Chakra Ji ke Mahabhav

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Chakra Ji ke Mahabhav

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चक्र जी के महाभाव )ती चक्र चेरश्रम म



क्रक ऱश्र(

मर्पिश्र उनके ही छोटे भैया को

ििषय-सूची (Please click on chapter name below to read respectative chapter)

िनिेदन .................................................................................................. 4 अलौिकक मीठी पुकार ........................................................................... 6 हृदय का क्रन्दन .................................................................................... 11 चातक सी चाह .................................................................................... 27 प्रेम िैिचत्र्य .......................................................................................... 32 मंत्र-दीक्षा ............................................................................................ 37 सतं ग्िाररया बाबासे प्रेम-ििनोद............................................................. 44 अष्टभुजा का िात्सल्य .......................................................................... 46 हनुमत् दादा का अनुग्रह ......................................................................... 49 बलरामजी का ममत्ि ............................................................................ 52 बेर का रिसक कन्हाई ............................................................................ 56 कनकििहारीकी ित्सलता ..................................................................... 59 भाि-िनमग्नता ..................................................................................... 65 रुग्णतामें िचन्तन ................................................................................... 67 पूिााभास ............................................................................................. 72 श्रीकृष्ण-जन्मभूिम से अिन्तम ििदा ........................................................ 74 जीिन संध्या ........................................................................................ 76 2

अनन्तकी ओर ...................................................................................... 84

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निवेदि श्री चक्रचररतम् को ऄपलोड करने के ललए स्कै न कर रही थी तो अंखें जह ं पड़ती वहीं पढन अरंभ कर देती और ह थों क क म रुक ज त । आस प्रक र आसे तैय र करने में बहुत समय लग पर एक और अवलृ ि हो गइ। धन्य हैं मन्ु नी जीजी और सौभ ग्य दीदी धन्य है ईनकम ईन परम वीतर ग से !ऐसी लनकटत और ऄलत धन्य है ईनकम लेखनी लक हमें ईनके ऐसे प्रसंग ज नने को लमले लजनके हम सववथ ऄयोग्य हैं लकंतु श यद ईनके परम ईद र ऄनजु क ही कोइ कौतक ु है। आस ब र एक लवशेष ब त हुइ। मेरे मन में अय लक कुछ ऄत्यन्त ऄतं रंग प्रसगं ों के पन्नों को ऄलग से सहेज कर रख लं,ू ब र ब र पढूंगी, आससे मन को बोध होत ज एग । कुछ ऐसे पन्नों को लललप लग कर रख ललय तो यह भी आच्छ हुइ लक आस सक ं लन को भी सबके स थ ब टं ज ए लकंतु आसके ललए पनु ः सयं ोजन करन अवश्यक थ और यह क यव मैं ट लती ज रही थी। हम सबके सौभ ग्य से स्वलननल बंसल ने लनज कम ही प्रेरण से चक्र स लहत्य को सहेजने क क यव संभ ल ललय और बहुत से ग्रन्थों को स्कै न लकय । ऄब कुछ ग्रंथ ऐसे लमले लजनकम प्रलतय ं आतनी परु नी थी लक ईन्हें स्कै न करके ईसी रूप में ऄपलोड करन संभव नहीं थ । स्वलननल ने अधलु नक तकनीक से ईन्हें नवीन कलेवर प्रद न कर लदय । आस प्रक र जब ‘हम रे धमव ग्रंथ’ बनी तो रृदय में ऄप र हषव हुअ लक पज्ू य चक्र जी ने लकतने पररश्रम से यह सचू ी तैय र कम, आनमें से बहुतेरे ग्रथं तो ऄनपु लब्ध हैं ही, आनकम यह संलिप्त लववरलणक भी ऄनपु लब्ध हो रही थी। कम से कम यह तो रहेगी। 4

रृदय स्वलननल को अशीव वद दे रह थ और स थ ही दीघवक ल से लंलबत आस क यव कम भी योजन बन रह थ । ऄब तो यह पहले से क फम सरल हो गय ! बस, आसके ब द कम सख ु नभु लू त को वणवन करने कम िमत नहीं, सधु ी प ठक स्वयं ऄनभु व करें गे। ईष ग ड़ोलदय 5 लदसम्बर 2019

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अऱौकिि मीठी पि ु ार छ:-स त वषवक ब लक सदु शवन गमी कम एक र तमें ऄच नक नींद से चौंककर ऄपनी च रप इ पर ईठकर बैठ गय , वह च रों ओर दृलि घमु कर जैसे लकसी को खोज लेन च हत हो। ऄपने स्वयं के प्रयत्न में ऄसफल हो ईसने ऄपने समीप सोये लपत को जग य - ‘ब ब!ू मझु े ऄभी लकसी ने पक ु र है।’ 'आतनी र त को कौन पक ु रे ग ? सपन देख होग । सो ज ,' कहकर लपत ने करवट बदल ली। ‘नहीं ब ब!ू मझु े स्वनन नहीं अय ।’ ब लक ऄपनी ईत्सक ु त को, लजज्ञ स को नहीं दब प य । ईसने लपत को पनु ः जग य - ‘ब ब!ू लकसी ने मेर न म लेकर पक ु र है। बहुत स्नेह भरे नय र से पक ु र है ब ब!ू मैं तो पहली पक ु र पर ही ज ग गय थ , लेलकन ईठते-ईठते पनु ः दसू री पक ु र सनु यी पड़ी। यह अव ज, पक ु र ईधर से अयी थी, ईधर से।’ ब लकने च रप इ पर बैठ-बैठे ही स मनेव ले घर कम लपछली दीव ल कम ओर ऄपने द लहने ह थ कम तजवनी से संकेत लकय । लपत एक ब र तो झंझु ल ये, लकन्तु पत्रु कम परू ी ब त सनु कर ईठ खड़े हो गये और बोले- तू यहीं बैठ, मैं देखकर अत ह।ूँ कहते हुए स मनेव ले घर कम ओर चल लदये। ईस समय र त के ढ इ-तीन बजे होंगे। लपत और च च र म ज्ञ लसंहके स थ ब लक सदु शवन घरके ब हर चह रदीव री से लघरे चौकमें सोय थ । लपत -पत्रु के स्वर से च च र म ज्ञ लसहं भी ज ग गये। ब लकको च रप इ पर बैठ देखकर ईन्होंने पछू –

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‘कह हुआली बचव ? 'च च ' ब लक ईछलकर च च कम गोद में चढ़ गय और गलेमें ब हें ड लते हुए बोल 'हमके के बल ु वत हईअ?(हमको कौन बल ु त है)’ 'के ई तमु क डर यल ब ट ब ?'(लकसीने तमु को डर य है लय ?)' ‘नहीं च च ! लकसीने मेर न म लेकर बड़े नय रसे बल ु य है। मैंने ज गने पर दसू री पक ु र भी सनु ी है। मझु े लकसी ने नहीं डर य । वह बड़ी मीठी अव ज थी' सदु शवन ने ऄपनी ब त समझ नी च ही। 'कह ूँ से पक ु र ? भैय कह ूँ गये हैं?' च च ने ईसे रृदय से लग ते हुए लसर और पीठपर ह थ फे रते हुए पछू । उूँ.....अ वह ूँ से – सदु शवन कम ब त अधी ही हो सकम लक लपत को लौटते देखकर वह चपु हो गय । र मलकशोर लसंह लौटकर ऄपनी शय्य पर बैठे तो सदु शवन भी च च कम गोदसे ईतरकर लपत के ऄक ु त से लपत कम ओर ं में अ बैठ और ईत्सक लनह रने लग । क भआल?'(लय हुअ?) र म ज्ञ लसंह ने बड़े भ इसे पछू - 'कौन थ ? आसे लयों पक ु र ?’ ‘ब लक ने लजधर सक ं े त लदय ईधर तो कोइ नहीं है। ब लक को स्वनन में लकसी ने पक ु र है ऄथव आसे भ्रम हुअ है,’ र मलकशोर ने भ इको समझ य । 'नहीं.....नहीं ब ब!ू हम ज गत रहली (मैं जग हुअ थ )' सदु शवनने पनु ः समझ ने क प्रय स लकय । 'सतू ज आ बचव , कुछ न य व य' (बेट सो ज ओ कुछ नहीं है) लपत ने अज्ञ के स्वरमें कह और पत्रु के लेटते ही ईसे च दर ओढ़ ते हुए लसर पर ह थ रख ललय । 7

प्र तः ईठकर सदु शवन ने म ूँ को र त कम ब त बत यी। म ूँ ने कह - 'बेट ! तम्ु ह रे लपत मझु े बत चक ु े हैं। ईनक कहन है लक यह तो कोइ देवी म ूँ कम ऄनक ु म्प एवं चमत्क र है। हो सकत है लक म ूँ ही तम्ु हें पक ु रती हों। ऄतः लचन्त -जैसी कोइ ब त नहीं है। तमु भ ग्यश ली हो, म ूँ कम स्नेहदृलि तम्ु ह र कल्य ण ही करे गी।’ 'लकन्तु म ,ूँ वह ह्लीक नहीं, ऄलपतु परुु षक स्वर थ और बड़ मीठ स्नेह से भर स्वर थ ,' ब लक ने दृढ़त से ऄपनी ब त समझ ने कम चेि कम। ऄच्छ ! तब मैं तम्ु ह रे लपत से ही पछू ू ं गी। हो सकत है लक वे कथ व ले अच यव श्रीपलडडतजी से पछू कर बत यें; लजनक द्व र सभी कम समस्य ओ ं के सम ध न के ललये सद खल ु रहत है। ब त को स ध रण-सी घटन समझकर सब भल ू गये। लकन्तु ब त न स ध रण थी और न भलवष्य में स ध रण रही। चौथे लदन पनु ः वही तीन बजेके लगभग र तमें 'लय है? कौन है? ' कहत हुअ ब लक सदु शवन च रप इ पर ईठकर बैठ गय । वह लसर घमु कर आधर-ईधर देखने लग । लजधर से स्वर अ रह थ ईधर चलने को खड़ ही हुअ लक लपत के बदले अज च च ज ग गये थे। ईन्होंने नय र से ब लक को ऄपने समीप सल ु ललय । प्र तः ईठ कर ब लक ने पनु ः ऄपनी म ूँ से र तव ली मधरु पक ु रकम चच व कम। सद कम भ ूँलत म ूँ ने समझ ने क प्रय स लकय । बेट ! तम्ु ह रे लपत यही कहते हैं लक व त्सलयमयी म ूँ कम ऄसीम कृप है तमु पर । ईन्हीं पर लवश्व स रखो । जगत-् जननी ही सूँभ लेंगी तम्ु हें, ऄन्यथ यह मधरु स्वर लकसक हो सकत है? 8

म ूँ कम ब तसे सदु शवन क सक ु ु म र कोमल रृदय सम ध न न प सक । रह-रहकर ईस मीठी पक ु र क मधरु स्नेलहल नय र भर स्वर कणव कुहरों में गजंू ईठत थ और वे ईस पक ु रनेव ले के मख ु -कमल को देखनेके ललये ऄधीर हो ईठते। ईनके अकुलव्य कुल नेत्र कभी अक श को देखते तो कभी पथ्ृ वी को। ऄनेक ब र वह चपु के से ईठकर ऄनमु न से ईस लदश कम ओर चल देते लजधर से वह मेघ-गम्भीर मधरु कोमल स्वर लनःसतृ होत । जब कोइ सम ध न नहीं लमल प त तब धैयव लवचललत होने लगत । ब ल-मन मन-ही-मन रो ईठत -कै से करूूँ?कह ूँ प उूँ ईसे? अत्मीयत भरी पक ु रक स्मरण प्र णों को व्य कुल कर देत । ऄब ब लक धीरे -धीरे आस मधरु स्वर क ऄभ्यस्त हो गय । आसके पश्च त् आसके लवषय में लकसीको कुछ नहीं बत त । वह ज नत थ लक आस लवषयमें वह लकसीको नहीं समझ सके ग । कुछ बड़े होकर एक ब र लपत ने ही लकसी मनोवैज्ञ लनक डॉलटरसे पछू थ , लकन्तु वे भी सन्तोषजनक ईिर नहीं दे सके । क ल न्तरमें एक ऄच्छे सतं सयु ोगसे पध रे और ईनसे चच व कम तो ईन्होंने ईल्ललसत होकर ब लक को विसे लग कर लसरपर ह थ फे रते हुए हूँसकर कह - 'लवश्वक कण-कण व्य कुल है वत्स! यह हलचल देखते हो न! यह कोल हल, कुछ प लेनेकम ललक ललये जो लक्रय शीलत लदख यी देती है, ईसक एक ही ऄथव है- कोइ ईसे पक ु र रह है। ईससे लमले लबन श लन्त, सख ु और लवश्र म नहीं है पत्रु !' 'मझु े पक ु रनेव ल कौन है? मझु से लय च हत है वह?' 'वह तो सभी को पक ु रत है।' सतं खल ु कर हूँस पड़े थे। 'कोइ सनु त कह ूँ है? तम्ु ह र परम सौभ ग्य लक तम्ु हें 'पक ु र' सनु यी दी। आस 'पक ु र' को, स्वर को स्मरण रखो। पक ु रनेव ल कौन है? यही तो बस, ज नन है। लोग ईसे छोड़कर व्यथव कम 9

वस्तओ ु ं में खोजने में दौड़ रहे हैं। खोज सब ईसीको रहे हैं, लकन्तु लवपरीत लदश में । कोइ-कोइ ही गन्तव्यक ऄवलम्बन कर प ते हैं। तमु भी ईसे ज नो बस, चलते रहो, वह स्वयं सूँभ ल लेग ।' संत जैसे अये थे वैसे ही प्रसन्न मन से ब लक कम मनःलस्थलत देखकर ऄपनेअपमें खोये-से ईठकर चल लदये। प्रश्नक सम ध न तो ईस लदन भी नहीं हो सक , लकन्तु ईप य कुछ नहीं थ ? के वल स्मरण... स्मरण रखने को ही संतने कह थ , लकन्तु वह तो च हकर भी ईस स्वर के ऄपनत्त्व को, मधरु त को, ईस मीठी पक ु र को कह ूँ एक िण भी भल ू प त है? सोचत है- जननी भी पक ु रती है ईसे, लपत कम ऄलधक र पणू व पक ु र भी सनु त है, च च कम स्नेहलवगललत पक ु र, लमत्रोंकम, छोटे भ इ कम, बड़ों कम, ऄपनों कम, पर यों कम और जीवनमें य य वर रहकर जगत कम ढेर स री पक ु रें सनु ी हैं, लकन्तु ईस स्वर कम, ईस मीठी पक ु र कम समत जो मन-प्र णोंको रसमें डुबो देती है-ईसकम समत कहीं नहीं प सक । आस पक ु र ने शैशव में ही ईसे सद के ललये गम्भीर और एक न्तलप्रय बन लदय ।

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हृदय िा क्रन्दि संक्षेप में ……. श्री सदु शवन लसंह चक्र जी के लपत र मलकशोर लसंह जी भेलहट ग्र म में लनव स करते थे। भर परु सम्पन्न पररव र थ । बड़े भ इ अलदत्य लसहं जी फलकड स्वभ व के थे और ऄलधक श ं समय आधर ईधर ही लवचरते रहते थे पर छोटे र म ज्ञ लसहं ऄत्यतं स्नेही थे। म त सरूप देवी, छोटी बहन जयंती और छोटे भ इ संवरू के स थ ब लक सदु शवन क जीवन बड़े ही सख ु पवू वक व्यतीत हो रह थ । ऄभी तो दसू री कि में ही थे लक च च क देह तं हो गय । लवपलियों क अन ज री रह । ग ंव ही नहीं छूट , पहले गलु ड़य जैसी बहन चल बसी और लफर परम स ध्वी सरूप देवी क मह प्रय ण हुअ। ब लक सदु शवन कम अयु म त्र चौदह वषव कम थी लक य त्र के दौर न लपत जी क स्व स्थ लबगड़ने लग । म गव में न गपरु स्टेशन पर ईतरन पड़ । न गपरु के ऄस्पत ल में दोनों छोटे छोटे ब लकों को लबलखत छोड़कर र मलकशोर लसंह जी ने शरीर त्य ग लदय । x

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सदु शवन ने 13 ऄप्रैलको मध्य ह्नमें न गपरु के श्मश न पर ऄपने ब ल-करों से ऄपने लपत कम ऄन्त्येलि सम्पन्न कम। चौदह वषव च र महीने क ब लक सदु शवन अज ऄपने छोटे भ इ क ऄलभभ वक एवं जीवनक सम्पणू व ईिरद लयत्व वहन करनेव ल वररष्ठ व्यलि बन गय ।

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ईधर 10 ऄप्रैलको ऄन य स अलदत्य लसंहजी भेलहट अ गये। ईन्हें वद्ध ृ बअ ु और बद्री लतव री ने बह सरूप एवं बच्ची जयन्ती कम मत्ृ यु क सम च र लदय । चौप ल से ग ूँव के लोग ज ने को खड़े हुए, ईसी समय ड लकये ने अकर पछू र मलकशोर लसंह क घर कौन स है?' 'ह -ूँ ह 'ूँ यही है। 'ह 'ूँ क ईिर सनु कर ईसने त र पकड़ लदय । जगदीश लतव री ने पढ़ -'र मलकशोर आज सीररयस, कम सनू ।' 'लय हुअ मेरे भ इको?' अलदत्य लसंहने पछ ू । 'ऄपन र मलकशोर गम्भीर रूपसे बीम र है और मेयो हॉलस्पटल न गपरु में भती है।' 'हे भगव न!् स थमें दो छोटे बच्चों को छोड़कर कोइ भी तो नहीं है' कहते हुए र मलखल वन रो पड़ । 'ऄरे ! यह लय हो गय ? मैं ज त ह,ूँ आसी समय ज त ह।ूँ ' ईद स मन लबन जल लपये अलदत्य लसंह ईठकर चल पड़े। वे सोचने को लववश हो गये –कै स भी है, मेर भ इ ही तो है.... मैंने सचमचु ईसके स थ न्य य नहीं लकय । ऄपनी त न श ही ही चल त रह । व र णसी स्टेशनपर पहुचूँ कर ट्रेन कम प्रतीि करते हुए ट्रेन में पैर ही रख लक छींक हुइ। लदल धड़कने लग , यह लय ? सगनु भी लवपरीत लदख यी दे रहे हैं। ऄगले लदन सयू वस्त के समय न गपरु पहुचूँ कर हॉलस्पटल के ब हर ही पहुचं े थे लक स मने से देख - मलु डडत के श, श्वेत वह्ल कंधेपर ललये सदु शवन लपत क ऄलन्तम संस्क र कर बीसब इस लोगों के स थ लौट रहे थे। 12

स धु वेश अलदत्य लसंह के रृदयमें प्रथम ब र ब लकोंके प्रलत स्नेह जग । सदु शवन ने जैसे ही चरण छुए, ईन्होंने दोनों ब लकों को रृदयसे लग ललय । दोनों ब लकों को लेकर वे 'अवी' (वध व) अये। अलदत्य लसंह ने सदु शवन को अदेश लदय 'तम्ु हें मेरे स थ ही ग ूँव चलन है।' अदेश लशरोध यव करके सदु शवन ऄपने छोटे भ इ सूँवरू को बड़के ब बू (त उजी) के प स घर में बैठ कर ऄके ले ही ईस सेठ के प स पहुचं े जह ूँ ईनके लपत के रुपये जम रहते थे। ग ूँव ज ते समय लपत ने ईन्हें बत य थ - 'आस सेठ के प स मेरे अठ सौ रुपये जम हैं। बहीख त नं०-2 ईन्होंने ऄलं कत कर ललये हैं। तम्ु हें जब भी धन र लश कम अवश्यकत पड़े वह ूँ से ले लेन ।' 'मेरे लपत जी क देह न्त हो गय है और हमलोग ऄपने बड़के ब बू के स थ ग ूँव ज रहे हैं | लपत जी ने मझु े बत य थ लक अपके प स ईनके अठ सौ रुपये जम हैं। वे रुपये अप हमें दे दीलजये तो हमलोग सलु वध से घर ज सके ! ' सेठ ने अूँखें कप ल पर चढ़ ते हुए कह - 'यह ूँ तो तम्ु ह रे कोइ रुपये जम नहीं हैं। तम्ु ह रे लपत र मलकशोर ने यह ूँ कुछ भी जम नहीं लकय है।' 'मेरे लपत जी कभी झठू नहीं बोलते थे। मेरे लपत जी क न म तो अप को स्मरण है और रुपये य द ही नहीं य ज न-बझू कर भल ू गये हैं!' सदु शवन ने लनभीकत के स्वर में कह । 'तो लय मैं झठू बोल रह ह?ूँ ' सेठ ने व्यंग्य से कह ।

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'ह ,ूँ अप झठू बोल रहे हैं और सब समझते हुए ऄनज न बने हुए हैं', सदु शवन ने ईसी दृढ़त से कह । 'तमु बच्चे हो, घर ज न च हते हो तो दस-बीस रुपये ले ज ओ। घर पहुचूँ ने को पय वप्त है', सेठ ने दय लदख ते हुए कह । ईस सेठ ने मन में सोच ललय थ लक लपत तो मर ही गये हैं, ये छोटे-छोटे बच्चे मेर लय लबग ड़ लेंगे! 'मझु े ....मझु े अपकम कृप -लभि नहीं च लहये। मझु े तो मेर स्वत्व, मेरे लपत कम धनर लश च लहये।' सेठ के चपु रहने पर सदु शवन ने क्रोध और घणृ से सेठ कम ओर देख और तरु न्त घर लौट पड़े। लनर श मन से घर अकर पढ़ने व ली टेबल ु -कुसी पलगं , ओढ़ने-लबछ ने के वह्ल तथ बड़े-बड़े बतवन, डेग, कलशे अलद बेचकर छोटे भ इ सूँवरू और बड़के ब बू अलदत्य लसंह के स थ ग ूँव कम ओर चल पड़े। चौदह वषीय आस लकशोर ब लक ने यह भी नहीं सोच लक वह आस परदेश में ऄपने छोटे भ इ के स थ ऄन लश्रत हो गय है। सेठ से अक्रोश प्रकट करने क समय नहीं है। अज ईसकम आस तेजलस्वत क महत्त्व समझने व ल कौन है? अज कौन है, जो ईसे मनहु र करके मन येग ? लवच रों में खोये-खोये सदु शवन ट्रेन में ही भ इ सूँवरू के लसर पर ह थ रख कर कब सो गये, पत ही नहीं चल । स्वयं प्र तः च र बजे के लगभग ज ग गये | ज गते ही सेठ क स्मरण कर लचि व्य कुल हो ईठ - अह! लय यही संस र है? सेठ ने कै से मन कर लदय ? मेरे लपत सद सत्यव दी एवं ब त के पलके रहे हैं। ईन्होंने स्पि कह थ -सेठ पर मेरे अठ सौ रुपये जम हैं। कि मत प न , अवश्यकत पड़ते ही ले लेन । ऄब ऄपन और छोटे भ इ क जीवन भगव न के ही सह रे है। 14

पवू वभ्य स के प ठ से स्वतः शब्द लनकल पड़ेसब सुख लहै तुम्हारी सरना। तुम रच्छक काहू को डरना।। सच में, ऄलकंचनों के परम धन सवेश्वर ही हैं। मोहजलनत दबु वलत धीरे -धीरे लतरोलहत होती गयी और क व्य ध र स्वतः फूट पड़ी। ईनके रृदयोद्ग र शब्द-पष्ु प कम म ल बन ने लगेठहरो! यों न मझु े ठुकर ओ। दीन ऄन लश्रत दबु वल लखकर, यों मत अूँख लदख ओ।। भल ू रहे हो मैं ऄन थ ह,ूँ अश्रय हीन मलीन ग त ह,ूँ नीच तच्ु छ हूँ पलतत त्य ज्य, जैस भी वैस मैं ईनक , कहूँ हरर से,कृप लसन्धु ऄब अओ।। सनु नहीं वे दीनबन्धु हैं, लनबवल के बल कृप लसन्धु हैं, पलतत-प प द हक ससु थ हैं, परम ऄलकंचन तच्ु छों के ही जगन्न थ हैं, ऄतःन त्य ज्य बन ओ।। 2। मेरे वे धन हैं, बल, जन हैं, 15

भ इ हैं, स्व मी तन मन हैं, अश्रय द त मम जीवन हैं, जो कुछ हैं वे ही लप्रयजन हैं, ईन्हें भल ू मत ज ओ।। 3॥। ऄश्रु बह त जब मैं रो कर, अिव दीन, प्रलत अतरु होकर, ईसे पक ु रूूँ तब वह अकर, ले लेग ऄपनी गोदी में, ऄश्रु पोंछ कर कह देग , सख ु प ओ।। 4।। पछत ओगे तब ऄपने को, दोष न लफर कुछ देन हमको, परम ऄलकंचन ही लप्रय ईसको, ज्ञ न प्र प्त हो ऄब भी सत्वर भ इ तमु को, मन लप्रयतम में ल ओ।। 5।। ऄनभु वहीन सक ु ु म र ब लक सदु शवन कम अूँखें भर अयीं। तभी ऄन्तर में लपत क स्नेलहल स्वर सनु यी पड़ - बचव ! लजसक कोइ नहीं होत ईसके रिक और सह यक भगव न् हैं, तमु ईन्हीं क सह र लो, वही कल्य ण करें गे। बस, अश्व सन भरी व णी सनु कर सदु शवन क अकुल मन ऄपने परम-धन, परम अश्रय को पक ु र ईठ माधि! और पुकारूँ िकसको?

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तेरे िबना बता तो भाई, आश्रय और भला क्या मुझको। आह! यही जग का नाता है, के िल स्िाथा दृिष्ट आता है, हृदय न कोई लख पाता है, अरे करूँ क्या? धनी जनों के सब साथी हैं, िनष्ठुर होकर त्यागा मुझको ।। अब तक बातों में भूला था, हृदय नहीं मैंने जाना था, धोखा ही सारा धोखा था, मुग्ध हुआ मैं! िकतनी मीठी थी िह िाणी, अमृत बना ििष िदया दीन को।। 2।। अच्छा अब तो शरण तुम्हारी, क्या होगी सुिध तुम्हें हमारी? क्या अपनाओगे िगरधारी, अथिा तुम भी ठुकराओगे? ओ करुणामय! इस अशरण अनाथ िनधान को।।3।। मृत्युदान दो, या ठुकराओ अथिा िप्रय अब तो अपनाओ। मुझको आज सनाथ बनाओ, मोहन देर करो मत! दया करो, आओ अपनाओ, क्यों न दया आती है तुमको।। x

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छठी कि कम परीि थी। सम च र लमल लक हैजे के प्रकोप से ग ूँव में वद्ध ृ बअ ु जी मर गयीं हैं। एक-एक कर के स रे ऄवलम्बन छूटते ज रहे थे। परीि देकर घर 17

अ गये। बअ ु जी के मरने क सम च र प कर लहगं तु रगढ़ग ूँव (नलनह ल) से म म धमवदवे लसहं सवं ेदन प्रकट करने अये। वे सदु शवन कम आच्छ के लवपरीत ईन्हें नलनह ल ले गये। नलनह ल में म म ने ऄपने आस होनह र भ ंजे को ग यें चर ने में लग लदय । ईन्होंने सोच - लय करे ग पढ़कर? ईन्हें एक चरव ह लमल और सबसे बड़ ल लच थ , जमीन-ज यद द को हड़प लेने कम अश । नलनह ल ज कर सदु शवन ग यों को चर ग ह में प्रवेश कर कर लकसी वि ृ कम छ य में बैठकर पस्ु तकें एवं परु नी पलत्रक एूँ पढ़ते रहते। पढ़ इ छूटने कम गहरी पीड़ मन में थी। धीरे -धीरे लनर श क गहर ऄधं क र बढ़त ज रह थ । भरी-भरी अूँखें ईठ कर अक श कम ओर देखने लगते, कभी पथ्ृ वी कम ओर। लवश्व-लनयन्त के ऄलतररि कौन ईनकम गहरी लनःश्व स सनु प त ? रृदय कम वेदन ज ग पड़ीज गी अज वेदन मेरी, ऄन्तस्तल में एकलत्रत पीड़ कम लेकर ढेरी।। अज कौन है जो लसर पर ह थ रखकर अश्व सन देग ? कौन लचन्त करे ग लक आस होनह र लकशोर क जीवन नि हो रह है? क न अत्मीयत के दो मीठे बोल सनु ने को तरस गये। कोइ ऄपन नहीं, जैसे च रों लदश एूँ सनू ी हो गयी हैं। रृदय कम पीड़ ऄन य स शब्द क रूप धर कर क गज पर ऄलं कत होने लगीिेदना मेरी दुखद अपार। भरे हुए शत-शत आशा के हैं इसमें उद्गार।। बुझते हुए दीप किलका का अिन्तम दीिि प्रकाश। गूंज रहा िकतनी पीडा का िनमाम िनदाय हार। अरे! ठहर मत छे ड़ इसे यह भर देगी आकाश। 18

भरा है इसमें तेरा प्यार।। 1 ।। भाई! अब इच्छा है यों ही सतत रहे ििरहानल प्रितपल, रहे प्रज्ििलत शान्त न होिे मैं उसमें जलूं प्रितक्षण, नाम िनत्य िजव्हा पर तेरा तेरे िबन मन आकुल व्याकुल, इसी पीड़ा में सुख का सार।। 2 ।। बस यों ही रोऊूँ िदन रात कभी सदय िह आ जायेगा, कभी द्रिित हो मोहन अपनी मोहन मुरिल सनु ा जायेगा, तृि करेगा तृिषत हृदय को प्रेमामृत िषाा जायेगा।। करेगा कभी प्रकट हो प्यार।। 3 ।। लनर श के घन ऄधं क र में ही अश क दीप प्रज्वललत होत है। लजसक कोइ नहीं है- सववसरृु द,् लवश्व लधदेव सजृ नह र पर ईसी क स्वत्व है। सदु शवन के मन में लबजली-सी कौंधी और वही मीठ स्वर गजंू - 'वत्स! ऄमतृ -पत्रु है त!ू आस प्रक र पर जय स्वीक र करन शोभ नहीं देत तझु े!' सदु शवन भ व-लवव्हल हो ईठे । मन-प्र ण-देह सब में भर गय वह मधरु स्वर....। सच में यह तो वही स्वर है जो कभी-कभी अधी र त और ढलती र त में सनु यी देत थ । कह ूँ है वह? कै से, कह ूँ ढूूँढूं? आस ईन्मि ु कर देनेव ले स्वर को- मेरे प्र ण! मेरे सववस्व19

मत पूछो क्या है गित मेरी, कभी डूबता कभी उतरता, िप्रय पािन स्मृित में तेरी। वे व्य कुल हो ईठे । नेत्र झर-झर झरने लगे। पथ्ृ वी पर लगर गये। प्र ण पक ु र ईठे 'तमु कह ूँ हो मेरे जीवनधन! रृदय-तंत्री झंकृत हो ईठीछे ड़ता कौन हृदय के तार? िनकल रही पीड़ा बन िजससे यह नीरि झंकार। इस टूटी तन्त्री को लेकर कौन हठी जो कष्ट उठाकर कोमल स्िर से मुझे जगाकर प्रकट कर रहा यह अन्तर में करुणामय गुंजार।। 1।। होता मिथत ििकल अन्तर है कौन िििश कर खींच रहा है? यह िकसका यों आकषाण है? क्या तू ही सब करता है- मेरे नन्दकुमार।। 2 ।। ठहर, छोड़ दे छे ड़न मुझको, जगा नहीं सोई पीडा को, 20

रोक तिनक इस आकषाण को क्या इतना कर देगा प्यारे! के शि प्राणाधार।।3।। नहीं नहीं झंकृत कर इसको, बढा िेदना आकषाण को। क्षुब्ध बना दे इस अन्तर को, शान्त सफल आनन्द मगन यह पाकर तेरा प्यार।। 4 ।। उर का कोमल स्िर िनकलेगा, सारा ित्रभुिन मुग्ध बनेगा। क्या तू इतनी दया करेगा? बैठ प्रकट नयनों में सन्मुख छे ड़ हृदय के तार।। 5।। लचि कम वलृ ि सहज ही ऄन्तमवख ु होती चली गयी। जीवन में स धन कम ओर वे अन्तररक प्रेरण से ही प्रविृ हुए। सभी ओर से लनर श होकर ईन्होंने ऄशरण-शरण सव वध र के न म क अश्रय ललय , म नो आसी समय के ललये लपत ने न न पौर लणक कथ ओ ं और श्री र मचररतम नस के रूप में संस्क र स्वरूप अलस्तकत कम अध र लशल रखी हो। लचन्तन-स धन ऄनवरत चलती रही। भगव न के प्रलत यह अत्मीयत सदु शवन के स्वभ व कम सहज वलृ ि बन गयी। ईन्म द कम ऄवस्थ में कभी लवरह कम बड़व लग्न भड़क ईठती। लवरह कुल होने पर रृदय क क्रन्दन ब हर फूट पड़त 21

मैं तो प्यारे के गुण गाऊूँ । मेरे अश्रु ििन्दु ही कोई अब उस तक पहुूँचाओ। बड़ी कृपा होगी यह मुझपर, िचर कृतग्य होऊूँगा उस पर। क्रन्दन करता व्यथा से अन्तर, कोई िकसी भाूँित भी मुझको िप्रय पद तक पहुच ूँ ाओ।। कभी लमलन क सख ु रृदय को लवभोर कर देत । ऄन्तर सवेश्वर के सह रे अनन्द कम तरंगों में डूब ज त । तब संस र क कोइ ऄभ व समीप नहीं फटकत । वही मीठ स्वर रृदय में ऄमतृ -लसचं न कर लवरह में सजं ीवनी क क म कर देत । जो लमल ख ललय , जो लमल पहन ललय । भौलतक वस्तओ ु ं कम ओर ईनकम दृलि ज ती ही नहीं थी। लकसी से कुछ नहीं च लहयेबाूँकी-झाूँकी थी एक झलक, कुछ क्षण इन नयनों से अपलक। देखूूँ धर चरणों पर म स्तक झरती आूँखों से अश्रुधार। x

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सदु शवन जी के न न कम दो ही सन्त नें थीं; एक आनकम म ूँ दसू रे आनके म म लजनक बचपन में ही देह न्त हो गय । आनके न न के एक भ इ और थे; जो लहगं तु रगढ़ 22

में बस गये थे। आन छोटे न न के दो पत्रु थे, लजनमें ज्येष्ठ क न म धमवदवे लसंह थ । सदु शवन जी ऄपने म ूँ और भ इ के स थ जब भी नलनह ल ज ते तो आन्हीं धमवदवे लसहं के घर रहते। छोटे भ इ सूँवरूलसंह क ऄपने नलनह ल व लों से ऄलधक स्नेह थ ; आसीसे ऄलधकतर वहीं रह करत । आन महोदय ने व र णसी पहुचूँ कर सूँवरू को बड़े नय र से रखते हुए ऄपने पत्रु को सूँवरूलसहं क दिक पत्रु घोलषत करके क ननू ी क रव व इ परू ी कर ली। आन्हें सूँवरूलसहं से नहीं ऄलपतु ईनकम भलू म-सम्पलि' से प्रेम थ । ऄब संवरूलसंह कम अवश्यकत तो रही नहीं आसी से वे संवरूलसंह को प्रसन्न रखने के ललये कुपथ्य में सह यत करने लगे। सूँवरूलसहं को जलोदर हुअ और सदु शवनजी ने ईसे व र णसी के प्र कृलतक लचलकत्स लय में भरती करव लदय । ईन्हें लवशेष क यववश न गपरु ज न पड़ । ट्रेन में बैठते ही सूँवरू कम लचन्त करते हुए ऄपनी लववशत पर मन-ही-मन खीज ईठे मत पूछो क्या है गित मेरी, मूक िेदना अन्तस्तल में िाष्प िबन्दु कुछ युग नयनों में धक्-धक् जलता उर ज्िाला में खड़ा अके ला कमा दोषसे, कब तक यह दुुःख पाऊूँगा मैं।। 1।। ििपितग्रस्त मैं बना कन्हाई! तेरे आश्रय छोटा भाई। मेरे प्राणों पर बन आई, जाऊूँ कहाूँ तुम्हीं पर आिश्रत और लगा मत देरी।। 2 ।। 23

इस प्रकार जीिन प्रिािहत होता रहा……

श्रीकृष्ण-दशान सन् 1933 में जब सदु शवन जी ब इस वषव के थे, न गपरु में धमवदवे लसंह क व र णसी से भेज हुअ सूँवरूलसहं के देह न्त क त र लमल । त र पढ़ते ही अूँखों के स मने ऄूँधेर छ गय । एकम त्र वही तो थ ससं र में ऄपन कहने को। म नवों से भरी मेलदनी पर वे ऄके ले हैं, लनत न्त ऄके ले। लय ? कोइ नहीं रह ऄपन । आस सलृ ि में कोइ नहीं मेर , मैं ऄके ल ह,ूँ लबलकुल ऄके ल । यह लवच र अते ही पैरों तले जैसे पथ्ृ वी घमू ने लगी, ब्रह्म डड घमू ने लग । रृदय को लवदीणव कर के वेदन बह पड़ने को अतरु हो ईठी। मच्ू छ व! मच्ू छ व!! ऐसे समय में मच्ू छ व तो औषलध के सम न होती है; लकन्तु सभी रोलगयों को समय पर औषलध प्र प्त हो ही ज य, ऐस तो कोइ लवध न है नहीं। सदु शवनजी को भी मच्ू छ व समीप नहीं फटकम........ पीड़ ! तीव्रतम पीड़ !! पीड़ ऄपने ऄलन्तम छोर तक पहुचूँ गयी। ईन्होंने ऄनभु व लकय -भ इ नहीं ऄलपतु छ ती चीरकर जैसे ईन्हीं क कलेज लनक ल ललय गय हो ऄथव रृदय में धधकते हुए ऄगं रे भर लदये गये हों। स्पि लग लक तीव्रतम ऄन्तव्यवथ से रृदय लवदीणव हो ज यग । ईसी समय ठीक ईसी िण जैसे रृदय में लवद्यतु ् लहरी सी कौंध गयी। एक लदव्य शीतल लस्नग्ध प्रक श क प्रस रण होने लग - ईज्ज्वल लस्नग्ध ईस प्रक श के मध्य अठ वषीय नव-जलधर ऄनपु म सन्ु दर एक ऄलौलकक तेजोमय अभ सयं ि ु ब लक दीख ईन्हें | ऐसे दीख 24

जैसे प्रत्यि खड़ हो सम्मख ु । ईसके लहर ते मयरू लपच्छ, घूँधु र ली ऄलकों से लेकर च रु-चरणों तक एक-एक ऄगं प्रत्यि लदख यी दे रहे थे। ईसकम मंद मस्ु क न लनरखते ही जगत-देह सब लोप हो गये। वह द रुण भ त-ृ शोक कब लतरोलहत हो गय रृदय से, यह वे ज न ही न सके । सधु -बधु भल ू े-से वे तो देखते रह गये आस सौन्दभव-व ररलध को एकटक। सन्मख ु थ के वल वह ऄशरण-शरण, सववसरृु द,् ऄन थन थ, दीनबन्ध,ु प्रेमेकप्र ण, लत्रभवु नमोहन, भवु नमनोहर, परम सक ु ु म र; बस, ईसने ऄपनी वे बड़ी-बड़ी कमल कम पंखरु ी-सी कोमल पलकें ईठ यीं। ब लसल ु भ वह भोली नजर! मि हो गये सदु शवनजी। ईसने ऄपन दलिण कर-पललव ईठ य । सदु शवन क व म स्कन्ध स्पशव करके मधरु स्वर में बोल - द द ! मैं तेर छोट भ इ नहीं ह?ूँ वह मस्ु कर लदय धीरे से। लय कहें सदु शवन जी? लय करें वह? कलहये तो जैसे लकसी ईन्मि को भ ूँग य सरु लपल दी ज य। नश चढ़ रह हो य लफर कलहए- गूँगू े क गड़ु स्व द ....नहीं! नहीं!! नहीं!!! बत ने जैस कुछ है ही नहीं, शब्द, भ ष सब बौने हैं! ब त सच है पर हमें तो आन्ही से क म चल न है, तब लफर एक ही व लय से कुछ आलं गत लकय ज सकत है-ऄलनववच्य – आसके ऄलतररि कोइ ईप य जो नहीं है। और वह शोक! लय अपने कभी सयू व के सम्मख ु ऄधं क र को खड़े देख है? नहीं न! लफर अनन्दघन के सन्मख ु शोक ऄपन ऄलस्तत्व कै से बच प येग ? वह तो सद -सववद को सम प्त ही हो गय । 25

ऄब कलहये तो सदु शवनजी ने कौन-स तप, यज्ञ, ऄथव स धन कम थी, आस सवोच्च तत्त्व को प ने के ललये? वह लय स धन, ध्य न, तप से प य ज सकत है? नहीं रे ! यह सब तो मन को लनमवल करने के स धन हैं। वह तो ढूूँढ़त लफरत है सहज स्नेह, सरल स्वच्छ मन क असन- लजस पर अर म से लनज गेह म नकर सख ु से बैठ ज सके । असन लमल ज य बस, लफर नहीं देखत लक ईसे नौकर बनन पड़ेग य म ललक। कोइ प्रेम के आस पजु री को ईठक-बैठक कर येग , क न पकड़ कर ऄथव चरणों पर लसर रखेग । वह तो बस, दीव न है असन क , लफर तो ईससे जो च हो कर लो। ऄपने अपको ही दे देत है और रीझ ज य तब ब कम लय रह ज त है भल ! वह स्वयं ही लकसी को न ऄपन ले तो मनष्ु य क लकतने भी समय क , लकतन भी ईत्कृि स धन आसे ऄपन बन ने में कभी समथव है? सदु शवनजी क यह छोट भ इ 'कन्ह इ' लय एक ध लदन के ललये अय है? यह तो सद सववद के ललये ईनक हो गय । 'द द द द ' करते सद ईनके अगे-पीछे घमू नेव ल , पल-पल ईनक मख ु देखत , ईनकम आच्छ ज नकर परू ी करने को तत्पर, ईनक यह नन्ह सक ु ु म र हूँसत मस्ु कर त नन्ह स सक ु ु म र भ इ कन्ह इ।

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चाति सी चाह श न्तनलु वह री लद्ववेदी (परमपज्ू य स्व मी ऄखडड नन्दजी मह र ज) अग्रह पवू वक सदु शवनजी को ऄपने घर ले अए। वे लनत्य ही घर पर प्र तः नौ-दस बजे से श्रीमदभ गवत कम कथ करते थे। प्रथम तो के वल ईनकम म त जी ही श्रोत थीं, ऄब दसू रे श्रोत सदु शवनजी भी हो गये थे। मह र ज जी कम म त जी अूँखों में अूँसू भरे अनन्द मग्न बैठी कथ सनु ती रहती और सदु शवनजी कम लस्थलत थी- श्रीकृष्ण चररत्र सनु कर बेसधु हो ज ते। च र-च र, प ूँच-प ूँच घंटे तक ईसी ऄवस्थ में पड़े रहते। न गपरु में ऄपन देख हुअ ऄनजु कनंु स्मरण अते ही ऄथव न म लेते ही सम्मख ु अ खड़ होत और वे रोम ंलचत पल ु लकत देह, नेत्रों से ध र -प्रव ह ऄश्रु प्रव लहत होते ऄपलक देखते रहते। ऄचकच ये-से, कभी अनन्द लधलय से नेत्र बन्द हो ज ते; लकन्तु बन्द नेत्रों के सन्मख ु भी ईन्हें ऄपन कन्ह इ मस्ु कर त लदखत । ब ह्य-लस्थलत तो प्रकट हो ज ती पर मन कम लस्थलत बत ते ही नहीं थे। आनकम आस लस्थलत पर स्व मी गणेश नन्दजी तो हूँसी ईड़ ते लयोंलक वे घनघोर वेद न्ती थे और क ननू गो स हब सदु शवन कम मच्ू छ व और स्व मीगणेश नन्दजी क ईपह स दोनों में सौम्य- श न्त बैठे रहते। ईनक ज्ञ न और भलि में कोइ अग्रह नहीं थ । ईन्हें परम त्म क लचन्तन ही ऄभीि थ । कथ के बीच सदु शवनजी कम मच्ू छ व, ऄश्रपु त, रोम ंच कंटलकत देह और रृदय कम सरसत देखकर म त जी बड़ी अनलन्दत होतीं, आन्हें ऄसीम स्नेह लदय करतीं। एकब र मह र ज जी ने सदु शवनजी को प्रेम से ईप लम्भ लदय थ - ऐस लगत है लक घर के लोग और लवशेष रूप से म त जी मझु से भी ऄलधक तमु से स्नेह करती हैं। सदु शवनजी 27

भी म त जी पर बहुत श्रद्ध रखते एवं अदर करते। म त जी ने ही घर के लोगों को और बच्चों को लसख लदय थ लक सदु शवनजी को 'भैय जी‛ कहकर पक ु रें । तबसे ईस ग ूँव के तथ असप स के लोग एवं मह र ज जी क स्वजन-पररकर सब ‚भैय जी‛ ही कहने लगे। सदु शवनजी कहीं चले न ज यूँ, आनक घर में मन लग रहे, यह सोचकर म त जी ने गहर इ में घर के प स र लत्र-प ठश ल भी खल ु व दी। सदु शवनजी कथ के पश्च त् ज्व र, ब जर और ऄरहर के खेतों में ज कर घटं ों एक न्त में भजन करते रहते। कभी मलू छव त हो ज ते तो कभी अक श कम ओर लनह रते रहते; कभी कण-कण में व्य प्त सौन्दयव-म धयु व-लनलध कम भवु न मोलहनी लील -लवल स को लनरख करतेकौन है इस सषु मा का सार? है चंचल सब जड़ चेतन जग िकसके िलये अपार? रजनी के इस तमस्तोम में िकसका मंजुल मधुर प्रकाश? व्याि रहा प्रत्येक कणा में िकस िचरिशशु का ििभि ििलास? कौन इस लीला का आधार ॥1॥ िकसका कोमल मधुर स्पशा पा हो उठता है ििश्व-ििभोर? िकस सुख की सुन्दर आशा से जाते सब अनन्त की ओर? िकसे देने को अपना प्यार।। 2।। सुि जगत के हृदय पटल पर, बनकर िचत्रकार यह कौन? 28

खींच रहा सब स्िप्न िचत्र है, अिखल प्रजित है कै सी मौन? कौन है इसका नाटककार ।। 3।। यह भ्रम मोह क्षिणक तृष्णामय क्यों सबने अपनाया? अरे कहा क्या! इन्द्रजाल यह सारा िजसकी माया िही तो नटखट नन्दकुमार ।। 4।। सन् 1934 तक आनकम ऐसी लस्थलत हो गयी थी लक जब कभी अक श में क ले ईमड़ते-घमु ड़ते ब द लों को देखते तो देखते ही देह ध्य स छूट ज त । चेतन अते ही दौड़ पड़ते। ब दलों को ही ऄक ं में भर लेने को भतू ल पर और च तक कम च ह को ऄपने में सम लेन च हतेओ मेरे प्यारे घनश्याम! आ! आ!!| अरे पुकार रहा हूूँ आ! नि शोभा धाम! कौन बताता तू िनष्ठुर है, मेरा तो तू ही जीिन है, देख, शुष्क हो गया कंठ है प्यारे जल िबन तेरे, तेरे िबना सहारा है क्या इन प्राणों को मेरे। िकतने िदन से प्यासा हूूँ मैं।

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राह तुम्हारी देख रहा मैं। एक िबन्दु बस एक िबन्दु जल से ही मेरा काम।। ।। तेरे िबना और जल मेरे आिेंगे क्या काम।।1।। ओ मेरे प्यारे घनश्याम। हाूँ सर सररता-सागर सब है, हैं िे िजनको उनको ही हैं। मुझे भला उनसे क्या मतलब मेरे तो तुम प्राण, मर जाऊूँ गा यिद न मनाओ यह चातक का मान। और जीि मैं नहीं कहीं भी, पी लूूँगा जल जो कोई भी। यिद जीिन रखना हो आओ मेरे लिलत ललाम।। 2।। ओ मेरे प्यारे घनश्याम। मैं तो हूूँ बस एक तुम्हारा मेरे प्राणाराम |। बरसाओ पत्थर बरसाओ, अंग-भंग कर मुझे िमटाओ। चाहे जो भी करो िकन्तु तुम एक बार आ जाओ, एक िबन्दु जल इस प्यासे को मरते समय िपलाओ। 30

हाूँ दे दो इतना ही दे दो, और न चाह न तुम जीिन दो। दे दो अपनी बाूँकी- झाूँकी जल जग जीिन-धाम।। 3 ॥ ओ मेरे प्यारे घनश्याम। प्र तः मह र ज जी आन्हें ऄके ले नहीं ज ने देते। टहलने भी स थ-स थ ज ते। एक ब र ग ूँव से ब हर टहलने के पश्च त् एक बड़े न ले के उपर पलु लय पर बैठे थे। श्रीकृष्ण के न म तथ स्मरणम त्र से मलू च्छव त हो गये और ऄचेत वस्थ में न ले में लगर गये | मह र ज जी कंकड़ों पर से खींचकर लकन रे पर ल ये। आसी प्रक र दो ब र गंग में उूँचे कग र से नीचे ज लगरे । ऐसे ऄवसरों पर ऄलसर मह र ज जी दीघव स्वर में क नों में प्रणव क ईच्च रण करते तब कहीं घंटों ब द चेतन लौटती।

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प्रेम वैचचत्र्य चक्रजी एक ब र एक य त्र में कै ल श अश्रम में रुके थे। यह ूँ रहकर र मकृष्ण पस्ु तक लय कम पस्ु तकें पढ़ते थे। यहीं प्रभदु ि ब्रह्मच रीजी द्व र लललखत गीत प्रेस , चररत वली तथ कल्य ण के सम्प दक भ इ श्रीहनमु न -गोरखपरु से प्रक लशत चैतन्य पस्ु तक पढ़ने से मन को 'नैवेद्य' पढ़नेको लमली। 'नैवेद्य' प्रस दजी पोद्व र द्व र लललखत श्र - एक लनलश्चत लदश लमलीीीकृष्णप्र लप्त ही जीवनक लोंय है। यों तो बहुत पस्ु तकें सत्संग -क दशवनश न्तनलु वह री लद्ववेदीके स थ सन्तों ०ग्रन्थ भी पढ़े थे और पं ,पढ़ी थीं लकन्तु ,ऄनभु व भी थे ,स्नेह भी थ ,भी प्र प्त लकय । श्रीकृष्णके प्रलत अकषवण भी थ तक लोंय लबन्दु क संध न ऄभी नहीं थ । पं० श न्तनलु वह री लद्ववेदी वेद न्ती थेस थी , लफर भी लचिकम एक ऄज्ञ त ,लवच र होत रहत थ -ऄतः वेद न्त ,भी सभी वेद न्ती थे -न म और श्रीकृष्ण-ध र भलि कम ओर प्रव लहत रहती। आसी क रण सद ही श्रीकृष्ण नैवेद्य औ -लोंय सधं न लकय चच व ही लप्रय लगती ।र चैतन्यचररत वली ने।सदु शवनजी को बलु द्ध ने सझु य न ,तू न कवु के सम न तप कर सकत है तझु में प्रह्र दके सम न न लनष्ठ है ,व ल्मीलक के सम न एक ग्र लचिसे दीधव क लतक जप यह सब ?प्रीलत है ही कह ूँ और न मीर के सम न प्रेम। श्रीकृष्णके प्रलत तझु में ईत्कट सोचतेसोचते सब ओर से ईनक मन लनर श हो गय । लय मझु े श्रीकृष्ण प्रेमकम प्र लप्त -तब हत श मनको प्रबोध देने लगे ?नहीं होगी ओ मन,एक बात सुन मेरी ! और मान चुपचाप शीघ्र हीलगा न िकंिचत देरी। , 32

ढूूँढ रहा मैं व्याकुल मनसे, िकतने युग िकतने िषोंसे साधनध्यान न होगा , मुझसे, उस नटखटसे हार थका मैं िकन्तु न उसको पाया।। िफर भी मेरा जीिन धन है, उसके िबना शून्य जीिन है प्राि नहींकर सकता उसको, तब चरणों की ही आशासे धारण कर लो इस जीिन को।। हाूँ रोओ अब व्याकुल होकर, बहो बहो तो आूँसू बनकर िनिित कभी यहाूँ िह आकर, अपना लेगा िपघल उठे गा जीिनधन ाजराज।।ईन्हें जीवन व्यथव लगने लग । हररद्व रमें आन्हीं लवच रों में खोयेखोये से रहने लगे। आन लदनों श न्तनलु वह री लद्ववेदीके स थ ही हररद्व र ऊलषके श ,कम ओर एक लदन दोनों लमत्र लनकल पड़े एक धोती म त्र पहने थे। ईसी ईन्म द वस्थ में-दोनों एक |एक लदन गगं जी तैरकर प र कम। ईस ओर पहुचूँ गये। ईस प र सघन वन और कटीले वि ृ ों क ब हुल्य थ । 33

लनर श कम प्रबलत ने सदु शवनजी के लचिमें द व नल सल ु ग लदय थ । ईनके लवरह क वणवन ऄशलय है। ब र ब र पथ्ृ वीपर लगर पड़ते और-मलू छव त हो ज ते। प०ं श न्तनलु वह री लद्ववेदी ने सदु शवनजी क लसर ऄपनी गोदमें ले ललय । देखतेदेखते ईनक शरीर और मख ु ऐस क ल होत चल गय जैसे तवेके पीछे क भ ग। श न्तनलु वह री घबड़ ये और लसर नीचे जमीनपर रखकर ऄपनी अधी धोती गंग जल में लभगो ल ये। वे ईसे सदु शवनजी के मख ु पर लनचोड़ देते थे और गील भ ग ओढ़ देते। कुछ ही लमनट में धोती सख ू ज ती। तब पनु ः लभगोकर ऐस ही करते। धीरे -धीरे शरीर और मख ु कम क ललम घटने लगी तो आसके लवपरीत होने लग लक मख ु गौर वणव होते-होते प्रक श से ऐस चमकने लग लक अूँखें नहीं ठहरतीं | कुछ देरमें पनु ः कुछ स म न्य हुए तो अूँखें खोलीं और ईठकर ह कृष्ण! ह कृष्ण!! कहते हुए खड़े होकर प गलों कम भ ूँलत जो वि ृ लदखे ईसीको अललंगन करने लगे- आन्हें तो वि ृ के स्थ न पर मेघश्य म, पीतवसन भवु न-सन्ु दर मयरू -मक ु ु टी ही लदख रहे थे, ऄत: सूँभ लने के ललये ब र-ब र पं० श न्तनलु वह री लद्ववेदीजी स मने ज ज ते। ये ईन्हें ही ग ढ़ अललंगनमें ब ूँध लेते। कंटीले वि ृ ोंके अललंगन से छ ती रि-रंलजत हो गयी। ऄश्रलु सि मख ु से ह श्य मसन्ु दर! कहते-कहते ब र-ब र पथ्ृ वीपर लगर पड़ते। तब पं० श न्तनलु वह री लद्ववेदीजी क नमें मख ु लग कर ईच्चस्वर में प्रणवक ईच्च रण करते, बहुत देर लगी आस ऄवस्थ से ईबरनेमें | चेतन अते ही कंठ से प्रणव क ईच्च रण स्वतः होत । सयू वस्त ही नहीं, र लत्र हो चक ु म थी, जंगलके पशओ ु ं कम अव जें अने लगीं, तब कहीं सचेत होकर दोनों तैरनेके ललये ध र में कूद पड़े पर जल ऄलधक होनेसे ध र में बहने लगे।

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पं० श न्तनलु वह री लद्ववेदी को ऄच्छी तरह तैरन नहीं अत थ । सदु शवनजी बड़ी कलठन इ से ईनक ह थ थ मे तटपर अ सके । प्र त:क लके लनकले दोनों र लत्रके प्रथम प्रहरमें भख ू े-नय से, ह रे -थके ऄपने लनव सपर लौटे लकन्तु लस्थलत प्रेम वैलचत्र्यकम ही रही। शय्य पर लेटे हुए ही भ गवत सनु ते रहे। पं० लद्ववेदीजी पग-पगपर सूँभ लते ऄन्यथ ईनकम देहक न ज ने लय होत ? (यह संस्मरण ऄनन्त श्रीस्व मी ऄखडड नन्दजी मह र जने कइ ब र अनन्द वन्ृ द वन में स्वयं सनु य थ ।) लदव्य घटन ऊलषके श से घर लौटकर भ गवत श्रवण करते तो श्रीकृष्णक रूप वणवन सनु ते ही सज्ञं -शन्ू य हो ज ते। धीरे -धीरे गम्भीर होते गये। आसी क्रममें पहले स ध-ु सतं ोंके यह ूँ ज न -अन होत । एक ब र दोनों ही एक लम्बी य त्र पर लनकले। अंक और ईड़ीस कम पैदल य त्र सम प्त कर लबह र में भ्रमण कर रहे थे। तपोवन से र जलगरर अये। वह ूँ से पैदल ही प्र तः:क ल चलकर दोपहरमें लवह र शरीफमें अये। स थ में भोजन कम व्यवस्थ तो थी नहीं; लकन्तु वह ूँ छ त्र वस्थ के लमत्र व्य करण च यवजी श्रीश हीजी लमल गये । ईन्होंने बड़े प्रेमसे भोजन कर य । दोपहरके ब द चलनेपर कहीं भी ठहरनेको स्थ न नहीं लमल । लोग सड़क पर य पेड़के नीचे सोने नहीं देते थे ग ूँवमें मलं दरसे धमवश ल भेज देते, वह ूँ रुलचकर नहीं लग । ऄतं में ह रकर लबह र ल आट रे लवेके लकसी स्टेशनपर र लत्रके ग्य रह बजे पहुचूँ े। ग लड़य ूँ अ-ज चक ु म थीं। असप स कोइ दक ु न-मक न नहीं थे। मीलों तक बस्ती नहीं थी। यह घटन वषव 1934-35 कम है। थककर चरू -चरू हो रहे थे। ख ने-पीनेकम कोइ लवलध नहीं। सब लोग सो गये थे मसु लफरख ने में। ये दोनों ब हर खल ु ेमें तलनक सबसे हटकर एक न्त स्थलपर च दर

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लबछ कर सोनेके ललए लेटने ही व ले थे लक दो लकशोर ब लक ईपलस्थत हुए-गौर-श्य म वणव, स्वच्छ वह्ल । र लत्रमें भी ईनके शरीरसे तेजोमय क लन्त लझललमल रही थी। ईन्होंने दोनोंसे पछू -‘कुछ ख ओगे?’ ‘यह ूँ लय लमल सकत है!’ आन्होंने पछू । वे दोनों ही प ूँच लमनटमें दो दोनोंमें भरकर खोय ले अये। ‘तमु दोनों कह ूँ रहते हो?’ आन्होंने पछू । ‘यहींपर ।' दोनों िण भरमें चले गये। प्र त:क ल ईठकर पत लग य ; लकन्तु असप स मीलों तक न कोइ ग ूँव, न गहृ स्थ और न ऐसे ब लक। चक्र जी क कन्ह इ ही तो अय थ ऄपने द उ द द के स थ! ॎॎॎ

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मंत्र-दीऺा सदु शवनजी कम ब्रज और ईसमें भी वन्ृ द वन कम लदव्य प्रेमभलू म में अते-अते तन-मन कम दश लवलचत्र हो ज ती। कलपयों कम लकलक री, मयरू ों क के क रव, कोयल क कलकंठ, पपीहे कम पक ु र, भ्रमर वली क गजंु न श्रीकृष्ण-लमलन कम ल लस को ईद्वीप्त कर देती। लवयोग कम द रुण द व लग्न दग्ध करने लगती। नेत्रों से व ररध र चल पड़ती। पररक्रम म गव में वैष्णव संत लमलते ही रहते थे। जो भी संत सम्पकव में अते तथ लमलते, एक ही चच व करते- गरुु -दीि के लबन भगवद् प्र लप्त नहीं होगी। श ह्ल-परु णसतं सभी गरुु -मलहम क प्रलतप दन करते हैं लक लबन गरुु के भव-लनवलृ ि कह ूँ? गरुु ही गोलवन्द तक पहुचूँ ते हैं। यह ब त भी वषव 1935-36 कम है। ईन लदनों आनक ऄलखड़पन भी कम नहीं थ । ईसी धनु में कह बैठे- मैं लकसी को गरुु नहीं बन त , लजसमें दमखम हो मेर गरुु बन ज य। ब द में सोचने लगे-वैष्णव सतं ों क तथ सभी लोगों क कहन तो ठीक ही है। ऄपनी श्रद्ध से गरुु बन य ज त है। गरुु कोइ स्वतः कै से बन ज यग ? कुलटय में लेटे-लेटे कहने लगे- लजसके कोइ नहीं होत , कन्ह इ ईसक होत है। यही मेर बल है। लपत-ृ कुल में कोइ नहीं, म त-ृ कुल में कोइ नहीं, न कोइ सग न सम्बन्धी। लकन्हीं को ऄपन करके पकड़न भी च ह तो वे झटक कर ऄलग हो गये? ऄब कन्ह इ लयों ऄपन नहीं होग ? एकम त्र वही ऄपन है। सन्तोंकम एवं लोगोंकम ब तोंक मनपर परू प्रभ व पड़ । ऄपने कन्ह इ को ही ईप लम्भ लदय - यलद गरुु बन न अवश्यक है तो तम्ु हीं ईन्हें भेजो, कह ूँ लमलेंगे मेरे गरुु देव.......? तभी... बस, तभी लवरह लग्न कम पर क ष्ठ पर ऄकस्म त् अश कम लबजली कौंध गयी। ईठकर बैठ गये37

ऄरे ! परमगरुु लसद्ध हुए भगव न् शेष-ऄनन्त संकषवण। ये संकषवण ही तो श्रीकृष्ण ग्रज एक कुडडली हलधर, नीलवसन, स्वणवगौर द उ द द हैं। ये परमगरुु ऄपने द द । ये लनत्य सप्रु सन्न, लकसीक भी दोष-ऄपर ध न देखनेव ले, ऄपने श्रीचरणोंमें ईपलस्थत प्रत्येक जनको ऄपन लेनेव ले, ऄनन्त करुण -वरुण लय, जीवम त्रके लनत्यसख । ज्ञ नघन सनक लद जैसे लनत्य वीतर ग ब्रह्मपत्रु एक न्त लनष्ठ से आनके श्रीचरणों कम सेव करते है। आन्हीं क सह र है। दीक्षा ही मेरा जीिन है, नीलाम्बरसे ही आशा है, दीक्षा मंत्र िदला दे कनुं मम लगन लगी है संकषाण से। मन मछली तड़पेगी कब तक? हठी हृदय अब हठ ठाने है, कै से भला अरे! माने है, लो! जीिन अब सह न सकूूँगा और प्रतीक्षा होगी कबतक? बहुत कर चुका हूूँ मैं अब तक ।

ऄरे ! वे करुण मय तो कृप -स ध्य हैं, स धन-स ध्य होते तो कुछ सोचत भी। ऄब ईनकम कृप कम प्रतीि ही कम ज सकती है। 38

ऄपनी धनु के पलके सदु शवनजी चल पड़े पैदल ही श्रीलगररर जकम ओर। पहले तो कुसमु सरोवर के प स कोठी से सटी छोटी-सी कुलटय में ठहर गये। दसू रे ही लदन ईसे भी छोड़ लदय । लनजवल-लनर ह र पररक्रम करने लगे श्रीलगररर ज कम। पररक्रम भी ऄपने ढंग कम-ऄत्यलधक र त होनेपर लकसी लशल -खडडपर सो ज ते और नींद खल ु ते ही पनु ः चलते रहते। मेरे द द ! स्नेहमय सौह दव के मलू तवम न् स्वरूप दय मय द उ द द हैं। ऄवश्य कृप लकये लबन रह नहीं सकते। मझु े लवश्व स है नील वसन स्वणवगौर सव वच यव संकषवणसे पथृ क् तो आनके नवजलधर सन्ु दर वनम ली पीत म्बर-पररध न मयरू -मक ु ु टी मनमोहन ऄनजु रह नहीं सकते। दोनों अयेंगे ऄवश्य, पर कब तक? तीन लदन-र त पररक्रम पथ पर प्रतीि रत अूँखें द उ द द को देखने को तरसती रहतीं तो कभी नेत्रोंसे व रर-ध र बरसती रहती, ह थों में सलु मरनी घमू ती रहती, ऄधर न म-जप करते रहते! लचि-भलू म पर कभी गौरसन्ु दर द उद द और कभी नीलसन्ु दर कन्ह इ, कभी दोनों भ इ क्रमड़ करते दीखने लगते। कभी अश ओ ं क ईज्वल प्रक श, कभी लनर श क घोरतम ऄधं क र; लकन्तु ऄपने द उद द पर ऄटूट लवश्व स लडगनेक न म नहीं लेत । कहने लगते-मैं तो जन्म-जन्मसे आनक ही ह,ूँ ये परमोद र स्वतः स्वीक र कर लेंगे। आनके श्रीचरणों में तो सबको अश्रय प्र प्त हो ज त है। ये तो लकसी शरण गत को ऄस्वीक र करते ही नहीं। ऄस्वीक र करें तो अतरु जीव अश्रय कह ूँ प येग ? मेर वनम ली कन्ह इ ऄग्रजके समीप ही कुछ सरल-सहज रहत है, ईन एक कुडडलधर क ही संकोच म नत है। वे संकषवण सन्तिु हों समीप हों तभी श्रीकृष्णके नटखटपन पर प्रलतबन्ध रहत है। 39

अनन्द लतरे क से अगेकम ब त खो ज ती। पग डगमग ने लगते। सलु मरनी पर घमू नेव ली ऄगं ल ु ी रुक ज ती, अूँखें मदंू ज ती और ईनसे प्रव लहत अनन्द श्रओ ु ं कम ध र वि प्रि ललत करती रहती; कभी द उ द द के ऄदशवन क दःु खद लवयोग रृदयको लवदीणव करने लगत । सहस श्य मसन्ु दर...श्रीकृष्ण...कृष्ण कृष्ण जपनेव ले ऄधर मस्ु कर ईठते, पररक्रम पथ में ऄचल मलू तववत् लठठकके खड़े रह ज ते। पररक्रम करनेव ले लोग देखकर कोइ भ ग्य सर हत , कोइ प्रण म करत , कोइ दरू से चरण-रज लेत । कोइ-कोइ स धु हषव-लवह्ऱल हो 'जय हो' कम ध्वलन करते, कोइ-कोइ 'श्री लगररर जधरन कम जय' बोलत । हररन म क न में पड़ते ही सचेत हो वे पवू ववत् पनु ः चल पड़ते। तीन लदन-तीन र त आसी ऄवस्थ में कब परू े हो गये पत ही नहीं चल । ईन्म द वस्थ में श्रीकृष्ण प्रेम के प्रल प में लकतनी पररक्रम हुइ कौन ज ने? यह मत पलू छये, चलनेव ले को जग क अभ स हो तो लगने। वह लगनने के ललये तो पररक्रम कर नहीं रह । वह तो प्र णों के मोल लबक ज ने को कदम बढ़ रह है । देह कम शलि िण-िण घटती ज रही है और घटती ज रही है नन्हीं अश , लकन्तु लवश्व स और श्रद्ध ही ऄटल थ । ईसी के सह रे पग अगे बढ़ते ही ज रहे थे। चौथे लदन प्र तःक ऄूँधरे , सदु शवनजी जतीपरु से पहले श्रीलगररर ज जी कम पूँछू री कम और धीरे -धीरे बढ़ रहे थे। ब हर लचकनी चट्ट न पर श्रलमत होकर बैठ गये। देखने लगे-एकटक ऄपने अनन्दघन लगररर ज कम ओर। ऄरे ! ये लगररर ज तो श लग्र म स्वरूप हैं.....आनको छोड़कर लकसी और कम शरण लेन ऄच्छ नहीं........यही मेरे अध्य लत्मक जीवन के जन्मद त गरुु -द उ द द से ऄवश्य लमल देंगे।

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सहस देख -च ूँदनी र त में वन में ऄनेक रंगों कम सन्ु दर ग यें चर रही हैं। सब ईछलती, कूदती, हषव से हम्ब रव करती दौड़ती चली अ रही हैं। ईनके गले कम घलं टय ूँ बज रही हैं। आतनी र तमें...... ग यें हैं तो, तो आनमें चरव हे भी होंगे - ईठकर चल लदये ढूूँढ़ने। अूँखों को लवश्व स नहीं हो रह थ । बल त् रुक गये ये मह भ ग; जैसे लकसीने ह थ थ मकर रोक ललय हो। पनु ः चौंककर ऄच्छी तरह अूँखें खोलकर जो देख .......कै से कह ज य लक लय देख ......! वन क तणृ -तणृ झमू ईठ है। लदव्य लगररर ज कम रत्न-लशल एूँ न न वणव क प्रक श फै ल रही हैं। वि ृ और ईन पर ललपटी लत एूँ फूलोंसे लदी हैं। लदव्य सौरभ लेकर मन्द गलतसे पवन प्रव लहत है, च रों ओर दवू व संकुल भलू म, पष्ु प वष व-सी करते प दप, ग यों-बछड़ों क ऄलंकृत ऄप र समहू , ससु लज्जत सख ओ ं के मध्य वि ृ ोंकम एक झरु मटु से लनकल मयरू -मक ु ु टी व्रजर जकुम र । प्रव ल ऄधरोंपर भवु नमोहन लस्मत ललये ऄपने कमलदल यत दीघव कोमल दृगोंसे आनकम ओर देख रह है और आनक ह थ खींचते हुए ले चल ईसी झरु मटु में जह ूँ आसमें नील म्बरध री, स्वणव-गौर, एक कुडडली ऄग्रज ढेर स रे सख ओ ं से लघरे बैठे हैं, स थ ही आनक द लहन ह थ द द के कर-पल्लवमें थम कर कह -द द ! देख, यह तो ऄपन ही सख है न! आसे धनु चढ़ी है तझु से मंत्र-दीि लेने कम........ले पकड़, दे दे आसे मंत्र। अलदगरुु जीव च यव शेष वत र श्रीद उ द द ने ह थ पकड़ , स्नेहसे प स बैठ य और बोले ‘तम्ु हें गरुु ही तो च लहये ऄथ वत् बड़ । मैं तमु से बड़ हूँ और कन्ह इ छोट है। 41

मैं तम्ु हें मंत्र बत देत ह।ूँ ’ लवलधवत् मंत्र-दीि हुइ। मंत्र-श्रवण करते ही सदु शवनजी अनन्द लतरे क में ऄचेत-से हो गये। द उ द द ने स्नेह से दलिण कर लसरपर रख । ऐसी ईत्कडठ आनके रृदयमें ईठ रही थी लक मेरे रृदयधन! द उ द द ! मेरे गरुु देव!! ऐसे ही ऄपनी सधु -स्यलन्दनी व णीमें बोलते ही रहें और मैं ऐसे ही नीरव श न्त लनस्पन्द व त वरण में ऄनन्त क ल तक श्रवण करत रह।ूँ वे अत्मलवस्मतृ -से हो गये, तभी कन्ह इ क मधरु स्वर श्रवणों में गजंू , 'द द ! आसे दधू लपल , नहीं पीवे तो क न पकड़ कर खींच', कहते ही स्वयं आनक ह थ पकड़ कर दौड़ ते हुए क मद ग यके प स ले गये। गोलवन्द के स्पशव करते ही ईसके थनों से दधू कम ईज्ज्वल ध र झरने लगी। एक सख ने पल श के पिे क दोन बन कर ह थ में थम लदय । 'द द ! दधू व्यथव झर रह है- ले, पी ले’ और ये दधू पीते चले ज रहे हैं। पणू वतलृ प्त होनेपर स्वतः दोन ह थसे छूट गय । सदु शवनजी चौंककर ऐसे च रों ओर देखने लगे जैसे तन्द्र से जगे हों। ऄभी भी दोन ईनके ह थमें लग थ और आसपर दधू क झ ग भी लग थ ।.... तीन-च र लदनसे लबन ऄन्न-जल के थे पर ऄब पणू व तलृ प्तक ऄनभु व हो रह है और मख ु से क मद के दधू क स्व द अ रह है। और .....ह .ूँ ....द उ द द क मेघ गम्भीर स्वर ऄभी भी क नों में गंजू रह है; ईनक लदव्य संस्पशव, ईनकम ऄगं -गंधकम सवु लसत ऄनभु लू त। मन तो ईसी िणसे लदव्य-मंत्रकम अवलृ ि भी कर रह है। ऄरे .....यह सब न स्वनन है न तन्द्र ! यह सत्य है; वैस ही सत्य जैस यह दृश्यप्रपञ्च। नहीं-यही तो सन तन सत्य है। श्य मसन्ु दर ने द द से सचमचु दीि लदल कर 42

कृत थव कर लदय । रोम ंलचत कंटलकत शरीर ललये सदु शवनजी अनन्द लतरे क से जह ूँ खड़े थे, वहीं खड़े रहने में ऄसमथव से प्रेम कम लहलोर में प दप कम भ ूँलत पथ में ही प्रलणप त करते हुए लगर पड़े। ईनक सव ांग कलम्पत हो रह थ । नेत्रों से ऄश्रओ ु ं कम झड़ी पररक्रम कम प वन भलू मको अद्रव कर रही थी। दोनों करों से ऄपने गरुु देव कम प वन-रज लसरपर ध रण करते हुए सलु ध लबसर ये पड़े रहे। मध्य ह बीतने पर थोड़ प्रेम वेश क भ व शलमत हुअ तो जह ूँ लेटे थे वहीं खड़े होकर ईसी झरु मटु कम झ ूँकम क स्मरण कर लसर झक ु कर गरुु -वन्दन कमनीलाम्बर ििसश्वेतं रक्ताक्षमेक कुण्डलम् । करुणैक ििग्रहं िन्दे संकषाण सनातनम् ।। आसके स थ ही ईनमें लशवस्वरूप कम वन्दन भी कम प्रपञ्च भस्मस कृत्व भस्म भलू षत लवग्रहम् । धजू वलट धन्य धीधेयं ज्ञ नेन्दु कृत शेखरम् ।। स्तवन करते ही शौच ज न पड़ । मल न लनकल कर दधू कम ध र ही लनकली। लत्रलोकम में प्रलसद्ध है, स रे श ह्ल और संत एक स्वरमें कहते हैं- गरुु ही गोलवन्द से लमल ते हैं, लकन्तु यह ूँ तो गोलवन्द ने ही गरुु से लमल लदय । ऄसीम अनन्द में भरे सदु शवनजी बोल पड़े- जब गरुु प्रत्यि लशष्य को स्वीक र करते हैं तभी ऄहक ं र नि हो प त है। तब स धन में ऄवलम्ब एवं संरिण गरुु ऄनक ु म्प से ही लमलत है।

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संत ग्वाररया बाबासे प्रेम-वविोद वन्ृ द वनमें कुलटय से प्र तः तीन बजे ईठकर सदु शवनजी लोट लेकर शौच के ललये ज ते थे। कभी ज ते समय और कभी लौटते समय प्र यः लनत्य ही सन्त ग्व ररय ब ब लमल ज य करते थे। लम्ब गोर शरीर, ईज्ज्वल के श, सव ांग में झरु रव य ूँ, लकन्तु यवु कों को भी ललज्जत होन पड़े ऐसी फुती थी। वे ख दी क सफे द चोग पलहने रहते जो लगभग प ूँच सेर वजनक होत , लजसकम लम्ब इ पैर कम एड़ी तक थी। पत नहीं लक ब ब ऄपनी जेबोंमें लय -लय भरे रहते-चकइ, गेंद, रोटी के टुकड़े अलद। ब ब मौन ही रहते थे सबसे। वे ऄपने य र (श्य मसन्ु दर) से बोलते य र सलबह री ठ कुरजी से। ब्रजव लसयों के घर से के वल अट म ूँग ल ते और एक मोट लटलकर सेंक लेते और ईसे जेब में भर लेते, कहते-यह य र के ललये है। सदु शवनजी म गव में ही शौच-स्न न से लनविृ होकर लौटते तो ऄलसर जेब से रोटी क जर -स चरू दे देते। सदु शवनजी ईसे तरु न्त मख ु में ड ल लेते, प्रण म करते और बढ़ ज ते। एक लदन ब ब ने चरू लदय ख ने को तो सदु शवनजी पछू बैठे-ब ब यह लय है? ब ब बोले- य र क है। 'अप और अप के य र दोनों मतलबी। बलढ़य -बलढ़य म ल स्वयं अरोगें और हमको देते हैं चरू -मरू '। सदु शवनजीने हूँसकर नकली रोषसे कह । ब ब ने सदु शवनजीक स थ पकड़ और खींचकर ले गये वंशीवट पर। संयोग से गोप िमी क लदन थ । वश ं ीवट पर र सलील कम परू ी तैय री थी। वन-भोज कम लील प्र रम्भ होनेव ली थी। ब ब सदु शवनजी के स थ पीछे कम ओर एक लकन रे पर बैठ गये । वन-भोज क प्रसंग अय और र सलबह री ठ कुर ऄपने सख ओ ं के मध्य से पेड़ -लमठ इ से भरे दो सकोर 44

दोनों ह थों में ललये और एक नन्हीं मटकम कमर से सट ये चल लदये भीड़ के बीच में से । भीड़ र स्त देती गयी और र समडडली के स्व मी लनदेशक को बड़ ऄटपट लग , पर मंच पर से बोलने य लनदेश देने क स हस नहीं कर सके । आधर ठ कुरजी (र सलबह री) ने दोनों सकोरे के पेड़े और मटकम सदु शवन जी के स मने रख दी। तीनों गोल क र बैठे थे लक चौथ बीचमें न अ सके । ऄब ठ कुरजी सदु शवन जी के मख ु में पेड़ ऄपने ह थ से लखल ने लगे और सदु शवनजी ठ कुरजी को लखल ने लगे। जब लमठ इ अधी रह गयी तो ग्व ररय ब ब से नहीं रह गय । स्नेह भरे रोषसे बोले ‘द रीके दोउ ख यें, मोकूँू न खब वै?’ ऄब तीनों में कौन लकसके मख ु में दे रह है, कोइ लनणवय नहीं रह । छीन झपटी भी चली, प त्र ख ली हो गये। ठ कुरजी तो मच ं पर लसहं सन पर ज लवर जे । सदु शवनजी को लग जैसे ऄभी-ऄभी लकसी तन्द्र य नींद कम झपकमसे जगे हों और ग्व ररय ब ब ने सदु शवनजी क ह थ पकड़कर खींच - 'य र क कहन है भ ग चलो।' कुछ लोग ब ब क चरण छूने भ गे, परन्तु ब ब को प लेन लय सरल थ ? कभी सम्भव ही नहीं। आसी क्रममें एक ब र जयपरु से र नी ग्व ररय ब ब के दशवनको अयीं, पत लग वे वन्ृ द वन में हैं। लोगों ने बत य -नदं ग ूँव देख है। वह नन्दग ूँव गयीं। वह ूँ पत चल अये तो थे पर बरस न चले गये। बरस न में खोज तो पत चल लक ऄभी तो थे, लगररर जजी कम ओर गये हैं। स त लदन तक भटकती रहीं। सदु शवनजी को लनत्य ही ब ब लमलते। एक लदन ब ब से कह भी- सनु है र नी दशवनको घमू रही है, लयों दशवन नहीं देते? ब ब ने सक ं े त से ही कह लदय -छोड़ो सब मैं, तमु और ऄपन य र खेलेंगे, बस।

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अष्टभुजा िा वात्सल्य श्री लहम्मत लसहं जीको श्रीकृष्ण जन्मभलू म पर श्रीचक्रजी ने ब तचीत के बीच में स्वयं यह सस्ं मरण सनु य थ । ईनके ही शब्दोंमेंनवदगु ुमें ,मेरे लपत नैलष्ठक दगु ोप सक थे। ईनक दगु वप ठ ऄनष्ठु न ,यज्ञ जीवनपयवन्त चलत रह । मझु े भी बचपनमें दगु वकवच रट लदय थ । ऄतः परम्पर से मैं लसहं व लहनी ऄिभजु को ऄम्ब म ूँ कहत ह।ूँ लपत जी को एकलदन दगु विमी पर देवी क अवेश अय । म ूँ ने मझु े चरणों पर ड ल लदय । देवी के अवेश में ही लपत ने कह लकन्तु ;यह मेरी अर धन नहीं करे ग - सद मैं आसके ऄनक ु ू ल रहगूँ ी। जब स्मरण करे ग , मैं रि करूूँगी। देवी के शब्द ज्योंत्यों मेरे म नस-के - पटल पर ऄलं कत हो गये थे। यलद सच्च इ से जगदम्ब से सम्बन्ध सूँभ ल ललय ज य तो श्री लगररर ज नलन्दनी ईसे ऄपन म नने में न संकोच करें गीन कभी लवस्मतृ करें गी। , ऐसे ही ग्रीष्मऊतमु ें कुल्लमन ू ली गय थ । एक न्त- में चलतेचलते पववत- पर एक लशल ऄच्छी लगी तो बैठ गय । लशल बड़ी थी। स मने नीचे नेत्र लकये ज ये तो बड़ मैद न थ लशखर-चीड़के वि ृ पीछे थे। सन्मख ु के पववत | नीचे व ले मैद न के ईस प र दरू थे। मझु े म ूँ क स्मरण हो अय ।

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वहीं पर बैठकर दृलि अक श कम ओर ईठ कर सहज भ वसे पक ु र ईठ - म ूँ! लयों पक ु र ईठ पत नहीं। अिव स्वर ? में पनु ः पक ु र !म -ूँ लनमवल नील गगन स्वच्छ थ । सहस एक ज्योलत प्रकट हो गयी ईसमें। ऄद्भुत ज्योलत थी वह। ईसे न सयू व के सम न प्रखर ज्योलत कह सकते हैंऔर न चन्द्रम के सम न कोमल ज्योलत। ज्योलत में एक अकृलत ईभरी। लवश लक य लसहं थ । आतन बड़ लसहं ससं र में कभी नहीं हुअ होग । बड़ेबड़ ह थी भी ईसके स मने बच्च -से- लगेग । लसंह के पीले के शगदवन , कम के शरसबसे प्रक श झर रह थ । लसंहके नख और द ूँत जैसे चन्द्रम - के टुकड़े करके बन ये गये हों। ईसकम ल ल जीभ लकतनी कोमल थी। मनमें अय लक लसंह समीप होत तो ईसे पचु क रत | थपथप त , ऄच नक पीठ पर एक और मलू तव प्रकट हो गयी। ऄिभजु रि म्बर ,, लदव्य भषू णभलू षत वह लत्रपरु सन्ु दरी मलू तव वणवनसे ब हर है। पलू णवम क चन्द्रम फमक लगेग नख-ईनके पद - कम क लन्तके सम्मख ु । ईनक ऄरुण चरण लकतन मदृ ल ु , लकतन ऄरुण थ हीं है।आसके ललये कोइ ईपम न ; चरणतो वहीं रह गयी। मन्दलस्मत थ ईन -दशवन करके मख ु कम ओर दृलि गयीलनलखलेश्वरीके श्रीमख ु पर और ईनकम दृलि में स्नेह और व त्सल्य क समद्रु लहलोरें ले रह थ । म ूँ लयोंलक यही ,रृदयने पक ु र होग ,मैंने पक ु र नहीं !सचमचु म ूँ हैं। यह रृदय पक ु र ईठ थ । वह मलू तव समीप अने लगी थी। लसहं चल नहीं रह थ । बीच कम दरू ी 47

स्वयं घट रही थी। मलू तव समीप अती गयी और मैं खोत चल गय । मैं कब खड़ हो गय , यह मझु े पत ही नहीं। मलू तव समीप अ गयी। लसंह मेरे बैठनेकम लशल से सटकर खड़ हो गय ।मेरे स मने के वल चरण थ लहनीईस लसंहव - क मलण के अभषू ण से भलू षत मदू ल ु ऄरुण ज्योलतमवय चरण। मैंने वह चरण ऄपने दोनों ह थों में धीरे से ललय और ईनपर मस्तक रख लदय । धीरे से ही मेरे नेत्र बन्द हो गये थे। पत्रु कोइ ऄमतृ हो ...!, तो वह स्वर ईसे भी जीवन देनेव ल थ । कर क अनन्दपणू व स्पशव लसरपर हुअ और मैं खो गय । नहीं रही सधु बधु । सचेत होने... पर ऄधर म ं के स्तवन में मख ु र हो गये खड़ग की चमक और ज्िाला करखप्पर- की, चण्डतम ित्रशूल!शूल ही हरेगा माूँ-त्रय , खेट शर अंकुश रक्ताकत हैं,होने दोनागपाश िशशु का भि पाश ही-हरेगा माूँ। उग्रदष्ं रा ,िज्रनखचण्ड नेत्र के शरी यह रोककर दहाड़ चाट मल ही रहेगा माूँ होगी प्रलयंकरी भयंकरी तू और कहीं पूतको देख तो पयोधर ,ही झरेगो माूँ! ॎॎॎ

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हिम ु त ् दादा िा अिग्र ु ह च कुललय बंग ल और लबह र कम सीम पर एक छोट स स्थ न है। यह ं के श्री प्रभदु य ल जी झनु झनु व ल कम चक्रजी में ऄग ध श्रद्ध थी। जनवरी 6791ईन्होंने च कुललय में लवश ल स्तर पर म नस चतश्ु शती क ईत्सव मन ने क लनश्चय लकय । आसके ललए ईन्होंने चक्र जी को पत्र ललख । स र अयोजन ईनके ही लनदेश में होन थ और हनमु न्त ल ल जी कम ओर से होन थ । चक्र जी ने ईिर लदय महोत्सव-चतश्ु शती-म नस तम्ु ह री - कम योजन बहुत ईिम है। ईत्सव ऄवश्य होन च लहये। ईत्सवमें पज्ू य अनन्दमयी म ूँ के च कुललय पध रने कम ब त पलकम कर लो। मैंने ‘अंजनेय कम अत्मकथ ’ ललखी है तो ईनकम ओर से म नसस्म ररक ललख तो स-चतश्ु शती-कत हलकन्त ूँ ु थोड़ी देर लगेगी वैसी , नःलस्थलत बननेमें। स्म ररक म में तमु ने दो पत्रों क द लयत्व सौंप है श्रीहनमु नजी )6)कम ओर से श्रीतल ु सीद स )2) जी कम ओर से। वह भेज रह ह।ूँ ऄलटूबर 22 से 21 नवम्बर तक के ललये ईत्सव में डॉलटर स्व मी के स थ मैं पहुचूँ रह ह।ूँ जनवरी के प्र रम्भ 6791 में ही जब कोयम्बतरू में स्व मी ऄखडड नन्द जी सरस्वती द्व र व ल्मीलक र म यण क प्रवचन हो रह थ तब श्रीचक्रजी , ने ऄनन्तश्री मह र ज जी को च कुललय के ईत्सव के ललये अमलन्त्रत लकय । च कुललय एक छोटीसी जगह होन-ीे से स्व मीजी को आसकम ज नक री नहीं थी। ईन्होंने चक्रजी से पछू ऄपने लशलथल स्व स्थ्यके क रण लहचलकच हट प्रकट कम। ?च कुललय है कह ूँ -

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ईनकम लहचलकच हट और ऄसमन्जसत देख कर चक्रजी अवेश के स्वर में बोले- भ रत में हैजमीन , के नीचे गड़ढे में है य जगं ल में है पर ,अपको ईसमें चलन ऄवश्य है। ईत्सव मेरे हनमु न द द कर रहे हैं। श्रीचक्रजी के स्वरकम दृढ़त एवं अत्मीयत देखकर मस्ु कर कर बोले ...ठीक हैचल चलूँगू । ब त लनलश्चत हो गयी। ,मैं ऄवश्य चलूँगू । जह ूँ कहोगे ...ठीक है ईत्सव प्र रम्भ होनेसे पवू व ही चक्रजी च कुललय डॉ० स्व मी के स थ ऄपने लनलश्चत क यवक्रम के ऄनसु र पहुचूँ गये | ईत्सव को प्र तः 6791 नवम्बर 1 से प्र रम्भ होनेव ल थ । एक लदन पवू व ही परू े च कुललय में अनन्दकम लहर छ गयी। ईत्सव को भव्य बन ने को सबक ईत्स ह ईमड़ पड़ थ । वन्दनव रतोरण ,पत क , से परू नगर सज लदय गय थ । पडड ल क प्रवेशऄल्पन ओ ं द्व र मंगल कलश एव-ं से ससु लज्जत लकय गय थ । कथ मंच एवं मडडप तक-पजू क पथ पष्ु पों से अच्छ लदत थ और सगु लन्ध से लसलं चत थ । ईत्सवमंच को के ले के खम्भों एवं पष्ु पम ल ओ-ं से सलज्जत लकय गय । आधर परू ी र लत्र पयवन्त पष्ु पसज्ज - से मंच सलज्जत हो रह थ , ईधर श्रीचक्र जी प्र तः पौने तीन बजे लनत्य लनयम कम भ ूँलत लनद्र त्य ग कर प लथी म रकर स्तवन कर रहे थे। द्व र बन्द थ लजनपर ;लकन्तु गव ि खल ु े थे , ज ली लगी थी। लकसी के ऄन्दर अनेक प्रश्न ही नहीं। मच्छरद नी के ऄन्दर ही तख्त पर बैठे थे। स्तवन के बीच ही स्वणवरोम ब ल- कलप ईनकम गोद में सहस प्रकट हो गय । ईसने ऄपने अगमन क अभ स कर ने के ललये चक्रजी क ह थ पकड़ कर मख ु से मदं स्वरमें ओकं रकम ध्वलन कम। ललखने में समय लगत हैलकन्तु सख ु द संस्पशव प ते ही चक्रजी , के नेत्र खल ु े और 50

ऄपने द द क ब लस्वरूप लनह रकर हष वलतरे क से रोम ंलचत हो ईठे । िण भर में ऄपने को सूँभ लकर वे ऄपन द लहन कर कपीश्वर के श्रीचरणों पर रख धीरे से बोले !द द | अदेश प्रद न कमलजये ,अप अ गये मन्दलस्मत पवू वक श्री अंजनेय ने कह मैंने ऄपन ईत्स -व संभ ल ललय है। प्रभु से कह दो लनलश्चन्त रहे, कहकर वहीं ईन्हें स्नेहदृलि- से देखते हुए ऄदृश्य हो गये। स्न न लद से लनविृ होकर पजू प ठ कर- के जैसे ही चक्रजी ईठे तब , ईन्हीं के समीपस्थ तख्त पर सोनेव ले डॉलटर स्व मी ने पछू अप प्र तः तीन बजे लकससे ब तें ?कर रहे थे हूँस कर चक्रजी ने ईनसे आस चच व को ट ल लदय जब बजे 1 लकन्तु , प्रभदु य ल जी चरण वन्दन करने पहुचं े तो हषव भरे स्वर में कहने लगे- ईत्स ह पवू वक ईत्सव अरंभ करो। मेरे ऄपने द द ने स र भ र संभ ल ललय है ,कहकर प्र तःक ल कम घटन सनु दी।

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बऱरामजी िा ममत्व श्रीकृष्ण करते-करते पयवन्त पयवटन-जन्मस्थ नपर रह रहे थे। जीवन-शरीरमें शैलथल्य अ गय थ । रोग शनेः िीण-ऄवरोधक शलि भी शनैः-होती ज रही थी। आधर चक्रजी क ईत्स ह कुछ ललखने क नहीं रह टूट -शरीर टूट ,रहत थ । तलनक देर में थक न बढ़ ज ती थी। श्रीचक्रजी होलीपर श्रीकृष्ण स्थ न-जन्म-से वन्ृ द वन अ गये थे। अनन्दवन्ृ द वन में लनव स करते समय ऄच नक ऄवरोध-को मत्रू 799 ऄप्रैल 22कम पीड़ हुइ। पेटमें भयक ं र ददव ईठ । 21 ऄप्रैलको प्र तः ही र मकृष्णलमशन हॉलस्पटल में प्र आवेट रूममें रहे। वह ूँ भी लचलकत्स से कुछ ल भ नहोनेपर ऄप्रैल 22को श्रीजयदय लजी ड ललमय अग्रह करके लदल्ली ले गये। ईसी लदन सीधे में ”सर गंग र म ऄस्पत ल' ऄप्रैल 22 भती कर य ।1बजे बड़ ऑपरे शन लकय गय । वररष्ठ 9 को प्र तः799 मेहर ०सजवन डॉने अपरे शन लकय । श्रीचक्रजी को बेहोश करनेके प्रय स लकये पर वे सफल नहीं हुए अप बेहोशी -मेहर ने कह ०तब डॉ ,कम दव स्वीक र नहीं कर रहे हैं तो मैं ऑपरे शन कै से करूूँग ? प ूँच लमनट ब द ऄपन क म प्र रम्भ कर ,अप परे श न मत होआये“दीलजये। चक्रजी ने डॉ० मेहर से आतन कह और ऄपने कन्ह इ के स्मरण में ऄन्तमवख ु हो गये। शरीर क भ न छूट गय । ऑपरे शन में डेढ़ घंट लग । डॉलटरने जैसे ही टॉके लग कर ईपकरण हट ये लक चक्रजी हल्के स्वर॒ से बोले – गोलवन्द ०डॉ ?क यव हो गय लय ... चलकत होकर ...मेहर स्तब्धबोल पड़े लय लबल ?अप होशमें हैं ...अप --कुल बेहोश नहीं हुए? 52

ईिरमें चक्रजी के वल मस्ु कर लदये। चक्रजी कम आस ऄन्तमवख ु त , धैयव, भगवद-् भलि और देह ध्य स से परे कम लस्थलत देख डॉ० मेहर बड़े प्रभ लवत हुए और ‚भ गवत भवन‛ कम प्रलतष्ठ के समय चक्रजी के अमंत्रण पर सपत्नीक अये और पछू - परम थव-पथ प ने के ललये मझु े लय करन च लहये? चक्रजीने ईिर लदय - कतवव्य करते रहो, एक कि परम त्म के लनलमि कर दो। जो भी ऄसह य, धनहीन अ ज य, ईसको इश्वर कम सेव म नकर ऑपरे शन, औषलध, भोजन सब लनःशल्ु क ईपलब्ध कर य ज ए, डॉ० मेहर ने तरु न्त ईनके अदेशको स्वीक र लकय । लजस लदन श्रीचक्रजी सर गगं र म ऄस्पत ल, नयी लदल्ली में भती हुए थे, ईस लदन कम ऄसहनीय पीड़ से ईन्हें नींद तो लय झपकम भी नहीं अ रही थी। ऄपनी वेदन और लवकलत क वे लकसीको अभ स तक नहीं होने देते। श्रीकृष्ण कम स्मलृ त ही ईनक सम्बल थी। किकम ऄलधकत से मख ु पर वैवडयव छ य थ । प्र तः पीने तीन बजे होंगे, नेत्र खोले घड़ी कम ओर देख रहे थे। एक भीनी तेजोमय अभ में लदव्य सगु लन्धत सवु स और अनन्द कम ऄनभु लू त होने लगी। तलनक लसरह ने के द लहनी ओर लनह र तो लनह रते ही रह गये- अह! यह लय ? नील म्बरध री, एक कुडडल गौरवणव ऄपने गरुु देव द द श्रीबलर मजी को खल ु ी अूँखोंसे लनरख कर लवस्मय-लवमग्ु ध बोल पड़े-‘द द ! “. द द ! “..मेरे प्र णों के भी प्र ण““ मेरे गरुु देव! अप यह ूँ! आस ऄपलवत्र स्थ न पर!' 'तझु े देखने अय ह।ूँ ऄपनों के बीच पलवत्र-ऄपलवत्र लय होत है? मन्द लस्मतपवू वक श्रीहलधर ने कह । 53

ईनकम करुण पणू व प्रेमपररनल लवत ऄसीम व त्सल्यमयी दृलि पड़ते ही पीड़ कब , ईन्हें ज्ञ त भी न हो सक । वे तो ऄपने ,लतरोलहत हो गयी कह दूँ द कम रूपम धरु ी और ऄहैतक ु म नय रपगी दृलिपर बललह र हो रहे थे और देखतेदेखते द उ द द ऄदृश्य हो तब ,गये पत लग लक वे पीड़ से मि ु हो गये हैं। मन मन ऄपने मणृ लगौर द द -हीके चरणोंमें प्रणलत कमजय जयािदमनन्तमतन्तक, िदग िदगन्तमनन्त गत श्रुतुः। सरु मुनीन्द्र बहीन्द्र नुताय ते, मुसिलने बिलने नमुः।। 24 ऄप्रैलको ही ऑपरे शनके पश्च त् प्रभदु य लजी झनु झनु व ल के बड़े भ इ परुु षोिम झनु झनु व ल चक्रजी को देखने ऄस्पत ल अये। 25 ऄप्रैल को स्व मी ऄखडड नन्दजी सरस्वती आन्हें देखने पध रे । 26 ऄप्रैलको जज स्व मी लवलपन चन्द्र नन्दजी तथ बलहन लमलथलेश श ह ऄस्पत ल में चक्रजी को देखने अये और ईस लदन सत्सगं क ऐस रंग जम लक जज स्व मी कम लकसी ब त क ईिर देते हुए घटं े भर बोलते रहे। जज स्व मीजी ने पछ ू -कै से हैं? श्रीचक्रजी ने सहजत से ईिर दे लदय - मैं तो ठीक ह।ूँ यह शरीर शर रती है। आसे कुछ-न-कुछ होत ही रहत है। कन्ह इकम स्मलृ त बनी रहे और च लहये ही लय ? 'ईसे लयों नहीं ल य?' जज स्व मीजीने पछू ही ललय । 'यह ऄस्पत लक व त वरण ईसके ऄनरू ु प नहीं लग मझु े। वह जह ूँ भी है, अनन्दसे है। 54

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बेर िा रससि िन्हाई सप्रु लसद्ध म नसक र श्रीम नसश ह्लीजी श्रीमद्भ गवत एवं श्रीर मचररतम नस दोनों कथ ओ ं के रस-ममवज्ञ पलडडत वि थे। वे श्रीलगररर जजी के सचल लवग्रह पं० गय प्रस द मह र ज के अत्मज थे। आनपर भगवदीय भ व-लसन्धु में सततलनमग्न पज्ू य पलडडतजी के परम भ गवती जीवन क प्रभ व थ । पज्ू य पलडडतजी क श्रीगोवधवन ध म में लनत्य लनव स थ । श्रद्ध , लनरलभम नत , ईद रत , िम , लतलति , सरलत एवं भजनपर यणत अलद ऄनेक सन्तोलचत सद्गणु ों क मलू तवम न् स्वरूप थ ईनक सयं मलनष्ठ जीवन। श्रीचक्रजी प्र यः ऄके ले ऄथव श्रीजयदय लजी ड ललमय के स थ लगररर जजी के पलडडतजी के समीप प्र यः अते ज ते रहते और वह ूँ सत्संग-में आनकम पस्ु तकें भी र म)श्य म कम झ ूँकम अलद पढ़ी ज ती थीं। )आन्हीं कम प्रेरण से श्रीम नस श ह्लीजी कम श्रीर मचररतम नसकम नव ह्न क्रमसे कथ श्रीकृष्णजह ूँ आस समय ,स्थ नपर हुइ-जन्मलबजलीसे चलनेव ली झ ूँलकय ूँ बनी हुइ हैं। ईस समय भ गवत भवन-क लनम वणक यव प्रलतष्ठ ,चल रह थ नहीं हुइ ंथी। यह कथ चैत्र कृष्ण ततृ ीय , शक्र ु व र तदनसु र 6 म चव 1979 से चैत्र कृष्ण एक दशी, शलनव र 24 म चव 1979 तक हुइ। आस कथ के मख्ु य श्रोत श्रीजयदय लजी के अत्मज श्रीयदहु ररजी एवं ईनकम पत्नी श्रीमती बेल ड ललमय थे। कथ प्र तः अठ बजे से ग्य रह बजे तक तथ स यं तीन बजे से छः बजे तक होती थी।

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कथ में लनत्य नतू नत एवं ऄद्भुत रस ईमड़त । कथ प्र रम्भ हुइ, यह तो ज्ञ त रहत , लफर तो ऐस रस-अनन्द बहत लक समयक भ न ही नहीं रहत । सम पन के दोहे पर चौंकते लक लय समय परू हो गय । कथ -प्रसंग के ऄनरू ु प ही प्रलतलदन नेवेद्य ऄलपवत होत । छठे लदवस पर शबरी-प्रसगं कम चच वकम ज रही थी, प्रेम लवभोर शबरी कम लवलचत्र ऄस्त-व्यस्तत , भ वोलमवल लवकलत , ईन्मित एवं प्रेमवैलचत्र्य-लस्थलत क ऐस वणवन लकय लक वि -श्रोत सब ऄपनी सधु -बधु लबसर ये भ व लवभोर हो रहे थे और ईस प्रसगं के ऄनरू ु प ईस लदन झरबेरी के बेर, लजतने भी ईपलब्ध हो सके , मूँग ललये गये। कथ श्रवण करते समय श्रीचक्रजी सबसे पथृ क ही बैठते। ऄपने द लहने ब यें थोड़ -स ख ली स्थ न ऄवश्य छोड़ लदय करते। ईनक कहन थ -पत नहीं लक कब मेर भोल कन्ह इ लकधर से अ ज य और मेरे समीप बैठन च हे। आस लदन कथ में मध्य न्तर होनेपर वे लनत्य कम भ ूँलत बैठे नहीं और न आधर-ईधर टहले ही, ऄलपतु प्रस द के बेरों कम दो मट्ठु ी भरी और भ गवत-भवन कम सीलढ़यों से ईतर कर सीधे ऄपने कि में गये और प ूँच लमनट पश्च त् ही कथ स्थल पर ऄपने स्थ न पर बैठ गये। आस कथ में श्रोत कै ल श भैय , ईनकम म ूँ एवं मन्ु नी जीजी भी थीं। ये ध्य नपवू वक देखते रहे लक कमरे में ज नेक लय प्रयोजन थ । कथ -लवश्र म के पश्च त् चक्रजी जब कुसी पर लवर जे, तब ऄवसर प कर ईनसे किमें गमन क क रण पछू । कहते ही श्रीचक्रजी सजल-नेत्र हो गये, बोले- कहन तो नहीं च हत , चलो, बत ही देत ह-ूँ कथ -श्रवण के मध्य मेर लचर चपल कन्ह इ मेरी द लहनी ओर बैठ गय और मेर घटु न लहल कर बेरों कम टोकरी कम ओर नन्हीं तजवनी लदख कर बोल रह थ - द द ! मैं बेर ख उूँग । 57

मैंने कह - चपु च प मेरे से सट बैठ रह। कथ के बीच में नहीं बोलते। वह चपु हो ज त , दो लमनट ब द लफर वही ब त। ब र-ब र कहने पर मैंने कह लदय - ऄच्छ चल, कि में बेर लेकर अ रह हूँ और लफर मैं करत ही लय ? बेर ले ज कर ईसके स मने रख लदये। यह ूँ बैठकर ख ले, ऄब मैं कथ श्रवण करने ज रह ह।ूँ ईनके जीवन में ऐसी झ ूँलकय ूँ, ऄनभु लू तय ूँ होती ही रहती थीं। आतने में पज्ू य श्रीम नस श ह्लीजी भी कि में श्रीचक्रजी से लमलने अ गये। प्रसगं बदल गय , लकन्तु जब ईनसे शबरी-प्रसगं कम ऄलौलककत एवं ऄद्भुतरसमयत कम चच व कम लक सभी श्रोत मंत्र-मग्ु ध से झमू रहे थे तब स्वयं श्रीम नस श ह्लीजी चलकत होकर बोले- भैय मोकूँू पतो न य, कह भइ, कै से भइ, को कथ कलह गयो! कथ के ब द मोंकूँू लगी लक मैंने कथ न कही, जैसे वे स्वयं अआके मोते करव य गये। भल ! मोते ऐसी कथ कै से बलन अयेगी?

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िििववहारीिी वत्सऱता परम श्रद्धेय श्रीर मकुम रद सजी मह र ज र म यणीजीसे श्रीचक्रजीकम ऄटूट लमत्रत थी। ऄयोध्य वषवमें एक ब र ज ते रहते और र म यणीजीके प्रेमपरवश ईन्हींके यह ूँ रुक करते थे। मलणपववतके लनकट ही ईनक अश्रम लजस लदन -थ । सद के लनयमके ऄनसु र लजस ऄयोध्य पहुचूँ ते, ईसी लदन श्रीकनकलवह री सरक रके श्रीचरणोंमें प्रणलत सलहत चरणअपक ब लक अ गय !लपत जी-वन्दन करने ऄवश्य पहुचूँ ते, प्रणलत स्वीक र करें । ज ते समय भी ज नेव ले लदन अज्ञ लेकर ऄवधध म छोड़ते लक 'अपक ऄल्पज्ञ ऄबोध ब लक क शी य वन्ृ द वन ज रह है, ऄनमु लत प्रद न करनेकम ऄनक ु म्प प्रद न कमलजयेग ।' आस ब र श्रीऄवधध म पहुचूँ े ही थे, स म न रखकर कनकभवन ज नेको तैय र लक श्रीर मकुम रद सजी मह र जने कह ऄभी रुक ज आये कृपय -, हम भी चल रहे हैं। आस प्रक र स थ चलनेकम प्रतीि में र लत्र हो गयी और ऐसी घनघोर मसू ल ध र वष व प्र रम्भ हो गयी, जो र त दस बजे तक रुकम ही नहीं। यह श्रीचक्रजीके जीवनमें पहली ब र ऐस हुअ लक वे ईसी लदन ऄपने लपत श्रीके दशवन एवं चरण वन्दन करने नहींपहुचूँ सके थे। ईन्हें खेद, व्य कुलत , ऄकुल हट, ऄसीम छटपट हट हुइ और मन-हीअपक लशशु अज दशव !लपत जी -मन मक ू रूपसे ऄपनी व्यथ लनवेलदत करते रहेनको नहीं अ सक मैं लकतन लनष्ठु र-, ऄल्पज्ञ, ऄकृतज्ञ लनकल , ऄवधमें प्रवेश करते ही सववप्रथम महलमें ईपलस्थत होन च लहये। लयों लकसीकम ब तोंमें अय ? अप ऄपने ब लकक ऄपर ध िम करें गे नआस प्रम दसे मेर रृदय फट लयों नहीं गय !? आसी बैचेनीमें लचन्तन करतेकरते सो- गये। लनत्यलनयमके ऄनसु र पौने तीन बजे ज ग गये। लढ़योंसे ईसी किमें सोये श्रीर मकुम रद सजी र म यणी भी शय्य पररत्य ग कर सी 59

-ही-लनत्य कमवको ईतर रहे थे। ईनके ईतरनेकम पदच प चक्रजी स्पि सनु रहे थे और मन मन भगवन्न म लेते हुए प्र तः स्तवनके ललये बैठनेक ईपक्रम कर ही रहे थे, तभी लय देख , ईन्हींके शब्दोंमें तेजोमय लदव्य अभ के मडडलमें ऄनन्त करुण वरुण लय सन्मख ु प्रकट हो गये हैं। नवीन नीरदश्य म लवद्यतु ् वसन, लद्वभजु , प्रश न्त पद्यलोचन प्रसन्न वदन, पर त्पर परुु ष रघवु श ं भषू ण श्रीरघनु थजी मेरे लपत श्री सलस्मत करुण व ररसे लसलञ्चत करते हुए कृप पणू व नेत्रों से ऄपने आस ऄबोध ब लककम ओर लनह र रहे हैं। ईनके कुलटल घनकृष्ण के श, बंकभक ृ ु लट, मनोहर कणव, ईन्नत न लसक , लनमवल कपोल, छोटेऄधर-से ऄरुण-छोटे लस्मत रे ख से लखच ं -े , लवश ल प्रशस्त भजु एूँ वत्स लं कत विःस्थल कौस्तभु भषू -लीत, कम्बु कडठ, गम्भीर न लभ, ऄश्वत्थपत्रक अक र ललये ईदर, िीणकलट, मनोहर लपडडललय ूँ, नवीन लकसलय सम न प द ंगलु लय ूँ और ईनके ऄरुण ज्योलतमवय नखएक दृलिमें यह सब जो देख सक सो देख ललय !, लफर तो व त्सल्यलवस्मतृ होकर-रसघन ईन नयनोंपर मेरी दृलि ऄटक गयी। अत्म- मैं ईन कृप णवव नयनोंको देखत ही रह गय । वे हैं ही ऐसेलजस श्रीऄगं पर दृलि ज ती है -, वहीं ऄटक ज ती है, लफर जैसेस्तवनको तत्पर हुअ तो वह मनोहर छलव ऄन्तलहवत हो तैस-े गयी। स वध न होकर प्रकृलत धर तलपर अनेमें कुछ समय लग । ईठते ही लनत्य कमव, सध्ं य वन्दन और प-ीूज सम्पन्न होते ही लबन लकसीको बत ये चरणवन्दन करने पहुचं कनकलवह रीजीके मंलदरमें । रृदयमें ऄकुल हट, पीड़ से मेर व्यलथत मन संकोचसे लवदीणव हो रह थ । क तर स्वरमें बोलत रह -ऄवधमें प्रवेश करते ही म त लपत के श्रीचरणोंमें प्रणलतके ललये प्रम द लयों हो गय ? आधर मेरी ऄज्ञत , ईधर ईनकम ऄनक ु म्प लक मैं मन्दमलत ब लक नहीं पहुचूँ तो करुण स गर व त्सल्यलनलध स्वयं दशवन देने पध रे । ईन्होंने ऄपन ललय , यह मेर ऄहोभ ग्यईस ! ऄप रूपक वणवन मैं कै से करूूँ नि दूिाादल श्याम मंजु, नि िाररज लोचन। स्िणा पीत पररधान छटा, मन्मथ मनोहर।। मिण भूषण श्रीअंग स्मरण िनबााध अभयप्रद। 60

भिजय राम छििधाम जानकीकर चिचात पद।।श्रीर मनवमीके ऄवसरपर लदल्लीसे श्रीजयदय लजी ड ललमय सपत्नीक ऄयोध्य अये और ज नकम महलमें ठहरे । ईस समय ज नकम महलमें वतवम नके सम न ऄलधक कि नहीं थे। उपरकम मंलजलके च रों कि ईन्होंने ले ललये। प्रथम किमें सेवक के शव एवं रसोआय , लद्वतीय कि ख ली रख , ततृ ीयमें सपत्नीक ड ललमय जी तथ चौथे किमें ईनके पत्रु श्रीजयहरर ड ललमय एवं पत्रु वधू कलवत जी रुके । जब आन्हें ज्ञ त हुअ लक श्रीचक्रजी भी मलणपववतके समीप रुके हैं, तो वे वह ूँ ज कर अग्रहपवू वक ईन्हें ज नकम महलमें ले अये और कमर न०ं 2 में ही ऄपने समीपस्थ ठहर ललय । श्रीचक्रजीके स थ श्रीजयदय लजीने सपररव र श्रीऄवध ध मकम पररक्रम कम और वे ऄयोध्य के ऄच्छे -ऄच्छे संतोंके दशवन कर ने आन्हें ले ज ते। कभी संतोंके यह ूँमह परुु षोंके यह ीूँ ज ते; सत्सगं करते, दशवन करके कभीकभी वह ूँ प्रस द भी प ते। प्रस द प ने बैठ गये। प्रस दमें एक लदन पज्ू य श्रीनत्ृ यगोप ल द सजी मह र जके यह ूँ लौकमकम सब्जी बनी थी। सयं ोगसे कोइ लौकम कड़वी होगी, ऄतः परू ीसब्जी कड़वी हो गयी। भोग लग चक ु थ , ऄतः प्रस द होनेसे लबन कुछ बaत ये ये सभी लोग कड़वी लौकम प गये। ब दमें जब स्वयं श्रीनत्ृ यगोप ल मह र जने प्रस द प य , तब ईन्हें ज्ञ त हुअ। ब दमें बड़े स्नेहसे प्रसन्न होकर मह र जजी आसकम चच व करते। संयोगसे स्व मी ऄखडड नन्दजी सरस्वती भी व र णसी अये थे। ईनके स थ ईनके लशष्य ऄजवनु लसंह भी थे। आनकम श्रीचक्रजीसे अत्मीयत भी थी। ईन लदनों एट से म ूँ ऄपनी पत्रु ी मन्ु नी जीजीके स थ अनन्दव र णसीमें पन्द्रह लदनके ललये क ननअयी थी। वहीं ऄजवनु लसंहसे ज्ञ त हुअ लक श्रीचक्रजी ऄयोध्य में मलण पववतपर हैं, ऄतः म ूँ और मन्ु नी जीजी भी ऄयोध्य अ गयीं, मलणपववतपर पत लग कर ज नकम महलमें पहुचूँ गयीं। श्रीचक्रजी श मके च र बजेसे कुछ पवू व ही श्रीकनकलवह रीजीके दशवन करने गये। मन्ु नी जीजी स थमें श्रीरघनु थजीको नैवेद्य ऄलपवत करनेके ललये बड़े च वसे रसगल्ु ले ल यी थी, लजन्हें चक्रजीको सौंप लदय । 61

मंलदरमें सभी पट खल ु नेकम प्रतीि कर रहे थे। च र बजकर बीस लमनटपर भी जब पट नहीं खल ु , तब चक्रजीने पछ ू दशवन होनेमें लवलम्ब - लयों हो रह है? पजु रीजीने बत य ईत्थ पनके पश्च त् लगनेव ल भोग ऄभी लसद्ध होकर अ नहीं सक है। चक्रजीके मख ु से तरु न्त लनकल लक भोगके ललये नैवेदी्य तो हम लोग लेकर अये हैं और रसगल्ु लेसे भर प त्र ईन्होंने दे लदय । ईस लदन वही नैवेद्य ऄलपवत हुअ और भोग लग कर प्रस द लमल सभीको। यह तो सम्भवतः श्रीचक्रजीक ही संकल्प थ , लजसे प्रभनु े स्वीक र कर ललय । वैसे ईस समय लनयम थ लक ईत्थ पनके ब द पहल भोग मलं दरके भडं रगहृ से ही अत थ । मलं दर खल ु नेके प ूँच लमनट ब द ही ब दमें लग । सचमें ईत्थ पनक नैवेद्य लसरसे ललये भंड रीजी अ गये। ईसक भोग भी 'उर प्रेरक रघुबंस िबभूषन' ही थे। दसू रे लदन श्रीचक्रजीने लनत्यकम पजू बड़ी रुकस -रुक करके कम। जलप न जर करके छोड़ लदय । ईनके मख ु पर अनन्दकम लवलचत्र भलं गम थी। वे खोयेसे लकसी -खोयेदेखकर म ूँ और मन्ु नी जीजी बैठ स्मलृ तमें डूबे ज रहे थे। एक लदव्य भ वध र में लनमग्न गये। भ व प्रशलमत होनेपर ज नेक संकेत लकय , तब तो मन्ु नी जीजीक ऄन्तमवन ईनकम लदव्य नभु लू तयोंको ज ननेको ऄकुल ईठ । स्पि लग रह थ लक यह ईनकम सहज लस्थलत नहीं है। ऄवश्य ही श्रीरघनु थजीने अज कोइ ऄलौलकक कृप कम है। ऄब व स्तलवकत कै से ज्ञ त हो? आस ल लस को मनमें सूँजोये दोनों बैठे ही रहे। मनक दैन्यभ व और रृदयकम तीव्र ऄलभल ष देखकर बैठे रहनेकम ऄनमु लतसे कृत थव करते हुए ईनकम मधरु , लस्नग्ध, लकन्तु स्वरदेख-भगं व णी फूट पड़ी-, रघवु श ं में ईत्पन्न होनेके क रण मैं र घवेन्द्रक लशशु ह।ूँ हम ऄपने सम्बन्धको लजतनी दृढ़त से म नेंगे, दसू री ओरसे ईतनी दृढ़त प ज येंगे। यह सत्य है और लवश्व स भी है। लकन्तु मनमें ललक थी मैं ...परू ी कर दी। ...मेरे लपत जीने मेरी स ध ...अज ...ईनकम ओरसे स्वीकृलत कम बस तभी ऄन य स -किमें प्र तः पौने तीन बजे शय्य पर बैठ स्तवन कर रह थ लदव्य प्रक शसे कि अलोलकत हो ईठ और एक ऄलौलकक सगु लन्धसे स र व त वरण महकने लग स्वयं सवेश्वर स के त धीश मेरे सम्मख ु प्रकट हो गये। 62

ईन्हीोींने ऄपनी ऄमतृ वलषवणी व णीमें स्पि कह तम्ु ह री ऄम्ब तमु से यह ऄपेि ईन सक ं ोचीन थसे आससे ऄलधक ...के तमें बने रहोकरती हैं लक तमु एक रूपसे सद स स्पि अदेशकम अश कम नहीं ज सकती। पर म्ब कम ऄनक ु म्प से मैं स के त धीशक मैंने मस्तक झक ु क ...र जकुम र बन गय र श्रीचरणोंपर धर लदय । ईनके वरदहस्त रखते ही मैं तो परम नन्द स गरमें लनमग्न हो गय । कहते रहेहै यह ऄद्भुत ब त -, लकन्तु जब सोचत ह,ूँ तब ईनकम ऄसीम ईद रत से रृदय भर अत है। ईनके श्रीमख ु से लनःसतृ वचन 'तम्ु ह री ऄम्ब तमु से यह ऄपेि करती हैं ...' शब्द कणवईनके करुण भरे ...गजंू ते रहे ...कुहरोंमें गंजू ते रहेक जप परू हुअ है।बड़ी कलठन इसे लनत्य ...बधु ज ती रही।-औद यवसे देहकम सधु ईस लदन कहीं ज नहीं सके । सववथ ऄपनेअपमें खोये रहे। न ठीकसे भोजन लकय , न स यक ं ो सरयू लकन रे गये एक न्तमें। अनन्द कंदकम-मधरु तग व णी ही गंजू ती रही। ठीक दसू रे लदन भी सववथ लवलिण सौन्दयव सधु ईतर ते रहे-स गरमें डूबते-, लजसक पणू व वणवन सम्भव नहीं है। कलकम भ ूँलत अज भी टकटकम लग ये सनु नेकम तत्परत देखकर बोल पड़े मेरी ममत मयी ऄम्ब क व त्सल्य तो देख। अज म नो रघनु थजीक 'तम्ु ह री ऄम्ब ...'क स्पि स्वर भी ईन्हें सहन नहीं हुअ और ऄपनी ब त स्पि करने और ऄपने आस लशशक ु ो देखने चली अयीं वेजैसे ऄपने शयनकिसे ईठकर सीधे अयी हों, ऐस लगत थ । ऄक ं से लग कर लसर संघू कर स्नेहतमु -लशलथल स्वरमें बोलींप्रसन्न रहो, ठीक? ऄब मझु े तम्ु ह रे लपत जीकम सेव में ईपलस्थत होन च लहये। वे जैसे जल्दीमें थीं। म ूँकम मन्दलस्मत छलव देखकर दो िणको लठठक कर रह गय । प्र ण भी ईनके सक ु ु म र श्रीऄगं को छूनेमें लसहरें गे। कर तो ऄत्यन्त कठोर हैं। ऄनन्त -)श्रीचरण) छ य होग-नखकम क लन्त-ज्योत्स्न भी ईनके ऄरुण चरण-चन्द्रीी । वे शद्ध ु स लत्त्वक प्रेमपतू प्रलतम म नो घनीभतू होकर स क र बन गयी हैं। प्रेम लतरे कसे मैं ऄपनी पर म्ब को ज ते हुए लदव्य वह्ल भषू णों कम ऄस्तव्यस्तत और पष्ठृ भ गपर लबखरी खल ु ी, लदव्य, सघन, सगु लन्धत के शर लश लनह रत रह , न ज ने 63

लकतने िण तक। वे कब ऄन्तध वन हो गयीं, मझु े ज्ञ त ही न हो सक । मझु े तो ऄब भी ईनक स्नेहस्पशव-, वह लदव्य सगु न्ध, वह ममत भरे नेत्र और वह व त्सल्य, भीगी व णी, सब कुछ सम्मख ु ही होकरुण कम कहीं पररसीम -ऐस लगत है। ईनकम कृप नहीं है। म ूँके ललये ऊलषयों के कंठसे सस्वर श्रीसि ू के स्तवनकम गंलु जत ध्वलनसे धर नभ गलंु जत हो ज त है, लकन्तु ऄपन रृदय तो पक ु रने लग म ूँ...!म ूँ ...! मातृ मम भूिमजा दुलारती सदा ही रहे। स्मृित स्िप्न में भी प्राण सहलाती है।। स्नेह पररपूणा हो िमलाती राम अिभराम। बन्दौ जनकात्मजाके पािन पद पुण्य धाम।। पज्ू य म ूँजी )श्रीमती कृष्ण देवी ड ललमय धमवपत्नी श्रीजयदय लजी ड ललमय ) अन्तररक भ वमय ऄनरु ग थ । क भी वषृ भ ननु लन्दनी और श्रीजनकनलन्दनीके प्रलतईन्होंने भी ईसी समय श्रीचक्रजीके किसे लनकल कर ज ती हुइ श्रीलकशोरीजीके पष्ठृ भ गक दशवन ऄपने किमें बैठे हुए ही लकय थ । ऄवधध मसे चैत्र शलु ल चतदु श व ीको प्र तः च र बजे सरयजू ीमें स्न न कर प्रय गके ललये सबने प्रस्थ न लकय । मध्य ह्नमें लत्रवेणी स्न न कर तरु न्त लचत्रकूट ध म पहुचूँ कर सध्ं य स त बजे मन्द लकनीमें स्न न लकय । दो लदन लचत्रकूट रहे। लवठूर होते हुए श्रीचक्रजी श्रीकृष्णजन्मस्थ न लौट अये। ॎॎॎ

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भावनिमग्िताश्रीकृष्ण जन्म स्थ न-के लील मंच पर श्रीचैतन्य मह प्रभु कम श्रीकृष्णलवरह नभु लू तक मंचन स्व मी हररगोलवन्दजी कम मडडली द्व र हो रह थ । मह प्रभजु ी ने श्रीकृष्ण प्रेम-में ईन्मि ु होकर लकसीको स्पशव कर लकसीको ,दृलिप त करलकसीको , कमतवन-अललगं न कर सभीको ऄपने नत्ृ यसे ईन्मि बन लदय थ । लील में ऐस रसवषवण लकय लक ऄन य स सबक मन श्य ममय हो गय । वे लवरह वेश में भ वलवभोर लवसजवन करते हुए-हुए ऄश्रहु कृष्णह ....... पक ु रते हुए पछ ड़.......कृष्ण.......कृष्ण.......श्रीकृष्णख कर लगरतेकभी ,बेसधु होते , जलसे लवयि ु मछली कम भ ंलत तड़फड़ ते थेलजन्हें देखकर सभी दशव ,क प्रेमलवमग्ु ध हो रहे थे। सभीके नेत्रोंसे ऄश्रु झर रहे थे। चैतन्य मह प्रभु क भ वोन्म दपणू व रुदनक मच ं न आतन प्रभ वश ली थ लक दशवकों के ऄश्रु रुक नहीं रहे थे। ऐसी भ वपणू व लील के दशवन करते हुए मझु से नहीं रह गय । मैं ईत्स ह के स थ श्रीचक्रजीके किमें गयी और ईन्हें लील कम ईत्कृित सनु ते हुए लील दशवन-के ललये पध रने कम प्र थवन कम। ईस समय श्रीचक्रजी ऄपनी कुसी पर लवर जे हुए लकसी लचन्तन मेंलोकोिरलदव्य , भ वोंमें खोये थे। तीन च र लमनट खड़े रहकर पनु ः मैंने चलने-कम प्र थवन कम !त त लील सीुन्दर भ वमयी हो रही है। कृपय अप पध ररये न! नेत्र म नो ईनके लचिको बलहमवख ु -पटल खोलकर एक ब र ईन्होंने देख -होने में बड़ कि ईठ न पड़ रह हो। धीरे धीरे - पनु ः नेत्र मूँदु गये। तब बड़ी लशलथल व णीसे कह लील ,तू ज -क अनन्द ले पर मझु से ,अग्रह मत कर। मंचपर भ वमयी लील चल रही है पर ईससे ,यह ठीक है ,भी ऄनन्तऄनन्त गनु ी बढ़कर भ वोलमवल रस नभु लू त 65

मझु े ऄभी हो रही है।अगे नीचे सभी लदश ओ-ं उपर ,ब यें-द यें ,पीछे -में लजधर भी दृलि ज ती है ऄनोखी ऄद ,लथरकत ,ईधर मेर कन्ह इ नत्ृ य करत ,से रस कम वष व कर रह है ईसकम ,श्रीऄगं गन्धसे लदश एूँ सवु लसत हो ईठी हैं। ऄलौलकक-लदव्य अभ क अलोक सववत्र लबखर गय है। मन तो मन शरीरकम सलु ध ,भी लबसर ज ती है। ईनकम पलकें बन्द हो गयीं और वे पनु ः अनन्द समद्रु -में ईतर गये। त त कम ऄनग्रु हमयी कृप और भ वमयी छलव क दशवन कर मैं व पस लौटकर लील कौन ,करने लगी। ईनकम वह लस्थलत कब तक रही दशवन-ज ने जगत-भ व ?से लनकलकर ईन्होंने ललख मेर भ इ भव्य लगत है सभीको सद ,ब्रजरजमें लोटस बन ज य।-पोट भतू करे भगव न् भल भले ,भले झक म रे -भल ू कर भी लकससे न कन्ह इ कम ठन ज य।

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रुग्णतामें चचन्ति शक ु तीथव में थे तब ऄस्वस्थ हो गए। ईपच रके ऄनन्तर भी स्व स्थ्य संभल नहीं प रह थ । श रीररक दबु वलत तेजी से बढ़ रही थी। ब्रह्मदि भैय को ०ऄप्रैलको डॉ 7 कइ -पत्र ललख लोग चेकऄप पर जोर दे रहे हैं। श्रीशलिस्वरूपजी मझु े मजु फ्फरनगर ले ज कर चेकऄप करव ल ये। रिकम ज ूँचसे ज्ञ त हुअ लक मधमु ेह नहीं है। मत्रू कम जॉचसे पत चल लक वलृ क है। डॉलटर 'आन्फे लशन-लकडनी' शोथके क रण-कम दव से भख ू बन्द हो गयी है। मैं तो ऄपनी होम्योपैथी दव लूँगू । कमजोरी लयों बर बर बढ़ती ज रही है यही ,समझमें नहीं अत । मइ के लद्वतीय सप्त ह में ब्रह्मदि भैय म ूँ एवं मन्ु नी जीजी को लेकर अ गये। श्रीचक्रजी के स्व स्थ्य कम ररपोटव देखी और ईनके ललये ऄनक ु ू ल दव एूँ देकर और समझ कर म ूँ एवं मन्ु नी जीजी को शक ु तीथव छोड़कर एट अ गये। श्रीचक्रजी के द तं ों में पहले से ददव रहत थ और प नी भी लगत थ । मसड़ू ों कम सजू न )Gingivitis शलि प्रभ लवत हो-के क रण प चन )रही थी। दोच र द ूँत तो मथरु में पहले ही लनकलव चक ु े थे लकन्तु ऄब ,डॉलटर के पर मशव पर धीरे दो-धीरे दोके क्रम से सभी द तों को लनकलव ने क लनश्चय लकय । मजु फ्फरनगरमें सववशलिस्वरूपजी के लनकटके सम्बन्धी क लनधन होने से मरण सतू क लगे थे ऄतः चक्रजी ,को मजु फ्फरनगर श्रीसख ु वीरजी त यल के घरपर ऄलग फ्लैट में ब्र०के शव नन्दजी ले गये। द तों के लनकलव देने से शरीर पर ऄसर तो पड़न नहीं थ । दबु वलत ऄलतशय बढ़ गयी थी। लचलन्तत होकर मन्ु नी जीजी ने फोनसे ऄपने भ इ डॉ० ब्रह्मदिजी को सचू न दी। ईन्होंने फोन से बत लदय मैं तरु न्त चल -रह ह।ं 67

अते ही ईनकम लस्थलत देखी और बत य लक अवश्यकत से ऄत्यलधक कम कै लोरी पहुचूँ रही है। थोड़े थोड़े समय-में ऄन्तर से कुछ थोड़ थोड़ -पेय फल क रस अलद देते रहन च लहये। आस लस्थलत में भी आन्हीं लदनों श्रीचक्रजी को नयी नयी झ ूँलकयों-के दशवन एवं लनत्य नतू न ऄनभु लू तय ूँ होती रहती थीं। ऄस्वस्थ होनेसे ठीक-से लनद्र भी नहीं अती थी। एक लदन स्न न-पजू से लनविृ हो चक ु े थे। सेव में रहने व ले अनन्दजी भी प्र तः कम सेव करके पष्ु प अलद रखकर ऄपन लनत्यलन-यम करने चले गये थे। जलप नक समय ज नकर मन्ु नी जीजी कुछ लेकर कि में पहुचूँ ी तो देख वे किमें लवर जे हुए खल ु े द्व र अक शकम ओर लनलनवलमष देख रहे हैं। अनन्द नभु लू त में खोये हुए हैं। ईनकम भ वलवभोरत और प्रेम पल ु लकत वपु देखकर लगत थ लक लकसी लदव्य झ ूँकम क दशवन कर रहे हैं। ईनकम लचिवलृ ि जगत को छोड़ चक ु म है। लवलम्ब होने से म ूँ भी समीप के कि से अ गयीं। वे यह दृश्य देखकर मग्ु ध हो गयीं और भ व लचन्तन-में व्यवध न न पड़े ऄतः दसू रे कि ,में द्व र से सट दोनों वहीं बैठ गयीं । एक घंटे से ऄलधक बीतने पर ईनके मख ु से धीरे -धीरे मधरु स्वर लनकल श्रीकृष्ण। आससे दोनों ...श्य मसन्ु दर ...गोलवन्दको अभ स हो गय लक चक्रजी ब ब को धीरे ईनकम दृलि धीरे ब ह्य ज्ञ न हो रह है। कुछ देर पश्च त-् ईन दोनोंपर पड़ी। ह थ के संकेतसे ही पछू म ूँ ?लय है -ने भ वभरी मद्रु एवं संकेतसे ही पछू - अक शमें लय देख रहे थे दोनों ?कम प्रबल ऄलभल ष देखकर धीरे ऄभी कुछ समय --धीरे बोलेपहले अक शकम नील क लन्त देखकर मझु े कन्ह इ क स्मरण अ गय । मैं एकटक देखने लग तो सहस नील गगन में जैसे एक स थ कोलट सयू व ईलदत हो गये होंलकन्तु ,

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शत सहशज्योत्स्न के सम न लस्नग्ध शीतल प्रक श है वह- बस बस ईसीके मध्य ... श्रीन र यण कम लत्रभवु न मोलहनी छलव प्रकट हो गयी। ईन परम सक ु ु म र पीत म्बर पररध न ,कौस्तभु कंठ ,नीलमनोहर वपु ,ऄवत्सकमल ,चतभु जवु ,विलोचन कम सेव में शंख पा स क र ,गद ,चक्र ,समपु लस्थत हैं। ईन सवेश्वर क श्रीलवग्रह लगत है कृप के घनीभ व से ही बन है। ऄनन्त ऄजश करुण रोम रोमसे झर रही है।-ईन ज्योलत स्वरूप के श्रीलवग्रहसे जो र लशर लश रलश्मय ूँ लवकमणव हो रहीहैं हम सब ईन रलश्मयों -के ही रूप हैं। ज ने कै से मैं ईन ऄलखलेश के श्रीचरणों के समीप अ गय हूँ और ईनके लवश ल लोचन एकटक मेरे मख ु पर लगे व त्सल्यकम वष व कर रहे हैं -बोलते बोलते पनु ः ध्य न रस-में डूब गये। ईस समय कम ब ब कम भ वमयी लस्थलत क वणवन करन कलठन है। ईनके स लन्नध्य स मीनय म त्र से ईनके रोम रोम-से मह सत्त्वमयी भ व के परम णु ऐसे सोंू म रूप से लबखरने लगे लक सनु ते हुए हम सब अनन्द कम ध र में लनमग्न होते ज रहे थेसो सख ु ज नलहं मन ऄरु क न । नलह रसन पलह ज आ बख न ।। श्रीचक्रजी क थोड़ स्व स्थ्य सधु रते ही ब्रह्मदि भैय ईनकम रुलचआच्छ और , ऄनक ु ू लत देखकर शक ु तीथवले अये। जनू के प्रथम सप्त हमें जगद्गरुु शक ं र च यव श्रीश न्त नन्दजी मह र ज शक ु त ल अ गये। स यं च र बजेसे छः बजे तक आनक प्रवचन कथ -क क्रम चलने लग लजसे श्रीचक्रजी कि से ब हर अकर अर म कुसी पर बैठकर श्रवण करते थे। ऄत्यलधक कमजोरी में भी धीरे धीरे -ब धं पर होकर गगं स्न न-को ज ते और कि में लचन्तन में ही डूबे रहते। एक न्त में रहन लप्रय थ । कभी नीरव लनशीथ में 69

एक न्त में मौन होकर लनह रते रहते कभी लमलन ,कम ललक में व्यलथत हो ऄनजु को प्रेम श्रु क ऄर्घयव देते हुए रृदय के भ वों को कहने लगतेकण-कण आर्त्ा पुकार रहा है, आओ कुूँिर कन्हैया, कहाूँ छुपा प्राणों का िप्रयतम प्रणतपाल मम भैया। अब भी मेरे अन्तर उज्ज्िल है अटूट ििश्वास, मरणोन्मुख हूूँ िचर-िनद्रामें श्याम-िमलनकी आस। कृष्ण-करों से साग्रह माखन मोदक मैंने खाया, आज चील-िगद्धोंको सादर अिपात है यह काया। श्रीचक्रजी क स्व स्थ्य लशलथल हो गय थ ,ज्वर ंश भी थ । हररन र यणजी ने ईनसे लवश्र म करते रहनेक लनवेदन लकय । तीसरे लदन र लत्र को श्रीचक्रजी के दधू पी लेने के पश्च त सोने क समय ज नकर सभी ऄपने ऄपने किमें चले-गये। सोने से पहले हररन र यणजी बर मदे में टहल रहे थे। करीब स ढ़े दस बजे होंगे। जब बर मदे में श्रीचक्रजी के कि के स मने से धीरे धीरे लनकल रहे-थेऄन य स ईन्हें , किके ऄन्दरसे बहुत मन्द ऄस्फुट स्वर सनु यी लदय । ईनक स्व स्थ्य ठीक न होनेसे लजज्ञ स वश कि के द्व र कम ज ली से झ ूँक । कुछ समझ में न अने पर चपु च प लबन पद कि च प लकये-में ज कर शय्य से कुछ दरू ी पर भलू म पर ही बैठ गये। कि में ऄधं क र तो थ ही लकन्तु द्व र ,कम ज ली से बर मदे क मंद प्रक श अने से ऄसलु वध नहीं हो रही थी। न ज ने लयों मन ,को बहुत ऄच्छ लग रह थ ऄ , तः बैठे रहे। सोच ज्वर कम बैचेनी में कुछ बोले होंगे लकन्तु ब त दसू री ,ही लनकली। लग कि लदव्य 70

गन्ध-ऄगं से भर गय है भल ...कनूँू ...चपल -ऄस्फुट स्वर भी सनु यी लदये ,कोइ आतनी जल्दी अकर भी भ गत है ...?यह सलु चलकन के श र लश तेरे-लसव य लकसकम हो सकती है ...?लो भ ग गय यह तोकनूूँ.मेरे, क्षीरोदिध नहीं,अमृतोदिध होता कोई , उसके मन्थनसे िनकलता निनीत,उससे भी मधुर बाल चररत तेरे, आस्िादन करते उनका भाि प्रणि भािुक जन, उत्कंिठत लालाियतआ ,कुल मन, अन्तरमें आ, क्रीड़ा कर साथ,साथ यशोदानन्दनरातकनूूँ मेरे। ...सिेरे-िदन साूँझऄन्तलील में व्यवध न न पड़ेब हर अ गये। ऄतः चपु च प किसे ,

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पव ू ााभास चैत्र शलु ल प्रलतपद को नववषव के प्रथम लदन श्रीचक्रजी के शवदेवजी के गभव गहृ में मंगल करके ललफ्ट से भ गवत-भवन में मंगल अरती के दशवन करके ऄपने कि में लौटे। कुछ ही देरमें नववषव क प्रण म करने म ूँ के किमें अये और म ं ने स्नेहपवू वक अशीव वद देते हुए ऄपने समीप ही बैठ ललय और ईन्हें सप्रु सन्न देखकर म ं ने कुछ सनु ने को कह । तब बोले-लो म ूँ, अज कम ही ब त सनु त ह।ूँ अज लगभग 2 बजे र लत्र को लदव्य चतभु वजु परुु ष, पीतवह्ल भरणों से भलू षत, वैष्णव लतलक ध रण लकये कि के द्व र कम ओर से पध रे । वे दोनों शय्य से थोड़ी दरू खड़े रहकर अपस में व त वल प कर रहे थे। एक ने दसू रे से कह - तमु प्र थवन करो। स्वर सनु कर मैंने लसर ईठ कर देख और मैं तो सहषव बोल ईठ - अआये... अ गये भ इ...चलो मैं प्रस्ततु ह।ूँ तभी दसू रे ने लवनम्रत पवू वक कह -ऄभी नहीं- ऄभी अज्ञ नहीं हुइ... ऄलधक नहीं, कुछ ही समय पश्च त... ् और वे दोनों लकरीट कुडडलध री वहीं ऄन्तध वन हो गये। व त्सल्य लतरे क से म ूँ कम अूँखें भर अइ। वे भरे कडठ से बोलीं- मझु े पहुचूँ कर ज न । मस्ु कर कर चक्रजीने कह - म ूँ! तमु तो योगव लसष्ठ पढ़ती हो, ईसके ऄनसु र भी- मत्ृ यु में मत्ृ यु रूप होकर वही परमेश्वर लस्थत है, लफर अपकम यह क तरत और स्थ न-लवशेष क दरु ग्रह लयों? ईलचत तो यह है लक जब मनष्ु य यह ज न ले लक मत्ृ यक ु समय समीप है, तब स्थ न और देशक मोह त्य ग दे और सवेश्वर कम आच्छ पर छोड़ दे। म ूँ, मैं तो तैय र ह।ूँ वह जैसे च हे, जह ूँ से च हे- ले ज य, मैं तरु न्त चल दगंू जब मैं शरीर नहीं, महाकाल िसर पीटे । 72

अजर अििनाशी मेरा, मृत्यु क्या लेगी? ॎॎॎ

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श्रीकृष्ण-जन्मभूिम से अिन्तम ििदा स्व स्थ्य सधु र कम ओर नहीं थ , लकन्तु शक ु तीथव में श्रीगणेश लवग्रह-लनम वण परू हो चक ु थ । आनकम प्र ण-प्रलतष्ठ एवं चरण लभषेक 6 ऄप्रैल 1989 को होन लनलश्चत हुअ थ । ऄतःश्रीके शव नन्दजी सववशलिस्वरूपजी के स थ क र लेकर मथरु अये। आनके ऄन्तमवन में चक्रजी के स लन्नध्य में रहने कम ललक भरी ऄलभल ष थी एवं सेव क सौभ ग्य प ने क ईत्स ह थ , लकन्तु डॉलटर के पर मशव के ऄनसु र श्रीचक्रजी क स्व स्थ्य य त्र के योग्य नहीं थ , ऄतः ये स थ ले ज ने क मन होते हुए भी ऄनरु ोध भर अग्रह नहीं कर सके । अक ंि ओ ं को मन में सजोये हुए लनर श मन लौट गये। सद के लचर-पलथक श्रीचक्रजी को एक स्थ नपर ऄलधक लदन लटकन भल कै से लप्रय होत ? ईन्होंने स्वेच्छ से के शव नन्दजी को 25 ऄप्रैल 1989 मथरु अनेके ललये पत्र ललख लदय । श्रीकृष्ण-जन्मस्थ न पर श्रीर ध कृष्ण चौधरी को जैसे ही ज्ञ त हुअ लक पज्ू य ब ब ने शक ु तीथव ज ने क संकल्प कर ललय है, वे ऄकुल ये-से अये और लवनम्रत पवू वक पछू - ब ब ! अप मथरु कब तक लौट अयेंगे? श्रीचक्रजी ने सलस्मत स्नेह से कह - भैय ! कन्ह इ ज ने! मेरे सब संकल्प ईसके स थ हैं। ईनके मंगलमय लवध न पर ऄपने को छोड़ देने के पश्च त् कुछ भी शेष नहीं रहत । ईनके लललत मजं ु यगु लचरण-कमल रुणकम छ य के ऄलतररि न कहीं श लन्त है, न सख ु ।... बस ऄब और कुछ नहीं... ईनकम आच्छ पणू व हो...। ह ूँ, तम्ु ह रे ललये मेर सन्देश हैइस भि प्रिाह में भटकते मानि को, आयु का के िल िही क्षण गणना के योग्य। िजसमें िकसी िृिर्त् से निीन मेघ मज्जु कािन्त, 74

कन्हाई का लिलत चररत बने आस्िाद्य भोग्य।। ईनके एक-एक शब्द, एक-एक व लय म नो स धक के ललये सोप न प्रलत सोप न प र करते हुए अध्य लत्मक लस्थलत कम ईपललब्ध कर नेव ले थे। र ध कृष्ण लवस्मय भ व से सनु ते ज रहे थे और ईनके मन में यह भ व भी ईठ रहे थे लक पज्ू य ब ब लकस सीम तक लनज जनोंक द लयत्व स्वीक र करते हैं, लजससे ईनके चरण लश्रत भव टवी में न भटकने प यें । ॎॎॎ

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जीवि संध्या शक ृ के पीछे सघन वन प्रदेश कम ु तीथव में एक लदन श्रीचक्रजी घमू ते-घमू ते वटवि ओर चले गये। वह ूँ के स लत्त्वक पलवत्र व त वरण में मन मग्ु ध हो गय । ईन्हें लग - यह ूँ के वि ृ , लत , पष्ु प सब लकतने लदव्य हैं? पवन, धर , गगन भी लदव्य है, ईसकम लदव्यत कहनेमें नहीं अती। वहीं वि ृ के नीचे बैठ गये। ऄपने-अप लचन्तन चलने लग - आसी तपोभलू म में श्री शक ु देवजी पध रे परीलित कम ऄकुल हट भरी प्रतीि पर, तब मेर कन्ह इ मेरी प्रतीि करनेपर लयों नहीं अयेग ? ऄवश्य अयेग । ईन्हींके शब्दोंमें -'शक ु तीथव कम मनोरम वनस्थली के बीच ये हररत ललतक एूँ झमू -झमू कर ऄपने कुसमु ों क ईपह र ईत्स ह से सज रही हैं। ऄन्तमवख ु ी चेतन सम्पन्न ऊलष से लवटप भी ऄपने मधरु फल नैवेद्य के ललये तम्ु हें ऄलपवत कर रहे हैं। व्योम में लवहगं -ब ल एूँ स्व गत ग न ग रही हैं तम्ु ह र । प्रकृलत मि होकर तम्ु ह री प्रतीि कर रही है। मैं भी सबके स थ तम्ु ह री प्रतीि कर रह ह।ूँ मेरे प स तो एक ही रृदय और ये ही भीगी पलकें हैं। पलकों के प ूँवड़े लबछ कर ईन्हें ऄन्तरजल से अद्रव करत रहत हूँ लक तम्ु ह रे पलवत्र चरण ईस पर पड़ें। प्रतीि में मेरे समीप तो लनद्र देवी भी नहीं पध रती। दय मय! कहीं मेरे ऄश्रशु ोत सख ू न ज य! तम्ु ह रे ऄलतररि मेर है ही कौन?

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लकसक अश्रय यह ले सकत है तम्ु हें छोड़कर? मझु ऄभ गे को कौन ऄपन भ र बन न च हेग ? ऄब मैं थक कर भी ऄथक ह।ूँ मेरे ललये दसू री लय गलत है आसे छोड़कर लक मैं तम्ु ह री प्रतीि में ऄपनी मक ू व्यथ को लमल ये तम्ु ह रे म गव कम और देख करूूँ? तम्ु हीं मेरी चरम गलत हो। जीवन प्रदीप जल कर ऄलन्तम श्व स पयवन्त तम्ु ह री प्रतीि में ह।ूँ तम्ु ह रे भरोसे परू लवश्व स है कन।ंू ऄवश्य सफल होगी मेरी यह प्रतीि , क रण लक - जैसे से वैसे कम मैत्री तुम िनगाुण मैं सब गुणहीन। कनूूँ हमारे एक तुम्हीं बस ढूूँढे औरों को सप्रु िीण।। (श्रीचक्रजीकी डायरीसे) आन्हीं लदनों ग्रीष्मऊतमु ें ज्योलतष्पीठ धीश्वर शक ं र च यव श्रीश न्त नन्दजी मह र ज पध रे । संध्य क लमें 4 से 6 बजे तक आनकम कथ -प्रवचन-सत्संग क अनन्द ऐस थ म नो सभी अश्रमव सी परम नन्द में डुबकम लग रहे हों। आनकम भव्य, श न्त सप्रु सन्न मख ु मद्रु ऐसी थी म नो हम सब पर कृप कम ऄजश वष व कर रहे हों। श्रीचक्रजी से आनक प रस्पररक प्रेम तो दो शरीर एक प्र ण के सम न थ । लदनमें प्र यः दोनों मह न् लवभलू तय ूँ थोड़ी देरको ऄन्तरंग सच्चच व कर लेते। आस गोष्ठी में ईल्ल सपणू व अनन्द एवं सरसत क ऐस प्रव ह ईमड़त , जो व णी द्व र चच व क लवषय नहीं है। सच्चच व गोष्ठी में सख ु नभु लू त क ऄनभु व कर हम ऄनलधक री भी ऄपन सौभ ग्य म नते। 77

एक लदन पज्ू य श्रीशक ं र च यवजी के प्रेम भरे अग्रहपर ऄपने एक न्त कि में कन्ह इ कम प्रीलतसनी लील नभु लू त सनु ने लगे- मध्य ह्नक लवश्र म कर नींद टूट चक ु म थी। ईठकर बैठ भी गय , लकन्तु मंदु े नेत्रों में ही प्र ण पक ु र ईठे - कनं.ू .. कब अयेग ? बस दो िण भी नहीं बीते होंगे लक एक ऄत्यन्त मधरु ब लकडठ ने पीछे से पक ु र– ‘द द !’ मेर तो रोम-रोम आस स्वर ने ही सधु से सींच ललय । देखत ही रह गय लसर से पैर तक ईसे, लग -कहीं धलू लमें खेल रह होग सख ओ ं के स थ। मेरी पक ु र पर दौड़ दौड़ अ गय है। ईसकम घंघु र ली क ली सलु चलकन सघन ऄलकों से लघरे मख ु चन्द्र पर, चरण पर, ईदर पर, भजु ओ ं पर, तलनक वि पर भी धलू ल लगी है। अते ही ऄपन नन्ह लसर मेरे स्कन्ध पर रख कर झ ूँकने लग मेरी ओर...' बस आतन ही कह सके । ईनक रोम-रोम जैसे रूप-म धरु ी में डूब गय । रृदयकम प्रेममित आतनी घनीभतू हो गयी लक बोल प न वशकम ब त रही नहीं। पज्ू य शक ं र च यवजी भी कहने लगे- लगत है लक आनसे श्रीकृष्ण-चच व लवमग्ु ध भ वसे सनु त ही रहूँ । ईनक भ व प्रशलमत होने कम प्रतीि न कर के एक-दो जनों के स थ वे कि से ब हर सीलढ़यों से ईतर अये। ईसी लदन नीचे बर मदे में हम लोगों कम प्र थवन पर प ूँच लमनट को कुसी पर लवर जम न हो गये। हमलोग भी ईनके मख ु रलवन्द से कुछ श्रवण कम ल लस में ईत्सक ु त पवू वक चट इ पर बैठकर चरणवन्दन करते हुए ईनकम ओर लनह रने लगे। हम लोगों कम लजज्ञ स देखकर सहज भ व से कहने लगे- 'मैंने श्रीचक्रजी के स मीनय क ल में ईनकम एक-एक भ वोलमवल को लनकटत से देख है। आनको र लत्र में शयन के समय श्रीकृष्ण कम लदव्य लील -स्फूलतवय ूँ होती रहती हैं। ईस समय ईनके कि क व त वरण बड़ लदव्य हो ज त है। सोंू म परम णओ ु ं से पररपणू व कि क अक श-तत्त्व आतन 78

सशि हो ईठत है लक ईसके सम्पकव में अनेव ले व्यलि भी लदव्य नभु लू त करने लगते हैं। प्र यः कभी प्र तः मेरे छे ड़ने पर ऄपने ऄनभु वों को भ व-लवभोर होकर सनु ते, तब लकतनी ब र प्रेम श्रओ ु ं में ईनके नेत्र सजल होते, लकतनी ब र स्वर-भगं होत । मख ु वैवडय वछन्न होत और लकतनी ब र ऄनरु ग भरे नयन कभी लनमीललत होते, कभी ईन्मीललत। ईनकम भ वमयी लस्थलत मैं लवस्मय भ व से देखत हुअ पल ु लकत हो ज त ।' आतन कहते हुए स्वयं भी अनन्द में डूबे हुए ऄपने कि कम ओर बढ़ गये और लनजी अर धन के ललये ऄपन कि ऄन्दर से बन्द कर ललय । शक ु तीथव में हनमु द्ध म क अनन्द द्वय-मह लवभलू तयों के लवर जने पर लद्वगलु णत हो ज त । सबमें लनत नय ईत्स ह, लनत नयी ईमगं , लनत्य नय अह्र द ईमड़त रहत । 'श्य मसदन' कम छत पर श्रीचक्रजी खल ु े अक श के नीचे तख्त पर शयन करते और द लहनी ओर समीप के कि कम छतपर पज्ू य शक ं र च यवजी मह र ज तख्तपर र लत्र लवश्र म करते। वहीं से ही श्रीचक्रजी कम एक न्त के िणों कम लवलिण रहनी और भ वमयी वलृ िकम झ ूँकम लनकटत से देखकर मग्ु ध होते थे। प्र तः चच व करनेपर पछू ते-कै स लगत है? श्रीचक्रजी सप्रु सन्न मन कह देते-'शक ु तीथव क स लत्त्वक व त वरण बड़ मनमोहक है। यह ूँ हव चलती है तो लगत है- क नों के समीप कोइ भगवन्न म ले रह है। वि ृ ों के पिे लहलते हैं तो कमतवन के शब्द मख ु र होते हैं – र लत्र होनेपर नीरव स्तब्धत में भगवन्न म कम गंजू है। पज्ू य शक ं र च यवजी मह र ज के आल ह ब द ज ने के एक लदन पवू व कम ऄतं रंग सच्चच व गोष्ठी क प्रसगं लबलकुल पथृ क् ही हो गय थ म नो श्रीचक्रजी ऄलन्तम लमलन और ऄपनी जीवनय त्र के ईपसंह र क संकेत देन च हते हों-

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'संतों-लवच रकों के मतक मैं समथवन करत हूँ लक जीवन ऐसे तटस्थ बन ये रखो, जैसे अज य कल ही मर ज न है। आस प्रक र स्वस्थ लनलश्चन्त जीवन जी सकते हैं। ‘मत्ृ यमु ें कोइ पीड़ नहीं है' यह ब त ऄनसु न्ध न करके प श्च त्य मनोवैज्ञ लनकों ने भी लसद्ध कर दी है। शरीर तो क ल क ग्र स है, भल आसमें लय असलि? हम और अप तो क ल के भी क ल भगव न् मत्ृ यजंु य के पत्रु हैं, तब क ल, मत्ृ यभु य और ऄभ व स्पशव करने क स हस कै से कर सकते हैं? ऄमतृ त्व तो ऄपन स्वत्व है और स्वरूप भीआना-जाना, जीना मरना, जग का सहज स्िरप। तू क्यों डरता रे अििनाशी, महाकाल का पूत।। गरुु -पलू णवम पर शक ु त ल ही रहे। सववशलिस्वरूपजी गरुु -पजू नके ललये अये। श्रीचक्रजी क स्व स्थ्य सधु रत न देखकर डॉ० ब्रह्मदि भैय ने ऄनरु ोध और अग्रह सलहत प्र थवन कम - ब ब ! अप-ऄपने अपमें प्रसन्न हैं। अपको न सेव कम ऄपेि है और न ईपच र कम, लकन्तु मझु े अपकम अवश्यकत है। मेर जीवन अपके श्रीचरणों के अलश्रत है। मझु ऄलकञ्चन ब लक पर अपकम वत्सलत कम छ य सद बनी रहे। जैस भी भल -बरु ह;ूँ मझु े सेव क ऄवसर देखकर कृत थव कमलजये। अप ऄपने लपत जी श्रीरघनु थजी के समीप किमें बने रहनेकम कृप करें । स्व स्थ्य के ऄनरू ु प ईपच र एवं सेव कर के मैं धन्यत क ऄनभु व करूूँग , ऄन्यथ अपसे दरू रहकर मैं लनलश्चन्त नहीं रह प उूँग ।

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प्रेम नरु ोध एवं ब लकों के ब लहठको स्वीक र कर 26 जल ु इ 1989 को र मलनकुञ्जमें अ गये। प्रथम मलं जल पर श्रीसीत र म के मलं दर से सटे कि को ही ईन्होंने ऄपन अव स बन य । सद के एक न्तलप्रय श्रीचक्रजी यह ूँ भी एक न्त में प्र तः स्न न-पजू करके थोड़ -थोड़ छत पर टहलते। सयू ोदय पर श्रीसयू वन र यण को ऄर्घयव ऄलपवत कर हल्क स जलप न कर लवश्र म करते। बोलन बहुत कम कर लदय थ । दबु वलत थी ही, स थ ही ऄन्तमवख ु त बढ़ती ज रही थी। प्रलतलदन डॉ० ब्रह्मदि भैय प्र तः प्रणलत सलहत चरणवन्दन करके चैक-ऄप करते, तब थोड़ -बहुत बोले लेते। कभी कहते- कै ल श, स्मरण ही स र है। कभी कहते लक तमु लोग व्यथव ही आस शरीर को लेकर लचलन्तत हो। मत्ृ यु ट ली नहीं ज सकती, लकन्तु रोग, पीड़ , ऄभ व दःु ख न दे, यह लकय ज सकत है। वह कै से ब ब ? भैय ने प्रश्न लकय । श्रीचक्रजी बोले-मत्ृ यु मंगलमय बन यी ज सकती है। यह ज नने कम आच्छ जग ज य तो म गव दरू नहीं हैकन्हाईस्ियंको कालोऽिस्म कह सका िह नन्दलाल अितशय दुधाषा अजेय दुरितक्रम काल! सबसे बड़ा, सबसे अजय भुिन भयंकर।। लगता होगा आपको अप्रीितकर।। िकन्तु, नि नि सजाक शुभ मनोहर िह भी कल्पना अपने कन्हाईकी 81

कन्हाई ही, अपना यही गोपाल । ईनके चले ज ने के ब द हल्के पदों से ऄके ले छतपर धीरे -धीरे टहलते रहते और मन्द स्वर में ऄपने ऄनजु से मनहु र करते-कन्ह इ ऄब घर चल न! कनूं मेरे बीत गये बहुत िदन िियोगमें तेरे, देह और दैिहकी का जंजाल, मोहमयी माया का जाल काट दे नन्दलाल। बहुत की तूने मेरी मनुहार, बहुत िदया अकल्पनीय प्यार। देना मुझे था पर तूने िदया, लेनेके अयोग्य भी, मैंने िलया। अब और मत प्रतीक्षा करा थक गया, बुला अब, कर त्िरा। आ! आ!! पथ देखता तेरी, कनूं मेरे।। कभी कन्ह इ के पष्ु प ईत रते समय चौकम पर बैठे-बैठे कहते- कनूँ!ू मेरी मनहु र म न लेने में तम्ु हें कोइ ह लन तो प्रतीत नहीं होती। मेरे अद्रव अूँसओ ु ं को ऄपन कर तम्ु ह री लदव्यत और चौगनु ी चमक ईठे गी। यह गीले ईद्ग रों क ईपह र तम्ु हें शीतलत 82

प्रद न कर सख ु पहुचूँ ने को स मग्री बनेग । एक ब र तम्ु ह री ब ूँकम-झ ूँकम कम एक झलक ऄपने ऄपलक नयनों से लनह रन च हत ह-ूँ चपल-चरन, चिलत-नयन, नन्द-नन्दन आओ, मुरिल-अधर, मधुर-स्िर, नटिर सनु ाओ। परम-सुघर, िगरिर-धरन, कमल-कर उठाओ, भि-भय हर, उर से लग, ताप-त्रय िमटाओ।।

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अिन्तिी ओर श्रीकृष्ण-जन्मस्थ नसे र ध कृष्णजी चौधरी महीने में दो ब र ऄवश्य अते। 26 ऄगस्त को जब र ध कृष्ण चौधरीने प्रक शन-लवभ ग से सम्बलन्धत कोइ ब त पछू ी तब श्रीचक्रजी ने अवश्यक लनदेशन देते हुए कह - ऄब तमु प्रक शन-लवभ ग एवं श्रीकृष्णसदं श े ' पलत्रक क सम्प दन सूँभ लो, मेर समय अ गय है। ऄब यह सब चच व मेरे स मने मत करो। ऄवरुद्ध कडठसे र ध कृष्णजीने कह - ब ब ! मैं अपके स लहत्यस धन क पजु री ह।ूँ मैं यह सब कै से संभ ल प उूँग ? स्नेहपवू क व लसरपर ह थ फे रते हुए कह - "भैय ! सबक समय लनलश्चत होत है। ऄब यह सब करनेमें मैं ऄिम हो गय ह।ूँ ऄब तो लनलश्चत रूपसे तम्ु हीं को सब देखन है। दैवक लवध न! र ध कृष्ण आस स्पि संकेत को भी नहीं समझ प ये लक ब ब ऄब मथरु कभी नहीं अयेंगे। वे तो यही समझ रहे थे लक कमजोरी लवशेष होनेके क रण ही ऐस कह रहे हैं ब ब । स्व स्थ्य के सधु रने पर मथरु अयेंगे ही। ऄपनी सम्प दक कम कुसी पर बैठकर सद कम भ ूँलत मझु े अदेश देंगे। र ध कृष्णजी के ज ने के दो लदन ब द ही रृद-शल ू (Angina) क दौर पड़ । ब्रह्मदि भैय प्रलतलदन देखते हुए भी ऄपनी सन्तलु ि के ललये रृदय-रोग लवशेषज्ञ डॉ. मक ु े श जैन एवं डॉ. नरे न्द्रप ल ईप ध्य य को लदन में एक ब र ऄवश्य लदख लेते। सभी डॉलटर पणू व लवश्र म कम प्र थवन चक्रजी से करते।

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आधर घर पर डॉ० ब्रह्मदि प ठक कम पत्नी श्रीमती जगदम्ब देवी कइ वषु से रुग्ण चल रही थीं और च र महीने से तो लवशेष ऄस्वस्थ थीं। 10 लसतम्बरको प्र तः ठीक 6 बजे ईनक देह वस न हो गय । आस पररव रकम गहृ लोंमी और कुलवधू जो के वल चौवन (54) कम थी, ऄपने पीछे वद्ध ृ स स, ननद, पलत, पत्रु ऄवधेश तथ ऄलवव लहत पलु त्रयों को छोड़कर परलोक लसध र गयी। म तलृ वहीन ब लकों क क्रन्दन ऄसह्य थ । बड़े एवं समझद र सदस्य संयत होकर ऄश्र-ु लवमोचन कर रहे थे। नीचे कि में, बर मदे में, लॉन में, सड़क पर जनसमहू एकलत्रत हो गय थ । आस दःु खद घटन के होने पर पररव र क धैयव श्ल घनीय थ लक आस घटन क तलनक भी अभ स उपर कम मलं जल के कि में लवर जम न श्रीचक्रजी को नहीं होने लदय । आन लदनों भी श्रीचक्रजी कम पररचय व और औषलध यथ लवलध चल रही थी। डॉ० लशवदेव शम व दोनों समय देख-रे ख कर रहे थे। शक ु तीथव से श्रीके शव नन्दजी ने श्रीचक्रजी कम सेव के ललये महीप ल को भेज लदय थ , जो ईनके कि से सटकर सोत -ज गत रहत , छ य कम भ ूँलत चौबीस घंटे पथृ क् नहीं होत । 15 लसतम्बर को शलु द्ध-सस्ं क र सम्पन्न करके ब्रह्मदि भैय श्रीचक्रजी के श्रीचरणों में चरणवन्दन करने पहुचं े। पथ्ृ वी पर मस्तक टेकते समय श्रीचक्रजी कम दृलि ईनके मलु डडत मस्तकपर पड़ी। वे सहस चौंक पड़े - यह लय ? ब्रह्मदि भैय ने ऄसीम धैयव क पररचय देते हुए संयत स्वरमें कह - अपकम पत्रु वधू लम्बे समय से बीम र थी न! ईन्हें गगं पहुचूँ लदय । जैसी अपके श्य मसन्ु दरकम आच्छ । अप लनलश्चन्त रहें, ऄभी अपको पणू व लवश्र म कम अवश्यकत है। 85

ब्रह्मदि भैय कम धैयवयि ु व णी सनु कर श्रीचक्रजी गम्भीर हो गये। ईनक मख ु मडडल तेजोमय अभ से दीप्त हो ईठ और ओजपणू व स्वरमें बोल पड़े- कै ल श! बत न तो नहीं च हत थ , लकन्तु ऄब सनु लो- मेरी ज्योलतष के ऄनसु र मेर समय परू हो चक ु है। एक दशी, पच्चीस त रीख, सोमव र को मैं ज रह ह।ूँ आस शरीर को भी भगवती भ गीरथी के ऄक ं तक पहुचूँ देन यमवैवस्वत बहुत भयंकर होंगे जग को, क लदडड वे अयव हैं। लकन्तु कन्ह इ के ऄपने लप्रयजन के वे ऄपने हैं, अच यव हैं।। कि में ईस समय ब्रह्मदि भैय और ईनकम छोटी बलहन मन्ु नी जीजी ही के वल थे। ये दोनों चक्रजी कम ब त सनु कर स्तब्ध रह गये। पज्ू य त त क ईस समय क स्व स्थ्य और गलतलवलध आस प्रक र थी- प्र तः तीन बजे ईठकर स्न न, पजू -प ठ, सयू व को समय पर ऄर्घयव ऄलपवत करन , कन्ह इ के श्रीलवग्रह कम पष्ु प-सज्ज करके अठ बजे हल्क स जलप न, मध्य ह में हल्क भोजन, ऄपर न्ह में एक सेब, र लत्र 8 बजे हल्क भोजन और 9 बजे से पवू व दधू लेने क क्रम पवू ववत् चल रह थ । लवश्र म करते हुए ऄपने कन्ह इ क लचन्तन ही करते रहते। शय्य पर लेटे-लेटे एक ही व लय धीरे से लनकलत श्य मसन्ु दर... गोलवन्द । शरीर पर स लत्त्वक भ व, कम्प और पल ु क प्रकट होते रहते, लजन्हें देखकर अभ स होत रहत लक वे आस रुग्णत में भी ऄपने कन्ह इ क मंगलमय सख ु द स्पशव प्र प्त कर रहे हैं। ऐसी ऄवस्थ में लकसी को अभ स नहीं हो सक लक आतनी जल्दी मह प्रय ण क समय अ गय है। घबड़ हट में मन्ु नी जीजी ने एक न्त में ज कर पच ं गं खोलकर ऄलटूबर, नवम्बर, लदसम्बर और जनवरीको क्रमशः देख तो जनवरी 1990 में 25 86

त रीख, एक दशी, सोमव र एक स थ लमल गये। रृदयमें एक तीव्र अघ त लग लक लय ब ब आतनी जल्दी मह प्रय ण करनेव ले हैं? मोहवश, ऄज्ञ नवश ऄथव मलतभ्रम कलहये, ईन्होंने लसतम्बर कम 25 त रीख कम ओर दृलि ड ली ही नहीं, जबलक 15 लसतम्बर को ही ब ब ने संकेत दे लदय थ । ब ह्य रूपसे नहीं लगत थ लक म त्र दस लदनों में ही मह प्रय ण हो ज यग । ब ब कम ब त सनु कर ब्रह्मदि प ठक भैय ऄवश्य गम्भीर हो गये थे। लचलकत्सक होने से ईन्हें कुछ अभ स थ ही, आसीललये जब 20 लसतम्बर 1989 बधु व र को ईनकम धमवपत्नी क त्रयोदश ह संस्क र क क यव सम्पन्न हुअ, ईसी लदन ब हर से अनेव लों में शक ु तीथव से नैलष्ठक ब्रह्मच री श्रीके शव नन्दजी एवं सववशलिस्वरूपजी अये हुए थे। ईस व्यस्तत में भी ईन्होंने ऄके ले में दोनों को बल ु कर पज्ू य श्रीचक्रजी ब ब कम लस्थलत क अभ स कर लदय । डॉ० ब्रह्मदि भैय श्रीचक्रजी को देखकर आलकमस लदनों के ब द एक घटं े को लडस्पेन्सरी चले गये थे। च र बजे कटोरी से दो-च र घंटू दधू ही पी सके लक ऄच नक लहचकम अयी। पनु ः ऄपने को सूँभ लकर दो-च र घंटू लपये और मन कर लदय । श्व सकम गलत बढ़ी और धीरे -धीरे लहचकम अनी प्र रम्भ हो गयी। लेट ज नेपर सबने देख लक ईदर भी फूलने लग है। पज्ू य श्रीचक्रजीब ब कम लस्थलत देखकर घबड़ कर मन्ु नी जीजी ने भैय ब्रह्मदि को ईसी समय ज कर फोन से सब बत य । ह लत सनु ते ही ब्रह्मदि भैय को लग जैसे पैरोंसे जमीन लखसक गयी है, स र ब्रह्म डड घमू रह है। लसरमें एक ऄजीब-स चलकर अ गय । एक लमनट में ऄपने को सयं त करके तरु न्त रृदय रोग लवशेषज्ञ डॉ० मक े लदय –मैं घर ज रह ह,ूँ अप ु े श जैन को फोन पर संदश तरु न्त घर पहुलूँ चये। डॉ० मक ु े श के घर पहुचूँ ने तक 5 लमनटके ऄन्तर से दोनों उपर 87

किमें पहुचं े। ईन्होंने इ०सी०जी० लकय और कइ प्रक रकम दव एूँ आन्जेलशन से ड लकर ग्लक ू ोज चढ़ न प्र रम्भ कर लदय । सब व्यवस्थ मलं दर से सटे किमें ही थी। 22 लसतम्बर कम र त दो बजे संकेत से श्रीचक्रजी ने ऄस्फुट स्वरमें पष्ु प म ूँगे। ईस समय ठ कुरजी कम छोटी-सी बगीची में चमेली के श्वेत पष्ु प लखले थे। ईन्हें तरु न्त ल कर ईनके करों में थम लदये। ईन्होंने भ वलवभोर होकर लील र ज्य में खोये हुए से कौशेय अस्तरणपर ससु लज्जत लवर जम न कन्ह इ को बड़े प्रेमसे लनह र , ईनक द लहन कलम्पत कर पष्ु प सलहत दल ु र भर अशीव वद देने को बढ़ , स थ ही रसभरी व णी से मन्दस्वर में रुक-रुक कर ऄनजु पर ल ड़-ल ललत भरे ईद्ग रों के सरस सौरभ लबखरने लगेपटपीत धरे घन सन्ु दर हे! दृग पद्म ििशाल दृगञ्चल हे! मुरलीधर गोरज मिण्डत हे! कौस्तुभ धर ज्योित हृदय में रहे! ईस समय कम भ वमयी लस्थलत देखते ही बनती थी। लचि तो ऄलचन्त्य ऄलनववचनीय अनन्द सधु में लनमग्न थ , तब रुग्णत के कि कम ऄनभु लू त कौन करे ? लवच र-शलि ऐसी सजग एवं सलक्रय थी लक भीष्म-स्तलु तके श्लोक ऄस्फुट स्वरमें स्वतः लनकल रहे थे, स थ ही गजेन्द्रमोिके श्लोक ऄस्फुट स्वर में लनकलते हुए भी स्पि सनु ने में अ रहे थे।

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23 लसतम्बर क प्र तःक ल ईनके जीवन क प्रथम लदन थ जब दैलनक पजू करने में ऄसमथव थे। ईन्होंने मन्ु नी जीजी को अदेश लदय - आसे (कन्ह इ) स्न न कर कर भ गवत क प ठ सनु दो। वे शय्य पर लेटे हुए प ठ-श्रवण करते रहे। प्र तः 9 बजे डॉ० मक ु े श जैनको लेकर ब्रह्मदि भैय अ गये। ईन्होंने न ड़ी परीिण और इ०सी०जी० लकय । डॉ० मक ु े श जैन ने कह -लगत है लक अज कम र त पज्ू य ब ब श्रीचक्रजी ऄपनी सक ं ल्पशलि से ही रुक गये हैं, ऄन्यथ आस लस्थलत में कभी भी कुछ हो सकत है? 24 लसतम्बर क प्र तःक ल- ईनके मख ु मडडल पर ऄद्भुत लनलश्चन्तत , ऄलौलकक प्रसन्नत , सहज गम्भीरत , तेजोमय अभ पररललित हो रही थी। श रीररक कि होनेपर भी शरीर क भ न नहीं थ । मन अनन्दलसन्धु कम प वन स्मलृ तमें लनमग्न थ । रोम-रोम कन्ह इ कम स्मलृ त में छके थे। एक स्पि स्वर लनःसतृ हो ज त - कनंू ... अ... रह ... हूँ तेरे... प स। गजेन्द्रमोि एवं भीष्मस्तलु तके श्लोक स्वतः लनकल रहे थे। ईनकम लवच रशलि और म नलसक स्मलृ तक ऄद्भुत सन्तल ु न देखकर डॉलटरों क रृदय श्रद्ध लभभतू होकर स्वतः झक ु जत थ। 24 लसतम्बरको स यक ं ल पनु ः ज ूँच क क्रम चल । सभी ने हत श होकर ब्रह्मदि भैय को लस्थलत से ऄवगत कर य जो पहले ही सब समझ कर लनर श से लसरपर ह थ रखकर बैठ गये थे। परू ी र त सब ज गते हुए पल-पल पज्ू य ब ब कम गलतलवलध और भ वों को देख रहे थे। मन-ही-मन सवेश्वरको मन रहे थे। 25 लसतम्बर क प्र तःक ल बड़ द रुण, वेदन पणू व, लनर श से भर थ । लहचकम कम गलत कुछ तीव्र हो गयी थी। ईदर क फूलन भी ईपच र से कम नहीं हुअ। आतने 89

कि में भी 'अह' 'कर ह' क न म नहीं थ । मख ु -मडडल पर ऄसीम श लन्त एवं लनलश्चन्तत थी। ईनके जीवन क एक-एक श्व स, ईनके रृदय क एक-एक शब्द ऄपने परम र ध्य श्य मसन्ु दर कम स्मलृ त में लनमग्न थ । ऄहलनवश ऄनवरत ईन्हीं के लचन्तन में कभी भीष्मस्तलु तके श्लोक, कभी गोलवन्द अलद न म लनकल रहे थे। मध्य ह्न लगभग ब रह बजे पररचय वरत लोगोंको लग लक कुछ बोलन च हते हैं। समीप ज कर धीरे से पछू - अप लय च हते हैं? लशलथल स्वर, लकन्तु प्रसन्न मन से पछू - 'एक दशी कब?' ऄन्तव्यवथ को छुप ये मन्ु नी जीजी ने तरु न्त बत य - ब ब ! एक दशी अज ही है। पज्ू य ब ब श्रीचक्रजी क ईल्ल स देखकर ऐस लग - जैसे प्र ण न्तक पीड़ से त्र ण प ने को 'प्र ण-सजं ीवन रूपी स ूँवररय ' क स लन्नध्य लमल रह हो। मन, प्र ण, अत्म तो पहले से ही समलपवत थे, लकन्तु ऄब तो तन कम अहुलत भी ऄपने जीवन-सववस्व को ऄलपवत करने कम अतरु त में हैं। भ व-भीने स्वर में बोले, ‘तब ठीक है।’ जैसे आसी िण कम प्रतीि हो, गहरी भ व लनमग्नत में ही रृदय कम सरस ऄलन्तम ऄलभल ष कम ऄलभव्यलि करते हुए संकेत से ऄपने पजू लवग्रह कन्ह इ के लचत्रपट को समीप ल ने क संकेत लकय । पष्ु प-सज्ज से ससु लज्जत ऄपने प्र णधन को कलम्पत करों से सूँभ लते हुए विःस्थल से लग कर सद कम भ ूँलत ऄक ं म ल देते हुए अशीव वद कम झड़ी लग दी मन-ही-मन। ब ह्यरूप से ईनके ऄधरों से लनःसतृ व णी हम लोगों के कणव-कुहरों में गंजू ी गोलवन्द... अ रह ह.ूँ .. कनूँू मेरे... बस वे ऄलौलकक लदव्य भ वों के ऄलनववचनीय अनन्द में ऐसे लीन हुए लक सद -सद के ललये नेत्र पटल बन्द हो गये। प्रदोष बेल अते-अते श्व स कम गलत तीव्र होती गयी। चरण बफव के सम न ठंडे होने लगे। ईधर, पं० लशवेन्द्रदेव लमश्र के ऄन्तमवन में अभ स हुअ लक श्रीचक्रजी ब ब 90

धर ध म छोड़कर मह प्रय ण करनेव ले हैं। वे दो लदनसे अ नहीं सके ईन्हें देखने और तेजी से लगरते स्व स्थ्य कम गम्भीरत क अभ स भी नहीं थ , बीम र हैं, डॉलटर ईपच र कर रहे हैं, कोइ लवशेष ब त नहीं है- ऐस ही मलस्तष्क में थ , लकन्तु तीव्रत के स थ मन में ऐस अभ स हुअ लक बस... ऄब नहीं, ऄब नहीं। वे तरु न्त कॉलेज से घर न ज कर सीधे र मलनकंु ज अये और ब्रह्मदि भैय से बोले- भैय ! एक दशी कम पडु यतम वेल में ऄभी नौ बजकर पन्द्रह लमनट तक श्रेष्ठ समय है। लगत है- पज्ू य ब ब आसी समयकम प्रतीि में हैं। यलद वे संकल्प-शलि से रुक भी गये तो प्र तः तीन बजे क समय भी ऄच्छ है। सम्भवतः ईस समय ...। ब ब ने कह भी थ – जीवन में मैंने एक दशी को नहीं छोड़ है तो एक दशी मझु े कै से छोड़ेगी? स्मरण है अपको? मेरे स मने ही तो कह थ । आस व त वल प के पश्च त ही दोनों पज्ू य श्रीचक्रजी के किमें अ गये। सहस र लत्र अठ बजे से श्व स-गलत उध्ववग मी हो गयी। मूँदु ै हुए नेत्र स्वतः ऄचेतन ऄवस्थ में शनैः-शनैः खल ु ते गये। पलकों क संच लन बन्द थ । ईस समय समस्त पररकर ब्रह्मच री श्रीके शव नन्दजी, हररन र यणजी गोयल, डॉ० लशवदेव शम व तथ और भी घर-ब हरके लोग किमें ईपलस्थत थे। सभी लकंकतवव्यलवमढ़ू से मक ू भ व से लनह र रहे थे। कइ छतपर परस्पर ऄपनी वेदन व्यि कर रहे थे, लकन्तु कि में सघन नीरवत व्य प्त हो गयी थी। आतने जनोंके रहनेपर भी स्तब्धत क सघन व त वरण थ । श लन्त एवं नीरवत आतनी सघन थी लक मन कम चंचलत , संकल्प-लवकल्प भी बन्द हो गये। ईसी समय कि ऄन य स ही लदव्य प्रक श से ऐस भर गय लक कि कम जलती हुइ ट्यबू ल आटें और बल्ब लबल्कुल लनस्तेज हो गये। के वल प्रक श ही नहीं, ऄलपतु लदव्य गन्ध से व त वरण पररपणू व हो गय । ठीक नौ बजकर प ूँच लमनट पर श रीररक पीड़ से 91

यि ु श्रीचक्रजी ब ब के मख ु मडडल पर ऄसीम श लन्त, लल ट पर तेज झलक रह थ । ईनके मख ु से ऄस्पि स्वर गो... लव...न्द के स थ रि बमनकम ध र लनकली, लजसे ब्रह्मदि भैय ने वह्ल लेकर स फ कर लदय और धीरे से स्वतः ईनक लसर द लहनी ओर झक ु गय । आसके स थ ही सबको ज ने लय हुअ लक ईनके स्वरके स थ सभी लोगों के मख ु से एक स थ 'गोलवन्द' 'श्रीकृष्ण' 'श्य मसन्ु दर' ये भगवन्न म ऄपने-अप जोर-जोर से ईच्चररत होते रहे। पज्ू य श्रीचक्रजी ब ब के नेत्रों से एक लदव्य ज्योलत लनकली और ऄनन्त क श में सम गयी। ईधर, ब्रह्मदि भैय कम बलहन ईलमवल सीलढ़य ूँ चढ़कर उपर पहुचूँ ी ही थीं। ईनक एक पैर छत कम ओर ज नेव ले द्व र पर थ और दसू र छतपर रख ही थ लक ईन्होंने देख -अूँखों को चक चौंध करनेव ली एक लदव्य ज्योलत श्रीचक्रजी के कि-द्व र से लनकलती हुइ ऄनन्त अक श में लवद्यतु ् गलतसे चली गयी। ऄनज ने में ही ईलमवल दीदी ने ईस लदव्य तेजको देखकर स्वतः ह थ जोड़ ललये और मनमें अय - ऄभी तो अक श में ब दल-लबजली कुछ भी नहीं है, लफर यह तीव्र प्रक श कै से हुअ? वे ऄव क् स्तब्ध खड़ी रहीं एक िण। लफर दो पद अगे बढ़कर वे श्रीचक्रजी के कि में प्रलवि हुइ ं तो ज्ञ त हुअ ऄभी-ऄभी आसी िण श्रीचक्रजी क मह प्रय ण हो गय और भगवन्न म कम गजंू चल रही थी। ऄब वे मन-ही-मन समझ गयीं लक मैंने जो ज्योलत देखी, वह पज्ू य श्रीचक्रजी ब ब कम प्र ण-ज्योलत ही थी। ॎॎॎ

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