और न ामभावके स से दोन के ारा ही मनु परमा ाको ा कर सकता है। तथा प दोन क पर र तुलना क जानेपर अ ासक अपे ा ान ही े स होता है। ववेकहीन अ ास भगव ा म उतना सहायक नह हो सकता, जतना क अ ासहीन ववेक ान सहायक हो सकता है; क वह भगव ा क इ ाका हेतु है। यही बात दखलानेके लये यहाँ अ ासक अपे ा ानको े बतलाया है। – यहाँ ' ान' श कसका वाचक है उसे ानक अपे ा े बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – यहाँ ' ान' श भी छठे से आठव ोकतक बतलाये ए ानयोगमसे के वल ानमा का वाचक है अथात् उपा देव मानकर सकामभावसे के वल मन-बु को भगवान्के साकार या नराकार कसी भी पम र कर देनेका वाचक है। इसम न तो पूव ववेक ान है और न भोग क कामनाका ाग प न ामभाव ही है। अ भ ाय यह है क उस ानयोगम जो सम कम का भगवान्के समपण कर देना, भगवान्को ही परम ा समझना और अन ेमसे भगवान्का ान करना– ये सब भाव भी स लत ह, वे इसम नह ह। क भगवान्को सव े समझकर अन ेमपूवक न ामभावसे कया जानेवाला जो ानयोग है उसम ववेक ान और कमफलके ागका अ भाव है। अत: उसके साथ ववेक ानक तुलना करना और उसक अपे ा कमफलके ागको े बतलाना नह बन सकता। पहले के उ रम बतलाया आ ववेक ान और उपयु ान – दोन ही ाेम और न ामभावके स से परमा ाक ा करा देनेवाले ह, इस लये दोन ही भगवान्क ा म सहायक ह। पर ु दोन क पर र तुलना करनेपर ान और अ ाससे र हत ानक अपे ा ववेकर हत ान ही े स होता है; क बना ान और अ ासके के वल ववेक ान भगवान्क ा म उतना सहायक नह हो सकता, जतना बना ववेक- ानके के वल ान हो सकता है। ान ारा च र होनेपर च क म लनता और

चंचलताका नाश होता है; पर ु के वल जानकारीसे वैसा नह होता। यही भाव दखलानेके लये ानसे ानको े बतलाया गया है। – 'कमफल ाग' कसका वाचक है और उसे ानसे े बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – ारहव ोकम जो 'सवकमफल ाग' का प बतलाया गया है, उसीका वाचक 'कमफल ाग' है। दूसरे के उ रम बतलाया आ ान भी परमा ाक ा म सहायक है; पर ु जबतक मनु क कामना और आस का नाश नह हो जाता, तबतक उसे परमा ाक ा सहज ही नह हो सकती। अत: फलास के ागसे र हत ान परमा ाक ा म उतना लाभ द नह हो सकता, जतना क बना ानके भी सम कम म फल और आस का ाग हो सकता है। – ागसे त ाल शा मल जाती है, इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क कमफल प इस लोक और परलोकके सम भोग म ममता, आस और कामनाका सवथा ाग होनेसे मनु को त ाल ही परमे रक ा हो जाती है; फर वल का कोई भी कारण नह रह जाता। क वषयास ही मनु को बाँधनेवाली है, इसका नाश होनेके बाद भगवान् उससे छपे नह रह सकते। इस ोकम अ ासयोग, ानयोग, ानयोग और कमयोगका तुलना क ववेचन नह ह; क उन सभी साधन म कमफल प भोग क आस का ाग प न ामभाव अ गत है। अत: उनका तुलना क ववेचन नह हो सकता। यहाँ तो कमफलके ागका मह दखलानेके लये अ ास, ान और ान प साधन, जो क संसारके झंझट से अलग रहकर कये जाते ह और याक से एकक अपे ा दूसरा मसे सा क और नवृ परक होनेके नाते े भी ह, उनक अपे ा कमफलके ागको भावक धानताके कारण े बतलाया गया है। अ भ ाय यह है क आ ा क उ तम याक अपे ा भावका ही अ धक मह है। वण-आ मके अनुसार य , दान, यु , वा ण , सेवा आ द तथा शरीर नवाहक या; ाणायाम, ो -पाठ, वेद-पाठ, नाम-जप आ द अ ासक या; स ंग और शा के ारा आ ा क बात को जाननेके लये ान वषयक या और मनको र करनेके लये ान वषयक या– ये उ रो र े होनेपर भी उनमसे वही े है जसके

साथ कमफलका ाग प वैरा है; क संसारम वैरा और भगवान्म अन - ेमसे ही भगवान्क ा होती है, अ था नह । अत: कमफलका ाग ही े है, फर चाहे वह कसी भी शा स त याके साथ न रहे, वही या दीखनेम साधारण होनेपर भी सव े हो जाती है।

ोक म भगवान्क ा के लये भ के अंगभूत अलग-अलग साधन बतलाकर उनका फल परमे रक ा बतलाया गया, अतएव भगवान्को ा ए ेमी भक के ल ण जाननेक इ ा होनेपर अब सात ोक म भगव ा ानी भ के ल ण बतलाये जाते ह – स

– उपयु

अ े ा सवभूतानां मै ः क ण एव च । नममो नरह ारः समदुःखसुखः मी ॥१३॥ स ु ः सततं योगी यता ा ढ न यः । म पतमनोबु य म ः स मे यः ॥१४॥

जो पु ष सब भूत म ेषभावसे र हत, ाथर हत सबका ेमी और हेतुर हत दयालु है तथा ममतासे र हत, अहंकारसे र हत, सुख-दःु ख क ा म सम और मावान् है अथात् अपराध करनेवालेको भी अभय देनेवाला है; तथा जो योगी नर र संतु है मनइ य स हत शरीरको वशम कये ए है और मुझम ढ़ न यवाला है – वह मुझम अपण कये ए मन-बु वाला मेरा भ मुझको य है॥१३- १४॥ – 'सवभूतानाम् ' पद

कससे स रखता है? उ र – धान पसे तो इसका स 'अ े ा ' के साथ है क ु अनुवृ से यह 'मै : ' और 'क ण: ' के साथ भी स है। भाव यह है क सम भूत के त उसम के वल ेषका अभाव ही नह है, ब उनके त उसम ाभा वक ही हेतुर हत 'मै ी' और 'दया' भी है। – स पु षका तो सबम समभाव हो जाता है, फर उसम मै ी और क णाके वशेष भाव कै से रह सकते ह? उ र – भ के साधकम आर से ही मै ी और दयाके भाव वशेष पसे रहते ह, इस लये स ाव ाम भी उसके भाव और वहारम वे सहज ही पाये जाते ह। इसके

अ त र जैसे भगवान्म हेतुर हत अपार दया और ेम आ द रहते ह, वैसे ही उनके स भ म भी इनका रहना उ चत ही है। – ' नमम: ' और ' नरह ारः ' – इन दोन ल ण का ा अ भ ाय है? उ र – इन ल ण से यहाँ यह भाव दखलाया गया है क भगवान्के ानी भ का सव समभाव होता है, अतएव न तो उसक कसीम ममता रहती है और न उसका अपने शरीरम अहंकार ही रहता ह; तथा प बना ही कसी योजनके वह सम भूत से ेम रखता है और सबपर दया करता है। यही उसक मह ा है। भगवान्का साधक भ भी दया और ेम तो कर सकता है, पर उसम ममता और अहंकारका सवथा अभाव नह होता। – 'समदःु खसुखः ' इस पदम आये ए 'सुख-दुःख' श हष-शोकके वाचक ह या अ कसीके और उनम सम रहना ा है? उ र – यहाँ 'सुख-दुःख' हष-शोकके वाचक नह ह, क ु उनके हेतु के वाचक ह तथा इनसे उ होनेवाले वकार का नाम हष-शोक है। अ ानी मनु क सुखम आस होती है, इस कारण सुखक ा म उनको हष होता है और दुःखम उनका ेष होता है, इस लये उसक ा म उनको शोक होता है; पर ानी भ का सुख और दुःखम समभाव हो जानेके कारण कसी भी अव ाम उसके अ ःकरणम हष, शोक आ द वकार नह होते। ु तम भी कहा है – 'हषशोकौ जहा त ' (कठोप नषद् १।२। १२), अथात् ' ानी पु ष हषशोक को सवथा ाग देता है।' ार -भोगके अनुसार शरीरम रोग हो जानेपर उनको पीड़ा प दुःखका तो बोध होता है और शरीर रहनेसे उसम पीड़ाके अभावका बोध प सुख भी होता है, क ु राग- ेषका अभाव होनेके कारण हष और शोक उ नह होते। इसी तरह कसी भी अनुकूल ओर तकू ल पदाथ या घटनाके संयोग- वयोगम कसी कारसे भी उनको हष-शोक नह होते। यही उनका सुख-दुःखम सम रहना है। – ' मावान् ' कसे कहते ह और ानी भ को ' मावान् ' बतलाया गया है? उ र – अपना अपकार करनेवालेको कसी कारका द देनेक इ ा न रखकर उसे अभय देनेवालेको ' मावान् ' कहते है। भगवान्के ानी भ म माभाव भी असीम रहता है। उनक सबम भगवदबु् हो जानेके कारण वे कसी भी घटनाको वा वम कसीका अपराध ही नह समझते, अतएव वे अपना अपराध करनेवालेको भी बदलेम कसी कारका द नह देना

चाहते। यही भाव दखलानेके लये उनको ' मावान् ' बतलाया गया है। माक ा ा दसव अ ायके चौथे ोकम व ारसे क गयी है। – यहाँ 'योगी ' पद कसका वाचक है और उसका नर र स ु रहना ा है? उ र – भ योगके ारा भगवान्को ा ए ानी भ का वाचक यहाँ 'योगी ' पद है; ऐसा भ परमान के अ य और अन भ ार ीभगवान्को कर लेता है, इस कारण वह सदा ही स ु रहता है। उसे कसी समय, कसी भी अव ाम, संसारक कसी भी व ुके अभावम अस ोषका अनुभव नह होता। वह पूणकाम हो जाता है; अतएव संसारक कसी भी घटनासे उसके स ोषका अभाव नह होता। यही उसका नर र स ु रहना है। संसारी मनु को जो स ोष होता है, वह णक होता है; जस कामनाक पू तसे उनको स ोष होता है, उसक कमी होते ही पुन: अस ोष उ हो जाता है। इसी लये वे सदा स ु नह रह सकते। – 'यता ा ' का ा अथ है, इसका योग कस लये कया गया है? उ र – जसका मन और इ य के स हत शरीर जीता आ हो, उसे 'यता ा ' कहते ह। भगवान्के ानी भ का मन और इ य स हत शरीर सदा ही उनके वशम रहता है। वे कभी मन और इ य के वशम नह हो सकते, इसीसे उनम कसी कारके दुगुण और दुराचारक स ावना नह होती। यही भाव दखलानेके लये इसका योग कया गया है। – ' ढ न यः ' पद कसका वाचक है? उ र – जसने बु के ारा परमे रके पका भलीभाँ त न य कर लया है; जसे सव भगवान्का अनुभव होता है तथा जसक बु गुण, कम और दुःख आ दके कारण परमा ाके पसे कभी कसी कार वच लत नह हो सकती, उसको ' ढ़ न य ' कहते है। – भगवान्म मन-बु का अपण करना ा है? उ र – न - नर रमनसे भगवान्के पका च न और बु से उसका न य करते-करते मन और बु का भगवान्के पम सदाके लये त य हो जाना ही उनको 'भगवान्म अपण करना' है। – वह मेरा भ मुझे य है – इस कथनका ा ता य है?

उ र – जसका भगवान्म अहैतुक और अन ेम है; जसक भगवान्के पम अटल त है; जसका कभी भगवान्से वयोग नह होता; जसके मन-बु भगवान्के अ पत ह; भगवान् ही जसके जीवन, धन, ाण एवं सव ह; जो भगवान्के ही हाथक कठपुतली है – ऐसे ानी भ को भगवान् अपना य बतलाते ह।

य ा ो जते लोको लोका ो जते च यः । हषामषभयो ेगैमु ो यः स च मे यः ॥१५॥

जससे कोई भी जीव उ ेगको ा नह होता और जो यं भी कसी जीवसे उ ेगको ा नह होता; तथा जो हष, अमष, भय और उ ेगा दसे र हत है – वह भ मुझको

य है॥१५॥

जससे कोई भी जीव उ ेगको ा नह होता – इसका ा अ भ ाय है? भ जान-बूझकर कसीको उ नह करता या उससे कसीको उ ेग ( ोभ) होता ही नह ? उ र – सव भगवदबु् होनेके कारण भ जान-बूझकर तो कसीको दुःख, स ाप, भय और ोभ प ँ चा ही नह सकता ब उसके ारा तो ाभा वक ही सबक सेवा और परम हत ही होते ह। अतएव उसक ओरसे कसीको कभी उ ेग नह होना चा हये। य द भूलसे कसीको उ ेग होता है तो उसम उसके अपने अ ानज नत राग, ेष और ई ा द दोष ही धान कारण ह, भगव नह । क जो दया और ेमक मू त है एवं दूसर का हत करना ही जसका भाव है – वह परम दयालु ेमी भगव ा भ तो कसीके उ ेगका कारण हो ही नह सकता। – भ को दूसरे कसी ाणीसे उ ेग नह होता? उसे कोई भी ाणी दुःख देते ही नह या दुःखके हेतु ा होनेपर भी उसे उ ेग ( ोभ) नह होता? उ र – भगवान्को ा ानी भ का सबम समभाव हो जाता है; इस कारण वह जान- बूझकर अपनी ओरसे ऐसा कोई भी काय नह करता, जससे उसके साथ कसीका ेष हो । अतएव दूसरे लोग भी ाय: उसे दुःख प ँ चानेवाली कोई चे ा नह करते। तथा प सवथा यह बात नह कही जा सकती क दूसरे कोई ाणी उसक शारी रक या मान सक पीड़ाके कारण बन ही नह सकते। इस लये यही समझना चा हये क ानी भ को भी ार के अनुसार परे ासे दुःखके न म तो ा हो सकते ह, परंतु उसम राग- ेषका सवथा अभाव हो जानेके –

कारण बड़े-से-बड़े दुःखक ा म भी वह वच लत नह होता (६।२२), इसी लये ानी भ को कसी भी ाणीसे उ ेग नह होता। – भ को उ ेग नह होता, यह बात इस ोकके पूवा म कह दी गयी; फर उ रा म पुन: उ ेगसे मु होनेके लये कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – पूवा म के वल दूसरे ाणीसे उसे उ ेग नह होता, इतना ही कहा गया है। इससे परे ाज नत उ ेगक नवृ तो ई; क ु अ न ा और े ासे ा घटना और पदाथम भी तो मनु को उ ेग होता है, इस लये उ रा म पुन: उ ेगसे मु होनेक बात कहकर भगवान् यह स कर रहे ह क भ को कभी कसी कार भी उ ेग नह होता। – हष और उ ेगसे मु कहनेसे भी भ क न वकारता स हो ही जाती है, फर अमष और भयसे मु होनेक बात कही गयी? उ र – हष और उ ेगसे मु कह देनेसे न वकारता तो स हो जाती है, पर सम वकार का अ अभाव नह होता। अत: भ म स ूण वकार का अ अभाव होता है, इस बातको वशेष करनेके लये अमष और भयका भी अभाव बतलाया गया। अ भ ाय यह है क वा वम मनु को अपने अ भल षत मान, बड़ाई और धन आ द व ु क ा होनेपर जस तरह हष होता है, उसी तरह अपने ही समान या अपनेसे अ धक दूसर को भी उन व ु क ा होते देखकर स ता होनी चा हये; क ु ाय: ऐसा न होकर अ ानके कारण लोग को उलटा अमष होता है, और यह अमष ववेकशील पु ष के च म भी देखा जाता है। वैसे ही इ ा, नी त और धमके व पदाथ क ा होनेपर उ ेग तथा नी त और धमके अनुकूल भी दुःख द पदाथ क ा होनेपर या उसक आशंकासे भय होता देखा जाता है। दूसर क तो बात ही ा, मृ ुका भय तो ववे कय को भी होता है। क ु भगवान्के ानी भ क सव भगवद-् बु हो जाती है और वह स ूण या को भगवान्क लीला समझता है; इस कारण ानी भ को न अमष होता है, न उ ेग होता है और न भय ही होता है – यह भाव दखलानेके लये ऐसा कहा गया है।

अनपे ः शु चद उदासीनो गत थः । सवार प र ागी यो म ः स मे यः ॥१६॥

जो पु ष आकां ासे र हत, बाहर-भीतरसे शु , चतुर, प पातसे र हत और दःु ख से छू टा आ है – वह सब आर का ागी मेरा भ मुझको य है॥१६॥ – 'आकां

ासे र हत' कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – परमा ाको ा भ का कसी भी व ुसे क चत् भी योजन नह रहता; अतएव उसे कसी तरहक क च ा भी इ ा, ृहा अथवा वासना नह रहती। वह पूणकाम हो जाता है। यह भाव दखलानेके लये उसे आकां ासे र हत कहा है। – इ ा या आव कताके बना तो मनु से कसी कारक भी या नह हो सकती और याके बना जीवन- नवाह स व नह , फर ऐसे भ का जीवन कै से चलता है? उ र – बना इ ा और आव कताके भी ार से या हो सकती है, अतएव उसका जीवन ार से चलता है। अ भ ाय यह है क उसके मन, वाणी और शरीरसे ार के अनुसार स ूण याएँ बना कसी इ ा, ृहा और संक के ाभा वक ही होती रहती ह (४।१९); अत: उसके जीवन- नवाहम कसी तरहक अड़चन नह पड़ती। – भगवान्का भ बाहर-भीतरसे शु होता है; उसक इस शु का ा प है? उ र – भगवान्के भ म प व ताक पराका ा होती है। उसके मन, बु , इ य, उनके आचरण और शरीर आ द इतने प व हो जाते ह क उसके साथ वातालाप होनेपर तो कहना ही ा है – उसके दशन और शमा से ही दूसरे लोग प व हो जाते ह। ऐसा भ जहाँ नवास करता है वह ान प व हो जाता है और उसके संगसे वहाँका वायुम ल, जल, ल आ द सब प व हो जाते ह। – 'द ' श का ा भाव है? उ र – जस उ े क सफलताके लये मनु शरीरक ा ई है, उस उ े को पूरा कर लेना ही यथाथ चतुरता है। अन भ के ारा परम ेमी; सबके सु द् सव र परमे रको ा कर लेना ही मनु ज के धान उ े को ा कर लेना है। ानी भ भगवान्को ा है, यह भाव दखलानेके लये उसको 'चतुर' कहा गया है। – प पातसे र हत होना ा है?

उ र – ायालयम सा ी देते समय अथवा पंच या ायकताक है सयतसे कसीके झगड़ेका फै सला करते समय या इस कारका दूसरा कोई मौका आनेपर अपने कसी कु टु ी, स ी या म आ दके लहाजसे या ेषसे, अथवा अ कसी कारणसे भी झूठी गवाही देना, ाय व फै सला देना या अ कसी कारसे कसीको अनु चत लाभ-हा न प ँ चानेक चे ा करना प पात है। इससे र हत होना ही प पातसे र हत होना है। – भगवान्का भ सब कारके दुःख से र हत होता है, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – मूल ोकम 'गत थः ' पद है। इससे भगवान्का यही अ भ ाय तीत होता है क कसी भी कारके दुःख-हेतुके ा होनेपर भी वह उससे दुःखी नह होता, अथात् उसके अ ःकरणम कसी तरहक च ा, दुःख या शोक नह होता। भाव यह है क शरीरम रोग आ दका होना, ी-पु आ दका वयोग होना और धन-गृह आ दक हा न होना – इ ा द दुख के हेतु तो ार के अनुसार उसे ा होते ह, पर ु इन सबके होते ए भी उसके अ ःकरणम कसी कारका वकार नह होता। – 'सवार प र ागी ' का ा भाव है? उ र – संसारम जो कु छ भी हो रहा है – सब भगवान्क लीला है, सब उनक मायाश का खेल है; वे जससे जब जैसा करवाना चाहते ह, वैसा ही करवा लेते ह। मनु म ा ही ऐसा अ भमान कर लेता है क अमुक कम म करता ँ , मेरी ऐसी साम है, इ ा द। पर भगवान्का भ इस रह को भलीभाँ त समझ लेता है, इससे वह सदा भगवान्के हाथक कठपुतली बना रहता है। भगवान् उसको जब जैसा नचाते ह, वह स तापूवक वैसे ही नाचता है । अपना त नक भी अ भमान नह रखता और अपनी ओरसे कु छ भी नह करता, इस लये वह लोक म सब कु छ करता आ भी वा वम कतापनके अ भमानसे र हत होनेके कारण 'सवार प र ागी ' ही है।

यो न त न े न शोच त न काङ् त । शुभाशुभप र ागी भ मा ः स मे यः ॥१७॥

जो न कभी ह षत होता है, न ेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ स ूण कम का ागी है – वह भ यु पु ष मुझको य है॥ १७॥

– कभी ह षत न होना

ा है? और इस ल णसे ा भाव दखलाया गया हे? उ र – इ व ुक ा म और अ न के वयोगम ा णय को हष आ करता है; अत: कसी भी व ुके संयोग- वयोगसे अ ःकरणम हषका वकार न होना ही कभी ह षत न होना है। ानी भ म हष प वकारका सवथा अभाव दखलानेके लये यहाँ इस ल णका वणन कया गया है। अ भ ाय यह है क भ के लये सवश मान् सवाधार, परम दयालु भगवान् ही परम य व ु ह और वह उ सदाके लये ा है। अतएव वह सदा-सवदा परमान म त रहता है। संसारक कसी व ुम उसका क च ा भी राग- ेष नह होता। इस कारण लोक से होनेवाले कसी य व ुके संयोगसे या अ यके वयोगसे उसके अ ःकरणम कभी क च ा भी हषका वकार नह होता। – भगवान्का भ ेष नह करता, यह कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – भगवान्का भ स ूण जगत्को भगवान्का प समझता है, इस लये उसका कसी भी व ु वा ाणीम कभी कसी भी कारणसे ेष नह हो सकता। उसके अ ःकरणम ेष-भावका सदाके लये सवथा अभाव हो जाता है। – भगवान्का भ कभी शोक नह करता, इसका ा भाव हे? उ र – हषक भाँ त ही उसम शोकका वकार भी नह होता। अ न व ुक ा म और इ के वयोगम ा णय को शोक आ करता है। भगव को लीलामय परमदयालु परमे रक दयासे भरे ए कसी भी वधानम कभी तकू लता तीत ही नह होती। भगवान्क लीलाका रह समझनेके कारण वह हर समय उनके परमान पके अनुभवम म रहता है। अत: उसे शोक कै से हो सकता है? एक बात और भी है – सव ापी, सवाधार भगवान् ही उसके लये सव म परम य व ु ह और उनके साथ उसका कभी वयोग होता नह , तथा सांसा रक व ु क उ वनाशम उसका कु छ बनता- बगड़ता नह । इस कारण भी लोक से होनेवाले य व ु के वयोगसे या अ यके संयोगसे उसे कसी कारका शोक नह हो सकता। – भगवान्का भ कभी कसी व ुक भी आकां ा नह करता? उ र – मनु के मनम जन इ व ु के अभावका अनुभव होता है, वह उ व ु क आकां ा करता है। भगवान्के भ को सा ात् भगवान्क ा हो जानेके कारण

वह सदाके लये परमान और परम शा म त होकर पूणकाम हो जाता है, उसके मनम कभी कसी व ुके अभावका अनुभव होता ही नह , उसक स ूण आव कताएँ न हो जाती ह, वह अचल- त ाम त हो जाता है; इस लये उसके अ ःकरणम सांसा रक व ु क आकां ा होनेका कोई कारण ही नह रह जाता। – यहाँ 'शुभाशुभ' श कन कम का वाचक है और भगवान्के भ को उनका प र ागी कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – य , दान, तप और वणा मके अनुसार जी वका तथा शरीर नवाहके लये कये जानेवाले शा व हत कम का वाचक यहाँ 'शुभ' श है; और झूठ, कपट, चोरी, हसा, भचार आ द पापकमका वाचक 'अशुभ' श है। भगवान्का ानी भ इन दोन कारके कम का ागी होता है; क उसके शरीर, इ य और मनके ारा कये जानेवाले सम शुभ कम को वह भगवान्के समपण कर देता है। उनम उसक क च ा भी ममता, आस या फले ा नह रहती; इसी लये ऐसे कम कम ही नही माने जाते (४।२०) और राग- ेषका अभाव हो जानेके कारण पापकम उसके ारा होते ही नही, इस लये उसे 'शभाशुभका प र ागी' कहा गया है।

समः श ौ च म े च तथा मानापमानयोः । शीतो सुखदुःखेषु समः स वव जतः ॥१८॥

जो श -ु म म और मान-अपमानम सम है तथा सरदी, गरमी और सुख-दःु खा द म सम है और आस से र हत है॥१८॥ – भगवान्का भ तो कसी भी ाणीसे ेष नह करता, कै से हो सकता है? ऐसी अव ाम वह श ु- म म सम है, यह कहनेका

फर उसका कोई श ु ा अ भ ाय है? उ र – अव ही भ क म उसका कोई श ु- म नह होता, तो भी लोग अपनी-अपनी भावनाके अनुसार मूखतावश भ के ारा अपना अ न होता आ समझकर या उसका भाव अपने अनुकूल न दीखनेके कारण अथवा ई ावश उसम श ुभावका भी आरोप कर लेते ह; ऐसे ही दूसरे लोग अपनी भावनाके अनुसार उसम म भावका आरोप कर लेते ह। पर ु स ूण जगत्म सव भगवान्के दशन करनेवाले भ का सबम समभाव ही रहता है। उसक म श -ु म का क चत् भी भेद नह रहता, वह तो सदा-सवदा सबके साथ परम ेमका ही वहार करता रहता है। सबको भगवान्का प समझकर समभावसे सबक सेवा

करना ही उसका भाव बन जाता है। जैसे वृ अपनेको काटनेवाले और जल स चनेवाले दोन क ही छाया, फल और फू ल आ दके ारा सेवा करनेम कसी कारका भेद नह करता – वैसे ही भ म भी कसी तरहका भेदभाव नह रहता। भ का सम वृ क अपे ा भी अ धक मह का होता है। उसक म परमे रसे भ कु छ भी न रहनेके कारण उसम भेदभावक आशंका ही नह रहती। इस लये उसे श ु- म म सम कहा गया है। – मान-अपमान, शीत-उ और सुख-दुःख आ द म सम कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – मान-अपमान, सरदी-गरमी, सुख- दुःख आ द अनुकूल और तकू ल का मन, इ य और शरीरके साथ स होनेसे उनका अनुभव होते ए भी भगव के अ ःकरणम राग- ेष या हष-शोक आ द कसी तरहका क च ा भी वकार नह होता। वह सदा सम रहता है। न अनुकूलको चाहता है और न तकू लसे ेष ही करता है । कभी कसी भी अव ाम वह अपनी तसे जरा भी वच लत नह होता। सव भगव शन होनेके कारण उसके अ ःकरणसे वषमताका सवथा अभाव हो जाता है। इसी अ भ ायसे उसे इन सबम सम रहनेवाला कहा गया है। – 'स वव जतः ' का अथ संसारके संसगसे र हत होना मान लया जाय तो ा है? उ र – संसारम मनु क जो आस ( ेह) है , वही सम अनथ का मूल है; बाहरसे मनु संसारका संसग छोड़ भी दे, कतु मनम आस बनी रहे तो ऐसे ागसे वशेष लाभ नह हो सकता। प ा रम मनक आस न हो चुकनेपर बाहरसे राजा जनक आ दक तरह सबसे ममता और आस र हत संसग रहनेपर भी कोई हा न नह है। ऐसा आस का ागी ही व ुत: स ा 'संग वव जत' है। दूसरे अ ायके स ावनव ोकम भी यही बात कही गयी है। अत: 'स वव जतः' का जो अथ कया गया है, वही ठीक मालूम होता है। – तेरहव ोकम भगवान्ने स ूण ा णय म भ का म भाव होना बतलाया और यहाँ सबम आस र हत होनेके लये कहते ह। इन दोन बात म वरोध-सा तीत होता है। इसका ा समाधान है? उ र – इसम वरोध कु छ भी नह है। भगव का जो सब ा णय म म भाव होता है – वह आस र हत, नद ष और वशु होता है। सांसा रक मनु का ेम आस के

स से होता है, इसी लये यहाँ ूल से वरोध-सा तीत होता है; वा वम वरोध नह है। मै ी स णु है और यह भगवान्म भी रहती है. क ु आस दुगुण है और सम अवगुण का मूल होनेके कारण ा है; वह भगव म कै से रह सकती है?

तु न ा ु तम नी स ु ो येन के न चत् । अ नके तः रम तभ मा े यो नरः ॥१९॥

जो न ा- ु तको समान समझनेवाला, मननशील और जस कसी कारसे भी शरीरका नवाह होनेम सदा ही स ु है और रहनेके ानम ममता और आस से र हत है – वह रबु भ मान् पु ष मुझको य है॥१९॥ – भगवान्के

भ का न ा- ु तको समान समझना ा है? उ र – भगवान्के भ का अपने नाम और शरीरम क च ा भी अ भमान या मम नह रहता। इस लये न तो उसको ु तसे हष होता है और न न ासे कसी कारका शोक ही होता है। उसका दोन म ही समभाव रहता है। सव भगवदबु् हो जानेके कारण ु त करनेवाल और न ा करनेवाल म भी उसक जरा भी भेदबु नह होती । यही उसका न ाु तको समान समझना है। – 'मौनी ' पद न बोलनेवालेका वाचक स है, अत: यहाँ उसका अथ मननशील कया गया? उ र – मनु के वल वाणीसे ही नह बोलता, मनसे भी बोलता रहता है। वषय का अनवरत च न ही मनका नर र बोलना है। भ का च भगवान्म इतना संल हो जाता है क उसम भगवान्के सवा दूसरेक ृ त ही नह होती, वह सदा-सवदा भगवान्के ही मननम लगा रहता है; यही वा वक मौन है। बोलना बंद कर दया जाय और मनसे वषय का च न होता रहे – ऐसा मौन बा मौन है। मनको न वषय करने तथा वाणीको प रशु और संयत बनानेके उ े से कया जानेवाला बा मौन भी लाभदायक होता है। पर ु यहाँ भगवान्के य भ के ल ण का वणन है, उसक वाणी तो ाभा वक ही प रशु और संयत है। इससे ऐसा नह कहा जा सकता क उसम के वल वाणीका ही मौन है। ब उस भ क वाणीसे तो ाय: नर र भगवान्के नाम और गुण का क तन ही आ करता है, जससे जगत्का परम उपकार होता है। इसके सवा भगवान् अपनी भ का चार भी भ ारा ही कराया करते ह। अत: वाणीसे मौन रहनेवाला भगवान्का य भ होता है और बोलनेवाला नही होता, ऐसी

क ना नह क जा सकती। अठारहव अ ायके अड़सठव और उनह रव ोक म भगवान्ने गीताके चार करनेवालेको अपना सबसे य काय करनेवाला कहा है, यह मह ाय वाणीके मौनीसे नह हो सकता। इसके सवा स हव अ ायके सोलहव ोकम मान सक तपके ल ण म भी 'मौन' श आया है। य द भगवान्को 'मौन' श का अथ वाणीका मौन अभी होता तो वे उसे वाणीके तपके संगम कहते; पर ु ऐसा नह कया, इससे भी यही स है क मु नभावका नाम ही मौन है; और यह मु नभाव जसम होता है वही मौनी या मननशील है। वाणीका मौन मनु हठसे भी कर सकता है, इससे यह कोई वशेष मह क बात भी नह है; इससे यहाँ 'मौन' श का अथ वाणीका मौन न मानकर मनक मननशीलता ही मानना उ चत है। वाणीका संयम तो इसके अ गत आप ही आ जाता है। – 'येन केन चत् स ु : ' का यहाँ ा अ भ ाय है? ा भगवान्के भ को शरीर- नवाहके लये कसी तरहक चे ा नह करनी चा हये – अपने-आप जो कु छ मल जाय, उसीम स ु रहना चा हये? उ र – जो भ अन भावसे भगवान्के च नम लगा रहता है, दूसरे कसी भावका जसके च म सफू रण ही नह होता – उसके ारा शरीर- नवाहके लये कसी चे ाका न होना और उसके लौ कक योग ेमका भी भगवान्के ारा ही वहन कया जाना सवथा स और सुसंगत ही है; परंतु यहाँ 'येन केन चत् स ु : ' से न ामभावसे वणा मानुकूल शरीरनवाहके उपयु ायसंगत चे ा करनेका नषेध नह है। ऐसी चे ा करनेपर ार के अनुसार जो कु छ भी ा हो जाता है, भ उसीम स ु रहता है। 'येन केन चत् स ु : ' का यही भाव है। व ुत: भगवान्के भ का सांसा रक व ु के ा होने और न हो जानेसे कोई स नह रहता। वह तो अपने परम इ भगवान्को पाकर सदा ही स ु रहता है। अत: यहाँ 'येन केन चत् स ु : ' का यही अ भ ाय मालूम होता है क बाहरी व ु के आने-जानेसे उसक तु म कसी कारका अ र नह पड़ता। ार ानुसार सुख-दुःखा दके हेतुभूत जो कु छ भी पदाथ उसे ा होते ह, वह उ म स ु रहता है। – 'अ नकेत: ' पदका ा अथ मानना चा हये? उ र – जसके अपना घर न हो, उसको 'अ नके त' कहते ह। भगवान्के जो सं ासी भ गृह -आ मको छोड़कर पूण पसे मकान आ दका ाग कर चुके ह, जनको कसी भी ान- वशेषम आस , ममता अथवा कसी कारका नह है वे तो 'अ नके त' ह ही;

उनके सवा जो अपना सव भगवान्के अपण करके सवथा अ कचन बन. चुके ह; जनके घरार, शरीर, व ा-बु आ द सभी कु छ भगवान्के हो चुके ह – फर वे चाहे चारी ह या गृह , अथवा वान ह वे भी 'अ नके त' ही ह। जैसे शरीरम अहंता, ममता और आस न होनेपर शरीर रहते ए भी ानीको वदेह कहा जाता है – वैसे ही जसक घरम ममता और आस नह है, वह घरम रहते ए भी बना घरवाला 'अ नके त' ही है। – भ को ' रबु ' कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – भ को भगवान्के दशन हो जानेके कारण उसके स ूण संशय समूल न हो जाते ह, भगवान्म उसका ढ़ व ास हो जाता है। उसका न य अटल और न ल होता है। अत: वह साधारण मनु क भाँ त काम, ोध, लोभ, मोह या भय आ द वकार के वशम होकर धमसे या भगवान्के पसे कभी वच लत नह होता। इसी लये उसे रबु कहा गया है। ' रबु ' श का वशेष अ भ ाय समझनेके लये दूसरे अ ायके पचपनवसे बहतरव ोकतकक ा ा देखनी चा हये। – तेरहव ोकसे उ ीसवतक सात ोक म भगवान्ने अपने य भ का ल ण बतलाते ए 'जो मेरा भ है, वह मुझे य है', 'जो ऐसा भ मान् पु ष है, वह मुझे य है', 'ऐसा पु ष मुझे य है' – इस कार पृथक् -पृथक् पाँच बार कहा है, इसका ा भाव हे? उ र – उपयु सभी ल ण भगव के ह और सभी शा ानुकूल और े ह, पर ु भाव आ दके भेदसे भ के भी गुण और आचरण म थोड़ा-ब त अ र रह जाना ाभा वक है। सबम सभी ल ण एक-से नह मलते। इतना अव है क समता और शा सभीम होती ह तथा राग- ेष और हष-शोक आ द वकार कसीम भी नह रहते। इसी लये इन ोक म पुन पायी जाती है। वचार कर दे खये तो इन पाँच वभाग म कह भावसे और कह श से राग- ेष और हष-शोकका अभाव सभीम मलता है। पहले वभागम 'अ े ा ' से ेषका, ' नमम: ' से रागका और 'समदःु खसुखः ' से हष-शोकका अभाव बतलाया गया है। दूसरेम हष, अमष, भय और उ ेगका अभाव बतलाया है; इससे राग- ेष और हष-शोकका अभाव अपने-आप स हो जाता है। तीसरेम 'अनपे ः ' से रागका, 'उदासीन: ' से ेषका और 'गत थः ' से हष-शोकका अभाव बतलाया है। चौथेम 'न काङ् त ' से रागका, 'न े ' से ेष और 'न त ' तथा 'न शो चत ' से

हष-शोकका अभाव बतलाया है। इसी कार पाँचव वभागम 'स वव जतः ' तथा 'स ु : ' से राग- ेषका और 'शीतो सुखदःु खेषु सम: ' से हष-शोकका अभाव दखलाया है। 'स ु : ' पद भी इस करणम दो बार आया है। इससे स है क राग- ेष तथा हष-शोका द वकार का अभाव और समता तथा शा तो सभीम आव क ह। अ ा ल ण म भावभेदसे कु छ भेद भी रह सकता है। इसी भेदके कारण भगवान्ने भ - भ े णय म वभ करके भ के ल ण को यहाँ पाँच बार पृथक् -पृथक् बतलाया है; इनमसे कसी एक वभागके अनुसार भी सब ल ण जसम पूण ह , वही भगवान्का य भ है। – ये ल ण स पु षके ह या साधकके ? उ र – वचार करनेपर ऐसा तीत होता है क यहाँ ये ल ण साधकके नह , ुत भ योगके ारा भगवान्को ा ए स पु षके ही ह; क थम तो भगव ा के उपाय और फल बतलानेके बाद इन ल ण का वणन आया है। इसके अ त र चौदहव अ ायके बाईसवसे पचीसव ोकतक भगवान्ने गुणातीत त दश महा ाके जो ल ण बतलाये ह, उनसे ये मलते-जुलते-से ह; अत: वे साधकके ल ण नह हो सकते। – इन सबको 'भ योगके ारा भगवान्को ा ए पु षके ल ण' बतलानेम ा हेतु है? उ र – इस अ ायम भ योगका वणन है, इसीसे इसका नाम भी 'भ योग' रखा गया है। अजुनका और भगवान्का उ र भी उपासना वषयक ही है, तथा भगवान्ने 'यो म ः स मे य: ', 'भ मान् य: स मे य: ' इ ा द वा क आवृ भी इसी लये क है। अत: यहाँ यही समझना चा हये क जन लोग ने भ माग ारा परम स ा क है, ये सब उ के ल ण ह। – कमयोग, भ योग अथवा ानयोग आ द कसी भी मागसे परम स को ा कर लेनेके प ात् भी ा उन स .पु ष म कोई अ र रहता है? उ र – उनक वा वक तम या ा कये ए परम त म तो कोई अ र नह रहता; क ु भावक भ ताके कारण आचरण म कु छ भेद रह सकता है। 'स शं चे ते ाः कृते ानवान प' (३।३३) इस कथनसे भी यही स होता है क सब ानवान के आचरण और भावम ानो रकालम भी भेद रहता है।

अहंता, ममता और राग- ेष, हष-शोक, काम- ोध आ द अ ानज नत वकार का अभाव तथा समता और परम शा – ये ल ण तो सभीम समानभावसे पाये जाते ह; कतु मै ी और क णा, ये भ मागसे भगवान्को ा ए महापु षम वशेष पसे रहते ह। संसार, शरीर और कम म उपरामता – यह ानमागसे परम पदको ा महा ा म वशेष पसे रहती है। इसी कार मन और इ य को संयमम रखते ए, अनास भावसे कम म त र रहना, यह ल ण वशेष पसे कमयोगके ारा भगवान्को ा ए पु ष म रहता है। दूसरे अ ायके पचपनवसे बह रव ोकतक कतने ही, ोक म कमयोगके ारा भगवान्को ा ए पु षके तथा चौदहव अ ायके बाईसवसे पचीसव ोकतक ानयोगके ारा परमा ाको ा ए गुणातीत पु षके ल ण बतलाये गये ह और यहाँ तेरहवसे उ ीसव ोकतक भ योगके ारा भगवान्को ा ए पु षके ल ण ह।

ाको ा ए स भ के ल ण बतलाकर अब उन ल ण को आदश मानकर बड़े य के साथ उनका भलीभाँ त सेवन करनेवाले, परम ालु, शरणागत भ क शंसा करनेके लये उनको अपना अ य बतलाकर भगवान् इस अ ायका उपसंहार करते ह – स

–  परमा

ये तु ध ामृत मदं यथो ं पयुपासते । धाना म रमा भ ा ेऽतीव मे याः ॥२०॥



पर ु जो ायु पु ष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे ए धममय अमृतको ाम ेम भावसे सेवन करते ह, वे भ मुझको अ तशय य ह॥२०॥ – यहाँ ' तु ' पदके

योगका ा उ े है? उ र – तेरहवसे लेकर उ ीसव ोकतक भगवान्को ा स भ के ल ण का वणन है और इस ोकम उन उ म साधक भ क शंसा क गयी है, जो इन स से भ ह और स भ के इन ल ण को आदश मानकर उनका सेवन करते ह। यही भेद दखलानेके लये 'तु ' पदका योग कया गया है। – ायु भगव रायण पु ष कसे कहते ह?

उ र – सव ापी, सवश मान् भगवान्के अवतार म, वचन म एवं उनके गुण, भाव ऐ य और च र ा दम जो के स श स ानपूवक व ास रखता हो – वह ावान् है। परम ेमी और परम दयालु भगवान्को ही परम ग त, परम आ य एवं अपने ाण के आधार, सव मानकर उ पर नभर और उनके कये ए वधानम स रहनेवालेको भगव रायण पु ष कहते ह। – उपयु सात ोक म व णत भगव के ल ण को यहाँ धममय अमृतके नामसे कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – भगव के उपयु ल ण ही व ुत: मानवधमका स ा प है। इ के पालनम मनु -ज क साथकता है, क इनके पालनसे साधक सदाके लये मृ ुके पंजेसे छू ट जाता है और उसे अमृत प भगवान्क ा हो जाती है। इसी भावको समझानेके लये यहाँ इस ल ण-समुदायका नाम 'धममय अमृत' रखा गया है। – यहाँ 'पयुपासते 'का ा अ भ ाय है? उ र – -भलीभाँ त त र होकर न ाम ेमभावसे इन उपयु ल ण का ापूवक सदा-सवदा सेवन करना, यही 'पयुपासते ' का अ भ ाय है? – पहले सात ोक म भगव ा स भ के ल ण का वणन करते ए उनको तो भगवान्ने अपना ' य भ ' बतलाया और इस ोकम जो स नह ह, पर ु इन ल ण क उपासना करनेवाले साधक भ ह – उनको 'अ तशय य' कहा, इसम ा रह है? उ र – जन स भ को भगवान्क ा हो चुक है उनम तो उपयु ल ण ाभा वक ही रहते ह और भगवान्के साथ उनका न तादा -स हो जाता है। इस लये उनम इन गुण का होना कोई ब त बड़ी बात नह है। परंतु जन एक न साधक भ को भगवान्के दशन नह ए ह तो भी वे भगवान्पर व ास करके परम ाके साथ तन, मन, धन, सव भगवान्के अपण करके उ के परायण हो जाते ह तथा भगवान्के दशन के लये नर र उ का न ामभावसे ेमपूवक च न करते रहते ह और सतत चे ा करके उपयु ल ण के अनुसार ही अपना जीवन बताना चाहते ह – बना दशन ए भी के वल व ासपर उनका इतना नभर हो जाना वशेष मह क बात है। इसी लये भगवान्को वे वशेष य होते ह। ऐसे ेमी भ को भगवान् अपना न संग दान करके जबतक स ु

नह कर देते तबतक वे उनके ऋणी ही बने रहते ह – ऐसी भगवान्क मा ता है। अतएव भगवान्का उ स भ क अपे ा भी 'अ तशय य ' कहना उ चत ही है।

ॐ त द त ीम गव ीतासूप नष ु व ायां योगशा े ीकृ ाजुनसंवादे भ योगो नाम ादशोऽ ायः ॥१२॥

|| ॐ

ी परमा ने नमः ||

योदशोऽ ायः

े ' (शरीर) और ' े ' (आ ा) पर र अ वल ण ह। के वल अ ानसे ही इन दोन क एकता-सी हो रही है। े जड, वकारी, णक और नाशवान् है; एवं े चेतन, ान प, न वकार, न और अ वनाशी है। इस अ ायम ' े ' और ' े ' दोन के पका उपयु कारसे वभाग कया गया है। इस लये इसका नाम ' े े वभागयोग' रखा गया है। अ ायका सं ेप इस अ ायके पहले शलोकम े (शरीर) और े (अ ा) का ल ण बतलाया गया है, दूसरेम परमा ाके साथ आ ाक एकताका तपादन करके े े के ानको ही ान बताया गया है। तीसरेम वकारस हत े के प और भाव आ दका एवं भावस हत े के पका वणन करनेक त ा करके चौथेम ऋ ष, वेद और सू का माण देते ए पाँचव और छठे म वकार स हत े का प बतलाया गया है। सातवसे ारहवतक त ानक ा म साधन होनेके कारण जनका नाम ' ान' रखा गया हे, ऐसे 'अमा न ' आ द बीस सा क भाव और आचरण का वणन कया गया है। तदन र बारहवसे स हवतक ानके ारा जाननेयो परमा ाके पका वणन करके अठारहवम अबतकके तपा दत वषय का नाम बतलाकर इस करणको जाननेका फल परमा ाके पक ा बतलाया गया है। इसके बाद ' कृ त' और 'पु ष' के नामसे करण आर करके उ ीसवसे इ सवतक कृ तके प और कायका तथा े के पका वणन कया गया है। बाईसवम परमा ा और आ ाक एकताका तपादन करके तेईसवम गुण के स हत कृ तको और पु षको जाननेका फल बतलाकर चौबीसव और पचीसवम परमा -सा ा ारके व भ उपाय का वणन कया गया है। छ ीसवम े े के संयोगसे सम चराचर ा णय क उ बतलाकर सताईसवसे तीसवतक 'परमा समभावसे त अ वनाशी और अकता ह तथा जतने भी कम होते ह सब कृ तके ारा ही कये जाते ह तथा सब कु छ परमा त से ही व ृत और उसीम त ह' इस कार समझनेका मह और साथ ही उसका फल भी बतलाया गया है। इकतीसवसे ततीसवतक आ ाके भावको समझाते ए उसके अकतापनका और नलपताका ा ारा न पण अ ायका नाम

'

करके अ म च तीसव ोकम े और े के वभागको जाननेका फल परमा ाक ा बतलाकर अ ायका उपसंहार कया गया है। स – बारहव अ ायके आर म अजुनने सगुण और नगुणके उपासक क े ताके वषयम कया था, उसका उ र देते ए भगवान्ने दूसरे ोकम सं ेपम सगुण उपासक क े ताका तपादन करके तीसरेसे पाँचव ोकतक नगुण उपासनाका प, उसका फल और देहा भमा नय के लये उसके अनु ानम क ठनताका न पण कया। तदन र छठे से बीसव ोकतक सगुण उपासनाका मह , फल, कार ओर भगव के ल ण का वणन करते-करते ही अ ायक समा हो गयी; नगुणका त , म हमा और उसक ा के साधन को व ारपूवक नह समझाया गया। अतएव नगुण- नराकारका त अथात् ानयोगका वषय भलीभाँ त समझनेके लये तेरहव अ ायका आर कया जाता है। इसम पहले भगवान् े (शरीर) तथा े (आ ा) के ल ण बतलाते ह–

ीभगवानुवाच । इदं शरीरं कौ ेय े म भधीयते । एत ो वे तं ा ः े इ त त दः ॥१॥

ीभगवान् बोले – हे अजुन! यह शरीर ' े ' इस नामसे कहा जाता है; और इसको जो जानता है, उसको ' े

' इस नामसे उनके त को जाननेवाले ानीजन कहते ह॥१॥

– 'शरीरम् ' के

साथ 'इदम् ' पदके योगका ा अ भ ाय है और शरीरको े

कहते ह? उ र – 'शरीरम् ' के साथ 'इदम् ' पदका योग करके यह भाव दखलाया है क यह आ ाके ारा देखा और जाना जाता है, इस लये यह है और ा प आ ासे सवथा भ है। तथा जैसे खेतम बोये ए बीज का उनके अनु प फल समयपर कट होता है, वैसे ही इस शरीरम बोये ए कम-सं ार प बीज का फल भी समयपर कट होता रहता है। इस लये इसे ' े ' कहते ह। इसके अ त र इसका त ण य होता रहता है, इस लये भी इसे े कहते ह और इसी लये पं हव अ ायम इसको ' र' पु ष कहा गया है। इस े का प इस अ ायके पाँचव ोकम सं ेपम बतलाया गया है। – इस ( े ) को जो जानता है, उसे े कहते ह, इस कथनका ा भाव है?

उ र – इससे भगवान्ने अ रा ा ाका ल करवाया है। मन, बु , इ य, महाभूत और इ य के वषय आ द जतना भी ेय (जाननेम आनेवाला) वग है – सब जड वनाशी, प रवतनशील है। चेतन आ ा उस जड वगसे सवथा वल ण है। यह उसका ाता है, उसम अनु ूत है और उसका अ धप त है। इसी लये इसे ' े ' कहते ह। इसी ाता चेतन आ ाको सातव अ ायम 'परा कृ त' (७।५), आठवम 'अ ा ' (८।३) और पं हव अ ायम 'अ र पु ष' (१५।१६) कहा गया है। यह आ त बड़ा ही गहन है, इसीसे भगवान्ने भ - भ करण के ारा कह ीवाचक, कह नपुंसकवाचक और कह पु षवाचक नामसे इसका वणन कया है। वा वम आ ा वकार से सवथा र हत, अ लग, न , न वकार एवं चेतन- ान प है। – 'त द: ' का ा भाव है? उ र – इस पदम 'तत् ' श के ारा ' े ' और ' े ' दोन का हण होता है । उन दोन ( े और े ) को जो यथाथ पम भलीभाँ त जानते ह, वे 'त द: ' ह। कहनेका अ भ ाय यह है क त वे ा महा ाजन यह बात कहते ह, अतएव इसम कसी भी शंकाके लये अवकाश नह है। – इस

कार ै और े के ल ण बतलाकर अब े और परमा ाक एकता करते ए ानके ल णका न पण करते ह – स

े ं चा प मां व सव े ेषु भारत । े े यो ानं य ानं मतं मम ॥२॥



हे अजुन! तू सब े म े अथात् जीवा ा भी मुझे ही जान। और े का अथात् वकारस हत कृ तका और पु षका जो त से जानना है, वह ान है –

ऐसा मेरा मत है॥२॥

है?



सब े म ' े

' (जीवा

ा) भी मुझे ही जान, इस कथनका ा अ भ ाय

उ र – इससे 'आ ा' और 'परमा ा' क एकताका तपादन कया गया है। आ ा और परमा ाम व ुत: कु छ भी भेद नह है, कृ तके संगसे भेद-सा तीत होता है; इसी लये दूसरे अ ायके चौबीसव और पचीसव ोक म आ ाके पका वणन करते ए जन

श का योग कया है, बारहव अ ायके तीसरे ोकम नगुण- नराकार परमा ाके ल ण का वणन करते समय भी ाय: उ श का योग कया गया है। भगवान्के कथनका अ भ ाय यह है क सम े म जो चेतन आ ा े है वह मेरा ही अंश (१५।७) होनेके कारण व ुत: मुझसे भ नह है; म परमा ा ही जीवा ाके पम व भ कारसे तीत होता ँ – इस बातको तुम भलीभाँ त समझ लो। – य द यहाँ ऐसा अथ मान लया जाय क सम े म यानी शरीर म तुम े (जीवा ा) को और मुझको भी त जानो तो ा हा न है? उ र – भ धान करण होता तो ऐसा अथ भी माना जा सकता था; क ु यहाँ करण ान धान है, इस करणम भ का वणन ानके साधनके पम आया है – इस लये यहाँ भ का ान गौण माना गया है। अतएव यहाँ अ ैतपरक ा ा ही ठीक तीत होती है। – 'जो े और े का ान है, वही ान है – ऐसा मेरा मत है ' इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क ' े ' उ - वनाश-धमवाला, जड, अ न , ेय (जाननेम आनेवाला) और णक है; इसके वपरीत ' े ' (आ ा) न , चेतन, ाता, न वकार, शु और सदा एक-सा रहनेवाला है। अतएव दोन पर र अ वल ण ह, अ ानसे ही दोन क एकता-सी तीत होती है – इस बातको त से समझ लेना ही वा वक ान है। यह मेरा मत है। इसम कसी तरहका संशय या म नह है।

े और े का पूव ान हो जानेपर संसार- मका नाश हो जाता है और परमा क होती है, अतएव ' े ' और ' े ' के प आ दको भलीभाँ त वभागपूवक समझानेके लये भगवान् कहते ह – स



त े ं य या य का र यत यत् । स च यो य भाव त मासेन मे णु ॥३॥

वह े जो और जैसा है तथा जन वकार वाला है, और जस कारणसे जो आ है; तथा वह े भी जो और जस भाववाला है – वह सब सं ेपम मुझसे सुन॥३॥

के साथ 'तत् ' वशेषण देनेका ा भाव है, तथा 'यत् ' पदसे भगवान्ने े के वषयम कस बातके ीकरणका संकेत कया है और वह कस ोकम कया है? उ र – ' े म् ' के साथ 'तत् ' वशेषण देकर यह भाव दखाया है क जस शरीर प े के ल ण पहले ोकम बतलाये गये ह, उसीका ीकरण करनेक बात इस ोकम कही जाती है; तथा 'यत् ' पदसे भगवान्ने े का प बतलानेका संकेत कया है और इसी अ ायके पाँचव ोकम उसे बतलाया गया है। – 'या क् ' पदसे े के वषयम ा कहनेका संकेत कया गया है और वह कहाँ कहा गया है? उ र – 'या क् ' पदसे े का भाव बतलानेका संकेत कया है और उसका वणन छ ीसव और स ाईसव ोक म सम भूत को उ - वनाशशील बतलाकर कया है। – 'य का र ' पदसे े के वषयम ा कहनेका संकेत कया है और उसे कस ोकम कहा है? उ र – 'य का र ' पदसे े के वकार का वणन करनेका संकेत कया गया है और उनका वणन छठे ोकम कया है। – 'यत: च यत्' इन पद से े के वषयम ा कहनेका संकेत कया है और वह कहाँ कहा गया है? उ र – जन पदाथ के समुदायका नाम ' े ' है उनमसे कौन पदाथ कससे उ आ है– यह बतलानेका संकेत 'यत: च यत् ' पद से कया है और उसका वणन उ ीसव ोकके उ रा तथा बीसवके पूवा म कया गया है। – 'सः ' पद कसका वाचक है तथा 'य: ' पदसे उसके वषयम भगवान्ने ा कहनेका संकेत कया है एवं कहाँ कहा गया है? उ र – 'सः ' पद ' े ' का वाचक है तथा 'य: ' पदसे उसका प बतलानेका संकेत कया गया है। और आगे चलकर उसके कृ त एवं वा वक दोन प का वणन कया गया है – जैसे उ ीसव ोकम उसे 'अना द' बीसवम 'सुख-दुःख का भो ा' एवं इ सवम 'अ ी-बुरी यो नय म ज हण करनेवाला' बतलाकर तो कृ त पु षका –' े म'

प बतलाया गया है और बाईसव तथा स ाईसवसे तीसवतक परमा ाके साथ एकता करके उसके वा वक पका न पण कया गया है। – 'य भाव: ' पदसे े के वषयम ा कहनेका संकेत कया गया है और वह कन ोक म कहा गया है? उ र – 'य भाव: ' से े का भाव बतलानेके लये संकेत कया गया है और उसे इकतीसवसे ततीसव ोकतक बतलाया गया है। तीसरे ोकम ' े ' और ' े ' के जस त को सं ेपम सुननेके लये भगवान्ने अजुनसे कहा है – अब उसके वषयम ऋ ष, वेद और सू क उ का माण देकर भगवान् ऋ ष, वेद और सू को आदर देते है– स



ऋ ष भब धा गीतं छ ो भ व वधैः पृथक् । सू पदै ैव हेतुम व न तैः ॥४॥

यह े और े का त ऋ षय ारा ब त कारसे कहा गया है और व वध वेदम ारा भी वभागपूवक कहा गया है, तथा भलीभाँ त न य कये ए यु यु सू के पद ारा भी कहा गया है॥४॥ – 'ऋ षय ारा ब त कारसे कहा गया है' इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इस कथनका यह भाव है क म के ा एवं शा और ृ तय के रच यता ऋ षगण ने ' े ' और ' े ' के पको और उनसे स रखनेवाली सभी बात को अपनेअपने म और पुराण-इ तहास म ब त कारसे वणन करके व ारपूवक समझाया है; उ का सार ब त थोड़े श म भगवान् कहते ह। – ' व वधै: ' वशेषणके स हत 'छ ो भः ' पद कसका वाचक है, तथा इनके ारा (वह त ) पृथक् कहा गया है – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – ' व वधै: ' वशेषणके स हत 'छ ो भः ' पद ऋक् , यजु:, साम और अथव – इन चार वेद के 'सं हता' और ' ा ण' दोन ही भाग का वाचक है; सम उप नषद् और भ भ शाखा को भी इसीके अ गत समझ लेना चा हये। इन सबके ारा (वह त ) पृथक् कहा गया है, इस कथनका यह अ भ ाय है क जो स ा े और े के वषयम भगवान्

यहाँ सं ेपसे कट कर रहे ह, उसीका व ारस हत वभागपूवक वणन उनम जगह-जगह अनेक कारसे कया गया है। – ' व न तैः ' और 'हेतुम : ' वशेषण के स हत ' सू पदै: ' पद कन पद का वाचक है और इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – जो पद भलीभाँ त न य कये ए ह और सवथा अस ह , उनको ' व न त' कहते ह; तथा जो पद यु यु ह , अथात् जनम व भ यु य के ारा स ा का नणय कया गया हो – उनको 'हेतुमत् ' कहते है। अत: इन दोन वशेषण के स हत यहाँ ' सू पदै: ' पद 'वेदा दशन' के जो 'अथातो ज ासा ' आ द सू प पद ह, उ का वाचक तीत होता है; क उपयु सब ल ण उनम ठीक-ठीक मलते ह। यहाँ इस कथनका यह भाव है क ु त- ृ त आ दम व णत जो े और े का त सू के पद ारा यु पूवक समझाया गया है, उसका नचोड़ भी भगवान् यहाँ सं ेपम कह रहे ह। स – इस ोकम 'यत्' पदसे कहे

कार ऋ ष, वेद और सू का माण देकर अब भगवान् तीसरे ए ' े ' का और 'य का र' पदसे कहे ए उसके वकार का अगले

दो ोक म वणन करते ह –

महाभूता ह ारो बु र मेव च । इ या ण दशैकं च प चे यगोचराः ॥५॥

पाँच महाभूत, अहंकार, बु पाँच इ

य के वषय अथात् श , – 'महाभूता न ' पद

और मूल कृ त भी; तथा दस इ श, प, रस और ग

[89]

याँ, एक मन और

– ॥५॥

कसका वाचक है? उ र – ूल भूत के और श ा द वषय के कारण प जो पंचत ा ाएँ यानी सू पंचमहाभूत ह – सातव अ ायम जनका 'भू म: ', 'आप: ', 'अनल: ', 'वायु: ' और 'खम् ' के नामसे वणन आ है – उ पाँच का वाचक यहाँ 'महाभूता न ' पद है। – 'अह ार: ' पद कसका वाचक है? उ र – यह सम अ ःकरणका एक भेद है। अहंकार ही पंचत ा ा , मन और सम इ य का कारण है तथा मह का काय है; इसीको 'अहंभाव' भी कहते ह। यहाँ

'अह ार: ' पद उसीका वाचक है। : ' पद यहाँ

कसका वाचक है? उ र – जसे 'मह ' (महान्) और 'सम बु ' भी कहते ह, जो सम अ ःकरणका एक भेद है, न य ही जसका प है – उसका वाचक यहाँ 'बु ः ' पद है। – 'अ म् ' पद कसका वाचक है? उ र – जो मह आ द सम पदाथ क कारण पा मूल कृ त है, सां शा म जसको ' धान' कहते ह, भगवान्ने चौदहव अ ायम जसको 'मह ' कहा है तथा इस अ ायके उ ीसव ोकम जसको ' कृ त' नाम दया गया है – उसका वाचक यहाँ 'अ म् ' पद है। – दस इ याँ कौन-कौन-सी ह? उ र – वाक् , पा ण (हाथ), पाद (पैर), उप और गुदा – ये पाँच कम याँ ह तथा ो , चा, च ,ु रसना और ाण – ये पाँच ाने याँ ह। ये सब मलकर दस इ याँ ह। इन सबका कारण अहंकार है। – 'एकम् ' पद कसका वाचक है? उ र – सम अ ःकरणक जो मनन करनेवाली श वशेष है, संक वक ही जसका प है – उस मनका वाचक 'एकम् ' पद है; यह भी अहंकारका काय है । – 'प इ यगोचरा: ' इन पद का ा अथ है? उ र – श , श, प, रस और ग – जो क पाँच ाने य के ूल वषय ह, उ का वाचक यहाँ 'पंच इ यगोचरा: ' पद है । – 'बु

तथा इ

इ ा ेषः सुखं दुःखं स ात ेतना धृ तः । एत े ं समासेन स वकारमुदा तम् ॥६॥ ा, ेष, सुख, दःु ख,

वकार के स हत यह – 'इ

ूल देहका प

े सं ेपम कहा गया है॥६॥ ा ' पद

कसका वाचक है?

, चेतना और धृ त – इस कार

उ र – जन पदाथ को मनु सुखके हेतु और दुःखनाशक समझता है, उनको ा करनेक जो आस यु कामना है – जसके वासना, तृ ा, आशा, लालसा और ृहा आ द अनेक भेद ह – उसीका वाचक यहाँ 'इ ा ' पद है। यह अ ःकरणका वकार है, इस लये े के वकार म इसक गणना क गयी है। –  ' ेष' कसे कहते ह? उ र – जन पदाथ को मनु दुःखम हेतु या सुखम बाधक समझता है, उनम जो वरोध-बु होती है– उसका नाम ेष है। इसके ूल प वैर, ई ा, घृणा और ोध आ द ह। यह भी अ ःकरणका वकार है, अत: इसक गणना भी े के वकार म क गयी है। – 'सुख' ा व ु है? उ र – अनुकूलक ा और तकू लक नवृ से अ ःकरणम जो स ताक वृ होती है, उसका नाम सुख है। अ ःकरणका वकार होनेके कारण इसक गणना भी े के वकार म क गयी है। – 'दःु खम् ' पद कसका वाचक है? उ र – तकू लक ा और अनुकूलके वनाशसे जो अ ःकरणम ाकु लता होती है, जसे था भी कहते ह – उसका वाचक यहाँ 'दुःखम्' पद है। यह भी अ ःकरणका वकार है, इस लये इसक गणना भी े के वकार म क गयी है। – 'स ातः ' पदका ा अथ है? उ र – पंचभूत से बना आ जो यह ूल शरीरका प है, मृ ु होनेके बाद सू शरीरके नकल जानेपर भी जो सबके सामने पड़ा रहता है – उस ूल शरीरका नाम संघात है। उपयु पंचभूत का वकार होनेके कराण इसक गणना भी े के वकार म क गयी है। – 'चेतना ' पद कसका वाचक है? उ र – अ ःकरणम जो ान-श है, जसके ारा सुख-दुःख और सम पदाथ का अनुभव करते ह, जसे दसव अ ायके बाईसव ोकम 'चेतना ' कहा गया है – उसीका वाचक यहाँ 'चेतना ' पद है। यह भी अ ःकरणक वृ वशेष है, अतएव इसक भी गणना े के वकार म क गयी है।

– 'धृ त: ' पद

कसका वाचक है? उ र – अठारहव अ ायके ततीसव, च तीसव और पतीसव ोक म जस धारणश के सा क, राजस और तामस – तीन भेद कये गये ह, जसके सा क अंशको सोलहव अ ायके तीसरे ोकम दैवी स दाके अ गत 'धृ त' के नामसे गनाया गया है – उसीका वाचक यहाँ 'धृ त: ' पद है। अ ःकरणका वकार होनेसे इसक गणना भी े के वकार म क गयी है। – यह वकार के स हत े सं ेपसे कहा गया – इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनका यह भाव है क यहाँतक वकार स हत े का सं ेपसे वणन हो गया, अथात् पाँचव ोकम े का प सं ेपम बतला दया गया और छठे म उसके वकार का वणन सं ेपम कर दया गया।

कार े के प और उसके वकार का वणन करनेके बाद अब जो दूसरे ोकम यह बात कही थी क े और े का जो ान है, वही मेरे म म ान है – उस ानको ा करनेके साधन का ' ान' के ही नामसे पाँच ोक ारा वणन करते ह – स

– इस

अमा न मद म हसा ा राजवम् । आचाय पासनं शौचं ैयमा व न हः ॥७॥

े ताके अ भमानका अभाव, द ाचरणका अभाव, कसी भी ाणीको कसी कार भी न सताना, माभाव, मन-वाणी आ दक सरलता, ा-भ स हत गु क सेवा, बाहरभीतरक शु

, अ ःकरणक – 'अमा न म् ' का

रता और मन-इ

य स हत शरीरका न ह॥७॥

ा अ भ ाय है? उ र – अपनेको े , स ा , पू या ब त बड़ा समझना एवं मान-बड़ाई, त ापूजा आ दक इ ा करना; अथवा बना ही इ ा कये इन सबके ा होनेपर स होना – यह मा न है। इन सबका न होना ही 'अमा न ' है। जसम 'अमा न ' पूण पसे आ जाता है – उसका मान, बड़ाई, त ा और पूजा आ दक ा म स होना तो दूर रहा; उलटी उसक इन सबसे वर और उपर त हो जाती है। –  'अद म् ' का ा अ भ ाय है?

उ र – मान, बड़ाई, त ा और पूजाके लये, धना दके लोभसे या कसीको ठगने आ दके अ भ ायसे अपनेको धमा ा, दानशील, भगव , ानी या महा ा व ात करना और बना ही ए धमपालन, उदारता, दातापन, भ , योगसाधना, त-उपवासा दका अथवा अ कसी भी कारके गुणका ढ ग करना – द है। इसके सवथा अभावकानाम 'अद '। जस साधकम 'अद ' पूण पसे आ जाता है, वह मान-बड़ाईक जरा भी इ ा न रहनेके कारण अपने स े धा मक भाव को, सदगु् ण को अथवा भ के आचरण को भी दूसर के सामने कट करनेम संकोच करता है – फर बना ए गुण को अपनेम दखलाना तो उसम बन ही कै से सकता है। – 'अ हसा' का ा अ भ ाय है? उ र – कसी भी ाणीको मन, वाणी या शरीरसे कसी कार भी कभी क देना – मनसे कसीका बुरा चाहना; वाणीसे कसीको गाली देना, कठोर वचन कहना, कसीक न ा करना या अ कसी कारके दुःखदायक और अ हतकारक वचन कह देना; शरीरसे कसीको मारना, क प ँ चाना या कसी कारसे भी हा न प ँ चाना आ द जो हसाके भाव ह – इन सबके सवथा अभावका नाम 'अ हसा ' है। जस साधकम 'अ हसा ' का भाव पूणतया आ जाता है, उसका कसीम भी वैरभाव या ेष नह रहता; इस लये न तो कसी भी ाणीका उसके ारा कभी अ हत ही होता है, न उसके ारा कसीको प रणामम दुःख होता है और न वह कसीके लये व ुत: भयदायक ही होता है। मह ष पतंज लने तो यहाँतक कहा है क उसके पास रहनेवाले हसक ा णय तकम पर रका ाभा वक वैरभाव भी नह रहता । – ' ा : ' का ा अ भ ाय है? उ र – ' ा ' माभावको कहते ह। अपना अपराध करनेवालेके लये कसी कार भी द देनेका भाव मनम न रखना, उससे बदला लेनेक अथवा अपराधके बदले उसे इस लोक या परलोकम द मले – ऐसी इ ा न रखना ओर उसके अपराध को व ुत: अपराध ही न मानकर उ सवथा भुला देना ' माभाव ' है। दसव अ ायके चौथे ोकम इसक कु छ व ारसे ा ा क गयी है। – 'आजवम् ' का ा भाव है? उ र – मन, वाणी और शरीरक सरलताका नाम 'आजव' है। जस साधकम यह भाव पूण पसे आ जाता है, वह सबके साथ सरलताका वहार करता है; उसम कु टलताका सवथा [90]

अभाव हो जाता है। अथात् उसके वहारम दाव-पच, कपट या टेढ़ापन जरा भी नह रहता; वह बाहर और भीतरसे सदा समान और सरल रहता है। – 'आचाय पासनम् ' का ा भाव है? उ र – व ा और सदुपदेश देनेवाले गु का नाम 'आचाय' है। ऐसे गु के पास रहकर ा-भ पूवक मन, वाणी और शरीरके ारा सब कारसे उनको सुख प ँ चानेक चे ा करना, नम ार करना, उनक आ ा का पालन करना और उनके अनुकूल आचरण करना आ द 'आचाय पासन' यानी गु -सेवा है। – 'शौचम् ' पदका ा अथ है? उ र – 'शौच' शु को कहते है। स तापूवक शु वहारसे क शु होती है, उस से उपा जत अ से आहारक शु होती है। यथायो शु बतावसे आचरण क शु होती है और जल- म ी आ दके ारा ालना द यासे शरीरक शु होती है। यह सब बाहरक शु है। राग- ेष और छल-कपट आ द वकारीका नाश होकर अ ःकरणका हो जाना भीतरक शु है। दोन ही कारक शु य का नाम 'शौच' है। – ' ैय ' का ा अ भ ाय है? उ र – रभावको ' ैय' कहते ह। अथात् बड़े-से-बड़े क , वप , भय या दुःखके आ पढ़नेपर भी वच लत न होना; एवं काम, ोध, भय या लोभ आ दसे कसी कार भी अपने धम और कत से जरा भी न डगना; तथा मन और बु म कसी तरहक चंचलताका न रहना ' ैय ' है। – 'आ व न ह: ' का ा अ भ ाय है? उ र – यहाँ 'आ ा' पद अ ःकरण और इ य के स हत शरीरका वाचक है। अत: इन सबको भलीभाँ त अपने वशम कर लेना 'आ व न ह' है। जस साधकम आ व न हका भाव पूणतया आ जाता है – उसके मन, बु और इ य उसके आ ाकारी अनुचर हो जाते ह; वे फर उसको वषय म नह फँ सा सकते, नर र उसके इ ानुसार साधनम ही लगे रहते ह।

इ याथषु वैरा मनह ार एव च । ो

ज मृ ुजरा ा धदुःखदोषानुदशनम् ॥८॥

इस लोक और परलोकके स ूण भोग म आस

का अभाव और अहंकारका भी

अभाव; ज , मृ ु, जरा और रोग आ दम दःु ख और दोष का बार-बार वचार करना॥८॥

ा भाव है? उ र – इस लोक और परलोकके जतने भी श , श, प, रस और ग प वषयपदाथ ह – अ ःकरण और इ य ारा जनका भोग कया जाता है और अ ानके कारण जनको मनु सुखके हेतु समझता है, क ु वा वम जो दुःखके कारण ह – उन सबम ी तका सवथा अभाव हो जाना 'इ याथषु वैरा म्' यानी इ य के वषय म वैरा होना है। – 'अनहंकार' कसको कहते ह? उ र – मन, बु , इ य और शरीर – इन सबम जो 'अहम्' बु हो रही है – अथात् अ ानके कारण जो इन अना व ु म आ बु हो रही है – इस देहा भमानका सवथा अभाव हो जाना 'अनहंकार' कहलाता है। – ज , मृ ु, जरा और ा धम दुःख और दोष का बार-बार देखना ा है? उ र – ज का क सहज नह है; पहले तो असहाय जीवको माताके गभम लंबे समयतक भाँ त-भाँ तके ेश होते ह, फर ज के समय यो न ारसे नकलनेम अस य णा भोगनी पड़ती है। नाना कारक यो नय म बार-बार ज हण करनेम ये ज -दुःख होते ह। मृ ुकालम भी महान् क होता है। जस शरीर और घरम आजीवन ममता रही, उसे बलात् छोड़कर जाना पड़ता है। मरणसमयके नराश ने को और शारी रक पीड़ाको देखकर उस समयक य णाका ब त कु छ अनुमान लगाया जा सकता है। बुढ़ापेक य णा भी कम नह होती; इ याँ श थल और श हीन हो जाती ह, शरीर जजर हो जाता है, मनम न लालसाक तरंग उछलती रहती ह, असहाय अव ा हो जाती है। ऐसी अव ाम जो क होता है, वह बड़ा ही भयानक होता है। इसी कार बीमारीक पीड़ा भी बड़ी दुःखदा यनी होती है। शरीर ीण हो गया, नाना कारके अस क हो रहे ह, दूसर क अधीनता है। न पाय त है। यही सब ज , मृ ,ु जरा और ा धके दुःख ह। इन दुःख को बार-बार रण करना और इनपर वचार करना ही इनम दुःख को देखना है । – 'इ

याथषु वैरा म् ' का

जीव को ये ज , मृ ु, जरा, ा ध ा होते है – पाप के प रणाम प; अतएव ये चार ही दोषमय ह। इसीका बार-बार वचार करना इनम दोष को देखना है। य तो एक चेतन आ ाको छोड़कर व ुत: संसारम ऐसी कोई भी व ु नह है, जसम ये चार दोष न ह । जड मकान एक दन बनता है, यह उसका ज आ; कह से टूट- फू ट जाता है यह ा ध ई; मर त करायी, इलाज आ; पुराना हो जाता है, बुढ़ापा आ गया; अब मर त नह हो सकती। फर जीण होकर गर जाता है, मृ ु हो गयी। छोटी-बड़ी सभी चीज क यही अव ा है। इस कार जगत्क ेक व ुको ही ज , मृ ु जरा तथा ा धमय देखदेखकर इनसे वैरा करना चा हये।

अस रन भ ः पु दारगृहा दषु । न ं च सम च म ा न ोपप षु ॥९॥

पु , और अ यक

ी, घर और धन आ दम आस का अभाव; ममताका न होना तथा ा म सदा ही च का सम रहना॥९॥



आठव ोकम जो इ य के अथ म वैरा कहा है – उसीके अ गत पु , ी, घर और धन आ दम आस का अभाव आ ही जाता है; यहाँ उसी बातको फरसे कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – ी, पु , गृह, शरीर और धन आ द पदाथ के साथ मनु का वशेष स होनेके कारण ाय: इनम उसक वशेष आस होती है। इ य के श ा द साधारण वषय म वैरा होनेपर भी इनम गु भावसे आस रह जाया करती है, इसी लये इनम आस का सवथा अभाव हो जानेक बात वशेष पसे पृथक् कही गयी है। – 'अन भ ' का अथ अहंकारका अभाव न लेकर ममताका अभाव लया गया? उ र – अहंकारके अभावक बात पूव ोकके 'अनह ार:' पदम त: आ चुक है, इसी लये यहाँ 'अन भ ' का अथ 'ममताका अभाव' कया गया है। मम के कारण ही मनु का ी, पु ा दसे घ न स हो जाता है। उससे उनके सुख-दुःख और लाभ-हा नसे वह यं सुखी-दुःखी होता रहता है। ममताके अभावसे ही इसका अभाव हो सकता है, इस लये यहाँ इसका अथ ममताका अभाव ही ठीक मालूम होता है। –

–इ

और अ न क उपप ा है? और उसम सम च ता कसे कहते ह? उ र – अनुकूल , या, घटना और पदाथ का संयोग और तकू लका वयोग सबको 'इ ' है। इसी कार अनुकूलका वयोग और तकू लका संयोग 'अ न ' है। इन 'इ ' और 'अ न ' के साथ स होनेपर हषशोका दका न होना अथात् अनुकूलके संयोग और तकू लके वयोगसे च म हष आ द न होना; तथा तकू लके संयोग और अनुकूलके वयोगसे कसी कारके शोक, भय और ोध आ दका न होना – सदा ही न वकार, एकरस, सम रहना – इसको 'इ और अ न क उपप म सम च ता' कहते ह।

म य चान योगेन भ र भचा रणी । व व देशसे व मर तजनसंस द ॥१०॥

मुझ परमे रम अन योगके ारा अ भचा रणी भ तथा एका और शु देशम रहनेका भाव और वषयास मनु के समुदायम ेमका न होना॥१०॥ – 'अन

योग' ा है और उसके ारा भगवान्म 'अ भचा रणी भ

'

करना

कसे कहते ह? उ र – भगवान् ही सव े ह और वे ही हमारे ामी, शरण हण करनेयो , परमग त, परम आ य, माता- पता, भाई-ब ,ु परम हतकारी, परम आ ीय और सव ह; उनको छोड़कर हमारा अ कोई भी नह है – इस भावसे जो भगवान्के साथ अन स है, उसका नाम 'अन योग' है। तथा इस कारके स से के वल भगवान्म ही अटल और पूण वशु ेम करके नर र भगवान्का ही भजन, ान करते रहना ही अन योगके ारा भगवान्म अ भचा रणी भ करना है। इस कारक भ करनेवाले मनु म न तो ाथ ओर अ भमानका लेश रहता है और न संसारक कसी भी व ुम उसका मम ही रह जाता है। संसारके साथ उसका भगवान्के स से ही स रहता है, कसीसे भी कसी कारका त स नह रहता। वह सब कु छ भगवान्का ही समझता है तथा ा और ेमके साथ न ामभावसे नर र भगवान्का ही च न करता रहता है। उसक जो भी या होती है, सब भगवान्के लये ही होती है। – ' व व देश' कै से ानको समझना चा हये और उसका सेवन करना ा है?

उ र – जहाँ कसी कारका शोरगुल या भीड़भाड़ न हो; जहाँ दूसरा कोई न रहता हो, जहाँ रहनेम कसीको भी आप या ोभ न हो, जहाँ कसी कारक गंदगी न हो, जहाँ काटेकं कड़ और कू ड़ा-ककट न ह , जहाँका ाकृ तक सु र हो, जल, वायु और वातावरण नमल और प व ह , कसी कारक बीमारी न हो, हसक ा णय का और हसाका अभाव हो और जहाँ ाभा वक ही सा कताके परमाणु भरे ह – ऐसे देवालय, तपोभू म, गंगा आ द प व न दय के तट और प व बन, ग र-गुहा आ द नजन एका और शु देशको ' व व देश' कहते ह; तथा ानको ा करनेक साधनाके लये ऐसे ानम नवास करना ही उसका सेवन करना है। – 'जनसंस द ' कसको कहते ह? और उसम ेम न करना ा है? उ र – यहाँ 'जनसंस द ' पद ' मादी' और ' वषयास ' सांसा रक मनु के समुदायका वाचक है। ऐसे लोग के संगको साधनम सब कारसे बाधक समझकर उससे वर रहना ही उनम ेम नह करना है। संत, महा ा और साधक पु ष का संग तो साधनम सहायक होता है; अत: उनके समुदायका वाचक यहाँ 'जनसंस द ' नह समझना चा हये।

अ ा ान न ं त ानाथदशनम् । एत ान म त ो म ानं यदतोऽ था ॥११॥

अ ा ानम न त और त ानके अथ प परमा ाको ही देखना – यह सब ान है और जो इससे वपरीत है, वह अ ान है – ऐसा कहा है॥११॥ – 'अ

ा ान' कसको कहते ह और उसम न त रहना ा है? उ र – आ ा न , चेतन, न वकार और अ वनाशी है; उससे भ जो नाशवान् जड, वकारी और प रवतनशील व ुएँ तीत होती ह – वे सब अना ा ह, आ ाका उनसे कु छ भी स नह है – शा और आचायके उपदेशसे इस कार आ त को भलीभाँ त समझ लेना ही 'अ ा ान' है और बु म ठीक वैसा ही ढ़ न य करके मनसे उस आ त का न नर र मनन करते रहना 'अ ा ानम न त रहना' है। – त ानका अथ ा है और उसका दशन करना ा है? उ र – त ानका अथ है – स दान घन पूण परमा ा; क त ानसे उ क ा होती है। उन स दान घन गुणातीत परमा ाका सव समभावसे न -

नर र ान करते रहना ही उस अथका दशन करना है। – यह सब ान है – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – 'अमा न म् ' से लेकर 'त - ानाथदशनम् ' तक जनका वणन कया गया है वे सभी ान ा के साधन ह; इस लये उनका नाम भी ' ान' रखा गया है। अ भ ाय यह है क दूसरे ोकम भगवान्ने जो यह बात कही है क े और े का जो ान है, वही मेरे मतसे ान है – इस कथनसे कोई ऐसा न समझ ले क शरीरका नाम ' े ' है और इसके अंदर रहनेवाले ाता आ ाका नाम ' े ' है, यह बात हमने समझ ही ली; बस, हम ान ा हो गया क ु वा वम स ा ान वही है जो उपयु बीस साधन के ारा े - े के पको यथाथ पसे जान लेनेपर होता है। इसी बातको समझानेके लये यहाँ इन साधन को ' ान' के नामसे कहा गया है । अतएव ानीम उपयु गुण का समावेश पहलेसे ही होना आव क है। परंतु यह आव क नह है क ये सभी गुण सभी साधक म एक ही समयम ह । अव ही, इनम जो 'अमा न ', 'अद ' आ द ब त-से सबके उपयोगी गुण ह – वे तो सबम रहते ही ह। इनके अ त र , 'अ भचा रणी भ ', 'एका -देशसे व ', 'अ ा ान न ', 'त ानाथदशन' इ ा दम अपनी-अपनी साधनशैलीके अनुसार वक भी हो सकता है। – जो इससे वपरीत है, वह अ ान है – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इस कथनसे यह भाव दखलाया गया है क उपयु अमा न ा द गुण से वपरीत जो मान-बड़ाईक कामना, द , हसा, ोध, कपट, कु टलता, ोह अप व ता, अ रता, लोलुपता, आस , अहंता, ममता, वषमता, अ ा और कु संग आ द दोष ह – वे सभी ज -मृ ुके हेतुभूत अ ानको बढ़ानेवाले और जीवका पतन करनेवाले ह, इस लये ये सब अ ान ही ह; अतएव उन सबका सवथा ाग करना चा हये।

कार इनके साधन का ' ान' के नामसे वणन सुननेपर यह ज ासा हो सकती है क इन साधन ारा ा ' ान' से जाननेयो वसतु ा है और उसे जान लेनेसे ा होता है? उसका उ र देनेके लये भगवान् अब जाननेके यो व ुके पका वणन करनेक त ा करते ए उसके जाननेका फल 'अमृत क ा ' बतलाकर छ: ोक म जाननेके यो परमा ाके पका वणन करते ह – स

– इस

ें



ये ं य व ा म य ा ामृतम ुते । अना दम रं न स ासदु ते ॥१२॥

जो जाननेयो है तथा जसको जानकर मनु परमान को ा होता है, उसको भलीभाँ त क ँ गा। वह अना दवाला परम न सत् ही कहा जाता है, न असत् ही॥१२॥ –

जसका वणन करनेक भगवान्ने त ा क है, वह '

ेयम् ' पद यहाँ

कसका

वाचक है? उ र – यहाँ ' ेयम् ' पद स दान घन नगुण और सगुण का वाचक है, क इसी करणम यं भगवान्ने ही उसको नगुण और गुण का भो ा बताया है। – उस ेयको जाननेसे जसक ा होती है वह 'अमृत' ा है? उ र – 'अमृत' पद यहाँ परमान प परमा ाका वाचक है । अ भ ाय यह है क जाननेके यो पर परमा ाके ानसे मनु सदाके लये ज -मरण प संसार-ब नसे मु होकर परमान प पर को ा हो जाता है। इसीको परमग त और परमपदक ा भी कहते ह । – 'अना दमत् ' पदका ा अ भ ाय है? उ र – इसी अ ायके उ ीसव ोकम भगवान्ने कृ त और जीवा ाको अना द बतलाया है। इन दोन का ामी होनेके कारण पर पु षो मको अना दमत् अथात् अना दवाला कहते ह। – 'परम् ' वशेषणके स हत ' ' पदका ा अथ है? उ र – यहाँ 'परम्' वशेषणके स हत ' ' पदका योग, वह ेय त ही नगुण, नराकार स दान घन पर परमा ा है, यह बतलानेके उ े से कया गया है। ' ' पद वेद, ा और कृ तका भी वाचक हो सकता है; अतएव ेयत का प उनसे वल ण है, यह बतलानेके लये पदके साथ 'परम् ' वशेषण दया गया है। – उस पर परमा ाको 'सत् ' और 'असत् ' नह कहा जा सकता? उ र – जो व ु माण ारा स क जाती है, उसे 'सत्' कहते ह। त: माण न अ वनाशी परमा ा कसी भी माण ारा स नह कया जा सकता; क परमा ासे ही

सबक स होती है, परमा ातक कसी भी माणक प ँ च नह है। ु तने भी कहा है क 'उस जाननेवालेको कै से जाना जा सकता है।' वह माण ारा जाननेम आनेवाली व ु से अ वल ण है, इस लये परमा ाको 'सत् ' नह कहा जा सकता । तथा जस व ुका वा वम अ नह होता, उसे 'असत् ' कहते ह, क ु पर परमा ाका अ नह है, ऐसी बात नह है। वह अव है, और वह है – इसीसे अ सबका होना भी स होता है; अत: उसे 'असत्' भी नह कहा जा सकता । इसी लये परमा ा 'सत्' और 'असत्' दोन से ही परे है। – नवम अ ायके उ ीसव ोकम तो भगवान्ने कहा है क 'सत् ' भी म ँ और 'असत् ' भी म ँ और यहाँ यह कहते ह क उस जाननेयो परमा ाको न 'सत् ' कहा जा सकता है और न 'असत् '। अत: इस वरोधका ा समाधान है? उ र – व ुत: कोई वरोध ही नह है; क जहाँ परमा ाके पका वणन व धमुखसे कया जाता है, वहाँ इस कार समझाया जाता है क जो कु छ भी है – सब ही है; और जहाँ नषेधमुखसे वणन होता है – वहाँ ऐसा कहा जाता हे क वह 'ऐसा भी नह है, ऐसा भी नह है', कतु है अव । अतएव वहाँ व धमुखसे वणन है। इस लये भगवान्का यह कहना क 'सत् ' भी म ँ और 'असत् ' भी म ँ , उ चत ही हे। कतु वा वम उस पर परमा ाका प वाणीके ारा न तो व धमुखसे बतलाया जा सकता है और न नषेधमुखसे ही। उसके वषयम जो कु छ भी कहा जाता है, सब के वल शाखाच ायसे उसे ल करानेके लये ही है, उसके सा ात् पका वणन वाणी ारा हो ही नह सकता। ु त भी कहती है – 'यतो वाचो नवत े अ ा मनसा सह ' (तै रीय उ० २।९) अथात् 'मनके स हत वाणी जसे न पाकर वापस लौट आती है (वह है)'। इसी बातको करनेके लये यहाँ भगवान्ने नषेधमुखसे कहा है क वह न 'सत् ' कहा जाता है और न 'असत् ' ही कहा जाता है। अथात् म जस ेयव ुका वणन करना चाहता ँ , उसका वा वक प तो मन, वाणीका अ वषय है; अत: उसका जो कु छ भी वणन कया जायगा, उसे उसका तट ल ण ही समझना चा हये।

इस कार ेय त के वणनक त ा करके उस त का सं ेपम वणन कया परतु वह ेय त बड़ा गहन है। अत: साधक को उसका ान करानेके लये सव ापक ा द ल ण के ारा उसीका पुनः व ारपूवक वणन करते ह – स गया;



सवतः पा णपादं त वतोऽ शरोमुखम् । ोे

सवतः ु तम ोके सवमावृ त त ॥१३॥

[91]

वह सब ओर हाथ-पैरवाला, सब ओर ने , सर ओर मुखवाला तथा सब ओर कानवाला है। क वह संसारम सबको ा करके त है॥१३॥ – वह सब ओर हाथ-पैरवाला है, इस कथनका

ा अ भ ाय है? उ र – इस कथनसे यह भाव दखलाया गया है क वह पर परमा ा सब ओर हाथवाला है। उसे कोई भी व ु कह से भी समपण क जाय, वह वह से उसे हण करनेम समथ है। इसी तरह वह सब जगह पैरवाला है। कोई भी भ कह से उसके चरण म णामा द करते ह, वह वह उसे ीकार कर लेता है; क वह सवश मान् होनेके कारण सभी जगह सब इ य का काम कर सकता है, उसक ह े यका काम करनेवाली हण-श और पादे यका काम करनेवाली चलन-श सव ा है। – सब ओर ने , सर और मुखवाला है – इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे भी उस ेय त क सव ापकताका ही भाव दखलाया गया है। अ भ ाय यह है क वह सब जगह आँ खवाला है। ऐसा कोई भी ान नह है, जहाँ वह न देखता हो; इसी लये उससे कु छ भी छपा नह है। वह सब जगह सरवाला है। जहाँ कह भी भ लोग उसका स ार करनेके उ े से पु आ द उसके म कपर चढ़ाते ह, वे सब ठीक उसपर चढ़ते ह; कोई भी ान ऐसा नह है जहाँ भगवान्का म क न हो। वह सव जगह मुखवाला है। उसके भ जहाँ भी उसको खानेक व ु समपण करते ह, वह वह उस व ुको ीकार कर सकता है; ऐसी कोई भी जगह नह है जहाँ उसका मुख न हो अथात् वह ेय प परमा ा सबका सा ी, सब कु छ देखनेवाला तथा सबक पूजा और भोग ीकार करनेक श वाला है। – वह सब ओर कानवाला है, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इससे भी ेय प परमा ाक सव ापकताका ही वणन कया गया है। अ भ ाय यह है क वह परमा ा सब जगह सुननेक श वाला है। जहाँ कह भी उसके भ उसक ु त करते ह या उससे ाथना अथवा याचना करते ह, उन सबको वह भलीभाँ त सुनता है। – संसारम वह सबको ा करके त है, इस कथनका ा अ भ ाय है?

उ र – इस कथनसे भी उस ेयत क सव ापकताका ही सम तासे तपादन कया गया है। अ भ ाय यह है क आकाश जस कार वायु, अ , जल और पृ ीका कारण होनेसे उनको ा कये ए त है – उसी कार वह ेय प परमा ा भी इस चराचर जीवसमूहस हत सम जगत्का कारण होनेसे सबको ा कये ए त है, अत: सब कु छ उसीसे प रपूण है। ेय प परमा ाको सब ओरसे हाथ, पैर आ द सम इ य क श वाला बतलानेके बाद अब उसके पक अलौ ककताका न पण करते ह – स



सव यगुणाभासं सव य वव जतम् । अस ं सवभृ ैव नगुणं गुणभो ृ च ॥१४॥

वह स ूण इ य के वषय को जाननेवाला है, पर ु वा वम सब इ य से र हत है, तथा आस र हत होनेपर भी सबका धारण-पोषण करनेवाला और नगुण होनेपर भी गुण को भोगनेवाला है॥१४॥

वह परमा ा सब इ य के वषय को जाननेवाला है पर ु वा वम सब इ य से र हत है, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इस कथनसे यह दखलाया गया है क उस ेय प परमा ाका सगुण प भी ब त ही अदभु् त और अलौ कक हे । अ भ ाय यह है क तेरहव ोकम जो उसको सब जगह हाथ-पैरवाला और अ सब इ य वाला बतलाया गया है, उससे यह बात नह समझनी चा हये क वह ेय परमा ा अ जीव क भाँ त हाथ-पैर आ द इ य वाला है; वह इस कारक इ य से सवथा र हत होते ए भी सब जगह उन-उन इ य के वषय को हण करनेम समथ है। इस लये उसको सब जगह, सब इ य वाला और सब इ य से र हत कहा गया है। ु तम भी कहा है–

अपा णपादो जवनो हीता प

च ःु स ृणो कण:॥ (

ेता तरोप नषद् ३।१९)

अथात् 'वह परमा ा बना पैर-हाथके ही वेगसे चलता और हण करता है तथा बना ने के देखता और बना कान के ही सुनता है।' अतएव उसका प अलौ कक है, इस वणनम यही बात समझायी गयी है। – वह आस र हत होनेपर भी सबका धारण-पोषण करनेवाला है, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इस कथनसे यह भाव दखलाया गया हे क जैसे संसारम माता- पता आ द आस के वश होकर अपने प रवारका धारण-पोषण करते ह, वह पर परमा ा उस कारसे धारण- पोषण करनेवाला नह है। वह बना ही आस के सबका धारण-पोषण करता है। इसी लये भगवान्को सब ा णय का सुहद् अथात् बना ही कारण हत करनेवाला कहा गया है (५।२९)। अ भ ाय यह है क वह ेय प सव ापी परमा ा वा वम आस के दोषसे सवथा र हत है तो भी कृ तके स से सबका धारण-पोषण करनेवाला है, यही उसक अलौ ककता है। – वह गुण से अतीत होनेपर भी गुण को भोगनेवाला है, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इससे भी उस परमा ाक अलौ ककताका ही तपादन कया गया है। अ भ ाय यह है क वह परमा ा सब गुण का भो ा होते ए भी अ जीव क भाँ त कृ तके गुण से ल नह है। वह वा वम गुण से सवथा अतीत है, तो भी कृ तके स से सम गुण का भो ा है। यही उसक अलौ ककता है।

सू

ब हर भूतानामचरं चरमेव च । ा द व ेयं दूर ं चा के च तत् ॥१५॥

वह चराचर सब भूत के बाहर-भीतर प रपूण है, और चर-अचर प भी वही है। और वह सू

होनेसे अ व ेय है तथा अ त समीपम और दरू म भी – वह

त वही है॥१५॥ [92]

ेय प परमा ा सब भूत के बाहर-भीतर प रपूण कै से है? उ र – जस कार समु म पड़े ए बरफके ढेल के बाहर और भीतर सब जगह जलही-जल ा है, इसी कार सम चराचर भूत के बाहर-भीतर वह ेय प परमा ा प रपूण है।

– चर और अचर भी वही है, इस कथनका

ा भाव है? उ र – पहले वा म यह बात कही गयी है क वह परमा ा चराचर भूत के बाहर और भीतर भी है; इससे कोई यह बात न समझ ले क चराचर भूत उससे भ ह गे। इसीको करनेके लये कहते ह क चराचर भूत भी वही है। अथात् जैसे बरफके बाहर-भीतर भी जल है और यं बरफ भी व ुत: जल ही है – जलसे भ कोई दूसरा पदाथ नह है उसी कार यह सम चराचर जगत् उस परमा ाका ही प है, उससे भ नह है। – वह सू होनेसे अ व ेय है, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – उस ेयको सव प बतला देनेसे यह शंका होती है क य द सब कु छ वही है तो फर सब कोई उसको जानते नह ? इसपर कहते ह क जैसे सूयक करण म त परमाणु प जल साधारण मनु के जाननेम नह आता – उनके लये वह दु व ेय है, उसी कार वह सव ापी पर परमा ा भी उस परमाणु प जलक अपे ा भी अ सू होनेके कारण साधारण मनु के जाननेम नह आता, इस लये वह अ व ेय है। – वह अ त समीपम है और दूरम भी त है, यह कै से? उ र – स ूण जगत्म और इसके बाहर ऐसी कोई भी जगह नह है जहाँ परमा ा न ह । इस लये वह अ समीपम भी है और दूरम भी है; क जसको मनु दूर और समीप मानता है, उन सभी ान म वह व ानान घन परमा ा सदा ही प रपूण है। इस लये इस त को समझनेवाले ालु मनु के लये वह परमा ा अ समीप है और अ ालुके लये अ दूर है।

अ वभ ं च भूतेषु वभ मव च तम् । भूतभतृ च त ेयं स ु भ व ु च ॥१६॥

वह परमा ा वभागर हत एक पसे आकाशके स श प रपूण होनेपर भी चराचर स ूण भूत म वभ -सा त तीत होता है। तथा वह जाननेयो परमा ा व ु पसे भूत को धारण-पोषण करनेवाला और पसे संहार करनेवाला तथा ा पसे सबको उ करनेवाला है॥१६॥

अ भ ाय है?

– 'अ वभ

होनेपर भी सब ा णय म वभ -सा

त है' इस वा का ा

उ र – इस वा से उस जाननेयो परमा ाके एक का तपादन कया गया है। अ भ ाय यह है क जैसे महाकाश वा वम वभागर हत है तो भी भ - भ घड़ के स से वभ -सा तीत होता है – वैसे ही परमा ा वा वम वभागर हत है, तो भी सम चराचर ा णय म े पसे पृथक् -पृथक् के स श त तीत होता है। क ु यह भ ता के वल ती तमा ही है, वा वम वह परमा ा एक है और वह सव प रपूण है। – 'भूतभतृ ', ' स ु ' और ' भ व ु ' – इन पद का ा अथ है और इनके योगका यहाँ ा अ भ ाय है? उ र – सम ा णय के धारण-पोषण करनेवालेको 'भूतभतृ ' कहते ह; स ूण जगत्के संहार करनेवालेको ' स ु ' कहते ह और सबक उ करनेवालेको ' भ व ु ' कहते ह । इन तीन पद का योग करके यहाँ यह भाव दखलाया गया है क वह सवश मान् ेय- प परमा ा स ूण चराचर जगत्क उ , त और संहार करनेवाला है। वही ा पसे इस जगत्को उ करता है, वही व ु पसे इसका पालन करता है और वही पसे इसका संहार करता है। अथात् वह परमा ा ही ा, व ु और शव है।

ो तषाम प त ो त मसः परमु ते । ानं ेयं ानग ं द सव व तम् ॥१७॥

वह पर ो तय का भी ो त एवं मायासे अ परे कहा जाता है। वह परमा ा बोध प, जाननेके यो एवं त ानसे ा करनेयो है और सबके दयम वशेष पसे

त है॥१७॥ – वह पर

ो तय का भी ो त कै से है? उ र – च मा, सूय, व ुत, तारे आ द जतनी भी बा ो तयाँ ह; बु , मन और इ याँ आ द जतनी आ ा क ो तयाँ ह; तथा व भ लोक और व ु के अ ध ातृदेवता प जो देव ो तयाँ ह – उन सभीका काशक वह परमा ा है। तथा उन सबम जतनी काशन-श है वह भी उसी पर परमा ाका एक अंशमा है। इसी लये वह सम ो तय का भी ो त अथात् सबको काश दान करनेवाला, सबका काशक है। उसका काशक दूसरा कोई नह है।

ु तम भी कहा है

– 'न त

सूय भा त न च तारकं नेमा व ुतो भा

कुतोऽय :। तमेव भा मनुभा त सव त भासा सव मदं वभा त॥' (कठोप नषद ् २।२। १५; ेता तर- उ० ६।१४) अथात् 'वहाँ न सूय काश करता है न च मा और न तारागण ही। न वहाँ यह बजली काश करती है, फर इस अ क तो बात ही ा है। उसीके का शत होनेसे ये सब काशमान होते ह और उसीके काशसे यह सम जगत् का शत होता है।'

गीताम भी पं हव अ ायके बारहव ोकम कहा गया है क 'जो तेज सूयम त होकर सम जगत्को का शत करता है और जो तेज च मा तथा अ म त है, उस तेजको तू मेरा ही तेज समझ।' – यहाँ 'तम: ' पद कसका वाचक है और उस परमा ाको उससे 'पर' बतलानेका ा अ भ ाय है ' उ र – यहाँ 'तम: ' पद अ कार और अ ानका वाचक है; और वह परमा ा यं ो त तथा ान प है; अ कार और अ ान उसके नकट नह रह सकते, इस लये उसे तमसे अ परे – इनसे सवथा र हत – बतलाया गया है। – यहां ' ानम् ' पद कसका वाचक है और इसके योगका ा भाव है? उ र – यहाँ ' ानम् ' पद परमा ाके पका वाचक है। इसके योगका यह अ भ ाय है क वह परमा ा चेतन, बोध प है। – उसे यहाँ पुन: ' ेय' कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – उसे पुन: ' ेय' कहकर यह भाव दखलाया गया है क जस ेयका बारहव ोकम करण आर कया गया है उस परमा ाका ान ा कर लेना ही इस संसारम मनु -शरीरका परम कत है, इस संसारम जाननेके यो एकमा परमा ा ही है। अतएव उसका त जाननेके लये सभीको पूण पसे उ ोग करना चा हये, अपने अमू जीवनको सांसा रक भोग म लगाकर न नह कर डालना चा हये। – उसे ' ानग म् ' कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – ' ेयम् ' पदसे उसे जानना आव क बतलाया गया। इसपर यह हो सकता है क उसे कै से जानना चा हये। इस लये कहते ह क वह ानग है अथात् पूव

अमा न ा द ानसाधन के ारा ा त ानसे वह जाना जाता है। अतएव उन साधन ारा त ानको ा करके उस परमा ाको जानना चा हये। – पूव ोक म उस परमा ाको सव ा बतलाया गया है, फर यहां ' द सव व तम् ' – इस कथनसे के वल सबके दयम त बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – वह परमा ा सब जगह समान-भावसे प रपूण होते ए भी, दयम उसक वशेष अ भ है। जैसे सूयका काश सब जगह समान पसे व ृत रहनेपर भी दपण आ दम उसके त ब क वशेष अ भ होती है एवं सूयमुखी शीशेम उसका तेज कट होकर अ उ कर देता है, अ पदाथ म उस कारक अ भ नह होती, उसी कार दय उस परमा ाक उपल का ान है। ानीके दयम तो वह ही कट है। यही बात समझानेके लये उसको सबके दयम वशेष पसे त बतलाया गया है।

इस कार े , ान और ेयके करणको जाननेका फल बतलाते ह – स

इस गया। मेरा भ



पका सं ेपम वणन करके अब इस

इ त े ं तथा ानं ये ं चो ं समासतः । म एत ाय म ावायोपप ते ॥१८॥

कार े तथा ान और जाननेयो परमा ाका प सं ेपसे कहा इसको त से जानकर मेरे पको ा होता है॥१८॥ – यहाँतक

े , ान और ेयका प कन- कन ोक म कहा गया है? उ र – पाँचव और छठे ोक म वकार -स हत े के पका वणन कया गया है। सातवसे ारहव ोकतक ानके नामसे ानके बीस साधन का और बारहवसे स हवतक ेय अथात् जाननेयो परमा ाके पका वणन, कया गया है। – 'म ः ' पदके योगका ा अ भ ाय है तथा उस े , ान और ेयको जानना ा है एवं भगव ावको ा होना ा है? उ र – 'म ः ' पद यहाँ भगवान्का भजन, ान, आ ापालन और पूजन तथा सेवा आ द भ करनेवाले भगव का वाचक है। इसका योग करके भगवान्ने यह भाव

दखलाया है क इस ानमागम भी मेरी शरण हण करके चलनेवाला साधक सहजहीम परम पदको ा कर सकता है। यहाँ े को कृ तका काय, जड, वकारी, अ न और नाशवान् समझना, ानके साधन को भलीभाँ त धारण करना और उनके ारा भगवान्के नगुण, सगुण पको भलीभाँ त समझ लेना – यही े , ान और ेयको जानना है। तथा उस ेय प परमा ाको ा हो जाना ही भगव ावको ा हो जाना है। स – तीसरे ोकम भगवान्ने े के वषयम चार बात और े के वषयम दो बात सं ेपम सुननेके लये अजुनसे कहा था, फर वषय आर करते ही े के पका और उसके वकार का वणन करनेके उपरा े और े के त को भलीभाँ त जाननेके उपायभूत साधन का और जाननेके यो परमा ाके पका वणन संगवश कया गया। इससे े के वषयम उसके भावका और कस कारण्से कौन काय उ होता है, इस वषयका तथा भावस हत े के पका भी वणन नह आ। अत: अब उन सबका वणन करनेके लये भगवान् पुन: कृ त और पु षके नामसे करण आर करते ह। इसम पहले कृ त-पु षक अना दताका तपादन करते ए सम गुण और वकार को कृ तज बतलाते ह –

कृ त पु षं चैव वद् नादी उभाव प । वकारां गुणां ैव व कृ तस वान् ॥१९॥

तथा

कृ त और पु ष, इन दोन को ही तू अना द जान और राग- ेषा द वकार को गुणा क स ूण पदाथ को भी कृ तसे ही उ जान ॥११॥

इस ोकम ' कृ त' श कसका वाचक है तथा सातव अ ायके चौथे और पाँचव ोक म जसका वणन 'अपरा कृ त' के नामसे आ है तथा इसी अ ायके पाँचव ोकम जो े का प बतलाया गया है, उनम और इस कृ तम ा भेद है? उ र – यहाँ ' कृ त' श ई रक अना द स मूल कृ तका वाचक है। चौदहव अ ायम इसीको मह के नामसे कहा गया है। सातव अ ायके चौथे और पाँचव ोक म अपरा कृ तके नामसे और इसी अ ायके पाँचव ोकम े के नामसे भी इसीका वणन है। भेद इतना ही है क वहाँ उसके काय – मन, बु , अहंकार और पंचमहाभूता दके स हत मूल कृ तका वणन है ओर यहाँ के वल 'मूल –

कृ त' का वणन है। – ' कृ त' और 'पु ष' – इन दोन को अना द जाननेके लये कहनेका तथा 'च ' और 'एव ' – इन दोन पद के योगका यहाँ ा अ भ ाय है? उ र – कृ त और पु ष – इन दोन क अना दता समान है, इस बातको जाननेके लये अथात् इस ल णम दोन क एकता करनेके लये 'च ' और 'एव ' – इन दोन पद का योग कया गया है। तथा दोन को अना द समझनेके लये कहनेका यह अ भ ाय है क जीवका जीव अथात् कृ तके साथ उसका स कसी हेतुसे होनेवाला – आग ुक नह है, यह अना द स है और इसी कार ई रक श यह कृ त भी अना द स है –   ऐसा समझना चा हये। – यहाँ ' वकारान् ' पद कनका और 'गुणान्' पद कनका वाचक है तथा इन दोन को कृ तसे उ समझनेके लये कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – इसी अ ायके छठे ोकम जन इ ा ेष, सुख-दुःख आ द वकार का वणन कया गया है – उन सबका वाचक यहां ' वकारान् ' पद है तथा स , रज और तम – इन तीन गुण का और इनसे उ सम जड पदाथ का वाचक 'गुणान्' पद है। इन दोन को कृ तसे उ समझनेके लये कहकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क स , रज और तम – इन तीन गुण का नाम कृ त नह है; कृ त अना द ह। तीन गुण सृ के आ दम उससे उ होते ह (भागवत २।५।२२ तथा ११।२४।५)। इसी बातको करनेके लये भगवान्ने चौदहव अ ायके पाँचव ोकम स , रज और तम – इस कार तीन गुण का नाम देकर तीन को कृ तस व बतलाया है। इसके सवा तीसरे अ ायके पाँचव ोकम और अठारहव अ ायके चालीसव ोकम तथा इसी अ ायके इ सव ोकम भी गुण को कृ तज बतलाया है। तीसरे अ ायके स ाईसव और उनतीसव ोक म भी गुण का वणन कृ तके काय पम आ है। इस लये स , रज और तम – इन तीन गुण को उनके कायस हत कृ तसे उ समझना चा हये तथा इसी तरह सम वकार को भी कृ तसे उ समझना चा हये ।

ोकम जससे जो उ आ है, यह बात सुननेके लये कहा गया था, उसका वणन पूव ोकके उ रा म कु छ कया गया। अब उसीक कु छ बात इस ोकके स

– तीसरे

पूवा म कहते ए इसके उ रा म और इ सव ोकम कृ तम वणन कया जाता है –

त पु षके

पका

कायकारणकतृ े हेतुः कृ त ते । पु षः सुखदुःखानां भो ृ े हेतु ते ॥२०॥

काय और करणको उ न करनेम हेतु कृ त कही जाती है और जीवा ा सुखदःु ख के भो ापनम अथात् भोगनेम हेतु कहा जाता है॥२०॥ – 'काय'

और 'करण' श कन- कन त के वाचक ह और उनके कतृ म कृ तको हेतु बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – आकाश, वायु अ , जल और पृ ी – ये पाँच सू महाभूत तथा श , श, प, रस और ग – ये पाँच इ य के वषय; इन दस का वाचक यहाँ 'काय' श है। बु , अहंकार और मन – ये तीन अ ःकरण; ो , चा, ने , रसना और ाण – ये पाँच ाने याँ एवं वाक् , ह , पाद, उप और गुदा – ये पाँच कम याँ; इन तेरहका वाचक यहाँ 'करण' श है। ये तेईस त कृ तसे ही उ होते ह, कृ त ही इनका उपादान कारण है; इस लये कृ तको इनके उ करनेम हेतु बतलाया गया है। – इन तेईसम एकक दूसरेसे कस कार उ मानी जाती है? उ र – कृ तसे मह , मह से अहंकार, अहंकारसे पाँच सू महाभूत, मन और दस इ याँ तथा पाँच सू महाभूत से पाँच इ य के श ा द पाँच ूल वषय क उ मानी जाती है। सां का रकाम भी कहा है – कृतेमहां तोऽह ार त ाद प षोडशकात् प

ा ण षोडशकः। ः प भूता न॥ (सां

का रका २२)

अथात् ' कृ तसे मह (सम -बु ) क यानी बु त क , उससे अहंकारक और अहंकारसे पाँच त ा ाएँ , एक मन और दस इ याँ – इन सोलहके समुदायक उ ई तथा उन सोलहमसे पाँच त ा ा से पाँच ूल भूत क उ ई।' गीताके वणनम पाँच त ा ा क जगह पाँच सू महाभूत का नाम आया है और पाँच ूल भूत के ानम पाँच इ य के वषय का नाम आया है, इतना ही भेद है।

– कह -कह 'कायकरण' के पाठ माननेसे 'काय' और 'कारण' श को

ानम 'कायकारण' पाठ भी देखनेम आता है। वैसा कन- कन त का वाचक मानना चा हये? उ र – 'काय' और 'कारण' पाठ माननेसे पाँच ाने य, पाँच कम याँ, एक मन और पाँच इ य के वषय – इन सोलहका वाचक 'काय' श को समझना चा हये; क ये सब दूसर के काय ह, क ु यं कसीके कारण नह ह। तथा बु , अहंकार और पाँच सू महाभूत का वाचक 'कारण' श को समझना चा हये। क बु अहंकारका कारण है; अहंकार मन, इ य और सू पाँच महाभूत का कारण है तथा सू पाँच महाभूत पाँच इ य के वषय के कारण ह। – अ ःकरणके बु , अहंकार, च और मन – ऐसे चार भेद अ शा म माने गये ह; फर भगवान्ने यहाँ तीनका ही वणन कै से कया? उ र – भगवान् च और मनको भ त नह मानते, एक ही त के दो नाम मानते ह। सां और योगशा भी ऐसा ही मानते ह। इस लये अ ःकरणके चार भेद न करके तीन भेद कये गये ह। – 'पु ष' श चेतन आ ाका वाचक है और आ ाको नलप तथा शु माना गया है; फर यहाँ पु षको सुख-दुःख के भो ापनम कारण कै से कहा गया है? उ र – कृ त जड है, उसम भो ापनक स ावना नह है और पु ष असंग है, इस लये उसम भी वा वम भो ापन नह है। कृ तके संगसे ही पु षम भो ापनक ती तसी होती है और यह कृ त-पु षका संग अना द है, इस लये यहाँ पु षको सुख-दुःख के भो ापनम हेतु यानी न म माना गया है। इसी बातको करनेके लये अगले ोकम कह भी दया है क ' कृ तम त पु ष ही कृ तज नत गुण को भोगता है।' अतएव कृ तसे मु पु षम भो ापनक ग मा भी नह है।

पु षः कृ त ो ह भुङ् े कृ तजा गुणान् । कारणं गुणस ोऽ सदस ो नज सु ॥२१॥

कृ तम त ही पु ष कृ तसे उ गुणा क पदाथ को भोगता है और इन गुण का संग ही इस जीवा ाके अ ी-बुरी यो नय म ज लेनक े ा कारण है॥२१॥

यहाँ ' कृ तजान् ' वशेषणके स हत 'गुणान् ' पद कसका वाचक है तथा 'पु ष: ' के साथ ' कृ त : ' वशेषण देकर उसे उन गुण का भो ा बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – कृ तज नत स , रज और तम – ये तीन गुण तथा इनके काय श , श, प, रस और ग प जतने भी सांसा रक पदाथ ह – उन सबका वाचक यहाँ ' कृ तजान् ' वशेषणके स हत 'गुणान् ' पद है। तथा 'पु ष: ' के साथ कृ त : वशेषण देकर उसे उन गुण का भो ा बतलानेका यह अ भ ाय है क कृ तसे बने ए ूल, सू और कारण– इन तीन शरीर मसे कसी भी शरीरके साथ जबतक इस जीवा ाका स रहता है, तबतक वह कृ तम त ( कृ त ) कहलाता है, अतएव जबतक आ ाका कृ तके साथ स रहता है, तभीतक वह कृ तज नत गुण का भो ा है। कृ तसे स छू ट जानेके बाद उसम भो ापन नह है, क वा वम पु षका प न असंग ही है। – 'सदस ो न ' श कन यो नय का वाचक है और गुण का संग ा है, एवं वह इस जीवा ाके सदस ो नय म ज लेनेका कारण कै से है? उ र – 'सदस ो न ' श यहाँ अ ी और बुरी यो नय का वाचक है। अ भ ाय यह है क मनु से लेकर उससे ऊँ ची जतनी भी देवा द यो नयाँ ह, सब सत् यो नयाँ ह और मनु से नीची जतनी भी पशु, प ी, वृ और लता आ द यो नयाँ ह वे असत् ह। स , रज और तम – इन तीन गुण के साथ जो जीवका अना द स स है एवं उनके काय प सांसा रक पदाथ म जो आस है, वही गुण का संग है; जस मनु क जस गुणम या उसके काय प पदाथम आस होगी, उसक वैसी ही वासना होगी और उसीके अनुसार उसे पुनज ा होगा।  इसी लये यहां अ ी-बुरी यो नय क ा म गुण के संगको कारण बतलाया गया है। – चौथे अ ायके तेरहव ोकम तो भगवान्ने यह कहा है क गुण और कम के अनुसार चार वण क रचना मेरे ारा क गयी है, आठव अ ायके छठे ोकम यह बात कही है क अ कालम मनु जस- जस भावका रण करता आ जाता है, उसीको ा होता है; एवं यहाँ यह कहते ह क अ ी-बुरी यो नय क   ा म कारण गुण का संग है। इन तीन का सम य कै से कया जा सकता है? उ र – तीन म व ुत: असामंज क कोई भी बात नह है। वचार करके देखनेसे तीन म कारा रसे गुण के संगको अ ी-बुरी यो नय क ा म हेतु बतलाया गया है। १– –

भगवान् चार वण क रचना उनके गुण-कमानुसार ही करते ह। इसम उन जीव के गुण का स ाभा वक ही हेतु हो गया। २–मनु जैसा कम और संग करता है, उसीके अनुसार उसक तीन गुण मसे कसी एकम वशेष आस होती है और उन कम के सं ार बनते ह; तथा जैसे सं ार होते ह, वैसी ही अ कालम ृ त होती है और ृ तके अनुसार ही उसको अ ी-बुरी यो नय क ा होती है। अतएव इसम भी मूलम गुण का संग ही हेतु है। ३–इस ोकम तो ही गुण के संगको हेतु बतलाया गया है। अतएव तीन म एक ही बात कही गयी है।

इस कार कृ त पु षके पका वणन करनेके बाद अब जीवा ा और परमा ाक एकता करते ए आ ाके गुणातीत पका वणन करते ह – स



उप ानुम ा च भता भो ा महे रः । परमा े त चा ु ो देहऽे ु षः परः ॥२२॥

इस देहम त यह आ ा वा वम परमा ा ही है। वही सा ी होनेसे उप ा और यथाथ स त देनेवाला होनेसे अनुम ा, सबका धारण-पोषण करनेवाला होनेसे भता, जीव पसे भो ा, ा आ दका भी ामी होनेसे महे र और शु स दान घन होनेसे परमा ा – ऐसा कहा गया है॥२२॥ –

इस देहम

त यह आ ा वा वम परमा ा ही है, इस कथनका



अ भ ाय है? उ र – इस कथनसे े के गुणातीत पका नदश कया गया है। अ भ ाय यह है क कृ तज नत शरीर क उपा धसे जो चेतन आ ा अ ानके कारण जीवभावको ा -सा तीत होता है वह े वा वम इस कृ तसे सवथा अतीत परमा ा ही है; क उस पर परमा ाम और े म व ुत: कसी कारका भेद नह है, के वल शरीर प उपा धसे ही भेदक ती त हो रही है। – वह आ ा ही उप ा, अनुम ा, भता, भो ा, महे र और परमा ा भी कहा गया है – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इस कथनसे इस बातका तपादन कया गया है क भ - भ न म से एक ही पर परमा ा भ - भ नाम से पुकारा जाता है। व ु से म कसी कारका भेद नह है। अ भ ाय यह है क स दान घन पर ही अ यामी पसे सबके शुभाशुभ

कम का नरी ण करनेवाला है, इस लये उसे 'उप ा' कहते ह। वही अ यामी पसे स त चाहनेवालेको उ चत अनुम त देता हे, इस लये उसे 'अनुम ा' कहते ह। वही व ु पसे सम जगतका र ण और पालन करता है, इस लये उसे 'भता' कहते ह। वही देवता के पम सम य क ह वको और सम ा णय के पम सम भोग को भोगता है, इस लये उसे 'भो ा' कहते ह; वही सम लोकपाल और ा द ई र का भी नयमन करनेवाला महान् ई र है, इस लये उसे 'महे र' कहते ह और व ुत: वह सदा ही सब गुण से सवथा अतीत है इस लये उसे 'परमा ा' कहते ह। इस कार वह एक ही पर 'परमा ा' भ - भ न म से भ भ नाम ारा पुकारा जाता है, व ुत: उसम कसी कारका भेद नह है।

कार गुण के स हत कृ तके और पु के अब उनको यथाथ जाननेका फल बतलाते ह – स

– इस

पका वणन करनेके बाद

य एवं वे पु षं कृ त च गुणैः सह । सवथा वतमानोऽ प न स भूयोऽ भजायते ॥२३॥

इस कार पु षको और गुण के स हत कृ तको जो मनु सब कारसे कत कम करता आ भी फर नह ज ता॥२३॥ – पूव

त से जानता है, वह

कारसे पु षको और गुण के स हत कृ तको त से जानना ा है? उ र – इस अ ायम जस कार पु षके प और भावका वणन कया गया है, उसके अनुसार उसे भलीभाँ त समझ लेना अथात् जतने भी पृथक् -पृथक् े क ती त होती है – सब उस एक पर परमा ाके ही अ भ प ह; कृ तके संगसे उनम भ तासी तीत होती है, व ुत: कोई भेद नह है और वह परमा ा न , शु , बु , मु और अ वनाशी तथा कृ तसे सवथा अतीत है – इस बातको संशयर हत यथाथ समझ लेना एवं एक भावसे उस स दान घनम न त हो जाना ही 'पु षको त से जानना' है। तीन गुण कृ तसे उ ह, यह सम व कृ तका ही पसारा है और वह नाशवान्, जड, णभंगुर और अ न है – इस रह को समझ लेना ही 'गुण के स हत कृ तको त से जानना' है। – 'सवथा वतमान: ' के साथ 'अ प ' पदका योग करके ा भाव दखलाया है?

उ र – यहाँ 'सवथा वतमान: ' के साथ 'अ प ' पदका योग करके यह भाव दखलाया है क जो उपयु कारसे पु षको और गुण के स हत कृ तको जानता है – वह ा ण, य, वै , शू – कसी भी वणम एवं चया द कसी भी आ मम रहता आ तथा उन-उन वणा म के लये शा म वधान कये ए सम कम को यथायो करता आ भी वा वम कु छ भी नह करता, इस लये पुनज को नह ा होता। – यहाँ 'सवथा वतमान: ' के साथ 'अ प ' पदके योगसे य द यह भाव मान लया जाय क वह न ष कम करता आ भी पुनज को नह ा होता तो ा हा न है? उ र – आ त को जाननेवाले ानीम काम- ोधा द दोष का सवथा अभाव हो जानेके कारण (५।२६) उसके ारा न ष कमका बनना स व नह है। इसी लये उसके आचरण संसारम माण प माने जाते है (३।२१)। अतएव यहाँ 'सवथा वतमान: ' के साथ 'अ प ' पदके योगका ऐसा अथ मानना उ चत नह है, क पाप म मनु क वृ कामोधा द अवगुण के कारण ही होती है; अजुनके पूछनेपर भगवान्ने तीसरे अ ायके सतीसव ोकम इस बातको पसे कह भी दया है। – इस कार कृ त और पु षके त को जाननेवाला पुनज को नह ा होता? उ र – कृ त और पु षके त को जान लेनेके साथ ही पु षका कृ तसे स टूट जाता है; क कृ त और पु षका संयोग वत्, अवा वक और के वल अ ानज नत माना गया है। जबतक कृ त और पु षका पूण ान नह होता तभीतक पु षका कृ तसे और उसके गुण से स रहता है और तभीतक उसका बार-बार नाना यो नय म ज होता है (१३। २१)। अतएव इनका त जान लेनेके बाद पनज नह होता। इस कार गुण के स हत कृ त और पु षके ानका मह सुनकर यह इ ा हो सकती है क ऐसा ान कै से होता ह। इस लये अब दो ोक ारा भ - भ अ धका रय के लये त ानके भ - भ साधन का तपादन करते ह – स



ानेना न प के चदा ानमा ना । अ े साङ् ेन योगेन कमयोगेन चापरे ॥२४॥

उस परमा ाको कतने ही मनु तो शु ई सू बु से ानके ारा दयम देखते ह; अ कतने ही ानयोगके ारा और दस ू रे कतने ही कमयोगके ारा देखते ह अथात् ा करते ह॥२४॥

यहाँ ' ान' श कसका वाचक है और उसके ारा आ ासे आ ाम आ ाको देखना ा है? उ र – छठे अ ायके ारह बारह और तेरहव ोकम बतलायी ई व धके अनुसार शु और एका ानम उपयु आसनपर न ल भावसे बैठकर, इ य को वषय से हटाकर, मनको वशम करके तथा एक परमा ाके सवा मा को भूलकर नर र परमा ाका च न करना ान है। इस कार ान करते रहनेसे बु शु हो जाती है और उस वशु सू बु से जो दयम स दान घन पर परमा ाका सा ा ार कया जाता है, वही ान ारा आ ासे आ ाम आ ाको देखना है । – यहाँ जस ानके ारा स दान घन क ा बतलायी गयी है – वह ान सगुण परमे रका है या नगुण- का, साकारका है या नराकारका? तथा यह ान भेदभावसे कया जाता है या अभेदभावसे एवं इसके फल प स दान घन क ा भेदभावसे होती है या अभेदभावसे? उ र – यहाँ बाईसव ोकम परमा ा और आ ाके अभेदका तपादन कया गया है एवं उसीके अनुसार पु षके प ान प फलक ा के व भ साधन का वणन है; इस लये यहाँ संगानुसार नगुण- नराकार के अभेद ानका ही वणन है और उसका फल अ भ भावसे ही परमा ाक ा बतलाया गया है, पर ु भेदभावसे सगुण- नराकारका और सगुण-साकारका ान करनेवाले साधक भी य द इस कारका फल चाहते ह तो उनको भी अभेदभावसे नगुण- नराकार स दान घन क ा हो सकती है। – 'साङ् ेन ' और 'योगेन ' – ये दोन पद भ - भ दो साधन के वाचक ह या एक ही साधनके वशे - वशेषण ह? य द एक ही साधनके वाचक ह तो कस साधनके वाचक ह और उसके ारा आ ाको देखना ा है? उ र – यहाँ 'साङ् ेन ' और 'योगेन ' – ये दोन पद सां योगके वाचक ह। इसका वणन दूसरे अ ायके ारहवसे तीसव ोकतक व ारपूवक कया गया है। इसके अ त र इसका वणन पाँचव अ ायके आठव, नव और तेरहव ोक म तथा चौदहव –

अ ायके उ ीसव ोकम एवं और भी जहाँ-जहाँ उसका करण आया है कया गया है। अ भ ाय यह है क स ूण पदाथ मृगतृ ाके जल अथवा क सृ के स श मायामा ह; इस लये कृ तके काय प सम गुण ही गुण म बरत रहे ह – ऐसा समझकर मन, इ य और शरीर ारा होनेवाले सम कम म कतापनके अ भमानसे र हत हो जाना तथा सव ापी स दान घन परमा ाम एक भावसे न त रहते ए एक स दान घन परमा ाके सवा अ कसीक भी भ -स ा न समझना – यह 'सां योग' नामक साधन है और इसके ारा जो आ ा और परमा ाके अभेदका होकर स दान घन का अ भ भावसे ा हो जाना है वही सां योगके ारा आ ाको आ ाम देखना है। सां योगका यह साधन साधनचतु य-स अ धकारीके ारा ही सुगमतासे कया जा सकता है| – साधनचतु य ा है? उ र – इसम ववेक, वैरा , षट्स और मुमु ु – ये चार साधन होते ह। इन चार साधन म पहला साधन है – १. ववेक

सत्-असत् और न -अ न व ुके ववेचनका नाम ववेक है। ववेक इनका भलीभाँ त पृथ रण कर देता है। ववेकका अथ है त का यथाथ अनुभव करना। सब अव ा म और ेक व ुम त ण आ ा और अना ाका व ेषण करते-करते यह ववेक- स ा होती है। ' ववेक' का यथाथ उदय हो जानेपर सत् (और असत् एवं न और अ न व ुका ीर-नीर- ववेकक भाँ त अनुभव होने लगता है। इसके बाद दूसरा साधन है – २. वैरा

ववेकके ार सत्-असत् और न -अ न का पृथ रण हो जानेपर असत् और अ न से सहज ही राग हट जाता है, इसीका नाम 'वैरा ' है। मनम भोग क अ भलाषाएँ बनी ई ह और ऊपरसे संसारसे ेष और घृणा कर रहे ह इसका नाम 'वैरा ' नह है। वैरा म रागका सवथा अभाव है, वैरा यथाथम आ रक अनास का नाम है। जनको स ा वैरा ा होता है, उन पु ष के च म लोकतकके सम भोग म तृ ा और आस का अ अभाव हो जाता है। वे असत् और अ न से हटकर अख पसे सत् और न म लगे

रहते ह। यही वैरा है। जबतक ऐसा वैरा न हो, तबतक समझना चा हये क ववेकम ु ट रह गयी है। ववेकक पूणता होनेपर वैरा अव ावी है। ३. षट् स

इन ववेक और वैरा के फल प साधकको छ: वभाग वाली एक परमस मलती है, वह पूरी न मले तबतक यह समझना चा हये क ववेक और वैरा म कसर ही है। क ववेक और वैरा से भलीभाँ त स हो जानेपर साधकको इस स का ा होना सहज है। इस स का नाम है 'षट्स ' और इसके छ: वभाग ये ह – १ -शम

मनका पूण पसे नगृहीत, न ल और शा हो जाना ही 'शम' है। ववेक और वैरा क ा होनेपर मन ाभा वक ही न ल और शा हो जाता है। २-दम

इ य का पूण पसे नगृहीत और वषय के रसा ादसे र हत हो जाना 'दम' है। ३ -उपर त

वषय से च का उपरत हो जाना ही उपर त है। जब मन और इ य को वषय म रसानुभू त नह होगी, तब ाभा वक ही साधकक उनसे उपर त हो जायगी। यह उपर त भोगमा से – के वल बाहरसे ही नह , भीतरसे – होनी चा हये। भोगसंक क ेरणासे लोकतकके दुलभ भोग क ओर भी कभी वृ ही न जाय, इसका नाम उपर त है। ४- त त ा

को सहन करनेका नाम त त ा है। य प सरदी-गरमी, सुख-दुःख, मान-अपमान आ दका सहन करना भी ' त त ा' ही है; पर ु ववेक, वैरा और शम, दम, उपर तके अन र ा होनेवाली त त ा तो इससे कु छ वल ण ही होनी चा हये। संसारम न तो का नाश ही हो सकता है और न कोई इनसे सवथा बच ही सकता है। कसी भी तरह इनको सह लेना भी उ म ही है; पर ु सव म तो है – -जगत्से ऊपर उठकर, सा ी होकर को देखना। यही वा वक त त ा है। ऐसा होनेपर फर सरदी-गरमी और मानापमान उसको वच लत नह कर सकते।

५-



आ स ाम क भाँ त अख व ासका नाम ही ा है। पहले शा , गु और साधन आ दम ा होती है; उससे आ ा बढ़ती है। पर ु जबतक आ पम पूण ा नह होती, तबतक एकमा न ल, नरंजन, नराकार, नगुण को ल बनाकर उसम बु क त नह हो सकती। ६-समाधान

मन और बु का परमा ाम पूणतया समा हत हो जाना – जैसे अजुनको गु ोणके सामने परी ा देते समय वृ पर रखे ए नकली प ीका के वल गला ही देख पड़ता था, वैसे ही मन और बु को नर र एकमा ल व ु के ही दशन होते रहना – यही समाधान है। ४. मुमु ु

इस कार जब ववेक, वैरा और षट्स क ा हो जाती हे, तब साधक ाभा वक ही अ व ाके ब नसे सवथा मु होना चाहता है और वह सब ओरसे च हटाकर कसी ओर भी न ताककर एकमा परमा ाक ओर ही दौड़ता है। उसका यह अ वेगसे दौड़ना अथात् ती साधन ही उसक परमा ाको पानेक ती तम लालसाका प रचय देता है। यही मुमु ु है। – यहाँ 'कमयोग' श कस साधनका वाचक है और उसके ारा आ ाम आ ाको देखना ा है? उ र – जस साधनका दूसरे अ ायम चालीसव ोकसे उ अ ायक समा पय फलस हत वणन कया गया है उसका वाचक यहाँ 'कमयोग' है। अथात् आस और कमफलका सवथा ाग करके स और अ स म सम रखते ए शा ानुसार न ामभावसे अपने-अपने वण और आ मके अनुसार सब कारके व हत कम का अनु ान करना कमयोग है और इसके ारा जो स दान घन पर परमा ाको अ भ भावसे ा हो जाना है, वही कमयोगके ारा आ ाम आ ाको देखना है। – कमयोगके साधनम साधक अपनेको परमा ासे भ समझता है, इस लये उसको भ भावसे ही क ा होनी चा हये; यहाँ अभेदभावसे क ा कै से बतलायी गयी?

उ र – साधनकालम भेदभाव रहनेपर भी जो साधक फलम अभेद मानता है, उसको अभेदभावसे ही क ा होती है; और यहाँ कन- कन साधन ारा अभेदभावसे का ान हो सकता है, यही बतलानेका संग है। इसी लये यहाँ कमयोगके ारा भी अ भ भावसे पर परमा ाक ा बतलायी गयी है।

अ े ेवमजान ः ु ा े उपासते । तेऽ प चा ततर ेव मृ ुं ु तपरायणाः ॥२५॥

पर ु इनसे दस ू रे अथात् जो म

बु

वाले पु ष है वे इस कार न जानते ए

दस ू र से अथात् त के जाननेवाले पु ष से सुनकर ही तदनुसार उपासना करते ह और वे वणपरायण पु ष भी मृ ु प संसारसागरको नःस ेह तर जाते ह॥२५॥ – यहाँ 'तु ' पदके

योगका ा भाव है? उ र – 'तु ' पद यहाँ इस बातका ोतक है क अब पूव साधक से वल ण दूसरे साधक का वणन कया जाता है। अ भ ाय यह है क जो लोग पूव साधन को भलीभाँ त नह समझ पाते, उनका उ ार कै से हो सकता है? इसका उ र इस ोकम दया गया है। – 'एवम् अजान : ' वशेषणके स हत 'अ े ' पद कनका वाचक है और उनका दूसर से सुनकर उपासना करना ा है? उ र – बु क म ताके कारण जो लोग पूव ानयोग, सां योग और कमयोग – इनमसे कसी भी साधनको भलीभाँ त नह समझ पाते, ऐसे साधक का वाचक यहाँ 'एवम् अजान : ' वशेषणके स हत 'अ े ' पद है। जबालाके पु स काम को जाननेक इ ासे गौतमगो ीय मह ष हा र मु तके पास गये। वहाँ बातचीत होनेपर गु ने चार सौ अ कृ श और दुबल गौएँ अलग करके उनसे कहा – 'हे सौ ! तू इन गौ के पीछे-पीछे जा।' गु क आ ानुसार अ ा, उ ाह और हषके साथ उ वनक ओर ले जाते ए स कामने कहा – 'इनक सं ा एक हजार पूरी करके म लौटेगा।' वे उ तृण और जलक अ धकतावाले नरापद वनम ले गये और पूरी एक हजार होनेपर लौटे। फल यह आ क लौटते समय रा ेम ही उनको ान ा हो गया। (छा ो -उ० ४।४-९) इसी कारके त के जाननेवाले ानी पु ष का आदेश ा करके

अ ा और ेमके साथ जो उसके अनुसार आचरण करना है वही दूसर से सुनकर उपासना करना है। – ' ु तपरायणा: ' वशेषणका ा भाव है? तथा 'अ प ' पदके योगका यहाँ ा भाव है? उ र – जो सुननेके परायण होते ह अथात् जैसा सुनते ह, उसीके अनुसार साधन करनेम ा और ेमके साथ त रतासे लग जाते ह – उनको ' ु तपरायणा: ' कहते ह। 'अ प ' पदका योग करके यहाँ यह भाव दखलाया गया है क जब इस कारके अ बु वाले पु ष दूसर से सुनकर भी उपासना करके मृ ुसे तर जाते ह – इसम कसी कारका स ेह नह है, तब फर जो साधक पूव तीन कारके साधन मसे कसी कारका एक साधन करते ह – उनके तरनेम तो कहना ही ा है। – यहाँ 'मृ ुम् ' पद कसका वाचक है और 'अ त ' उपसगके स हत 'तर ' याके योगका ा भाव है? उ र – यहाँ 'मृ ुम् ' पद बार-बार ज -मृ ु प संसारका वाचक है और 'अ त ' उपसगके स हत 'तर ' याका योग करके यह भाव दखलाया गया है क उपयु कारसे साधन करनेवाले पु ष ज -मृ ु प दुःखमय संसार-समु से पार होकर सदाके लये स दान घन पर परमा ाको ा हो जाते ह; फर उनका पुनज नह होता। अ भ ाय यह है क तेईसव ोकम जो बात 'न स भूयोऽ भजायते ' से और चौबीसवम जो बात 'आ न आ ानं प ' से कही है, वही बात यहाँ 'मृ ुम् अ ततर ' से कही गयी है।

इस कार परमा स ी त ानके भ - भ साधन का तपादन करके अब तीसरे ोकम जो 'या क् ' पदसे े के भावको सुननेके लये कहा था, उसके अनुसार भगवान् दो ोक ारा उस े को उ - वनाशशील बतलाकर उसके भावका वणन करते ए आ ाके यथाथ त को जाननेवालेक शंसा करते ह – स



याव ायते क े े संयोगा

हे अजुन! जतने भी ावर-जंगम ाणी उ संयोगसे ही उ जान॥२६॥

ं ावरज मम् । भरतषभ ॥२६॥

होते ह, उन सबको तू े और े के

– 'यावत् ',  ' क

त् '

और '

ावरज मम् ' – इन तीन वशेषण का 'स म् ' पद कसका वाचक है?



अ भ ाय है तथा इन तीन वशेषण से यु उ र – 'यावत् ' और ' क त् ' – ये दोन पद चराचर जीव क स ूणताके बोधक ह। देव, मनु , पशु प ी आ द चलने- फरनेवाले ा णय को 'जंगम' कहते ह और वृ , लता, पहाड़ आ द र रहनेवाले ा णय को ' ावर' कहते ह। अतएव इन तीन वशेषण से यु 'स म्' पद सम चराचर ा णसमुदायका वाचक है। – ' े ' और ' े ' श यहाँ कसके वाचक ह और इन दोन का संयोग तथा उससे सम ा णसमुदायका उ होना ा है? उ र – इस अ ायके पाँचव ोकम जन चौबीस त के समुदायको े का प बतलाया गया है, सातव अ ायके चौथे-पाँचव ोक म जसको 'अपरा कृ त' कहा गया है – वही ' े ' है और उसको जो जाननेवाला है, सातव अ ायके पाँचव ोकम जसको 'परा कृ त' कहा गया है – वह चेतन त ही ' े ' है। उसका यानी ' कृ त ' पु षका जो कृ तसे बने ए भ - भ सू और ूल शरीर के साथ स होना है, वही े तथा े का संयोग है और इसके होते ही जो भ - भ यो नय ारा भ - भ आकृ तय म ा णय का कट होना है – वही उनका उ होना है।

समं सवषु भूतेषु त ं परमे रम् । वन वन ं यः प त स प त ॥२७॥

जो पु ष न

होते ए सब चराचर भूत म परमे रको नाशर हत और समभावसे

त देखता है वही यथाथ देखता है॥२७॥

वशेषण के स हत 'भूतेषु ' पद कनका वाचक है और उनके साथ इन दोन वशेषण का योग करके ा भाव दखलाया गया है? उ र – बार-बार ज लेने और मरनेवाले जतने भी ाणी ह, भ - भ सू और ूल शरीर के संयोग- वयोगसे जनका ज ना और मरना माना जाता है, उन सबका वाचक यहाँ ' वन ु ' और 'सवषु ' इन दोन वशेषण के स हत 'भूतेषु ' पद है। सम ा णय का हण करनेके लये उसके साथ 'सवषु ' और शरीर के स से उनको वनाशशील बतलानेके लये ' वन तसु ' वशेषण दया गया है। – ' वन

ु ' और 'सवषु ' – इन दोन

यहाँ यह ानम रखना चा हये क वनाश होना शरीरका धम है आ ाका नह । आ त न और अ वनाशी है तथा वह शरीर के भेदसे भ - भ तीत होनेवाले सम ा णसमुदायम व ुत: एक ही है। यही बात इस ोकम दखलायी गयी है । – यहाँ 'परमे रम् ' पद कसका वाचक है तथा उपयु सम भूत म उसे नाशर हत और समभावसे त देखना ा है? उ र – यहाँ 'परमे रम् ' पद कृ तसे सवथा अतीत उस न वकार चेतनत का वाचक है, जसका वणन ' े ' के साथ एकता करते ए इसी अ ायके बाईसव ोकम उप ा, अनुम ा, भता, भो ा, महे र और परमा ाके नामसे कया गया है। यह परम पु ष य प व ुत: शु स दान घन है और कृ तसे सवथा अतीत है, तो भी कृ तके संगसे इसको े और कृ तज गुण का भो ा कहा जाता है। अत: सम ा णय के जतने भी शरीर ह, जनके स से वे वनाशशील कहे जाते ह, उन सम शरीर म उनके वा वक पभूत एक ही अ वनाशी न वकार चेतनत को जो वनाशशील बादल म आकाशक भाँ त समभावसे त और न देखना ह – वही उस 'परमे रको सम ा णय म वनाशर हत और समभावसे त देखना' है। – यहाँ 'जो देखता है वही यथाथ देखता है' इस वा से ा भाव दखलाया गया है? उ र – इस ोकम आ त को ज और मृ ु आ द सम वकार से र हत – न वकार एवं सम बतलाया गया है। अतएव इस वा से यह भाव दखलाया गया है क जो इस न चेतन एक आ त को इस कार न वकार, अ वनाशी और असंग पसे सव समभावसे त देखता ह – वही यथाथ देखता है। जो इसे शरीर के संगसे ज -मरणशील और सुखी-दुःखी समझते ह, उनका देखना यथाथ देखना नह है; अतएव वे देखते हए भी नह देखते। उपयु ोकम यह कहा गया है क उस परमे रको जो सब भूत म नाशर हत और समभावसे त देखता है, वही ठीक देखता है; इस कथनक साथकता दखलाते ए उसका फल परमग तक ा बतलाते ह – स



समं प

सव समव तमी रम् । ं ो ं

न हन ा ना ानं ततो या त परां ग तम् ॥२८॥

क जो पु ष सबम समभावसे त परमे रको समान देखता आ अपने ारा अपनेको न नह करता, इससे वह परम ग तको ा होता है॥२८॥ – यहाँ ' ह ' पद

कस अथम है और इसके योगका ा भाव है? उ र – यहाँ ' ह ' पद हेतु – अथम है। इसका योग करके यह भाव दखलाया गया है क समभावसे देखनेवाला अपना नाश नह करता और परम ग तको ा हो जाता है। इस लये उसका देखना ही यथाथ देखना है। – सव समभावसे त परमे रको सम देखना ा है और इस कार देखनेवाला अपने ारा अपनेको न नह करता, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – एक ही स दान घन परमा ा सव समभावसे त है, अ ानके कारण ही भ - भ शरीर म उसक भ ता तीत होती है – व ुत: उसम कसी कारका भेद नह है – इस त को भलीभाँ त समझकर कर लेना ही 'सव समभावसे त परमे रको सम देखना' है। जो इस त को नह जानते, उनका देखना सम देखना नह है। क उनक सबम वषमबु होती है; वे कसीको अपना य, हतैषी और कसीको अ य तथा अ हत करनेवाला समझते ह एवं अपने-आपको दूसर से भ , एकदेशीय मानते ह। अतएव वे शरीर के ज और मरणको अपना ज और मरण माननेके कारण बार-बार नाना यो नय म ज लेकर मरते रहते ह, यही उनका अपने ारा अपनेको न करना है; परंतु जो पु ष उपयु कारसे एक ही परमे रको समभावसे त देखता है, वह न तो अपनेको उस परमे रसे भ समझता है ओर न इन शरीर से अपना कोई स ही मानता है। इस लये वह शरीर के वनाशसे अपना वनाश नह देखता और इसी लये वह अपने ारा अपनेक न नह करता। अ भ ाय यह है क उसक त सव , अ वनाशी, स दान घन पर परमा ाम अ भ भावसे हो जाती है; अतएव वह सदाके लये ज -मरणसे छू ट जाता है। – 'तत: ' पदका योग कस अथम आ है और इसका योग करके परमग तको ा होनेक बात कहनेका ा भाव है? उ र – 'तत: ' पद भी हेतुबोधक है । इसका योग करके परमग तक ा बतलानेका यह भाव है क सव समभावसे त स दान घन म अ भ भावसे त

रहनेवाला वह पु ष अपने ारा अपना वनाश नह करता, इस कारण वह सदाके लये ज मृ ुसे छू टकर परमग तको ा हो जाता है। जो परम पदके नामसे कहा है, जसको ा करके पुन: लौटना नह पड़ता और जो सम साधन का अ म फल है – उसको ा होना ही यहाँ 'परमग तको ा होना' है।

इस कार न व ानान घन आ त को सव समभावसे देखनेका मह और फल बतलाकर अब अगले ोकम उसे अकता देखनेवालेक म हमा कहते ह – स



कृ वै च कमा ण यमाणा न सवशः । यः प त तथा ानमकतारं स प त ॥२९॥

और जो पु ष स ूण कम को सब कारसे कृ तके ारा ही कये जाते ए देखता है और आ ाको अकता देखता है, वही यथाथ देखता है॥२९॥

तीसरे अ ायके स ाईसव, अ ाईसव और चौदहव अ ायके उ ीसव ोक म सम कम को गुण ारा कये जाते ए बतलाया गया है तथा पाँचव अ ायके आठव, नव ोक म सब इ य का इ य के वषय म बरतना कहा गया है; और यहाँ सब कम को कृ त ारा कये जाते ए देखनेको कहते ह। इस कार तीन तरहके वणनका ा अ भ ाय है? उ र – स , रज और तम – ये तीन गुण कृ तके ही काय ह; तथा सम इ याँ और मन, बु आ द एवं इ य के वषय – ये सब भी गुण के ही व ार ह। अतएव इ य का इ य के वषय म बरतना, गुण का गुण म बरतना और गुण ारा सम कम को कये जाते ए बतलाना भी सब कम को कृ त ारा ही कये जाते ए बतलाना है। इस कार सब जगह व ुत: एक ही बात कही गयी है; इसम कसी कारका भेद नह है। सभी जगह के कथनका अ भ ाय आ ाम कतापनका अभाव दखलाना है। – आ ाको अकता देखना ा है और जो ऐसा देखता है, वही यथाथ देखता है – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – आ ा न , शु , बु , मु और सब कारके वकार से र हत है; कृ तसे उसका कु छ भी स नह है। अतएव वह न कसी भी कमका कता है और न कम के फलका भो ा ही है – इस बातका अपरो भावसे अनुभव कर लेना 'आ ाको अकता समझना' है। –

तथा जो ऐसा देखता है, वही यथाथ देखता है – इस कथनसे उसक म हमा कट क गयी है। अ भ ाय यह है क जो आ ाको मन, बु और शरीरके स से सम कम का कता-भो ा समझते ह उनका देखना मयु होनेसे गलत है ।

इस कार आ ाको अकता समझनेक म हमा बतलाकर अब उसके एक दशनका फल बतलाते ह – स



यदा भूतपृथ ावमेक मनुप त । तत एव च व ारं स ते तदा ॥३०॥

जस ण यह पु ष भूत के पृथक्-पृथक् भावको एक परमा ाम ही त तथा उस परमा ासे ही स ूण भूत का व ार देखता है, उसी ण वह स दान घन को ा हो जाता है॥३०॥ – 'भूतपृथ ावम् ' पद ार देखना ा है?

कसका वाचक है और उसे एकम

त और उसी एकसे

सबका व उ र – जन चराचर सम ा णय क उ े और े के संयोगसे बतलायी गयी है (१३।२६) तथा जन सम भूत म परमे रको समभावसे देखनेके लये कहा गया है (१३।२७), उन सम ा णय के नाना का वाचक यहाँ 'भूतपृथ ावम्' पद है। तथा जैसे से जगा आ मनु कालम दखलायी देनेवाले सम ा णय के नाना को अपनेआपम ही देखता है और यह भी समझता है क उन सबका व ार मुझसे ही आ था; व ुत: क सृ म मुझसे भ कु छ भी नह था, एक म ही अपने-आपको अनेक पम देख रहा था –   इसी कार जो सम ा णय को के वल एक परमा ाम ही त और उसीसे सबका व ार देखता है, वही ठीक देखता है और इस कार देखना ही सबको एकम त और उसी एकसे सबका व ार देखना है। – यहाँ 'यदा ' और 'तदा ' पदके योगका ा भाव है तथा को ा होना ा है? उ र – 'यदा ' और 'तदा ' 'पद काल वाचक अ य ह। इनका योग करके यह भाव दखलाया है क मनु को जस ण ऐसा ान हो जाता है, उसी ण वह को ा हो जाता है यानी ही हो जाता है। इसम जरा भी वल नह होता। इस कार जो

स दान घन के साथ अ भ ताको ा हो जाना ह – उसीको परम ग तक ा मो क ा , आ क सुखक ा और परम शा क ा भी कहते ह।

,

कार आ को सब ा णय म समभावसे त, न वकार और अकता बतलाया जानेपर यह शंका होती है क सम शरीर म रहता आ भी अ ा उनके दोष से न ल और अकता कै से रह सकता है; इस शंकाका नवारण करनेके लये अब भगवान् – तीसरे ोकम जो 'य भाव ' पदसे े का भाव सुननेका संकेत कया गया था, उसके अनुसार – तीन ोक ारा आ के भावका वणन कतेने ह – स

– इस

अना द ा गुण ा रमा ायम यः । शरीर ोऽ प कौ ेय न करो त न ल ते ॥३१॥

हे अजुन! अना द होनेसे और नगुण होनेसे यह अ वनाशी परमा ा शरीरम होनेपर भी वा वम न तो कुछ करता है और न ल ही होता है॥३१॥



और ' नगुण ात् ' – इन दोन पद का ा अथ है और इन दोन का योग करके यहाँ ा भाव दखलाया गया है? उ र – जसका कोई आ द यानी कारण न हो एवं जसक कसी भी कालम नयी उ न ई हो और जो सदासे ही हो – उसे 'अना द' कहते ह। कृ त और उसके गुण से जो सवथा अतीत हो, गुण से और गुण के कायसे जसका कसी कालम और कसी भी अव ाम वा वक स न हो – उसे ' नगुण' कहते ह। अतएव यहाँ 'अना द ात् ' और ' नगुण ात् ' – इन दोन पद का योग करके यह दखलाया गया है क जसका करण चल रहा है, वह आ ा 'अना द' और ' नगुण' है; इस लये वह अकता, न ल और अ य है – ज , मृ ु आ द छ: वकार से सवथा अतीत है। – यहाँ 'परमा ा'के साथ 'अयम् ' वशेषण देनेका ा अ भ ाय है? उ र – 'अयम् ' पद जसका करण पहलेसे चला आ रहा है उसका नदश करता है। अतएव यहाँ 'परमा ा' श के साथ 'अयम् ' वशेषण देकर यह भाव दखलाया गया है क स ाईसव ोकम जसको 'परमे र', अ ाईसवम 'ई र', उनतीसवम 'आ ा' और तीसवम जसको ' ' कहा गया है – उसीको यहाँ 'परमा ा' बतलाया गया है। अथात् इन सबक अ भ ता – एकता दखलानेके लये यहाँ 'अयम् ' पदका योग कया गया है। – 'अना द ात् '

स ाईसव ोकम परमे र, अ ाईसवम ई र, उनतीसवम आ ा, तीसवम और इसम परमा ा – इस कार एक ही त के बतलानेके लये इन ोक म भ - भ नाम का योग कया? उ र – तीसरे ोकम भगवान्ने अजुनको ' े ' का प और भाव बतलानेका संकेत कया था। उसके अनुसार पर परमा ाके साथ े क अ भ ता दखलाकर उसके वा वक पका न पण करनेके लये यहाँ परमा ाके वाचक भ - भ नाम का सहेतुक योग कया गया है । – शरीरम त होनेपर भी आ ा कता नह होता? और उससे ल कै से नह होता? उ र – वा वम कृ तके गुण से और उनके ही व ार प बु , मन, इ य और शरीरसे आ ाका कु छ भी स नह है; वह गुण से सवथा अतीत है। जैसे आकाश बादल म त होनेपर भी उनका कता नह बनता और उनसे ल नह होता वैसे ही आ ा कम का कता नह बनता और शरीर से ल भी नह होता। इस बातको भगवान् यं अगले दो ोक म ा ारा समझाते ह। –



– शरीर

त होनेपर भी आ ा

नह ल होता? इसपर कहते हँ –

यथा सवगतं सौ ादाकाशं नोप ल ते । सव ाव तो देहे तथा ा नोप ल ते ॥३२॥

जस कार सव ा आकाश सू होनेके कारण ल नह होता, वैसे ही देहम सव त आ ा नगुण होनेके कारण देहके गुण से ल नह होता॥३२॥ – इस

ोकम आकाशका ा देकर ा बात समझायी गयी है? उ र – आकाशके ा से आ ाम नलपता स क गयी है। अ भ ाय यह है क जैसे आकाश-वायु, अ , जल और पृ ीम सब जगह समभावसे ा होते ए भी उनके गुण-दोष से कसी तरह भी ल नह होता – वैसे ही आ ा भी इस शरीरम सब जगह ा होते ए भी अ सू और गुण से सवथा अतीत होनेके कारण बु , मन, इ य और शरीरके गुण-दोष से जरा भी लपायमान नह होता।



– शरीरम

त होनेपर भी आ ा कता

नह है? इसपर कहते ह –

यथा काशय के ः कृ ं लोक ममं र वः । े ं े ी तथा कृ ं काशय त भारत ॥३३॥

हे अजुन! जस कार एक ही सूय इस स ूण ब ा को का शत करता है, उसी कार एक ही आ ा स ूण े को का शत करता है॥३३॥

इस ोकम र व (सूय) - का ा देकर ा बात समझायी गयी है और 'र व: ' पदके साथ 'एक: ' वशेषण देनेका ा अ भ ाय है? उ र – यहाँ र व (सूय) - का ा देकर आ ाम अकतापनक और 'र व: ' पदके साथ 'एक ' वशेषण देकर आ ाके अ ैतभावक स क गयी है। अ भ ाय यह है क जस कार एक ही सूय स ूण ा को का शत करता है, उसी कार एक ही आ ा सम े को – यानी पाँचव और छठे ोक म वकारस हत े के नामसे जसके पको वणन कया गया है, उस सम जडवगको का शत करता है, सबको स ा- ू त देता है। तथा भ - भ अ ःकरण के स से भ - भ शरीर म उसका भ - भ ाकट्य होता-सा देखा जाता है; ऐसा होनेपर भी वह आ ा सूयक भाँ त न तो उनके कम को करनेवाला और न करवानेवाला ही होता है, तथा न ैतभाव या वैष ा द दोष से ही यु होता है। वह अ वनाशी आ ा ेक अव ाम सदा-सवदा शु , व ान प, अकता, न वकार, सम और नरंजन ही रहता है। –

तीसरे ोकम जन छ: बात को कहनेका भगवान्ने संकेत कया था, उनका वणन करके अब इस अ ायम व णत सम उपदेशको भलीभाँ त समझनेका फल पर परमा ाक ा बतलाते ए अ ायका उपसंहार करते ह – स



े े योरेवम रं ानच षु ा । भूत कृ तमो ं च ये वदुया ते परम् ॥३४॥

पु ष ३४॥

इस कार े और े के भेदको तथा कायस हत कृ तसे मु होनेको जो ान-ने ारा त से जानते ह, वे महा ाजन परम परमा ाको ा होते ह॥

े के

– ' ानच ष ु ा ' भेदको जानना ा है?

पदका

ा अ भ ाय है तथा ानच कु े ारा े और

उ र – दूसरे ोकम भगवान्ने जसको अपने मतसे ' ान' कहा है और पाँचव अ ायके सोलहव ोकम जसको अ ानका नाश करनेम कारण बतलाया है, जसक ा अमा न ा द साधन से होती है, यहाँ ' ानच षु ा' पद उसी 'त ान' का वाचक है। उस ानके ारा जो भलीभाँ त त से यह समझ लेना है क महाभूता द चौबीस त के समुदाय प सम शरीरका नाम ' े ' है; वह जाननेम आनेवाला प रवतनशील, वनाशी, वकारी, जड, प रणामी और अ न है; तथा ' े ' उसका ाता (जाननेवाला), चेतन, न वकार, अकता, न , अ वनाशी, असंग, शु , ान प और एक है। इस कार दोन म वल णता होनेके कारण े े से सवथा भ है। जो उसक े के साथ एकता तीत होती है वह अ ानमूलक है। वा वम े का उससे कु छ भी स नह है। यही ानच कु े ारा ' े ' और ' े ' के भेदको जानना है। – 'भूत कृ तमो म् ' का ा अ भ ाय है और उसको ानच क ु े ारा जानना ा है? उ र – यहाँ 'भूत' श कृ तके काय प सम वगका और ' कृ त' उसके कारणका वाचक है। अत: कायस हत कृ तसे सवथा मु हो जाना ही अ कृ तमो है। तथा उपयु कारसे े और े के भेदको जाननेके साथ-साथ जो े का कृ तसे अलग होकर अपने वा वक परमा पम अ भ भावसे त त हो जाना है यही कायस हत कृ तसे मु हो जानेको जानना है। अ भ ाय यह है क जैसे म मनु को कसी न म से अपनी जा त् अव ाक ृ त हो जानेसे यह मालूम हो जाता है क यह है, अत: अपने असली शरीरम जग जाना ही इसके दुःख से छू टनेका उपाय है। इस भावका उदय होते ही वह जग उठता है वैसे ही ानयोगीका े और े क वल णताको समझकर साथ-ही-साथ जो यह समझ लेना है क अ ानवश े को स ी व ु समझनेके कारण ही इसके साथ मेरा स -सा हो रहा था। अत: वा वक स दान घन परमा पम त हो जाना ही इससे मु ह होना है यही उसका कायस हत कृ तसे मु होनेको जानना है।

– जो इनको जानते ह वे परमा

ाको ा हो जाते ह इसका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क उपयु ह त ान होनेके साथ अ ानस हत सम का अभाव हो जाता है और त ाल ही उनको पर परमा ाक ा हो जाती है।

ॐ त द त ीम गव ीतासूप नष ु व ायां योगशा े ीकृ ाजुनसंवादे े े वभागयोगो नाम योदशोऽ ायः ॥ १३॥

|| ॐ

ी परमा ने नमः ||

चतुदशोऽ ायः इस अ ायम स , रज और तम – इन तीन गुण के पका, उनके काय कारण और श का; तथा वे कस कार कस अव ाम जीवा ाको कै से ब नम डालते ह और कस कार इनसे छू टकर मनु परमपदको ा हो सकता है; तथा इन तीन गुणासे अतीत होकर परमा ाको ा मनु के ा ल ण ह? – इ गुण-स ी बात का ववेचन कया गया है। पहले साधनकालम रज और तमका ाग करके स गुणको हण करना और अ म सभी गुण से सवथा स ाग देना चा हये, इसको समझानेके लये उन तीन गुण का वभागपूवक वणन कया गया है। इस लये इस अ ायका नाम 'गुण य वभागयोग' रखा गया है। अ ायका सं ेप इस अ ायके पहले और दूसरे ोक म आगे कहे जानेवाले ानक म हमा और उसके कहनेक त ा क गयी है। तीसरे और चौथेम कृ त और पु षके स से सब ा णय क उ का कार बतलाकर पाँचवम स रज और तम – इन तीन गुण को जीवा ाके ब नम हेतु बतलाया है। छठे से आठवतक स आ द तीन गुण का प और उनके ारा जीवा ाके बाँधे जानेका कार मसे बतलाया गया है। नवम जीवा ाको कौन गुण कसम लगाता ह – इसका संकेत करके तथा दसवम दूसरे दो गुण को दबाकर कसी एक गुणके बढ़नेका कार बतलाते ए ारहवसे तैरहवतक बढ़े ए स , रज और तम – इन तीन गुण के मसे ल ण बतलाये गये ह। चौदहव और पं हवम तीन गुण मसे ेक गुणक वृ के समय मरनेवालेक ग तका न पण करके सोलहवम सा क, राजस और तामस – तीन कारके कम का उनके अनु प फल बतलाया गया है। स हवम ानक उ म स गुणको, लोभक उ म रजोगुणको तथा माद, मोह और अ ानक उ म तमोगुणको हेतु बतलाकर अठारहवम तीन गुण मसे ेकम त जीवा ाक उन गुण के अनु प ही ग त बतलायी गयी है। उ ीसव और बीसवम सम कम को गुण के ारा कये जाते ए और आ को सब गुण से अतीत एवं अकता देखनेका तथा तीन गुण से अतीत अ ायका नाम

होनेका फल बतलाया गया है। इ सवम अजुनने गुणातीत पु षके ल ण, आचरण और गुणातीत होनेके लये उपाय पूछा है; इसके उ रम बाईसवसे पचीसवतक भगवान्ने गुणातीतके ल ण और आचरण का एवं छ ीसम गुण से अतीत होनेके उपायका और उसके फलका वणन कया है। तदन र अ म स ाईसव शलोकम ा, अमृत, अ य आ द सब भगवान्के ही प होनेसे अपनेको (भगवान्को) इन सबक त ा बतलाकर अ ायका उपसंहार कया है। स – तेरहव अ ायम ' े ' और ' े ' के ल ण का नदश करके उन दोन के ानको ही ान बतलाया और उसके अनुसार े के प, भाव, वकार और उसके त क उ के म आ द तथा े के प और उसके भावका वणन कया। वहाँ उ ीसव ोकसे कृ त-पु षके नामसे करण आर करके गुण को कृ तज बतलाया और इ सव ोकम यह बात भी कही क पु षके बार- बार अ ा-बुरी यो नय म ज होनेम गुण का संग ही हेतु है। गुण के भ - भ प ा ह, ये जीवा ाको कै से शरीरम बाँधते ह, कस गुणके संगसे कस यो नम ज होता है, गुण से छू टनेके उपाय ा ह, गुण से छू टे ए पु ष के ल ण तथा आचरण कै से होते ह – ये सब बात जाननेक ाभा वक ही इ ा होती है; अतएव इसी वषयका ीकरण करनेके लये इस चौदहव अ ायका आर कया गया है। तेरहव अ ायम व णत ानको ही करके चौदहव अ ायम व ारपूवक समझाना है, इस लये पहले भगवान् दो ोक म उस ानका मह बतलाकर उसके पुन: वणनक त ा करते ह –

ीभगवानुवाच । परं भूयः व ा म ानानां ानमु मम् । य ा ा मुनयः सव परां स मतो गताः ॥१॥

ीभगवान् बोले – ान म भी अ त उ म उस परम ानको म फर क ँ गा, जसको जानकर सब मु नजन इस संसारसे मु होकर परम स को ा हो गये ह॥१॥

यहाँ ' ानानाम् ' पद कन ान का वाचक है और उनमसे यहाँ भगवान् कस ानके वणनक त ा करते ह; तथा उस ानको अ ान क अपे ा उ म और पर बतलाते ह? –

उ र – ु त- ृ त-पुराणा दम व भ वषय को समझानेके लये जो नाना कारके ब त-से उपदेश ह, उन सभीका वाचक यहाँ ' ानानाम्' पद है। उनमसे कृ त और पु षके पका ववेचन करके पु षके वा वक पको करा देनेवाला जो त ान है, यहाँ भगवान् उसी ानका वणन करनेक त ा करते ह। वह ान परमा ाके पको करानेवाला और जीवा ाको कृ तके ब नसे छु ड़ाकर सदाके लये मु कर देनेवाला है, इस लये उस ानको अ ा ान क अपे ा उ म और पर (अ उ ृ ) बतलाया गया है। – यहाँ 'भूयः ' पदके योगका ा भाव है? उ र – 'भूय:' पदका योग करके यह भाव दखलाया गया है क इस ानका न पण तो पहले भी कया जा चुका है, परंतु अ ही गहन और दु व ेय होनेके कारण समझम आना क ठन है; अत: भलीभाँ त समझानेके लये कारा रसे पुन: उसीका वणन कया जाता है। – यहाँ 'मुनयः ' पद कनका वाचक है और वे लोग इस ानको समझकर जसको ा हो चुके ह, वह 'परम स ' ा है? उ र – यहाँ 'मुनयः ' पद ानयोगके साधन ारा परमग तको ा ा नय का वाचक है; तथा जसको 'पर क ा ' कहते ह – जसका वणन 'परम शा ', 'आ क सुख' और 'अपुनरावृ त' आ द अनेक नाम से कया गया है, जहाँ जाकर फर कोई वापस नह लौटता – यहाँ मु नजन ारा ा क जानेवाली 'परम स ' भी वही है। – 'इत:' पद कसका वाचक है और इसके योगका ा अ भ ाय है? उ र – 'इत:' पद 'संसार' का वाचक है। इसका योग करके यह दखलाया गया है क उन मु नय का इस महान् दुःखमय मृ ु प संसारसे सदाके लये स छू ट गया है।

इदं ानमुपा मम साध मागताः । सगऽ प नोपजाय े लये न थ च ॥२॥

इस ानको आ य करके अथात् धारण करके मेरे पको ा ए पु ष सृ के आ दम पुन: उ नह होते और लयकालम भी ाकुल नह होते॥२॥

आ य लेना

– ' ानम् ' के ा है?

साथ 'इदम् ' वशेषणके योगका ा भाव है? और उस ानका

उ र – जसका वणन तेरहव अ ायम कया जा चुका है और इस चौदहव अ ायम भी कया जाता है, उसी ानक यह म हमा है – इसी बातको करनेके लये ' ानम्' पदके साथ 'इदम्' वशेषणका योग कया गया है। तथा इस करणम व णत ानके अनुसार कृ त और पु षके पको समझकर गुण के स हत कृ तसे सवथा अतीत हो जाना और नगुणनराकार स दान परमा ाके पम अ भ भावसे त रहना ही इस ानका आ य लेना है। – यहाँ भगवान्के साध को ा होना ा है? उ र – पछले ोकम 'परां स गता: ' से जो बात कही गयी है, इस ोकम 'मम साध मागता: ' से भी वही कही गयी है। अ भ ाय यह है क भगवान्के नगुण पको अभेदभावसे ा हो जाना ही भगवान्के साध को ा होना है। – भगव ा पु ष सृ के आ दम पुन: उ नह होते ओर लयकालम भी ाकु ल नह होते – इसका ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान्ने यह दखलाया है क इन अ ाय म बतलाये ए ानका आ य लेकर तदनुसार साधन करके जो पु ष पर परमा ाके पको अभेदभावसे ा हो चुके ह, वे मु पु ष न तो महासगके आ दम पुन: उ होते ह और न लयकालम पी ड़त ही होते ह। व ुत: सृ के सग और लयसे उनका कोई स ही नह रह जाता। क अ ी-बुरी यो नय म ज होनेका धान कारण है गुण का संग और मु पु ष गुण से सवथा अतीत होते ह; इस लये उनका पुनरागमन नह हो सकता। और जब उ नह है, तब वनाशका तो कोई ही नह उठता। इस कार ानको फरसे कहनेक त ा करके और उसके मह का न पण करके अब भगवान् उस ानका वणन अर करते ए दो ोक म कृ त और पु षसे सम जगत्क उ बतलाते ह – स



मम यो नमहद् त गभ दधा हम् । स वः सवभूतानां ततो भव त भारत ॥३॥

हे अजुन! मेरी महत्प मूल कृ त समपूण भूत क यो न है अथात् गभाधानका ान है और म उस यो नम चेतन-समुदाय प गभको ापन करता ँ । उस

जड-चेतनके संयोगसे सब भूत क उ

होती है॥३॥

–  'महत् ' वशेषणके स हत ' ' कहनेका और 'यो न: ' नाम देनेका ा अ भ ाय है?

पद कसका वाचक है तथा उसे 'मम '

उ र – सम जगत्क कारण पा जो मूल कृ त है जसे 'अ ' और ' धान' भी कहते ह, उस कृ तका वाचक 'महत् ' वशेषणके स हत ' ' पद है। इसक ा ा नव अ ायके सातव ोकपर क जा चुक है। उसे 'मम ' (मेरी) कहकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क मेरे साथ इसका अना द स है। 'यो न: ' उपादान-कारण और गभाधानके आधारको कहते ह। यहाँ उसे 'यो न' नाम देकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क सम ा णय के व भ शरीर का यही उपादान-कारण है और यही गभाधानका आधार है। – यहाँ 'गभम् ' पद कसका वाचक है और उसको उस मह प कृ तम ापन करना ा है? उ र – सातव अ ायम जसे 'परा कृ त' कहा है, उसी चेतन समूहका वाचक यहाँ 'गभम् ' पद है। और महा लयके समय अपने-अपने सं ार के स हत परमे रम त जीवसमुदायको जो महासगके आ दम कृ तके साथ वशेष स कर देना है, वही उस चेतनसमुदायका गभको कृ त प यो नम ापन करना है। – 'तत: ' पद कसका वाचक है और 'सवभूतानाम् ' पद कनका वाचक है तथा उनक उ ा है? उ र – 'तत: ' पद यहाँ भगवान् ारा कये जानेवाले उस जड और चेतनके संयोगका और 'सवभूतानाम् ' पद अपने-अपने कम-सं ार के अनुसार देव, मनु , पशु, प ी आ द व भ शरीर म उ होनेवाले ा णय का वाचक है। उपयु जड-चेतनके संयोगसे जो भ - भ आकृ तय म सब ा णय का सू पसे कट होना है, वही उनक उ है। महासगके आ दम उपयु संयोगसे पहले-पहल हर गभक और तदन र अ ा भूत क उ होती है।

सवयो नषु कौ ेय मूतयः स व याः । तासां मह ो नरहं बीज दः पता ॥४॥

हे अजुन! नाना कारक सब यो नय म जतनी मू तय अथात् शरीरधारी ाणी उ होते ह, कृ त तो उन सबक गभ धारण करनेवाली माता है और म बीजको ापन करनेवाला पता ँ ॥४॥

ा है?

– यहाँ 'मूतयः ' पद

कनका वाचक है और सम यो नय म उनका उ

होना

उ र – 'मूतयः ' पद देव, मनु , रा स, पशु और प ी आ द नाना कारके भ भ वण और आकृ तवाले शरीर से यु सम ा णय का वाचक है; और उन देव, मनु , पशु, प ी आ द यो नय म उन ा णय का ूल पसे ज हण करना ही उनका उ होना है। – उन सब मू तय का म बीज दान करनेवाला पता ँ और मह यो न माता है – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान्ने यह दखलाया है क उन सब मू तय के जो सू - ूल शरीर ह, वे सब कृ तके अंशसे बने ए ह और उन सबम जो चेतन आ ा है, वह मेरा अंश है। उन दोन के स से सम मू तयाँ अथात् शरीरधारी ाणी कट होते ह, अतएव कृ त उनक माता है और म पता ँ । स – तेरहव अ ायके इ सव ोकम जो यह बात कही थी क गुण के संगसे ही इस जीवका अ ी-बुरी यो नय म ज होता है। उसके अनुसार जीव का नाना कारक यो नय म ज लेनेक बात तो चौथे ोकतक कही गयी कतु वहाँ गुण क कोई बात नह आयी। इस लये अब वे गुण ा ह? उनका संग ा है? कस गुणके संगसे अ ी यो नम और कस गुणके संगसे बुरी यो नम ज होता है? – इन सब बात को करनेके लये इस करणका आर करते ए भगवान् अब पाँचवसे आठव ोकतक पहले उन तीन गुण क कृ तसे उ और उनके व भ नाम बतलाकर फर उनके प और उनके ारा जीवा ाके ब न- कारका मश: पृथक् -पृथक् वणन करते ह –

स ं रज म इ त गुणाः कृ तस वाः । नब महाबाहो देहे दे हनम यम् ॥५॥

हे अजुन! स गुण, रजोगुण और तमोगुण – ये अ वनाशी जीवा ाको शरीरम बाँधते ह॥५॥ '

कृ तस

– 'स म् ', 'रज: ', 'तम: ' – व' कहनेका ा भाव है?

कृ तसे उ

तीन गुण

इन तीन पद के योगका और गुण को

उ र – गुण के भेद, नाम और सं ा बतलानेके लये यहाँ 'स म् ', 'रज: ' और 'तम: ' – इन पद का योग कया गया है। अ भ ाय यह है क गुण तीन ह; स , रज और तम उनके नाम ह; और तीन पर र भ ह। इनको ' कृ तस व' कहनेका यह अ भ ाय है क ये तीन गुण कृ तके काय ह एवं सम जड पदाथ इ तीन का व ार है। – 'दे हनम् ' पदके योगका और उसे अ य कहनेका ा भाव है तथा उन तीन गुण का इसको शरीरम बाँधना ा है? उ र – 'दे हनम् ' पदका योग करके भगवान्ने यह भाव दखलाया है क जसका शरीरम अ भमान है, उसीपर इन गुण का भाव पड़ता है; और उसे 'अ य' कहकर यह दखलाया है क वा वम पसे वह सब कारके वकार से र हत और अ वनाशी है अतएव उसका ब न हो ही नह सकता। अना द स अ ानके कारण उसने ब न मान रखा है। इन तीन गुण का जो अपने अनु प भोग म और शरीर म इसका मम , आस और अ भमान उ कर देना है – यही उन तीन गुण का उसको शरीरम बाँध देना है। अ भ ाय यह है क जीवा ाका तीन गुण से उ शरीर म और उनसे स रखनेवाले पदाथ म जो अ भमान, आस और मम है – वही ब न है। स – अब स गुणका प और उसके ारा जीवा ाके बाँधे जानेका कार बतलाते ह –

त स ं नमल ा काशकमनामयम् । सुखस े न ब ा त ानस े न चानघ ॥६॥

हे न ाप! उन तीन गुण म स गुण तो नमल होनेके कारण काश करनेवाला और वकारर हत है, वह सुखके स बाँधता है॥६॥

से और

ानके स

से अथात् उसके अ भमानसे

– ' नमल ात् ' ा अ भ ाय है?

पदके योगका तथा स गुणको काशक और अनामय

बतलानेका उ र – स गुणका प सवथा नमल है, उसम कसी भी कारका कोई दोष नह है; इसी कारण वह काशक और अनामय है। उससे अ ःकरण और इ य म काशक वृ होती है; एवं दुःख, व ेप, दुगुण और दुराचारीका नाश होकर शा क ा होती है। जब स गुण बढ़ता है तब मनु के मनक चंचलता अपने-आप ही न हो जाती है और वह संसारसे वर और उपरत होकर स दान घन परमा ाके ानम म हो जाता है। साथ ही उसके च और सम इ य म दुःख तथा आल का अभाव होकर चेतन-श क वृ हो जाती है। ' नमल ात् ' पद स गुणके इ गुण का बोधक है और स गुणका यह प बतलानेके लये ही उसे ' काशक' और ' अनामय' बतलाया गया है। – उस स गुणका इस जीवा ाको सुख और ानके संगसे बाँधना ा है? उ र – 'सुख' श यहाँ अठारहव अ ायके छ ीसव और सतीसव ोक म जसके ल ण बतलाये गये ह, उस 'सा क सुख' का वाचक हे। उस सुखक ा के समय जो 'मै सुखी ँ ' इस कार अ भमान होकर जीवा ाका उस सुखके साथ स हो जाता हे, वह उस साधनके मागम अ सर होनेसे रोक देता है और जीव ु अव ाक ा से वं चत रख देता है, अत: यही स गुणका सुखके संगसे जीवा ाको बाँधना है। ' ान' बोधश का नाम है; उसके कट होनेपर जो उसम 'मै ानी ँ ', ऐसा अ भमान हो जाता है वह उसे गुणातीत अव ासे वं चत रख देता है, अत: यही स गुणका जीवा ाको ानके संगसे बाँधना है। – 'अनघ' स ोधनका ा अ भ ाय है? उ र – 'अघ' पापको कहते ह। जसम पाप का सवथा अभाव हो, उसे 'अनघ' कहते ह। यहाँ अजुनको 'अनघ' नामसे स ो धत करके भगवान् यह दखलाते ह क तुमम भावसे ही पाप का अभाव है, अतएव तु ब नका डर नह है। स बतलाते हँ –



अब रजोगुणका





प और उसके ारा जीवा ाको बाँधे जानेका कार

रजो रागा कं व तृ ास समु वम् । त ब ा त कौ ेय कमस े न दे हनम् ॥७॥

हे अजुन! राग प रजोगुणको कामना और आस जीवा ाको कम के और उनके फलके स – रजोगुणको 'रागा

से उ

जान। वह इस

से बाँधता है॥७॥

क' कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – रजोगुण यं ही राग यानी आस के पम कट होता है। 'राग' रजोगुणका ूल प है, इस लये यहाँ रजोगुणको 'रागा क' समझनेके लये कहा गया है। – यहाँ रजोगुणको 'कामना' और 'आस ' से उ कै से बतलाया गया, क कामना तो यं रजोगुणसे ही उ होती है (३।३७;१४।१२), अतएव रजोगुणको उनका काय माना जाय या कारण? उ र – कामना और आस से रजोगुण बढ़ता हे तथा रजोगुणसे कामना और आस बढ़ती है। इनका पर र बीज और वृ क भाँ त अ ो ा य स है। इनम रजोगुण बीज ानीय और कामना, आस आ द वृ ानीय ह। बीज वृ से ही उ होता है, तथा प वृ का कारण भी बीज ही है। इसी बातको करनेके लये कह रजोगुणसे कामना दक उ और कह कामना दसे रजोगुणक उ बतलायी गयी है। यहाँ 'तृ ास समु वम् ' पदके भी दोन ही अथ बनते ह। तृ ा (कामना) और संग (आस ) से जसका स क् उ व हो – उसका नाम रजोगुण माना जाय, तब तो रजोगुण उनका काय ठहरता है; तथा तृ ा और संगका स क् उ व हो जससे, उसका नाम रजोगुण माननेसे रजोगुण उनका कारण ठहरता है। बीज-वृ के ायसे दोन ही बात ठीक ह, अतएव इसके दोन ही अथ बन सकते ह। – कम का संग ा है? और उसके ारा रजोगुणका जीवा ाको बाँधना ा है? उ र – 'इन सब कम को म करता ँ ' कम म कतापनके इस अ भमानपूवक 'मुझे इसका अमुक फल मलेगा' ऐसा मानकर कम के और उनके फल के साथ अपना स ा पत कर लेनेका नाम 'कमसंग' है; इसके ारा रजोगुणका जो इस जीवा ाको ज -मृ ु प संसारम फँ साये रखना है, वही उसका कमसंगके ारा जीवा ाको बाँधना है।

स बतलाते ह –



अब तमोगुणका

प और उसके ारा जीवा ाके बाँधे जानेका कार

तम ानजं व मोहनं सवदे हनाम् । मादाल न ा भ ब ा त भारत ॥८॥

हे अजुन! सब देहा भमा नय को मो हत करनेवाले तमोगुणको तो अ ानसे उ जान। वह इस जीवा ाको माद, आल – तमोगुणका सम

और न ाके ारा बाँधता है॥८॥

देहा भमा नय को मो हत करना ा है? उ र – अ ःकरण और इ य म ानश का अभाव करके उनम मोह उ कर देना ही तमोगुणका सब देहा भमा नय को मो हत करना है। जनका अ ःकरण और इ य के साथ स है तथा जनक शरीरम अहंता या ममता  है – वे सभी ाणी न ा दके समय अ ःकरण और इ य म मोह उ होनेसे अपनेको मो हत मानते ह। क ु जनका अ ःकरण और इ य के स हत शरीरम अ भमान नह रहा है, ऐसे जीव ु उनसे अपना कोई स नह मानते; इस लये यहाँ तमोगुणको 'सम देहा भमा नय को मो हत करनेवाला' कहा है। – तमोगुणको अ ानसे उ बतलानेका ा अ भ ाय है? स हव ोकम तो अ ानक उ तमोगुणसे बतलायी है? उ र – तमोगुणसे अ ान बढ़ता है और अ ानसे तमोगुण बढ़ता है। इन दोन म भी बीज और वृ क भाँ त अ ो ा य स है, अ ान बीज ानीय है और तमोगुण वृ ानीय है। इस लये कह तमोगुणसे अ ानक और कह अ ानसे तमोगुणक उ बतलायी गयी है। – ' माद', 'आल ' और ' न ा'- इन तीन श का ा अथ है और इनके ारा तमोगुणका जीवा ाको बाँधना ा है? उ र – अ ःकरण और इ य क थचे ाका एवं शा व हत कत पालनम अवहेलनाका नाम माद है। कत -कम म अ वृ प न मताका नाम आल है। त ा, और सुषु – इन सबका नाम ' न ा' है। इन सबके ारा जो तमोगुणका इस जीवा ाको

मु के साधनसे वं चत रखकर ज -मृ ु प संसारम फँ साये रखना है – यही उसका माद, आल और न ाके ारा जीवा ाको बाँधना है।

कार स रज और तम – इन तीन गुण के पका और उनके ारा जीवा ाके बाँधे जानेका कार बतलाकर अब उन तीन गुण का ाभा वक ापार बतलाते ह स



– इस

स ं सुखे स य त रजः कम ण भारत । ानमावृ तु तमः मादे स य ुत ॥९॥

हे अजुन! स गुण सुखम लगाता है और रजोगुण कमम तथा तमोगुण तो ानको ढककर मादम भी लगाता है॥९॥ – 'सुख'

श यहाँ कौन-से सुखका वाचक है और स गुणका इस मनु को

उसम लगाना ा है? उ र – 'सुख' श यहाँ सा क सुखका वाचक है (१८।३६,३७) और स गुणका जो इस मनु को सांसा रक भोग और चे ा से तथा माद, आल और न ासे हटाकर आ च न आ दके ारा सा क सुखसे संयु कर देना है – यही उसको सुखम लगाना है। – 'कम' श यहाँ कौन-से कम का वाचक है और रजोगुणका इस मनु को उनम लगाना ा है? उ र – 'कम' श यहाँ (इस लोक और परलोकके भोग प फल देनेवाले) शा व हत सकामकम का वाचक है। नाना कारके भोग क इ ा उ करके उनक ा के लये उन कम म मनु को वृत कर देना ही रजोगुणका मनु को उन कम म लगाना है। – तमोगुणका इस मनु के ानको आ ा दत करना और उसे मादम लगा देना ा है? तथा इन वा म 'तु ' और 'उत ' इन दो अ यपद के योगका ा अ भ ाय हे? उ र – जब तमोगुण बढ़ता है, तब वह कभी तो मनु क कत -अकत का नणय करनेवाली ववेकश को न कर देता है और कभी अ ःकरण और इ य क चेतनाको न

करके न ाक वृ उ कर देता है। यही उसका मनु के ानको आ ा दत करना है और कत पालनम अवहेलना कराके थ चे ा म नयु कर देना ' माद' म लगाना है। इस वा म 'तु ' अ यके योगसे यह भाव दखलाया है क तमोगुण के वल ानको आवृत करके ही प नह छोड़ता, दूसरी या भी करता है; और 'उत ' के योगसे यह दखलाया है क यह जैसे ानको आ ा दत करके मादम लगाता है, वैसे ही न ा और आल म भी लगाता है। अ भ ाय यह है क जब यह ववेक ानको आवृत करता ह, तब तो मादम लगाता है एवं जब अ ःकरण और इ य क चेतनश प ानको ीण और आवृत करता है तब आल और न ाम लगाता है।

आ द तीन गुण जस समय अपने-अपने कायम जीवको नयु करते ह, उल समय वे ऐसे करनेम कस कार समथ होते ह – यह बात अगले ोकम बतलाते ह – स

–स

रज म ा भभूय स ं भव त भारत । रजः स ं तम वै तमः स ं रज था ॥१०॥

हे अजुन! रजोगुण और तमोगुणको दबाकर स गुण, स गुण और तमोगुणको दबाकर रजोगुण, वैसे ही स गुण और रजोगुणको दबाकर तमोगुण होता है अथात् बढ़ता है॥१०॥ [93] – रजोगुण और तमोगुणको दबाकर स

गुणका बढ़ना ा है? उ र – जस समय रजोगुण और तमोगुणक वृ को रोककर स गुण अपना काय आर करता है, उस समय शरीर इ य और अ ःकरणम काश, ववेक और वैरा आ दके बढ़ जानेसे वे अ शा और सुखमय हो जाते ह। अत: उस समय रजोगुणके काय लोभ, वृ और भोग-वासना द तथा तमोगुणके काय न ा, आल और माद आ दका ादुभाव नह हो सकता। इस कार दोन गुण को दबाकर जो स गुणका ान, काश और सुख आ दको उ कर देना है यही रजोगुण और तमोगुणको दबाकर स गुणका बढ़ जाना है। – स गुण और तमोगुणको दबाकर रजोगुणका बढ़ना ा है? उ र – जस समय स गुण और तमोगुणक वृ को रोककर रजोगुण अपना काय आर करता है, उस समय शरीर, इ य और अ ःकरणम चंचलता, अशा , लोभ,

भोगवासना और नाना कारके कम म वृ होनेक उ ट इ ा उ हो जाती है। इस कारण उस समय स गुणके काय काश, ववेकश , शा आ दका भी अभाव-सा हो जाता है। तमोगुणके काय न ा, माद और आल आ द भी दब जाते ह। यही स गुण और तमोगुणको दबाकर रजोगुणका बढ़ जाना है। – स गुण और रजोगुणको दबाकर तमोगुणका बढ़ना ा है? उ र – जस समय स गुण और रजोगुणक वृ को रोककर तमोगुण अपना काय आर करता है, उस समय शरीर, इ याँ और अ ःकरणम मोह आ द बढ़ जाते ह और मादम वृ हो जाती है, वृ याँ ववेकशू हो जाती ह। अत: स गुणके काय काश और ानका एवं रजोगुणके काय कम क वृ और भोग को भोगनेक इ ा आ दका अभाव-सा हो जाता है; ये सब कट नह हो पाते। यही स गुण और रजोगुणको दबाकर तमोगुणका बढ़ना है।

इस कार अ दो गुण को दबाकर ेक गुणके बढ़नेक बात कही गयी।अब ेक गुणक वृ के ल ण जाननेक इ ा होनेपर स गुणक वृ के ल ण पहले बतलाये जाते ह – स



सव ारेषु देहऽे काश उपजायते । ानं यदा तदा व ा वृ ं स म ुत ॥११॥



जस समय इस देहम तथा अ ःकरण और इ य म चेतनता और ववेकश होती है, उस समय ऐसा जानना चा हये क स गुण बढ़ा है॥११॥ – 'यदा '

और 'तदा ' इन कालवाचक पद का तथा ' व

ात् '

याके योगका

ा भाव है? उ र – इनका तथा ' व ात् ' याका योग करके भगवान्ने यह भाव दखलाया है क जस समय इस ोकम बतलाये ए ल ण का ादुभाव और उनक वृ हो, उस समय स गुणक वृ समझनी चा हये और उस समय मनु को सावधान होकर अपना मन भजनानम लगानेक चे ा करनी चा हये; तभी स गुणक वृ अ धक समय ठहर सकती है; अ था उसक अवहेलना कर देनेसे शी ही तमोगुण या रजोगुण उसे दबाकर अपना काय आर कर सकते ह।

– 'देहे ' के

साथ 'अ न् ' पदका योग करनेका ा अ भ ाय है? उ र – 'अ न् ' पदका योग करके भगवान्ने मनु -शरीरक वशेषताका तपादन कया है। अ भ ाय यह है क इस ोकम बतलायी ई स गुणक वृ का अवसर मनु -शरीरम ही मल सकता है और इसी शरीरम स गुणक सहायता पाकर मनु मु लाभ कर सकता है, दूसरी यो नय म ऐसा अ धकार नह है। – शरीर, इ य और अ ःकरणम काश और ानका उ होना ा है? उ र – शरीरम चेतनता, हलकापन तथा इ य और अ ःकरणम नमलता और चेतनाक अ धकता हो जाना ही काशका उ होना है। एवं स -अस तथा कत अकत का नणय करनेवाली ववेकश का जा त् हो जाना ' ान' का उ होना है। जस समय काश ओर ान – इन दोन का ादुभाव होता है, उस समय अपने-आप ही संसारम वैरा होकर मनम उपर त और सुख-शा क बाढ़-सी आ जाती है; तथा राग- ेष, दुःख-शोक, च ा, भय, चंचलता, न ा, आल और माद आ दका अभाव-सा हो जाता है।

इस कार स गुणक वृ के ल ण का वणन करके अब रजोगुणक वृ के ल ण बतलाते ह – स



लोभः वृ रार ः कमणामशमः ृहा । रज ेता न जाय े ववृ े भरतषभ ॥१२॥

हे अजुन! रजोगुणके बढ़नेपर लोभ, वृ , ाथबु से कम का सकामभावसे आर , अशा और वषयभोग क लालसा – ये सब उ होते ह॥१२॥ – 'लोभ', '

वृ ', 'कम का आर ', 'अशा ' और ' ृहा' – इन सबका प ा है और रजोगुणक वृ के समय इनका उ होना ा है? उ र – धनक लालसाका नाम लोभ है, जसके कारण मनु त ण धनक वृ के उपाय सोचता रहता है। धनके य करनेका समु चत अवसर ा होनैपर भी उसका ाग नह करता एवं धन-उपाजनके समय कत , अकत का ववेचन छोड़कर दूसरेके पर भी अ धकार जमानेक इ ा या चे ा करने लगता है। नाना कारके कम करनेके लये मान सक भाव का जा त् होना ' वृ ' है। उन 'कम को सकामभावसे करने लगना उनका 'आर ' है।

मनक चंचलताका नाम 'अशा ' है; और कसी भी कारके सांसा रक पदाथ को अपने लये आव क मानना ' ृहा' है। रजोगुणके बढ़ जानेपर जब मनु के अ ःकरणम स गुणके काय काश, ववेकश और शा आ द एवं तमोगुणके काय न ा और आल आ द दोन ही कारके भाव दब जाते ह, तब उसे नाना कारके भोग क आव कता तीत होने लग जाती है, उसके अ ःकरणम लोभ बढ़ जाता है, धनसं हक वशेष इ ा उ हो जाती है, नाना कारके कम करनेके लये मनम नये-नये भाव उठने लगते ह, मन चंचल हो जाता है, फर उन भाव के अनुसार याका भी आर हो जाता है। इस कार रजोगुणक वृ के समय इन लोभ आ द भाव का ादुभाव होना ही उनका उ हो जाना है। – यहाँ 'भरतषभ ' स ोधन देनेका ा अ भ ाय है? उ र – जो भरतवं शय म उ म हो, उसे भरतषभ कहते ह। यहाँ अजुनको 'भरतषभ ' नामसे स ो धत करके भगवान् यह दखलाते ह क तुम भरतवं शय म े हो। तु ारे अंदर रजोगुणके काय प ये लोभा द नह ह।

इस कार बढ़े ए रजोगुणके ल ण का वणन करके अब तमोगुणक वृ के ल ण बतलाये जाते ह – स



अ काशोऽ वृ मादो मोह एव च । तम ेता न जाय े ववृ े कु न न ॥१३॥

अ वृ ही उ

हे अजुन! तमोगुणके बढ़नेपर अ ःकरण और इ य म अ काश, कत -कम म और माद अथात् थ चे ा और न ा द अ ःकरणक मो हनी वृ याँ – ये सब होते ह॥१३॥

अ काश, अ वृ , माद और मोह – इन सबका पृथक् -पृथक् प ा है; तथा तमोगुणक वृ के समय इनका उ होना ा है? उ र – इ य और अ ःकरणक दी का नाम काश है और उसके व इ य और अ ःकरणम दी के अभावका नाम 'अ काश' है। इससे स गुणके अ भाव का भी अभाव समझ लेना चा हये। बारहव ोकम कहे ए रजोगुणके काय वृ के वरोधी भावका –

अथात् कसी भी कत कमके आर करनेक इ ाके अभावका नाम 'अ वृ ' है। इससे रजोगुणके अ काय का भी अभाव समझ लेना चा हये। शा व हत कम क अवहेलनाका और थ चे ाका नाम ' माद' है। ववेकश क वरो धनी मो हनी वृ का और न ाका नाम 'मोह' है। जस समय तमोगुण बढ़ता है, उस समय मनु के इ य और अ ःकरणम दी का अभाव हो जाता है; यही 'अ काश' का उ होना है। कोई भी कम अ ा नह लगता, के वल पड़े रहकर ही समय बतानेक इ ा होती है; यह 'अ वृ ' का उ होना है। शरीर और इ य ारा थ चे ा करते रहना और कत कमम अवहेलना करना, यह ' माद' का उ होना है। मनका मो हत हो जाना; कसी बातक ृ त न रहना; त ा, या सुषु अव ाका ा हो जाना; ववेकश का अभाव हो जाना; कसी वषयको समझनेक श का न रहना – यही सब 'मोह' का उ होना है। ये सब ल ण तमोगुणक वृ के समय उ न होते हे; अतएव इनमसे कोई-सा भी ल ण अपनेम देखा जाय, तब मनु को समझना चा हये क तमोगुण बढ़ा आ है।

इस कार तीन गुण क वृ के भ - भ ल ण बतलाकर अब दो ोक म उन गुण मसे कस गुणक वृ के समय मरकर मनु कस ग तको ा होता है, यह बतलाया जाता है – स



यदा स े वृ े तु लयं या त देहभृत् । तदो म वदां लोकानमला तप ते ॥१४॥

जब यह मनु करनेवाल के नमल द – 'यदा'

स गुणक वृ म मृ ुको ा होता है, तब तो उ म कम गा द लोक को ा होता है॥१४॥

और 'तदा' – इन कालवाची अ य पद का योग करके ा भाव दखलाया गया है तथा स गुणक वृ म मृ ुको ा होना ा है? उ र – 'यदा' और 'तदा' – इन कालवाची अ य पद का योग करके यह दखलाया गया है क इस करणम ऐसे मनु क ग तका न पण कया जाता है, जसक ाभा वक त दूसरे गुण म होते ए भी सा क गुणक वृ म मृ ु हो जाती है। ऐसे मनु म जस समय पूव सं ार आ द कसी कारणसे स गुण बढ़ जाता है – अथात् जस समय ारहव

ोकके वणनानुसार उसके सम शरीर, इ य और अ ःकरणम ' काश' और ' ान' उ हो जाता है – उस समय ूल शरीरसे मन, इ य और ाण के स हत जीवा ाका स व ेद हो जाना ही स गुणक वृ म मृ ुको ा होना है। – 'देहभृत् ' पदके योगका ा भाव है? उ र – 'देहभृत् ' पदका योग करके यह भाव दखलाया गया है क जो देहधारी ह, जनक शरीरम अहंता और ममता है उ क पुनज प भ - भ ग तयाँ होती ह; जनका शरीरम अ भमान नह है, ऐसे जीव ु महा ा का आवागमन नह होता। – 'लोकान् ' के साथ 'अमलान् ' वशेषण देनेका तथा 'उ म वदाम् ' पदके योगका ा भाव है? उ र – 'लोकान् ' पदके साथ 'अमलान् ' वशेषण देकर यह भाव दखलाया गया हे क स गुणक वृ म मरनेवाल को जन लोक क ा होती है, उन लोक म मल अथात् कसी कारका दोष या ेश नह है; वे द काशमय, शु और सा क ह। यहाँ 'उ म वदाम् ' पदम उ म श से शा व हत कम और उपासनाका ल है। उनको जाननेवाले यानी न ामभावसे करनेवाले मनु 'उ म वत्' कहलाते ह। वे उ कम पासनाके भावसे जन लोक को ा करते ह, स गुणक वृ म मरनेवाला स गुणके स से उ लोक को ा कर लेता है।

रज स लयं ग ा कमस षु जायते । तथा लीन म स मूढयो नषु जायते ॥१५॥

रजोगुणके बढ़नेपर मृ ुको ा होकर कम क आस वाले मनु म उ होता है; तथा तमोगुणके बढ़नेपर मरा आ मनु क ट, पशु आ द मूढयो नय म उ होता है॥१५॥

रजोगुणक वृ म मृ ुको ा होना ा है; तथा 'कमस षु' पदका ा अथ है ? और उनम ज लेना ा है? उ र – जस समय रजोगुण बढ़ा होता है अथात् बारहव ोकके अनुसार लोभ, वृ आ द राजसी भाव बढ़े ए होते ह – उस समय जो ूल शरीरसे मन, इ य और ाण के स हत जीवा ाका स - व ेद हो जाना है – वही रजोगुणक वृ म मृ ुको ा होना –

है। कम और उनके फल म जनक आस है, उन मनु को 'कमसंगी' कहते ह; इस लये मनु यो नको ा होना ही कमसं गय म ज लेना है। – तमोगुणक वृ म मरना तथा मूढ़यो नमे उ होना ा है? उ र – जस समयम तमोगुण बढ़ा हो अथात् तेरहव ोकके अनुसार 'अ काश', 'अ वृ ' और ' माद' आ द तामसभाव बढ़े ए ह – उस समय जो ूल शरीरसे मन, इ य और ाण के स हत जीवा ाका स - व ेद हो जाना है, वही तमोगुणक वृ म मृ ुको ा होना है; और क ट-पतंग, पशु-प ी, वृ -लता आ द जो तामसी यो नयाँ ह – उनम ज लेना ही मूढयो नय म उ होना है।

स रज और तम – इन तीन गुण क वृ म मरनेके भ - भ फल बतलाये गये; इससे यह जाननेक इ ा होती है क इस कार कभी कसी गुणक और कभी कसी गुणक वृ होती है? इसपर कहते ह – स



कमणः सुकृत ा ः सा कं नमलं फलम् । रजस ु फलं दुःखम ानं तमसः फलम् ॥१६॥

े कमका तो सा क अथात् सुख, ान और वैरा ा द नमल फल कहा है; राजस कमका फल दःु ख एवं तामस कमका फल अ ान कहा है॥१६॥

वशेषणके स हत 'कमण: ' पद कौन-से कम का वाचक है; तथा उनका सा क और नमल फल ा है? उ र – जो शा व हत कत -कम न ामभावसे कये जाते ह, उन सा क कम का वाचक यहाँ 'सुकृत ' वशेषणके स हत 'कमण: ' पद है। ऐसे कम के सं ार से अ ःकरणम जो ान-वैरा ा द नमल भाव का बार-बार ादुभाव होता रहता है और मरनेके बाद जो दुःख और दोष से र हत द काशमय लोक क ा होती है, वही उनका 'सा क और नमल फल' है। – राजस कम कौन-से ह? और उनका फल दुःख ा है? उ र – जो कम भोग क ा के लये अहंकारपूवक ब त प र मके साथ कये जाते ह (१८।२४), वे राजस ह। ऐसे कम के करते समय तो प र म प दुःख होता ही है, पर ु उसके – 'सुकृत

'

बाद भी वे दुःख ही देते रहते ह। उनके सं ार से अ ःकरणम बार-बार भोग, कामना, लोभ और वृ आ द राजसभाव ु रत होते ह – जनसे मन व होकर अशा और दुःख से भर जाता है। उन कम के फल प जो भोग ा होते ह, वे भी अ ानसे सुख प दीखनेपर भी व ुत: दुःख प ही होते ह। और फल भोगनेके लये जो बार-बार ज -मरणके च म पड़े रहना पड़ता है, वह तो महान् दुःख है ही। इस कार उनका जो कु छ भी फल मलता है, सब दुःख प ही होता है। – तामस कम कौन-से ह और उनका फल अ ान ा है? उ र – जो कम बना सोचे-समझे मूखतावश कये जाते ह और जनम हसा आ द दोष भरे रहते ह (१८।२५), वे 'तामस' ह। उनके सं ार से अ ःकरणम मोह बढ़ता है और मरनेके बाद जन यो नय म तमोगुणक अ धकता है – ऐसी जडयो नय क ा होती है; वही उसका फल 'अ ान' है। – यहाँ गुण के फलका वणन करनेका संग था, बीचम कम के फलक बात कही गयी ? यह अ ासं गक-सा तीत होता है। उ र – ऐसी बात नह है; क पछले ोक म ेक गुणक वृ म मरनेका भ - भ फल बतलाया गया है, अत: गुण क वृ के कारण प कम-सं ार का वषय भी अव आना चा हये; इसी लये कम क बात कही गयी है। अ भ ाय यह है क सा क, राजस और तामस – तीन कारके कम-सं ार ेक मनु के अ ःकरणम सं चत रहते ह, उनमसे जस समय जैसे सं ार का ादुभाव होता है, वैसे ही सा क आ द भाव बढ़ते ह और उ के अनुसार नवीन कम होते ह। कम से सं ार, सं ार से सा का द गुण क वृ और वैसे ही ृ त, ृ तके अनुसार पुनज और पुन: कम का आर – इस कार यह च चलता रहता है। इसम अ कालीन सा क आ द भाव के फलक जो वशेषता पछले ोक म दखलायी गयी है, वह भी ाय: पूवकृ त सा क, राजस और तामस कम के स से ही होती है – इसी भावको दखलानेके लये यह ोक कहा गया है, अतएव अ ासं गक नह है; क गुण और कम दोन के स से ही अ ी-बुरी यो नय क ा होती है (४।१३)।

ारहद बारहव और तेरहव शलोकम स , रज और तमोगुणक वृ के ल ण का मसे वणन कया गया; फर स ा द गुणाक वृ म मरनेका पृथक् -पृथक् फल स



बतलाया गया। इसपर यह जननेक इ ा होती है क ' ान' आ दक उ को स आ द गुण क वृ के ल ण माना गया? अतएव कायक उ से कारणक स ाको जान लेनेके लये ान आ दक उ म स आ द गुण को कारण बतलाते ह –

स ा ायते ानं रजसो लोभ एव च । मादमोहौ तमसो भवतोऽ ानमेव च ॥१७॥

स गुणसे ान उ होता है और रजोगुणसे न मोह उ होते ह और अ ान भी होता है॥१७॥

ेह लोभ; तथा तमोगुणसे माद और

–स

गुणसे ान उ होता है, इस कथनका ा भाव है? उ र – यहाँ ' ान' श उपल णमा है। अतएव इस कथनसे यह समझना चा हये क ान, काश और सुख, शा आ द सभी सा क भाव क उ स गुणसे होती है। – रजोगुणसे लोभ उ होता है, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – 'लोभ' श का योग भी यहाँ उपल णमा ही है। इस कथनसे भी यही समझना चा हये क लोभ, वृ , आस , कामना, ाथपूवक कम का आर आ द सभी राजसभाव क उ रजोगुणसे होती है। – माद, मोह और अ ानक उ तमोगुणसे बतलाकर इस वा म 'एव ' पदके योग करनेका ा भाव हे? उ र – 'एव ' पदका योग करके यह भाव दखलाया है क तमोगुणसे माद, मोह और अ ान तो उ होते ही ह; इनके सवा न ा, आल अ काश, अ वृ आ द जतने तामसभाव ह – वे सब भी तमोगुणसे ही उ होते ह।

स ा द तीन गुण के काय ान आ दका वणन करके अब स गुणम त कराने और रज तथा तमोगुणका ाग करानेके लये तीन गुण म त पु षक भ भ ग तय का तपादन करते ह – स



ऊ ग स ा म े त राजसाः । जघ गुणवृ ा अधो ग तामसाः ॥१८॥

स गुणम

त पु ष

गा द उ

लोक को जाते ह, रजोगुणम

त राजस

पु ष म म अथात् मनु लोकम ही रहते ह और तमोगुणके काय प न ा, माद और आल ा दम त तामस पु ष अधोग तको अथात् क ट, पशु आ द नीच यो नय को तथा नरक को ा होते ह॥१८॥ [94] – 'ऊ म् '

पद कस ानका वाचक है और स गुणम

त पु ष का उसम

जाना ा है? उ र – मनु लोकसे ऊपर जतने भी लोक ह – चौदहव ोकम जनका वणन 'उ म वदाम् ' और 'अमलान् ' – इन दो पद के स हत 'लोकान् ' पदसे कया गया है तथा छठे अ ायके इकतालीसव ोकम जो पु कम करनेवाल के लोक माने गये ह – उ का वाचक यहाँ 'ऊ म् ' पद है और सा क पु षका जो मरनेके बाद उन लोक को ा हो जाना है, यही उनम जाना है। – 'म े ' पद कस ानका वाचक है और उसम राजस पु ष का रहना ा है?। उ र – 'म े ' पद मनु लोकका वाचक है और राजस मनु का जो मरनेके बाद दूसरे लोक म न जाकर पुन: इसी लोकम मनु ज पा लेना है, यही उनका 'म ' म रहना है। – 'जघ गुण' और उसक 'वृ ' ा है एवं उसम त होना तथा तामस मनु का अधोग तको ा होना ा है? उ र – 'जघ ' श का अथ नीच या न होता है। अत: 'जघ गुण' तमोगुणका वाचक है तथा उसके काय माद, मोह, अ ान, अ काश, अ वृ और न ा आ द उसक वृ याँ ह; एवं इन सबम लगे रहना ही 'उनम त होना' है। इन वृ य म लगे रहनेवाले मनु को 'तामस' कहते ह। उन तामस मनु का जो मनु -शरीरसे वयोग होनेके बाद क ट, पतंग, पशु, प ी और वृ आ द नीच यो नय म ज लेना एवं रौरव, कु ीपाक आ द नरक म जाकर यमयातनाके घोर क को भोगना है – यही उनका अधोग तको ा होना है। – तीन गुण क वृ म मरनेवालेका ाय: इसी कार भ - भ फल चौदहव और पं हव ोक म बतलाया ही गया था, फर उसी वातको यहाँ पुन: कहा गया?

उ र – उन ोक म 'यदा ' और 'तदा ' – इन कालवाची अ य का योग है; अतएव दूसरे गुण म ाभा वक तके होते ए भी मरणकालम जस गुणक वृ म मृ ु होती है, उसीके अनुसार ग तका प रवतन हो जाता है – यही भाव दखलानेके लये वहाँ भ भ ग तयाँ बतलायी गयी ह और यहाँ जनक ाभा वक ायी त स ा द गुण म है, उनक ग तके भेदका वणन कया गया है। अतएव पुन का दोष नह है। – पं हव ोकम तो तमोगुणम मरनेका फल के वल मूढयो नय म ही ज लेना बतलाया गया है, यहाँ तामसी पु ष क ग तके वणनम 'अध: ' पदके अथम नरका दक ा भी कै से मानी गयी है? उ र – वहाँ उन सा क और राजस मनु क ग तका वणन है, जो अ समयम तमोगुणक वृ म मरते ह। इस लये 'अध: ' पदका योग न करके 'मूढयो नषु ' पदका योग कया गया है; क ऐसे पु ष का उस गुणके संगसे ऐसा ज होता है, जैसा क स गुणम त राज ष भरतको ह रणक यो न मलनेक कथा आती है। क ु जो सदा ही तमोगुणके काय म त रहनेवाले तामस मनु ह, उनको नरका दक ा भी हो सकती है। सोलहव अ ायके बीसव ोकम भगवान्ने कहा भी है क वे तामस भाववाले मनु आसुरी यो नय को ा होकर फर उससे भी नीची ग तको ा होते ह। सव ोकम जो यह बात कही थी क गुण का संग ही इस मनु के ा प पुनज का कारण है; उसीके अनुसार इस अ यम पाँचव से अठारहव ोकतक गुण के प तथा गुण के काय ारा बँधे ए मनु क ग त आ दका व ारपूवक तपादन कया गया। इस वणनसे यह बात समझायी गयी क मनु को पहले तम और रजोगुणका ाग करके स गुणम अपनी त करनी चा हये, और उसके बाद स गुणका भी ाग करके गुणातीत हो जाना चा हये। अतएव गुणातीत होनेके उपाय और गुणातीत अव का फल अगले दो ोक ारा बतलाया जाता है स



– तैरहव अ ायके इ अ ी-बुरी यो नय क

ना ं गुणे ः कतारं यदा ानुप त । गुणे परं वे म ावं सोऽ धग त ॥१९॥

जस समय ा तीन गुण के अ त र अ कसीको कता नह देखता और तीन गुण से अ परे स दान घन प मुझ परमा ाको त से जानता है, उस

समय वह मेरे

पको ा

होता॥११॥

– कालवाची 'यदा ' अ दखलाया गया है?

यका और '

ा'श

का योग करके यहाँ ा भाव

उ र – इन दोन का योग करके यह दखलाया गया है क मनु क ाभा वक तसे वल ण तका वणन इस ोकम कया गया हे। अ भ ाय यह है क मनु ाभा वक तो अपनेको शरीरधारी समझकर कता और भो ा बना रहता है – वह अपनेको सम कम और उनके फलसे स र हत, उदासीन ा नह समझता; पर ु जस समय शा और आचायके उपदेश ारा ववेक ा करके वह अपनेको ा समझने लग जाता है, उस समयका वणन यहाँ कया जाता है। – गुण से अ त र अ कसीको कता नह देखना ा है? उ र – इ य, अ ःकरण और ाण आ दक वण, दशन, खान-पान, च न-मनन, शयन, आसन और वहार आ द सभी ाभा वक चे ा के होते समय सदा-सवदा अपनेको नगुण- नराकार स दान घन म अ भ भावसे त देखते ए जो ऐसे समझना है क गुण के अ त र अ कोई कता नह है; गुण के काय इ य, मन, बु और ाण आ द ही गुण के काय प इ या दके वषय म बरत रहे ह (५।८,९); अत: गुण ही गुण म बरत रहे ह (३। २८); मेरा इनसे कु छ भी स नह है – यही गुण से अ त र अ कसीको कता न देखना है। – तीन गुण से अ पर कौन है और उसे त से जानना ा है? उ र – तीन गुण से अ पर यानी स र हत स दान घन पूण परमा ा है और उसे तीन गुण से स र हत और अपनेको उस नगुण- नराकार से अ भ समझते ए उस एकमा स दान घन से भ कसी भी स ाको न देखना – सव और सदासवदा के वल परमा ाको ही देखना उसे त से जानना है। – ऐसी तके अन र म ाव अथात् भगव ावको ा होना ा है? उ र – ऐसी तके बाद जो स दान घन क अ भ भावसे सा ात् ा हो जाती है वही भगव ावको ा होना है।

गुणानेतानती

ी ेही देहसमु वान् । ै ो े

ज मृ ुजरादुःखै वमु ोऽमृतम ुते ॥२०॥

यह पु ष शरीरक उ के कारण प इन तीन गुण को उ ंघन करके ज , मृ ,ु वृ ाव ा और सब कारके दःु ख से मु आ परमान को ा होता है॥२०॥ – यहाँ 'देही ' पदके

योगका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया है क जो पहले अपनेको देहम त समझता था, वही गुणातीत होनेपर अमृतको – को ा हो जाता है। – 'गुणान् ' पदके साथ 'एतान् ', 'देहसमु वान् ' और ' ीन् ' – इन वशेषण के योगका ा भाव है? और गुण से अतीत होना ा है? उ र – 'एतान्' के योगसे यह बात दखलायी गयी है क इस अ ायम जन गुण का प बतलाया गया है और जो इस जीवा ाको शरीरम बाँधनेवाले ह, उ से अतीत होनेक बात यहाँ कही जाती है। 'देहसमु वान् ' वशेषण देकर यह दखलाया है क बु , अहंकार और मन तथा पाँच ाने य, पाँच कम य, पाँच महाभूत और पाँच इ य के वषय – इन तेईस त का प प यह ूल शरीर कृ तज गुण का ही काय है; अतएव इससे अपना स मानना ही गुण से ल होना है। एवं ' ीन् ' वशेषण देकर यह दखलाया है क इन गुण के तीन भेद ह और तीन से स छू टनेपर ही मु होती है। रज और तमका स छू टनेके बाद य द स गुणसे स बना रहे तो वह भी मु म बाधक होकर पुनज का कारण बन सकता है; अतएव उसका स भी ाग कर देना चा हये। आ ा वा वम असंग है, गुण के साथ उसका कु छ भी स नह है; तथा प जो अना द स अ ानसे इनके साथ स माना आ है, उस स को ानके ारा तोड़ देना और अपनेको नगुण- नराकार स दान घन से अ भ और गुण से सवथा स र हत समझ लेना अथात् क भाँ त अनुभव कर लेना ही गुण से अतीत हो जाना है। – ज , मृ ,ु जरा और दुःख से वमु होना ा है और उसके बाद अमृतको अनुभव करना ा है? उ र – ज और मरण तथा बाल, युवा और वृ -अव ा शरीरक होती है; एवं आ ध और ा ध आ द सब कारके दुःख भी इ य, मन और ाण आ दके संघात प शरीरम ही ा रहते ह। अतएव जनका शरीरके साथ क च ा भी वा वक स नह रहता, ऐसे

पु ष लोक से शरीरम रहते ए भी व ुत: शरीरके धम ज , मृ ु और जरा आ दसे सदासवदा मु ही ह। अत: त ानके ारा शरीरसे सवथा स र हत हो जाना ही ज , मृ ु, जरा और दुःख से सवथा मु हो जाना है। इसके अन र जो अमृत प स दान घन को अ भ भावसे कर लेना है, जसे उ ीसव ोकम भगव ावक ा के नामसे कहा गया है – वही यहाँ 'अमृत'का अनुभव करना है।

इस कार जीवन-अव ाम ही तीन गुण से अतीत होकर मनु अमृतको ा हो जाता है – इस रह यु बातको सुनकर गुणातीत पु षके ल ण आचरण और गुणातीत बननेके उपाय जाननेक इ ासे अजुन पूछते ह – स



अजुन उवाच । कै ल ै ी गुणानेतानतीतो भव त भो । कमाचारः कथं चैतां ी गुणान तवतते ॥२१॥

अजुन बोले – इन तीन गुण से अतीत पु ष कन- कन ल ण से यु और कस कारके आचरण वाला होता है; तथा हे भो! मनु गुण से अतीत होता है॥२१॥ – 'गुणान् '

पदके साथ 'एतान् ' और '

ीन् '

होता है

कस उपायसे इन तीन

इन पद का बार-बार योग करके

ा भाव दखलाया है? उ र – इससे यह भाव दखलाया है क जन तीन गुण का व ारपूवक वणन इस अ ायम हो चुका है, उ तीन गुण से अतीत होनेके वषयम अजुन पूछ रहे ह। – 'यह कन- कन ल ण से यु होता है' इस वा से अजुनने ा पूछा है? उ र – इस वा से अजुनने शा से गुणातीत पु षके ल ण पूछे ह – जो गुणातीत पु ष म ाभा वक होते ह और साधक के लये सेवन करनेयो आदश ह। – ' कन आचरण वाला होता है' इस वा से ा पूछा है? उ र – इससे यह पूछा है क गुणातीत पु षका वहार कै सा होता है? अथात्गुणातीत पु ष कसके साथ कै सा बताव करता है और उसका रहन-सहन कै सा होता है? इ ा द बात जाननेके लये, यह कया है।

– ' भो ' स

ोधनका ा भाव है? उ र – भगवान् ीकृ को ' भो ' कहकर अजुनने यह भाव दखलाया है क आप स ूण जगत्के ामी, कता, हता और सवसमथ परमे र ह – अतएव आप ही इस वषयको पूणतया समझा सकते ह और इसी लये म आपसे पूछ रहा ँ । – मनु इन तीन गुण से अतीत कै से होता है? इस वा से ा पूछा है? उ र – इससे अजुनने 'गुणातीत' बननेका उपाय पूछा है। अ भ ाय यह है क आपने जो गुणातीत होनेका उपाय पहले उ ीसव ोकम बतलाया ह – उसक अपे ा भी सरल ऐसा कौन-सा उपाय है, जसके ारा मनु शी ही अनायास इन तीन गुण से पार हो सके । स – इस कार अजुनके पूछनेपर भगवान् उनके मसे 'ल ण' और 'आचरण' वषयक दो का उ र चार ोक ारा देते ह –

ीभगवानुवाच । काशं च वृ च मोहमेव च पा व । न े स वृ ा न न नवृ ा न काङ् त ॥२२॥

ीभगवान् बोले – अजुन! जो पु ष स गुणके काय प काशको और रजोगुणके काय प वृ को तथा तमोगुणके काय प मोहको भी न तो वृ होनेपर उनसे ेष करता है और न नवृ होनेपर उनक आकां ा करता है॥२२॥ – ' काशम् ' पदका

ा अथ है तथा यहाँ स गुणके काय मसे के वल ' काश' के ही ादुभाव और तरोभावम ेष और आकां ा न करनेके लये कहा? उ र – शरीर, इ य और अ ःकरणम आल और जडताका अभाव होकर जो हलकापन, नमलता और चेतनता आ जाती है – उसका नाम ' काश' है। गुणातीत पु षके अंदर ान, शा और आन न रहते ह; उनका कभी अभाव होता ही नह । इसी लये यहाँ स गुणके काय म के वल काशक बात कही है। अ भ ाय यह है क स गुणक काशवृ का उसके शरीर, इ य और अ ःकरणम य द अपने-आप ादुभाव हो जाता है तो वह उससे ेष नह करता और जब तरोभाव हो जाता है तो पुन: उसके आगमनक इ ा नह करता; उसके ादुभाव और तरोभावम सदा ही उसक एक-सी त रहती है।

पदका ा अ भ ाय है? और यहाँ रजोगुणके काय मसे के वल ' वृ ' के ही ादुभाव और तरोभावम ेष और इ ाका अभाव दखलानेका ा भाव है? उ र – नाना कारके कम करनेक ू रणका नाम वृ है। इसके सवा जो काम, लोभ, ृहा और आस आ द रजोगुणके काय ह- वे गुणातीत पु षम नह होते। कम का आर गुणातीतके शरीर-इ य ारा भी होता है, वह ' वृ ' के अ गत ही आ जाता है; अतएव यहाँ रजोगुणके काय मसे के वल ' वृ ' म ही राग- ेषका अभाव दखलाया गया है। अ भ ाय यह है क जब गुणातीत पु षके मनम कसी कमका आर करनेके लये ू रणा होती है या शरीरा द ारा उसका आर होता है तो वह उससे ेष नह करता और जब ऐसा नह होता, उस समय वह उसको चाहता भी नह । कसी भी ू रणा और याके ादुभाव और तरोभावम सदा ही उसक एक-सी ही त रहती है। – 'मोहम् ' पदका ा अ भ ाय है और यहाँ तमोगुणके काय मसे के वल ' मोह' के ही ादुभाव और तरोभावम ेष और आकां ाका अभाव दखलानेका ा भाव है? उ र – अ ःकरणक जो मो हनी वृ है – जससे मनु को त ा, और सुषु आ द अव ाएँ ा होती ह तथा शरीर, इ य और अ ःकरणम स गुणके काय काशका अभाव-सा हो जाता है – उसका नाम 'मोह' है। इसके सवा जो अ ान और माद आ द तमोगुणके काय ह, उनका गुणातीतम अभाव हो जाता है; क अ ान तो ानके पास आ नह सकता और माद बना कताके करे कौन? इस लये यहाँ तमोगुणके कायम के वल 'मोह' के ादुभाव और तरोभावम राग- ेषका अभाव दखलाया गया है। अ भ ाय यह है क जब गुणातीत पु षके शरीरम त ा, या न ा आ द तमोगुणक वृ तयाँ ा होती ह तो गुणातीत उनसे ेष नह करता; और जब वे नवृ हो जाती ह तब वह उनके पुनरागमनक इ ा नह करता। दोन अव ा म ही उसक त सदा एक-सी रहती है। – ' वृ म् '

उदासीनवदासीनो गुणैय न वचा ते । गुणा वत इ ेवं योऽव त त ने ते ॥२३॥

जो सा ीके स श

त आ गुण के ारा वच लत नह कया जा सकता और

गुण ही गुण म बरतते ह – ऐसा समझता आ जो स दान घन परमा ाम एक भावसे त रहता है एवं उस तसे कभी वच लत नह होता॥२३॥ – 'उदासीन'

कसको कहते ह और 'उसके स श त रहना' ा है?

उ र – जस घटना या व ुसे जस मनु का कसी भी कारसे कोई स नह होता, उससे जो सवथा उपरत रहता है – उसे 'उदासीन' कहते ह। गुणातीत पु षका तीन गुण से और उनके काय प शरीर, इ य और अ ःकरण एवं सम पदाथ और घटना से कसी कारका स न रहनेके कारण वह उदासीनके स श त दीखता है, पर ु वा वम वह त भी उसक औपचा रक ही है। उससे भी उसका कोई स नह रहता। यह भाव दखानेके लये उदासीनके स श त रहना कहा गया है। – गुण के ारा वच लत न कया जाना ा है? उ र – जन जीव का गुण के साथ स है, उनको ये तीन गुण उनक इ ा न होते ए भी बलात् नाना कारके कम म और उनके फलभोग म लगा देते ह एवं उनको सुखी-दुःखी बनाकर व ेप उ कर देते ह तथा अनेक यो नय म भटकाते रहते ँ ; पर ु जसका इन गुण से स नह रहता, उसपर इन गुण का कोई भाव नह रह जाता। गुण के काय प शरीर, इ य और अ ःकरणक अव ा का प रवतन तथा नाना कारके सांसा रक पदाथ का संयोग- वयोग होते रहनेपर भी वह अपनी तम सदा न वकार एकरस रहता है; यही उसका गुण ारा वच लत नह कया जाना है। – गुण ही गुण म बरतते ह, यह समझना और यह समझकर ' त रहना' ा है? उ र – तीसरे अ ायके अ ाईसव ोकम 'गुणा गुणेषु वत इ त म ा न स ते ' से जो बात कही गयी है, यही बात 'गुणा वत इ ेव ' से कही गयी है। अ भ ाय यह है क इ य, मन, बु और ाण आ द सम करण और श ा द सब वषय – ये सभी गुण के ही व ार ह; अतएव इ य, मन और बु आ दका जो अपने-अपने वषय म वचरना है – वह गुण का ही गुण म बरतना है, आ ाका इनसे कु छ भी स नह है। आ ा न , चेतन, सवथा असंग, सदा एकरस स दान प है – ऐसा समझकर नगुण- नराकार स दान घन पूण परमा ाम जो अ भ भावसे सदाके लये न त हो जाना है, वही गुण ही गुण म बत रहे ह, यह समझकर परमा ाम ' त रहना' है। – 'न इङ्ते ' याका योग करके ा भाव दखलाया गया है? उ र – 'न इङ्ते ' याका अथ है ' हलता नह ', अतएव इसका योग करके यह भाव दखलाया गया है क गुणातीत पु षको गुण वच लत नह कर सकते, इतनी ही बात नह है; वह यं भी अपनी तसे कभी कसी भी कालम वच लत नह होता; क

स दान घन पर परमा ाम अ भ भावसे त हो जानेके अन र जीवक भ स ा ही नह रह जाती, तब कौन वच लत हो और कै से हो?

समदुःखसुखः ः समलो ा का नः । तु या यो धीर ु न ा सं ु तः ॥२४॥

जो नर र आ भावम त, दःु ख-सुखको समान समझनेवाला, म ी, प र और णम समान भाववाला, ानी, य तथा अ यको एक-सा माननेवाला और अपनी न ा- ु तम भी समान भाववाला है॥२४॥ –'

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पदका योग करके

ा भाव दखलाया गया है और सुख-दुःखको

समान समझना ा है? उ र – अपने वा वक पम त रहनेवालेको कहते ह। ऐसा पु ष ही सुख-दुःखम सम रह सकता है, यह भाव दखलानेके लये यहाँ ' : ' पदका योग कया गया है। अ भ ाय यह है क साधारण मनु क त कृ तके काय प ूल, सू और कारण – इन तीन कारके शरीर मसे कसी एकम रहती ही है; अत: वे ' ' नह है, क ु ' कृ त ' ह। और ऐसे पु ष ही कृ तके गुण को भोगनेवाले ह (१३।२१), इस लये वे सुखदुःखम सम नह हो सकते। गुणातीत पु षका कृ त और उसके कायसे कु छ भी स नह रहता; अतएव वह ' ' है – अपने स दान पम त है। इस लये शरीर, इ य और अ ःकरणम सुख और दुःखीका ादुभाव और तरोभाव होते रहनेपर भी गुणातीत पु षका उनसे कु छ भी स न रहनेके कारण वह उनके ारा सुखी- दुःखी नह होता; उसक त सदा सम ही रहती है। यही उसका सुख-दुःखको समान समझना है। – लो , अ और कांचन – इन तीन श का भ - भ अथ ा है? एवं इन तीन म समभाव ा है? उ र – गोबर और म ीको मलाकर जो क े घर म लेप कया जाता है उसमसे बचे ए प को या लोहेके मैलको 'लो ' कहते ह। अ प रका नाम है और कांचन नाम सुवणका है। इन तीन म जो ा और ा -बु का न होना है, वही समभाव है। इनम समताका वणन करके यह भाव दखलाया है क संसारके जतने भी पदाथ ह – जनको लोग उ म, म म और नीच ेणीके समझते ह – उन सबम गुणातीतक समता होती है, उसक

म सभी पदाथ मृगतृ ाके जलक भाँ त मा यक होनेके कारण कसी भी व ुम उसक भेदबु नह होती। – 'धीर: ' पदका ा भाव है? उ र – ानी यानी त पु षको 'धीर' कहते ह। गुणातीत पु ष बड़े-से-बड़े सुखदुःख क ा म भी अपनी तसे वच लत नह होता (६।२१,२२); अतएव उसक बु सदा ही र रहती है। – ' य' और 'अ य' श कसके वाचक ह और इनम सम रहना ा है? उ र – जो पदाथ शरीर, इ य, मन और बु के अनुकूल हो तथा उनका पोषक, सहायक एवं शा दान करनेवाला हो, वह लोक से ' य' कहलाता है; और जो पदाथ उनके तकू ल हो, उनका यकारक, वरोधी एवं ताप प ँ चानेवाला हो, वह लोक से 'अ य' माना जाता है। ऐसे अनेक कारके पदाथ से और ा णय से शरीर, इ य और अ ःकरणका स होनेपर भी जो कसीम भेदबु का न होना है – यही 'उनम सम रहना' है। गुणातीत पु षका अ ःकरण और इ य के स हत शरीरसे कसी कारका स न रहनेके कारण उनसे स रखनेवाले कसी भी पदाथम उसका भेदभाव नह होता। अ भ ाय यह है क साधारण मनु को य व ुके संयोगम और अ यके वयोगम राग और हष तथा अ यके संयोगम और यके वयोगम ेष और शोक होते ह; क ु गुणातीतम ऐसा नह होता; वह सदा-सवदा राग- ेष और हष-शोकसे सवथा अतीत रहता है। – न ा और ु त कसको कहते ह तथा उनको तु समझना ा है? उ र – कसीके स े या झूठे दोष का वणन करना न ा है और गुण का बखान करना ु त है; इन दोन का स अ धकतर नामसे और कु छ शरीरसे है। गुणातीत पु षका 'शरीर' और उसके 'नाम' से क च ा भी स न रहनेके कारण उसे न ा या ु तके कारण शोक या हष कु छ भी नह होता; न तो न ा करनेवालेपर उसे ोध होता है और न ु त करनेवालेपर वह स ही होता है। उसका सदा-सवदा एक-सा ही भाव रहता है, यही उसका उन दोन म सम रहना है।

मानापमानयो ु ु ो म ा रप योः । सवार प र ागी गुणातीतः स उ ते ॥२५॥

आर

जो मान और अपमानम सम है, म और वैरीके प म भी सम है एवं स ूण म कतापनके अ भमानसे र हत है, वह पु ष गुणातीत कहा जाता है॥२५॥ – मान और अपमानम सम रहना

ा हे? उ र – मान और अपमानका स अ धकतर शरीरसे है। अत: जनका शरीरम अ भमान है, वे संसारी मनु मानम राग और अपमानम ेष करते ह; इससे उनको मानम हष और अपमानम शोक होता है तथा वे मान करनेवालेके साथ ेम और अपमान करनेवालेसे वैर भी करते ह। पर ु 'गुणातीत' पु षका शरीरसे कु छ भी स न रहनेके कारण न तो शरीरका मान होनेसे उसे हष होता है और न अपमान होनेसे शोक ही होता है। उसक म जसका मानापमान होता है, जसके ारा होता है एवं जो मान-अपमान प काय है – ये सभी मा यक और वत् ह; अतएव मान-अपमानसे उसम क च ा भी राग- ेष और हष-शोक नह होते। यही उसका मान और अपमानम सम रहना है। – म और वैरीके प म सम रहना ा है?? उ र – य प गुणातीत पु षका अपनी ओरसे कसी भी ाणीम म या श ुभाव नह होता, इस लये उसक म कोई म अथवा बैरी नह है;' तथा प लोग अपनी भावनाके अनुसार उसम म और श ुभावक क ना कर लेते ह। उसीक अपे ासे भगवान्का यह कथन है क वह म और श ुके प म सम रहता है। अ भ ाय यह है क जैसे संसारी मनु अपने साथ म ता रखनेवाल से, उनके स ी एवं हतै षय से आ ीयता और ी त करते ह तथा उनके प म अपने का ाग करके उनक सहायता करते ह; और अपने साथ वैर रखने- वाल से तथा उनके स ी और हतै षय से ेष रखते ह, उनका बुरा करनेक इ ा रखते ह एवं उनका अ हत करनेम अपनी श का य करते ह – गुणातीत इस कार नह करता। वह दोन प वाल म समभाव रखता है, उसके ारा बना राग- ेषके ही समभावसे सबके हतक चे ा आ करती है, वह कसीका भी बुरा नह करता और उसक कसीम भी भेदबु नह होती। यही उसका म और वैरीके प म सम रहना है। – 'सवार प र ागी ' का ा भावहै?

उ र – 'आर ' श यहाँ यामा का वाचक है; अतएव गुणातीत पु षके शरीर, इ य, मन और बु से जो कु छ भी शा ानुकूल याएँ ार ानुसार लोकसं हके लये अथात् लोग को बुरे मागसे हटाकर अ े मागपर लगानेके उ े से आ करती ह – उन सबका वह कसी अंशम भी कता नह बनता। यही भाव दखलानेके लये उसे 'सवार प र ागी ' अथात् 'स ूण या का पूण पसे ाग करनेवाला' कहा है। – 'वह गुणातीत कहा जाता है' इस वा का ा भाव है? उ र – इस वा से अजुनके मसे दो के उ रका उपसंहार कया गया है। अ भ ाय यह है क बाईसव, तेईसव, चौबीसव और पचीसव ोक म जन ल ण का वणन कया गया है – उन सब ल ण से जो यु है उसे लोग, 'गुणातीत' कहते ह। यही गुणातीत पु षक पहचानके च ह और यही उसका आचार- वहार है। अतएव जबतक अ ःकरणम राग- ेष, वषमता, हष-शोक, अ व ा और अ भमानका लेशमा भी रहे, तबतक समझना चा हये क अभी गुणातीत-अव ा नह ा ई है। इस कार अजुनके दो का उ र देकर अब गुणातीत बननेके उपाय वषयक तीसरे का उ र दया जाता है। य प उ ीसव ोकम भगवान्ने गुणातीत बननेका उपाय अपनेको अकता समझकर नगुण- नराकार स दान घन म न - नर र त रहना बतला दया था एवं उपयु चार ोक म गुणातीतके जन ल ण और आचरणका वणन कया गया है – उनको आदश मानकर धारण करनेका अ ास भी गुणातीत बननेका उपाय माना जाता है; क ु अजुनने इन उपाय से भ दूसरा कोई सरल उपाय जाननेक इ ासे कया था, इस लये के अनुकूल भगवान् दूसरा सरल उपाय बतलाते ह– स



मां च योऽ भचारेण भ योगेन सेवते । स गुणा मती ैता भूयाय क ते ॥२६॥

जो पु ष अ भचारी भ योगके ारा मुझको नर र भजता है, वह भी इन तीन गुण को भलीभाँ त लाँघकर स दान घन को ा होनेके लये यो बन जाता है॥२६॥

– 'अ

भचारी भ योग' कसको कहते ह और उसके ारा भगवान्को नर र

भजना ा है? उ र – के वलमा एक परमे र ही सव े ह; वे ही हमारे ामी, शरण लेनेयो , परमग त और परम आ य तथा माता- पता, भाई- ब ु, परम हतकारी और सव ह; उनके अ त र हमारा और कोई नह है – ऐसा समझकर उनम जो ाथर हत अ तशय ापूवक अन ेम है अथात् जस ेमम ाथ, अ भमान और भचारका जरा भी दोष न हो; जो सवथा और सवदा पूण और अटल रहे; जसका त नक-सा अंश भी भगवान्से भ व ुके त न हो और जसके कारण णमा क भी भगवान्क व ृ त अस हो जाय – उस अन ेमका नाम 'अ भचारी भ योग' है। ऐसे भ योगके ारा जो नर र भगवान्के गुण, भाव और लीला का वणक तन- मनन, उनके नाम का उ ारण, जप तथा उनके पका च न आ द करते रहना है एवं मन, बु और शरीर आ दको तथा सम पदाथ को भगवान्का ही समझकर न ामभावसे अपनेको के वल न म मा समझते ए उनके आ ानुसार उ क सेवा पम सम या को उ के लये करते रहना है – यही अ भचारी भ -योगके ारा भगवान्को नर र भजना है। – 'माम् ' पद यहाँ कसका वाचक है? उ र – 'माम् ' पद यहाँ सवश मान् सवा यामी, सव ापी, सवाधार, सम जगत्के हता-कता, परम दयालु, सबके सु द,् परम ेमी सगुण परमे रका वाचक है। – 'गुणान् ' पदके साथ 'एतान् ' पदके योगका ा अ भ ाय है और उपयु पु षका उन गुण से अतीत होना ा है? उ र – 'गुणान् ' पदके साथ 'एतान् ' वशेषण देकर यह दखलाया गया है क इस अ ायम जन तीन गुण का वषय चल रहा है, उ का वाचक यहाँ 'गुणान् ' पद है तथा इन तीन गुण से और उनके काय प शरीर, इ य, मन और बु से एवं सम सांसा रक पदाथ से क च ा भी स न रहना, उन गुण से अतीत होना है। –' ा के यो बन जाता है' इस वा का ा भाव है?

उ र – इससे यह दखलाया गया है क उपयु कारसे गुणातीत होनेके साथ ही मनु भावको अथात् जो नगुण- नराकार स दान घन पूण है, जसको पा लेनेके बाद कु छ भी पाना बाक नह रहता, उसको अ भ भावसे ा करनेके यो बन जाता है और त ाल ही उसे क ा हो जाती है। उपयु ोकम सगुण परमे रक उपासनाका फल नगुण- नराकार क ा बतलाया गया तथा उ ीसव ोकम गुणातीत-अव ाका फल भगव ावक ा एवं बीसव ोकम 'अमृत 'क ा बतलाया गया। अतएव फलम वषमताक शंकाका नराकरण करनेके लये सबक एकताका तपादन करते ए इस अ ायका उपसंहार करते ह – स



णो ह त ाहममृत ा य च । शा त च धम सुख ैका क च ॥२७॥

क उस अ वनाशी पर का और अमृतका तथा न धमका और अख एकरस आन का आ य म ँ ॥२७॥ – 'ब ण: ' पदके

साथ 'अ य ' वशेषण देनेका ा अ भ ाय है और उस क त ा म ँ इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – ' ण: ' पदके साथ 'अ य ' वशेषण देकर यह भाव दखलाया गया है क यहाँ ' ' पद कृ तका वाचक नह है, क ु नगुण- नराकार परमा ाका वाचक है और उसक त ा म ँ , इस कथनका यहाँ यह अ भ ाय है क वह मुझ सगुण परमे रसे भ नह है; और म उससे भ नह ँ । वा वम म और दो व ु नह ह, एक ही त ह। अतएव पछले ोकम जो क ा बतलायी गयी है, वह मेरी ही ा है। क वा वम एक पर परमा ाके ही अ धकारी-भेदसे उपासनाके लये भ - भ प बतलाये गये ह। उनमसे परमा ाका जो मायातीत, अ च , मन-वाणीका अ वषय नगुण- प है वह तो एक ही है, पर ु सगुण पके साकार और नराकार ऐसे दो भेद ह। जस पसे यह सारा जगत् ा है, जो सबका आ य है, अपनी अ च श से सबका धारण-पोषण करता है, वह तो भगवान्का सगुण अ यानी नराकार प है। ी शव, ी व ु एवं ीराम, ीकृ आ द भगवान्के साकार प ह तथा यह सारा जगत् भगवान्का वराट् प है।

– 'अमृत ाय है?

'

पद कसका वाचक है और 'अमृतक त ा म ँ ' इस कथनका

ाअभ उ र – 'अमृत ' पद भी जसको पाकर मनु अमर हो जाता है, अथात् ज -मृ ु प संसारसे सदाके लये छू ट जाता है – उस का ही वाचक है। उसक त ा अपनेको बतलाकर भगवान्ने यह दखलाया है क वह अमृत भी म ही ँ , अतएव इस अ ायके बीसव ोकम और तेरहव अ ायके बारहव ोकम जो 'अमृत' क ा बतलायी गयी है, वह मेरी ही ा है। – 'शा त ' वशेषणके स हत 'धम ' पद कसका वाचक है और भगवान्का अपनेको ऐसे धमक त ा बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – जो न धम है, बारहव अ ायके अ म ोकम जस धमको 'ध ामृत' नाम दया गया है तथा इस करणम जो गुणातीतके ल ण के नामसे व णत आ है – उसका वाचक यहाँ 'शा त ' वशेषणके स हत 'धम ' पद है। ऐसे धमक त ा अपनेको बतलाकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क वह मेरी ा म हेतु होनेके कारण मेरा ही प है; क इस धमका आचरण करनेवाला कसी अ फलको न पाकर मुझको ही ा होता है। – 'ऐका क ' वशेषणके स हत 'सुख ' पद कसका वाचक है और उसक त ा अपनेको बतलानेका ा अ भ ाय है। उ र – पाँचव अ ायके इ सव ोकम जो 'अ य सुख' के नामसे, छठे अ ायके इ सव ोकम 'आ क' सुखके नामसे और अ ाईसव ोकम 'अ सुख' के नामसे कहा गया है – उसी न परमान का वाचक यहाँ 'ऐका क ' वशेषणके स हत 'सुख ' पद है। उसक त ा अपनेको बतलाकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क वह न परमान मेरा ही प है, मुझसे भ कोई अ व ु नह है; अत: उसक ा मेरी ही ा है।

ॐ त द त ीम गव ीतासूप नष ु योगशा े ी

ं े

ोो

व ायां

ीकृ ाजुनसंवादे गुण य वभागयोगो नाम चतुदशोऽ ायः ॥ १४॥

|| ॐ

ी परमा ने नमः ||

प दशोऽ ायः

इस अ ायम स ूण जगत्के कता-हता, सवश मान्, सबके नय ा, सव ापी, अ यामी, परम दयालु, सबके सु द, सवाधार, शरण लेनेयो , सगुण परमे र पु षो म भगवान्के गुण, भाव और पका वणन कया गया है। एवं र पु ष ( े ), अ र पु ष ( े ) और पु षो म (परमे र) – इन तीन का वणन करके , र और अ रसे भगवान् कस कार उ म ह, वे कस लये 'पु षो म' कहलाते ह, उनको पु षो म जाननेका ा माहा है और कस कार उनको ा कया जा सकता ह – इ ा द वषय भलीभाँ त समझथे गये ह। इसी कारण इस अ ायका नाम 'पु षो मयोग' रखा गया है। अ ायका सं ेप इस अ ायके पहले और दूसरेम अ वृ के पकसे संसारका वणन कया गया है; तीसरेम संसार-वृ के आ द, अ और त ाक अनुपल बतलाकर ढ़ वैरा प श ारा उसे काटनेक ेरणा करते ए चौथेम परमपद प परमे रको ा करनेके लये उसी आ दपु षक शरण हण करनेके लये कहा है। पाँचवम उस परमपदको ा होनेवाले पु ष के ल ण बतलाकर छठे म उस परमपदको परम काशमय और अपुनरावृ शील बतलाया ह। तदन र सातवसे ारहवतक जीवका प, मन और इ य के स हत उसके एक शरीरसे दूसरे शरीरम जानेका कार, शरीरम रहकर इ य और मनक सहायतासे वषय के उपभोग करनेक बात और ेक अव ाम त उस जीवा ाको ानी ही जान सकता है, म लन अ ःकरणवाला पु ष कसी कार भी नह जान सकता – इ ा द वषय का वणन कया गया है| बारहवम सम जगत्को का शत करनेवाले सूय और च मा दम त तेजको भगवान्का ही तेज बतलाकर तेरहव और चौदहवम भगवान्को पृ ीम वेश करके सम ा णय के धारण करनेवाले, च पसे सबके पोषण करनेवाले तथा वै ानर पसे सब कारके अ को पचानेवाले बतलाया ह। और पं हम सबके दयम त, सबक ृ त आ दके कारण, सम वेद ारा जाननेयो , वेद को जाननेवाले और वेदा के कता बतलाया गया है। सोलहवम सम भूत को र तथा कू ट , आ ाको अ र पु ष अ ायका नाम

बतलाकर स हवम उनसे भ सव ापी, सबका धारण-पोषण करनेवाले, अ वनाशी परमा ाको पु षो म बतलाया गया है। अठारहवम पु षो मत क स के हेतुका तपादन करके उ ीसवम भगवान् ीकृ को पु षो म समझनेवालेक म हमा एवं बीसवम उपयु गु तम वषयके ानक म हमा कहकर अ ायका उपसंहार कया गया है। ायम पाँचवसे अठारहव ोकतक तीन गुण के प, उनके काय एवं उनक ब नका रताका और बँधे ए मनु क उ म, म म और अधम ग त आ दका व ारपूवक वणन करके उ ीसव और बीसव ोक म उन गुण से अतीत होनेका उपाय और फल बतलाया गया| उसके बाद अजुनके पूछनेपर बाईसवसे पचीसव ोकतक गुणातीत पु षके ल ण और आचरण का वणन करके छ ीसव ोकम सगुण परमे रके अ भचारी भ योगको गुण से अतीत होकर ा के लये यो बननेका सरल उपाय बतलाया गया, अतएव भगवान्म अ भचारी भ योग प अन ेम उ करानेके उ े से अब उस सगुण परमे र पु षो मभगवान्के गुण, भाव और पका एवं गुण से अतीत होनेम धान साधन वैरा और भगवत्-शरणाग तका वणन करनेके लये पं हव अ ायका आर कया जाता ह। यहाँ पहले संसारम वैरा उ करानेके उ े से तीन ोक ारा संसारका वणन वृ के पम करते ए वैरा प श ारा उसका छेदन करनेके लये कहते ह – स

– चौदहव अ

ीभगवानुवाच । ऊ मूलमधःशाखम ं ा र यम् । छ ां स य पणा न य ं वेद स वेद वत् ॥१॥

ीभगवान् बोले – आ दपु ष परमे र प मूलवाले और प मु शाखावाले जस संसार प पीपलके वृ को अ वनाशी कहते ह; तथा वेद जसके प े कहे गये ह – उस संसार प वृ को जो पु ष मूलस हत त से जानता है, वह वेदके ता यको जाननेवाला है॥१॥ – यहाँ 'अ ाय है?

'श

के योगका और इस संसार प वृ को 'ऊ मूल' कहनेका

ाअभ उ र – 'अ ' पीपलके वृ को कहते ह। सम वृ म पीपलका वृ उ म माना गया है। इस लये उसके पकसे संसारका वणन करनेके लये यहाँ 'अ ' का योग कया

गया है। 'मूल' श कारणका वाचक है। इस संसारवृ क उ और इसका व ार आ दपु ष नारायणसे ही आ है, यह बात चौथे ोकम और अ भी ान- ानपर कही गयी है। वे आ दपु ष परमे र न , अन और सबके आधार ह एवं सगुण पसे सबसे ऊपर न धामम नवास करते ह, इस लये 'ऊ ' नामसे कहे जाते ह। यह संसारवृ उ मायाप त सवश मान् परमे रसे उ आ है, इस लये इसको 'ऊ मूल' अथात् ऊपरक ओर मूलवाला कहते ह। अ भ ाय यह है क अ साधारण वृ का मूल तो नीचे पृ ीके अंदर रहा करता है, पर इस संसारवृ का मूल ऊपर है – यह बड़ी अलौ कक बात है। – इस संसारवृ को नीचेक ओर शाखावाला कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – संसारवृ क उ के समय सबसे पहले ाका उ व होता है, इस कारण ा ही इसक धान शाखा ह। ाका लोक आ दपु ष नारायणके न धामक अपे ा नीचे है – एवं ाजीका अ धकार भी भगवान्क अपे ा नीचा है – ा उन आ दपु ष नारायणसे ही उ होते ह और उ के शासनम रहते ह – इस लये इस संसारवृ को 'नीचेक ओर शाखावाला' कहा है। –  'अ यम् ' और ' ा : ' – इन दो पद के योगका ा भाव है? उ र – इन दोन पद का योग करके भगवान्ने यह भाव दखलाया है क य प यह संसारवृ प रवतनशील होनेके कारण नाशवार अ न और णभंगुर है तो भी इसका वाह अना दकालसे चला आता है, इसके वाहका अ भी देखनेम नह आता; इस लये इसको अ य अथात् अ वनाशी कहते ह। क इसका मूल सवश मान् परमे र न अ वनाशी ह क ु वा वम यह संसारवृ अ वनाशी नह है। य द यह अ य होता तो न तो अगले तीसरे ोकम यह कहा जाता क इसका जैसा प बतलाया गया है, वैसा उपल नह होता और न इसको वैरा प ढ़ श के ारा छेदन करनेके लये ही कहना बनता। – वेद को इस संसारवृ के प े बतलानेका ा अ भ ाय हे? उ र – प े वृ क शाखासे उ एवं वृ क र ा और वृ करनेवाले होते ह। वेद भी इस संसार प वृ क मु शाखा प ासे कट ए ह और वेद व हत कम से ही संसारक वृ और र ा होती है, इस लये वेद को प का ान दया गया है।



जो उस संसारवृ को जानता है, वह वेद को जानता है – इस कथनका ा

अ भ ाय है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क जो मनु मूलस हत इस संसारवृ को इस कार त से जानता है क सवश मान् परमे रक मायासे उ यह संसारवृ क भाँ त उ - वनाशशील और णक है अतएव इसक चमक-दमकम न फँ सकर इसको उ करनेवाले मायाप त परमे रक शरणम जाना चा हये और ऐसा समझकर संसारसे वर और उपरत होकर जो भगवान्क शरण हण कर लेता है – वही वा वम वेद को जाननेवाला है; क पं हव ोकम सब वेद के ारा जाननेयो भगवान्को ही बतलाया है। जो संसारवृ का यह प जान लेता है, वह इससे उपरत होकर भगवान्क शरण हण करता है और भगवान्क शरणम ही स ूण वेद का ता य है – इस अ भ ायसे कहा गया है क जो संसारवृ को जानता है, वह वेद को जानता है।

अध ो सृता शाखा गुण वृ ा वषय वालाः । अध मूला नुस ता न कमानुब ी न मनु लोके ॥२॥

उस संसारवृ क तीन गुण प जलके ारा बढ़ी ई एवं वषयभोग प कोपल वाली देव, मनु और तयक् आ द यो न प शाखाएँ नीचे और ऊपर सव फैली ई ह तथा मनु लोकम कम के अनुसार बाँधनेवाली अहंता, ममता और वासना प जड़ भी नीचे और ऊपर सभी लोक म ा हो रही ह॥२॥

इन शाखा को गुण के ारा बढ़ी ई कहनेका और वषय को क पल बतलानेका ा अ भ ाय हे? उ र – अ ी और बुरी यो नय क ा गुण के संगसे होती है (१३।२१) एवं सम लोक और ा णय के शरीर तीन गुण के ही प रणाम ह, यह भाव समझानेके लये उन शाखा को गुण के ारा बढ़ी ई कहा गया है और उन शाखा म ही श , श, प, रस और ग – ये पाँच वषय रहते ह; इसी लये उनको क पल बतलाया गया है। – इस संसारवृ क ब त-सी शाखाएँ ा ह तथा उनका नीचे-ऊपर सब जगह फै लना ा है? –

उ र – लोकसे लेकर पातालपय जतने भी लोक और उनम नवास करनेवाली यो नयाँ ह वे ही सब इस संसारवृ क ब त-सी शाखाएँ ह और उनका नीचे पातालपय एवं ऊपर लोकपयना सव व ृत होना ही सब जगह फै लना है। – 'मूला न ' पद कनका वाचक है तथा उनको नीचे और ऊपर सभी लोक म ा बतलानेका ा अ भ ाय है और वे मनु लोकम कम के अनुसार बाँधनेवाले कै से ह? उ र – 'मूला न ' पद यहाँ अ व ामूलक 'अहंता', 'ममता' और 'वासना' का वाचक है। ये तीन लोकसे लेकर पातालपय सम लोक म नवास करनेवाले आवागमनशील ा णय के अ ःकरणम ा हो रही ह, इस लये इनको सव ा बतलाया गया है तथा मनु -शरीरम कम करनेका अ धकार है एवं मनु - शरीरके ारा अहंता, ममता और वासनापूवक कये ए कम ब नके हेतु माने गये ह; इसी लये ये मूल मनु लोकम कमानुसार बाँधनेवाले ह। दूसरी सभी यो नयाँ भोग-यो नयाँ ह, उनम कम का अ धकार नह है; अत: वहाँ अहंता, ममता और वासना प मूल होनेपर भी वे कमानुसार बाँधनेवाले नह बनते।

न पम ेह तथोपल ते ना ो न चा दन च स त ा । अ मेनं सु व ढमूलं अस श णे ढेन छ ा ॥३॥

इस संसारवृ का प जैसा कहा है वैसा यहाँ वचार-कालम नह पाया जाता। क न तो इसका आ द है, न अ है तथा न इसक अ ी कारसे त ही है। इस लये इस अहंता, ममता और वासना प अ त ढ़ मूल वाले संसार प पीपलके वृ को ढ़ वैरा प श ारा काटकर–॥३॥

इस संसारवृ का प जैसा कहा गया है, वैसा यहाँ नह पाया जाता–इस वा का ा भाव है? उ र – इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क इस संसारवृ का जैसा प शा म वणन कया गया है एवं जैसा देखने और सुननेम आता है, यथाथ वचार करनेपर और त ान होनेपर वैसा उपल नह होता; क वचारके समय भी वह नाशवान् और णभंगुर तीत होता है तथा त ान होनेके साथ तो उसका सदाके लये स ही छू ट जाता है। त ानीके लये वह रह ही नह जाता। इसी लये सोलहव ोकम उसका वणन र पु षके नामसे कया गया है। –

– इसका आ द, अ

और त नह है – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इस कथनसे संसारवृ को अ नवचनीय बतलाया है। कहनेका अ भ ाय यह है क यह संसार क के आ दम उ होकर क के अ म लीन हो जाता है, इस कार आ द-अ स होनेपर भी इस बातका पता नह है क इसक यह कट होने और लय होनेक पर रा कबसे आर ई और कबतक चलती रहेगी। तकालम भी यह नर र प रव तत होता रहता है; जो प पहले णम है वह दूसरे णम नह रहता। इस कार इस संसारवृ का आ द अ और त – तीन ही उपल नह होते। – इस संसारको 'सु व ढमूल' कहनेका ा अ भ ाय है तथा असंग-श ा है और उसके ारा संसारवृ को छेदन करना ा है? उ र – इस संसारवृ के जो अ व ामूलक अहंता, ममता और वासना प मूल ह – वे अना दकालसे पु होते रहनेके कारण अ ढ़ हो गये ह; अतएव जबतक उन जड़ को काट न डाला जाय तबतक इस संसारवृ का उ ेद नह हो सकता। वृ क भाँ त ऊपरसे काट डालनेपर भी अथात् बाहरी स का ाग कर देनेपर भी अहंता, ममता और वासनाका जबतक ाग नह होता, तबतक संसारवृ का उ ेद नह हो सकता – यही भाव दखलानेके लये तथा उन जड़ का उ ेद करना बड़ा ही दु र है, यह दखलानेके लये भी उस वृ को अ त ढ़ मूल से यु बतलाया गया है। ववेक ारा सम संसारको नाशवान् और णक समझकर इस लोक और परलोकके ी-पु , धन, मकान तथा मान, बड़ाई, त ा और ग आ द सम भोग म सुख, ी त और रमणीयताका न भासना – उनम आस का सवथा अभाव हो जाना ही ढ़ वैरा है, उसीका नाम यहाँ 'असंग-श ' है। इस असंग-श ारा जो चराचर सम संसारके च नका ाग कर देना – उससे उपरत हो जाना एवं अहंता, ममता और वासना प मूल का उ ेद कर देना है – यही संसारवृ का ढ़ वैरा प श के ारा समूल उ ेद करना है। स



इस कार वैरा प शा ारा संसारका छेदन करके

अब इसे बतलाते ह –

ा करना चा हए,

ततः पदं त रमा गत ं य गता न नवत भूयः । तमेव चा ं पु षं प े यतः वृ ः सृता पुराणी ॥४॥

उसके प ात् उस परमपद प परमे रको भलीभाँ त खोजना चा हये, जसम गये ए पु ष फर लौटकर संसारम नह आते और जस परमे रसे इस पुरातन संसारवृ क वृ व ारको ा ई है, उसी आ दपु ष नारायणके म शरण ँ – इस कार ढ़ न य करके उस परमे रका मनन और न द ासन करना चा हये॥४॥ – वह परम पद

ा है और उसको खोजना ा है? उ र – इस अ ायके पहले ोकम जसे 'ऊ ' कहा गया है, चौदहव अ ायके ीसव ोकम जो 'माम् ' पदसे और स ाईसव ोकम 'अहम् ' पदसे कहा गया है एवं अ ा ल म जसको कह परमपद, कह अ य पद और कह परम ग त तथा कह परम धामके नामसे भी कहा है – उसीको यहाँ परमपदके नामसे कहते ह। उस सवश मान्, सवाधार परमे रको ा करनेक इ ासे जो बार-बार उनके गुण और भावके स हत पका मनन और न द ासन ारा अनुस ान करते रहना है – यही उस परमपदको खोजना है। अ भ ाय यह है क तीसरे ोकम बतलाये ए वधानके अनुसार ववेकपूवक वैरा ारा संसारसे सवथा उपरत होकर मनु को उस परमपद प परमे रक ा के लये मनन, न द ासन ारा उसका अनुस ान करना चा हये। – जसम गये ए मनु फर संसारम नह लौटते – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क पछले वा म जस परमपदका अनुस ान करनेके लये कहा गया है, वह परमपद म ही ँ । अ भ ाय यह है क जस सवश मान्, सवाधार, सबका धारण-पोषण करनेवाले पु षो मको ा होनेके बाद मनु वापस नह लौटते – उसी परमे रको यहाँ 'परमपद'के नामसे कहा गया है। यही बात आठव अ ायके इ सव ोकम भी समझायी गयी है। – ' जससे इस पुराणी वृ का व ार आ है' इस वा का ा अ भ ाय है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क जस आ दपु ष परमे रसे इस संसारवृ क अना द पर रा चली आती है और जससे यह उ होकर व ारको ा आ है उसीक शरण हण करनेसे सदाके लये इस संसार-वृ का स छू टकर आ दपु ष परमा ाक ा हो सकती है।

– 'तम् ' और 'आ म् ' – इन दोन

पद के स हत 'पु षम् ' पद कसका वाचक है और ' प े ' याका योग करके यहाँ ा भाव दखलाया गया है? उ र – 'तम् ' और 'आ म् ' – इन दोन पद के स हत 'पु षम् ' पद उसी पु षो म भगवान्का वाचक है, जसका वणन पहले 'तत् ' और 'पदम् ' से कया गया है एवं जसक मायाश से इस चरकालीन संसारवृ क उ और व ृ त बतलायी गयी है। ' प े ' याका अथ होता है 'म उसक शरणम ँ ।' अतएव इसका योग करके भगवान्ने यह दखलाया है क उस परमपद प परमे रका अनुस ान उसीका आ य हण करके करना चा हये। अ भ ाय यह है क अपने अंदर जरा भी अ भमान न आने देकर और सब कारसे अन आ यपूवक एक परमे रपर ही पूण व ास करके उसीके भरोसेपर उपयु कारसे उसका अनुस ान करते रहना चा हये। – 'एव ' अ यके योगका ा भाव है? उ र – 'एव ' अ यका योग करके यह भाव दखलाया है क उसक ा के लये एकमा उस परमे रक ही शरणम जाना चा हये।

अब उपयु कारसे आ दपु ष परमपद प परमे रक शरण होकर उसको ा हो जानेवाले पु षके ल ण बतलाये जाते ह – स



नमानमोहा जतस दोषा अ ा न ा व नवृ कामाः । ै वमु ाः सुखदुःखसं ैग मूढाः पदम यं तत् ॥५॥

जनका मान और मोह न हो गया है, ज ने आस प दोषको जीत लया है, जनक परमा ाके पम न त है और जनक कामनाएँ पूण पसे न हो गयी ह – वे सुख-दःु ख नामक ५॥

से वमु

–  ' नमानमोहा: ' का

ानीजन उस अ वनाशी परमपदको ा

होते ह॥

ा अ भ ाय है? उ र – 'मान' श से यहाँ मान, बड़ाई और त ाका बोध होता है और 'मोह' श अ ववेक, वपयय- ान और म आ द तमोगुणके भाव का वाचक है। इन दोन से जो र हत ह – अथात् जो जा त, गुण, ऐ य और व ा आ दके स से अपने अंदर त नक भी बड़ नक

भावना नह करते एवं जनका मान, बड़ाई या त ासे तथा अ ववेक और म आ द तमोगुणके भाव से लेशमा भी स नह रह गया है – ऐसे पु ष को ' नमानमोहा:' कहते ह। – ' जतस दोषा: ' का ा भाव है? उ र – 'संग' श यहाँ आस का वाचक है। इस आस प दोषको ज ने सदाके लये जीत लया है, जनक इस लोक और परलोकके भोग म जरा भी आस नह रह गयी है, वषय के साथ स होनेपर भी जनके अ ःकरणम कसी कारका वकार नह हो सकता – ऐसे पु ष को ' जतस दोषा: ' कहते ह। – 'अ ा न ा: ' का ा भाव है? उ र – 'अ ा ' श यहाँ परमा ाके पका वाचक है। अतएव परमा ाके पम जनक न त हो गयी है, जनका णमा के लये भी परमा ासे वयोग नह होता और जनक त सदा अटल बनी रहती है – ऐसे पु ष को 'अ ा न ा: ' कहते ह। – ' व नवृ कामाः ' का ा भाव है? उ र – 'काम' श यहाँ सब कारक इ ा, तृ ा, अपे ा, वासना और ृहा आ द ूना धक भेद से वणन क जानेवाली मनोवृ त- प कामनाका वाचक है। अतएव जनक सब कारक कामनाएँ सवथा न हो गयी ह, जनम इ ा, कामना, तृ ा या वासना आ द लेशमा भी नह रह गयी ह – ऐसे पु ष को ' व नवृ कामा:' कहते ह। – सुख-दुःखसं क ा ह? और उनसे वमु होना ा है? उ र – शीत-उ , य-अ य, मान-अपमान, ु त- न ा इ ा द को सुख और दुःखम हेतु होनेसे सुख-दुःखसं क कहा गया है। इन सबसे क च ा भी स न रखना अथात् कसी भी के संयोग- वयोगम जरा भी राग- ेष, हष-शोका द वकारका न होना ही उन से सवथा मु होना है। इस लये ऐसे पु ष को सुख-दुःखनामक से वमु कहते ह। – 'अमूढा: ' पदका ा भाव है? उ र – 'अमूढा: ' पद जनम मूढ़ता या अ ानका सवथा अभाव हो, उन ानी महा ा का वाचक है। उपयु सम वशेषण का यही वशे है। इसका योग करके

भगवान्ने यह दखलाया है क ' नमानमोहा: ' आ द सम गुण से यु जो ानीजन ह, वे ही परमपदको ा होते ह। – वह अ वनाशी परमपद ा है और उसको ा होना ा है? उ र – चौथे ोकम जस पदका अनुस ान करनेके लये और जस आ द-पु षके शरण होनेके लये कहा गया है – उसी सवश मान् सवाधार परमे रका वाचक अ वनाशी परमपद है। तथा उस परमे रक मायासे व ारको ा ए इस संसारवृ से सवथा अतीत होकर उस परमपद प परमे रको पा लेना ही अ य पदको ा होना है।

उपयु ल ण वाले पु ष जसे ा करते ह, वह अ वनाशी पद कै सा है? ऐसी ज ासा होनेपर उस परमे रके पभूत परमपदक म हमा कहते ह – स



न त ासयते सूय न शशा ो न पावकः । य ा न नवत े त ाम परमं मम ॥६॥

[95]

जस परमपदको ा

होकर मनु

लौटकर संसारम नह आते, उस

परमपदको न सूय का शत कर सकता है, न च मा और न अ है॥६॥ –

यं काश

ही; वही मेरा परमधाम

जसको पाकर मनु वापस नह लौटते, वह मेरा परमधाम है – इस कथनका

ा अ भ ाय है? उ र – इस कथनसे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क मेरा जो न धाम है वह स दान मय, द , चेतन और मेरा ही प होनेके कारण वा वम मुझसे अ भ ही है। अत: यहाँ 'परमधाम' श मेरे न धाम तथा मेरे प और भाव आ द सभीका वाचक है। अ भ ाय यह है क जहाँ प ँ चनेके बाद इस संसारसे कभी कसी भी कालम और कसी भी अव ाम पुन: स नह हो सकता, वही मेरा परमधाम अथात् मायातीत धाम है और वही मेरा प है। इसीको अ , अ र और परमग त भी कहते ह (८।२१)। इसीका वणन करती ई ु त कहती है – ना

'य न सूय प त य न वायुवा त य न च मा भा त य न न ा ण भा य दह त य न मृ :ु वश त य न दःु खा न वश सदान ं परमान ं शा ं

शा तं सदा शवं

ा दव

तं यो ग ेयं परं पदं य ग ा न नवत े यो गन:। ' (बृह

'जहाँ

ाबाल–उ० ८।६)

सूय नह तपता, जहाँ वायु नह बहता, जहाँ च मा नह का शत होता, जहाँ तारे नह चमकते, जहाँ अ नह जलाता, जहाँ मृ ु नह वेश करती, जहाँ दुःख नह वेश करते और जहाँ जाकर योगी लौटते नह – वह सदान , परमान , शा , सनातन सदा क ाण प, ा द देवता के ारा व त, यो गय का ेय परमपद है।' – यहाँ 'तत् ' पद कसका वाचक है तथा उसको सूय, च मा और अ का शत नह कर सकते – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – 'तत्' पद यहाँ उसी अ वनाशी पदके नामसे कहे जानेवाले पूण पु षो मका वाचक है; तथा सूय, च मा और अ उसे का शत नह कर सकते – इस कथनसे उसक अ मेयता, अ च ता और अ नवचनीयताका नदश कया गया है। अ भ ाय यह है क सम संसारको का शत करनेवाले सूय, च मा और अ एवं ये जनके देवता ह – वे च ,ु मन और वाणी कोई भी उस परमपदको का शत नह कर सकते। इससे यह भी समझ लेना चा हये क इनके अ त र और भी जतने काशक त माने गये ह, उनमसे भी कोई या सब मलकर भी उस परमपदको का शत करनेम समथ नह ह; क ये सब उसीके काशसे – उसीक स ा- ू तके कसी अंशसे यं का शत होते ह (१५।१२)। यही सवथा यु यु भी है, अपने काशकको कोई कै से का शत कर सकते ह, जन ने , वाणी या मन आ द कसीक वहाँ प ँ च भी नह है, वे उसका वणन कै से कर सकते ह। ु तम भी कहा है – यतो वाचो नवत े अ ा

मनसा सह। (

'जहाँसे

ोप नषद)्

मनके स हत वाणी उसे ा कये बना ही लौट आती है, वह पूण परमा ा है।' अतएव वह अ वनाशी पद वाणी और मन आ दसे अ ही अतीत है; उसका प कसी कार भी बतलाया या समझाया नह जा सकता।

पहलेसे तीसरे ोकतक संसारवृ के नामसे र पु षका वणन कया, उसम जीव प अ र पु षके ब नका हेतु उसके ारा मनु यो नम अहंता, ममता और आस पूवक कये ए कमको बताया तथा उस ब नसे छू टनेका उपाय सृ कता आ द स



पु षक शरण हण करना बताया। इसपर यह ज ासा होती है क उपयु कारसे बँधे ए जीवका ा प है? और उसका वा वक प ा है? उसे कौन कै से जानता है? अत: इन सब बात का ीकरण करनेके लये पहले जीवका प बतलाते ह –

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । मनःष ानी या ण कृ त ा न कष त ॥७॥

इस देहम यह सनातन जीवा ा मेरा ही अंश है और वही इन कृ तम और पाँच इ य को आकषण करता है॥७॥

त मन

पद कसका वाचक है तथा उसम त जीवा ाको भगवान्ने अपना सनातन अंश बतलाकर ा भाव दखलाया है? उ र – 'जीवलोके ' पद यहाँ जीवा ाके नवास ान 'शरीर' का वाचक है। ूल, सू और कारण – इन तीन कारके शरीर का इसम अ भाव है। इनम त जीवा ाको सनातन और अपना अंश बतलाकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क कारण-शरीर म त जीवसमुदायका सू और ूल शरीर के साथ स करके म ही इस संसारक उ , त और पालन करनेवाला ँ (१४।३,४), इस लये म सबका परम पता ँ । अत: जैसे पताका अंश पु होता है, वैसे ही जीवसमुदाय मेरा अंश है तथा पसे भी जैसे म चेतन ँ , वैसे ही जीवसमुदाय भी चेतन है, इस लये यह मेरा अंश है, क जो यं चेतन है, वह कसी चेतनका ही अंश हो सकता हे, जडका नह । वा वम अंशीसे अंश भ नह होता। मेरी भाँ त जीवसमुदाय भी अना द और न है, इस लये यह सनातन है और मुझसे भ नह है। इसके सवा यहाँ अ ैत स ा के अनुसार तो यही भाव ठीक है क जस कार सव समभावसे त वभागर हत महाकाश घड़े और मकान आ दके स से वभ -सा तीत होने लगता है और उन घड़े आ दम त आकाश महाकाशका अंश माना जाता है – उसी कार य प म वभागर हत समभावसे सव ा ँ , तो भी भ - भ शरीर के स से पृथक् -पृथक् वभ -सा तीत होता ँ (१३।१६) और उन शरीर म त जीव मेरा अंश माना जाता है। यह भाव दखलानेके लये जीवा ाको भगवान्ने अपना अंश बतलाया है। – 'एव ' पदके योगका ा भाव है? – 'जीवलोके '

उ र – 'एव ' पदका योग करके भगवान्ने यह दखलाया है क उपयु कारसे यह जीवा ा मेरा ही अंश है, अत: पत: मुझसे भ नह है। – 'इ या ण ' पदके साथ ' कृ त ा न ' वशेषण देनेका ा अ भ ाय है और उनक सं ा मनके स हत छ: बतलानेका ा अ भ ाय है, क मनके स हत इ याँ तो ारह (१३।५) मानी गयी ह? उ र – इ याँ कृ तका काय ह और कृ तका काय प शरीर ही उनका आधार है; यह भाव दखलानेके लये उनके साथ ' कृ त ा न ' वशेषण दया गया है; तथा पाँच ाने य और एक मन – इन छह क ही सब वषय का अनुभव करनेम धानता है, कम य का काय भी बना ाने य के नह चलता; इस लये यहाँ मनके स हत इ य क सं ा छ: बतलायी गयी है। अतएव पांच कम य का इनम अ भाव समझ लेना चा हये। – जीवा ाका इन मनस हत छः इ य को आक षत करना ा है? जब जीवा ा शरीरसे नकलता है तब वह कम य, ाण और बु को भी साथ ले जाता है – ऐसा शा म कहा है; फर यहाँ इन छःको ही आकषण करनेक बात कै से कही गयी? उ र – जब जीवा ा एक शरीरसे दूसरे शरीरम जाता है, तब पहले शरीरमसे मनस हत इ य को आक षत करके साथ ले जाता है; यही इस जीवा ाका मनस हत इ य को आक षत करना है। वषय को अनुभव करनेम मन और पाँच ाने य क धानता होनेसे इन छह को आक षत करना बतलाया गया है। यहाँ 'मन' श अ ःकरणका वाचक है, अत: बु उसीम आ जाती है। और जीवा ा जब मनस हत इ य को आक षत करता है, तब ाण के ारा ही आक षत करता है, अत: पाँच कम य और पाँच ाण को भी इ के साथ समझ लेना चा हये। यह जीवा ा मनस हत छ: इ य को कस समय, कस कार और कस लये आक षत करता है तथा वे मनस हत छ: इ याँ कौन-कौन ह – ऐसी ज ासा होनेपर अब दो ोक म इसका उ र दया जाता है – स



शरीरं यदवा ो त य ा ु ामती रः । गृही ैता न संया त वायुग ा नवाशयात् ॥८॥

वायु ग के

ानसे ग को जैसे हण करके ले जाता है, वैसे ही देहा दका

जीवा ा भी जस शरीरका ाग करता है, उससे इन मनस हत इ जस शरीरको ा होता है, उसम जाता है॥८॥

ामी

य को हण करके फर

यहाँ 'आशयात् ' पद कसका वाचक है तथा ग और वायुके ा क च रताथता कस कार है? उ र – 'आशयात् ' पद यहाँ जन- जन व ु म ग रहती है – उन पु च न, के सर और क ूरी आ द व ु का वाचक है। उन व ु मसे ग को ले जानेक भाँ त मनस हत इ य को ले जानेके ा म 'आशय' यानी आधारके ानम ूलशरीर है और ग के ानम सू शरीर है, क पु ा द ग यु पदाथ का सू अंश ही ग होता है। यहाँ वायु ानम जीवा ा है। जैसे वायु ग को एक ानसे उड़ाकर ले जाता है और दूसरे ानम ा पत कर देता है – उसी कार जीवा ा भी इ य, मन, बु और ाण के समुदाय प सू शरीरको एक ूलशरीरसे नकालकर दूसरे ूलशरीरम ापन कर देता है। – यहाँ 'एता न ' पद कनका वाचक है और जीवा ाको ई र कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – 'एता न ' पद उपयु मनस हत पाँच ाने य का वाचक है। मन अ ःकरणका उपल ण होनेसे बु का उसम अ भाव है और पाँच कम याँ और पाँच ाण का अ भाव ाने य म है, अत: यहाँ 'एता न ' पद इन स ह त के समुदाय प सू शरीरका बोधक है। जीवा ाको ई र कहकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क यह इन मन-बु के स हत सम इ य का शासक और ामी है, इसी लये इनको आक षत करनेम समथ है। – 'यत् ' पदका दो बार योग करके 'उ ाम त ' और 'अवा ो त ' इन दो या से ा भाव दखलाया गया है? उ र – एक 'यत् ' पद जसको यह जीव ाग देता है उस शरीरका वाचक है और दूसरा 'यत् ' जसको यह हण करता है उस शरीरका वाचक है – यही भाव दखलानेके लये 'यत् ' पदका दो बार योग करके 'उ ाम त ' और 'अवा ो त ' इन दो या का योग कया गया है। शरीरका ाग करना 'उ ाम त ' का और नवीन शरीरका हण करना 'अवा ो त ' याका अथ है। –

–आ फर यहाँ 'संया त ' कही गयी?

ाका प तो दूसरे अ ायके चौबीसव ोकम अचल माना गया है, याका योग करके उसके एक शरीरसे दूसरे शरीरम जानेक बात कै से

उ र – य प जीवा ा परमा ाका ही अंश होनेके कारण व ुत: न और अचल है, उसका कह आना-जाना नह बन सकता – तथा प सू शरीरके साथ इसका स होनेके कारण सू शरीरके ारा एक ूलशरीरसे दूसरे ूलशरीरम जीवा ाका जाना-सा तीत होता है; इस लये यहाँ 'संया त ' याका योग करके जीवा ाका एक शरीरसे दूसरे शरीरम जाना बतलाया गया है। दूसरे अ ायके बाईसव ोकम भी यही बात कही गयी है।

ो ं च ःु शनं च रसनं ाणमेव च । अ ध ाय मन ायं वषयानुपसेवते ॥९॥

यह जीवा ा ो , च ु और चाको तथा रसना, ाण ओर मनको आ य करके अथात् इन सबके सहारेसे ही वषय का सेवन करता है॥९॥ – जीवा

ाका ो , चा, च ,ु रसना और ाण – इन पाँच इ य के स हत मनको आ य बनाना ा है? और इनके सहारेसे ही जीवा ा वषय का सेवन करता है, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – जीवा ाका अ ःकरण और इ य के साथ अपना स मान लेना ही उनको आ य बनाना है। जीवा ा इनके सहारेसे ही वषय का सेवन करता है, इस कथनका यह भाव है क वा वम आ ा न तो कम का कता है और न उनके फल प वषय एवं सुखदुःखा दका भो ा ही; कतु कृ त और उसके काय के साथ जो उसका अ ानज नत अना द स है, उसके कारण वह कता - भो ा बना आ है। तेरहव अ ायके इ सव ोकम भी कहा है क कृ त पु ष ही कृ तज गुण को भोगता है। ु तम भी कहा है – 'आ े यमनोयु ं भो े ा मनी षण: ।' (कठोप नषद ् १।३।४) अथात् 'मन, बु और इ य से यु आ ाको ही ानीजन भो ा – ऐसा कहते है।'

जीक ाको तीन गुण से स , एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरम जानेवाला और शरीरम रहकर वषय का सेवन करनेवाला कहा गया। अतएव यह ज ासा होती स



है क ऐसे आ ाको कौन कै से जानता है और कौन नह जानता? इसपर दो ोक म भगवान् कहते ह –

उ ाम ं तं वा प भु ानं वा गुणा तम् । वमूढा नानुप प ानच षु ः ॥१०॥

शरीरको छोड़कर जाते एको अथवा शरीरम त एको अथवा वषय को भोगते एको इस कार तीन गुण से यु एको भी अ ानीजन नह जानते, केवल ान प ने वाले ववेकशील ानी ही त से जानते ह॥१०॥ – 'गुणा तम् ' पद कसका वाचक है तथा 'अ प ' का शरीर छोड़कर जाते, शरीरम त रहते और वषय को भोगते रहनेपर भी अ जानते – इस कथनका ा अ भ ाय है?

योग करके उसके ानीजन उसको नह

उ र –  'गुणा तम् ' पद यहाँ गुण से स रखनेवाले ' कृ त पु ष' (जीवा ा)का वाचक है अतएव 'अ प ' का योग करके यह भाव दखलाया है क य प वह सबके सामने ही शरीर छोड़कर चला जाता है और सबके सामने ही शरीरम त रहता है, तथा वषय का उपभोग करता है, तो भी अ ानीलोग उसके यथाथ पको नह समझते। फर सम या से र हत गुणातीत पम त आ ाको तो वे समझ ही कै से सकते ह। – उसको ान प ने से यु ववेकशील ानी ही त से जानते ह, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इस कथनसे यह दखलाया है क जन पु ष को ववेक ान प ने ा हो चुके ह, ऐसे ववेकशील ानी उस आ ाके यथाथ पको गुण के साथ उसका स रहते ए भी जानते ह अथात् शरीर छोड़कर जाते समय, शरीरम रहते समय और वषय का उपभोग करते समय हरेक अव ाम ही वह आ ा वा वम कृ तसे सवथा अतीत, शु , बोध प और असंग ही है – ऐसा समझते ह।

यत ो यो गन नै ं प ा व तम् । यत ोऽ कृ ता ानो नैनं प चेतसः ॥११॥

य करनेवाले योगीजन भी अपने दयम त इस आ ाको त से जानते ह; कतु ज ने अपने अ ःकरणको शु नह कया है, ऐसे अ ानीजन तो य करते

रहनेपर भी इस आ ाको नह जानते॥११॥ – 'य

करनेवाले योगीजन' कौन ह और उनका अपने दयम त 'इस आ ाको त से जानना' ा है? उ र – जनका अ ःकरण शु है और अपने वशम है, पूव ोकम जन ववेकशील ा नय के लये आ ाको जाननेक बात कही है तथा जो आ पको जाननेके लये नर र वण, मनन और न द ासना द य करते रहते ह – ऐसे उ को टके साधक ही 'य करनेवाले योगीजन' ह तथा जस जीवा ाका करण चल रहा है और जो शरीरके स से दयम त कहा जाता है, उसके न -शु व ानान मय वा वक पको यथाथ जान लेना है – यही उनका 'इस आ ाको त से जानना' है। – 'अकृता ान: ' और 'अचेतस: ' पद कै से मनु के वाचक है और वे य करते ए भी इस आ ाको नह जानते, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – जनका अ ःकरण शु नह है अथात् न तो न ाम कम आ दके ारा जनके अ ःकरणका मल सवथा धुल गया है, एवं न ज ने भ आ दके ारा च को र करनेका ही कभी समु चत अ ास कया है – ऐसे म लन और व अ ःकरणवाले पु ष को 'अकृ ता ा' कहते ह। और जनके अ ःकरणम बोधश नह है, उन मूढ़ मनु को 'अचेतस: ' कहते ह। अतएव 'अकृता ान: ' और 'अचेतस: ' पद मल, व ेप और आवरण – इन तीन दोष से यु अ ःकरणवाले राजस, तामस मनु के वाचक ह। ऐसे मनु य करते ए भी आ ाको नह जानते, इस कथनसे यह दखलाया गया है क ऐसे मनु अपने अ ःकरणको शु बनानेक चे ा न करके य द के वल उस आ ाको जाननेके लये शा ालोचन प य करते रह तो भी उसके त को नह समझ सकते। – दसव ोकम यह बात कही गयी क उस आ ाको मूढ़ नह जानते, ानने से यु ववेकशील ानी जानते ह; एवं इस ोकम यह बात कही गयी क य करनेवाले योगी उसे जानते ह, अशु अ ःकरणवाले अ ानी नह जानते। इन दोन वणन म ा भेद है? उ र – दसव ोकम ' वमूढाः ' पद साधारण अ ानी मनु का वाचक है और ' ानच ष ु : ' पद ववेकशील ा नय का वाचक है एवं इस ोकम भी 'यो गनः ' पद उ ववेकशील सा क उ को टके साधक का वाचक है और 'अचेतस: ' पद राजस-तामस

मनु का वाचक है। अतएव दसव ोकम जो आ ाके पके जानने और न जाननेक बात कही गयी है, उसीको करनेके लये इस ोकम यह कहा है क वे ववेकशील तो य करनेसे जानते है और अ ानीलोग य करनेपर भी नह जानते। अत: इसम कोई भेदक बात नह है।

छठे ोकपर दो शंकाएँ होती ह – पहली यह क सबके काशक सूय, च मा और अ आ द तेजोमय पदाथ परमा ाको नह का शत कर सकते और दूसरी यह क परमधामको ा होनेके बाद पु ष वापस नह लौटते? इनमसे दूसरी शंकाके उ रम सातव ोकम जीवा ाको परमे रका सनातन अशं बतलाकर ारहव ोकतक उसके पु, भाव और वहारका वणन करते ए उसका यथाथ प जाननेवाल क म हमा कही गयी। अब पहली शंकाका उ र देनेके लये भगवान् बारहवसे प हव ोकतक गुण, भाव और ऐ यस हत अपने पका वणन करते ह – स



यदा द गतं तेजो जग ासयतेऽ खलम् । य म स य ा ौ त ेजो व मामकम् ॥१२॥

सूयम त जो तेज समपूण जगत्को का शत करता है तथा जो तेज च माम है और जो अ म है – उसको तू मेरा ही तेज जान॥१२॥

वशेषणके स हत 'तेज: ' पद कसका वाचक है और वह सम जगत्को का शत करता है, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – सूयम लम जो एक महान् ो त है उसका वाचक यहाँ 'आ द गतम् ' वशेषणके स हत 'तेज: ' पद है; और वह सम जगत्को का शत करता है, यह कहकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क ूल संसारक सम व ु को एक सूयका तेज ही का शत करता है। – च माम और अ म त तेज कसका वाचक है और उन तीन म त तेजको तू मेरा ही तेज समझ, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – च माम जो ो ना है, उसका वाचक च तेज है एवं अ म जो काश है, उसका वाचक अ तेज है। इस कार सूय, च मा और अ म त सम तेजको अपना तेज बतलाकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क उन तीन म और वे जनके देवता ह – – 'आ द गतम् '

ऐसे ने , मन और वाणीम व ुको का शत करनेक जो कु छ भी श है – वह मेरे ही तेजका एक अंश है। जब क इन तीन म त तेज भी मेरे ही तेजका अंश है, तब जो इन तीन के स से तेजयु कहे जानेवाले अ ा पदाथ ह – उन सबका तेज मेरा ही तेज है, इसम तो कहना ही ा है। इसी लये छठे ोकम भगवान्ने कहा है क सूय, च मा और अ – ये सब मेरे पको का शत करनेम समथ नह है।

गामा व च भूता न धारया हमोजसा । पु ा म चौषधीः सवाः सोमो भू ा रसा कः ॥१३॥

और म ही पृ ीम वेश करके अपनी श से सब भूत को धारण करता ँ और रस प अथात् अमृतमय च मा होकर स ूण ओष धय को अथात्वन तय को पु करता ँ ॥१३॥ – म ही पृ

ीम व होकर अपनी श से सम भूत को धारण करता ँ , इस

कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे भगवान् पृ ीको उपल ण बनाकर व ा पनी धारणश को अपना अंश बतलाते ह। अ भ ाय यह है क इस पृ ीम जो भूत को धारण करनेक श तीत होती है तथा इसी कार और कसीम जो धारण करनेक श है – वह वा वम उसक नह , मेरी ही श का एक अंश हे। अतएव म यं ही आ पसे पृ ीम व होकर अपने बलसे सम ा णय को धारण करता ँ । – 'रसा क: ' वशेषणके स हत 'सोम: ' पद कसका वाचक है और इस वशेषणके योगका ा भाव है? उ र – रस ही जसका प हो, उसे रसा क कहते ह, अतएव 'रसा क: ' वशेषणके स हत 'सोम: ' पद च माका वाचक है। और यहाँ 'सोम: ' के साथ 'रसा क: ' वशेषण देकर यह भाव दखलाया गया है क च माका प रसमय – अमृतमय है तथा वह सबको रस दान करनेवाला है। –  'ओषधी: ' पद कसका वाचक है और 'म ही च मा बनकर सम ओष धय को पु करता ँ ' इस कथनका ा अ भ ाय है?

उ र – 'ओषधी: ' पद प , पु और फल आ द सम अंग- ंग के स हत वृ , लता और तृण आ द जनके भेद ह – ऐसी सम वन तय का वाचक है। तथा म ही च मा बनकर सम ओष धय का पोषण करता ँ इससे भगवान्ने यह दखलाया है क जस कार च माम काशनश मेरे ही काशका अंश है, उसी कार जो उसम पोषण करनेक श है – वह भी मेरी ही श का एक अंश हे; अतएव म ही च माके पम कट होकर सबका पोषण करता ँ ।

अहं वै ानरो भू ा ा णनां देहमा तः । ाणापानसमायु ः पचा ं चतु वधम् ॥१४॥

म ही सब ा णय के शरीरम अ

त रहनेवाला ाण और अपानसे संयु

वै ानर

प होकर चार कारके अ को पचाता ँ ॥१४॥

यहाँ ' ा णनां देहमा त: ' वशेषणके स हत 'वै ानर: ' पद कसका वाचक है और म ाण और अपानसे संयु वै ानर बनकर चार कारके अ को पचाता ँ , भगवान्के इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – जसके कारण सबके शरीरम गरमी रहती है और अ का पाक होता है, सम ा णय के शरीरम नवास करनेवाले उस अ का वाचक यहाँ ' ा णनां देहमा तः ' वशेषणके स हत 'वै ानर: ' पद है। तथा भगवान्ने 'म ही ाण और अपानसे संयु वै ानर अ होकर चार कारके अ को पचाता ँ ' इस कथनसे यह भाव दखलाया है क जस कार अ क काशनश मेरे ही तेजका अंश है, उसी कार उसका जो उ है अथात् उसक जो पाचन, दीपन करनेक श है –वह भी मेरी ही श का अंश है। अतएव म ही ाण और अपानसे संयु ा णय के शरीरम नवास करनेवाले वै ानर अ के पम भ , भो , ले और चो पदाथ को अथात् दाँत से चबाकर खाये जानेवाले रोटी, भात आ द; नगलकर खाये जानेवाले रबड़ी, दूध, पानी आ द; चाटकर खाये जानेवाले शहद, चटनी आ द और चूसकर खाये जानेवाले ऊख आ द – ऐसे चार कारके भोजनको पचाता ँ । –

इस कार दसव अ ायके इकतालीसव ोकके भावानुसार काशनश , धारणश , पोषणश और पाचनश आ द सम श य को अपनी श का एक अंश बतलाकर – अथात जैसे पंखा चलाकर वायुका व ार करनेम, ब ी स



जलाकर काश फै लानेम, च घुमानेम, जल आ दको गरम करनेम तथा रे डयो आ दके ारा श का ाक करनेम एक ही बजलीक श का अंश सब काय करता है, वैसे ही सूया, च मा और अ आ दके ारा सबको का शत करनेम, पृ ी आ दके ारा सबको धारण करनेम, च माके ारा सबका पोषण करनेम तथा वै ानरके ारा अ को पचानेम मेरी ही श का एक अंश सब कु छ करता है – यह बात कहकर अब भगवान् अपने सवा या म ओर सव आ द गुण से यु पका वणन करते ए सब कारसे जाननेयो अपनेको बतलाते ह –

सव चाहं द स व ो म ः ृ त ानमपोहन । वेदै सवरहमेव वे ो वेदा कृ ेद वदेव चाहम् ॥१५॥

म ही सब ा णय के दयम अ यामी पसे त ँ तथा मुझसे ही ृ त, ान और अपोहन होता है और सब वेद ारा म ही जाननेके यो ँ तथा वेदा का कता और वेद को जाननेवाला भी म ही ँ ॥१५॥ – म सबके

दयम त ँ – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क य प म सव समभावसे प रपूण ँ , फर भी सबके दयम अ यामी पसे मेरी वशेष त है अतएव दय मेरी उपल का वशेष ान है। इसी लये 'म सबके दयम त ँ ' ऐसा कहा जाता है (१३। १७;१८।६१); क जनका अ ःकरण शु और होता है उनके दयम मेरा दशन होता है। – ' ृ त', ' ान' और 'अपोहन' श का अथ ा है? और ये तीन मुझसे ही होते ह, यह कहकर भगवान्ने ा भाव दखलाया है? उ र – पहले देखी-सुनी या कसी कार भी अनुभव क ई व ु या घटना दके रणका नाम ' ृ त' है। कसी भी व ुको यथाथ जान लेनेक श का नाम ' ान' है। तथा संशय, वपयय आ द वतक-जालका वाचक 'ऊहन' है और उसके दूर होनेका नाम 'अपोहन' है। ये तीन मुझसे ही होते ह, यह कहकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क सबके दयम त म अ यामी परमे र ही सब ा णय के कमानुसार उपयु ृ त, ान और अपोहन आ द भाव को उनके अ ःकरणम उ करता ँ ।

– सम

वेद ारा जाननेके यो म ही ँ – इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क म सवश मान् परमे र ही सम वेद का वधेय ँ । अथात् उनम कमका उपासनाका और ानका ा क जतने भी वणन ह – उन सबका अ म ल संसारम वैरा उ करके सब कारके अ धका रय को मेरा ही ान करा देना है। अतएव उनके ारा जो मनु मेरे पका ान ा करते ह, वे ही वेद के अथको ठीक समझते ह। इसके वपरीत जो लोग सांसा रक भोग म फँ से रहते ह, वे उनके अथको ठीक नह समझते। – 'वेदा ' श यहाँ कसका वाचक है एवं भगवान्ने अपनेको उसका कता एवं सम वेद का ाता बतलाकर ा भाव दखलाया है? उ र – वेद के ता य नणयका अथात् वेद वषयक शंका का समाधान करके एक परमा ाम सबके सम यका नाम 'वेदा ' है। उसका कता अपनेको बतलाकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क वेद म तीत होनेवाले वरोध का वा वक सम य करके मनु को शा दान करनेवाला म ही ँ तथा वेद का ाता भी म ही ँ , इससे यह भाव दखलाया है क उनके यथाथ ता यको म ही जानता ँ । स – पहलेसे छठे ोकतक वृ पसे संसारका, ढ़ वैरा के ारा उसके छेदनका, परमे रक शरणम जानेका, परमा ाको ा होनेवाले पु ष के ल ण का और परमधाम प परमे रक म हमाका वणन करते ए अ वृ प र पु षका करण पूरा कया गया। तदन र सातव ोकसे 'जीव' श वा उपासक अ र पु षका करण आर करके उसके प, श , भाव और वहारका वणन करके एवं उसे जाननेवाल क म हमा कहते ए ारहव ोकतक उस करणको पूरा कया। फर बारहव ोकसे उपा देव 'पु षो म' का करण आर करके प ंहवतक उसके गुण, भाव और पका वणन करते ए उस करणको भी पूरा कया। अब अ ायक समा तक पूव तीन करण का सार सं ेपम बतलानेके लये अगले ोकम र और अ र पु षका प बतलाते ह –

ा वमौ पु षौ लोके र ा र एव च । रः सवा ण भूता न कू ट ोऽ र उ ते ॥१६॥

इस संसारम नाशवान् और अ वनाशी भी, ये दो कारके पु ष ह। इनम स ूण भूत ा णय के शरीर तो नाशवान् और जीवा ा अ वनाशी कहा जाता है॥१६॥

और ' ौ ' – इन दोन सवनाम पद के स हत 'पु षौ ' पद कन दो पु ष का वाचक है तथा एकक र और दूसरेको अ र कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – जनका संग इस अ ायम चल रहा है, उ मसे दो त का वणन यहाँ ' र' और 'अ र' नामसे कया जाता है – यह भाव दखलानेके लये 'इमौ ' और ' ौ ' – इन दोन पद का योग कया गया है। जन दोन त का वणन सातव अ ायम 'अपरा' और 'परा' कृ तके नामसे (७।४-५), आठव अ ायम 'अ धभूत' और 'अ ा ' के नामसे (८।३-४), तेरहव अ ायम ' े ' और ' े ' के नामसे (१३।१) और इस अ ायम पहले 'अ ' और 'जीव' के नामसे कया गया है – उ दोन त का वाचक 'पु षौ ' पद है। उनमसे एकको ' र' और दूसरेको 'अ र' कहकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क दोन पर र अ वल ण ह। – 'सवा ण भूता न ' और 'कूट : ' पद कनके वाचक ह तथा वे र और अ र कै से ह? उ र – 'भूता न ' पद यहाँ सम जीव के ूल, सू और कारण – तीन कारके शरीर का वाचक हे। इ को तेरहव अ ायके पहले ोकम ' े ' के नामसे कहकर पाँचव ोकम उसका प बतलाया है। उस वणनसे सम जडवगका वाचक यहाँ 'सवा ण ' वशेषणके स हत 'भूता न ' पद हो जाता है। यह त नाशवान् और अ न है। दूसरे अ ायम 'अ व इमे देहा: ' (२।१८) और आठव अ ायम 'अ धभूतं रो भाव: ' (८।४) से यही बात कही गयी है। 'कू ट ' श यहाँ सम शरीर म रहनेवाले आ ाका वाचक है। यह सदा एकसा रहता है, इसम प रवतन नह होता; इस लये इसे 'कू ट ' कहते ह। ओर इसका कभी कसी अव ाम य, नाश या अभाव नह होता; इस लये यह अ र है। – 'इमौ '

भगवान्के



इस कार र और अ रपु षका प बतलाकर अब उन दोन से े पका और पु षो म होनेके कारणका वणन दो शलोकम करते ह – –

उ मः पु ष यो लोक यमा व

ः परमा े ुधा तः । बभ य ई रः ॥१७॥

इन दोन से उ म पु ष तो अ ही है, जो तीन लोक म वेश करके सबका धारण-पोषण करता है एवं अ वनाशी परमे र और परमा ा – इस कार कहा गया है॥ १७॥ – 'उ म: पु ष: '

कसका वाचक है तथा 'तु ' और 'अ

:'–

इन दोन पद का

ा भाव है? उ र – 'उ म: पु ष: ' न , शु , बु , मु , सवश मान्, परम दयालु, सवगुणस पु षो म भगवान्का वाचक है तथा 'तु ' और 'अ ' – इन दोन के ारा पूव ' र' पु ष और 'अ र' पु षसे भगवान्क वल णताका तपादन कया गया है। अ भ ाय यह है क उ म पु ष उन पूव दोन पु ष से भ और अ े है। – जो तीन लोक म वेश करके सबका धारण-पोषण करता है, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इस कथनसे पु षो मके ल णका न पण कया गया है। अ भ ाय यह है क जो सवाधार, सव ापी परमे र सम जगत्म व होकर 'पु ष' नामसे व णत ' र' और 'अ र' दोन त का धारण और सम ा णय का पालन करता है – वही उन दोन से भ और उ म 'पु षो म' है। – जो अ य, ई र और परमा ा कहा गया है – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इससे भी उस 'पु षो म' मै का ही ल ण बतलाया गया है। अ भ ाय यह है क – जो तीन लोक म व रहकर उनके नाश होनेपर भी कभी न नह होता, सदा ही न वकार, एकरस रहता है; तथा जो र और अ र – इन दोन का नयामक और ामी तथा सवश मान् ई र है एवं जो गुणातीत, शु और सबका आ ा है – वही परमा ा 'पु षो म' है। र, अ र और ई र – इन तीन त का वणन ेता तरोप नषदम् इस कार आया है – रं धानममृता रं हर: रा ानावीशते देव एक:। (१।१०)

धान यानी कृ तका नाम र है और उसके भो ा अ वनाशी आ ाका नाम अ र है। कृ त और आ ा – इन दोन का शासन एक देव (पु षो म) करता है। '

य ा रमतीतोऽहम राद प चो मः । अतोऽ लोके वेदे च थतः पु षो मः ॥१८॥

क म नाशवान् जडवग- े से तो सवथा अतीत ँ और अ वनाशी जीवा ासे भी उ म ँ , इस लये लोकम और वेदम भी पु षो म नामसे स ँ ॥१८॥ – यहाँ 'अहम् ' पदके

योगका ा भाव है? उ र –  'अहम् ' का योग करके भगवान्ने उपयु ल ण से यु पु षो म यं म ही ँ , इस कार अजुनके सामने अपने परम रह का उदघाटन कया है। ् – भगवान्ने अपनेको रसे अतीत और अ रसे भी उ म बतलाकर ा भाव दखलाया है उ र –  ' र' पु षसे अतीत बतलाकर भगवान्ने यह दखलाया है क म र पु षसे सवथा स र हत और अ वल ण ँ – अथात् जो तेरहव अ ायम शरीर और े के नामसे कहा गया है, उस तीन गुण के समुदाय प सम वनाशशील जडवगसे म सवथा न ल ँ । अ रसे अपनेको उ म बतलाकर यह भाव दखलाया है क र पु षक भाँ त अ रसे म अतीत तो नह ँ , क वह मेरा ही अंश होनेके कारण अ वनाशी और चेतन है; कतु उससे म उ म अव ँ , क वह ' कृ त ' और म कृ तसे पर अथात् गुण से सवथा अतीत ँ । अत: वह अ है म सव ँ ; वह नय है म नयामक ँ ; वह मेरा उपासक है, म उसका ामी उपा देव ँ ; और वह अ श स है और म सवश मान् ँ ; अतएव उसक अपे ा म सब कारसे उ म ँ । – 'य ात् ' और 'अत: ' – इन हेतुवाचक पद का योग करके म लोक और वेदम 'पु षो म' नामसे स ँ , यह कहनेका ा भाव है? उ र – 'य ात् ' और 'अत: ' – इन हेतुवाचक पद का योग करके अपनेको लोक और वेदम पु षो मनामसे स बतलाते ए भगवान्ने अपने पु षो म को स कया है।

अ भ ाय यह है क उपयु कारण से म रसे अतीत और अ रसे उ म ँ ; इस लये स ूण जगत्म एवं वेद-शा म म पु षो म नामसे स ँ , अथात् सब मुझे पु षो म ही कहते ह।

अब ऊपर कहे ए म हमा और ल ण बतलाते ह – स



ारसे भगवान्को पु षो म समझनेवाले पु षक

यो मामेवमस ूढो जाना त पु षो मम् । स सव व ज त मां सवभावेन भारत ॥१९॥

हे भारत! जो ानी पु ष मुझको इस कार त से पु षो म जानता है, वह सव पु ष सब कारसे नर र मुझ वासुदेव परमे रको ही भजता है॥१९॥ – यहाँ 'एवम् ' का

ा भाव है? उ र – 'एवम् ' अ य यहाँ ऊपरके दो ोक म कये ए वणनका नदश करता है। – 'माम् ' कसका वाचक है और उसको 'पु षो म' जानना ा है? उ र – 'माम् ' पद यहाँ सवश मान, सवाधार, सम जगत्का सृजन, पालन और संहार आ द करनेवाले, सबके परम सुहद,् सबके एकमा नय ा, सवगुणस , परम दयालु, परम ेमी, सवा यामी, सव ापी, परमे रका वाचक है और वे ही उपयु दो ोक म व णत कारसे र और अ र दोन पु ष से उ म गुणातीत और सवगुणस साकारनराकार, ा प परम पु ष पु षो म ह – ऐसा ापूवक पूण पसे मान लेना ही उनको 'पु षो म' जानना है। – 'अस ूढ़: ' पदका ा भाव है? उ र – जसका ान संशय, वपयय आ द दोष से शू हो; जसम मोहका जरा भी अंश न हो – उसे 'अस ूढ़:' कहते ह। अतएव यहाँ 'अस ूढ़: ' का योग करके भगवान्ने यह भाव दखलाया है क जो मनु मुझे साधारण मनु न मानकर सा ात् सवश मान् परमे र पु षो म समझता है, उसका जानना ही यथाथ जानना है। – 'सव वद ् ' का ा भाव है? उ र – जो स ूण जाननेयो व ु को भलीभाँ त जानता हो उसे 'सव वद ् ' कहते ह। इस अ ायम र, अ र और पु षो म – इस कार तीन भाग म वभ करके सम

पदाथ का वणन कया गया है। अतएव जो र और अ र दोन के यथाथ पको समझकर उनसे भी अ उ म पु षो मके त क जानता है, वही 'सव वद ् ' है – अथात् सम पदाथ को यथाथ समझनेवाला है; इसी लये उसको 'सव वद ् ' कहा है। – भगवान्को पु षो म जाननेवाले पु षका उनको सवभावसे भजना ा है तथा 'वह मुझे सवभावसे भजता है' इस कथनका ा उ े है? उ र – भगवान्को पु षो म समझनेवाले पु षका जो सम जगत्से ेम हटाकर के वल मा परम ेमा द एक परमे रम ही पूण ेम करना एवं बु से भगवान्के गुण, भाव, त , रह , लीला, प और म हमापर पूण व ास करना; उनके नाम, गुण, भाव, च र और प आ दका ा और ेमपूवक मनसे च न करना, कान से वण करना, वाणीसे क तन करना, ने से दशन करना एवं उनक आ ाके अनुसार सब कु छ उनका समझकर तथा सबम उनको ा समझकर कत -कम ारा सबको सुख प ँ चाते ए उनक सेवा आ द करना – यही भगवान्को सब कारसे भजना है। तथा 'वह सवभावसे मुझे भजता है' इस वा का योग यहाँ भगवान्को 'पु षो म' जाननेवाले पु षक पहचान बतलानेके उ े से कया गया है। अ भ ाय यह है क जो भगवान्को रसे अतीत और अ रसे उ म समझ लेता है, वह के वल भगवान्को ही उपयु कारसे नर र भजता है – यही उसक पहचान है।

कार भगवानको पु षो म जाननेवाले पु षक म हमाका वणन करके अब इस अ ायम व णत वषयको गु तम बतलाकर उसे जाननेका फल वणन करते ए इस अ ायका उपसंहार करते ह – स

– इस

इ त गु तमं शा मदमु ं मयानघ । एत दु ् ा बु मा ा ृ तकृ भारत ॥२०॥

हे न ाप अजुन! इस कार यह अ त रह यु गया, इसको त से जानकर मनु – 'अनघ ' स

गोपनीय शा

मेरे ारा कहा

ानवान् और कृताथ हो जाता है॥२०॥

ोधनका ा अ भ ाय है? उ र – 'अघ' नाम पापका है। जसम पाप न हो, उसे 'अनघ ' कहते ह। भगवान्ने अजुनको यहाँ 'अनघ' नामसे स ो धत करके यह भाव दखलाया है क तु ारे अंदर पाप नह

है, तु ारा अ ःकरण शु और नमल है, अत: तुम मेरे इस गु तम उपदेशको सुननेके और धारण करनेके पा हो। – 'इ त ' और 'इदम् ' पदके स हत 'शा म् ' पद यहाँ इस अ ायका वाचक है या सम गीताका? उ र – 'इ त ' और 'इदम् ' के स हत 'शा म् ' पद यहाँ इस पं हव अ ायका वाचक है; 'इदम् ' से इस अ ायका और 'इ त ' से उसक समा का नदश कया गया है एवं उसे आदर देनेके लये उसका नाम 'शा ' रखा गया है। – इस उपदेशको गु तम बतलानेका और 'मेरे ारा कहा गया' इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इसे गु तम बतलाकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क इस अ ायम मुझ सगुण परमे रके गुण, भाव, त और रह क बात धानतासे कही गयी है; इस लये यह अ तशय गु रखनेयो है। म हर कसीके सामने इस कारसे अपने गुण, भाव, त और ऐ यको कट नह करता; अतएव तु भी अपा के सामने इस रह को नह कहना चा हये। तथा 'यह मेरे ारा कहा गया' ऐसा कहकर भगवान्ने यह दखलाया है क यह मुझ सवश मान् सव परमे र ारा उप द है, अत: यह सम वेद और शा का परम सार है। – इस शा को त से जानना ा है तथा जाननेवालेका बु मान् हो जाना और कृ तकृ हो जाना ा है? उ र – इस अ ायम व णत भगवान्के गुण, भाव, त और प आ दको भलीभाँ त समझकर भगवान्को पूव कारसे सा ात्पु षो म समझ लेना ही इस शा को त से जानना है। तथा उसे जाननेवालेका जो उस पु षो म भगवान्को अपरो भावसे ा कर लेना है, यही उसका बु मान् अथात् ानवान् हो जाना है; और सम कत को पूण कर चुकना-सबके फलको ा हो जाना ही कृ तकृ हो जाना है।

ॐ त द त ीम गव ीतासूप नष ु व ायां योगशा े ीकृ ाजुन संवादे पु षो मयोगो नाम प दशोऽ ायः ॥१५॥

|| ॐ

ी परमा ने नमः ||

षोडशोऽ ायः

इस सोलहव अ ायम देवश वा परमे रसे स रखनेवले तथा उनको ा करा देनेवाले स णु और सदाचार का, उ जानकर धारण करनेके लये दैवीस दक् े नामसे और असुर के – जैसे दुगुण और दुराचार का, उ जानकर ाग करनेके लये आसुरीस दक् े नामसे वभागपूवक व ृत वणन कया गया है। इस लये इस अ ायका कम 'दैवीस भागयोग' रखा गया है। अ ायका सं ेप इस अ ायके पहलेसे तीसरे ोकतक ा दैवीस दक् ो पु षके ल ण का व ारपूवक वणन करके चौथेम आसुरीस दका ् सं ेपम न पण कया गया है। पाँचवम दैवीस दक् ा फल मु तथा आसुरीका फल ब न बतलाते ए अजुनको दैवीस दस् े यु बतलाकर आ ासन दया गया है। छठे म पुन: दैव और आसुर – इन दो सग का संकेत करके आसुर सगको व ारपूवक सुननेके लये कहा गया है। तदन र सातवसे बीसवतक आसुर कृ तवाले मनु के दुभाव, दुगुण और दुराचारका तथा उन लोग क दुग तका वणन कया गया है। इ सवम आसुरीस दाके धान काम, ोध और लोभको नरकके ार बतलाकर बाईसवम उनसे छू टे ए साधकको न ामभावसे दैवीस दाके साधन ारा परमग तक ा दखलायी है। तेईसवम शा व धका ाग करके इ ानुसार कम करनेवाल क न ा करके चौबीसव ोकम शा ानुकूल कम करनेक ेरणा करते ए अ ायका उपसंहार कया गया है। अ ायका नाम

ायके प हव ोकम तथा नव अ ायके ारहव और बारहव शलोक म भगवान्ने कहा था क 'आसुरी और रा सी कृ तको धारण करनेवाले मूढ़ मेरा भजन नह करते, वरं मेरा तर ार करते ह।' तथा नव अ ायके तेरहव और चौदहव ोक म कहा क 'दैवी कृ तसे यु महा ाजन मुझे सब भूत का आ द और अ वनाशी समझकर अन ेमके साथ सब ारसे नर र मेरा भजन करते ह।' परतुं दूसरा संग चलता रहनेके कारण वहाँ दैवी कृ त और आसुरी कृ तके ल ण का वणन नह कया जा सका। फर पं हव अ ायके उ ीसव ोकम भगवान्ने कहा क 'जो ानी महा ा मुझे 'पु मो म' जानते ह, वे सब कारसे मेरा भजन करते ह।' इसपर ाभा वक ही भगवान्को पु षो म जानकर सवभावसे स

– सातव अ

उनका भजन करनेवाले दैवी कृ तयु महा ा पु ष के और उनका भजन न करनेवाले आसुरी कृ तयु अ ानी मनु के ा- ा ल ण ह – यह जाननेक इ ा होती है। अतएव अब भगवान् दोन के ल ण और भावका व ारपूवक वणन करनेके लये सोलहवाँ अ ाय र करते ह। इसम पहले तीन ोक ारा दैवीस दसे् यु सा क पु ष के ाभा वक ल ण का व ारपूवक वणन कया जाता है –

ीभगवानुवाच । अभयं स संशु ानयोग व तः । दानं दम य ा ाय प आजवम् ॥१॥



ीभगवान् बोले – भयका सवथा अभाव, अ ःकरणक पूण नमलता, ानके लये ानयोगम नर र ढ़ त और सा क दान, इ य का दमन,

भगवान् देवता और गु जन क पूजा तथा अ हो आ द उ म कम का आचरण एवं वेदशा का पठन-पाठन तथा भगवान्के नाम और गुण का क तन, धमपालनके लये क सहन और शरीर तथा इ य के स हत अ ःकरणक सरलता॥१॥ – 'अभय'

कसको कहते ह? उ र – इ के वयोग और अ न के संयोगक आशंकासे मनम जो कायरतापूण वकार होता है, उसका नाम भय है – जैसे त ाके नाशका भय, अपमानका भय, न ाका भय, रोगका भय, राजद का भय, भूत- ेतका भय और मरणका भय आ द। इन सबके सवथा अभावका नाम 'अभय' है। – 'स संशु ' ा है? उ र – 'स ' अ ःकरणको कहते ह। अ ःकरणम जो राग- ेष, हष-शोक, मम अहंकार और मोह-म र आ द वकार और नाना कारके कलु षत पापमय भाव रहते ह – उनका सवथा अभाव होकर अ ःकरणका पूण पसे नमल, प रशु हो जाना – यही 'स संशु ' (अ ःकरणक स क् शु ) है। – ' ानयोग व त' कसको कहते ह? उ र – परमा ाके पको यथाथ पसे जान लेनेका नाम ' ान' है; और उसक ा के लये जो परमा ाके ानम नर र त रहना है, उसे ' ानयोग व त' कहते ह।

– 'दानम् ' पदका

ा भाव है? उ र – कत समझकर देश, काल और पा का वचार करके न ामभावसे जो अ , व , व ा और औषधा द व ु का वतरण करना है – उसका नाम 'दान' है (१७।२०)। – 'दम: ' पदका ा भाव है? उ र – इ य को वषय क ओरसे हटाकर उ अपने वशम कर लेना 'दम' है। – 'य : ' पदका ा अ भ ाय है? उ र – भगवान्क तथा देवता, ा ण महा ा, अ त थ, माता- पता और बड़ क पूजा करना; हवन करना और ब लवै देव करना आ द सब य ह। – ' ा ाय' कसको कहते ह? उ र – वेदका अ यन करना; जनम ववेक-वैरा का तथा भगवान्के गुण, भाव, त , प एवं उनक द लीला का वणन हो – उन शा , इ तहास और पुराण आ दका पठन-पाठन करना एवं भगवान्के नाम और गुण का क तन करना आ द सभी ा ाय ह। – 'तप:' पद यहाँ कसका वाचक है? उ र – अपने धमका पालन करनेके लये क सहन करके जो अ ःकरण और इ य को तपाना है, उसीका नाम यहाँ 'तपः' पद है। स हव अ ायम जस शारी रक, वा चक और मान सक तपका न पण है – यहाँ 'तप:' पदसे उसका नदश नह है; क उसम अ हसा, स , शौच, ा ाय और आजव आ द जन ल ण का तपके अंग पम न पण आ है – यहाँ उनका अलग वणन कया गया है। – 'आजव' कसको कहते ह? उ र – शरीर, इ य और अ ःकरणक सरलताको 'आजव' कहते ह।

अ हसा स म ोध ागः शा रपैशुनम् । दया भूते लोलु ं मादवं ीरचापलम् ॥२॥

मन, वाणी और शरीरसे कसी कार भी कसीको क न देना, यथाथ और



भाषण, अपना अपकार करनेवालेपर भी ोधका न होना, कम म कतापनके अ भमानका ाग, अ ःकरणक उपर त अथात् च क चंचलताका अभाव, कसीक भी न ा द न

करना, सब भूत ा णय म हेतुर हत दया, इ

य का वषय के साथ संयोग होनेपर भी उनम

आस का न होना, कोमलता, लोक और शा से व चे ा का अभाव॥२॥ – 'अ हसा'

आचरणम ल

ा और



कसे कहते ह? उ र – कसी भी ाणीको कभी कह भी लोभ, मोह या ोधपूवक अ धक मा ाम, म मा ाम या थोड़ा-सा भी कसी कारका क यं देना, दूसरेसे दलवाना या कोई कसीको क देता हो तो उसका अनुमोदन करना हर हालतम हसा है। इस कारक हसाका कसी भी न म से मन, वाणी, शरीर ारा न करना – अथात् मनसे कसीका बुरा न चाहना; वाणीसे कसीको न तो गाली देना, न कठोर वचन कहना और न कसी कारके हा नकारक वचन ही कहना तथा शरीरसे न कसीको मारना, न क प ँ चाना और न कसी कारक हा न ही प ँ चाना आ द – ये सभी अ हसाके भेद ह। – 'स ' कसको कहते ह? उ र – इ य और अ ःकरणसे जैसा कु छ देखा, सुना और अनुभव कया गया हो – दूसर को ठीक वैसा ही समझानेके लये कपट छोड़कर जो यथास व य और हतकर वाणीका उ ारण कया जाता है – उसे 'स ' कहते ह। – 'अ ोध:' पदका ा भाव है? उ र – भावदोषसे अथवा कसीके ारा अपमान, अपकार, न ा या मनके तकू ल काय कये जानेपर, दुवचन सुनकर अथवा कसीका अनी तयु काय देखकर मनम जो एक ेषपूण उ ेजनामयी वृ उ होती है – यह भीतरका ोध है, इसके बाद जो शरीर और मनम जलन, मुखपर वकार और ने म लाली उ हो जाती है – यह बढ़े ए ोधका प है। उन जलने और जलानेवाली दोन कारक वृ य का नाम ' ोध' है। इन वृ य का सवथा अभाव ही अ ोध है। – ' ाग' कसको कहते ह? उ र – के वल गुण ही गुण म बरत रहे ह, मेरा इन कम से कु छ भी स नह है – ऐसा मानकर, अथवा म तो भगवान्के हाथक कठपुतलीमा ँ , भगवान् ही अपनी इ ानुसार मेरे मन, वाणी और शरीरसे सब कम करवा रहे ह, मुझम न तो अपने-आप कु छ करनेक श है

और न म कु छ करता ही ँ – ऐसा मानकर कतृ -अ भमानका ाग करना ही ाग है। या कत कम करते ए उनम ममता, आस , फल और ाथका सवथा ाग करना भी ाग है, एवं आ ो तम वरोधी व ु, भाव और यामा के ागका नाम भी ' ाग' कहा जा सकता है। – 'शा ' कसको कहते ह? उ र – संसारके च नका सवथा अभाव हो जानेपर व ेपर हत अ ःकरणम जो सा क स ता होती है, यहाँ उसका नाम 'शा ' है। – 'अपैशुन' कसको कहते ह? उ र – दूसरेके दोष देखना या उ लोग म कट करना, अथवा कसीक न ा या चुगली करना पशुनता है; इसके सवथा अभावका नाम 'अपैशुन' है। – सब ा णय पर दया करना ा है? उ र – कसी भी ाणीको दुःखी देखकर उसके दुःखको जस- कसी कारसे कसी भी ाथक क ना कये बना ही नवारण करनेका और सब कारसे उसे सुखी बनानेका जो भाव है उसे 'दया' कहते है। दूसर को क नह प ँ चाना 'अ हसा' है और उनको सुख प ँ चानेका भाव 'दया' है। यही अ हसा और दयाका भेद है। – 'अलोलु ' कसको कहते ह? उ र – इ य और वषय का संयोग होनेपर उनम आस होना तथा दूसर को वषयभोग करते देखकर उन वषय क ा के लये मनका ललचा उठना 'लोलुपता' है; इसके सवथा अभावका नाम 'अलोलु ' है। – 'मादव' ा है? उ र – अ ःकरण, वाणी और वहारम जो कठोरताका सवथा अभाव होकर उनका अ तशय कोमल हो जाना है उसीको 'मादव' कहते ह। – ' ी' कसको कहते ह? उ र – वेद, शा और लोक- वहारके व आचरण न करनेका न य होनेके कारण उनके व आचरण म जो संकोच होता है उसे ' ी' यानी ल ा कहते ह ।

– 'अचापल'

ा है? उ र – हाथ-पैर आ दको हलाना, तनके तोड़ना, जमीन कु रेदना, बेमतलब बकते रहना, बे सर-पैरक बात सोचना आ द हाथ-पैर, वाणी और मनक थ चे ा का नाम चपलता है। इसीको माद भी कहते ह। इसके सवथा अभावको 'अचापल' कहते ह ।

तेजः मा धृ तः शौचम ोहो ना तमा नता । भव स दं दैवीम भजात भारत ॥३॥

तेज, मा, धैय, बाहरक शु एवं कसीम भी श ुभावका न होना और अपनेम पू ताके अ भमानका अभाव – ये सब तो हे अजुन! दैवी स दाको लेकर उ ए पु षके ल ण ह॥३॥ – 'तेज'

कसको कहते है? उ र – े पु ष क उस श - वशेषका नाम तेज है, जसके कारण उनके सामने वषयास और नीच कृ तवाले मनु भी ाय: अ ायाचरणसे ककर उनके कथनानुसार े कम म वृ हो जाते ह। – ' मा' कस भावका नाम है? उ र – अपना अपराध करनेवालेको कसी कार भी द देने- दलानेका भाव न रखना, कसी कार भी उससे बदला लेनेक इ ा न रखना, उसके अपराध को अपराध ही न मानना और उ सवथा भुला देना ' मा' है। अ ोधम तो के वल ोधका अभावमा ही बतलाया गया है परंतु माम अपराधका ायो चत द देनेक इ ाका भी ाग है। यही अ ोध और माका पर र भेद है। – 'धृ त' कसको कहते ह? उ र – भारी-से-भारी आप , भय या दुःख उप त होनेपर भी वच लत न होना; काम, ोध, भय या लोभसे कसी कार भी अपने धम और कत से वमुख न होना 'धृ त' है। इसीको धैय कहते ह। – 'शौच' कसको कहते ह?

उ र – स तापूवक प व वहारसे क शु होती है, उस से ा कये ए अ से आहारक शु होती है, यथायो बतावसे आचरण क शु होती है और जलमृ का द ारा ालना द यासे शरीरक शु होती है। इन सबको बा शौच अथात् बाहरक शु कहते ह । इसीको यहाँ 'शौच'के नामसे कहा गया है। भीतरक शु 'स संशु ' के नामसे पहले ोकम अलग कही जा चुक है। – 'अ ोह' का ा भाव है? उ र – अपने साथ श ुताका वहार करनेवाले ा णय के त भी जरा भी ेष या श ुताका भाव न होना, 'अ ोह' कहलाता है। – 'न अ तमा नता' का ा भाव है? उ र – अपनेको े , बड़ा या पू समझना एवं मान, बड़ाई, त ा और पूजा आ दक वशेष इ ा करना तथा बना इ ा भी इन सबके ा होनेपर वशेष स होना – ये अ तमा नताके ल ण ह। इन सबके सवथा अभावका नाम 'न अ तमा नता' है। – 'दैवीस द'् कसको कहते ह? उ र – 'देव' भगवान्का नाम है। इस लये उनसे स रखनेवाले उनक ा के साधन प सदगु् ण और सदाचार के समुदायको दैवीस द् कहते ह। दैवी कृ त भी इसीका नाम है। – ये सब दैवीस दसे ् यु पु षके ल ण ह – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इसका यह अ भ ाय है क इस अ ायके पहले ोकसे लेकर इस ोकके पूवा तक ढाई ोक म छ ीस ल ण के पम उस दैवीस द् प सदगुण और सदाचारका ही वणन कया गया है। अत: ये सब ल ण जसम भावसे व मान ह अथवा जसने साधन ारा ा कर लये ह , वही पु ष दैवीस दसे् यु है। कार धारण करनेके यो दैवीस दस् े यु पु षके ल ण का वणन करके अब ाग करनेयो आसुरीस दस् े यु पु षके ल ण सं ेपम कहे जाते ह – स

– इस

द ो दप ऽ भमान ोधः पा मेव च । अ ानं चा भजात पाथ स दमासुरीम् ॥४॥

हे पाथ! द , घम आसुरी-स दाको लेकर उ – 'द '

और अ भमान तथा ोध, कठोरता और अ ान भी – ये सब ए पु षके ल ण ह॥४॥

कसको कहते ह? उ र – मान, बड़ाई, पूजा और त ाके लये, धना दके लोभसे या कसीको ठगनेके अ भ ायसे अपनेको धमा ा, भगव , ानी या महा ा स करना अथवा दखाऊ धमपालनका, दानीपनका, भ का, त-उपवास आ दका, योगसाधनका और जस- कसी भी पम रहनेसे अपना काम सधता हो, उसीका ढ ग रचना 'द ' है। – 'दप' कसको कहते ह? उ र – व ा, धन, कु टु , जा त, अव ा, बल और ऐ य आ दके स से जो मनम घम होता है – जसके कारण मनु दूसर को तु समझकर उसक अवहेलना करता है, उसका नाम 'दप' है। – 'अ भमान' ा है? उ र – अपनेको े , बड़ा या पू समझना, मान, बड़ाई, त ा और पूजा आ दक इ ा रखना एवं इन सबके ा होनेपर स होना 'अ भमान' है। – ' ोध' कसको कहते ह? उ र – बुरी आदतके अथवा ोधी मनु के संगके कारण या कसीके ारा अपना तर ार, अपकार या न ा कये जानेपर, मनके व काय होनेपर, कसीके ारा दुवचन सुनकर या कसीका अ ाय देखकर – इ ा द कसी भी कारणसे अ ःकरणम जो ेषयु उ ेजना हो जाती है – जसके कारण मनु के मनम त- हसाके भाव जा त् हो उठते ह, ने म लाली आ जाती है, होठ फडकने लगते ह, मुखक आकृ त भयानक हो जाती है, बु मारी जाती है और कत का ववेक नह रह जाता – इ ा द कसी कारक भी 'उ े जत वृ ' का नाम ' ोध' है। – 'पा ' कसका नाम है? उ र – कोमलताके अ अभावका या कठोरताका नाम 'पा ' है। कसीको गाली देना, कटुवचन कहना, ताने मारना आ द वाणीक कठोरता है, वनयका अभाव शरीरक

कठोरता है तथा मा और दयाके व त हसा और ू रताके भावको मनक कठोरता कहते ह। – 'अ ान' पद यहाँ कसका वाचक है? उ र – स -अस और धम-अधम आ दको यथाथ न समझना या उनके स म वपरीत न य कर लेना ही यहाँ 'अ ान' है।, – 'आसुरीस द'् कसको कहते ह और ये सब आसुरीस दसे ् यु पु षके ल ण ह –  इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – भगवान्क स ाको न माननेवाले उनके वरोधी ना क मनु को 'असुर' कहते ह। ऐसे लोग म जो दुगुण और दुराचार का समुदाय रहता है, उसे आसुरीस द् कहते ह। ये सब आसुरीस दसे् यु पु षके ल ण ह, इस कथनसे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क इस ोकम दुगुण और दुराचार क समुदाय प आसुरीस द् सं ेपम बतलायी गयी है। अत: ये सब या इनमसे कोई भी ल ण जसम व मान हो, उसे आसुरीस दासे यु समझना चा हये।

कार दैवीस द् और आसुरीस दसे् यु पु ष के ल ण का वणन करके अब भगवान् दोन स दा का फल बतलाते ए अजुनको दैवी-स दासे यु बतलाकर आ ासन देते ह – स

– इस

दैवी स मो ाय नब ायासुरी मता । मा शुचः स दं दैवीम भजातोऽ स पा व ॥५॥

दैवी-स दा मु

के लये और आसुरी-स दा बाँधनेके लये मानी गयी है।

इस लये हे अजुन! तू शोक मत कर, – दैवी-स

क तू दैवी-स दाको लेकर उ

आ है॥५॥

दा मु के लये मानी गयी है – इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क पहले ोकसे लेकर तीसरे ोकतक सा क गुण और आचरण के समुदाय प जस दैवी-स दाका वणन कया गया है, वह मनु को संसारब नसे सदाके लये सवथा मु करके स दान घन परमे रसे मला देनेवाली है – ऐसा वेद, शा और महा ा सभी मानते ह।

– आसुरी-स

दा ब नके लये मानी गयी है – इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क दुगुण और दुराचार प जो रजो म त तमोगुण धान भाव का समुदाय है, वही आसुरी-स दा है – जसका वणन चौथे ोकम सं ेपसे कया गया है। वह मनु को सब कारसे संसारम फँ सानेवाली और अधोग तम ले जानेवाली है । वेद, शा और महा ा सभी इस बातको मानते ह। – अजुनको यह कहकर क 'तू दैवी- स दाको लेकर उ आ है, अत: शोक मत कर' ा भाव दखलाया गया है? उ र – इससे भगवान्ने अजुनको आ ासन देते ए यह कहा है क तुम भावसे ही दैवी-स दाको लेकर उ ए हो, दैवी-स दाके सभी ल ण तु ारे अंदर व मान ह। और दैवी-स दा संसारसे मु करनेवाली है अत:, तु ारा क ाण होनेम कसी कारका भी संदेह नह है। अतएव तु शोक नह करना चा हये।

ायके ार म और इसके पूव भी दैवी-स दाका व ारसे वणन कया परतुं आसुरी-स दाका वणन अबतक ब त सं ेपसे ही आ। अतएव आसुरी कृ तवाले मनु के भाव और आचार- वहारका व ारपूवक वणन करनेके लये अब भगवान् उसक ावना करते ह – स गया,

– इस अ

ौ भूतसग लोके ऽ ैव आसुर एव च । दैवो व रशः ो आसुरं पाथ मे णु ॥६॥

हे अजुन! इस लोकम भूत क सृ कृ तवाला और दस ू रा आसुरी

यानी मनु समुदाय दो ही कारका है, एक तो कृ तवाला। उनमसे दैवी कृ तवाला तो

व ारपूवक कहा गया, अब तू आसुरी सुझसे सुन॥६॥

कृ तवाले मनु समुदायको भी व ारपूवक

दैवी

– 'भूतसग ' पदका अथ 'मनु - समुदाय' कै से

कया गया? उ र – 'सग' सृ को कहते ह, भूत क सृ को भूतसग कहते ह। यहाँ 'अ लोके ' से मनु लोकका संकेत कया गया है तथा इस अ ायम मनु के ल ण बतलाये गये ह, इसी कारण यहाँ 'भूतसग ' पदका अथ 'मनु - समुदाय' कया गया है।

मनु समुदायको दो कारका बतलाकर उसके साथ 'एव ' पदके योग करनेका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क मनु समुदायके अनेक भेद होते ए भी धानतया उसके दो ही वभाग ह, क सब भेद इन दोम आ जाते ह। – एक दैवी कृ तवाला और दूसरा आसुरी कृ तवाला – इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे दो कारके समुदाय को करते ए यह बतलाया गया है क मनु के उन दो समुदाय मसे जो सा क है, वह तो दैवी कृ तवाला है; और जो रजो म त तमः धान है, वह आसुरी कृ तवाला है। 'रा सी' और 'मो हनी' कृ तवाले मनु को यहाँ आसुरी कृ तवाले समुदायके अ गत ही समझना चा हये । – दैवी कृ तवाला मनु समुदाय व ारपूवक कहा गया, अब आसुरी कृ तवालेको भी सुन – इस वा का ा भाव है? उ र – इससे यह दखलाया है क इस अ ायके पहलेसे तीसरे ोकतक और अ अ ाय म भी देवी कृ तवाले मनु समुदायके भाव, आचरण और वहार आ दका वणन तो व ारपूवक कया जा चुका; कतु आसुरी- कृ तवाले मनु के भाव, आचरण और वहारका वणन सं ेपम ही आ है, अत: अब ाग करनेके उ े से तुम उसे भी व ारपूवक सुनो। –

इस कार आसुरी कृ तवाले मनु समुदायके ल ण सुननेके लये अजुनको सावधान करके अब भगवान् उनका वणन करते ह – स



वृ च नवृ च जना न वदुरासुराः । न शौचं ना प चाचारो न स ं तेषु व ते ॥७॥

आसुर

भाववाले मनु

वृ

इस लये उनम न तो बाहर-भीतरक शु ७॥

और नवृ

है, न

– इन दोन को ही नह जानते।

े आचरण है और न स भाषण ही है॥



आसुर- भाववाले मनु

वृ और नवृ को नह जानते, इसका



अ भ ाय है? उ र – जस कमके आचरणसे इस लोक और परलोकम मनु का यथाथ क ाण होता है, वही कत है। मनु को उसीम वृ होना चा हये। और जस कमके आचरणसे अक ाण होता है, वह अकत है, उससे नवृ होना चा हये। भगवान्ने यहाँ यह भाव दखलाया है क आसुर- भाववाले मनु इस कत - अकत -स ी वृ और नवृ को बलकु ल नह समझते, इस लये जो कु छ उनके मनम आता है वही करने लगते ह। – उनम शौच, आचार और स नह है, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – 'शौच' कहते है बाहर और भीतरक प व ताको, जसका व ृत ववेचन तेरहव अ ायके सातव ोकक टीकाम कया गया है; 'आचार' कहते ह उन उ म या को, जनसे ऐसी प व ता स होती है; और 'स ' कहते ह न पट हतकर यथाथ भाषणको, जसका ववेचन इसी अ ायके दूसरे ोकक टीकाम कया जा चुका है। अत: उपयु कथनसे यह भाव दखलाया गया है क आसुर- भाववाले मनु म इन तीन मसे एक भी नह होता; वरं इनसे वपरीत उनम अप व ता, दुराचार और म ाभाषण होता है। – इस ोकके उ रा म भगवान्ने तीन बार 'न ' का और फर 'अ प ' का योग करके ा भाव दखलाया है? उ र – यह दखलाया है क आसुर- भाववाल म के वल अप व ता ही नह , उनम सदाचार भी नह होता और स भाषण भी नह होता।

आसुर- भाववाल म ववेक, शौच और सदाचार आ दका अभाव बतलाकर अब उनके ना कभावका वणन करते ह – स



अस म त ं ते जगदा रनी रम् । अपर रस ूतं कम ामहैतुकम् ॥८॥

वे आसुरी कृ तवाले मनु

और बना ई रके, अपने-आप केवल ही इसका कारण है। इसके सवा और

कहा करते ह क जगत् आ यर हत, सवथा अस ी-पु षके संयोगसे उ ा है?॥८॥

है, अतएव केवल काम

– इस

ोकका ा भाव है? उ र – इस ोकम आसुरी कृ तवाले मनु क मनगढ़ंत क नाका वणन कया गया है। वे लोग ऐसा मानते ह क न तो इस चराचर जगत्को भगवान् या कोई धमाधम ही आधार है तथा न इस जगत्क कोई न स ा है। अथात् न तो ज से पहले या मरनेके बाद कसी भी जीवका अ है एवं न कोई इसका रच यता, नयामक और शासक ई र ही है। यह चराचर जगत् के वल ी-पु षके संयोगसे ही उ आ है। अतएव के वल काम ही इसका कारण है, इसके सवा इसका और कोई योजन नह है।

ऐसे ना क स ा के माननेवाल के भाव और आचरण कै से होते ह? इस ज ासापर अब भगवान् अगले चार ोक म उनके ल ण का वणन करते ह – स



एतां मव न ा ानोऽ बु यः । भव ु कमाणः याय जगतोऽ हताः ॥९॥

इस म ा

ानको अवल न करके – जनका

भाव न

जनक बु म है, वे सबका अपकार करनेवाले ू रकम मनु लये ही समथ होते ह॥९॥ – 'इस

हो गया है तथा

केवल जगत्के नाशके

म ा ानको अवल न करके '-इस वा ांशसे ा ता य है? उ र – आसुर- भाववाले मनु के सारे काय इस ना कवादके स ा को म रखकर ही होते ह, यही दखलानेके लये ऐसा कहा गया है। – उ 'न ा ान: ', 'अ बु य: ', 'अ हता: ' और 'उ कमाण: ' कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – इससे यह दखलाया गया है क ना क स ा वाले मनु आ ाक स ा नह मानते, वे के वल देहवादी या भौ तकवादी ही होते ह; इससे उनका भाव हो जाता है, उनक कसी भी स ायके करनेम वृ नह होती। उनक बु भी अ म होती है; वे जो कु छ न य करते ह, सब के वल भोग- सुखक से ही करते ह। उनका मन नर र सबका अ हत करनेक बात ही सोचा करता है, इससे वे अपना भी अ हत ही करते ह। तथा मन, वाणी,

शरीरसे चराचर जीव को डराने, दुःख देने और उनका नाश करनेवाले बड़े-बड़े भयानक कम ही करते रहते ह। – वे जगत्का य करनेके लये ही समथ होते है इस वा का ा भाव है? उ र – उपयु कारके लोग अपने जीवनम बु , मन, वाणी और शरीरसे जो कु छ भी कम करते ह – सब चराचर ा णजगत्को क प ँ चाने या मार डालनेके लये ही करते ह। इसी लये ऐसा कहा गया है क उनका साम जगत्का वनाश करनेके लये ही होता है।

काममा दु ूरं द मानमदा ताः । मोहा हृ ी ास ाहा वत ेऽशु च ताः ॥१०॥

वे द , मान और मदसे यु मनु कसी कार भी पूण न होनेवाली कामना का आ य लेकर, अ ानसे म ा स ा को हण करके और आचरण को धारण करके संसारम वचरते ह॥१०॥

ा भाव है? उ र – मान, धन, पूजन, त ा आ द ाथसाधनके लये जहाँ जैसा बननेम े ता दखलायी पड़ती हो, वा वम न होते ए भी वैसा होनेका भाव दखलाना 'द ' है । अपनेम स ा या पू होनेका अ भमान रखना 'मान' है और प, गुण, जा त, ऐ य, व ा, पद, धन, स ान आ दके नशेम चूर रहना 'मद' है। आसुरी- भाववाले मनु इन द , मान और मदसे यु होते ह। इसीसे उ ऐसा कहा गया है। – 'द ु ूरम् ' वशेषणके स हत 'कामम् ' पद कसका वाचक है और उसका आ य लेना ा है? उ र – संसारके भ - भ भोग को ा करनेक जो इ ा है जसक पू त कसी भी कारसे नह हो सकती, ऐसी कामना का वाचक यहाँ 'द ु ूरम् ' वशेषणके स हत 'कामम् ' पद है और ऐसी कामना को पूण करनेके लये मनम ढ़ संक रखना ही उनका आ य लेना है। – अ ानसे म ा स ा को हण करना ा है? – 'द मानमदा

ताः ' से

उ र – अ ानके वशम होकर जो नाना कारके शा व स ा क क ना करके उनको हठपूवक धारण कये रहना है, यही उनको अ ानसे हण करना है। – 'अशु च ता: ' का ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया है क उनके खान-पान, रहन-सहन, बोल-चाल, वसाय- वा ण , देन-लेन और बताव- वहार आ दके सभी नयम शा - व होते ह। – ' वत े ' से ा अ भ ाय है? उ र – इससे यह भाव दखलाया है क वे लोग अ ानवश उपयु ाचार से यु होकर संसारम इ ानुसार बरतते ह।

च ामप रमेयां च लया ामुपा ताः । कामोपभोगपरमा एताव द त न ताः ॥११॥

तथा वे मृ ुपय रहनेवाली असं च ा का आ य लेनेवाले, वषयभोग के भोगनेम त र रहनेवाले और 'इतना ही सुख है' इस कार माननेवाले होते ह॥११॥ –

उनको मृ ुपय रहनेवाली असं

च ा का आ य लेनेवाले बतानेका

ा अ भ ाय है? उ र – इससे यह दखलाया गया है क वे आसुर भाववाले मनु भोग-सुखके लये इस कारक असं च ा का आ य कये रहते ह जनका जीवनभर भी अ नह होता, जो मृ ुके शेष णतक बनी रहती ह और इतनी अपार होती ह क कह उनक गणना या सीमा नह होती। – वषय के भोगम परायण होनेका तथा 'इतना ही सुख है' ऐसा माननेका ा अ भ ाय है? उ र – इससे यह भाव दखलाया है क वषयभोगक साम य का सं ह करना और उ भोगते रहना – ब्स, यही उनके जीवनका ल होता है। अतएव उनका जीवन इसीके परायण होता है, उनका यह न य होता है क 'बस, जो कु छ सुख है सो यह भोग का भोग कर लेना ही है।'





आशापाशशतैब ाः काम ोधपरायणाः । ईह े कामभोगाथम ायेनाथस यान् ॥१२॥

वे आशाक सैकड़ फाँ सय से बँधे ए मनु काम- ोधके परायण होकर वषयभोग के लये अ ायपूवक धना द पदाथ को सं ह करनेक चे ा करते रहते ह॥१२॥ – उनको आशाक

सैकड़ फाँ सय से बँधे ए कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – आसुर- भाववाले मनु के मनम कामोपभोगक नाना कारक क नाएँ उठा करती ह और उन क ना क पू तके लये वे भाँ त-भाँ तक सैकड़ आशाएँ लगाये रहते ह। उनका मन कभी कसी वषयक आशाम लटकता है, कभी कसीम खचता है और कभी कसीम अटकता है; इस कार आशा के ब नसे वे कभी छू टते ही नह । इसीसे सैकड़ आशा क फाँ सय से बँधे ए कहा गया है । – 'काम ोधपरायणाः ' का ा भाव है? उ र – उन आशा क पू तके लये वे भगवान्का या कसी देवता, स म औरस चारका आ य नह लेत,े के वल काम- ोधका ही अवल न करते ह। इस लये उनको काम- ोधके परायण कहा गया है। – वषय-भोग के लये अ ायपूवक धना दके सं हक चे ा करना ा है? उ र – वषय-भोग के उ े से जो काम- ोधका अवल न करके अ ायपूवक अथात् चोरी, ठगी, डाका, झूठ, कपट, छल, द , मार-पीट, कू टनी त, जूआ, धोखेबाजी, वषयोग, झूठे मुकदमे और भय- दान आ द शा व उपाय के ारा दूसर के धना दको हरण करनेक चे ा करना है – यही वषय-भोग के लये अ ायसे अथसंचय करनेका य करना है। पछले चार ोक म आसुर- भाववाले मनु के ल ण और आचरण बतलाकर अब अगले चार ोक म उनके 'अहंता', 'ममता' और 'मोह' यु संक का न पण करते ए उनक दुग तका वणन करते ह – स



इदम मया ल ममं ा े मनोरथम् । इदम ीदम प मे भ व त पुनधनम् ॥१३॥

वे सोचा करते ह क मने आज यह ा ा

कर लया है और अब इस मनोरथको

कर लूँगा। मेरे पास यह इतना धन है ओर फर भी यह हो जायगा॥१३॥ – इस

ोकका ा अ भ ाय है? उ र – 'मनोरथ' श यहाँ ी, पु , धन, जमीन, मकान और मान-बड़ाई आ द सभी मनोवां छत पदाथ के च नका वाचक है; अतएव इस ोकम यह भाव दखलाया गया है क आसुर- भाववाले पु ष अहंकारपूवक नाना कारके वचार करते रहते ह। वे सोचते है क अमुक अभी व ु तो मने अपने पु षाथसे ा कर ली है और अमुक मनोवां छत व ुको म अपने पु षाथसे ा कर लूँगा। मेरे पास यह इतना धन और ऐ य तो पहलेसे है ही और फर इतना और हो जायगा।

असौ मया हतः श ुह न े चापरान प । ई रोऽहमहं भोगी स ोऽहं बलवा ुखी ॥१४॥

वह श ु मेरे ारा मारा गया और उन दस ू रे श ु ऐ यको भोगनेवाला ँ । म सब स – वह श

य से यु

को भी म मार डालूँगा। म ई र ँ ,

ँ और बलवान् तथा सुखी ँ ॥१४॥

ु मेरे ारा मारा गया और उन दूसरे श ु को भी म मार डालूँगा – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – कामोपभोगको ही परम पु षाथ माननेवाले आसुर- भावके मनु कामोधपरायण होते ह। ई र, धम और कमफलम उनका जरा भी व ास नह होता। इस लये वे अहंकारसे उ त होकर समझते ह क 'जगत्म ऐसा कौन है जो हमारे मागम बाधा दे सके या हमारे साथ वरोध करके जी वत रह सके ?' इस लये वे ोधम भरकर घम के साथ ू र वाणीसे कहा करते ह क 'वह जो इतना बड़ा बलवान् और जग स भावशाली पु ष था, हमसे वैर रखनेके कारण देखते-ही-देखते हमारे ारा यमपुरी प ँ चा दया गया; इतना ही नह , जो कोई दूसरे हमसे वरोध करते ह या करगे, वे भी चाहे जतने ही बलवान् न हो, उनको भी हम अनायास ही मार डालगे।' – म ई र, भोगी, स , बलवान् और सुखी ँ – इस वा का ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क अहंकारके साथ ही वे मानम भी चूर रहते ह, इससे ऐसा समझते ह क 'संसारम हमसे बड़ा और है ही कौन; हम जसे चाह, मार द, बचा

द, जसक चाह जड़ उखाड़ द या रोप द।' अत: बड़े गवके साथ कहते ह – 'अरे! हम सवथा त ह, सब कु छ हमारे ही हाथ म तो है; हमारे सवा दूसरा कौन ऐ यवान् है, सारे ऐ य के ामी हम तो ह। सारे ई र के ई र परम पु ष भी तो हम ही ह। सबको हमारी ही पूजा करनी चा हये। हम के वल ऐ यके ामी ही नह , सम ऐ यका भोग भी करते ह। हमने अपने जीवनम कभी वफलताका अनुभव कया ही नह ; हमने जहाँ हाथ डाला, वह सफलताने हमारा अनुगमन कया। हम सदा सफलजीवन ह, परम स ह, भ व म होनेवाली घटना हम पहलेसे ही मालूम हो जाती है। हम सब कु छ जानते ह, कोई बात हमसे छपी नह है। इतना ही नह , हम बड़े बलवान् ह; हमारे मनोबल या शारी रक बलका इतना भाव है क जो कोई उसका सहारा लेगा, वही उस बलसे जगत्पर वजय पा लेगा। इ सब कारण से हम परम सुखी ह; संसारके सारे सुख सदा हमारी सेवा करते ह और करते रहगे।'

आ ोऽ भजनवान कोऽ ोऽ स शो मया । य े दा ा म मो द इ ान वमो हताः ॥१५॥ अनेक च व ा ा मोहजालसमावृताः । स ाः कामभोगेषु पत नरके ऽशुचौ ॥१६॥

म बड़ा धनी और बड़े कुटु वाला ँ । मेरे समान दस ू रा कौन है? म य क ँ गा, दान दँग ू ा और आमोद- मोद क ँ गा। इस कार अ ानसे मो हत रहनेवाले तथा अनेक कारसे मत च वाले मोह प जालसे समावृत और वषयभोग म अ आस आसुरलोग महान् अप व नरकम गरते ह॥१५-१६॥

ा ता

– य है?

म बड़ा धनी और बड़े कु टु वाला ँ , मेरे समान दूसरा कौन है? इस कथनका

उ र – इससे आसुरी कृ तवाले मनु के धन और कु टु स ी घम का ीकरण कया गया है। अ भ ाय यह है क वे आसुर- भाववाले पु ष अहंकारसे कहते है क हमारे धनका और हमारे कु टु ी, म , बा व, सहयोगी, अनुयायी और सा थय का पार ही नह है। हमारी एक आवाजसे असं मनु हमारा अनुगमन करनेको तैयार ह। इस कार धनबल और जनबलम हमारे समान दूसरा कोई भी नह है। – म य क ं गा, दान दूँगा – इस कथनका ा ता य है?

उ र – इससे उनका य और दानस ी म ा अ भमान दखलाया गया है। अ भ ाय यह है क आसुर- भाववाले मनु वा वम न तो सा क य या दान करते ह और न करना चाहते ही ह। के वल दूसर पर रोब जमानेके लये य और दानका ढ ग रचकर अपने घम को करते ए कहा करते ह क 'हम अमुक य करगे, बड़ा भारी दान दगे। हमारे समान दान देनेवाला और य करनेवाला दूसरा कौन है?' – म आमोद- मोद क ँ गा – इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे उनका सुखस ी म ा अ भमान दखलाया गया है। वे आसुरभाववाले लोग भाँ त-भाँ तक ड ग हाँकते ए, गवम फू लकर कहा करते ह क 'आहा! फर कै सी मौज होगी; हम आन म म हो रहगे, मजे उड़ायगे।' – 'इ त अ ान वमो हता: ' का ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान् यह भाव दखलाते ह क वे आसुर- भाववाले लोग तेरहव ोकसे लेकर यहाँतक बतलाये ए अहंकार प अ ानसे अ मो हत रहते ह। – 'अनेक च व ा ा: ' का ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क आसुर- भाववाले मनु का च अनेक वषय म व वध कारसे व ा रहता है। वे कसी भी वषयपर र नह रहते, भटकते ही रहते ह। – 'मोहजालसमावृताः ' का ा भाव है? उ र – इसका भाव यह है क जैसे मछली जालम फँ सकर घरी रहती है, वैसे ही आसुर- भाववाले मनु अ ववेक पी मोह-मायाके जालम फँ सकर उससे घरे रहते ह। – 'कामभोगेषु स ाः ' का ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क वे आसुरी कृ तवाले मनु वषयोपभोगको ही जीवनका एकमा ेय मानते है, इस लये उसीम वशेष पसे आस रहते ह। – 'वे अप व नरकम गरते है' इस कथनका ा भाव है?

उ र – इससे उन आसुर- भाववाले मनु क दुग तका वणन कया गया है। अ भ ाय यह है क उपयु कारक तवाले मनु कामोपभोगके लये भाँ त-भाँ तके पाप करते ह और उनका फल भोगनेके लये उ व ा, मू , धर, पीब आ द गंदी व ु से भरे दुःखदायक कु ीपाक, रौरवा द घोर नरक म गरना पड़ता है। हव ोकम भगवान्ने कहा था क वे लोग 'य क ँ गा' ऐसा कहते ह; अत: अगले ोकम उनके य का प बतलाया जाता है – स

– पं

आ स ा वताः ा धनमानमदा ताः । यज े नामय ै े द ेना व धपूवकम् ॥१७॥

वे अपने-आपको ही े माननेवाले घम ी पु ष धन और मानके मदसे यु होकर केवल नाममा के य ारा पाख से शा व ध र हत यजन करते ह॥१७॥

क कहते ह? उ र – जो अपने ही मनसे अपने-आपको सब बात म सव े , स ा , उ और पू मानते ह – वे 'आ स ा वत ' ह। –' ाः ' का ा अथ है? उ र – ज घम के कारण कसीके साथ यहाँतक क पूजनीय के त भी वनयका वहार नह करते, वे ' ' ह। – 'धनमानमदा ताः ' कनको कहते ह? उ र – जो धन और मानके मदसे उ रहते ह उ 'धनमानमदा त' कहते ह। – के वल नाममा के य ारा पाख से शा व धर हत यजन करते ह – इस वा का ा अ भ ाय है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क उपयु ल ण वाले आसुर- भावके मनु जो य करते ह, वह व धसे र हत, के वल नाममा का य होता है। वे लोग बना ाके के वल पाख से लोग को दखलानेके लये ही ऐसे य कया करते ह; उनके ये य तामस होते ह और इसीसे 'अधो ग तामसा: ' के अनुसार वे नरक म गरते ह। तामस य क पूरी ा ा स हव अ ायके तेरहव ोकम देखनी चा हये। – 'आ स ा वता: '

इस कार आसुर- भाववाले मनु के य का उनक दुग तके कारण प भावका वणन करते ह – स



प बतलाकर अब

अह ारं बलं दप कामं ोधं च सं ताः । मामा परदेहषे ु ष ोऽ सूयकाः ॥१८॥

वे अहंकार, बल, घम , कामना और ोधा दके परायण और दस ू रक न ा करनेवाले पु ष अपने और दस त मुझ अ यामीसे ेष करनेवाले होते ह॥ ू र के शरीरम १८॥ – 'अहंकार, बल, दप, काम और

ोधके परायण' का ा ता य है? उ र – इससे यह दखलाया गया है क वे आसुर- भाववाले मनु अहंकारका अवल न करके कहते ह क 'हम ही ई र ह, सब भोग को भोगनेवाले ह, स ह, बलवान् ह और सुखी ह। ऐसा कौन-सा काय है, जसे हम न कर सक।' अपने बलका आ य लेकर वे दूसर से वैर करते ह, उ धमकाने, मारने-पीटने और वप करनेम वृत होते ह। वे अपने बलके सामने कसीको कु छ समझते ही नह । दपका आ य लेकर वे यह ड ग हाँका करते ह क हम बड़े धनी और बड़े कु टु वाले ह। हमारे समान दूसरा है ही कौन। कामका आ य लेकर वे नाना कारके दुराचार कया करते है और ोधके परायण होकर वे कहते ह क जो भी हमारे तकू ल काय करेगा या हमारा अ न करेगा, हम उसीको मार डालगे। इस कार के वल अहंकार, बल, दप, काम और ोधका आ य लेकर उ के बलपर वे भाँ त-भाँ तक क नाज ना कया करते ह और जो कु छ भी काय करते ह, सब इ दोष क ेरणासे और इ पर अवल न करके करते ह। ई र, धम या शा आ द कसीका भी आ य नह लेते। – इसम 'च ' अ य आया है? उ र – 'च ' से यह भाव दखलाया गया है क ये आसुर- भाववाले मनु के वल अहंकार, बल, दप, काम और ोधके ही आ त नह ह; द , लोभ, मोह आ द और भी अनेक दोष को धारण कये रहते ह। – 'अ सूयका: ' का ा भाव है? उ र – दूसर के दोष देखना, देखकर उनक न ा करना, उनके गुण का ख न करना और गुण म दोषारोपण करना असूया है। आसुर- भाववाले पु ष ऐसा ही करते ह। और क

तो बात ही ा, वे भगवान् और संत पु ष म भी दोष देखते ह – यही भाव दखलानेके लये उ 'अ सूयक' कहा गया है। – आसुरी कृ तवाले मनु को 'अपने और दूसर के शरीरम त अ यामी परमे रके साथ ेष करनेवाले' कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क आसुरी कृ तवाले मनु जो दूसर से वैर बाँधकर उनको नाना कारसे क प ँ चानेक चे ा करते ह और यं भी क भोगते ह, वह उनका मेरे ही साथ ेष करना है; क उनके और दूसर के – सभीके अंदर अ यामी पसे म परमे र त ँ । कसीसे वरोध या ेष करना, कसीका अ हत करना और कसीको दुःख प ँ चाना अपने और दूसर के शरीरम त मुझ परमे रसे ही ेष करना है।

कार सातवसे अठारहव ोकतक आसुरी भाववाल के दुगुण ओर दुराचार आ दका वणन करके अब उन दुगुण-दुराचार म ा -बु करानेके लये अगले दो ोक म भगवान् वैसे लोग क घोर न ा करते ए उनक दुग तका वणन करते ह – स

– इस

तानहं षतः ु रा ंसारेषु नराधमान् । पा ज मशुभानासुरी ेव यो नषु ॥१९॥

उन ेष करनेवाले पापाचारी और ू रकम नराधम को म संसारम बार-बार आसुरी यो नय म ही डालता ँ ॥१९॥

और 'नराधमान् ' – इन चार वशेषण के स हत 'तान् ' पद कनका वाचक है तथा इन वशेषण का ा अ भ ाय है? उ र – उपयु वशेषण के स हत 'तान् ' पद पछले ोक म जनका व ारपूवक वणन कया गया है, उन आसुरी कृ तवाले मनु का बोधक है। उनक दुग तम उनके दुगुण और दुराचार ही कारण ह, यही भाव दखलानेके लये उपयु वशेषण का योग कया गया है। अ भ ाय यह है क वे लोग सबके साथ ेष करनेवाले, नाना कारके अशुभ आचरण करके समाजको करनेवाले, नदयतापूवक ब त-से कठोर कम करनेवाले और बना ही कारण दूसर का बुरा करनेवाले अधम ेणीके मनु होते ह। इसी कारण म उनको बार-बार नीच यो नय म डालता ँ । – ' षतः ', 'अशुभान् ', ' ू रान् '

– यहाँ आसुरी यो नसे कौन-सी यो नय का

नदश है? उ र – सह, बाघ, सप, ब ू , सूअर, कु े और कौए आ द जतने भी पशु, प ी, क ट, पतंग ह – ये सभी आसुरी यो नयाँ ह। – 'अज म् ' और 'एव ' पदसे ा ता य है? उ र – 'अज म् ' से यह बतलाया गया है क वे नर र हजार -लाख बार आसुरी यो नम गराये जाते ह और 'एव ' इस बातको बतलाता है क वे लोग देव, पतर या मनु क यो नको न पाकर न य ही पशु-प ी आ द नीच यो नय को ही ा होते ह।

आसुर यो नमाप ा मूढा ज न ज न । माम ा ैव कौ ेय ततो या धमां ग तम् ॥२०॥

हे अजुन! वे मूढ मुझको न ा फर उससे भी अ त नीच ग तको ही ा

होकर ज -ज म आसुरी यो नको ा होते ह, होते ह अथात् घोर नरक म पड़ते ह॥२०॥

उपयु आसुर- भाववाले मूढ पु ष को भगव ा क तो बात ही ा, जब ऊँ ची ग त भी नह मलती, के वल आसुरी यो न ही मलती है, तब भगवान्ने 'माम् अ ा ', 'मुझको न पाकर' यह कै से कहा? उ र – मनु यो नम जीवको भगव ा का अ धकार है। इस अ धकारको ा होकर भी जो मनु इस बातको भूलकर दैव- भाव प भगव ा के मागको छोड़कर आसुरभावका अवल न करते ह, वे मनु -शरीरका सुअवसर पाकर भी भगवान्को नह पा सकते – यही भाव दखलानेके लये ऐसा कहा गया है। यहाँ दयामय भगवान् मानो जीवक इस दशापर तरस खाते ए यह चेतावनी देते ह क मनु -शरीर पाकर आसुर- भावका अवल न करके मेरी ा प ज स अ धकारसे वं चत मत होओ। – व ज -ज म आसुरी यो नको ा होते ह – ऐसा कहनेका ा ता य है? उ र – ऐसा कहकर भगवान् यह दखलाते ह क हजार -लाख बार वे आसुरी यो नम ही ज लेते ह, उ ऊँ ची यो न नह मलती। – उससे भी अ त अधम ग तको ही ा होते ह – इससे ा अ भ ाय है? –

उ र – इससे यह भाव दखलाया है क वे आसुर- भाववाले मनु हजार -लाख बार आसुरी यो नम ज लेकर फर उससे भी नीच, महान् यातनामय कु ीपाक, महारौरव, ता म घोर अ ता म आ द घोर नरक म पड़ते है। भाववाले मनु को लगातार आसुरी यो नय के और घोर नरक के ा होनेक बात सुनकर यह ज ासा हो सकती है क उनके लये इस दुग तसे बचकर परमग तको ा करनेका ा उपाय है? इसपर अब दो ोक म सम दुग तय के धान कारण प आसुरी स के वध दोष के ाग करनेक बात कहते ए भगवान् परमग तक ा का उपाय बतलाते ह – स

– आसुर-

वधं नरक ेदं ारं नाशनमा नः । कामः ोध था लोभ ादेत यं जेत् ॥२१॥

काम, ोध तथा लोभ – ये तीन कारके नरकके ार आ ाका नाश करनेवाले अथात् उसको अधोग तम ले जानेवाले ह। अतएव इन तीन को ाग देना चा हये॥२१॥ – काम,

ोध और लोभको नरकके ार बतलाया गया? उ र – ी, पु आ द सम भोग क कामनाका नाम 'काम' है; इस कामनाके वशीभूत होकर ही मनु चोरी, भचार और अभ -भोजना द नाना कारके पाप करते ह। मनके वपरीत होनेपर जो उ ेजनामय वृ उ होती है, उसका नाम ' ोध' है; ोधके आवेशम मनु हसा- त हसा आ द भाँ त- भाँ तके पाप करते ह। धना द वषय क अ बढ़ी ई लालसाको 'लोभ' कहते ह । लोभी मनु उ चत अवसरपर धनका ाग नह करते एवं अनु चत पसे भी उपाजन और सं ह करनेम लगे रहते ह; इसके कारण उनके ारा झूठ, कपट, चोरी और व ासघात आ द बड़े-बड़े पाप बन जाते ह। पाप का फल ता म और अ ता म आ द नरक क ा है, इसी लये इन तीन को नरकके ार बतलाया गया है। – काम, ोध और लोभको आ ाका नाश करनेवाले कहा गया? उ र – 'आ ा' श से यहाँ जीवा ाका नदश हे। परंतु जीवा ाका नाश कभी होता नह , अतएव यहाँ आ ाके नाशका अथ है, जीवक अधोग त। मनु जबसे काम, ोध, लोभके वशम होते ह, तभीसे वे अपने वचार, आचरण और भाव म गरने लगते ह। काम, ोध और लोभके कारण उनसे ऐसे कम होते ह, जनसे उनका शारी रक पतन हो जाता है, मन बुरे

वचार से भर जाता है, बु बगड़ जाती है, याएँ सब दू षत हो जाती ह और इसके फल प उनका वतमान जीवन सुख, शा और प व तासे र हत होकर दुःखमय बन जाता है तथा मरनेके बाद उनको आसुरी यो नय क और नरक क ा होती है। इसी लये इन वध दोष को 'आ ाका नाश करनेवाले' बतलाया गया है। – इस लये इन तीन को ाग देना चा हये– इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे भगवान् यह दखलाते ह क जब यह नणय हो गया क सारे अनथ के मूलभूत मोहज नत काम, ोध और लोभ ही सम अधोग तके कारण ह, तब इ महान् वषके समान जानकर इनका तुरंत ही पूण पसे ाग कर देना चा हये।

एतै वमु ः कौ ये तमो ारै भनरः । आचर ा नः ेय तो या त परां ग तम् ॥२२॥

हे अजुन! इन तीन नरकके ार से मु पु ष अपने क ाणका आचरण करता है, इससे वह परमग तको जाता है अथात् मुझको ा हो जाता है॥२२॥ –'एतैः ' और '

भः ' – इन दोन

पद के स हत 'तमो ारैः ' पद कनका वाचक है और इनसे वमु मनु को 'नर' कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – पछले ोकम जन काम, ोध और लोभको नरकके वध ार बतलाया गया है, उ का वाचक यहाँ 'एतैः ' और ' भः ' पद के स हत 'तमो ारैः ' पद है। ता म और अ ता म ा द नरक अ कारमय होते ह, अ ान पी अ कारसे उ दुराचार और दुगुण के फल प उनक ा होती है, उनम रहकर जीव को मोह और दुःख प तमसे ही घरे रहना पड़ता है; इसीसे उनको 'तम' कहा जाता है। काम, ोध और लोभ – ये तीन उनके ार अथात् कारण ह, इस लये उनको तमो ार कहा गया है। इन तीन नरकके ार से जो वमु है – सवथा छू टा आ है, वही मनु अपने क ाणका साधन कर सकता है। और मनु देह पाकर जो इस कार क ाणका साधन करता है, वही वा वम 'नर' (मनु ) है। यह भाव दखलानेके लये उसे 'नर' कहा गया है। – अपने क ाणका आचरण करना ा है? उ र – काम, ोध और लोभके वश ए मनु अपना पतन करते ह और इनसे छू टे ए मनु अपने क ाणके लये आचरण करते ह; अत: काम, ोध और लोभका ाग करके

शा तपा दत सदगु् ण और सदाचार प दैवीस दाका न ामभावसे सेवन करना ही क ाणके लये आचरण करना है। – 'इससे वह परमग तको जाता है' इस कथनका ा भाव है? उ र – इस वा से भगवान् यह भाव दखलाते ह क उपयु कारसे काम, ोध और लोभके व ार प आसुरी-स दासे भलीभाँ त छू टकर न ामभावसे दैवीस दाका सेवन करनेसे मनु परमग तको अथात् परमा ाको ा होता है।

दैवीस दाका आचरण न करके अपनी मा ताके अनुसार कम करता है वह परमग तको ा होता है या नह ? इसपर कहते ह – स

– जो उपयु

यः शा व धमु ृ वतते कामकारतः । न स स मवा ो त न सुखं न परां ग तम् ॥२३॥

न स

जो पु ष शा व धको ागकर अपनी इ ासे मनमाना आचरण करता है, वह को ा होता है, न परमग तको और न सुखको ही॥२३॥ – शा

व धको ागकर अपनी इ ासे मनमाना आचरण करना ा है? उ र – वेद और वेद के आधारपर र चत ृ त, पुराण, इ तहासा द सभीका नाम शा है। आसुरीस दाके आचार- वहार आ दके ागका और दैवीस दा प क ाणकारी गुण-आचरण के सेवनका ान इन शा से ही होता है। इन कत और अकत का ान करानेवाले शा के वधानक अवहेलना करके अपनी बु से अ ा समझकर जो मनमाने तौरपर मान-बड़ाई- त ा आ द कसीक भी इ ा- वशेषको लेकर आचरण करना है, यही शा व धको ागकर मनमाना आचरण करना है। – इस कार आचरण करनेवाला स , सुख और परमग तको नह ा होता – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क जो मनु शा व धका ाग करता है, उसके कम य द शा न ष अथात् पाप होते ह तो वे दुग तके कारण होते ह; अतएव उनक तो यहाँ बात ही नह है। परंतु य द अपनी बु से अ ा समझकर भी कसी कारक कामनासे े रत होकर कम करता है तो भी उनके मनमाने तौरपर कये जानेके कारण तथा शा क

अवहेलना करनेके कारण उनसे कताको कोई भी फल नह मलता अथात् परमग त नह मलती – इसम तो कहना ही ा है, लौ कक अ णमा द स और ग ा प स भी नह मलती एवं संसारम सा क सुख भी नह मलता।

शा व धको ागकर कये जानेवाले मनमाने कम न ल होते ह, यह बात सुनकर यह ज ासा हो सकती है क ऐसी तम ा करना चा हये? इसपर कहते ह – स



त ा ा ं माणं ते कायाकाय व तौ । ा ा शा वधानो ं कम कतु महाह स ॥२४॥

इससे तेरे लये इस कत और अकत क व ाम शा जानकर तू शा व धसे नयत कम ही करनेयो है॥२४॥ – इस ाय है?

कत और अकत क

ही माण है। ऐसा

व ाम शा ही माण है – इस कथनका

ाअभ उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क ा करना चा हये और ा नह करना चा हये – इसक व ा ु त, वेदमूलक ृ त और पुराण-इ तहासा द शा से ा होती है। अतएव इस वषयम मनु को मनमाना आचरण न करके शा को ही माण मानना चा हये। अथात् इन शा म जन कम के करनेका वधान है, उनको करना चा हये और जनका नषेध है, उ नह करना चा हये। – ऐसा जानकर तू शा व धसे नयत कम ही करनेयो है – इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया है क इस कार शा को माण मानकर तु शा म बतलाये ए कत कम का ही व धपूवक आचरण करना चा हये, न ष कम का कभी नह । तथा उन शा व हत शुभ कम का आचरण भी न ामभावसे ही करना चा हये, क शा म न ामभावसे कये ए शुभ कम को ही भगव ा म हेतु बतलाया है।

ॐ त द त ीम गव ीतासूप नष ु व ायां योगशा े ीकृ ाजुनसंवादे दैवासुरस भागयोगो नाम षोडशोऽ ायः ॥ १६॥

|| ॐ

ी परमा ने नमः ||

स दशोऽ ायः इस स हव अ ायके आर म अजुनने ायु पु ष क न ा पूछी है, उसके उ रम भगवान्ने तीन कारक ा बतलाकर ाके अनुसार ही पु षका प बतलाया है। फर पूजा, य , तप आ दम ाका स दखलाते ए अ म ोकम ार हत पु ष के कम को असत् बतलाया गया है। इस कार इस अ ायम वध ाक वभागपूवक ा ा होनेसे इसका नाम ' ा य वभागयोग' रखा गया है। अ ायका सं ेप इस अ ायके थम ोकम अजुनने भगवान्से शा व धका ाग करके ापूवक यजन करनेवाल क न ा पूछी है, इसके उ रम भगवान्के ारा दूसरेम गुण के अनुसार वध ाभा वक ाका वणन कया गया है; तीसरेम ाके अनुसार ही पु षका प बतलाया गया है; चौथेम सा क राजस और तामस ायु पु ष के ारा मशः देव, य , रा स और भूत- ेत के पूजे जानेक बात कही गयी है; पाँचव और छठे म शा व घोर तप करनेवाल क न ा क गयी है; सातवम आहार, य , तप और दानके भेद सुननेके लये अजुनको आ ा दी गयी है; आठव, नव और दसव ोक म मश: सा क राजस और तामस आहारका वणन कया गया है। ारहव, बारहव और तेरहवम मश: सा क राजस और तामस य के ल ण बतलाये गये ह। चौदहव, पं हव और सोलहवम मशः शारी रक, वा चक और मान सक तपके पका कथन करके स हवम सा क तपके ल ण बतलाये गये ह तथा अठारहव और उ ीसवम मश: राजस और तामस तपके ल ण का वणन कया गया है। बीसव, इ सव और बाईसवम मश: सा क, राजस और तामस दानके ल ण क ा ा क गयी है। तेईसवम ' ॐ त त् ' क म हमा बतलायी गयी है। चौबीसवम ' ॐ ' के योगक , पचीसवम ' तत् ' श के योगक और छ ीसम तथा स ाईसवम ' सत् ' श के योगक ा ा क गयी है एवं अ के अ ाईसव ोकम बना ाके कये ए य , दान, तप आ द कम को इस लोक और परलोकम सवथा न ल और असत् बतलाकर अ ायका उपसंहार कया गया है। अ ायका नाम

सोलहव अ ायके आर म ीभगवान्ने न ामभावसे सेवन कये जानेवाले शा व हत गुण और आचरण का दैवी-स दाके नामसे वणन करके फर शा वपरीत आसुरी स का कथन कया। साथ ही आसुर- भाववाले पु ष को नरक म गरानेक बात कही और यह बतलाया क काम, ोध, लोभ ही आसुरी स दाके धान अवगुण ह और ये तीन ही नरक के ार ह; इनका ाग करके जो आ क ावके लये साधन करता है, वह परमग तको ा होता है। इसके अन र यह कहा क जो शा व धका ाग करके , मनमाने ढंगसे अपनी समझसे जसको अ ा कम समझता है, वही करता है, उसे अपने उन कम का फल नह मलता, स के लये कये गये कमसे स नह मलती; सुखके लये कये गये कमसे सुख नह मलता और परमग त तो मलती ही नह । अतएव करने ओर न करनेयो कम क व ा देनेवाले शा के वधानके अनुसार ही तु न ामभावसे कम करने चा हये। इससे अजुनके मनम यह ज ासा उ ई क जो लोग शा व धको छोड़करकर मनमाने कम करते ह, उनके कम थ होते ह – यह तो ठीक ही है। पर ु ऐसे लोग भी तो हो सकते ह जो शा व धका तो न जाननेके कारण अथवा अ कसी कारणसे ाग कर बैठते ह, परतुं य -पूजा द शुभ कम करते ह, उनक ा त होती है? इस ज ासाको करते ए अजुन भगवान्से पूछते ह – स



अजुन उवाच । ये शा व धमु ृ यज े या ताः । तेषां न ा तु का कृ स माहो रज मः ॥१॥

अजुन बोले – हे कृ ! जो मनु शा व धको ागकर ासे यु ए देवा दका पूजन करते ह, उनक त फर कौन-सी है? सा क है अथवा राजसी कवा तामसी?॥१॥

शा व धके ागक बात सोलहव अ ायके तेईसव ोकम भी कही जा चुक है और यहाँ भी कहते ह। इन दोन का एक ही भाव है या इनम कु छ अ र है? उ र – अव अ र है। वहाँ अवहेलना करके शा व धके ागका वणन है और यहाँ न जाननेके कारण होनेवाले शा व धके ागका है। उनको शा क परवा ही नही है; वे अपने मनम जस कमको अ ा समझते ह, वही करते ह। इसीसे वहाँ 'वतते कामकारतः ' कहा गया है। परंतु यहाँ 'यज े या ताः ' कहा है, अत: इन लोग म ा है। जहाँ ा –

होती है, वहाँ अवहेलना नह हो सकती। इन लोग को प र त और वातावरणक तकू लतासे, अवकाशके अभावसे अथवा प र म तथा अ यन आ दक कमीसे शा व धका ान नह होता और इस अ ताके कारण ही इनके ारा उसका ाग होता है। – ' न ा ' श का ा भाव है? उ र – ' न ा ' श यहाँ तका वाचक है। क तीसरे ोकम इसका उ र देते ए भगवान्ने कहा है क यह पु ष ामय है; जसक जैसी ा है, वैसा ही वह पु ष है अथात् वैसी ही उसक त है। अतएव उसीका नाम ' न ा' है। – 'उनक न ा सा क है अथवा राजसी या तामसी?' यह पूछनेका ा भाव है? उ र – सोलहव अ ायके छठे ोकम भगवान्ने दैवी कृ तवाले और आसुरी कृ तवाले– इन दो कारके मनु का वणन कया। इनम दैवी कृ तवाले लोग शा व हत कम का न ामभावसे आचरण करते ह, इसीसे वे मो को ा होते ह। आसुर- भाववाल म जो तामस लोग पापकम का आचरण करते ह, वे तो नीच यो नय को या नरक को ा होते ह और तमो म त राजस लोग, जो शा व धको ागकर मनमाने अ े कम करते ह, उनको अ े कम का कोई फल नह मलता, कतु पापकमका फल तो उ भी भोगना ही पड़ता है। इस वणनसे दैवी और आसुरी कृ तवाले मनु क उपयु बात तो अजुनक समझम आ गय ; परंतु न जाननेके कारण शा - व धका ाग करनेपर भी जो ाके साथ पूजन आ द करनेवाले ह, वे कै से भाववाले ह– दैव भाववाले या आसुर भाववाले? इसका ीकरण नह आ। अत: उसीको समझनेके लये अजुनका यह है क ऐसे लोग क त सा क है अथवा राजसी या तामसी? अथात् वे दैवी-स दावाले ह या आसुरीस दावाले? – ऊपरके ववेचनसे यह पता लगता है क संसारम पाँच कारके मनु हो सकते ह – (१) जो शा व धका पालन भी करते ह और जनम ा भी है। (२) जो शा व धका तो कसी अंशम पालन करते ह परंतु जनम ा नह है। (३) जनम ा तो है परंतु जो शा व धका पालन नह कर पाते।

(४) जो शा

व धका पालन भी नह करते और जनम ा भी नह है। (५) जो अवहेलनासे शा व धका ाग करते ह। इन पाँच का ा प है इनक ा ग त होती है तथा इनका वणन गीताके कौनसे ोक म धानतया आया है? उ र – (१) जनम ा भी है और जो शा व धका पालन भी करते ह ऐसे पु ष दो कारके ह – एक तो न ामभावसे कम का आचरण करनेवाले और दूसरे सकामभावसे कम का आचरण करनेवाले। न ामभावसे आचरण करनेवाले दैवीस दायु सा क पु ष मो को ा होते है; इनका वणन धानतया सोलहव अ ायके पहले तीन ोक म तथा इस अ ायके ारहव, चौदहवसे स हव और बीसव ोक म है। सकामभावसे आचरण करनेवाले स म त राजस पु ष स , सुख तथा गा द लोक को ा होते ह; इनका वणन दूसरे अ ायके बयालीसव, ततालीसव और चौवालीसवम, चौथे अ ायके बारहव ोकम, सातवके बीसव, इ सव और बाईसवम और नव अ ायके बीसव, इ सव और तेईसव ोक म है। (२) जो लोग शा व धका कसी अंशम पालन करते ए य , दान, तप आ द कम तो करते ह, परंतु जनम ा नह होती – उन पु ष के कम असत् ( न ल) होते ह; उ इस लोक और परलोकम उन कम से कोई भी लाभ नह होता। इनका वणन इस अ ायके अ ाईसव ोकम कया गया है। (३) जो लोग अ ताके कारण शा व धका तो ाग करते ह परंतु जनम ा है – ऐसे पु ष ाके भेदसे सा क भी होते ह और राजस तथा तामस भी। इनक ग त भी इनके पके अनुसार ही होती है। इनका वणन इस अ ायके दूसरे, तीसरे तथा चौथे ोक म कया गया है। (४) जो लोग न तो शा को मानते ह और न जनम ा ही है; इससे जो काम, ोध और लोभके वश होकर अपना पापमय जीवन बताते ह – वे आसुरी-स दावाले लोग नरक म गरते ह तथा नीच यो नय को ा होते ह। उनका वणन सातव अ ायके पं हव ोकम, नवके बारहवम, सोलहव अ ायके सातवसे लेकर बीसवतकम और इस अ ायके पाँचव, छठे एवं तेरहव ोक म है।

(५)

जो लोग अवहेलनासे शा व धका ाग करते ह और अपनी समझसे उ जो अ ा लगता है, वही करते है – उन यथे ाचारी पु ष म जनके कम शा न ष होते ह, उन तामस पु ष को तो नरका द दुग तक ा होती है – जनका वणन चौथे के उ रम आ चुका है। और जनके कम अ े होते ह, उन रजः धान तामस पु ष को शा व धका ाग कर देनेके कारण कोई भी फल नह मलता। इसका वणन सोलहव अ ायके तेईसव ोकम कया गया है। ान रहे क इनके ारा जो पापकम कये जाते ह उनका फल – तयक् यो नय क ा और नरक क ा –अव होता है। इन पाँच के उ रम माण प जन ोक का संकेत कया गया है, उनके अ त र अ ा ोक म भी इनका वणन है; परंतु यहाँ उन सबका उ ेख नह कया गया है।



स र देते ह –



अजुनके

को सुनकर भगवान् अब अगले दो ोक म उसका सं ेपसे

ीभगवानुवाच । वधा भव त ा दे हनां सा भावजा । सा क राजसी चैव तामसी चे त तां णु ॥२॥

ीभगवान् बोले – मनु क वह शा ीय सं ार से र हत केवल भावसे उ ा सा क और राजसी तथा तामसी – ऐसे तीन कारक ही होती है। उसको तू मुझसे सुन॥२॥ – 'देहनाम् ' पद

आ है।

कन मनु के लये यु आ है? उ र – जनका देहम ाभा वक अ भमान है, ऐसे साधारण मनु के लये यु – 'सा ' और ' भावजा ' ये पद कै सी

ाके वाचक ह? उ र – 'सा ' एवं ' भावजा ' पद शा व धका ाग करके ापूवक य ा द कम करनेवाले मनु म रहनेवाली ाके वाचक है। वह ा शा से उ नह है, भावसे है। इस लये उसे ' भावजा ' कहते ह। जो ा शा के वण-पठना दसे होती है, उसे 'शा जा

' कहते ह और जो पूवज ' भावजा ' कहलाती है।

हे?

– सा

के तथा इस ज के कम के सं ारानुसार ाभा वक होती है वह

क , राजसी, तामसी और वधाके साथ 'इ त ' के योगका ा भाव

उ र – इनके साथ 'इ त ' पदका योग करके भगवान् यह दखलाते ह क यह सा क , राजसी और तामसी – इस कार तीन ही तरहक होती है।



स ानु पा सव ा भव त भारत । ामयोऽयं पु षो यो य ः स एव सः ॥३॥

हे भारत! सभी मनु क ामय है, इस लये जो पु ष जैसी – सभी मनु

ा उनके अ ःकरणके अनु प होती है। यह पु ष ावाला है वह यं भी वही है॥३॥

से यहाँ ा ता य हे? उ र – पछले ोकम जन देहा भमानी मनु के लये 'दे हनाम् ' पद आया है, उ के लये 'सव ' पद आया है। अथात् यहाँ देहा भमानी साधारण मनु के स म कहा जा रहा है। क इसी ोकम आगे यह कहा गया है क जसक जैसी ा है, वह यं भी वैसा ही है। यह कथन देहा भमानी जीवके लये ही लागू हो सकता है, गुणातीत ानीके लये नह । – पछले ोकम ाको ' भावजा ' – भावसे उ बतलाया गया है और यहाँ 'स ानु पा ' अ ःकरणके अनु प कहा गया है – इसका ा अ भ ाय है? उ र – मनु सा क, राजस, तामस – जैसे कम करता है, वैसा ही उसका भाव बनता है। और भाव अ ःकरणम रहता है; अत: वह जैसे भाववाला है, वैसे ही अ ःकरणवाला माना जाता है। इस लये उसे चाहे ' भावसे उ ' कहा जाय, चाहे 'अ ःकरणके अनु प' बात एक ही है। – पु षको तो 'पर' यानी गुण से सवथा अतीत बतलाया गया (१३।२२), फर यहाँ उसे ' ामय' कहनेका ा अ भ ाय है?

उ र – पु षका वा वक प तो गुणातीत ही है; परंतु यहाँ उस पु षक बात है, जो कृ तम त है और कृ तसे उ तीन गुण से स है। क गुणज भेद ' कृ त पु ष' म ही स व है। जो गुण से परे है, उसम तो गुण के भेदक क ना ही नह हो सकती। यहाँ भगवान् यह बतलाते ह क जसक अ ःकरणके अनु प जैसी सा क , राजसी या तामसी ा होती है – वैसी ही उस पु षक न ा या त होती है। अथात् जसक जैसी ा है वही उसका प है। इससे भगवान्ने ा, न ा और पक एकता करते ए 'उनक कौन-सी न ा है' अजनके इस का उ र दया है। ाके अनुसार मनु क न ाका प बतलाया गया; इससे यह जाननेक इ ा हो सकती है क ऐसे मनु क पहचान कै से हो क कौन कस न ावाला ह। इसपर भगवान् कहते ह – स

सा तामस मनु



यज े सा का देवा र ां स राजसाः । ेता ूतगणां ा े यज े तामसा जनाः ॥४॥

क पु ष देव को पूजते ह, राजस पु ष य

और रा स को तथा अ

जो

ह, वे ेत और भूतगण को पूजते ह॥४॥ – सा

क पु ष देव को पूजते ह, इसका ा अ भ ाय है? उ र – काय देखकर कारणक पहचान होती है – इस ायके अनुसार जब देवता सा क ह तो उनक पूजा करनेवाले भी सा क ही ह गे; और 'जैसे देव वैसे ही उनके पुजारी' इस लोको के अनुसार यह बतलाते ह क देवता को पूजनेवाले मनु सा क ह – सा क न ावाले ह। देवता से यहाँ सूय, च , अ , वायु, इ , व ण, यम, अ नीकु मार और व ेदेव आ द शा ो देव समझने चा हये। यहाँ देवपूजन प या सा क होनेके कारण उसे करनेवाल को सा क बताया है; परंतु पूण सा क तो वही है जो सा क याको न ामभावसे करता है। – राजस पु ष य -रा स को (पूजते ह) – इससे ा ता य है? उ र – जैसे देवता को पूजनेवाले सा क पू ष है, उसी ायसे य -रा स को पूजनेवाले राजस ह – राजसी न ावाले ह, यह पहचान करनेके लये ऐसा कहा है। य से

कु बेरा द और रा स से रा -के तु आ द समझना चा हये। – तामस मनु ेत और भूतगण को पूजते ह– इसका ा ता य है? उ र – इससे भी यही बात कही गयी है क भूत, ेत, पशाच को पूजनेवाले तामसी न ावाले ह। मरनेके बाद जो पाप-कमवश भूत- ेता दके वायु धान देहको ा होते ह, वे भूत- ेत कहलाते है। – इन लोग क ग त कै सी होती है? उ र – 'जैसा इ वैसी ग त' स ही है। देवता को पूजनेवाले देवग तको ा होते है, य -रा स को पूजनेवाले य -रा स क ग तको और भूत- ेत को पूजनेवाले उ के जैसे प, गुण और त आ दको पाते ह। नव अ ायके पचीसव ोकम भगवान्ने 'या देव ता देवान् ', 'भूता न या भूते ा: ' आ दसे यही स ा बतलाया है।

न जाननेके कारण शा व धका ाग करके वध ाभा वक ाके साथ यजन करनेवाल का वणन कया गया, पर ु शा व धका ाग करनेवाले अ ालु मनु के वषयम कु छ नह कहा गया, अत: यह ज ासा उ ई क जनम ा भी नह है और जो शा व धको भी नह मानते और घोर तप आ द कम करते ह, वे कस ेणी म ह? इसपर अगले दो ोक म भगवान् कहते ह – स



अशा व हतं घोरं त े ये तपो जनाः । द ाह ारसंयु ाः कामरागबला ताः ॥५॥

जो मनु शा व धसे र हत केवल मनःक त घोर तपको तपते ह तथा द और अहंकारसे यु एवं कामना, आस और बलके अ भमानसे भी यु ह॥५॥ – शा

व धसे र हत और घोर तप कै से तपको कहते ह? उ र – जस तपके करनेका शा म वधान नह है, जसम शा व धका पालन नह कया जाता, जसम नाना कारके आड र से शरीर और इ य को क प ँ चाया जाता है और जसका प बड़ा भयानक होता है – ऐसे तपको शा व धसे र हत घोर तप कहते ह। – इस कार तप करनेवाले मनु को द और अहंकारसे यु बतलानेका ा अ भ ाय है?

उ र – इस कारके शा व भयानक तप करनेवाले मनु म ा नह होती। वे लोग को ठगनेके लये और उनपर रोब जमानेके लये पाख रचते ह तथा सदा अहंकारसे फू ले रहते ह। इसीसे उ द और अहंकारसे यु कहा गया है। – ऐसे मनु को कामना, आस और बलके अ भमानसे यु कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – उनक भोग म अ आस होती है, इससे उनके च म नर र उ भोग क कामना बढ़ती रहती है। वे समझते ह क हम जो कु छ चाहगे, वही ा कर लगे; हमारे अ र अपार बल है, हमारे बलके सामने कसक श है जो हमारे कायम बाधा दे सके । इसी अ भ ायसे उ कामना, आस और बलके अ भमानसे यु कहा गया है।

कषय ः शरीर ं भूत ाममचेतसः । मां चैवा ःशरीर ं ता द् ासुर न यान् ॥६॥

जो शरीर पसे

त भूतसमुदायको और अ ःकरणम

त मुझ परमा ाको भी

कृश करनेवाले ह, उन अ ा नय को तू आसुर- भाववाले जान॥६॥ – शरीर

पसे त भूतसमुदायका ा अथ है? उ र – पंच महाभूत, मन, बु , अहंकार, दस इ याँ और पाँच इ य के वषय – इन तेईस त के समूहका नाम 'भूतसमुदाय' है। इसका वणन तेरहव अ ायके पाँचव ोकम े के नामसे आ चुका है। – वे लोग भूतसमुदायको और अ ःकरणम त मुझ परमा ाको भी कृ श करनेवाले होते ह, इस कथनका ा भाव है? उ र – शा से वपरीत मनमाना घोर तप करनेवाले मनु नाना कारके भयानक आचरण से उपयु भूतसमुदायको यानी शरीरको ीण और दुबल करते ह, इतना ही नह है; वे अपने घोर आचरण से अ ःकरणम त परमा ाको भी ेश प ँ चाते ह। क सबके दयम आ पसे परमा ा त ह। अत: यं अपने आ ाको या कसीके भी आ ाको दुःख प ँ चाना परमा ाको ही दुःख प ँ चाना है। इस लये उ भूतसमुदायक और परमा ाको ेश प ँ चानेवाले कहा गया है। – 'अचेतस: ' पदका ा अथ है?

उ र – शा के तकू ल आचरण करनेवाले, बोधश से र हत, आवरण दोषयु मूढ मनु का वाचक 'अचेतस: ' पद है। – ऐसे मनु को आसुर- न यवाले कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – उपयु शा व धसे र हत घोर तामस तप करनेवाले, द ी और घम ी मनु सोलहव अ ायम व णत आसुरी-स दावाले ही ह, यही भाव दखलानेके लये उनको 'आसुर- न यवाले' कहा गया है। वध ाभा वक ावाल के तथा घोर तप करनेवाले लोग के ल ण बतलाकर अब भगवान् सा कका हण और राजस-तामसका ाग करानेके उ े से सा क-राजस-तामस आहार, य , तप और दानके भेद सुननेके लये अजुनको आ ा देते ह – स



आहार प सव वधो भव त यः । य प था दानं तेषां भेद ममं णु ॥७॥

भोजन भी सबको अपनी-अपनी कृ तके अनुसार तीन कारका

य होता है।

और वैसे ही य , तप और दान भी तीन-तीन कारके होते ह। उनके इस पृथक्-पृथक् भेदको तू मुझसे सुन॥७॥ – 'अ प ' पदका

ा भाव है? उ र – 'अ प ' पदसे भगवान् यह दखलाते ह क जैसे ा और यजन सा क, राजस और तामस-भेदसे तीन कारके होते ह, वैसे ही आहार भी तीन कारके होते है। – 'सव ' पदका ा अथ है? उ र – 'सव ' पद यहाँ मनु मा का वाचक है, क आहार सभी मनु करते ह और यह करण भी मनु का ही है। – आहारा दके स म अजुनने कु छ भी नह पूछा था, फर बना ही पूछे भगवान्ने आहारा दक बात कही? उ र – मनु जैसा आहार करता है, वैसा ही उसका अ ःकरण बनता है और अ :करणके अनु प ही ा भी होती है। आहार शु होगा तो उसके प रणाम प अ ःकरण भी शु होगा। 'आहारशु ौ स शु ः ' (छा ो उ० ७।२६।२)। अ ःकरणक

शु से ही वचार, भाव, ा द गुण और याएँ शु ह गी। अतएव इस संगम आहारका ववेचन आव क है। दूसरे, यजन अथात् देवा दका पूजन सब लोग नह करते; पर ु आहार तो सभी करते है। जैसे जो जस गुणवाले देवता, य -रा स या भूत- ेत क पूजा करता है – वह उसीके अनुसार सा क, राजस और तामस गुणवाला समझा जाता है; वैसे ही सा क, राजस और तामस आहार म जो आहार जसको य होता है, वह उसी गुणवाला होता है। इसी भावको लेकर ोकम ' य: ' पद देकर वशेष ल कराया गया है। अत: आहारक से भी उसक पहचान हो सकती है। इसी लये भगवान्ने यहाँ आहारके तीन भेद बतलाये ह तथा सा क आहारका हण करानेके लये और राजस-तामसका ाग करानेके लये भी इसके तीन भेद बतलाये ह। यही बात य , दान और तपके वषयम भी समझ लेनी चा हये। – पूव

ोकम भगवान्ने आहार, य , तप और दानके भेद सुननेक आ ा क है; उसीके अनुसार इस ोकम हण करनेयो सा क आहारका वणन करते ह – स

आयुःस बलारो सुख ी त ववधनाः । र ाः ाः रा ा आहाराः सा क याः ॥८॥

आयु, बु , बल, आरो , सुख और ी तको बढ़ानेवाले, रसयु , चकने और र रहनेवाले तथा भावसे ही मनको य – ऐसे आहार अथात् भोजन करनेके पदाथ सा

क पु षको

य होते ह॥८॥

आयु, बु , बल, आरो , सुख और ी तका बढ़ना ा है और उनको बढ़ानेवाले आहार कौन-से ह? उ र – (१) आयुका अथ है उ या जीवन, जीवनक अव धका बढ़ जाना आयुका बढ़ना है। (२) स का अथ है बु । बु का नमल, ती ण एवं यथाथ तथा सू द शनी होना ही स का बढ़ना है। (३) बलका अथ है स ायम सफलता दलानेवाली मान सक और शारी रक श । इस आ र एवं बा श का बढ़ना ही बलका बढ़ना है। (४) मान सक और शारी रक रोग का न होना ही आरो का बढ़ना है। –

(५)

दयम स ोष, सा क स ता और पु का होना और मुखा द शरीरके अंग पर शु भावज नत आन के च का कट होना सुख है; इनक वृ सुखका बढ़ना है। (६) च वृ का ेमभावस हो जाना और शरीरम ी तकर च का कट होना ही ी तका बढ़ना है। उपयु आयु, बु और बल आ दको बढ़ानेवाले जो दूध, घी, शाक, फल, चीनी, गे ँ , जौ, चना, मूँग और चावल आ द सा क आहार ह – उन सबको समझानेके लये आहारका यह ल ण कया गया है। – वे आहार कै से होते ह? उ र – 'र ाः ', ' ा: ', ' रा: ' और ' ाः ' – इन पद से भगवान्ने यही बात समझायी है। (१) दूध, चीनी आ द रसयु पदाथ को 'र ाः ' कहते ह। (२) म न, घी तथा सा क पदाथ से नकाले ए तैल आ द ेहयु पदाथ को ' ा: ' कहते ह। (३) जन पदाथ का सार ब त कालतक शरीरम र रह सकता है, ऐसे ओज उ करनेवाले पदाथ को ' राः ' कहते ह। (४) जो गंदे और अप व नह ह तथा देखते ही मनम सा क च उ करनेवाले ह, ऐसे पदाथ को ' ाः ' कहते ह। – 'आहारा: ' से ा ता य है? उ र – भ , भो , ले और चो – इन चार कारके खानेयो पदाथ को आहार कहते ह। इसक ा ा पं हव अ ायके चौदहव ोकम देखनी चा हये। वहाँ चतु वध अ के नामसे इसका वणन आ है। – भगवान्ने पूवके ोकम आहारके तीन भेद सुननेको कहा था, परंतु यहाँ 'सा क या: ' से आहार करनेवाले पु ष क बात कै से कही? उ र – जो पु ष जस गुणवाला है, उसको उसी गुणवाला आहार य होता है। अतएव पु ष क बात कहनेसे आहारक बात आप ही आ गयी। मनु क भोजन वषयक

यताके स

से उसक पहचान बतानेके उ े से ऐसा योग कया गया है।

हण करनेयो सा क पु ष के आ रका वणन करके अब अगले दो ोक म ाग करनेयो राजस और तामस पु ष के आहारका वणन करते ह – स



क लवणा ु ती ण वदा हनः । आहारा राजस े ा दुःखशोकामय दाः ॥९॥

कड़वे, ख े , लवणयु , ब त गरम, तीखे, खे, दाहकारक और दःु ख, च ा तथा रोग को उ करनेवाले आ र अथात् भोजन करनेके पदाथ राजस पु षको य होते ह॥९॥ –

कड़वे, ख े, लवणयु

,

ब त गरम, तीखे, खे और दाहकारक कै से

आहारको कहते ह? उ र – नीम, करेला आ द पदाथ कडु वे ह, कु छ लोग काली मच आ द चरपरे पदाथ को कड़वे मानते ह। कतु इस वणनम ती ण श अलग आया है, कटु रसका उसम अ भाव हो जाता है, इस लये यहाँ ' कटु ' श का त अथ मानकर उसका अथ 'कड़वा' कया गया है। इमली आ द ख े ह, ार तथा व वध भाँ तके नमक नमक न ह, ब त गरमगरम व ुएँ अ त उ ह, लाल मच आ द तीखे ह, भाड़म भूँजे ए अ ा द खे ह और राई आ द पदाथ दाहकारक ह। – 'दःु खशोकामय दा: ' का ा भाव है? उ र – खानेके समय गले आ दम जो तकलीफ होती है तथा जीभ, तालू आ दका जलना, दाँत का आम जाना, चबानेम द त होना, आँ ख और नाक म पानी आ जाना, हचक आना आ द जो क होते ह – उ 'दुःख' कहते ह। खानेके बाद जो प ा ाप होता है उसे 'शोक' कहते ह और खानेसे जो रोग उ होते ह, उ 'आमय' कहते ह। उपयु कड़वे, ख े आ द पदाथ के खानेसे ये दुःख, शोक और रोग उ होते ह। इस लये इ 'दःु खशोकामय दाः ' कहा है। अतएव इनका ाग करना उ चत है। – ये राजस पु षको य ह, इस कथनका ा भाव है?

उ र – इससे यह भाव दखलाया है क उपयु आहार राजस है; अत: जनको इस कारका आहार य यानी चकर है, उनको रजोगुणी समझना चा हये।

यातयामं गतरसं पू त पयु षतं च यत् । उ म प चामे ं भोजनं तामस यम् ॥१०॥

जो भोजन अधपका, रसर हत, दग ु यु , बासी और उ भी है वह भोजन तामस पु षको य होता है॥१०॥

है तथा जो अप व

हरको कहते ह, अतएव 'यातयामम् ' का अथ जस भोजनको तैयार ए एक हर बीत चुका हो ऐसा न मानकर अधपका माना गया? और अधपका भोजन कै से भोजनको कहते ह? उ र – इसी ोकम 'पयु षतम् ' या बासी अ को तामस बतलाया गया है। 'यातयामम् ' का अथ एक हर पहलेका बना भोजन मान लेनेसे 'बासी' भोजनको तामस बतलानेक कोई साथकता नह रह जाती; क जब एक ही हर पहले बना आ भोजन भी तामस है, तब एक रात पहले बने भोजनका तामस होना तो य ही स हो जाता है, उसे अलग तामस बतलानेक ा आव कता है। यहसोचकर यहाँ 'यातयामम् ' का अथ 'अधपका' कया गया है। अधपका उन फल अथवा उन खा पदाथ को समझना चा हये जो पूरी तरहसे पके न ह , अथवा जनके स होनेम (सीझनेम) कमी रह गयी हो। – 'गतरसम् ' पद कसके भोजनका वाचक है? उ र – अ आ दके संयोगसे, हवासे अथवा मौसम बीत जाने आ दके कारण से जन रसयु पदाथ का रस सूख गया हो (जैसे संतरे, ऊख आ दका रस सूख जाया करता है) – उनको 'गतरस' कहते ह। – 'पू त ' पद कस कारके भोजनका वाचक है? उ र – खानेक जो व ुएँ भावसे ही दुग यु ह (जैसे ाज, लहसुन आ द) अथवा जनम कसी यासे दुग उ कर दी गयी हो, उन व ु को 'पू त ' कहते ह। – 'पयु षतम् ' पद कै से भोजनका वाचक है? – 'याम '

उ र – पहले दनके बनाये ए भोजनको 'पयु षत्' या बासी कहते ह। रात बीत जानेसे ऐसे खा पदाथ म वकृ त उ हो जाती है और उनके खानेसे नाना कारके रोग उ होते ह। उन फल को भी बासी समझना चा हये, जनम पेड़से तोड़े ब त समय बीत जानेके कारण वकार उ हो गया हो। – 'उ ' कै से भोजनका वाचक है? उ र – अपने या दूसरेके भोजन कर लेनेपर बची ई जूठी चीज को 'उ ' कहते ह। – 'अमे म् ' पद कै से भोजनका वाचक है? उ र – मांस, अ े आ द हसामय और शराब-ताड़ी आ द न ष मादक व ुएँ – जो भावसे ही अप व ह अथवा जनम कसी कारके संगदोषसे, कसी अप व व ,ु ान, पा या के संयोगसे या अ ाय और अधमसे उपा जत असत् धनके ारा ा होनेके कारण अप व ता आ गयी हो – उन सब व ु को 'अमे ' कहते ह। ऐसे पदाथ देव-पूजनम भी न ष माने गये ह। – 'च ' और 'अ प ' इन अ य का योग करके ा भाव दखलाया गया है? उ र – इनके योगसे यह भाव दखलाया गया है क जन व ु म उपयु दोष थोड़े या अ धक ह , वे सब व ुएँ तो तामस ह ही; उनके सवा गांजा, भाँग, अफ म, त ाकू , सगरेट-बीड़ी, अक, आसव और अप व दवाइयाँ आ द तमोगुण उ करनेवाली जतनी भी खान-पानक व ुएँ ह – सभी तामस ह। – ऐसा भोजन तामस पु ष को य होता है – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान्ने यह दखलाया है क उपयु ल ण से यु भोजन तामस है और तामस कृ तवाले मनु ऐसे ही भोजनको पसंद कया करते ह, यही उनक पहचान है। कार भोजनके तीन भेद बतलाकर अब य के तीन भेद बतलाये जाते ह; उनम पहले करनेयो सा क य के ल ण बतलाते ह – स

– इस

अफलाङ् भय ो व ध ो य इ ते । य मेवे त मनः समाधाय स सा कः ॥११॥

जो शा व धसे नयत, य करना ही कत है – इस कार मनको समाधान करके, फल न चाहनेवाले पु ष ारा कया जाता है, वह सा क है॥११॥ – 'वध

:'

पदका ा अथ है और यहाँ इस वशेषणके योगका ा

अ भ ाय है? उ र – ' व ध : ' से भगवान्ने यह दखलाया है क ौत और ात य मसे जस वण या आ मके लये शा म जस य का कत पसे वधान कया गया है, वह शा व हत य ही सा क है। शा के वपरीत मनमाना य सा क नह है। – यहाँ 'य :' पद कसका वाचक है? उ र – देवता आ दके उ े से घृता दके ारा अ म हवन करना या अ कसी कारसे कसी भी व ुका समपण करके कसीक यथा-यो पूजा करना 'य ' कहलाता है। – करना ही कत है – इस कार मनका समाधान करके कये ए य को सा क बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – य द फलक इ ा ही न हो तो फर कम करनेक आव कता ही ा है, ऐसी शंका हो जानेपर मनु क य म वृ ही नह हो सकती; अतएव 'करना ही कत है' इस कार मनका समाधान करके कये जानेवाले य को सा क बतलाकर भगवान्ने यह भाव कट कया है क अपने-अपने वणा मके अनुसार जस य का जसके लये शा म वधान है, उसको अव करना चा हये। ऐसे शा व हत कत प य का न करना भगवान्के आदेशका उ ंघन करना है – इस कार य करनेके लये मनम ढ़ न य करके न ामभावसे जो य कया जाता है, वही य सा क होता है। – 'अफलाकाङ् भः ' पद कै से कताका वाचक है और उनके ारा कये ए य को सा क बतलानेका ा भाव है? उ र – य करनेवाले जो पु ष उस य से ी, पु , धन, मकान, मान, बड़ाई, त ा, वजय या ग आ दक ा एवं कसी कारके अ न क नवृ प इस लोक या परलोकके कसी कारके सुखभोग या दुःख नवृ क जरा भी इ ा नह करते – उनका वाचक 'अफलाकाङ् भः ' पद है (६।१)। उनके ारा कये ए य को सा क बतलाकर यहाँ यह

भाव दखलाया गया है क फलक इ ासे कया आ य व धपूवक कया जानेपर भी पूण सा क नह हो सकता, सा क भावक पूणताके लये फले ाका ाग परमाव क है। स

– अब राजस य

के ल ण बतलाते ह –

अ भस ाय तु फलं द ाथम प चैव यत् । इ ते भरत े तं य ं व राजसम् ॥१२॥

परंतु हे अजुन! केवल द ाचरणके लये अथवा फलको भी

म रखकर जो य

कया जाता है, उस य को तू राजस जान॥१२॥ – 'तु ' अ

है।

यका योग कस लये कया गया है? उ र – सा क य से इसका भेद दखलानेके लये 'तु ' अ यका योग कया गया –द

के लये य करना ा है? उ र – य -कमम आ ा न होनेपर भी जगत्म अपनेको 'य न ' स करनेके उ े से जो य कया जाता है, उसे द के लये य करना कहते ह। – फलका उ े रखकर य करना ा है? उ र – ी, पु , धन, मकान, मान, बड़ाई, त ा, वजय और गा दक ा प इस लोक और परलोकके सुख-भोग के लये या कसी कारके अ न क नवृ तके लये जो य करना है – वह फल- ा के उ े से य करना है। – 'एव ', 'अ प ' और'च ' – इन अ य के योगका ा भाव है? उ र – इनके योगसे भगवान्ने यह दखलाया है क जो य कसी फल ा के उ े से कया गया है, वह शा व हत और ापूवक कया आ होनेपर भी राजस है एवं जो द पूवक कया जाता है वह भी राजस है; फर जसम ये दोन दोष ह उसके 'राजस' होनेम तो कहना ही ा है? स

– अब तामस य



के ल ण बतलाये जाते ह, जो क सवथा ा ह –





व धहीनमसृ ा ं म हीनमद णम् । ा वर हतं य ं तामसं प रच ते ॥१३॥

शा व धसे हीन, अ दानसे र हत, बना मय के, बना द ाके कये जानेवाले य को तामस य कहते ह॥१३॥

णाके और बना

– ' व धहीनम् ' पद कै से य

का वाचक है? उ र – जो य शा व हत न हो या जसके स ादनम शा व धक कमी हो, अथवा जो शा ो वधानक अवहेलना करके मनमाने ढंगसे कया गया हो, उसे ' व धहीन' कहते ह। – 'असृ ा म् ' पद कै से य का वाचक है? उ र – जस य म ा ण-भोजन या अ दान आ दके पम अ का ाग नह कया गया हो, उसे 'असृ ा ' कहते ह। –'म हीनम्' पद कै से य का बोधकहै? उ र – ज य शा ो म से र हत हो, जसम म योग ए ही न ह , या व धवत् न ए ह , अथवा अवहेलनासे ु ट रह गयी हो – उस य को 'म हीन' कहते ह। – 'अद णम् ' पद कै से य का वाचक है? उ र – जस य म य करानेवाल को एवं अ ा ा ण-समुदायको द णा न दी गयी हो, उसे 'अद ण' कहते ह। – ' ा वर हत' कौन-सा य है? उ र – जो य बना ाके के वल मान, मद, मोह, द और अहंकार आ दक ेरणासे कया जाता है – उसे ' ा वर हत' कहते ह।

इस कार तीन तरहके य का ल ण बतलाकर, अब तपके ल ण का करण आर करते ए चार ोक ारा सा क तपका ल ण बतलानेके लये पहले शारी रक तपके पका वणन करते ह – स



देव जगु ा पूजनं शौचमाजवम् । ीं े

देवता,

चयम हसा च शारीरं तप उ ते ॥१४॥

ा ण, गु और

अ हसा – यह शरीरस

'पूजन करना'

– 'देव', '

ा है?

ानीजन का पूजन, प व ता, सरलता,

चय और

ी तप कहा जाता है॥१४॥

ज', 'गु ' और ' ा

'–

ये श कन- कनके वाचक ह और उनका

उ र – ा, महादेव,सूय, च मा, दुगा, अ , व ण, यम, इ आ द जतने भी शा ो देवता ह – शा म जनके पूजनका वधान है – उन सबका वाचक यहाँ 'देव' श है। ' ज' श ा ण, य और वै – इन तीन वण का वाचक होनेपर भी यहाँ के वल बा ण हीके लये यु है। क शा ानुसार ा ण ही सबके पू ह। 'गु ' श यहाँ माता, पता, आचाय, वृ एवं अपनेसे जो वण, आ म और आयु आ दम कसी कार भी बड़े ह उन सबका वाचक है। तथा ' ा ' श यहाँ परमे रके पको भलीभाँ त जाननेवाले महा ा ानी पु ष का वाचक है। इन सबका यथायो आदर-स ार करना; इनको नम ार करना; द वत्- णाम करना; इनके चरण धोना; इ च न, पु , धूप, दीप, नैवे आ द समपण करना; इनक यथायो सेवा आ द करना और इ सुख प ँ चानेक उ चत चे ा करना आ द इनका पूजन करना है। – 'शौचम्' पद यहाँ कस शौचका वाचक है? उ र – शौचम् पद यहाँ के वल शारी रक शौचका वाचक है। क वाणीक शु का वणन पं हव ोकम और मनक शु का वणन सोलहव ोकम अलग कया गया है। जल-मृ का दके ारा शरीरको और प व रखना एवं शरीरस ी सम चे ा का प व होना ही 'शौच' है ( १६।३)। – 'आजवम् ' पद यहाँ कसका वाचक है? उ र – 'आजवम् ' पद सीधेपनका वाचक है। यहाँ शारी रक तपके न पणम इसका वणन कया गया है, अतएव यह शरीरक अकड़ और ठ आ द व ताके ागका और शारी रक सरलताका वाचक है। – ' चयम् ' का ा भाव है?

उ र – यहाँ ' चयम् ' पद शरीर- स ी सब कारके मैथुन के ाग और भलीभाँ त वीय धारण करनेका बोधक है। – 'अ हसा' पद कसका वाचक है? उ र – शरीर ारा कसी भी ाणीको कसी भी कारसे कभी जरा भी क न प ँ चानेका नाम ही यहाँ 'अ हसा ' है। – इन सबको 'शारी रक तप' कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – उपयु या म शरीरक धानता है अथात् इनसे शरीरका वशेष स है और ये इ य के स हत शरीरको उसके सम दोष का नाश करके प व बना देनेवाली ह, इस लये इन सबको 'शारी रक तप' कहते ह। स

– अब वाणीस

ी तपका

प बतलाते ह –

अनु ेगकरं वा ं स ं य हतं च यत् । ा ाया सनं चैव वाङ् मयं तप उ ते ॥१५॥

जो उ ेग न करनेवाला,

य और हतकारक एवं यथाथ भाषण है तथा जो वेद-

शा के पठनका एवं परमे रके नाम-जपका अ ास है – वही वाणीस जाता है॥१५॥

ी तप कहा

आर ' य हतम् ' – इन वशेषण का ा अथ है और 'वा म् ' पदके साथ इनके योगका तथा 'च ' अ यका ा भाव है? उ र – जो वचन कसीके भी मनम जरा भी उ ेग उ करनेवाले न ह तथा न ा या चुगली आ द दोष से सवथा र हत ह – उ 'अनु ेगकर' कहते ह। जैसा, देखा, सुना और अनुभव कया हो, ठीक वैसा-का-वैसा ही भाव दूसरेको समझानेके लये जो यथाथ वचन बोले जायँ – उनको 'स ' कहते ह। जो सुननेवाल को य लगते ह तथा कटुता, खापन, तीखापन, ताना और अपमानके भाव आ द दोष से सवथा र हत ह – ऐसे ेमयु मीठे , सरल और शा वचन को ' य' कहते ह। तथा जनसे प रणामम सबका हत होता हो; जो हसा, ेष, डाह, वैरसे सवथा शू ह और ेम, दया तथा मंगलसे भरे ह – उनको ' हत' कहते ह। – 'अनु ेगकरम् ' 'स म् '

साथ 'च ' का योग करके भगवान्ने यह भाव दखलाया है क जस वा म अनु ेगका रता, स ता, यता, हतका रता – इन सभी गुण का समावेश हो एवं जो शा व णत वाणीस ी सब कारके दोष से र हत हो – उसी वा के उ ारणको वा चक तप माना जा सकता है; जसम इन दोष का कु छ भी समावेश हो या उपयु गुण मसे कसी गुणका अभाव हो, वह वा सांगोपांगवा चक (वाणीस ी) तप नह है। – ' ा ाया सनम् ' का ा अ भ ाय है? उ र – यथा धकार वेद, वेदांग, ृ त, पुराण और ो ा दका पाठ करना; भगवान्के गुण, भाव और नाम का उ ारण करना तथा भगवान्क ु त आ द करना – सभी ' ा ाया सनम् ' पदसे गृहीत होते ह। – इन सबको वा चक तप कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – उपयु सभी गुण वाणीसे स रखनेवाले और वाणीके सम दोष को नाश करके अ ःकरणके स हत उसे प व बना देनेवाले ह, इस लये इनको वाणीस ी तप बतलाया गया है। 'वा



म् ' पदके

– अब मनस

ी तपका

प बतलाते ह –

मनः सादः सौ ं मौनमा व न हः । भावसंशु र ेत पो मानसमु ते ॥१६॥

मनक स ता, शा भाव, भगव न करनेका भाव, मनका न ह और अ ःकरणके भाव क भलीभाँ त प व ता – इस कार यह मनस ी तप कहा जाता है॥१६॥ – 'मनः साद: ' का

ा भाव है? उ र – मनक नमलता और स ताको 'मनः साद' कहते ह, अथात् वषाद-भय, च ा-शोक, ाकु लता-उ ता आ द दोष से र हत होकर मनका वशु होना तथा स ता, हष और बोधश से यु हो जाना ही 'मनका साद' है। – 'सौ म् ' कसको कहते ह?

उ र – ता, डाह हसा, त हसा, ू रता, नदयता आ द तापकारक दोष से सवथा शू होकर मनका सदा-सवदा शा और शीतल बने रहना ही 'सौ ' है। – 'मौनम् ' पदका ा भाव है? उ र – मनका नर र भगवान्के गुण, भाव, त , प, लीला और नाम आ दके च नम या वचारम लगे रहना ही 'मौन' है। – 'आ व न ह' ा है? उ र – अ ःकरणक चंचलताका सवथा नाश होकर उसका र तथा अ ी कार अपने वशम हो जाना ही 'आ व न ह' है। – 'भावसंशु ' कसे कहते है? उ र – अ ःकरणम राग- ेष, काम- ोध, लोभ-मोह, मद-म र, ई ा-वैर, घृणातर ार, असूया-अस ह ुता, माद, थ वचार, इ वरोध और अ न च न आ द दुभाव का सवथा न हो जाना और इनके वरोधी दया, मा, ेम, वनय आ द सम स ाव का सदा वक सत रहना 'भावसंशु ' है। – इन सब गुण को मानस (मनस ी) तप कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – ये सभी गुण मनसे स रखनेवाले और मनको सम दोष से र हत करके परम प व बना देनेवाले ह; इस लये इनको मानस-तप बतलाया गया है। स

– अब सा

क तपके ल ण बतलाते ह –

या परया त ं तप ि वधं नरैः । अफलाकाङ् भयु ैः सा कं प रच ते ॥१७॥

फलको न चाहनेवाले योगी पु ष ारा परम कारके तपको सा क कहते ह॥१७॥

योग करके

– 'नरेः ' पदके

साथ 'अफलाकाङ् ा भाव दखलाया है?

ासे कये ए उस पूव

भः ' और 'यु

ैः '

तीन

इन दोन वशेषण का

उ र – जो मनु इस लोक या परलोकके कसी कारके भी सुखभोग अथवा दुःखक नवृ प फलक कभी कसी भी कारणसे क च ा भी कामना नह करता, उसे 'अफलाकां ी' कहते ह; और जसके मन, बु और इ य अनास , नगृहीत तथा शु होनेके कारण, कभी कसी भी कारके भोगके स से वच लत नह हो सकते, जसम आस का सवथा अभाव हो गया है, उसे 'यु ' कहते है। अत: इनका योग करके न ामभावक आव कता स करते ए भगवान्ने यह भाव दखलाया है क उपयु तीन कारका तप जब ऐसे न ाम पु ष ारा कया जाता है तभी वह पूण सा क होता है। – 'परम ा' कै सी ाको कहते ह और उसके साथ तीन कारके तपका करना ा है? उ र – शा म उपयु तपका जो कु छ भी मह , भाव और प बतलाया गया है – उसपर से भी बढ़कर स ानपूवक पूण व ास होना 'परम ा' है और ऐसी ासे यु होकर बड़े-से-बड़े व या क क कु छ भी परवा न करके सदा अ वच लत रहते ए अ आदर और उ ाहपूवक उपयु तपका आचरण करते रहना ही उसे परम ासे करना है। – 'तप: ' पदके साथ 'तत् ' और ' वधम् ' – इन वशेषण के योगका ा भाव है? उ र – इनका योग करके भगवान्ने यह भाव दखलाया है क शरीर, वाणी और मनस ी उपयु तप ही सा क हो सकते ह। इनसे भ जो अ कारके का यक, वा चक और मान सक तप ह – जनका इसी अ ायके पाँचव ोकम 'अशा व हतम् ' और 'घोरम् ' वशेषण लगाकर न पण कया गया है – वे तप सा क नह होते। साथ ही यह भी दखलाया है क चौदहव, पं हव और सोलहव ोक म जन का यक, वा चक और मान सक तप का प बतलाया गया है – वे पसे तो सा के ह; पर ु वे पूण सा क तब होते ह, जब इस ोकम बतलाये ए भावसे कये जाते है। स

– अब राजस तपके

ल ण बतलाये जाते ह –

स ारमानपूजाथ तपो द ेन चैव यत् । यते त दह ो ं राजसं चलम ुवम् ॥१८॥

जो तप स ार, मान और पूजाके लये तथा अ भावसे या पाख से कया जाता है, वह अ न त एवं

कसी ाथके लये भी णक फलवाला तप यहाँ

राजस कहा गया है।१८। – यहाँ 'तप: ' के

साथ 'यत् ' पदका योग करनेका ा अ भ ाय है? उ र – यहाँ 'तप: ' के साथ 'यत् ' पदका योग करके भगवान्ने यह भाव दखलाया है क शा म जतने भी त, उपवास और संयम आ द तप के वणन ह – वे सभी तप य द स ार, मान और पूजा दके लये कये जाते ह, तो राजस तपक ेणीम आ जाते ह। – स ार, मान और पूजाके लये 'तप ' करना ा है? तथा 'च ' और 'एव ' के योगका ा भाव है? उ र – तपक स से जो इस कार जगत्म बड़ाई होती है क यह मनु बड़ा भारी तप ी है, इसक बराबरी कौन कर सकता है, यह बड़ा े है आ द – उसका नाम 'स ार' है। कसीको तप ी समझकर उसका ागत करना, उसके सामने खड़े हो जाना, णाम करना, मानप देना या अ कसी यासे उसका आदर करना 'मान' है। तथा उसक आरती उतारना, पैर धोना, प -पु ा द षोडशोपचारसे पूजा करना, उसक आ ाका पालन करना – इन सबका नाम 'पूजा' है। इन सबके लये जो लौ कक या शा ीय तपका आचरण कया जाता है – वही स ार, मान और पूजाके लये तप करना है तथा 'च ' और 'एव ' का योग करके यह भाव दखाया है क इसके सवा अ कसी ाथक स के लये कया जानेवाला तप भी राजस है। – द से 'तप' करना ा है? उ र – तपम व ुत: आ ा न होनेपर भी लोग को धोखा देकर कसी कारका ाथ स करनेके लये तप ीका-सा ाँग रचकर जो कसी लौ कक या शा ीय तपका बाहरसे दखाने भरके लये आचरण कया जाता है, उसे द से तप करना कहते ह। – ाथ स के लये कया जानेवाला जो तप द पूवक कया जाता है, वही 'राजस' माना जाता है या के वल ाथके स से ही राजस हो जाता है?

उ र – के वल ाथके स से ही राजस हो जाता है; फर द भी साथम हो, उसके लये तो कहना ही ा है। – राजस तपको ' अ ुव' और 'चल' कहनेका ा अ भ ाय है ' उ र – जस फलक ा के लये उसका अनु ान कया जाता है, उसका ा होना या न होना न त नह है; इस लये उसे 'अ ुव' कहा है और जो कु छ फल मलता है, वह भी सदा नह रहता, उसका न य ही नाश हो जाता है – इस लये उसे 'चल' कहा है। स

– अब तामस तपके

ल ण बतलाते ह, जो क सवथा ा है –

मूढ ाहेणा नो य ीडया यते तपः । पर ो ादनाथ वा त ामसमुदा तम् ॥१९॥

जो तप मूढतापूवक हठसे, मन, वाणी और शरीरक पीड़ाके स हत अथवा दस ू रेका अ न करनेके लये कया जाता है – वह तप तामस कहा गया है॥१९॥ – यहाँ 'तप: ' के

साथ 'यत् ' पदके योगका ा अ भ ाय है? उ र – जस तपका वणन इसी अ ायके पाँचव और छठे ोक म कया गया है; जो अशा ीय, मनःक त, घोर और भावसे ही तामस है; जसम द क ेरणासे या अ ानसे पैर को पेड़क डालीम बाँधकर सर नीचा करके लटकना, लोहेके काँट पर बैठना तथा इसी कारक अ ा घोर याएँ करके बुरी भावनासे क सहन कया जाता है – यहाँ 'तामस तप' के नामसे उसीका नदश है, यही भाव दखलानेके लये 'तप:' के साथ 'यत्' पदका योग कया गया है। – 'मूढ ाह' कसको कहते ह और उसके ारा तप करना ा है? उ र – तपके वा वक ल ण को न समझकर जस कसी भी याको तप मानकर उसे करनेका जो हठ या दुरा ह है, उसे 'मूढ ाह' कहते ह। और ऐसे आ हसे कसी शारी रक, वा चक या मान सक क सहन करनेक तामसी याको तप समझकर करना ही मूढतापूण आ हसे तप करना है। –आ स ी पीड़ाके स हत तप करना ा है?

उ र – यहाँ आ ा श मन, वाणी और शरीर – इन सभीका वाचक है और इन सबसे स रखनेवाला जो क है, उसीको 'आ स ी पीड़ा' कहते ह, अतएव मन, वाणी और शरीर – इन सबको या इनमसे कसी एकको अनु चत क प ँ चाकर जो अशा ीय तप कया जाता है, उसीको आ स ी पीड़ाके स हत तप करना कहते ह। – दूसर का अ न करनेके लये तप करना ा है? उ र – दूसरीक स का हरण करने, उसका नाश करने, उनके वंशका उ ेद करने अथवा उनका कसी कार कु छ भी अ न करनेके लये जो अपने मन, वाणी और शरीरको ताप प ँ चाना है – वही दूसर का अ न करनेके लये तप करना है। – यहाँ 'वा' अ यके योगका ा भाव है? उ र – 'वा' अ यका योग करके भगवान्ने यह भाव दखलाया है क जो तप उपयु ल ण मसे कसी एक ल णसे भी यु है वह भी तामस ही है। तीन कारके ताप का ल ण करके अब दानके तीन भेद बतलानेके लये पहले सा क दानके ल ण कहते ह – स



दात म त य ानं दीयतेऽनुपका रणे । देशे काले च पा े च त ानं सा कं ृतम् ॥२०॥

दान देना ही कत है – ऐसे भावसे जो दान देश तथा काल और पा के ा होनेपर उपकार न करनेवालेके त दया जाता है, वह दान सा क कहा गया है॥२०॥ – यहाँ 'इ त ' अ

यके स हत 'दात म् ' पदके योगका ा भाव है? उ र – इनका योग करके भगवान् स गुणक पूणताम न ामभावक धानताका तपादन करते ए यह दखलाते ह क वण, आ म, अव ा और प र तके अनुसार शा व हत दान करना – अपने को यथाश दूसर के हतम लगाना मनु का परम कत है। य द वह ऐसा नह करता तो मनु से गरता है और भगवान्के क ाणमय आदेशका अनादर करता है। अत: जो दान के वल इस कत -बु से ही दया जाता है, जसम इस लोक और परलोकके कसी भी फलक जरा भी अपे ा नह होती – वही दान पूण सा क है।

– यहाँ 'देश' और 'काल' श

कस देश-कालके वाचक ह? उ र – जस देश और जस कालम जस व ुक आव कता हो, उस व ुके दान ारा सबको यथायो सुख प ँ चानेके लये वही यो देश और काल है। जैसे – जस देशम, जस समय दु भ या सूखा पड़ा हो, अ और जलका दान करनेके लये वही देश और वही समय यो देशकाल है – चाहे वह तीथ ल या पवकाल न हो, इसके अ त र साधारण अव ाम कु े , ह र ार, मथुरा, काशी, याग, नै मषार आ द तीथ ान और हण, पू णमा, अमावा ा, सं ा , एकादशी आ द पु काल – जो दानके लये शा म श माने गये ह – वे तो यो देश-काल ह ही। इ सबके वाचक 'देश' और 'काल' श ह। – 'पा ' श कसका वाचक है? उ र – जसके पास जहाँ जस समय जस व ुका अभाव हो, वह वह और उसी समय उस व ुके दानका पा है। जैसे – भूखे, ासे, नंग,े द र , रोगी, आत, अनाथ और भयभीत ाणी अ , जल, व , नवाहयो धन, औषध, आ ासन, आ य और अभयदानके पा ह। आत ा णय क पा ताम जा त, देश और कालका कोई ब न नह है। उनक आतुरदशा ही पा ताक पहचान है। इनके सवा जो े आचरण वाले व ान्, ा ण, उ म चारी, वान और सं ासी तथा सेवा ती लोग ह – जनको जस व ुका दान देना शा म कत बतलाया गया है – वे तो अपने-अपने अ धकारके अनुसार यथाश धन आ द सभी आव क व ु के दानपा ह ही। – यहाँ 'अनुपका रणे ' पदका योग कस उ े से कया गया है? ा अपना उपकार करनेवाल को कु छ देना अनु चत या राजस दान है? उ र – जसका अपने ऊपर उपकार है, उसक सेवा करना तथा यथासा उसे सुख प ँ चानेका यास करना तो मनु का कत ही है। कत ही नह , अ े मनु उपकारीक सेवा कये बना रह ही नह सकते। वे जानते ह क स े उपकारका बदला चुकाने जाना तो उसका तर ार करना है, क स े उपकारका बदला तो कोई चुका नह सकता; इस लये वे के वल आ -स ोषके लये उसक सेवा करते ह और जतनी करते ह उतने ही उनक म थोड़ी ही जँचती है। वे तो कृ त तासे दबे रहते ह। ीरामच रतमानसम भगवान् ीरामभ हनूमान्से कहते ह-

सुनु क प तो ह समान उपकारी। न ह कोउ सुर नर मु न तनु धारी॥ त उपकार कर का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥

ीम ागवतम भगवान् ीकृ अपनेको ीगोपीजन का ऋणी घो षत करते ह। ऐसी अव ाम उपकार करनेवाल को कु छ देना अनु चत या राजस कदा प नह हो सकता; पर ु वह 'दानक ' ेणीम नह है। वह तो कृ त ता काशक एक ाभा वक चे ा होती है। उसे जो लोग दान समझते ह, वे व ुत: उपकारीका तर ार करते ह और जो लोग उपकारीक सेवा नह करना चाहते, वे तो कृ त क ेणीम ह; अतएव अपना उपकार करनेवालेक तो सेवा करनी ही चा हये। यहाँ अनुपकारीको दान देनेक बात कहकर भगवान् यह भाव दखलाते ह क दान देनेवाला दानके पा से बदलेम कसी कारके जरा भी उपकार पानेक इ ा न रखे। जससे कसी भी कारका अपना ाथका स मनम नह है उस मनु को जो दान दया जाता है – वही सा क है। इससे व ुत: दाताक ाथबु का ही नषेध कया गया है। स

– अब राजस दानके

ल ण बतलाते हँ –

य ु ुपकाराथ फलमु वा पुनः । दीयते च प र ं त ानं राजसं ृतम् ॥२१॥

क ु जो दान ेशपूवक तथा ुपकारके योजनसे अथवा फलको रखकर फर दया जाता है, वह दान राजस कहा गया है॥२१॥ – 'तु ' का

गया है?



ा अ भ ाय है? उ र – यहाँ 'तु ' का योग सा क दानसे रजस दानका भेद दखलानेके लये कया –

ेशपूवक दान देना ा है?

उ र – कसीके धरना देने, हठ करने या भय दखलाने अथवा त त और भावशाली पु ष के कु छ दबाव डालनेपर बना ही इ ाके मनम वषाद और दुःखका अनुभव करते ए न पाय होकर जो दान दया जाता है, वह ेशपूवक दान देना है। – ुपकारके लये दान देना ा है? उ र – जो मनु बराबर अपने कामम आता है या आगे चलकर जससे अपना कोई छोटा या बड़ा काम नकालनेक स ावना या आशा है, ऐसे को दान देना व ुत: स ा दान नह है; वह तो बदला पानेके लये दया आ बयाना-सा है। जस कार आजकल सोमवती अमावा ा-जैसे पव पर अथवा अ कसी न म से दानका संक करके ऐसे ा ण को दया जाता है, जो अपने या अपने सगे-स ी अथवा म के कामम आते ह तथा जनसे भ व म काम करवानेक आशा है या ऐसी सं ा को या सं ा के संचालक को दया जाता है, जनसे बदलेम कई तरहके ाथ-साधनक स ावना होती है – यही ुपकारके उ े से दान देना है। – फलके उदे से दान देना ा है? उ र – मान, बड़ाई, त ा और गा द इस लोक और परलोकके भोग क ा के लये या रोग आ दक नवृ के लये जो कसी व ुका दान कसी या सं ाको दया जाता है, वह फलके उ े से दान देना है। कु छ लोग तो एक ही दानसे एक ही साथ कई लाभ उठाना चाहते ह। जैस-े (क) जसको दान दया गया है, वह उपकार मानेगा और समयपर अ े -बुरे काम म अपना प लेगा। (ख) ा त होगी, जससे त ा बढ़ेगी और स ान मलेगा। (ग) अखबार म नाम छपनेसे लोग ब त धनी आदमी समझगे और इससे ापारम भी कई तरहक स लयत ह गी और अ धक-से-अ धक धन कमाया जा सके गा। (घ) अ ी स होनेसे लड़के -लड़ कय के स भी बड़े घरानेम हो सकगे, जनसे कई तरहके ाथ सधगे। (ऊ) शा के अनुसार परलोकम दानका कई गुना उ म-से-उ म फल तो ा होगा ही।

इस कारक भावना से मनु दानके मह को ब त ही कम कर देते ह। – 'वा ', 'पुन: ' और 'च ' – इन तीन अ य के योगका ा भाव हे? उ र – इन तीन का योग करके यहाँ यह भाव दखलाया गया है क उपयु तीन कार मसे कसी भी एक कारसे दया आ दान राजस हो जाता है। – अब तामस दानके



ल ण बतलाते ह –

अदेशकाले य ानमपा े दीयते । अस ृ तमव ातं त ामसमुदा तम् ॥२२॥

जो दान बना स ारके अथवा तर ारपूवक अयो त दया जाता है, वह दान तामस कहा गया है॥२२॥

देश-कालम और कुपा के

बना स ार कये दये जानेवाले दानका ा प है? उ र – दान लेनेके लये आये ए अ धकारी पु षका आदर न करके अथात् यथायो अ भवादन, कु शल- , यभाषण और आसन आ द ारा स ान न करके जो खाईसे दान दया जाता है – वह बना स ारके दया जानेवाला दान है। – तर ारपूवक दया जानेवाला दान कौन-सा है? उ र – पाँच बात सुनाकर, कड़वा बोलकर, धमकाकर, फर न आनेक कड़ी हदायत देकर, द गी उड़ाकर अथवा अ कसी भी कारसे वचन, शरीर या संकेतके ारा अपमा नत करके जो दान दया जाता है – वह तर ारपूवक दया जानेवाला दान है। – दानके लये अयो देश-काल कौन-से ह और उनम दया आ दान तामस है? उ र – जो देश और काल दानके लये उपयु नह ह अथात् जस देश-कालम दान देना आव क नह है अथवा जहाँ दान देना शा म नषेध कया है (जैसे े के देशम गौका दान देना, हणके समय क ा-दान देना आ द) वे देश और काल दानके लये अयो ह और उनम दया आ दान दाताको नरकका भागी बनाता है। इस लये वह तामस है। – दानके लये अपा कौन ह और उनको दान देना तामस है? –

उ र – जन मनु को दान देनेक आव ता नह है तथा जनको दान देनेका शा म नषेध है, (जैसे धम जी, पाख ी, कपटवेषधारी, हसा करनेवाला, दूसर क न ा करनेवाला, दूसर क जी वका छेदन करके अपने ाथसाधनम त र, बनावटी वनय दखानेवाला, म -मांस आ द अभ व ु को भ ण करनेवाला, चोरी, भचार आ द नीच कम करनेवाला, ठग, जुआरी और ना क आ द) वे सब दानके लये अपा ह तथा उनको दया आ दान थ और दाताको नरकम ले जानेवाला होता है; इस लये वह तामस है। यहाँ भूख,े ासे, नंगे और रोगी आत मनु को अ , जल, व और ओष ध आ द देनेका कोई नषेध नह समझना चा हये। इस कार सा क य , तप और दान आ दको स ादन करनेयो बतलानेके उ े से और राजस-तामसको ा बतलानेके उ े से उन सबके तीन-तीन भेद कये गये। अब वे सा क य , दान और तप उपादेय ह; भगवान्से उनका ा स है तथा उन सा क य , तप और दान म जो अंग-वैगु हो जाय, उसक पू त कस कार होती है – यह सब बतलानेके लये अगला करण आर कया जाता है – स



ॐत द त नदशो ण वधः ृतः । ा णा ेन वेदा य ा व हताः पुरा ॥२३॥

ॐ, तत्, सत् – ऐसे यह तीन कारका स दान घन का नाम कहा है; उसीसे सृ के आ दकालम ा ण और वेद तथा य ा द रचे गये॥२३॥

अथात् सवश मान् परमे रके ब त-से नाम ह, फर यहाँ के वल उनके तीन ही नाम का वणन कया गया? उ र – परमा ाके 'ॐ ', 'तत् ' और 'सत् ' - ये तीन नाम वेद म धान माने गये ह तथा य , तप, दान आ द शुभ कम से इन नाम का वशेष स है। इस लये यहाँ इन तीन नाम का ही वणन कया गया है। – 'तेन ' पदसे यहाँ उपयु तीन नाम का हण है या जस परमे रके ये तीन नाम ह उसका? उ र – जस परमा ाके ये तीन नाम ह उसीका वाचक यहाँ 'तेन ' पद है। –

तीसरे अ ायम तो य स हत स ूण जाक उ जाप त ासे बतलायी गयी है (३।१०) और यहाँ ा ण आ दक उ परमा ाके ारा बतलायी जाती है, इसका ा अ भ ाय है? उ र – जाप त ाक उ परमा ासे ई है और जाप तसे सम ा ण, वेद और य ा द उ ए ह – इस लये कह इनका परमे रसे उ होना बतलाया गया है और कह जाप तसे; कतु बात एक ही है। – ा ण, वेद और य – इन तीन से कन- कनको लेना चा हये? तथा 'पुरा ' पद कस समयका वाचक है? उ र – ' ा ण' श ा ण आ द सम जाका, 'वेद' चार वेद का, 'य ' श य , तप, दान आ द सम शा व हत कत -कम का तथा 'पुरा ' पद सृ के आ दकालका वाचक है। – परमे रके उपयु तीन नाम को दखलाकर फर परमे रसे सृ के आ दकालम ा ण आ दक उ ई, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इससे यहाँ यह अ भ ाय समझना चा हये क जस परमा ासे सम कता, कम और कम- व धक उ ई है, उस भगवान्के वाचक 'ॐ ', 'तत् ' और 'सत् ' – ये तीन नाम ह, अत: इनके उ ारण आ दसे उन सबके अंग-वैगु क पू त हो जाती है। अतएव ेक कामके आर म परमे रके नाम का उ ारण करना परम आव क है। –

परमे रके उपयु ॐ, तत् और सत् – इन तीन नाम का य , दान तप आ दके साथ ा स है? ऐसी ज ासा होनेपर पहले 'ॐ' के योगक बात कहते ह – स



त ादो म ुदा य दानतपः याः । वत े वधानो ाः सततं वा दनाम् ॥२४॥

इस लये वेदम का उ ारण करनेवाले े पु ष क शा व धसे नयत य , दान और तप प याएँ सदा 'ॐ' इस परमा ाके नामको उ ारण करके ही आर होती ह॥२४॥

हेतुवाचक 'त ात् ' पदका योग करके यहाँ वेद-वा दय क शा व हत य ा द याएँ सदा कारका उ ारण करके ही आर क जाती ह – यह कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – इससे भगवान्ने धानतया नामक म हमा दखलायी है। उनका यहाँ यह भाव है क जस परमे रसे इन य ा द कम क उ ई है, उसका नाम होनेके कारण कारके उ ारणसे सम कम का अंगवैगु दूर हो जाता है तथा वे प व और क ाण द हो जाते ह। यह भगवान्के नामक अपार म हमा है। इसी लये वेदवादी अथात् वेदो म के उ ारणपूवक य ा द कम करनेके अ धकारी व ान, ा ण, य और वै के य , दान, तप आ द सम शा व हत शुभ कम सदा कारके उ ारणपूवक ही होते ह। वे कभी कसी कालम कोई भी शुभ कम भगवान्के प व नाम कारका उ ारण कये बना नह करते। अतएव सबको ऐसा ही करना चा हये। स – इस कार ॐकारके योगक बात कहकर अब परमे रके 'तत्' नामके योगका वणन करते ह – –

त द न भस ाय फलं य तपः याः । दान या व वधाः य े मो काङ् भः ॥२५॥

तत् अथात् 'तत्' नामसे कहे जानेवाले परमा ाका ही यह सब है – इस भावसे फलको न चाहकर नाना कारक य , तप प याएँ तथा दान प याएँ क ाणक इ

ावाले पु ष ारा क जाती ह॥२५॥ – 'इ त ' के

स हत 'तत् ' पदका यहाँ ा अ भ ाय है? उ र – 'तत् ' पद परमे रका नाम है। उसके रणका उ े समझानेके लये यहाँ 'इ त ' के स हत उसका योग कया गया है। अ भ ाय यह है क क ाणकामी मनु ेक या करते समय भगवान्के 'तत् ' इस नामका रण करते ए, ' जस परमे रसे इस सम जगत्क उ ई है, उसीका सब कु छ है और उसीक व ु से उसक आ ानुसार उसीके लये मेरे ारा य ा द या क जाती है; अत: म के वल न म मा ँ ' – इस भावसे अहंताममताका सवथा ाग कर देते ह।

– मो

को चाहनेवाले साधक ारा कये जानेवाले कम फलको न चाहकर कये जाते ह, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – मो कामी साधक ारा सब कम फलको न चाहकर कये जाते ह – यह कहकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क जो व हत कम करनेवाले साधारण वेदवादी ह, वे फलक इ ा या अहंता-ममताका ाग नह करते; कतु जो क ाणकामी मनु ह, जनको परमे रक ा के सवा अ कसी व ुक आव कता नह है – वे सम कम अहंता, ममता, आस और फल-कामनाका सवथा ाग करके के वल परमे रके ही लये उनके आ ानुसार कया करते ह। इससे भगवान्ने फलकामनाके ागका मह दखलाया है।

कार 'तत्' नामके योगक बात कहकर अब परमे रके 'सत् ' नामके योगक बात दो ोक म कही जाती है – स

– इस

स ावे साधुभावे च स द ेत यु ते । श े कम ण तथा स ः पाथ यु ते ॥२६॥

'सत्' – इस कार यह परमा ाका नाम स भावम और े भावम योग कया जाता है तथा हे पाथ! उ म कमम भी 'सत्' श का योग कया जाता है॥२६॥ – 'स कया जाता है?

ाव' यहाँ कसका वाचक है? उसम परमा ाके 'सत्' नामका योग

उ र – 'स ाव' न भावका अथात् जसका अ सदा रहता है उस अ वनाशी त का वाचक है और वही परमे रका प है। इस लये उसे 'सत्' नामसे कहा जाता है। – 'साधुभाव' कस भावका वाचक है और उसम परमा ाके 'सत्' नामका योग कया जाता है? उ र – अ ःकरणका जो शु और े भाव है, उसका वाचक यहाँ 'साधुभाव' है। वह परमे रक ा का हेतु है, इस लये उसम परमे रके 'सत्' नामका योग कया जाता है अथात् उसे 'सदभाव ् ' कहा जाता है। – ' श कम' कौन-सा कम है और उसम 'सत्' श का योग कया जाता है?

उ र – जो शा व हत करनेयो शुभकम है, वही श - े कम है और वह न ामभावसे कये जानेपर परमा ाक ा का हेतु है; इस लये उसम परमा ाके 'सत्' नामका योग कया जाता है, अथात् उसे 'सत् कम' कहा जाता है।

य े तप स दाने च तः स द त चो ते । कम चैव तदथ यं स द ेवा भधीयते ॥२७॥

तथा य , तप और दानम जो त है, वह भी 'सत्' इस कार कही जाती है और उस परमा ाके लये कया आ कम न यपूवक सत् – ऐसे कहा जाता है॥२७॥ – य , तप और दानसे यहाँ कौन-से य , तप और दानका

हण है तथा '

त'

श कस भावका वाचक है और वह सत् है यह कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – य , तप और दानसे यहाँ सा क य , तप और दानका नदश कया गया है तथा उनम जो ा और ेमपूवक आ क बु है, जसे न ा भी कहते ह, उसका वाचक यहाँ ' त' श है; ऐसी त परमे रक ा म हेतु है, इस लये उसे 'सत्' कहते ह। – 'तदथ यम्' वशेषणके स हत 'कम' पद कस कमका वाचक है और उसे 'सत्' कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – जो कोई भी कम के वल भगवान्के आ ानुसार उ के लये कया जाता है, जसम कताका जरा भी ाथ नह रहता - उसका वाचक यहाँ 'तदथ यम् ' वशेषणके स हत 'कम ' पद है। ऐसा कम कताके अ ःकरणको शु बनाकर उसे परमे रक ा करा देता है, इस लये उसे 'सत्' कहते ह। – 'एव' का योग करके ा भाव दखलाया गया है? उ र – 'एव' का योग करके यह भाव दखलाया गया है क ऐसा कम 'सत्' है; इसम त नक भी संशय नह है। साथ ही यह भाव भी दखलाया है क ऐसा कम ही वा वम 'सत्' है, अ सब कम के फल अ न होनेके कारण उनको 'सत्' नह कहा जा सकता।

इस कार ापूवक कये ए शा व हत य , तप दान आ द कम का मह बतलाया गया; उसे सुनकर यह ज ासा होती है क जो शा व हत य ा द कम बना स



ाके कये जाते ह, उनका ा फल होता है? इसपर भगवान् इस अ ायका उपसंहार करते ए कहते ह –

अ या तं द ं तप ं कृ तं च यत् । अस द ु ते पाथ न च त े नो इह ॥२८॥

हे अजुन! बना ाके कया आ हवन, दया दान एवं तपा आ तप और जो कुछ भी कया आ शुभ कम है – वह सम 'असत्' – इस कार कहा जाता है; इस लये वह न तो इस लोकम लाभदायक है और न मरनेके बाद ही॥२८॥ – बना ाके कये ए हवन, दान और तपको तथा दूसरे सम शा कम को 'असत् ' कहनेका यहाँ ा अ भ ाय है और वे इस लोक और परलोकम लाभ ह, इस कथनका ा अ भ ाय है?

व हत द नह

उ र – हवन, दान और तप तथा अ ा शुभ कम ापूवक कये जानेपर ही अ ःकरणक शु म और इस लोक या परलोकके फल देनेम समथ होते ह। बना ाके कये ए शुभ कम थ ह, इसीसे उनको 'असत्' और 'वे इस लोक या परलोकम कह भी लाभ द नह ह' – ऐसा कहा है। – 'यत् ' के स हत 'कृतम् ' पदका अथ य द न ष कम भी मान लया जाय तो ा हा न है? उ र – न ष कम के करनेम ाक आव कता नह है और उनका फल भी ापर नभर नह है। उनको करते भी वे ही मनु ह, जनक शा , महापु ष और ई रम पूण ा नह होती तथा पापकम का फल मलनेका जनको व ास नह होता; तथा प उनका दुःख प फल उ अव ही मलता है। अतएव यहाँ 'य ृ तम् ' से पापकम का हण नह है। इसके सवा य , दान और तप प शुभ या के साथ-साथ आये ए 'य ृ तम् ' पद उसी जा तक याके वाचक हो सकते ह। अत: जो यह बात कही गयी है क वे कम इस लोक या परलोकम कह भी लाभ द नह होते – सो यह कहना भी पापकम के उपयु नह होता, क वे सवथा दुःखके हेतु होनेके कारण उनके लाभ द होनेक कोई स ावना ही नह है। अतएव यहाँ बना ाके कये ए शुभ कम का ही संग है, अशुभ कम का नह ।







ॐ त द त ीम गव ीतासूप नष ु व ायां योगशा े ीकृ ाजुनसंवादे ा य वभागयोगो नाम स दशोऽ ायः ॥१७॥

|| ॐ

ी परमा ने नमः ||

अथा ादशोऽ ायः

ज -मरण प संसारके ब नसे सदाके लये छू टकर परमान प परमा ाको ा कर लेनेका नाम मो है; इस अ ायम पूव सम अ ाय का सार सं ह करके मो के उपायभूत सां योगका सं ासके नामसे और कमयोगका ागके नामसे अंग- ंग स हत वणन कया गया है, इस लये तथा सा ात् मो प परमे रम सव कम का सं ास यानी ाग करनेके लये कहकर उपदेशका उपसंहार कया गया है (१८।५६), इस लये भी इस अ ायका नाम 'मो सं ासयोग' रखा गया है। अ ायका सं ेप इस अ ायके पहले ोकम अजुनने सं ास और ागका त जाननेक इ ा कट क है; दूसरे और तीसरेम भगवान्ने इस वषयम दूसरे व ान क मा ताका वणन कया है; चौथे और पाँचवम अजुनको ागके वषयम अपना न य सुननेके लये कहकर कत कम को पसे न ागनेका औ च स कया है; तथा छठे म ागके स म अपना न त मत बतलाया है और उसे अ मत क अपे ा उ म कहा है। तदन र सातव, अठव और नवम, मश: तामस, राजस और सा क ागके ल ण बतलाकर दसव और ारहवम सा क ागीके ल ण का वणन कया है। बारहवम ागी पु ष के मह का तपादन करके ागके संगका उपसंहार कया है। त ात् प हवतक अजनको सां (सं ास)-का वषय सुननेके लये कहकर सां - स ा के अनुसार कम क स म अ ध ाना द पाँच हेतु का वणन कया है और सोलहवम शु आ ाको कता समझनेवालेक न ा करके स हवम कतापनके अ भमानसे र हत होकर कम करनेवालेक शंसा क है। अठारहवम कम- ेरणा और कम-सं हका प बतलाकर उ ीसवम जान, कम और कताके वध भेद बतलानेक ावना करते ए बीसवसे अ ाईसवतक मश: उनके सा क, राजस और तामस भेद का वणन कया है। उनतीसवम बु ओर धृ तके वध भेद को बतलानेक ावना करके तीसवसे पैतीसवतक मश: उनके सा क, राजस और तामस भेद का वणन कया है। छ ीसवसे उनतालीसवतक सुखके सा क, राजस और तामस – तीन भेद बतलाकर चालीसव ोकम गुण के संगका उपसंहार करते ए सम जगत्को अ ायका नाम

गुणमय बतलाया है। उसके बाद इकतालीसम चार वण के ाभा वक कम का सगं आर करके बयालीसवम ा न के , ततालीसवम य के और चौवालीसवम वै तथा शू के ाभा वक कम का वणन कया है। पताल तवेम अपने-अपने वणधमके पालनसे परम स को ा करनेक बात कहकर छयालीसवम उसक व ध बतलायी है, फर सतालीसव और अड़तालीसवम धमक शंसा करते ए उसके ागका नषेध कया है। तदन र उनचासव ोकसे पुनः सं ासयोगका संग आर करते ए सं ाससे परम स क ा बतलाकर पचासवम ानक परा न ाके वणन करनेक त ा क है और इ ावनवसे पचपनवतक फलस हत ान न ाका वणन कया है। फर छ नवसे अ ावनवतक भ धान कमयोगका मह और फल दखलाकर अजुनको उसीका आचरण करनेके लये आ ा दी है और उसे न माननेसे हा न बतायी है तथा उनसठव और साठवम कृ तक बलताके कारण ाभा वक कम के ागम साम का अभाव बतलाकर इकसठव और बासठवम परमे रको सबके नय ा, सवा यामी बतलाकर सब ारसे उनक शरण होनेके लये आ ा दी है। तरसठवम उस वषयका उपसंहार करते ए अजुनको सारी बात का वचार करके इ ानुसार करनेके लये कहकर चौसठवम पुन: सम गीताके सार प सवगु तम रह को सुननेके लये आ ा दी है। तथा पैसंठव और छाछठवम अन शरणाग त प सवगु तम उपदेशका फलस हत वणन करते ए भगवान्ने अजुनको अपनी शरणम आनेके लये आ ा देकर गीताके उपदेशका उपसंहार कया है। तदन र सड़सठवम चतु वध अन धका रय के त गीताका उपदेश न देनेक बात कहकर अड़सठव और उनह रवम अ धका रय म गीता चारकार, स रवम गीताके अ यनका और इकह रवम के वल ापूवक वणका माहा बतलाया है। बह रवम भगवान्ने अजुनसे एका ताके साथ गीता सुननेक और मोहनाश होनेक बात पूछी है, तह रवम अजुनने अपने मोहनाश तथा ृ त पाकर संशयर हत हो जानेक बात कहकर भगवान्क आ ाका पालन करना ीकार कया है। उसके बाद चौह रवसे सतह रवतक संजयने ीकृ और अजुनके संवाद प गीताशा के उपदेशक म हमाका बखान करके उसक और भगवान्के वराट् पक ृ तसे अपने बार-बार व त और ह षत होनेक बात कही है और अठह रव ोकम भगवान् ीकृ और अजुन जस प म ह, उसक वजय आ द न त है – ऐसी घोषणा करके अ ायका उपसंहार कया ह स – दूसरे अ ायके ारहव ोकसे गीताके उपदेशका आर आ। वहाँसे आर करके तीसव ोकतक भगवान्ने ानयोगका उपदेश दया ओर संगवश ा धमक

से यु करनेक कत ताका तपादन करके उनतालीसव ोकसे लेकर अ ायक समा पय कमयोगका उपदेश दया, उसके बाद तीसरे अ ायसे स हव अ ायतक कह ानयोगक से और कह कमयोगक से परमा ाक ा के ब त-से साधन बतलाये। उन सबको सुननेके अन र अब अजुन इस अठारहव अ ायम सम अ ाय के उपदेशका सार जाननेके उ े से भगवान्के सामने सं ास यानी ानयोगका और ाग यानी फलास के ाग प कमयोगका त भलीभाँ त अलग-अलग जाननेक इ ा कट करते ह –

अजुन उवाच । सं ास महाबाहो त म ा म वे दतुम् । ाग च षीके श पृथ े श नषूदन ॥१॥

अजुन बोले – हे महाबाहो! हे अ या मन्! हे वासुदेव! म सं ास और त को पृथक्-पृथक् जानना चाहता ँ ॥१॥

ागके

यहाँ 'महाबाहो ', ' षीकेश ' और 'के श नषूदन ' इन तीन स ोधन के योगका ा भाव है? उ र – इन स ोधन से अजुनने यह भाव दखलाया है क आप सवश मान्, सवा यामी और सम दोष के नाश करनेवाले सा ात् परमे र ह। अत: म आपसे जो कु छ जानना चाहता ँ , उसे आप भलीभाँ त जानते ह। इस लये मेरी ाथनापर ान देकर आप उस वषयको मुझे इस कार समझाइये जससे म उसे पूण पसे यथाथ समझ सकूँ और मेरी सारी शंका का सवथा नाश हो जाय। – म सं ासके और ागके त को पृथक् -पृथक् जानना चाहता ँ , इस कथनसे अजुनका ा अ भ ाय है? उ र – उपयु कथनसे अजुनने यह भाव कट कया है क सं ास ( ानयोग) का ा प है, उसम कौन-कौनसे भाव और कम सहायक एवं कौन-कौनसे बाधक ह, उपासनास हत सां योगका और के वल सां योगका साधन कस कार कया जाता है; इसी कार ाग (फलास के ाग प कमयोगका ा प है; के वल कमयोगका साधन कस कार होता है, ा करना इसके लये उपयोगी है और ा करना इसम बाधक है; भ म त कमयोग कौन-सा है; भ धान कमयोग कौन-सा है तथा लौ कक और –

शा ीय कम करते ए भ म त एवं भ धान कमयोगका साधन कस कार कया जाता है – इन सब बात को भी म भलीभाँ त जानना चाहता ँ । इसके सवा इन दोन साधन के म पृथक् -पृथक् ल ण एवं प भी जानना चाहता ँ । आप कृ पा करके मुझे इन दोन को इस कार अलग-अलग करके समझाइये जससे एकम दूसरेका म ण न हो सके और दोन का भेद भलीभाँ त मेरी समझम आ जाय। – उपयु कारसे सं ास और ागका त समझानेके लये भगवान्ने कनकन ोक म कौन-कौन-सी बात कही है? उ र – इस अ ायके तेरहवसे स हव ोकतक सं ास ( ानयोग) का प बतलाया है। उ ीसवसे चालीसव ोकतक जो सा क भाव और कम बतलाये ह, वे इसके साधनम उपयोगी ह; और राजस, तामस इसके वरोधी ह। पचासवसे पचपनवतक उपासनास हत सां -योगक व ध और फल बतलाया है तथा स हव ोकम के वल सां योगका साधन करनेका कार बतलाया है। इसी कार छठे ोकम (फलास के ाग प) कमयोगका प बतलाया है। नव ोकम सा क ागके नामसे के वल कमयोगके साधनक णाली बतलायी है। सतालीसव और अड़तालीसव ोक म धमके पालनको इस साधनम उपयोगी बतलाया है और सातव तथा आठव ोक म व णत तामस, राजस ागको इसम बाधक बतलाया है। पतालीसव और छयालीसव ोक म भ म त कमयोगका और छ नवसे छाछठव ोकतक भ धान कमयोगका वणन है। छयालीसव ोकम लौ कक और शा ीय सम कम करते ए भ म त कमयोगके साधन करनेक री त बतलायी है और स ावनव ोकम भगवान्ने भ धान कमयोगके साधन करनेक री त बतलायी है।

इस कार अजुनके पूछनेपर भगवान् अपना न य कट करनेके पहले सं ास और ागके वषयम दो ोक ारा अ व ान के भ - भ मत बतलाते ह – स



ीभगवानुवाच । का ानां कमणां ासं सं ासं कवयो वदुः । सवकमफल ागं ा ागं वच णाः ॥२॥

ीभगवान् बोले – कतने ही प तजन तो का कम के ागको सं ास समझते ह तथा दस ू रे वचारकुशल पु ष सब कम के फलके ागको ाग कहते ह॥२॥ – 'का कम' कन ास' समझते ह, इस कथनका

कम का नाम है तथा कतने ही प तजन उनके ागको 'सं ा भाव है? उ र – ी, पु , धन और गा द य व ु क ा के लये और रोग-संकटा द अ यक नवृ के लये य , दान, तप और उपासना आ द जन शुभ कम का शा म वधान कया गया है अथात् जन कम के वधानम यह बात कही गयी है क य द अमुक फलक इ ा हो तो मनु को यह कम करना चा हये, क ु उ फलक इ ा न होनेपर उसके न करनेसे कोई हा न नह है – ऐसे शुभ कम का नाम का कम है। ' कतने ही प तजन का कम के ागको सं ास समझते ह' इस कथनसे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क कतने ही व ान के मतम उपयु कम का पसे ाग कर देना ही सं ास है। उनके मतम सं ासी वे ही ह जो का कम का अनु ान न करके के वल न और नै म क कत -कम का ही व धवत् अनु ान कया करते ह। – 'सवकम ' श कन कम का वाचक है और उनके फलका ाग ा है? तथा कई वचारकु शल पु ष सब कमीके फल ागको ाग कहते ह, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – ई रक भ , देवता का पूजन, माता- पता द गु जन क सेवा, य , दान और तप तथा वणा मके अनुसार जी वकाके कम और शरीरस ी खान-पान इ ा द जतने भी शा - व हत कत कम ह – अथात् जस वण और जस आ मम त मनु के लये जन कम को शा ने कत बतलाया है तथा जनके न करनेसे नी त, धम और कमक पर राम बाधा आती है – उन सम कम का वाचक यहाँ 'सवकम ' श है। और इनके अनु ानसे ा होनेवाले ी, पु , धन, मान, बड़ाई, त ा और गसुख आ द जतने भी इस लोक और परलोकके भोग ह – उन सबक कामनाका सवथा ाग कर देना, कसी भी कमके साथ कसी कारके फलका स न जोड़ना उपयु सम कम के फलका ाग करना है। 'कई वचारकु शल पु ष सम कमफलके ागको ही ाग कहते ह' इस वा से भगवान्ने यह भाव दखलाया है क न और अ न व ुका ववेचन करके न य कर

लेनेवाले पु ष उपयु कारसे सम कम के फलका ाग करके के वल कत -कम का अनु ान करते रहनेको ही ाग समझते ह, अतएव वे इस कारके भावसे सम कत कम कया करते ह।

ा ं दोषव द ेके कम ा मनी षणः । य दानतपःकम न ा म त चापरे ॥३॥

कई एक व ान कहते ह क कममा दोषयु ह, इस लये ागनेके यो दस ू रे व ान् यह कहते ह क य , दान और तप प कम ागनेयो नह है॥३॥

ह और

– कई एक

व ान् कहते ह क कममा दोषयु ह, इस लये ागनेके यो है – इस वा का ा भाव है? उ र – इस वा से यह भाव दखलाया गया है क आर ( या) मा म ही कु छ-नकु छ पापका स हो जाता है अत: व हत कम भी सवथा नद ष नह है। इसी भावको लेकर भगवान्ने भी आगे चलकर कहा है – 'सवार ा ह दोषेण धूमेना रवावृता: ' (१८।४८) 'आर कये जानेवाले सभी कम धूएँसे अ के समान दोषसे यु होते ह।' इस लये कतने ही व ान का कहना है क क ाण चाहनेवाले मनु को न , नै म क और का आ द सभी कम का पसे ाग कर देना चा हये अथात् सं ास-आ म हण कर लेना चा हये। – दूसरे व ान् यह कहते है क य , दान और तप प कम ागनेयो नह है – इस वा का ा ता य है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क ब त-से व ान के मतम य , दान और तप प कम वा वम दोषयु नह ह। वे मानते ह क उन कम के न म कये जानेवाले आर म जन अव ावी हसा द पाप का होना देखा जाता है, ये वा वम पाप नह ह; ब शा के ारा व हत होनेके कारण य , दान और तप प कम उलटे मनु को प व करनेवाले है। इस लये क ाण चाहनेवाले मनु को न ष कम का ही ाग करना चा हये, शा व हत कत -कम का ाग नह करना चा हये।

इस कार सं ास और ागके वषय म व ान के भ - भ मत बतलाकर अब भगवान् ागके वषयम अपना न य बतलाना आर करते ह – स









न यं णु मे त ागे भरतस म । ागो ह पु ष ा वधः स क ततः ॥४॥

हे पु ष े अजुन! सं ास और ाग, इन दोन मसे पहले ागके वषयम तू मेरा न य सुन। क ाग सा क, राजस और तामस भेदसे तीन कारका कहा गया है॥ ४॥ – यहाँ 'भरतस म ' और 'पु ष- ा ' इन दोन

वशेषण का ा भाव है? उ र – जो भरतवं शय म अ े हो, उसे 'भरतस म ' कहते ह और जो पु ष म सहके समान वीर हो, उसे 'पु ष ा ' कहते ह। इन दोन स ोधन का योग करके भगवान् यह भाव दखला रहे ह क तुम भरतवं शय म उ म और वीर पु ष हो, अत: आगे बतलाये जानेवाले तीन कारके ाग मसे तामस और राजस ाग न करके सा क ाग प कमयोगका अनु ान करनेम समथ हो। – 'त ' श का ा अथ है और उसके योगका यहाँ ा भाव है? उ र – 'त ' का अथ है उपयु दोन वषय म अथात् ' ाग' और 'सं ास' म। इसके योगका यहाँ यह भाव है क अजुनने भगवान्से सं ास और ाग – इन दोन का त बतलानेके लये ाथना क थी, 'उन दोन मसे' यहाँ पहले भगवान् के वल ागका त समझाना आर करते ह। अजुनने दोन का त अलग-अलग बतलानेके लये कहा था और भगवान्ने उसका कोई तवाद न करके ागका ही वषय बतलानेका संकेत कया है; इससे यही बात मालूम होती है क 'सं ास' का करण भगवान् आगे कहगे। – ागके वषयम तू मेरा न य सुन, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क तुमने जन दो बात को जाननेक इ ा कट क थी, उनके वषयम अबतक मने दूसर के मत बतलाये। अब म तु अपने मतके अनुसार उन दोन मसे ागका त भलीभाँ त बतलाना आर करता ँ , अतएव तुम सावधान होकर उसे सुनो। – ाग (सा क, राजस और तामस-भेदसे) तीन कारका बतलाया गया है इस कथनका ा भाव है?

उ र – इससे भगवान्ने शा को आदर देनेके लये अपने मतको शा स त बतलाया है। अ भ ाय यह है क शा म ागके तीन भेद माने गये ह, उनको म तु भलीभाँ त बतलाऊँ गा। इस कार ागका त सुननेके लये अजुनको सावधान करके अब भगवान् उस ागका प बतलानेके लये पहले दो ोक म शा व हत शुभ कम को करनेके वषयम अपना न य बतलाते ह – स



य दानतपःकम न ा ं कायमेव तत् । य ो दानं तप ैव पावना न मनी षणाम् ॥५॥

कत

य , दान और तप प कम ाग करनेके यो नह है, ब वह तो अव है, क य , दान और तप – ये तीन ही कम बु मान् पु ष को प व

करनेवाले ह॥५॥ – य , दान और तप – इस कथनका ा भाव है?

प कम ागनेके यो नह है ब

वह अव कत है

उ र – इस कथनसे भगवान्ने शा व हत कम क अव कत ताका तपादन कया है। अ भ ाय यह है क शा म अपने-अपने वण और आ मके अनुसार जसके लये जस कमका वधान है – जसको जस समय जस कार य करनेके लये, दान देनेके लये और तप करनेके लये कहा गया है – उसे उसका ाग नह करना चा हये, यानी शा आ ाक अवहेलना नह करनी चा हये; क इस कारके ागसे कसी कारका लाभ होना तो दूर रहा, उलटा वाय होता है। इस लये इन कम का अनु ान मनु को अव करना चा हये। इनका अनु ान कस भावसे करना चा हये, यह बात अगले ोकम बतलायी गयी है। – 'मनी षणाम् ' पद कन मनु का वाचक है तथा य , दान और तप – ये सभी कम उनको प व करनेवाले ह, इस कथनका ा भाव है? उ र – वणा मके अनुसार जसके लये जो कम कत पम बतलाये गये ह, उन शा - व हत कम का शा व धके अनुसार अंग-उपांग स हत न ामभावसे भलीभाँ त अनु ान करनेवाले बु मान् मुमु ु पु ष का वाचक यहाँ 'मनी षणाम् ' पद है। उनके ारा कये जानेवाले य , दान और तप प सभी कम ब नकारक नह ह ब उनके अ ःकरणको

प व करनेवाले होते ह; अतएव मनु को न ामभावसे य , दान और तप प कम का अनु ान अव करना चा हये – यह भाव दखलानेके लये यहाँ यह बात कही गयी है क य , दान और तप प कम मनीषी पु ष को प व करनेवाले ह।

एता प तु कमा ण स ं ा फला न च । कत ानी त मे पाथ न तं मतमु मम् ॥६॥

इस लये हे पाथ! इन य , दान ओर तप प कम को तथा और भी समपूण कत कम को आस और फल का कया आ उ म मत है॥६॥ – 'एता न ' पद

ाग करके अव

करना चा हये; यह मेरा न य

कन कम का वाचक है तथा यहाँ 'तु ' और 'अ प ' – इन अ य

पद के योगका ा भाव है? उ र – 'एता न ' पद यहाँ उपयु य , दान और तप प कम का वाचक है। उसके साथ 'तु ' और 'अ प ' – इन दोन अ यपद का योग करके उनके सवा माता- पता द गु जन क सेवा, वणा मानुसार जी वका- नवाहके कम और शरीर-स ी खान-पान आ द जतने भी शा - व हत कत कम ह – उन सबका समाहार कया गया है। – इन सब कम को आस और फलका ाग करके करना चा हये, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इस कथनसे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क शा व हत क कम का अनु ान, उनम ममता और आस का सवथा ाग करके तथा उनसे ा होनेवाले इस लोक और परलोकके भोग प फलम भी आस और कामनाका सवथा ाग करके करना चा हये। इससे यह भाव भी समझ लेना चा हए क मुमु ु पु षको का कम और न ष कम का आचरण नह करना चा हये। – यह मेरा न य कया आ उ म मत है – इस कथनका ा भाव है तथा पहले जो व ान के मत बतलाये थे, उनक अपे ा भगवान्के मतम ा वशेषता है? उ र – यह मेरा न य कया आ उ म-मत है – इस कथनसे भगवान्ने यह भाव दखलाग है क मेरे मतसे इसीका नाम ाग है; क इस कार कम करनेवाला मनु

सम कमब न से मु होकर परमपदको ा हो जाता है, कम से उसका कु छ भी स नह रहता। ऊपर व ान के मतानुसार जो ाग और सं ासके ल ण बतलाये गये ह, वे पूण नह ह। क के वल का कम का पसे ाग कर देनेपर भी अ न -नै म क कम म उनके फलम मनु क ममता, आस और कामना रहनेसे वे ब नके हेतु बन जाते ह। सब कम के फलक इ ाका ाग कर देनेपर भी उन कम म ममता और आस रह जानेसे वे ब नकारक हो सकते ह। अहंता, ममता, आस और कामनाका ाग कये बना य द सम कम को दोषयु समझकर कत कम का भी पसे ाग कर दया जाय तो मनु कमबंधनसे मु नह हो सकता; क ऐसा करनेपर वह व हत कमके ाग प वायका भागी होता है। इसी कार य , दान और तप प कम को करते रहनेपर भी य द उनम आस और उनके फलक कामनाका ाग न कया जाय तो वे ब नके हेतु बन जाते ह। इस लये उन व ान के बतलाये ए ल ण वाले सं ास और ागसे मनु कमब नसे सवथा मु नह हो सकता। भगवान्के कथनानुसार सम कम म ममता, आस और फलका ाग कर देना ही पूण ाग है। इसके करनेसे कमब नका सवथा नाश हो जाता है; क कम पत: ब नकारक नह ह; उनके साथ ममता, आस और फलका स ही ब नकारक है। यही भगवान्के मतम वशेषता है।

इस कार अपना सु न त मत बतलाकर अव भगवान् शा म कहे ए तामस, राजस और सा क इन तीन कारके ाग म सा क ाग ही वा वक ाग है और वही कत ह; दूसरे दोन ाग वा वक ाग नह ह,  अत: वे करनेयो नह ह – यह बात समझानेके लये तथा अपने मतक शा के साथ एकवा ता दखलानेके लये तीन ोक म मसे तीन कारके ागके ल ण बतलाते ए पहले नकृ को टके तामस ागके ल ण बतलाते ह – स



नयत तु सं ासः कमणो नोपप ते । मोहा प र ाग ामसः प रक ततः ॥७॥

( न ष और का कम का तो पसे ाग करना उ चत ही है) पर ु नयत कमका पसे ाग उ चत नह है। इस लये मोहके कारण उसका ाग कर देना तामस

ाग कहा गया है॥७॥

वशेषणके स हत 'कमण: ' पद कस कमका वाचक है और उसका पसे ाग उ चत नह है? उ र – वण, आ म, भाव और प र तक अपे ासे जस मनु के लये य , दान, तप, अ यन-अ ापन, उपदेश, यु , जापालन, पशुपालन, कृ ष, ापार, सेवा और खान-पान आ द जो-जो कम शा म अव कत बतलाये गये ह, उसके लये वे नयत कम है। ऐसे कम का पसे ाग करनेवाला मनु अपने कत का पालन न करनेके कारण पापका भागी होता है; क इससे कम क पर रा टूट जाती है और सम जगत्म व व हो जाता है (३।२३-२४)। इस लये नयत कम का पसे ाग उ चत नह है। – मोहके कारण उसका ाग कर देना तामस ाग है; इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे यह भाव दखलाया गया है क जो कोई भी अपने वण, आ म, भाव और प र तके अनुसार शा म वधान कये ए कत कमके ागको भूलसे मु का हेतु समझकर वैसा ाग करता है – उसका वह ाग मोहपूवक होनेके कारण तामस ाग है; क मोहक उ तमोगुणसे बतलायी गयी है (१४।१३,१७)। तथा तामसी मनु क अधोग त बतलायी हे (१४।१८)। इस लये उपयु ाग ऐसा ाग नह है; जसके करनेसे मनु कमब नसे मु हो जाता है। यह तो वायका हेतु होनेसे उलटा अधोग तको ले जानेवाला है। – ' नयत



– तामस

'

ागका न पण करके अब राजस ागके ल ण बतलाते ह –

दुःख म ेव य म काय ेशभया जेत् । स कृ ा राजसं ागं नैव ागफलं लभेत् ॥८॥

जो कुछ कम है वह सब दःु ख प ही है – ऐसा समझकर य द कोई शारी रक ेशके भयसे कत कम का ाग कर दे, तो वह ऐसा राजस ाग करके ागके फलको कसी कार भी नह पाता॥८॥

पदके स हत 'कम ' पद कन कम का वाचक है और उनको दुःख प समझकर शारी रक कलेशके भयसे उनका ाग करना ा है? – 'यत् '

उ र – सातव ोकक ा ाम कहे ए सभी शा व हत कत कम का वाचक यहाँ 'यत् ' पदके स हत 'कम ' पद है। उन कम के अनु ानम मन, इ य और शरीरको प र म होता है; अनेक कारके व उप त होते ह; ब त-सी साम ी एक करनी पड़ती है; शरीरके आरामका ाग करना पड़ता है; त, उपवास आ द करके क सहन करना पड़ता है और ब तसे भ - भ नयम का पालन करना पड़ता है – इस कारण सम कम को दुःख प समझकर मन, इ य और शरीरके प र मसे बचनेके लये तथा आराम करनेक इ ासे जो य , दान और तप आ द शा व हत कम का ाग करना है – यही उनको दुःख प समझकर शारी रक ेशके भयसे उनका ाग करना है। – वह ऐसा राजस ाग करके ागके फलको नह पाता – इस वा का ा भाव है? उ र – इसका यह भाव है क इस कारक भावनासे व हत कम का ाग करके जो सं ास लेना है, वह राजस ाग है; क मन, इ य और शरीरके आरामम आस का होना रजोगुणका काय है। अतएव ऐसा ाग करनेवाला मनु वा वक ागका फल जो क सम कमब न से छू टकर परमा ाको पा लेना है, उसे नह पाता; क जबतक मनु क मन, इ य और शरीरम ममता और आस रहती है – तबतक वह कसी कार भी कमब नसे मु नह हो सकता। अत: यह राजस ाग नाममा का ही ाग है, स ा ाग नह है। इस लये क ाण चाहनेवाले साधक को ऐसा ाग नह करना चा हये। इस कारके ागसे ागका फल ा होना तो दूर रहा, उलटा व हत कम के न करनेका पाप लग सकता है। – अब उ



म ेणीके सा क ागके ल ण बतलाये जाते ह –

काय म ेव य म नयतं यतेऽजुन । सं ा फलं चैव स ागः सा को मतः ॥९॥

हे अजुन! जो शा फलका

व हत कम करना कत

ाग करके कया जाता है – वही सा



है – इसी भावसे आस

और

ाग माना गया है॥१॥

यहाँ ' नयतम् ' वशेषणके स हत 'कम ' पद कन कम का वाचक है तथा उनको कत समझकर आस और फलका ाग करके करना ा है? –

उ र – वण, आ म, भाव और प र तक अपे ासे जस मनु के लये जो-जो कम शा म अव कत बतलाये गये ह – जनक ा ा छठे ोकम क गयी है – उन सम कम का वाचक यहाँ ' नयतम्' वशेषणके स हत 'कम ' पद है; अत: इससे यह वात भी समझ लेनी चा हये क न ष और का कम नयत कम म नह है। उपयु नयत कम मनु को अव करने चा हये, इनको न करना भगवान्क आ ाका उ ंघन करना है – इस भावसे भा वत होकर उन कम म और उनके फल प इस लोक और परलोकके सम भोग म ममता, आस और कामनाका सवथा ाग करके उ ाहपूवक व धवत् उनको करते रहना – यही उनको कत समझकर आस और फलका ाग करके करना है। – इस कारके कमानु ानको सा क ाग कहनेका ा अ भ ाय है? क यह तो कम का ाग नह है ब कम का करना है? उ र – इस कमानु ान प कमयोगको सा क ाग कहकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क शा व हत अव कत कम का पसे ाग न करके उनम और उनके फल प स ूण पदाथ म आस और कामनाका सवथा ाग कर देना ही मेरे मतसे स ा ाग है; कम के फल प इस लोक और परलोकके भोग म आस और कामनाका ाग न करके कसी भी भावसे े रत होकर व हत कम का पसे ाग कर बैठना स ा ाग नह है। क ागका प रणाम कम से सवथा स - व ेद होना चा हये; और यह प रणाम ममता, आस ओर कामनाके ागसे ही हो सकता है – के वल पसे कम का ाग करनेसे नह । अतएव कम म आस और फले ाका ाग ही सा क ाग है। उपयु कारसे सा क ाग करनेवाले पु षका न ष और का कम को पसे छोड़नेम और कत कम के करनेम कै सा भाव रहता है, इस ज ासापर सा क ागी पु षक अ म तके ल ण बतलाते ह – स



न े कु शलं कम कु शले नानुष ते । ागी स समा व ो मेधावी छ संशयः ॥१०॥

जो मनु अकुशल कमसे तो ेष नह करता और कुशल कमम आस नह होता – वह शु स गुणसे यु पु ष संशयर हत, बु मान् और स ा ागी है॥१०॥

वशेषणके स हत 'कम ' पद कन कम का वाचक है और सा क ागी पु ष उनसे ेष नह करता, इस कथनका ा भाव है? उ र – 'अकुशलम् ' वशेषणके स हत 'कम ' पद यहाँ शा ारा नषेध कये ए पापकम का और का कम का वाचक है; क पापकम तो मनु को नाना कारक नीच यो नय म और नरकम गरानेवाले ह एवं का कम भी फलभोगके लये पुनज देनेवाले ह। इस कार दोन ही ब नके हेतु होनेसे अकु शल कहलाते ह। सा क ागी उनसे ेष नह करता – इस कथनका यहाँ यह भाव है क सा क ागीम राग- ेषका सवथा अभाव हो जानेके कारण वह जो न ष और का कम का ाग करता है, वह ेषबु से नह करता; क ु अकु शल कम का ाग करना मनु का कत है, इस भावसे लोकसं हके लये उनका ाग करता है। – 'कुशले ' पद कन कम का वाचक है और सा क ागी उनम आस नह होता, इस कथनका ा भाव है? उ र – 'कुशले ' पद यहाँ शा व हत न -नै म क य , दान और तप आ द शुभ कम का और वणा मानुकूल सम कत कम का वाचक है। न ामभावसे कये ए उपयु कम मनु के पूवकृ त सं चत पाप का नाश करके उसे कमब नसे छु ड़ा देनेम समथ ह, इस लये ये कु शल कहलाते ह। सा क ागी उन कु शल कम म आस नह होता – इस कथनसे यह भाव दखलाया गया है क वह जो उपयु शुभ कम का व धवत् अनु ान करता है, वह आस पूवक नह करता, क ु शा व हत कम का करना मनु का कत है – इस भावसे ममता, आस और फले ा छोड़कर लोक-सं हके लये उनका अनु ान करता है। – वह शु स गुणसे यु पु ष संशयर हत, बु मान् और स ा ागी है – इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे यह भाव दखलाया गया है क इस कार राग- ेषसे र हत होकर के वल कत -बु से कम का हण और ाग करनेवाला शु स -गुणसे यु पु ष संशयर हत है, यानी उसने भलीभाँ त न य कर लया है क यह कमयोग प सा क ाग ही कमब नसे छू टकर परमपदको ा कर लेनेका पूण साधन है। इसी लये वह बु मान् है और वही स ा ागी है। – 'अकुशलम् '

उपयु ोकम सा क ागीक यानी न ामभावसे कत कमका अनु ान करनेवाले कमयोगीको स ा ागी बतलाया। इसपर यह शंका होती है क न ष और का कम क भाँ त अ सम कम का पसे ाग कर देनेवाला मनु भी तो स ा ागी हो सकता हे, फर के वल न ामभावसे कम करनेवालेको ही स ा ागी कहा गया। इस लये कहते ह – स



न ह देहभृता श ं ुं कमा शेषतः । य ु कमफल ागी स ागी भधीयते ॥११॥

जाना श ११॥

क शरीरधारी कसी भी मनु के ारा स ूणतासे सब कम का ाग कया नह है; इस लये जो कमफलका ागी है, वही ागी है – यह कहा जाता है॥

यहाँ 'देहभृता ' पद कसका वाचक है और उसके ारा स ूणतासे सब कम का ाग कया जाना श नह है, इस कथनका ा भाव है? उ र – जनके ारा देहका धारण-पोषण कया जाता है, ऐसे सम मनु समुदायका वाचक यहाँ 'देहभृता ' पद है। अत: शरीरधारी कसी भी मनु के लये स ूणतासे सब कम का ाग कर देना श नह है, इस कथनसे यह भाव दखलाया गया है क कोई भी देहधारी मनु बना कम कये रह नह सकता (३।५); क बना कम कये शरीरका नवाह ही नह हो सकता (३।८)। इस लये मनु कसी भी आ मम न रहता हो – जबतक वह जी वत रहेगा तबतक उसे अपनी प र तके अनुसार खाना-पीना, सोना-बैठना, चलना- फरना और बोलना आ द कु छ-न-कु छ कम तो करना ही पड़ेगा। अतएव स ूणतासे सब कम का पसे ाग कया जाना स व नह है। – 'कमफल ागी ' पद कस मनु का वाचक है और जो कमफलका ागी है, वही ागी है इस कथनका ा भाव है? उ र – कम और उनके फलम ममता, आस और कामनाका ाग करके शा व हत कत कम का अनु ान करनेवाले कमयोगीका वाचक यहाँ 'कमफल ागी ' पद है। अत: जो कमफलका ागी है, वही ागी है – इस कथनसे यहाँ यह भाव दखलाया गया है क मनु मा को कु छ-न-कु छ कम करने ही पड़ते ह, बना कम कये कोई रह ही नह सकता; इस लये जो न ष और का कम का सवथा ाग करके यथाव क शा व हत –

कत कम का अनु ान करता रहता है तथा उन कम म और उनके फलम ममता, आस और कामनाका सवथा ाग कर देता है – वही स ा ागी है। ऊपरसे इ य क या का संयम करके मनसे वषय का च न करनेवाला मनु ागी नह है तथा अहंता, ममता और आस के रहते ए शा व हत य , दान और तप आ द कत कम का पसे ाग कर देनेवाला भी ागी नह है।

पूव ोकम यह बात कही गयी क 'जो कमफलका ागी है वही ागी है। ' इसपर यह शंका हो सकती है क कम का फल न चाहनेपर भी कये ए कम अपना फल दये बना न नह ही सकते – जैसे बोया आ बीज समयपर अपने-आप वृ को उ कर देता है, वैसे ही कये ए कम का फल भी कसी-न- कसी ज म सबको अव भोगना पड़ता है; इस लये के वल कमफलके ागसे मनु ागी यानी 'कमब नसे र हत' कै से हो सकता है? इस शंकाक नवृ तके लये कहते ह – स



अ न म ं म ं च वधं कमणः फलम् । भव ा गनां े न तु सं ा सनां चत् ॥१२॥

कमफलका ाग न करनेवाले मनु के कम का तो अ ा, बुरा और मला आ – ऐसे तीन कारका फल मरनेके प ात् अव होता है; क ु कमफलका ाग कर देनेवाले मनु के कम का फल कसी कालम भी नह होता॥१२॥ – 'अ ा गनाम् ' पद कन मनु आ – तीन कारका फल ा है;

का वाचक है तथा उनके कम का अ ा, बुरा और वह मरनेके प ात् अव होता है – इस

और मला कथन-का ा भाव है? उ र – ज ने अपने ारा कये जानेवाले कम म और उनके फलम ममता, आस और कामनाका ाग नह कया है; जो आस और फले ापूवक सब कारके कम करनेवाले ह – ऐसे सवसाधारण ाकृ त मनु का वाचक यहाँ 'अ ा गनाम् ' पद है। उनके ारा कये ए शुभ कम का जो गा दक ा या अ कसी कारके सांसा रक इ भोग क ा प फल है, वह अ ा फल है; तथा उनके ारा कये ए पापकम का जो पशु, प ी, क ट, पतंग और वृ आ द तयकृ -यो नय क ा या नरक क ा अथवा अ कसी कारके दुःख क ा प फल है – वह बुरा फल है। इसी कार

जो मनु ा द यो नय म उ होकर कभी इ भोग को ा होना और कभी अ न भोग को ा होना है, वह म त फल है। यही उनके कम का तीन कारका फल है। यह तीन कारका फल उन लोग को मरनेके बाद अव ा होता है – इस कथनसे यहाँ यह भाव दखलाया गया है क उन पु ष के कम अपना फल भुगताये बना न नह हो सकते, ज -ज ा र म शुभाशुभ फल देते रहते ह, इसी लये ऐसे मनु संसारच म घूमते रहते ह। – यहाँ ' े ' पदसे यह बात कही गयी है क उनके कम का फल मरनेके बाद होता है; तो ा जीते ए उनके कम का फल नह होता? उ र – वतमान ज म मनु ाय: पूवकृ त कम से बने ए ार का ही भोग करता है, नवीन कम का फल वतमान ज म ब त ही कम भोगा जाता है; इस लये एक मनु यो नम कये ए कम का फल अनेक यो नय म अव भोगना पड़ता है – यह भाव समझानेके लये यहाँ ' े ' पदका योग करके मरनेके बाद फल भोगनेक बात कही गयी है। – 'तु ' अ यका ा भाव है? उ र – कमफलका ाग न करनेवाल क अपे ा कमफलका ाग करनेवाले पु ष क अ े ता और वल णता कट करनेके लये यहाँ 'तु ' अ यका योग कया गया है। – 'सं ा सनाम् ' पद कन मनु का वाचक है और उनके कम का फल कभी नह होता, इस कथनका ा भाव है? उ र – कम म और उनके फलम ममता, आस और कामनाका ज ने सवथा ाग कर दया है; दसव ोकम ागीके नामसे जनके ल ण बतलाये गये ह; छठे अ ायके पहले ोकम जनके लये 'सं ासी' और 'योगी' दोन पद का योग कया गया है तथा दूसरे अ ायके इ ावनव ोकम जनको अनामय पदक ा का होना बतलाया गया है – ऐसे कमयो गय का वाचक यहाँ 'सं ा सनाम् ' पद है। अत: सं ा सय के कम का फल कभी नह होता – इस कथनसे यह भाव दखलाया गया है क इस कार कमफलका ाग कर देनेवाले ागी मनु जतने कम करते ह वे भूने ए बीजक भाँ त होते ह, उनम फल उ करनेक श नह होती; तथा इस कार य ाथ

कये जानेवाले न ाम कम से पूवसं चत सम शुभाशुभ कम का भी नाश हो जाता है (४। २३)। इस कारण उनके इस ज म या ज ा र म कये ए कसी भी कमका कसी कारका भी फल कसी भी अव ाम, जीते ए या मरनेके बाद कभी नह होता; वे कमब नसे सवथा मु हो जाते है।

पहले ोकम अजुनने सं ास और ागका त अलग-अलग जाननेक इ ा कट क थी। उसका उ र देते ए भगवान्ने दूसरे और तीसरे ोक म इस वषयपर व ान के भ - भ मत बतलाकर अपने मतके अनुसार चौथे ोकसे बारहव ोकतक ागका यानी कमयोगका त भलीभाँ त समझाया; अब सं ासका यानी सां योगका त समझानेके लये पहले सां - स ा के अनुसार कम क स म पाँच हेतु बतलाते ह – स



प ैता न महाबाहो कारणा न नबोध मे । साङ् े कृ ता े ो ा न स ये सवकमणाम् ॥१३॥

हे महाबाहो! स ूण कम क स उपाय बतलानेवाले सां

के ये पाँच हेतु कम का अ

करनेके लये

शा म कहे गये ह, उनको तू मुझसे भलीभाँ त जान॥१३॥

– 'सवकमणाम् ' पद यहाँ

कन कम का वाचक है और उनक स ा है? उ र – 'सवकमणाम् ' पद यहाँ शा व हत और न ष , सभी कारके कम का वाचक है तथा कसी कमका पूण हो जाना यानी उसका बन जाना ही उसक स है। – 'कृता े ' वशेषणके स हत 'साङ् े ' पद कसका वाचक है तथा उसम 'स ूण कम क स के ये पाँच हेतु बतलाये गये ह, उनको तू मुझसे जान' इस कथनका ा भाव है? उ र – 'कृत ' नाम कम का है; अत: जस शा म उनके समा करनेका उपाय बतलाया गया हो, उसका नाम 'कृता ' है। 'सां ' का अथ ान है (स क् ायते ायते परमा ाऽनेने त साङ् ं त ानम् )। अतएव जस शा म त ानके साधन प ानयोगका तपादन कया गया हो, उसको सां कहते ह। इस लये यहाँ 'कृता े ' वशेषणके स हत 'साङ् े ' पद उस शा का वाचक मालूम होता है, जसम ानयोगका भलीभाँ त तपादन कया गया हो और उसके अनुसार सम कम को कृ त ारा कये ए एवं आ ाको सवथा अकता समझकर कम का अभाव करनेक री त बतलायी गयी हो।

इसी लये यहाँ स ूण कम क स के ये पाँच हेतु सां - स ा म बतलाये गये ह, उनको तू मुझसे भलीभाँ त जान – इस कथनसे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क आ ाका अकतृ स करनेके लये उपयु ानयोगका तपादन करनेवाले शा म सम कम क स के जो पाँच हेतु बतलाये गये ह – जन पाँच के स से सम कम बनते ह, उनको म तुझे बतलाता ँ ; तू सावधान होकर सुन। स

– अब उन पाँच हेतु

के नाम बतलाये जाते है –

अ ध ानं तथा कता करणं च पृथ धम् । व वधा पृथ े ा दैवं चैवा प मम् ॥१४॥

इस वषयम अथात् कम क स म अ ध ान और कता तथा भ - भ कारके करण एवं नाना कारक अलग-अलग चे ाएँ और वैसे ही पाँचवाँ हेतु दैव है॥ १४॥ – 'अ ध ानम् ' पद यहाँ

कसका वाचक है? उ र – 'अ ध ानम् ' पद यहाँ मु तासे करण और याके आधार प शरीरका वाचक है; कतु गौण पसे य ा द कम म त षयक याके आधार प भू म आ दका वाचक भी माना जा सकता है। – 'कता ' पद यहाँ कसका वाचक है? उ र – यहाँ 'कता ' पद कृ त पु षका वाचक है। इसीको तेरहव अ ायके इ सव ोकम भो ा बतलाया गया है और तीसरे अ ायके स ाईसव ोकम 'अह ार वमूढा ा ' कहा गया है। – 'पृथ धम् ' वशेषणके स हत 'करणम् ' पद कसका वाचक है? उ र – मन, बु और अहंकार भीतरके करण ह तथा पाँच ाने याँ और पाँच कम याँ – ये दस बाहरके करण ह; इनके सवा और भी जो-जो ुवा आ द उपकरण य ा द कम के करनेम सहायक होते ह, वे सब बा करणके अ गत ह। इसी कार भ - भ कम के करनेम जतने भी भ - भ ार अथवा सहायक ह, उन सबका वाचक यहाँ 'पृथ धम् ' वशेषणके स हत 'करणम् ' पद है।

– ' व वधा: '

और 'पृथक् ' – इन दोन पद के स हत 'चे

ा: '

पद कसका

वाचक है? उ र – एक ानसे दूसरे ानम गमन करना, हाथ-पैर आ द अंग का संचालन, ास का आना-जाना, अंग को सकोड़ना-फै लाना, आँ ख को खोलना और मूँदना, मनम संक - वक का होना आ द जतनी भी हलचल प चे ाएँ ह – उन नाना कारक भ भ सम चे ा -का वाचक यहाँ ' व वधा: ' और 'पृथक् ' – इन दोन पद के स हत 'चे ा: ' पद है। – यहाँ 'दैवम् ' पद कसका वाचक है और उसके साथ 'प मम् ' पदके योगका ा भाव है? उ र – पूवकृ त शुभाशुभ कम के सं ार का वाचक यहाँ 'दैवम् ' पद है, ार भी इसीके अ गत है। ब त लोग इसे 'अ ' भी कहते ह। इसके साथ 'प मम् ' पदका योग करके 'पंच' सं ाक पू त दखलायी गयी है। अ भ ाय यह है क पूव ोकम जो पाँच हेतु के सुननेके लये कहा गया था, उनमसे चार हेतु तो दैवके पहले अलग बतलाये गये ह और पाँचवाँ हेतु यह दैव है।

शरीरवाङ् मनो भय म ारभते नरः । ा ं वा वपरीतं वा प ैते त हेतवः ॥१५॥

मनु मन, वाणी और शरीरसे शा ानुकूल अथवा वपरीत जो कुछ भी कम करता है – उसके ये पाँच कारण ह॥१५॥ – 'नर: ' पद यहाँ

कसका वाचक है और इसके योगका ा भाव है? उ र – 'नर: ' पद यहाँ मनु का वाचक है। इसका योग करके यह भाव दखलाया है क मनु शरीरम ही जीव पु और पाप प नवीन कम कर सकता है। अ सब भोगयो नयाँ ह; उनम पूवकृ त कम का फल भोगा जाता है नवीन कम करनेका अ धकार नह है। – 'शरीरवाङ्मनो भ: ' पदम 'शरीर' श से कसका, 'वाक् ' से कसका और 'मनस्' से कसका हण होता है? तथा यहाँ इस पदके योगका ा भाव है? उ र – उपयु पदम 'शरीर' श से वाणीके सवा सम इ य के स हत ूल शरीरको लेना चा हये, 'वाक् ' श का अथ वाणी समझना चा हये और ' मनस्' श से सम

अ ःकरणको लेना चा हये। मनु जतने भी पु -पाप प कम करता है उन सबको शा कार ने का यक, वा चक और मान सक – इस कार तीन भेद म वभ कया है। अत: यहाँ इस पदका योग करके सम शुभाशुभ कम का समाहार कया गया है। – ' ा म् ' पद कस कमका वाचक है? उ र – वण, आ म, कृ त और प र तके भेदसे जसके लये जो कम कत माने गये ह – उन ायपूवक कये जानेवाले य , दान, तप, व ा यन, यु , कृ ष, गोर ा, ापार, सेवा आ द सम शा व हत कम के समुदायका वाचक यहाँ ' ा म् ' पद है। – - ' वपरीतम् ' पद कस कमका वाचक है? उ र – वण, आ म कृ त और प र तके भेदसे जसके लये जन कम के करनेका शा म नषेध कया गया है तथा जो कम, नी त और धमके तकू ल ह – ऐसे अस -भाषण, चोरी, भचार, हसा, म पान, अभ -भ ण आ द सम पापकम का वाचक यहाँ ' वपरीतन् ' पद है। – 'यत् ' पदके स हत 'कम ' पद कसका वाचक है और उसके ये पाँच कारण ह – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – 'यत् ' पदके स हत 'कम ' पद यहाँ मन, वाणी और शरीर ारा कये जानेवाले जतने भी पु और पाप प कम ह – जनका इस ज तथा ज ा रम जीवको फल भोगना पड़ता है – उन सम कम का वाचक है। तथा 'उसके ये पाँच कारण ह'– इस वा से यह भाव दखलाया है क इन पाँच के संयोग बना कोई भी कम नह बन सकता; जतने भी शुभाशुभ कम होते ह इन पाँच के संयोगसे ही होते ह। इनमसे कसी एकके न रहनेसे कम नह बन सकता। इसी लये बना कतापनके कया जानेवाला कम वा वम कम नह है, यह बात स हव ोकम कही गयी है।

इस कार सां योगके स ा से सम कम क स के अ ध ाना द पाँच कारण का न पण करके अब, वा वम आ ाका कम से कोई स नह है, आ ा सवथा शु , न वकार और अकता है – यह बात समझानेके लये पहले आ ाको कता माननेवालेक न ा करते है – स



ैं

ं े ं

त वै ं स त कतारमा ानं के वलं तु यः । प कृ तबु ा स प त दुम तः ॥१६॥

पर ु ऐसा होनेपर भी जो मनु अशु बु होनेके कारण उस वषयम यानी कम के होनेम केवल – शु प आ ाको कता समझता है, वह म लन बु वाला अ ानी यथाथ नह समझता॥१६॥ – यहाँ 'एवम् ' के

स हत 'स त ' पदका ा भाव है? उ र – 'एवम् ' के स हत 'स त ' पदका योग करके यह भाव दखलाया गया है क सम कम के होनेम उपयु अ ध ाना द ही कारण ह, आ ाका उन कम से वा वम कु छ भी स नह है; इस लये आ ाको कता मानना कसी कार भी स व नह है। तो भी लोग मूखतावश अपनेको कम का कता मान लेते ह, यह कतने आ यक बात है! – 'अकृतबु ात् ' का ा भाव है? उ र – स ंग और सत्-शा के अ ास ारा तथा ववेक, वचार और शमादमा द आ ा साधन ारा जसक बु शु क ई नह है – ऐसे ाकृ त अ ानी मनु को 'अकृ तबु ' कहते है। अत: यहाँ 'अकृतबु ात् ' पदका योग करके आ ाको कता माननेका हेतु बतलाया गया है। अ भ ाय यह है क वा वम कम से कु छ भी स न होनेपर भी बु म ववेक-श न रहनेके कारण अ ानवश मनु आ ाको कता मान बैठता है। – 'आ ानम् ' पदके साथ 'केवलम् ' वशेषणके योगका ा भाव है? उ र – 'केवलम् ' वशेषणके योगसे आ ाम यथाथ पका ल ण कया गया है। अ भ यह है क आ ाका यथाथ प 'के वल' यानी सवथा शु ; न वकार और असंग है। ु तय म भी कहा है क 'अस ो यं पु षः ' (बृहदार क-उ० ४।३।१५-१६) 'यह आ ा वा वम सवथा असंग है।' अत: असंग आ ाका कम के साथ स जोड़कर उसे कम का कता मानना अ वपरीत है। – 'सः ' के साथ 'दम ु त: ' वशेषण देकर यह कहनेका ा अ भ ाय है क वह यथाथ नह समझता? उ र – उपयु कारसे आ ाको कता समझनेवाले मनु क बु दू षत है, उसम आ पको यथाथ समझनेक श नह है – यह भाव दखलानेके लये यहाँ 'दमु त: '

वशेषणका योग कया गया है। तथा वह यथाथ नह जानता – इस कथनसे यह भाव दखलाया है क जो तेरहव अ ायके उनतीसव ोकके कथनानुसार सम कम को कृ तका ही खेल समझता है और आ ाको सवथा अकता समझता है, वही यथाथ समझता है; उससे वपरीत आ ाको कता समझनेवाला मनु अ ान और अहंकारसे मो हत है (३।२७), इस लये उसका समझना ठीक नह ह – गलत है। – चौदहव ोकम कम बननेम जो पाँच हेतु बतलाये गये ह – उनम अ ध ाना द चार हेतु तो कृ तज नत ही ह, पर ु 'कता' प पाँचवाँ हेतु ' कृ त ' पु षको माना गया है; और यहाँ यह बात कही जाती है क आ ा कता नह है, संगर हत है। इसका ा अ भ ाय है? उ र – इस वषयम यह समझना चा हये क वा वम आ ा न , शु , बु , न वकार और सवथा असंग है; कृ तसे, कृ तज नत पदाथ से या कम से उसका कु छ भी स नह है। क ु अना द स अ व ाके कारण असंग आ ाका ही इस कृ तके साथ स -सा हो रहा है; अत: वह कृ त ारा स ा दत या म म ा अ भमान करके यं उन कम का कता बन जाता है। इस कार कता बने ए पु षका नाम ही ' कृ त ' पु ष है; वह उन कृ त ारा स ई या का कता बनता है, तभी उनक 'कम' सं ा होती है और वे कम फल देनेवाले बन जाते ह। इसी लये उस कृ त पु षको अ ी-बुरी यो नय म ज धारण करके उन कम का फल भोगना पड़ता है (१३।२१)। इस लये चौदहव ोकम कम क स के पाँच हेतु म एक हेतु जो 'कता' माना गया है, वह कृ तम त पु ष है और यहाँ आ ाके के वल यानी संगर हत, शु पका वणन है, अत: उसको अकता बतलाकर उसके यथाथ पका ल ण कया गया है। जो आ ाके यथाथ पको समझ लेता है, उसके कम म 'कता' प पाँचवाँ हेतु नह रहता। इसी कारण उसके कम क कम सं ा नह रहती। यही बात अगले ोकम समझायी गयी है। स – आ ा सवथा शु , न वकार और आ ाको 'कता' माननेवालेक न ा करके अब आ अकता समझनेवालेक ु त करते ह –

अकता है – यह बात समझानेके लये ाके यथाथ पको समझकर उसे

य नाह ृ तो भावो बु य न ल ते । ँ ो े

ह ाऽ प स इमाँ ोका ह न नब ते ॥१७॥

जस पु षके अ ःकरणम 'म कता ँ ' ऐसा भाव नह है तथा जसक बु सांसा रक पदाथ म और कम म लपायमान नह होती, वह पु ष इन सब लोक को मारकर भी वा वम न तो मारता है और न पापसे बँधता है॥१७॥

है?

– यहाँ 'य

' पद

कसका वाचक है तथा 'म कता ँ ' – इस भावका न होना ा

उ र – यहाँ 'य ' पद सम कम को कृ तका खेल समझनेवाले सां योगीका वाचक है। ऐसे पु षम जो देहा भमान न रहनेके कारण कतापनका सवथा अभाव हो जाना है – यानी मन, इ य और शरीर ारा क जानेवाली सम या म 'अमुक कम मने कया है, यह मेरा कत है', इस कारके भावका लेशमा भी न रहना है – यही 'म कता ँ ' इस भावका न होना है। – बु का लपायमान न होना ा है? उ र – कम म और उनके फल प ी, पु , धन, मकान, मान, बड़ाई, गसुख आ द इस लोक और परलोकके सम पदाथ म ममता, आस और कामनाका अभाव हो जाना; कसी भी कमसे या उसके फलसे अपना कसी कारका भी स न समझना तथा उन सबको के कम और भोग क भाँ त णक, नाशवान् और क त समझ लेनेके कारण अ ःकरणम उनके सं ार का संगृहीत न होना – यही बु का लपायमान न होना है। – वह पु ष इन सब लोक को मारकर भी वा वम न तो मारता है और न पापसे बँधता है, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क उपयु कारसे आ पको भलीभाँ त जान लेनेके कारण जसका अ ानज नत अहंभाव सवथा न हो गया है; मन, बु , इ याँ और शरीरम अहंता-ममताका सवथा अभाव हो जानेके कारण उनके ारा होनेवाले कम से या उनके फलसे जसका क च ा भी स नह रहा है – उस पु षके मन, बु और इ य ारा जो लोकसं हाथ ार ानुसार कम कये जाते ह वे सब शा ानुकूल और सबका हत करनेवाले ही होते ह; क अहंता, ममता, आस और ाथबु का अभाव हो जानेके बाद पापकम के आचरणका कोई कारण नह रह जाता। अत: जैसे अ , वायु और

जल आ दके ारा ार वश कसी ाणीक मृ ु हो जाय तो वे अ , वायु आ द न तो वा वम उस ाणीको मारनेवाले ह और न वे उस कमसे बँधते ही ह – उसी कार उपयु महापु ष लोक से धमपालन करते समय य , दान और तप आ द शुभ कम को करके उनका कता नह बनता और उनके फलसे नह बंधता, इसम तो कहना ही ा हे। क ु ा धम-जैसे – कसी कारणसे यो ता ा हो जानेपर सम ा णय का संहार प – कू र कम करके भी उसका वह कता नह बनता और उसके फलसे भी नह बँधता। अथात् लोक से सम कम करता आ भी वह उन कम से सवथा ब नर हत ही रहता है। अ भ ाय यह है क जैसे भगवान् स ूण जगत्क उ , पालन और संहार आ द काय करते ए भी वा वम उनके कता नह ह (४।१३) और उन कम से उनका कोई स नह है (४।१४; ९।९) – उसी कार सां -योगीका भी उसके मन, बु और इ य ारा होनेवाले सम कम से कु छ भी स नही रहता। यह बात अव है क उसका अ :-करण अ शु तथा अहंता, ममता, आस और ाथबु से र हत हो जानेके कारण उसके मन, बु औरइ य ारा राग- ेष और अ ानमूलक चोरी, भचार, म ाभाषण, हसा, कपट, द आ द पापकम नह होते; उसक सम याएँ वणा म और प र तके अनुसार शा ानुकूल ही आ करती ह। इसम भी उसे कसी कारका य नह करना पड़ता, उसका भाव ही ऐसा बन जाता है।

इस कार सं ास ( ानयोग) का त समझानेके लये आ ाके अकतापनका तपादन करके अब उसके अनुसार कमके अंग- ंग को भलीभाँ त समझानेके लये कम- ेरणा और कमसं हका तपादन करते ह – स



ानं ेयं प र ाता वधा कमचोदना । करणं कम कत त वधः कमसङ् हः ॥१८॥

ाता, ान और ेय – यह तीन कारक कम- ेरणा है और कता, करण तथा या – यह तीन कारका कम-सं ह है॥१८॥

ाता, ान और ेय – ये तीन पद अलग-अलग कन- कन त के वाचक ह तथा यह तीन कारक कम- ेरणा है, इस कथनका ा भाव है? –

उ र – कसी भी पदाथके पका न य करनेवालेको ' ाता' कहते ह; वह जस वृ तके ारा व ुके पका न य करता है, उसका नाम ' ान' है और जस व ुके पका न य करता है उसका नाम ' ेय' है। 'यह तीन कारक कम- ेरणा है' – इस कथनसे यह भाव दखलाया गया है क इन तीन के संयोगसे ही मनु क कमम वृ होती है अथात् इन तीन का स ही मनु को कमम वृ करनेवाला है। क जब अ धकारी मनु ानवृ ारा यह न य कर लेता है क अमुक-अमुक व ु ारा अमुक कारसे अमुक कम मुझे करना है, तभी उसक उस कमम वृ होती है। – कता, करण और कम – ये तीन पद अलग-अलग कन- कन त के वाचक ह तथा यह तीन कारका कम-सं ह है, इस कथनका ा भाव है? उ र – देखना, सुनना, समझना, रण करना, खाना, पीना आ द सम या को करनेवाले कृ त पु षको 'कता' कहते ह; उसके जन मन, बु और इ य के ारा उपयु सम याएँ क जाती ह – उनका वाचक 'करण' पद है और उपयु सम या का वाचक यहाँ 'कम' पद है। 'यह तीन कारका कम-सं ह है' – इस कथनसे यह भाव दखलाया गया है क इन तीन के संयोगसे ही कमका सं ह होता है; क जव मनु यं कता बनकर अपने मन, बु और इ य ारा या करके कसी कमको करता है – तभी कम बनता है, इसके बना कोई भी कम नह बन सकता। चौदहव ोकम जो कमक स के अ ध ाना द पाँच हेतु बतलाये गये ह उनमसे अ ध ान और दैवको छोड़कर शेष तीन को कमसं ह नाम दया गया है; क उन पाँच म भी उपयु तीन हेतु ही मु ह। इस कार सां योगके स ा से कम-चोदना (कम- ेरणा) और कमसं हका न पण करके अब त ानम सहायक सा क भावको हण करानेके लये और उसके वरोधी राजस तामस भाव का ाग करानेके लये उपयु कम- ेरणा और कम-सं हके नामसे बतलाये ए ान आ दमसे जान, कम और कताके सा क, रजस और तामस – इस कार वध भेद मसे बतलानेक ावना करते ह – स



ानं कम च कताच धैव गुणभेदतः । ो ते गुणसङ् ाने यथाव ृ णु ता प ॥१९॥

गुण क सं ा करनेवाले शा म ान और कम तथा कता गुण के भेदसे तीनतीन कारके ही कहे गये ह, उनको भी तू मुझसे भलीभाँ त सुन॥१९॥

पद कसका वाचक है तथा उसम गुण के भेदसे तीन-तीन कारके बतलाये ए ान, कम और कताको सुननेके लये कहनेका ा अ भ ाय है? उ र – जस शा म स , रज और तम – इन तीन गुण के स से सम पदाथ के भ - भ भेद क गणना क गयी हो, ऐसे शा का वाचक 'गुणसड् ाने ' पद है। अत: उसम बतलाये ए गुण के भेदसे तीन-तीन कारके ान, कम और कताको सुननेके लये कहकर भगवान्ने उस शा को इस वषयम आदर दया है और कहे जानेवाले उपदेशको ानपूवक सुननेके लये अजुनको सावधान कया है। ान रहे क ाता और कता अलग-अलग नह ह, इस कारण भगवान्ने ाताके भेद अलग नह बतलाये ह तथा करणके भेद बु के और धृ तके नामसे एवं ेयके भेद सुखके नामसे आगे बतलायगे। इस कारण यहाँ पूव छ: पदाथ मसे तीनके ही भेद पहले बतलानेका संकेत कया है। – 'गुणसड्

ाने '

पूव ोकम जो ान, कम और कताके सा क राजस और तामस भेद मश: बतलानेक ावना क थी – उसके अनुसार पहले सा क ानके ल ण बतलाते ह स





सवभूतेषु येनैकं भावम यमी ते । अ वभ ं वभ ेषु त ानं व सा कम् ॥२०॥

जस ानसे मनु पृथक्-पृथक् सब भूत म एक अ वनाशी परमा भावको वभागर हत समभावसे त देखता है, उस ानको तो तू सा क जान॥२०॥

पद यहाँ कसका वाचक है तथा उसके ारा पृथक् -पृथक् भूत म एक अ वनाशी परमा भावको वभागर हत देखना ा है? उ र – 'येन ' पद यहाँ सां योगके साधनसे होनेवाले उस अनुभवका वाचक है, जसका वणन छठे अ ायके उनतीसव ोकम और तेरहव अ ायके स ाईसव ोकम कया गया है। तथा जस कार आकाश-त क जाननेवाला मनु घड़ा, मकान, गुफा, ग, पाताल और सम व ु के स हत स ूण ा म एक ही आकाश-त को देखता है – – 'येन '

वैसे ही लोक से भ - भ तीत होनेवाले सम चराचर ा णय म उस अनुभवके ारा जो एक अ तीय अ वनाशी, न वकार ान प परमा भावको वभागर हत समभावसे ा देखना है – अथात् लोक से भ - भ तीत होनेवाले सम ा णय को और यं अपनेको एक अ वनाशी परमा ासे अ भ समझना है – यही पृथक् -पृथक् भूत म एक अ वनाशी परमा भावको वभागर हत देखना है। – उस ानको तू सा क जान – इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क जो ऐसा यथाथ अनुभव है वही वा वम सा क ान यानी स ा ान है। अत: क ाणकामी मनु को इसे ही ा करनेक चे ा करनी चा हये। इसके अ त र जतने भी सांसा रक ान ह – वे नाममा के ही ान ह – वा वक ान नह ह। स

– अब राजस

ानके ल ण बतलाते ह –

पृथ ेन तु य ानं नानाभावा ृथ धान् । वे सवषु भूतेषु त ानं व राजसम् ॥२१॥

क ु जो ान अथात् जस ानके ारा मनु समपूण भूत म भ - भ कारके नाना भाव को अलग-अलग जानता है, उस ानको तू राजस जान॥२१॥

है?



समपूण भूत म भ - भ

कारके नाना भाव को अलग-अलग जानना ा

उ र – क ट, पतंग, पशु, प ी, मनु , रा स और देवता आ द जतने भी ाणी ह – उन सबम आ ाको उनके शरीर क आकृ तके भेदसे और भावके भेदसे भ - भ कारके अनेक और अलग-अलग समझना – अथात् यह समझना क ेक शरीरम आ ा अलगअलग है और वे ब त ह तथा सब पर र वल ण ह – यही स ूण भूत म भ - भ कारके नाना भाव को अलग-अलग देखना है। – उस ानको तू राजस जान – इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क उपयु कारका जो अनुभव है, वह राजस ान है – अथात् नाममा का ही ान है, वा वक ान नह है। अ भ ाय यह है क

जस कार आकाशके त को न जाननेवाला मनु भ - भ घट, मठ आ दम अलग-अलग पर आकाश समझता है और उसम त सुग -दुग ा दसे उसका स मानकर एकसे दूसरेको वल ण समझता है; क ु उसका यह समझना म है। उसी कार आ त को न जाननेके कारण सम ा णय के शरीर म अलग-अलग और अनेक आ ा समझना भी ममा है। स – अब तामस ानका ल ण बतलाते ह –

य ु कृ वदेक ाय स महैतुकम् । अत ाथवद ं च त ामसमुदा तम् ॥२२॥

मु

पर ु जो ान एक काय प शरीरम ही स ूणके स श आस है; तथा जो बना वाला, ता क अथसे र हत और तु है – वह तामस कहा गया है॥२२॥ – 'तु ' पदका यहा

ा भाव ह? उ र – पूव सा क ानसे और राजस ानसे भी इस ानको अ नकृ दखलानेके लये यहाँ 'तु' अ यका योग कया गया है। – जो ान एक काय प शरीरम ही स ूणक भाँ त आस है – इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे तामस ानका धान ल ण बतलाया गया है। अ भ ाय यह है क जस वपरीत ानके ारा मनु कृ तके काय प शरीरको ही अपना प समझ लेता है और ऐसा समझकर उस णभंगुर नाशवान् शरीरम सव क भाँ त आस रहता है – अथात् उसके सुखसे सुखी एवं उसके दुःखसे दुःखी होता है तथा उसके नाशसे ही सवनाश मानता है, आ ाको उससे भ या सव ापी नह समझता – वह ान वा वम ान नह है। इस लये भगवान्ने इस ोकम ' ान' पदका योग भी नह कया है क यह वपरीत ान वा वम अ ान ही है। – इस ानको 'अहैतुकम् ' यानी बना यु वाला बतलानेका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क इस कारक समझ ववेकशील मनु म नह ह ती, थोड़ा भी समझनेवाला मनु वचार करनेसे जड शरीरके और चेतन आ ाके भेदको समझ लेता है; अत: जहाँ यु और ववेक है, वहाँ ऐसा ान नह रह सकता।

– इस

ानको ता क अथसे र हत और अ बतलानेका ा भाव है? उ र – इसे ता क अथसे र हत और अ बतलाकर यह भाव दखलाया है क इस ानके ारा जो बात समझी जाती है वह यथाथ नह है अथात् यह व ुके पको यथाथ समझानेवाला ान नह है, वपयय- ान है और ब त तु है; इसी लये यह ा है। – वह ान तामस कहा गया है – इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे यह भाव दखलाया गया है क उपयु ल ण वाला जो वपयय- ान है वह तामस है – अथात् अ तमोगुणी मनु क समझ है; उन लोग क समझ ऐसी ही आ करती है, क तमोगुणका काय अ ान बतलाया गया है। स

– अब सा

क कमके ल ण बतलाते ह –

नयतं स र हतमराग ेषतः कृ तम् । अफल े ुना कम य ा कमु ते ॥२३॥

जो कम शा व धसे नयत कया आ और कतापनके अ भमानसे र हत हो तथा फल न चाहनेवाले पु ष ारा बना राग- ेषके कया गया हो – वह सा क कहा जाता है॥२३॥

वशेषणके स हत 'कम ' पद यहाँ कन कम का वाचक है तथा ' नयतम् ' वशेषणके योगका ा भाव है?। उ र – वण, आ म, कृ त और प र तक अपे ासे जस मनु के लये जो कम अव कत बतलाये गये ह – उन शा व हत य , दान, तप तथा जी वकाके और शरीर नवाहके सभी े कम का वाचक यहाँ ' नयतम् ' वशेषणके स हत 'कम ' पद है; तथा ' नयतम् ' वशेषणका योग करके यह भाव दखलाया गया है क के वल शा व हत न नै म क आ द कत कम ही सा क हो सकते ह, का कम और न ष कम सा क नह हो सकते। – 'स र हतम् ' वशेषणका ा अ भ ाय है? उ र – यहाँ 'संग' नाम आस का नह है क आस का अभाव 'अराग ेषत: ' पदसे अलग बतलाया गया है। इस लये यहाँ जो कम म कतापनका अ भमान करके उन कम से – ' नयतम् '

अपना स जोड़ लेना है, उसका नाम 'संग' समझना चा हये; और जन कम म ऐसा संग नह है अथात् जो बना कतापनके और बना देहा भमानके कये ए ह – उन कम को संगर हत कम समझना चा हये। इसी लये 'स र हतम् ' वशेषणसे यह भाव दखलाया गया है क उपयु शा व हत कम भी 'संगर हत' होनेसे ही सा क होते ह, नह तो उनक 'सा क' सं ा नह होती। – 'अफल े ुना ' पद कसका वाचक है और ऐसे पु ष ारा बना राग- ेषके कया आ कम कै से कमको कहते ह? उ र – कम के फल प इस लोक और परलोकके जतने भी भोग ह, उनम ममता और आस का अभाव हो जानेके कारण जसको क च ा भी उन भोग क आकां ा नह रही है, जो कसी भी कमसे अपना कोई भी ाथ स करना नह चाहता, जो अपने लये कसी भी व ुक आव कता नह समझता – ऐसे ाथ-बु र हत पु षका वाचक 'अफल े ूना ' पद है। ऐसे पु ष ारा कये जानेवाले जन कम म कताक आस और ेष नह है, अथा जनका अनु ान राग- ेषके बना के वाल लोकसं हके लये कया जाता है – उन कम को बना राग- ेषके कया आ 'कम ' कहते ह। – उस कमको सा क कहते ह – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – उस कमको सा क कहते ह – इस कथनसे यह भाव दखलाया गया है क जस कमम उपयु सम ल ण पूण पसे पाये जाते ह , वही कम पूण सा क है। य द उपयु भाव मसे कसी भावक कमी हो, तो उसक सा कताम उतनी कमी समझनी चा हये। इसके सवा इससे यह भाव भी समझना चा हये क स गुणसे और सा क कमसे ही ान उ न होता है; अत: परमा ाके त को जाननेक इ ावाले मनु को उपयु सा क कम का ही आचरण करना चा हये, राजस-तामस कम का आचरण करके कमब नम नह पड़ना चा हये। – इस ोकम बतलाये ए सा क कमम और नव ोकम बतलाये ए सा क ागम ा भेद हे? उ र – इस ोकम सां न ाक से सा क कमके ल ण कये गये ह, इस कारण 'स र हतम् ' पदसे उनम कतापनके अ भमानका और 'अराग ेषत: ' पदसे राग- ेषका भी अभाव दखलाया गया है। क ु नव ोकम कमयोगक से कये जानेवाले कम म

आस और फले ाके ागका नाम ही सा क ाग बतलाया गया है; इस कारण वहाँ कतापनके अभावक बात नह कही गयी है, ब कत बु से कम को करनेके लये कहा है। यही इन दोन का भेद है। दोन का ही फल त ानके ारा परमा ाक ा है; इस कारण इनम वा वम भेद नह है, के वल अनु ानके कारका भेद है। स – अब राजस कमके ल ण बतलाते ह –

य ु कामे ुना कम साह ारेण वा पुनः । यते ब लायासं त ाजसमुदा तम् ॥२४॥

पर ु जो कम ब त प र मसे यु होता है तथा भोग को चाहनेवाले पु ष ारा या अहंकारयु पु ष ारा कया जाता है, वह कम राजस कहा गया है॥२४॥

वशेषणके स हत 'कम ' पद कन कम का वाचक है तथा इस वशेषणके योगका यहाँ ा भाव है? उ र – जन कम म नाना कारक ब त-सी या का वधान है तथा शरीरम अहंकार रहनेके कारण जन कम को मनु भार प समझकर बड़े प र म और दुःखके साथ पूण करता है, ऐसे का कम और ावहा रक कम का वाचक यहाँ 'ब लायासम् '  वशेषणके स हत 'कम' पद है। इस वशेषणका योग करके सा क कमसे राजस कमका भेद कया गया है। अ भ ाय यह है क सा क कम के कताका शरीरम अहंकार नह होता और कम म कतापन नह होता; अत: उसे कसी भी याके करनेम कसी कारके प र म या ेशका बोध नह होता। इस लये उसके कम आयासयु नह ह। क ु राजस कमके कताका शरीरम अहंकार होनेके कारण वह शरीरके प र म और दुःख से यं दुःखी होता है। इस कारण उसे ेक याम प र मका बोध होता है। इसके सवा सा क कम के कता ारा के वल शा से या लोक से कत पम ा ए कम ही कये जाते ह; अत: उसके ारा कम का व ार नह होता; क ु राजस कमका कता आस और कामनासे े रत होकर त दन नये-नये कम का आर करता रहता है, इससे उसके कम का ब त व ार हो जाता है। इस कारण भी 'ब लायासम् ' वशेषणका योग करके ब त प र मवाले कम को राजस बतलाया गया है। – 'कामे ुना ' पद कै से पु षका वाचक है? – 'ब लायासम् '

उ र – इ य के भोग म ममता और आस रहनेके कारण जो नर र नाना कारके भोग क कामना करता रहता है तथा जो कु छ या करता है – ी, पु , धन, मकान, मान, बड़ाई, त ा आ द इस लोक और परलोकके भोग के लये ही करता है – ऐसे ाथपरायण पु षका वाचक यहाँ 'कामे ुना ' पद है। – 'वा ' पदके योगका ा भाव है? उ र – 'वा ' पदका योग करके यह भाव दखलाया गया है क जो कम भोग क ा के लये कये जाते ह, वे भी राजस ह और जनम भोग क इ ा नह है, क ु जो अहंकारपूवक कये जाते ह – वे भी राजस ह। अ भ ाय यह है क जस पु षम भोग क कामना और अहंकार दोन ह, उसके ारा कये ए कम राजस ह – इसम तो कहना ही ा है; क ु इनमसे कसी एक दोषसे यु पु ष ारा कये ए कम भी राजस ही ह। – 'साह ारेण ' पद कै से मनु का वाचक है? उ र – जस मनु का शरीरम अ भमान है और जो ेक कम अहंकारपूवक करता है तथा म अमुक कमका करनेवाला ँ , मेरे समान दूसरा कौन है; म यह कर सकता ँ , वह कर सकता ँ – इस कारके भाव मनम रखनेवाला और वाणी ारा इस तरहक बात करनेवाला है उसका वाचक यहाँ 'साह ारेण ' पद है। – वह कम राजस कहा गया है – इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क उपयु भाव से कया जानेवाला कम राजस है और राजस कमका फल दुःख बतलाया गया है (१४।१६) तथा रजोगुण कम के संगसे मनु को बाँधनेवाला है (१४।७); अत: मु चाहनेवाले मनु को ऐसे कम नह करने चा हये। स

आर

– अब तामस कमके

ल ण बतलाते ह –

अनुब ं यं हसामनपे च पौ षम् । मोहादार ते कम य ामसमु ते ॥२५॥

जो कम प रणाम, हा न, हसा और साम को न वचारकर केवल अ ानसे कया जाता है – वह तामस कहा जाता है॥२५॥

– प रणाम, हा न,

हसा और साम का वचार करना ा है और इनका वचार बना कये के वल मोहसे कमका आर करना ा है? उ र – कसी भी कमका आर करनेसे पहले अपनी बु से वचार करके जो यह सोच लेना है क अमुक कम करनेसे उसका भावी प रणाम अमुक कारसे सुखक ा या अमुक कारसे दुःखक ा होगा, यह उसके अनुब का यानी प रणामका वचार करना है। तथा जो यह सोचना है क अमुक कमम इतना धन य करना पड़ेगा, इतने बलका योग करना पड़ेगा, इतना समय लगेगा, अमुक अंशम धमक हा न होगी और अमुक-अमुक कारक दूसरी हा नयाँ ह गी – यह यका यानी हा नका वचार करना है। और जो यह सोचना है क अमुक कमके करनेसे अमुक मनु को या अ ा णय को अमुक कारसे इतना क प ँ चेगा, अमुक मनु का या अ ा णय का जीवन न होगा – यह हसाका वचार करना है। इसी तरह जो यह सोचना है क अमुक कम करनेके लये इतने साम क आव कता है अत: इसे पूरा करनेक साम हमम है या नह – यह पौ षका यानी साम का वचार करना है। इस तरह प रणाम, हा न, हसा और पौ ष – इन चार का या चार मसे कसी एकका वचार कये बना ही 'जो कु छ होगा सो देखा जायगा' इस कार दुःसाहस करके जो अ तासे कसी कमका आर कर देना है –   यही प रणाम, हा न, हसा और पौ षका वचार न करके के वल मोहसे कमका आर करना है। – वह कम तामस कहा जाता है – इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे यह भाव दखलाया गया है क इस कार बना सोचे-समझे जस कमका आर कया जाता है, वह कम तमोगुणके काय मोहसे आर कया आ होनेके कारण तामस कहा जाता है। तामस कमका फल अ ान यानी शूकर, कू कर, वृ आ द ानर हत यो नय क ा या नरक क ा बतलाया गया है (१४।१८); अत: क ाण चाहनेवाले मनु को कभी ऐसा कम नह करना चा हये। स

– अब सा

क कताके ल ण बतलाते ह –

मु स ोऽनहंवादी धृ ु ाहसम तः । सद् सद् ो न वकारः कता सा क उ ते ॥२६॥

जो कता संगर हत, अहंकारके वचन न बोलनेवाला, धैय और उ ाहसे यु तथा कायके स होने और न होनेम हष-शोका द वकार से र हत है – वह सा क कहा जाता है॥२६॥

को कहते ह? उ र – जस मनु का कम से और उनके फल प सम भोग से क च ा भी स नह रहा है – अथात् मन, इ य और शरीर ारा जो कु छ भी कम कये जाते ह उनम और उनके फल प मान, बड़ाई, त ा, ी, पु , धन, मकान आ द इस लोक और परलोकके सम भोग म जसक क च ा भी ममता, आस और कामना नह रही है – ऐसे मनु को 'मु संग' कहते ह। – 'अनहंवादी ' का ा भाव है? उ र – मन, बु , इ याँ और शरीर – इन अना पदाथ म आ बु न रहनेके कारण जो कसी भी कमम कतापनका अ भमान नह करता तथा इसी कारण जो आसुरी कृ तवाल क भाँ त, मने अमुक मनोरथ स कर लया है, अमुकको और स कर लूँगा; म ई र ँ , भोगी ँ , बलवान् ँ , सुखी ँ ; मेरे समान दूसरा कौन है; म य क ँ गा, दान दूँगा (१६। १३,१४,१५) इ ा द अहंकारके वचन कहनेवाला नह है, क ु सरलभावसे अ भमानशू वचन बोलनेवाला है – ऐसे मनु को 'अनहंवादी ' कहते ह। – 'धृ ु ाहसम त: ' पदम 'धृ त' और 'उ ाह' श कन भाव के वाचक ह और इन दोन से यु पु षके ा ल ण ह? उ र – शा व हत धमपालन प कसी भी कमके करनेम बड़ी-से-बड़ी व बाधा के उप त होनेपर भी वच लत न होना 'धृ त' है। और कम-स ादनम सफलता न ा होनेपर या ऐसा समझकर क य द मुझे फलक इ ा नह है तो कम करनेक ा आव कता है – कसी भी कमसे न उकताना, क ु जैसे कोई सफलता ा कर चुकनेवाला और कमफलको चाहनेवाला मनु करता है उसी कार ापूवक उसे करनेके लये उ ुक रहना 'उ ाह' है। इन दोन गुण से यु पु ष बड़े-स-बड़ा व उप त होनेपर भी अपने कत का ाग नह करता, ब अ उ ाहपूवक सम क ठनाइय को पार करता आ अपने कत म डटा रहता है। ये ही उसके ल ण ह। – 'मु

संग ' कै से मनु

वशेषण कै से मनु का वाचक है? उ र – साधारण मनु क जस कमम आस होती है और जस कमको वे अपने इ फलका साधन समझते ह, उसके पूण हो जानेसे उनके मनम बड़ा भारी हष होता है और कसी कारका व उप त होकर उसके अधूरा रह जानेपर उनको बड़ा भारी क होता है; इसी तरह उनके अ ःकरणम कमक स -अ स के स से और भी ब त कारके वकार होते ह। अत: अहंता, ममता, आस और फले ा न रहनेके कारण जो मनु न तो कसी भी कमके पूण होनेम ह षत होता है और न उसम व उप त होनेपर शोक ही करता है; तथा इसी तरह जसम अ कसी कारका भी कोई वकार नह होता, जो हरेक अव ाम सदासवदा सम रहता है – ऐसे समतायु पु षका वाचक ' सद ् सद ् ो: न वकार :' यह वशेषण है। – वह कता सा क कहा जाता है –  इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क जस कताम उपयु सम भाव का समावेश है, वही पूण सा क है और जसम जस भावक कमी है, उतनी ही उसक सा कताम कमी है। इस कारका सा क भाव परमा ाके त - ानको कट करनेवाला है, इस लये मु चाहनेवाले मनु को सा क कता ही बनना चा हये। – ' सद ्



सद ् ो: न वकार :' यह

– अब राजस कताके

ल ण बतलाते ह –

रागी कमफल े ुलु ो हसा कोऽशु चः । हषशोका तः कता राजसः प रक ततः ॥२७॥

जो कता आस से यु , कम के फलको चाहनेवाला और लोभी है तथा दस ू र को क देनेके भाववाला, अशु ाचारी और हष-शोकसे ल है – वह राजस कहा गया है॥२७॥ – 'रागी ' पद कै से मनु

का वाचक है? उ र – जस मनु क कम म और उनके फल प इस लोक और परलोकके भोग म ममता और आस है – अथात् जो कु छ या करता है, उसम और उसके फलम जो आस रहता है – ऐसे मनु को 'रागी ' कहते ह।

– 'कमफल े :ु ' पद कै से मनु

का वाचक है? उ र – जो कम के फल प ी, पु , धन, मकान, मान, बड़ा, त ा आ द इस लोक और परलोकके नाना कारके भोग क इ ा करता रहता है तथा जो कु छ कम करता है, उन भोग क ा के लये ही करता है – ऐसे ाथपरायण पु षका वाचक 'कमफल े :ु ' पद है। – 'लु ः ' पद कै से मनु का वाचक है? उ र – धना द पदाथ म आस रहनेके कारण जो ायसे ा अवसरपर भी अपनी श के अनु प धनका य नह करता तथा ाय-अ ायका वचार न करके सदा धनसं हक लालसा रखता है, यहाँतक क दूसर के को हड़पनेक भी इ ा रखता है और वैसी ही चे ा करता है – ऐसे लोभी मनु का वाचक 'लु : ' पद है। – ' हसा क: ' पद कै से मनु का वाचक है? उ र – जस कसी भी कारसे दूसर को क प ँ चाना ही जसका भाव है, जो अपनी अ भलाषाक पू तके लये राग- ेषपूवक कम करते समय दूसर के क क क च ा भी परवा न करके अपने आराम तथा भोगके लये दूसर को क देता रहता है – ऐसे हसापरायण मनु का वाचक यहाँ ' हसा क: ' पद है। – 'अशु च: ' पद कै से मनु का वाचक है? उ र – जसम शौचाचार और सदाचारका अभाव है अथात् जो न तो शा व धके अनुसार जल-मृ का दसे शरीर और व ा दको शु रखता है और न यथायो बताव करके अपने आचरण को ही शु रखता है, क ु भोग म आस होकर नाना कारके भोग क ा के लये शौचाचार और सदाचारका ाग कर देता है – ऐसे मनु का वाचक यहाँ 'अशु च: ' पद है। – 'हषशोका तः ' पद कै से मनु का वाचक है? उ र – ेक याम और उसके फलम राग- ेष रहनेके कारण हरेक कम करते समय तथा हरेक घटनाम जो कभी ह षत होता है और कभी शोक करता है – इस कार जसके अ :करणम हष और शोक होते रहते ह, ऐसे मनु का वाचक यहाँ 'हषशोका तः ' पद है।

– वह कता राजस कहा गया है – इस कथनका

ा भाव है? उ र – इस कथनसे यह भाव दखलाया गया हे क जो मनु उपयु सम भाव से या उनमसे कतने ही भाव से यु होकर या करनेवाला है वह 'राजस कता' है। 'राजस कता' बार-बार नाना यो नय म ज ता और मरता रहता है, वह संसारच से मु नह होता। इस लये मु चाहनेवाले मनु को 'राजस कता' नह बनना चा हये। स

– अब तामस कताके

ल ण बतलाते ह –

अयु ः ाकृ तः ः शठो नै ृ तकोऽलसः । वषादी दीघसू ी च कता तामस उ ते ॥२८॥

जो कता अयु , श ासे र हत, घमंडी, धूत और दस ू र क जी वकाका नाश करनेवाला तथा शोक करनेवाला, आलसी और दीघसू ी है – वह तामस कहा जाता है॥२८॥

का वाचक है? उ र – जसके मन और इ याँ वशम कये ए नह ह, ब जो यं उनके वशीभूत हो रहा है तथा जसम ा और आ कताका अभाव है – ऐसे पु षका वाचक  'अयु : ' पद है। – ' ाकृत: ' पद कै से मनु का वाचक है? उ र – जसको कसी कारक सु श ा नह मली है, जसका भाव बालकके समान है, जसको अपने कत का कु छ भी ान नह है  (१६।७), जसके अ ःकरण और इ य का सुधार नह आ है – ऐसे सं ारर हत ाभा वक मूखका वाचक ' ाकृत: ' पद है। –  ' : ' पद कै से मनु का वाचक है? उ र – जसका भाव अ कठोर है, जसम वनयका अ अभाव है, जो सदा ही घमंडम चूर रहता है – अपने सामने दूसर को कु छ भी नह समझता – ऐसे घमंडी मनु का वाचक  ' : ' पद है। – 'शठः ' पद कसका वाचक है? –  'अयु



: ' पद कै से मनु





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उ र – जो दूसर को ठगनेवाला वंचक है, ेषको छपाये रखकर गु भावसे दूसर का अपकार करनेवाला है, मन-ही-मन दूसर का अ न करनेके लये दाव-पच सोचता रहता है – ऐसे धूत मनु का वाचक 'शठ: ' पद है। – 'नै ृ तक: ' पद कै से मनु का वाचक है? उ र – जो नाना कारसे दूसर क जी वकाका नाश करनेवाला है, दूसर क वृ म बाधा डालना ही जसका भाव है – ऐसे मनु का वाचक 'नै ृ तक: ' पद है। –  'अलस: ' पद कै से मनु का वाचक है? उ र – जसका रात- दन पड़े रहनेका भाव है, कसी भी शा ीय या ावहा रक कत -कमम उसक वृ और उ ाह नह होते, जसके अ ःकरण और इ य म आल भरा रहता है – ऐसे आलसी मनु का वाचक 'अलस: ' पद है। –  ' वषादी ' कसको कहते ह? उ र – जो रात- दन शोक करता रहता है, जसक च ा का कभी अ नह आता  (१६।११) – ऐसे च ापरायण पु षको ' वषादी ' कहते ह। – 'दीघसू ी ' कसको कहते ह? उ र – जो कसी कायका आर करके ब त कालतक उसे पूरा नह करता – आज कर लगे, कल कर लगे, इस कार वचार करते-करते एक रोजम हो जानेवाले कायके लये ब त समय नकाल देता है और फर भी उसे पूरा नह कर पाता – ऐसे श थल कृ तवाले मनु को  'दीघसू ी ' कहते ह। – वह कता तामस कहा जाता है, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क उपयु वशेषण म बतलाये ए सभी अवगुण तमोगुणके काय ह; अत: जस पु षम उपयुता सम ल ण घटते ह या उनमसे कतने ही ल ण घटते ह उसे तामस कता समझना चा हये। तामसी मनु क अधोग त होती है  (१४।१८); वे नाना कारक पशु, प ी, क ट, पतंग आ द नीच यो नय म उ होते ह – (१४।१५) – अत: क ाण चाहनेवाले मनु को अपनेम तामसी कताके ल ण का कोई भी अंश न रहने देना चा हये। ो

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इस कार त ानम सहायक सा क भावको हण करानेके लये और उसके वरोधी राजस-तामस भाव का ाग करानेके लये कम- ेरणा और कमसं हमसे ान, कम और कताके सा क आ द तीन-तीन भेद मसे बतलाकर अब बु और धृ तके सा क, राजस और तामस – इस कार वध भेद मश: बतलानेक ावना करते ह – स



बु ेभदं धृते ैव गुणत वधं णु । ो मानमशेषेण पृथ ेन धन य ॥२९॥

हे धनंजय! अब तू बु का और धृ तका भी गुण के अनुसार तीन कारका भेद मेरे ारा स ूणतासे वभागपूवक कहा जानेवाला सुन॥२९॥

इस ोकम 'बु ' और 'धृ त' श कन त के वाचक ह तथा उनके गुण के अनुसार तीन-तीन कारके भेद स ूणतासे वभागपूवक सुननेके लये कहनेका ा भाव है? उ र – 'बु ' श यहाँ न य करनेक श वशेषका वाचक है, इसे अ ःकरण भी कहते ह। बीसव, इ सव और बाईसव ोक म जस ानके तीन भेद बतलाये गये ह, वह बु से उ होनेवाला ान यानी बु क वृ वशेष है और यह बु उसका कारण है। अठारहव ोकम ' ान' श कम- ेरणाके अ गत आया है और बु का हण 'करण' के नामसे कम-सं हम कया गया है। यही ानका और बु का भेद है। यहाँ कम-सं हम व णत करण के सा क-राजसतामस भेद को भलीभाँ त समझानेके लये धान 'करण' बु के तीन भेद बतलाये जाते ह। 'धृ त' श धारण करनेक श वशेषका वाचक है; यह भी बु क ही वृ है। मनु कसी भी या या भावको इसी श के ारा ढतापूवक धारण करता है। इस कारण वह 'करण' के ही अ गत है। छ ीसव ोकम सा क कताके ल ण म 'धृ त' श का योग आ है, इससे यह समझनेक गुंजाइश हो जाती है क 'धृ त' के वल सा क ही होती है; क ु ऐसी बात नह है, इसके भी तीन भेद होते ह – यही बात समझानेके लये इस करणम 'धृ त' के तीन भेद बतलाये गये है। यहाँ गुण के अनुसार बु और धृ तके तीन-तीन भेद स ूणतासे वभागपूवक सुननेके लये कहकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क म तु –

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बु त के और धृ तत के ल ण – जो स , रज और तम इन तीन गुण के स से तीन कारके होते ह – पूण पसे और अलग-अलग बतलाता ँ । अत: सा क बु और सा क धृ तको धारण करनेके लये तथा राजस-तामसका ाग करनेके लये तुम इन दोन त के सम ल ण को सावधानीके साथ सुनो।

पूव ोकमजो बु और धृ तके सा क, राजस और तामस तीन-तीन भेद मश: बतलानेक ावना क है, उसके अनुसार पहले सा क बु के ल ण बतलाते ह – स



वृ च नवृ च कायाकाय भयाभये । ब ं मो ं च या वे बु ः सा पाथ सा क ॥३०॥

हे पाथ! जो बु वृ माग और नवृ मागको, कत और अकत को, भय और अभयको तथा ब न और मो को यथाथ जानती है – वह बु सा क है॥३०॥ –'

है?

वृ माग' कस मागको कहते ह और उसको यथाथ जानना ा

उ र – गृह -वान ा द आ म म रहकर ममता, आस अहंकार और फले ाका ाग करक परमा ाक ा के लये उसक उपासनाका तथा शा व हत य , दान और तप आ द शुभ कम का अपने वणा म-धमके अनुसार जी वकाके कम का और शरीर-स ी खान-पान आ द कम का न ामभावसे आचरण प जो परमा ाको ा करनेका माग है – वह वृ माग है । और राजा जनक, अ रीष, मह ष व स और या व आ दक भाँ त उसे ठीक-ठीक समझकर उसके अनुसार चलना ही उसको यथाथ जानना है। – ' नवृ माग' कसको कहते ह और उसे यथाथ जानना ा है? उ र – सम कम का और भोग का बाहर-भीतरसे सवथा ाग करके , सं ास-आ मम रहकर परमा ाक ा के लये सब कारक सांसा रक झंझट से वर होकर अहंता, ममता और आस के ागपूवक शम, दम, त त ा आ द साधन के स हत, नर र वण, मनन, न द ासन करना या के वल भगवान्के भजन, रण, क तन आ दम ही लगे रहना – इस कार जो परमा ाको ा करनेका माग है, उसका नाम नवृ माग है। और ीसनका द, नारदजी, ऋषभदेवजी और े ी



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शुकदेवजीक भाँ त उसे ठीक-ठीक समझकर उसके अनुसार चलना ही उसको यथाथ जानना है। – 'कत ' ा है और 'अकत ' ा है? तथा इन दोन को यथाथ जानना ा है? उ र – वण, आ म, कृ त और प र तक तथा देश-कालक अपे ासे जसके लये जस समय जो कम करना उ चत है – वही उसके लये कत है और जस समय जसके लये जस कमका ाग उ चत है वही उसके लये अकत है। इन दोन को भलीभाँ त समझ लेना – अथात् कसी भी कायके सामने आनेपर यह मेरे लये कत है या अकत , इस बातका यथाथ नणय कर लेना ही कत और अकत को यथाथ जानना है । –  'भय' कसको और 'अभय' कसको कहते ह? तथा इन दोन को यथाथ जानना ा है? उ र – कसी दुःख द व ुके या घटनाके उप त हो जानेपर या उसक स ावना होनेसे मनु के अ ःकरणम जो एक आकु लताभरी क वृ होती है, उसे 'भय' कहते ह और इससे वपरीत जो भयके अभावक वृ त है उसे  'अभय' कहते ह। इन दोन के त को जान लेना अथात् भय ा है और अभय ा है तथा कन- कन कारण से मनु को भय होता है और कस कार उसक नवृ होकर 'अभय' अव ा ा हो सकती है; इस वषयको भलीभाँ त समझकर नभय हो जाना ही भय और अभय – इन दोन को यथाथ जानना है। – ब न और मो ा है? उ र – शुभाशुभ कम के स से जो जीवको अना दकालसे नर र परवश होकर ज -मृ ुके च म भटकना पड़ रहा है, यही ब न है; और स ंगके भावसे कमयोग, भ योग तथा ानयोगा द साधन मसे कसी साधनके ारा भगव ृ पासे सम शुभाशुभ कमब न का कट जाना और जीवका भगवान्को ा हो जाना ही मो है। – ब न और मो को यथाथ जानना ा है? उ र – ब न ा है, कस कारणसे इस जीवका ब न है और कन- कन कारण से पुन: इसका ब न ढ़ हो जाता है – इन सब बात को भलीभाँ त समझ लेना ब नको यथाथ जानना है और उस ब नसे मु होना ा है तथा कन- कन े े ो ै ो ी ी

उपाय से कस कार मनु ब नसे मु हो सकता है, इन सब बात को ठीक-ठीक जान लेना ही मो को यथाथ जानना है। – वह बु सा क है, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क जो बु उपयु बात का ठीक-ठीक नणय कर सकती है, इनमसे कसी भी वषयका नणय करनेम न तो उससे भूल होती है और न संशय ही रहता है – जब जस बातका नणय करनेक ज रत पड़ती है, तब उसका यथाथ नणय कर लेती है – वह बु सा क है। सा क बु मनु को संसार-ब नसे छु ड़ाकर परमपदक ा करानेवाली होती है, अत: क ाण चाहनेवाले मनु को अपनी बु सा क बना लेनी चा हये । स

– अब राजसी बु

के ल ण बतलाते ह –

यया धममधम च काय चाकायमेव च । अयथाव जाना त बु ः सा पाथ राजसी ॥३१॥

हे पाथ! मनु जस बु के ारा धम और अधमको तथा कत अकत को भी यथाथ नह जानता, वह बु राजसी है॥३१॥ – 'धम'

और

कसको कहते ह और 'अधम' कसको कहते ह तथा इन दोन को यथाथ न जानना ा है? उ र – अ हसा, स , दया, शा , चय, शम, दम, त त ा तथा य , दान, तप एवं अ यन, अ ापन, जापालन, कृ ष, पशुपालन और सेवा आ द जतने भी वणा मके अनुसार शा व हत शुभकम ह – जन आचरण का फल शा म इस लोक और परलोकके सुख-भोग बतलाया गया है – तथा जो दूसर के हतके कम ह, उन सबका नाम धम ह एवं झूठ, कपट, चोरी, भचार हसा, द , अभ - भ ण आ द जतने भी पापकम ह – जनका फल शा म दुःख बतलाया है – उन सबका नाम अधम है। कस समय कस प र तम कौन-सा कम धम है और कौन-सा कम अधम है – इसका ठीक-ठीक नणय करनेम बु का कु त हो जाना, या संशययु हो जाना आ द उन दोन का यथाथ न जानना है। – 'काय' कसका नाम है और 'अकाय' कसका? तथा धम-अधमम और कत -अकत म ा भेद है एवं कत और अकत को यथाथ न जानना ा हे? े औ े े [96]

उ र – वण, आ म, कृ त, प र त तथा देश और कालक अपे ासे जस मनु के लये जो शा व हत करनेयो कम है – वह काय (कत ) हे और जसके लये शा म जस कमको न करनेयो - न ष बतलाया है, ब जसका न करना ही उ चत है – वह अकाय (अकत ) है। शा न ष पापकम तो सबके लये अकाय ह ही, क ु शा व हत शुभकमम भी कसीके लये कोई कम काय होता है और कसीके लये कोई अकाय । जैसे गृहके लये सेवा करना काय है ओर य , वेदा यन आ द करना अकाय है; सं ासीके लये ववेक, वैरा , शम, दमा दका साधन काय है और य -दाना दका आचरण अकाय है; ा णके लये य करना-कराना, दान देना- लेना, वेद पढ़ना-पढ़ाना काय है और नौकरी करना अकाय है; वै के लये कृ ष, गोर ा और वा ण ा द काय है और दान लेना अकाय है। इसी तरह गा दक कामनावाले मनु के लये का -कम काय ह और मुमु कु े लये अकाय है; वर ा णके लये सं ास हण करना काय है और भोगास के लये अकाय है। इससे यह स है क शा व हत धम होनेसे ही वह सबके लये कत नह हो जाता। इस कार धम काय भी हो सकता है और अकाय भी । यही धम-अधम और काय-अकायका भेद है । कसी भी कमके करनेका या ागनेका अवसर आनेपर 'अमुक कम मेरे लये कत है या अकत , मुझे कौन-सा कम कस कार करना चा हये और कौन-सा नह करना चा हये' – इसका ठीक-ठीक नणय करनेम जो बु का ककत वमूढ हो जाना या संशययु हो जाना है – यही कत और अकत को यथाथ न जानना है। – वह बु राजसी है, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इस कथनसे यह भाव दखलाया गया है क जस बु से मनु धम-अधमका और कत -अकत का ठीक-ठीक नणय नह कर सकता, जो बु इसी कार अ ा बात का भी ठीक-ठीक नणय करनेम समथ नह होती – वह रजोगुणके स से ववेकम अ त त, व और अ र रहती है; इसी कारण वह राजसी है। राजस भावका फल दुःख बतलाया गया है; अतएव क ाणकामी पु ष को स ंग, स के अ यन और सद् वचार के पोषण ारा बु म त राजस भाव का ाग करके सा क भाव को उ करने और बढ़ानेक चे ा करनी चा हये। स

– अब तामसी बु

के ल ण बतलाते ह –



अधम धम म त या म ते तमसावृता । सवाथा परीतां बु ः सा पाथ तामसी ॥३२॥

हे अजुन! जो तमोगुणसे घरी ई बु अधमको भी 'यह धम है' ऐसा मान लेती है तथा इसी कार अ स ण ू पदाथ को भी वपरीत मान लेती है, वह बु तामसी है॥३२॥ – अधमको धम मानना

ा है और धमको अधम मानना ा है? उ र – ई र न ा, देव न ा, शा - वरोध, माता- पता-गु आ दका अपमान, वणा मधमके तकू ल आचरण, अस ोष, द , कपट भचार अस भाषण, परपीडन, अभ भोजन, यथे ाचार और पर-स ापहरण आ द न ष पापकम को धम मान लेना और धृ त, मा, मनो न ह, अ ेय, शौच, इ य न ह, धी, व ा, स , अ ोध, ई रपूजन, देवोपासना, शा सेवन, वणा म-धमानुसार आचरण, माता- पता आ द गु जन क आ ाका पालन, सरलता, चय, सा क भोजन, अ हसा और परोपकार आ द शा व हत पु कम को अधम मानना – यही अधमको धम और धमको अधम मानना है। – अ सब पदाथ को वपरीत मान लेना ा है? उ र – अधमको धम मान लेनेक भाँ त ही अकत को कत , दुःखको सुख, अ न को न , अशु को शु और हा नको लाभ मान लेना आ द जतना भी वपरीत ान है – वह सब अ पदाथ को वपरीत मान लेनेके अ गत है। – वह बु तामसी है, इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे यह भाव दखलाया गया है क तमोगुणसे ढक रहनेके कारण जस बु क ववेकश सवथा लु -सी हो गयी है, इसी कारण जसके ारा ेक वषयम बलकु ल उलटा न य होता है – वह बु तामसी है। ऐसी बु मनु को अधोग तम ले जानेवाली है; इस लये क ाण चाहनेवाले मनु को इस कारक वपरीत बु का सवथा ाग कर देना चा हये। स

– अब सा

क धृ तके ल ण बतलाते ह –

धृ ा यया धारयते मनः ाणे य याः । योगेना भचा र ा धृ तः सा पाथ सा क ॥३३॥ े









हे पाथ! जस अ मन, ाण और इ य क ३३॥

भचा रणी धारणश से मनु ानयोगके ारा या को धारण करता है, वह धृ त सा क है॥

यहाँ 'अ भचा र ा ' वशेषणके स हत 'धृ ा ' पद कसका वाचक है? और उससे ानयोगके ारा मन, ाण और इ य क या को धारण करना ा है? उ र – कसी भी या, भाव या वृ को धारण करनेक – उसे ढ़तापूवक र रखनेक जो श वशेष है, जसके ारा धारण क ई कोई भी या, भावना या वृ वच लत नह होती, ुत चरकालतक र रहती है, उस श का नाम 'धृ त' है; पर ु इसके ारा मनु जबतक भ - भ उ े से, नाना वषय को धारण करता रहता है, तबतक इसका भचार दोष न नह होता; जब इसके ारा मनु अपना एक अटल उ े र कर लेता है, उस समय यह 'अ भचा रणी' हो जाती है। सा क धृ तका एक ही उ े होता है – परमा ाको ा करना। इसी कारण उसे 'अ भचा रणी' कहते ह। इस कारक धारणश का वाचक यहाँ 'अ भचा र ा ' वशेषणके स हत 'धृ ा ' पद है। ऐसी धारणश से जो परमा ाको ा करनेके लये ानयोग ारा मन, ाण और इ य क या को अटल पसे परमा ाम रोके रखना है – यही उपयु धृ तसे ानयोगके ारा मन, ाण और इ य क या को धारण करना है। – वह धृ त सा क है, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क जो धृ त परमा ाक ा प एक ही उ े म सदा र रहती है, जो अपने ल से कभी वच लत नह होती, जसके भ - भ उ े नह ह तथा जसके ारा मनु परमा ाक ा के लये मन और इ य आ दको परमा ाम लगाये रखता है और कसी भी कारणसे उनको वषय म आस और चंचल न होने देकर सदा-सवदा अपने वशम रखता है – ऐसी धृ त सा क है। इस कारक धारणश मनु को शी ही परमा ाक ा करानेवाली होती है। अतएव क ाण चाहनेवाले पु षको चा हये क वह अपनी धारणश को इस कार सा क बनानेक चे ा करे। –



– अब राजसी धृ तके

ल ण बतलाते ह –

यया तु धमकामाथा ृ ा धारयतेऽजुन । े ी ी

स े न फलाकाङ् ी धृ तः सा पाथ राजसी ॥३४॥

पर ु हे पृथापु अजुन! फलक इ ावाला मनु जस धारणश के ारा अ आस से धम, अथ और काम को धारण करता है, वह धारणश राजसी है॥३४॥

पद कै से मनु का वाचक है तथा ऐसे मनु का आस से धम, अथ और काम – इन तीन को धारण

– 'फलाकाङ् ी '

धारणश के ारा अ करना ा है? उ र – 'फलाकाङ् ी ' पद कम के फल प इस लोक और परलोकके व भ कारके भोग क इ ा करनेवाले सकाम मनु का वाचक है। ऐसे मनु का जो अपनी धारणश के ारा अ आस पूवक धमका पालन करना है – यही उसका धृ तके ारा धमको धारण करना है एवं जो धना द पदाथ को और उनसे स होने-वाले भोग को ही जीवनका ल बनाकर अ आस के कारण ढ़तापूवक उनको पकड़े रखना ह – यही उसका धृ तके ारा अथ और काम को धारण करना है।   – वह धारणश राजसी है, इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे यह भाव दखलाया गया है क जस धृ तके ारा मनु मो के साधन क ओर कु छ भी ान न देकर के वल उपयु कारसे धम, अथ और काम – इन तीन को ही धारण कये रहता है वह 'धृ त' रजोगुणसे स रखनेवाली होनेके कारण राजसी है; क आस और कामना – ये सब रजोगुणके ही काय ह। इस कारक धृ त मनु को कम ारा बाँधनेवाली है; अतएव क ाणकामी मनु को चा हये क अपनी धारणश को राजसी न होने देकर सा क बनानेक चे ा करे। स

– अब तामसी धृ तका ल

ण बतलाते ह –

यया ं भयं शोकं वषादं मदमेव च । न वमु त दुमधा धृ तः सा पाथ तामसी ॥३५॥

हे पाथ! द ु बु वाला मनु जस धारणश के ारा न ा, भय, च ा और दःु खको तथा उ ताको भी नह छोड़ता अथात् धारण कये रहता है – वह धारणश तामसी है॥३५॥

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– 'दम ु धा: '

पद कै से मनु का वाचक है तथा यहाँ इसके योगका

ा भाव है? उ र – जसक बु अ म और म लन हो, जसके अ ःकरणम दूसर का अ न करने आ दके भाव भरे रहते ह – ऐसे दु बु मनु का वाचक 'दुमधा:' पद है; इसका योग करके यह भाव दखलाया गया है क ऐसे मनु म तामसी 'धृ त' आ करती है। – , भय, शोक, वषाद और मद – ये श अलग-अलग कनकन भाव के वाचक ह तथा धृ तके ारा इनको न छोड़ना अथात् धारण कये रहना ा है? उ र – न ा और त ा आ द जो मन और इ य को तमसा , बा यासे र हत और मूढ बनानेवाले भाव ह – उन सबका नाम है; धन आ द पदाथ के नाशक , मृ ुक , दुःख ा क , सुखके नाशक अथवा इसी तरह अ कसी कारके इ के नाश और अ न - ा क आशंकासे अ ःकरणम जो एक आकु लता और घबड़ाहटभरी वृ होती है – उसका नाम भय है; मनम होनेवाली नाना कारक दु ा का नाम शोक है; उसके ारा जो इ य म स ाप हो जाता है, उसे वषाद कहते ह; यह शोकका ही ूल भाव है। तथा जो धन, जन और बल आ दके कारण होनेवाली – ववेक, भ व के वचार और दूरद शतासे र हत – उ वृ त है, उसे मद कहते ह; इसीका नाम गव, घमंड और उ ता भी है। इन सबको तथा माद आ द अ ा तामस भाव को जो अ ःकरणसे दूर हटानेक चे ा न करके इ म डू बे रहना है, यही धृ तके ारा इनको न छोड़ना अथात् धारण कये रहना है। – वह धारणश तामसी है, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क ाग करनेयो उपयु तामस भाव को जस धृ तके कारण मनु छोड़ नह सकता, अथात् जस धारणश के कारण उपयु भाव मनु के अ ःकरणम भावसे ही धारण कये ए रहते ह – वह धृ त तामसी है। यह त सवथा अनथम हेतु है अतएव क ाणकामी मनु को इसका तुरंत और सवतोभावसे ाग कर देना चा हये।

इस कार सा क बु और धृ तका हण तथा राजसीतामसीका ाग करानेके लये बु और धृ तके सा क आ द तीन-तीन भेद मसे े े ै े ी स



बतलाकर अब, जसके लये मनु सम कम करता है उस सुखके भी सा क, राजस और तामस – इस कार तीन भेद मसे बतलाना आर करते ए पहले सा क सुखके ल ण का न पण करते ह –

सुखं दान वधं णु मे भरतषभ । अ ासा मते य दुःखा ं च नग त ॥३६॥ य द े वष मव प रणामेऽमृतोपमम् । त ुखं सा कं ो मा बु सादजम् ॥३७॥

हे भरत े ! अब तीन कारके सुखको भी तू मुझसे सुन। जस सुखम साधक मनु भजन, ान और सेवा दके अ ाससे रमण करता है और जससे दःु ख के अ को ा हो जाता है – जो ऐसा सुख है, वह आर कालम य प वषके तु तीत होता है, पर ु प रणामम अमृतके तु है; इस लये वह परमा वषयक बु के सादसे उ होनेवाला सुख सा क कहा गया है॥ ३६-३७॥

है?

– अब तीन

कारके सुखको भी तू मुझसे सुन, इस कथनका ा भाव

उ र – इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क जस कार मने ान, कम, कता, बु और धृ तके सा क, राजस और तामस भेद बतलाये ह, उसी कार सा क सुखको ा करानेके लये और राजस-तामसका ाग करानेके लये अब तु सुखके भी तीन भेद बतलाता ँ ; उनको तुम सावधानीके साथ सुनो। – 'य ' पद कस सुखका वाचक है तथा अ ाससे रमण करता है, इस कथनका ा भाव है? उ र – जो सुख शा मनवाले योगीको मलता है (६।२७), उसी उ म सुखका वाचक यहाँ 'य ' पद है। मनु को इस सुखका अनुभव तभी होता है, जब वह इस लोक और परलोकके सम भोग-सुख को णक समझकर उन सबसे आस हटाकर नर र परमा पके च नका अ ास करता है (५।२१); बना साधनके इसका अनुभव नह हो सकता – यही भाव दखलानेके लये इस सुखका ' जसम अ ाससे रमण करता है' यह ल ण कया गया है। – जससे दुःख के अ को ा हो जाता है, इस कथनका ा भाव है? े ै े

उ र – इससे यह दखलाया गया है क जस सुखम रमण करनेवाला मनु आ ा क, आ धदै वक और आ धभौ तक – सब कारके दुख के स से सदाके लये छू ट जाता है; जस सुखके अनुभवका फल नर तशय सुख- प स दान घन पर परमा ाक ा बतलाया गया है (५।२१,२४;६।२८) – वही सा क सुख है। – यहाँ 'अ े ' पद कस समयका वाचक है और सा क सुखका वषके तु तीत होना ा है? उ र – जस समय मनु सा क सुखक म हमा सुनकर उसको ा करनेक इ ासे उसक ा के उपायभूत ववेक, वैरा , शम, दम और त त ा आ द साधन म लगता है – उस समयका वाचक यहाँ 'अ े ' पद है। उस समय जस कार बालक अपने घरवाल से व ाक म हमा सुनकर व ा ासक चे ा करता है, पर उसक मह का यथाथ अनुभव न होनेके कारण आर कालम अ ास करते समय उसे खेल-कू दको छोड़कर व ा ासम लगे रहना अ क द और क ठन तीत होता है, उसी कार सा क सुखके लये अ ास करनेवाले मनु को भी वषय का ाग करके संयमपूवक, ववेक, वैरा , शम, दम और त त ा आ द साधन म लगे रहना अ मपूण और क द तीत होता है; यही आर कालम सा क सुखका वषके तु तीत होना है। – वह सुख प रणामम अमृतके तु है – इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह दखलाया गया है क जब सा क सुखक ा के लये साधन करते- करते साधकको उस ानज नत सुखका अनुभव होने लगता है, तब उसे वह अमृतके तु तीत होता है; उस समय उसके सामने संसारके सम भोग-सुख तु , नग और दुःख प तीत होने लगते ह। – वह परमा वषयक बु के सादसे होनेवाला सुख सा क कहा गया है, इस कथनका ा भाव है? उ र – उपयु कारसे अ ास करते-करते नर र परमा ाका ान करनेके फल- प अ ःकरणके होनेपर इस सुखका अनुभव होता है, इसी लये इस सुखको परमा - बु के सादसे उ होनेवाला बतलाया गया है। और वह सुख सा क है – इस कथनसे यह भाव दखलाया गया है क यही सुख उ म सुख है, राजस और तामस सुख वा वम सुख ही नह ह। वे तो नाममा के ही ी







सुख ह, प रणामम दुःख प ही ह; अतएव अपना क ाण चाहनेवाले पु षको राजस-तामस सुख म न फँ सकर नर र सा क सुखम ही रमण करना चा हये। स

– अब राजस सुखके

ल ण बतलाते है –

वषये यसंयोगा द ेऽमृतोपमम् । प रणामे वष मव त ुखं राजसं ृतम् ॥३८॥

जो सुख वषय और इ य के संयोगसे होता है, वह पहले – भोगकालम अमृतके तु तीत होनेपर भी प रणामम वषके तु है; इस लये वह सुख राजस कहा गया है॥३८॥

पद कस समयका वाचक है तथा उस समय इ य और वषय के संयोगसे उ होनेवाले सुखका अमृतके तु तीत होना ा है? उ र – जस समय राजस सुखक ा के लये मनु मन और इ य के ारा कसी वषयसेवनका आर करता है, उस समयका वाचक यहाँ 'अ 'े पद है। इस सुखक उ इ य और वषय के संयोगसे होती है – इसका अ भ ाय यह है क जबतक मनु मनस हत इ य ारा कसी वषयका सेवन करता है, तभीतक उसे उस सुखका अनुभव होता है और आस के कारण वह उसे अ य मालूम होता है; उस समय वह उसके सामने कसी भी अ सुखको कोई चीज नह समझता। यही उस सुखका भोगकालम अमृतके तु तीत होना है। – राजस सुख प रणामम वषके तु है, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव,, दखलाया गया है क इस राजस सुख-भोगका प रणाम वषक भाँ त दुःख द है; यह राजस सुख ती तमा का ही सुख है, व ुत: सुख नह है। अ भ ाय यह है क मन और इ य ारा आस पूवक सुखबु से वषय का सेवन करनेसे उनके सं ार अ ःकरणम जम जाते ह, जनके कारण मनु पुन: उ वषय-भोग क ा क इ ा करता है और उसके लये आस वश अनेक कारके पापकम कर बैठता है तथा उन पापकम का फल भोगनेके लये उसे क ट, पतंग, पशु, प ी आ द नीच यो नय म ज लेना पड़ता है तथा य णामय नरक म पड़कर भीषण दुःख भोगने पड़ते ह। वषय म आस बढ़ जानेसे पुन: उनक ा न होनेपर अभावके दुःखका अनुभव होता है तथा उनसे वयोग होते समय भी अ दुःख होता है। े े े े ई े ोी ै – 'अ े '

दूसर के पास अपनेसे अ धक सुख-स देखकर ई ासे जलन होती है; तथा भोगके अन र शरीरम बल, वीय, बु , तेज और श के ाससे और थकावटसे भी महान् क का अनुभव होता है। इसी कार और भी ब त-से दुःख द प रणाम होते ह। इस लये वषय और इ य के संयोगसे होनेवाला यह णक सुख य प व ुत: सब कारसे दुःख प ही है, तथा प जैसे रोगी मनु आस के कारण ादके लोभसे प रणामका वचार न करके कु प का सेवन करता है और प रणामम रोग बढ़ जानेसे दुःखी होता है या मृ ु हो जाती है; अथवा जैसे पतंग ने के वषय पम आस होनेके कारण य पूवक सुखबु से दीपकक लौके साथ टकरानेम सुख मानता है क ु प रणामम जलकर क -भोग करता है और मर जाता है – उसी कार वषयास मनु भी मूखता और आस वश प रणामका वचार न करके सुख-बु से वषय का सेवन करता है और प रणामम अनेक कारसे भाँ त-भाँतीके भीषण दुःख भोगता है। – वह सुख राजस कहा गया है, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क उपयु ल ण वाला जो ती तमा का णक सुख है, वह वषयास से ही सुख प तीत होता है और आस रजोगुणका प है अत: वह राजस है और आस के ारा मनु को बाँधनेवाला है (१४।७)। इस लये क ाण चाहनेवालेको ऐसे सुखम नह फँ सना चा हये । स

–अब तामस सुखका ल

ण बतलाते ह –

यद े चानुब े च सुखं मोहनमा नः । न ाल मादो ं त ामसमुदा तम् ॥३९॥

जो सुख भोगकालम तथा प रणामम भी आ ाको मो हत करनेवाला है – वह न ा, आल और मादसे उ सुख तामस कहा गया है॥३९॥

न ा, आल और मादज नत सुख कौन-सा है और वह भोगकालम तथा प रणामम आ ाको मो हत करनेवाला कै से हे? उ र – न ाके समय मन और इ य क या बंद हो जानेके कारण थकावटसे होनेवाले दुःखका अभाव होनेसे तथा मन और इ य को व ाम मलनेसे जो सुखक ती त होती है उसे न ाज नत सुख कहते ह। वह सुख जतनी देर-तक –

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न ा रहती है उतनी ही देरतक रहता है, नर र नह रहता – इस कारण णक है। इसके अ त र उस समय मन, बु और इ य म काशका अभाव हो जाता है, कसी भी व ुका अनुभव करनेक श नह रहती। इस कारण वह सुख भोगकालम आ ाको यानी अ ःकरण और इ य को तथा इनके अ भमानी पु षको मो हत करनेवाला है। और इस सुखक आस के कारण प रणामम मनु को अ ानमय वृ , पहाड़ आ द जड यो नय म ज हण करना पड़ता है, अतएव यह प रणामम भी आ ाको मो हत करनेवाला है। इसी तरह सम या का ाग करके पड़े रहनेके समय जो मन, इ य और शरीरके प र मका ाग कर देनेसे आरामक ती त होती है, वह आल ज नत सुख है। वह भी न ाज नत सुखक भाँ त मन, इ य म ानके काशका अभाव करके भोगकालम उन सबको मो हत करनेवाला है तथा मोह और आस के कारण जड यो नय म गरानेवाला होनेसे प रणामम भी मो हत करनेवाला है। मन बहलानेके लये आस वश क जानेवाली थ या का और अ ानवश कत -कम क अवहेलना करके उनके ाग कर देनेका नाम माद है। थ या के करनेम मनक स ताके कारण और कत का ाग करनेम प र मसे बचनेके कारण मूखतावश जो सुखक ती त होती है, वह मादज नत सुख है। जस समय मनु कसी कार मन बहलानेक थ याम संल हो जाता है, उस समय उसे कत -अकत का कु छ भी ान नह रहता, उसक ववेकश मोहसे ढक जाती है। और ववेकश के आ ा दत हो जानेसे ही कत क अवहेलना होती है। इस कारण यह मादज नत सुख भोगकालम आ ाको मो हत करनेवाला है। और उपयु थ कम म अ ान और आस वश होनेवाले झूठ, कपट, हसा आ द पापकम का और कत -कम के ागका फल भोगनेके लये ऐसा करनेवाल को शूकर-कू कर आ द नीच यो नय क और नरक क ा होती है; इससे यह प रणामम भी आ ाको मो हत करनेवाला है। – वह सुख तामस है, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क न ा, माद और आल – ये तीन ही तमोगुणके काय है (१४।१७); अतएव इनसे उ होनेवाला सुख तामस सुख है। और इन न ा, आल और माद आ दम सुखबु करवाकर ही यह तमोगुण मनु को बाँधता है (१४।८), इस लये क ाण चाहनेवाले मनु को इस णक, मोहकारक और ती तमा के तामस सुखम नह फँ सना चा हये।

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इस कार अठारहव ोकसे व णत मु -मु पदाथ के सा क राजस और तामस – ऐसे तीन-तीन भेद बतलाकर अब इस करणका उपसंहार करते ए भगवान् सृ के सम पदाथ को तीन गुणासे यु बतलाते ह – स



न तद पृ थ ां वा द व देवेषु वा पुनः । स ं कृ तजैमु ं यदे भः ाि भगुणैः ॥४०॥

पृ ीम या आकाशम अथवा देवता म तथा इनके सवा और कह भी ऐसा कोई भी स नह है, जो कृ तसे उ इन तीन गुण से र हत हो॥४०॥

यहाँ 'पृ थ ाम् ', ' द व ' और 'देवेषु ' पद अलग-अलग कनकनके वाचक ह तथा  'पुन: ' पदके योगका ा भाव है? उ र – 'पृ थ ाम् ' पद पृ ीलोकका, उसके अंदरके सम पाताला द लोक का और उन लोक म त सम ावर-जंगम ा णय तथा पदाथ का वाचक है। ' द व ' पद पृ ीसे ऊपर अ र लोकका तथा उसम त सम ा णय और पदाथ का वाचक है। एवं 'देवेषु ' पद सम देवता का और उनके भ - भ सम लोक का तथा उनसे स रखनेवाले सम पदाथ का वाचक है। इनके सवा और भी सम सृ म जो कु छ भी व ु या जो कोई ाणी ह, उन सबका हण करनेके लये 'पुन: ' पदका योग कया गया है। –  'स म ' पद कसका वाचक है और ऐसा कोई भी स नह है जो कृ तसे उ इन तीन गुण से र हत हो, इस कथनका ा भाव है? उ र – 'स म' पद यहाँ व ुमा का यानी सब कारके ा णय का और सम पदाथ का वाचक है तथा 'ऐसा कोई भी स नह है जो कृ तसे उ इन तीन गुण से र हत हो' इस कथनसे यह भाव दखलाया गया है क स ूण पदाथ कृ तज नत स , रज और तम – इन तीन गुण के काय है तथा कृ तज नत गुण के स से ही ा णय का नाना यो नय म ज होता है (१३।२१)। इस लये पृ ीलोक, अ र लोक तथा देवलोकके एवं अ सब लोक के ा णय एवं पदाथ म कोई भी पदाथ या ाणी ऐसा नही है, जो इन तीन गुण से र हत व अतीत हो। क सम जडवग तो गुण का काय होनेसे गुणमय है ही; और सम ा णय का उन गुण से और गुण के काय प पदाथ से स है, इससे ये सब भी तीन गुण से यु ही ह। –





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– सृ

के अंदर गुणातीत पु ष भी तो ह, फर यह बात कै से कही क कोई भी ाणी गुण से र हत नह है? उ र – य प लोक से गुणातीत पु ष सृ के अंदर ह, परंतु वा वम उनक म न तो सृ है और न सृ के या शरीरके अंदर उनक त ही है; वे तो परमा ाम ही अ भ भावसे न त ह। अत: परमा प ही ह। अतएव उनक गणना साधारण ा णय म नह क जा सकती। उनके मन, बु और इ य आ दके संघात प शरीरको – जो क सबके है – लेकर य द उ ाणी कहा जाय तो आप नह है; क वह संघात तो गुण का ही काय है, अतएव उसे गुण से अतीत कै से कहा जा सकता है। इस लये यह कहनेम कु छ भी आप नह है क सृ के अंदर कोई भी ाणी या पदाथ तीन गुण से र हत नह है। – इस अ

ायके पहले ोकम अजुनने सं ास और ागका त अलग-अलग जाननेक इ ा कट क थी, अत: दोन का त समझानेके लये पहले इस वषयपर व ान क स त बतलाकर चौथेसे बारहव ोकतक अपने मतके अनुसार ाग और ागीके ल ण बतलाये। तदन र तेरहवसे स हव ोकतक स ास (सां )-के पका न पण करके सं ासम सहायक स गुणका हण और उसके वरोधी रज एवं तमका ाग करानेके उदे से अठारहवसे चालीसव ोकतक गुण के अनुसार ान, कम और कता आ द मु मु पदाथ के भेद समझाये और अ म सम सृ को गुण से यु बतलाकर उस वषयका उपसंहार कया। वह ागका प बतलाते समय यह बात कही थी क नयत कमका पसे ाग उ चत नह है (१८।७) अ पतु नयत कम को आस और फलके ागपूवक करते रहना ही वा वक ाग है (१८।९), कतु वहाँ यह बात नह बतलायी क कसके लये कौन-सा कम नयत है। अतएव अब सं ेपम नयत कम का प, ागके नामसे व णत कमयोगम भ का सहयोग और उसका फल परम स क ा बतलानेके लये पुन: उसी ाग प कमयोगका करण आर करते ए ा ण य वै और शू के ाभा वक नयत कम बतलानेक ावना करते ह – स



ा ण य वशां शू ाणां च पर प । कमा ण वभ ा न भाव भवैगुणैः ॥४१॥ ं













हे परंतप! ा ण, य और वै के तथा शू के कम गुण के ारा वभ कये गये ह॥४१॥

य वशाम् ' इस पदम ा ण, य और वै तीन श का समास करनेका तथा 'शू ाणाम् ' पदसे शू को अलग करके ा अ भ ाय है? –' ा ण

भावसे – इन

कहनेका

उ र – ा ण, य और वै – ये तीन ही ज ह । तीन का ही य ोपवीतधारणपूवक वेदा यनम और य ा द वै दक कम म अ धकार है; इसी हेतुसे ा ण, य ओर वै – इन तीन श का समास कया गया है। शू ज नह ह, अतएव उनका य ोपवीतधारणम तथा वेदा यनम और य ा द वै दक कम म अ धकार नह है – यह भाव दखलानेके लये 'शू ाणाम् ' पदसे उनको अलग कहा गया है। – 'गुण:ै ' पदके साथ ' भाव भवैः ' वशेषण देनेका ा भाव है और उन गुण के ारा उपयु चार वण के कम का वभाग कया गया है, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – ा णय ज -ज ा र म कये ए कम के जो सं ार ह, उनका नाम भाव है; उस भावके अनु प ही ा णय के अ ःकरणम स , रज और तम – इन तीन गुण क वृ याँ उ होती ह, यह भाव दखलानेके लये 'गुण:ै ' पदके साथ ' भाव भवैः ' वशेषण दया गया है। तथा गुण के ारा चार वण के कम का वभाग कया गया है, इस कथनका यह भाव है क उन गुणवृ य के अनुसार ही ा ण आ द वण म मनु उ होते ह; इस कारण उन गुण क अपे ासे ही शा म चार वण के कम का वभाग कया गया है। जसके भावम के वल स गुण अ धक होता है वह ा ण होता है; इस कारण उसके ाभा वक कम शम-दमा द बतलाये गये ह। जसके भावम स म त रजोगुण अ धक होता है, वह य होता है; इस कारण उसके ाभा वक कम शूरवीरता, तेज आ द बतलाये गये ह। जसके भावम तमो म त रजोगुण अ धक होता है, वह वै होता है; इस लये उसके ाभा वक कम कृ ष, गोर ा आ द बतलाये गये ह और जसके भावम रजो म त तमोगुण धान होता है, वह शू होता है; इस कारण उसका ाभा वक कम तीन वण क सेवा करना बतलाया गया है। यही बात चौथे अ ायके तेरहव ोकक ा ाम व ारपूवक समझायी गयी है। ो









पूव ोकम क ई ाभा वक कम बतलाते ह – स



ावनाके अनुसार पहले ा णके

शमो दम पः शौचं ा राजवमेव च । ानं व ानमा ं कम भावजम् ॥४२॥

अ ःकरणका न ह करना; इ य का दमन करना; धमपालनके लये क सहना; बाहर-भीतरसे शु रहना, दस ू र के अपराध को मा करना; मन, इ य और शरीरको सरल रखना; वेद, शा , ई र और परलोक आ दम ा रखना; वेद-शा का अ यन-अ ापन करना और परमा ाके त का अनुभव करना – ये सब-के-सब ही ा णके ाभा वक कम ह॥४२॥ – 'शम'

कसको कहते ह? उ र – अ ःकरणको अपने वशम करके उसे व ेपरीहत-शा बना लेना तथा सांसा रक वषय के च नका ाग कर देना 'शम' है॥ – 'दम' कसको कहते ह? उ र – सम इ य को वशम कर लेना तथा वशम क ई इ य को बा वषय से हटाकर परमा ाक ा के साधन म लगाना 'दम' है । –  'तप' का यहाँ ा अथ समझना चा हये? उ र – धमपालनके लये क सहन करना – अथात् अ हसा द महा त का पालन करना, भोग-साम य का ाग करके सादगीसे रहना, एकादशी आ द त-उपवास करना और वनम नवास करना – ये सबव 'तप' के अ गत ह। – 'शौच' कसको कहते ह? उ र – सोलहव अ ायके तीसरे ोकम  'शौच' क ा ाम बाहरक शु बतलायी गयी है और पहले ोकम स शु के नामसे अ ःकरणक शु बतलायी गयी है; उन दोन का नाम यहाँ 'शौच' है। तेरहव अ ायके सातव ोकम भी इसी शु का वणन है। अ भ ाय यह है क मन, इ य और शरीरको तथा उनके ारा क जानेवाली या को प व रखना, उनम कसी कारक अशु को वेश न होने देना ही 'शौच' है। – ' ा ' कसको कहते ह? े





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उ र – दूसर के ारा कये ए अपराध को मा कर देनेका नाम ा है; दसव अ ायके चौथे ोकक ा ाम माके नामसे और तेरहव अ ायके सातव ोकक ा ाम ा के नामसे इस भावको भलीभाँ त समझाया गया है। – 'आजवम् ' ा है? उ र – मन, इ य और शरीरको सरल रखना अथात् मनम कसी कारका दुरा ह और ठ नह रखना; जैसा मनका भाव हो, वैसा ही इ य ारा कट करना; इसके अ त र शरीरम भी कसी कारक ठ नह रखना – यह सब आजवके अ गत है। – 'आ म् ' पदका ा अथ है? उ र –  'आ म् ' पद आ कताका वाचक है। वेद, शा , ई र और परलोक – इन सबक स ाम पूण व ास रखना; वेद-शा के और महा ा के वचन को यथाथ मानना, और धमपालनम ढ़ व ास रखना – ये सब आ कताके ल ण ह। –  ' ान' कसको कहते ह? उ र – वेद-शा के ापूवक अ यन-अ ापन करनेका और उनम व णत उपदेशको भलीभाँती समझनेका नाम यहाँ ' ान' है। – ' व ानम् ' पद कसका वाचक है? उ र – वेद-शा म बतलाये ए और महापु ष से सुने ए साधन ारा परमा ाके पका सा ा ार कर लेनेका नाम यहाँ ' व ान' है। – ये सब ा णके ाभा वक कम ह, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क ा णम के वल स गुणक धानता होती है, इस कारण उपयु कम म उसक ाभा वक वृ होती है; उसका भाव उपयु कम के अनुकूल होता है, इस कारण उपयु कम के करनेम उसे कसी कारक क ठनता नह होती। इन कम म ब त-से सामा धम का भी वणन आ है। इससे यह समझना चा हये क य आ द अ वण के वे ाभा वक कम तो नह ह; पर ु परमा ाक ा म सबका अ धकार है, अतएव उनके लये वे य सा कत -कम ह । ो े औ ो [97]

मनु ृ तम तो ा णके कम यं अ यन करना और दूसर को अ यं य करना और दूसर को य कराना तथा यं दान लेना और दूसर को दान देना – इस कार छ: बतलाये गये ह , और यहाँ शम, दम आ द ाय: सामा धम को ही ा ण के कम बतलाया गया है। इसका ा अ भ ाय है? उ र – यहाँ बतलाये ए कम के वल सा क ह; इस कारण ा णके भावसे इनका वशेष स है; इसी लये ा णके ाभा वक कम म इनक ही गणना क गयी है, अ धक व ार नह कया गया । इनके सवा जो मनु ृ त आ दम अ धक बतलाये गये ह, उनको भी इनके साथ समझ लेना चा हये। – यन कराना,

[98]

इस कार ा ण के ाभा वक कम बतलाकर अब ाभा वक कम बतलाते ह – स



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शौय तेजो धृ तदा ं यु े चा पलायनम् । दानमी रभाव ा ं कम भावजम् ॥४३॥

शूरवीरता, तेज, धैय, चतुरता और यु म न भागना, दान देना और ा मभाव – ये सब-के-सब ही यके ाभा वक कम ह॥४३॥ –  'शूरवीरता'

कसको कहते ह? उ र – बड़े-से-बड़े बलवान् श ुका ाय-यु सामना करनेम भय न करना तथा ाययु यु करनेके लये सदा ही उ ा हत रहना और यु के समय साहसपूवक ग ीरतासे लड़ते रहना 'शूरवीरता' है। भी पतामहका जीवन इसका लंत उदाहरण है । –  'तेज' कसका नाम है? उ र – जस श के भावसे मनु दूसर का दबाव मानकर कसी भी कत पालनसे कभी वमुख नह होता; और दूसरे लोग ायके और उसके तकू ल वहार करनेम डरते रहते ह, उस श का नाम तेज है। इसीको ताप और भाव भी कहते ह। – 'धैय' कसको कहते ह? [99]

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उ र – बड़े-से-बड़ा संकट उप त हो जानेपर – यु लम शरीरपर भारीसे-भारी चोट लग जानेपर, अपने पु -पौ ा दके मर जानेपर, सव का नाश हो जानेपर या इसी तरह अ कसी कारक भारी-से-भारी वप आ पड़नेपर भी ाकु ल न होना और अपने कत पालनसे कभी वच लत न होकर ायानुकूल कत पालनम संल रहना –  इसीका नाम 'धैय' है। – 'चतुरता' ा है? उ र – पर र झगड़ा करनेवाल का ाय करनेम, अपने कत का नणय और पालन करनेम, यु करनेम तथा म , वैरी और म के साथ यथायो वहार करने आ दम जो कु शलता है उसीका नाम 'चतुरता' है। – यु म न भागना कसको कहते ह? उ र – यु करते समय भारी-से-भारी संकट आ पड़नेपर भी पीठ न दखलाना, हर हालतम ायपूवक सामना करके अपनी श का योग करते रहना और ाण क परवा न करके यु म डटे रहना ही 'यु म न भागना' है। इसी धमको ानम रखते ए वीर बालक अ भम ुने छ: महार थय से अके ले यु करके ाण दे दये, क ु श नह छोड़े (महा०, ोण० ४९।२२)। आधु नक कालम भी राज ानके इ तहासम ऐसे अनेक उदाहरण मलते ह जनम वीर राजपूत ने यु म हार जानेपर भी श ुको पीठ नह दखायी और अके ले सैकड़ -हजार सै नक से जूझकर ाण दे दये। – दान देना ा है? उ र – अपने को उदारतापूवक यथाव क यो पा को देते रहना दान देना है (१७।२०)। – 'ई रभाव' कसको कहते ह? उ र – शासनके ारा लोग को अ ायाचरणसे रोककर सदाचारम वृ करना, दुराचा रय को द देना, लोग से अपनी आ ाका ाययु पालन करवाना तथा सम जाका हत सोचकर नः ाथभावसे ेमपूवक पु क भाँ त उसक र ा और पालन-पोषण करना – यह ई रभाव है। – ये सब य के ाभा वक कम ह,  इस कथनका ा भाव है? े





उ र – इससे यह भाव दखलाया है क य के भावम स म त रजोगुणक धानता होती है; इस कारण उपयु कम म उनक ाभा वक वृ होती है, इनका पालन करनेम उ कसी कारक क ठनाई नह होती। इन कम म भी जो धृ त, दान आ द सामा धम ह, उनम सबका अ धकार होनेके कारण वे अ वणवाल के लये अधम या परधम नह ह, क ु ये उनके ाभा वक कम नह है, इसी कारण ये उनके लये य सा ह। – मनु ृ तम तो जाक र ा करना, दान देना, य करना, वेद का अ यन करना और वषय म आस न होना – ये य के कम सं ेपसे बतलाये गये ह और यहाँ ाय: दूसरे ही बतलाये गये ह; इसका ा अ भ ाय है? उ र – यहाँ य के भावसे वशेष स रखनेवाले कम का वणन है; अत: मनु ृ तम बतलाये ए कम से य के भावसे वशेष स रखनेवाले जापालन और दान – इन दो कम को तो यहाँ ले लया गया है, क ु उनके अ कत -कम का यहाँ व ारपूवक वणन नह कया गया। इस लये इनके सवा जो अ ा कम य के लये दूसरी जगह कत बतलाये गये ह उनको भी इनके साथ ही समझ लेना चा हये। [100]

कार य के ाभा वक कम का वणन करके अब वै और शू के ाभा वक कम बतलाते ह – स

– इस

कृ षगौर वा ण ं वै कम भावजम् । प रचया कं कम शू ा प भावजम् ॥४४॥

खेती, गोपालन और य- व य प स वहार – ये वै के ाभा वक कम ह। तथा सब वण क सेवा करना शू का भी ाभा वक कम है॥४४॥ –  'कृ

ष' यानी खेती करना ा है? उ र – ायानुकूल जमीनम बीज बोकर गे ँ , जौ, चने, मूँग, धान, म , उड़द, ह ी, ध नयाँ आ द सम खा पदाथ को, कपास और नाना कारक ओष धय को और इसी कार देवता, मनु और पशु आ दके उपयोगम आनेवाली अ प व व ु को उ करनेका नाम 'कृ ष' यानी खेती करना है। –  'गौर ' यानी 'गोपालन' कसको कहते ह? ो ँ ौ ो े ो

उ र – न आ द 'गोप ' क भाँ त गौ को अपने घरम रखना; उनको जंगलम चराना, घरम भी यथाव क चारा देना, जल पलाना तथा ा आ द हसक जीव से उनको बचाना; उनसे दूध, दही, घृत आ द पदाथ को उ करके उन पदाथ से लोग क आव कता को पूण करना और उसके प रवतनम ा धनसे अपनी गृह ीके स हत उन गौ का भलीभाँ त ायपूवक नवाह करना 'गौर ' यानी गोपालन है। पशु म 'गौ' धान है तथा मनु मा के लये सबसे अ धक उपकारी पशु भी 'गौ' ही है; इस लये भगवान्ने यहाँ 'पशुपालनम् ' पदका योग न करके उसके बदलेम 'गौर ' पदका योग कया है। अतएव यह समझना चा हये क मनु के उपयोगी भस, ऊँ ट, घोड़े और हाथी आ द अ ा पशु का पालन करना भी वै का कम है; अव ही गोपालन उन सबक अपे ा अ धक मह पूण कत है। – वा ण यानी य- व य प स वहार ा है? उ र – मनु के और देवता, पशु, प ी आ द अ सम ा णय के उपयोगम आनेवाली सम प व व ु को धमानुकूल खरीदना और बेचना तथा आव कतानुसार उनको एक ानसे दूसरे ानम प ँ चाकर लोग क आव कता को पूण करना वा ण यानी य- व य प वहार है। वा ण करते समय व ु के खरीदने-बेचनेम तौल-नाप और गनती आ दसे कम दे देना या अ धक ले लेना; व ुको बदलकर या एक व ुम दूसरी व ु मलाकर अ ीके बदले खराब दे देना या खराबके बदले अ ी ले लेना; नफा, आढ़त और दलाली आ द ठहराकर उससे अ धक लेना या कम देना; इसी तरह कसी भी ापारम झूठ, कपट, चोरी और जबरद ीका या अ कसी कारके अ ायका योग करके दूसरीके को हड़प लेना – ये सब वा ण के दोष ह। इन सब दोष से र हत जो स और ाययु प व व ु का खरीदना और बेचना है, वही य- व य प स वहार है। तुलाधारने इस वहारसे ही स ा क थी। – ये वै के ाभा वक कम ह, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह दखलाया गया है क वै के भावम तमो म त रजोगुण धान होता है, इस कारण उसक उपयु कम म ाभा वक वृ हो जाती है। उसका भाव उपयु कम के अनुकूल होता है, अतएव इनके करनेम उसे कसी कारक क ठनता नह मालूम होती। [101]







मनु ृ तम तो उपयु कम के सवा य , अ यन और दान तथा ाज लेना – ये चार कम वै के लये अ धक बतलाये गये ह; यहाँ उनका वणन नह कया गया? उ र – यहाँ वै के भावसे वशेष स रखनेवाले कम का वणन है; य ा द शुभकम जमा के कम ह अत: उनको उसके ाभा वक कम म नह बतलाया है और ाज लेना वै के कम म अ कम क अपे ा नीचा माना गया है, इस कारण उसक भी ाभा वक कम म गणना नह क गयी है। इनके सवा शमदमा द और भी जो मु के साधन ह, उनम सबका अ धकार होनेके कारण वे वै के धमसे अलग नह ह; क ु उनम वै क ाभा वक वृ नह होती, इस कारण उसके ाभा वक कम म उनक गणना नह क गयी है। – 'प रचया कम् ' यानी सब वण क सेवा करना कसको कहते ह? उ र – उपयु जा त वण क अथात् ा ण, य और वै क दासवृ से रहना; उनक आ ा का पालन करना; घरम जल भर देना, ान करा देना, उनके जीवन- नवाहके काय म सु वधा कर देना, दै नक कायम यथायो सहायता करना, उनके पशु का पालन करना, उनक व ु को सँभालकर रखना, कपड़े साफ करना, ौरकम करना अ द जतने भी सेवाके काय ह, उन सबको करके उनको स ु रखना; अथवा सबके कामम आनेवाली व ु को कारीगरीके ारा तैयार करके उन व ु से उनक सेवा करके अपनी जी वका चलाना – ये सब 'प रचया कम् ' यानी सब वण क सेवा करना प कमके अ गत ह। – यह शू का भी ाभा वक कम है, इस कथनका ा भाव है तथा यहाँ 'अ प ' पदका योग कस लये कया गया है? उ र – शू के भावम रजो म त तमोगुण धान होता है, इस कारण उपयु सेवाके काय म उसक ाभा वक वृ हो जाती है। ये कम उसके भावके अनुकूल पड़ते ह, अतएव इनके करनेम उसे कसी कारक क ठनताका बोध नह होता। यहाँ 'अ प ' का योग करके भगवान्ने यह भाव दखलाया है क जैसे दूसरे वण के लये उनके अनु प अ कम ाभा वक ह; इसी तरह शू के लये भी सेवा प कम ाभा वक है; साथ ही यह भाव भी दखलाया है क शू का के वल एक सेवा प कम ही कत है और वही उसके लये ाभा वक है, अतएव उसके लये इसका पालन करना ब त ही सरल है। े े –

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इस कार चार वण के ाभा वक कम का वणन करके अब भ यु कमयोगका प और फल बतलानेके लये उन कम का कस कार आचरण करनेसे मनु अनायास परम स को ा कर लेता है – यह बात दो ोक म बतलाते ह – स



े े कम भरतः सं स लभते नरः । कम नरतः स यथा व त त ृ णु ॥४५॥

अपने-अपने ाभा वक कम म त रतासे लगा आ मनु भगव ा प परम स को ा हो जाता है। अपने ाभा वक कमम लगा आ मनु जस कारसे कम करके परम स को ा होता है, उस व धको तू सुन॥४५॥ – इस वा म ' े ' पदका दो बार योग करके गया है? तथा  'सं स म् ' पद कस स का वाचक है?

ा भाव दखलाया

उ र – यहाँ ' े ' पदका दो बार योग करके भगवान्ने यह दखलाया है क जस मनु का जो ाभा वक कम है उसीका अनु ान करनेसे उसे परमपदक ा हो जाती है। अथात् ा णको अपने शम-दमा द कम से, यको शूरवीरता, जापालन और दाना द कम से और वै को कृ ष आ द कम से जो फल मलता है, वही शू को सेवाके कम से मल जाता है । इस लये जसका जो ाभा वक कम है, उसके लये वही परम क ाण द है; क ाणके लये एक वणको दूसरे वणके कम के हण करनेक ज रत नह है। 'सं स म् ' पद यहाँ अ ःकरणक शु प स का या ग ा का अथवा अ णमा द स य का वाचक नह है; यह उस परम- स का वाचक है, जसे परमा ाक ा , परमग तक ा , शा त पदक ा , परमपदक ा और नवाण क ा कहते ह। इसके सवा ा णके ाभा वक कम म ान और व ान भी है, अत: उनका फल परम- ग तके सवा दूसरा मानना बन भी नह सकता। – यहाँ 'नर: ' पद कसका वाचक है और उसका योग करके 'अपनेअपने कमम लगा आ मनु परम स को ा हो जाता है' यह कहनेका ा भाव है? उ र – यहाँ 'नर: ' पद चार वण मसे ेक वणके ेक मनु का वाचक है; अतएव इसका योग करके 'अपने-अपने कम म लगा आ मनु परम ो









स को ा हो जाता है' – इस कथनसे मनु मा का मो - ा म अ धकार दखलाया गया है । साथ ही यह भाव भी दखलाया गया है क परमा ाक ा के लये कत कम का पसे ाग करनेक आव कता नह है, परमा ाको ल बनाकर सदा-सवदा वणा मो चत कम करते-करते ही मनु परमा ाको ा हो सकता है (१८।५६)। – अपने ाभा वक कम म लगा आ मनु जस कारसे कम करता आ परम स को ा होता है, उस व धको तू सुन – इस वा का ा भाव हे? उ र – पूवा म यह बात कही गयी क अपने-अपने कम म लगा आ मनु परम स को पा लेता है; इसपर यह शंका होती है क कम तो मनु को बाँधनेवाले ह, उनम त रतासे लगा आ मनु परम स को कै से पाता है। अत: उसका समाधान करनेके लये भगवान्ने यह वा कहा है। अ भ ाय यह है क उन कम म लगे रहकर परमपदको ा कर लेनेका उपाय म तु अगले ोकम बतलाता ँ , तुम सावधानीके साथ उसे सुनो।

यतः वृ भूतानां येन सव मदं ततम् । कमणा तम स व त मानवः ॥४६॥

जस परमे रसे स ूण ा णय क उ ई है और जससे यह सम जगत् ा है, उस परमे रक अपने ाभा वक कम ारा पूजा करके मनु परम स को ा हो जाता है॥४६॥

जस परमे रसे स ूण ा णय क उ ई है और जससे यह सम जगत् ा है, इस कथनका ा भाव है? उ र – अपने-अपने कम ारा भगवान्क पूजा करनेक व ध बतलानेके लये पहले इस कथनके ारा भगवान्के गुण, भाव और श के स हत उनके सव ापी पका ल कराया गया है। अ भ ाय यह है क मनु को अपने ेक कत -कमका पालन करते समय इस बातका ान रहना चा हये क स ूण चराचर ा णय के स हत यह सम व भगवान्से ही उ आ है और भगवान्से ही ा है अथात् भगवान् ही अपनी योगमायासे जगत्के पम कट ए ह। इस लये यह जगत् उ का प है। यह सम व भगवान्से कस कार ा है, यह बात नव अ ायके चौथे ोकक ा ाम समझायी गयी है । – अपने ाभा वक कम ारा उस परमे रक पूजा करना ा है? औ े े –

उ र – भगवान् इस जगत्क उ , त और संहार करनेवाले, सवश मान्, सवाधार, सबके ेरक, सबके आ ा, सवा यामी और सव ापी ह; यह सारा जगत् उ क रचना है और वे यं ही अपनी योगमायासे जगत्के पम कट ए ह, अतएव यह स ूण जगत् भगवान्का है; मेरे शरीर, इ य, मन, बु तथा मेरे ारा जो कु छ भी य , दान आ द वण चत कम कये जाते ह – वे सब भी भगवान्के ह और म यं भी भगवान्का ही ँ ; सम देवता के एवं अ ा णय के आ ा होनेके कारण वे ही सम कम के भो ा ह (५।२९) – परम ा और व ासके साथ इस कार समझकर सम कम म ममता, आस और फले ाका सवथा ाग करके भगवान्के आ ानुसार उ क स ताके लये अपने ाभा वक कम ारा जो सम जगत्क सेवा करना ह – अथात् सम ा णय को सुख प ँ चानेके लये उपयु कारसे ाथका ाग करके जो अपने कत का पालन करना है, यही अपने ाभा वक कम ारा परमे रक पूजा करना है। – उपयु कारसे अपने कम ारा भगवान्क पूजा करके मनु परम स को ा हो जाता है, इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे यह भाव दखलाया गया है क ेक मनु , चाहे वह कसी भी वण या आ मम त हो, अपने कम से भगवान्क पूजा करके परम स प परमा ाको ा कर सकता है; परमा ाको ा करनेम सबका समान अ धकार है। अपने शम, दम आ द कम को उपयु कारसे भगवान्के समपण करके उनके ारा भगवान्क पूजा करनेवाला ा ण जस पदको ा होता है, अपने शूरवीरता आ द कम के ारा भगवान्क पूजा करनेवाला य भी उसी पदको ा होता है; उसी कार अपने कृ ष आ द कम ारा भगवान्क पूजा करनेवाला वै तथा अपने सेवा-स ी कम ारा भगवान्क पूजा करनेवाला शू भी उसी परमपदको ा होता है। अतएव कमब नसे छू टकर परमा ाको ा करनेका यह ब त ही सुगम माग है। इस लये मनु को उपयु भावसे अपने कत -पालन ारा परमे रक पूजा करनेका अ ास करना चा हये। पूव ोकम यह बात कही गयी क मनु अपने ाभा वक कम ारा परमे रक पूजा करके परम स को पा लेता है; इसपर यह शंका होती है क य द कोई य अपने यु ा द ू र कम को न करके ा ण क भाँ त अ ापनआ द शा मय कम से अपना नवाह करके परमा ाको ा करनेक े े ी ोई ै े ो े े ी स



चे ा करे या इसी तरह कोई वै या शू अपने कम को उ वण के कम से हीन समझकर उनका ाग कर दे और अपनेसे ऊँ चे वणक वृ से अपना नवाह करके परमा ाको ा करनेका य करे तो उ चत है या नह ? इसपर दूसरेके धमक अपे ा धमको े बतलाकर उसके ागका नषेध करते ह –

ये ा धम वगुणः परधमा नु तात् । भाव नयतं कम कु व ा ो त क षम् ॥४७॥



ी कार आचरण कये ए दस ू रेके धमसे गुणर हत भी अपना धम े है, क भावसे नयत कये ए धम प कमको करता ा मनु पापको नह ा होता॥४७॥

वशेषणके स हत 'परधमात् ' पद कसका वाचक है और उससे गुणर हत धमको े बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – जस धमका अनु ान सांगोपांग कया जाय, उसको 'सु-अनु त' कहते ह। पर ु इस ोकम धमके साथ वगुण वशेषण दया गया है, अत: परधमके साथ गुण-स वशेषणका अ ाहार करके यहाँ यह भाव समझना चा हये क जो कम गुणयु ह और जनका अनु ान भी पूणतया कया गया हो, क ु वे अनु ान करनेवालेके लये व हत न ह , दूसर के लये ही व हत ह – वैसे कम का वाचक यहाँ ' नु तात् ' वशेषणके स हत 'परधमात् ' पद है। वै और य आ दक अपे ा ा णके वशेष धम म अ हसा द सदगु् ण क अ धकता है, गृह क अपे ा सं ास-आ मके धम म सदगु् ण क ब लता है, इसी कार शू क अपे ा वै और यके कम गुणयु ह, अतएव उपयु उस परधमक अपे ा गुणर हत धमको े बतलाकर यह भाव दखलाया गया है क जैसे देखनेम कु प और गुणर हत होनेपर भी ीके लये अपने प तका सेवन करना ही क ाण द है – उसी कार देखनेम गुण से हीन होनेपर भी तथा उसके अनु ानम अंगवैगु हो जानेपर भी जसके लये जो कम व हत है, वही उसके लये क ाण द है। – ' धम: ' पद कसका वाचक है? उ र – वण, आ म, भाव और प र तक अपे ासे जस मनु के लये जो कम व हत है, उसके लये वही धम है। अ भ ाय यह है क झूठ, कपट, चोरी, हसा, ठगी, भचार आ द न ष कम तो कसीके भी धम नह ह, और – ' नु तात् '



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का कम भी कसीके लये अव कत नह ह। इस कारण उनक गणना यहाँ कसीके धम म नह है। इनको छोड़कर जस वण और आ मके जो वशेष धम बतलाये गये ह, जनम एक-से दूसरे वण-आ मवाल का अ धकार नह है – वे तो उन-उन वण-आ मवाल के अलग-अलग धम ह और जन कम म जमा का अ धकार बतलाया गया है, वे वेदा यन और य ा द कम ज के लये धम ह। तथा जनम सभी वणा म के ी-पु ष का अ धकार है, वे ई र-भ , स भाषण, माता- पताक सेवा, इ य का संयम, चयपालन और वनय आ द सामा धम सबके धम ह। – ' धम: ' के साथ ' वगुण: ' वशेषण देनेका ा अ भ ाय है? उ र – ' वगुण: ' पद गुण क कमीका ोतक है। यका धम यु करना और दु को द देना आ द है; उसम अ हसा और शा आ द गुण क कमी मालूम होती है। इसी तरह वै के 'कृ ष' आ द कम म भी हसा आ द दोष क ब लता है, इस कारण ा ण के शा मय कम क अपे ा वे भी वगुण यानी गुणहीन ह एवं शू के कम तो वै और य क अपे ा भी न ेणीके ह। इसके सवा उन कम के पालनम कसी अंगका छू ट जाना भी गुणक कमी है। उपयु कारसे धमम गुण क कमी रहनेपर भी वह परधमक अपे ा े है, यही भाव दखलानेके लये ' धम: ' के साथ ' वगुण: ' वशेषण दया गया है। – ' भाव नयतम् ' वशेषणके स हत 'कम ' पद कसका वाचक है और उसको करता आ मनु पापको नह ा होता, इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – जस वण और आ मम त मनु के लये उसके भावके अनुसार जो कम शा ारा व हत ह, वे ही उसके लये ' भाव नयत' कम है। अत: उपयु धमका ही वाचक यहाँ ' भाव नयतम् ' वशेषणके स हत 'कम ' पद है। उन कम को करता आ मनु पापको नह ा होता – इस कथनका यहाँ यह भाव है क उन कम का ायपूवक आचरण करते समय उनम जो आनुषं गक हसा द पाप बन जाते ह, वे उसको नह लगते, और दूसरेका धम पालन करनेसे उसम हसा द दोष कम होनेपर भी परवृ ेदन आ द पाप लगते ह। इस लये गुणर हत होनेपर भी धम गुणयु परधमक अपे ा े है।

सहजं कम कौ ेय सदोषम प न जेत् । ोे



सवार ा ह दोषेण धूमेना रवावृताः ॥४८॥

अतएव हे कु ीपु ! दोषयु होनेपर भी सहज कमको नह ागना चा हये, क धूएँसे अ क भाँ त सभी कम कसी-न- कसी दोषसे यु ह॥ ४८॥

वशेषणके स हत 'कम ' पद कन कम का वाचक है तथा दोषयु होनेपर भी सहज कम को नह ागना चा हये, इस कथनका ा भाव है? उ र – वण, आ म, भाव और प र तक अपे ासे जसके लये जो कम बतलाये गये ह, उसके लये वे ही सहजकम ह। अतएव इस अ ायम जन कम का वणन धम, कम, नयतकम, भाव- नयतकम और भावज कमके नामसे आ है, उ का वाचक यहाँ 'सहजम् ' वशेषणके स हत 'कम ' पद है। दोषयु होनेपर भी सहज कमको नह ागना चा हये – इस वा से यह भाव दखलाया गया है क जो ाभा वक कम े गुण से यु ह , उनका ाग न करना चा हये – इसम तो कहना ही ा है; पर जनम साधारणत: हसा द दोष का म ण दीखता हो वे भी शा - व हत एवं ायो चत होनेके कारण दोषयु दीखनेपर भी वा वम दोषयु नह ह। इस लये उन कम का भी ाग नह करना चा हये, अथात् उनका आचरण करना चा हये; क उनके करनेसे मनु पापका भागी नह होता ब उलटा उनका ाग करनेसे पापका भागी हो सकता है। – ' ह ' अ यका योग करके सभी कम को धूएँसे अ क भाँ त दोषसे यु बतलानेका ा अ भ ाय है? उ र – ' ह ' पद यहाँ हेतुके अथम है, इसका योग करके सम कम को धूएँसे अ क भाँ त दोषसे यु बतलानेका यहाँ यह अ भ ाय है क जस कार धूएँसे अ ओत ोत रहती है, धूआँ अ से सवथा अलग नह हो सकता – उसी कार आर मा दोषसे ओत- ोत ह, यामा म कसी-न- कसी कारसे कसीन- कसी ाणीक हसा हो ही जाती है, क सं ास-आ मम भी शौच, ान और भ ाटना द कम ारा कसी-न- कसी अंशम ा णय क हसा होती ही है और ा णके य ा द कम म भी आर क ब लता होनेसे ु ा णय क हसा होती है। इस लये कसी भी वण-आ मके कम साधारण से सवथा दोषर हत नह ह और कम कये बना कोई रह नह सकता (३।५); इस कारण धमका ाग कर देनेपर भी कु छ-न-कु छ कम तो मनु को करना ही पड़ेगा तथा वह जो कु छ करेगा, ी ो ो ी े ी ै ो ऐ –  'सहजम् '

वही दोषयु होगा। इसी लये अमुक कम नीचा है या दोषयु ह – ऐसा समझकर मनु को धमका ाग नह करना चा हये; ब उसम ममता, आस और फले ा प दोष का ाग करके उनका ाययु आचरण करना चा हये। ऐसा करनेसे मनु का अ ःकरण शु होकर उसे शी ही परमा ाक ा हो जाती है।

अजुनक ज ासाके अनुसार ाग और सं ासके त को समझानेके लये भगवान्ने चौथेसे बारहव ोकतक ागका वषय कहा और तेरहवसे चालीसव ोकतक सं ास यानी सा ंका न पण कया, फर इकतालीसव ोकसे यहाँतक कमयोग प ागका त समझानेके लये ाभा वक कम का प और उनक अव कत ताका नदश करके तथा कमयोगम भ का सहयोग दखलाकर उसका फल भगव ा बतलाया। क ु वहाँ सं ासके करणम यह बात नह कही गयी क सं ासका ा फल होता है और कम म कतापनका अ भमान ागकर उपासनाके स हत सां योगका कस कार साधन करना क हये? अत: यहाँ उपासनाके स हत ववेक और वैरा पूवक एका म रहकर साधन करनेक व ध और उसका फल बतलानेके लये पुन: सां योगका करण आर करते हे – स



अस बु ः सव जता ा वगत ृहः । नै स परमां सं ासेना धग त ॥४९॥

सव आस र हत बु वाला, ृहार हत और जीते ए अ ःकरणवाला पु ष सां योगके ारा उस परम नै स को ा होता है॥४९॥ – 'सव अस वशेषण का अलग-अलग है?

इन तीन ा अथ है और यहाँ इनका योग कस लये कया गया बु

ः ' ' वगत ृहः ' और ' जता ा ' –

उ र – अ ःकरण और इ य के स हत शरीरम, उनके ारा कये जानेवाले कम म तथा सम भोग म और चराचर ा णय के स हत सम जगत्म जसक आस का सवथा अभाव हो गया है, जसके मन, बु क कह क च ा भी संल ता नह रहती है – वह 'सव अस बु ः ' है। जसक ृहाका सवथा अभाव हो गया है, जसको कसी भी सांसा रक व ुक क च ा भी परवा नह रही ै े े औ े े

है, उसे ' वगत ृह: ' कहते ह और जसका इ य के स हत अ ःकरण अपने वशम कया आ है, उसे ' जता ा ' कहते ह। यहाँ सं ासयोगके अ धकारीका न पण करनेके लये इन तीन वशेषण का योग कया गया ह। अ भ ाय यह है क जो उपयु तीन गुण से स होता है, वही मनु सां योगके ारा परमा ाके यथाथ ानक ा कर सकता है। – यहाँ 'सं ासेन ' पद कस साधनका वाचक है और 'परमाम् ' वशेषणके स हत  'नै स म् ' पद कस स का वाचक है तथा सं ासके ारा उसे ा होना ा है? उ र – 'सं ासेन ' पद यहाँ ानयोगका वाचक है, इसीको सां योग भी कहते ह। इसका प भगवान्ने इ ावनवसे तरपनव ोकतक बतलाया है। इस साधनका फल जो क कमब नसे सवथा छू टकर स दान घन न वकार परमा ाके यथाथ ानको ा हो जाना है, उसका वाचक यहाँ 'परमाम् ' वशेषणके स हत 'नै स म् ' पद है तथा उपयु सां योगके ारा जो परमा ाके यथाथ ानको ा कर लेना है, वह सं ासके ारा इस स को ा होना है। उपयुक ोकम यह बात कही गयी क सं ासके ारा मनु परम नै स को ा होता है; इसपर यह ज ासा होती है क उस सं ास (सां योग)- का ा प है और उसके ारा मनु कस मसे स को ा होकर को ा होता ह? अत: इन सब बात को बतलानेक ावना करते ए भगवान् अजुनको सुननेके लये सावधान करते ह – स



स ा ो यथा तथा ो त नबोध मे । समासेनैव कौ ेय न ा ान या परा ॥५०॥

जो क ानयोगक परा न ा है, उस नै स को जस कारसे ा होकर मनु को ा होता है, उस कारको हे कु ीपु ! तू सं ेपम ही मुझसे समझ॥५०॥

वशेषनके सा हत यहाँ ' न ा ' पद कसका वाचक है? उ र – जो ानयोगक अ म त है, जसको पराभ और त ान भी कहते ह, जो सम साधन क अव ध है, उसका वाचक यहाँ 'परा ' वशेषणके –  'परा '



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स हत ' न ा ' पद है। ानयोगके साधनसमुदायको ान न ा कहते ह और उन साधन के फल प त ानको ानक   'परा न ा' कहते ह। – यहाँ ' स म् ' पद कसका वाचक है? उ र – जो पूव ोकम नै स के नामसे कही गयी है। यहाँ जो ानक परा न ा बतायी गयी है तथा चावनव ोकम जसका परा भ के नामसे वणन आया है उसीका वाचक यहाँ ' स म् ' पद है। – 'यथा ' पदका ा अथ है? उ र – शु अ ःकरणवाला अ धकारी पु ष जस व धसे ानक परा न ाको ा होकर पर परमा ाको ा होता है, उस व धका अथात् अंग- ंग स हत ानयोगके कारका वाचक यहाँ 'यथा ' पद है। – उपयु स को ा ए पु षको क ा कब होती है? उ र – स ा होनेके बाद क ा म वल नह होता, उसी ण ा हो जाती है। –' ' पद कसका वाचक है और उसको ा होना ा है? उ र – न - न वकार, नगुण- नराकार, स दान घन, पूण परमा ाका वाचक यहाँ ' ' पद है और त ानके ारा पचपनव ोकके वणनानुसार अ भ भावसे उसम व हो जाना ही उसको ा होना है। – 'तथा ' पद कसका वाचक है और उसे तू मुझसे सं ेपम जान, इस कथनका ा भाव है? उ र – 'यथा ' पदसे व धका ल कराया गया है, उसीका वाचक यहाँ 'तथा ' पद है। एवं उसे तू मुझसे सं ेपम ही जान– इस कथनसे यह भाव दखलाया गया है क उसका व ारपूवक वणन नह करके वह वषय म तु सं ेपम ही बतलाऊँ गा। इस लये सावधानीके साथ उसे सुनो, नह तो उसे समझ नह सकोगे। अंग-

पूव ोकम क ई ावनाके अनुसार अब तीन शलोकम ंग के स हत ानयोगका वणन करते ह – स



बुद् ा वशु या यु ो धृ ा ानं नय च । श ादी षयां ा राग ेषौ ुद च ॥५१॥ ेी ी

व व सेवी ल वाशी यतवा ायमानसः । ानयोगपरो न ं वैरा ं समुपा तः ॥५२॥ अह ारं बलं दप कामं ोधं प र हम् । वमु नममः शा ो भूयाय क ते ॥५३॥

वशु बु से यु तथा हलका, सा क और नय मत भोजन करनेवाला, श ा द वषय का ाग करके एका और शु देशका सेवन करनेवाला, सा क धारणश के ारा अ ःकरण और इ य का संयम करके मन, वाणी और शरीरको वशम कर लेनेवाला, राग- ेषको सवथा न करके भलीभाँ त ढ़ वैरा का आ य लेनेवाला तथा अहंकार, बल, घमंड, काम, ोध और प र हका ाग करके नर र ानयोगके परायण रहनेवाला, ममतार हत और शा यु पु ष स दान ब म अ भ भावसे त होनेका पा होता है॥५१-५३॥ – ' वशु

बु ' कसे कहते ह और उससे यु होना ा है? उ र – पूवा जत पापके सं ार से र हत अ ःकरणको ' वशु बु ' कहते ह और जसका अ ःकरण इस कार शु हो गया हो, वह वशु बु से यु कहलाता है। – 'ल वाशी ' कसको कहते ह? उ र – जो साधनके उपयु अनायास हजम हो जानेवाले सा क पदाथ का (१७।८) तथा अपनी कृ त, आव कता और श के अनु प नय मत और प र मत भोजन करता है – ऐसे यु आहारके करनेवाले (६।१७) पु षको 'ल वाशी ' कहते ह। – श आ द वषय का ाग करके एका और शु देशका सेवन करना ा है? उ र – सम इ य के जतने भी सांसा रक भोग ह, उन सबका ाग करके अथात् उनको भोगनेम अपने जीवनका अमू समय न लगाकर – नर र साधन करनेके लये, जहाँका वायुम ल प व हो, जहाँ ब त लोग का आना-जाना न हो, जो भावसे ही एका और हो या झाड़-बुहारकर और धोकर जसे बना लया गया हो – ऐसे नदीतट, देवालय, वन और पहाड़क गुफा आ द ी







ान म नवास करना ही श ा द वषय का ाग करके एका और शु देशका सेवन करना है। – सा क धारणश के ारा अ ःकरण और इ य का संयम करना ा है तथा ऐसा करके मन, वाणी और शरीरको वशम कर लेना ा है? उ र – इसी अ ायके ततीसव ोकम जसके ल ण बतलाये गये ह, उस अटल धारणश के ारा शु आ हसे अ ःकरणको सांसा रक वषय के च नसे र हत बनाकर इ य को सांसा रक भोग म वृ न होने देना ही सा क धारणासे अ ःकरण और इ य का संयम करना है और इस कारके संयमसे जो मन, इ य और शरीरको अपने अधीन बना लेना है – उनम इ ाचा रताका और बु के वच लत करनेक श का अभाव कर देना है – यही मन, वाणी और शरीरको वशम कर लेना है। – राग और ेष – इन दोन का सवथा नाश करके भलीभाँती वैरा का आ य लेना ा है? उ र – इ य के ेक भोगम राग और ेष – ये दोन छपे रहते ह, ये साधकके महान् श ु ह (३।३४)। अतएव इस लोक या परलोकके कसी भी भोगम, कसी भी ाणीम तथा कसी भी पदाथ, या अथवा घटनाम क च ा भी आस या ेष न रहने देना राग- ेषका सवथा नाश कर देना है; और इस कार राग- ेषका नाश करके जो नः ृहभावसे नर र वैरा म म रहना है, यही रागेषका नाश करके भलीभाँ त वैरा का आ य लेना है। – अहंकार, बल, घमंड, काम, ोध और प र हका ाग करना तथा इन सबका ाग करके नर र ानयोगके परायण रहना ा है? उ र – शरीर, इ य और अ ःकरणम जो आ बु है – उसका नाम अहंकार है; इसीके कारण मनु मन, बु और शरीर ारा कये जानेवाले कम म अपनेको कता मान लेता है। अतएव इस देहा भमानका सवथा ाग कर देना अहंकारका ाग कर देना है। अ ायपूवक बलात् जो दूसर पर भु जमानेका साहस है, उसका नाम 'बल' है; इस कारके दुःसाहसका सवथा ाग कर देना बलका ाग कर देना है। धन, जन, व ा, जा त और शारी रक श आ दके कारण होनेवाला जो गव है – उसका नाम दप यानी घमंड है; इस भावका सवथा ाग कर देना घमंडका ाग कर देना है। इस लोक और परलोकके भोग को ा करनेक इ ाका नाम  'काम' है, इसका सवथा ाग कर देना कामका ाग कर े ै े े े े औ ी

देना है। अपने मनके तकू ल आचरण करनेवालेपर और नी त व वहार करनेवालेपर जो अ ःकरणम उ ेजनाका भाव उ होता है – जसके कारण मनु के ने लाल हो जाते ह, ह ठ फड़कने लगते ह, दयम जलन होने लगती है और मुख वकृ त हो जाता है – उसका नाम ोध है; इसका सवथा ाग कर देना, कसी भी अव ाम ऐसे भावको उ न होने देना ोधका ाग कर देना है। सांसा रक भोग क साम ीका नाम ' प र ह' है, अतएव उन सबका सवथा प र ाग कर देना ही मु तया प र हका ाग है पर ु कारा रसे सांसा रक भोग को भोगनेके उ े से कसी भी व ुका सं ह न करना भी प र हका ाग कर देना ही है। इस कार इन सबका ाग करके पूव कारसे सा क धृ तके ारा मन-इ य क या को रोककर सम सफु रणा का सवथा अभाव करके , न - नर र स दान घन का अ भ भावसे च न करना (६।२५) तथा उठते-बैठते, सोते-जागते एवं शौच- ान, खान-पान आ द आव क या करते समय भी न - नर र परमा ाके पका च न करते रहना एवं उसीको सबसे बढ़कर परम कत समझना ानयोगके परायण रहना है। – 'ममतासे र हत होना' ा है? उ र – मन और इ य के स हत शरीरम, सम ा णय म, कम म, सम भोग म एवं जा त, कु ल, देश, वण और आ मम ममताका सवथा ाग कर देना; कसी भी व ु, या या ाणीम 'अमुक पदाथ या ाणी मेरा है और अमुक पराया है' इस कारके भेदभावको न रहने देना 'ममतासे र हत होना' है। – 'शा : ' पद कै से मनु का वाचक है? उ र – उपयु साधन के कारण जसके अ ःकरणम व ेपका सवथा अभाव हो गया है और इसीसे जसका अ ःकरण अटल शा और शु सा क स तासे ा रहता है – 'शा : ' पद ऐसे उपरत मनु का वाचक है। – उपयु वशेषण का वणन करके ऐसा पु ष स दान घन म अ भ भावसे त होनेका पा होता है – यह कहनेका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क उपय कारसे साधन करनेवाला मनु इन साधन से स होनेपर भावको ा होनेका अ धकारी बन जाता है और त ाल ही भावको ा हो जाता है, अथात् उसक म औ े ो ी ँ

आ ा और परमा ाका भेदभाव सवथा न होकर 'म ही स दान घन ँ' ऐसी ढ़ त हो जाती है। उस समय वह सम जगत्म अपनेको त और सम जगत्को अपनेम क त देखता है (६।२९)। स – इस कार अंग- ंग स हत सं ासका यानी सां योगका प बतलाकर अब उस साधन ारा भावको ा ए योगीके ल ण और उसे ानयोगक परा न ा प परा भ का ा होना बतलाते ह –

भूतः स ा ा न शोच त न काङ् त । समः सवषु भूतेषु म लभते पराम् ॥५४॥

फर वह स दान घन म एक भावसे त, स मनवाला योगी न तो कसीके लये शोक करता है और न कसीक आकां ा ही करता है। ऐसा सम ा णय म समभाववाला योगी मेरी परा भ को ा हो जाता है॥ ५४॥

कस तवाले योगीका वाचक है? उ र – जो स दान घन म अ भ -भावसे त हो जाता है; जसक म एक स दान घन से भ कसी भी व ुक स ा नह रहती; 'अहं ा '–म ँ (बृहदार क उ० १।४।१०), 'सोऽहम ' – वह ही म ँ , आ द महावा के अनुसार जसक परमा ाम अ भ भावसे न अटल त हो जाती है, – ऐसे सां योगीका वाचक यहाँ ' भूतः ' पद है। पाँचव अ ायके चौबीसव ोकम और छठे अ ायके स ाईसव ोकम भी इस तवाले योगीको ' भूत' कहा है। – ' स ा ा ' पदका ा भाव है? उ र – जसका मन प व , और शा हो तथा नर र शु स रहता हो – उसे ' स ा ा ' कहते ह; इस वशेषणका योग करके यह भाव दखलाया है क भावको ा ए पु षक म एक स दान घन से भ कसी भी व ुक स ा न रहनेके कारण उसका मन नर र स रहता है, कभी कसी भी कारणसे ु नह होता। – ब भूत योगी न तो शोक करता है और न आकां ा ही करता है, इस कथनका ा अ भ ाय है? –'

भूतः ' पद



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उ र – इस कथनसे ब भूत योगीका ल ण कया गया है। अ भ ाय यह है क भूत योगीक सव ब बु हो जानेके कारण संसारक कसी भी व ुम उसक भ ती त, रमणीय-बु और ममता नह रहती। अतएव शरीरा दके साथ कसीका संयोग- वयोग होनेम उसका कु छ भी बनता- बगड़ता नह । इस कारण वह कसी भी हालतम कसी भी कारणसे क च ा भी च ा या शोक नह करता। और वह पूणकाम हो जाता है, क कसी भी व ुम उसक से भ नह रहती, इस कारण वह कु छ भी नह चाहता। – 'सवषु भूतेषु सम: ' इस वशेषणका ा भाव है? उ र – इस वशेषणसे उस भूत योगीका सम ा णय म समभाव दखलाया गया है। अ भ ाय यह है क वह कसी भी ाणीको अपनेसे भ नह समझता – इस कारण उसका कसीम भी वषमभाव नह रहता, सबम समभाव हो जाता है; यही भाव छठे अ ायके उनतीसव ोकम 'सव समदशन: ' पदसे दखलाया गया है। – 'पराम् ' वशेषणके स हत यहाँ 'म म् ' पद कसका वाचक है? उ र – ज ानयोगका फल है, जसको ानक परा न ा और त ान भी कहते ह, उसका वाचक यहाँ 'पराम् ' वशेषणके स हत 'म म् ' पद है; क वह परमा ाके यथाथ पका सा ात् कराकर उनम अ भ भावसे व कर देता है। – इस उसका फल बतलाते ह –



कार

भूत योगीको परा भ क ा बतलाकर अब

भ ा माम भजाना त यावा ा त तः । ततो मां त तो ा ा वशते तदन रम् ॥५५॥

उस परा भ के ारा वह मुझ परमा ाको, म जो ँ और जतना ँ ठीक वैसा-का-वैसा त से जान लेता है; तथा उस भ से मुझको त से जानकर त ाल ही मुझम व हो जाता है॥५५॥

कसका वाचक है? उ र – पूवके ोकम जसका 'पराम् ' वशेषणके स हत 'म म् ' पदसे और पचासव ोकम ानक परा न ाके नामसे वणन कया गया है, उसी ँ ी ो ो ो औ – 'भ

ा ' पद यहाँ

त ानका वाचक यहाँ 'भ ा ' पद ह। यही ानयोग, भ योग, कमयोग और ानयोग आ द सम साधन का फल है; इसके ारा ही सब साधक को परमा ाके यथाथ पका ान होकर उनक ा होती है। इस कार सम साधन के फलक एकता करनेके लये ही यहाँ ानयोगके करणम 'भ ा ' पदका योग कया गया है। – इस भ के ारा योगी मुझको, म जो ँ और जतना ँ , ठीक वैसा-का-वैसा त से जान लेता है – इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया है क इस परा भ प त ानक ा होनेके साथ ही वह योगी उस त ानके ारा मेरे यथाथ पको जान लेता है; मेरा नगुण- नराकार प ा है, और सगुण- नराकार और सगुण-साकार प ा है, म नराकारसे साकार कै से होता ँ और पुन: साकारसे नराकार कै से होता ँ – इ ा द कु छ भी जानना उसके लये शेष नह रहता। अतएव फर उसक म कसी कारका भेदभाव नह रहता। इस कार ानयोगके साधनसे ा होनेवाले नगुणनराकार के साथ सगुण क एकता दखलानेके लये यहाँ ानयोगके करणम भगवान्ने के ानम 'माम् ' पदका योग कया है। – 'तत: ' पदका ा अथ है? उ र – 'तत: ' पद हेतु-वाचक है। परमा ाके पका ान होनेके साथ ही परमा ाक ा हो जाती है – उसम कालका वधान नह होता, इस कारण यहाँ 'तत: ' पदका अथ प ात् नह कया गया है। अत: जसका करण हो उसी हेतुका वाचक 'तत: ' पद होता है; तथा यहाँ ' ा ा ' पदके साथ उसके हेतुका अनुवाद करनेक आव कता भी थी – इस कारण 'तत: ' पदका अथ पूवा म व णत 'परा भ ' समझना चा हये । – यहाँ 'तदन रम् ' पदका अथ त ाल कै से कया गया? ' ा ा ' पदके साथ 'तदन रम् ' पदका योग कया गया है, इससे तो ' वशते ' याका यह भाव लेना चा हये क पहले मनु भगवान्के पको यथाथ जानता है और उसके बाद उसम व होता है। उ र – ऐसी बात नह है; क ु ' ा ा ' पदसे जो कालके वधानक आशंका होती थी, उसे दूर करनेके लये ही यहाँ 'तदन रम् ' पदका योग कया गया है। अ भ ाय यह है क भगवान्के त ान और उनक ा म अ र यानी वधान नह होता, भगवान्के पको यथाथ जानना और उनम व होना – ो ोे े ोे े ी ो

दोन एक साथ होते ह। भगवान् सबके आ प होनेसे वा वम कसीको अ ा नह ह, अत: उनके यथाथ पका ान होनेके साथ ही उनक ा हो जाती है। इस लये यह भाव समझानेके लये ही यहाँ 'तदन रम् ' पदका अथ 'त ाल' कया गया है; क काला रका बोध तो ' ा ा' पदसे ही हो जाता है, उसके लये 'तदन रम् ' पदके योगक आव कता नह थी।

इस कार अजुनक ज ासाके अनुसार ागका यानी कमयोगका और सं ासका यानी सां योगका त अलग-अलग समझाकर यहाँतक उस करणको समा कर दया; क ु इस वणनम भगवान्ने यह बात नह कही क दोन मसे तु ारे लये अमुक साधन कत है, अतएव अजुनको भ धान कमयोग हण करानेके उ े से अब भ धान कमयोगक म हमा कहते ह – स



सवकमा प सदा कु वाणो मद् पा यः । म सादादवा ो त शा तं पदम यम् ॥५६॥

मेरे परायण आ कमयोगी तो स ूण कम को सदा करता आ भी मेरी कृपासे सनातन अ वनाशी परमपदको ा हो जाता है॥५६॥ – 'मद पा य: ' पद

कसका वाचक है? उ र – सम कम का और उनके फल प सम भोग का आ य ागकर जो भगवान्के ही आ त हो गया है; जो अपने मन-इ य स हत शरीरको, उसके ारा कये जानेवाले सम कम को और उनके फलको भगवान्के समपण करके उन सबसे ममता, आस और कामना हटाकर भगवान्के ही परायण हो गया है, भगवान्को ही अपना परम ा , परम य, परम हतैषी, परमाधार और सव समझकर जो भगवान्के वधानम सदैव स रहता है – कसी भी सांसा रक व ुके संयोग- वयोगम और कसी भी घटनाम कभी हष-शोक नह करता, सदा भगवान्पर ही नभर रहता है तथा जो कु छ भी कम करता है भगवान्के आ ानुसार उ क स ताके लये, अपनेको के वल न म मा समझकर, उ क ेरणा और श से, जैसे भगवान् कराते ह वैसे ही करता है एवं अपनेको सवथा भगवान्के अधीन समझता है – ऐसे भ धान कमयोगीका वाचक यहाँ 'मद ् पा यः ' पद है। – 'सवकमा ण ' पद यहाँ कन कम का वाचक है? े





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उ र – अपने वण और आ मके अनुसार जतने भी शा व हत कत कम ह – जनका वणन पहले ' नयतं कम ' और ' भावज कम ' के नामसे कया गया है तथा जो भगवान्क आ ा और ेरणाके अनुकूल ह – उन सम कम का वाचक यहाँ 'सवकमा ण ' पद है। – यहाँ 'अ प ' अ यके योगका ा भाव है? उ र –'अ प' अ यका योग करके यहाँ भ धान कमयोगीक म हमा क गयी है और कमयोगक सुगमता दखलायी गयी है। अ भ ाय यह है क सां योगी सम प र हका और सम भोग का ाग करके एका देशम नर र परमा ाके ानका साधन करता आ जस परमा ाको ा करता है, भगवदा यी कमयोगी वणा मो चत सम कम को सदा करता आ भी उसी परमा ाको ा हो जाता है; दोन के फलम कसी कारका भेद नह होता। – 'शा तम् ' और 'अ यम् ' वशेषण के स हत 'पदम् ' पद कसका वाचक है और भ धान कमयोगीका भगवान्क कृ पासे उसको ा हो जाना ा है? उ र – जो सदासे है और सदा रहता है जसका कभी अभाव नह होता – उस स दान घन, पूण , सवश मान, सवाधार परमे रका वाचक यहाँ उपयु वशेषण के स हत 'पदम् ' पद है। वही परम ा है, यह भाव दखलानेके लये उसे 'पद' के नामसे कहा गया है। पतालीसव ोकम जसे 'सं स ' क ा , छयालीसवम ' स ' क ा और पचपनव ोकम 'माम् ' पदवा परमे रक ा कहा गया है, उसीको यहाँ 'शा तम् ' और 'अ यम् ' वशेषण के स हत 'पदम् ' पदवा भगवान्क ा कहा गया है। अ भ ाय यह है क भ भ नाम से एक ही त का वणन कया गया है। उपयु भ धान कमयोगीके भावसे भा वत और स होकर, उसपर अ तशय अनु ह करके भगवान् यं ही उसे परा भ प बु योग दान कर देते ह (१०।१०); उस बु योगके ारा भगवान्के यथाथ पको जानकर जो उस भ का भगवान्म त य हो जाना है – स दान घन परमे रम व हो जाना है – यही उसका उपयु परमपदको ा हो जाना है। इस कार भ धान कमयोगीक म हमाका वणन करके अब अजुनको वैसा बननेके लये आ ा देते ह – स







चेतसा सवकमा ण म य सं म रः । बु योगमुपा म ः सततं भव ॥५७॥

सब कम को मनसे मुझम अपण करके तथा समबु प योगको अवल न करके मेरे परायण और नर र मुझम च वाला हो॥५७॥ – सम

कम को मनसे भगवान्म अपण करना ा है? उ र – अपने मन, इ य और शरीरको उनके ारा कये जानेवाले कम को और संसारक सम व ु को भगवान्क समझकर उन सबम ममता, आस और कामनाका सवथा ाग कर देना तथा मुझम कु छ भी करनेक श नह है, भगवान् ही सब कारक श दान करके मेरे ारा अपने इ ानुसार सम कम करवाते ह, मै कु छ भी नह करता – ऐसा समझकर भगवान्के आ ानुसार उ के लये, उ क ेरणासे, जैसे कराव वैसे ही, न म मा बनकर सम कम को कठपुतलीक भाँ त करते रहना – यही सम कम को मनसे भगवान्म अपण कर देना है। – 'बु योगम् ' पद कसका वाचक है और उसका अवल न करना ा है? उ र – स और अ स म, सुख और दुःखम, हा न और लाभम, इसी कार संसारके सम पदाथ म और ा णय म जो समबु है – उसका वाचक 'बु योगम् ' पद है। इस लये जो कु छ भी होता है, सब भगवान्क ही इ ा और इशारेसे होता है – ऐसा समझकर सम व ु म, सम ा णय म और सम घटना म राग- ेष, हष-शोका द वषम भाव से र हत होकर सदा-सवदा समभावसे यु रहना ही उपयु बु योगका अवल न करना है। – भगवान्के परायण होना ा है? उ र – भगवान्को ही अपना परम ा , परम ग त, परम हतैषी, परम य और परमाधार मानना, उनके वधानम सदा ही स ु रहना और उनक ा के साधन म त र रहना भगवान्के परायण होना है । – नर र भगवान्म च वाला होना ा है? उ र – मन-बु को अटल भावसे भगवान्म लगा देना; भगवान्के सवा अ कसीम क च ा भी ेमका स न रखकर अन ेमपूवक नर र भगवान्का ही च न करते रहना; णमा के लये भी भगवान्क व ृ तका अस ो े ै े े े े ीे ोे ेऔ े

हो जाना; उठते-बैठते, चलते- फरते, खाते-पीते, सोते-जागते और सम कम करते समय भी न - नर र मनसे भगवान्के दशन करते रहना – यही नर र भगवान्म च वाला होना है। नव अ ायके अ म ोकम और यहाँ पसठव ोकम 'म ना भव ' से भी यही बात कही गयी है।

इस कार भगवान् अजुनको भ धान कमयोगी बननेक आ ा देकर अब उस अ ाके पालन करनेका फल बतलाते ए उसे न माननेम ब त बड़ी हा न दखलाते ह – स



म ः सवदुगा ण म सादा र स । अथ चे मह ारा ो स वनङ् स ॥५८॥

उपयु कारसे मुझम च वाला होकर तू मेरी कृपासे सम संकट को अनायास ही पार कर जायगा और य द अहंकारके कारण मेरे वचन को न सुनेगा तो न हो जायगा अथात् परमाथसे हो जायगा॥५८॥

मुझम च वाला होकर तू मेरी कृ पासे सम संकट को अनायास ही पार कर जायगा, इस कथनका ा भाव है? उ र – इस वा से भगवान्ने यह दखलाया है क पूव- ोकम कहे ए कारसे सम कम मुझम अपण करके और मेरे परायण होकर नर र मुझम मन लगा देनेके बाद तु और कु छ भी नह करना पड़ेगा, मेरी दयाके भावसे अनायास ही तु ारे इस लोक और परलोकके सम दुःख टल जायँगे, तुम सब कारके दुगुण और दुराचार से र हत होकर सदाके लये ज -मरण प महान् संकटसे मु हो जाओगे और मुझ न आन घन परमे रको ा कर लोगे। – 'अथ ' और 'चेत् ' इन दोन अ य का ा भाव है और 'अहंकारके कारण मेरे वचन को न सुनेगा तो न हो जायगा' – इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – 'अथ ' प ा रका बोधक है और 'चेत् ', 'य द ' के अथम यु आ है। इन दोन अ य के स हत उपयु वा से भगवान्ने यह भाव दखलाया है क तुम मेरे भ और य सखा हो, इस कारण अव ही मेरी आ ाका पालन करोगे; तथा प तु सावधान करनेके लये म बतला देता ँ क जस कार मेरी आ ाका पालन करनेसे महान् लाभ होता है, उसी कार उसके ागसे महती हा न भी होती है। इस लये य द तुम अहंकारके वशम होकर अथात् अपनेको बु मान् या –

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समथ समझकर मेरे वचन को न सुनोगे – मेरी आ ाका पालन न करके अपनी मनमानी करोगे तो तुम न हो जाओगे; फर तु इस लोकम या परलोकम कह भी वा वक सुख और शा नह मलेगी और तुम अपने कत से होकर वतमान तसे गर जाओगे। – भगवान् अजुनसे पहले यह कह चुके ह क तुम मेरे भ हो (४।३) और यह भी कह आये है क 'न मे भ : ण त ' अथात् मेरे भ का कभी पतन नह होता (१।३१) और यहाँ यह कहते ह क तुम न हो जाओगे अथात् तु ारा पतन हो जायगा; इस वरोधका ा समाधान है? उ र – भगवान्ने यं ही उपयु वा म 'चेत् ' पदका योग करके इस वरोधका समाधान कर दया है। अ भ ाय यह है क भगवान्के भ का कभी पतन नह होता, यह ुव स है और यह भी स है क अजुन भगवान्के परम भ ह; इस लये वे भगवान्क बात न सुन, उनक आ ाका पालन न कर – यह हो ही नह सकता; क ु इतनेपर भी य द अहंकारके वशम होकर वे भगवान्क आ ाक अवहेलना कर द तो फर भगवान्के भ नह समझे जा सकते, इस लये फर उनका पतन होना भी यु संगत ही है।

पूव ोकम जो अहंकारवश भगवान्क आ ाको न माननेसे न हो जानेक बात कही है, उसीक पु करनेके लये अब भगवान् दो ोक ारा अजुनक मा ताम दोष दखलाते ह – स



यदह ारमा न यो इ त म से । म षै वसाय े कृ त ां नयो त ॥५९॥

जो तू अहंकारका आ य लेकर यह मान रहा है क 'म यु नह क ँ गा', तेरा यह न य म ा है, क तेरा भाव तुझे जबरद ी यु म लगा देगा॥ ५९॥

जो तू अहंकारका आ य लेकर यह मान रहा है क म यु नह क ँ गा, इस वा का ा अ भ ाय है? उ र – पहले भगवान्के ारा यु करनेक आ ा दी जानेपर (२।३) जो अजुनने भगवान्से यह कहा था क 'न योत े ' – म यु नह क ँ गा (२। ९), उसी बातको रण कराते ए भगवान्ने यहाँ उपयु वा कहा है। अ भ ाय यह है क –



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तुम जो यह मानते हो क 'म यु नह क ँ गा', तु ारा यह मानना के वल अहंकारमा है; यु न करना तु ारे हाथक बात नह है। अतएव इस कार अ ानज नत अहंकारके वशीभूत होकर अपनेको प त, समथ और त समझना एवं उसके बलपर यह न य कर लेना क अमुक काय म इस कार स कर लूँगा और अमुक काय नह क ँ गा, ब त ही अनु चत है। – तेरा यह न य म ा है, इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे भगवान्ने यह दखलाया है क तु ारी यह मा ता टक न सके गी; अथात् तुम बना यु कये रह न सकोगे; क तुम त नह हो, कृ तके अधीन हो। – यहाँ ' कृ त: ' पद कसका वाचक है और तेरी कृ त तुझे जबद ी यु म लगा देगी, इस कथनका ा भाव है? उ र – ज -ज ा रम कये ए कम के सं ार जो वतमान ज म भाव पसे ादुभूत ए ह, उनके समुदायका वाचक यहाँ ' कृ त: ' पद है; इसीको भाव भी कहते ह। इस भावके अनुसार ही मनु का भ - भ कम के अ धकारीसमुदायम ज होता है और उस भावके अनुसार ही भ - भ मनु क भ - भ कम म वृ आ करती है। अतएव यहाँ उपयु वा से भगवान्ने यह दखलाया है क जस भावके कारण तु ारा यकु लम ज आ है, वह भाव तु ारी इ ा न रहनेपर भी तुमको जबद ी यु म वृ करा देगा। यो ता ा होनेपर वीरतापूवक यु करना, यु से डरना या भागना नह – यह तु ारा सहज कम है; अतएव तुम इसे कये बना रह नह सकोगे, तुमको यु अव करना पड़ेगा। यहाँ यके नाते अजुनको यु के वषयम जो बात कही है, वही बात अ वणवाल को अपने-अपने ाभा वक कम के वषयम समझ लेनी चा हये।

भावजेन कौ ेय नब ः ेन कमणा । कतु ने स य ोहा र वशो प तत् ॥६०॥

हे कु ीपु । जस कमको तू मोहके कारण करना नह चाहता, उसको भी अपने पूवकृत ाभा वक कमसे बँधा आ परवश होकर करेगा॥६०॥ – 'कौ ेय ' स

ोधनका ा भाव हे? ी ी ी









उ र – अजुनक माता कु ी बड़ी वीर म हला थी, उसने यं ीकृ के हाथ सँदेशा भेजते समय पा व को यु के लये उ ा हत कया था। अत: भगवान् यहाँ अजुनको 'कौ ेय ' नामसे स ो धत करके यह भाव दखलाते ह क तुम वीर माताके पु हो, यं भी शूरवीर हो, इस लये तुमसे यु कये बना नह रहा जायगा। – जस कमको तू मोहके कारण करना नह चाहता, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे भगवान्ने यह दखलाया है क तुम य हो, यु करना तु ारा ाभा वक धम है; अतएव वह तु ारे लये पापकम नह है। इस लये उसे न करनेक इ ा करना कसी कार भी उ चत नह है। इसपर भी जो तुम ायसे ा यु प सहजकमको करना नह चाहते हो, इसम के वलमा तु ारा अ ववेक ही हेतु है; दूसरा कोई यु यु कारण नह है। – उसको भी तू अपने ाभा वक कम से बंधा आ परवश होकर करेगा, इस कथनका ा भाव है ? उ र – इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क यु करना तु ारा ाभा वक कम है – इस कारण तुम उससे बँधे ए हो अथात् उससे तु ारा घ न स है। इस लये तु ारी इ ा न रहनेपर भी वह तुमको बलात् अपनी ओर आक षत कर लेगा और तु अपने भावके वशम होकर उसे करना ही पड़ेगा। इस लये य द मेरी आ ाके अनुसार अथात् स ावनव ोकम बतलायी ई व धके अनुसार उसे करोगे तो कमब नसे मु होकर मुझे ा हो जाओगे, नह तो रागेषके जालम फँ सकर ज -मृ ु प संसारसागरम गोते लगाते रहोगे। जस कार नदीके वाहम बहता आ मनु उस वाहका सामना करके नदीके पार नह जा सकता वरं अपना नाश कर लेता है; और जो कसी नौका या काठका आ य लेकर या तैरनेक कलासे जलके ऊपर तैरता रहकर उस वाहके अनुकूल चलता है, वह कनारे लगकर उसको पार कर जाता है; उसी कार कृ तके वाहम पड़ा आ जो मनु कृ तका सामना करता है, यानी हठसे कत - कम का ाग कर देता है, वह कृ तसे पार नह हो सकता वरं उसम अ धक फँ सता जाता है; और जो परमे रका या कमयोगका आ य लेकर या ानमागके अनुसार अपनेको कृ तसे ऊपर उठाकर कृ तके अनुकूल कम करता रहता है, वह कमब नसे मु होकर कृ तके पार चला जाता है अथात् परमा ाको ा हो जाता है। ो









पूव ोक म कम करनेम मनु को भावके अधीन बतलाया गया; इसपर यह शंका हो सकती है क कृ त या भाव जड है, वह कसीको अपने वशम कै से कर सकता है? इस लये भगवान् कहते ह – स



ई रः सवभूतानां शे ेऽजुन त त । ामय वभूता न य ा ढा न मायया ॥६१॥

हे अजुन! शरीर प य म आ ढ़ ए स ूण ा णय को अ यामी परमे र अपनी मायासे उनके कम के अनुसार मण कराता आ सब ा णय के दयम त है॥६१॥

यहाँ शरीरको य का पक देनेका ा अ भ ाय है और ई रको सम ा णय के दयम त बतलानेका ा भाव है? उ र – यहाँ शरीरको य का पक देकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क जैसे रेलगाड़ी आ द क य पर बैठा आ मनु यं नह चलता, तो भी रेलगाड़ी आ द य के चलनेसे उसका चलना हो जाता है – उसी कार य प आ ा न ल है, उसका कसी भी यासे वा वम कु छ भी स नह है, तो भी अना द स अ ानके कारण उसका शरीरसे स होनेसे उस शरीरक या उसक या मानी जाती है। ई रको सब भूत के दयम त बतलाकर यह भाव दखलाया है क य को चलानेवाला ेरक जैसे यं भी उस य म रहता है, उसी कार ई र भी सम ा णय के अ ःकरणम त है और उनके दयम त रहते ए ही उनके कमानुसार उनको मण कराते रहते ह। इस लये ई रके कसी भी वधानम जरा भी भूल नह हो सकती; क वे सवश मान्, सव ापी, सव परमे र उनके सम कम को भलीभाँ त जानते ह। – 'य ा ढा न ' वशेषणके स हत 'भूता न ' पद कनका वाचक है और भगवान्का उनको अपनी मायासे मण कराना ा है? उ र – शरीर प य म त सम ा णय का वाचक यहाँ 'य ा ढा न ' वशेषणके स हत 'भूता न ' पद है तथा उन सबको उनके पूवा जत कम-सं ार के अनुसार फल भुगतानेके लये बार-बार नाना यो नय म उ करना तथा भ - भ पदाथ से, या से और ा णय से उनका संयोग- वयोग कराना और उनके भाव े









कृ त)- के अनुसार उ पुन: चे ा करनेम लगाना – यही भगवान्का उन ा णय को अपनी माया ारा मण कराना है। – कम करनेम और न करनेम मनु त है या परत ? य द परत है तो कस पम है तथा कसके परत है – कृ तके या भावके अथवा ई रके ? क कह तो मनु का कम म अ धकार बतलाकर (२।४७) उसे त , कह कृ तके अधीन (३।३३) और कह ई रके अधीन बतलाया है (१०।८)। इस अ ायम भी उनसठव और साठव ोकम कृ तके और भावके अधीन बतलाया है तथा इस ोकम ई रके अधीन बतलाया है, इस लये इसका ीकरण होना चा हये। उ र – कम करने और न करनेम मनु परत है, इसी लये यह कहा गया है क कोई भी ाणी णमा भी बना कम कये नह रह सकता (३।५)। मनु का जो कम करनेम अ धकार बतलाया गया है, उसका अ भ ाय भी उसको त बतलाना नह है, ब परत बतलाना ही है; क उससे कम के ागम अश ता सू चत क गयी है। अब रह गया यह क मनु कसके अधीन होकर काय करता है, तो इसके स म यह बात है क मनु को कृ तके अधीन बतलाना, भावके अधीन बतलाना और ई रके अधीन बतलाना – ये तीन बात एक ही ह। क भाव और कृ त तो पयायवाची श ह और ई र यं नरपे भावसे अथात् सवथा न ल रहते ए ही उन जीव क कृ तके अनु प अपनी मायाश के ारा उनको कम म नयु करते ह, इस लये ई रके अधीन बतलाना कृ तके ही अधीन बतलाना है। दूसरे प म ई र ही कृ तके ामी और ेरक ह, इस कारण कृ तके अधीन बतलाना भी ई रके ही अधीन बतलाना है। रही यह बात क य द मनु सवथा ही परत है तो फर उसके उ ार होनेका ा उपाय है और उसके लये कत -अकत का वधान करनेवाले शा क ा आव कता है? इसका उ र यह है क कत -अकत का वधान करनेवाले शा मनु को उसके ाभा वक कम से हटानेके लये या उससे भाव व कम करवानेके लये नह ह, क ु उन कम के करनेम जो राग- ेषके वशम होकर वह अ ाय कर लेता है – उस अ ायका ाग कराकर उसे ायपूवक कत कम म लगानेके लये है। इस लये मनु कम करनेम भावके परत होते ए भी उस भावका सुधार करनेम परत नह है। अतएव य द वह शा और महापु ष के उपदेशसे सचेत होकर कृ तके ेरक सवश मान् परमे रक शरण हण कर ले और राग- ेषा द वकार का ाग करके शा व धके अनुसार े ो े ी (

ायपूवक अपने ाभा वक कम को न ामभावसे करता आ अपना जीवन बताने लगे तो उसका उ ार हो सकता है।

उपमु ोकम यह बात स क गयी क मनु कम का पसे ाग करनेम त नह है, उसे अपने भावके वश होकर ाभा वक कम म वृ होना ही पड़ता है, क सवश मान सवा यामी परमे र यं सब ा णय के दयम त होकर उनक कृ तके अनुसार उनको मण कराते ह और उनक ेरणाका तवाद करना मनु के लये अश है। इसपर यह उठता है क य द ऐसी ही बात ह तो फर कमब नसे छू टकर परम शा लाभ करनेके लये मनु को ा करना चा हये? इसपर भगवान् अजुनको उसका कत बतलाते ए कहते ह – स



तमेव शरणं ग सवभावेन भारत । त सादा रां शा ानं ा स शा तम् ॥६२॥

हे भारत! तू सब कारसे उस परमे रक ही शरणम जा। उस परमा ाक कृपासे ही तू परम शा को तथा सनातन परम धामको ा होगा॥ ६२॥

ा है?

– 'तम् ' पद

कसका वाचक है और सब कारसे उसक शरणम जाना

उ र – जन सवश मान्, सवाधार, सबके ेरक, सवा यामी, सव ापी, परमे रको पूव ोकम सम ा णय के दयम त बतलाया गया है, उ का वाचक यहाँ 'तम् ' पद है और अपने मन, बु , इ य को, ाण को और सम धन, जन आ दको उनके समपण करके उ पर नभर हो जाना सब कारसे उस परमे रक शरणम चले जाना है। अथात् भगवान्के गुण, भाव, त और पका ापूवक न य करके भगवान्को ही परम ा , परम ग त, परम आ य और सव समझना तथा उनको अपना ामी, भता, ेरक, र क और परम हतैषी समझकर सब कारसे उनपर नभर और नभय हो जाना एवं सब कु छ भगवान्का समझकर और भगवान्को सव ापी जानकर सम कम म ममता, अ भमान, आस और कामनाका ाग करके भगवान्क आ ानुसार अपने कम ारा सम ा णय के दयम त परमे रक सेवा करना; जो कु छ भी दु:ख-सुखके भोग ा ह , उनको भगवान्का े ी े ी ी

भेजा आ पुर ार समझकर सदा ही स ु रहना; भगवान्के कसी भी वधानम कभी क च ा भी अस ु न होना; मान, बड़ाई और त ाका ाग करके भगवान्के सवा कसी भी सांसा रक व ुम ममता और आस न रखना; अ तशय ा और अन ेमपूवक भगवान्के नाम, गुण, भाव, लीला, त और पका न - नर र वण, च न और कथन करते रहना – ये सभी भाव तथा याएँ सब कारसे परमे रक शरण हण करनेके अ गत ह। – परमे रक दयासे परम शा को और सनातन परम धामको ा होना ा है? उ र – उपयु कारसे भगवान्क शरण हण करनेवाले भ पर परम दयालु, परम सु द,् सवश मान् परमे रक अपार दयाका ोत बहने लगता है – जो उसके सम दुःख और ब न को सदाके लये बहा ले जाता है। इस कार भ का जो सम दुःख से और सम ब न से छू टकर सदाके लये परमान से यु हो जाना और स दान घन पूण सनातन परमे रको ा हो जाना है, यही परमे रक कृ पासे परम शा को और सनातन परम धामको ा हो जाना है।

इस कार अजुनको अ यामी परमे रक शरण हण करनेके लये अ ा देकर अब भगवान् उ उपदेशका उपसंहार करते ए कहते ह – स



इ त ते ानमा ातं गु ा ु तरं मया । वमृ ैतदशेषेण यथे स तथा कु ॥६३॥

इस कार यह गोपनीयसे भी अ त गोपनीय ान मने तुझसे कह दया। अब तू इस रह यु ानको पूणतया भलीभाँ त वचारकर, जैसे चाहता है वैसे ही कर॥६३॥ – 'इ त ' पदका यहाँ

ा भाव है? उ र – 'इ त ' पद यहाँ उपदेशक समा का बोधक है तथा दूसरे अ ायके ारहव ोकसे लेकर यहाँतक भगवान्ने जो कु छ कहा है, उस सबका ल करानेवाला है। – ' ानम् ' पद यहाँ कस ानका वाचक है और उसके साथ 'गु ात् गु तरम् ' वशेषण देकर ा भाव दखलाया है? े





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उ र – भगवान्ने दूसरे अ ायके ारहव ोकसे आर करके यहाँतक अजुनको अपने गुण, भाव, त और पका रह भलीभाँ त समझानेके लये जतनी बात कही ह – उस सम उपदेशका वाचक यहाँ ' ानम् ' पद है; वह साराका-सारा उपदेश भगवान्का ान करानेवाला है इस लये उसका नाम ान रखा गया है। संसारम और शा म जतने भी गु रखनेयो रह के वषय माने गये ह – उन सबम भगवान्के गुण, भाव और पका यथाथ ान करा देनेवाला उपदेश सबसे बढ़कर गु रखनेयो माना गया है; इस लये इस उपदेशका मह समझानेके लये और यह बात समझानेके लये क अन धकारीके सामने इन बात को कट नह करना चा हये, यहाँ ' ानम् ' पदके साथ 'गु ात् गु तरम् ' वशेषण दया गया है। – 'मया ', 'ते ' और 'आ ातम् ' इन पद का ा भाव है? उ र – 'मया ' पदसे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क मुझ परमे रके गुण, भाव और पका त जतना और जैसा म कह सकता ँ वैसा दूसरा कोई नह कह सकता; इस लये यह मेरे ारा कहा आ ान ब त ही मह क व ु है। तथा 'ते ' पदसे यह भाव दखलाया है क तु इसका अ धकारी समझकर तु ारे हतके लये मने यह उपदेश सुनाया है और 'आ ातम् ' पदसे यह भाव दखलाया है क मुझे जो कु छ कहना था वह सब म कह चुका, अब और कु छ कहना बाक नह रहा है। – इस रह यु ानक पूणतया भलीभाँ त वचारकर जैसे चाहता है वैसे ही कर, इस कथनका ा भाव है? उ र – दूसरे अ ायके ारहव ोकसे उपदेश आर करके भगवान्ने अजुनको सां योग और कमयोग, इन दोन ही साधन के अनुसार धम प यु करना जगह-जगह (२।१८, ३७; ३।३०; ८।७; ११।३४) कत बतलाया तथा अपनी शरण हण करनेके लये कहा। इसके बाद अठारहव अ ायम उसक ज ासाके अनुसार सं ास और ाग (योग)- का त भलीभाँ त समझानेके अन र पुन: छ नव और स ावनव ोक म भ धान कमयोगक म हमाका वणन करके अजुनको अपनी शरणम आनेके लये कहा। इतनेपर भी अजुनक ओरसे कोई ीकृ तक बात नह कहे जानेपर भगवान्ने पुन: उस आ ाके पालन करनेका महान् फल दखलाया और उसे न माननेसे ब त बड़ी हा न भी बतलायी। इसपर भी कोई उ र न मलनेसे पुन: अजुनको सावधान करनेके लये परमे रको सबका ेरक और े ेे े े ी

सबके दयम त बतलाकर उसक शरण हण करनेके लये कहा। इतनेपर भी जब अजुनने कु छ नह कहा तब इस ोकके पूवा म उपदेशका उपसंहार करके एवं कहे ए उपदेशका मह दखलाकर इस वा से पुन: उसपर वचार करनेके लये अजुनको सावधान करते ए अ म यह कहा क 'यथे स तथा कु ' अथात् उपयु कारसे वचार करनेके उपरा तुम जैसा ठीक समझो वैसा ही करो। अ भ ाय यह है क मने जो कमयोग, ानयोग और भ योग आ द ब त कारके साधन बतलाये ह, उनमसे तु जो साधन अ ा मालूम पड़े उसीका पालन करो अथवा और जो कु छ तुम ठीक समझो वही करो।

इस कार अजुनको सारे उपदेशपर वचार करके अपना कत नधा रत करनेके लये कहे जानेपर भी जब अजुनने कु छ भी उ र नह दया और वे अपनेको अन धकारी तथा कत न य करनेम असमथ समझकर ख च और च कत-से हो गये, तब सबके दयक बात जाननेवाले अ यामी भगवान् यं ही अजुनपर दया करके उसे सम गीताके उपदेशका सार बतलानेका वचार करके कहने लगे – स



सवगु तमं भूयः णु मे परमं वचः । इ ोऽ स मे ढ म त ततो व ा म ते हतम् ॥६४॥

स ूण गोपनीय से अ त गोपनीय मेरे परम रह यु वचनको तू फर भी सुन। तू मेरा अ तशय य है, इससे यह परम हतकारक वचन म तुझसे क ँ गा॥६४॥

योगका

– 'वच: ' के ा भाव है?

साथ 'सवगु

तमम् ' और 'परमम् ' इन दोन

वशेषण के

उ र – भगवान्ने यहाँतक अजुनको जतनी बात कह , वे सभी बात गु रखनेयो ह; अत: उनको भगवान्ने जगह-जगह 'परम गु ' और 'उ म रह ' नाम दया है। उस सम उपदेशम भी जहाँ भगवान्ने खास अपने गुण, भाव, प, म हमा और ऐ यको कट करके यानी म ही यं सव ापी, सवाधार, सवश मान्, सा ात् सगुण- नगुण परमे र ँ – इस कार कहकर अजुनको अपना भजन करनेके लये और अपनी शरणम आनेके लये कहा है, वे वचन अ धकसे-अ धक गु रखनेयो ह। इसी लये भगवान्ने नव अ ायके पहले ोकम 'गु तम ' और दूसरेम 'राजगु म् ' वशेषणका योग कया है; क उस े े औ ऐ ी ँ

अ ायम भगवान्ने अपने गुण, भाव, प, रह और ऐ यका भलीभाँ त वणन करके अजुनको श म अपना भुजन करनेके लये और अपनी शरणम आनेके लये कहा है। इसी तरह दसव अ ायम पुन: उसी कार अपनी शरणाग तका वषय आर करते समय पहले ोकम 'वच: ' के साथ 'परमम् ' वशेषण दया है। अतएव यहाँ भगवान् 'वच: ' पदके साथ 'सवगु तमम् ' और 'परमम् ' वशेषण देकर यह भाव दखलाते ह क मेरे कहे ए उपदेशम भी जो अ गु रखनेयो सबसे अ धक मह क बात है, वह म तु अगले दो ोक म क ँ गा। – उस उपदेशको पुन: सुननेके लये कहनेका ा भाव है? उ र – उसे पुन: सुननेके लये कहकर यह भाव दखलाया गया है क अब जो बात मै तु बतलाना चाहता ँ उसे पहले भी कह चुका ँ (९।३४; १२।६-७; १८। ५६-५७); क ु तुम उसे वशेष पसे धारण नह कर सके , अतएव उस अ मह के उपदेशको सम उपदेशमसे अलग करके म तु फर बतलाता ँ । तुम उसे सावधानीके साथ सुनकर धारण करो। – ' ढम् ' के स हत 'इ : ' पदसे ा भाव दखलाया है? उ र – तरसठव ोकम भगवान्ने अजुनको अपने कत का न य करनेके लये त वचार करनेको कह दया, उसका भार उ ने अपने ऊपर नह रखा; इस बातको सुनकर अजुनके मनम उदासी छा गयी, वे सोचने लगे क भगवान् ऐसा कह रहे ह; ा मेरा भगवान्पर व ास नह है, ा म इनका भ और ेमी नह ँ । अत: ' ढम् ' और 'इ : ' इन दोन पद से भगवान् अजुनका शोक दूर करनेके लये उ उ ा हत करते ए यह भाव दखलाते ह क तुम मेरे अ य हो, तु ारा और मेरा ेमका स अटल है; अत: तुम कसी तरहका शोक मत करो। – 'तत: ' अ यके योगका तथा म तुझसे परम हतक बात क ँ गा, इस कथनका ा भाव है? उ र – 'तत: ' पद यहाँ हेतुवाचक है, इसका योग करके और अजुनको उसके हतका वचन कहनेक त ा करके भगवान्ने यह भाव दखलाया है क तुम मेरे घ न ेमी हो; इसी लये म तुमसे कसी कारका छपाव न रखकर गु से भी अ त गु बात तु ारे हतके लये, तु ारे सामने कट क ँ गा और म जो कु छ भी क ँ गा, वह तु ारे लये अ हतक बात होगी।











– पूव उसे अब कहते ह –



ोकम जस सवगु तम बातको कहनेक भगवान्ने त ा

म ना भव म ो म ाजी मां नम ु । मामेवै स स ं ते तजाने योऽ स मे ॥६५॥

हे अजुन! तू मुझम मनवाला हो, मेरा भ बन, मेरा पूजन करनेवाला हो और मुझको णाम कर। ऐसा करनेसे तू मुझे ही ा होगा, यह म तुझसे स त ा करता ँ क तू मेरा अ य है॥६५॥ – भगवान्म मनवाला होना

ा है? उ र – भगवान्को सवश मान् सवाधार, सव , सवा यामी, सव ापी, सव र तथा अ तशय सौ य, माधुय और ऐ य आ द गुण के समु समझकर अन ेमपूवक न लभावसे मनको भगवान्म लगा देना, णमा भी भगवान्क व ृ तको न सहसकना 'भगवान्म मनवाला' होना है। इसक वशेष ा ा नव अ ायके अ म ोकम क गयी है। – भगवान्का भ बनना ा है? उ र – भगवान्को ही एकमा अपना भता, ामी, संर क, परमग त और परम आ य समझकर सवथा उनके अधीन हो जाना, क च ा भी अपनी त ता न रखना, सब कारसे उनपर नभर रहना, उनके ेक वधानम सदा ही स ु रहना और उनक आ ाका सदा पालन करना तथा उनम अ तशय ापूवक अन ेम करना 'भगवान्का भ बनना' है। – भगवान्का पूजन करना ा है? उ र – नव अ ायके छ ीसव ोकके वणनानुसार प -पु ा दसे ाभ और ेमपूवक भगवान्के व हका पूजन करना; मनसे भगवान्का आवाहन करके उनक मान सक पूजा करना; उनके वचन का, उनक लीलाभू मका और उनके व हका सब कारसे आदर-स ान करना तथा सबम भगवान्को ा समझकर या सम ा णय को भगवान्का प समझकर उनक यथायो सेवा-पूजा, आदर-स ार करना आ द सब भगवान्क पूजा करनेके अ गत ह। इसका वणन नव अ ायके छ ीसवसे अ ाईसव ोकतकक ा ाम तथा च तीसव ोकक ा ाम देखना चा हये। – 'माम् ' पद कसका वाचक है और उनको नम ार करना ा है? े े े ै

उ र – जन परमे रके सगुण- नगुण, नराकार-साकार आ द अनेक प है; जो अजुनके सामने ीकृ पम कट होकर गीताका उपदेश सुना रहे ह; ज ने राम पम कट होकर संसारम धमक मयादाका ापन कया और नृ सह प धारण करके भ ादका उ ार कया – उ सवश मान् सवगुणस , अ यामी, परमाधार सम पु षो म भगवान्का वाचक यहाँ 'माम् ' पद है । उनके कसी भी पको, च को, चरण- च को या चरणपादुका को तथा उनके गुण, भाव और त का वणन करनेवाले शा को सा ांग णाम करना या सम ा णय म उनको ा या सम ा णय को भगवान्का प समझकर सबको णाम करना 'भगवान्को नम ार करना' है। इसका भी व ार नव अ ायके अ म ोकम देखना चा हये। – ऐसा करनेसे तू मुझे ही ा होगा, इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क उपयु कारसे साधन करनेके उपरा तू अव ही मुझ स दान घन सवश मान् परमे रको ा हो जायगा, इसम कु छ भी संशय नह है। भगवान्को ा होना ा है यह बात भी नव अ ायके अ म ोकक ा ाम बतलायी गयी है। – म तुझसे स त ा करता ँ , इसका ा भाव है? उ र – अजुन भगवान्के य भ और सखा थे, अतएव उनपर ेम और दया करके उनका अपने ऊपर अ तशय ढ़ व ास करानेके लये और अजुनके न म से अ अ धकारी मनु का व ास ढ़ करानेके लये भगवान्ने उपयु वा कहा है। अ भ ाय यह है क उपयु कारसे साधन करनेवाला भ मुझे ा हो जाता है, इस बातपर ढ़ व ास करके मनु को वैसा बननेके लये अ धक-से-अ धक चे ा करनी चा हये। – तू मेरा य है, इस कथनका ा भाव है? उ र – इस कथनसे ेममय भगवान्ने उपयु त ा करनेका हेतु बतलाया है। अ भ ाय यह है क तुम मुझको ब त ही ारे हो; तु ारे त मेरा जो ेम है, उस ेमसे ही बा होकर तु ारा व ास ढ़ करानेके लये म तुमसे यह त ा करता ँ ; नह तो इस कार त ा करनेक मुझे कोई आव कता नह थी। [105]



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इस ोकम भगवान्ने जो चार साधन बतलाये ह, उन चार के करनेसे ही भगवान्क ा होती है या इनमसे एक-एकसे भी हो जाती है? उ र – जसम चार साधन पूण पसे होते हे उसको भगवान्क ा हो जाय – इसम तो कहना ही ा है; पर ु इनमसे एक-एक साधनसे भी भगवान्क ा हो सकती है। क भगवान्ने यं ही आठव अ ायके चौदहव ोकम के वल अन च नसे अपनी ा को सुलभ बतलाया है; सातव अ ायके तेईसव और नवके पचीसवम अपने भ को अपनी ा बतलायी है और नव अ ायके छ ीससे अ ाईसवतक एवं इस अ ायके छयालीसव ोकम के वल पूजनसे अपनी ा बतलायी है। यह बात अव है क उपयु एक-एक साधनको धान पसे करनेवालेम दूसरी सब बात भी आनुषं गक पसे रहती ही ह और ाभ का भाव तो सभीम रहता है। –

सवधमा र मामेकं शरणं ज । अहं ा सवपापे ो मो य ा म मा शुचः ॥६६॥

स ूण धम को अथात् स ूण कत कम को मुझम ागकर तू केवल एक मुझ सवश मान्, सवाधार परमे रक ही शरणम आ जा। म तुझे स ूण पाप से मु कर दँग ू ा, तू शोक मत कर॥६६॥

है?

– 'सवधमान् ' पद यहाँ

कन धम का वाचक है और उनका ाग ा

उ र – वण, आ म, भाव और प र तके अनुसार जस मनु के लये जो-जो कम कत बतलाये गये ह; बारहव अ ायके छठे ोकम 'सवा ण ' वशेषणके स हत 'कमा ण ' पदसे और इस अ ायके स ावनव ोकम 'सवकमा ण ' पदसे जनका वणन कया गया है – उन शा व हत सम कम का वाचक यहाँ 'सवधमान् ' पद है। उन सम कम का जो उन दोन ोक क ा ाम बतलाये ए कारसे भगवान्म समपण कर देना है, वही उनका ' ाग' है। क भगवान् इस अ ायम ागका प बतलाते समय सातव ोकम कह चुके ह क नयत कम का पसे ाग करना ायसंगत नह है; इस लये उनका जो मोहपूवक ाग है, वह तामस ाग है। अत: यहाँ 'प र ' पदसे सम कम का पसे ाग मानना नह बन सकता। े





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इसके सवा अजुनको भगवान्ने ा धम- प यु का प र ाग न करनेके लये एवं सम कम को भगवान्के अपण करके यु करनेके लये जगह-जगह आ ा दी है (३।३०; ८। ७; ११।३४) और सम गीताको भलीभाँ त सुन लेनेके बाद इस अ ायके तह रव ोकम यं अजुनने भगवान्को यह ीकृ त देकर क 'क र े वचनं तव ' (म आपक आ ाका पालन क ँ गा) फर धम प यु ही कया है। इस लये यहा सम कम को भगवान्म समपण कर देना अथात् सब कु छ भगवान्का समझकर मन, इ य और शरीरम तथा उनके ारा कये जानेवाले कम म और उनके फल प सम भोग म ममता, आस अ भमान और कामनाका सवथा ाग कर देना और के वल भगवान्के ही लये भगवान्क आ ा और ेरणाके अनुसार, जैसे वे करवाव वैसे; कठपुतलीक भाँ त उनको करते रहना–यही यहाँ सम धम का प र ाग करना है, उनका पसे ाग करना नह । – इस कार सम धम का प र ाग करके उसके बाद के वल एकमा परमे रक शरणम चले जाना ा है? उ र – उपयु कारसे सम कम को भगवान्म समपण करके बारहव अ ायके छठे ोकम, नव अ ायके अ म ोकम तथा इस अ ायके स ावनव ोकम कहे ए कारसे भगवान्को ही अपना परम ा , परम ग त, परमाधार, परम य, परम हतैषी, परम सु द,् परम आ ीय तथा भता, ामी, संर क समझकर, उठते-बैठते, खाते-पीते, चलते- फरते, सोते-जागते और हरेक कारसे उनक आ ा का पालन करते समय परम ापूवक अन ेमसे न नर र उनका च न करते रहना और उनके वधानम सदा ही स ु रहना एवं सब कारसे के वलमा एक भगवान्पर ही भ ादक भाँ त नभर रहना, एकमा परमे रक शरणम चला जाना है। – म तुझे सब पाप से मु

कर दूँगा, इस कथनका ा भाव है? उ र – शुभाशुभ कम का फल प जो कमब न ह – जससे बँधा आ मनु ज -ज ा रसे नाना यो नय म घूम रहा है, उस कमब नका वाचक यहाँ 'पाप' है और उस कमब नसे मु कर देना ही पाप से मु कर देना है। इस लये तीसरे अ ायके इकतीसव ोकम 'कम भः मु े ' से, बारहव अ ायके सातव ोकम 'मृ ुसंसारसागरात् समु ता भवा म ' से और इस अ ायके अ ावनव ोकम 'म सादात् सवदगु ा ण त र स ' से जो बात कही गयी है – वही वात यहाँ 'म तुझे सब पाप से मु कर दूँगा', इस वा से कही गयी है। ो ै

– 'मा शुच: ' अथात् तू शोक मत कर, इस कथनका

ा भाव है? उ र – इस कथनसे भगवान्ने अजुनको आ ासन देते ए गीताके उपदेशका उपसंहार कया है। तथा दूसरे अ ायके ारहव ोकम 'अशो ान् ' पदसे जस उपदेशका उप म कया था, उसका 'मा शुच: ' पदसे उपसंहार करके यह दखलाया है क दूसरे अ ायके सातव ोकम तुम मेरी शरणाग त ीकार कर ही चुके हो, अब पूण पसे शरणागत होकर तुम कु छ भी च ा न करो और शोकका सवथा ाग करके सदा-सवदा मुझ परमे रपर नभर हो रहो। यह शोकका सवथा अभाव और भगव ा ा ार ही गीता का मु ता य है।

इस कार भगवान् गीताके उपदेशका उपसंहार करके अब उस उपदेशके अ ापन और अ यन आ दका महा बतलानेके लये पहले अन धकारीके ल ण बतलाकर उसे गीताका उपदेश सुनानेका नषेध करते ह – स



इदं ते नातप ाय नाभ ाय कदाचन । न चाशु ूषवे वा ं न च मां योऽ सूय त ॥६७॥

तुझे यह गीता प रह मय उपदेश कसी भी कालम न तो तपर हत मनु से कहना चा हये, न भ र हतसे और न बना सुननेक इ ावालेसे ही कहना चा हये; तथा जो मुझम दोषद रखता है उससे तो कभी भी नह कहना चा हये॥६७॥

पद यहाँ कसका वाचक है तथा यह तपर हत मनु से कसी भी कालम नह कहना चा हये, इस कथनका ा भाव है? उ र – दूसरे अ ायके ारहव ोकसे लेकर उपयु ोकतक अजुनको अपने गुण, भाव, रह और पका त समझानेके लये भगवान्ने जो उपदेश दया है, उस सम उपदेशका वाचक यहाँ 'इदम् ' पद है। इसके अ धकारीका नणय करनेके लये भगवान्ने चार दोष से यु मनु को यह उपदेश सुनानेक मनाही कहई है। उनमसे उपयु वा के ारा तपर हत मनु को इसे सुनानेक मनाही क गयी है। अ भ ाय यह है क यह गीताशा बड़ा ही गु रखनेयो वषय है, तुम मेरे अ तशय ेमी भ और दैवी स दासे यु हो, इस लये इसका अ धकारी समझकर मने तु ारे हतके लये तु यह उपदेश दया है। अत: जो मनु धम– 'इदम् '



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पालन प तप करनेवाला न हो, भोग क आस के कारण सांसा रक वषय-सुखके लोभसे अपने धमका ाग करके पापकम म वृ हो – ऐसे मनु को मेरे गुण, भाव और त के वणनसे भरपूर यह गीताशा नह सुनाना चा हये; क वह इसको धारण नह कर सके गा, इससे इस उपदेशका और साथ-ही-साथ मेरा भी अनादर होगा। – भ र हत मनु से भी कभी नह कहना चा हये; इस कथनका ा अ भ ाय है? उ र – इससे भ र हत मनु को उपयु उपदेश सुनानेक मनाही क है। अ भ ाय यह है क जसका मुझ परमे रम व ास, ेम और पू भाव नह है; और जो अपनेको ही सवसवा समझनेवाला ना क है – ऐसे मनु को भी यह अ गोपनीय गीताशा नह सुनाना चा हये, क वह इसे सुनकर इसके भाव को न समझनेके कारण इसे धारण नह कर सके गा। – 'अशु ूषवे ' पद कसका वाचक है और उसे गीतो उपदेश न सुनानेके लये कहनेका ा अ भ ाय हे? उ र – जसक गीताशा को सुननेक इ ा न हो, उसका वाचक यहाँ 'अशु ूषवे ' पद है। उसे सुनानेक मनाही करके भगवान्ने यह भाव दखलाया है क य द कोई अपने धमका पालन प तप भी करता हो क ु गीताशा म ा और ेम न होनेके कारण वह उसे सुनना न चाहता हो, तो उसे भी यह परम गोपनीय शा नह सुनाना चा हये; क ऐसा मनु उसको सुननेसे ऊब जाता है और उसे हण नह कर सकता, इससे मेरे उपदेशका और मेरा अनादर होता है। – जो मुझम दोष रखता है उसे तो कभी भी नह कहना चा हये – इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क संसारका उ ार करनेके लये सगुण पसे कट मुझ परमे रम जसक दोष है, जो मेरे गुण म दोषारोपण करके मेरी न ा करनेवाला है – ऐसे मनु को तो कसी भी हालतम यह उपदेश नह सुनाना चा हये; क वह मेरे गुण, भाव और ऐ यको न सह सकनेके कारण इस उपदेशको सुनकर मेरी पहलेसे भी अ धक अव ा करेगा, इससे अ धक पापका भागी होगा। ो

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उपयु चार दोष जसम ह , उसीको यह उपदेश नह कहना चा हये या चार मसे जसम एक, दो या तीन दोष ह – उसको भी नह सुनाना चा हये? उ र – चार मसे एक भी दोष जसम नह है, वह तो इस उपदेशका पूरा अ धकारी है ही; इसके सवा जसम धमपालन प तपक कमी हो, पर उसके बादके तीन दोष नह ह तो वह भी अ धकारी है तथा जो न तो तप ी हो और न भगवान्का पूण भ ही हो, पर ु गीता सुनना चाहता हो तो वह भी कसी अंशम अ धकारी है। क ु जो भगवान्म दोष रखता है – उनक न ा करता है, वह तो सवथा अन धकारी है; उसे तो कभी भी नह कहना चा हये। –

इस कार गीतो उपदेशके अन धकारीके ल ण बतलाकर अब भगवान् दो ोक ारा अपने भ म इस उपदेशके वणनका फल ओर माहा   बतलाते ह – स



य इदं परमं गु ं म े भधा त । भ म य परां कृ ा मामेवै संशयः ॥६८॥



जो पु ष मुझम परम म े करके इस परम रह यु गीताशा को मेरे म कहेगा, वह मुझको ही ा होगा – इसम कोई स ेह नह है॥६८॥

पद कसका वाचक है तथा उसके साथ 'परमम् ' और 'गु म् ' –इन दो वशेषण के योगका ा भाव है? उ र – 'इमम् ' पद यहाँ गीतो सम उपदेशका वाचक है। उसके साथ 'परमम् ' और 'गु म् ' वशेषण देकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क यह उपदेश मनु को संसार-ब नसे छु ड़ाकर सा ात् मुझ परमे रक ा करानेवाला होनेसे अ ही े और गु रखनेयो है। – 'म ेषु ' पद कनका वाचक है और इसका योग करके यहाँ ा भाव दखलाया गया है? उ र – जनक भगवान्म ा है; जो भगवान्को सम जगत्क उ , त और पालन करनेवाले, सवश मान् और सव र समझकर उनम ेम करते ह; जनके च म भगवान्के गुण, भाव, लीला और त क बात सुननेक उ ुकता रहती है और सुनकर स ता होती है – उनका वाचक यहाँ 'म ेषु ' पद है। ो े ँ ी े ी ै – 'इमम् '

इसका योग करके यहाँ गीताके अ धकारीका नणय कया गया है। अ भ ाय यह है क जो मेरा भ होता है, उसम पूव ोकम व णत चार दोष का अभाव अपनेआप हो जाता है। इस लये जो मेरा भ है, वही इसका अ धकारी है तथा सभी मनु – चाहे कसी भी वण और जा तके न ह – मेरे भ बन सकते ह (९। ३२); अत: वण और जा त आ दके कारण इसका कोई भी अन धकारी नह है। – भगवान्म परम ेम करके भगवान्के भ म इस उपदेशका कथन करना ा है? उ र – यं भगवान्म या उनके वचन म अ तशय ायु होकर एवं भगवान्के नाम, गुण, लीला, भाव और पक ृ तसे उनके ेमम व ल होकर के वल भगवान्क स ताके ही लये न ामभावसे उपयु भगव म इस गीताशा का वणन करना अथात् भगवान्के भ को इसके मूल ोक का अ न कराना, उनक ा ा करके अथ समझाना, शु पाठ करवाना, उनके भाव को भलीभाँ त कट करना और समझाना, ोता क शंकाका समाधान करके गीताके उपदेशको उनके दयम जमा देना और गीताके उपदेशानुसार चलनेक उनम ढ़ भावना उ कर देना आ द सभी याएँ भगवान्म परम ेम करके भगवान्के भ म गीताका उपदेश कथन करनेके अ गत आ जाती ह। – वह मुझको ही ा होगा – इसम कोई स हे नह है इस वा का ा भाव है? उ र – इससे भगवान्ने यह भाव दखलाया है क इस कार जो भ के वल मेरी भ के ही उ े से न ामभावसे मेरे भाव का अ धकारी पु ष म व ार करता है, वह मुझे ा होता है – इसम क च ा भी स ेह नह है – अथात् यह मेरी ा का ऐका क उपाय है; इस लये मेरी ा चाहनेवाले अ धकारी भ को इस गीताशा के कथन तथा चारका काय अव करना चा हये।

न च त ा नु षे ु क े यकृ मः । भ वता न च मे त ाद ः यतरो भु व ॥६९॥

उससे बढ़कर मेरा य काय करनेवाला मनु म कोई भी नह है; तथा पृ ीभरम उससे बढ़कर मेरा य दस ू रा कोई भ व म होगा भी नह ॥६९॥



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पद यहाँ कसका वाचक है और उससे बढ़कर मेरा य काय करनेवाला मनु म कोई भी नह है इस कथनका ा भाव है? उ र – 'त ात् ' पद यहाँ पूव ोकम व णत, इस गीताशा का भगवान्के भ म कथन करनेवाले, गीताशा के मम , ालु ओर ेमी भगवदभ् का वाचक है। 'उससे बढ़कर मेरा य काय करनेवाला मनु म कोई भी नह है।' इस वा से भगवान्ने यह भाव दखलाया है क य , दान, तप, सेवा, पूजा और जप, ान आ द जतने भी मेरे य काय ह – उन सबसे बढ़कर 'मेरे भाव को मेरे भ म व ार करना' मुझे य है; इस कायके बराबर मेरा य काय संसारम कोई है ही नह । इस कारण जो मेरा ेमी भ मेरे भाव का ा-भ पूवक मेरे भ म व ार करता है, वही सबसे बढ़कर मेरा य है; उससे बढ़कर दूसरा कोई नह । क वह अपने ाथको सवथा ागकर के वल मेरा ही य काय करता है, इस कारण वह मुझे अ य है। – पृ ीभरम उससे बढ़कर मेरा य दूसरा कोई भ व म होगा भी नह , इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे भगवान्ने यह घोषणा कर दी है क के वल इस समय ही उससे बढ़कर मेरा कोई य नह है, यही बात नह है; कतु उससे बढ़कर मेरा ारा कोई हो सके गा, यह भी स व नह है। क जब उसके कायसे बढ़कर दूसरा कोई मेरा य काय है ही नह , तब कसी भी साधनके ारा कोई भी मनु मेरा उससे बढ़कर य कै से हो सकता है? इस लये मेरी ा के जतने भी साधन ह, उन सबम यह 'भ पूवक मेरे भ म मेरे भाव का व ार करना प' साधन सव म ह – ऐसा समझकर मेरे भ को यह काय करना चा हये। – 'त ात् '

इस कार उपयु दो ोक म गीताशा का ाभ पूवक भगव म व ार करनेका फल और माहा बतलाया; क ु सभी मनु इस कायको नह कर सकते, इसका अ धकारी तो कोई वरला ही होता है| इस लये अब गीताशा के अ यनका माहा बतलाते ह – स



अ े ते च य इमं ध संवादमावयोः । ानय ेन तेनाह म ः ा म त मे म तः ॥७०॥

जो पु ष इस धममय हम दोन के संवाद प गीताशा को पढ़ेगा, उसके ारा भी म ानय से पू जत होऊँगा – ऐसा मेरा मत है॥७०॥ ो





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के स हत 'इमम् ' पद कसका वाचक है और उसके ा भाव है? उ र – अजुन और भगवान् ीकृ के ो रके पम जो यह गीताशा है, जसको अड़सठव ोकम 'परम गु ' बतलाया गया है – उसीका वाचक यहाँ 'आवयो: संवादम् ' के स हत 'इमम् ' पद है। इसके साथ 'ध म् ' वशेषण देकर भगवान्ने यह भाव दखलाया है क यह सा ात् मुझ परमे रके ारा कहा आ शा है; इस कारण इसम जो कु छ उपदेश दया गया है, वह सब-का-सब धमसे ओत- ोत है, कोई भी बात धमसे व या थ नह है। इस लये इसम बतलाये ए उपदेशका पालन करना मनु का परम कत है। – गीताशा का अ यन करना ा है? उ र – गीताका मम जाननेवाले भगवान्के भ से इस गीताशा को पढ़ना, इसका न पाठ करना, इसके अथका पाठ करना, अथपर वचार करना और इसके अथको जाननेवाले भ से इसके अथको समझनेक चे ा करना आ द सभी अ ास गीताशा का अ यन करनेके अ गत है। ोक का अथ बना समझे इस गीताको पढ़ने और उसका न पाठ करनेक अपे ा उसके अथको भी साथ-साथ पढ़ना और अथ ानके स हत उसका न पाठ करना अ धक उ म है तथा उसके अथको समझकर पढ़ते या पाठ करते समय ेमम व ल होकर भावा त हो जाना उससे भी अ धक उ म है । – उसके ारा भी म ानय से पू जत होऊँ गा यह मेरा मत है – इस वा का ा भाव है? उ र – इससे भगवान्ने गीताशा के उपयु कारसे अ यनका माहा बतलाया है। अ भ ाय यह है क इस गीताशा का अ यन करनेसे मनु को मेरे सगुण- नगुण और साकार- नराकार त का भलीभाँ त यथाथ ान हो जाता है। अत: जो कोई मनु मेरा त जाननेके लये इस गीताशा का अ यन करेगा, म समझूँगा क वह भी ानय के ारा मेरी पूजा करता है। यह ानय प साधन अ मय साधन क अपे ा ब त ही उ म माना गया है (४।३३); क सभी साधन का अ म फल भगवान्के त को भलीभाँ त जान लेना है; और वह फल इस ानय से अनायास ही मल जाता है, इस लये क ाणकामी मनु को त रताके साथ गीताका अ यन करना चा हये। – 'आवयो: संवादम् ' साथ 'ध म् ' वशेषण देनेका





इस कार गीताशा के अ यनका माहा बतलाकर, अब जो उपयु कारसे अ यन करनेम असमथ ह – ऐसे मनु के लये उसके वणका फल बतलाते ह – स



ावाननसूय णुयाद प यो नरः । सोऽ प मु ः शुभाँ ोका ा यु ा ु कमणाम् ॥७१॥

जो मनु ायु और दोष से र हत होकर इस गीताशा का वण भी करेगा, वह भी पाप से मु होकर उ म कम करनेवाल के े लोक को ा होगा॥७१॥

योगका ा भाव है? उ र – यहाँ 'नर: ' पदका योग करके यह भाव दखलाया गया है क जसके अंदर इस गीताशा को ापूवक वण करनेक भी च नह है, वह तो मनु कहलानेयो भी नह है; क उसका मनु ज पाना थ हो रहा है। इस कारण वह मनु के पम पशुके ही तु है। – ायु और दोष से र हत होकर इस गीताशा का वण करना ा है? उ र – भगवान्क स ाम और उनके गुण- भावम व ास करके तथा यह गीताशा सा ात् भगवान्क ही वाणी है, इसम जो कु छ भी कहा गया है सब-कासब यथाथ है – ऐसा न यपूवक मानकर और उसके व ापर व ास करके ेम और चके साथ गीताजीके मूल ोक के पाठका या उसके अथक ा ाका वण करना, यह ासे यु होकर गीताशा का वण करना है। और उसका वण करते समय भगवान्पर या भगवान्के वचन पर कसी कारका दोषारोपण न करना एवं गीताशा क कसी पम भी अव ा न करना – यह दोष से र हत होकर उसका वण करना है। – ' ुणुयात् ' के साथ 'अ प ' पदके योगका ा भाव है? उ र – ' ुणुयात् ' के साथ 'अ प ' पदका योग करके यह भाव दखलाया गया है क जो अड़सठव ोकके वणनानुसार इस गीताशा का दूसर को अ यन कराता है तथा जो स रव ोकके कथनानुसार यं अ यन करता है, उन लोग क तो बात ही ा है, पर जो इसका ापूवक वणमा भी कर पाता है, वह भी े

– यहाँ 'नर: ' पदके









पाप से छू ट जाता है। इस लये जससे इसका अ ापन अथवा अ यन भी न बन सके , उसे इसका वण तो अव ही करना चा हये। – वण करनेवालेका पाप से मु होकर उ म कम करनेवाल के े लोक को ा होना ा है तथा यहाँ 'स: ' के साथ 'अ प ' पदके योगका ा भाव है? उ र – ज -ज ा र म कये ए जो पशु-प ी आ द नीच यो नय के और नरकके हेतुभूत पापकम ह, उन सबसे छू टकर जो इ लोकसे लेकर भगवान्के परमधामपय अपने-अपने ेम और ाके अनु प भ - भ लोक म नवास करना है – यही उनका पाप से मु होकर पु कम करनेवाल के े लोक को ा होना है। 'स: ' के साथ 'अ प ' पदका योग करके यहाँ यह भाव दखलाया गया है क जो मनु इसका अ ापन और अ यन न कर सकनेके कारण उपयु कारसे के वल वणमा भी कर लेगा, वह भी पाप के फलसे मु हो जायगा– जससे उसे पशु-प ी आ द यो नय क और नरक क ा न होगी; ब वह उ म कम करनेवाल के े लोक को ा करेगा ।

इस कार गीताशा के कथन, पठन और वणका माहा बतलाकर अब भगवान् यं सब कु छ जानते ए भी अजुनको सचेत करनेके लये उससे उसक त पूछते ह – स



क देत ु तं पाथ यैका ेण चेतसा । क द ानस ोहः न े धन य ॥७२॥

हे पाथ! ा इस (गीताशा ) को तूने एका च से वण कया? और हे धनंजय! ा तेरा अ ानज नत मोह न हो गया?॥७२॥ – 'एतत् ' पद वण कया?' इस

यहाँ कसका वाचक है और ' ा इसको तूने एका च से का ा भाव है? उ र – दूसरे अ ायके ारहव ोकसे आर करके इस अ ायके छाछठव ोक पय भगवान्ने जो द उपदेश दया है, उस परम गोपनीय सम उपदेशका वाचक यहाँ 'एतत् ' पद है। उस उपदेशका मह कट करनेके लये ही भगवान्ने यहाँ अजुनसे उपयु कया है। अ भ ाय यह है क मेरा यह उपदेश ी ै े े े ी े ँ ेी ी

बड़ा ही दुलभ है, म हरेक मनु के सामने 'म ही सा ात् परमे र ँ , तू मेरी ही शरणम आ जा' इ ा द बात नह कह सकता; इस लये तुमने मेरे उपदेशको भलीभाँ त ानपूवक सुन तो लया है न? क य द कह तुमने उसपर ान न दया होगा तो तुमने नःस हे बड़ी भूल क है। – ा तेरा अ ानज नत मोह न हो गया? इस का ा भाव है? उ र – इस से भगवान्ने यह भाव दखलाया है क य द तुमने उस उपदेशको भलीभाँ त सुना है तो उसका फल भी अव होना चा हये। इस लये तुम जस मोहसे ा होकर धमके वषयम अपनेको अचेता बतला रहे थे (२।७) तथा अपने धमका पालन करनेम पाप समझ रहे थे (१।३६) और सम कत कम का ाग करके भ ाके अ से जीवन बताना े समझ रहे थे (२।५) एवं जसके कारण तुम जनवधके भयसे ाकु ल हो रहे थे (१। ४०-४७) और अपने कत का न य नह कर पाते थे (२।६-७) – तु ारा वह अ ानज नत मोह अब न हो गया या नह ? य द मेरे उपदेशको तुमने ानपूवक सुना होगा तो अव ही तु ारा मोह न हो जाना चा हये। और य द तु ारा मोह न नह आ है, तो यही मानना पड़ेगा क तुमने उस उपदेशको एका च से नह सुना। यहाँ भगवान्के इन दोन म यह उपदेश भरा आ है क मनु को इस गीता-शा का अ यन और वण बड़ी सावधानीके साथ एका च से त र होकर करना चा हये और जबतक अ ानज नत मोहका सवथा नाश न हो जाय तबतक यह समझना चा हये क अभीतक म भगवान्के उपदेशको यथाथ नह समझ सका ँ , अत: पुन: उसपर ा और ववेकपूवक वचार करना आव क है।

इस कार भगवान्के पूछनेपर अब अजुन भगवान्से कृ त ता कट करते ए अपनी तका वणन करते ह – स



अजुन उवाच । न ो मोहः ृ तल ा सादा या ुत । तोऽ गतस ेहः क र े वचनं तव ॥७३॥

अजुन बोले – हे अ ुत! आपक कृपासे मेरा मोह न हो गया और मने ृ त ा कर ली है, अब म संशयर हत होकर त ँ , अत: आपक आ ाका पालन क ँ गा॥७३॥







– यहाँ 'अ

ुत ' स

ोधनका ा भाव है? उ र – भगवान्को 'अ ुत ' नामसे स ो धत करके यहाँ अजुनने यह भाव दखलाया है क आप सा ात् न वकार पर , परमा ा, सवश मान्, अ वनाशी परमे र ह – इस बातको अब म भलीभाँ त जान गया ँ । – 'आपक कृ पासे मेरा मोह न हो गया' इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे अजुनने कृ त ता कट करते ए भगवान्के का उ र दया है। अजुनके कहनेका अ भ ाय यह है क आपने यह द उपदेश सुनाकर मुझपर बड़ी भारी दया क है आपके उपदेशको सुननेसे मेरा अ ानज नत मोह सवथा न हो गया है अथात् आपके गुण, भाव, ऐ य और पको यथाथ न जाननेके कारण जस मोहसे ा होकर म आपक आ ाको माननेके लये तैयार नह होता था (२।९) और ब ुबा व के वनाशका भय करके शोकसे ाकु ल हो रहा था (१। २८ से ४७ तक)- वह सब मोह अब सवथा न हो गया है। – 'मने ृ त ा कर ली है' इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे अजुनने यह भाव दखलाया है क मेरा अ ानज नत मोह न हो जानेसे मेरे अ ःकरणम द ानका काश हो गया है; इससे मुझे आपके गुण, भाव, ऐ य और पक पूण ृ त ा हो गयी है और आपका सम प मेरे हो गया है – मुझे कु छ भी अ ात नह रहा है। – 'म संशयर हत होकर त ँ ' इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे अजुनने यह भाव कट कया है क अब आपके गुण, भाव, ऐ य और सगुण- नगुण, साकार- नराकार पके वषयम तथा धम-अधम और कत -अकत आ दके वषयम मुझे क च ा भी संशय नह रहा है। मेरे सब संशय न हो गये ह तथा सम संशय का नाश हो जानेके कारण मेरे अ ःकरणम चंचलताका सवथा अभाव हो गया है। – 'म आपक आ ाका पालन क ँ गा' इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे अजुनने यह भाव दखलाया है क आपक दयासे म कृ तकृ हो गया ँ , मेरे लये अब कु छ भी कत शेष नह रहा; अतएव आपके कथनानुसार लोकसं हके लये यु ा द सम कम जैसे आप करवावगे, न म मा बनकर लीला पसे म वैसे ही क ँ गा।









कार धृतरा के ानुसार भगवान् ीकृ ा और अजुनके संवाद प गीताशा का वणन करके अब उसका उपसंहार करते ए संजय दो ोक म धृतरा के सामने गीताका मह कट करते ह – स

– इस

स य उवाच । इ हं वासुदेव पाथ च महा नः । संवाद ममम ौषम तु ं रोमहषणम् ॥७४॥

संजय बोले – इस कार मने ीवासुदेवके और महा ा अजुनके इस अ भ ु ूत रह यु , रोमांचकारक संवादको सुना॥७४॥ – 'इ त ' पदका

ा भाव है? उ र – 'इ त ' पदसे यहाँ गीताके उपदेशक समा दखलायी गयी है। – भगवान्के 'वासुदेव' नामका योग करके और 'पाथ 'के साथ 'महा ा' वशेषण देकर ा भाव दखलाया गया है? उ र – इससे संजयने गीताका मह कट कया है। अ भ ाय यह है क सा ात् नर ऋ षके अवतार महा ा अजुनके पूछनेपर सबके दयम नवास करनेवाले सव ापी परमे र ीकृ के ारा यह उपदेश दया गया है, इस कारण यह बड़े ही मह का है। दूसरा कोई भी शा इसक बराबरी नह कर सकता, क यह सम शा का सार है। – यहाँ 'संवादम् ' पदके साथ 'अ तु म् ' और 'रोमहषणम् ' वशेषण देनेका ा भाव है? उ र – इन दोन वशेषण का योग करके संजयने यह भाव दखलाया है क यह महा ा अजुनके पूछनेपर सा ात् परमे रके ारा कहा आ उपदेश बड़ा ही अ तु अथात् आ यजनक और असाधारण है; इससे मनु को भगवान्के द अलौ कक गुण, भाव और ऐ ययु सम पका पूण ान हो जाता है तथा मनु इसे जैसे-जैसे सुनता और समझता है वैसे-ही-वैसे हष और आ यके कारण उसका शरीर पुल कत हो जाता है, उसके सम शरीरम रोमांच हो जाता है। – 'अ ौषम् ' पदका ा भाव है? उ र – इससे संजयने यह भाव दखलाया है क ऐसे अ तु आ यमय उपदेशको मने सुना, यह मेरे लये बड़े ही सौभा क बात है।





ास सादा ु तवानेत ु महं परम् । योगं योगे रा ृ ा ा ा थयतः यम् ॥७५॥

ी ासजीक कृपासे द पाकर मने इस परम गोपनीय योगको अजुनके त कहते ए यं योगे र भगवान् ीकृ से सुना है॥ ७५॥ – ' ास सादात् ' पदका

ा भाव है? उ र – इससे संजयने ासजीके त कृ त ताका भाव कट कया है। अ भ ाय यह है क भगवान् ासजीने दया करके जो मुझे द अथात् दूर देशम होनेवाली सम घटना को देखने, सुनने और समझने आ दक अ तु श दान क ह – उसीके कारण आज मुझे भगवान्का यह द उपदेश सुननेके लये मला; नह तो मुझे ऐसा सुयोग कै से मलता? – 'एतत् ' पद यहाँ कसका वाचक है तथा उसके साथ 'परम् ', 'गु म् ' और 'योगम् ' – इन तीन वशेषण के योगका ा भाव है? उ र – 'एतत्' पद यहाँ ीकृ और अजुनके संवाद प इस गीताशा का वाचक है, इसके साथ 'परम् ' वशेषण देकर यह भाव दखलाया है क यह अ तशय उ म है, 'गु म् ' वशेषण देकर यह भाव दखलाया है क यह अ गु रखनेयो है, अत: अन धकारीके सामने इसका वणन नह करना चा हये; तथा 'योगम् ' वशेषण देकर यह भाव दखलाया है क भगवान्क ा के उपायभूत कमयोग, ानयोग, ानयोग और भ योग आ द साधन का भलीभाँ त वणन कया गया है तथा वह यं भी अथात् ापूवक इसका पाठ भी परमा ाक ा का साधन होनेसे योग प ही है। – उपयु वशेषण से यु इस उपदेशको मने अजुनके त कहते ए यं योगे र भगवान् ीकृ से सुना है, इस वा का ा भाव है? उ र – इससे संजयने धृतरा के त यह भाव कट कया है क यह गीताशा – जो मने आपको सुनाया है – कसी दूसरेसे सुनी ई बात नह है, क ु सम योग-श य के अ सवश मान् यं भगवान् ीकृ के ही मुखार व से उस समय जब क वे उसे अजुनसे कह रहे थे – मने सुना है।

इस कार अ तदुलभ गीताशा के सुननेका मह कट करके अब संजय अपनी तका वणन करते ए उस उपदेशक ृ तका मह कट े स



करते ह –

राज ं ृ सं ृ संवाद ममम तु म् । के शवाजुनयोः पु ं ा म च मु मु ः ॥७६॥

हे राजन्! भगवान् ीकृ और अजुनके इस रह यु , क ाणकारक और अ तु संवादको पुन:-पुन: रण करके म बार-बार ह षत हो रहा ँ ॥७६॥

वशेषण का ा भाव है? उ र – 'पु म् ' और 'अदभु् तम् ' – इन दोन वशेषण का योग करके संजयने यह भाव दखलाया है क भगवान् ीकृ और अजुनका द संवाद प यह गीताशा अ यन, अ ापन, वण, मनन और वणन आ द करनेवाले मनु को परम प व करके उसका सब कारसे क ाण करनेवाला तथा भगवान्के आ यमय गुण, भाव, ऐ य, त -रह और पको बतानेवाला है; अत: यह अ ही प व , द एवं अलौ कक है। – इसे पुन:-पुन: रण करके म बार-बार ह षत हो रहा ँ – इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे संजयने अपनी तका वणन करके गीतो उपदेशक ृ तका मह कट कया है। अ भ ाय यह है क भगवान् ारा व णत इस उपदेशने मेरे दयको इतना आक षत कर लया है क अब मुझे दूसरी कोई बात ही अ ी नह लगती, मेरे मनम बार-बार उस उपदेशक ृ त हो रही है और उन भाव के आवेशम मै असीम हषका अनुभव कर रहा ँ , ेम और हषके कारण व ल हो रहा ँ। – 'पु

अपनी ह–



म् ' और 'अदभु ् तम् ' – इन दोन

–इस

कार गीताशा क ृ तका मह बतलाकर अब संजय तका वणन करते ए भगवान्के वराट् पक ृ तका मह दखलाते

त सं ृ सं ृ पम तु ं हरेः । व यो मे महान् राज ृ ा म च पुनः पुनः ॥७७॥

हे राजन्! ीह रके उस अ वल ण पको भी पुनः-पुन: रण करके मेरे च म महान् आ य होता है और म बार-बार ह षत हो रहा ँ ॥७७॥





– भगवान्के 'ह र' नामका

ा भाव है? उ र – भगवान् ीकृ के गुण भाव, लीला, ऐ य, म हमा, नाम और पका वण, मनन, क तन, दशन और श आ द करनेसे मनु के सम पाप का नाश हो जाता है; उनके साथ कसी कारका भी स हो जानेसे वे मनु के सम पाप को, अ ानको और दुःखको हरण कर लेते ह तथा वे अपने भ के मनको चुरानेवाले ह। इस लये उ 'ह र' कहते ह। – 'तत् ' और 'अ त अदभु ् तम् ' वशेषण के स हत ' पम् ' पद भगवान्के कस पका वाचक है? उ र – जस अ आ यमय द व पका भगवान्ने अजुनको दशन कराया था और जसके दशनका मह भगवान्ने ारहव अ ायके सतालीसव और अड़तालीसव ोक म यं बतलाया है, उसी वराट पका वाचक यहाँ 'तत् ' और 'अ त अदभु् तम् ' वशेषण के स हत ' पम् ' पद है। – उस पको पुनः-पुन: रण करके मुझे महान् आ य होता है – इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे संजयने यह भाव दखलाया है क भगवान्का वह प मेरे च से उतरता ही नह , उसे म बार-बार रण करता रहता ँ और मुझे बड़ा आ य हो रहा है क भगवान्के अ तशय दुलभ उस द पका दशन मुझे कै से हो गया। मेरा तो ऐसा कु छ भी पु नह था जससे मुझे ऐसे पके दशन हो सकते। अहो! इसम के वलमा भगवान्क अहैतुक दया ही कारण है। साथ ही उस पके अ अदभु् त को और घटना को याद कर-करके भी मुझे बड़ा आ य होता है क अहो! भगवान्क कै सी व च योगश है। – म बार-बार ह षत हो रहा ँ – इस कथनका ा भाव है? उ र – इससे यह भाव दखलाया गया है क मुझे के वल आ य ही नह होता है, उसे बार-बार याद करके म हष और ेमम व ल भी हो रहा ँ ; मेरे आन का पारावार नह है । इस कार अपनी तका वणन करते ए गीताके उपदेशक और भगवान्के अ तु पक ृ तका मह कट करके अब संजय धृतरा से स





पा व क वजयक न त स ावना कट करते ए इस अ ायका उपसंहार करते ह –

य योगे रः कृ ो य पाथ धनुधरः । त ी वजयो भू त ुवा नी तम तमम ॥७८॥

हे राजन्! ज ँ योगे र भगवान् ीकृ ह और जहाँ गा ीव-धनुषधारी अजुन ह, वह पर ी, वजय, वभू त और अचल नी त है – ऐसा मेरा मत है॥ ७८॥

ाकृ को योगे र कहकर अजुनको धनुधर कहकर इस ोकम संजयने ा भाव दखलाया है? उ र – धृतरा के मनम स क इ ा उ करनेके उ े से इस ोकम संजय उपयु वशेषण के ारा भगवान् ीकृ का और अजुनका भाव बतलाते ए पा व के वजयक न त स ावना कट करते ह। अ भ ाय यह है क भगवान् ीकृ सम योगश य के ामी ह; वे अपनी योगश से णभरम सम जगत्क उ , पालन और संहार कर सकते ह; वे सा ात् नारायण भगवान् ीकृ जस धमराज यु ध रके सहायक है, उसक वजयम ा शंका है। इसके सवा अजुन भी नर ऋ षके अवतार भगवान्के य सखा और गा ीव-धनुषके धारण करनेवाले महान् वीर पु ष ह; वे भी अपने भाई यु ध रक वजयके लये क टब ह। अत: आज उस यु ध रक बराबरी दूसरा कौन कर सकता है; क जहाँ सूय रहता है काश उसके साथ ही रहता है – उसी कार जहाँ योगे र भगवान् ीकृ और अजुन रहते ह वह स ूण शोभा, सारा ऐ य और अटल ाय (धम) – ये सब उनके साथ-साथ रहते ह और जस प म धम रहता है उसीक वजय होती है। अत: पा व क वजयम कसी कारक शंका नह है। य द अब भी तुम अपना क ाण चाहते हो तो अपने पु को समझाकर पा व से स कर लो। –

ॐ त द त ीम गव ीतासूप नष ु व ायां योगशा े ीकृ ाजुनसंवादे मो सं ासयोगो नाम अ ादशोऽ ायः ॥ १८॥

ीम गवदगीता ् ' आन चद् , षडै यपूण, चराचरव त, परमपु षो म, सा ात् भगवान् ीकृ क द वाणी है। यह अन रह से पूण है। परम दयामय भगवान् ीकृ क कृ पासे ही कसी अंशम इसका रह समझम आ सकता है। जो पु ष परम ा और ेममयी वशु भ से अपने दयको भरकर भगवदगीताका मनन करते ह, वे ही भगव ृ पाका अनुभव करके ् गीताके पका कसी अंशम झाँक कर सकते ह। अतएव अपना क ाण चाहनेवाले नर- ना रय को उ चत है क वे भ वर अजुनको आदश मानकर अपनेम अजुनके -से दैवी गुण का अजन करते ए ा-भ पूवक गीताका वण, मनन और अ यन कर एवं भगवान्के आ ानुसार यथायो त रताके साथ साधनम लग जायँ। जो पु ष इस कार करते ह, उनके अ ःकरणम न नये-नये परमान दायक अनुपम और द भाव क सफु रणाएँ होती रहती है तथा वे सवथा शु ा :करण होकर भगवान्क अलौ कक कृ पा-सुधाका रसा ादन करते ए शी ही भगवान्को ा हो जाते है। '

◌ै ।

महाभारतम ीगीताजीक महा

गीता सुगीता कत ा कम ै: शा सं है:। या

यं प नाभ

मुखप ा

नःसृता॥

सवशा मयी गीता सवदेवमयो ह र:। सवतीथमयी गंगा सववेदमयो मनु:॥ गीता गंगा च गाय ी गो व े त चतुगकारसंयु

े पुनज

कृ

ेन अजुन

ते।

न व ते॥

भारतामृतसव गीताया म थत सारमुदधृ ्



च।

मुखे तम्॥

(महा० भी

० ४३|१-३, ५) अ शा के सं हक ा आव कता है? के वल गीताका ही भली कारसे गान (पठन और मनन) करना चा हये; क यह भगवान् प नाभ ( व )ु – के सा ात् मुखकमलसे कट ई है। गीता सम शा मयी है, ीह र सवदेवमय ह, गंगाजी सवतीथमयी ह और मनु सववेदमय ह। गीता, गंगा, गाय ी और गो व – ये चार गकारसे यु नाम जसके दयम बसते ह, उसका पुनज नह होता। महाभारत पी अमृतके सव गीताको मथकर और उसमसे सार नकालकर भगवान् ीकृ ने अजुनके मुखम उसका हवन कया है।

आरती

जय भगवदगीते ् , जय भगवदगीते ् । ह र- हय-कमल- वहा र ण, सु र सुपुनीते॥ जय०॥ कम-सुमम- का श न, कामास हरा। त ान- वका श न, व ा परा॥जय०॥ न ल- भ - वधा य न, नमल मलहारी। शरण-रह - दा य न, सब व ध सुखकारी॥जय०॥ राग- ेष- वदा र ण, का र ण मोद सदा। भव-भय-हा र ण, ता र ण परमान दा॥जय०॥ आसुर-भाव- वना श न, ना श न तम-रजनी। दैवी सदगु् णदा य न, ह र-र सका सजनी॥जय०॥ समता, ाग सखाव न, हीर-मुखक बानी। सकल शा क ा म न, ु तय क रानी॥जय०॥ दया-सुधा बरसाव न मातु! कृ पा क जै। ह र-पद- ेम दान कर अपनो कर लीजै ॥जय०॥ रण रहे क ये बात संजयने धृतरा से दस दनतक यु हो जानेके प ात् कही थ ; अत: 'अब भी स कर ल ' इसका यह अ भ ाय समझना चा हये क शेष बचे ए कु टु क र ाके लये अब दस दनके बाद भी आपको स कर लेनी चा हये , इसीम बु म ा है। [1]

[2] ह ा चे [3] इसी

ते ह ु हत े

ते हतम्। उभौ तौ न वजानीतो नाय ह न ह ते ।। (उ० कठ० १।२।१९)

ोकसे मलता-जुलता कठोप नषदका ् म इस कार हैवणाया प ब भय न ल ः ोऽ प बहवो यं न व ुः । आ य व ा कु शलोऽ ल ाऽऽ य ाता कु शलानु श : ।। (१।२।७) 'जो (आ त ) ब त को सुननेके लये भी नही मलता और ब त-से सुननेवाले भी जसे नह जान पाते , उस आ ाका वणन करनेवाला कोई आ यमय पु ष ही होता है। उसे ा करनेवाला नपुण पु ष भी कोई एक ही होता है तथा उसका ाता भी कोई कु शल आचाय ारा उप द आ यमय पु ष ही होता है। '

[4] याव

ती णया सू ा व ेद ेण के शव । तावद प र ा ं भूमेनः पा वा त ।।

अ व ा ताराग ेषा भ नवेशाः ेशाः। (योग० २।३) अ ान , च ड यानी जड और चेतनक एकता-सी तीत होना , आस , ेष और मरण-भय – इन पाँच क ' ेश ' सं ा है। अ व ा े मु रेषाम्............। (योग० २।४) उपयु पाँच म पछले चार का कारण अ व ा है अथात् अ व ासे ही राग- ेषा दक उ होती है। [6] पाठो होम ा तथीनां सपया तपणं ब ल:। अमी प महाय ा य ा दनामका:।। सत्-शा का पाठ ( य या ऋ षय ) , हवन (देवय ) , अ त थय क सेवा (मनु य ) ा और तपण ( पतृय ) , ा णमा के लये आहार देकर उनक सेवा करना (भूतय ) – ये पाँच महाय , य आ द नाम से स ह। [7] क नी पेषणी चु ी उदकु ी च माजनी। प सूना गृह वत ेऽहरह: सदा।। [8] अघं स के वलं भुङ् े य: पच ा कारणात्। जो मनु अपने ही लये भोजन पकाता है , वह के वल पापको ही खाता है। [9] मनु ृ तम भी यही बात कही है – वरं धम वगुणो न पार ः नु त:। परधमण जीवन् ह स ः पत त जा तत:।। (१०।९७) 'गुणर हत भी अपना धम े है , परंतु भलीभाँ त पालन कया आ पर-धम े नह है। क दूसरेके धमसे जीवन धारण करनेवाला मनु जा तसे तुरंत ही प तत हो जाता है। ' [10] आ ान्ँर थनं व शरीर्ँरथमेव तु। बु तु सार थ व मन: हमेव च।। इ या ण हयाना वषयाँ ेषु गोचरान्। आ े यमनोयु ं भो े ा मनी षण:।। (कठोप नषद ् १।३।३-४) 'तू आ ाको रथी और शरीरको रथ जान तथा बु को सार थ और मनको लगाम समझ। ववेक पु ष इ य को घोड़े बतलाते ह और वषय को उनके माग कहते ह तथा शरीर , इ य एवं मनसे यु आ ाको 'भो ा ' कहते ह। ' [11] य व व ानवान् भव यु ेन मनसा सदा। त े या व ा न दु ा ा इव सारथे:।। य व व ानवान् भव मन ः सदाशु च: । न स त दमा ो त संसारं चा धग त।। (कठोप नषद ् १।३।५ ,७) ' कतु जो बु पी सार थ सवदा अ ववेक और असंयत च से यु होता है , उसके अधीन इ याँ वैसे ही नह रहत , जैसे सार थके अधीन दु घोड़े। ' 'और जो (बु प सार थ) व ानवान् नह है , जसका मन नगृहीत नह है और जो सदा अप व है , वह उस पदको ा नह कर सकता वरं वह संसारको ही ा होता है। ' [12] य ु व ानवान् भव त यु ेन मनसा सदा। त े या ण व ा न सद ा इव सारथे:।। य ु व ानवान् भव त समन ः सदा शु च:। स तु त दमा ो त य ा यू ो न जायते।। (कठोप नषद ् १।३।६ ,८) 'परंतु बो बु पी सार थ ववेकशील (कु शल) सदा समा हत च है , उसके अधीन इ याँ वैसे ही रहती ह , जैसे सार थके अधीन उ म श त घोड़े। ' 'तथा जो व ानवान् है , नगृहीत मनवाला हे और सदा प व रहता है , वह उस पदको ा कर लेता है , जहाँसे फर वह उ नह होता यानी पुनज को नह ा होता। ' [13] इ ये : परा थी अथ परं मन:। मनस ु पस बु बु ेरा ा महान् परः।। महत: परम म ा ु ष: पर:। पु षा परं क त् सा का ा सा परा ग त:।। (कठोप नषद ् १।३।१०-११) 'इ य क अपे ा उनके अथ (श , श , प , रस और ग प त ा ाएँ ) पर ( े , सू और बलवान) ह , अथ से मन पर है , मनसे बु पर है और बु से भी महान् आ ा (मह सम -बु ) पर है। महत से अ (मूल कृ त) पर है और अ से पु ष पर है। पु षसे पर और कु छ नह है , वही पराका ा (अ म अव ध) है और वही परम ग त है। ' एष सवषु भूतेषु गूढोऽऽ ा न काशते। ते यया बुद् ा सू या सू द श भः।। (कठोप नषद १।३।१२) [5]

[14]

[15]

xx

उपसंहर व ा

दो पमलौ ककम्। शंखच गदाप

या जु ं चतुभुजम्।।

इ ु ाऽऽसी र ू भगवाना मायया। प ो: स तो: स ो बभूव ाकृ त: शशु:।। ( ीम ा० १०।३।३० ,४६) 'हे व ा न्! शंख , च , गदा और प क शोभासे यु इस चार भुजा वाले अपने अलौ कक- द पको अब छपा ली जये। ' 'ऐसा कहकर भगवान् ीह र चुप हो गये और माता- पताके देखते-देखते अपनी मायासे त ाल एक साधारण बालक-से हो गये। ' [16] आसन अनेक कारके ह। उनमसे आ संयम चाहनेवाले पु षके लये स ासन , प ासन और कासन – ये तीन ब त उपयोगी माने गये ह। इनमसे कोई-सा भी आसन हो ; परंतु मे द द म क और ीवाको सीधा अव रखना चा हये और ना सका पर अथवा भृकुटीके म भागम रखनी चा हये। आल न सतावे तो आँ ख मूँदकर भी बेठ सकते ह। जो पु प जस आसनसे सुखपूवक दीघकालतक बैठ सके , उसके लये वही आसन उ म है। [17] असुया नाम ते लोका अ ेन तमसावृता:। ताँ े े ा भग ये के चा हनो जना:।। (ईशोप नषद् ३) 'वे कू कर-शूकरा द यो न तथा नरक प असुरस ी लोक अ ान प अ कारसे ढके ए ह। जो कोई भी आ ाका हनन करनेवाले लोग ह , वे मरनेपर उन असुर-लोक को ा होते ह। ' [18] मृगचम अपनी मौतसे मरे ए मृगका होना चा हये , जान-बूझकर मारे ए मृगका नह । हसासे ा चम साधनम सहायक नह हो सकता। [19] ' रसुखमासनम् ' (योग० २।४६) 'अ धक कालतक सुखपूवक र बैठा जाय उसे आसन कहते ह। ' [20] व ुत: भगवान्के गुण , भाव , त और रह के लये यह कहना तो बन ही नह सकता क वे यही और इतने ही ह। इस स म जो कु छ भी कहा जाता है , सब सूयको दीपक दखलानेके समान ही है। तथा प उनके गुणा दका क चत्-सा रण , वण और क तन मनु को प व तम बनानेवाला है , इसीसे उनके गुणा दका शा कारगण वणन करते ह। उ शा के आधारपर उनके गुणा दको इस कार समझना चा हये – अन और असीम तथा अ ही वल ण समता , शा , दया , ेम , मा , माधुय , वा , ग ीरता , उदारता , सु दता द भगवान्के 'गुण ' ह। स ूण बल , ऐ य , तेज , श , साम और अस वको भी स व कर देना आ द भगवान्के ' भाव ' ह। जैसे परमाणु भाप , बादल , बूँदे और ओले आ द सव जल ही ह , वैसे ही सगुण- नगुण , साकारनराकार , -अ , जड-चेतन , ावर-जंगम , सत्-असत् आ द जो कु छ भी ह तथा जो इससे भी परे है , वह सब भगवान् ही है। यह 'त ' है। भगवान्के दशन , भाषण , श , च न , क तन , अचन , व न और वन आ दसे पापी भी परमप व हो जाते ह ; अज , अ वनाशी , सवलोकमहे र , सव , सवश मान् , सव समभावसे त भगवान् ही द अवतार धारण करके कट होते ह और उनके द गुण , भाव , त आ द व ुत: इतने अ च , असीम और द ह क उनके अपने सवा उ अ कोई जान ही नह सकता। यह उनका 'रह ' है। [21] इसी आशयका ईशोप नषदका ् यह म है – 'य ु सवा ण भूता ा ेवानुप त। सवभूतेशु चा ानं ततो न वजुगु ते।। ' (म ६) 'परंतु जो सब ा णय को आ ाम और सब ा णय म आ ाको ही देखता है , वह फर कसीसे घृणा नह करता। ' [22] जक बात है। एक दन यमुनाजीके तीरपर भगवान् ीकृ अपने सखा के साथ भोजन करते-करते बालके ल करने लगे। कमरके कपड़ेम बाँसुरी ख स ली , बाय बगलम स ग ओर बत दबा ली , अंगु लय क स य म न ू आ दके अचार दबा लये , हाथम माखन-भातका कौर ले लया ओर सबके बीच खडे होकर और हँ सीक बात कहकर यं हँ सने तथा सब सखा को हँ साने लगे। ालबाल सब-के -सब इस ेम-भोजम त य हो गये। इधर बछड़े दूर नकल गये। तव भगवान् उ खोजनेके लये वैसे ही हाथम भोजनका कौर लये दौड़े। ाजी इस को देखकर मो हत हो गये। उ ने बछड़े और बालक को हर लया। ाजीका काम जानकर , ालबाल और बछड़ क माता को स ु रखने तथा ाजीको छकानेके लये भगवान् यं वैसे-के -वैसे बछड़े और बालक बन गये। जस बछड़े और बालकका जैसा शरीर , जैसा हाथ-पैर , जैसे ी ै ँ ी ै े े े े ै े औ ेऔ

लकड़ी , जैसा स ग , बाँसुरी या छ का था , जैसे गहने-कपड़े थे , जैसे भाव , गुण , आकार , अव ा और नाम आ द थे और जसका जैसा आहार- वहार था , वैसे ही बनकर सब जगत् 'ह रमय ' है - इस बातको साथक कर दया। ीबलदेवजीने पहले कु छ नह समझा फर जब उ ने देखा क ालबाल क माता का अपने ब पर पहलेसे ब त अ धक ेह बढ़ गया है और ज ने दूध पीना छोड़ दया है , उन बछड़ पर भी गाय ब त अ धक ेह करती ह , तब उ स हे आ और उ ने पहचाननेक नजरसे सबक ओर देखा। तब उ सभी बछड़े , उनके र ा करनेवाले गोपबालक तथा उनक सब साम याँ ीकृ प दीख पड़ और वे च कत हो गये। आगे चलकर ाजीने भी सबको ीकृ प ही देखा , तब उ ने भगवान् ीकृ क ु त करके उनसे मा माँगो ( ीम ागवत १० , अ ाय १३)। [23] जत देख तत ाममई है। ाम कुं ज बन जमुना ामा , ाम गगन घन घटा छई है।। सब रंगनम ाम भरो है , लोग कहत यह बात नई है। ह बौरी , कै लोगन ही क ाम पुत रया बदल गई है।। चं सार र बसार ाम है , मृगमद सार काम बजई है। नीलकं ठको कं ठ ाम है , मन ँ ामता बेल बई है।। ु तको-अ र ाम दे खयत , दीप सखा पर ामतई है। नर देवनक कौन कथा है ? अलख छ ब ाममई है।। [24] गीता एकादश अ ाय दे खये। [25] भगवान् ीकृ छोटे-से थे और अपनी व च बाललीलासे माता यशोदा और जवासी नर-ना रय को अनुपम सुख दे रहे थे। एक दन आपने म ी खा ली। मैयाने डाँटकर कहा , ' रे ढीठ। तूने छपकर म ी खायी ?' भगवान्ने मुख फै लाकर कहा - 'मैया! तुझे व ास नह होता तो तू मेरा मुख देख ले। ' यशोदा तो देखकर च कत हो गय । भगवान्के छोटे-से मुखड़ेम माताने सम चराचर जीव , आकाश , दस दशाएँ , पवत , ीप , समु , पृ ी , वायु , अ , च मा , तारे , इ य के देवता , इ याँ , मन , श ा द सब वषय , मायाके तीन गुण , जीव , उनके व च शरीर और सम जम लको देखा। उ ने सोचा - म सपना तो नह देख रही ं ? आ खर घबराकर णाम करके उनके शरणागत इं । तब ीकृ च न पुनः अपनी मो हनी माया फै ला दी , माताका दुलार उमड़ उठा और अपने ामललाको गोदम उठाकर वे उनसे ार करने लग । ( ीम ागवत , १० , अ ाय ८) [26] काकभुशु जी भगवान् ीरामजीक बाललीलाका आन लूट रहे थे। एक दन बाल प ीरामजी घुटने और हाथ के बलसे काकभुशु जीको पकड़ने दौडे़। वे उड़ चले , भगवान्ने उ पकड़नेको भुजा फै लायी। काकभुशु जी उड़ते-उड़ते लोकतक गये , वहाँ भी उ ने ीरामजीक भुजाको अपने पीछे देखा। उनम और ीरामजीक भुजाम दो अंगुलका बीच था। जहाँतक उनक ग त थी , वे गये , पर ु रामजीक भुजा पीछे ही रही। तब भुशु जीने ाकु ल होकर ख मूँद ल फर औख खोलकर देखा तो अपनेको अवधपुरीम पाया। ीरामजी हँ ससे और उनके हँ सते ही ये तुरंत उनके मुखम वेश कर गये। इसके आगेका वणन उ क वाणीम सु नये उदर माझ सुनु अंडज राया। देखेउँ ब ांड नकाया।। अ त व च तहँ लोक अनेका। रचना अ धक एक ते एका ।। को ट चतुरानन गौरीसा। अग नत उडगन र ब रजनीसा।। अग नत लोकपाल जम काला। अग नत भूधर भू म बसाला।। सागर स र सर ब पन अपारा। नाना भाँ त सृ ब ारा।। सुर मु न स नाग नर कनर। चा र कार जीव सचराचर।। ो







जो न ह देखा न ह सुना जो मन ँ न समाइ। सो सब अदभु् त देखेउँ बर न कवन ब ध जाइ।। एक एक ांड म ँ रहउँ बरष सत एक। ए ह ब ध देखत फरउँ म अंड कटाह अनेक।। लोक लोक त भ बधाता। भ व ु सव मनु द स ाता।। नर गंधब भूत बेताला। कनर न सचर पसु खग ाला।। देव दनुज गन नाना जाती। सकल जीव तहँ आन ह भाँती।। म ह स र सागर सर ग र नाना। सब पंच तहँ आनइ आना।। अंडकोस त त नज पा। देखेउँ जनस अनेक अनूपा।। अवधपुरी त भुवन ननारी। सरऊ भ भ नर नारी।। दसरथ क स ा सुनु ताता। ब बध प भरता दक ाता।। त ांड राम अवतारा। देखउँ बाल वनोद अपारा।। भ भ म दीख सबु अ त व च ह रजान।। अग नत भुवन फरेउँ भु राम न देखउँ आन।। सोइ ससुपन सोइ सोभा सोइ कृ पाल रघुबीर।। भुवन भुवन देखत फरउँ े रत मोह समीर।। मत मो ह ब ांड अनेका। बीते मन ँ क सत एका।। फरत फरत नज आ म आयउँ । तहँ पु न र ह कछु काल गवाँयउँ ।। नज भु ज अवध सु न पायउँ । नभर ेम हरषी उ ठ धायउँ ।। देखउँ ज महो व जाई। जे ह व ध थम कहा म गाई।। राम उदर देखेउँ जग नाना। देखत बनइ न जाइ वखाना।। तहँ पु न देखेउँ राम सुजाना। मायाप त कृ पाल भगवाना।। करउँ वचार बहो र बहोरी। मोह क लल ा पत म त मोरी।। उभय घरी महँ म सब देखा। भयउँ मत मन मोह बसेषा।। दे ख कृ पाल बकल मो ह बहँ से तब रघुबीर। बहँ सतही मुख बाहेर आयउँ सुनु म तधीर।। [27] मीराबाई आ द म कालीन भ के जीवनम ऐसे अचावतार ए ह। [28] उमा जे राम चरन रत बगत काम मद ोध। नज भुमय देख ह जगत के ह सन कर ह बरोध।। [29] ठीक इसी आशयके सू पातंजलयोगदशनम ह'अ ासवैरा ा ां त रोध: ' (१।१२) 'अ ास और वैरा से च वृ य का नरोध होता है। ' [30] 'त तौ य ोऽ ासः ' (१।१३)। 'उनमसे तके लये य करनेका नाम अ ास है। '

यस ारासे वतो ढभू म:। ' (योगदशन १।१४) ' कतु वह अ ास लंबे समयतक , नर र तथा स ारपूवक सेवन करनेसे ढ़भू म होता हे। ' [32] वैरा क ाय: इसीसे मलती-जुलती ा ा मह ष पतंज लने योगदशनम क है ' ानु वक वषय वतृ वशीकारसं ा वैरा म्। ' ( १।१५) ' ी , धन , भवन , मान , बड़ाई आ द इस लोकके ओर गा द परलोकके स ूण वषय म तृ ार हत ए च क जो वशीकार-अव ा होती है , उसका नाम 'वैरा ' है। ' 'त रं पु ष ातेगुणवैतृ म्। ' ( १।१६) ' कृ तसे अ वल ण पु षके ानसे तीन गुण म जो तृ ाका अभाव हो जाना है , वह परवैरा या सव म वैरा है। ' [33] ना ा व ु ले भव त। तर त शोकं तर त पा ानं गुहा ो वमु ोऽमृतो भव त।। (मु क-उ० ३।२।९) 'इसके ( ानीके ) कु लम कोई अब वत् नही होता , वह शोक एवं पापसे तर जाता है। दय से वमु होकर अमर हा जाता है अथात् सदाके लये ज -मृ ुसे छू ट जाता है। [34] 'मह ंग ु दुलभोपुऽग ोऽमोघ । ' (नारदभ सू ३९) 'परंतु महा ा का संग दुलभ , अग और अमोघ है। ' [35] 'रसो व स:। रसँ ेवायं ल ान ी भव त। ' (तै रीयोप नषद ् २।७) 'वह रस ही है , यह पु ष इस रसक पाकर ही आन वाला होता है। ' [36] ेता तरोप नषदम् इससे मलता-जुलता म है वेदाहमेतं पु षं महा मा द वण तमस: पर ात्। तमेव व द ाऽ त मृ ुमे त ना ः प ा व तेऽयनाय।। (३।८) 'वह पु ष जो सूयके स श काश प , महान् ओर अ ाना कारसे परे है , इसको म जानता ँ । उसको जानकर ही अ धकारी मृ ुको लाँघता है। परमा ाक ा के लये दूसरा माग नह है। ' [37] छठे अ ायके चौदहव ोकक ा ा देखनी चा हये। [38] कठोप नषदम् भी इस ोकसे मलता-जुलता म आया है सव वेदा य दमामन तपाँ स सवा ण च य द । य द ो चय चर त े पदँसं हेण वी ो म ेतत्।। ( १।२।१५) 'सारे वेद जस पदका वणन करते ह , सम तप को जसक ा के साधन बतलाते ह तथा जसक इ ा रखनेवाले चारी चयका पालन करते ह , उस पदको म तु सं ेपसे बताता ँ - 'ओम् ' यही वह पद है। ' [39] न गुणान् गु णनो ह ौ त म गुणान प। ना दोषेषु रमते सानसूया क तता।। (अ ृ त ३४) जो गुणवान के गुण का ख न नह करता , थोड़े गुणवाल क भी शंसा करता ह और दूसरेके दोष म ी त नह करता , उस मनु का वह भाव अनसूया कहलाता है। [40] पतामह भी ने दुय धनको भगवान् ीकृ के स म ाजीका और देवता का एक संवाद सुनाया है , उससे ीकृ के भावका पता लगता है। ाजी देवता को सावधान करते ए कहते ह [31]

'स तु दीघकालनेर

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'सब लोक के महान् ई र भगवान् वासुदेव तुम सबके पूजनीय है। उन महान् वीयवान् शंख-च -गदाधारी वासुदेवको मनु समझकर कभी उनक अव ा न करना। वे ही परम गु , परम पद , परम ब और परम यश प ह। वे ही अ र ह , अ ह , सनातन ह , परम तेज ह , परम सुख ह और परम स ह। देवता , इ और मनु , कसीक भी उन अ मतपरा मी भु वासुदेवको मनु मानकर उनका अनादर नह करना चा हये। जो मूढ़म त लोग उन षके शको मनु बतलाते ह , वे नराधम ह। जो मनु इन महा ा योगे रको मनु -देहधारी मानकर इनका अनादर करते ह और जो इन चराचरके आ ा ीव के च वाले महान् तेज ी प नाभभगवान्को नह पहचानते , वे तामसी कृ तसे यु ह। जो इन कौ ुभ करीटधारी और म को अभय करनेवाले भगवान्का अपमान करता है , वह अ भयानक नरकम पड़ता है। एवं व द ा त ाथ लोकानामी रे र:। वासुदेवो नम ाय: सवलोकै : सुरो मा:।। (महा० , भी ० ६६।२३) 'हे े देवताओ! इस कार उनके ता क पको जानकर सब लोग को लोक के ई र के भी ई र भगवान् वासुदेवको णाम करना चा हये। ' [41] स ीतीभो ा ा न आप ो ा न वा पुन:। न च स ीयसे राज चैवाप ता वयम्।। (महा० , उ ोग० ९१।२५) [42] यह इ तहास ीरामच रतमानस आ द ंथ से लया गया है। [43] (१) ना तेषु जा त व ा पकु लधन या दभेद:। (नारदभ सू ७२) 'भ म जा त , व ा , प , कु ल , धन और या दका भेद नह है। ' (२) आ न यो ध यते पार यात् सामा वत्। (शा भ सू ७८) 'शा पर रासे अ हसा द सामा धम क भाँ त भ म भी चा ाला द सभी न यो नतकके मनु का अ धकार है। ' (३) भ ाहमेकया ा : याऽऽ ा य: सताम्। भ : पुना त म ा पाकान प स वात्।। ( ीम ागवत ११।१४। २१) 'हे उ व! संत का परम य 'आ ा ' प म एकमा ाभ से ही वशीभूत होता ँ । मेरी भ ज त: चा ाल को भी प व कर देती है। ' [44] करात णा पु ल पु सा आभीरक ा यवना: खसादय:। येऽ े च पापा यदुपा या या: शुद् त ै भ व वे नम:।। ( ीम ागवत २।४।१८) ' जनके आ त भ का आ य लेकर करात , ण , आ , पु ल , पु स , आभीर , कं क , यवन और खस आ द अधम जा तके लोग तथा इनके सवा और भी बड़े-से-बड़े पापी मनु शु हो जाते ह , उन जग भु भगवान् व ुको नम ार है! ' ाध ाचरणं ुव च वयो व ा गजे का का जा त वदुर यादवपते क पौ षम्। कु ाया: कमनीय पम धकं क त ुदा ो धनं भ ा तु त के वलं न च गुणैभ यो माधव:।। ' ाधका कौन-सा (अ ा) आचरण था ? ुवक आयु ही ा थी ? गजे के पास कौन-सी व ा थी ? वदुरक कौन-सी उ म जा त थी ? यादवप त उ सेनका कौन-सा पु षाथ था ? कु ाका ऐसा ा वशेष सु र प था ? सुदामाके पास कौनसा धन था ? माधव तो के वल भ से ही स ु होते ह , गुण से नह ; क उ भ ही य है। ' [45] मनु , पशु , प ी , क ट , पतंग आ द ा णय के न म से ा होनेवाले क को 'आ धभौ तक ', अनावृ , अ तवृ , भूक , व पात और अकाल आ द दैवी कोपसे होनेवाले क को 'आ धदै वक ' और शरीर , इ य तथा अ ःकरणम ी े ो े ोे े ो े

कसी कारके रोगसे होनेवाले क को 'आ ा क ' दुःख कहते ह। [46] देव शय के ल ण इसी अ ायके १२-१३व ोक क टीकाम दे खये। [47] ये स ष वृ माग होते ह , इनके वचार का और जीवनका वणन इस कार है षट्कमा भरता न ं शा लनो गृहमे धन:। तु ै वहर अ :ै कमहेतु भः।। अ ा ैवतय रसै ैव यंकृतैः। कु टु न: ऋ म ो बा ा र नवा सन:।। कृ ता दषु युगा ेषु सव ेव पुन: पुन:। वणा म व ानं यते थमं तु वै।। (वायुपुराण ६१।९४-९७) ये मह ष पढ़ना-पढ़ाना , य करना-कराना , दान देना-लेना - इन छ: कम को सदा करनेवाले , चा रय को पढा़नेके लये घर म गु कु ल रखनेवाले तथा जाक उ के लये ही ी और अ का हण करनेवाले होते ह। कमज अ क से (अथात् वण आ दम) जो समान ह , उ के साथ ये वहार करते ह और अपने ही ारा र चत अ न भो -पदाथ से नवाह करते ह। ये बाल-ब ेवाले , गो-धन आ द स वाले तथा लोक के बाहर तथा भीतर नवास करनेवाले ह। स आ द सभी युग के आर म पहले-पहल ये ही सब मह षगण बार-वार वणा मधमक व ा कया करते ह। [48] ये सात ही अ तेज ी , तप ी और बु मान् जाप त ह। जाक उ करनेवाले होनेके कारण इनको 'स ा ' कहा गया है (महाभारत , शा पव २०८।३ ,४ ,५)। इनका सं च र इस कार है (१) मरी च - ये भगवान्के अंशांशावतार माने जाते है। इनके कई प याँ ह , जनम धान द - जाप तक पु ी स ू त और धम नामक ा णक क ा धम ता ह। इनक स तका बड़ा व ार है। मह ष क प इ के पु ह। ब ाजीने इनको प पुराणका कु छ अंश सुनाया था। ाय: सभी पुराण म , महाभारतम और वेद म भी इनके संगम ब त कु छ कहा गया है। ाजीने सबसे पहले पुराण इ को दया था। ये सदा-सवदा सृ क उ और उसके पालनके कायम लगे रहते ह। इनक व ृत कथा वायुपुराण , पुराण अ पुराण , प पुराण , माक ये पुराण व ुपुराण और महाभारत आ दम है। (२) अं गरा - ये बड़े ही तेज ी मह ष ह। इनके कई प याँ ह , जनम धानतया तीन ह ; उनमसे मरी चक क ा सु पासे बृह तका , कदम ऋ षक क ा राट्से गौतम-वामदेवा द पाँच पु का और मनुक पु ी प ासे व ु आ द तीन पु का ज आ (वायुपुराण , अ० ६५) तथा अ क क ा आ ेयीसे आं गरसनामक पु क उ ई ( पुराण)। कसी- कसी म माना गया है क बृह तका ज इनक शुभानामक प ीसे आ था। (महाभारत) (३) अ - ये द ण दशाक ओर रहते ह। स प त ता अनसूयाजी इ क धमप ी ह। अनसूयाजी भगवान् क पलदेवक ब हन और कदम-देव तक क ा ह। भगवान् ीरामच जीने वनवासके समय इनका आ त ीकार कया था। अनसूयाजीने जग ननी सीताजीको भाँ त-भाँ तके गहने-कपड़े और सतीधमका महान् उपदेश दया था। ब वा दय म े मह ष अ को जब ाजीने जा व ारके लये आ ा दी , तब अ जी अपनी प ी अनसूयाजीस हत ऋ नामक पवतपर जाकर तप करने लगे। ये दोन भगवान्के बड़े ही भ ह। इ ने घोर तप कया और तपके फल प चाहा भगवान्का दशन! ये जग त भगवान्के शरणाप होकर उनका अख च न करने लगे। इनके म कसे योगा नकलने लगी , जससे तीन लोक जलने लगे। तब इनके तपसे स होकर ब ा , व ु और शंकर - तीन इ वर देनेके लये कट ए। भगवान्के तीन प के दशन करके मु न अपनी प ीस हत कृ ताथ हो गये और गदगद ् होकर भगवान्क ु त करने लगे। भगवान्ने इ वर माँगनेको कहा। ाजीक सृ रचनेक आ ा थी , इस लये अ ने कहा - 'मने पु के लये भगवान्क आराधना क थी और उनके दशन चाहे थे , आप तीन पधार गये। आपलोग क तो कोई क ना भी नह कर सकता। मुझपर यह कृ पा कै से ई , आप ही बतलाइये। ' अ के वचन सुनकर तीन मुसकु रा दये और बोले - ' न्। तु ारा संक स है। तुम जनका ान करते हो , हम तीन वे ही ह - एकके ही तीन प ह। हम तीन के अंशसे तु ारे तीन पु ह गे। तुम तो कृ ताथ प हो ही। ' इतना कहकर भगवान्के तीन प अ धान हो गये। तीन ने उनके यहाँ अवतार धारण कया। भगवान् व ुके अंशसे द ा ेय , ाके अंशसे च मा और शवजीके अंशसे दुवासाजी ए। भ का यही ताप है। जनक ानम भी क ना नह हो सकती ; वे ही ब े बनकर गोदम खेलने लगे। (वा ीक य रामायण , वनका और ीम ागवत ४) (४) पुल - ये बड़े ही धमपरायण , तप ी और तेज ी ह। योग व ाके ब त बडे़ आचाय और पारदश ह। पराशरजी जब रा स का नाश करनेके लये एक बडा़ य कर रहे थे , तब व स क सलाहसे पुल यने उनसे य बंद करनेके लये कहा। ीे ो े ो ेऐ ी े

पराशरजीने पुल यक बात मानकर य रोक दया। इससे सन होकर मह ष पुल यने ऐसा आशीवाद दया , जससे पराशरको सम शा का ान हो गया। इनक स ा , तीची , ी त और ह वभू नामक प याँ ह - जनसे कई पु ए। द ो ल अथया अग य और स ऋ ष नदाघ इ के पु ह। व वा भी इ के पु ह - जनसे कु बेर , रावण , कु कण और वभीषणका ज आ था। पुराण म और महाभारतम जगह-जगह इनक चचा आयी है। इनक कथा व ुपुराण , वैवतपुराण , कू मपुराण , ीम ागवत , वायुपुराण और महाभारत-उ ोगपवम व ारसे है। (५) पुलह - ये बड़े ऐ यवान् और ानी मह ष ह। इ ने मह ष सन नसे ई रीय ानक श ा ा क थी और वह ान गौतमको सखाया था। इनके द जाप तक क ा मा और कदम ऋ षक पु ी ग तसे अनेक स ान ई। कू मपुराण , व ुपुराण , ीम ागवतम इनक कथा है। (६) तु - ये भी बड़े ही तेज ी मह ष ह। इ ने कदम ऋ षक क ा या और द पु ी स तसे ववाह कया था। इनके साठ हजार बाल ख नामक ऋ षय ने ज लया। ये ऋ ष भगवान् सूयके रथके सामने उनक ओर मुँह करके ु त करते ए चलते ह। पुराण म इनक कथाएँ कई जगह आयी ह। ( ीम ागवत-चतुथ ; व ुपुराण- थम अंश) (७) व स - मह ष व स का तप , तेज , मा और धम व व दत है। इनक उ के संबंधम पुराण म कई कारके वणन मलते ह , जो क भेदक से सभी ठीक ह। व स जीक प ीका नाम अ ती है। ये बड़ी ही सा ी और प त ता म अ ग ह। व स सूयवंशके कु लपुरो हत थे। मयादा पु षो म भगवान् ीरामके दशन और स ंगके लोभसे ही इ ने सूयवंशी राजा क पुरो हती ीकार क और सूयवंशके हतके लये ये लगातार चे ा करते रहे। भगवान् ीरामको श पम पाकर इ ने अपने जीवनको कृ तकृ समझा। कहा जाता है क 'तप ा बड़ी है या स ंग ?' इस वषयपर एक बार व ा म जीसे इनका मतभेद हो गया। व स जी कहते थे क स ंग बड़ा है और व ा म जी तपको बड़ा बतलाते थे। अ म दोन पंचायत करानेके लये शेषजीके पास प ँ चे। इनके ववादके कारणको सुनकर शेषभगवा े कहा क 'भगवन्। आप देख रहे ह क मेरे सरपर सारी पृ ीका भार है। आप दोन म कोई महा ा थोडी़ देरके लये इस भारको उठा ले तो म सोच-समझकर आपका झगडा़ नपटा दूँ। ' व ा म जीको अपने तपका बड़ा भरोसा था , उ ने दस हजार वषक तप ाका फल देकर पृ ीको उठाना चाहा , परंतु उठा न सके । पृ ी काँपने लगी। तब व स जीने अपने स ंगका आधे णका फल देकर पृ ीको सहज ही उठा लया और ब त देरतक उसे लये खड़े रहे। व ा म जीने शेष भगवा े पुछा क 'इतनी देर हो गयी , आपने नणय नह सुनाया ?' तब उ ने हंसकर कहा 'ऋ षवर। नणय तो अपने-आप ही हो गया। जब आधे णके स ंगक भी बराबरी दस हजार वषके तपसे नह हो सकती , तब आप ही सोच ली जये क दोन म कौन बड़ा है। ' स ंगक म हमा जानकर दोन ही ऋ ष स होकर लौट आये। व स जी वसुस अथात् अ णमा द स य से यु और गृहवा सय म सव े ह , इसी लये इनका नाम 'व स ' पड़ा था। काम , ोध , लोभ , मोह आ द श ु इनके आ मके समीप भी नह आ सकते थे। सौ पु का संहार करनेवाले व ा म के त , अपनेम पूरा साम होनेपर भी ोध न करके इ ने उनका जरा भी अ न नह कया। महादेवजीने स होकर व स जीको ा ण का आ धप दान कया था। सनातनधमके ममको यथाथ पसे जाननेवाल म व स जीका नाम सव थम लया जानेयो है। इनके जीवनक व ृत घटनाएँ रामायण , महाभारत , देवीभागवत , व ुपुराण , म पुराण , वायुपुराण शवपुराण , लगपुराण आ द म ह। [49] सूय स ा म म र आ दका जो वणन है , उसके अनुसार इस कार समझना चा हये सौरमानसे ४३ ,२० ,००० वषक अथवा देवमानसे १२ ,००० वषक एक चतुयुगी होती है। इसीको महायुग कहते ह। ऐसे इकह र युग का एक म र होता है। ेक म रके अ म स युगके मानक अथात् १७ ,२८ ,००० वषक स ा होती है। म र बीतनेपर जब स ा होती है , तब सारी पृ ी जलम डू ब जाती है। ेक क म ( ाके एक दनम) चौदह म र अपनीअपनी स ा के मानके स हत होते ह। इसके सवा क के आर कालम भी एक स युगके मानकालक स ा होती है। इस कार एक क के चौदह मनु म ७१ चतुयुगीके अ त र स युगके मानक १५ स ाएँ होती ह। ७१ महायुग के मानसे १४ मनु म ९९४ महायुग होते ह और स युगके मानक १५ स ा का काल पूरा ६ महायुग के समान हो जाता है। दोन का योग मलानेपर पूरे एक हजार महायुग या द युग बीत जाते ह। इस हसाबसे न ल खत अंक के ारा इसको सम झयेौ



सौरमान या मानव वष देवमान या द वष एक चतुयुगी (महायुग या द युग) ४३ ,२० ,००० १२ ,००० इकह र चतुयुगी ३० ,६७ , २० ,००० ८ ,५२ ,००० क कस १७ ,२८ ,००० ४ ,८०० म रक चौदह स ा २ ,४१ ,९२ ,००० ६७ ,२०० स स हत एक म र ३० ,८४ ,४८ ,००० ८ ,५६ ,८०० चौदह स स हत चौदह म र ४ ,३१ ,८२ ,७२ , ००० १ ,१९ ,९४ ,२०० क क स स हत चौदह म र या एक क ४ ,३२ ,०० ,०० ,००० १ ,२० ,०० ,००० ाजीका दन ही क है , इतनी ही बड़ी उनक रा है। इस अहोरा के मानसे ाजीक परमायु एक सौ वष है। इसे 'पर ' कहते ह। इस समय ाजी अपनी आयुका आधा भाग अथात् एक परा बताकर दूसरे परा म चल रहे ह। यह उनके ५१व वषका थम दन या क है। वतमान क के आर से अबतक ाय ुव आ द छ: म र अपनी-अपनी स ा स हत बीत चुके ह , क क स ासमेत सात स ाएँ बीत चुक ह। वतमान सातव वैव त म रके २७ चतुयुग बीत चुके ह। इस समय अ ाईसव चतुयुगके क लयुगका स ाकाल चल रहा है। (सूय स ा , म मा धकार , ोक १५ से २४ दे खये) इस २०४५ व० तक क लयुगके ५०८९ वष बीते ह। क लयुगके आर म ३६ ,००० वष स ाकालका मान होता है। इस हसाबसे अभी क लयुगक स ाके ही ३० ,९११ सौर वष बीतने बाक ह। ीम ागवतके आठव के पहले , पांचव और तेरहव अ ायम इनका व ारसे वणन पढ़ना चा हये। व भ पुराण म इनके नामभेद मलते ह। यहाँ ये नाम ीम ागवतके अनुसार दये गये ह। [50] न नाकपृ ं न च पारमे यं न सावभौम न रसा धप म्। न योग स ीरपुनभवं वा सम स ा वरह काङ् े।। ( ीम ागवत ६।११।२५) 'हे सवस ण ु यु ! आपको ागकर न तो म गम सबसे ऊँ चे लोकका नवास चाहता ँ , न ाका पद चाहता ँ , न सम पृ ीका रा , न पाताललोकका आ धप , न योगक स - अ धक ा मु भी नह चाहता। ' [51] ऋथी ेष गतौ धातु: ुतौ स े तप थ। एतत् स यतं य न् णा स ऋ षः ृत:।। ग था षतेधातोनाम नवृ रा दत:। य ादेष य ूत ा ऋ षता ृता।। (वायुपुराण ५९।७९ , ८१) ''ऋष् ' धातु गमन ( ान) , वण , स और तप इन अथ म यु होता है। ये सब बात जसके अंदर एक साथ न त पसे ह , उसीका नाम ाने 'ऋ ष ' रखा है। ग थक 'ऋष् ' धातुसे ही 'ऋ ष ' श क न ई है और आ द कालम चूँ क यह ऋ षवग यं उ होता है , इसी लये इसक 'ऋ ष ' सं ा है। ' [52] परम स वादी धममू त पतामह भी जीने दुय धनको भगवान् ीकृ का भाव बतलाते ए कहा है - 'भगवान् वासुदेव सब देवता के देवता और सबसे े ह ; ये ही धम ह ; धम ह , वरद ह , सब कामना को पूण करनेवाले ह और ये ही कता , कम और यं भु ह। भूत , भ व त् वतमान , स ा , दशाएँ , आकाश और सब नयम को इ जनादनने रचा है। इन महा ा अ वनाशी भुने ऋ ष , तप ओर जग सृ करनेवाले जाप तको रचा। सब ा णय के अ ज संकषणको भी इ ने ही रचा। लोक जनको 'अन ' कहते ह और ज ने पहाड समेत सारी पृ ीको धारण कर रखा है , वे शेषनाग भी इ से उ ह ; ये ही वाराह , नृ सह और वामनका अवतार धारण करनेवाले ह ; ये ही सबके माता- पता ह , इनसे े ओर कोई भी नह है ; ये ही के शव परम तेज प ह और सब लोग के पतामह ह , मु नगण इ षके श कहते ह , ये ही आचाय , पतर और गु ह। ये ीकृ जसपर स होते ह , उसे अ य लोकक ा होती है। भय ा होनेपर जो इन भगवान् के शवके शरण जाता है और इनक ु त करता है , वह मनु परम सुखको ा होता है। ' 'जो लोग भगवान् ीकृ क शरणम चले जाते ह , वे कभी मोहको नह ा होते। महान् भय संकटा-म डू बे ए लोग क भी भगवान् जनादन न र ा करते ह। ' े



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ये च कृ ं प े ते न मु मानवा:। भये मह त म ां पा त न ं जनादन:।। (महा० , भी ० ६७।२४) [53] नारद कई ए ह परंतु ये देव ष नारद एक ही ह। इनको भगवान्का 'मन ' कहा गया है। ये परम त , परम ेमी और ऊ रेता चारी ह। भ के तो ये धान आचाय ह। संसारपर इनका अ मत उपकार है। ाद , ुव , अ रीष आ द महान् भ को इ ने भ मागम वृ कया और ीम ागवत तथा वा ीक य रामायण-जैसे दो अनूठे भी संसारको इ क कृ पासे ा ए। शुकदेव-जैसे महान् ानीको भी इ ने उपदेश दया। ये पूवज म दासीपु थे। इनक माता मह षय के जूँठे बतन माँजा करती थ । जब ये पाँच ही वषके थे , इनक माताक अक ात् मृ ु हो गयी। तब ये सब कारके सांसा रक ब न से मु होकर जंगलक ओर नकल पड़े। वहाँ जाकर ये एक वृ के नीचे बैठकर भगवान्के पका ान करने लगे। ान करते-करते इनक वृ यां एका हो गय और इनके हदयम भगवान् कट हो गये। परंतु थोड़ी देरके लये इ अपने मनमोहन पक झलक दखलाकर भगवान् तुरंत अ धान हो गये। अब तो ये ब त छटपटाये और मनको पुन: र करके भगवान्का ान करने लगे। कतु भगवान्का वह प उ फर न दीख पड़ा। इतनेहीम आकाशवाणी ई क 'हे दासीपु । इस ज म फर तु मेरा दशन न होगा। इस शरीरको ागकर मेरे पाषद पम तुम मुझे पुनः ा करोगे। ' भगवा े इन वा को सुनकर इ बड़ी सा ना ई और ये मृ ुक बाट जोहते ए नःसंग होकर पृ ीपर वचरने लगे। समय आनेपर इ ने अपने पांचभौ तक शरीरको ाग दया। क के अ म भगवान्के ाण म व हो गये और फर दूसरे क म ये द व ह धारणकर ाजीके मानसपु के पम पुन अवतीण ए और तबसे ये अख चय तको धारणकर वीणा बजाते ए भगवान्के गुण को गाते रहते ह ( ीम ागवत ,  १ , अ० ६)। महाभारत , सभापवके पाँचव अ ायम कहा है 'देव ष नारदजी वेद और उप नषद के मम , देवगण से पू जत , इ तहास-पुराण के वशेष , अतीत क क बात को जाननेवाले , ाय और धमके त , श ा , क , ाकरण , आयुवदा दके जाननेवाल म े , पर र- व व वध व ध-वा क एकवा ता करनेम वीण , भावशाली व ा , नी त , मेधावी , रणशील , ानी , क व , भले-बुरेका पृथक् -पृथक् पहचाननेम चतुर , सम माण ारा व ुत का नणय करनेम समथ , ायके वा के गुण-दोष को जाननेवाले , बृह तजी-जैसे व ान क शंका का समाधान करनेम समथ , धम , अथ , काम और मो के त को यथाथ पम जाननेवाले , सारे ा म और लोक म इधर-उधर , ऊपर-नीचे जो कु छ होता है - सबको योगबलसे देखनेवाले , सां और योगके वभागको जाननेवाले , देव-दै को वैरा का उपदेश करनेम चतुर , स - व हके त को जाननेवाले , कत -अकत का वभाग करनेम द , षाड् गु - योगके वषयम अनुपम , सकल शा म वीण , यु व ाम नपुण , संगीत- वशारद और भगवा े भ , व ा और गुण के भ ार , सदाचारके आधार , सबके हतकारी और सव ग तवाले ह। ' उप नषद् पुराण और इ तहास इनक प व गाथा से भरे ह। मह ष अ सत और देवल पता-पु ह। इनके स म कू मपुराणम वणन मलता है एतानु ा पु ां ु जास ानकारणात्। क पः पु काम ु चचार सुमह प।। त ैवं तपतोऽ थ ादुभूतौ सुता वमौ। व र ा सत ैव तावुभौ वा दनौ।। अ सत ैकपणायां ः समप त। ना ा वै देवलः पु ो योगाचाय महातपाः।। (कू मपुराण १९।१ ,२ ,५) 'क प मु न जा व ारके हेतुसे इन पु को उ करके फर पु - ा क कामनासे महान् तप करने लगे। उनके इस कार उ तप करनेसे ये 'व र ' और 'अ सत ' नामके दो पु ए। वे दोन ही वादी ( वे ा एव का उपदेश करनेवाले) थे। 'अ सत ' के उनक प ी एकपणाके गभसे महातप ी योगाचाय 'देवल ' नामके वेद न ात पु उ ए। ' ये दोन ऋ ेदके म ा ऋ ष ह। देवल ऋ षने भगवान् शवक आराधना करके स ा क थी। ये दोन बड़े हो वीण और ाचीन मह ष ह। ूषनामक वसुके भी देवल ऋ षनामक पु थे (ह रवंश० ३।४४)। ीे



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ीवेद ासजी भगवा े अंशावतार माने जाते ह। इनका ज ीपम आ था , इससे इनका ' ैपायन ' नाम पड़ा ; शरीर ामवण है , इससे ये 'कृ ैपायन ' कहलाये और वेद के वभाग करनेसे लोग इ 'वेद ास ' कहने लगे। ये महामु न पराशरजीके पु ह। इनक माताका नाम स वती था। ये ज ते ही तप करनेके लये वनम चले गये थे। ये भगव के पूण ाता और अ तीय महाक व ह। ये ानके असीम और अगाध समु ह , व ाक पराका ा और क व क सीमा ह। ासके दय और वाणीका वकास ही सम जगत् के ानका काश एवं अवल न है। सू क रचना भगवान् ासने ही क । महाभारत-स श अलौ कक का णयन भगवान् ासने कया। अठारह पुराण अ र अनेक उपपुराण भगवान् ासने बनाये। भारतका इ तहास इस बातका सा ी है। आज सारा संसार ासके ान सादसे अपने-अपने कत का माग खोज रहा है। ेक ापरयुगम वेद का वभाग करनेवाले भ - भ ास होते ह। इसी वैव त म रके ये पराशरपु ीकृ ैपायन अ ाईसव वेद ास ह। इ ने अपने धान श पैलको ऋ ेद , वैश ायनको यजुवद , जै म नको सामवेद ओर सुम ुको अथववेद पढ़ाया एवं सूतजातीय महान् बु मान् रोमहषण महामु नको इ तहास और पुराण पढ़ाये। [54] देव ष नारदने कहा - 'भगवान् ीकृ सम लोक को उ करनेवाले और सम भाव को जाननेवाले ह तथा सा के और देवता के ई र के भी ई र ह। ' माक ये मु नने कहा - ' ीकृ य के य , तप के तप और भूत-भ व त्-वतमान प ह। ' भृगुने कहा - 'ये देवता के देवता और परम पुरातन व ु ह। ' ासने कहा - 'ये इ को इ देनेवाले देवता के परम देवता ह। ' अं गराने कहा - 'ये सब ा णय क रचना करनेवाले ह। ' सन ु मार आ दने कहा - 'इनके म कसे आकाश और भुजा से पृ ी ा है , तीन लोक इनके पेटम ह ; ये सनातन पु ष ह ; तपसे अ ःकरणक शु होनेपर ही साधक इ जान सकते ह। आ दशनसे तृ ऋ षगण म भी ये परमो म माने जाते ह और यु से पीठ न दखानेवाले उदार राज षय के भी ये ही परम ग त ह। ' (महा० , भी ६८) महाभारत , वनपवके बारहव अ ायम भ मती ौपदीका वचन है अ सत और देवल ऋ षने कहा है - ' ीकृ ही जाक पूव सृ म जाप त और सब लोक के एकमा रच यता ह। ' परशुरामजीने कहा है - 'ये ही व ु ह , इ कोई जीत नह सकता ; ये ही य ह , य करनेवाले ह और य के ारा यजनीय ह। ' नारदजीने कहा है - 'ये सा देव के और सम क ाण के ई र के भी ई र ह। ' 'जैसे बालक अपने इ ानुसार खलौन से खेला करता है , वैसे ही ीकृ भी ा , शव और इ ा द देवता को लेकर खेला करते ह। ' इसके अ त र महाभारतम भगवान् ासने कहा हे - 'सौरा देशम ारका नामक एक प व नगरी है , उसम सा ात् पुराणपु षो म मधुसूदनभगवान् वराजते ह। वे यं सनातनधमक मू त ह। वेद ा ण और आ ानी पु ष महा ा ीकृ को सा ात् 'सनातनधम ' बतलाते ह। भगवान् गो व प व म परम प व , पु म परम पु और मंगल के परम मंगल ह। वे कमलनयन भगवान् ीकृ तीन लोक म सनातन देव के देव ह। वे ही मधुसूदन अ र , र , े , परमे र और अ च मू त ह। ' (महा० , वन० ८।२४ से २७) ीम ागवतम देव ष नारदने धमराज यु ध रसे कहा है - 'हे राजन्! मनु म तुम लोग बड़े ही भा वान् हो , क लोक को प व करनेवाले मु नगण तु ारे महल म पधारते ह और मानव च धारी सा ात् पर गूढ़ पसे यहाँ वराजते ह। अहा! महा ालोग जस कै व नवाण सुखके अनुभवको खोजा करते ह , ये ीकृ वही परम है। ये तु ारे य , सुहद् , मामाके लड़के , पू , पथ दशक एवं गु ह ; तब बताओ तु ारे समान भा शाली और कौन है ?'  (७।१५।७५-७६) [55] व म अन पदाथ , भाव और व भ जातीय ा णय का व ार है। इन सबका यथा व ध नय ण और संचालन करनेके लये जग ा , भगवा े अटल नयमके ारा व भ जातीय पदाथ , भाव और जीव के व भ सम - वभाग कर दये गये ह और उन सबका ठीक नयमानुसार सृजन , पालन तथा संहारका काय चलता रहे - इसके लये ेक सम े



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वभागके अ धकारी नयु ह। , वसु , आ द , इ , सा , व ेदेव , म त् , पतृदेव , मनु और स ष आ द इ अ धका रय क व भ सं ाएँ ह। इनके मूत और अमूत दोन ही प माने गये ह। ये सभी भगवान्क वभू तयाँ ह। सव च देवा मनव: सम ा: स षयो ये मनुसूनव । इ योऽयं दशेशभूतो व ोरशेषा ु वभूतय ा:।। ( ी व ुपुराण ३।१।४६) 'सभी देवता , सम मनु , स ष तथा जो मनुके पु और ये देवता के अ धप त इ ह - ये सभी भगवान् व ुक ही वभू तयाँ है। ' इनके अ त र , सृ -संचालनाथ जाके सम - वभाग मसे यथायो नवाचन कर लया जाता है। इस सारे नवाचनम धानतया उ को लया जाता है , जनम भगवान्के तेज , श , व ा , ान और बल आ दका वशेष वकास हो। इसी लये भगवान्ने इन सबको भी अपनी वभू त बतलाया हे। वायुपुराणके स रव अ ायम वणन आता है क 'मह ष क पके ारा जब जाक सृ हो गयी , तव जाप तने व भ जातीय जा मसे जो सबसे े और तेज ी थे , उनको चुनकर उन-उन जा तय क जाका नय ण करनेके लये उ उनका राजा बना दया। च माको न - ह आ दका , बृह तको आं गरस का , शु ाचायको भागव का , व ुको आ द का , पावकको वसु का , द को जाप तय का , ादको दै का , इ को म त का , नारायणको सा का , शंकरको का , व णको जल का , कु बेरको य -रा सा दका , शूलपा णको भूत- पशाच का , सागरको न दय का , च रथको ग व का , उ ैः वाको घोड़ का , सहको पशु का , साँड़को चौपाय का , ग ड़को प य का , शेषको डसनेवाल का , वासु कको नाग का , त कको दूसरी जा तके सप और नाग का , हमवान्को पवत का , व च को दानव का , वैव तको पतर का , पज को सागर , नदी और मेघ का , कामदेवको अ रा का संव रको ऋतु और मासा दका , सुधामाको पूवका , के तुमान् को प मका और वैव त मनुको सव मनु का राजा बनाया। इ सब अ धका रय ारा सम जगत्का संचालन और पालन हो रहा है। ' यहाँ इस अ ायम जो वभू तवणन है , वह ब त अंशम इसीसे मलता-जुलता है। [56] उनचास म त के नाम ये ह - स ो त , आ द , स ो त , तय ो त , स ो त , ो त ान् , ह रत , ऋत जत् , स जत् , सुषेण , सेन जत् , स म , अ भ म , ह र म , कृ त , स , ुव , धता , वधता , वधारय , ा धु न उ , भीम , अ भयु , सा प , ई क् , अ ा क् , या क् , तकृ त , ऋक् , स म त , संर , ई , पु ष , अ ा , चेतस , स मता , स म त , म त , सरत , देव , दश , यजुः , अनु क् , साम , मानुष और वश् (वायुपुराण ६७।१२३ से १३०)। ग डपुराण तथा अ ा पुराण म कु छ नामभेद पाये जाते ह। परंतु 'मरी च ' नाम कह भी नह मला है। इसी लये 'मरी च ' को म त् न मानकर सम म दगण ् का तेज या करण माना गया है। द क ा म तीसे उ पु को भी म दगण ् कहते ह (ह रवंश०)। भ - भ म र म भ - भ नाम से तथा व भ कारसे इनक उ के वणन पुराण म मलते ह। [57] धाता म ोऽयमा श ो व ण ंश एव च। भगो वव ान् पूषा च स वता दशम था।। एकादश था ा ादशो व ु ते। जघ ज ु सवषामा द ानां गुणा धक:।। (महा० , आ द० ६५।१५-१६) [58] क पजीक प ी द तके ब त-से पु के न हो जानेपर उसने अपने प त क पजीको अपनी सेवासे स कया। उसक स क् आराधनासे स ु हो तप य म े क पजीने उसे वर देकर स ु कया। उस समय उसने इ के वध करनेम समथ एक अ त तेज ी पु का वर माँगा। मु न े क पजीने उसे अभी वर दया और उस अ त उ वरको देते ए वे उससे वोले - 'य द तुम न भगवान्के ानम त र रहकर अपने गभको प व ता और संयमके साथ सौ वषतक धारण कर सकोगी तो तु ारा पु इ को मारनेवाला होगा। ' उस गभको अपने वधका कारण जान देवराज इ भी वनयपूवक द तक सेवा करनेके लये आ गये। उसक प व ताम कभी बाधा हो तो हम कु छ कर सक , इसी ती ाम इ वहाँ हर समय उप त रहने लगे। अ म सौ वषम जव कु छ दन ही कम रहे थे तब एक दन द त बना ही चरणशु कये अपने बछौनेपर लेट गयी। उसी समय न ाने उसे घेर लया। तब इ मौका पाकर हाथम व लेकर उसक कोखम वेश कर गये और उ ने उस महागभके सात टुकड़े कर डाले। इस कार वजसे पी ड़त होनेसे वह गभ जोर-जोरसे रोने लगा। इ ने उससे पुनः-पुन: कहा क 'मत रो। ' कतु जब वह गभ सात भाग म वभ होकर भी न मरा तो इ ने अ कु पत हो फर एक-एकके सात-सात टुकड़े े





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कर डाले। इस कार एकसे उनचास होकर भी वे जी वत ही रहे। तब इ ने जान लया ये मरगे नह । वे ही अ त वेगवान् म त् नामक देवता ए। इ ने जो उनसे कहा था क 'मा रोदी: ' (मत रो) , इस लये वे म त् कहलाये ( व ुपुराण थम अंश , अ ाय २१)। [59] हर ब प क ापरा जत:। वृषाक प श ु कपद रैवत था।। मृग ाध शव कपाली च वशा ते। एकादशैते क थता ा भुवने रा:।। (ह रवंश १।३।५१ ,५२) [60] ये पुल ऋ षके पौ ह और व वाके औरस पु ह। भर ाज-क ा देवव णनीके गभसे इनका ज आ था। इनके दीघकालतक कठोर तप करनेपर ाजीने स होकर इनसे वर माँगनेको कहा। तब इ ने व के धनर क होनेक इ ा कट क । इसपर ाजीने कहा क 'म भी चौथे लोकपालक नयु करना चाहता ँ ; अतएव इ , यम और व णक भाँ त तुम भी इस पदको हण करो। ' उ ने ही इनको पु क वमान दया। तबसे ये ही धना ह। इनक वमाता कै कसीसे रावण-कु कणा दका ज आ था (वा ी क उ रका स० ३)। नलकू बर और म ण ीव , जो नारद मु नके शापसे जुड़े ए अजुनके वृ हो गये थे और जनका भगवान् ीकृ ने उ ार कया था , कु बेरके ही पु थे ( ीम ागवत १०।१०)। [61] धरो ुव सोम अह ैवा नलोऽनल:। ूष भास वसवोऽ ौ क तता:।। (महा० , आ द० ६६।१८) [62] ये मह ष अं गराके बड़े ही तापी पु ह। ारो चष म रम बृह त स षय म धान थे (ह रवंश० ७।१२ , म पुराण ९।८)। ये बड़े भारी व ान् ह। वामन-अवतारम भगवान्ने सांगोपांग वेद , षट्शा , ृ त , आगम आ द सब इ से सीखे थे (बृह मपुराण , म ० १६।६१ से ७३)। इ के पु कचने शु ाचायके यहाँ रहकर संजीवनी- व ा सीखी थी। ये देवराज इ के पुरो हतका काम करते ह। इ ने समय-समयपर इ को जो द उपदेश दये ह , उनका मनन करनेसे मनु का क ाण हो सकता है। महाभारत-शा और अनुशासनपवम इनके उपदेश क कथाएँ पढ़नी चा हये। [63] कह -कह इ अ के तेजसे तथा द क ा ाहाके ारा उ माना गया है (महाभारत , वनपव २२३)। इनके स म महाभारत और पुराण म बड़ी ही व च - व च कथाएँ मलती ह। [64] 'समु ' से यहाँ 'सम समु ' समझना चा हये। [65] ब ाजीके मानसपु म भृगु एक धान ह। ाय ुव और चा षु आ द कई म र म ये स षय म रह चुके ह। इनके वंशज म ब त-से ऋ ष , म णेता और गो वतक ए ह। मह षय म इनका बड़ा भारी भाव है , इ ने द क ा ा तसे ववाह कया था। उनसे धाता- वधाता नामके दो पु और ी नामक एक क ा ई थी। यही ीभगवान् नारायणक प ी ई। वन ऋ ष भी इ के पु थे। इनके ो त ान् सुकृ त , हीव ान् , तपोधृ त , न ुक और अ तबा नामक पु व भ म र म स षय म धान रह चुके ह। ये महान् म णेता मह ष ह। व ुभगवा े व ः लपर लात मारकर इ ने ही उनक सा क माक परी ा ली थी। आज भी व ुभगवान् इस भृगुलताके च को अपने दयपर धारण कये ए ह। भृगु , पुल , पुलह , तु , अं गरा , मरी च , द , अ और व स - ये जा-सृ करनेवाले होनेसे 'नौ ा ' माने गये ह। ाय: सभी पुराण म भृगुजीक चचा भरी है (इनक कथाका व ार ह रवंशपुराण , म पुराण , शवपुराण , ा पुराण , देवीभागवत , माक ये पुराण , प पुराण , वायुपुराण , महाभारत और ीम ागवतम है)। [66] व धय ा पय ो व श ो दश भगुणैः। उपांश:ु ा तगुण: साह मानस: ृतः।। (मनु० २।८५) ' व ध-य से जपय दसगुना , उपांशुजप सौगुना और मानसजप हजारगुना े कहा गया है। ' [67] पुराण म अ का बड़ा माहा मलता है। पुराणम हैमूले व :ु तो न ं , े के शव एव च। नारायण ु शाखासु प ेषु भगवान् ह र:।। फलेऽ ुतो न स हे : सवदेवैः सम त:। े

स एव व ु मु एव मूत महा भः से वतपु मूल:। य ा य: पापसह ह ा भवे ृणां कामदुघो गुणा ः।।

० , नागर० २४७।४१ , ४२ , ४४) 'पीपलक जड़म व ु , तनेम के शव , शाखा म नारायण , प म भगवान् ह र और फलम सब देवता से यु अ ुत सदा नवास करते ह -इसम कु छ भी स हे नह है। यह वृ मू तमान् ी व ु प है ; महा ा पु ष इस वृ के पु मय मूलक सेवा करते ह। इसका गुण से यु और कामनादायक आ य मनु के हजार पाप का नाश करनेवाला है। ' इसके अ त र वै क- म भी अ क बड़ी म हमा है - इसके प े , फल , छाल सभी रोगनाशक ह। र वकार कफ , वात , प , दाह , वमन , शोथ , अ च , वषदोष , खाँसी , वषम- र , हचक , उरः त , नासारोग , वसप , कृ म , कु , चा- ण , अ द ण , वागी आ द अनेक रोग म इसका उपयोग होता है। [68] शेषं चाक य वे मन ं व पणम्। यो धारय त भूता न धरां चेमां सपवताम्।। (महा० , भी ६७। १३) 'इन परमदेवने व प अन नामक देव प शेषनागको उ कया , जो पवत के स हत इस सारी पृ ीको तथा भूतमा को धारण कये ए ह। ' [69] क वाहोऽनल: सोमो यम ैवायमा तथा। अ ा ा ब हषद य ा ा मूतयः।। ( शवपुराण , धम० ६३। २) 'कह -कह इनके नाम इस कार मलते ह - सुकाल , आं गरस , सु धा , सोमपा , वैराज , अ ा और ब हषद् (ह रवंश० पूव० अ० १८)। म रभेदसे नाम का यह भेद स व है। [70] यमराजके दरबारम न कसीके साथ कसी भी कारणसे कोई प पात ही होता है और न कसी कारक सफा रश , र त या खुशामद ही चलती है। इनके नयम इतने कठोर ह क उनम जरा भी रयायतके लये गुंजाइश नह है , इसी लये ये ' नयमन करनेवाल म सबसे बढ़कर ' माने जाते ह। इ , अ , नऋ त , व ण , वायु , कु बेर , ईशान , ा , अन और यम - ये दस द ाल ह (बृह मपुराण , उ र० १)। ये सम जग सब दशा के संर क ह। कहते ह क पु ा ा जीवको ये यमराज ाभा वक ही सौ मू त दीखते ह और पा पय को अ लाल ने , वकराल दाढ़ , बजली-सी लपलपाती ई जीभ और ऊपरको उठे ए भयानक बाल से यु अ भयानक काली आकृ तवाले तथा हाथम कालद उठाये ए दखलायी देते ह ( पुराण , काशीख पूव० ८।५५ ,५६)। ये परम ानी ह। न चके ताको इ ने आ त का ान दया था। कठोप नषद् , महाभारत-अनुशासनपव और वाराहपुराणम न चके ताक कथा मलती है। साथ ही ये बड़े ही भगव ह। ीम ागवत , छठे के तीसरे अ ायम , व ुपुराण , तृतीय अंशके सातव अ ायम और पुराण , काशीख पूवाधके आठव अ ायम इ ने अपने दूत के सामने जो भगवान्क और भगव ामक म हमा गायी है , वह अव ही पढ़नेयो है। परंतु इनको भी छकानेवाले पु ष कभी-कभी हो जाते ह। पुराणम कथा आती है क क तमान् नामक एक च वत भ राजा थे। उनके सदुपदेशसे सम जा सदाचार और भ से पूण हो गयी। उनके पु फलसे इनके यहाँ जो पहलेके जीव थे , उन सबक सदग् त होने लगी और वतमानम मरनेवाले सब लोग परम ग तको ा होने लगे। इससे नये जीव का इनके यहाँ जाना ही बंद हो गया। इस कार यमलोक सूना हो गया! तब इ ने जाकर ाजीसे कहा , उ ने इनको ी व ुभगवा े पास भेजा। भगवान् व ुने कहा - 'जबतक ये धमा ा भ क तमान् राजा जी वत ह , तबतक तो ऐसा ही होगा ; परंतु संसारम ऐसा सदा चलता नह । ( पुराण , व ु वै० ११।१२। १३) [71] धातु: कम लुजलं तदु म पादावनेजनप व तया नरे । धु भू भ स सा पतती नमा लोक यं भगवतो वशदेव क त:।। ( ीम ागवत ८।२१।४) े

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'हे राजन्। वह

ाजीके कम लुका जल , भगवान्के चरण को धोनेसे प व तम होकर ग-गंगा (म ा कनी) हो गया। वह गंगा भगवान्क नमल क तके समान आकाशसे पृ ीपर गरकर अबतक तीन लोक को प व कर रही ह। ' न ेत रमा य धु ा य दहो दतम्। अन चरणा ोज सूताया भव दः।। स वे मनो य या मुनयोऽमलाः। ैगु ं दु जं ह ा स ो याता दा ताम्।। ( ीम ागवत ९।९।१४-१५) ' जन अन भगवान्के चरण-कमल म ापूवक भलीभाँ त च को लगाकर नमल दय मु नगण तुरंत ही दु यज गुण के पंचको ागकर उनके प बन गये ह , उ चरण-कमल से उ ई , भव-ब नको काटनेवाली भगवती गंगाजीका जो माहा यहाँ बतलाया गया है , इसम कोई बड़े आ यक बात नह है। ' [72] 'जग ननी महे री द क ा सतीके देह ाग करनेपर जब भगवान् शव तप करने लगे , तब देवता ने जग ाताक ु त क । महे री कट । देवता ने पुनः शंकरजीको वरण करनेके लये उनसे ाथना क । देवीने कहा - 'म दो प म सुमे क ा मेनकाके गभसे शैलराज हमालयके घर कट होऊँ गी। ' तदन र वे पहले गंगा पम कट । देवता उनक ु त करते ए उ देवलोकम ले गये। वहाँ वे मू तमती हो शंकरजीके साथ द कै लासधामको पधार गय और ाजीक ाथनापर अ धानांशसे अथात् नराकार पसे उनके कम लुम त हो गय (अ धानांशभागेन ता कम लौ)। ाजी कम लुम उ लोक ले गये। तदन र एक बार भगवान् शंकरजी गंगाजीस हत वैकु म पधारे। वहाँ भगवान् व ुके अनुरोध करनेपर उ ने गान कया। वे जो रा गनी गाते , वही मू तमती होकर कट हो जाती। वे ' ी ' रा गनी गाने लगे , तब वह भी कट हो गय । उस रा गनीसे मु होकर रसमय भगवान् नारायण यं रस प होकर बह गये। ब ाजीने सोचा ' से उ संगीत मय है और यं ह र भी इस समय वीभूत हो गये ह ; अतएव मयी गंगाजी इ संवरण कर ल। ' यह वचारकर उ ने वसे कम लुका श कराया। श होते ही सारा जल गंगाजीम मल गया और नराकारा गंगाजी जलमयी हो गय । ाजी फर लोकम चले गये। इसके बाद जब भगवान् व ुने वामन-अवतारम अपने सा क पादसे सम ुलोकको नाप लया , तब ाजीने कम लुके उसी जलसे भगव रणको ान कराया। कम लुका जल दान करते ही वह चरण वह र हो गया और भगवान् अ धान होनेपर भी उनका द चरण वह ग-गंगाके साथ रह गया। उसीसे उ गंगाजीको महान् तप करके भगीरथजी अपने पूवपु ष का उ ार करनेके लये इस लोकम लाये। यहाँ भी ीशंकरजीने ही उनको म कम धारण कया। गंगाजीके माहा क यह बड़ी ही सु र , उपदेश द और व च कथा व ारपूवक बृह मपुराण म ख के बारहव अ ायसे अ ाईसव अ ायतक पढ़नी चा हये। [73] 'सं ृ त- ाकरणके अनुसार समास चार ह - १ अ यीभाव , २ त ु ष , ३ ब ी ह और ४ । कमधारय और गु - ये दोन त ु षके ही अ गत ह। अ यीभाव समासके पूव और उ र - इन दो पद मसे पूव पदके अथक धानता होती है। जैसे अ धह र - यहाँ अ यीभाव समास है ; इसका अथ है - 'हरौ ' अथात् ह रम ; स मी वभ ही 'अ ध ' श का अथ है और यही करना यहाँ अभी है। त ु ष समासम उ रपदके अथक धानता होती है ; जैसे - सीताप त व े ', इस वा के अ गत 'सीताप त ' श म त ु ष समास है। इस वा का अथ है - सीताके प त ीरामच जीको णाम करता ँ । यहाँ सीता और प त - इन दो पद मसे 'प त ' पदके अथक ही धानता है ; क 'सीताप त ' श से ' ीराम ' का ही बोध होता है। ब ी ह समासम अ पदके अथक धानता होती है ; जैसे 'पीता र: ' यहाँ ब ी ह समास है। इसका अथ है - जसके पीले व ह , वह । यहाँ पूवपद है 'पीत ' और उ रपद है 'अ र '। इनमसे कसी भी पदके अथक धानता नह है , इनके ारा जो 'अ ' (भगवान्) प अथ होता है उसक धानता है। समासम दोन ही पद के अथक धानता रहती है - जैसे 'रामल णौ प ' - राम और ल णको देखो। यहाँ राम और ल ण - दोन को ही देखना होता है ; अत: दोन पद के अथक धानता है। [74] कालके तीन भेद ह १ - 'समय ' वाचक काल। २ - ' कृ त ' प काल। महा लयके बाद जतने समयतक कृ तक सा ाव ा रहती है , वही कृ त पी काल है। ३ - न शा त व ानान घन परमा ा। े ो े औ ै औ

समयवाचक ूल कालक अपे ा तो बु क समझम न आनेवाला कृ त प काल सू और पर है ; और इस कृ त प कालसे भी परमा ा प काल अ सू , परा तपर और परम े है। व ुत: परमा ा देश-कालसे सवथा र हत है ; परंतु जहाँ कृ त और उसके काय प संसारका वणन कया जाता है , वहाँ सबको स ा- ू त देनेवाले होनेके कारण उन सबके अ ध ान प व ानान घन परमा ा ही वा वक 'काल ' ह। ये ही 'अ य ' काल ह। [75] सामवेदम 'बृह ाम ' एक गीत- वशेष है। इसके हारा परमे रक इ पम ु त क गयी है। 'अ तरा ' यागम , यही पृ ो है। [76] गाय ीक म हमाका न ां कत वचन ारा क चत् द शन कराया जाता है 'गाय ी छ सां माते त। ' (नारायणोप नषद ् ३४) 'गाय ी सम वेद क माता है। ' सववेदसारभूता गाय ा ु समचना। ादयोऽ प स ायां तां ाय जप च।। (देवीभागवत ११।१६।१५) 'गाय ीक उपासना सम वेद क सारभूत है , ा आ द देवता भी स ाकालम गाय ीका ान और जप करते है। ' गाय ुपासना न ा सववेदैः समी रता। यया वना धःपातो ा ण ा सवथा।। (देवीभागवत १२।८।८९) 'गाय ीक उपासनाको सम वेद ने न (अ नवाय) कहा है। इस गाय ीक उपासनाके बना बा णका तो सब तरहसे अधःपतन है ही। ' अभी ं लोकमा ो त ा ुयात् काममी तम्। गाय ी वेदजननी गाय ी पापना शनी।। गाय ाः परमं ना द व चेह च पावनम्। ह ाण दा देवी पततां नरकाणवे।। (शंख ृ त १२।२४-२५) '(गाय ीक उपासना करनेवाला ज) अपने अभी लोकको पा जाता है , मनोवां छत भोग ा कर लेता है। गाय ी सम वेद क जननी और स ूण पाप को न करनेवाली ह। गलोकम तथा पृ ीपर गाय ीसे बढ़कर प व करनेवाली दूसरी कोई व ु नह है। गाय ी देवी नरकसमु म गरनेवाल को हाथका सहारा देकर बचा लेनेवाली ह। ' गाय ा ु परं ना शोधनं पापकमणाम्। महा ा तसंयु ां णवेन च संजपेत्।। (संवत ृ त २१८) 'गाय ीसे बढ़कर पापकम का शोधक ( ाय त) दूसरा कु छ भी नह है। णव (ॐकार) स हत तीन महा तय से यु गाय ी म का जप करना चा हये। ' ना गंगासमं तीथ न देव: के शवा र:। गाय ा ु परं ज ं न भूतं न भ व त।। (बृह ो गया व १०।१०) 'गंगाजीके समान तीथ नह है , ी व ुभगवान्से बढ़कर देवता नह है और गाय ीसे बढ़कर जपनेयो म न आ , न होगा। ' [77] शु े माग शरे प े यो ष तुरनु या। आरभेत त मदं सावका मकमा दत:।। ( ीम ागवत ६।१९।२) े

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'पहले-पहल मागशीषके

शु प म ी अपने प तक आ ासे सब कामना के देनेवाले इस पुंसवन- तका आर करे। ' [78] के न-उप नषदम् एक गाथा है - एक समय गके देवता ने परमा ाके तापसे असुर पर वजय ा क । देव क क त और म हमा सब तरफ छा गयी। वजयो देवता भगवान्को भूलकर कहने लगे क 'हमारी ही जय ई है। हमने अपने परा म और बु बलसे दै का दलन कया है , इसी लये लोग हमारी पूजा करते ह अ र हमारे वजयगीत गाते ह। ' देवता के अ भमानका नाश कर उनका उपकार करनेके लये परमा ा ने अपनी लीलासे एक ऐसा अदभु् त प कट कया , जसे देखकर देवता क बु च र खा गयी। देवता ने इस य पधारी अदभु् त पु षका पता लगानेके लये अपने अगुआ अ देवसे कहा क 'हे जातवेदस्! हम सबम आप सवापे या अ धक तेज ी ह , आप इनका पता लगाइये क ये य पधारी वा वम कौन ह ?' अ ने कहा - 'ठीक है , म पता लगाकर आता ँ । ' य कहकर अ वहाँ गये , परंतु उसके समीप प ँ चते ही तेजसे ऐसे चकरा गये क बोलनेतकका साहस न आ। अ म उस य पी ने अ से पूछा क 'तू कौन है ?' अ ने कहा - 'मेरा नाम स है , मुझे अ कहते ह और जातवेदस् भी कहते ह। ' ने फर पूछा - 'यह सब तो ठीक है ; परंतु हे अ देव! तुझम कस कारका सामथ है , तू ा कर सकता है ?' अ ने कहा - 'हे य ! इस पृ ी और अ र म जो कु छ भी ावर-जंगम पदाथ है , उन सयक म जलाकर भ कर सकता ँ । ' ने उसके सामने एक सूखे घासका तनका डालकर कहा क 'इस तृणको तू जला दे। ' अ देवता अपने पूर वेगसे तृणको जलानेके लये सव कारसे य करने लगे , परंतु तृणको नह जला सके । ल ासे उनका म क नीचा हो गया और अ म य से बना कु छ कहे ही अ देवता अपना-सा मुँह लये देवता के पास लौट आये और बोले क 'म तो इस बातका पता नह लगा सका क यह य कौन है ?' इसके बाद वायुदेव य के पास गये ; परंतु उनक भी अ क -सी दशा हो गयी , वे बोल नह सके । य ने पूछा - 'तू कौन है ?' वायुने कहा - 'म वायु ँ मेरा नाम और गुण स है - म गमन या करनेवाला और पृ ीक ग को वहन करनेवाला ँ । अ र म गमन करनेवाला होनेके कारण मुझे मात र ा भी कहते ह। 'य ने कहा - 'तुझम ा साम है ?' वायुने कहा - 'इस पृ ी और अ र म जो कु छ भी पदाथ ह , उन सबको म हण कर सकता ँ (उड़ा ले सकता ँ )। ' ने वायुके स ुख भी वही सूखा तनका रख दया और कहा - 'इस तनके को उड़ा दे। ' वायुने अपना सारा बल लगा दया , परंतु तनका हलातक नह । यह देखकर वायुदेव बड़े ल त ए और तुरंत ही देवता के पास आकर उ ने कहा - 'हे देवगण! पता नह यह य कौन है ; म तो कु छ भी नह जान सका। ' अब इ य के समीप गये। देवराजको अ भमानम भरा देखकर य पी ब वहाँसे अ धान हो गये। इ का अ भमान चूण करनेके लये उनसे बाततक नह क । इतनेम उ ने देखा क अ र म अ शोभायु और सब कारके उ मो म अलंकार से वभू षत हमवान्क क ा भगवती पावती उमा खड़ी ह। इ ने वनयभावसे उनसे पूछा - 'माता! अभी जो य हम दशन देकर अ धान हो गये , वे कौन थे ?' उमाने कहा - 'वे य स थे। हे इ ! इन ने ही असुर को परा जत कया है , तुमलोग तो के वल न म मा हो ; क वजयसे ही तुमलोग क म हमा बढ़ी है और इसीसे तु ारी पूजा भी होती है। तुम जो अपनी वजय और अपनी म हमा मानते हो , वह सव तु ारा म ा अ भमान है ; इसे ाग करो और यह समझो क जो कु छ होता है सो के वल उस क स ासे ही होता है। ' उमाके वचन से इ क आँ ख खुल गयी , अ भमान जाता रहा। ब क महती श का प रचय पाकर इ लौटे और उ ने अ और वायुको भी का उपदेश दया। अ और वायुने भी को जान लया। इसीसे ये तीन देवता सबसे े ए। इनम भी इ सबसे े माने गये। कारण , उ ने ब को सबसे पहले जाना था। [79] भगवा े यं कहा है नर म स दु ष ह रनारायणो हम्। काले लोक ममं ा ौ नरनारायणावृषी।। अन : पाथ म ं ाहं तथैव च। नावयोर रं श ं वे दतुं भरतषभ।। (महा० वन० १२।४६-४७) 'हे दु ष अजुन। तू भगवान् नर है और म यं ह रनारायण ँ । हम दोन एक समय नर और नारायण ऋ ष होकर इस लेकम आये थे। इस लये हे अजुन! तू मुझसे अलग नह है और उसी कार म तुझसे अलग नह ँ । हे भरत े ! हम दोन म कु छ भी अ र है , यह कसीके जाननेम नह आ सकता। '

मह ष भृगुके वन आ द सात पु म शु धान ह। इ ने भगवान् शंकरक आराधना करके संजीवनी- व ा और जरामरणर हत व के समान ढ़ शरीर ा कया था। भगवान् शंकरके सादसे ही योग व ाम नपुण होकर इ ने योगाचायक पदवी ा क थी। ये दै के पुरो हत ह। 'का ', 'क व ' और 'उशना ' इ के नामा र ह। पतर क मानसी क ा गोसे इनका ववाह आ था। श -अमक नामक दो पु , जो ादके गु थे , इ से उ ए थे। ये अनेक अ गु और दुलभ म के ाता , अनेक व ा के पारदश , महान् बु मान् और परम नी त नपुण ह। इनक 'शु नी त ' स है। बृह तपु कचने इ से संजीवनी- व ा सीखी थी। इनक महाभारत , ीम ागवत , वायुपुराण , पुराण , म पुराण और पुराण आ दम बड़ी ही व च और श ा द कथाएँ ह। [81] ये दोन सूयक प ी सं ासे उ माने जाते ह ( व ुपुराण ३।२।७ , अ पुराण २७३।४)। कह इनको क पके औरस पु और अ द तके गभसे उ (वा ीक यरामायण , अर ० १४।१४) तथा कह ाके कान से उ भी माना गया है (वायुपुराण ६५।५७)। क भेदसे सभी वणन यथाथ ह। इ न द ङ् मु नसे ान ा कया था। (ऋ ेद १।१७।११६।१२ ; देवीभागवत ७।३६) राजा शया तक पु ी एवं वनमु नक प ी सुक ापर स होकर इ ने वृ और अ वनको ने और नवयौवन दान कया था (देवीभागवत ७।४ ,५)। महाभारत , पुराण और रामायणम इनक कथाएँ अनेक जगह आती ह। [82] मनोऽनुम ा ाण नरो यान वीयवान्। च हयो नय ैव हंसो नारायण था।। भवोऽथ वभु ैव सा ा ादश ज रे। (वायुपुराण ६६।१५-१६) धमक प ी द क ा सा ासे इन बारह सा देवता क उ ई थी। पुराणम इनके इस कार नामा र मलते ह – मन , अनुम ा , ाण , नर , अपान , भ , भय , अनघ , हंस , नारायण , वभु ओर भु। ( पुराण , भासख २१। १७ ;१८) म र-भेदसे सब ठीक है। [83] व ेदेवा ु व ाया ज रे दश व ुता:। तुद ः व: स : काल: कामो धु न था। कु वान् भवां ैव रोचमान ते दश।। (वायुपुराण ६६।३१-३२) धमक प ी द क ा व ासे इन दस व ेदेव क उ ई थी। कु छ पुराण म म रभेदसे इनके भी नामा र मलते ह। [84] पतर के नाम दसव अ ायके उनतीसव ोकक ा ाम बतलाये जा चुके ह। [85] जय थ स ुदेशके राजा वृ के पु थे। इनका धृतरा क एकमा क ा दुःशलाके साथ ववाह आ था। पा व के वनवासके समय एक बार उनक अनुप तम ये ौपदीको हर ले गये थे। भीमसेन आ दने लौटकर जब यह बात सुनी तब उन लोग ने इनके पीछे जाकर ौपदीको छु ड़ाया और इ पकड़ लया था। फर यु ध रके अनुरोध करनेपर सर मूँड़कर छोड़ दया था। कु े के यु म जब अजुन संस क क साथ यु करनेम लगे थे , इ ने च ूहके ारपर यु ध र भीम , नकु ल , सहदेव - चार को शवजीके वरदानसे रोक लया , जससे वे अ भम ुक सहायताके लये अंदर नह जा सके और कई महार थय से घेरे जाकर अ भम ु मारे गये। इसपर अजुनने यह त ा क क कल सूया होनेसे पहले-पहल जय थको न मार दूँगा तो म अ म वेश करके ाण ाग कर दूँगा। कौरवप ीय वीर ने जय थको बचानेक ब त चे ा क ; परंतु भगवान् ीकृ के भावसे उनक सारी चे ाएं थ हो गयी , और अजुनने सूया से पहले ही उनका सर धड़से अलग कर दया। जय थको एक वरदान था क जो तु ारा कटा सर जमीनपर गरावेगा उसके सरके उसी ण सौ टुकड़े हो जायँगे। इसी लये भ व ल भगवान्क आ ा पाकर अजुनने जय थके कटे सरको ऊपर-ही-ऊपर बाण के ारा ले जाकर सम पंचक तीथपर बैठे ए जय थके पता वृ क गोदम डाल दया और उनके ारा जमीनपर गरते ही उनके सरके सौ टुकड़े हो गये। (महाभारत , ोणपव) [86] पुरा श े ण मे द ं यु तो दानवषभै:। करीटं मू सूयाभं तेना मा करी टनम्।। [80]

(महा० ,

वराट० ४४।१७) वराटपु उ रकु मारसे अजुन कहते ह - पूवकालम जस समय मने बड़े भारी वीर दानव से यु कया था , उस समय इ ने स होकर सूयके समान काशयु करीट मेरे म कपर पहना दया था ; इसीसे लोग मुझे ' करीटी ' कहते ह। [87] ीम ागवतम अजुनके वचन ह श ासनाटन वक नभोजना द ै ाद् वय ऋतवा न त व ल :। स ुः सखेव पतृव नय सव सेहे महान् म हतया कु मतेरघं मे।। (१।१५।१९) 'भगवान् ीकृ के साथ सोने , बैठने , घूमने , बातचीत करने और भोजना द करनेम मेरा-उनका ऐसा सहज भाव हो गया था क म कभी-कभी 'हे म ! तुम बड़े सच बोलनेवाले हो। ' ऐसा कहकर आ ेप भी करता था ; पर ु वे महा ा भु अपने बड़ नके अनुसार मुझ कु बु के उन सम अपराध को वैसे ही सहते रहते थे , जैसे म अपने म के अपराधको या पता अपने पु के अपराधको सहा करता है। ' [88] या दोहनेऽवहनने मथनोपलेप े े नाभ दतो णमाजनादौ। गाय चैनमनुर धयोऽ ुक ो ध ा ज य उ म च याना:।। ( ीम ागवत १०।४४।१५) 'जो गौ का दूध दुहते समय , धान आ द कू टते समय , दही बलोते समय , आँ गन लीपते समय , बालक को पालनेम ल ु ाते समय , रोते ए ब को लोरी देते समय , घर म जल छड़कते समय और झाड देने आ द कम को करते समय , ेमपूण च से आँ ख म आँ सू भरकर गदगद ् वाणीसे ीकृ का गान कया करती ह - इस कार सदा ीकृ म ही च लगाये रखनेवाली वे जवा सनी गोपरम णयाँ ध ह। ' [89] इसीसे मलता-जुलता वणन सां का रका और योगदशनम भी आता है। जैसे मूल कृ तर वकृ तमहदा ाः कृ त वकृ तय: स । षोडशक ु वकारो न कृ तन वकृ त: पु षः।। (सां का रका ३) अथात् एक मूल कृ त है , वह कसीक वकृ त ( वकार) नह है। मह , अहंकार और पंचत ा ाएँ (श , श , प , रस और ग त ा ा) - ये सात कृ त- वकृ त ह , अथात् ये सात पंचभूता दके कारण होनेसे ' कृ त ' भी ह और मूल कृ तके काय होनेसे ' वकृ त ' भी ह। पंच ाने य , पंचकम य और मन - ये ारह इ य और पंचमहाभूत - ये सोलह के वल वकृ त ( वकार) ह , वे कसीक कृ त अथात् कारण नह ह। इनम ारह इ य तो अहंकारके तथा पंच ूल महाभूत पंचत ा ा के काय ह ; क ु पु ष न कसीका कारण है और न कसीका काय है , वह सवथा असंग है। योगदशनम कहा है - ' वशेषा वशेष ल मा ा ल ा न गुणपवा ण। ' (२।१९) वशेष यानी पंच ाने य , पंचकम य , एक मन और पंच ूल भूत ; अ वशेष यानी अहंकार और पंचत ा ाएँ ; लगमा यानी मह और अ लग यानी मूल कृ त - ये चौबीस त गुण क अव ा वशेष ह ; इ को ' ' कहते ह। योगदशनम जसको ' '  कहा है उसीको गीताम ' े ' कहा गया है। [90] 'अ हसा त ायां त धौ वैर ाग:। ' (योगदशन २।३५) [91] यह ोक ेता तरोप नषदम् अ रश: आया है (३।१६)। [92] ु तम भी कहा है - 'तदेज त त ैज त त रू े: त के । तद र सव तदु सव ा बा त:।। ' (ईशोप नषद् ५) अथात् वह चलता है और नह भी चलता है , वह दूर भी है और समीप भी है। वह इस स ूण जग े भीतर भी है और इन सबके बाहर भी है। [93] गुण क वृ म न ल खत दस हेतु ीम ागवतम बताये ह आगमोऽप: जा देश: काल: कम च ज च। ानं म ोऽथ सं ारो दशैते गुणहेतव:।। '

(११।१३।४)

'शा

, जल , स ान , देश , काल , कम , यो न , च न , म और सं ार - ये दस गुण के हेतु ह अथात् गुण को बढ़ानेवाले ह। अ भ ाय यह है क उपयु पदाथ जस गुणसे यु होते ह , उनका संग उसी गुणको बढ़ा देता है। ' [94] महाभारत , अ मेधपवके उनतालीसव अ ायका दसवाँ ोक भी इसीसे मलता-जुलता है। [95] ु तम भी कहा है न त सूय भा त न च तारकं नेमा व ुतो भा कु तोऽयम ः। तमेव भा मनुभा त सव त भासा सव मदं वभा त।। (कठोप नषद ् २।२।१५) अथात् 'उस पूण परमा ाको न सूय ही का शत कर सकता है , न च मा , न तारागण और न यह बजली ही उसे का शत कर सकती है। जब ये सूया द भी उसे का शत नह कर सकते , तब इस लौ कक अ क तो बात ही ा है ? क ये सब उसीके का शत होनेपर उसके पीछे-पीछे का शत होते ह और उसके काशसे ही यह सब कु छ का शत होता है। ' [96]  शा म धमक बड़ी म हमा है। बृह मपुराणम कहा है – इस व क र ा करनेवाले वृषभ प धमके चार पैर माने गये ह। स युगम चार पैर पूरे रहते ह ; ेताम तीन , ापरम दो और क लयुगम एक ही पैर रह जाता है। धमके चार पैर ह – स , दया , शा और अ हसा। स ं दया तथा शा र हसा चे त क तता। धम ावयवा ात च ार: पूणतां गता:।। इनम स के बारह भेद ह – अ म ावचनं स ं ीकार तपालनम्। यवा ं गुरो: सेवा ढं चैव तं कृ तम्।। आ ं साधुस पतुमातुः य र:। शु च ं वधं चैव ीरसंचय एव च।। 'झूठ न बोलना , ीकार कये एका पालन करना , य वचन बोलना , गु क सेवा करना , नयम का ढ़तासे पालन करना , आ कता , साधुस , माता- पताका यकाय , बा शौच-आ रशौच , ल ा और अप र ह। ' दयाके छ: कार ह – 'परोपकारो दानं च सवदा तभाषणम्। वनयो ूनताभाव ीकार: समताम त:।। 'परोपकार , दान , सदा हँ सते ए बोलना , वनय , अपनेको छोटा समझना और सम बु । ' शा के तीस ल ण ह – अनसूया स ोष इ याणां च संयम:। अस मो मौनमेवं देवपूजा वधौ म त:।। अकु त य ं च गा ीय र च ता। अ भाव: सव नः ृह ं ढा म त:।। ववजनं कायाणां सम: पूजापमानयो:। ाघा परगुणेऽ ेयं चय धृ त: मा।। आ त ं च जपो होम ीथसेवाऽऽयसेवनम्। अम रो ब मो ानं सं ासभावना।। स ह ुता सुदःु खेषु अकाप ममूखता। ' कसीम दोष न देखना , थोड़ेम स ोष करना , इ य-संयम , भोग म अनास , मौन , देवपूजाम मन लगाना , नभयता , ग ीरता , च क रता , खेपनका अभाव , सव नः ृहता , न या का बु , न करनेयो काय का ाग , मानापमानम समता , दूसरेके गुणम ाघा , चोरीका अभाव , चय , धैय , मा , अ त थस ार , जप , होम , तीथसेवा ,















े पु ष क सेवा , म रहीनता , ब -मो का ान , सं ास-भावना , अ त दुःखम भी स ह ुता , कृ पणताका अभाव और मूखताका अभाव। ' अ हसाके सात भाव ह – अ हसा ासनजय: परपीडा ववजनम्। ा चा त सेवा च शा प दशनम्।। आ ीयता च सव आ बु : परा सु। 'आसनजय , दूसरेको मन-वाणी-शरीरसे दुःख न प ँ चाना , ा , अ त थस ार , शा भावका दशन , सव आ ीयता और दूसरेम भी आ बु । ' यह धम है। इस धमका थोड़ा-सा भी आचरण परम लाभदायक और इसके वपरीत आचरण महान् हा नकारक है – यथा मधम ह जनयेत् तु महाभयम्। म धम ायते महतो भयात्।। (बृह मपुराण , पूवख १।४७) 'जैसे थोड़े-से अधमका आचरण महान् भयको उ करनेवाला होता है , वैसे ही थोड़ा-सा भी इस धमका आचरण महान् भयसे र ा करता है। ' इस चतु ाद धमके साथ-साथ ही अपने-अपने वणा मानुसार धम का आचरण करना चा हये। [97] एक बार गा धपु महाराज व ा म मह ष व स के आ मम जा प ँ चे। उनके साथ ब त बड़ी सेना थी। न नी नामक कामधेनु गौके सादसे व स जीने सेनासमेत राजाको भाँ त-भाँ तके भोजन कराये और र तथा व ाभूषण दये। व ा म का मन गौके लये ललचा गया और उ ने व स से गौको माँगा। व स ने कहा – इस गौको मँने देवता , अ त थ , पतृगण और य के लये रख छोड़ा है ; अत: इसे म नह दे सकता। व ा म को अपने जनबल और श बलका गव था , उ ने जबरद ी न नीको ले जाना चाहा। न नीने रोते ए कहा – 'भगवन्! व ा म के नदयी सपाही मुझे बड़ी कू रताके साथ कोड़ और ड से मार रहे ह , आप इनके इस अ ाचारक उपे ा कै से कर रहे ह ?' व स जीने कहा – याणां बलं तेजो ा णानां मा बलम्। मा मां भजते य ा तां य द रोचते।। (महा० , आ द० १७४।२९) ' य का बल तेज है और ा ण का बल मा। म माको नह छोड़ सकता , तु ारी इ ा हो तो चली जाओ। ' न नी बोली – 'य द आप ाग न कर तो बलपूवक मुझको कोई भी नह ले जा सकता। ' व स ने कहा – 'म ाग नह करता , तुम रह सकती हो तो रह जाओ। ' इसपर न नीने रौ प धारण कया , उसक पूँछसे आग बरसने लगी ; इसके बाद उसक पूँछसे अनेक े जा तयाँ उ । व ा म क सेनाके छ े छू ट गये। न नीक सेनाने व ा म के एक भी सपाहीको नह मारा , वे सब डरके मारे भाग गये। व ा म को अपनी र ा करनेवाला कोई भी नह दीख पड़ा। तब उ बड़ा आ य आ और उ ने कहा – ध लं यबलं तेजोबलं बलम्। (महा० , आ द० १७४।४५) ' यके बलको ध ार है , असलम ा ण-तेजका बल ही बल है। ' इसके बाद शापवश रा स ए राजा क ाषपादने व ा म क ेरणासे व स के सभी पु को मार डाला , तो भी व स ने उनसे बदला लेनेक चे ा न क । वा ी करामायणम आता है क तदन र व ा म रा छोड़कर महान् तप करने लगे और हजार वषके उ तपके तापसे मश: राज ष और मह षके पदको ा करके अ म ष ए। देवता के अनुरोधसे माशील मह ष व स ने भी उनको ' ष ' मान लया। अ म – व ा म ोऽ प धमा ा ल ा ा मु मम्। पूजयामास ष व स ं जपतां वरम्।। (वा ीक य रामायण १।६५।२७) 'धमा ा व ा म ने भी उ म ा णपद पाकर म -जप करनेवाल म े ष ीव स जीक पूजा क । ' [98] अ ापनम यनं यजन याजनं तथा। दानं त हं चैव ा णानामक यत्।। (मनु ृ त १।८८)

बाल चारी पतामह भी म यो चत सव गुण कट थे। उ ने स यश ु भगवान् परशुरामजीसे श व ा सीखी थी। जस समय परशुरामजीने का शराजक क ा अ ासे ववाह कर लेनेके लये भी पर ब त दबाव डाला , उस समय उ ने बड़ी न तासे अपने स क र ाके लये ऐसा करनेसे बलकु ल इनकार कर दया ; पर ु जब परशुरामजी कसी तरह न माने और ब त धमकाने लगे , तब उ ने साफ कह दया – न भया ा नु ोशा ाथलोभा का या। ा ं धममहं ज ा म त मे तमा हतम्।। य ा प क से राम ब श: प रव रे। न जता: या लोके मयैकेने त त ृ णु।। न तदा जातवान् भी : यो वा प म धः। प ा ाता न तेजां स तृणेषु लतं या।। पने ा म ते दप यु े राम न संशय:। (महा० , उ ोग० १७८) 'भय , दया , धनके लोभ और कामनासे म कभी ा धमका ाग नह कर सकता – यह मेरा धारण कया आ त है। हे परशुरामजी! आप जो लोग के सामने बड़ी ड ग हाँका करते ह क 'मने ब त वष तक अके ले ही य का अनेक बार (इ स बार) संहार कया है तो उसके लये भी सु नये – उस समय भी या भी के समान कोई य पैदा नह आ था। आपने तनक पर ही अपना ताप दखाया है! य म तेज ी तो पीछेसे कट ए ह। हे परशुरामजी। इस समय यु म म आपके घमंडको नःस हे चूण कर दूँगा। ' परशुरामजी कु पत हो गये। यु छड़ गया और लगातार तेईस दन तक भयानक यु होता रहा , पर ु परशुरामजी भी को परा न कर सके । आ खर नारद आ द देव षय के और भी जननी ीगंगाजीके कट होकर बीचम पड़नेपर तथा परशुरामजीके धनुष छोड़ देनेपर ही यु समा आ। भी ने न तो रणसे पीठ दखायी और न पहले श को ही छोड़ा (महा० , उ ोग० १८५)। महाभारतके अठारह दन के सं ामम दस दन तक अके ले भी जीने कौरवप के सेनाप त के पदको सुशो भत कया। शेष आठ दन म कई सेनाप त बदले। भगवान् ीकृ ने महाभारत-यु म श हण न करनेक त ा क थी। कहते ह क भी ने कसी कारणवश ण कर लया क म भगवा ो श हण करवा दूँगा। महाभारतम यह कथा इस पम न होनेपर भी सूरदासने भी त ाका बड़ा ही सु र वणन कया है – आज जो ह र ह न स गहाऊँ । तौ लाजौ गंगा जननी को , सांतनु सुत न कहाऊँ ।। ंदन खं ड महारथ खंड , क प ज स हत डु लाऊँ । इती न कर सपथ मो ह ह र क , य ग त ह न पाऊँ ।। पांडवदल सनमुख ै धाऊँ , स रता धर बहाऊँ । सूरदास रनभू म बजय बन , जयत न पीठ दखाऊँ ।। जो कु छ भी हो ; महाभारतम लखा है – यु ार के तीसरे दन भी पतामहने जब बड़ा ही च सं ाम कया तब भगवा े कु पत होकर घोड़ क रास हाथसे छोड़ दी और सूयके समान भायु अपने च को हाथम लेकर उसे घुमाते ए रथसे कू द पड़े। ीकृ को च हाथम लये ए देखकर सब लोग ऊँ चे रसे हाहाकार करने लगे। भगवान् लयकालक अ के समान भी क ओर बड़े वेगसे दौड़े। ीकृ को च लये अपनी ओर आते देखकर महा ा भी त नक भी नह डरे और अ वच लतभावसे अपने धनुषक डोरीको बजाते ए कहने लगे – 'हे देवदेव! हे जग वास! हे माधव! हे च पा ण! पधा रये। म आपको णाम करता ँ । हे सबको शरण देनेवाले! मुझे बलपूवक इस े रथसे नीचे गरा दी जये। हे ीकृ ! आज आपके हाथसे मारे जानेपर मेरा इस लोक और परलोकम बड़ा क ाण होगा। हे यदुनाथ! आप यं मुझे मारने दौड़े , इससे मेरा गौरव तीन लोक म बढ़ गया। ' अजुनने दौड़कर पीछेसे भगवा े पैर पकड़ लये और कसी तरह उ लौटाया (महा० , भी ० ५९)। नव दनक बात है भगवा े देखा – भी ने पा वसेनाम लय-सा मचा रखा है। भगवान् घोड़ क रास छोड़कर कोड़ा हाथम लये फर भी क ओर दौड़े। भगवा े तेजसे पग-पगपर मानो पृ ी फटने लगी। कौरवप के वीर घबड़ा उठे और भी मरे! भी मरे! कहकर च ाने लगे। हाथीपर झपटते ए सहक भाँ त भगवा ो अपनी ओर आते देखकर भी त नक भी वच लत न ए और उ ने धनुष ख चकर कहाए े ह पु रीका देवदेव नमोऽ ु ते। माम सा त े पातय महाहवे।। े ं े े ं ोे [99]

या ह देव सं ामे हत ा प ममानघ। ेय एव परं कृ लोके भव त सवत:।। स ा वतोऽ गो व ैलो ेना संयुगे। हर यथे ं वै दासोऽ तव चानघ।। (महा० , भी ० १०६। ६४-६६) 'हे पु रीका । हे देवदेव! आपको नम ार है। हे यादव े ! आइये , आइये , आज इस महायु म मेरा वध करके मुझे वीरग त दी जये। है अनघ! हे देवदेव ीकृ ! आज आपके हाथसे मरनेपर मेरा लोकम सवथा क ाण हो जायगा। हे गो व ! यु म आपके इस वहार ारा आज म भुवनसे स ा नत हो गया। हे न ाप! म आपका दास ँ आप मुझपर जी भरकर हार क जये! ' अजुनने दौड़कर भगवा े हाथ पकड़ लये , पर भगवान् के नह और उ घसीटते ए आगे बढ़े। अ म अजुनके त ाक याद दलाने और स क शपथ खाकर भी को मारनेक त ा करनेपर भगवान् लौटे। दस दन महायु करनेपर जब भी मृ ुक बात सोच रहे थे , तब आकाशम त ऋ षय और वसु ने भी से कहा – 'हे तात! तुम जो सोच रहे हो वही हम पसंद है। ' इसके बाद शख ीके सामने बाण न चलानेके कारण बाल चारी भी अजुनके बाण से बधकर शर-श ापर गर पडे। गरते समय भी ने सूयको द णायनम देखा , इस लये उ ने ाण ाग नह कया। गंगाजीने मह षय को हंस पम उनके पास भेजा। भी ने कहा क 'म उ रायण सूय आनेतक जी वत र ँ गा और उपयु समयपर ही ाण ाग क ँ गा। ' भी के शरीरम दो अंगुल भी ऐसी जगह न बची थी जहाँ अजुनके बाण न बध गये ह महा(महा० , भी ० ११९)। सफ उनका सर नीचे लटक रहा था। उ ने त कया माँगा। दुय धन आ द ब ढ़या कोमल त कये लेकर दौड़े आये। भी ने हँ सकर कहा – 'वीरो! ये त कये वीरश ाके यो नह है। ' अ म अजुनसे कहा – 'बेटा! मेरे यो त कया दो! ' अजुनने तीन बाण उनके म कके नीचे इस कार मारे क सर ऊं चा उठ गया और वे बाण त कयेका काम देने लगे। इसपर भी बड़े स ए ओर कहा – एवमेव महाबाहो धमषु प र त ता। ं येणाजौ शरत गतेन वै।। (महा० , भी ० १२०। ४९) 'हे महाबाह ! ा धमम ढ़तापूवक त रहनेवाले य को रणांगणम ाण ाग करते समय शर-श ापर इसी कार सोना चा हये। ' भी जी बाण से घायल शर-श ापर पड़े थे। यह देखकर बाण नकालनेवाले कु शल श वै बुलाये गये। इसपर भी जीने कहा क मुझको तो य क परमग त मल चुक है , अब इन च क क क ा आव कता है ? (महा० , भी ० १२०) घावके कारण भी को बड़ी पीड़ा हो रही थी। उ ने ठ ा पानी माँगा। लोग घड़ म ठ ा पानी ले-लेकर दौड़े। भी ने कहा 'म शर-श ापर लेट रहा ँ और उ रायणक बाट देख रहा ँ । आप मेरे लये यह ा ले आये ?' अ म अजुनको बुलाकर कहा – 'बेटा! मेरा मुँह सूख रहा है। तुम समथ हो , पानी पलाओ। ' अजुनने रथपर सवार होकर गा ीवपर ंचा चढ़ायी और भी क दा हनी ओर पृ ीम पाज ा मारा। उसी ण वहाँसे अमृतके समान सुग त और उ म जलक धारा नकली और भी के मुँहम गरने लगी। भी जी उस जलको पीकर तृ हो गये (महा० , भी ० १२१)। महाभारत-यु समा हो जानेके वाद यु ध र ीकृ महाराजको साथ लेकर भी के पास गये। सब बड़े-बड़े ब वे ा ऋ षमु न वहाँ उप त थे। भी ने भगवा ो देखकर णाम और वन कया। ीकृ ने भी से कहा क  'उ रायण आनेम अभी देर है ; इतनेम आपने धमशा का जो ान स ादन कया है , वह यु ध रको सुनाकर इनके शोकको दूर क जये। ' भी ने कहा – ' भो! मेरा शरीर बाण के घाव से ाकु ल हो रहा है , मन-बु चंचल है , बोलनेक श नह है , बार-बार मू ा आती है , के वल आपक कृ पासे अबतक जी रहा ँ ; फर आप जग ु के सामने म श य द कु छ क ँ तो वह भी अ वनय ही है। मुझसे बोला नह जाता , मा कर। ' ेमसे छलकती ई आँ ख से भगवान् ग द होकर बोले – 'भी ! तु ारी ा न मू ा , दाह , था , ध ु ा ेश और मोह – सब मेरी कृ पासे अभी न हो जायँगे ; तु ारे अ ःकरणम सब कारके ानक ू रणा होगी ; तु ारी बु न या का हो जायगी ; तु ारा मन न स गुणम र हो जायगा ; तुम धम या जस कसी भी व ाका च न करोगे , उसीको तु ारी बु बताने लगेगी। ' ीकृ ने फर कहा क 'म यं इसी लये उपदेश न करके तुमसे करवाता ँ जससे मेरे भ क क त और यश बढ़े! ' भगव सादसे भी के शरीरक सारी वेदनाएँ उसी समय न हो गय , उनका अ ःकरण सावधान और बु सवथा जा त् हो गयी। चय , अनुभव , ान और भगव के तापसे अगाध ानी भी जस कार दस दन तक रणम त ण उ ाहसे झूमे थे , उसी कारके उ ाहसे यु ध रको धमके सब अंग का पूरी तरह उपदेश दया और उनके शोक-स दयको शा कर दया (महा० , शा ० और अनुशासनपव)। ेे



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अ ावन दन शर-श ापर रहनेके बाद सूयके उ रायण होनेपर भी ने ाण ागका न य कया और उ ने भगवान् ीकृ से कहा – 'हे भगवन्! हे देवदेवेश! हे सुरासुर के ारा व त! हे व म! हे शंख-च गदाधारी! म आपको णाम करता ँ । हे वासुदेव! हर ा ा , परम पु ष , स वता , वराट् , जीव प , अणु प परमा ा और सनातन आप ही ह। हे पु रीका ! हे पु षो म! आप मेरा उ ार क जये। हे ीकृ ! हे वैकु ! हे पु षो म। अब मुझे जानेके लये आ ा दी जये! मने म बु दुय धनको ब त समझाया था – यत: कृ तो धम यतो धम तो जय:। 'जहाँ ीकृ ह , वह धम है और जहाँ धम है , वह वजय है ', पर ु उस मूखने मेरी बात नह मानी। म आपको पहचानता ँ , आप ही पुराणपु ष ह। आप नारायण ही अवतीण ए ह। स मां मनुजानी ह कृ मो े कलेवरम्। याहं समनु ातो ग ेयं परमां ग तम्।।(महा० , अनु० १६७।४५) 'हे ीकृ ! आप मुझे आ ा दी जये क म शरीर ाग क ँ । आपक आ ासे शरीर ागकर म परम ग तको ा क ँ गा! ' भगवा े आ ा दी , तव भी ने योगके ारा वायुको रोककर मश: ाण को ऊपर चढ़ाना आर कया। ाणवायु जस अंगको छोड़कर ऊपर चढ़ता था ; उस अंगके बाण उसी ण नकल जाते और घाव भर जाते थे। णभरम भी जीके शरीरसे सब बाण नकल गये , शरीरपर एक भी घाव न रहा और ाण र को भेदकर ऊपर चले गये। लोग ने देखा , र से नकला आ तेज देखते-देखते आकाशम वलीन हो गया। [100] जानां र णं दान म ा यनमेव च। वषये स य समासतः।।(मनु ृ त १।८९) [101] काशीम तुलाधार नामके एक वै ापारी थे। वे महान् तप ी और धमा ा थे। ाय और स का आ य लेकर यव य प ापार करते थे। जाज ल नामक एक ा ण समु तटपर क ठन तप ा करते थे। उनक जटा म च डय ने घ सले बना लये थे , इससे उनको अपनी तप ापर गव हो गया। तब आकाशवाणी ई क 'हे जाज ल। तुम तुलाधारके समान धा मक नह हो , वे तु ारी भाँ त गव नह करते। ' जाज ल काशी आये और उ ने देखा – 'तुलाधार फल , मूल , मसाले , घी आ द बेच रहे ह। तुलाधारने ागत , स ार और णाम करके जाज लसे कहा – 'आपने समु के कनारे बडी़ तप ा क है। आपके सरक जटा म च ड़य ने ब े पैदा कर दये , इससे आपको गव हो गया और अब आप आकाशवाणी सुनकर यहाँ पधारे ह , बतलाइये , म आपक ा सेवा क ँ । ' तुलाधारका ऐसा ान देखकर जाज लको बड़ा आ य आ। जाज लने तुलाधारसे पूछा , तब उ ने धमका ब त ही सु र न पण कया। जाज लने तुलाधारके मुखसे धमका रह सुनकर बड़ी शा ा क । महाभारत , शा पवम २६१ से २६४ अ ायतक यह सु र कथा है। [102] पषूनां र ण दान म ा यनमेव च। व ण थं कु सीदं च वै कृ षमेव च।। (मनु ृ त १।९०) [103] एकमेव तु शू भु: कम समा दशत्। एतेषामेव वणानां शु ूषामनसूयया।। (मनु ृ त १। ९१) 'भगवा े शू का के वल एक ही कम बतलाया है क दोष छोड़कर पूव ज वणवाल क सेवा करना। ' [104] आजकल ऐसी बात कही जाती है क वण वभाग उ वणके अ धकारा ढ़ लोग क ाथपूण रचना है , पर ु ान देनेपर पता लगता हे क समाज-शरीरक सु व ाके लये वणधम ब त ही आव क है और यह मनु क रचना है भी नह । वणधम भगवा े ारा र चत है। यं भगवा े कहा है – 'चातुव मया सृ ं गुणकम वभागशः। '  (४।१३)  'गुण और कम के वभागसे चार वण ( ा ण , य , वै और शू ) मेरे ही ारा रचे ए ह। भारतके द ा काल मह षय ने भगवा े ारा न मत इस स को पसे ा कया और इसी स पर समाजका नमाण करके उसे सु व त , शा , शीलमय , सुखी , कम वण , ाथ शू क ाण द और सुर त बना दया। सामा जक सु व ाके लये मनु के चार वभागक सभी देश और सभी काल म आव कता ई है और सभीम चार वभाग रहे और रहते भी ह। पर ु इस ऋ षय के देशम वे जस सु व त पसे रहे , वैसे कह नह रहे। ' समाजम धमक ापना और र ाके लये और समाज-जीवनक सुखी बनाये रखनेके लये , जहाँ समाजक जीवन प तम कोई बाधा उप त हो , वहाँ य के ारा उस बाधाको दूर करनेके लये , कम वाहके भँवरको मटानेके लये , उलझन को सुलझानेके लये और धमसंकट उप त होनेपर समु चत व ा देनेके लये प र ृ त और नमल म क आव कता है। धमक और धमम त समाजक भौ तक आ मण से र ा करनेके लये बा बलक आव कता है। म और ो ी े ो

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बा का यथायो री तसे पोषण करनेके लये धनक और अ क आव कता है। और उपयु कम को यथायो स करानेके लये शारी रक प र मक आव कता है। इसी लये समाज-शरीरका म ा ण है , बा य है , ऊ वै है और चरण शू है। चार एक ही समाज शरीरके चार आव क अंग ह और एक-दूसरेक सहायतापर सुर त और जी वत ह। घृणा या अपमानक तो बात ही ा है , इनमसे कसीक त नक भी अवहेलना नह क जा सकती। न इनम नीच-ऊँ चक ही क ना है। अपने-अपने ान और कायके अनुसार चार ही बड़े ह। ा ण ानबलसे , य बा बलसे , वै धनबलसे और शू जनबल या मबलसे बड़ा है। और चार क ही पूण उपयो गता है। इनक उ भी एक ही भगवा े शरीरसे ई है – ा णक उ भगवा े ीमुखसे , यक बा से , वै क ऊ से और शू क चरण से ई है। ा णोऽ मुखमासीद् बा राज : कृ त:। ऊ तद यद् वै : पद् ां शू ो अजायत।। (ऋ ेद सं० १०।९०।१२) परंतु इनका यह अपना-अपना बल न तो ाथ स के लये है और न कसी दूसरेको दबाकर यं ऊँ चा बननेके लये ही है। समाज शरीरके आव क अंग के पम इनका यो तानुसार कम वभाग है। और यह है के वल धमके पालने-पलवानेके लये ही। ऊँ च-नीचका भाव न होकर यथायो कम- वभाग होनेके कारण ही चार वण म एक श -सामंज रहता है। कोई भी कसीक न अवहेलना कर सकता है , न कसीके ा अ धकारपर आघात कर सकता है। इस कम वभाग और कमा धकारके सु ढ़ आधारपर र चत यह वणधम ऐसा सु व त है क इसम श -सामंज अपने- आप ही रहता है। यं भगवा े और धम नमाता ऋ षय ने ेक वणके कम का अलग-अलग नदश करके तो सबको अपने-अपने धमका न व पालन करनेके लये और भी सु वधा कर दी है और कमका पूरा पालन होनेसे श -सामंज म कभी बाधा आ ही नह सकती। यूरोप आ द देशोम ाभा वक ही मनु -समाजके चार वभाग रहनेपर भी न द नयम न होनेके कारण श - सामंज नह है। इसीसे कभी ानबल सै नक-बलको दबाता है और कभी जनवल धनबलको परा करता है। भारतीय वण वभागम ऐसा न होकर सबके लये पृथक् -पृथक् कम न द ह। ऋ षसे वत वणधमम ा णका पद सबसे ऊँ चा है , वह समाजके 'धमका नमाता है उसीक बनायी ई व धक सब मानते ह। वह सबका गु और पथ दशक है ; पर ु वह धन-सं ह नह करता , न द ही देता है न भोग- वलासम ही च रखता है। ाथ तो मानो उसके जीवनम है ही नह । धनै य और पद-गौरवको धूलके समान समझकर वह फल-मूल पर नवाह करता आ सप रवार शहरसे दूर वनम रहता है। दन-रात तप ा , धमसाधन और ानाजनम लगा रहता है और अपने शम , दम , त त ा , मा आ दसे सम त महान् तपोबलके भावसे दुलभ ानने ा करता है और उस ानक द ो तसे स का दशन कर उस स को बना कसी ाथके सदाचारपरायण , साधु- भाव पु ष ारा समाजम वतरण कर देता है। बदलेम कु छ भी चाहता नह । समाज अपनी इ ासे जो कु छ दे देता है या भ ासे जो कु छ मल जाता है , उसीपर वह बड़ी सादगीसे अपनी जीवनया ा चलाता है। उसके जीवनका यही धममय आदश है। य सबपर शासन करता है। अपराधीको द और सदाचारीको पुर ार देता है। द बलसे दु को सर नह उठाने देता और धमक तथा समाजक दुराचा रय , चोर , डाकु और श ु से र ा करता है। य द देता है पर ु कानूनक रचना यं नह करता। बा णके बनाये ए कानूनके अनुसार ही वह आचरण करता है। ा णर चत कानूनके अनुसार ही वह जासे कर वसूल करता है और उसी कानूनके अनुसार जा हतके लये व ापूवक उसे य कर देता है। कानूनक रचना बा ण करता है और धनका भंडार वै के पास है। य तो के वल व धके अनुसार व ापक और संर कमा है। धनका मूल वा ण , पशु और अ सब वै के हाथम है। वै धन-उपाजन करता है और उसको बढ़ाता हे , क ु अपने लये नह । वह ा णके ान और यके बलसे संर त होकर धनको सव वण के हतम उसी वधानके अनुसार य करता है। न शासनपर उसका कोई अ धकार है ओर न उसे उसक आव कता ही है। क ा ण और य उसके वा ण म कभी कोई ह ेप नह करते , ाथवश उसका धन कभी नह लेते , वरं उसक र ा करते ह और ानबल और बा बलसे ऐसी सु व ा करते ह क जससे वह अपना ापार सुचा पसे न व चला सकता है। इससे उसके मनम कोई असंतोष नह है। और वह स ताके साथ ा ण और यका ाधा मानकर चलता हे और मानना आव क भी समझता है , क इसीम उसका हत है। वह खुशीसे राजाको कर देता है , ा णक सेवा करता है और व धवत् आदरपूवक शू को भरपूर अ -व ा द देता है। अब रहा शू , शू ाभा वक ही जनसं ाम अ धक है। शू म शारी रक श बल है , पर ु मान सक श कु छ कम है। अतएव शारी रक म ही उसके ह ेम रखा गया है। और समाजके लये शारी रक श क बड़ी आव कता भी है। पर ु इसक शारी रक श का मू कसीसे कम नह है। शू के जनबलके ऊपर ही तीन वण क त ा है। यही आधार है। पैरके बलपर ही शरीर चलता है। अतएव शू को तीन वण अपना य अंग मानते ह। उसके मके बदलेम वै चुर धन देता ै े ैऔ ो ै ो

है , य उसके धन-जनक र ा करता है और ा ण उसको धमका , भगवत्- ा का माग दखलाता है। न तो ाथ स के लये कोई वण शू क वृ त हरण करता है , न ाथवश उसे कम पा र मक देता है और न उसे अपनेसे नीचा मानकर कसी कारका दु वहार ही करता है। सब यही समझते ह क सब अपना- अपना ही पाते ह , कोई कसीपर उपकार नह करता। पर ु सभी एक-दूसरेक सहायता करते ह और सव अपनी उ तके साथ उसक उ त करते ह और उसक उ तम अपनी उ त और अवन तम अपनी अवन त मानते ह। ऐसी अव ाम जनबलयु शू स ु रहता है , चार म कोई कसीसे ठगा नह जाता , कोई कसीसे अपमा नत नह होता। एक ही घरके चार भाइय क तरह एक ही घरक स लत उ तके लये चार भाई स ता और यो ताके अनुसार बाँटे ए अपने-अपने पृथक् -पृथक् आव क कत पालनम लगे रहते ह। य चार वण पर र – ा ण धम ापनके ारा , य बा बलके ारा , वै धनबलके ारा और शू शारी रक मबलके ारा एक-दूसरेका हत करते ए समाजक श बढ़ते ह। न तो सब एक-सा कम करना चाहते ह और न अलग-अलग कम करनेम कोई ऊँ च-नीच भाव ही मनम लाते ह। इसीसे उनका श -सामंज रहता है और धम उ रो र बलवान् और पु होता है। यह है वणधमका प। इस कार गुण और कमके वभागसे ही वण वभाग बनता है। पर ु इसका अथ यह नह क मनमाने कमसे वण बदल जाता है। वणका मूल ज है और कम उसके पक र ाम धान कारण है। इस कार ज और कम दोन ही वणम आव क ह। के वल कमसे वणको माननेवाले व ुत: वणको मानते ही नह । वण य द कमपर ही माना जाय तब तो एक दनम एक ही मनु को न मालूम कतनी बार वण बदलना पड़ेगा। फर तो समाजम कोई ंखला या नयम ही नह रहेगा। सवथा अ व ा फै ल जायगी। पर ु भारतीय वणधमम ऐसी बात नह है। य द के वल कमसे वण माना जाता तो यु के समय ा णो चत कम करनेको तैयार ए अजुनको गीताम भगवान् यधमका उपदेश न करते। मनु के पूवकृ त शुभाशुभ कम के अनुसार ही उसका व भ वण म ज आ करता है। जसका जस वणम ज होता है , उसको उसी वणके न द कम का आचरण करना चा हये। क वही उसका धम है। और धमका पालन करते-करते मर जाना भगवान् ीकृ ने क ाणकारक बतलाया है ' धम नधनं ेय:। ' साथ ही परधमको  'भयावह ' भी बतलाया है। यह ठीक ही है ; क सब वण के धम-पालनसे ही सामा जक श -सामंज रहता है और तभी समाज-धमक र ा और उ त होती है। धमका ाग और परधमका हण और समाज दोन के लये ही हा नकर है। खेदक बात है , व भ कारण से आयजा तक यह वण- व ा इस समय श थल हो चली है। आज कोई भी वण अपने धमपर आ ढ़ नह है , सभी मनमाने आचरण करनेपर उतर रहे ह और इसका कु फल भी ही दखायी दे रहा है। [105] जन महा ा अजुनके लये भगवा े यं अपने ीमुखसे गीताका द उपदेश कया , उनक म हमाका कौन वणन कर सकता है। महाभारत , उ ोगपवम कहा है – एष नारायण: कृ : फा ुन नर: ृतः। नारायणो नर ैव स मेकं धा कृ तम्।। (४१।२०) 'ये ीकृ सा ात् नारायण ह और अजुन नर कहे गये ह ; ये नारायण और नर दो प म कट एक ही स ह               । ' यहाँ सं ेपम यह दखलाना है क अजुनके त भगवा ा कतना ेम था। इसीसे पता लग जायगा क अजुन भगवा े कतना ेम करते थे। वन वहार , जल वहार , राजदरबार , य ानु ान आ दम भी भगवान् ीकृ ाय: अजुनके साथ रहते थे। उनका पर र इतना मेल था क अ ःपुरतकम प व और वशु ेमके संकोचर हत देखे जाते थे। संजयने पा व के यहाँसे लौटकर धृतरा से कहा था – ' ीकृ -अजुनका मने वल ण ेम देखा है ; म उन दोन से बात करनेके लये बड़े ही वनीत भावसे उनके अ ःपुरम गया! मने जाकर देखा वे दोन महा ा उ म व ाभूषण से भू षत होकर महामू वान् आसन पर वराजमान थे! अजुनक गोदम ीकृ के चरण थे और ौपदी तथा स भामाक गोदम अजुनके दोन पैर थे! मुझे देखकर अजुनने अपने पैरके नीचेका सोनेका पीढ़ा सरकाकर मुझे बैठनेको कहा , म आदरके साथ उसे छू कर नीचे ही बैठ गया। ' वनम भगवान् ीकृ पा व से मलने गये और वहाँ बातचीतके सल सलेम उ ने अजुनसे कहा – ममैव ं तवैवाहं ये मदीया वैव ते। य ां े स मां े य ामनु स मामनु।। (महा० , वन० १२।४५) 'हे अजुन! तुम मेरे हो और म तु ारा ँ । जो मेरे ह , वे तु ारे ही ह। अथात् जो कु छ मेरा है , उसपर तु ारा अ धकार है। जो तुमसे श ुता रखता है , वह मेरा श ु है और जो तु ारा अनुवत (साधे देनेवाला) है वह मेरा भी है। ' ी

























भी को पा वसेनाका संहार करते जब नौ दन बीत गये , तब रा के समय यु ध रने ब त ही च त होकर भगवा े कहा – 'हे ीकृ ! भी से हमारा लड़ना वैसा ही है जैसा जलती ई आगक ो तपर पतंग का मरनेके लये टूट पड़ना। आप क हये अब ा कर। 'इसपर भगवान् ीकृ ने यु ध रको आ ासन देते ए कहा – 'आप च ा न कर , मुझे आ ा द तो म भी को मार डालूँ। आप न य मा नये क अजुन भी को मार दगे। ' फर अजुनके साथ अपने ेमका स जताते ए भगवा े कहा – तव ाता मम सखा स ी श एव च। मांसा ु ृ दा ा म फा ुनाथ महीपते।। एष चा प नर ा ो म ृ ते जी वतं जेत्। एष न: समय ात तारयेम पर रम्।। (महा० , भी ० १०७।३३-३४) 'हे राजन्! आपके भाई अजुन मेरे म ह , स ी ह और श ह। म अजुनके लये अपने शरीरका मांसतक काटकर दे सकता ँ । पु ष सह अजुन भी मेरे लये ाण दे सकते ह। हे तात! हम दोन म क यह त ा है क पर र एक-दूसरेको संकटसे उबार। ' इससे पता लग सकता है क भगवान् ीकृ का अजुनके साथ कै सा वल ण ेमका स था। इ से ा एक अमोघ श कणके पास थी। इ ने कह दया था क 'इस श को तुम जसपर छोड़ोगे , उसक न य ही मृ ु हो जायगी। पर ु इसका योग एक ही बार होगा। ' कणने वह श अजुनको मारनेके लये रख छोड़ी थी। दुय धना द उनसे बार-बार कहते क 'तुम श का योग करके अजुनको मार नह डालते ?' कण अजुनको मारनेक इ ा भी करते , पर ु सामने आते ही अजुनके रथपर सार थ पम बैठे ए भगवान् ीकृ कणपर ऐसी मो हनी डालते क जससे वे श का योग करना भूल जाते। जब भीमपु घटो चने रा सी मायासे कौरवसेनाका भीषण पसे संहार कया , तब दुय धन आ द सब घबड़ा गये। सभीने कणको पुकारकर कहा – 'इ क श का योगकर पहले इसे मारो , जससे हमलोग के ाण तो बच। इस आधी रातके समय य द यह रा स हम सबको मार ही डालेगा तब अजुनको मारनेके लये रखी ई श हमारे कस काम आवेगी ?' अत: कणको वह श घटो चपर छोड़नी पड़ी और श के लगते ही घटो च मर गया। घटो चक मृ ुसे सारा पा व-प रवार दुःखी हो गया , पर ु भगवान् ीकृ बड़े स ए और वे हष -से होकर बार-बार अजुनको दयसे लगाने लगे। आगे चलकर उ ने सा कसे कहा – 'हे सा के । यु के समय कणको म ही मो हत कर रखता था। इसीसे आजतक वह अजुनपर उस श का योग न कर सका। अजुनको मारनेम समथ वह श जबतक कणके पास थी , तबतक म सदा च त रहता था। च ाके मारे न मुझे रातको न द आती थी और न च म कभी हष ही होता था। आज उस अमोघ श को थ ई जानकर म अजुनको कालके मुखसे बचा आ समझता ँ ।देखो – माता- पता , तुमलोग , भाईब ु और मेरे ाण भी मुझे अजुनसे बढ़कर य नह ह। म जस कार रणम अजुनक र ा करना आव क समझता ँ , उस कार कसीक नह समझता। तीन लोक के रा क अपे ा भी अ धक दुलभ कोई व ु हो तो उसे  भी म अजुनको छोड़कर नह चाहता। इस समय अजुनका पुनज -सा हो गया देखकर मुझे बड़ा भारी हष हो रहा है। ैलो रा ा वेद ुदलु भम्। ने ेयं सा ताहं त ना पाथ धन यम्।। अत: हष: सुमहान् युयुधाना मेऽभवत्। मृतं ागत मव वा पाथ धन यम्।। (महा० , ोण० १८२।४४-४५) ीकृ और अजुनक मै ी इतनी स थी क यं दुय धनने भी एक बार ऐसा कहा था – आ ा ह कृ : पाथ कृ ा ा धन य:।। यद् ूयादजुन: कृ ं सव कु यादसंशयम्। कृ ो धन य ाथ गलोकम प जेत्।। तथैव पाथ: कृ ाथ ाणान प प र जेत्। (महा० , सभा० ५२। ३१-३३) ' ीकृ अजुनके आ ा ह और अजुन ीकृ के । अजुन ीकृ को जो कु छ भी करनेको कह , ीकृ वह सव कर सकते ह , इसम त नक भी स हे नह है। ीकृ अजुनके लये द लोकका भी ाग कर सकते ह तथा इसी कार अजुन भी ीकृ के लये ाण का प र ाग कर सकते ह। ' ी



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ीकृ और अजुनक आदश ी तके और भी ब त-से उदाहरण ह। इसके लये महाभारत और ीम ागवतके उन-उन ल को देखना चा हये। अजुनके इस वल ण ेमका ही भाव है , जसके कारण भगवा ो गु ा ु तर ानक अपे ा भी अ गु सवगु तम अपने पु षो म पका रह अजुनके सामने खोल देना पड़ा और इस ेमका ही ताप है क परम धामम भी अजुनको भगवा अ दुलभ सेवाका ही सौभा ा आ , जसके लये बड़े-बड़े वादी महापु ष भी ललचाते रहते ह। गारोहणके अन र धमराज यु ध रने द देह धारण कर परम धामम देखा – ददश त गो व ं ा ेण वपुषा तम्।। दी मानं वपुषा द ैर ै प तम्। च भृ त भग रैद ैः पु ष व है:।। उपा मानं वीरेण फा ुनेन सुवचसा। (महा० , गा० ४। २-४) 'भगवान् ीगो व वहाँ अपने ा शरीरसे यु ह। उनका शरीर देदी मान है। उनके समीप च आ द द श और अ ा घोर अ द पु ष-शरीर धारण कर उनक सेवा कर रहे ह। महान् तेज ी वीर अजुनके ारा भी भगवान् से वत हो रहे ह। ' यही 'परम फल ' है गीतात के भलीभाँ त सुनने , समझने और धारण करनेका। एवं अजुन-सरीखे इ यसंयमी , महान् ागी , वच ण ानी – वशेषकर भगवा े परम य सखा , सेवक और श को इस 'परम फल ' का ा होना सवथा उ चत ही है।